उपराष्ट्रपति का भगवा पक्ष!

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू के शिक्षा में बदलाव में भगवा वाले बयान को लेकर सियासी हलचल तेज़ हो गयी है। बताते चलें हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने देश के लोगों से कहा कि वे अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ें और अपनी पहचान पर गर्व करना सीखें। शिक्षा की मैकाले प्रणाली को पूरी तरह से ख़ारिज़ करें। हमें अपनी विरासत, अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों पर गर्व महसूस करना चाहिए और हमें अपनी जड़ों की ओर वापस जाना चाहिए। जितना भी सम्भव हो सके हमें अपने बच्चों को भारतीय भाषाओं की सीखने-सिखाने की प्रेरणा देनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण भारत की नयी शिक्षा नीति का केंद्र है। जो मातृभाषाओं को बढ़ावा देने पर बहुत ज़ोर देती है। नायडू ने कहा कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम’ जो हमारे प्राचीन ग्रंथों का दर्शन है। मौज़ूदा समय में भी भारत की विदेश नीति के लिए यही मार्गदर्शक सिद्धांत है, जिसका दुनिया में अपना महत्त्व है।

राज्यसभा सांसद मनोज झा कहना है कि उपराष्ट्रपति को किसी भी रंग में शिक्षा को रंगने की बात ही नहीं करनी चाहिए। अब शिक्षा के नाम पर हरा, लाल और भगवा जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा है, जो ग़लत है। क्योंकि जो शिक्षा मौज़ूदा समय में चल रही है, उसमें किसी विशेष रंग का समावेश होगा, तो शिक्षा के लिए तो बिल्कुल ही ठीक नहीं होगा।

वहीं कांग्रेस के नेता अमरीश गौतम का कहना है कि शिक्षा को अगर राजनीति से जोड़ा जाएगा, तो इससे न शिक्षा को सही दिशा हासिल होगी और न ही राजनीति को। मौज़ूदा समय में जिस तरह से रंगों के आधार पर राजनीति का चलन बढ़ रहा है, वह देशहित में नहीं है। अब कोई हरे रंग के आधार पर राजनीति कर रहा है, तो कोई भगवा रंग पर, तो कोई नीले रंग पर। वैसे ही देश में कुछ वर्षों से राजनीतिक मिजाज बदला है, जिसमें रंगों को लेकर गाँवों से लेकर शहरों तक राजनीति होने लगी है। यह राजनीति लोगों को विभाजन की ओर ले जा रही है। उनका कहना है कि शिक्षा तो सभी रंगों में रंगी है। उसमें अगर कोई एक रंग चुना जाएगा, बाक़ी रंगों के बिना शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहेगा।

आम आदमी पार्टी के नेता व डीयू के राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या अन्य कई महत्त्वपूर्ण पद ऐसे हैं, जो संवैधानिक होते हैं। उनका अपना सम्मान है। लेकिन इन पदों पर बैठा कोई भी पदाधिकारी किसी विशेष हित को लेकर कोई बयानबाज़ी करे, तो आलोचना होनी लाज़िमी है। रहा सवाल रंगों का, वो भी शिक्षा के लिए, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। राजनीति में विचारधारा की लड़ाई हो, तर्कों की लड़ाई हो, तो लोगों को लाभ मिलता है। अगर रंगों की बात होगी, तो आज भगवा की बात होगी, कल दूसरे रंग की बात होगी। ऐसे में हम रंगों में उलझ जाएँगे और शिक्षा को काफ़ी पीछे छोड़ देंगे।

