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राष्ट्रपति चुनाव की चुनौती

विपक्ष की संख्या से आगे जाने की कोशिश में भाजपा

पाँच में से चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने अब राष्ट्रपति चुनाव पर नज़र गड़ा दी है। उसके पास आज की तारीख़ में 9,194 वोट-वैल्यू (मत-मूल्य) की कमी है, जिसे वह दूसरे दलों से जुटाने की कोशिश कर रही है; जबकि विपक्ष उसे कड़ी चुनौती देने के लिए मैदान में उतरना चाहता है। हालाँकि एकजुटता की कमी से ऐसा करना विपक्ष के लिए आसान काम नहीं होगा।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई को ख़त्म हो रहा है और भाजपा में अभी से पार्टी उम्मीदवार को लेकर चर्चा शुरू हो गयी है। भाजपा के लिए राष्ट्रपति का चुनाव निश्चित ही इज़्ज़त का सवाल है।

चर्चा है कि भाजपा देश में विधानसभा के सबसे ज़्यादा वोट-वैल्यू वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विपक्ष के एक घटक दल के अलावा वाईएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल से भी सहयोग की कोशिश कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 273 विधायक हैं। इसका महत्त्व इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में आबादी के सापेक्ष प्रति विधायक वोट-वैल्यू 208 है, जो देश की किसी के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा है। हाल में जो चुनाव हुए हैं, उनमें उत्तर प्रदेश विधानसभा के वोटों की कुल वैल्यू 83,824, पंजाब की 13,572, उत्तराखण्ड की 4,480, गोवा की 800 और मणिपुर की 1,080 है। इनमें से चार (उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर) राज्य भाजपा ने जीते हैं। हालाँकि पिछली बार के मुक़ाबले उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में उसकी सीटें घटी हैं। इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा को 57 सीटों का नुक़सान हुआ है, तो उत्तराखण्ड में भी नौ सीटें कम हुई हैं।

विपक्ष की तरफ़ से हाल में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा को चुनौती दी थी कि विपक्ष उसे कड़ी टक्कर देगा। उन्होंने यह भी कहा था कि विपक्ष के पास भाजपा गठबंधन के मुक़ाबले ज़्यादा वोट हैं। हालाँकि विपक्ष में जैसा बिखराव है, उससे भाजपा की राह आसान लगती है। लेकिन यदि विपक्ष ठान लेता है कि भाजपा को मात देनी है, तो भाजपा के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है; क्योंकि बीजू जनता दल (बीजद) जैसे दलों ने हाल के महीनों में भाजपा से कुछ दूरी बनायी है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों की विधानसभाओं के मिलाकर कुल 10,92,639 वोट हैं, जिसमें जीत के लिए 5,46,000 वोट चाहिए। एनडीए के पास वर्तमान में 5,36,467 वोट हैं। इस तरह उसके पास 10,000 से कुछ वोट कम हैं। हालाँकि मार्च के आख़िर में भी राज्यसभा के चुनाव होने हैं, जिसके बाद संख्या ऊपर-नीचे होगी। आम आदमी पार्टी की सरकार पंजाब में बनने के बाद उसके राज्यसभा सदस्यों की संख्या बढ़ जाएगी। कुछ और सीटों के लिए भी चुनाव हैं, जिनमें भाजपा की संख्या भी बढ़ेगी। हालाँकि उसे फिर भी वोटों की ज़रूरत रहेगी।

भाजपा का प्रबंधन मज़बूत

हाल के वर्षों का रिकॉर्ड देखें, तो भाजपा का प्रबंधन विपक्ष से कहीं बेहतर दिखा है। चाहे राज्यसभा के चुनाव का मसला हो या राज्यसभा में बहुमत के अभाव में बिलों को पास कराने की बात, भाजपा ने कभी मात नहीं खायी है। सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ था, जब गुजरात के राज्यसभा चुनाव में उसे दिवंगत अहमद पटेल की रणनीति के आगे हार माननी पड़ी थी। ऐसे में भाजपा को बहुमत के लिए और वोटों की ज़रूरत होते हुए भी विपक्ष उसे राष्ट्रपति चुनाव में मात देने के प्रति सन्देह में है। इसका कारण भाजपा का मज़बूत प्रबंधन है। उसने अभी से एनडीए से बाहर कुछ दलों को अभी से साधना शुरू कर दिया है। जबकि विपक्ष में अभी राष्ट्रपति चुनाव के लिए यही पता नहीं है कि क्या उसका कोई साझा उम्मीदवार होगा? होगा भी, तो कौन? ममता को छोडक़र किसी अन्य विपक्षी नेता ने राष्ट्रपति चुनाव की बात नहीं की है।

भाजपा शासित उत्तर प्रदेश की आबादी सबसे अधिक होने के चलते इसके एक विधायक की सर्वाधिक वोट-वैल्यू 208 है। इस तरह से 403 विधायकों की कुल वोट वैल्यू 83,824 है। वहीं 80 लोकसभा सदस्य और 30 राज्यसभा सदस्य हैं। एक सांसद की वोट-वैल्यू 708 है। इस तरह से सांसदों की कुल वोट-वैल्यू 77, 880 है। ज़ाहिर है भाजपा का पलड़ा यहाँ भारी है।

उत्तर प्रदेश में विपक्षी सपा गठबंधन की बात करें, तो समाजवादी पार्टी के पास 111 विधायक हैं। सपा के कुल विधायकों की वोट-वैल्यू 23,088 है।

इसी गठबंधन के एक अन्य दल रालोद के पास आठ विधायक हैं, तो उनकी वैल्यू 1,664 हो जाती है। यह चर्चा रही है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा रालोद पर डोरे डाल सकती है। इस गठबंधन के सुभासपा के पास छ: विधायक हैं, जिनकी वोट-वैल्यू 1,248 होती है। राज्य में बसपा के 10 सांसद हैं, जिनकी वोट-वैल्यू 7,080 है। इसके अलावा सपा के पाँच सांसदों की वोट-वैल्यू 3,540 है। इसके अलावा बसपा के पास राज्य में मात्र एक विधायक है, तो उसके विधायक की वोट-वैल्यू 208 है। वहीं कांग्रेस के दो विधायकों की वोट-वैल्यू 416 और राजा भैया के जनसत्ता दल लोकतांत्रिक पार्टी के दो विधायकों की वोट-वैल्यू भी 416 है। उसका एक सांसद भी है, जिसकी वोट-वैल्यू 708 है।

बता दें कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए सांसदों और विधायकों के लिए वोट-वैल्यू 1971 की जनगणना के आधार तय किया गया है। हर राज्य के विधायक का वोट-वैल्यू वहाँ की जनसंख्या के चलते अलग-अलग होता है। जबकि प्रत्येक लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों का वोट-वैल्यू 708 निर्धारित है।

चुनाव की प्रक्रिया

देश का कोई भी नागरिक, जिसकी उम्र 35 साल या इससे अधिक है, राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ सकता है। उम्मीदवार को राज्य या केंद्र सरकार के तहत किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रक्रिया के तहत होता है। चुनाव करने के लिए एक निर्वाचक मंडल होता है। संविधान के अनुच्छेद-54 में इसके बारे में बताया गया है। राष्ट्रपति चुनाव में जनता सीधे तौर पर चुनाव में शामिल नहीं होती।

जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों (सांसद और विधायक) राष्ट्रपति चुनने के लिए वोट डालते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में सभी राज्यों के विधायक, लोकसभा सदस्य और राज्यसभा सदस्य वोट डालते हैं। राष्ट्रपति द्वारा संसद में नामित (मनोनीत) सदस्य वोट नहीं डाल सकते। विधान परिषद् के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते, क्योंकि वे जनता द्वारा चुने हुए नहीं होते। चुनाव के लिए ख़ास तरीक़े से वोटिंग होती है, जिसे एकल संक्रमणीय मत व्यवस्था (सिंगल ट्रांसफेरेबल वोट सिस्टम) कहते हैं।

इस प्रक्रिया में वोट देने के साथ ही वोटर अपनी प्राथमिकता भी तय कर देते हैं। मतलब वोट देने वाले सदस्य वोट देते वक़्त बैलेट पेपर पर अपनी पसन्द क्रमानुसार लिख देते हैं। यदि उनकी पहली पसन्द वाले वोटों से विजेता का फ़ैसला नहीं हो पाता है, तो उनकी दूसरी पसन्द वाले उम्मीदवार को एकल मत (सिंगल वोट) की तरह मान लिया जाता है।

 

कौन हो सकता है उम्मीदवार?

चर्चा है कि क्या एनडीए रामनाथ कोविंद को फिर से राष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार बनाएगा? भाजपा इसे लेकर अपने सहयोगी दलों के साथ विचार करके आम सहमति बनाने की कोशिश करेगी। कोविंद के अलावा पार्टी उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का नाम भी चर्चा में है। भाजपा के हलक़ों में यह भी चर्चा है कि किसी महिला को उम्मीदवार बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की टीम की पसन्द देखें, तो उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण के नाम सामने आ सकते हैं। हाँ, पटेल के नाम पर यह दिक़क़त हो सकती है कि वह भी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात से हैं। लेकिन महिला के नाम पर विपक्ष में भी सर्वसम्मति बन सकती है। कांग्रेस अपना उम्मीदवार देने के लिए जोर डाल सकती है। जहाँ तक विपक्ष की बात है, उसके ख़ेमे से शरद पवार, नीतीश कुमार जैसे नेता का नाम उभर सकता है। विपक्षी दलों में टीएमसी, डीएमके, शिवसेना, टीआरएस उम्मीदवार खड़ा करने में अहम रोल निभा सकते हैं।

जल संकट को हल्के में लेना पड़ेगा भारी

हाल ही में 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया गया। इस दिवस की शुरुआत 22 मार्च, 1993 से हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर किसी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के लिए इस अभियान की शुरुआत की थी। इस दिवस पर विश्व भर में लोगों को जल संरक्षण और गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के बारे में जागरूक किया जाता है। विश्व जल दिवस के मक़सद से साफ़ हो जाता है कि दुनिया में पानी का संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। आज दुनिया में 220 करोड़ लोगों के पास पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है। इधर संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्य-6 के तहत जल संकट का सामना कर रहे करोड़ों लोगों को साल 2030 तक पीने का स्वच्छ पानी मुहैया कराने का बड़ा लक्ष्य रखा है। बडा़ सवाल यह है कि क्या दुनिया के तमाम देश इस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन प्रयासों से क्या अपेक्षित नतीजों की उम्मीद की जा सकती है?

