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संप्रग-2 आजाद भारत की सबसे बुरी सरकार है

 

जब से हम स्वतंत्र हुए हैं तब से कोई न कोई भ्रष्टाचार का मामला सामने आता रहा है. लेकिन इतनी भ्रष्ट सरकार आजाद भारत में पहले कभी नहीं आई. इस सरकार के जितने मंत्री भ्रष्टाचार के तरह-तरह के आरोपों से घिरे हैं उतने किसी भी सरकार के नहीं रहे. ऐसा माहौल दिखता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपने मंत्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है जिसकी वजह से यह स्थिति पैदा हुई है. मनमोहन सिंह पिछले आठ साल से सरकार चला रहे हैं, लेकिन उनके मंत्रियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. भ्रष्टाचार से बड़ी चिंता की बात यह है कि यह सरकार उस पर पर्दा डालने की कोशिश आखिर तक करती रहती है. ए राजा के मामले में पूरे देश ने यह देखा. सुरेश कलमाड़ी के मामले में भी ऐसा ही हुआ. अब पी चिदंबरम को सरकार लगातार बचाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री उनके बचाव में खड़े नजर आ रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि यह इस सरकार की फितरत है कि जब भी कोई मामला सामने आए तो पहले उस पर पर्दा डालने की कोशिश करो और अगर कोई मामले को संसद में उठाता है तो उसे सिरे से खारिज करो.

यह सरकार सिर्फ न्यायपालिका के सामने जाकर झुकती है. जब न्यायपालिका से आदेश आता है तब सरकार कार्रवाई शुरू करती है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की सिफारिश के बावजूद सीबीआई जांच के आदेश नहीं दिए गए. इस निर्देश के एक साल के बाद जब कोर्ट का डंडा पड़ा तब जाकर यह मामला सीबीआई को जांच के लिए मिला. अर्थशास्त्र में यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार से अनुपयोगी और दिखावे की चीजों का उपभोग (कॉन्सपीक्युअस कन्जंप्शन) बढ़ता है क्योंकि भ्रष्टाचार का पैसा लोग रोजमर्रा के कामों पर तो खर्च करते नहीं. देखा जाए तो बेलगाम होती महंगाई के पीछे सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है. मैंने लोकसभा में भी कहा था कि सरकार जब नाकाम होती है तो हर मोर्चे पर हो जाती है. इस सरकार की सबसे ज्यादा असफलता आर्थिक मोर्चे पर दिखती है. जबकि इस सरकार से सबसे ज्यादा उम्मीदें आर्थिक मोर्चे पर ही थीं. आर्थिक मामले पर जो हम लोग संजोकर गए थे उसमें से एक-एक चीज आज बिखर चुकी है. रुपये के अवमूल्यन से लेकर विकास दर और राजकोषीय घाटे तक के मोर्चे पर हालत खस्ता है. इससे यह लगता है कि आर्थिक मामलों पर से सरकार ने पूरी तरह से नियंत्रण खो दिया है.

मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री 1991 में जो पाठ पढ़ाया था उससे आज वे स्वयं हट गए हैं. उस वक्त उन्होंने कहा था कि महंगाई की सबसे ज्यादा मार गरीब पर पड़ती है. लेकिन आज उन्हें अपनी वही बात याद नहीं है. यह स्थिति कोई तीन या छह महीने से नहीं है बल्कि महंगाई की यह स्थिति तो पिछले तीन-चार साल से बनी हुई है. दुनिया की बड़ी आर्थिक एजेंसियां और आर्थिक पत्र-पत्रिकाएं आर्थिक मामलों को लेकर आज हिंदुस्तान की भर्त्सना कर रही हैं. हाल ही में दुनिया की एक प्रमुख पत्रिका ‘टाइम’ ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘अंडरअचीवर’ का तमगा दे डाला. इससे पूरी दुनिया में यह संदेश गया है कि भारत के विकास की जो कहानी थी वह खत्म हो गई है. लोग तो यह भी कह रहे हैं कि भारत की विकास की कहानी अस्थायी थी और उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा था.

2010-2011 में भारतीय उद्योगपतियों ने 44 अरब डॉलर देश के बाहर निवेश किए, जबकि देश में निवेश हुआ सिर्फ 27 अरब डॉलर का

 बतौर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पूरी तरह से असफल रहे हैं और वे अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट में छोड़कर गए हैं. आज हर आर्थिक संकेतक नकारात्मक स्थिति की पुष्टि कर रहा है. इसके बावजूद सरकार स्थिति से निपटने के लिए जरूरी कदम उठाने के बजाय इनकार की मुद्रा अपनाए हुए है. सरकार रेटिंग एजेंसियों समेत उन सभी लोगों को गलत ठहरा रही है जो अर्थव्यवस्था की बदहाली की बात उठा रहे हैं. इस सरकार की समझ में यह क्यों नहीं आता कि जब तक समस्या को समझेंगे नहीं तब तक उसका समाधान कैसे होगा.

अर्थव्यवस्था की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2010-2011 में 44 अरब डॉलर भारत के उद्योगपतियों ने देश के बाहर निवेश किया. जबकि इसी दौरान देश में निवेश हुआ सिर्फ 27 अरब डॉलर. अब देश का उद्योगपति देश में निवेश नहीं कर रहा है. देश का उद्योगपति अपने धन को बाहर ले जा रहा है. इस पर सरकार को विचार करना चाहिए. अगर कुछ बंदिशें लगाने की जरूरत पड़े तो लगाई जानी चाहिए. उदारीकरण का यह मतलब नहीं है कि देश गरीबी में गोते खाता रहे और अमीरी देश के बाहर जाए.

जब केंद्र में राजग सरकार थी तो उस दौरान ‘फिसकल रेस्पांसिबिलिटी ऑफ बजट मैनेजमेंट एक्ट’ पास हुआ. इसका मकसद था सरकारी घाटे को नियंत्रण में रखना. संप्रग की पहली सरकार ने सत्ता में आने के बाद इसे अधिसूचित किया. इस कानून में यह प्रावधान था कि राजस्व घाटे को शून्य पर लाएंगे और वित्तीय घाटे को दो-तीन प्रतिशत के आस-पास लाएंगे. लेकिन 2008-09 में भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.2 फीसदी था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 75.2 फीसदी हो गया. 2009-10 में वित्तीय घाटा जीडीपी का 6.6 फीसदी था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 80.7 फीसदी. वित्त मंत्री अब इसे 72.5 फीसदी पर लाने की बात कह रहे हैं. यह है अर्थव्यवस्था की हालत. यह बात आर्थिक मसलों की जरा-सी भी समझ वाला हर व्यक्ति जानता है कि राजस्व खर्च अनुत्पादक होता है. इससे उत्पादन नहीं बढ़ता है. उत्पादन बढ़ता है पूंजीगत व्यय से.

 महंगाई से लोग बेहाल हैं और यह सरकार बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है. जब संसद में महंगाई पर चर्चा चल रही थी तो मैंने कहा था कि रसोई में आग लग गई. अब कोई कहे कि रसोई में आग नहीं जलेगी तो खाना कैसे बनेगा. मगर आग जलने और आग लगने में अंतर है. आज गृहिणी आग जला नहीं रही है, उसकी रसोई ही जल गई है. रसोई की हर चीज उसकी पकड़ से बाहर हो गई है. यहां तक कि आग जलाने वाली चीज एलपीजी भी महंगी हो गई है. 2009 के दिसंबर में संसद की वित्त समिति ने महंगाई के बारे में ‘कंप्रीहैन्सिव फूड प्राइसिंग ऐंड मैनेजमैंट पॉलिसी’ तैयार करने की सिफारिश की थी. उस पर अब तक कुछ नहीं हुआ.

 अर्थशास्त्र में महंगाई को गरीबों के ऊपर सबसे घटिया किस्म का टैक्स कहा गया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतने बड़े अर्थशास्त्री हैं, वे इस बात को समझते ही होंगे. लेकिन इसके बावजूद महंगाई रोकने की कोशिश सरकार नहीं कर रही है. आर्थिक विषयों पर शोध करने वाली एजेंसी ‘क्रिसिल’ की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन साल में यानी 2008-09 से 2010-11 तक, महंगाई के चलते देश के लोगों ने तकरीबन छह लाख करोड़ रुपये अधिक खर्च किए. इसका क्या मतलब हुआ? मतलब यह हुआ कि अगर महंगाई को हमने पांच फीसदी पर नियंत्रित किया होता तो यह भार उनके ऊपर नहीं पड़ता. लेकिन महंगाई इन तीन वर्षों में आठ प्रतिशत या उससे ऊपर रही. वह 20 प्रतिशत तक भी गई. इस वजह से आपकी, हमारी और गरीबों की जेब से छह लाख करोड़ रुपये अधिक खर्च हुए. यानी दो लाख करोड़ रुपये हर साल. भारत सरकार का कुल कर राजस्व है तकरीबन 6.64 लाख करोड़ रुपये. इसका मतलब यह हुआ कि प्रतिवर्ष सरकारी राजस्व का लगभग एक तिहाई महंगाई के चलते इस देश के लोगों को अतिरिक्त देना पड़ रहा है.

कुछ महीने पहले एशियन डेवलपमेंट बैंक की भी एक रिपोर्ट आई थी. इसमें कहा गया है कि भारत में 20 महीने में जिस दर की महंगाई रही है और खासकर जैसे खाद्यान्नों की महंगाई रही है, उसके चलते पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए. हम आज प्रतिवर्ष आठ-नौ प्रतिशत की दर से विकास कर रहे हैं. विकास से गरीबी और गरीबों की संख्या घटनी चाहिए. लेकिन अगर हमने महंगाई पर नियंत्रण नहीं पाया तो उसका यही नतीजा होगा जो एशियन डेवलपमेंट बैंक ने कहा है. यानी और अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जाएंगे, गरीबी घटेगी नहीं.

खुद इसी सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि देश की आबादी में सबसे कम आमदनी वाले नीचे के 20 प्रतिशत लोग अपनी आमदनी का 67 प्रतिशत खाने-पीने की चीजों पर खर्च करते हैं. अब अगर रसोई में आग लगी हो तो उस 20 प्रतिशत की क्या हालत होगी? हम ऊपर के 20 प्रतिशत को भूल जाएं, बीच के 20 प्रतिशत को भूल जाएं, ये जो नीचे के 20 प्रतिशत लोग हैं वे आज महंगाई की मार सहते-सहते मिट्टी में मिल रहे हैं. इन लोगों को यह नहीं कहा जा सकता है कि आज देश जो आठ फीसदी की दर से विकास कर रहा है तुम उसी को खाकर अपनी भूख मिटा लो. यह कैसी विकास दर है जो खुद लोगों को ही खा रही है. मैं सिरे से इस सिद्धांत को खारिज करता हूं कि किसी भी कीमत पर विकास होना चाहिए. अगर विकास का मतलब महंगाई है तो ऐसे विकास का कोई मतलब नहीं है.

बीच-बीच में सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग इस तरह के बयान देते हैं जिससे महंगाई नियंत्रित होने के बजाय और बढ़ जाती है. प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष हर दो महीने बाद कहते हैं कि अगले दो महीने में हम महंगाई को नियंत्रित कर लेंगे. इसके दो महीने बाद फिर कहते हैं कि अगले दो महीने में हम महंगाई नियंत्रित कर लेंगे. इन बयानों के बाद जो मुनाफाखोर हैं वे सोचते हैं कि फिर दो महीने की मोहलत मिल गई है और अब जैसे चाहेंगे वैसे लोगों को चूसेंगे. महंगाई को लेकर सरकार कितनी असंवेदनशील है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तेजी से बढ़ती महंगाई के बावजूद सरकार ने बार-बार पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और रसोई गैस के दाम बढ़ाए. सरकार को इस बात को समझना होगा कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई बढ़ेगी तो बाकी चीजों की कीमतों में भी वृद्धि होगी. विनिर्माण क्षेत्र इससे बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. लेकिन संप्रग सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है.

प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती आंतरिक सुरक्षा है. उन्होंने माओवाद को सबसे बड़ी चुनौती बताया है. लेकिन इसके बावजूद माओवाद के ऊपर कहीं कोई नियंत्रण नजर नहीं आ रहा है. हमें यह समझना चाहिए कि माओवाद किसी एक सूबे की समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे देश की समस्या है. इससे निपटने में सरकार की जो भूमिका दिखनी चाहिए वह नहीं दिख रही है. जो कदम उठाए जाने चाहिए थे, वे कदम मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली दोनों सरकार ने पिछले आठ साल में नहीं उठाए हैं. अगर प्रधानमंत्री यह मानते हैं कि आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माओवाद है तो सच्चाई यह है कि यह खतरा घटा नहीं है बल्कि और बढ़ गया है. इसमें भी सबसे तकलीफ की बात यह है कि आंध्र प्रदेश में सरकार ने माओवादियों से समझौता किया और असम में उल्फा से. जबकि उल्फा को खदेड़कर असम से बाहर किया गया था. इसका मतलब यह हुआ कि जहां इस सरकार को राजनीतिक लाभ लेना होता है वहां माओवादियों से समझौता कर लेती है. एक तरफ तो ये समझौता करके चुनाव जीतते हैं और दूसरी तरफ उन्हें ही आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बताते रहते हैं.

बाहरी आतंकवाद से निपटने में भी यह सरकार नाकाम दिखती है. अब भी हम देश को ऐसे सुरक्षा कवच में नहीं डाल पाए हैं जो जरूरी है. अमेरिका पर एक आतंकी हमला हुआ और उसके बाद उसने खुद को ऐसे सुरक्षा कवच में डाला कि उसके बाद आतंकवादी कभी अपने मंसूबों को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. भारत में स्थिति इसके उलट है. यहां एक के बाद एक लगातार आतंकी हमले होने के बावजूद अब तक कोई चाक-चौबंद व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है. स्थिति ऐसी है कि जो जब चाहे तब भारत पर हमला कर सकता है. भारत पर आतंकवादी खतरा अब भी बरकरार है और मुंबई में जिस तरह का हमला 2008 में हुआ था उस तरह के हमले की आशंका भी लगातार बनी हुई है. 

प्रतिवर्ष सरकारी राजस्व का लगभग एक तिहाई महंगाई के चलते इस देश के लोगों को अतिरिक्त देना पड़ रहा है

विदेश नीति के मोर्चे पर भी इस सरकार की नाकामी बिल्कुल साफ है. विदेश नीति के मामले में देखें तो इस सरकार का झुकाव अमेरिका की तरफ बहुत ज्यादा है. जब हमारी सरकार केंद्र में थी तो कांग्रेस हम पर लगातार आरोप लगाती थी कि हम अमेरिका के हिसाब से अपनी विदेश नीति बना रहे हैं. जब 2004 में कांग्रेस की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी तो उस वक्त जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम इन लोगों ने बनाया था उसमें यह कहा गया था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के समय विदेश नीति में अमेरिका के प्रति जो झुकाव दिखता था उसे हम दुरुस्त करेंगे. जबकि हुआ यह कि संप्रग सरकार की विदेश नीति कहीं अधिक अमेरिका के पक्ष में झुकी नजर आती है. अमेरिका के साथ 2005 में जब परमाणु समझौता हो रहा था तो उस वक्त लोगों को सरकार ने सब्जबाग दिखाया कि बस कल ही आपके घर में बिजली पहुंचने वाली है. लेकिन सात साल गुजरने के बावजूद उस समझौते के आधार पर एक मेगावाट बिजली का उत्पादन नहीं हो पाया है. वहीं दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा को लेकर देश का अपना जो शोध है उसे इस सरकार ने वैसा बढ़ावा नहीं दिया जैसा दिया जाना चाहिए था. परमाणु समझौते को लेकर जिस तरह का रवैया इस सरकार ने कदम-कदम पर दिखाया उससे अमेरिका के प्रति इस सरकार का झुकाव स्पष्ट दिखता है.

ईरान के साथ हमारे हमेशा से मित्रता के संबंध रहे हैं. ईरान ही एक ऐसा देश है जिसके जरिए हम अफगानिस्तान और मध्य एशिया जाते हैं. ईरान से भारत को काफी तेल मिलता है. लेकिन ईरान को भारत ने नाराज किया. अब अमेरिका के दबाव में आकर हम ईरान से तेल की खरीद कम कर रहे हैं. इसके बाद भारत सरकार अमेरिका को कहती है कि हमने आपके कहने पर ईरान से तेल खरीद में कटौती कर दी है और अब हमें छूट दे दीजिए. वहीं दूसरी तरफ रूस से संबंधों को लेकर भी यह सरकार नाकाम दिख रही है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का पाकिस्तान जाना भारत के लिए चिंता का एक बड़ा संकेत है. रूस को भारत हमेशा से अपना सबसे अच्छा मित्र मानता रहा है. लेकिन आज हमारा सबसे अच्छा मित्र हमारे सबसे बड़े दुश्मन के यहां जा रहा है. इससे पहले कभी रूस का कोई राष्ट्राध्यक्ष पाकिस्तान नहीं गया. आज रूस ऐसा इसलिए कर रहा है कि वह देख रहा है कि भारत अमेरिका के साथ अपनी सांठ-गांठ बढ़ा रहा है. अमेरिका के साथ भारत की गलबहियों को देखते हुए रूस ने भी अब स्वतंत्र तौर पर दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से देखना शुरू कर दिया है.

