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श्रीलंका में आपातकाल के बाद भी हिंसा और तोड़फोड़  जारी

श्रीलंका में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी है, लेकिन इसके बावजूद वहां हिंसा जारी है। खाद्य पदार्थों के गंभीर संकट के बाद वहां लोगों में जबरदस्त नाराजगी है और वे हिंसा पर उत्तर आये हैं। देश में कई जगह प्रदर्शन, सरकारी संपत्तियों में तोड़ फोड़ की गई है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक लगातार बिजली कट और ईंधन  की कमी ने लोगों में जावबर्दस्त गुस्सा भर  दिया है क्योंकि वे गंभीर दिक्कतें झेल रहे हैं। देश में बिगड़ रहे हालात देखते राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने शनिवार को आपातकाल लागू करने की घोषणा की।

देश के आर्थिक संकट से उपजी लोगों की दिक्क्तों के बाद वहां आगजनी, हिंसा, प्रदर्शन, सरकारी संपत्तियों में तोड़ फोड़ शुरू हो गयी है। पावर कट, खाने-पीने की चीजों समेत श्रीलंका कई दिक्कतों से जूझ रहा है। आपातकाल को पहली अप्रैल से लागू किया गया है।

श्रीलंका के राष्ट्रपति कार्यालय से जारी आदेश में कहा गया है कि देश में कानून व्यवस्था कायम रखने, आवश्यक चीजों की सप्लाई को जारी रखने के लिए ये फैसला लिया गया। रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस ने 50 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है।  कोलंबो और उसके आसपास के इलाकों में शुक्रवार को कर्फ्यू लगा दिया गया था, ताकि छिटपुट विरोध प्रदर्शनों को रोका जा सके।

नवरात्र के अवसर पर आज मंदिरों मेंं धूम  

चैत्र पक्षे वासंतिक नवरात्र के अवसर पर आज मंदिरों में भक्तों ने देवी माँ की पूजा अर्चना की और आर्शीवाद प्राप्त किया। वर्ष 2020-21 में कोरोना के कहर के चलते मंदिरों में भक्तगण पूजा-अर्चना तक नही कर पाये थे। लेकिन इस बार कोरोना के मामलों में गिरावट के चलते पाबंदियां को हटा दिया गया है। जिससे मंदिरों में सुबह से ही काफी भीड़-भाड़ देखी गयी है।
वहीं मंदिरों के बाहर पूजा-अर्चना का समान बेचनें वालों के चेहरेों पर रौनक भी देखी गई है। हमारे देश में कोई भी त्यौहार हो तो बाजारों में रौनक होती है। लोगों में बड़ा उल्लास देखा जाता है। देवी माता मंदिर के पुजारी पंडित रामकिशुन पांडेय ने बताया कि हिन्दू धर्म में हर चैत्र पक्ष के नवरात्रि के अवसर पर मदिरों और बाजारों में भीड़ देखी जाती रही है। लेकिन दो साल बाद कोरोना को लेकर जो पाबंदी हटाई गयी है। इससे ज्यादा भीड़ बढ़ी है।
दिल्ली के छोटे-बड़े मंदिरों के पुजारियों ने मंदिरों को बड़े ही शान से सजाया है। पुजारियों का कहना है कि देवी माँ की कृपा से अब देश में कोई आपदा-विपदा नहीं आयेगी। उन्होंने कहा कि भारत देवी ऋषि-मुनियों का देश है। जिसकी कृपा से विश्व में जो अशांति फैली है वो भी दूर होगी। छतरपुर मंदिर और झण्डेवालान मंदिर में सुबह से हवन-यज्ञ का आयोजन किया है। जिसमें बच्चों और बुजुगों ने आहुति देखर देवी मां का आर्शीवाद प्राप्त किया ।    

रूसी विदेश मंत्री लावरोव से मिले जयशंकर, बोले भारत कूटनीति का पक्षधर

रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के भारत दौरे और अमेरिका के भारत के रूस के ‘नजदीक’ जाने को लेकर ‘धमकाने’ वाली भाषा इस्तेमाल करने के बीच विदेश मंत्री एस जयशंकर ने शुक्रवार को कहा कि कि यूरोप रूस से युद्ध के पहले की तुलना में ज्यादा तेल खरीद रहा है। उन्होंने कहा – ‘हम आज भी रूस से तेल खरीद के मामले में  पहले दस में हैं।’ इस बीच जयशंकर ने नई दिल्ली आये लावरोव से आज मुलाकात की है।

जयशंकर का यह ब्यान उन चर्चाओं के बीच आया है जिनमें कहा जा रहा है कि रूस के खिलाफ भारत का रुख ‘कड़ा नहीं है’। अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी भारत पर आरोप लगा रहे हैं कि भारत रूस के निकट चला गया है। आलोचनाओं को लेकर जयशंकर ने कहा – ‘यूरोप रूस से युद्ध के पहले की तुलना में ज्यादा तेल खरीद रहा है। जब तेल की कीमतें बढ़ती हैं, तो ये स्वाभाविक है कि कोई भी देश बाजार में जाकर देखेगा कि उनके लोगों के लिए क्या अच्छा सौदा हैं।’

याद रहे अमेरिका ने कल ही धमकी दी है कि रूस पर प्रतिबंधों से बचने के लिए भारत को परिणाम भुगतना होगा। हालांकि, इन सबसे बेपरवाह विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा – ‘मुझे पूरा यकीन है कि अगर हम दो या तीन महीने तक प्रतीक्षा करें और वास्तव में देखें कि रूसी तेल और गैस के बड़े खरीदार कौन हैं, तो मुझे संदेह है कि सूची पहले की तुलना में बहुत अलग नहीं होगी। हम उस सूची में शीर्ष 10 में भी नहीं होंगे।”

इस बीच जयशंकर ने दो दिन के भारत दौरे पर आये रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ शुक्रवार को मुलाकात की। उन्होंने इस दौरान कहा कि ‘भारत ने अपने एजेंडे का विस्तार करते हुए सहयोग में विविधता लाने की कोशिश की है।  हमारी आज की बैठक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनावपूर्ण हो रही स्थिति पर हुई। भारत हमेशा से मतभेदों या विवादों को बातचीत और कूटनीति के जरिये सुलझाने का पक्षधर रहा है।’

युवाओं के आदर्श भगत सिंह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 मार्च को जब कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में विप्लवी भारत गैलरी का उद्घाटन किया, तो यह स्वतंत्रता सेनानियों की याद में आयोजित एक कार्यक्रम भर नहीं था, बल्कि इसका महत्त्व कहीं अधिक था। एक कृतज्ञ राष्ट्र के रूप में सरकार ने आज़ादी के 75 साल पर अमृत महोत्सव के रूप में अपने स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के साहस और सर्वोच्च बलिदान को सम्मानित किया। इसके लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, महाराष्ट्र, गुजरात, मणिपुर और पुडुचेरी में एक साथ कार्यक्रम आयोजित किये गये। शहीदी दिवस पर प्रधानमंत्री ने कहा कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान की कहानियाँ हम सभी को देश के लिए अथक परिश्रम करने को प्रेरित करती हैं, जबकि हमारे अतीत की विरासत हमारे वर्तमान का मार्गदर्शन करती है और हमें एक बेहतर भविष्य बनाने के लिए प्रेरित करती है।

यह थोड़ा अलग हो सकता है कि जबसे आम आदमी पार्टी ने शहीद भगत सिंह के दृष्टिकोण को अपनाया है और पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने हाल के दिनों में विभिन्न कार्यक्रमों में इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने शुरू किये हैं, राजनीतिक दलों में किंवदंती के नाम पर शपथ लेने की होड़-सी है। ऐसा भी लगता है कि आम आदमी पार्टी महान् शहीद से जुड़े देशभक्ति के बसंती रंग को भाजपा के भगवा रंग मुक़ाबले उभारने की कोशिश कर रही है। पंजाब में सत्ता में नयी आयी आम आदमी पार्टी ने सरकारी कार्यालयों में भगत सिंह के चित्र लगाये हैं और उनके शहीदी दिवस पर सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है। पंजाब विधानसभा में उनकी प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव भी रखा है। भगत सिंह की तस्वीरों वाली टी-शर्ट पहने युवाओं को शहीद के चित्रों वाले वाहनों के साथ उत्साह में भरा देखा जा सकता है, जो स्पष्ट रूप से युवा आदर्श और पोस्टर बॉय बन गये हैं। भगत सिंह के नाम के स्टीकर ‘लगदा, फेर औना पउ’ (लगता है, फिर आना होगा) के नारे के साथ युवाओं के बीच क्रेज जैसा बन गया है।

‘तहलका’ के इस अंक में विशेष रिपोर्ट ‘भगत सिंह : भारत के शाश्वत् शहीद’ के लेखक 91 वर्षीय वयोवृद्ध पत्रकार राज कँवर हैं, जो बताते हैं कि उनका जन्म उसी दिन हुआ था, जब भगत सिंह शहीद हुए थे और लाहौर में पूरी तरह से हड़ताल हुई थी। गोपाल मिश्रा की लिखी हमारी आवरण कथा ‘तबाही की ज़िद’ पश्चिमी गठबंधन के बारे में है, जो चीन की महत्त्वाकांक्षाओं पर नज़र रखता है; भले ही यह रूस को यूक्रेन युद्ध से बाहर निकलने का भी अवसर देता है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर पहले ही चीन को एक स्पष्ट सन्देश भेज चुके हैं कि भारत के साथ सम्बन्ध सामान्य बनाने की ज़िम्मेदारी बीजिंग की है।

यह उल्लेखनीय है कि कैसे भारत ने रूस पर अमेरिकी दबाव का विरोध किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफ़सोस जताया है कि भारत ‘कुछ हद तक अस्थिर’ रहा है; लेकिन वास्तव में उसने अमेरिका और उसके सहयोगियों के लगातार दबाव के बावजूद एक स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करते हुए गरिमा के साथ अपनी पकड़ बनायी है। इतिहास गवाह है कि सन् 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान रूस भारत के साथ खड़ा था। एक समय आजमाये हुए भरोसेमंद सहयोगी के साथ खड़े होकर और अपनी पकड़ बनाकर भारत ने बेहतर सन्तुलन दिखाया है।

चरणजीत आहुजा

जलवायु परिवर्तन से खेती हो रही ख़राब

देश की कृषि पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ रहा है। कृषि (खेती) करने वाले जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटें? इसको लेकर कृषि विशेषज्ञों, किसानों और व्यापारियों ने ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि एक तो जलवायु वायु परिवर्तन है, दूसरा हमारी व्यवस्था में तमाम दोष हैं। भारत कृषि प्रधान देश होने के बावजूद किसानों की समस्याओं का समाधान यहाँ ठीक से नहीं होता। इससे किसानों की समस्याएँ लगातार बनी और बढ़ती रहती हैं।