दरअसल जल संकट के समाधान में जल प्रबंधन की अहम भूमिका होती है। इस समस्या को अक्सर एक सामाजिक समस्या के तौर पर देखा जाता है, जिसके स्वास्थ्य पर तात्कालिक व दूरगामी प्रभाव की पुष्टि कई अध्ययन भी करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में क़रीब 200 करोड़ लोग गंदा पानी पीने से बीमार होते हैं। दूषित जल के कारण हर साल डायरिया से 4.85 लाख मौतें होती हैं। दुनिया भर में 36.8 करोड़ लोग असुरक्षित कुओं व अन्य खुले स्रोतों से पानी लेते हैं। जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ पीने के साफ़ पानी की कमी की समस्या की गम्भीरता को इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि दुनिया की 19 फ़ीसदी आबादी भारत में रहती है, जिसके पास पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, देश की महज़ 50 फ़ीसदी आबादी को ही साफ़ पानी मिलता है।

नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में साल 2030 तक 60 करोड़ लोगों को भयंकर जल संकट से जूझना पड़ सकता है। यानी महज़ 10 साल बाद यह समस्या और भी बढ़ सकती है। इस और भी ध्यान देना होगा कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत ऐसा देश बनने जा रहा है, जहाँ दुनिया के हर देश से अधिक आबादी होगी। आबादी बढऩे का मतलब अधिक पानी की ज़रूरत। इसमें कोई दो-राय नहीं कि देश के सामने खड़ी कई बड़ी चुनौतियों में से एक जनता को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराना भी है। इसी चुनौती के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2019 को जल जीवन मिशन (जेजेएम) की घोषणा की थी। इस मिशन के तहत देश के सभी ग्रामीण घरों (क़रीब 19.22 करोड़ घरों) में 2024 तक नल से जल पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है। मगर साथ ही साथ जल-स्रोतों की निरंतरता बनाये रखना भी इसका अनिवार्य हिस्सा है। इसके अंतर्गत वर्षाजल संचयन और जलसंरक्षण के ज़रिये जल-स्रोतों के पुनर्भरण को सुनिश्चित किया जाता है। इसके साथ ही ग्रेवॉटर प्रबंधन के द्वारा गंदे पानी का पुनरुपयोग किया जाता है। सन् 2019 में मिशन की शुरुआत में देश के 19.22 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से केवल 3.23 करोड़ यानी महज़ 17 फ़ीसदी के पास तक ही नल से जल की आपूर्ति थी।

कोरोना महामारी और उसके कारण होने वाली तालाबंदी का असर तक़रीबन हरेक गतिविधि पर पड़ा। जल जीवन मिशन का कार्य भी कुछ हद तक प्रभावित हुआ। लेकिन प्रतिकूल पारिस्थितियों के बावजूद इस मिशन के तहत अब तक नौ करोड़ से अधिक ग्रामीण घरों में नल से जल आपूर्ति शुरू हो चुकी है। यानी 47.83 फ़ीसदी ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति हो रही है। भारत सरकार की चिन्ता ग्रामीण घरों के साथ-साथ शहरों के उन घरों तक भी नल से जल की आपूर्ति का बंदोबस्त करना है, जहाँ यह उपलब्ध नहीं है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी, 2021 को संसद में पेश आम बजट में शहरी क्षेत्रों के लिए एक सार्वभौमिक जल आपूर्ति योजना की घोषणा की। इस मिशन का लक्ष्य एक सर्वव्यापी जलापूर्ति योजना के तहत 4,378 शहरी निकायों के 2.86 करोड़ शहरी घरों में नल के ज़रिये पीने का साफ़ पानी उपलब्ध कराना है। इस योजना की अवधि 2021-2026 यानी पाँच साल है। जल जीवन मिशन (ग्रामीण) की अवधि 2019-2024 यानी पाँच साल ही है। आँकड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि आँकड़े सुधार करने के साथ-साथ कार्यक्रमों के प्रदर्शन को आँकने का एक मौक़ा मुहैया कराते हैं। बहरहाल जेजेएम ग्रामीण के 21 मार्च, 2022 के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में नौ करोड़ से अधिक ग्रामीण परिवारों को नल से जल उपलब्ध कराया जा रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि देश के तीन राज्यों- तेलगांना, हरियाणा व गोवा और तीन केंद्र शासित प्रदेशों- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दादरा और नागर हवेली, दमन और दीव तथा पुडुचेरी के सभी ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति की गयी है।

वैसे भारत के मानचित्र पर ग्रामीण इलाक़ों के घरों में नल से जल की आपूर्ति को लेकर निगाह डालें, तो 15 अगस्त, 2019 की स्थिति और 21 मार्च, 2022 की स्थिति के फ़र्क़ दिखता है। लेकिन फिर भी चिन्ता बनी हुई है। घरेलू नल कनेक्शन प्रदान करने के मामले में विभिन्न राज्यों की 21 मार्च, 2022 तक तुलनात्मक स्थिति बताती है कि देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, जिसकी आबादी क़रीब 23 करोड़ है; जल जीवन मिशन में सबसे पीछे है। डबल इंजन की सरकार वाले इस राज्य में ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति का आँकड़ा 13.42 फ़ीसदी है। हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में किसी भी चुनावी रैली में न तो प्रधानमंत्री मोदी ने और न ही प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने जनता को इस बाबत बताया। वहीं पंजाब, गुजरात, बिहार और हिमाचल प्रदेश ने नल जल में 90 फ़ीसदी से ऊपर का लक्ष्य हासिल कर लिया है। इस मामले में राजस्थान ने 23.14 फ़ीसदी और पश्चिम बंगाल ने 20.96 फ़ीसदी लक्ष्य ही अब तक हासिल किया है। छत्तीसगढ़ ने 20.06 फ़ीसदी व झारखण्ड ने 19.53 फ़ीसदी ग्रामीण घरों तक ही नल से जल मुहैया कराया है। उत्तर प्रदेश इन सबसे भी पीछे खड़ा है। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के अनुसार, मणिपुर, मेघालय और सिक्किम चालू वर्ष यानी 2022 के अन्त तक हर ग्रामीण घर में नल से जल वाला लक्ष्य हासिल कर लेंगे। असम 2024 में इस लक्ष्य को हासिल करेगा। वैसे जल जीवन मिशन जैसे सामाजिक आन्दोलन के तहत बच्चों के स्वास्थ्य और उनकी देखभाल पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्कूलों, आँगनबाड़ी केंद्रों में नल से शुद्ध जल की आपूर्ति को प्राथमिकता के आधार पर लागू किया जा रहा है।

जल जीवन मिशन अब जन आन्दोलन के रूप में चलाया जा रहा है। सिर्फ़ पानी ही उपलब्ध नहीं कराया जाए, बल्कि पानी की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की भी व्यवस्था की गयी है। फील्ड टेस्ट किट का इस्तेमाल करके पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए 8.5 लाख से अधिक महिला स्वयं सेवकों को प्रशिक्षित किया गया है। वे नमूने इकट्ठे कर पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपूर्ति किया जा रहा जल निर्धारित मानकों के अनुसार है या नहीं। आज देश में 2,000 से अधिक जल परीक्षण प्रयोगशालाएँ हैं, जो पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए मामूली क़ीमत पर जनता के लिए उपलब्ध हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि पानी तो कम हो रहा है, जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर साफ़ नज़र आ रहा है। ऐसे में सरकारी मिशनरी क्या करेगी? नल लग रहे हैं, ठीक है। लेकिन उन नलों में सतत स्वच्छ पानी की व्यवस्था करना भी बहुत बड़ी चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अगले तीन दशक में अगर पानी का उपभोग एक फ़ीसदी की दर से भी बढ़ता है, तो दुनिया को गम्भीर जल संकट का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसका कारण जलवायु परिवर्तन और झील और जलाशयों का ख़त्म होना होगा। भारत में सन् 1947 में 24 लाख तालाब थे। लेकिन आज यह संख्या घटकर महज़ पाँच लाख रह गयी है। इसमें से 20 फ़ीसदी तालाब बेकार वाली सूची में आ चुके हैं। कई नदियाँ सूख चुकी हैं और कई सूखने के कगार पर हैं। नदियों में गन्दगी तो ख़ैर चरम पर है। इस ओर भी सरकार तथा लोगों को भी ध्यान देना चाहिए।

कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश

नाराज़ नेताओं को साथ जोडऩे की क़वायद में जुटा गाँधी परिवार

कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बचे दो साल में पार्टी संगठन को दोबारा खड़ा करने की क़वायद में जुट गयी है। इसके तहत युवा नेतृत्व और युवा टीम की मुहिम को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी है। पाँच राज्यों के चुनाव नतीजों ने चिन्तित कांग्रेस को झिंझोडक़र रख दिया है। गाँधी परिवार भी महसूस कर रहा है कि साझे नेतृत्व के साथ आगे बढऩा अब पार्टी की ज़रूरत है। हालाँकि यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस का युवा नेतृत्व फेल हो गया। लेकिन इस नेतृत्व को माहिर रणनीति बना सकने वाले सलाहकार नहीं मिल सके। जी-23 नेता भले गाँधी परिवार पर अब सवाल उठाते हों; लेकिन परिवार के समर्थक कहते हैं कि भाजपा के नेता जब भी कांग्रेस पर हमला करते हैं, उनके सामने राहुल गाँधी ही खड़े रहते हैं। सरकार को देश के हर महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर पूरे विपक्ष में यदि किसी नेता ने पूरी ताक़त से घेरा है, तो वह राहुल गाँधी ही हैं।

