नये मुख्यमंत्रियों की चुनौतियाँ

चुनाव से फ़ारिग़ हुए पाँच राज्यों पर है लाखों करोड़ रुपये का क़र्ज़

विधानसभा चुनाव के बाद पाँच राज्यों में नयी सरकारें बन गयी हैं और अब उनके सामने नयी चुनौतियाँ हैं। जो दो बड़ी चुनौतियाँ इन सभी राज्यों के सामने हैं, वो हैं- रोज़गार देना और अपने वित्तीय घाटों से पार पाना। रिजर्व बैंक की ‘स्टेट फाइनेंस, अ स्टडी ऑफ बजट’ रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर क़रीब 70 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। इनमें देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहाँ अब दोबारा योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी है; पर तकुल 6.53 लाख करोड़ की देनदारी है। जबकि अन्न-राज्य कहलाये जाने वाले पंजाब के कन्धों पर 2.62 लाख करोड़ से ज़्यादा का क़र्ज़ है। क़र्ज़ के मामले में अन्य तीन राज्यों की हालत भी कुछ ऐसे ही है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनी है और उसने जनता से मुफ़्त बिजली-पानी जैसे वादे किये हैं। मुख्यमंत्री भगवंत मान जब शपथ के बाद पहली बार दिल्ली गये, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहली ही मुलाक़ात में पंजाब के लिए उनकी जो सबसे बड़ी माँग थी- ‘एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज।’ उत्तर प्रदेश में भाजपा ने भी चुनाव में लैपटॉप, स्मार्टफोन जैसी चीज़ें मुफ़्त में देने के वादे किये थे। ऐसे में जबकि इन सरकारों पर लाखों करोड़ से ज़्यादा के क़र्ज़ हैं; कैसे यह उन वादों को पूरा करेंगे और किसकी क़ीमत पर करेंगे? यह बड़ा सवाल है। सरकारी आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि देश की राज्य सरकारों का कुल राजकोषीय घाटा 8.19 लाख करोड़ का है। यह आँकड़ा जीडीपी के 3.7 फ़ीसदी के बराबर है। बता दें राज्य सरकारें इस घाटे की भरपाई ही बाज़ार से क़र्ज़ा उठाकर कर रही हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार चल रहे माली साल में ही फरवरी तक 57,500 करोड़ रुपये का क़र्ज़ ले चुकी थी; जबकि पंजाब 20,814 करोड़ रुपये का। राज्य यह उधार सात फ़ीसदी से ज़्यादा ब्याज दर पर लेते हैं, जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनकी क्या हालत है।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। एक ऐसा राज्य जहाँ हर साल 16 लाख युवा स्नातक और दूसरी शिक्षा के बाद बेरोज़गारों की कतार में खड़े हो जाते हैं। राज्य में रोज़गार है नहीं, लिहाज़ा रोज़गार के लिए उन्हें दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है। रोज़गार देने के लिए पैसा चाहिए और प्रदेश फँसा है क़र्ज़ के जाल में। ऐसे में योगी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है- सूबे को क़र्ज़ से उबारना। उत्तर प्रदेश पर इस वक्त पौने सात लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है; जो छोटी रक़म नहीं है। हाल के दो साल कोरोना-काल में ये क़र्ज़ बढ़ा है। निश्चित ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यतनाथ के लिए यह छोटी चुनौती नहीं है। ख़ासकर यह देखते हुए कि चुनाव के वक्त बने दबाव में भाजपा ने बड़े चुनावी वादे किये हैं। इनमें कॉलेज जाने वाली छात्राओं को मुफ़्त स्कूटी, दो करोड़ युवाओं को मुफ़्त लैपटॉप-टैबलेट, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, संविदा कर्मचारियों के मानदेय में बढ़ोतरी जैसे बड़े वादे हैं और सभी को पूरा करने के लिए पैसा चाहिए। पहले से क़र्ज़ का इतना बड़ा बोझ ढो रहे उत्तर प्रदेश के लिए यह आसान काम नहीं होगा। उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा खेतीबाड़ी करता है। हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली देने का वादा किया था। उसे पूरा करना है। इसके अलावा गन्ना किसान अपनी फ़सल के अच्छे मूल्य की माँग लगातार कर रहे हैं। पिछली सरकार के समय योगी इन माँगों को सन्तोषजनक तरीक़े से पूरा नहीं कर पाये थे। अब यह चुनौती फिर उनके सामने है।