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के कृषि वैज्ञानिक डॉ. गजेंद्र चंद्रावरकर का कहना है कि किसानों के पास कृषि उत्पादन बढ़ाने के संसाधनों की कमी है, ऊपर से सुविधाएँ किसानों को सरकार से मिलनी चाहिए, वो मिलती नहीं हैं। इसके अलावा जलवायु परिर्वतन के कारण कभी ज़्यादा वर्षा, तो कभी ज़्यादा गर्मी और सूखा पड़ता है, जिसका सीधा असर कृषि पर पड़ता है। एक दौर में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों की फ़सलों की अपनी अलग पहचान होती थी। पंजाब में मक्का, गेहूँ, चावल और सब्ज़ियों में पत्ता गोभी, टमाटर, आलू और हरी मिर्च आदि अधिक होती हैं। वहीं मध्य प्रदेश में गेहूँ,  चना और धान अधिक होते हैं। जलवायु परिवर्तन से यह पहचान धूमिल हुई है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं फ़सल ज़्यादा हो रही, तो कहीं कम हो रही है। यह जलवायु परिवर्तन का ही तो असर है, जो मार्च के महीने में मई जैसी गर्मी पड़ रही है। इसका असर कृषि पर पड़ रहा है। यह फ़सल पकने का समय है, इस समय खेतों में नमी की ज़रूरत है। इस गर्मी से गेहूँ की हज़ारों कुन्तल पैदावार कम होगी।

कृषि मामलों के जानकार किशन पाल का कहना है कि भारत में अधिकतर किसान मौसम के सहारे खेती करते हैं। लेकिन अब कई अमानवीय कृत्यों के कारण पिछले कुछ वर्षों से खेती पर विपरीत असर पड़ रहा है, जिसका ख़ामियाज़ा पूरी मानव जाति को भुगतना पड़ रहा है। भारत में लगभग 70 $फीसदी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, जो कई समस्याओं से जूझ रही है। एक दौर में पंजाब को लेकर देश के बाक़ी राज्यों के किसानों में एक उत्साह रहता था कि वे भी पंजाब की तर्ज पर खेती करके उत्पादन क्षमता बढ़ाएँगे। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण पंजाब में भी काफ़ी अन्तर देखा जा रहा है।

किसान भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि एक तरफ़ किसानों को महँगाई मार रही है, दूसरी तरफ़ प्राकृतिक आपदाएँ। फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उसके पास संसाधन नहीं हैं। हाल यह है कि किसानों का पूरा परिवार खेती के अलावा कोई दूसरा काम तक नहीं कर पाता। अब डीजल, बीज, खाद, बिजली-पानी सब महँगे होते जा रहे हैं। उस पर हर मौसम में मौसम की मार अलग। ऐसे हालात में पैदावार को बढ़ाना मुश्किल हो रहा है। कृषि वैज्ञानिक खेतों में आकर कृषि उत्पादन बढ़ाने के नये-नये फार्मूले तो बताते हैं; लेकिन संसाधनों के अभाव में उनका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में टमाटर, हरी मिर्ची और अन्य हरी सब्ज़ियों की पैदावार ज़्यादा होती है, जिसकी सप्लाई दिल्ली सहित अन्य राज्यों में होती है। लेकिन इसी मार्च में अचानक पड़ी गर्मी से सभी सब्ज़ियों की पैदावार पर असर पड़ रहा है।

पूसा कृषि अनुसंधान से जुड़े एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते संकट और उससे निपटने के लिए तमाम शोध हो रहे हैं। बड़े-बड़े सेमिनार हो रहे हैं। लेकिन उसका सीधा लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है, न ही उन्हें सही जानकारी दी जा रही है। इसकी वजह यह है कि जिन कृषि वैज्ञानिकों की तैनाती ज़िला और तहसील स्तर पर की गयी है, उनका किसानों से और फ़सल से कोई लेना-देना नहीं है।

आज़ादपुर मंडी के व्यापारी प्रमोद कुमार का कहना है कि सरकार सहित तमाम अर्थशास्त्री खेती को लेकर तर्क तो देते हैं; समय-समय पर आँकड़े भी पेश करते हैं; लेकिन किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। बड़े किसानों तो बेहतर उत्पादन ले लेते हैं; लेकिन छोटे किसानों को हमेशा घाटा होता है। पिछले दो-तीन साल से छोटे और मझौले किसानों की फ़सल मंडी में कम बिकने को आ रही है। खेती के लिए समय पर पानी की ज़रूरत होती है। लेकिन जल स्तर के लगातार गिरने से वे फ़सलों की पर्याप्त सिंचाई नहीं कर पाते। मौसम के इंतज़ार में समय पर बुबाई नहीं कर पाते। कई बार तो समय पर बीज और खाद भी नहीं मिलते। अभी दो साल से खाद की क़िल्लत से किसान परेशान रहे हैं। ऊपर से महँगाई। बड़े किसानों की वजह से कोरोना महामारी के दौर में मक्का निर्यात बढ़ा है। लेकिन छोटे और मझौले किसानों का मक्का उत्पादन न के बराबर रहा है। मक्का भारत में गेहूँ और चावल के बाद तीसरी फ़सल है।

कृषि वैज्ञानिक ज्ञानेंद्र सिंह का कहना है कि जलवायु संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। इससे निपटने के लिए सरकार को ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है; ताकि किसानों को सीधा लाभ मिल सके। इसके लिए किसानों के लिए अलग से आयोग का गठन होना चाहिए, जहाँ किसानों की समस्याओं का निराकरण हो। उन्हें डीजल, बीज, खाद और बिजली सस्ते मूल्य पर मिलें। सब्सिडी मिले। अगर हम जलवायु परिवर्तन का रोना रोते रहे, तो कृषि पर गहरा संकट आ सकता है। इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी फ़सलों की अच्छी पैदावार के लिए समाधान खोजना होगा, अन्यथा छोटे-मझोले किसानों की दशा और ख़राब होगी। इससे किसानों का खेती से और भी मोहभंग होगा और पलायन बढ़ेगा।

विपणन सत्र 2021-22 के बाद पिछले साल देश में सरकार द्वारा $करीब 433.32 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की ख़रीद की गयी थी, जो एक बेहतरीन रिकॉर्ड है। क्योंकि उससे पिछले साल यानी विपणन सत्र 2020-21 के बाद 389.92 लाख मीट्रिक टन गेहूँ सरकार द्वारा ख़रीदा गया था। लेकिन इस साल पैदावार कम होने पर फिर से सरकारी ख़रीद घट सकती है। इस पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी न मिलने का भी असर पड़ सकता है। हालाँकि वित्त वर्ष 2022-23 के लिए आम बजट पेश करते समय केंद्रीय वित्त एवं कॉरपोरेट मामलों की मंत्री निर्मला सीतारमण ने ख़रीद लक्ष्य को बढ़ाने की बात कही थी। लेकिन फ़सल उत्पादन ही कम होगा, तो ख़रीद कहाँ से होगी?

तबाही की ज़िद

रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध थमा भी, तो स्थायी शान्ति नहीं होगी

रूस-यूक्रेन युद्ध ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है। भाड़े के सैनिकों ने यूक्रेन में शान्ति की सम्भावनाओं में देरी की, जिसका नतीजा सबके सामने है। यूक्रेन ने जिस तरह रूसी आक्रमण के आगे हथियार नहीं डाले, उसे देखते हुए वर्तमान हालात में चीन ताइवान के अधिग्रहण में देरी कर सकता है। युद्ध और उससे पैदा हो रहे हालात पर बता रहे हैं गोपाल मिश्रा :-

रूसी-यूक्रेनी संघर्ष में हज़ारों भाड़े के सैनिकों की उपस्थिति और रूस के ख़िलाफ़ कभी न ख़त्म होने वाले एंग्लो-अमेरिकन जुनून ने न केवल पूर्वी यूरोप में शान्ति को मायावी बना दिया है। और अगर चीन भी ताइवान पर क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला करता है, तो यह दुनिया के अन्य हिस्सों में शान्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इस जटिल युद्ध में अपनी तटस्थता बनाये रखने के भारतीय रूख़ को मार्च के तीसरे सप्ताह में जापानी प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा की नई दिल्ली यात्रा के दौरान दोहराया गया था कि ‘संघर्ष के समाधान के लिए संवाद और कूटनीति के मार्ग के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है।’

रूस के ख़िलाफ़ ब्रिटिश-अमेरिकी जुनून का पता ज़ार हुकूमत के दौरान मध्य एशिया में रूसी विस्तारवाद के पिछले इतिहास और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाज़ियों को इसके प्रारम्भिक समर्थन से लगाया जा सकता है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के दोनों पक्षों में बड़े पैमाने पर भाड़े के सैनिकों के शामिल होने से, शान्ति के मायावी बने रहने की सम्भावना है। नतीजतन त्वरित युद्धविराम भी इस युद्ध में स्थायी शान्ति सुनिश्चित नहीं कर सकता, जिसे टाला जा सकता था।

यदि कोई रूसी संगठन संघर्ष क्षेत्र में निजी सैनिकों को लुभाने के लिए यूक्रेन की एक लोकप्रिय पोर्क वसा ‘सैलो’ की पेशकश करता है, तो विपरीत पक्ष, जिसे उदारतापूर्वक पश्चिमी शक्तियों द्वारा वित्त पोषित किया जाता है; कथित तौर पर इन सशस्त्र स्वयंसेवकों को कहीं भी लडऩे के लिए तैयार करने के लिए प्रतिदिन 2,000 अमरीकी डॉलर (1.40 लाख रुपये) तक की पेशकश कर रहा है। वैगनर समूह, जिसने कथित तौर पर यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की हत्या करने की कोशिश की थी; अब दो बार कथित तौर पर डोनबास क्षेत्र में सक्रिय हो गया है, जिसे हाल ही में रूस द्वारा एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी गयी है। इस बीच चेचन मुसलमान दोनों तर$फ से लड़ रहे हैं। जबकि रमज़ान कादिरोव के लड़ाकों के नेतृत्व में पुतिन समर्थक समूह ने कथित तौर पर कीव के उत्तर में एक हवाई क्षेत्र ले लिया है और रूसी सेना का एक हिस्सा राजधानी की ओर बढ़ रहा है। रूस विरोधी चेचेन भी कथित तौर पर युद्ध में शामिल हो गये हैं। सन् 1994 से 1996 और सन् 1999 से 2009 तक रूस के ख़िलाफ़ दो चेचेन युद्धों के दिग्गज अब कथित तौर पर यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। इससे पहले शेख मंसूर और द्जोखर दुदायेव बटालियन के नाम से जाने वाले दो चेचन स्वयंसेवक 2014 से डोनबास में रूसी समर्थित अलगाववादियों और नियमित रूसी सेनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं।

इससे पहले 27 फरवरी को द्जोखर दुदायेव बटालियन के कमांडर एडम ओस्मायेव, यूक्रेन को जीतने में मदद करने की क़सम खायी थी। उन्होंने एक वीडियो सन्देश में घोषणा की कि ‘मैं यूक्रेनियन को बताना चाहता हूँ कि असली चेचेन आज यूक्रेन की रक्षा कर रहे हैं।’