कांग्रेस में अब साझे नेतृत्व की गम्भीर कोशिश होने लगी है और जी-23 के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी के साथ मिलकर संगठन चुनाव तक पार्टी की नयी टीम गठित में जुट गये हैं। सितंबर के संगठन चुनाव में कांग्रेस इस नयी टीम की घोषणा करेगी। लेकिन उससे पहले ही कुछ आमूल-चूल परिवर्तन संगठन में किया जा सकता है।

पार्टी से बाहर किये गये लोगों को वापस लाने की कोशिश शुरू करने के साथ-साथ अनुभवी नेताओं को संगठन में उच्च पद देने की तैयारी पार्टी करने जा रही है। ऐसे में हो सकता कि अभी तक बिना किसी बड़े ओहदे पर बैठे होने के बावजूद पार्टी के सभी फ़ैसले लेने वाले राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को उनकी भूमिकाएँ समझा दी जाएँ। हाँ, यह हो सकता है कि सितंबर में होने वाले अध्यक्ष के चुनाव में राहुल गाँधी को ही उतारा जाए। लेकिन उन्हें संगठन को चला सकने और चुनाव जिता सकने वाले सलाहकार दिये जाएँगे, न कि उनकी मर्ज़ी के।

हाल के वर्षों में कांग्रेस से बाहर किये गये नेताओं को वापस संगठन में लाने के क़वायद भी हो सकती है, ताकि अनुभवी और युवा नेताओं को मिलाकर एक मज़बूत टीम खड़ी की जा सके, जो भाजपा को चुनौती दे सके। हाल के वर्षों में दो दर्ज़न से ज़्यादा प्रभावशाली नेता कांग्रेस से बाहर गये हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी थे, जिनका अच्छा जनाधार था। वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि संगठन चुनाव से पहले पार्टी से बाहर गये वरिष्ठ नेताओं को साथ जोडऩे की मुहिम शुरू की जाए।

कांग्रेस इस बात को लेकर दुविधा में है कि भाजपा के ख़िलाफ़ सामूहिक गठबंधन का हिस्सा हुआ जाए या नहीं। कारण यह है कि टीएमसी नेता ममता बनर्जी, जो तीसरे मोर्चे के गठन के लिए काफ़ी उत्सुक हैं; कांग्रेस को साथ लेने के लिए गम्भीर नहीं हैं। ममता ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा गठबंधन बनाने के हक़ में दिखती हैं, जिसमें कांग्रेस और वाम दलों को वह नहीं चाहतीं। कांग्रेस में इस समय जी-23 के नेता तीन तरह के हैं। एक वे, जो गाँधी परिवार से पार्टी को मुक्त करने के हक़ में हैं। दूसरे वे, जो गाँधी परिवार के साथ मिलकर और सभी वरिष्ठ नताओं को तरजीह देकर इसे मज़बूती देने के समर्थक हैं। तीसरे वे हैं, जो मौक़ा देखकर किसी भी दल में जा सकते हैं। जी-23 गुट में सबसे ज़्यादा वो नेता हैं, जो सभी वरिष्ठ नेताओं को तरजीह देकर और गाँधी परिवार के साथ मिलकर कांग्रेस को मज़बूती देना चाहते हैं। ग़ुलाम नबी आज़ाद के ज़रिये इसकी कोशिश शुरू होती भी दिखी है।

राहुल-प्रियंका की भूमिका

गाँधी परिवार के वे वफ़ादार, जो राहुल-प्रियंका के ज़रिये पार्टी में मज़बूत हैं; वरिष्ठ नेताओं की वापसी नहीं चाहते। लेकिन जो नेता गाँधी परिवार के नज़दीकी इन नेताओं के कटु आलोचक हैं, वे पार्टी की वर्तमान हालत के लिए उन्हें ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका आरोप है कि पार्टी जनता से कट गयी है और आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में कांग्रेस के लिए गम्भीर राजनीतिक चुनौती सामने है। यह वरिष्ठ नेता मानते हैं कि कांग्रेस का अभी भी व्यापक जनाधार है। लेकिन इसे सँभाला नहीं गया, तो पार्टी को सिमटते देर नहीं लगेगी। लिहाज़ा इसे सँभालने का बेहतर समय है। कई नेता इसे लेकर आवाज़ उठाते रहे हैं।

जी-23 के नेता हिमाचल के पूर्व मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘आम आदमी पार्टी निश्चित ही कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश में है। लेकिन देश की जनता कांग्रेस को ही भाजपा के विकल्प के रूप में देखती है। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि कांग्रेस को मज़बूत करने की कोशिश न की जाए। हम हाल के वर्षों में कई बड़े चुनाव हारे हैं और हमारा संगठन लचर हुआ है। जनता का हमसे मोह भंग होना गम्भीर चिन्ता की बात है।’

कांग्रेस में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की वर्तमान भूमिकाओं को लेकर भी सवाल हैं। पार्टी में कई नेता मानते हैं कि दोनों निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं और उनके ज़रिये ही राज्यों में नियुक्तियाँ और अन्य फ़ैसले होते हैं। नाराज़ नेताओं का सवाल यह है कि वे किसी ओहदे पर नहीं, फिर वे किस अधिकार से यह फ़ैसले कर रहे हैं? पंजाब का उदाहरण देते हुए यह नेता कहते हैं कि राहुल-प्रियंका के यह फ़ैसले कारगर नहीं रहे। नाराज़ पार्टी नेताओं का मानना है कि संगठन की मज़बूती और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने के लिए हाल के वर्षों में कुछ नहीं हुआ है। बस नेताओं को हटाने और अपनी पसन्द के नेताओं को ओहदों पर बैठाने के अलावा कुछ नहीं हुआ है। इससे संगठन लचर हो गया है और पार्टी में बड़े ओहदों पर ऐसे लोग बैठ गये हैं, जो न तो बेहतर रणनीतिकार हैं और न ही चुनाव जिता सकने वाले नेता।

नाम न छापने की शर्त पर पार्टी के एक सांसद ने कहा- ‘राहुल-प्रियंका तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक राज्यों में संगठन मज़बूत नहीं होगा। मज़बूत नेता, बिना मज़बूत कार्यकर्ताओं के नहीं बन सकता। लेकिन अफ़सोस की बात है कि वर्तमान में गाँधी परिवार के आसपास ऐसे नेता नेता जमे हुए हैं, जिनमें अनुभव और क्षमता दोनों की कमी है। गाँधी परिवार के युवा प्रतिनिधियों (राहुल-प्रियंका) को इन लोगों से पीछा छुड़ाकर अनुभवी नेताओं को साथ जोडऩा होगा।’

इसके अलावा कांग्रेस के भीतर हाल के महीनों में एक और चर्चा से पार्टी को नुक़सान हुआ है। यह है कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के अलग-अलग गुट बनना। पंजाब के मामले में यह साफ़ दिखा था कि राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी के साथ थे, जबकि प्रियंका गाँधी नवजोत सिंह सिद्धू के साथ। आधिकारिक रूप से कभी इसकी पुष्टि नहीं हुई, क्योंकि प्रियंका गाँधी हमेशा ख़ुद को राहुल गाँधी के समांतर दिखाने से बचती रही हैं। कांग्रेस के कुछ नेता यह भी मानते हैं कि राहुल-प्रियंका के बीच खाई पैदा करने की यह भाजपा की चाल थी, वास्तव में दोनों मिलकर काम करते थे। हालाँकि इन सब बातों से इतर कांग्रेस का एक बड़ा सच यह भी है कि उसके पास राष्ट्रव्यापी छवि वाले नेता राहुल गाँधी ही हैं। राहुल गाँधी के आलावा पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं, जिसे पूरे देश में जाना जाता हो। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग है, जो यह मानता है कि भाजपा का नेतृत्व राहुल गाँधी से ही ख़ुद के लिए ख़तरा मानता है। लिहाज़ा एक सुनियोजित योजना के तहत राहुल गाँधी की छवि को ख़राब करने की कोशिश हुई है। उन्हें पप्पू के रूप में बदनाम करना भी इसी का एक हिस्सा है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी कांग्रेस में राहुल गाँधी के ही सबसे ज़्यादा समर्थक हैं। उन्हें पसन्द करने वाले कहते हैं कि राहुल भाषा में सौम्य हैं और वह विपक्षियों पर कटु तरीक़े से हमला नहीं करते। दूसरा सच यह है कि उन्होंने जनता से जुड़े मुद्दों को मरने नहीं दिया है और अकेले ही इन पर हमेशा बोलते रहे हैं। उनके अलावा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही ऐसी नेता हैं, जो भाजपा और मोदी के ख़िलाफ़ मुखर दिखती हैं। अभी यह साफ़ नहीं है कि क्या जी-23 के नेता राहुल गाँधी को अध्यक्ष पद के लिए स्वीकार करेंगे? या फिर वे प्रियंका गाँधी के नाम पर या अपने किसी नेता के नाम पर ज़ोर देंगे?

कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो जी-23 के कुछ नेताओं को ‘भाजपा का एजेंट’ बताते हैं। उनका आरोप है जब भी राहुल गाँधी पर भाजपा के नेताओं ने हमला किया या कांग्रेस को कोसा, यह नेता (जी-23) चुपचाप बैठे रहे। कांग्रेस के एक नेता ने कहा- ‘पार्टी में राहुल गाँधी ही सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। चुनाव हुए और जी-23 ने किसी को उनके ख़िलाफ़ उतारा, तो भी राहुल गाँधी बड़े बहुमत से जीतेंगे।’

कार्यकर्ता मानते हैं कि 2004 में जब कांग्रेस के नेनृत्व में यूपीए सत्ता में आयी थी, तो लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीती थी। उस दौरान विधानसभा चुनावों में भाजपा का भी वही हाल होता था, जो आज कांग्रेस का हो रहा है। केरल से कांग्रेस के एक सांसद ने कहा कि भाजपा के चुनाव जीतने को लेकर भी देश के एक बड़े वर्ग में सवाल हैं। क्योंकि यह सोचने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है, जो यह मानते हैं कि चुनावों में गड़बड़ होती है।

राज्यों में कमज़ोर हुई कांग्रेस

कांग्रेस राज्यों में लगातार कमज़ोर हुई है। सिर्फ़ दो राज्यों में उसकी सरकार है, जबकि कुछ जगह वह गठबंधन में है। ऐसा नहीं कि जहाँ उसकी सरकार नहीं, वहाँ उसका जनाधार शून्य हो गया है। कांग्रेस भाजपा के बाद अभी भी देश में सबसे ज़्यादा विधायकों वाली पार्टी है। भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस विधायकों की संख्या देश में लगभग आधी है। हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश के 18 राज्यों में भाजपा की सरकार है। वैसे जो बड़े राज्य हैं और जहाँ भाजपा जीती है, वे राज्य देश की क़रीब 50 फ़ीसदी आबादी वाले हैं। कांग्रेस का देखें, तो क़रीब 22 फ़ीसदी आबादी वाले राज्यों में उसकी सरकारें या गठबंधन वाली सरकारें हैं। हाल के वर्षों में राज्यों में कांग्रेस से छिटककर गये नेताओं के क्षेत्रीय दल ही सत्ता में हैं। इनमें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश भी शामिल हैं, जहाँ कांग्रेस के पास एक भी सीट नहीं, जबकि वहाँ इससे पहले दशकों कांग्रेस की सत्ता रही है। कांग्रेस ने इन राज्यों में संगठन को फिर से खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं की। संगठन को मज़बूत करने के लिए वहाँ के नेताओं की कोई बैठक तक नहीं हुई। ऐसे में क्षेत्रीय दल ही कांग्रेस पर भारी पड़ चुके हैं और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरह वहाँ कांग्रेस सहयोगी दल की भूमिका निभा रही है, जबकि वहाँ उसकी ख़ुद की वर्षों तक सत्ता रही है।

अब राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेता कांग्रेस को किसी भी सूरत में मज़बूत नहीं होने देना चाहते। उन्हें पता है कि ऐसा होने का मतलब होगा, उनका ख़ुद का कमज़ोर होना। लिहाज़ा इन राज्यों में यह दल कांग्रेस के विरोधी की भूमिका निभा रहे हैं। बिहार में यही हालत है, जहाँ जेडीयू, आरजेडी और भाजपा आज प्रमुख दल हैं; जबकि कांग्रेस पिछलग्गू की भूमिका में। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी भी मानते हैं कि कांग्रेस मोलभाव की ताक़त हासिल किये बिना क्षेत्रीय दलों से बातचीत नहीं कर सकती। चौधरी कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी गठबंधन पर ज़ोर दिया जाना चाहिए; लेकिन मोलभाव की ताक़त हासिल करना ज़्यादा ज़रूरी है। कांग्रेस नेता ने कहा- ‘अगर हम यह सोचते हैं कि क्षेत्रीय दल हमें सत्ता हासिल करने देंगे, तो मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। सत्ता पाने के लिए किसी की दयालुता की नहीं, बल्कि मज़बूत होने की ज़रूरत है।’

ऐसे में यदि अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) का विस्तार और होता है, तो कांग्रेस के लिए निश्चित ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। दिलचस्प और कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण सच यह है कि आम आदमी पार्टी ऐसे राज्यों में ख़ुद को विकल्प के रूप में सामने लाने की कोशिश कर रही है, जहाँ भाजपा की मुख्य विरोधी कांग्रेस है। गुजरात, हिमाचल और राजस्थान में आम आदमी पार्टी ने अपने संगठन के विस्तार के लिए पंजाब में जीत के बाद काफ़ी तेज़ी दिखायी है, जिससे उसकी मंशा ज़ाहिर होती है।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव, जो कभी कांग्रेस में ही थे; हाल के तीन महीनों में काफ़ी सक्रिय हुए हैं। उन्होंने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवा तीसरे मोर्चे के गठन के लिए ली है। ममता बनर्जी के विपरीत राव कांग्रेस के प्रति नरम दिखते हैं और उनका कहना है कि बिना कांग्रेस के भाजपा के ख़िलाफ़ कोई भी मज़बूत तीसरा मोर्चा नहीं बनाया जा सकता। यह राव ही थे, जिन्होंने एक भाजपा नेता की राहुल गाँधी के प्रति विवादित टिप्पणी पर भाजपा नेता को लताड़ लगायी थी।

 

“कांग्रेस ने हमेशा समावेशी और सामूहिक नेतृत्व वाले मॉडल का पालन किया है। पार्टी लगातार आंतरिक चुनाव करा रही है और कोई भी इसमें भाग ले सकता है। यह सही है कि कांग्रेस लगातार चुनाव हारी है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसके लिए सिर्फ़ नेतृत्व ज़िम्मेदार है। नियमित अंतराल पर सीडब्ल्यूसी की बैठकें भी हो रही हैं। भाजपा का लक्ष्य कांग्रेस को ख़त्म करना है। क्योंकि उसे पता है कि उसे सिर्फ़ यही पार्टी टक्कर दे सकती है।’’

                                   अधीर रंजन चौधरी

लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता

 

“हमारा मक़सद देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को बचाना है। मिलकर ही हम ऐसा कर सकते हैं। देश की जनता की कांग्रेस से ढेरों अपेक्षाएँ हैं। भाजपा जिस तरह देश का बँटबारा कर रही है, उसका बहुत नुक़सान आने वाली पीढिय़ों को झेलना होगा। पार्टी में जी-23 जैसा कोई गुट नहीं है। हम कांग्रेस को पुरानी ताक़त देना चाहते हैं। इतनी बड़ी पार्टी में कुछ मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोई पार्टी को तोडऩे की कोशिश कर रहा है। मज़बूत होकर ही हम भाजपा का मुक़ाबला कर सकते हैं।’’

                                  ग़ुलाम नबी आज़ाद

वरिष्ठ कांग्रेस नेता, (‘तहलका’ से बातचीत में)

अब नहीं चलेगी मेयर और पार्षदों की एमसीडी में

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के तीनों जोनों का काम-काज आज से मेयर और पार्षदों के अधिकारों के अधीन नहीं होगा। इससे अब एमसीडी मेंं सारा काम-काज प्रशासन के हाथ में आ गया है। संसद से मुहर लगने के बाद तीनों जोनों को वैसे ही एक करने का आदेश पारित हो चुका है।
ऐसे हालत में चुने हुये पार्षदों और मेयर  के हाथ में न अब तो वित्तीय और विधायी शक्तियां बची है। एमसीडी की राजनीति के जानकारों का कहना है कि दिल्ली की राजनीति में एमसीडी में ऐसा पहला मौका आया है जब एमसीडी का कार्यकाल समाप्त हो गया है। और अगले चुनाव को लेकर अभी तक न तो एमसीडी के चुनाव को लेकर कोई आहट आ रही है।
ऐसे में जो चुनाव में लड़ने के उम्मीदवार है उनको भी इस बात का अंदेशा है कि नये परिसीमन मे कौन सी सीट आरक्षित होती है और कौन सी नहीं होती है। और तो और कौन सी महिला सीट होगी है।  अब ये भी स्पष्ट है कि 272 की जगह 250 सीटों पर चुनाव होगे। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के पार्षद ने बताया कि अगर तीनों जोनों को हटाकर एक ही जोन करना था तो ये काम तो पहले से ही हो सकता था। लेकिन न जाने किसने ये सलाह दी है।
अब ऐसी स्थिति में भाजपा को आप पार्टी के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कहना है कि आप पार्टी की हवा भर बनी थी। जमीनी स्तर पर कुछ नहीं था। भाजपा को उत्तर प्रदेश में मिली जीत का लाभ मिलता। अब एमसीडी पार्षदों की जब नहीं चलेगी तो मौजूदा हालात में मतदाता के खिसकने का कारण बन सकता है। क्योंकि प्रशासन से जुड़े जो अधिकारी वे अपने सीनियर अफसरों की बात मानेगे। न कि पार्षदों और मेयर की । ऐसे में चुनाव में जितना विलम्ब होगा उतना ही भाजपा को सियासी नुकसान होगा।  

समान अवसर की कोशिश में यूजीसी

विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा आयोजित करने के लिए लाया गया प्रस्ताव

भिन्न प्रारूपों में एकरूपता प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) वास्तव में उल्लेखनीय शिक्षा सुधार के रूप में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए एक सामान्य विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) आयोजित करने का एक नया प्रस्ताव लेकर आया है। सभी 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए पहली अनिवार्य आम प्रवेश परीक्षा जुलाई, 2022 के पहले सप्ताह में आयोजित की जाएगी।

सीयूईटी का उद्देश्य समान अवसर प्रदान करना है। उदाहरण के लिए देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए 100 फ़ीसदी तक का कट-ऑफ देखा गया है। कॉलेज में प्रवेश के लिए उच्च कट-ऑफ न केवल अनुचित है, बल्कि कई लोगों के लिए देश छोडक़र विदेश में अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने का एक कारण भी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि देश पहले से ही इतनी प्रतिभाओं को खो रहा है; क्योंकि छात्र उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाते हैं और इसका कारण उच्च कट-ऑफ भी शामिल है। इसका अर्थ है कि एक विद्यार्थी, जिसने 90 फ़ीसदी भी हासिल किया है; वह अच्छे कॉलेज में प्रवेश नहीं ले पाएगा। इसका मतलब यह भी है कि अगर कोई पूरी एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ सकता है, तो उसे 90 फ़ीसदी से अधिक अंक मिल सकते हैं और इस तरह बोर्ड परीक्षा वास्तव में बुद्धिमत्ता का पैमाना नहीं थी।

कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट एक कम्प्यूटरीकृत, बहुविकल्पीय परीक्षा होगी और राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जाएगी। परीक्षा के लिए आवेदन विंडो अप्रैल के पहले सप्ताह में खुलेगी। परीक्षा 13 भाषाओं हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, उर्दू, असमिया, बंगाली, पंजाबी, ओडिया और अंग्रेजी में होगी। यूजीसी का कहना है कि सीयूईटी को राज्य या निजी विश्वविद्यालय द्वारा भी अपनाया जा सकता है, जबकि चर्चा पूरी तरह से स्नातक छात्रों पर है, इन परीक्षाओं का उपयोग स्नातकोत्तर प्रवेश के लिए भी किया जाएगा। लेकिन कम से कम 2022-23 में पीजी स्तर के लिए सीयूईटी अनिवार्य नहीं है।

यूजीसी के अध्यक्ष एम जगदीश कुमार का कहना है कि सीयूईटी की शुरुआत का उद्देश्य देश भर के छात्रों के लिए एक समान अवसर प्रदान करना है और साथ ही स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के दौरान एकरूपता की कमी के कारण उनके द्वारा झेले गये तनाव को कम करना है। उनके मुताबिक, कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट की शुरुआत विद्यार्थी-हित में एक प्रमुख सुधार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इस तरह की एक राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षा शुरू करने की वकालत करती है। विभिन्न विश्वविद्यालयों की पात्रता मानदंड के अलावा कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा के अंकों का छात्रों के प्रवेश पर कोई असर नहीं पड़ेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित 45 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं।

यह बताते हुए कि इस क़दम से एकरूपता कैसे आएगी, इसलिए भ्रम को कम करते हुए, यूजीसी के अध्यक्ष ने कहा कि यदि आप देश भर में यूजी प्रवेशों को देखते हैं, ज़रूरी नहीं कि दिल्ली में; तो आप देखते हैं कि वे कई तरीक़ों का उपयोग करते हैं। कुछ विश्वविद्यालय जमा दो (+2) अंकों का उपयोग करते हैं और कुछ विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा आयोजित करते हैं और इससे छात्रों के मन में बहुत तनाव और भ्रम पैदा हो रहा है।

उनके मुताबिक, सीयूईटी शुरू करने के पीछे का विचार छात्रों को एक समान अवसर प्रदान करना है और उन्हें यूजी प्रवेश प्रक्रिया के दौरान होने वाले तनाव से छुटकारा पाने में भी मदद करना है; क्योंकि उन्हें कई प्रवेश परीक्षाएँ करनी होती हैं। उन्होंने कहा कि जब आप बोर्ड परीक्षाओं के अंकों पर विचार करते हैं, तो आप देखते हैं कि बोर्ड की एक बड़ी संख्या है। वे 12वीं कक्षा में अंक कैसे प्रदान करते हैं, इसमें बहुत विविधता है। इसलिए, यह एक समान अवसर प्रदान नहीं कर रहा है। अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा में पढऩे वालों के लिए एक बड़ा फ़ायदा यह कम्प्यूटर आधारित परीक्षा 13 भाषाओं में आयोजित की जाएगी। प्रवेश परीक्षा का पाठ्यक्रम एनसीईआरटी द्वारा परिभाषित 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम पर आधारित होगा।

 

प्रमुख बिन्दु

1. नया कॉमन यूनिवर्सिटी एजुकेशन टेस्ट (सीयूईटी) जुलाई के पहले सप्ताह में होगा, जब कक्षा 12 की अधिकांश बोर्ड परीक्षाएँ पूरी हो चुकी होंगी। आवेदन प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और अप्रैल के पहले सप्ताह में शुरू होगी।

2. परीक्षा कम्प्यूटर आधारित, बहुविकल्पीय परीक्षा होगी, जो प्रौद्योगिकी के मामले में आसान होगी।

3. छात्र अब केवल कक्षा 12 की परीक्षा में उच्चतम अंक प्राप्त करने की कोशिश करने के बजाय सीखने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने में सक्षम होंगे।

4. राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रवेश परीक्षा सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए अनिवार्य है और शीर्ष शिक्षा निकाय भी सभी राज्य, डीम्ड-टू-बी और निजी विश्वविद्यालयों से टेस्ट स्कोर का उपयोग करने के लिए कह रहा है। देश भर में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए।

5. इसका मसद एक राष्ट्र, एक प्रवेश परीक्षा करके विभिन्न प्रकार की प्रवेश परीक्षाओं को समाप्त करना है।

6. 12वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला कोई भी व्यक्ति सामान्य प्रवेश परीक्षा देने के योग्य है।

7. भले ही विश्वविद्यालयों को सामान्य परीक्षा के आधार पर स्नातक छात्रों को प्रवेश देना होगा, वे पात्रता तय करने में कक्षा 12 के अंकों के लिए न्यूनतम बेंचमार्क निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं।

8. इस प्रवेश परीक्षा का पाठ्यक्रम एनसीईआरटी की कक्षा 12 के मॉडल पाठ्यक्रम के अनुरूप होगा।

9. सामान्य परीक्षा के कारण विश्वविद्यालयों की आरक्षण नीति प्रभावित नहीं होगी।

 

प्रतिक्रियाएँ

सामान्य प्रवेश परीक्षा की शुरुआत का विरोध करने वालों ने बताया है कि सीयूईटी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रम पर आधारित होगा, जिसका पालन केवल सीबीएसई करता है; और इसलिए यह अन्य बोर्ड के छात्रों को समान अवसर नहीं देगा। कई लोगों ने कहा कि इस तरह के नीतिगत निर्णय से पहले हितधारकों से परामर्श किया जाना चाहिए था। वे बताते हैं कि छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ देंगे और इसके बजाय निजी विश्वविद्यालयों को चुनेंगे।

हालाँकि छात्रों के एक बड़े वर्ग का विचार है कि नीति छात्रों के हित में है। क्योंकि सामान्य परीक्षा सभी को बराबर अवसर देगी और सभी छात्रों को मौ$का देगी। निस्संदेह, यूजीसी अध्यक्ष इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सीयूईटी अन्तिम बोर्ड परीक्षा से सम्बन्धित मानसिक तनाव को कम करेगा। छात्र पाठ्यपुस्तक सामग्री के पुनरुत्पादन के बजाय अवधारणाओं की स्पष्टता पर ध्यान केंद्रित करेंगे। प्रवेश मानदंड विशुद्ध रूप से विषय की समझ और प्राप्त ज्ञान पर आधारित होगा।

उपराष्ट्रपति का भगवा पक्ष!

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू के शिक्षा में बदलाव में भगवा वाले बयान को लेकर सियासी हलचल तेज़ हो गयी है। बताते चलें हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने देश के लोगों से कहा कि वे अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ें और अपनी पहचान पर गर्व करना सीखें। शिक्षा की मैकाले प्रणाली को पूरी तरह से ख़ारिज़ करें। हमें अपनी विरासत, अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों पर गर्व महसूस करना चाहिए और हमें अपनी जड़ों की ओर वापस जाना चाहिए। जितना भी सम्भव हो सके हमें अपने बच्चों को भारतीय भाषाओं की सीखने-सिखाने की प्रेरणा देनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण भारत की नयी शिक्षा नीति का केंद्र है। जो मातृभाषाओं को बढ़ावा देने पर बहुत ज़ोर देती है। नायडू ने कहा कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम’ जो हमारे प्राचीन ग्रंथों का दर्शन है। मौज़ूदा समय में भी भारत की विदेश नीति के लिए यही मार्गदर्शक सिद्धांत है, जिसका दुनिया में अपना महत्त्व है।

राज्यसभा सांसद मनोज झा कहना है कि उपराष्ट्रपति को किसी भी रंग में शिक्षा को रंगने की बात ही नहीं करनी चाहिए। अब शिक्षा के नाम पर हरा, लाल और भगवा जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा है, जो ग़लत है। क्योंकि जो शिक्षा मौज़ूदा समय में चल रही है, उसमें किसी विशेष रंग का समावेश होगा, तो शिक्षा के लिए तो बिल्कुल ही ठीक नहीं होगा।

वहीं कांग्रेस के नेता अमरीश गौतम का कहना है कि शिक्षा को अगर राजनीति से जोड़ा जाएगा, तो इससे न शिक्षा को सही दिशा हासिल होगी और न ही राजनीति को। मौज़ूदा समय में जिस तरह से रंगों के आधार पर राजनीति का चलन बढ़ रहा है, वह देशहित में नहीं है। अब कोई हरे रंग के आधार पर राजनीति कर रहा है, तो कोई भगवा रंग पर, तो कोई नीले रंग पर। वैसे ही देश में कुछ वर्षों से राजनीतिक मिजाज बदला है, जिसमें रंगों को लेकर गाँवों से लेकर शहरों तक राजनीति होने लगी है। यह राजनीति लोगों को विभाजन की ओर ले जा रही है। उनका कहना है कि शिक्षा तो सभी रंगों में रंगी है। उसमें अगर कोई एक रंग चुना जाएगा, बाक़ी रंगों के बिना शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहेगा।

आम आदमी पार्टी के नेता व डीयू के राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या अन्य कई महत्त्वपूर्ण पद ऐसे हैं, जो संवैधानिक होते हैं। उनका अपना सम्मान है। लेकिन इन पदों पर बैठा कोई भी पदाधिकारी किसी विशेष हित को लेकर कोई बयानबाज़ी करे, तो आलोचना होनी लाज़िमी है। रहा सवाल रंगों का, वो भी शिक्षा के लिए, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। राजनीति में विचारधारा की लड़ाई हो, तर्कों की लड़ाई हो, तो लोगों को लाभ मिलता है। अगर रंगों की बात होगी, तो आज भगवा की बात होगी, कल दूसरे रंग की बात होगी। ऐसे में हम रंगों में उलझ जाएँगे और शिक्षा को काफ़ी पीछे छोड़ देंगे।