उत्तर प्रदेश में किसान छुट्टा मवेशियों की समस्या से काफ़ी परेशान हैं। साल 2017 में योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही सूबे में तमाम अवैध स्लॉटर हाउस बन्द करवा दिये थे। आज भी उनपर ताले चढ़े हैं। हालाँकि इसका एक नुक़सान यह हुआ कि यह पशु गाँवों में किसानों की फ़सलें नष्ट करने लगे। सरकार के पास इन आवारा पशुओं कोई विशेष योजना आज भी नहीं है।

छुट्टा पशु लोगों पर भी हमले करते रहे हैं और चुनाव में सपा और कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया। योगी के अलावा उनके मंत्रियों को मजबूरी में इस बार के चुनाव में जनता से वादा करना पड़ा कि अब सरकार आने पर इसका प्रबंध किया जाएगा। देखना है कि योगी सरकार कैसे इस वादे को पूरा करती है। रोज़गार योगी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उनके पिछले कार्यकाल में कुछ भर्तियों के पेपर लीक होने पर काफ़ी हंगामा मचा था। कई भर्तियों में देरी भी हुई। इन सबसे नाराज़ युवा प्रदेश में प्रदर्शन भी कर चुके हैं। विपक्ष ने इसे भुनाने के लिए चुनाव में सरकारी नौकरियों को लेकर जमकर वादे किये। ख़ुद भाजपा ने रोज़गार के बड़े वादे किये हैं। यहाँ बता दें कि मुख्यमंत्री योगी दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार के पाँच साल के कार्यकाल में पौने पाँच लाख नौकरियाँ दीं।

हालाँकि रोज़गार पर इसी साल में आईसीएमआईई की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पाँच साल में बेरोज़गारी बढ़ी है। रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि उत्तर प्रदेश में 100 में से सिर्फ़ 32 लोगों के पास रोज़गार है। ये 100 वे लोग हैं, जो काम करते हैं या चाहते हैं और काम के योग्य उम्र वाली जनसंख्या (वर्किंग एज पॉपुलेशन) में आते हैं। उत्तर प्रदेश में रोज़गार चाहने वालों की कुल ज़रूरतमंदों की संख्या 14 फ़ीसदी (2.12 करोड़) बढक़र 17.07 करोड़ पहुँच गयी है। पाँच साल पहले यह संख्या 14.95 करोड़ थी।

यही नहीं, प्रदेश में नौकरी कर रहे लोगों की संख्या 16.20 लाख से ज़्यादा घट गयी, जिसके फलस्वरूप राज्य में रोज़गार दर (रोज़गार वाले लोग और रोज़गार के इंतज़र में लोगों की दर) दिसंबर, 2016 के 38.5 फ़ीसदी से घटकर दिसंबर, 2021 में 32.8 फ़ीसदी पर पहुँच गयी थी। पिछले साल कोरोना महामारी की दूसरी लहर में योगी सरकार को काफ़ी अलोचना झेलनी पड़ी थी। उत्तर प्रदेश की नदियों में कोरोना से मरने वालों के शव नदियों में मिलने से सरकार को बहुत फ़ज़ीहत झेलनी पड़ी थी।

इसके अलावा अस्पतालों में बिस्तरों, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ और सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन की कमी ने योगी सरकार को लगातार आलोचनाओं के घेरे में रखा। चुनाव में सपा और कांग्रेस ने लगातार इस मुद्दे को जनता के सामने लाया। हालाँकि 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले हर ज़िले में मेडिकल कॉलेज के अपने वादे पर सरकार ज़रूर काम कर रही है। हालाँकि अभी काफ़ी कुछ किया जाना बाक़ी है।

जहाँ तक राजनीतिक चुनौती की बात है मुख्यमंत्री योगी के सामने गठबंधन दलों को सन्तुष्ट रखने की भी चुनौती है। हाल के विधानसभा चुनाव से पहले कई विधायक गठबंधन तोडक़र सपा में चले गये थे। साल 2017 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। ओम प्रकाश राजभर मंत्री भी बनाये गये; लेकिन दो साल में ही वह बग़ावत पर उतर आये थे। योगी सरकार पर कई आरोप भी उन्होंने लगाये और बाद में भाजपा से बाहर चले गये। अब अपना दल (एस) और निषाद पार्टी को गठबंधन के साथ रखने की ज़िम्मेदारी योगी पर है।