ओसमायेव ने कहा- ‘हमने यूक्रेन के लिए लड़ाई लड़ी है और अन्त तक लड़ते रहेंगे।’ उन्होंने रूसी नेशनल गार्ड में लड़ रहे चेचेन से भी पक्ष बदलने की अपील की, और कहा- ‘क्योंकि पूरी सभ्य दुनिया यूक्रेन की मदद करती है। इसलिए मैं उनसे यूक्रेन की तरफ़ जाने का भी आग्रह करता हूँ, यहाँ कमांड स्टाफ, जनरलों के बीच भी, चेचेन राष्ट्रीयता के लोग हैं, और वे आपकी देखभाल करेंगे। मैं इन लोगों के सभी रिश्तेदारों और दोस्तों से भी आग्रह करता हूँ कि वे जल्द-से-जल्द अपने बच्चों को यहाँ से ले जाएँ।’

निजी कम्पनियों का बढ़ता कारोबार

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अशान्ति, संघर्ष और युद्धों ने निजी सैन्य कम्पनियों के लिए बड़ी व्यावसायिक सम्भावनाओं को जन्म दिया है। वे ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठी करते हैं, अमीर और शक्तिशाली को सुरक्षा प्रदान करते हैं और दुनिया भर में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति भी करते हैं। ऐसा अनुमान है कि उनका कारोबार साल 2030 तक 475 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में मुख्यालय वाली कई निजी सुरक्षा कम्पनियाँ हैं; जैसे साइलेंट प्रोफेशनल, मोज़ेक, सैंडलाइन इंटरनेशनल युद्धग्रस्त यूक्रेन में सक्रिय हो गये हैं। यह 90 के दशक के दौरान अंगोला और सिएरा लियोन की ओर से सक्रिय रहे हैं। अमेरिका स्थित ख़ुफ़िया कम्पनी मोज़ेक, 2014 से यूक्रेन में पहले से ही काम कर रही है। यह ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठी करने और राजनीतिक रूप से उजागर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर मदद करने में बेहतरीन संगठनों में से एक के रूप में जाना जाता है।

एक अन्य निजी संगठन ब्लैकवाटर ने यूगोस्लाविया में गृहयुद्ध के दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करने के अलावा इसने बोस्नियाई और निर्माण बलों को अपने लोगों को सुरक्षित स्थानों पर निकालने में मदद की थी। इससे पहले जब रूसी सेना ने फरवरी के अन्तिम सप्ताह में यूक्रेन में मार्च किया था, तो यह अनुमान लगाया गया था कि यूक्रेन रूसी आक्रमण का कोई प्रभावी प्रतिरोध करने में सक्षम नहीं हो सकता है। हालाँकि चार सप्ताह के सैन्य अभियानों के बाद भी यूक्रेनियन ने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस प्रकार युद्ध यूरोप में एक लम्बे समय तक चलने वाला संघर्ष बन गया है। यह क्षेत्र विशेष रूप से यूक्रेनियन, पहले के युद्धों में हमेशा अग्रणी राज्य रहा है।

आठ दशक बाद वे फिर से एक युद्ध में हैं, जो कोई नहीं चाहता था। इससे पहले यूएसएसआर और नाज़ी जर्मनी ने मोलोटोव-रिबेंट्रोप के बीच समझौते के रूप में जाने जाने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, जब इसका सामना करना पड़ा था। इसने जर्मनी और यूएसएसआर के बीच पूर्वी यूरोप के विभाजन को जन्म दिया था।

चीन-रूस शिखर सम्मेलन

अमेरिकी राष्ट्रपति, जो बिडेन और चीनी राष्ट्रपति के बीच महत्त्वपूर्ण शिखर सम्मेलन से कुछ दिन पहले चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने ज़ोर देकर कहा था कि रूसी-यूक्रेनी संघर्ष पर चीन की स्थिति हमेशा सुसंगत रही है। और इस प्रेक्षण को ख़ारिज कर दिया कि इसमें कोई असंगति है। उनका बयान काफ़ी सार्थक था, जब उन्होंने कहा- ‘यह वे देश हैं, जो यह सोचकर ख़ुद को भ्रमित करते हैं कि वे शीत युद्ध जीतने के बाद इसे दुनिया पर हावी कर सकते हैं, जो अन्य देशों की सुरक्षा की अवहेलना में नाटो के पूर्व की ओर विस्तार को पाँच बार चलाते रहते हैं। चिन्ताओं, और जो दुनिया भर में युद्ध छेड़ते हैं, जबकि अन्य देशों पर जुझारू होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें वास्तव में असुविधाजनक महसूस करना चाहिए।’

चीनी बयान और गरमा गया, जब रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने पश्चिमी शक्तियों को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि रूस ने पश्चिम पर भरोसा करने के बारे में भ्रम ख़त्म कर दिया है और मॉस्को कभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी नेता शी जिनपिंग की वार्ता सामान्य अमेरिकी बयानबाज़ी से भरी हुई दिखायी दी। इस महत्त्वपूर्ण शिखर वार्ता से पहले चीन के केंद्रीय विदेश मामलों के आयोग के निदेशक यांग जीची और रोम में अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, जेक सुलिवन के बीच गुप्त वार्ता ने उच्च स्तरीय वार्ता का मार्ग प्रशस्त किया था। चीनी पक्ष ने चर्चा के विवरण का ख़ुलासा नहीं किया। हालाँकि यह स्वीकार किया कि वार्ता स्पष्ट, गहन और रचनात्मक थी और इसमें ताइवान पर चर्चा शामिल थी।

माना जाता है कि अमेरिका ने चीन को आश्वासन दिया है कि ताइवान को एक स्वतंत्र और सम्प्रभु देश के रूप में मान्यता देने का उसका कोई इरादा नहीं है। तत्कालीन विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ, जो मार्च में ताइवान में थे; ने माँग की कि संयुक्त राज्य अमेरिका को ताइवान को एक सम्प्रभु देश के रूप में मान्यता देनी चाहिए। फ़िलहाल अमेरिका 1979 में बने ताइवान रिलेशन एक्ट के तहत ताइवान के साथ अपने सम्बन्ध बनाये हुए है। माना यह भी जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ने चीनी सामानों पर लगाये गये भारी शुल्क को वापस लेने का भी आश्वासन दिया है। अपनी ओर से चीन ने कथित तौर पर आश्वासन दिया है कि वह क्रीमिया के रूसी क़ब्ज़े की दिशा में अपनी नीति जारी रखेगा। इसी तरह यह यूक्रेन के दो क्षेत्रों को स्वतंत्र देशों के रूप में वैध नहीं करेगा। बाइडेन की चीन को चेतावनी कि रूस की मदद करने पर उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी; इसे ज़्यादातर अमेरिकी बयानबाज़ी का हिस्सा माना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सुलिवन और यांग जिएची के बीच वार्ता, जिसे व्हाइट हाउस ने रोम में सात घंटे की बैठक कहा था; ने शिखर सम्मेलन के लिए एजेंडा निर्धारित किया था। यह देखा जाना बाक़ी है कि वार्ता चल रहे यूरोपीय युद्ध को कितना प्रभावित करेगी।

अमेरिकी पक्ष का दावा है कि बाइडेन ने चीन को पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव से रूस को बाहर निकालने या यहाँ तक कि पड़ोसी यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के हमले के लिए सैन्य सहायता भेजने के किसी भी विचार को छोडऩे के लिए स्पष्ट सन्देश दिया है। चीनी टेलीविजन चैनल ने कहा है कि शी जिनपिंग ने कहा कि वीडियो कॉल के दौरान राज्यों के बीच संघर्ष किसी के हित में नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि शान्ति और सुरक्षा अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सबसे मूल्यवान ख़ज़ाना है।

दो सम्भावनाएँ

यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि क्या उप विदेश मंत्री वेंडी शेरमेन का बयान आधिकारिक लाइन को दर्शाता है कि चीन को मैदान में उतरना चाहिए और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ख़िलाफ़ पश्चिम के साथ सेना में शामिल होना चाहिए। उसने कहा कि चीन को यह समझना चाहिए कि उनका भविष्य संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ यूरोप के साथ, दुनिया भर के अन्य विकसित और विकासशील देशों के साथ है। उनका भविष्य व्लादिमीर पुतिन के साथ खड़े होने का नहीं है। इन आक्रामक अमेरिकी तेवरों के बीच बीजिंग ने रूस की निंदा करने से इन्कार कर दिया है। अमेरिकी नीति निर्माताओं के सामने एजेंडा यह प्रतीत होता है कि चीन को रूस को पूर्ण वित्तीय और सैन्य सहायता न देने से कैसे रोका जाए?

अगर चीनी रूसियों का समर्थन करते हैं, तो यह कहा जाता है कि यह एक पूर्ण युद्ध बन सकता है। आशंका यह है कि अगर रूसियों को चीनी समर्थन मिलता है, तो रूस प्रतिबंधों का सामना करने और अपना युद्ध जारी रखने में सक्षम होगा। इससे पश्चिमी सरकारों को भी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था पर वापस हमला करने के दर्दनाक फ़ैसले का सामना करना पड़ेगा, जिससे बाज़ार में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथल-पुथल हो सकती है। राज्य के सचिव एंटनी ब्लिंकन ने केवल यह आशा व्यक्त की कि चीन रूस की आक्रामकता का समर्थन करने के लिए किसी भी कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार होगा और हम जतवाब में संकोच नहीं करेंगे। उन्होंने आग्रह किया कि इस युद्ध को समाप्त करने के लिए मास्को को मजबूर करने के लिए उनसे जो भी होगा करेंगे। लेकिन उन्होंने कहा कि वह चिन्तित थे कि वे सीधे सैन्य सहायता के साथ रूस की सहायता करने पर विचार कर रहे हैं।

अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों की आशंकाओं के बावजूद, जिनपिंग और पुतिन ने फरवरी, 2022 में बीजिंग में शीतकालीन ओलंपिक में मुलाक़ात के दौरान पुतिन ने यूक्रेन पर हमला शुरू करने से पहले अपनी क़रीबी साझेदारी को फाइनल कर दिया था। तबसे बीजिंग ने आक्रमण पर अंतरराष्ट्रीय शोर में शामिल होने से इन्कार कर दिया, जबकि यूरोपीय तनाव के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो को दोषी ठहराते हुए रूसी लाइन का समर्थन किया। क्रेमलिन के वार्ता बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए चीनी अधिकारियों ने फिर से आक्रमण को युद्ध के रूप में सन्दर्भित करने से इन्कार कर दिया। हालाँकि चीन ने यूक्रेन की सम्प्रभुता को बार-बार अपने समर्थन की घोषणा करके बचने का रास्ता बनाये रखा है। यह दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक चीन को पूर्वी यूरोप में शान्ति को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद कर सकता है, जो अमेरिका और अन्य पश्चिमी अर्थ-व्यवस्थाओं से मज़बूती से जुड़ा हुआ है।