सुरक्षा के मामले में देश की जो कमजोरी है उसे पूर्व सेनाप्रमुख जनरल वीके सिंह ने उजागर किया. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की स्थिति पूरे देश के सामने है. हाल ही में अभिषेक वर्मा नाम के एक व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई है. यह व्यक्ति बहुत दिनों से स्वतंत्र चल रहा था. लेकिन अब जाकर उसकी गिरफ्तारी हो पाई है. उसकी गिरफ्तारी इस बात का प्रमाण है कि रक्षा सौदों में कितने बड़े स्तर पर दलाली का काम चल रहा है. वॉर रूम लीक जैसी गंभीर घटनाएं भी इस सरकार की नाकामी को ही दिखाती हंै. कुल मिलाकर देखा जाए तो आज हर सुरक्षा सौदे में कहीं न कहीं भ्रष्टाचार है. इसका सबसे बुरा असर देश की रक्षा तैयारियों पर पड़ रहा है. 

नीतियों के स्तर पर दो बातें हैं. एक बात तो यह है कि आप कोई नीति बनाएं और फिर उसे लागू करें. ऐसा करने पर देश में नीतियों को लेकर भरोसा बढ़ेगा. लेकिन यहां तो कोई नीति ही नहीं बन पा रही है. नीतियों के स्तर पर संप्रग सरकार उम्मीद तो बड़ी बंधाती है लेकिन हकीकत में कुछ कर नहीं पाती. अभी हाल में रुपये के अवमूल्यन और महंगाई को लेकर जब हर ओर से सरकार पर दबाव बना तो प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक ने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक इस बारे में बड़ी घोषणाएं करने वाला है. इससे सबकी उम्मीदें बढ़ गईं. लेकिन रिजर्व बैंक ने जो घोषणाएं कीं वे खोदा पहाड़ और निकली चुहिया की तरह थीं. इससे हुआ यह कि रुपया डॉलर के मुकाबले कहीं अधिक कमजोर हुआ और शेयर बाजार का सूचकांक भी नीचे गया. इस सरकार की आदत में यह शामिल हो गया है कि आशाएं बंधाओ और उस पर खरा नहीं उतरो.

 पेंशन बिल एक उदाहरण है. ममता बनर्जी इसका विरोध कर रही हैं. उनके विरोध की वजह से यह बिल संसद में नहीं आया. सरकार ने भाजपा से बात कर ली थी. हमने कहा था कि हम इस बिल का समर्थन करेंगे. लेकिन सरकार इस बिल को लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. बजट सत्र के बाद सरकार ने यह घोषणा की कि यह बिल कैबिनेट के एजेंडे में आ गया है. इसके बाद ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल के दूसरे नेता और रेल मंत्री मुकुल रॉय ने चिट्ठी लिख दी और पेंशन बिल का विषय कैबिनेट के एजेंडे से हटा दिया गया. इस तरह की बातों से ज्यादा परेशानी होती है. आप कह रहे हो कि हम फैसला करने जा रहे हैं लेकिन आप फैसला कर नहीं पा रहे हैं. खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) लाने की इन्होंने घोषणा कर दी. इसके बाद जब विरोध हुआ तो सरकार ने अपने कदम पीछे हटा लिए. सरकार के इस तरह के रवैये से निवेशकों को ज्यादा निराशा होती है और सरकार के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं बन पाती. आज अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह है कि यह विश्वास के संकट से जूझ रही है. जब यह सरकार बनी थी तब दावा किया गया था कि रोजगार के करोड़ों अवसर पैदा होंगे. लेकिन इस मामले में जो वैश्विक रिपोर्ट आ रही है और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट भी बता रही है कि रोजगार सृजन के मामले में हालत खराब है. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रोजगार सृजन का काम हो ही नहीं रहा है. 

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यह सरकार संघीय ढांचे को भी चुनौती देती दिख रही है. कई मामलों में केंद्र सरकार अपना निर्णय राज्यों पर थोपने का काम कर रही है. यही वजह है कि ज्यादातर राज्य केंद्र सरकार से नाराज हैं. राज्यों और केंद्र के बीच टकराव का वातावरण बना हुआ है. यह भारत की संघीय व्यवस्था के लिए बहुत अशुभ संकेत है. सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी सरकार जो नुकसान करके जाती है उन नुकसानों की भरपाई के लिए अगली सरकार को बहुत मेहनत करनी पड़ती है. 

आज कई राज्य केंद्र सरकार पर भेदभाव करने का आरोप लगा रहे हैं. यह सरकार उन राज्यों की मांगों को अधिक तवज्जो देती है जहां की सत्ताधारी पार्टी इनकी सहयोगी हो. लेकिन जिन राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं, उनको लेकर इस सरकार का रवैया बिल्कुल अलग होता है. केंद्र सरकार का यह रवैया संघीय ढांचे के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी उस समय केरल में माकपा की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे ईके नयनार. उस वक्त मैं केंद्रीय वित्त मंत्री था. उस दौरान नयनार ने मुझे एक पत्र लिखकर केंद्र की ओर से की गई मदद के लिए आभार जताया था और कहा था कि भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने माकपा की केरल सरकार के साथ कोई भेदभाव नहीं किया. वह पत्र आज भी वित्त मंत्रालय में कहीं न कहीं पड़ा होगा. बतौर केंद्रीय वित्त मंत्री जब मैं मूल्यवर्धित कर (वैट) सुधार की बात कर रहा था तब मैंने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नेतृत्व में पहली समिति बनाई. इसके बाद बंगाल के वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता की अगुवाई में राज्यों के वित्त मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति इस मसले पर बनाई. ऐसा इसलिए किया कि हम लोग संघीय ढांचे में विश्वास रखते थे और भेदभाव की नीति पर नहीं चलते थे. माकपा से बड़ा भाजपा का राजनीतिक विरोधी कोई नहीं है. इसके बावजूद हमने केरल और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकारों के साथ बिल्कुल वैसा ही व्यवहार रखा जैसा व्यवहार अपनी पार्टी की सरकारों के साथ रखते थे. जबकि मौजूदा सरकार कई राज्यों के साथ भेदभाव कर रही है. यह रवैया सरकार की संकीर्ण मानसिकता को दिखाता है. 

यह सरकार संवैधानिक संस्थाओं से टकराने में भी बिल्कुल हिचकिचा नहीं रही है. अल्पसंख्यकों के आरक्षण का ही मामला लीजिए. इस मामले में सरकार चलाने वाले लोग जानते हैं कि जो बात वे अल्पसंख्यकों के आरक्षण को लेकर कह रहे हैं वह असंवैधानिक है. इसके बावजूद सरकार के अलग-अलग मंत्री इस मसले पर बयानबाजी कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मामले में जब सरकार के खिलाफ फैसला दे दिया तो फिर फटकार सुनने के लिए केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय चली गई. यह सरकार सिर्फ और सिर्फ वोट के लिए जान-बूझकर गैरसंवैधानिक कार्य कर रही है. केंद्र सरकार महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक (सीएजी), चुनाव आयोग, अदालत और लोक लेखा समिति (पीएसी) से अनावश्यक टकरा रही है. 2जी घोटाले पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के मामले में भी सरकार का यही रवैया है. आज प्रधानमंत्री यह क्यों नहीं कहते कि मैं जेपीसी के सामने जाऊंगा. वे जानते थे कि पीएसी के पास यह अधिकार नहीं है कि वह किसी मंत्री को बुलाए. इसलिए उन्होंने कहा कि मैं पीएसी के सामने जाने के लिए तैयार हूं. आज जब जेपीसी में आने की मांग उठ रही है तो वे चुप्पी साधे हुए हैं.

इस सरकार के ज्यादातर मंत्री बहुत दंभी हैं. उनके मन में यह भाव पैदा हो गया है कि उनके जैसा दुनिया में और कोई है ही नहीं. मनमोहन सिंह के बारे में आम धारणा यह बना दी गई है कि वे बहुत सरल, सहज और सभ्य हैं. लेकिन इनकी सच्चाई को समझने के लिए एक घटना का जिक्र करना जरूरी है. मई, 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और जुलाई में बजट आया. बजट के बाद संसद में वित्त विधेयक पर विवाद चल रहा था. इस संबंध में हम लोग – जॉर्ज फर्नांडिस, लालकृष्ण आडवाणी और मैं – एक कागज देने मनमोहन सिंह के पास गए. थे. जॉर्ज फर्नांडिस ने कागज मनमोहन सिंह के हाथ में दिया और उन्होंने सबके सामने ही उसे उठाकर फेंक दिया. उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस ने यह भी कहा था कि मनमोहन सिंह ने अपने पुराने संबंधों का भी खयाल नहीं रखा. मनमोहन सिंह जब अधिकारी होते थे तो उन्होंने जॉर्ज फर्नांडिस के अंडर भी काम किया था. यह घटना प्रधानमंत्री की सरलता, सहजता और सभ्यता के दावों की पोल खोलती है. इस घटना से मनमोहन सिंह ने न सिर्फ अपने आचरण को दिखाया बल्कि दूसरे मंत्रियों को भी ऐसा ही व्यवहार अपनाने को प्रेरित किया. आज यही मंत्रियों के दंभी रवैये के रूप में सबके सामने आ रहा है.

रूस को भारत हमेशा अपना सबसे अच्छा मित्र मानता रहा है. लेकिन वह हमारी नीतियों के चलते हमारे सबसे बड़े दुश्मन के यहां जा रहा है

यह सरकार जनभावना की बिल्कुल कद्र नहीं करती. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रधानमंत्री खुद अनिर्वाचित हैं. जो जनता के बीच जाते ही नहीं हैं, उन्हें यह कैसे पता होगा कि जनभावना क्या चीज होती है? हम जैसे चुनाव लड़ने वाले लोग जब अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं तो हर रोज सैकड़ो लोगों से मिलते हैं और गांव-गांव घूमते हैं. मनमोहन सिंह का न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र है और न ही उनसे उनके मतदाता मिलते हैं और न ही वे किसी गांव में जाते हैं. जनता दरबार ही लगा लिया होता! लेकिन ऐसा भी नहीं है. इसलिए जनभावना के प्रति उपेक्षा का भाव उनके लिए स्वाभाविक ही है. इस सरकार में तो जिनके भी हाथों में फैसला करने का अधिकार है वे सभी आराम से अपनी-अपनी जगह बैठे हुए हैं. 

जब 2004 में संप्रग की सरकार बनी तो उस वक्त कहा गया कि मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री होंगे, जो सिर्फ सरकार चलाएंगे. वहीं सोनिया गांधी संप्रग की अध्यक्ष होंगी और राजनीति देखेंगी. उस समय मीडिया में जमकर यह चला था कि इससे अच्छी व्यवस्था पहले कभी नहीं बनी. कुछ लोग कहने लगे कि मनमोहन सिंह सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) की तरह सरकार चलाएंगे और देश बहुत तेजी से तरक्की की राह पर बढ़ेगा. तरक्की की कयासबाजियों को इस बात ने भी बल दिया कि प्रधानमंत्री की पहचान बड़े अर्थशास्त्री के तौर पर थी. कहा गया कि प्रधानमंत्री को चुनाव भी कहीं से नहीं लड़ना है इसलिए वे चुनावी राजनीति के दबावों से मुक्त होकर काम कर सकेंगे. हम जैसे लोग जो चुनाव लड़ते हैं उनके पास उनके संसदीय क्षेत्र से विभिन्न मसलों पर लगातार फोन आते हैं. लेकिन मनमोहन सिंह के पास कोई फोन नहीं आता क्योंकि उनका कोई संसदीय क्षेत्र ही नहीं है. 

दुनिया की बड़ी पत्रिकाओं में ‘दि इकॉनोमिस्ट’ को शुमार किया जाता है. इस पत्रिका ने हाल में यह कहा कि पिछले आठ साल से भारत पर अनिर्वाचित प्रधानमंत्री शासन कर रहा है. बाहर वाले भी देखते हैं कि प्रधानमंत्री ने कभी चुनाव लड़ा नहीं. एक दफा दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़े भी तो हार गए. संविधान में यह नहीं लिखा हुआ है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का ही होना चाहिए. लेकिन संविधान की मर्यादा का तकाजा है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का हो. जब प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कांग्रेस ने बना दिया तो उनके सामने इस बात के लाले पड़ गए कि किसे सदन का नेता बनाएं. देश का प्रधानमंत्री पूरे देश का नेता होता है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कम समय के लिए प्रधानमंत्री बना है या फिर अधिक समय के लिए. जो अपनी पार्टी का भी सर्वोच्च नेता नहीं ह,ै उसे देश या फिर देश के बाहर के लोग भारत का नेता कैसे मानेंगे.

 इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था को ही संप्रग के अनिर्वाचित प्रधानमंत्री वाले तरीके ने खंडित कर दिया. मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री के पद पर हों लेकिन उनके पास कोई ताकत नहीं है. ताकत है सोनिया गांधी के पास, लेकिन उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. संप्रग का यह प्रयोग ही देश की अभी की सारी दिक्कतों की जड़ में है क्योंकि हर जगह नेतृत्व का अभाव दिखता है. ममता बनर्जी और डीएमके तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी सहयोगी थे. ये दोनों इस सरकार में भी हैं. लेकिन जो स्थितियां आज पैदा हो रही हैं वे हमारे समय में तो नहीं हो रही थीं. हम इन दोनों को ठीक ढंग से साथ लेकर चलते रहे. संप्रग से कहीं अधिक सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने का काम राजग ने किया था. हम ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि हमारे पास अटल बिहारी वाजपेयी जैसा नेतृत्व था.

जबकि मनमोहन सिंह के पास नेतृत्व की क्षमता नहीं है. मनमोहन सिंह के पास न नैतिक ताकत है, न राजनीतिक. और न सरकारी ताकत. प्रधानमंत्री के पास कोई ताकत नहीं है. इस वजह से जिस नेतृत्व की आवश्यकता इस देश को अभी है वह नहीं मिल पाया. इस सरकार के शुरुआत के दो-तीन साल तो यह सोचते हुए कट गए कि प्रधानमंत्री बहुत ईमानदार हैं इसलिए सब ठीक चलेगा. लेकिन कभी-न-कभी तो इसे बिखरना ही था. अब संप्रग-2 में यह बिखराव बिल्कुल साफ दिख रहा है. यह सरकार नेतृत्व और विश्वसनीयता के गंभीर संकट से गुजर रही है. जब प्रणब मुखर्जी सरकार का हिस्सा थे तो सारी जिम्मेदारी उन पर छोड़ रखी थी.

 देश के प्रधानमंत्री को जब भी समय मिलता है तो वह संसद के सदन में आकर बैठता है. चाहे वह लोकसभा में बैठे या राज्यसभा में. जब संसद में प्रश्नकाल चल रहा होता है तब मनमोहन सिंह सदन में आते हैं. इसके बाद शून्य काल शुरू होता है और सांसद कहते रह जाते हैं कि मैं प्रधानमंत्री जी को यह बताना चाहूंगा, वह बताना चाहूंगा लेकिन मनमोहन सिंह इन बातों की अनदेखी करते हुए सदन से उठकर चले जाते हैं. संसद की इतनी अवज्ञा और किसी शासन में नहीं हुई. मनमोहन सिंह की संसद में कोई दिलचस्पी ही नहीं है. जो संसद में पला-बढ़ा उसे तो इसकी कार्यवाही में दिलचस्पी होगी लेकिन जिसका कोई संबंध ही नहीं रहा उसकी इसमें दिलचस्पी कैसे होगी? प्रधानमंत्री का संसद में रुचि नहीं होना इस सरकार और देश की एक सबसे बड़ी समस्या है.

 

कोकराझार की करुण पुकार

82 साल के बिशेश्वर बोडो अपने गांव जाने के लिए व्याकुल हैं. गोसाईगांव तहसील में पड़ने वाला उनका गांव ओडलागुड़ी उस कोकराझार कस्बे से आधा घंटा दूर है जहां वे फिलहाल अपनी बेटी के साथ रह रहे हैं. कस्बे में लगे कर्फ्यू की वजह से गांव जाना तो दूर वे अपने घर से बाहर तक नहीं निकल सकते. यह कर्फ्यू उन भीषण दंगों की वजह से लगा है जिनमें आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अब तक 58 से भी ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है और दो लाख से भी ज्यादा लोगों को घर-बार छोड़कर राहत शिविरों की शरण लेनी पड़ी है. गैरआधिकारिक आंकड़े यह नुकसान कहीं ज्यादा बता रहे हैं. भर्राए गले के साथ बिशेश्वर कहते हैं, ‘टीवी पर खबर आ रही है कि मेरा गांव जल रहा है. पता नहीं मेरे आस-पड़ोस के लोगों का क्या हुआ होगा. गांव में मैं अकेला रहता था तो मेरी बेटी कुछ महीने पहले मुझे यहां ले आई. इसलिए मैं सुरक्षित हूं. पता नहीं कितने दिन और चलेगा यह खूनखराबा.’ 

बोडो, नेपाली, आदिवासी, बांग्लाभाषी हिंदू और मुसलिम समुदाय की मिली-जुली आबादी वाले निचले असम के इस इलाके में सामुदायिक हिंसा कोई नई बात नहीं. इसके कारण भी अनजाने नहीं हैं. लेकिन क्षुद्र स्वार्थों से भरी राजनीति के चलते अब तक इस समस्या के समाधान की कोई स्थायी उम्मीद नहीं जग सकी है. दरअसल मूल निवासी बनाम प्रवासी के नाम पर हो रहा टकराव पिछले कई दशक से इस हिंसा का बीज बनता रहा है. राज्य में जनसांख्यिकी का अनुपात बदल रहा है. जमीन और रोजगार की उपलब्धता घट रही है. इन मुद्दों पर होने वाली राजनीतिक रस्साकशी के चलते असम पर अधिकार का मुद्दा जब-तब गरमाता रहता है.  