दूसरे विधानसभा और बाहर सरकार पर हमले ज़्यादा होंगे। कारण यह है कि प्रमुख विरोधी दल समाजवादी पार्टी (सपा) की संख्या में बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। ऊपर से पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने लोकसभा सीट के इस्तीफ़ा देकर अब राज्य में सक्रिय रहने का फ़ैसला किया है, जिससे सरकार के लिए चुनौती बढ़ेगी। अखिलेश यादव सरकार को घेरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे।

योगी सरकार ने पाँच साल में राज्य में फ्लाईओवर, अंडरपास, हाईवे बनाये हैं; लेकिन सडक़ों के मामले में वह फिसड्डी साबित हुई है। गड्ढा मुक्त सडक़ों का वादा अभी भी वादा ही है। शहरों की सडक़ों की हालात ख़राब है। ज़ाहिर है विपक्ष सरकार पर दबाव बनाएगा।

पंजाब में भगवंत मान ने मुख्यमंत्री बनने के बाद दिल्ली की पहली यात्रा में ही जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात में एक लाख करोड़ का पैकेज माँगा, उससे ज़ाहिर होता है कि सूबे की माली हालत क्या है। मान के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश पर 2.62 लाख के क़र्ज़ के बावजूद जनता से किये गये वादे पूरे करना है। इस क़र्ज़ से बाहर निकलने की चुनौती अलग से उनके सामने है। साल 2017 में कैप्टेन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आयी थी, तब अकाली सरकार उस पर 1.82 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ छोड़ गयी थी; जो अब लगभग एक लाख करोड़ तक हो चुका है। ज़मीनी हक़ीक़त देखी जाए, तो चालू वित्त वर्ष में राज्य को क़रीब 95,257 करोड़ रुपये का राजस्व मिला है, जिसका 40 फ़ीसदी उसके ऊपर चढ़े क़र्ज़ चुकाने में ही निकल जाएगा। पंजाब वर्तमान में अपने संसाधन जुटाने, घटती प्रति व्यक्ति आय, केंद्रीय धन पर बढ़ती निर्भरता, पूँजी निर्माण में कम निवेश, टैक्स और ग़ैर-कर राजस्व का संग्रह, उच्च सब्सिडी की लाभ और मौज़ूदा क़र्ज़ों के कारण बाज़ार से उधार लेने को मजबूर है। पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लि. को 31 मार्च को ख़त्म हुए माली साल की बिजली सब्सिडी, जो करीब 9,600 करोड़ रुपये है; अगले साल के लिए छोड़ दी थी।

इस 2022 में पंजाब की आबादी तीन करोड़ होने का अनुमान है, ऐसे में राज्य पर पौने तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक का क़र्ज़ ज़ाहिर करता है कि हरेक पंजाबी पर एक लाख रुपये का क़र्ज़ है। साल 2003 तक राज्य की प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक थी; लेकिन नीति आयोग की आर्थिक और सामाजिक संकेतकों की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब की प्रति व्यक्ति आय घटकर 1,15,882 रुपये रह गयी, जो राष्ट्रीय औसत 1,16,067 रुपये से कम है। विशेषज्ञ इसका एक बड़ा यह भी मानते हैं कि राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं किया गया है। सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर पंजाब ऐसा नहीं कर पाएगा।

मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने जनता से बड़े वादे किये हैं, जिनके लिए पैसे की ही ज़रूरत रहेगी। आम आदमी पार्टी ने पंजाब के किसानों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों से लेकर हर वर्ग तक के लिए तमाम वादे किये हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल के फ्री मॉडल ने पंजाब में पार्टी के उभार में अहम भूमिका निभायी है। वादों की बात करें, तो आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जनता से 300 यूनिट मुफ़्त बिजली का वादा किया है। इसके अलावा मुफ़्त शिक्षा, हर महिला को हर महीने 1,000 रुपये, मुफ़्त जाँच और दवाइयाँ और हर व्यक्ति के लिए हेल्थ कार्ड का वादा भी है। पार्टी ने राज्य में 16,000 मोहल्ला क्लीनिक भी खोलने का वादा किया है। इसके तहत केजरीवाल ने हर गाँव में एक क्लीनिक खोलने, सरकारी अस्पतालों की हालत दुरुस्त करने और प्रदेश में बड़े स्तर पर नये अस्पतालों की शुरुआत करने की बात भी कही है।