तहलका विचार

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का भगवा पक्ष भारतीय संविधान की निष्पक्षता को नकारता दिखता है। रंग कोई भी बुरा नहीं होता। हर रंग प्रकृति की बहुमूल्य नेमत है और भारतीयता हर रंग से निखरती है। इसीलिए इसकी ख़ूबसूरती लोकतंत्र से सँवरती है। ऐसे में उपराष्ट्रपति का यह कहना कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? कहीं-न-कहीं पक्षपात से प्रेरित लगता है। उपराष्ट्रपति का पद एक संवैधानिक प्रतिष्ठा वाला पद है, जिस पर बैठने वाला व्यक्ति समन्वयवादी होना चाहिए। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का शिक्षा में भगवा रंग को लाने का पक्ष उचित भले ही न हो; लेकिन लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का विरोध सही और अति आवश्यक है। क्योंकि मैकाले की शिक्षा पद्धति भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए ही लागू की गयी थी, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे यहाँ खुले कॉन्वेंट स्कूल हैं। लार्ड मैकाले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि वह भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति को लागू करना चाहता है, जिससे यहाँ की संस्कृति और भाषा नष्ट हो जाएँ। कॉन्वेंट स्कूलों की नींव अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए लार्ड मैकाले ने डाली और आज बड़े-बड़े लोगों को बच्चे उन्हीं कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। दिल्ली में इन स्कूलों को कुछ हद तक जीवंत किया गया है। बाक़ी देश में इन स्कूलों की दुर्दशा देखकर साफ़ मालूम होता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने में सरकारों और राजनेताओं का बड़ा योगदान है। आज इन्हीं नेताओं में ज्यादातर के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। पूँजीपतियों के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। कॉन्वेंट स्कूल चलाने वाले भी या तो नेता हैं या पूँजीपति। तो विदेशी शिक्षा नीति का ख़ात्मा किसको करना चाहिए? ज़ाहिर है नेताओं और पूँजीपतियों को। सवाल यह है कि उपराष्ट्रपति ने अपने देश की भाषाओं, संस्कृति को जीवित रखने की बात किससे कही? क्या उन्होंने पूँजीपतियों और नेताओं से यह बात कही? नहीं, उन्होंने आम लोगों से यह बात कही, जिनमें पाँच फ़ीसदी लोगों के बच्चे भी शायद ही कॉन्वेंट स्कूलों में हों। हाँ, अंग्रेजी से मोह रखने वाले बहुतायत में होंगे। तो काम किसका है? क्यों नहीं सरकार हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देती? दुनिया के सैकड़ों देश हैं, जहाँ उसी देश की भाषा में शिक्षा दी जाती है, तो भारत में यह सम्भव क्यों नहीं है। आज कितने सरकारी काम हैं, जो हिन्दी में होते हैं। कई संस्थानों में हिन्दी में काम करने तक की मनाही है। मंत्री अनपढ़ हैं, पर अंग्रेजी से उनका मोह अपार है और इतना कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा नहीं दिलाते। कई तो सरकारी अध्यापक भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते। क्यों? क्या सरकार को ऐसे लोगों पर यह नियम लागू नहीं करना चाहिए कि उनके बच्चे हर हाल में सरकारी स्कूलों में ही पढ़ेंगे?

 

“तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण थी, जो आजकल आस्था के बादल बन रही है। तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। भगवा, हरा और लाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिक्षा को किसी भी रंग से रंगने की ज़रूरत नहीं है। अब तर्क विश्वास से घिर रहा है।’’

                                           मनोज झा

सांसद, राजद

 

“सदियों के औपनिवेशिक शासन ने हमें ख़ुद को एक निम्न जाति के रूप में देखना सिखाया। हमें अपनी संस्कृति, पारम्परिक ज्ञान का तिरस्कार करना सिखाया गया। इसने एक राष्ट्र के रूप में हमारे विकास को धीमा कर दिया। हमारे शिक्षा के माध्यम के रूप में एक विदेशी भाषा को लागू करने से शिक्षा सीमित हो गयी। समाज का एक छोटा वर्ग, शिक्षा के अधिकार से एक बड़ी आबादी को वंचित कर रहा है। हमें अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ देना चाहिए और अपने बच्चों को अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करना सिखाना चाहिए। हमें अधिक से अधिक भारतीय भाषाएँ सीखनी चाहिए और अपनी मातृभाषा से प्रेम करना चाहिए। हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप है; लेकिन भगवा में क्या ग़लत है? मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब सभी गैजेट नोटिफिकेशन सम्बन्धित राज्य की मातृभाषा में जारी किये जाएँगे। आपकी मातृभाषा आपकी दृष्टि की तरह है, जबकि एक विदेशी भाषा का आपका ज्ञान आपके चश्मे की तरह है।’’

एम. वेंकैया नायडू

उपराष्ट्रपति