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विश्व बाल श्रम निषेध दिवस सरकार करे मजबूर बच्चों की फ़िक्र

बाल श्रम एक बड़ी सामाजिक समस्या है। इसी पर रोक के लिए पूरी दुनिया में हर साल 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया जाता है। ठीक 20 साल पहले अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ ने बाल श्रम ख़त्म करने के उद्देश्य से आवश्यक कार्रवाई लिए वर्ष 2002 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाने की शुरुआत की थी। बता दें कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों द्वारा काम कराये जाने को बाल श्रम में रखा गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ का विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाने का उद्देश्य ऐसे बच्चों को शिक्षा दिलाना और उन्हें जागरूक करना है।

बाल श्रम से बच्चों को मुक्त कराने और उनके अधिकार के लिए लडऩे वालों को दुनिया का श्रेष्ठ सम्मान नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। भारतीय बाल अधिकार कार्यकर्ता और बाल-श्रम के विरुद्ध पक्षधर कैलाश सत्यार्थी को वर्ष 2014 में पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई के साथ नोबेल पुरस्कार मिला था। लेकिन अफ़सोस कि हिन्दुस्तान में बाल श्रम को ख़त्म नहीं किया जा सका। न ही नोबेल पुरस्कार पाने के बाद कैलाश सत्यार्थी का बाल श्रम से बच्चों को बचाने का पहले जैसा अभियान देश में देखने को मिला। हिन्दुस्तान में बाल श्रम का यह हाल है कि हर ढाबे, चाय की दुकान और अनेक फैक्ट्रियों में एक-दो बच्चे काम करते मिल जाएँगे। भले ही ये बच्चे मजबूरी में पढ़ाई की जगह नौकरी करते हैं; लेकिन इनकी परेशानी को लोग अमूमन नहीं समझते और न ही केंद्र सरकार व राज्य सरकारें इस ओर कोई खास ध्यान देती हैं। हालाँकि इस ओर केवल सरकारों को ही नहीं, बल्कि श्रम संगठनों, बाल संरक्षक संस्थाओं, नागरिकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समाज, समाज सुधारकों, नेताओं, अभिनेताओं, धर्म गुरुओं, माँ-बाप और नियोक्ताओं, सबको ही ध्यान देने की ज़रूरत हैं। देश में 5 से 14 साल तक के 15 फ़ीसदी बच्चे मजबूरी में बाल श्रम का शिकार हैं।

बाल श्रम निषेध दिवस की थीम-2022

बाल श्रम निषेध की हर साल थीम तय की जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2019 में इसकी थीम ‘बच्चों को खेतों में काम नहीं, बल्कि सपनों पर काम करना चाहिए’ थी। इसी तरह वर्ष 2020 में इसकी थीम ‘बच्चों को कोरोना महामारी’ रखी गयी। वर्ष 2021 की थीम ‘कोरोना वायरस के दौर में बच्चों को बचाना’ रखी गयी थी। इस बार यानि 2022 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस की थीम ‘बाल श्रम को समाप्त करने के लिए सार्वभौमिक सामाजिक संरक्षण’ है। सवाल यह है कि क्या हर साल एक नयी थीम बनाने भर से बाल श्रम रुकेगा? क्योंकि विश्व बाल श्रम निषेध दिवस वाले दिन बच्चों को बचाने की मुहिम पर भाषण देने भर से यह समस्या ख़त्म नहीं होने वाली।

बाल श्रम के नुक़सान

बाल श्रम के नुक़सान केवल श्रम के चंगुल में फँसे बच्चों को ही नहीं होते, बल्कि समाज और देश को भी होते हैं। बच्चों के बाल श्रम में फँसने से उनकी ज़िन्दगी बुरी तरह या कुछ हद तक बर्बाद ज़रूर होती है। बाल श्रम के पीछे भयावह और दिल दहला देने वाली घटनाएँ भी सामने आती रहती हैं, जिनमें बच्चों के यौन शोषण से लेकर उनसे अवैध कार्य कराने तक के मामले सामने आते रहते हैं। इन सबके चलते श्रम करने वाले बच्चों का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं होता है और न ही वे जीवन में तरक़्क़ी कर पाते हैं। दरअसल बाल श्रम के पीछे निर्दयी और सामंतवादी विचारधारा का बड़ा हाथ है। कितने ही बच्चे बहुत मजबूरी में बचपन से ही नौकरी करने लगते हैं। अगर बच्चों से श्रम करवाने वाले लोग निर्दयी और सामंतवादी सोच के न हों, तो बाल श्रम को काफ़ी हद तक रोका जा सकता है। हमारे देश में आज भी व्यापक स्तर पर बच्चों अधिकारों का हनन कुछ लोग बाल श्रम के लालच में करते हैं। यही वजह है कि एगमार्क जैसे बाल श्रम के मानक अस्तित्व में आये।

जागरूकता के अभाव में लोग बाल श्रम को अनदेखा करते हैं और बच्चों से काम कराने वालों से कुछ नहीं कहते। सवाल यह है कि क़ानूनी तौर पर बालक कौन है? दुकान एवं स्थापना अधिनियम (फैक्ट्री अधिनियम)-1948 की धारा-2(2) में कहा गया है कि 15 वर्ष से कम उम्र वाले बच्चे से श्रम करवाना बाल श्रम है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि मां-बाप भी अपने बच्चों से कोई काम नहीं करा सकते। दरअसल भारतीय संविधान का अनुच्छेद-45 में 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को बाल यानि बालक माना गया है। हालाँकि गार्डन वर्कर एक्ट-1951 12 वर्ष से कम, खनन अधिनियम-1952 16 वर्ष से कम, महिलाओं एवं बालिकाओं में अनैतिक तस्करी के प्रतिषेध अधिनियम-1956 में 21 वर्ष से कम, बीड़ी और सिगरेट श्रमिक अधिनियम (रोज़गार दशाएँ) 1966 में 14 वर्ष से कम, किशोर न्याय (बालक के संरक्षण व ध्यान) अधिनियम-1986 में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को बालक माना गया है।

वर्ष 1989 में अपनाये गये बच्चों के अधिकारों पर अभिसमय-का अनुच्छेद-28, अनुच्छेद-32 और अनुच्छेद-34 में क्रमश: बच्चों को शिक्षा के अधिकार की लड़ाई, यौन शोषण और प्रताडऩा से संरक्षण की और श्रम के लिए मजबूर बच्चों को प्रशय देने की व्यवस्थाओं को सरकारों की ज़िम्मेदारी बताया गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अभिसमय-138 व 182 में भी बाल अधिकारों के संरक्षण पर जोर दिया गया है। बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) संशोधन अधिनियम-2006 में भारतीय दण्ड संहिता धारा 82 के तहत प्रावधान है कि 7 वर्ष या इससे कम उम्र के बच्चों को किसी भी अपराध में दण्डित करना वर्जित है। दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 125 में प्रावधान है कि संतान चाहे वैध हो या अवैध, वह भरण-पोषण व भत्ते की अधिकारी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अनुसार बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम-2001 में जोड़े गये नये अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि राज्यों को 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की उम्र तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध करना होगा। अनुच्छेद-24 कहता है कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों से कारख़ाने, खान, परिसंकटमय गतिविधियों, निर्माण, रेलवे आदि में काम कराना निषिद्ध है। संविधान के अनुच्छेद-39 (ई) कहता है कि राज्यों का कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और उन्हें आर्थिक तंगी के चलते विवश होकर ऐसे श्रम के लिए न जाना पड़े, जो उनकी आयु एवं शक्ति के अनुकूल न हो। अनुच्छेद-39 (एफ) कहता है कि बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ एवं शैशव से लेकर किशोर अवस्था तक शोषण से, नैतिक और आर्थिक परित्याग से उनका संरक्षण हो।

इसी प्रकार 86वें संविधान संशोधन के अधिनियम-2001 में मूल कर्तव्यों के अध्याय में एक अन्य खण्ड 51 (के) जोड़ा गया, जिसमें यह प्रावधान है कि 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करना उनके माता-पिता या अभिभावकों का कर्तव्य है।

बाल श्रम कराने पर सज़ा कितनी?

बाल श्रम कराना क़ानूनी अपराध की श्रेणी में आता है। बावजूद इसके बहुत-से लोग, जो किसी-न-किसी व्यवसाय से जुड़े होते हैं, बच्चों से काम कराते हैं। इन लोगों का तर्क होता है कि उन बच्चों की मजबूरी पर तरस खाकर ये उन्हें काम देते हैं, लेकिन सच यह भी है कि कम पैसे में ज़्यादा काम के लालच में कई लोग बच्चों को काम पर रखते हैं। हालाँकि इसमें यह भी कारण है कि कई बच्चों के कंधों पर अपने घर की बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। इनमें कई बच्चे अनाथ होते हैं, तो कई के घर में कोई बड़ा कमाने वाला नहीं होता या कमाने योग्य नहीं होता। ऐसे में सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि वे ऐसे बच्चों को चिह्नित करके उनके रहने, खाने और पढ़ाने की व्यवस्था करें। आज भारत में लाखों बच्चे बाल श्रम की भट्ठी में तप रहे हैं, जिन्हें वहाँ से निकालकर उनका भविष्य बनाने की महती ज़रूरत है। बच्चों से श्रम कराने वालों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि ऐसा करने पर उन्हें एक साल की जेल से लेकर कम-से-कम 10,000 रुपये के ज़ुर्माने का प्रावधान है। धारा 14 के तहत ज़ुर्माने की राशि को बढ़ाकर 20,000 रुपये भी किया जा सकता है।

आयोग व समितियाँ

हमारे देश में बाल श्रम तथा श्रम पर अब तक कई आयोगों और समितियों का गठन हो चुका है; लेकिन बाल श्रम को ख़त्म नहीं किया जा सका है। बाल श्रम सम्बन्धी समिति की संस्तुति पर केंद्र सरकार ने श्रम मंत्रालय के अंतर्गत बाल श्रम पर विशेष केंद्रीय सलाहकार बोर्ड का गठन किया है, जिसका काम बाल श्रम की समीक्षा करना और सलाह देना है। श्रम पर राष्ट्रीय आयोग 1969 व बाल श्रम पर समिति 1981 की रिपोर्टों में हिन्दुस्तान में बाल श्रम के कारणों व परिणामों की जाँच की गयी है।
इसके अलावा सन् 1974 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नीति की घोषणा की, 1975 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति का प्रस्ताव पारित करने के साथ राष्ट्रीय बाल बोर्ड का गठन किया, 1987 में बच्चों पर राष्ट्रीय नीति बनी, जिसमें कहा गया कि बच्चे देश की सबसे महत्त्वपूर्ण और क़ीमती सम्पत्ति हैं। इसके अलावा बाल श्रम पर राज्यों ने भी समितियों और आयोगों का गठन किया हुआ है। लेकिन बाल श्रम पर प्रतिबंध आज तक नहीं लग सका। कोरोना महामारी में रोज़गार के अभाव और घर में किसी कमाने वाले की मृत्यु के बाद बाल श्रम में बढ़ोतरी होना कोई बड़ी बात नहीं। इसलिए सरकार को देश भर में बाल श्रमिकों की संख्या जानने के लिए सर्वे कराना चाहिए, ताकि बाल श्रमिकों को एक बेहतर जीवन दिया जा सके।