चूँकि जिनपिंग ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पुनर्निर्माण और सुधार के लिए एक वास्तुकार के रूप में मानते हैं, वह युद्ध को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वह जल्द ही प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं को सन्तुलित करने की कोशिश करते नजर आएँगे कि रूस के साथ चीन की साझेदारी को बनाये रखना चाहेंगे। साथ ही वह पश्चिम में चीन के सम्बन्धों को कमज़ोर नहीं करना चाहेंगे।

व्यापक समझौता

वर्तमान स्थिति में चीन द्वारा रूस की सुरक्षा चिन्ताओं को दूर करने के लिए पश्चिमी शक्तियों पर प्रभाव डालने की सम्भावना है। न तो नाटो का और विस्तार किया जाना चाहिए और न ही यूक्रेनी प्रयोगशालाओं को ऐसे शोधों में लगाया जाना चाहिए, जिनका उपयोग जैव-हथियार विकसित करने के लिए किया जा सकता है। इसने इस बात पर भी ज़ोर दिया है कि रूस के पास वैध सुरक्षा चिन्ताएँ हैं, जिन्हें सम्बोधित करने और रूसी दावों को प्रतिध्वनित करने की आवश्यकता है कि अमेरिका यूक्रेन में जैविक हथियारों पर गुप्त रूप से काम कर रहा है, बेशक आरोपों को अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र द्वारा ख़ारिज कर दिया गया है। हालाँकि चीन का कहना है कि अगर पश्चिमी शक्तियाँ जाँच के लिए सहमत होती हैं, तो वह इस क्षेत्र में शान्ति स्थापित कर सकती है।

 

बीजिंग की तटस्थता कीव और मॉस्को के बीच संघर्ष को समाप्त करने में मदद कर सकती है। चीन का यह कथन कि वह रूस के साथ अपनी मित्रता को बनाये रखने का इरादा रखता है, जिसे वह असीमित और बहुत मज़बूत कहता है, इस आश्वासन के रूप में माना जाता है कि चीन रूस को अपमानित किये बिना शान्ति बहाल करने में मदद करेगा। शायद यही कारण था कि नियमित रूप से गुरुवार को चीन के विदेश मंत्रालय की ब्रीफिंग में प्रवक्ता झाओ लिजियन ने ज़ोर देकर कहा कि चीन की स्थिति सुसंगत है और उन लोगों पर गोल है, जो किसी भी असंगति का सुझाव देते हैं।

ये वो देश हैं, जो यह सोचकर ख़ुद को भ्रमित करते हैं कि वे शीत युद्ध जीतने के बाद इसे दुनिया पर हावी कर सकते हैं, जो अन्य देशों की सुरक्षा चिन्ताओं की अवहेलना में नाटो के पूर्व की ओर विस्तार को पाँच बार चलाते रहते हैं, और जो दुनिया भर में युद्ध छेड़ते हैं। दोनों देशों ने 2021 के अन्त में संयुक्त सैन्य और नौसैनिक अभ्यास किया था और 4 फरवरी को युद्ध से कुछ हफ़्ते पहले 5,000 शब्दों का एक बयान जारी किया था, जिसमें नाटो के विस्तार के ख़िलाफ़ सुरक्षा ब्लॉक को शीत युद्ध का अवशेष बताया गया था।

चीन की नयी रणनीति

ऐसा प्रतीत होता है कि चीन क्षेत्र में शान्ति के लिए मदद कर रहा है; क्योंकि लम्बे समय तक संघर्ष उसके महत्त्वपूर्ण आर्थिक हितों को नुक़सान पहुँचा सकता है। यह रूसी आख्यान का समर्थन कर रहा हो सकता है; लेकिन यह जानता है कि चीनी मदद से संघर्ष विराम में देरी होगी। इसे रूस की त्वरित जीत से फ़ायदा हो सकता था; लेकिन यूक्रेन के प्रतिरोध ने ताइवान पर कम-से-कम कुछ समय के लिए बलपूर्वक क़ब्ज़ा करने की उसकी योजना को विफल कर दिया है। पश्चिमी समर्थन के साथ यूक्रेनी अर्थ-व्यवस्था जल्दी या बाद में पश्चिमी यूरोप का हिस्सा बन जाएगी।

ऐसा प्रतीत होता है कि यूक्रेनी देशभक्ति ने चीन को ताइवान के ख़िलाफ़ किसी भी आक्रमण को शुरू करने से रोक दिया है। लम्बे समय तक युद्ध यूरेशिया में अपनी महत्त्वाकांक्षी वित्तीय पहल को परेशान करने वाले ऊर्जा क्षेत्र में मूल्य मुद्रास्फीति का कारण बन सकता है। चीन यह भी जानता है कि चीन के भीतर पुतिन हर गुज़रते दिन के साथ अपनी लोकप्रियता खोते जा रहे हैं, इसलिए यदि पुतिन को गद्दी से हटा दिया जाता है, तो चीनी समर्थन उल्टा हो सकता है।

हालाँकि चीन ख़ुद को पुतिन से दूर कर रहा होगा; लेकिन इस बदलाव में कुछ समय लग सकता है। चूँकि चीन रूस के साथ खुले तौर पर व्यापार करता है- वह अपना कच्चा तेल, अन्य चीज़ों के साथ गैस ख़रीदता है। यह अप्रत्यक्ष रूप से रूस का समर्थन कर रहा है और लगता है कि यह सोचने की कल्पना की उड़ान है कि चीन रूस के साथ अपने आर्थिक सम्बन्धों से मुँह मोड़ लेगा, भले ही वह ताजा सैन्य सहायता और उपकरण प्रदान करने से क़दम वापस खींच ले।

वार्ताओं का दौर

जापानी प्रधान मंत्री किशिदा की यात्रा के दौरान भारत ने एक अलग बयान जारी किया, जिसमें रेखांकित किया गया कि क्वाड को शान्ति, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने के हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अपने मूल उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। क्वाड के चार देशों में भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूसी सेना के यूक्रेन में तबाही की निंदा करते हुए भाग लिया था। अन्य तीन देशों, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ मतदान किया था।

तेल की धार

वित्त वर्ष 2021-22 के लिए भारतीय बजट में कच्चे तेल की क़ीमत 75 डॉलर प्रति बैरल है। लेकिन महीने भर चले यूक्रेन युद्ध के दौरान क़ीमतें 140 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गयी हैं। दिलचस्प बात यह है कि रूसी आयात भारत की प्रतिदिन 50 लाख बैरल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उनका रूस से कच्चे तेल का आयात औसतन 2,03,000 बैरल प्रतिदिन रहा है, जो बढक़र लगभग 3,60,000 बैरल प्रतिदिन हो गया है। हालाँकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक नैतिक रूख़ अपनाया है कि भारत द्वारा कच्चे तेल की ख़रीद से अमेरिकी प्रतिबंधों का उल्लंघन नहीं होगा; लेकिन भारत को चेतावनी दी जा रही है कि यह उसे इतिहास के ग़लत पक्ष में डाल सकता है।

मौत के ख़ंजर

यूक्रेनी युद्ध ने रूस और पश्चिमी शक्तियों को अपने अत्याधुनिक हथियारों का परीक्षण करने में सक्षम बनाया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने घोषणा की है कि अमेरिका जल्द ही यूक्रेन को और अधिक घातक हथियार प्रदान करेगा। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि रूसियों ने यूक्रेनी लक्ष्यों पर हाइपरसोनिक मिसाइल हमलों की शुरुआत के साथ पहल की है; ख़ासकर हथियारों के गुप्त ठिकानों से। इसे किंजल के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है ख़ंजर। यह माइकोलाइव के काला सागर बंदरगाह के पास एक यूक्रेनी ईंधन डिपो से टकराया। यह पोलैंड से लगभग 1,500 किलोमीटर दूर है; जो यूएसएसआर युग के दौरान वारसा पैक्ट का सदस्य था। लेकिन हाल ही में नाटो में शामिल हुआ है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि किंजल मिसाइल के लगातार उपयोग के साथ, जिसमें 2,000 किलोमीटर की दूरी तक मार करने की क्षमता है; जिसकी गति ध्वनि से दस गुना अधिक है। नाटो में पूर्वी यूरोप के नये देशों के लिए चेतावनी संकेत है कि वे क्रोध से बच नहीं सकते हैं।

इस बीच घिरे बंदरगाह शहर मारियुपोल से हज़ारों यूक्रेनियनों को जबरदस्ती रूसी सीमाओं के पार ले जाया गया और उन्हें शिविरों में रखा जा रहा है। ऐसी ख़बरें हैं कि जानकारी हासिल करने के लिए उनके मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की जाँच की जा रही है।

भगत सिंह : भारत के शाश्वत् शहीद

जब भगवंत सिंह मान ने 16 मार्च को पंजाब के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में क्रान्तिकारी भगत सिंह के पैतृक गाँव खटकर कलां में शपथ ली, जो नवांशहर के बंगा में पड़ता है; तब उस विशाल सभा में उमड़ी भीड़ में से बहुत-से लोगों को एक अलौकिक संयोग का अहसास नहीं था। यद्यपि 23 मार्च, 1931 में भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दी गयी थी। हालाँकि मुख्यमंत्री ने पूरे गाँव को जोश से भर दिया, जब उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे के साथ अपना शपथ ग्रहण समारोह समाप्त किया, जो कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध में भगत सिंह का नारा था। देश में एक्स और ज़ेड (1965 और 1995 के बाद की) पीढिय़ों में से बहुत-से लोग शायद भगत सिंह और तत्कालीन औपनिवेशिक ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ उनकी वीरतापूर्ण लड़ाई के बारे में नहीं जानते होंगे। कुछ मायनों में वह एक प्रतिभाशाली और जन्मजात नेता थे। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता कृष्ण सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में और चाचा अजीत सिंह मांडले जेल में थे। वह अपने पिता और चाचा दोनों के कारनामों की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। गदर आन्दोलन ने भी उनके प्रभावशाली मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। उनके नायक तब एक और क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा थे, जिन्हें पहले लाहौर षड्यंत्र मामले में फाँसी दी गयी थी, जब वह मुश्किल से 19 वर्ष के थे। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में हुए नरसंहार ने भी उनके दिमाग़ पर इतना गहरा ज़ख्म छोड़ा था कि वह लाहौर से अमृतसर तक सिर्फ़ उस ज़मीन को चूमने के लिए चले आये, जिसे शहीदों के ख़ून से पवित्र माना गया था।