हालिया हिंसा की शुरुआत तब हुई जब 19 जुलाई को कोकराझार जिले में मुसलिम समुदाय के दो छात्र नेताओं पर अज्ञात लोगों ने गोली चलाई. जवाबी हमले में बोडो लिबरेशन टाइगर्स नामक संगठन के चार पूर्व सदस्य मारे गए. इसके बाद तो हिंसा का दायरा तेजी से फैला और एक के बाद एक कई जिलों के गांव इसकी चपेट में आते गए.  असम की सबसे बड़ी जनजाति बोडो असम की कुल जनसंख्या का महज पांच फीसदी है. इसके मुकाबले बांग्लादेश से आए मुसलमानों की आबादी, जो इस इलाके में महज चार दशक पहले आई है, पूरे असम की जनसंख्या का 33 फीसदी हो गई है. इसकी वजह से सिर्फ बोडो ही नहीं बल्कि दूसरे जातीय गुटों का भी मुसलिम समुदाय के साथ टकराव बढ़ गया है. 

उम्मीद की जा रही थी कि स्वायत्तता के बाद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन बोडो समुदाय की बदहाल स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया

1952 में पहली बार बोडो और मुसलिम समुदाय का टकराव हुआ था. यही वह दौर था जब पहली बार मुसलिम आबादी इस इलाके में आ रही थी. 90 के दशक की शुरुआत में दोनों समूहों के बीच फिर सिलसिलेवार संघर्ष हुआ जिसके बाद मुसलिम आबादी को पीछे हटना पड़ा. तभी बोडो स्वायत्तता की बात पहली बार उठी. नतीजतन 1993 में बोडो स्वायत्त परिषद (बीएसी) बनी. बोडो समुदाय की मौजूदगी निचले असम के मैदानों में उत्तरी बंगाल से लगने वाले इलाकों तक है. यह इलाका कछारी, कोच, राजबोंघिस और आदिवासी लोगों का भी परंपरागत निवास रहा है. 1996 और 1998 में बोडो और आदिवासियों के बीच भी खूनी संघर्ष हो चुका है. इसमें 300 लोगों की जान चली गई थी.

अस्सी के दशक के आखिरी सालों में उपेंद्रनाथ ब्रह्म की अगुवाई में ऑल बोडो स्टूडेंट यूनियन (एबीएसयू) द्वारा शुरू किया गया पृथक बोडोलैंड आंदोलन बेहद हिंसक रहा था. मसले के हल के लिए बनी बोडो स्वायत्त परिषद से समुदाय का एक हिस्सा खुश नहीं था, इसलिए हजारों बोडो युवा पूर्ण आजादी के समर्थन में भूमिगत हो गए. नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ बोडोलैंड  (एनडीबीएफ) और बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) ने हथियार उठा लिए. बीएलटी 2003  में हिंसा की राह छोड़कर मुख्यधारा में आ गया जिसके बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) का मार्ग प्रशस्त हुआ. 

बागी बीएलटी राजनीतिक चोला ओढ़कर अब बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट  हो गया था. बीटीसी की कमान इसके हाथ में थी और इस तरह इसके मुखिया हग्रामा मोहिलारी ने बोडो राजनीति पर एक तरह से कब्जा कर लिया था.  लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस से जुड़े होने के बावजूद वे बोडो समुदाय की जिंदगी में कोई खास फर्क नहीं ला सके. इसका नतीजा यह हुआ कि  साल 2010 में एबीएसयू ने फिर अलग बोडोलैंड की मांग शुरू कर दी. एबीएसयू के फायरब्रांड अध्यक्ष प्रमोद बोरो कहते हैं, ‘बोडो जनता ने दो दो स्वायत्तशासी संस्थाएं देख लीं. दोनों बोडो जनता के अधिकारों की रक्षा कर पाने में नाकाम रही हैं. इस हिंसा में बोडो अपने ही घर में बेघर हो रहे हैं.’ एबीएसयू ने एक बार फिर से पृथक बोडोलैंड की मांग शुरू कर दी है, लेकिन आज हालात अस्सी के दशक के विपरीत हैं. संगठन का बड़ा हिस्सा सरकार के साथ बातचीत में लगा हुआ है. हालांकि उसका कहना है कि पृथक राज्य की मांग पर कोई समझौता नहीं होगा. बातचीत विरोधी गुट नेता रंजन दैमारी अब भी गुवाहाटी केंद्रीय जेल में हैं, लेकिन उनके समर्थक इस इलाके में फैले हुए हैं जो जब-तब हिंसा फैलाते रहते हैं. 

पिछले कुछ समय के दौरान बीटीसी और इस पर कब्जा जमाए हग्रामा मोहिलारी की छवि लगातार धूमिल होती गई है. कोकराझार के रंजन बसुमतारी कहते हैं, ‘असम सरकार को बोडो इलाकों की कोई फिक्र नहीं. उन्होंने इसे हग्रामा के लिए छोड़ दिया था ताकि वे इसे मनमर्जी से लूट सकें. बोडो जनता की हालत सुधारने से ज्यादा हग्रामा को अपनी सत्ता की  चिंता है. गोगोई ऐसे सहयोगी के साथ खुश हैं और हग्रामा भी कांग्रेस के ठेकेदार की तरह काम कर रहे हैं.’ 2003 में बीटीसी के गठन के बाद बोडो इलाकों में नाममात्र का विकास देखने को मिला है, जबकि इस दौरान हिंसा बढ़ी है. बीएलटी के पुराने नेता व्यापारी और ठेकेदार बन गए हैं जो अब हथियारों का इस्तेमाल अपने प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करने के लिए करते हैं. ताकत हाथ में आने के बाद हग्रामा और उनके सहयोगियों में विचारधारा का क्षरण भी तेजी से हुआ है. 

चाहे भूमिगत एनडीएफबी हो या हथियार डाल चुकी बीएलटी,  दोनों के ज्यादातर कैडर के पास अवैध हथियार हैं. इनमें से कुछ तो फिरौती भी वसूलने लगे हैं. इससे बोडो इलाकों में जंगलराज जैसी स्थिति लगती है. कोकराझार राजकीय अस्पताल में भर्ती एक बोडो महिला बताती है, ‘आम बोडो यहां सुरक्षित नहीं है. हथियारबंद लोग खुलेआम घूमते हैं. इनमें सिर्फ बोडो विद्रोही ही नहीं हैं. इनकी आड़ में स्थानीय गुंडे-बदमाश भी गिरोह चला रहे हैं.’  जातीय संघर्ष की वजह से यह अराजकता और बढ़ी है. ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष अब्दुल रहमान अहमद कहते हैं, ‘पिछले तीन साल के दौरान गैरबोडो समुदायों के नेताओं पर लगातार हमले होते रहे हैं. इससे बीटीसी इलाके में रहने वाले गैर-बोडो समुदायों में भय व्याप्त है.’   

पिछले छह महीने के दौरान बोडोलैंड में रहने वाला गैर-बोडो समुदाय अपने साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ मुखर हुआ था. इसके नतीजे में नॉन बोडो सुरक्षा समिति का गठन भी हुआ था. इसका काम था गैर-बोडो लोगों के साथ होने वाले अत्याचार का विरोध. मुसलिम नेताओं द्वारा गठित इस संगठन को कुछ बांग्लाभाषी हिंदुओं, नेपालियों और राजबोंघिस समुदाय का समर्थन प्राप्त था. ये बोडोलैंड का विरोध नहीं कर रहे थे लेकिन गैर बोडो समुदाय के लिए अधिकारों की मांग कर रहे थे. 

गैर-बोडो संगठन के उभार के पीछे राजनीति की भूमिका भी देखी जा रही है. इस आशंका को मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी खारिज नहीं किया है. वे कहते हैं, ‘हमारे पास सुरक्षा बलों की कमी है. केंद्र ने अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजने का वादा किया है. एक हफ्ते के भीतर हालात काबू में आ जाएंगे लेकिन मैं इसके पीछे राजनीतिक षड्यंत्र से इनकार नहीं कर सकता. हमें इन हालात से निपटना है.’ लेकिन साफ है कि गोगोई सरकार ने 2008 में उदलगुड़ी में हुई  हिंसा से कोई सीख नहीं ली है जिसमें 54 लोग मारे गए थे. इसकी जांच के लिए गठित जस्टिस पीसी फूकन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में असम पुलिस की बखिया उधेड़ते हुए उसकी खुफिया क्षमता पर सवाल खड़े किए थे. आयोग ने हिंसा भड़कने के लिए मुसलिम स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ असम को जिम्मेदार माना था जो इलाके में जबरन बंद थोपने की कोशिश कर रही थी. हमेशा की तरफ इस बार भी समय रहते स्थिति काबू में आ सकती थी. लेकिन पुलिस ने हालात को हाथ से निकलने का मौका दिया. अब सरकार और उसके गृह विभाग को जवाब खोजना पड़ रहा है. 

बिजली पर बेपरवाही

बिजली की भारी किल्लत से जूझ रहा बिहार अगले पांच साल में ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य लेकर चल रहा है. राज्य सरकार अपने पुराने बिजली घरों की मरम्मत करा रही है और नए बिजली घर बना रही है. कुछ समय पहले औरंगाबाद जिले के नबीनगर में एक बिजलीघर का शिलान्यास करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि जल्द ही बिहार को बाहर से बिजली लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी.  

लेकिन यह भविष्य की बात है. बिहार के वर्तमान पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि यहां बिजली निगलने वाले खिलाडि़यों की एक फौज है और उन खिलाडि़यों को विजेता बनाने वाले रेफरी भी मैदान में अपनी पूरी ऊर्जा लगाते हैं. जब तक इस भ्रष्ट गठजोड़ पर नकेल नहीं कसी जाती तब तक बिजली के मोर्चे पर भविष्य में आत्मनिर्भरता के कोई खास मायने नहीं लगते. राज्य विद्युत बोर्ड ने बिहार विद्युत नियामक आयोग को 2011 के जो आंकड़े बताए हैं उनके हिसाब से 57 प्रतिशत से अधिक बिजली का ‘एयर ट्रांसमिशन ऐंड कॉमर्शियल लॉस’ हो जाता है. यानी 100 रुपये की बिजली है तो उसमें सरकार को 57 रुपये से ज्यादा का नुकसान है. यह नुकसान एक रिकॉर्ड की तरह है. देश के सभी राज्यों में यह नुकसान होता है. लेकिन बिहार में नुकसान के इस खेल को देखें तो साफ लगता है कि यह नुकसान जितना होता नहीं, उससे ज्यादा कहीं सुनियोजित तरीके से कराया जाता है. 

लेकिन पहली व्यवस्था के पंगु होने और दूसरी के आने के बीच के वक्त का हिसाब-किताब जब होगा तब शायद एक और कीर्तिमान कायम हो. 

बिहार सरकार फिलहाल 500 मेगावाट बिजली की खरीदारी कर रही है. इसमें 300 मेगावाट बिजली एनटीपीसी विद्युत व्यापार निगम लिमिटेड से 4.31 रुपये की दर से तथा 200 मेगावाट अडानी ग्रुप से 4.41 रुपये की दर से ली जा रही है. इतनी महंगी खरीदी गई बिजली में यदि 57 प्रतिशत से अधिक नुकसान हो तो यह सवाल अहम हो जाता है. जानकार बताते हैं कि मानकों के हिसाब से यह नुकसान 29 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. ऊर्जा क्षेत्र में सुधार के लिए तय हो रहे मानदंड को मानें तो यह नुकसान 15 प्रतिशत में सिमटकर रहना चाहिए था. लेकिन बिजली को लेकर भविष्य के सपने में मगन महकमे में यह सवाल हाशिये पर है. राज्य विद्युत बोर्ड के प्रवक्ता हरेराम पांडेय कहते हैं, ‘नुकसान 40 प्रतिशत के करीब ही होगा. किन्हीं विशेष परिस्थितियों के रिकॉर्ड के आधार पर आप 57 प्रतिशत नुकसान की बात कर रहे हैं’. हम उन्हें ध्यान दिलाते हैं कि पिछले तीन साल से विद्युत विभाग के निगरानी कोषांग की पुलिस की गतिविधि ही बिजली चोरी को रोकने-रुकवाने को लेकर लगभग ठप पड़ी हुई है तो बिजली चोरी में एक रिकॉर्ड क्यों नहीं बन रहा होगा. पांडेय कहते हैं, ‘विद्युत बोर्ड अपने तरीके से विशेष पुलिस बल क जरिए बिजली चोरों पर छापेमारी कर रहा है. हम विभाग में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लोगों को आगाह करते रहे हैं.’

पर असल सवाल यह है कि आखिर क्यों 1992 में गठित उस विद्युत विभाग निगरानी कोषांग को अचानक पंगु होना पड़ा जो बना ही बिजली चोरी रोकने के लिए था. क्यों आज यह स्थिति है कि कोषांग की पुलिस आज बिजली चोरी होते हुए देखकर भी तमाशबीन बनने को विवश है, क्योंकि उसे अब यह अधिकार नहीं है कि वह बिजली चोरों के खिलाफ कोई कार्रवाई करे? राज्य के ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव अजय नायक  कहते हैं, ‘57 नहीं, यह नुकसान करीब 46 प्रतिशत है.’ वे यह भी बताते हैं कि समस्या को दूर करने के लिए पटना में वितरण व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है. वे और योजनाएं भी गिनाते हैं. निगरानी कोषांग विभाग पंगु बना दिया गया है तो बड़े चोर कैसे पकड़े जाएंगे, पूछने पर नायक कहते हैं, ‘दूसरे रास्ते बिजली चोरों को पकड़ने की कोशिश जारी है. बिजली के अलग से न्यायालय बनाकर त्वरित कार्रवाई भी की जा रही है.’ यानी बिजली बोर्ड से लेकर ऊर्जा विभाग तक इस सवाल का ठोस जवाब नहीं मिल पाता कि आखिर बिजली की चोरी रोकने के लिए बने निगरानी कोषांग को क्यों पंगु बनाया गया. लेकिन थोड़ा अतीत में जाने पर मामला कुछ-कुछ साफ होता है. जो दस्तावेज तहलका को मिले हैं, उनमें बड़े खेल के संकेत मिलते हैं. 

बात 2008 की है. विद्युत निगरानी कोषांग के महानिदेशक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आनंद शंकर हुआ करते थे. उनके निर्देश पर बिजली के बड़े खिलाडि़यों पर छापेमारी शुरू हुई. कई केस दर्ज हुए. इनमें एक केस नंबर 67/2008 भी था जो दादीजी स्टील नाम की एक कंपनी के खिलाफ था. निगरानी कोषांग को पता चला कि ऐसी ही चोरी को लेकर बिजली बोर्ड ने कई प्रतिष्ठानों से टैंपर्ड मीटर जब्त किया था और बिजली चोरी के ठोस साक्ष्य भी मिले थे, लेकिन बोर्ड की ओर से बिजली के उन चोरों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कराया जा सका था. जब दादीजी स्टील पर मामला दर्ज हुआ तो आनन-फानन में बोर्ड ने भी कइयों पर मामले दर्ज करा दिए. लेकिन इतने दिन तक चुप्पी क्यों साधे रहा, इसे स्पष्ट नहीं किया जा सका. फिर बिजली बोर्ड अध्यक्ष स्वप्न मुखर्जी ने एक रास्ता निकाला और घोषणा की कि जिन प्रतिष्ठानों या उपभोक्ताओं के मीटर टैंपर्ड हैं वे इसकी स्वैच्छिक घोषणा करें. राज्य में करीब 28 लाख उपभोक्ता हैं, लेकिन 52 बड़े उपभोक्ताओं ने ही यह घोषणा की कि उनका मीटर टैंपर्ड है और उसे बदला जाए. 

खेल यहीं पर हुआ. जिन उपभोक्ताओं के टैंपर्ड मीटर जब्त किए गए थे, उन्होंने भी स्वैच्छिक घोषणा की बहती गंगा में हाथ धोया और बोर्ड ने भी उन पर मेहरबानी की. जिस स्टील कंपनी के खिलाफ निगरानी कोषांग ने कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर दी थी और जिसके मामले में तीन साल की सजा के साथ करीब 20 करोड़ रु जुर्माने की संभावना थी,  उसने भी करीब दो माह बाद स्वैच्छिक घोषणा करके अपने बचने का रास्ता निकाल लिया और मात्र एक करोड़ का जुर्माना भरकर छुट्टी पाने की कोशिश की. लेकिन बात बड़ी थी. आनंद शंकर सख्त छवि वाले अधिकारी थे  इसलिए उन्होंने कई और बड़ी मछलियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया. तभी उनका तबादला हो गया. उनकी जगह 27 फरवरी, 2009 को दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मनोज नाथ आए. नाथ ने पाया कि बिजली बोर्ड के तब के अध्यक्ष स्वप्न मुखर्जी ने स्वैच्छिक घोषणा की आखिरी तिथि 5 जुलाई, 2008 की तय सीमा गुजर जाने के बाद भी स्वैच्छिक घोषणा को स्वीकारा है और बड़े खेल के रास्ते खोले हैं. साथ ही यह भी कि बिजली के जिन चोरों को टैंपर्ड मीटर के साथ पकड़ा गया था उन्हें भी स्वैच्छिक घोषणा का लाभ देकर सरकारी खजाने को भारी नुकसान पहुंचाया गया और चोरों को खुली छूट दी गई.