तहलका विचार

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का भगवा पक्ष भारतीय संविधान की निष्पक्षता को नकारता दिखता है। रंग कोई भी बुरा नहीं होता। हर रंग प्रकृति की बहुमूल्य नेमत है और भारतीयता हर रंग से निखरती है। इसीलिए इसकी ख़ूबसूरती लोकतंत्र से सँवरती है। ऐसे में उपराष्ट्रपति का यह कहना कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? कहीं-न-कहीं पक्षपात से प्रेरित लगता है। उपराष्ट्रपति का पद एक संवैधानिक प्रतिष्ठा वाला पद है, जिस पर बैठने वाला व्यक्ति समन्वयवादी होना चाहिए। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का शिक्षा में भगवा रंग को लाने का पक्ष उचित भले ही न हो; लेकिन लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का विरोध सही और अति आवश्यक है। क्योंकि मैकाले की शिक्षा पद्धति भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए ही लागू की गयी थी, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे यहाँ खुले कॉन्वेंट स्कूल हैं। लार्ड मैकाले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि वह भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति को लागू करना चाहता है, जिससे यहाँ की संस्कृति और भाषा नष्ट हो जाएँ। कॉन्वेंट स्कूलों की नींव अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए लार्ड मैकाले ने डाली और आज बड़े-बड़े लोगों को बच्चे उन्हीं कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। दिल्ली में इन स्कूलों को कुछ हद तक जीवंत किया गया है। बाक़ी देश में इन स्कूलों की दुर्दशा देखकर साफ़ मालूम होता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने में सरकारों और राजनेताओं का बड़ा योगदान है। आज इन्हीं नेताओं में ज्यादातर के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। पूँजीपतियों के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। कॉन्वेंट स्कूल चलाने वाले भी या तो नेता हैं या पूँजीपति। तो विदेशी शिक्षा नीति का ख़ात्मा किसको करना चाहिए? ज़ाहिर है नेताओं और पूँजीपतियों को। सवाल यह है कि उपराष्ट्रपति ने अपने देश की भाषाओं, संस्कृति को जीवित रखने की बात किससे कही? क्या उन्होंने पूँजीपतियों और नेताओं से यह बात कही? नहीं, उन्होंने आम लोगों से यह बात कही, जिनमें पाँच फ़ीसदी लोगों के बच्चे भी शायद ही कॉन्वेंट स्कूलों में हों। हाँ, अंग्रेजी से मोह रखने वाले बहुतायत में होंगे। तो काम किसका है? क्यों नहीं सरकार हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देती? दुनिया के सैकड़ों देश हैं, जहाँ उसी देश की भाषा में शिक्षा दी जाती है, तो भारत में यह सम्भव क्यों नहीं है। आज कितने सरकारी काम हैं, जो हिन्दी में होते हैं। कई संस्थानों में हिन्दी में काम करने तक की मनाही है। मंत्री अनपढ़ हैं, पर अंग्रेजी से उनका मोह अपार है और इतना कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा नहीं दिलाते। कई तो सरकारी अध्यापक भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते। क्यों? क्या सरकार को ऐसे लोगों पर यह नियम लागू नहीं करना चाहिए कि उनके बच्चे हर हाल में सरकारी स्कूलों में ही पढ़ेंगे?

 

“तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण थी, जो आजकल आस्था के बादल बन रही है। तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। भगवा, हरा और लाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिक्षा को किसी भी रंग से रंगने की ज़रूरत नहीं है। अब तर्क विश्वास से घिर रहा है।’’

                                           मनोज झा

सांसद, राजद

 

“सदियों के औपनिवेशिक शासन ने हमें ख़ुद को एक निम्न जाति के रूप में देखना सिखाया। हमें अपनी संस्कृति, पारम्परिक ज्ञान का तिरस्कार करना सिखाया गया। इसने एक राष्ट्र के रूप में हमारे विकास को धीमा कर दिया। हमारे शिक्षा के माध्यम के रूप में एक विदेशी भाषा को लागू करने से शिक्षा सीमित हो गयी। समाज का एक छोटा वर्ग, शिक्षा के अधिकार से एक बड़ी आबादी को वंचित कर रहा है। हमें अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ देना चाहिए और अपने बच्चों को अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करना सिखाना चाहिए। हमें अधिक से अधिक भारतीय भाषाएँ सीखनी चाहिए और अपनी मातृभाषा से प्रेम करना चाहिए। हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप है; लेकिन भगवा में क्या ग़लत है? मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब सभी गैजेट नोटिफिकेशन सम्बन्धित राज्य की मातृभाषा में जारी किये जाएँगे। आपकी मातृभाषा आपकी दृष्टि की तरह है, जबकि एक विदेशी भाषा का आपका ज्ञान आपके चश्मे की तरह है।’’

एम. वेंकैया नायडू

उपराष्ट्रपति

योगी के लिए गली-गली में राजनीति

इस बार होली पर योगी समर्थकों ने उनकी जय-जयकार की

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखने का सपना देखने वाले अब खुले रूप से उनके समर्थन में उतर रहे हैं। इस बार होली पर योगी आदित्यनाथ के समर्थकों की नारेबाज़ी और जय-जयकार में इसकी झलकी साफ़ दिखी। इस बार शहरों की ही नहीं, बल्कि गाँवों की गलियों में भी यह नज़ारा आम था। गौंटिया गाँव के रामदयाल कहते हैं कि 50 साल से ज़्यादा की उम्र से तो मैं देख रहा हूँ, कभी भी किसी भी पार्टी की जीत पर उसके नाम होली या दीवाली नहीं मनायी गयी। मगर इस बार होली पर ऐसा लग रहा था मानो योगी और मोदी ने ही होली की शुरुआत की हो। यह हमारे नौजवानों की समझ को क्या होता जा रहा है, जो यह भी भूल गये कि हमारे त्योहार हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा हैं, जिनका हमसे लाखों साल पुराना रिश्ता है। भला कोई त्योहार किसी नेता के नाम क्यों किया जाना चाहिए? जबकि इस देश में देवता पूजे जाते हैं; न कि कोई इंसान।

बरेली के सुभाषनगर के रहने वाले विजय शर्मा कहते हैं कि यह बदलाव की हवा है, जो लोगों को प्रभावित कर रही है। यह बात सही है कि त्योहार हमारी संस्कृति में बहुत पहले से हैं; लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई व्यक्तित्व इनको प्रभावित नहीं कर सकता। पहले भी लोग किसी-न-किसी से प्रभावित रहे हैं और अबके लोग भी मोदी और योगी से पूर्णत: प्रभावित हैं, इससे किसी को ऐतराज़ क्यों होना चाहिए।

इसी मोहल्ले के जयंत कुमार कहते हैं कि जब राजनीति और राजनेता लोगों के सिर पर सवार होने लगें, तो समझ लो कि पीढिय़ाँ बर्बादी की ओर जा रही हैं। आज अगर लोग अपनी चिन्ता छोडक़र नेताओं की जय-जयकार कर रहे हैं, तो इसका मतलब वे ख़ुद से बर्बाद होना चाहते हैं। यह ग़ुलामी की ही पहचान है। आज जो लोग नेताओं की विजयगाथा गा रहे हैं, उनके लिए नारेबाज़ी कर रहे हैं, ज़मीनी हक़ीक़त में उनके घरों की हालत बहुत बेहतर नहीं मिलेगी। चंद लोग जो राजनीति से बड़ा फ़ायदा उठा रहे हैं, उनके इशारे पर नाचने वाले बहुत समय तक नहीं नाच सकेंगे, अन्त में उन्हें रोटी और दाल के बारे में ही सोचना पड़ेगा। ठीक है कि प्रदेश में योगी की सरकार है, किसी-न-किसी की तो सरकार हर जगह होती ही है; मगर इसका मतलब यह नहीं कि हम भी उनके लिए पागल हो जाएँ। सरकार अपना काम कर रही है, हमें अपना काम करना चाहिए।

बरेली से सटे भिटौरा गाँव के मास्टर श्याम प्रसाद कहते हैं कि जब शिक्षा का अभाव होगा, तो यही होगा। दो साल से कोरोना-काल में जिस तरह पढ़ाई को पलीता लगा है, यह उसका असर है कि अब युवा पढ़ाई की चर्चा छोडक़र राजनीति की चर्चा करते दिख रहे हैं। हमारे ज़माने में यह उम्र अपने परिवार के काम में हाथ बँटाने और पढऩे की होती थी, उस समय अगर हम बड़ों के सामने चौपालों में बैठते थे, तो वो हमसे सवाल पूछते थे। जब कभी गाँव के दो-चार साथ पढऩे वाले बच्चे इकट्ठा होते थे, तो किताबों से बाहर की चर्चा तक नहीं होती थी। उसका नतीजा यह था कि अधिकतर बच्चे बड़े होकर सरकारी नौकर हो गये। अब न तो सरकारी नौकरियाँ हैं, न वो पढ़ाई है और न बच्चे अपने माँ-बाप से डरते हैं। घर में कितनी भी परेशानी हो, बच्चे बाहर यह दिखाना चाहते हैं कि उनके पास कोई कमी नहीं है।