भगत सिंह ने शुरू में लाहौर के डीएवी स्कूल में पढ़ाई की थी (संयोग से यह मेरा भी स्कूल था)। उन्होंने सन् 1921 में राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया, जिसे लाला लाजपत राय, भाई परमानंद और सूफ़ी अंबा प्रसाद की तिकड़ी ने स्थापित किया था। तब वह सिर्फ़ 14 साल के थे। यहीं उनकी मुलाक़ात अपने भावी साथियों- सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और यशपाल से भी हुई थी। नेशनल स्कूल में प्रो. जय चंद्र विद्यालंकर उनके गुरु बन गये थे, और तत्कालीन संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में क्रान्तिकारियों के कारनामे उन्हें सुनाये थे। उन सभी क्रान्तिकारी कहानियों ने इस युवा किशोर को इतने गहरे से प्रेरित किया था कि उन्होंने इसी समय वहाँ भारत माता को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फ़ैसला किया।

विवाह का प्रस्ताव

जब भगत सिंह नेशनल स्कूल में थे, तब उनके पिता ने उनसे सलाह लिये बिना ही उनकी शादी तय कर दी थी; जिससे भगत सिंह एक उलझन भरी स्थिति में आ गये थे। हालाँकि उन्होंने न कहने का पर्याप्त साहस जुटाया। जब उनके पिता यह कहते हुए ज़िद करने लगे कि उन्होंने पहले ही इसे स्वीकार कर व्यवस्था कर ली है, तो 14 वर्षीय भगत सिंह ने अपने पिता को लिखा- ‘आदरणीय पिताजी! यह शादी का समय नहीं है। देश मुझे बुला रहा है। मैंने शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप (तन-मन-धन) से देश की सेवा करने की शपथ ली है। यह हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है। हमारा पूरा परिवार देशभक्तों से भरा है। सन् 1910 में मेरे जन्म के दो या तीन साल बाद चाचा स्वर्ण सिंह की जेल में मृत्यु हो गयी थी। चाचा अजीत सिंह विदेशों में निर्वासन का जीवन जी रहे हैं। आपने भी जेलों में बहुत कुछ सहा है। मैं केवल आपके पदचिह्नों पर चल रहा हूँ और इस प्रकार ऐसा करने का साहस करता हूँ। आप कृपया मुझे विवाह में न बाँधें, बल्कि मुझे अपना आशीर्वाद दें, ताकि मैं अपने मिशन में सफल हो सकूँ।’

जब उनके पिता ने यह कहते हुए विरोध किया कि उन्होंने पहले ही शादी तय कर ली है, तो भगत सिंह ने उन्हें फिर से लिखा- ‘आदरणीय पिता जी! मैं आपके पत्र की सामग्री को पढक़र चकित हूँ। जब आप जैसे कट्टर देशभक्त और बहादुर व्यक्तित्व को ऐसी छोटी-छोटी बातों से प्रभावित किया जा सकता है, तो आम आदमी का क्या होगा? हाँ, आप दादी (मेरी दादी) की देखभाल कर रहे हैं; लेकिन कल्पना कीजिए कि हमारी 33 करोड़ (लोगों) की भारत माता कितनी मुसीबत में है। हमें अभी भी उसकी ख़ातिर सब कुछ बलिदान करना है।’ घर छोडऩे से पहले भगत सिंह ने अपने पिता के लिए एक पत्र छोड़ा, जिसमें कहा गया था- ‘नमस्ते, मैं अपना जीवन मातृभूमि की सेवा के उच्च लक्ष्य के लिए समर्पित करता हूँ। इसलिए मेरे लिए घर और सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई आकर्षण नहीं है। मुझे आशा है कि आपको याद होगा कि मेरे पवित्र सूत्र समारोह के अवसर पर बापूजी ने घोषणा की थी कि मुझे देश की सेवा के लिए दान दिया जा रहा है। मैं बस उस प्रतिज्ञा को पूरा कर रहा हूँ। मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे।’

बौद्धिक दिग्गज

भगत सिंह को एक महान् देशभक्त और एक असाधारण क्रान्तिकारी के रूप में देश में सभी जानते थे। लेकिन हममें से बहुत-से लोग नहीं जानते थे कि वह एक बौद्धिक दिग्गज, एक उत्साही माक्र्सवादी विचारक और एक विचारक भी थे। एक उत्कृष्ट विद्वान, जिसने अपनी रचनात्मकता को अपनी उद्भुत डायरी के पन्नों में जेल में लिखा था। उस कम उम्र में भी, वह एक उत्साही पाठक थे और उन्होंने ‘पूँजीवाद, समाजवाद, विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलनों और बोल्शेविक क्रान्ति के इतिहास की गहन समझ और अन्य जानकारी हासिल कर ली थी।’

सन् 1923 में भगत सिंह केवल 16 वर्ष के थे। सन् 1930 तक केवल सात वर्षों की अवधि में उन्होंने ईश्वर, रहस्यवाद और धर्म, कला, साहित्य, संस्कृति, अतीत और समकालीन क्रान्तिकारियों की जीवनी के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं जैसे विभिन्न विषयों पर उग्र रूप से लिखा। अपने निबन्ध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ में ‘धर्म की भूमिका और ईश्वर के अस्तित्व’ का विश्लेषण करते हुए भगत सिंह ने समझाया था कि आदिम मनुष्य के लिए ईश्वर एक उपयोगी मिथक बन गया। संकटग्रस्त और असहायों के लिए उन्होंने पिता, माता, बहन, भाई, मित्र और सहायक के रूप में सेवा की। इस प्रकार एक तरह से भगवान और धर्म उस व्यक्ति के बचाव में आये, जो न तो साहसी था और न ही उसके आस-पास की चीज़ों की कोई वैज्ञानिक या तर्कसंगत समझ थी।’

आधुनिक विज्ञान की प्रगति और उनकी मुक्ति के लिए उत्पीडि़तों के बढ़ते संघर्ष के साथ आदमी इस कृत्रिम बैसाखी की आवश्यकता के बिना अपने दो पैरों पर खड़ा हो गया। इस प्रकार इस काल्पनिक उद्धारकर्ता की आवश्यकता समाप्त हो गयी।

विधानसभा में बम

भगत सिंह के सबसे यादगार क्रान्तिकारी कार्यों में से एक सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पोयंत्ज सॉन्डर्स की हत्या थी। दुर्भाग्य से यह ग़लत पहचान का मामला था। मूल लक्ष्य पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट था, जिसके बारे में माना जाता था कि उसने 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में एक जुलूस के दौरान लाला लाजपत राय पर हमला किया था, जो घातक साबित हुआ था। दूसरा, विजिटर्स गैलरी से 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधानसभा में दो बम फेंकना था। बम आधिकारिक सदस्यों के क़ब्ज़ें वाली बेंचों के पास फट गये थे, जिससे कुछ को मामूली चोटें आयीं। इन दो घटनाओं के विवरण पर ध्यान देना मेरा उद्देश्य नहीं है। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि दोनों ही घटनाओं ‘सांडर्स की हत्या और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने’ की पूरी तैयारी की गयी थी। दोनों कामों को सफलतापूर्वक अंजाम भी दिया गया।

भगत सिंह जेलों में राजनीतिक बंदियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के बारे में बहुत सजग थे। 14 जुलाई, 1929 के द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक पत्र में भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने अपने ठोस विचार व्यक्त किये थे- ‘सर! हम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को 19 मई, 1929 को दिल्ली के असेंबली बम मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी। जब तक हम दिल्ली जेल में विचाराधीन क़ैदी थे, हमें बहुत बेहतर तरीक़े से रखा जाता था। बेहतर उपचार किया गया और अच्छा आहार दिया गया; लेकिन उस जेल से क्रमश: मियाँवाली और लाहौर सेंट्रल जेल में हमारे स्थानांतरण के बाद से हमारे साथ सामान्य अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। पहले ही दिन हमने उच्चाधिकारियों को प्रार्थना-पत्र लिखकर बेहतर आहार और कुछ अन्य सुविधाओं की माँग की और हमने जेल का आहार लेने से इन्कार कर दिया।

उन्होंने लिखा- ‘हमारी माँगें इस प्रकार थीं- राजनीतिक क़ैदियों के रूप में हमें बेहतर आहार दिया जाना चाहिए और हमारे आहार का स्तर कम से कम यूरोपीय क़ैदियों के समान होना चाहिए। हम सिर्फ़ आहार की समानता की ही माँग नहीं करते हैं, बल्कि आहार के मानक में भी समानता होनी चाहिए। हमें कोई कठोर या अशोभनीय श्रम करने के लिए बिल्कुल भी बाध्य नहीं किया जाए। लिखित सामग्री के साथ-साथ प्रतिबंधित पुस्तकों के अलावा सभी पुस्तकों को हमें बिना किसी प्रतिबंध के अनुमति दी जानी चाहिए।’

उन्होंने लिखा- ‘हमने उपरोक्त माँगों को समझाया है, जो हमने की थीं। वे सबकी तरफ़ से वाजिब माँगें थीं। जेल अधिकारियों ने एक दिन हमसे कहा कि उच्च अधिकारी हमारी माँगों को मानेंगे। इसके अलावा वे बहुत-ही कठोरता से पेश आते हैं। भगत सिंह 10 जून, 1929 को जबरन खिलाने के बाद लगभग 15 मिनट तक बेसुध पड़े रहे, जिसे हम बिना किसी देरी के रोकने का अनुरोध करते हैं। इसके अलावा हमें पंडित जगत नारायण और ख़ान बहादुर हाफ़िज़ किदायत हुसैन द्वारा संयुक्त प्रान्त जेल समिति की सिफ़ारिशों के उल्लेख करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने राजनीतिक क़ैदियों को बेहतर श्रेणी के क़ैदियों के रूप में व्यवहार करने की सिफ़ारिश की है।’

भगत सिंह और उनके दो साथियों ने 23 मार्च, 1931 को मौत की सज़ा और उसके निष्पादन के बीच 166 दिनों की अंतरिम अवधि को चिन्तन और अध्ययन में बिताया था। 2 फरवरी, 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लिखे एक पत्र में उन्होंने उन्हें सलाह दी थी- ‘समझौता एक आवश्यक हथियार है, जिसे संघर्ष के विकास के साथ-साथ समय-समय पर चलाना पड़ता है। लेकिन जो चीज़ हमें हमेशा अपने सामने रखनी चाहिए, वह है- ‘आन्दोलन का विचार।’ जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं, उसके बारे में हमें हमेशा स्पष्ट धारणा बनाकर रखनी चाहिए।’

उन्होंने आगे लिखा- ‘ज़ाहिर है मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है; लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं पूरी ताक़त के साथ घोषणा करता हूँ कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और न ही कभी था। मैं वास्तव में निश्चित आदर्शों और विचारधारा के साथ एक क्रान्तिकारी रहा हूँ।’