पार्टी ने अपने वादों को पूरा करने के लिए पाँच साल का समय निर्धारित किया है; लेकिन कई वादे ऐसे हैं, जिन्हें भगवंत मान को तुरन्त करना है। निश्चित ही इसमें पैसे की बड़ी भूमिका रहेगी। पंजाब में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करना भी एक बड़ी चुनौती है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार 200 यूनिट बिजली मुफ़्त देती है। इसकी तर्ज पर पंजाब में हर माह 300 यूनिट बिजली मुफ़्त देना और घरेलू बिजली बिल का पुराना बक़ाया बिल माफ़ करना छोटे वादे नहीं हैं। बिजली के तारों को ज़मीन के नीचे बिछाने का काम भी बड़े बजट से होगा। दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर पंजाब के हर गाँव और क़स्बे के वार्ड और गाँवों में 16,000 क्लीनिक बनाना, जहाँ सस्ता और मुफ़्त में लोगों का इलाज हो सके और 18 वर्ष से अधिक आयु की प्रत्येक महिला के लिए 1,000 रुपये प्रति महीने की गारंटी भी बजट उपलब्ध होने पर निर्भर है।

आम आदमी पार्टी ने राज्य में अनुसूचित जाति के बच्चों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए कोचिंग शुल्क का भुगतान ख़ुद करने, अगर अनुसूचित जाति का छात्र बीए, एमए की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है, तो इसका पूरा ख़र्च सरकार की तरफ़ से देने, अस्थायी शिक्षकों को स्थायी करना, रिक्त पदों को भरना, झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों के लिए पक्के घर बनाना जैसे वादे भी पैसे से ही पूरे होंगे।

जहाँ तक उत्तराखण्ड की बात है, राज्य की अर्थ-व्यवस्था ख़राब हालत में है। प्रदेश पर 65,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ चढ़ चुका है। कर्मचारियों का वेतन तक बाज़ार से क़र्ज़ लेकर देने की नौबत कई बार आयी है। यही हालत क़र्ज़ का ब्याज चुकाने के मामले में है। पलायन राज्य की बड़ी समस्या है। रोज़गार के अभाव में लोगों को शहरों और दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ रहा है और सन् 2011 के आख़िर तक राज्य के 968 गाँव ख़ाली हो गये थे। वर्ष 2011 के बाद इनमें 734 गाँव और जुड़ चुके हैं। सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस योजनाएँ न होने की वजह से पलायन का सिलसिला लगातार जारी है। प्रदेश में आठ लाख से ज़्यादा बेरोज़गार पंजीकृत हैं। पिछले पाँच साल में भाजपा सरकार महज़ 11,000 ही नौकरियाँ दे पायी। उत्तराखण्ड के 20,000 से ज़्यादा सरकारी बेसिक, जूनियर, माध्यमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न पर्याप्त संसाधन। कई स्कूलों में न बिजली सुविधा है, न पानी और टायलेट। माध्यमिक स्तर पर ही 6,000 से ज़्यादा पद रिक्त हैं। इनमें 4,500 पर अतिथि शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है।

पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की गम्भीर स्तर की कमी है। परिवहन सेवाओं की हालत ख़राब है। पिछले पाँच साल में रोडवेज़ की 200 से ज़्यादा बसें घट चुकी हैं। राज्य में इस वक्त 465 गाँव ऐसे हैं, जहाँ संचार की कोई सुविधा ही नहीं। भ्रष्टाचार भी राज्य में बड़ा मुद्दा है। राज्य के 6.46 लाख घरों में पेयजल कनेक्शन नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र पर अमल कराना मुख्यमंत्री धामी के लिए बड़ी चुनौती रहेगा।

गोवा छोटा और पर्यटन राज्य है। लेकिन इसके बावजूद उस पर काफ़ी क़र्ज़ है। सन् 2017 में गोवा पर क़रीब 16,903 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था, जो 2022 में बढक़र क़रीब 28,509 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

मणिपुर में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का अब तक का सफ़र भले आसान रहा हो; लेकिन उनके लिए आगे बड़ी चुनौतियाँ हैं। राज्य को देश के बाक़ी हिस्सों से जोडऩे वाली सडक़ों, नेशनल हाईवे-2 और 37 पर वाहनों की आवाजाही ठप रही है। यह पर्वतीय राज्य सब्ज़ियों और खाने-पीने की दूसरी चीज़ों के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर है। राज्य में एक और बड़ी चुनौती नगा उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट और केंद्र सरकार के बीच हुई शान्ति समझौते को लेकर भी राज्य के बहुसंख्यक मैतेयी तबक़े में संशय की है। यहाँ आये दिन हिंसा के घटनाएँ सामने आती रहती है। मणिपुर में विकास की गति ठप होने और व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं। मणिपुर पर इस समय क़रीब 13,510.6 करोड़ रुपये का क़र्ज़ होने का अनुमान है।