हिन्दुस्तान में बाल श्रम अधिनियम

बाल श्रम के निराकरण के लिए कई वैधानिक प्रावधान किये गये। इनमें से कुछ प्रावधान इस प्रकार हैं :-
 कारख़ाना अधिनियम-1948
 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम-1948
 गार्डन वर्कर अधिनियम-1951
 अपरेंटिसशिप अधिनियम-1961
 मोटर वाहन अधिनियम-1961
 खनन अधिनियम-1952
 दुकान एवं स्थापन अधिनियम-1961
 शिशु अधिनियम-1961 (यथासंशोधित, 1978)
 बीड़ी व सिगरेट श्रमिक अधिनियम-1966
 बँधुआ श्रम प्रणाली अधिनियम-1976
 बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) अधिनियम-1986
 किशोर न्यायालय अधिनियम-1986
 किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख एवं संरक्षण) अधिनियम-2000

सावधानी से होगा मंकी पॉक्स से बचाव

कोरोना वायरस जैसी महामारी का दुनिया में अभी भी ख़ौफ़ है। इसी बीच अब मंकी पॉक्स जैसी संक्रमित बीमारी लोगों में भय फैला रही है। डॉक्टरों का कहना है कि मंकी पॉक्स एक संक्रामक बीमारी है। अगर लापरवाही बरती गयी, तो यह भी कहर बरपा सकती है। कोरोना वायरस अभी मौज़ूद है। ऐसे में मंकी पॉक्स से बचाव ज़रूरी है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि सबसे पहले सन् 1958 में बंदरों में यह वायरस पाया गया था। तभी से इसका नाम मंकी पॉक्स रखा गया है। उसके बाद सन् 1970 में यह वायरस अफ्रीका के 10 देशों में पाया गया। सन् 2003 में अमेरिका में मंकी पॉक्स का कहर रहा। इसके बाद सन् 2017 में नाइजीरिया में मंकी पॉक्स ने कहर बरपाया। अब मौज़ूदा समय में फिर से अमेरिका कनाडा और अफ्रीका के कई देशों में मंकी पॉक्स का कहर है। इन देशों में मंकी पॉक्स को लेकर अलर्ट जारी किया गया है। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि मंकी पॉक्स को लेकर भारत को भी सावधान रहने की ज़रूरत है, क्योंकि यह संक्रमित बीमारी है और तेज़ी से एक से दूसरे में फैलती है।

मैक्स अस्पताल साकेत के कैथ लैब के डायरेक्ट व हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि भले ही मंकी पॉक्स ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है; लेकिन कोरोना-काल के चलते हमें सावधान रहने की ज़रूरत है। उनका कहना है कि अगर बुख़ार के साथ मांसपेशियों में दर्द के साथ सूजन हो, तो उसे नज़रअंदाज़ न करें। हृदय रोगियों के हाथ-पैरों में अगर चकत्ते के साथ-साथ घबराहट और बेचैनी हो, तो उसे नज़रअंदाज़ न करें। डायबिटीज और रक्तचाप के रोगियों को यह वायरस ज़्यादा नुक़सान पहुँचा सकता है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि मंकी पॉक्स ने भले ही अभी भारत में दस्तक न दी हो; लेकिन यह संक्रमित बीमारी है। भारतीय लोगों का दुनिया में आना-जाना है, इसलिए मंकी पॉक्स का कहर भारत में आ सकता है। मंकी पॉक्स हाथ-पैरों से फैलता है, फिर पूरे शरीर में चकत्ते के साथ छोटी-छोटी फुंसियाँ होने लगती हैं। कई बार तो ये बड़े घाव में बदल जाती हैं। अगर आँखों के पास ये घाव बड़े हो जाएँ, तो आँखों की रोशनी भी जा सकती है। इसलिए शुरुआती दौर में ही मंकी पॉक्स के इलाज की ज़रूरत है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भारत बड़ी जनसंख्या वाला देश है। इसलिए यहाँ संक्रमण तेज़ी से फैलने का डर है। मंकी पॉक्स का कोई टीका भी दुनिया में कहीं उपलब्ध नहीं है। यह छोटी माता (स्मॉल पॉक्स) का बड़ा रूप है। इसलिए छोटी माता के लिए बनी वैक्सीन से ही इसका इलाज हो सकता है।

दिल्ली सरकार के स्टेट प्रोग्राम ऑफिसर डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि कोरोना वायरस जैसी बीमारी से दुनिया जूझ ही रही है। उस पर मंकी पॉक्स वायरस की दस्तक हमें सतर्क करती है। मंकी पॉक्स जैसी बीमारी को जागरूकता तथा सावधानी से हराया जा सकता है। भारत के कई राज्यों के कुछ गाँवों में अंधविश्वास का ज़्यादा बोलवाला है, इसलिए मंकी पॉक्स को लोग बड़ी माता या चिकन पॉक्स का प्रकोप मानकर स्वयं इलाज करने लगते हैं। साथ ही छाड़-फूँककर इलाज करने लगते हैं, जो ठीक नहीं है। हालाँकि मंकी पॉक्स लेकर घबराने की ज़रूरत नहीं है। सावधानी के साथ-साथ संक्रमित और भीड़भाड़ वाली जगहों से बचने की ज़रूरत है।

डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि लोग अज्ञानता के कारण अपनी बीमारी को छिपाने लगते हैं। इससे बीमारी बढऩे के साथ-साथ दूसरों में संक्रमण का ख़तरा बढ़ जाता है।

बताते चलें कि, मंकी पॉक्स को लेकर भारतीय स्वास्थ्य महकमा चौकन्ना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि मंकी पॉक्स उन देशों में फैल रहा है, जहाँ पहले कभी मंकी पॉक्स नहीं फैला है। ऐसे में सभी देशों को मंकी पॉक्स को लेकर सावधानी बरतने की ज़रूरत है; क्योंकि इस बीमारी की चपेट में बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग सभी आ सकते हैं।

हैदराबाद मुठभेड़ मामला

कठघरे में पुलिस, चलेगा मुक़दमा?

हैदराबाद मुठभेड़ मामले में पुलिस की छवि पर एक बार फिर सवाल उठे हैं। इन सवालों को नज़रअंदाज़ इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सवाल देश की शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने उठाये हैं और हैदराबाद में सन् 2019 में हुई मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। याद दिला दें कि 27 नवंबर, 2019 में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से सटे शादनगर में रात के वक़्त 27 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक का अपहरण करने के बाद उसके साथ बलात्कार किया गया और फिर उसकी जलाकर हत्या करने के बाद उसके अधजले शव को दंरिदों ने एक पुल के नीचे फेंक दिया था।

इस घटना के ख़िलाफ़ जन-आक्रोष फूटा और वहाँ की पुलिस ने आनन-फानन में इस मामले में शामिल चारों अभियुक्तों को 6 दिसंबर, 2019 को गिर$फ्तारी के बाद कथित मुठभेड़ में मार गिराया। तेलंगाना पुलिस के अनुसार, वह इन चारों अभियुक्तों को अपराध वाली जगह पर लेकर गयी थी, जहाँ उन्होंने भागने की कोशिश की और फिर पुलिस पर हमला करने की भी कोशिश की। इस दौरान जवाबी कार्रवाई में चारों अभियुक्त पुलिस की गोली के शिकार हो गये। पुलिस का कहना था कि उसने आत्मरक्षा के लिए गोलियाँ चलायीं। देश में आम लोगों ने इस घटना में पुलिस की तारीफ़ की; लेकिन कई सामाजिक संगठनों ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया। मामला न्यायालय पहुँचा, और अब शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया है। 20 मई को पैनल ने सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी है और हैदराबाद की इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार देने के साथ-ही-साथ इस मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मामला चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से दावा किया गया था कि दुष्कर्म और हत्या के आरोपियों ने उनसे उनकी पिस्तौल छीन ली थी और भागने की कोशिश भी की थी। हालाँकि पुलिस अपने इस दावे को अदालत में साबित नहीं कर पायी।

सवाल यह भी उठता रहा है कि क्या पुलिस ने उन चारों आरोपियों को वारदात वाली जगह पर ले जाकर खुला छोड़ दिया था? क्या उन चारों को पहले भागने का मौक़ा दिया गया? क्या पैरों में गोली मारने की बजाय चारों को जान से मारना ही इकलौता विकल्प पुलिस को नज़र आया? पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से किये गये दावों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और मौक़े पर मिले सुबूत भी इसकी पुष्टि नहीं करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिसकर्मियों ने जानबूझकर गोलियाँ चलायी थीं और उन्हें पता था कि ऐसा करने पर उन लोगों की मौत भी हो सकती है। इसलिए यह मुठभेड़ फ़र्ज़ी है और पुलिस के दावे ग़लत प्रतीत होते हैं। पैनल की रिपोर्ट व यह मामला तेलंगाना उच्च अदालत को भेज दिया गया है। ग़ौरतलब है कि देश में पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं, इसके औचित्य को लेकर पक्ष व विरोध में दलीलों की कोई कमी नहीं है। एक लॉबी का मानना है कि पुलिस के हाथ बाँधने की ज़रूरत नहीं है, जबकि दूसरी लॉबी का कहना है कि पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर लोगों से उनके क़ानूनी अधिकार नहीं छीन सकती।

दरअसल मूल मुद्दा यह है कि भारत का क़ानून आत्मरक्षा के अधिकार के अंतर्गत आम आदमी को जितने अधिकार देता है, उतने ही अधिकार पुलिस को भी हासिल हैं। लेकिन अन्तर इतना है कि आम आदमी अगर आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारता है, तो उसमें आवश्यक रूप से एफआईआर दर्ज होती है; लेकिन पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारती है, तो उसे मुठभेड़ का नाम दे दिया जाता है। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि किसी भी आदमी की जान जाती है या वह गम्भीर रूप से घायल हो जाता है, तो उसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने 2014 में पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों व गम्भीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जाँच के लिए 16 दिशा-निर्देश जारी किये थे। ग़ौरतलब है कि भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन की बैंच ने इस फ़ैसले में लिखा था कि पुलिस मुठभेड़ के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिए इन 16 नियमों का पालन किया जाना चाहिए। इन 16 नियमों में प्रमुख हैं- जब कभी भी पुलिस को किसी तरह की आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, तो वह या तो लिखित में हो जो ख़ासतौर पर केस डायरी की शक्ल में हो या फिर किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिये हो। धारा-176 के तहत पुलिस फायरिंग में हुई हर एक मौत की मजिस्ट्रियल जाँच होनी चाहिए। इसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजना भी ज़रूरी है। अगर किसी भी आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है या फिर पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की गोलीबारी की जानकारी मिलती है और उसमें किसी के मर जाने की सूचना आये, तो इस पर फ़ौरन धारा-157 के तहत अदालत में एफआईआर दर्ज करनी चाहिए। इस पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जाँच सीआईडी या दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम से करवाना ज़रूरी है। जब तक स्वतंत्र जाँच में किसी तरह का सन्देह सामने नहीं आता है, तब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जाँच में शामिल करना ज़रूरी नहीं है। हाँ, घटनाक्रम की पूरी जानकारी बिना देरी किये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य मानवाधिकार आयोग के पास भेजना ज़रूरी है।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत सम्मान से जीने का अधिकार निहित है। इसने यह भी व्यवस्था दी थी कि पुलिस मुठभेड़ में किसी के मारे जाने से क़ानून के शासन तथा आपराधिक न्यायप्रणाली की विश्वसनीयता आहत होती है। न्यायमूर्ति लोढा ने अपने उस फ़ैसले में कहा था अनुच्छेद-21 में निहित गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है और यहाँ तक कि सरकार भी इस अधिकार का हनन नहीं कर सकती। अनुच्छेद-21 के तहत मिले अधिकार एवं संविधान के अन्य प्रावधानों के समान ही कई और संवैधानिक प्रावधान भी निजी स्वतंत्रता, सम्मान और मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं। पर सवाल यह है कि नागरिकों के जीवन एवं निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ में मौत की घटनाएँ जारी हैं। ग़ौरतलब है कि गत फरवरी में ही सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पाँच वर्षों में देश में कुल 655 पुलिस मुठभेड़ हत्याएँ हुई हैं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 191 हतयाएँ हुई हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 117, असम में 50, झारखण्ड में 49, ओडिशा में 36 व बिहार में 22 ऐसी घटनाएँ हुई हैं।
दरअसल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मार्च, 1997 में इस सन्दर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे। जैसे कि जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस मुठभेड़ की जानकारी मिले, तो वह फ़ौरन इसे रजिस्ट्रर में दर्ज करे। जैसे ही ऐसी कोई जानकारी मिले व जाँच में किसी तरह का सन्देह पैदा हो, तो उसकी जाँच करना ज़रूरी है। अगर जाँच में पुलिस अधिकारी दोषी पाये जाते हैं, तो मारे गये लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।