भगत सिंह अपने परिवार से आख़िरी बार 3 मार्च को मिले थे। उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतार को पत्र में लिखा- ‘प्रिय कुलतार! आज आपकी आँखों में आँसू देखकर मुझे बहुत दु:ख हुआ। आपकी बातों में गहरा दर्द था। मैं तुम्हारे आँसू नहीं देख सका। मेरे भाई! दृढ़ संकल्प के साथ अपनी पढ़ाई करो और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करो।’ वह विश्वासघात के नये रूपों को गढऩे के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं, और लिखते हैं- ‘हम यह देखने के लिए उत्सुक हैं कि दमन की क्या सीमाएँ हैं? हम दुनिया से नाराज़ क्यों हों? और क्यों शिकायत करें? हमारी दुनिया एक न्यायसंगत (आदर्श) है। हम इसके लिए लड़ें। मैं तो बस चंद पलों का मेहमान हूँ। साथियों, मैं वह दीया हूँ, जो भोर से पहले जलता है और बुझने को तरसता है। हवा मेरे विचारों का सार फैलायेगी। यह आत्मा तो मुट्ठी भर धूल है। चाहे वह जीवित रहे या नाश हो।

अच्छा नमस्ते

ख़ुश रहो देशवासियो! मैं यात्रा के लिए निकला हूँ।

निडर होकर जियो।

नमस्ते

आपका भाई

भगत सिंह

फिर अन्त में शाम 7:15 बजे 23 मार्च, 1931 सोमवार को ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की तिकड़ी ने फाँसी का फंदा चूमते हुए शहादत को गले लगा लिया। अगले दिन 24 मार्च को पूरे देश ने अपने वीरों की फाँसी पर शोक व्यक्त किया।

भगत सिंह के जीवन पर कुछ विचार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित ए.जी. नूरानी की पुस्तक ‘द ट्रायल ऑफ भगत सिंह : पॉलिटिक्स ऑफ जस्टिस’ से लिए गये थे। मैं उनका और प्रकाशकों का आभारी हूँ।

(राज कँवर 91 वर्षीय वयोवृद्ध पत्रकार और लेखक हैं। उनकी नवीनतम पुस्तकें डेटलाइन देहरादून और इसकी अगली कड़ी हैं।)

 

 

 

भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचार

23 मार्च, 1931 का दिन था, जब भगत सिंह के साथ सुखदेव और राजगुरु लाहौर में शहीद हुए थे। साहस और भगत सिंह के नेतृत्व वाली क्रान्ति हमेशा से पूजनीय रही है। जीवन के बहुत छोटे-से समय में उन्होंने बड़ा योगदान दिया जो आज तक प्रेरक है। लेकिन उनके क्रान्तिकारी क़दमों से ज़्यादा ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ ऐसा है, जिसके बारे में हम अनजान हैं।

चंडीगढ़ ग्रुप ऑफ कॉलेजेज (सीजीसी) के छात्र मोहम्मद गुंडरवाला एक ब्लॉग में कहते हैं- ‘भगत सिंह के बारे में जब भी कुछ कहा जाता है, इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगाते हुए एक व्यक्ति की छवि हमारे मन में आती है। लेकिन वास्तव में वह अपने समय के तीव्र बुद्धि वाले व्यक्ति थे। उनके हाथ में हमेशा एक किताब रहती थी। उन्होंने ब्रिटिश, यूरोपीय, अमेरिकी और रूसी साहित्य का विस्तार से अध्ययन किया था।

अपनी गिरफ़्तारी से पहले उन्होंने लगभग 250 किताबें और अपने दो साल के कारावास के दौरान 300 से ज़्यादा किताबें पढ़ीं। उन्होंने एक बार अपने लेख में कहा था- ‘बम और पिस्तौल क्रान्ति नहीं ला सकते। क्रान्ति की तलवार विचारों पर धार पर तेज़ की जाती है।’ उनका तीन मुख्य विचारधाराओं में विश्वास था और वे समाजवादी क्रान्तिकारी से बहुत प्रभावित थे।

समाजवादी क्रान्तिकारी

वह कार्ल माक्र्स, लेनिन और अन्य समाजवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें दु:ख हुआ, जब उन्होंने  देखा कि समाज किसानों, मज़दूरों और कारख़ाने के श्रमिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है।

इन दबे-कुचले लोगों के लिए भगत सिंह लडऩा चाहते थे। लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानियों की प्राथमिकता देश को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराना था; जबकि भगत सिंह के लिए प्राथमिकता अन्याय और शोषण का उन्मूलन करना था। उनके अनुसार, चाहे अंग्रेज हों या हमारे अपने ही ताक़तवर लोग, पूर्वाग्रह भरा उत्पीडऩ करते रहे, तो यह पूरे राष्ट्र को नीचा दिखाएगा। उनकी क्रान्तिकारी पार्टी का नाम था- ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’।

वसुधैव कुटुम्बकम

अपने 1924 के लेख विश्व प्रेम में उन्होंने ऋग्वेद आधारित श्लोक वसुधैव कुटुम्बकम की प्रशंसा की, जिसका अर्थ है कि पूरी दुनिया मेरा परिवार है। उन्होंने सपना देखा था कि फ्रांस-जर्मनी, अमेरिका-जापान, जो उस समय के बड़े दुश्मन देश थे; एक दिन नहीं लड़ेंगे और एक-दूसरे के साथ व्यापार करेंगे। इसके लिए क्रान्ति और लड़ाई अन्याय, असमानता, पूर्वाग्रह और शोषण के ख़िलाफ़ होनी चाहिए, न कि एक दूसरे के अहंकार के ख़िलाफ़।

नास्तिकता

जबकि महात्मा गाँधी धर्मनिरपेक्षता के भारतीय दृष्टिकोण का पालन कर रहे थे, भगत सिंह धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी दृष्टिकोण के अधिक पक्ष में थे, जो कहता है कि धर्म और सरकार के बीच एक दूरी होनी चाहिए, जो आज के लोकतंत्र में भी बुरी तरह ग़ायब है। उनका एक घोषणा-पत्र, नौजवान भारत सभा में उन्होंने कहा कि धार्मिक उदासीनता और उच्च वर्ग के उत्पीडऩ के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए विभिन्न समूहों के बीच मानवता और समानता का मूल्य क्यों महत्त्वपूर्ण है। भगत सिंह नास्तिक थे। अपने सन् 1927 के लेख ‘साम्प्रदायिक दंगे और उपचार’ में सभी भारतीयों के लिए उनका शक्तिशाली सन्देश धार्मिक विचारधाराओं के बेमेल पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अमीर और ग़रीब के बीच असन्तुलन को देखना था।

प्रधानमंत्री की स्वर्णिम योजना में करोड़ों का घोटाला

जिस कम्पनी को करोड़ों रुपये में दिया गया प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण का ज़िम्मा, वह किसी भी तरह नहीं योग्य। बिना जीएसटी और बिना स्टाफ के फ़र्ज़ी कार्यालय दिखाकर लिया गया ठेका

देश में विकास की लहर चलाने के लिए मोदी सरकार द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को कई फ़र्ज़ी कम्पनियों ने प्रभावित करने का कार्य किया है। दरअसल इस तरह का फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाली कम्पनियों की एक चेन-सी बनी हुई है, जो सरकार की आँखों में धूल झोंककर हर साल करोड़ों रुपये का चूना लगाने का कार्य बख़ूबी कर रही हैं। एक ऐसी ही फ़र्ज़ी कम्पनी भारत सरकार को क़रीब 50 करोड़ का चूना लगा रही है, जिसकी जड़ें अगर खँगाली जाएँ, तो यह घोटाला सैकड़ों करोड़ रुपये का निक़लेगा।

दरअसल भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने इसी साल की शुरुआत में प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण का ज़िम्मा ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कन्सल्टेन्ट इंडिया लिमिटेड (बीईसीआईएल) को सौंपा, जिसका कार्यालय सेक्टर-62, नोएडा में स्थापित है। ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कन्सल्टेन्ट इंडिया लिमिटेड (बीईसीआईएल) ने यह ज़िम्मेदारी  उठाकर कासा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (Kasa Technologies Limited) नाम की एक कम्पनी को दी और कासा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड ने इसे नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म ऐंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लि. (एनएफटीसी) यानी भारतीय राष्ट्रीय पर्यटन एवं परिवहन सहकारी संघ मर्यादित को हस्तांतरित कर दिया। इस कम्पनी ने 15 फरवरी, 2022 को क़रीब 50 करोड़ रुपये का काम बिना किसी निविदा (टेंडर) निकाले पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड (PSAR COMMUNICATION Pvt. Ltd.) को बिना कोई सिक्योरिटी जमा कराये ही दे दिया। यह ठेका नेशनल फेडरेशन ऑफ टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट कम्पनी ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिडेट के जिस लेटरहैड के माध्यम से पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को हस्तांतरित किया गया, उसका हस्तांतरण नंबर एनएफटीसी/बीए/लेबर सर्वे/2022/15 (NFTC/BA/Labour Survey/2022/15) है।

कम्पनी का फ़र्ज़ीवाड़ा

 

अब यहाँ देखने वाली बात यह है कि नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिटेड ने प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण परियोजना का इतना बड़ा ज़िम्मा जिस पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को दिया, वह किस हद तक फ़र्ज़ीवाड़ा कर रही है?

दरअसल पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड साल 2020 में बनायी गयी। यह एक फ़र्ज़ी कम्पनी है, जो कि केवल काग़ज़ों पर है। आरओसी के अनुसार, इस कम्पनी के निगमन (इनकॉरपोरेशन) की तारीख़ 09 अक्टूबर, 2020 है। इस कम्पनी को एक दुकान नंबर 23/24, शीतलादेवी सीएचएस, निकट इंडियन ऑयल नगर, अँधेरी पश्चिम, मुम्बई-400053 के पते पर रजिस्टर्ड कराया गया है। इस कम्पनी का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। कम्पनी की अधिकृत पूँजी मात्र एक लाख रुपये है। सबसे बड़ी बात यह है कि पसार के पास अनुबंध प्रदान करने की तारीख़ में कोई जीएसटी नंबर तक मौज़ूद नहीं था। न ही इस कम्पनी में ईएसआई और पीएफ की कोई व्यवस्था है और न ही कोई कर्मचारी इस कम्पनी में काम करता है, जबकि प्रवासी सर्वेक्षण के लिए सैकड़ों कर्मचारियों की ज़रूरत होती है। इसके अलावा कम्पनी में किसी लैंडलाइन टेलीफोन कनेक्शन, किसी बिजली कनेक्शन आदि की जानकारी भी नहीं मिली है। इतने पर भी पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को क़रीब 50 करोड़ रुपये का काम बड़ी आसानी से बिना किसी जाँच-पड़ताल के नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स प्राइवेट लिमिटेड की मदद से दे दिया गया।

गोपनीय सूत्र बताते हैं कि इस घोटाले की साज़िश नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स प्राइवेट लिमिटेड के कार्यकारी प्रबंध निदेशक की मदद से की गयी। कार्यकारी प्रबंध निदेशक को तत्कालीन चेयरमैन का समर्थन मिला हुआ है। जानकारी के मुताबिक, इस प्रकार के कार्यों के लिए कई लोग इनके सम्पर्क में रहते हैं, जो इनके लिए काम करते हैं। इस तरह ये लोग अपने निहित स्वार्थों के लिए अयोग्य लोगों और अयोग्य व फ़र्ज़ी कम्पनियों को केवल काग़ज़ात के माध्यम बिना किसी जाँच-पड़ताल के लिए फ़र्ज़ी तरीक़े से अति महत्त्वपूर्ण कार्य देकर सरकार को बड़े पैमाने पर चूना लगाकर मोदी सरकार की स्वर्णिम योजनाओं को बदनाम करने और सरकारी धन को चूना लगाने का कार्य कर रहे हैं।

पसार ने दिया अन्य कम्पनी को ठेका

हद तो यह है कि पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने सभी नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए इससे क़रीब आधी रक़म में इस महत्त्वपूर्ण काम का ज़िम्मा माँ कामाख्या एसोसिएट्स को 21 फरवरी, 2022 को अपने लेटर हैड नंबर पीएसएआर/2022/03 (PSAR/2022/03) के माध्यम से सौंप दिया। इस हस्तांतरण में सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह काम बिना श्रम मंत्रालय की स्वीकृति के ही अगली कम्पनी को दे दिया गया।

ऊपर से पसार कम्युनिकेशन प्रा. लि. ने इस हस्तांतरण-प्रपत्र में लिखा है कि ‘हम मैसर्स माँ कामाख्या एसोसिएट्स को इस सर्वेक्षण परियोजना को लागू करने के लिए श्रम और रोज़गार मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के अनुसार आवंटित ज़िले / प्रदेश में पूरी तरह से अधिकृत करते हैं।’ जबकि यह अधिकार भारत सरकार और उसके मंत्रालयों के पास होता है। फिर पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड किसी अन्य कम्पनी को किसी काम के लिए अधिकृत कैसे कर सकती है?