बहुत बच्चे पढ़ाई की उम्र में ही नशा करने लगे हैं। त्योहारों पर तो इस संख्या का अंदाज़ा भी लग जाता है, बाक़ी समय वे छिपकर नशा करते हैं और माँ-बाप उनसे कुछ कहें, तो घरों से भाग जाते हैं। घर के काम में वे बच्चे ही हाथ बँटाते हैं, जो इन बातों को समझते हैं। सरकार को बच्चों की पढ़ाई को जल्द-से-जल्द सुचारू करना चाहिए, ताकि यह पीढ़ी और न भटक सके। शिक्षा ही इंसान को सभ्य बनाती है, अन्यथा तो इंसान भी एक पशु ही है।

जो भी हो, जब से प्रदेश में भापजा की प्रचंड जीत हुई है और योगी आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने हैं, तबसे हर जगह ऐसे युवाओं, बच्चों और बड़ों की संख्या काफ़ी दिख रही है, जो योगी का गुणगान करते नहीं थक रहे। यह वो लोग हैं, जो योगी आदित्यनाथ को अभी से अपना भावी प्रधानमंत्री मानने लगे हैं।

हालाँकि इस भीड़ में वो लोग भी हैं, उनमें काफ़ी संख्या उनकी भी है, जो योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री तो देखना चाहते हैं, मगर प्रधानमंत्री के रूप में केवल और केवल नरेंद्र मोदी को ही पसन्द करते है। कई बार इन दोनों पक्षों के लोगों में इस मामले में मतभेद इस हद तक सामने आ जाते हैं कि बातचीत बहस में बदल जाती है। लेकिन अन्त में इस बात पर सहमति भी बनती दिखती है कि नरेंद्र मोदी के सेवानिवृत्ति के बाद प्रधानमंत्री आख़िरकार योगी ही बनेंगे। यह एक ऐसी राजनीतिक चिंगारी भडक़ी है, जिसे लेकर गली-गली में अब चर्चा होती दिख जाती है। योगी का जुनून लोगों के सिर पर इस क़दर सवार है कि इस होली में उनके चेहरे वाले मुखौटे लगाये रैलियाँ निकाली गयीं, कुछ लोग मोदी के मुखड़े में ही पहले की तरह दिखे। इन लोगों का मानना है कि मोदी बड़े भाई हैं, तो योगी छोटे भाई। यह बात तबसे ज़्यादा मान्य हो रही है, जबसे नरेंद्र मोदी को योगी आदित्यनाथ का हाथ पकडक़र ऊँचा किये हुए वाले पोस्टर जगह जगह चस्पा दिखायी दिये हैं।

इस बार की होली में होली की परम्परा के गीतों की जगह ज़्यादातर ऐसे गाने भी बजाये गये, जो योगी और मोदी के गुणगान में बनाये गये। इनमें ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएँगे’, ‘यूपी में बाबा’, ‘बुलडोजर बाबा’, ‘योगी जी-जोगी जी’, ‘योगीरा सारारारा, मोदीरा सारारारा’ जैसे गाने ख़ूब चले।

यह उत्तर प्रदेश की नयी हवा है, जो संकेत देती है कि राजनीति में अब उसी का गुणगान होगा, जो शक्तिशाली होगा। साथ ही इस बात का भी इससे संकेत मिलता है कि राजनीति से अब कोई अछूता नहीं रह सकेगा। जो लोग राजनीति से दूर-दूर रहते हैं, उन्हें भी कभी-कभार बहस का हिस्सा बनते देखने से इस बात को दृढ़ता से कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के शहरों और गाँवों की गली-गली इन दिनों राजनीतिक चर्चाओं से गरम दिखती है।

कमुआ के नंदराम मास्टर कहते हैं कि राजनीति गली-गली में होने लगे, तो इसके दो ही मतलब हैं, या तो समाज पतन की ओर जा रहा है या फिर राजनीति में कोई बड़ा बदलाव होने वाला है। इन दिनों जो उत्तर प्रदेश में हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि इन दोनों में से भविष्य में क्या होने वाला है, मगर कुछ-न-कुछ ज़रूर होना है। या तो दोनों ही काम एक साथ होंगे। वैसे दोनों के ही संकेत ज़्यादा दिखते हैं; क्योंकि आज के युवाओं के ज्ञान की जाँच करो, तो उनकी राजनीतिक समझ बहुत उथली और खोखली नज़र आती है। स्वामी विवेकानंद जी किसी देश की तरक़्क़ी और पतन का सबसे बड़ा साधन उसके युवाओं को मानते थे। यह बात पूरी तरह सत्य भी है। और आज के युवा किधर जा रहे हैं, यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं।

बदलाव ज़रूरी है, बदलाव नहीं होगा, तो तरक़्क़ी के नये रास्ते नहीं खुलेंगे। लेकिन बदलाव बहते हुए पानी की तरह होना चाहिए, न कि रुके हुए पानी की तरह। क्योंकि बहता हुआ पानी ही स्वच्छ होता है, ठहरा हुआ पानी तो कुछ ही दिन में बदबू मारने लगता है। राजनीति में भी बदलाव होना चाहिए। पर वो सही दिशा में हो, तभी विकास होगा। अन्यथा राजनीति में अगर दिशाहीन बदलाव होगा, तो वह लोगों को दिशाहीन कर देगा।

अभ्रक की चमक में खो रहा बचपन

झारखण्ड की ग़रीब बच्ची ने अपना और लाखों लोगों का दर्द बयाँ करके सरकार और प्रशासन को दिखाया आईना

इन दिनों एक बच्ची का रोज़ी-रोटी की परेशानी को बयान करने वाला वीडियो पूरे देश में वायरल हो रहा है। ‘हम क्या प्रधानमंत्री की बेटी हैं, जो कष्ट नहीं होगा। हम ढीबरा चुनकर अपना पेट पालते और पढ़ते-लिखते हैं। क्या केवल एसपी-डीसी के बच्चे ही पढ़-लिखकर अफ़सर बनेंगे? और मज़दूर के बच्चे अनपढ़ रहकर अपना भविष्य ख़राब करेंगे?’ -ये चंद वाक्य छठी कक्षा की एक ग़रीब बच्ची के हैं, जो अभ्रक के अवशेष बीनकर अपने परिवार के भरण-पोषण में मदद करती है।

इस नौ वर्षीय बच्ची का नाम शमा परवीन है। वह झारखण्ड के कोडरमा ज़िले के ढोढ़ाकोला पंचायत के ढोढ़ाकोला गाँव की रहने वाली है। पिता का नाम कलीम अंसारी है। परिवार ढिबरा (अभ्रक से निकले स्क्रैप) चुनकर भरण-पोषण करता है। शमा की तीन बहनें हैं, जबकि एक भाई है। बड़ी बहन चाँदनी परवीन है। वह 10वीं कक्षा में पढ़ती है। दूसरी बहन रौशन परवीन है, जो सातवीं की छात्रा है। जबकि शमा परवीन और उजाला परवीन जुड़वाँ हैं। दोनों बग़ल के सरकारी स्कूल की छठी कक्षा में पढ़ती हैं। छोटे भाई का नाम रेहान है। बच्ची के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं; लेकिन पढ़ाई का महत्त्व जानते हैं। अपने बच्चों को मज़दूरी करके पढ़ाते हैं। शमा परवीन पढ़ाई में अच्छी है। वह इन दिनों झारखण्ड के कोडरमा ज़िले में चले ढिबरा आन्दोलन की हिस्सा बनी हुई थी। इस आन्दोलन को कवर करने जब मीडिया यहाँ पहुँची, तो शमा परवीन ने बेबाक़ी से उसके सामने अपनी बात रखी। उसने पूरे तंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया।

शमा परवीन की उम्र में आमतौर पर बच्चे खेल-कूद में व्यस्त रहते हैं। उन्हें प्रशासनिक महकमों का ज्ञान भी सही तरीक़े से नहीं होता। लेकिन शमा के साथ ऐसा नहीं है। लिहाज़ा बातचीत में उसका ग़ुस्सा फूटता है। शमा परवीन से जब पूछा गया कि क्या ज़िले के डीसी (उपायुक्त) ने बातचीत के लिए नहीं बुलाया है? तो उसका जवाब था- ‘अरे, डीसी क्या बुलाएँगे? वह तो बग़ल से गुज़र गये। हम लोग चिल्लाते रह गये। उन्होंने गाड़ी का शीशा उतारकर देखा भी नहीं। ढिबरा कारोबार पर रोक के कारण हमारे जैसे कई बच्चों की पढ़ाई छूट गयी है। परिवार के सामने भूखों मरने की स्थिति पैदा हो गयी है। मेरे पापा पर झूठा केस किया गया है। मेरे अंकल पर झूठा केस किया गया है। मेरे पापा ने एसपी को दो बार आवेदन दिया है; लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। यदि यह केस नहीं उठाया गया, तो हम लोग भी रोड जाम करेंगे और गिरफ़्तारी देंगे।’

छठी कक्षा में पढऩे वाली इस बच्ची की पीड़ा पूरे झारखण्ड के लिए एक थप्पड़ के समान है। उसने एक ऐसी हक़ीक़त बयाँ की है, जो झारखण्ड के ग़रीबों के साथ होता रहा है।

परवीन का अकेले का दर्द नहीं

मासूम बच्ची शमा परवीन ने कैमरे के सामने जो कुछ कहा, वह उसका अकेले का दर्द नहीं है। इस बच्ची ने न केवल सरकारी तंत्र को आईना दिखाया है, बल्कि उसकी बातों से साफ़ हो जाता है कि वातानुकूलित (एसी) कमरों में बैठकर नीतियाँ बनाने से झारखण्ड कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। शमा परवीन तो ढिबरा कारोबार पर लगायी गयी रोक के ख़िलाफ़ कोडरमा में चल रहे आन्दोलन की एक प्रतीक मात्र थी। उसकी बातें अंतर्मन तक को झकझोरती हैं। इस लडक़ी की बातों ने समाज के उस वर्ग की पीड़ा को सामने रखा है, जो दो जून की रोटी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। वह वर्ग न भीख माँगकर गुजारा करना चाहता है, न हेराफेरी और अपराध में लिप्त होना चाहता है। इस वर्ग को सरकारी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। यह वर्ग अपनी मेहनत से अपना और परिवार का गुज़ारा करना चाहता है, ताकि उसके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो सके। लेकिन सरकारी अधिकारियों को यही वर्ग सबसे अधिक चुभता है। इसलिए अकसर प्रशासनिक प्रताडऩा का शिकार यही वर्ग बनता है; जैसे शमा परवीन के पिता और चाचा बने हैं।

क्या है ढिबरा?