यही नहीं, सन् 2010 में भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बनाये गये नियमों की सूची में कुछ और नियम भी जोड़ दिये थे। 12 मई, 2010 को इस आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायाधीश जी.पी. माथुर ने कहा था कि पुलिस को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि बहुत से राज्यों में इस सन्दर्भ में आयोग के नियमों का पालन नहीं होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है। त्वरित न्याय के नाम पर आरोपियों को अदालत में अपनी बात रखने का मौक़ा भी नहीं दिया जाता। आत्मरक्षा के नाम पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ का सिलसिला कब तक जारी रहेगा। समाज को भी गहन आत्म-चिन्तन करना चहिए कि आख़िर वह क्यों कई मर्तबा पुलिस के ऐसे काले कारनामों के साथ खड़ा नज़र आता है। जैसे कि हैदराबाद के ही इस कथित मुठभेड़ के मामले में वहीं की जनता ने पुलिस वालों की शान में फूल बरसाये थे और साफ़तौर पर सन्देश दिया था कि न्याय ऐसे ही होना चाहिए।

महँगाई पर मामूली छूट का तडक़ा

बेअसर साबित होगी महँगाई से मामूली राहत, उठाने होंगे ठोस क़दम

जब भी देश में महँगाई बढ़ती है, तो सरकार बढ़ती महँगाई के लिए कई कारणों को ज़िम्मेदार बताती है। लेकिन महँगाई घटने का श्रेय लेने में देर नहीं लगाती। जैसे पेट्रोल, डीजल, सीएनजी और रसोई गैस के दामों के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के बढ़ते दामों के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया गया। लेकिन अब जब कुछ महीनों में कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने की आहट आनी लगी और महँगाई का विरोध चौतरफ़ा होने लगा, तो सरकार ने महँगाई कुछ कम करने की जुगत निकाली। इससे कुछ उपभोक्ताओं को कुछ राहत तो मिली; लेकिन सरकार ने इसका सारा श्रेय लेने में देर नहीं की। मामूली महँगाई कम करने में जो सियासी माहौल बनाया गया है, उसका चर्चा लोगों में है।

पेट्रोल-डीजल और गैस पर आर्थिक मामलों के जानकारों ने ‘तहलका’ बताया कि मौज़ूदा दौर में जो सियासी माहौल चल रहा है, उसमें धरातल पर कम आँकड़ों पर ज़्यादा खेल चल रहा है। इसका लाभ पूँजीपतियों को मिल रहा है। महँगाई में थोड़ी-सी राहत भी उसी का हिस्सा है। पूँजीपति जानते हैं कि कब महँगाई बढऩी है और कब कम होनी है।

आर्थिक मामलों के जानकार विभूति शरण ने बताया कि देश में बढ़ती महँगाई के चलते सरकार के जन प्रतिनिधियों को जनता के कोप-भाजन का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार के ही लोगों का सरकार पर दबाव है। उनका मानना है कि अगर समय रहते महँगाई पर क़ाबू नहीं पाया गया, तो चुनाव में इसके परिणाम जो भी हों; लेकिन जनमानस को क्रोधवश सडक़ों पर उतरने को देर नहीं लगेगी। तब स्थिति को सँभालना मुश्किल होगा और विपक्ष को मौक़ा मिलेगा। इन्हीं तमाम पहलुओं पर सरकार ने सियासी गुणा-भाग करके महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए थोड़ी-सी राहत दी गयी है। इसके तहत केंद्र सरकार ने डीजल, पेट्रोल और उज्ज्वला योजना के तहत दिये जाने वाले गैस सिलेंडरों के दामों में कटौती की है। पेट्रोल 9 रुपये 50 पैसे और डीजल 7.00 रुपये सस्ता किया है। विभूति शरण का कहना है कि डीजल और पेट्रोल के दामों में कमी करने को लेकर सरकार मानना है कि इससे परिवहन ख़र्च और खाद्य वस्तुओं में कमी आने की उम्मीद है।

दिल्ली स्थित चाँदनी चौक के व्यापारी तथा आर्थिक मामलों के जानकार विजय प्रकाश जैन का कहना है कि दुनिया में बढ़ती महँगाई का एक माहौल बनाया जा रहा है। अगर तर्कसंगत अध्ययन किया जाए, तो साफ़ नज़र आता है कि महँगाई जानबूझकर लादी गयी है, ताकि समाज का एक बड़ा वर्ग कमज़ोर हो और उन पूँजीपतियों को लाभ मिले सके, जो सरकार के इशारों पर चलते हैं। विजय प्रकाश जैन का कहना है कि ख़ुदरा और थोक महँगाई के बढऩे से सरकार की चिन्ता बढ़ गयी थी और सरकार पर शुल्क कटौती का दबाब इसलिए बढ़ गया था, क्योंकि रिजर्व बैंक का कहना था कि अगर तेल की क़ीमतें कम नहीं की गयीं, तो महँगाई को क़ाबू पाना मुश्किल होगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम किये गये हैं।

देश में बढ़ती महँगाई को लेकर देश के शहरों से लेकर गाँवों तक जो माहौल बना हुआ है, उसे देखकर और भाँपकर सरकार सहम रही थी। वित्त मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि सरकार सत्ता के नशे में इस क़दर चूर है कि वो न तो किसी की सुनने को राज़ी है, न जनता की परेशानी समझने को तैयार है। लेकिन सरकार के प्रतिनिधियों का दबाब इस क़दर था कि अगर गाँवों की जनता को अपने पाले में लाना है, तो निश्चित तौर पर उज्ज्वला गैस के दामों को कम करना होगा। नहीं तो गाँवों का जो माहौल सरकार के पक्ष में बना है, उसको बिगडऩे में देर नहीं लगेगी। इसलिए अब उज्ज्वला योजना के लगभग नौ करोड़ लाभार्थियों को साल में 12 सिलेंडर पर 200 रुपये प्रति सिलेंडर की सब्सिडी मिलेगी। कुल मिलाकर उज्ज्वला योजना के माध्यम से सरकार ने बढ़ती महँगाई को कम करने का प्रयास भर ही किया है।
दिल्ली के व्यापारियों का दावा है कि महँगाई से थोड़ी राहत भर दी गयी है। आँकड़ों में उलझानों का प्रयास किया गया है। दिल्ली के व्यापारी संतोष अग्रवाल का कहना है कि देश में सटोरियों का बोलबाला है, जो महँगाई के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। अगर देश में महँगाई को रोकना है, तो सटोरियों को रोकना होगा। उनका कहना है कि कब देश में महँगाई कम होगी और कब बढ़ेगी? इसका सारा ख़ाका सटोरियों के पास पहले से होता है। इससे देश के सटोरी जमकर पैसा कमाते हैं। संतोष अग्रवाल का कहना है कि सट्टा और सटोरी के खेल में कुछ राजनीतिक लोगों का हाथ है, जिससे देश में महँगाई का खेला चलता रहता है।

बताते चलें, देश में खाद्य पदार्थ पर ही नहीं, कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिस पर महँगाई की मार न हो। महँगाई की मार का सबसे ज़्यादा असर शिक्षा और स्वास्थ्य पर पड़ा है। स्कूली बच्चों को पाठ्य सामग्री (स्टेशनरी) को ख़रीदना मुश्किल हो रहा है। सरकारी अस्पतालों में आसानी से इलाज न होने से मरीज़ों को निजी अस्पतालों में इलाज कराने में दिक़्क़त हो रही है। जानकारों का कहना है कि देश में कार्पोरेट अस्पतालों का जो चलन बढ़ा है, उससे पीछे देश के पूँजीपतियों का पैसा लगा है। इसी तरह प्राइवेट स्कूलों में भी पैसा लगा है। उनका कहना है कि डीजल और पेट्रोल के दाम जब बढ़ रहे थे, तब स्कूली बस वालों ने किराया बढ़ाया था और अस्पताल वालों ने एम्बुलेंस का किराया जमकर बढ़ाया था। लेकिन डीजल और पेट्रोल के दाम कम हुए हैं, तो उनका बढ़ा हुआ किराया वापस होना चाहिए। इस पर सरकार को ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है। अन्यथा महँगाई से राहत वाली बात जुमला ही साबित होगी।

चौंकाने वाली बात तो यह है कि निजी वाहन वालों को पेट्रोल-डीजल के कम दामों का लाभ तो मिलेगा; लेकिन जो ट्रांसपोर्टरों ने दाम बढ़ाये हैं, उसको अब कम कैसे किया जाएगा? इस पर सरकार को ही सख़्त क़दम उठाने होंगे। नहीं तो पेट्रोल-डीजल के दामों को कम करने का जनमानस को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं मिलेगा। जनता पहले की तरह ही महँगा समान ख़रीदने को मजबूर ही रहेगी।

ट्रांसपोर्टर विमल सिंधू ने बताया कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढऩे के चलते जो किराया-भाड़ा बढ़ाया था, उसकी आड़ में बड़े कारोबारियों ने जमकर लूटा है। यह लूट आज भी जारी है। क्योंकि ट्रांसपोर्टरों ने बढ़े हुए किराये को फिक्स कर दिया है। अब जब पेट्रोल-डीजल के दाम कम हो गये हैं, तो ट्रांसपोर्टर किराया-भाड़ा कम कर रहे हैं कि नहीं। इस तरफ़ सरकार को ही ध्यान देना होगा। अन्यथा महँगाई को कम होने वाला खेल आँकड़ों में ही उलझा रह जाएगा और आम जनता महँगाई की मार से नहीं उभर पाएगी।

आम आदमी पार्टी के समर्थक पंकज सेठ का कहना है कि देश की मौज़ूदा सियासत एक नये अंदाज़ में चल रही है, जहाँ पर सिर्फ़ डरावना वातावरण बनाया जा रहा है और आँकड़ों को खेल खेला जा रहा है। इस खेल में भोली-भाली जनता उलझी हुई है। क्योंकि सरकार के पास बहाना है कि देश में कोरोना महामारी के चलते काफ़ी नुक़सान सरकार को उठाना पड़ा है और अब यूक्रेन-रूस में युद्ध चल रहा है, जिससे देश की आर्थिक हालत पटरी से उतर रही है। सरकार उसे पटरी पर ला रही है।