बिजली से ही राज्य में विकास का रास्ता खुलेगा है. लेकिन जो बिजली है, उसमें आधे से अधिक यूं ही व्यर्थ हो जा रही है

नाथ ने बोर्ड के अध्यक्ष पर केस किया. अध्यक्ष ने स्वीकारा भी कि दादीजी स्टील को स्वैच्छिक घोषणा का लाभ नहीं मिलना चाहिए था. लेकिन इसी बीच ‘आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’ वाला खेल हुआ. जिस रोज महानिदेशक मनोज नाथ ने केस दर्ज कराया, उसी रोज अध्यक्ष ने भी नाथ पर केस दर्ज करा दिया. उनका आरोप था कि नाथ ने उनसे बिजली बोर्ड परिसर, जहां विद्युत निगरानी कोषांग महानिदेशक का कार्यालय है, सुसज्जित कार्यालय की मांग की और इसे  में मानने पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया और फिर यह विद्वेषपूर्ण केस भी किया. इससे मामले का रुख ही बदल गया. बिजली बोर्ड के अध्यक्ष ने बिजली चोरी के सार्वजनिक मामले को निजी दायरे में समेटने की कोशिश की. नतीजतन पूर्व महानिदेशक आनंद शंकर द्वारा बिजली चोरी का मामला दर्ज करवाने और फिर बाद में महानिदेशक मनोज नाथ द्वारा स्वैच्छिक घोषणा के खेल से संबंधित मामला दर्ज करवाने का मामला अदालत में पहुंचा. पटना हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि भारतीय विद्युत अधिनियम, 2003 के तहत कोषांग पुलिस को ऊर्जा चोरी से किया गया कदाचार दर्ज करने का अधिकार ही नहीं है. हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया, बिजली बोर्ड इसे सिर आंखों पर लेकर लौट गया और तब से विद्युत निगरानी कोषांग नख-दंतहीन संस्था बनकर रह गया है. 

जानकार बताते हैं कि न्यायालय को जो सबूत और साक्ष्य उपलब्ध कराए गए थे, उस आधार पर फैसला सही है. लेकिन बड़ा सवाल कुछ और है. बिहार सरकार ने ही दो दशक पहले विद्युत निगरानी कोषांग को शुरू किया था. इसने दो दशक में बिजली चोरी के कई मामले उजागर किए और कई केसों को इसके जरिए एक अंजाम तक पहुंचाया जाना था. सवाल यह है कि उसी संस्था के अचानक अधिकारविहीन होने का फैसला सरकार ने स्वीकार कैसे कर लिया. सरकार और बिजली बोर्ड ने इस फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट का रुख क्यों नहीं किया? यह सवाल इसलिए अहम है कि इस फैसले के कुछ माह पहले ही जब नौबतपुर के एक किसान पर 60 हजार रुपये की बिजली चोरी का मामला बना था और हाई कोर्ट ने विद्युत अधिनियम, 2003 के तहत एक ऐसा ही फैसला सुनाया था तो बिजली बोर्ड सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था. सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर, 2010 में साफ कहा था कि ऊर्जा चोरी के मामले में पुलिस को 2007 में हुए विद्युत अधिनियम के संशोधन के बाद के ही नहीं, इससे पहले के मामलों में भी केस दर्ज करने का अधिकार है. 

नाथ कहते हैं, ’साफ है कि बिजली बोर्ड यह मामला इरादतन हार गया क्योंकि हाई कोर्ट के सामने समान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात बताई ही नहीं गई. बोर्ड ने यह भी नहीं सोचा कि इसका क्या असर पड़ेगा. निगरानी कोषांग ने अब तक जो केस दर्ज किए होंगे वे सब खारिज होने शुरू हो जाएंगे और सरकार को यह जवाब देना होगा कि निगरानी कोषांग के जरिए दो दशक से बिजली चोरों को पकड़ने और उन पर  कार्रवाई की जो कवायद होती रही, वह गलत थी.’ जानकार बताते हैं कि इस फैसले से स्टील कंपनी पर 20 करोड़ रुपये के जुर्माने वाला मामला तो ठंडे बस्ते में गया ही, और भी कई नुकसान हुए. मसलन जिन 52 उपभोक्ताओं ने स्वैच्छिक घोषणा का लाभ उठाया था उनमें दस ऐसे भी थे  जो आदतन बिजली चोर रहे थे और जिनसे मोटा राजस्व वसूला जाना था. दो और बड़े उपभोक्ताओं से भी करीब 160 करोड़  वसूले जाने थे, जिन पर 2005 में ही मामला दर्ज हुआ था. लेकिन हाई कोर्ट के फैसले की आड़ में अब यह राजस्व उगाहने की बात तो दूर, पहले दर्ज हुए मामले भी खुर्द-बुर्द हो सकते हैं. 

क्या यह खेल सिर्फ बिजली बोर्ड का है? या इसमें एक बड़ा गठजोड़ लगा हुआ है? पुलिस ने इस मामले को मुख्यमंत्री तक पहुंचाया. मनोज नाथ के बाद इस पद पर आए ढौंढियाल ने भी कहा कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए और दो बड़े उपभोक्ता, जिनसे 160 करोड़ वसूले जाने हैं, उनके मामले में तो सुप्रीम कोर्ट जरूर जाना चाहिए.  सूत्र बताते हैं कि सरकार की ओर से भी बात आई कि सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे. इस संदर्भ में 21 जुलाई, 2011 को ही अभ्यावेदन भेजा गया था और उस आधार पर 90 दिन के अंदर सुप्रीम कोर्ट में मामला जाना चाहिए था लेकिन अब तक वह जस-का-तस पड़ा हुआ है. हम बिजली बोर्ड के अध्यक्ष पीके राय से बात करने की कोशिश करते हैं, लेकिन बात नहीं हो पाती. विभाग की ओर से हरेराम पांडेय ही फिर से उपलब्ध होते हैं. लेकिन बोर्ड क्यों सुप्रीम कोर्ट नहीं गया, इसका जवाब देना वे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात बताते हैं. राज्य के विकास आयुक्त अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘निगरानी वाला मामला तो हाई कोर्ट का है, लेकिन बिजली चोरी रोकने के लिए हम लोग नए कदम उठा रहे हैं. वितरण की नई व्यवस्था की जा रही है और बिजली चोरी रोकने के लिए अलग से थाना खोलने का प्रस्ताव तैयार हुआ है. इससे बहुत हद तक अंकुश लगेगा.’ 

गुवाहाटी की शर्म और सबक

ऐसे मामलों से सबक न लेने वाले उन्हें दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं

यह सचमुच हिला देने वाली घटना थी. देश ने न्यूज चैनलों के पर्दे पर देखा कि  असम की राजधानी गुवाहाटी की एक मुख्य सड़क पर रात के करीब साढ़े नौ बजे के आस-पास एक युवा लड़की को कोई 15-20 लंपटों-गुंडों की भीड़ ने घेर लिया, उसे सरेआम बेइज्जत किया, बुरी तरह पीटा-घसीटा, उसके कपड़े फाड़ने और नंगा करने की कोशिश की. मदद के लिए गुहार करती उस लड़की की किसी ने कोई मदद नहीं की. न राहगीर रुके, न आस-पास खड़े लोग आगे आए और न पुलिस नजर आई. हालांकि उस चैनल के रिपोर्टर और कैमरामैन की भूमिका पर भी सवाल उठे कि उन्होंने भी उस लड़की की कोई मदद नहीं की और उल्टे पूरी घटना को फिल्माने में जुटे रहे.

सनसनीखेज खबर और दृश्यों की बेसब्र तलाश न्यूज चैनलों को यहां तक ले आई है, जहां उनके रिपोर्टर और संपादक अब ‘खबरें गढ़ने’ लगे हैं

कुछ चैनलों ने यह बहस उठाई कि उस परिस्थिति में जब कोई संकट या मुश्किल में हो, एक रिपोर्टर की भूमिका क्या होनी चाहिए. क्या उसे पहले पीड़ित को बचाने की कोशिश करनी चाहिए या उसे पहले रिपोर्ट करने और इसके लिए घटना फिल्माने को प्राथमिकता देनी चाहिए? यह एक क्लासिक नैतिक दुविधा है जिसका उत्तर आसान नहीं है और वह बहुत हद तक मौके की नजाकत और उसमें हस्तक्षेप करने की पत्रकार की सामर्थ्य और उसके तरीके पर निर्भर करता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जब विषम परिस्थितियों में पत्रकारों ने घटना को रिपोर्ट भी किया है और पीड़ित को बचाने की भी कोशिश की है. लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं जब पत्रकारों ने पीड़ित को बचाने के बजाय उसे रिपोर्ट करने को प्राथमिकता दी है और उसकी कीमत चुकाई है. इस आलोचना के बावजूद काफी लोगों ने माना कि यह शर्मनाक वाकया सामने लाकर और अपराधियों की पहचान करने में मदद करके चैनल ने महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों और पुलिस के नाकारेपन का पर्दाफाश करके अपना पेशेवर फर्ज निभाया है.

लेकिन जल्दी ही एक ऐसी भयावह सच्चाई सामने आई जिसने टीवी पत्रकारिता को शर्मसार कर दिया. पता चला कि इस शर्मनाक हादसे के लिए एक असमिया चैनल का रिपोर्टर भी उतना ही जिम्मेदार है जिसने अपराधियों को न सिर्फ उस लड़की को बेइज्जत करने को उकसाया बल्कि संभवतः इसकी पूर्व योजना भी बनाई. लेकिन क्या इसके लिए वह अकेला रिपोर्टर जिम्मेदार है? चैनल के संपादकों ने रॉ फुटेज में रिपोर्टर की उकसावे वाली भूमिका को क्यों अनदेखा किया? हालांकि इस बीच रिपोर्टर की गिरफ्तारी हो चुकी है और संपादक को इस्तीफा देने पड़ा है, लेकिन असल सवाल यह है कि एक रिपोर्टर को इस तरह एक खबर ‘बनाने’ यानी मैन्युफैक्चर करने की जरूरत क्यों पड़ी या उसकी प्रेरणा कहां से मिली.

 दरअसल, कुछ अलग, सबसे पहले, ड्रामैटिक और सनसनीखेज खबर और दृश्यों की बेसब्र तलाश न्यूज चैनलों को यहां तक ले आई है, जहां उनके रिपोर्टर और संपादक अब ‘खबरें गढ़ने’ लगे हैं.  यहां तक कि इसके लिए वे एक युवा लड़की को सरेआम बेइज्जत और नंगा करने की हद तक पहुंच गए. यह घटना सभी छोटे-बड़े न्यूज चैनलों के लिए एक बड़ा सबक है. इसके बावजूद अधिकांश राष्ट्रीय चैनल ऐसा जताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह घटना एक अपवाद है और सिर्फ क्षेत्रीय चैनलों तक सीमित और उनके बीच की अनैतिक होड़ का नतीजा है. गोया वे खुद दूध के धुले हैं और उनका इस गंदगी से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है. क्या वे दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना के फर्जी स्टिंग या जालंधर से लेकर बनारस तक लोगों को उकसा कर आत्मदाह करने या जहर पीने के लिए प्रेरित करने जैसे मामले भूल गए? गुवाहाटी की शर्म एक चेतावनी और सबक दोनों है. चैनलों को याद रखना चाहिए कि ऐसे शर्मनाक मामलों से सबक नहीं लेने वाले उन्हें दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं.

अनवरत असंतोष की फैक्टरी

बीती 18 जुलाई को मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड की मानेसर इकाई से  खबर आई कि मजदूरों और प्रबंधन के लोगों के बीच हुई झड़प में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की मौत हो गई है. इसके बाद मारुति, सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने कंपनी के मजदूरों को खलनायक बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कंपनी प्रबंधन और प्रशासन की ओर से मिल रही जानकारी के आधार पर आती खबरों में कहा गया कि प्रबंधन के भोले-भाले अधिकारियों पर मजदूरों ने बिना बात के हमला किया और एक अधिकारी को जिंदा जला दिया.

इन खबरों की मानें तो कंपनी में सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन अचानक मजदूरों का दिमाग खराब हो गया और उन्होंने प्रबंधन के लोगों पर हल्ला बोल दिया. लेकिन अगर कोई मजदूरों से या उन लोगों से जाकर बात करे जो मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे हैं तो पूरे मामले का दूसरा पक्ष भी उभरकर सामने आता है. हालांकि 18 जुलाई की घटना के बाद मानेसर इकाई के सारे मजदूर कंपनी छोड़कर भाग गए हैं. यहां तक कि कंपनी के मजदूर यूनियन के नेता भी भूमिगत हैं क्योंकि पुलिस इन मजदूरों की तलाश उपद्रवी मानकर गिरफ्तार करने के लिए कर रही है. मगर मजदूरों की गैरमौजूदगी में भी उनकी बात सामने आ रही है. जब मजदूरों के खिलाफ प्रबंधन, प्रशासन और सरकार ने तरह-तरह के आरोप लगाना जारी रखा तो मानेसर इकाई की मजदूर यूनियन के अध्यक्ष राम मेहर ने अज्ञात स्थान से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की. इसमें उन्होंने मजदूरों का पक्ष रखा. मानेसर इकाई के सौ से अधिक मजदूरों के गिरफ्तार होने और बाकी के भूमिगत होने के बाद मजदूर संगठनों के जो अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता इनकी लड़ाई लड़ रहे हैं उनकी मानें तो मजदूरों को उकसाने का काम खुद कंपनी प्रबंधन ने किया. इस पूरे मामले में कौन सही-कौन गलत के नतीजे पर पहुंचने से पहले पूरे घटनाक्रम को हर तरफ से जानना जरूरी है.

घटना के बाद कंपनी की तरफ से जारी बयान में बताया गया था कि तनातनी की शुरुआत 18 जुलाई की सुबह उस वक्त हुई जब एक मजदूर ने एक सुपरवाइजर को पीट दिया. इसके बाद जब प्रबंधन ने उस मजदूर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की बात की तो मारुति मजदूर यूनियन के अधिकारियों ने प्रबंधन को ऐसा करने से रोका. कंपनी के लिखित बयान के मुताबिक जब पहली शिफ्ट का काम खत्म करके अधिकारी और सुपरवाइजर गेट से बाहर निकल रहे थे तो मजदूरों ने उन्हें जाने नहीं दिया और बंधक बना लिया. इसके बाद जब प्रबंधन की तरफ से बातचीत की कोशिश चल रही थी तो अचानक मजदूर हिंसक हो गए और उन्होंने न सिर्फ अधिकारियों को पीटना शुरू कर दिया बल्कि कंपनी की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मकसद से आग लगाना भी शुरू कर दिया. कंपनी के मुताबिक मजदूरों ने कंपनी के 40 अधिकारियों को घायल कर दिया. बाद में मारुति के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत की खबर आई.

समझौते के बाद दस महीने से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद अब तक न तो शिकायत निवारण समिति बनाई गई और न ही मजदूर कल्याण समिति बनी

मगर कंपनी की मजदूर यूनियन के अध्यक्ष राम मेहर ने अज्ञात स्थान से जो प्रेस विज्ञप्ति मीडिया को भेजी थी उसके मुताबिक मामला कुछ और ही था. राम मेहर के मुताबिक 18 जुलाई को एक सुपरवाइजर ने एक नियमित दलित मजदूर को जातिसूचक गाली दी, जिसका विरोध मजदूरों ने न्यायसंगत तरीके से किया. अपने बयान में राम मेहर कहते हैं, ‘उस सुपरवाइजर के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय प्रबंधन ने उस मजदूर को निलंबित कर दिया जिसे जातिसूचक गाली सुननी पड़ी थी. प्रबंधन ने मजदूरों की जांच की मांग को भी खारिज कर दिया. इसके बाद यूनियन के अधिकारियों के साथ जब मजदूर एचआर अधिकारियों के पास मजदूर का निलंबन वापस लेने और सुपरवाइजर पर लगे आरोपों की जांच की मांग के साथ पहुंचे तो उन्होंने इन मांगों को सिरे से खारिज कर दिया.’ वे आगे कहते हैं, ‘बातचीत से इस मसले को सुलझाने की कोशिश चल ही रही थी कि प्रबंधन ने मजदूरों को पिटवाने के मकसद से 100 से अधिक बाउंसरों को बुलवा लिया. कंपनी के गेट बंद कर दिए गए और बाउंसरों ने मजदूरों पर हल्ला बोल दिया. बाद में मजदूरों की पिटाई करने में प्रबंधन के लोग भी शामिल हो गए और कुछ देर में पुलिस भी उनका साथ देने आ गई.’ दरअसल, जिन लोगों ने मारुति में पिछले साल के संघर्ष को करीब से देखा था और जो इसके बाद भी वहां के कामगारों के संपर्क में रहे उन्हें पता था कि कंपनी में असंतोष की चिंगारी कभी बुझी ही नहीं थी. हालांकि पिछले वर्ष का संघर्ष मुख्यतः मानेसर इकाई के लिए अलग मजदूर संगठन बनाने के लिए था, लेकिन इसकी जड़ में कहीं अधिक बड़ी समस्याएं थीं. ये समस्याएं सिर्फ मारुति के मजदूरों की नहीं बल्कि मोटे तौर पर पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों की हैं.