पसार कम्युनिकेशन द्वारा दिया गया रेफरेंस नंबर PSAR/2022/03 है। पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने माँ कामाख्या एसोसिएट्स को 500 रुपये प्रति इकाई के हिसाब से काम सौंपा, जिसमें जीएसटी भी शामिल है। पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने माँ कामाख्या एसोसिएट्स को काम होने के 30 दिन में भुगतान करने का आश्वासन दिया, जबकि नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म ऐंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिटेड ने पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को यही काम 1,000 रुपये प्रति इकाई के हिसाब से दिया था और सर्वे का काम होने के 15 दिन के अन्दर भुगतान का आश्वासन दिया था।

यहाँ देखने वाली बात यह है कि एक फ़र्ज़ी कम्पनी (पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड) घर बैठे-बैठे केवल अधूरे और अयोग्य काग़ज़ात के दम पर तक़रीबन 25 करोड़ रुपये सीधे हज़म करने की योजना बना चुकी है। ज़ाहिर है भारत सरकार के वित्तीय कोष से इतनी बड़ी रक़म निकलने पर इसका बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

क्या है प्रवासी मज़दूर सर्वेक्षण?

दरअसल भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा अखिल भारतीय सर्वेक्षण के लिए प्रवासी श्रमिक सर्वेक्षण, त्रैमासिक स्थापना आधारित रोज़गार सर्वेक्षण (एक्यूईईएस), घरेलू कामगारों का सर्वेक्षण, पेशेवर कामगार सर्वेक्षण और परिवहन क्षेत्र का सर्वेक्षण आदि काम कराये जाते हैं, ताकि इन क्षेत्रों से जुड़े लोगों के हित में योजनाएँ बनाकर उन्हें लाभ पहुँचाया जा सके और यह आकलन किया जा सके कि किस क्षेत्र से कितने लोग जुड़े हुए हैं। यह कार्य शासनादेश एवं दिशा-निर्देशों के अनुसार नियमों के दायरे में रहकर प्रामाणिक और उच्च मापदण्ड वाली कम्पनी को ही दिया जाता है। लेकिन कुछ कम्पनियाँ इस काम को सरकार के हाथ से लेकर ऐसी कम्पनियों को हस्तांतरित कर देती हैं, जो या तो काम करने के योग्य नहीं होतीं या फिर फ़र्ज़ी होती हैं। इस तरह फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाली कम्पनियों की एक चेन है, जो सरकार को हर साल करोड़ों रुपये का चूना लगाती हैं। इससे पता चलता है कि सरकारी कर्मचारियों और फ़र्ज़ी कम्पनियों के मालिकों के बीच किस तरह की साँठगाँठ है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

नये मुख्यमंत्रियों की चुनौतियाँ

चुनाव से फ़ारिग़ हुए पाँच राज्यों पर है लाखों करोड़ रुपये का क़र्ज़

विधानसभा चुनाव के बाद पाँच राज्यों में नयी सरकारें बन गयी हैं और अब उनके सामने नयी चुनौतियाँ हैं। जो दो बड़ी चुनौतियाँ इन सभी राज्यों के सामने हैं, वो हैं- रोज़गार देना और अपने वित्तीय घाटों से पार पाना। रिजर्व बैंक की ‘स्टेट फाइनेंस, अ स्टडी ऑफ बजट’ रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर क़रीब 70 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। इनमें देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहाँ अब दोबारा योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी है; पर तकुल 6.53 लाख करोड़ की देनदारी है। जबकि अन्न-राज्य कहलाये जाने वाले पंजाब के कन्धों पर 2.62 लाख करोड़ से ज़्यादा का क़र्ज़ है। क़र्ज़ के मामले में अन्य तीन राज्यों की हालत भी कुछ ऐसे ही है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनी है और उसने जनता से मुफ़्त बिजली-पानी जैसे वादे किये हैं। मुख्यमंत्री भगवंत मान जब शपथ के बाद पहली बार दिल्ली गये, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहली ही मुलाक़ात में पंजाब के लिए उनकी जो सबसे बड़ी माँग थी- ‘एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज।’ उत्तर प्रदेश में भाजपा ने भी चुनाव में लैपटॉप, स्मार्टफोन जैसी चीज़ें मुफ़्त में देने के वादे किये थे। ऐसे में जबकि इन सरकारों पर लाखों करोड़ से ज़्यादा के क़र्ज़ हैं; कैसे यह उन वादों को पूरा करेंगे और किसकी क़ीमत पर करेंगे? यह बड़ा सवाल है। सरकारी आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि देश की राज्य सरकारों का कुल राजकोषीय घाटा 8.19 लाख करोड़ का है। यह आँकड़ा जीडीपी के 3.7 फ़ीसदी के बराबर है। बता दें राज्य सरकारें इस घाटे की भरपाई ही बाज़ार से क़र्ज़ा उठाकर कर रही हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार चल रहे माली साल में ही फरवरी तक 57,500 करोड़ रुपये का क़र्ज़ ले चुकी थी; जबकि पंजाब 20,814 करोड़ रुपये का। राज्य यह उधार सात फ़ीसदी से ज़्यादा ब्याज दर पर लेते हैं, जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनकी क्या हालत है।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। एक ऐसा राज्य जहाँ हर साल 16 लाख युवा स्नातक और दूसरी शिक्षा के बाद बेरोज़गारों की कतार में खड़े हो जाते हैं। राज्य में रोज़गार है नहीं, लिहाज़ा रोज़गार के लिए उन्हें दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है। रोज़गार देने के लिए पैसा चाहिए और प्रदेश फँसा है क़र्ज़ के जाल में। ऐसे में योगी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है- सूबे को क़र्ज़ से उबारना। उत्तर प्रदेश पर इस वक्त पौने सात लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है; जो छोटी रक़म नहीं है। हाल के दो साल कोरोना-काल में ये क़र्ज़ बढ़ा है। निश्चित ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यतनाथ के लिए यह छोटी चुनौती नहीं है। ख़ासकर यह देखते हुए कि चुनाव के वक्त बने दबाव में भाजपा ने बड़े चुनावी वादे किये हैं। इनमें कॉलेज जाने वाली छात्राओं को मुफ़्त स्कूटी, दो करोड़ युवाओं को मुफ़्त लैपटॉप-टैबलेट, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, संविदा कर्मचारियों के मानदेय में बढ़ोतरी जैसे बड़े वादे हैं और सभी को पूरा करने के लिए पैसा चाहिए। पहले से क़र्ज़ का इतना बड़ा बोझ ढो रहे उत्तर प्रदेश के लिए यह आसान काम नहीं होगा। उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा खेतीबाड़ी करता है। हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली देने का वादा किया था। उसे पूरा करना है। इसके अलावा गन्ना किसान अपनी फ़सल के अच्छे मूल्य की माँग लगातार कर रहे हैं। पिछली सरकार के समय योगी इन माँगों को सन्तोषजनक तरीक़े से पूरा नहीं कर पाये थे। अब यह चुनौती फिर उनके सामने है।

उत्तर प्रदेश में किसान छुट्टा मवेशियों की समस्या से काफ़ी परेशान हैं। साल 2017 में योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही सूबे में तमाम अवैध स्लॉटर हाउस बन्द करवा दिये थे। आज भी उनपर ताले चढ़े हैं। हालाँकि इसका एक नुक़सान यह हुआ कि यह पशु गाँवों में किसानों की फ़सलें नष्ट करने लगे। सरकार के पास इन आवारा पशुओं कोई विशेष योजना आज भी नहीं है।

छुट्टा पशु लोगों पर भी हमले करते रहे हैं और चुनाव में सपा और कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया। योगी के अलावा उनके मंत्रियों को मजबूरी में इस बार के चुनाव में जनता से वादा करना पड़ा कि अब सरकार आने पर इसका प्रबंध किया जाएगा। देखना है कि योगी सरकार कैसे इस वादे को पूरा करती है। रोज़गार योगी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उनके पिछले कार्यकाल में कुछ भर्तियों के पेपर लीक होने पर काफ़ी हंगामा मचा था। कई भर्तियों में देरी भी हुई। इन सबसे नाराज़ युवा प्रदेश में प्रदर्शन भी कर चुके हैं। विपक्ष ने इसे भुनाने के लिए चुनाव में सरकारी नौकरियों को लेकर जमकर वादे किये। ख़ुद भाजपा ने रोज़गार के बड़े वादे किये हैं। यहाँ बता दें कि मुख्यमंत्री योगी दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार के पाँच साल के कार्यकाल में पौने पाँच लाख नौकरियाँ दीं।

हालाँकि रोज़गार पर इसी साल में आईसीएमआईई की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पाँच साल में बेरोज़गारी बढ़ी है। रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि उत्तर प्रदेश में 100 में से सिर्फ़ 32 लोगों के पास रोज़गार है। ये 100 वे लोग हैं, जो काम करते हैं या चाहते हैं और काम के योग्य उम्र वाली जनसंख्या (वर्किंग एज पॉपुलेशन) में आते हैं। उत्तर प्रदेश में रोज़गार चाहने वालों की कुल ज़रूरतमंदों की संख्या 14 फ़ीसदी (2.12 करोड़) बढक़र 17.07 करोड़ पहुँच गयी है। पाँच साल पहले यह संख्या 14.95 करोड़ थी।