गाँव से लेकर शहर तक के कई लोगों ने ‘तहलका’ को बताया कि चौतरफ़ा महँगाई की मार से देश का ग़रीब जूझ रहा है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसके दाम न बढ़े हों। अगर सरकार प्रत्येक वस्तु के दामों पर $गौर करे और इन वस्तुओं के दामों को कम करे, तब तो महँगाई से लोगों से राहत मिल सकती है, अन्यथा पेट्रोल-पेट्रोल के दामों में कमी करके एक वातावरण ज़रूर बनाने सरकार को राहत मिलेगी कि बढ़े हुए दामों को कम किया है, जिसका सियासी लाभ उसको मिल सकता है।

कुल मिलाकर हाल ही में महँगाई से जो मामूली राहत सरकार ने दी है, वो बेअसर साबित होगी, क्योंकि यह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है। बता दें कि पिछले महीने थोक महँगाई दर रिकॉर्ड ऊँचाई 15.8 फीसदी पर पहुँच गयी थी, जिसके बाद महँगाई को लेकर व्यापारी वर्ग और कुछ अर्थशास्त्रियों ने चिन्ता व्यक्त की थी।

हरियाणा में भ्रष्टाचार पर नौकरशाह आमने-सामने

वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अशोक खेमका और आईएएस संजीव वर्मा ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ दर्ज करायी प्राथमिकी

भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बेधडक़ कार्रवाई करने वाले हरियाणा काडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अशोक खेमका अब ख़ुद कमोबेश ऐसे ही आरोप में घिरे हैं। उनके ख़िलाफ़ हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक (एमडी) आईएएस संजीव वर्मा ने प्राथमिकी दर्ज करायी है। खेमका ने इसके जवाब में संजीव वर्मा के ख़िलाफ़ भी प्राथमिकी दर्ज करानी चाही; लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। राज्य के गृहमंत्री अनिल विज ख़ुद खेमका के साथ आये, तब कहीं जाकर वर्मा और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ उनकी प्राथमिकी दर्ज हो सकी। पुलिस अब दोनों मामलों की जाँच करेगी। क़रीब 13 साल पुराना मामला खेमका के गले की फाँस बना हुआ है। पंचकूला पुलिस भी दो पाटों के बीच फँस गयी है। मामला हाई प्रोफाइल है, लिहाज़ा उसे फूँक-फूँककर जाँच को आगे बढ़ाना पड़ेगा। खेमका के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार, नियमों की अनदेखी और अनियमितता बरते जाने जैसे गम्भीर आरोप हैं। वहीं संजीव वर्मा पर सरकारी सर्विस रूल्स की अनदेखी और विभाग के सरकारी वाहन के के बेजा इस्तेमाल जैसे आरोप है।

वर्ष 2009-10 में हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक के पद पर रहते खेमका पर नियुक्तियों में गड़बड़ी की शिकायत है। खेमका वर्तमान में अतिरिक्त मुख्य सचिव जैसे अहम पद पर हैं। वहीं संजीव वर्मा उसी हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक (एमडी) हैं। फ़िलहाल मामला भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के दो अधिकारियों के बीच है।

राजनीतिक गलियारों में इसे मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की फिर से रस्साकसी या खींचतान जैसा आँका जा रहा है। जहाँ किसी आईएएस की प्राथमिक के लिए गृहमंत्री को आना पड़े वहाँ मामले की गम्भीरता को समझा जा सकता है। खेमका ने गिरफ़्तारी से बचने और उनके ख़िलाफ़ प्राथमिकी को रद्द करने के लिए हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय की शरण ली। वहाँ उनकी गिरफ़्तारी पर तो स्थगन हो गया; लेकिन प्राथमिकी यथावत् है। मामला 13 साल पुराना वर्ष 2009-10 का है। खेमका तब हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन में प्रबंध निदेशक (एमडी) थे। विभाग में कुछ रिक्तियाँ निकाली गयीं।

इसके लिए बाक़ायदा आयोग ने प्रक्रिया अपनायी; लेकिन योग्यता पर कोई खरा नहीं उतरा। लिहाज़ा विभाग के आग्रह पर उसे ही नियुक्तियाँ करने का आदेश मिल गया। विभाग की समिति ने 20 से ज़्यादा पदों पर नियुक्तियाँ कर लीं और सभी नवनियुक्त लोगों को नियुक्ति पत्र सौंप दिये गये। वर्ष 2016 में आरटीआई कार्यकर्ता रविंद्र कुमार ने तमाम नियुक्तियों की रिपोर्ट माँगी, तो उन्हें इसमें कथित भ्रष्टाचार और अनियमितताएँ लगीं। इसी वर्ष उन्होंने थाने में इसके ख़िलाफ़ शिकायत दी; लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। मामला इतना गम्भीर था कि यह लोकायुक्त के पास भी पहुँचा, जो अभी लम्बित है; जबकि खेमका कहते हैं कि पुलिस जाँच और लोकायुक्त में उन पर लगाये आरोप पुष्ट नहीं हुए हैं। वह कहते हैं कि शिकायतकर्ता रविंद्र कुमार और कुछ अन्य उनकी छवि बिगाडऩे के लिए यह सब कर रहे हैं। इसके विपरीत रविंद्र कुमार कहते हैं कि उनकी सभी शिकायतें लम्बित हैं, किसी भी जाँच में खेमका और अन्य को बेदाग़ साबित नहीं किया जा सका है। खेमका जाँच को प्रभावित कर रहे हैं। अगर हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन में उनके कार्यकाल के दौरान नियुक्तियों में भ्रष्टाचार और उल्लंघन नहीं हुए, तो उन्हें कैसा डर? उन्हें तो हर जाँच के लिए तैयार रहना चाहिए। वह इस मामले में सीबीआई जाँच के लिए तैयार हैं। क्या खेमका इस चुनौती को स्वीकार करने की हिम्मत रखते हैं? खेमका मुझ पर छवि ख़राब करने और झूठे आरोप की बात कहते हैं। अगर उनकी बात में दम है, तो वे वर्ष 2016 में जब उन्होंने थाने में शिकायत दी थी, तभी उन्होंने (खेमका ने) उनके ख़िलाफ़ क्यों कार्रवाई नहीं की? अब जब पूरी जाँच के बाद उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज हो गया, तो वह संजीव वर्मा और मेरे ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करा रहे हैं।

बक़ौल रविंद्र कुमार- ‘हाल में उनके ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कराने वाले तत्कालीन हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक (एमडी) संजीव वर्मा की खेमका से कोई निजी खुन्नस तो नहीं है। उस पद पर कोई भी रहे, उसे कार्रवाई करनी ही थी। संजीव वर्मा ने इस मामले की आंतरिक और विस्तृत जाँच करायी। उन्हें बहुत कुछ ठोस सुबूत मिले होंगे, जिसके आधार पर उनकी खेमका और कुछ अन्य के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज हो सकी। संजीव वर्मा के मुताबिक, वह अधिकारी के तौर पर अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। अगर किसी को इसमें पूर्वाग्रह या कोई अन्य कारण लगता हो, तो सीबीआई जाँच तक के लिए तैयार है। सरकार चाहे किसी भी एजेंसी से जाँच करा ले, वे पीछे नहीं हटेंगे। मामले को उठाने और उसे इस अंजाम तक लाने वाले रविंद्र कुमार की राय में नियुक्तियों में जमकर धाँधली और नियमों की अनदेखी हुई। यही वजह है कि प्रबंधक जैसे अहम पद पर नियुक्त हुए पी.के. गुप्ता और एस.एस. रंधावा को सेवा मुक्त करना पडा। इनमें गुप्ता उत्तर प्रदेश और रंधावा पंजाब के हैं।’

रविंद्र कुमार के मुताबिक, नियुक्तियों में शीर्ष पदों पर हरियाणा के लोगों की अनदेखी हुई, जबकि अन्य पदों के लिए तय अनुभव और शैक्षिक योग्यता को भी नज़रअंदाज़ किया गया। सवाल यह कि नियुक्तियों में कथित भ्रष्टाचार और धाँधली के सीधे आरोप खेमका पर क्यों लग रहे हैं? वह सीधे तौर पर नियुक्तियाँ करने वाले एकमात्र नहीं थे। प्रबंधक निदेशक होने के नाते वह विभाग के प्रमुख अधिकारी थे। साक्षात्कार आदि के लिए बनी समित के सदस्य थे। तो आरोप उन पर ही नहीं अन्य सदस्यों पर भी है। चूँकि खेमका चर्चित अधिकारी रहे हैं, इसलिए मामला हाई प्रोफाइल ज़्यादा हो गया है। 29 साल की सर्विस में क़रीब 54 बार तबादले झेल चुके खेमका हर सरकार की आँख की किरकिरी ही रहे हैं। वह जिस विभाग में गये, वहाँ सब दुरुस्त करने के लिए कार्रवाइयाँ कीं। जिस विभाग में जाते, वही अहम बन जाता।

राबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के ज़मीन सौदों को रद्द करने वाले खेमका ने राज्य सरकार की चूलें हिला दी थीं। लगभग हर छ: माह बाद उनके तबादले होते रहे। हर विभाग में यही डर है कि कहीं खेमका उनके यहाँ न आ जाएँ। उनके काम करने का तरीक़ा अलग है, जो अक्सर सरकारों को रास नहीं आया करता। वह राज्य में किसी भी सरकार में पसन्द के अधिकारी नहीं रहे हैं। वे जो भी कार्रवाई करते उसके नतीजा उनका तबादला ही होता था। उनसे कनिष्ठ सरकारों में चहेते बने रहे; लेकिन खेमका अपनी ही चाल चलते रहे, जो अब तक चल रहे हैं। यह पहला मौक़ा है, जब राज्य के गृहमंत्री अनिल विज उनकी प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए साथ आये। खेमका ने विज से इस क़दम की सराहना भी की है। विज के समर्थन से अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं कि कोई और खेमका की अपरोक्ष विरोध कर रहा है। उनकी छवि ईमानदार और बिना अच्छे बुरे नतीजे के कड़े फ़ैसले लेने वाले अधिकारी के तौर पर जानी जाती रही है। यह पहला मामला है, जिसमें उन पर गम्भीर आरोप लगे हैं।

बहरहाल, अभी पुलिस जाँच होगी। इसके बाद मामला अदालत में जाएगा। न्यायिक प्रक्रिया में काफ़ी समय लगता है। फ़िलहाल उच्च न्यायालय ने खेमका की गिरफ़्तारी पर स्थगन आदेश दे रखा है। प्राथमिकी दर्ज पर अभी कोई फ़ैसला नहीं आया है। देखना यह है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश और सरकारी व्यवस्था दुरुस्त और अपनी बेदाग़ छवि के लिए मशहूर खेमका के लिए गृहमंत्री अनिल विज क्या कर सकेंगे? क्योंकि सरकार में विज से भी ज़्यादा प्रभावी लोग अपरोक्ष तौर पर मामले को आगे बढ़ाने के पक्षधर हैं।


“नियुक्तियों में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं बरती गयी। शैक्षिक योग्यता से लेकर अनुभव को दरकिनार किया गया। अगर प्रक्रिया ठीक होती, तो शिकायत के बाद प्रबंधक जैसे अहम पद पर नियुक्त हुए अधिकारियों को इस तरह सेवामुक्त करने की नौबत नहीं आती। नियुक्तियों में नियमों की अनदेखी ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार भी हुआ।’’
रविंद्र कुमार
आरटीआई कार्यकर्ता