जब पिछले साल मारुति की मानेसर इकाई के मजदूरों का संघर्ष अपने चरम पर था तो उस वक्त तहलका की बातचीत कई मजदूरों से हुई थी. इनमें से एक गजेंद्र सिंह का कहना था, ‘नौ घंटे की शिफ्ट में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक मिलते हैं. इसी में आपको पेशाब भी करना है और चाय-बिस्कुट भी खाने हैं. ज्यादातर बार ऐसा होता है कि हमारे एक हाथ में चाय होती है, एक हाथ में बिस्कुट और हम शौचालय में खड़े होते हैं.’ छुट्टियों और मेडिकल सुविधाओं को लेकर भी मजदूरों में गहरा असंतोष था. अभियान में मजदूरों के बीच समन्वयक का काम करने वाले सुनील कुमार ने बताया था, ‘कागजी तौर पर तो हमें कई छुट्टियां दिए जाने का प्रावधान है लेकिन हकीकत यह है कि यहां छुट्टी पर जाने पर काफी पैसे कट जाते हैं. एक कैजुअल लीव लेने पर कंपनी प्रबंधन 1,750 रुपये तक पगार से काट लेता है. महीने में आठ हजार रुपये तक छुट्टी करने के लिए काट लिए जाते हैं. अगर आपने चार दिन की छुट्टी ली और यह इस महीने की 29 तारीख से अगले महीने की 2 तारीख तक की है तो आपके दो महीने के पैसे यानी 16,000 रुपये तक कट जाएंगे. आखिर यह कहां का न्याय है?’

दरअसल, कंपनी ने अपनी एचआर पॉलिसी इस तरह बनाई है कि पगार का एक बड़ा हिस्सा ‘अटेंडेंस रिवॉर्ड’ में डाल दिया गया है और अगर कोई एक दिन भी गैरहाजिर हो तो इसमें 25 फीसदी की कटौती कर दी जाती है. एक अन्य मजदूर गजेंद्र के मुताबिक, ’अगर काम करते समय किसी को चोट लगी तो कंपनी सिर्फ फर्स्ट एड कर देगी. उसके बाद जो भी इलाज होगा वह खुद ही कराना पड़ता है. अगर इस वजह से कोई छुट्टी ली तो कंपनी उसके पैसे भी काटती है.’ कंपनी की मानेसर इकाई में नियमित और ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी यहां के मजदूरों में असंतोष की एक वजह है. इस इकाई में तकरीबन 3,500 मजदूर काम करते हैं. इनमें से तकरीबन 2,000 ठेके पर काम करने वाले हैं. कंपनी में ठेका मजदूर के तौर पर कार्यरत मनोज वर्मा ने बताया था, ‘नियमित मजदूरों की मासिक पगार 16,000 रुपये है. जबकि ठेके पर काम करने वाले हम जैसे लोगों को हर महीने सिर्फ 6,500 रुपये मिलते हैं.’ यह कहानी सिर्फ मारुति की नहीं बल्कि औद्योगिक क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियों की है. मारुति के मजदूरों को लगता था कि अगर उनकी अपनी सशक्त मजदूर यूनियन होगी तो सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. पिछले साल जब दोनों पक्षों में समझौता हुआ तो कंपनी ने न सिर्फ मजदूर यूनियन को मान्यता देने की बात मानी बल्कि मजदूरों की समस्याओं के समाधान के लिए शिकायत निवारण समिति बनाने पर भी सहमति दे दी. इस बात पर भी सहमति बनी थी कि कंपनी मजदूरों के कल्याण के लिए भी एक समिति बनाएगी. लेकिन तकरीबन दस महीने से अधिक गुजरने के बावजूद अब तक न तो शिकायत निवारण समिति बनाई गई और न ही मजदूर कल्याण समिति. यूनियन को मान्यता तो मिली लेकिन उसे पूरे अधिकार प्रबंधन ने नहीं दिए.

नियमित और ठेका मजदूरों के बीच कई स्तरों पर होने वाला भेदभाव भी मारुति के मजदूरों में असंतोष की एक बहुत बड़ी वजह है

मारुति मजदूरों के बीच काम करने वाले इंकलाबी मजदूर केंद्र के कार्यकर्ता श्यामवीर तहलका को बताते हैं, ‘नई यूनियन की हालत यह थी कि इसके पदाधिकारियों को प्रबंधन बात-बात पर जलील करता था ताकि मजदूरों के मन में उनको लेकर सम्मान न पैदा हो. अगर कोई बाहरी व्यक्ति यूनियन के पदाधिकारियों से मिलने जाता तो कंपनी प्रबंधन से इसके लिए अनुमति लेनी होती थी. जबकि दूसरी कंपनियों की यूनियन वाले खुद तय करते हैं कि उन्हें किससे मिलना है और किससे नहीं.’ मजदूरों के पक्ष में अभियान चलाने वाले क्रांतिकारी लोकाधिकार संगठन के कमलेश कुमार बताते हैं, ‘कंपनी प्रबंधन को यह बात भी हजम नहीं हो रही थी कि आखिर नियमित मजदूर ठेका मजदूरों के हक की लड़ाई क्यों लड़ रहे हैं. प्रबंधन के अधिकारी नियमित मजदूरों को यह कहते थे कि तुम्हारा काम तो ठीक चल रहा है फिर क्यों ठेका मजदूरों के लिए परेशान होते हो. प्रबंधन की तमाम कोशिशों के बावजूद ठेका मजदूरों का असंतोष बढ़ता गया और उन्हें नियमित मजदूरों का भी भरपूर साथ मिल रहा था. सभी मजदूरों को एकजुट करने और उनके असंतोष को और भी भड़काने का काम पिछले साल बनाया गया कोड ऑफ कंडक्ट कर रहा था. आम तौर पर इस क्षेत्र की जो दूसरी कंपनियां हैं उनके कोड ऑफ कंडक्ट में 12 बिंदु होते हैं लेकिन मारुति ने 103 बिंदुओं वाला कोड ऑफ कंडक्ट लाया. इसके जरिए मजदूरों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लादे गए.’

कमलेश कुमार कहते हैं, ‘मारुति में मजदूरों की पगार को लेकर आखिरी समझौता 2009 में हुआ था जिसकी मियाद 2012 के मार्च में खत्म हो गई थी. मजदूर यूनियन और अन्य मजदूरों की तरफ से प्रबंधन पर लगातार दबाव बनाया जा रहा था कि उनकी पगार बढ़ाई जाए और अगले तीन साल के लिए नया वेतन ढांचा तैयार हो.’ श्यामवीर कहते हैं, ‘इन बातों को लेकर यूनियन और प्रबंधन में लगातार चल रही बातचीत बेनतीजा रह रही थी. प्रबंधन का यह कहना था कि हम ठेका और प्रशिक्षु मजदूरों के बारे में कोई बात नहीं करेंगे लेकिन नियमित मजदूर इनकी बात बार-बार उठा रहे थे. आज प्रबंधन बार-बार इस झूठ को दोहरा रहा है कि 18 जुलाई तक कंपनी में सब कुछ ठीक-ठाक था. लेकिन सच्चाई यह है कि मजदूरों ने शिफ्ट से पहले होने वाली 15 मिनट की असेंबली में 16 जुलाई से ही जाना बंद कर दिया था. इसके बावजूद प्रबंधन ने मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के बजाए उन्हें टालने का रवैया अपनाया.’

इन आरोपों पर कंपनी का पक्ष रखते हुए मारुति के मुख्य परिचालन अधिकारी (एडमिनिस्ट्रेशन) एसवाई सिद्दीकी कहते हैं, ‘पिछले एक साल से हम मजदूरों के साथ संबंध मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं. पिछले साल अक्टूबर में त्रिपक्षीय समझौता हुआ था. इसमें मारुति प्रबंधन और मजदूरों के अलावा हरियाणा सरकार भी एक पक्ष थी. दोनों समितियों के लिए हमने अपने प्रतिनिधि नामित किए और राज्य सरकार ने भी, लेकिन मजदूरों ने अपने प्रतिनिधियों को नामित नहीं किया. इन समितियों का गठन हमारी वजह से नहीं बल्कि मजदूरों की वजह से टला.’ नियमित और ठेका मजदूरों के बीच भेदभाव के मसले पर वे कहते हैं, ‘ठेका वाले मजदूरों को रखना गैरकानूनी तो है नहींे. यह सच है कि उन्हें सुविधाएं कम मिलती हैं. कंपनी पिछले कुछ समय से मुख्य कार्यों में सिर्फ नियमित मजदूरों को रखने की योजना पर काम कर रही है.’ पगार को लेकर मजदूरों और प्रबंधन के बीच चल रहे टकराव पर सिद्दीकी कहते हैं, ‘पगार बढ़ाने को लेकर बातचीत अंतिम दौर में थी और लग रहा था कि सहमति बन जाएगी.’ कंपनी की आगे की रणनीति पर वे कहते हैं कि हम चाहते हैं कि जो भी कसूरवार हैं उन्हें सजा मिले.

मारुति समेत पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहे मजदूरों के बीच बढ़ते असंतोष की मूल वजहों की ओर ध्यान दिलाते हुए ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव और वरिष्ठ माकपा नेता गुरुदास दासगुप्त बताते हैं, ‘निजी क्षेत्र की कंपनियों को लगता है कि सरकार उनके साथ है इसलिए वे जो चाहें कर सकती हैं. मुनाफा और उत्पादन बढ़ाने की होड़ में ये कंपनियां मजदूरों को इंसान मानने को तैयार ही नहीं हैं.’  मारुति के मामले में वे कहते हैं, ‘इस कंपनी में भी हिंसा की वजह प्रबंधन का असंवेदनशील और दमनकारी रवैया है. पहले भी इस कंपनी ने मजदूरों के साथ ज्यादती की है लेकिन सरकार ने कभी उसको कुछ नहीं कहा.’ तो क्या शोषण से उपजे गुस्से में मजदूरों द्वारा किसी की हत्या कर देने को सही ठहरा दिया जाए? ‘न तो मैं और न ही कोई और हत्या को सही ठहरा सकता है. लेकिन आपको समझना होगा कि श्रम कानूनों की पूरी तरह से अनदेखी करके जानवरों जैसा बर्ताव करने से कैसी मानसिकता विकसित हो रही है’ दासगुप्ता कहते हैं. इस बीमारी के इलाज के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘कंपनियां मजदूरों को भी इंसान समझें और सरकार उद्योगों में श्रम कानूनों का पालन सुनिश्चित करे.’

क्या पंजाब में भाजपा हाशिये पर पहुंच जाएगी?

हाल ही में पंजाब के मनसा जिले में एक फैक्टरी के नजदीक 25 गायों के शव मिले थे, धार्मिक रूप से यह काफी संवेदनशील मसला था इसलिए तुरंत ही वहां ग्रामीणों का प्रदर्शन शुरू हो गया. पूरे इलाके में कुछ दिन कर्फ्यू लगा रहा. राजनीतिक प्रेक्षक और जनता उम्मीद कर रहे थे कि यह गाय से संबंधित विषय है इसलिए पंजाब में सत्तासीन शिरोमणि अकाली दल की सहयोगी भाजपा तुरंत ही तीव्र प्रतिक्रिया देगी. लेकिन यहीं पंजाब की राजनीति में आ रहे बदलाव की एक ऐसी झलक दिखी जो आने वाले दिनों में भाजपा के लिए एक बड़ा संकट बन सकता है. इससे पहले गाय वाले मसले पर भाजपा जिला बंद या आंदोलन जैसे किसी राजनीतिक स्टंट का कुछ भी बयान देती राज्य के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ऐसी घोषणाएं कर दीं जिन्हें सुनकर न सिर्फ भाजपा के पैरों तले जमीन खिसक गई साथ ही यह भी साबित हो गया कि यह अकाली दल भाजपा के वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए खुद भाजपा के एजेंडे पर उससे आगे जा सकता है. मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि फैक्टरी की जमीन को अधिगृहीत करके वहां मृत गायों की याद में गाय स्मारक बनाया जाएगा. इसके साथ ही बादल ने राज्य के डीजीपी को यह आदेश  दिया कि गायों को मारने और उन पर की गई हिंसा से संबंधित जितने भी मामले थानों में लंबित हैं उन्हें तत्काल प्रभाव से निपटाया जाए. सभी जिलों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को यह निर्देश दिया गया कि गाय से संबंधित मामलों को वे बेहद संवेदनशीलता और प्राथमिकता से देखें. मुख्यमंत्री की इन ‘क्रांतिकारी’ घोषणाओं के बाद स्वाभाविक ही है कि भाजपा के पास कुछ कहने-करने को नहीं बचा. 

वैसे दोनों दलों के बीच के राजनीतिक प्रेम संबंध में बदलाव की बुनियाद उसी दिन पड़ गई थी जब इसी साल मार्च में विधानसभा चुनाव नतीजे घोषित हुए. अकाली दल को इसमें 56 सीटें मिली थीं. यानी 117 की विधानसभा में 59 सीटों के बहुमत से बस तीन कम. गठबंधन में शामिल बीजेपी को 12 सीटें मिलीं. इससे अकाली दल-भाजपा गठबंधन की सीटें 68 हो गईं. बहुमत से 9 सीटें ज्यादा. हालांकि जैसा पहले कहा जा चुका है कि अकाली दल अगर अपने दम पर सरकार बनाने की सोचता तो उसे सिर्फ तीन सीटों की और जरूरत थी. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव (2007) में ऐसी स्थिति नहीं थी. 2007 में अकाली दल को केवल 49 सीटें हासिल हुई थीं, कांग्रेस उससे केवल पांच सीटें पीछे थी. उस समय अकाली दल और भाजपा गठबंधन की सरकार बनाने का काम भाजपा ने किया. भाजपा ने उस चुनाव में रिकॉर्ड 19 सीटें जीती थीं. ये 19 सीटें जब अकाली दल के 49 सीटों से जुड़ीं तो गठबंधन ने सरकार बनाने का जादुई आंकड़ा आसानी से पार कर लिया.

लेकिन इस बार ऐसी स्थिति नहीं थी. चुनाव नतीजे बता रहे थे गठबंधन का दूसरा साथी अर्थात भाजपा कमजोर हुई है और अकाली दल पिछले चुनाव के मुकाबले काफी मजबूत हुआ. इतना कि उसे अपने बलबूते  पर सरकार बनाने में अब कोई खास मुश्किल नहीं दिख रही है. यही वजह है पिछले दिनों पंजाब में ऐसी कई घटनाएं हुईं जो दिखाती हैं कि अकाली दल अपनी इस योजना को अमली जामा पहनाने की तरफ तेजी से बढ़ रहा है. वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘राज्य में भाजपा का कोई खास आधार नहीं है. वे अकाली दल की वजह से ही सत्ता में हैं. अपने दम पर तो राज्य में वह कुछ कर नहीं सकती. अब अकाली भी यही चाहते हैं कि उसे पंजाब में कमजोर बनाए रखा जाए. वे चाहते हैं कि भाजपा बस 10-15 सीटें जीतने के साथ जूनियर पार्टनर की तरह चुपचाप उनके साथ काम करती रहे.’ गठबंधन के दोनों सहयोगी अकाली दल और भाजपा ने अपनी जरूरत के हिसाब से राज्य में एक मॉडल तैयार किया था जिसमें अकाली दल जैसा कि माना जाता रहा है कि गांव और किसानों की पार्टी है वह पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करेगा तो भाजपा शहरी क्षेत्रों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाएगी. अकाली दल जहां सिखों के वोट ले आएगा वहीं भाजपा गैरसिख खासकर हिंदुओं के वोट गठबंधन को दिलाएगी. इस तरह एक तरफ जहां क्षेत्र (ग्रामीण और शहरी) के आधार पर दोनों पार्टियों के बीच कार्य विभाजन था वहीं धर्म के आधार पर भी दोनों ने अपनी अपनी हिस्सेदारी तय कर ली थी. 

‘अगर हम अकाली दल को हिंदुओं को टिकट देने से मना करेंगे तो वे यह सवाल पूछने लगेंगे कि हम सिखों को टिकट क्यों देते हैं’

इस तरह गठबंधन को शहरी, ग्रामीण, सिख और गैरसिख (खासकर हिंदूओं) सभी के वोट मिल जाते थे. लेकिन इस सत्ता संतुलन में पहली दरार तब पड़ी जब अकाली दल ने विधानसभा चुनावों में रिकॉर्ड 11 हिंदुओं को टिकट दिया. यह शुरुआत फिर आगे बढ़ती गई और अकाली दल ने भाजपा के वोट बैंक समझे जाने वाले हिंदुओं को पार्टी से जोड़ने की गंभीर शुरुआत की. बीजेपी के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पार्टी को अकाली दल के इस रवैये से दिक्कत तो थी लेकिन वह कुछ कर नहीं सकती थी क्योंकि अगर आप आज उन्हें हिंदुओं को टिकट देने से रोकेंगे तो वो इस बात का विरोध करेंगे कि हम किसी सिख को क्यों टिकट दे रहे हैं.’  