ढिबरा अभ्रक का अवशेष (स्क्रैप) है। पहले जब इस इलाक़े में लगभग 600 अभ्रक खदानें थीं, तो अभ्रक निकालने के बाद स्क्रैप को फेंक दिया जाता था। अब उसी से अभ्रक के छोटे टुकड़े चुनकर बेचे जा रहे हैं। इसे ढिबरा कहा जाता है। इसे चुनकर अभ्रक फैक्ट्री में बेचा जाता है। जहाँ परिष्कृत कर इसे पाउडर बनाया जाता है। वहाँ से देश-विदेश तक कारोबार चलता है।

रोज़ी-रोटी का सवाल

झारखण्ड का कोडरमा ज़िला ही नहीं, बल्कि कोडरमा संसदीय क्षेत्र के कोडरमा और गिरिडीह इलाक़े की एक बड़ी आबादी ढिबरा चुनकर गुज़र-बसर करती है। ढिबरा चुनने वाले मज़दूरों को भले ही बहुत कम राशि मिलती हो; लेकिन यह कारोबार लाखों का है। पिछले लगभग छ: महीने से प्रशासन ने ढिबरा यानी अभ्रक स्क्रैप के चुनने, इसके परिवहन और बेचने पर रोक लगा दी थी, जिससे ज़िले के जंगली इलाकों में बसे दर्जनों गाँवों के हज़ारों परिवार ढिबरा चुनकर बेच नहीं पा रहे हैं। कई गाँवों में रोज़ी-रोटी का यही एकमात्र ज़रिया है। कई गाँवों में दो जून की रोटी के लिए मज़दूर ढिबरा पर आश्रित हैं। क्षेत्र के अधिकांश लोग ढिबरा चुनकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। बच्चों को पढ़ाते हैं। इस इलाक़े में साल में एक बार धान की खेती होने के बाद लोग कमाने के लिए दूसरे प्रदेश चले जाते हैं या फिर ढिबरा पर आश्रित रहते हैं। उनके समक्ष रोज़ी-रोटी के लाले पड़े हैं। इस व्यवसाय पर रोक से लगभग दो लाख की आबादी प्रभावित होगी।

मजबूरी में आन्दोलन

प्रशासन ने ढिबरा चुनने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके उन पर कर्इ मुक़दमे कर दिये हैं। इसके विरोध में आन्दोलन शुरू हुआ। ढिबरा मज़दूर परिवार के साथ धरने पर बैठ गये। ढिबरा स्क्रैप मज़दूर संघ के ज़िलाध्यक्ष कृष्णा सिंह घटवार ने कहा कि क्षेत्र के ग्रामीण और जंगली इलाक़ों में रहने वाले हज़ारों लोगों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन जंगलों से ढिबरा चुना जाना रहा है। इस पर रोक लगा दिये जाने के कारण ग्रामीणों के समक्ष रोज़ी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी। काम के अभाव में यहाँ के लोग दूसरी जगहों पर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। संघ ने प्रशासन से ढिबरा चुनने वालों पर की जा रही कार्रवाई को बन्द करने की माँग की थी; मगर इसे अनसुना कर दिया गया।

विधानसभा में उठा मामला

झारखण्ड विधानसभा का बजट सत्र चल रहा, जो 25 मार्च को समाप्त हुआ। शमा परवीन का वीडियो वायरल होने के बाद यह मामला विधानसभा सदन में गूँजा। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आश्वासन दिया कि ढिबरा मज़दूरों को लेकर सरकार गम्भीर है। व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है। ढिबरा आन्दोलन फ़िलहाल शान्त हो गया है। ढिबरा मज़दूरों को काम करने की अनुमति मिल गयी है। लेकिन शमा परवीन ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद गम्भीर हैं। एक ग़रीब बच्ची ने जिस तरह से व्यवस्था पर सवाल खड़े किये हैं, उन पर सरकार को सोचने और बेहतरी की दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है। केवल ढिबरा चुनने की अनुमति देकर आन्दोलन शान्त करना ही समस्या का हल नहीं है। शमा परवीन बातचीत में कहती हैं कि वह आईएएस बनना चाहती हैं। ग़रीबों के लिए कुछ करना चाहती हैं। उस बच्ची की तरह ही कई तेज़तर्रार अन्य बच्चियाँ भी हैं। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को ध्यान से देखकर उस पर सोचने की ज़रूरत है। सरकार और प्रशासन को ऐसी बच्चियों के भविष्य के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है, जिससे अभ्रक की चमक की तरह इस तरह की बच्चियों का भविष्य चमक सके।

अब 19 किलो का कमर्शियल एलपीजी सिलेंडर 250 रुपये हुआ महंगा

महंगाई का सिलसिला जारी है। अब शुक्रवार को लोगों को एक ओर झटका देते हुए 19 किलो के कमर्शियल एलपीजी सिलेंडर के दाम सीधे 250 रूपये बढ़ा दिए गए हैं। बढ़ौतरी के बाद इसकी कीमत 2253 रुपये प्रति सिलेंडर (दिल्ली में) हो गयी है।

घरेलू गैस सिलेंडर के दामों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। कमर्शियल सिलेंडर की कीमत में वृद्धि के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 19 किलो सिलेंडर की कीमत 2,253 रुपये प्रति यूनिट हो गई है।

कोलकाता में एक सिलेंडर की कीमत 2,351 रुपये, मुंबई 2,205 रुपये और चेन्नई में इसकी कीमत 2,406 रुपये हो गई है। याद रहे इससे पहले 22 मार्च को, घरेलू रसोई गैस एलपीजी की दरों में बढ़तोरी की गई थी और इसके दाम 50 रुपये प्रति सिलेंडर बढ़ा दिए गए थे।

बता दें राष्ट्रीय राजधानी में 14.2 किलोग्राम के एलपीजी सिलेंडर की कीमत 949.50 रुपये है जबकि कुछ जगहों पर एक सिलेंडर की कीमत 1,000 रुपये तक है।

आज से जीएसटी, पीएफ, टैक्स, बैंक नियम सहित कई बदलाव

नए वित्त वर्ष (आज) से देश में कुछ बड़े बदलाव लागू हो रहे हैं। इनमें आम आदमी को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा यह है कि अब पीएफ खाते में सालाना 2.5 लाख रूपये से ज्यादा जमा होने पर ब्याज आय पर टैक्‍स लगेगा। सरकारी कर्मचारियों के जीपीएफ के खाते में टैक्स फ्री जमा की सीमा 5 लाख रुपये सालाना रखा गयी है।  इसके अलावा टैक्स, बैंकों के नियम, जीएसटी सहित कई क्षेत्रों में बदलाव हुए हैं या नए नियम लागू हो गए हैं।

घर खरीदना भी अब थोड़ा महंगा हो रहा है। घर खरीदने वालों को केंद्र सरकार पहली धारा 80ईईए के तहत टैक्स छूट का लाभ मिलना बंद हो रहा है। पोस्ट आफिस की लघु बचत योजना में निवेश करने वालों के लिए बड़े बदलाव हो रहे हैं। पहली अप्रैल से पोस्ट ऑफिस मंथली इनकम स्कीम, टर्म डिपॉजिट अकाउंट्स और सीनियर सिटीजन सेविंग्स स्कीम के ब्याज का पैसा बचत खाते में ही मिलेगा। पोस्ट ऑफिस जाकर कैश में ब्याज का पैसा नहीं लिया जा सकेगा।

केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड ने जीएसटी के तहत ई-चालान जारी करने के लिए टर्नओवर की लिमिट को पहले तय लिमिट 50 करोड़ रुपये से कम करके 20 करोड़ रुपये कर दिया है।

अब सेविंग खाते से लिंक करा लेने पर ब्याज की राशि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से ट्रांसफर हो जाएगी। बता दें कि सरकार ने एमआईएस, एससीएसएस, टाइम डिपॉजिट खातों के मामले में मासिक, त्रैमासिक और सालाना ब्याज जमा करने के लिए बचत खाते के उपयोग को आवश्यक कर दिया है।

इसके अलावा आज से सरकार ने मौजूदा पीएफ अकाउंट को दो भागों में बांट दिया है, जिस पर अब टैक्स भी लगेगा। अब ईपीएफ अकाउंट में 2.5 लाख की राशि तक टैक्स फ्री योगदान का कैप लगाया जा रहा है। अगर इससे ज्यादा योगदान हुआ तो ब्याज आय पर टैक्स लगेगा। वहीं, सरकारी कर्मचारियों के जीपीएफ में टैक्स फ्री योगदान की सीमा 5 लाख रुपये सालाना रखी गयी। है

साथ ही आज से एक्सिस बैंक ने मिनिमम बैलेंस की सीमा 10 हजार से बढ़ाकर 12 हजार रुपये कर दी है। एक्सिस बैंक की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक अब चार ही फ्री ट्रांजैक्शन होंगे। वहीं, नए वित्त वर्ष में पंजाब नेशनल बैंक पीपीएस  लागू करने जा रहा है। चार अप्रैल से 10 लाख और उससे अधिक के चेक के लिए वेरिफिकेशन जरूरी होगा।

इसके अलावा म्यूचुअल फंड में निवेश के नियम में भी आज से बदलाव हो रहा है। बदलाव के मुताबिक पहली अप्रैल से म्‍यूचुअल फंड में निवेश करने के लिए ग्राहक सिर्फ यूपीआई या नेट बैंकिंग के जरिये ही पेमेंट कर सकेगा।