“मेरे ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कराना सर्विस रूल्स के ख़िलाफ़ है। बिना सरकार की अनुमति के प्राथमिकी दर्ज कराना ग़लत है। पुलिस और लोकायुक्त की जाँच में मेरे ख़िलाफ़ किसी तरह के आरोप साबित नहीं हुए हैं। कुछ कतिपय लोग मेरी छवि को ख़राब करना चाहते हैं; लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिलेगी।’’
अशोक खेमका
अतिरिक्त मुख्य सचिव, हरियाणा


“विभागीय समिति की जाँच के बाद अशोक खेमका और अन्य के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करायी है। वह सरकारी अधिकारी हैं, अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। उन्होंने किसी के दवाब में यह नहीं किया है। अगर किसी को लगता है कि ऐसा है, तो सीबीआई जाँच तक के लिए तैयार हैं। उन्हें किसी तरह का कोई डर नहीं है।’’
संजीव वर्मा
प्रबंध निदेशक, हरियाणा वेयर हाउसिंग कार्पोरेशन

झारखण्ड की दीमक बन चुका भ्रष्टाचार

जनवरी, 2022 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी, जिस में भ्रष्टाचार अवधारणा सूचकांक (सीपीआई) 2021 में 180 देशों की सूची में भारत 85वाँ स्थान पर था।
इसमें राज्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार का तो पता नहीं चला; लेकिन इंडिया करप्शन सर्वे-2019 में आठ सबसे भ्रष्ट राज्यों की सूची में झारखण्ड देश भर में तीसरे स्थान पर था। देश के राजनीतिक ननक़्शे पर 15 नवंबर, 2000 को 28वें राज्य के रूप में जब झारखण्ड का उदय हुआ था, तब किसी को इस बात का भरोसा नहीं होगा कि निश्छल और संवेदनशील संस्कृति के समाज वाला यह प्रदेश बहुत जल्द भ्रष्टाचार की नयी परिभाषा गढ़ेगा। देश में इसकी चर्चा खनिज सम्पदा के साथ भ्रष्टाचार के कारण भी होगी। झारखण्ड को राजनीति के चतुर खिलाडिय़ों, सत्ता प्रतिष्ठान के चाटुकार नौकरशाहों और पैसा कमाने की अंधाधुंध होड़ में लगे लोगों ने जमकर लूटा और हर दिन यहाँ भ्रष्टाचार के नये क़िस्से सामने आने लगे। ऐसा ही एक मामला आईएएस पूजा सिंघल का इन दिनों फिर झारखण्ड से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चर्चा में है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने जब मनरेगा घोटाले में आईएएस पूजा सिंघल पर शिकंजा कसा, गिरफ़्तार किया और रिमांड पर लेकर पूछताछ शुरू की, तो चौंकाने वाले ख़ुलासे सामने आने लगे। मामला मनरेगा घोटाला तक ही सीमित नहीं रहा। ईडी के जाँच की दिशा ही बदलकर रख दी।

अब मनी लॉड्रिंग और अवैध खनन भी इसमें शामिल हो गया है। राज्य के कई नौकरशाह इसकी ज़द में आने लगे हैं। ईडी की पूजा सिंघल से पूछताछ जारी है। पूछताछ का दायरा बढ़ गया। कई अन्य लोगों को भी तलब किया जा रहा है। हर दिन नये-नये ख़ुलासे हो रहे हैं। ईडी सूत्रों की मानें, तो अब तक जो सुबूत और दस्तावेज़ हाथ लगे हैं, जो सार्वजनिक हुए तो हडक़ंप मच जाएगा।

ख़ैर, इस जाँच का पराभव क्या होगा? कौन नेता और कौन नौकरशाह इसकी ज़द में आएँगे? यह तो अभी गर्भ में छिपा है; लेकिन जितनी मुँह उतनी बात चल रही। साथ ही झारखण्ड एक बार फिर भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा में है।
14 वर्ष बाद कसा शिकंजा आईएएस पूजा सिंघल पर ईडी की दबिश मनरेगा घोटाला को लेकर हुई। यह मामला 14 वर्ष पुराना है। वर्ष 2008-09 और 2009-10 में झारखण्ड के खूँटी ज़िला में मनरेगा घोटाला हुआ था। पूजा सिंघल इस दौरान खूँटी की उपायुक्त (डीसी) थीं। पूजा पर आरोप था कि उन्होंने एक इंजीनियर को 18.06 करोड़ रुपये अग्रिम दिये थे। वर्ष 2011 में खूँटी और अडक़ी थाना में इंजीनियर राम विनोद सिन्हा और आर.के. जैन के ख़िलाफ़ मामला दर्ज हुआ। जुलाई, 2011 में मामला निगरानी के पास गया। 18 मई, 2012 को ईडी ने मनरेगा घोटाले में प्राथमिकी दर्ज की थी। इंजीनियर विनोद सिन्हा ने मनरेगा में 20 फ़ीसदी कमीशन की बात स्वीकारी। यहीं से आईएएस पूजा सिंघल ईडी के राडार में आयीं। ईडी ने 6 मई, 2022 को पूजा सिंघल और उनके क़रीबियों के यहाँ छापा मारा।

19.31 करोड़ की नक़दी!

पूजा सिंघल मामले में अभी तक तीन मुख्य किरदार सामने आये हैं। एक ख़ुद पूजा, दूसरे उनके पति अभिषेक झा और तीसरा चार्टेड अकाउंटेंट (सीए) सुमन कुमार। ईडी ने 6 मई को झारखण्ड समेत पाँच राज्यों के 23 ठिकानों पर पूजा सिंघल और उनके क़रीबियों पर एक साथ छापा मारा था। इस दौरान पूजा के सीए सुमन कुमार के घर से 17.60 करोड़ रुपये मिले। वहीं अन्य जगहों से 1.71 करोड़ रुपये बरामद हुए। यानी छापेमारी में कुल 19.31 करोड़ रुपये ज़ब्त किये गये। इतनी बड़ी नक़दी मिलना सभी को चौंकाने वाला था। इसके अलावा ईडी को निवेश और शेल कम्पनियों से जुड़े अहम दस्तावेज़ भी हाथ लगे। सुमन कुमार को तत्काल गिरफ़्तार कर लिया गया और अदालत में पेश कर रिमांड पर लिया गया। वहीं पूजा और अभिषेक से ईडी कार्यालय बुलाकर पूछताछ शुरू हुई। प्राप्त दस्तावेज़ और पूछताछ ने मनरेगा जाँच के मुँह को अवैध खनन और मनी लॉड्रिंग की तरफ़ मोड़ दिया। तीन दिन बाद ईडी ने पूजा सिंघल को भी गिरफ़्तार कर लिया और पूछताछ के लिए रिमांड पर ले लिया। पूजा सिंघल की गिरफ़्तारी के बाद राज्य सरकार ने क़दम उठाते हुए उन्हें निलंबित किया।

परत-दर-परत खुल रहे राज़

ईडी ने सीए सुमन कुमार को दो बार रिमांड पर लेने के बाद जेल भेज दिया है। पूजा सिंघल 25 मई तक रिमांड पर हैं। इसके बाद उन्हें जेल भेजा जा सकता है। अभिषेक झा को लगभग हर दिन पूछताछ के लिए ईडी कार्यालय बुलाया जा रहा है। तीनों मुख्य किरदार पूजा, अभिषेक और सुमन से पूछताछ और प्राप्त दस्तावेज़ ने के बाद जाँच का दयरा बढऩे लगा है।

ईडी ने दुमका, साहिबगंज, रांची समेत कई ज़िलों के खनन अधिकारियों (ज़िला खनन पदाधिकारी) को तलब किया और उनसे पूछताछ की। रिश्वत लेने की बात सामने आयी। शेल कम्पनियों का ख़ुलासा हुआ है। पूजा के पति अभिषेक झा को पल्स अस्पताल के लिए ज़मीन मुहैया कराने वाले बिल्डर के यहाँ ईडी छापा मार चुकी है। बिल्डर से भी पूछताछ हुई थी।

शेल कम्पनियों का तार कोलकाता से जुड़ा रहा। वहाँ भी दबिश बढ़ायी जा रही है। रिश्वत, मनी लॉड्रिंग और अवैध खनन तीनों के पुख़्ता सुबूत सामने आ रहे हैं। मामले की गम्भीरता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि ईडी ने न्यायालय में एक सील बन्द लिफ़ाफ़ा सौंपा है, जिसमें अब तक की जाँच के बारे में जानकारी दी गयी है। हालाँकि कोर्ट में हेमंत सोरेन और उनके परिवार के ख़िलाफ़ दायर पीआइएल पर सुनवाई चल रही थी। यानी यह बात साफ़ है कि पूजा सिंघल का मामला केवल मनरेगा घोटाले तक ही सीमित नहीं रह गया है।

चौंकाने वाले तथ्य आ रहे सामने

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के ख़ुद लिए माइंस और परिवार में आय से अधिक सम्पत्ति का मामला झारखण्ड उच्च न्यायालय में चल रहा है। पीआईएल के ज़रिये सीबीआई जाँच की माँग की गयी है। इस दौरान सरकार की तरफ़ से सर्वोच्च न्यायालय में अपील भी कर दी गयी है। इसमें न्यायालय जो फ़ैसला ले; लेकिन पूजा सिंघल के कारण इसमें भी ईडी की इंट्री हो चुकी है। हेमंत सोरेन के ख़िलाफ़ पीआईएल पर सुनवाई के दौरान ईडी ने न्यायालय में कहा कि पूजा सिंघल मामले में अभी कार्रवाई चल रही है। पूछताछ और जाँच जारी है। अवैध माइनिंग और शेल कम्पनियों से जुड़े कई तथ्य हाथ लगे हैं, जो चौंकाने वाले हैं। ईडी के इस बयान से यह संकेत तो मिल ही रहा है कि पूजा सिंघल का मामला दूर तलक जाएगा और इसकी ज़द में कई नेता और अधिकारी आने वाले हैं।

महत्त्वाकांक्षी रही हैं पूजा

पूजा सिंघल भारतीय प्रशासनिक सेवा की 2000 बैच की झारखण्ड काडर की आईएएस अधिकारी है। उन्हें भारत में सबसे कम उम्र में (21 साल) आईएएस बनने का गौरव हासिल है। इनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉड्र्स में दर्ज है। पूजा सिंघल ने दो शादियाँ की हैं। उनके पहले पति झारखण्ड काडर के आईएएस अधिकारी राहुल पुरवार हैं। उनसे 12 साल पहले उनका तलाक़ हो गया था।

पूजा सिंघल ने दूसरी शादी बिहार के रहने वाले बिजनेसमैन अभिषेक झा से की है। जो राँची में पल्स हॉस्पिटल के एमडी हैं। वह शुरू से महत्त्वाकांक्षी रही हैं। सत्ता के इर्द-गिर्द रहने की चाहत रही है। यही कारण है कि राज्य में पूर्व की रघुवर सरकार हो या फिर मौज़ूदा हेमंत सोरेन सरकार, पूजा का जलवा बरक़रार रहा है। बेहतरीन (लैविस लाइफ) ज़िन्दगी जीना। उनकी फ़ितरत रही है।