दोनों दलों के बीच दरार को चौड़ा करने का काम एक और बड़ी घटना ने किया. जब बादल सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजौना को मिली फांसी की सजा को लागू करने से इनकार कर दिया. भाजपा अकाली दल के इस व्यवहार से बेहद नाराज थी. जिस आदमी को पार्टी आतंकवादी और हत्यारा मानती थी, उसी की फांसी की सजा रुकवाने के लिए उसका गठबंधन सहयोगी (अकाली दल) दिल्ली में केंद्र सरकार के सामने विनम्र प्रार्थना कर रहा था. अकाली दल ने भाजपा की एक नहीं सुनी, किसी तरह न सिर्फ राजौना की फांसी पर राष्ट्रपति के माध्यम से रोक लगवाई गई बल्कि उन्हीं दिनों अकाल तख्त ने उसे जिंदा शहीद की उपाधि से भी नवाजा. इसके बाद मामला आया अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के प्रांगण में ब्लू स्टार मेमोरियल बनाए जाने का. भाजपा पंजाब प्रभारी और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का इस मसले पर कहना था, ‘हम आतंकवाद और उसमें लिप्त लोगों को किसी तरह का समर्थन देने या फिर उनका महिमामांडन करने के सख्त खिलाफ हैं. हम मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से इस विषय पर बात करेंगे कि वे स्मारक के बनने पर जल्द से जल्द रोक लगवाएं.’ वैसे स्मारक पर तो रोक नहीं लगी और स्मारक का बाहरी ढांचा बन कर तैयार हो गया है. इस मामले में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी.­   

इसके बाद दोनों दलों के बीचे के संबंधों में सबसे बडा झटका हाल ही में संपन्न हुई नगरपालिका चुनावों में लगा. इस चुनाव में अकाली दल को भाजपा से अधिक सीटें हासिल हुई हैं. जबकि इससे पहले तक भाजपा यह मानती आई हुई थी कि शहरी क्षेत्रों में उसका जनाधार है और ग्रामीण क्षेत्रों में अकाली दल का. अभी नतीजे आए ही थे कि भाजपा ने अकाली दल पर यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि अकाली दल के नेताओं ने षड्यंत्र के तहत पार्टी के प्रत्याशियों के खिलाफ डमी कैंडिडेट खड़े कर दिए थे जिससे उनके कई प्रत्याशी हार गए. यह लड़ाई अभी चल ही रही थी कि कुछ धार्मिक संगठनों की तरफ से यह मांग आई कि अमृतसर चूंकि सिखों की धार्मिक आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है, ऐसे में यहां का मेयर कोई सिख ही होना चाहिए और वह अकाली दल से हो. भाजपा ने उसके और अकाली दल के बीच हुई राजनीतिक सहमति का हवाला देते हुए कहा कि 1997 में जो राजनीतिक गठजोड़ का समझौता हुआ था उसके अनुसार अमृतसर और जालंधर में मेयर भाजपा का बनेगा जबकि लुधियाना और पटियाला में मेयर अकाली दल का बनेगा. 

इस घटनाक्रम के बाद भाजपा के नेता अकाली दल को गठबंधन धर्म निभाने की नसीहत देते नजर आए. अभी तक दोनों दल यह तय नहीं कर पाए हैं कि मेयर किस दल से होगा. प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष विनोद शर्मा दोनों दलों के संबंध के इस स्थिति तक पहुंच जाने के सवाल पर कहते हैं, ‘हमारा समझौता बादल (प्रकाश सिंह बादल) साहब से है. वे हमेशा भाजपा को एक मजबूत साथी के तौर पर न सिर्फ देखते हैं साथ ही हमारा बेहद सम्मान करते हैं. लेकिन नीचे की लीडरशीप इस भावना से परिचित नहीं है. उसकी तरफ से समय-समय पर दिक्कतें आती रहती हैं.’ इस तरह से पिछले कुछ समय में कई ऐसी घटनाएं, घोषणाएं और बयानबाजियां सामने आई हैं जिन्होंने दोनों दलों के बीच तेजी से उभर रही दरार की तरफ इशारा किया है. लेकिन भाजपा की तरफ से अभी तक आक्रामक रुख देखने को नहीं मिला है.  बलवंत तक्षक कहते हैं, ‘भाजपा जानती है कि वह यहां बिना अकाली दल के कुछ नहीं है इसलिए वह जनता को दिखाने के लिए बयानबाजी तो करती रहती है लेकिन इस हद तक विरोध नहीं करती कि संबंध खत्म हो जाए.’

मैं अब मध्य प्रदेश की राजनीति नहीं करूंगा

 

कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह अब भोपाल वापस लौटना नहीं चाहते. अतुल चौरसिया को दिए साक्षात्कार में उन्होंने अपनी भविष्य की राजनीतिक योजना के साथ ही राहुल गांधी की बड़ी भूमिका, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार, देश की अर्थव्यवस्था से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसे मसलों पर बेबाकी से अपनी राय रखी.

आपके मुताबिक सितंबर राहुल गांधी को बड़ी भूमिका में आने के लिए आदर्श होगा. क्या आप बताना चाहेंगे कि वह बड़ी भूमिका सरकार में होगी या पार्टी में? 

देखिए, मैंने आम कांग्रेस कार्यकर्ता की भावनाओं को व्यक्त किया है. हर कांग्रेसी चाहता है कि वे आगे आएं. अभी तक वे छात्र संगठन और युवा संगठन का काम देख रहे हैं. कार्यकर्ता चाहते हैं कि वे अब मातृ संगठन के लिए काम करें. 

सलमान खुर्शीद ने भी कहा कि राहुल गांधी अभी तक सजावटी भूमिकाएं ही निभाते रहे हैं, कोई गंभीर काम उन्होंने नहीं किया है.

मेरे ख्याल से उनकी बात को गलत समझा गया. पर अब तो उन्होंने इस पर सफाई दे दी है. 

आपके आक्रामक अभियान और राहुल गांधी के प्रचार के बावजूद यूपी में कांग्रेस बुरी तरह हार गई. कहां चूक हो गई?

हमने यूपी की हार की समीक्षा की है. दो-तीन बातें रहीं. एक तो उत्तर प्रदेश के मतदाता को हम यह विश्वास नहीं दिला पाए कि बसपा के हटने की हालत में हम सरकार बना सकते हैं. सरकार बदलना जरूरी है इस बात के लिए तो हमने मतदाता को तैयार कर लिया था, लेकिन बसपा के मुकाबले कांग्रेस सरकार बना पाएगी यह विश्वास मतदाता को नहीं था. यह हमारी कमजोरी रही. 

सलमान खुर्शीद या बेनी प्रसाद वर्मा द्वारा चुनाव आयोग को दी गई चुनौती ने कांग्रेस को नुकसान नहीं पहुंचाया?  

मैं ऐसा नहीं मानता. मेरा तो यही मानना है कि हमारा संगठन और उत्तर प्रदेश की लीडरशिप जनता के मन में भरोसा पैदा नहीं कर पाई. 

हार के बाद किसी तरह का बदलाव होगा? 

इसकी पूरी संभावना है. जल्द ही बदलाव के बारे में निर्णय किया जाएगा. 

चुनावों के दौरान मीडिया में जो खबरें उड़ीं कि कांग्रेस और सपा के बीच सांठ-गांठ है, उसने कितना नुकसान पहुंचाया? 

मैं नहीं मानता कि इससे कोई नुकसान हुआ है. 

कांग्रेस सेक्युलर विचारधारा वाली पार्टी रही है. लेकिन बटला हाउस से लेकर मुसलिम आरक्षण के मुद्दे पर जिस तरह से आप और बाकी नेता बार-बार बयानबाजी करते रहे वह तुष्टीकरण नहीं तो क्या है? इस तुष्टीकरण के कारण हिंदू मतदाता कांग्रेस से दूर हुआ.

मैं इसे दूसरी तरह से देखता हूं. पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा हमारे 2009 के घोषणापत्र का हिस्सा था. उसी के आधार पर सरकार ने पूरे देश के ओबीसी मुसलमानों को आरक्षण दिया. यह कोई नई बात नहीं थी जिसे हम लोग पहली बार कह रहे थे. हमने तो सरकार के ही निर्णय को प्रचारित किया. 

बटला हाउस के मामले पर आप पीएम और चिदंबरम के खिलाफ क्यों रहे?

बटला हाउस के मामले पर मेरा शुरू से एक विचार था और आज भी मैं उस बात पर कायम हूं. पर अब बटला हाउस कोई मुद्दा नहीं रहा. 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपने बहुत गहन अभियान चलाया. राहुल गांधी ने पदयात्रा भी की थी. नया भूमि अधिग्रहण बिल लाने का वादा भी आपने किया था. न तो बिल आया न ही अभियान का कोई फायदा हुआ.

भूमि अधिग्रहण बिल आ गया है. वह संसदीय कमेटी के पास पड़ा है. बिल पास होने की एक प्रक्रिया होती है, उस प्रक्रिया को पूरा करके ही नया बिल कानून बनेगा. राहुल जी के अभियान का हमें फायदा हुआ. हमारा वोट शेयर काफी बढ़ा उस इलाके में.   

आपने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह के साथ गठबंधन भी किया. वह भी आपको सीटें नहीं दिलवा पाए. अब खबरंे आ रही हैं कि कांग्रेस अजित सिंह से पीछा छुड़ाना चाहती है. चुनाव से पहले भी ऐसी खबरें थीं कि अजित सिंह ने कांग्रेस का इस्तेमाल किया पर कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ.

ऐसा कुछ नहीं है. अजित सिंह हमारे सहयोगी हैं और आगे भी बने रहेंगे. ये बातें गलत हैं. अजित सिंह जी ने और उनके लोगों ने हमारा पूरा सहयोग किया था. 

दस साल पहले जब आप अपने गृहराज्य मध्य प्रदेश में चुनाव हारे थे तब आप अपनी राजनीति भोपाल से दिल्ली लेकर आ गए थे. अब आप उत्तर प्रदेश में असफल हुए हैं, अगले साल आपका राजनीतिक संन्यास भी खत्म हो रहा है और लगभग उसी समय राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, तो क्या आप फिर से दिल्ली से भोपाल का रुख करेंगे?  

हम असफल नहीं हुए हैं. मैं एक बात साफ कर दूं आज कि मैं कभी भी भोपाल की राजनीति में नहीं लौटूंगा, मैं यहां केंद्र की राजनीति में ही रहूंगा. वहां राज्य स्तरीय नेता हैं जो अपना काम कर रहे हैं. 

अखिलेश को लेकर आपकी पार्टी का रवैया बेहद नर्म है, जबकि वे कानून व्यवस्था के मामले में असफल सिद्ध हुए हैं. अपराधी नेता (अमरमणि त्रिपाठी, अभय सिंह और विजय मिश्रा) जेल से बाहर घूमने लगे हैं.

बात ये है कि जिन भी लोगों के नाम आपने लिए हैं वे किसी न किसी रूप में सपा के अंग थे. यह बात यूपी की जनता से छिपी नहीं थी उसके बाद भी जनता ने उन्हें चुना है. किसी भी नई सरकार को छह महीने से साल भर का समय देना चाहिए. 

पर चुनाव से पहले सपा इनसे दूरी बनाकर चल रही थी. अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में नहीं लेकर खुद को गुंडाराज के विरोधी के रूप में स्थापित किया था.

एक बात याद रखिए कि सपा का जो इतिहास रहा है उसमें इस तरह के असामाजिक लोगों का अहम योगदान रहा है. पीछे भी सपा के काल में इस तरह की घटनाओं की अधिकता रही है. अगर अखिलेश जी इस तरह की घटनाओं और अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं पर लगाम लगा सकें तो वे बधाई के पात्र होंगे. 

सरकार की बात करते हैं. एस.ऐंड.पी. ने भारत की क्रेडिट रेटिंग घटा दी है, टाइम पत्रिका प्रधानमंत्री को अंडरअचीवर कह रही है, बराक ओबामा ने तो देश की निवेश नीति पर ही उंगली उठा दी है. नीतियों के स्तर पर इस तरह का हस्तक्षेप हम पहली बार देख रहे हैं. क्या यह बाजारवादी ताकतों को जरूरत से ज्यादा छूट देने का नतीजा है? कोई भी प्रधानमंत्री पर टिप्पणी कर देता है.

मुझे नहीं पता कि एस.ऐंड.पी. या मूडी जो रेटिंग देती हैं उनका मानक क्या होता है. मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि स्पेन जिसकी अर्थव्यवस्था डावांडोल है उसे भी एस ऐंड पी ने ट्रिपल बी रेटिंग दी है और भारत को भी. जबकि आज ही आईएमएफ का बयान आया है कि भारत आज भी निवेश के लिए दुनिया भर में तीसरा सबसे आकर्षक स्थान है. आईएमएफ ने तो यहां तक कहा है कि इस समय दुनिया में सिर्फ तीन ही देश ऐसे हैं जिनकी ग्रोथ रेट संतोषजनक है- ब्राजील, चीन और भारत. जहां तक बराक ओबामा साहब का सवाल है तो शायद उन्हें पता नहीं है कि पिछले छह महीने के दौरान सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारत में हुआ है. पॉलिसी के स्तर पर कोई विदेशी हस्तक्षेप नहीं है. सरकार ने ओबामा के बयान का माकूल जवाब दिया है. स्वयं प्रधानमंत्री ने साफ किया है कि हमारी नीतियां हमारे देश का आंतरिक मसला है. भले ही हमारी ग्रोथ रेट अच्छी है पर पिछले डेढ़ दशक की तुलना में तो यह दर घटी है. वो तो पूरी दुनिया में ही मंदी का असर रहा है. चीन, ब्राजील, रूस सबकी दर में गिरावट आई है.  

एक और उदाहरण हाल में काफी चर्चित रहा है. जरूरत से ज्यादा बाजारवादी नीतियों को बढ़ावा देने का नतीजा है कि मुकेश अंबानी आज प्रधानमंत्री के शिष्टमंडल का न्योता ठुकरा देते हैं. 

ऐसा नहीं है. हो सकता है कोई कारण रहा हो पर ये बात आप क्यों भूल जाते हैं कि मुकेश अंबानी जी ने अपने एजीएम में यह बात कही है कि वे इस वर्ष भारत की अर्थव्यवस्था में एक लाख करोड़ का निवेश करेंगे. 

आपने कहीं कहा कि जहां-जहां ताकतवर क्षेत्रीय नेता नहीं हैं वहां कांग्रेस कमजोर हुई. उत्तर प्रदेश तो गांधी परिवार का ही गढ़ है. वहां दुर्गति क्यों हुई?

हमको क्षेत्रीय नेतृत्व मजबूत करना पड़ेगा. 

ममता बनर्जी पर आपने कठोर टिप्पणी कर दी थी. पार्टी ने भी इस पर फटकार लगाई. आप मानते हैं कि ममता बनर्जी पर बयान देते वक्त आप सीमा पार कर गए थे?

बिल्कुल नहीं. मैंने तो सिर्फ वही कहा था जो बातें पार्टी के लोग बार-बार कह रहे थे. मैं उसी के अनुकूल बोल रहा था. 

तो आप अब भी उन्हें अपरिपक्व और अस्थिर नेता मानते हैं.

मैंने उनके बारे में जो कुछ कहा था उसकी एक-एक बात पर कायम हूं, मैं उसे दोहराना नहीं चाहता. 

प्रियंका गांधी की क्या भूमिका हो सकती है? क्या वे अब भी दो सीटों के प्रबंधन तक ही सीमित रहेंगी. क्यों नहीं उन्हें पूरे यूपी की जिम्मेदारी सौंप दी जाए?

देखिए, प्रियंका जी अभी राजनीति में नहीं हैं. यह खुद उन पर निर्भर करता है कि वे राजनीति में आएं या नहीं. 

राहुल जी के बारे में तो आप लोग चाहते हैं कि वे बड़ी जिम्मेदारी निभाएं लेकिन प्रियंका जी के बारे में फैसला उनके ऊपर क्यों? 

क्योंकि राहुल जी संसद सदस्य हैं, महासचिव भी हैं. उनसे अपेक्षा रखना लाजिमी है. प्रियंका जी राजनीति में ही नहीं हैं तो क्या कहा जाए.

आपके राजनीतिक गुरु रहे अर्जुन सिंह ने अपनी किताब में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव को सबसे बड़ा जिम्मेदार ठहराया है.

उनके बीच क्या बात हुई, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना मैं जरूर मानता हूं कि उस समय अगर केंद्र की सरकार सख्त रवैया अपना लेती तो शायद बाबरी मस्जिद नहीं गिरती. 

 

आनंद मरते नहीं

क्या यह सिर्फ नाच-गाने या कुछ अदाओं का कौशल था जिसने राजेश खन्ना को इतना बड़ा बना दिया?

पिछले दिनों सबको आनंद याद आता रहा- वह मस्तमौला किरदार जो मौत के मुहाने पर खड़ा जिंदगी का नाटक देख रहा था और बता रहा था कि हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं. राजेश खन्ना के निधन के बाद टीवी चैनलों पर करीब 40 साल पुरानी फिल्म का यह दृश्य बार-बार दुहराया गया. लेकिन हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म में जो मौत एक कविता थी वह टीवी चैनलों तक आते-आते तमाशा बन गई. राजेश खन्ना को इतनी फड़कती हुई और भड़कीली श्रद्धांजलियां मिलीं कि मौत भी शरमा जाए. मौत के बाद जो निस्तब्धता, जो कातरता, जो चुप्पी पैदा होती है, उसकी खबर में जो संयम और मितकथन होना चाहिए वह कहीं नहीं था. जैसे शोक नहीं, शोक का प्रलाप चल रहा था जिसमें बीच-बीच में पिरोए राजेश खन्ना के पुराने गीत लोगों को अपने नायक की याद दिला जाते थे. 