यही नहीं, प्रदेश में नौकरी कर रहे लोगों की संख्या 16.20 लाख से ज़्यादा घट गयी, जिसके फलस्वरूप राज्य में रोज़गार दर (रोज़गार वाले लोग और रोज़गार के इंतज़र में लोगों की दर) दिसंबर, 2016 के 38.5 फ़ीसदी से घटकर दिसंबर, 2021 में 32.8 फ़ीसदी पर पहुँच गयी थी। पिछले साल कोरोना महामारी की दूसरी लहर में योगी सरकार को काफ़ी अलोचना झेलनी पड़ी थी। उत्तर प्रदेश की नदियों में कोरोना से मरने वालों के शव नदियों में मिलने से सरकार को बहुत फ़ज़ीहत झेलनी पड़ी थी।

इसके अलावा अस्पतालों में बिस्तरों, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ और सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन की कमी ने योगी सरकार को लगातार आलोचनाओं के घेरे में रखा। चुनाव में सपा और कांग्रेस ने लगातार इस मुद्दे को जनता के सामने लाया। हालाँकि 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले हर ज़िले में मेडिकल कॉलेज के अपने वादे पर सरकार ज़रूर काम कर रही है। हालाँकि अभी काफ़ी कुछ किया जाना बाक़ी है।

जहाँ तक राजनीतिक चुनौती की बात है मुख्यमंत्री योगी के सामने गठबंधन दलों को सन्तुष्ट रखने की भी चुनौती है। हाल के विधानसभा चुनाव से पहले कई विधायक गठबंधन तोडक़र सपा में चले गये थे। साल 2017 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। ओम प्रकाश राजभर मंत्री भी बनाये गये; लेकिन दो साल में ही वह बग़ावत पर उतर आये थे। योगी सरकार पर कई आरोप भी उन्होंने लगाये और बाद में भाजपा से बाहर चले गये। अब अपना दल (एस) और निषाद पार्टी को गठबंधन के साथ रखने की ज़िम्मेदारी योगी पर है।

दूसरे विधानसभा और बाहर सरकार पर हमले ज़्यादा होंगे। कारण यह है कि प्रमुख विरोधी दल समाजवादी पार्टी (सपा) की संख्या में बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। ऊपर से पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने लोकसभा सीट के इस्तीफ़ा देकर अब राज्य में सक्रिय रहने का फ़ैसला किया है, जिससे सरकार के लिए चुनौती बढ़ेगी। अखिलेश यादव सरकार को घेरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे।

योगी सरकार ने पाँच साल में राज्य में फ्लाईओवर, अंडरपास, हाईवे बनाये हैं; लेकिन सडक़ों के मामले में वह फिसड्डी साबित हुई है। गड्ढा मुक्त सडक़ों का वादा अभी भी वादा ही है। शहरों की सडक़ों की हालात ख़राब है। ज़ाहिर है विपक्ष सरकार पर दबाव बनाएगा।

पंजाब में भगवंत मान ने मुख्यमंत्री बनने के बाद दिल्ली की पहली यात्रा में ही जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात में एक लाख करोड़ का पैकेज माँगा, उससे ज़ाहिर होता है कि सूबे की माली हालत क्या है। मान के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश पर 2.62 लाख के क़र्ज़ के बावजूद जनता से किये गये वादे पूरे करना है। इस क़र्ज़ से बाहर निकलने की चुनौती अलग से उनके सामने है। साल 2017 में कैप्टेन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आयी थी, तब अकाली सरकार उस पर 1.82 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ छोड़ गयी थी; जो अब लगभग एक लाख करोड़ तक हो चुका है। ज़मीनी हक़ीक़त देखी जाए, तो चालू वित्त वर्ष में राज्य को क़रीब 95,257 करोड़ रुपये का राजस्व मिला है, जिसका 40 फ़ीसदी उसके ऊपर चढ़े क़र्ज़ चुकाने में ही निकल जाएगा। पंजाब वर्तमान में अपने संसाधन जुटाने, घटती प्रति व्यक्ति आय, केंद्रीय धन पर बढ़ती निर्भरता, पूँजी निर्माण में कम निवेश, टैक्स और ग़ैर-कर राजस्व का संग्रह, उच्च सब्सिडी की लाभ और मौज़ूदा क़र्ज़ों के कारण बाज़ार से उधार लेने को मजबूर है। पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लि. को 31 मार्च को ख़त्म हुए माली साल की बिजली सब्सिडी, जो करीब 9,600 करोड़ रुपये है; अगले साल के लिए छोड़ दी थी।

इस 2022 में पंजाब की आबादी तीन करोड़ होने का अनुमान है, ऐसे में राज्य पर पौने तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक का क़र्ज़ ज़ाहिर करता है कि हरेक पंजाबी पर एक लाख रुपये का क़र्ज़ है। साल 2003 तक राज्य की प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक थी; लेकिन नीति आयोग की आर्थिक और सामाजिक संकेतकों की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब की प्रति व्यक्ति आय घटकर 1,15,882 रुपये रह गयी, जो राष्ट्रीय औसत 1,16,067 रुपये से कम है। विशेषज्ञ इसका एक बड़ा यह भी मानते हैं कि राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं किया गया है। सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर पंजाब ऐसा नहीं कर पाएगा।

मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने जनता से बड़े वादे किये हैं, जिनके लिए पैसे की ही ज़रूरत रहेगी। आम आदमी पार्टी ने पंजाब के किसानों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों से लेकर हर वर्ग तक के लिए तमाम वादे किये हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल के फ्री मॉडल ने पंजाब में पार्टी के उभार में अहम भूमिका निभायी है। वादों की बात करें, तो आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जनता से 300 यूनिट मुफ़्त बिजली का वादा किया है। इसके अलावा मुफ़्त शिक्षा, हर महिला को हर महीने 1,000 रुपये, मुफ़्त जाँच और दवाइयाँ और हर व्यक्ति के लिए हेल्थ कार्ड का वादा भी है। पार्टी ने राज्य में 16,000 मोहल्ला क्लीनिक भी खोलने का वादा किया है। इसके तहत केजरीवाल ने हर गाँव में एक क्लीनिक खोलने, सरकारी अस्पतालों की हालत दुरुस्त करने और प्रदेश में बड़े स्तर पर नये अस्पतालों की शुरुआत करने की बात भी कही है।

पार्टी ने अपने वादों को पूरा करने के लिए पाँच साल का समय निर्धारित किया है; लेकिन कई वादे ऐसे हैं, जिन्हें भगवंत मान को तुरन्त करना है। निश्चित ही इसमें पैसे की बड़ी भूमिका रहेगी। पंजाब में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करना भी एक बड़ी चुनौती है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार 200 यूनिट बिजली मुफ़्त देती है। इसकी तर्ज पर पंजाब में हर माह 300 यूनिट बिजली मुफ़्त देना और घरेलू बिजली बिल का पुराना बक़ाया बिल माफ़ करना छोटे वादे नहीं हैं। बिजली के तारों को ज़मीन के नीचे बिछाने का काम भी बड़े बजट से होगा। दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर पंजाब के हर गाँव और क़स्बे के वार्ड और गाँवों में 16,000 क्लीनिक बनाना, जहाँ सस्ता और मुफ़्त में लोगों का इलाज हो सके और 18 वर्ष से अधिक आयु की प्रत्येक महिला के लिए 1,000 रुपये प्रति महीने की गारंटी भी बजट उपलब्ध होने पर निर्भर है।

आम आदमी पार्टी ने राज्य में अनुसूचित जाति के बच्चों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए कोचिंग शुल्क का भुगतान ख़ुद करने, अगर अनुसूचित जाति का छात्र बीए, एमए की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है, तो इसका पूरा ख़र्च सरकार की तरफ़ से देने, अस्थायी शिक्षकों को स्थायी करना, रिक्त पदों को भरना, झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों के लिए पक्के घर बनाना जैसे वादे भी पैसे से ही पूरे होंगे।

जहाँ तक उत्तराखण्ड की बात है, राज्य की अर्थ-व्यवस्था ख़राब हालत में है। प्रदेश पर 65,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ चढ़ चुका है। कर्मचारियों का वेतन तक बाज़ार से क़र्ज़ लेकर देने की नौबत कई बार आयी है। यही हालत क़र्ज़ का ब्याज चुकाने के मामले में है। पलायन राज्य की बड़ी समस्या है। रोज़गार के अभाव में लोगों को शहरों और दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ रहा है और सन् 2011 के आख़िर तक राज्य के 968 गाँव ख़ाली हो गये थे। वर्ष 2011 के बाद इनमें 734 गाँव और जुड़ चुके हैं। सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस योजनाएँ न होने की वजह से पलायन का सिलसिला लगातार जारी है। प्रदेश में आठ लाख से ज़्यादा बेरोज़गार पंजीकृत हैं। पिछले पाँच साल में भाजपा सरकार महज़ 11,000 ही नौकरियाँ दे पायी। उत्तराखण्ड के 20,000 से ज़्यादा सरकारी बेसिक, जूनियर, माध्यमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न पर्याप्त संसाधन। कई स्कूलों में न बिजली सुविधा है, न पानी और टायलेट। माध्यमिक स्तर पर ही 6,000 से ज़्यादा पद रिक्त हैं। इनमें 4,500 पर अतिथि शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है।

पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की गम्भीर स्तर की कमी है। परिवहन सेवाओं की हालत ख़राब है। पिछले पाँच साल में रोडवेज़ की 200 से ज़्यादा बसें घट चुकी हैं। राज्य में इस वक्त 465 गाँव ऐसे हैं, जहाँ संचार की कोई सुविधा ही नहीं। भ्रष्टाचार भी राज्य में बड़ा मुद्दा है। राज्य के 6.46 लाख घरों में पेयजल कनेक्शन नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र पर अमल कराना मुख्यमंत्री धामी के लिए बड़ी चुनौती रहेगा।

गोवा छोटा और पर्यटन राज्य है। लेकिन इसके बावजूद उस पर काफ़ी क़र्ज़ है। सन् 2017 में गोवा पर क़रीब 16,903 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था, जो 2022 में बढक़र क़रीब 28,509 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

मणिपुर में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का अब तक का सफ़र भले आसान रहा हो; लेकिन उनके लिए आगे बड़ी चुनौतियाँ हैं। राज्य को देश के बाक़ी हिस्सों से जोडऩे वाली सडक़ों, नेशनल हाईवे-2 और 37 पर वाहनों की आवाजाही ठप रही है। यह पर्वतीय राज्य सब्ज़ियों और खाने-पीने की दूसरी चीज़ों के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर है। राज्य में एक और बड़ी चुनौती नगा उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट और केंद्र सरकार के बीच हुई शान्ति समझौते को लेकर भी राज्य के बहुसंख्यक मैतेयी तबक़े में संशय की है। यहाँ आये दिन हिंसा के घटनाएँ सामने आती रहती है। मणिपुर में विकास की गति ठप होने और व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं। मणिपुर पर इस समय क़रीब 13,510.6 करोड़ रुपये का क़र्ज़ होने का अनुमान है।