विवादों से रहा है नाता

पूजा सिंघल क़रीब 20 साल से झारखण्ड में अलग-अलग पदों पर रहकर अपनी सेवा दे रही हैं। चतरा, गढ़वा, खूँटी, पलामू आदि ज़िलों में पूजा सिंघल डीसी रह चुकी हैं। इसके बाद उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण विभागों में सचिव की अहम ज़िम्मेदारी भी निभायी है।
इस दौरान पूजा पर भ्रष्टाचार, कमीशनख़ोरी के कई संगीन आरोप भी लगे। लेकिन तमाम जाँचों के बावजूद सरकार ने उन्हें क्ली‍न चिट दे दी। मनरेगा घोटाले में भी विभागीय जाँच में उन्हें क्लीन चिट मिल चुकी है। मौज़ूदा समय में वह उद्योग एवं खान विभाग की सचिव थीं।

गहरी हैं भ्रष्टाचार की जड़ें

भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी और मज़बूत है कि इसे उखाडऩा काफ़ी मुश्किल है। प्रेमचंद की एक कहानी ‘नमक का दारोग़ा’ याद आती है, जिसमें नौकरी के लिए निकलते पुत्र को अनुभवी पिता ने कहा था कि ‘ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय (आमदनी) हो। क्योंकि वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो महीने में एक बार दिखता है…।’ लगता है झारखण्ड में भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारियों ने कहानी के इस हिस्से को गाँठ बाँध लिया है। हालाँकि ‘नमक का दारोग़ा’ के दूसरे हिस्से में जिस ईमानदारी को दिखाया गया, वैसे भी कुछ अधिकारी हैं; लेकिन इनकी गिनती बहुत कम है। अगर ऐसा नहीं होता, तो पूजा सिंघल जैसी अधिकारी नहीं होतीं। खनन मामले में ज़िला से मुख्यलय तक रिश्वत पहुँचाने की बात खुल कर सामने नहीं आतीं। अनुज गर्ग की पुस्तक ‘खुली किताब’ की भी एक बारगी याद आती है, जिसमें उन्होंने सरकारी दफ़्तरों में भ्रष्टाचार का ज़िक्र किया है। कहा गया है कि अभागे हैं, वे जो रिश्वत को समाजविरोधी बताते हैं। अरे रिश्वत तो वह सम्पर्क सूत्र है, जो खड़ूस-से-खड़ूस अफ़सर को विनम्रता की शैली सिखाता है। यह एक सीमा तक सही भी लगता है। क्योंकि झारखण्ड में संस्थागत तरीक़े से भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर तक व्याप्त हो चुका है। झारखण्ड में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा से लेकर कई नेताओं के दामन काले हो चुके हैं। इनकी फ़ेहरिस्त और कहानी इतनी लम्बी है कि एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर खनिज सम्पदा के बराबर में भ्रष्टाचार ने झारखण्ड को विख्यात बना दिया है। इसके लिए सरकारी व्यवस्था के साथ-साथ नौकरशाह भी उतना ही ज़िम्मेदार है। अफ़सोस यह है कि भ्रष्टाचार की ज़द में नौकरशाह बहुत कम आये हैं। झारखण्ड बनने के बाद एक-दो गिने चुने आईएएस-आईपीएस के कारनामे उजागर हुए और उन्हें सज़ा मिली। जबकि हक़ीक़त यह है कि कई आईएएस अधिकारियों के दामन पाक-साफ़ नहीं हैं। यही वजह है कि राजभवन ने 11 भ्रष्ट आईएएस अधिकारियों की सूची तैयार कर केंद्र को उपलब्ध कराया था और वह सभी जाँच एजेंसियों के राडार पर हैं। अब देखना है कि झारखण्ड कितने भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलाकर अपना दामन साफ़ करने का प्रयास करता है।

सिंघल-घोटाले के पर्दाफ़ाश का घटनाक्रम

 जुलाई, 2011 में सम्बन्धित मामला निगरानी में दर्ज हुआ था।
 18 मई, 2012 को ईडी ने मनरेगा घोटाले में प्राथमिकी दर्ज की थी।
 28 नवंबर, 2018 को इंजीनियर ने मनरेगा में 20 फ़ीसदी कमीशन देने की बात स्वीकारी।
 06 मई, 2022 को ईडी ने पूजा सिंघल सहित अन्य लोगों के ठिकानों पर छापा मारा।
 07 मई, 2022 को सीए सुमन कुमार सिंह को गिरफ़्तार किया गया।
 08 मई, 2022 को ईडी ने पूजा सिंघल के पति अभिषेक झा से पूछताछ की।
 10 मई, 2022 को पूजा सिंघल से ईडी ने पूछताछ की।
 11 मई, 2022 को पूजा सिंघल को गिरफ़्तार कर लिया गया।
 11 मई, 2022 को ही पूजा सिंघल को ईडी ने पाँच दिन के रिमांड पर लिया।
 12 मई, 2022 को पूजा सिंघल को सस्पेंड कर दिया गया।
 16 मई, 2022 को पूजा सिंगल की रिमांड अवधि चार दिन के लिए बढ़ी।
 20 मई, 2022 को पूजा सिंघल की रिमांड पाँच दिनों के लिए और बढ़ा दी गयी।
 20 मई, 2022 को सीए सुमन कुमार सिंह को होटवार जेल भेज दिया गया।

पहले भी हो चुका है बड़ा घोटाला

झारखण्ड एक बार 2009 में तब चर्चा में आया था, जब कोयला घोटाले का ख़ुलासा हुआ था। यह घोटाला झरखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के समय में हुआ था। मधु कोड़ा पर कोलकाता की विनी आयरन एंड स्टील उद्योग लिमिटिड (विसुल) को कोल ब्लॉक देने का षड्यंत्र रचने का आरोप था। इस मामले में उनके दो सहयोगी राज्य के मुख्य सचिव अशोक कुमार बसु और एक अन्य का नाम भी शामिल था। राज्य की पुलिस की जाँच शाखा ने 30 नवंबर, 2009 को कोड़ा को गिरफ़्तार किया था। लेकिन 31 जुलाई 2013 को उन्हें जमानत मिल गयी।
कोड़ा पर आरोप है कि उन्होंने अवैध कोल ब्लॉक आवंटन में 5,000 करोड़ रुपये का घोटाला किया था। साल 2013 में ईडी ने कोड़ा की 144 करोड़ की सम्पत्ति को अटैच किया था। मज़दूर से माननीय बनने वाले कोड़ा के अरबपति बनने की कहानी भी दिलचस्प और चौंकाने वाली है।

निर्यात की सीमा के मायने

गेहूँ के बाद चीनी निर्यात की सीमा तय करने से महँगाई और चीनी उद्योग पर क्या असर होगा?

रूस-यूक्रेन संघर्ष के कारण वैश्विक आपूर्ति अस्थिरता से सतर्क केंद्र सरकार ने घरेलू माँग और मूल्य स्थिरता के लिए पर्याप्त चीनी स्टॉक सुनिश्चित करने के लिए 01 जून से चीनी निर्यात के नियमन का फ़ैसला किया है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) ने कहा है कि सरकार ने यह फ़ैसला काफ़ी सावधानी से उठाया गया क़दम है। गेहूँ निर्यात की सीमा तय करने के बाद चीनी निर्यात की सीमा तय करके अब चावल की निर्यात सीमा भी तय की जाएगी। इन खाद्यान्नों के निर्यात की सीमा तय करने के क्या मायने हैं? यह जानना ज़रूरी है।

दरअसल गेहूँ के निर्यात पर प्रतिबंध के बाद चीनी निर्यात पर अंकुश कई उपायों के पीछे आता है, जिसमें बढ़ रही मुद्रास्फीति को रोकने और घरेलू खपत के लिए स्टॉक की सुरक्षा के लिए ईंधन पर शुल्क में कटौती शामिल है। यह रूस-यूक्रेन संघर्ष के कारण वैश्विक आपूर्ति अस्थिरता के बीच व्यावहारिक संरक्षणवाद अल्पावधि में एक सुरक्षित शर्त प्रतीत होती है। खाद्य मंत्रालय के अनुसार, चीनी की एक्स-मिल क़ीमतें 32-33 रुपये प्रति किलोग्राम पर चल रही हैं, जबकि खुदरा क़ीमतें क्षेत्र के आधार पर 33 रुपये से 44 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच हैं। भारत में चीनी का थोक मूल्य 3150 रुपये से 3500 रुपये प्रति कुंतल के बीच है, जबकि खुदरा क़ीमतें भी देश के विभिन्न हिस्सों में 36-44 रुपये के दायरे में हैं।

पिछले साल ब्राजील के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी निर्यातक था, और बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया और दुबई को शीर्ष ग्राहकों में गिना जाता है। भारत ने पिछले साल चीनी निर्यात में 7.2 मिलियन का रिकॉर्ड बनाया था। यह रिकॉर्ड शायद ही पहले कभी बना हो। भारतीय चीनी मिलें निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सब्सिडी पर निर्भर रही हैं। हालाँकि पिछले एक साल में वैश्विक क़ीमतों में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिससे भारत बिना सब्सिडी के शिपमेंट बढ़ा सकता है। इस सीजन में निर्यात 9 मिलियन से 11 मिलियन टन के बीच रहने की उम्मीद थी।

अप्रैल में खाद्य मुद्रास्फीति के साथ इस साल मार्च के 7.68 फ़ीसदी से बढक़र 8.38 फ़ीसदी हो गयी, चीनी के निर्यात पर अंकुश की उम्मीद थी। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के उपाध्यक्ष पलानी जी पेरियासामी ने कहा है कि सरकार ने यह निर्णय काफ़ी सावधानी के रूप में किया है। यह सावधानी बरतने या बढ़ती मुद्रास्फीति को रोकने के लिए हो सकता है; लेकिन तथ्य यह है कि सरकार ने चीनी सीजन 2021-22 (सितंबर-अक्टूबर) के दौरान घरेलू उपलब्धता और मूल्य स्थिरता बनाये रखने के उद्देश्य से 100 एलएमटी तक चीनी के निर्यात की अनुमति देने का निर्णय किया है। चालू चीनी सीजन 2021-22 में इसका निर्यात ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक था। भारत चालू वर्ष में दुनिया में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक रहा है। ब्राजील में कम चीनी उत्पादन और उच्च तेल की क़ीमतें, जो वहाँ मिलों को अधिक गन्ना आधारित इथेनॉल का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं; ने वैश्विक चीनी क़ीमतों में वृद्धि की है।

अब चीनी निदेशालय, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग के जारी आदेश के अनुसार, पहली जून, 2022 से 31 अक्टूबर, 2022 तक या अगले आदेश तक (जो भी पहले हो) चीनी के विशेष निर्यात की अनुमति दी जाएगी। यह निर्णय चीनी के रिकॉर्ड निर्यात के आलोक में आया है। चीनी मौसम 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में, केवल 6.2 एलएमटी, 38 एलएमटी और 59.60 एलएमटी चीनी का निर्यात किया गया था। चीनी सीजन 2020-21 में 60 एलएमटी के लक्ष्य के मुक़ाबले क़रीब 70 एलएमटी का निर्यात किया जाएगा। चालू चीनी सीजन 2021-22 में क़रीब 90 एलएमटी के निर्यात के अनुबंध पर हस्ताक्षर किये गये हैं, चीनी मिलों से क़रीब 82 एलएमटी चीनी निर्यात के लिए भेजी गयी है और क़रीब 78 लाख मीट्रिक टन का निर्यात किया गया है। चालू चीनी सीजन 2021-22 में चीनी का निर्यात ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक है।