कह सकते हैं, जिस मेलोड्रामा ने राजेश खन्ना को बनाया था उसके कुछ सतही और फूहड़ संस्करण के साथ उनकी विदाई हुई. ‘आनंद’ के आखिरी दृश्य में भी भरपूर मेलोड्रामा था. धीरे-धीरे सरकती हुई मौत इतनी खूबसूरत कविता नहीं होती जितनी आनंद में बना दी गई थी. लेकिन जीवन और मृत्यु के बीच की पहेली में सात रंग के सपने खोजने वाले हृषिकेश मुखर्जी जानते थे कि भारतीय दर्शक को यही मेलोड्रामा भाएगा- आनंद से पहले ‘अंदाज’ में ‘हंसते-गाते जहां से गुजर’ गाने वाले राजेश खन्ना को वाकई उसी तरह जाता दिखाकर उन्होंने लोगों को बहुत रुलाया. 

कायदे से देखें तो राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के आखिरी मासूम नायक थे. उसके बाद का हीरो बदल गया

अक्सर कहा जाता है कि राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार थे. यह खिताब शायद उन्हें उन दिनों की मशहूर स्तंभकार देवयानी चौबल ने दिया था. लेकिन ऐसे खिताबों से परे अगर राजेश खन्ना की शख्सियत को देखें तो दरअसल उनकी कामयाबी बहुत सारे तत्वों से मिलकर बनी थी. उनमें हिंदी फिल्मों की परंपरा और हिंदी समाज की सामूहिकता दोनों का समावेश था. पचास और साठ के दशकों में राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की जो त्रिमूर्ति हिंदी सिनेमा की दिशा तय करती रही, उसने नए बनते भारत का यथार्थ और स्वप्न रचने की कोशिश की. वे आजादी के बाद के उजले दिन थे जब हिंदी फिल्में भी नया दौर बना रही थीं और जिस देश में गंगा बहती है उसे समझने की कोशिश कर रही थीं. इन तीनों में एक राजू गाइड था- यानी देवानंद- गंवई भारत के नए बनते शहरों का वह नायक जिस पर पहली बार लड़कियां उस तरह निसार दिखीं जिस तरह बाद में राजेश खन्ना पर हुईं. 

लेकिन साठ के दशक के मोहभंग के साथ कहानी भी बदलती है, नायक भी. शम्मी कपूर और राजेंद्र कुमार इस दौर के नए रोमानी नायक हैं. इसी के फौरन बाद इन दोनों की साझा छाप लिए आते हैं राजेश खन्ना- उनमें देवानंद जैसी अदाएं भी हैं, शम्मी कपूर जैसी उछल-कूद भी और राजेंद्र कुमार जैसा शांत रोमांस भी. तीन बेहद कामयाब कलाकारों का यह मिक्स राजेश खन्ना को अचानक जैसे उछाल देता है. सिर्फ 2-3 वर्षों के अंतराल में- 1969 से 1972 के बीच- वे आराधना, बंधन, दो रास्ते, खामोशी, सच्चा-झूठा, सफर, कटी पतंग, आनंद, अंदाज, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, बावर्ची, दुश्मन, नमक हराम जैसी ढेर सारी कामयाब और अच्छी फिल्मों का अंबार लगा देते हैं. 

लेकिन क्या यह सिर्फ रोमांस था, सिर्फ नाच-गाने या कुछ अदाओं का कौशल जिसने राजेश खन्ना को इतना बड़ा बना दिया? ध्यान से देखें तो यह वही दौर है जब भारत अपने-आप को पुनर्व्याख्यायित कर रहा है. राजनीति के मोहभंग नई समाजवादी संभावनाओं का रास्ता टटोल रहे हैं और गांवों से शहर पहुंची आबादी नए बसते मोहल्लों में अपनी नातेदारी खोज रही है. कहीं इंसाफ का सवाल है, कहीं इंसानियत का, कहीं रिश्तों की उलझनें हैं और कहीं जिंदगी और मौत की कशमकश. इत्तिफाक से राजेश खन्ना की फिल्मों में यह समाज बहुत मुखर है. इस समाज में खड़े राजेश खन्ना बहुत बड़े नहीं, बहुत अपने लगते हैं. वे महानायक नहीं हैं जो हर मुश्किल को अपनी चुटकियों, अपने संवादों से हल कर दें. वे एक मासूम-से नायक हैं जिसका इंसाफ और इंसानियत पर भरोसा कायम है. यही चीज है जो राजेंश खन्ना को इस दौर का- या किसी के शब्दों में हिंदी सिनेमा का पहला- सुपर स्टार बनाती है. 

हालांकि यह भी एक मेलोड्रामा था जिसे बिखर जाना था. यह त्रासदी नायक के साथ भी घटित हुई, सिनेमा के साथ भी. सिर्फ चंद वर्षों में हासिल शोहरत ने राजेश खन्ना को शिखर पर ही नहीं पहुंचाया, शायद कुछ बदल भी डाला. आगे जिंदगी ने उनसे कई सख्त इम्तिहान लिए. बाद के दौर में उनकी फिल्में नाकाम होती दिखीं क्योंकि शायद वह मासूमियत जा चुकी थी- जमाने से भी और हमारे नायक के चेहरे से भी. अब उसकी पुरानी अदाएं उसकी ही थकी हुई नकल लगती थीं. बाद के दौर में राजेश खन्ना ने वापसी की कई कोशिशें कीं, लेकिन अंततः नाकाम रहे. 

कायदे से देखें तो राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के आखिरी मासूम नायक थे. उसके बाद का हीरो बदल गया. उसकी आंखों में गुस्सा चला आया,  उस जमाने से नफरत चली आई जिसने उसके साथ नाइंसाफी की. वह अपने दम पर अपनी दुनिया बदलता रहा और सबके दिल जीतता रहा. इस महानायक के आने के बाद राजेश खन्ना जैसे हमेशा-हमेशा के लिए पीछे छूट गए. लेकिन उनकी पुरानी फिल्में बची रहीं. 40 साल बाद, अचानक उनके देहांत ने सबको अपने छूटे हुए नायक की याद दिलाई. हालांकि अभिनेता के तौर पर राजेश खन्ना ने जो जिया, जो किया, जो गाया, वह दूसरों की लिखी कहानी थी, दूसरों का दिया निर्देशन था, दूसरों के रचे गीत थे, लेकिन इन सबको इतनी विश्वसनीयता दिलाने वाला, उसे जमाने की कहानी में बदल डालने वाला चेहरा तो हमारे नायक का ही था. वे उस भारत के प्रतिनिधि और प्रतीक नायक थे जिसका परिवार बचा हुआ था या जिसमें परिवार का एहसास बचा हुआ था.

चुप्पी की चतुर चाल

दो साल, दो महीने और 12 दिन तक उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का ऊखीमठ कस्बा अत्यंत संवेदनशील विस्फोटक के खतरे में रहा. पहाड़ों में अक्सर कड़कने वाली आसमानी बिजली की एक हल्की-सी कड़क घनी आबादी वाले इस खूबसूरत पहाड़ी कस्बे को बर्बाद करने के लिए काफी थी. सर्दियों में जब केदारनाथ और मद्महेश्वर तीर्थ के कपाट बंद हो जाते हैं तो छह महीने इनकी पूजा ऊखीमठ के प्राचीन और मंदिर परिसर में होती है. यहीं केदारनाथ के रावल का गद्दीस्थल भी है जो दक्षिण भारत के वीर शैव लिंगायतों के पांच पंचाचार्यों में एक है. इस तरह ऊखीमठ सदियों से उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक समागम का प्रतीक भी है. 

ऊखीमठ को यह खतरा 1,000 डेटोनेटरों से था. ये डेटोनेटर छह अप्रैल, 2010 को उपजिलाधिकारी अभिषेक त्रिपाठी ने  राजस्व दल के साथ राऊंलेक गांव की सीमा में पंवार स्टोन क्रशर के स्टोर से पकड़े थे और इन्हें कब्जे में लेकर तहसीलदार ऊखीमठ की सुरक्षा में दे दिया था. ये खतरनाक मानी जाने वाली जेड-जेड श्रेणी के विस्फोटक थे. विस्फोटक नियमावली, 2008 के अनुसार जेड-जेड श्रेणी के विस्फोटक सबसे खतरनाक होते हैं. ऐसे डेटोनेटर न केवल बहुत बड़ा विस्फोट करने की क्षमता रखते हैं, बल्कि धमाकों के साथ मीलों दूर जाकर वहां भी बर्बादी का कहर बरपा सकते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार डेटोनेटर इतने संवेदनशील विस्फोटक होते हैं कि कभी-कभी इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखते हुए भी विस्फोट हो जाता है. 

इन्हीं खतरों के चलते विस्फोटक नियमावली में तय कठोर नियमों के तहत डेटोनेटरों को विशेष रूप से बनी मैगजीनों में रखा जाता है. इन मैगजीनों को आबादी से दूर सुनसान जगहों पर बनाया जाता है ताकि दुर्घटनावश विस्फोट होने पर कम-से-कम हानि पहुंचे. लेकिन राजस्व पुलिस ने जब्त करने के बाद ये डेटोनेटर जिस अलमारी में रखे थे उसके बगल में कंप्यूटर, उसका यूपीएस और बिजली से चलने वाले और उपकरण भी रखे थे. ऐसे में आसमानी बिजली की चमक के अलावा लोहे की अलमारी का कंपन या हल्का-सा तापमान भी तबाही मचा सकता था. विशेषज्ञों के मुताबिक इतनी मात्रा में जब्त डेटोनेटरों से पूरा का पूरा ऊखीमठ उड़ सकता था. पंवार स्टोन क्रशर में भी जनरेटर रूम का कंपन और स्टोर में इनके साथ रखा अवैध 550 लीटर डीजल भी किसी बड़ी दुर्घटना को न्योता दे रहा था.

यह कहानी जिम्मेदार अधिकारियों और राजस्व पुलिस की कार्यप्रणाली की पोल खोलती है. राजनेता और माफिया का भ्रष्ट गठजोड़ यह दिखाता है कि यदि सत्ता आपके साथ है तो आपका कुछ नहीं होने वाला.

उत्तराखंड में राजस्व विभाग के पटवारी यानी लेखपाल को थानाध्यक्ष और नायब तहसीलदार को पुलिस उपाधीक्षक के बराबर मुकदमा दर्ज करने, अवैध सामान को जब्त करने और मुकदमे की विवेचना करने की शक्तियां प्राप्त हैं. लेकिन इस अवैध विस्फोटक की बरामदगी मामले में  राजस्व दल ने कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया. अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे इलाके में 1,000 डेटोनेटरों की बरामदगी की खबर शायद बड़ी होती पर इलाका दूरदराज का था और प्रशासन भी इस खबर को गोपनीय रखना चाहता था.

उस दिन मौके पर मौजूद रहे राजस्व विभाग के छोटे कर्मचारी बताते हैं कि यदि छापा मारने वाले दल का नेतृत्व करने वाले उपजिलाधिकारी त्रिपाठी लिखित कार्रवाई नहीं करते तो बेहद खतरनाक और सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील यह मामला कहीं कोई सुराग छोड़े बिना खुर्द-बुर्द हो सकता था. त्रिपाठी ने तत्कालीन जिलाधिकारी को मोबाइल से ही इस बड़ी बरामदगी की सूचना दी. साथ ही मामले की आख्या भी उसी दिन फैक्स से जिलाधिकारी कार्यालय भेज दी थी.  

आठ अप्रैल, 2010 को जिलाधिकारी के आदेश पर इस मामले को राजस्व पुलिस से रेगुलर पुलिस को हस्तांतरित करने के आदेश का आलेख फाइल पर तैयार हो गया था. फाइल के उसी पेज पर हस्तलिखित आख्या से यह भी पता चलता है कि इन विस्फोटकों को रखने की कोई वैध अनुमति भी नहीं दी गई थी. यानी ये विस्फोटक पूरी तरह से गैरकानूनी थे. कानून के मुताबिक ऐसे मामले में 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा तय है. लेकिन इन सभी कार्रवाइयों के बाद मुकदमा दर्ज नहीं हुआ, उल्टे उपजिलाधिकारी त्रिपाठी का तबादला हो गया. 

राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी से किसी विस्फोटक की बरामदगी के बाद होने वाली कार्रवाई के विषय में पूछने पर वे बताते हैं कि गिरफ्तारी और एफआईआर दर्ज करने के साथ-साथ सुरक्षा से जुड़े इस तरह के गंभीर मामलों की सूचना जिलाधिकारी को अविलंब शासन के साथ-साथ आगरा स्थित पेट्रोलियम और विस्फोट सुरक्षा संगठन के कार्यालय को भी देनी चाहिए. विस्फोटकों के मामले में बिना वारंट के भी गिरफ्तारी की जा सकती है. ये अधिकारी बताते हैं, ‘शासन भी इस तरह के मामलों की सूचना राज्य और केंद्रीय गुप्तचर एजेंसियों को भेजता है ताकि पता चल सके कि विस्फोटक कहां से आया और किस प्रयोजन से रखा गया था.’

मामले की फाइल के अनुसार इस मामले में जिला प्रशासन ने एक भी पत्र उत्तराखंड शासन या उच्चाधिकारियों को नहीं भेजा. राज्य में गृह सहित कई महत्वपूर्ण विभाग देख चुके ये अधिकारी कहते हैं , ‘उत्तराखंड चीन और नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगा है. देश के कई राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं, इसलिए विस्फोटकों की बरामदगी के मामलों में गिरफ्तारी के बाद गहन पूछताछ करना जरुरी है. पंवार स्टोन क्रशर को यूं भी केवल चुगान की इजाजत मिली थी, इसलिए विस्फोटक उनके किसी काम के नहीं थे. सचिवालय के अधिकारी बताते हैं कि जिस जगह से डेटोनेटर बरामद होता है वहां निश्चित रूप से जिलेटिन भी बरामद होगा. विशेषज्ञों के अनुसार बरामद 1,000 डेटोनेटरों के अनुपात में बरामद होने वाला संभावित जिलेटिन भी टनों में हो सकता था. 

अपराध अपने निशान छोड़ता है और कागजों में आई बात जिंदा रहती है. इस मामले में भी यही हुआ. 2007 से राऊंलैंक की सीमा से लगे गांव के लगभग 80 वर्षीय पूर्व सैनिक और वैद्य रामदत्त खेड़वाल पंवार स्टोन क्रशर के अवैध खनन का विरोध कर रहे थे. जिलाधिकारी से लेकर प्रमुख सचिव और मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक हर ज्ञापन में वे कहते रहे कि खुशाल सिंह को दी जाने वाली खनन की हर इजाजत खनन नीति विरुद्ध और गैर-कानूनी है. रामदत्त के अनुसार 2007 में शासन ने खुशाल सिंह को उन जमीनों पर खनन पट्टा स्वीकृत किया जो नदी से बहुत ऊपर पहाड़ पर थीं और जिन खेतों में खनन सामग्री नहीं है. इन पट्टों के नाम पर धड़ल्ले से वनभूमि से खनन होता रहा. लेकिन अवैध और गैरकानूनी रूप से दिए पट्टों को रोकने के बजाय 2008 में शासन ने मानकों और खनन नीति में वर्णित प्रावधानों की अवहेलना करते हुए पंवार स्टोन क्रशर लगाने की इजाजत भी दे दी. इसी पंवार स्टोन क्रशर के स्टोर से विस्फोटक बरामद हुआ था. 2010 के बाद अवैध खनन की शिकायत के साथ-साथ रामदत्त के हर ज्ञापन में संभावित विस्फोटक बरामदगी की उड़ती खबर पर जांच की मांग भी होती थी. 

कानूनन ऐसे मामले में 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है, लेकिन यहां तो कोई एफआईआर तक दर्ज करने को तैयार नहीं था

सचिवालय से प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि जिस वन भूमि पर अवैध खनन करते हुए पकड़े जाने पर खुशाल सिंह पर लाखांे रुपये का अर्थ दंड लगा था, उनियाणा गांव में उसी 83 नंबर के प्लाट पर 20 मार्च, 2008 को खुशाल सिंह ने एक खनन पट्टा उत्तराखंड शासन से स्वीकृत करा लिया था. उस समय पट्टा जारी करने वाला औद्योगिक विकास विभाग तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी के पास था. वनभूमि पर केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की इजाजत के बिना पट्टे जारी नहीं किए जा सकते थे पर इस मामले में ऐसा कर दिया  गया. रामदत्त के विरोध के बाद नई कांग्रेस सरकार ने वन भूमि पर नियम विरुद्ध दिए गए खनन पट्टे को शसन ने निरस्त तो कर दिया लेकिन निरस्तीकरण के आदेश में वन संरक्षण अधिनियम के उल्लंघन  का कहीं जिक्र नहीं किया. ऐसे त्रुटिपूर्ण आदेश के विरुद्ध खनन माफिया को आसानी से हाई कोर्ट से स्थगनादेश मिल गया. 

बार-बार संभावित विस्फोटक पकड़े जाने संबंधी ज्ञापनों के चलते रुद्रप्रयाग जिला कार्यालय में इस बेहद संवेदनशील मामले की फाइल की खोज होने लगी. आखिर यह फाइल नवंबर, 2011 में जिलाधिकारी के निवास में मिली. सूचना के अधिकार के तहत रामदत्त और ऊखीमठ व्यापार संघ के अध्यक्ष आनंद सिंह रावत को मिली जानकारी से यह तो पता चल गया था कि छह अप्रैल, 2010 को ऊखीमठ के उपजिलाधिकारी ने डेटोनेटर पकड़े थे. लेकिन आधी-अधूरी सूचना से यह पता नहीं चल रहा था कि वे वास्तव में कितने थे. 