यह निर्णय सुनिश्चित करेगा कि चीनी सीजन (30 सितंबर, 2022) के अन्त में चीनी का क्लोजिंग स्टॉक 60-65 एलएमटी बना रहे, जो घरेलू उपयोग के लिए आवश्यक 2-3 महीने का स्टॉक (उन महीनों में मासिक आवश्यकता क़रीब 24 एलएमटी है) होता है। नये सीजन में पेराई कर्नाटक में अक्टूबर के आख़िरी हफ़्ते में और महाराष्ट्र में अक्टूबर से नवंबर के आख़िरी हफ़्ते जबकि उत्तर प्रदेश में नवंबर में शुरू हो जाती है। इसलिए आमतौर पर नवंबर तक चीनी की आपूर्ति पिछले साल के स्टॉक से होती है।

चीनी के निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि और देश में चीनी का पर्याप्त भण्डार बनाये रखने की आवश्यकता के साथ-साथ चीनी की क़ीमतों को नियंत्रण में रखते हुए देश के आम नागरिकों के हितों की रक्षा करने की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने चीनी को पहली जून, 2022 से विनियमित करने का निर्णय किया है।

चीनी मिलों और निर्यातकों को चीनी निदेशालय, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग से निर्यात रिलीज ऑर्डर (ईआरओ) के रूप में अनुमोदन लेने की आवश्यकता है। चीनी निर्यात की सीमा को अधिसूचित करते हुए सरकार ने कहा कि पहली जून से 31 अक्टूबर के बीच विशेष अनुमति के साथ शिपमेंट की अनुमति दी जाएगी। चीनी मिलों और निर्यातकों को चीनी निदेशालय, खाद्य मंत्रालय से निर्यात रिलीज ऑर्डर के रूप में अनुमोदन लेने की आवश्यकता है।

वार्षिक रूप से नवंबर तक चीनी की आपूर्ति पिछले वर्ष के स्टॉक से होती है। चीनी सीजन 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में लगभग 6.2 लाख मीट्रिक टन, 38 लाख मीट्रिक टन और 59.60 लाख मीट्रिक टन चीनी का निर्यात किया गया था। चीनी सीजन 2020-21 में लगभग 70 एलएमटी निर्यात किया गया था, जो 60 एलएमटी के लक्ष्य से अधिक था।

चीनी के निर्यात पर प्रतिबंध खाद्य आपूर्ति की सुरक्षा के लिए एक एहतियाती उपाय है और यह एक सप्ताह पहले ही गेहूँ की बिक्री पर प्रतिबंध के बाद आया है। इसका उद्देश्य चीनी की घरेलू उपलब्धता को बनाये रखना और क़ीमतों को नियंत्रण में रखकर उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना है।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के अनुसार, भारत में इस सीजन में 35 मिलियन टन उत्पादन और 27 मिलियन टन की खपत होने की उम्मीद है। पिछले सीजन के लगभग 8.2 मिलियन टन के भण्डार सहित, इसके पास निर्यात के लिए 10 मिलियन सहित, 16 मिलियन का अधिशेष है। कहा जा रहा है कि अब चावल निर्यात की सीमा भी तय होगी। यहाँ ये सवाल उठते हैं कि इन खाद्य पदार्थों की निर्यात की सीमा तय करने से महँगाई पर अंकुश कैसे लगेगा? और उद्योग पर इसका क्या होगा असर?


“चीनी की घरेलू क़ीमतें अन्य वस्तुओं की तुलना में अधिक स्थिर हैं, चीनी निर्यात पर अंकुश लगाने का निर्णय कमोडिटी की वैश्विक कमी के बीच खुदरा क़ीमतों में किसी भी तरह की अनुचित वृद्धि को रोकने के लिए किया गया था।’’
सुधांशु पांडे
खाद्य सचिव

थॉमस कप में लहराया तिरंगा

पूर्व में सिर्फ़ एक सेमीफाइनल खेली भारतीय बैडमिंटन टीम का स्वर्णिम प्रदर्शन

दिग्गज प्रकाश पादुकोण की कप्तानी में सन् 1979 में जब भारत की पुरुष टीम दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बैडमिंटन टूर्नामेंट में से एक थॉमस कप में पहली बार सेमीफाइनल में पहुँची थी, तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं था कि उसे दोबारा सेमीफाइनल में पहुँचने या कप जीतने में और 43 साल लग जाएँगे। यह संयोग ही है कि भारत की पुरुष टीम पहली बार न सिर्फ़ फाइनल में पहुँची, उसने कप जीतकर क़रीब 70 साल का सूखा भी ख़त्म कर दिया। निश्चित ही थॉमस कप में भारत की यह जीत देश की बैडमिंटन का स्वर्णिम काल है और प्रतिभा से भरपूर भारतीय टीम के लिए भविष्य में और ऐसे अवसर आएँगे।

भारत के खिलाडिय़ों ने हाल के वर्षों में विश्व बैडमिंटन सर्किट में बेहतरीन प्रदर्शन किया है; लेकिन थॉमस कप जैसे बड़े बैडमिंटन टूर्नामेंट में यह जीत भारत की विजय पताका दुनिया के नक़्शे पर फहराने में सफल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थॉमस कप में भारतीय पुरुष बैडमिंटन टीम की पहली ख़िताबी जीत की सराहना करते हुए कहा कि उन्होंने इतिहास रच दिया है और साथ ही खिलाडिय़ों को बैंकॉक से लौटने पर अपने निवास पर आने के लिए आमंत्रित किया।

भारत को थॉमस कप में इंडोनेशिया जैसा प्रदर्शन करने के लिए बहुत समय लगेगा, जिसने कुल 14 बार ख़िताब पर क़ब्ज़ा जमाया है। चीन ने 10, तो मलेशिया ने 5 ख़िताब जीते हैं। हाँ, भारत अब जापान और डेनमार्क की श्रेणी में ज़रूर आ गया है, जिन्होंने एक-एक बार ख़िताब पाया। डेनमार्क अकेली ग़ैर-एशियाई टीम है, जिसने यह ख़िताब जीता; अन्यथा थॉमस कप पर एशियाई प्रभुत्व ही रहा है।

थॉमस कप की यह जीत भारत में बैडमिंटन की नयी और प्रतिभाशाली पौध तैयार करने में मदद करेगी। हाल के वर्षों में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप और विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में भारत ने चमकदार प्रदर्शन किया है। इसके अलावा इंडोनेशिया ओपन, इंडिया ओपन प्री गोल्ड, सिंगापुर ओपन सीरीज, स्विस ओपन, बीडब्ल्यूएफ सुपर सीरीज, चाइना ओपन सुपर सीरीज और कोरिया ओपन सुपर सीरीज जैसे टूर्नामेंट में बेहतरीन प्रदर्शन किया है।

निश्चित ही भारत में बैडमिंटन हाल के वर्षों में लोकप्रियता की नयी सीढिय़ाँ चढ़ रही है। इसका असर भारत में होने वाले प्रीमियर बैडमिंटन लीग, रैंकिंग टूर्नामेंट अखिल भारतीय अंतर-संस्थागत बैडमिंटन टूर्नामेंट, सब जूनियर इंडियन नेशनल बैडमिंटन चैंपियनशिप, जूनियर इंडियन नेशनल बैडमिंटन चैंपियनशिप और भारतीय राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियनशिप में देखने को मिला है। निश्चित ही देश में बैडमिंटन के खेल को ऊपर ले जाने में सायना नेहवाल और पीवी सिंधु जैसी महिला खिलाडिय़ों के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता।

कैसे जीता भारत

पहली बार प्रतिष्ठित थॉमस कप बैडमिंटन फाइनल में पहुँचकर टीम इंडिया वैसे तो उत्साह से भरी थी; लेकिन फाइनल में उसके सामने 14 बार का चैंपियन इंडोनेशिया था। बैंकॉक के इंडोर स्टेडियम में मैच देखने आये बैडमिंटन रसिकों को भारत के जीतने की शायद सबसे कम उम्मीद थी। लेकिन भारत ने फाइनल में इंडोनेशिया को सीधे मुक़ाबलों में 3-0 से मात देते हुए ख़िताब पर क़ब्ज़ा कर लिया।

किदांबी श्रीकांत ने तीसरा गेम जीतने के बाद ही भारत को वह उपलब्धि दिला दी, जिसका उसे दशकों से इंतज़ार था। थॉमस कप को वैसे भी बैडमिंटन में ओलंपिक या विश्व कप स्वर्ण से कम नहीं माना जाता। शुरुआती दो गेम अपने नाम कर चुके तीसरे और निर्णायक मुक़ाबले में भारत के किदांबी श्रीकांत का मुक़ाबला इंडोनेशिया के जोनाथन क्रिस्टी के साथ था, जिन्हें श्रीकांत ने पहले गेम में आसानी से 21-15 से मात देकर भारतीय बैडमिंटन प्रेमियों को रोमांच से भर दिया।

दूसरे मुक़ाबले में क्रिस्टी और श्रीकांत के बीच जबरदस्त टक्कर दिखी। एक समय श्रीकांत के पास 11-8 की बढ़त थी; लेकिन यह आख़िरी गेम 21-21 पर जाकर टिक गया। यहाँ श्रीकांत ने दो अंक बटोर कर 23-21 से मैच जीत लिया और भारत ने इतिहास रच दिया। भारत की ऐतिहासिक जीत का आधार रखा शुरुआती दो मैचों ने। पहले दिन उदीयमान लक्ष्य सेन ने विश्व के नंबर-4 एंथोनी सिनिसुका को 8-21, 21-17, 21-16 से हराकर 1-0 की बढ़त दिला दी। सेन की सर्विस और रिटर्न शॉट देखने लायक थे।

बेस्ट ऑफ फाइव में भारत 1-0 से आगे हुआ, तो बढ़त बनाये रखने की ज़िम्मेदारी अब डबल्स की जोड़ी सात्विक साईराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी के ऊपर थी। ये दोनों मोहम्मद अहसान और केविन संजय के ख़िलाफ़ शुरुआती कांटे की टक्कर में 18-21 से हार गये, तो मानों भारतीय ख़ेमे में उदासी-सी छा गयी और जीत की कल्पना को मानों ब्रेक से लग गये। लेकिन अगले दो दौर में रंकीरेड्डी और चिराग की जोड़ी ने 23-21 और 21-19 से जीत दर्ज कर भारतीय ख़ेमे में ख़ुशी और उम्मीद भर दी। किदाम्बी श्रीकांत ने तीसरे मैच में दर्ज करके बैंकॉक के इंडोर स्टेडियम में तिरंगा लहरा दिया- इस टूर्नामेंट में पहली बार।

इससे पहले सेमीफाइनल में चोटिल होकर भी मैदान में उतरे एच.एस. प्रणय ने भारत को जीत दिलायी थी। डेनमार्क के ख़िलाफ़ सेमीफाइनल में दोनों टीमें 2-2 की बराबरी पर थीं। आख़िरी मैच में प्रणय के सामने डेनमार्क के रासमुस गेमके थे। सवा घंटा चले मुक़ाबले में 13-21, 21-9, 21-12 से गेमके को हराकर पहली बार भारत के फाइनल में पहुँचने का रास्ता प्रणय ने साफ़ किया। पूरे थॉमस कप में भारत का सफ़र शानदार रहा। भारत को ग्रुप स्टेज मैच में एकमात्र हार चीनी ताइपे से मिली। भारतीय टीम ने ग्रुप स्टेज में जर्मनी को 5-0 से, कनाडा को 5-0 से हराया; लेकिन चीनी ताइपे से 2-3 से हार झेलनी पड़ी। क्वार्टर फाइनल में भारत ने पाँच बार की चैम्पियन मलेशिया को हराया था।