रुद्रप्रयाग जिलाधिकारी कार्यालय के सूत्र बताते हैं कि तत्कालीन जिलाधिकारी सत्ता के सर्वोच्च शिखर से आ रहे दबावों और खनन माफियाओं के पैसे की खनक के आगे बेबस थे. अवैध खनन के मामले में दो साल बाद फाइल मिलने के बाद भी प्रभारी जिलाधिकारी रुद्रप्रयाग ने मुकदमा दर्ज कराने की प्रक्रिया शुरू करने के बजाय अभियोजन अधिकारी की सलाह पर विस्फोटकों को नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर दी.  अब इस मामले में रुद्रप्रयाग के एक प्रभारी अधिकारी डॉ ललित नारायण मिश्रा जांच कर रहे हैं. दस्तावेजों के अनुसार फौरी तौर पर यह सिद्ध हो रहा है कि एक बार जिलाधिकारी के आवास पर जाने के बाद वास्तव में फाइल संबंधित छोटे कर्मचारियों के पास नहीं आई. यह भी साफ है कि फाइल को दबाने में उच्चाधिकारियों का हाथ था. राज्य में तैनात रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘यह संभव नहीं कि कोई जिलाधिकारी 1,000 डेटोनेटरों की बरामदगी और उस पर मुकदमा दर्ज करने की बात भूल जाए.’

इस मामले में स्थानीय लोगों ने 18 अक्टूबर, 2011 को जिलाधिकारी को पत्र लिखकर कार्रवाई की मांग की. उन्होंने इस पत्र की प्रतिलिपि उत्तराखंड शासन के साथ-साथ सांसद और संसद की रक्षा समिति के अध्यक्ष सतपाल महाराज को भी भेजी. दस्तावेजों के अनुसार यह शिकायती पत्र राज्य के मुख्य सचिव , प्रमुख सचिव संयुक्त सचिव कार्यालय, पुलिस महानिदेशक के बाद रुद्रप्रयाग के पुलिस अधीक्षक के पास भी पहुंचा. इनमें से किसी भी अधिकारी द्वारा मामले का संज्ञान न लेने के से संकेत मिलता है कि उत्तराखंड में या किसी भी स्तर के अधिकारी स्वयं कागजों को पढ़ते नहीं या वे गंभीर मामलों में भी संवेदनहीन हो गए हैं. रुद्रप्रयाग के पुलिस अधीक्षक ने यह मामला राजस्व पुलिस क्षेत्र का होने के कारण जांच के लिए जिलाधिकारी के पास भेज दिया. इसके एक महीने बाद जिलाधिकारी की ओर से प्रभारी अधिकारी ने उपजिलाधिकारी को  प्रकरण में आवश्यक कार्रवाई करने का आदेश दिया. जिलाधिकारी कार्यालय के कर्मचारी बताते हैं कि सत्ता के शीर्ष से आते दबावों के कारण तत्कालीन जिलाधिकारी राज्य में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों के अनुसार कार्रवाई की रणनीति बना रहे थे.  

10 फरवरी, 2012 को तत्कालीन जिलाधिकारी रुद्रप्रयाग ने इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने के बजाय मामला कालातीत मानते हुए विस्फोटक अधिनियम, 1983 के प्रावधानों के तहत डेटोनेटर नष्ट करने के आदेश जारी किए. 18 जून, 2012 को उप विस्फोट नियंत्रक डॉ. विवेक कुमार की देखरेख में इन्हें नष्ट भी कर दिया गया. यहां यह भी गौरतलब है कि 15 जून को ज्येष्ठ अभियोजन अधिकारी ने इस मामले में मुकदमा दर्ज करने की सलाह दे दी थी फिर भी जिला प्रशासन ने केस प्रॉपर्टी नष्ट करवा दी. इस बीच रामदत्त ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए कई बिंदुओं पर सूचना मांग ली थी. अब प्रशासन के पास कोई चारा नहीं रह गया था. ऐसे में जिलाधिकारी डॉ नीरज खैरवाल के 19 जुलाई, 2012 के आदेश पर राजस्व पुलिस ने पंवार स्टोन क्रशर के विरुद्ध विस्फोटक अधिनियम में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है. फौजदारी मामलों के अधिवक्ता सूरत सिंह नेगी बताते हैं कि यह गंभीर मामला है जिसमें अपराध सिद्ध होने पर निश्चित रूप से सजा हो सकती है. 

खेल नहीं आसान

अतीत को छोड़ दें तो पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश से कोई खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम का स्थायी सदस्य नहीं है. इसके बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम के प्रदर्शन पर लोगों में भावनाएं उसी तीव्रता के साथ दिखती हैं जैसा देश के दूसरे हिस्से में होता है. लेकिन इसके साथ शायद पहली बार हो रहा है जब मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (एमपीसीए) से जुड़ी घटनाएं यहां क्रिकेट मैचों जितनी ही सरगर्मियां पैदा कर रही हैं. इसकी शुरुआत पिछले दिनों तब हुई जब एसोसिएशन के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया ने प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान को एक चिट्ठी लिखी. इसमें उन्होंने राज्य के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पर मंत्री पद का गलत इस्तेमाल करके खेल संघों में दखलअंदाजी का आरोप लगाया है. उनके मुताबिक एमपीसीए उद्योग विभाग के अधीन रजिस्ट्रार फर्म्स ऐंड सोसायटीज से जुड़ा है और इसीलिए इस संस्था के कंधों का इस्तेमाल कर विजयवर्गीय एसोसिएशन पर नाजायज दबाव डाल  रहे हैं. चिट्ठी में उन्होंने मुख्यमंत्री से यह आग्रह भी किया  है कि वे विजयवर्गीय पर लगाम कसें.

सिंधिया के आग्रह पर भले ही मुख्यमंत्री ने मौन साध लिया हो लेकिन इसने एमपीसीए के अगस्त में हो रहे चुनाव में राज्य की राजनीति और क्रिकेट के मेल से होने वाले घमासान की भूमिका बांध दी. इसमें एक तरफ परंपरागत सत्ता है, जिसकी कमान खुद सिंधिया के हाथों में है.  स्व. माधव राव से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक पिता-पुत्र ने तीस साल से एमपीसीए पर एकछत्र राज किया है और यह घराना किसी भी तरह अपना आधिपत्य छोड़ने को तैयार नहीं. वहीं बीते कुछ सालों से एक नई ताकत सिंधिया के गढ़ में घुसना चाह रही है, जिसकी कमान विजयवर्गीय के हाथों में है और यह इस चुनाव में जीत का मंसूबा पाल रही है. आपको बताते चलें कि इंदौर मध्य प्रदेश क्रिकेट का गढ़ है और एसोसिएशन के सभी 244 मतदाताओं में सर्वाधिक 130 यानी आधे से अधिक मतदाता इसी शहर से हैं. इसलिए सिंधिया के नजरिये से बुरी बात यह है कि विजयवर्गीय राज्य में कैबिनेट मंत्री के अलावा इंदौर के सबसे प्रभावशाली नेता भी हैं. वे लगातार दो बार इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी चुने जा चुके हैं.

‘यदि विजयवर्गीय क्रिकेट संघ का चुनाव जीत गए तो वे दिल्ली में अरुण जेटली, गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आदि के समकक्ष वाली छवि बना लेंगे

इस बार  एमपीसीए के चुनाव में केंद्रीय उद्योग राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के टकराने से मुकाबला रोमांचक और पूरी तरह कांग्रेस-भाजपा के बीच बनता नजर आ रहा है. एसोसिएशन के भीतर कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं में प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और विधायक निशित पटेल हैं तो भाजपा से भी प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह और विधायक ध्रुव नारायण सिंह हैं. सिंधिया के पक्ष में सांसद सज्जन सिंह वर्मा और विजयवर्गीय के पक्ष में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा का खुलकर सामने आना दर्शाता है कि यह चुनाव क्रिकेट से कहीं अधिक राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए लड़ा जा रहा है. क्रिकेट की राजनीति के प्रेक्षक बताते हैं कि सिंधिया अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार होंगे. वहीं भाजपा का हाईकमान अगर निकट भविष्य में शिवराज सिंह चौहान को केंद्रीय राजनीति में लाता है तो कैलाश विजयवर्गीय की भाजपा से मुख्यमंत्री बनने की संभावना है. ऐसे में क्रिकेट का यह चुनाव भविष्य के दो संभावित मुख्यमंत्रियों के बीच का सेमीफाइनल कहा जा रहा है.

एमपीसीए अध्यक्ष पद के लिए सिंधिया और विजयवर्गीय का लगातार दूसरी बार आमना-सामना होना है. अगस्त, 2010 में सिंधिया ने 212 मतों में से 142 लेकर 70 के अंतर से विजयवर्गीय का पटखनी दी थी. उसके पहले तक एसोसिएशन के इतिहास में कभी चुनाव नहीं हुआ था और उसके भीतर सदस्यों की आपसी सहमति से अध्यक्ष और अध्यक्ष की सहमति से पदाधिकारियों को चुनने का रिवाज था. मगर पिछली बार विजयवर्गीय ने ऐन मौके पर चुनाव लड़कर यह रिवाज तोड़ दिया. विजयवर्गीय समर्थकों का दावा है कि बीता चुनाव बहुत जल्दबाजी में लड़ने से उन्हें पटखनी खानी पड़ी थी लेकिन दो साल में काफी कुछ बदल चुका है और उन्होंने मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए बढ़-चढ़कर घेराबंदी की है. दूसरे धड़े को इस घेराबंदी के तौर-तरीके पर सख्त एतराज है. एसोसिएशन में प्रबंध कमेटी के सदस्य मयंक कलमड़ीकर की सुनें तो 56 साल के इतिहास में राज्य के उद्योग विभाग ने कभी कोई आपत्ति नहीं की थी लेकिन अब विजयवर्गीय के इशारे पर यही विभाग इस संख्या तक नोटिस भेज रहा है कि काम करना मुश्किल हो गया है. कई पदाधिकारियों को विजयवर्गीय से एक शिकायत यह भी है कि वे एसोसिएशन के सदस्यों को साधने के लिए पद और पैसे का लालच तो दिखा ही रहे हैं, राज्य सरकार के विभागों में कार्यरत कुछ सदस्यों को स्थानांतरण का डर भी दिखा रहे हैं. वहीं कैलाश विजयवर्गीय ने एसोसिएशन में बेवजह हस्तक्षेप से इंकार किया है. वे कहते हैं, ‘पदाधिकारियों की ओर से गलत बयानबाजी की जा रही है और यह प्रस्तावित चुनाव में दबाव बनाने की रणनीति से अधिक कुछ भी नहीं है.’

देखा जाए तो मध्य प्रदेश क्रिकेट पर सिंधिया और उनके समर्थकों के एकाधिकार को मटियामेट करने की मंशा के पीछे कई सारी वजह हैं लेकिन इनमें बीसीसीआई का एमपीसीए को आवंटित करोड़ों रुपये का वह सालाना बजट प्रमुख है जिस पर कई नेताओं की नजर बराबर बनी रही है. इसके अलावा इंदौर और ग्वालियर के मैदानों में होने वाले अंतरराष्ट्रीय मैचों के जरिए यहां के नेताओं के भीतर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने की चाहत बढ़ रही है. कैलाश विजयवर्गीय के हालिया क्रिकेट प्रेम को इन्हीं बातों के संदर्भ में तौला जा रहा है. विजयवर्गीय के एक करीबी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘इस चुनाव में सिंधिया का पलड़ा कहीं भारी है लेकिन यह विजयवर्गीय का ऐसा दांव है कि यदि उन्होंने अप्रत्याशित तौर से सिंधिया को चित कर दिया तो उनका राजनीतिक कद राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ जाएगा.’ जाहिर है यह विजयवर्गीय की खुद को बीसीसीआई सहित सभी बड़े क्रिकेट संघों पर काबिज नेताओं जैसे दिल्ली में अरुण जेटली, मुंबई में विलासराव देशमुख, गुजरात में नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश में राजीव शुक्ला और बिहार में लालू प्रसाद यादव की पंक्ति में खड़ा करने की एक महत्वाकांक्षी योजना है.

 खेल के राजनीतिक मैदान में स्थापित करने के लिए विजयवर्गीय के साथ क्रिकेट की पृष्ठभूमि का न होना उनकी एक ऐसी कमजोरी बनी हुई है जिस पर उनके विरोधी निशाना लगा रहे हैं.

सिंधिया विजयवर्गीय के क्रिकेट ज्ञान पर सवाल उठाते हुए कहते भी हैं, ‘उन्होंने खुद कबूल किया है कि वे क्रिकेट की क, ख, ग जाने बिना इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बन गए.’ हालांकि विजयवर्गीय ने पिछली रणजी ट्राफी के मैचों में अपनी सक्रियता दिखा-दिखाकर कुछ हद तक अपनी छवि बदली भी है. पर इन सबसे कहीं बड़ी मुश्किल विजयवर्गीय के लिए वह मराठी वोट-बैंक है जो चुनाव में निर्णायक भूमिका तो निभा सकता है लेकिन जिसकी जातीय और राजनीतिक वफादारी हमेशा से सिंधिया घराने के साथ रही है. अपने मराठी संपर्कों के बूते विजयवर्गीय सिंधिया की मराठी मतों से पकड़ ढीली करने की जुगत में हैं लेकिन सिंधिया भी इस मामले में लापरवाह नहीं. यही वजह है कि उन्होंने मराठी मतों को रिझाने के लिए बीती 30 जून को इंदौर में जन्मे और कर्नाटक में रहने वाले महाराष्ट्रियन तथा भारतीय टीम के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ को सम्मानित तो किया ही, उनके नाम पर होल्कर स्टेडियम में एक ड्रेसिंग रूम का नामकरण भी किया.

विजयवर्गीय को दूसरी बड़ी मुश्किल शाही घरानों के उन सदस्यों से भी मिल रही है जिनका आजादी के पहले से क्रिकेट एसोसिएशन पर कब्जा रहा है और जिन्हें बाहरी ताकत के साथ अपनी सत्ता साझा करनी ही नहीं. सिंधिया ने एक रणनीति के तहत ऐसे सदस्यों को लेकर छह महीने में सौ से अधिक मतदाताओं के साथ लंच या डिनर किया है. इन सबके बावजूद विजयवर्गीय को जीत की संभावना है तो इसलिए कि सिंधिया एमपीसीए में लगातार दो बार अध्यक्ष चुने गए हैं और एसोसिएशन के संविधान के मुताबिक उन्हें तीसरी बार अध्यक्ष बनने के लिए दो तिहाई से अधिक मत चाहिए. ऐसी स्थिति में विजयवर्गीय की कोशिश बीते चुनाव में अपनी हार के मतों का अंतर कम से कम करने की रहेगी. फिर एसोसिएशन में इंदौर तथा ग्वालियर के सदस्यों के बीच तनातनी बनी रहती है जिसका भी विजयवर्गीय फायदा उठाकर अपने लिए अधिक से अधिक मत खींचना चाहेंगे.

इस खींचतान में विजयवर्गीय को उनकी पार्टी का समर्थन मिलना भी तय ही है. भाजपा में प्रांतीय खेल प्रकोष्ठ के संयोजक अजय शर्मा का कहना है, ‘भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी कार्यकर्ताओं की कई सभाओं में इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सत्ता में वापसी के लिए सभी खेल संघों पर अधिकार जमाया जाए ताकि यहां से 10 प्रतिशत मतों का बंदोबस्त सुनिश्चित हो सके.’ तकरीबन 26 खेलों के लिए गठित मध्य प्रदेश ओलंपिक संघ पर भाजपा विधायक रमेश मेंदोला ने कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे महेश शर्मा को हराकर पार्टी की पताका लहराई भी है. जाहिर है कि क्रिकेट के इस दंगल में दो सियासी खिलाडि़यों की भिड़ंत आगामी राज्य विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का अंदरूनी समीकरण प्रभावित किए बिना नहीं  रह   सकती.

मध्य प्रदेश क्रिकेट का सुनहरा अतीत

एमपीसीए से अनेक हस्तियां बीसीसीआई में पहुंचती रही हैं. लेकिन इनमें सबसे चमकदार नाम स्व. माधव राव सिंधिया का है जिन्होंने 1980 में उषा राजे होल्कर के पति सतीश मलहोत्रा की मौत के बाद दो दशक तक निर्विवाद समर्थन से एमपीसीए की बागडोर तो संभाली ही, बीसीसीआई के अध्यक्ष पद तक भी पहुंच बनाई. उनकी मौत के बाद एक दशक से उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने किसी तरह एमपीसीए की बागडोर बचाए रखी है. मध्य प्रदेश में 1932 में सेंट्रल इंडिया क्रिकेट एसोसिएशन बना और तब से लेकर अब तक होल्कर (1940-55), मध्य भारत (1955-57) और मध्य प्रदेश जैसे अलग-अलग नामों से इस क्षेत्र की टीम रणजी ट्राफी में खेलती रही है. इस टीम ने 15 साल के अपने शुरुआती सफर में चार बार रणजी ट्राफी जीती और छह बार यह उपविजेता रही. इंदौर के होल्कर राजघराने के  स्व. यशवंतराव होल्कर की क्रिकेट को लेकर खासी दीवानगी थी. उन्होंने अपनी टीम में कर्नल सीके नायडू और कैप्टन मुश्ताक अली सरीखी क्रिकेट प्रतिभाओं को जगह दी थी.