पिछले एक दशक में भारतीय बैडमिंटन ने कई सफलताएँ अर्जित की हैं। इन सफलताओं में तीन ओलंपिक मेडल, दो खिलाडिय़ों के नाम के आगे विश्व नंबर-1 का सम्मान और इकलौता वल्र्ड चैंपियनशिप ख़िताब आदि शामिल हैं। महिला खिलाडिय़ों में साइना नेहवाल, पीवी सिंधु जैसी प्रसिद्ध भारतीय खिलाडिय़ों की चर्चा पूरी दुनिया में है। जबकि पुरुषों में पारूपल्ली कश्यप, चिराग शेट्टी, किदांबी श्रीकांत, लक्ष्य सेन, प्रियांशु राजवत, सतविकसाईराज रणकीरेड्डी, ध्रुव कपिला, एम.आर. अर्जुन, बी. साई प्रणीत, एच.एस. प्रणय, कृष्ण प्रसाद गारगा, विष्णुवर्धन पंजाला जैसे दिग्गज खिलाडिय़ों ने भारतीय बैडमिंटन की मानो तस्वीर ही बदल दी है।

अब तक भारत का प्रदर्शन

1900 के दशक की शुरुआत में अंग्रेज बैडमिंटन खिलाड़ी सर जॉर्ज एलन थॉमस एक सफल खिलाड़ी थे। उनकी इच्छा फुटबॉल वल्र्ड कप और टेनिस के डेविस कप की तर्ज पर बैडमिंटन में पुरुषों के लिए टूर्नामेंट शुरू करने की थी। उनके प्रयासों से सन् 1948-49 में ब्रिटिश धरती पर पहली बार यह टूर्नामेंट हुआ, जो उनके ही नाम पर था। पहले यह तीन साल में एक बार होता था, जबकि सन् 1982 से दो साल में एक बार होने लगा। इसलिए सन् 1948-49 से लेकर अब तक सिर्फ़ 32 बार ही थॉमस कप आयोजित हुआ है। दिलचस्प यह है कि यह टूर्नामेंट इतने वर्षों में सिर्फ़ छ: देश ही जीत पाये हैं। इनमें इंडोनेशिया सबसे सफल टीम रही है, जिसने अब तक 14 बार थॉमस कप जीता है।

थॉमस कप में बैडमिंटन वल्र्ड फेडरेशन के सदस्य देश ही भाग लेते हैं। भारत ने पहली बार सन् 1952 में टूर्नामेंट में हिस्सा लिया और फाइनल राउंड इंटर-जोन में तीसरे स्थान पर रहा, जबकि सन् 1955 में भी। सन् 1979 में पहली बार सेमीफाइनल में पहुँचा, जिसमें प्रकाश पादुकोण के अलावा सैयद मोदी जैसे खिलाड़ी थे। भारत तीन बार, सन् 2006, 2010 और 2020 में क्वार्टर फाइनल में भी पहुँचा। इसके अलावा सन् 1988 में भारत 8वें स्थान पर, सन् 2000 में 7वें स्थान पर, सन् 2014 में 11वें स्थान पर, सन् 2016 में 13वें स्थान पर और सन् 2018 में 10वें स्थान पर पहुँचा।

लोगों पर धर्मांधता हावी

धर्म के बहाने पूरी दुनिया में अब तक छोटे-बड़े हज़ारों युद्ध हुए हैं। ये युद्ध दो धर्मों के बीच तो बाद में शुरू हुए, पहले एक ही धर्म के लोगों में परस्पर हुए। हर धर्म की कहानी कहीं-न-कहीं युद्ध से ही शुरू हुई; और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा, जब तक मानव का अस्तित्व है। ये युद्ध क्यों हुए? और क्यों जारी रहेंगे? इसका सबसे पहला और बड़ा कारण भ्रम और बुद्धिहीनता है। बुद्धिहीनता के चलते भ्रम पैदा होता है और भ्रम विवेक को खा जाता है, जिससे सत्य-असत्य में अन्तर समझ नहीं आता है। भ्रम का पोषक अविश्वास है। अविश्वास जब बढ़ता है, तब झूठ पर विश्वास बढ़ता है। झूठ का पोषक लालच है। लालच छल, हनन और कपट (बेईमानी) का कारण है। यही तीनों ठगी, चोरी और लूट का कारण बनते हैं। यह लूट ही युद्ध का पर्याय है। सदियों से होते आ रहे युद्धों में लूट ही तो हुई है, जो सबलों (ताक़तवरों) का असल ध्येय रहा है। युद्धों में धरती, धन-धान्य और स्त्रियों की लूट होती रही है। यह युद्ध सुख प्राप्ति के लिए किये गये। इसी सुख के लिए एक व्यक्ति दूसरे का नाश चाहता है।

धर्म की बात करें, तो हर धर्म जातिवाद और ग़रीबी-अमीरी के भेद को साथ लेकर चलता है। इसी के चलते एक धर्म के अन्दर भी और दो धर्मों के बीच भी, घृणा पनपती है। यही घृणा युद्ध का कारण बनती है। कुछ लोग इसे धर्म-युद्ध कहते हैं। परन्तु धर्म-युद्ध का वास्तविक अर्थ है- सत्य का असत्य पर आक्रमण, अच्छाई का बुराई पर आक्रमण; अर्थात् अच्छे लोगों का बुरे लोगों पर आक्रमण। अगर इसे उलट दें, तो उसे अधर्म युद्ध कहेंगे। अथात् असत्य और बुराई सत्य और अच्छाई पर आक्रमण करे, तो वह अधर्म युद्ध है।
अब लोग धर्म-युद्ध की परिभाषा नहीं समझते, क्योंकि उन्हें सही शिक्षा नहीं मिल रही। इसीलिए लोगों पर धर्मांधता हावी है। यही धर्मांधता सदियों से लोगों में घृणा और बैर कराती रही है, जिससे विभेद और युद्ध हुए हैं। राजनीति ने इस आग में घी की तरह काम किया है। धर्मांधता के चलते होने वाले युद्धों का ध्येय भी लूट के साथ-साथ हनन ही रहा है। ध्येय चाहे जो भी हो, परन्तु युद्ध का परिणाम अंतत: विनाश ही होता है; जिसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। पशु-पक्षियों में युद्ध भूख, अस्तित्व और अतिक्रमण के लिए होता है। हालाँकि मनुष्यों के बीच में होने वाले युद्धों के पीछे भी कहीं-न-कहीं दो बड़े कारण- भूख और अस्तित्व हैं। परन्तु इसकी पूर्ति के उपरान्त भी और अधिक सुख पाने की लालसा से मनुष्य अतिक्रमण, दमन, छल, कपट, लूट, चोरी, ठगी और हत्या के लिए आगे बढ़ा है।
सवाल यह है कि पूरे विश्व के लोग एक-दूसरे के साथ एकता व सौहार्द से क्यों नहीं रह सकते? क्या इससे किसी का धर्म मर जाएगा? क्या इससे उसका कथित ईश्वर रूठ जाएगा? क्या इससे उसे नरक में जाना पड़ेगा? क्या इससे उसका स्यवं का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा? नहीं। यह सब तो उसके तुच्छ और बुरे कर्मों से होना है। धर्म ग्रन्थों में लिखा है- सभी से प्रेम कीजिए, तभी ईश्वर आपसे प्रेम करेगा। सभी पर दया कीजिए, तभी ईश्वर आप पर दया करेगा। फिर हम एक होकर क्यों नहीं रहते? भारत में एकता, प्रेम, सौहार्द के कई उदाहरण हैं, जिनमें से दो की चर्चा यहाँ आवश्यक है।

बरेली के मानराय कटरा में चुन्ना मियाँ ने सन् 1960 में लक्ष्मी-नारायण मन्दिर बनवाया, जिसका उद्घाटन देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया था। यह मन्दिर आज भी चुन्ना मियाँ का मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर में आज भी दोनों धर्म के लोग सेवा करते हैं। इसी शहर में आला हज़रत की मज़ार में सनातनधर्मियों का बड़ा योगदान है, जिसे कोई नहीं भुला सकता।

इसके अलावा अलीगंज के पुराने हनुमान मन्दिर का निर्माण नवाब शुजाउद्दौला की बेगम छतर कुँअर ने कराया था। कहा जाता है कि हनुमान जी की पूजा-पाठ करने से छतर कुँअर ने मंगलवार के दिन पुत्र के रूप में सआदत अली ख़ाँ उर्फ़ मंगलू को जन्म दिया। इसके बाद छतर कुँअर ने अलीगंज में मन्दिर का निर्माण कराया। आज भी यहाँ हर साल ज्येष्ठ माह में मंगल के दिन मंगल भण्डारा उत्सव होता है, जिसमें सनातनी और मुसलमान बड़े श्रद्धाभाव से सम्मिलित होते हैं। दोनों ही भण्डारे की व्यवस्था में शामिल होते हैं। यह सब बताने का अर्थ यह है कि ईश्वर तो एक ही है। हम सब लोग अपनी-अपनी भाषा के अनुसार अलग-अलग नामों से उसे पुकारते हैं; अपनी-अपनी समझ के अनुसार अलग-अलग स्वरूप मानकर उसी की उपासना करते हैं। कुल मिलाकर उसे बाँटने के चक्कर में लोग ही बँट गये हैं। मेरा एक शेर देखें-

‘‘ख़ुदा बाँटा, ज़मीं बाँटी, ज़ुबाँ, मज़हब सभी बाँटे
मगर इंसान ख़ुद ही बँट गया, ये ही हक़ीक़त है।’’

जम्मू कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी के सर्वेसर्वा भीम सिंह का निधन

जम्मू कश्मीर की राजनीति के एक बड़े नेता और नेशनल पैंथर्स पार्टी (एनपीपी) के संस्थापक भीम सिंह का मंगलवार को निधन हो गया। वे तत्कालीन जम्मू कश्मीर विधानसभा के सदस्य भी रहे। वो कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन पर पीएम मोदी ने गहरा शोक जताया है।

उनका निधन जम्मू में हुआ। भीम सिंह को मजबूत आवाज वाला नेता माना जाता था। वो सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील भी थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर के मसले पर काफी कुछ लिखा भी है।

सिंह उधमपुर जिले के भुगतेरियाँ गांव के थे। उनके परिवार में पत्नी जय माला और लंदन में रह रहा बेटा अंकित लव हैं। सिंह (81) ने जम्मू के जीएमसी अस्पताल में अंतिम सांस ली।

भीम सिंह के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गहरा शोक जताया है। अपने संवेदना संदेश में मोदी ने ट्वीट करके कहा – ‘प्रोफेसर भीम सिंह जी को एक जमीनी नेता के रूप में याद किया जाएगा, जिन्होंने जम्मू कश्मीर के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।’ पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा ने भी भीम सिंह के निधन पर शोक जताया है।

जेके के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने ट्वीट में कहा – ‘दुख की इस घड़ी में शोक संतप्त परिवार और दोस्तों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना। ओम शांति।’