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सीएनजी की बढ़ती कीमतों से नाराज़ ऑटो, टैक्सी व मिनी बस चालकों की हड़ताल

दिल्ली में आज से ऑटो, टैक्सी व मिनी बस चालकों के विभिन्न यूनियन हड़ताल पर है। संगठनों की यह हड़ताल किराया दरों में बढ़ोतरी व सीएनजी की कीमतों में कमी की मांग लोकर है।

अधिकतर संगठनों का कहना है कि वे एक दिवसीय हड़ताल पर रहेंगे। वहीं दूसरी तरफ सर्वोदय ड्राइवर एसोसिएशन का कहना है कि वे सोमवार से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर रहेंगे।

भारतीय मजदूर संघ की इकार्इ ने दिल्ली ऑटो एंड टैक्सी एसोसिएशन ने 18 से 19 अप्रैल दो दिवसीय हड़ताल की घोषणा की है। ऑटो ड्राइवर बॉबी ने बताया कि, लगातार सीएनजी की कीमतों में बढ़ोतरी की जा रही है। इसके चलते हम घाटे में चल रहे है। जिससे हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

आपको बता दे, शहर में करीब 90 हजार से अधिक ऑटो व 80 हजार से अधिक पंजीकृत टैक्सी है। दिल्ली की जनता को दो दिन की हड़ताल के चलते एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

साध्वी ऋतंभरा – “हिन्दूओं को करने चाहिए चार बच्चे पैदा”

उत्तर प्रदेश के कानपुर में विश्व हिन्दू परिषद ने राम उत्सव के आयोजन के दौरान साध्वी ऋतंभरा ने कहा कि, हर हिंदू को चार बच्चे पैदा करने चाहिए। इनमे से दो को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और दो विश्व हिन्दू परिषद को सौंपे तभी हिन्दू राष्ट्र बनेगा और राष्ट्र यज्ञ में योगदान दे सकेंगे।

कानपुर के निराला नगर स्थित रेलवे मैदान पर आयोजित कार्यक्रम में विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने कहा कि, सीता माता के अपहरण से जिस प्रकार रावण का समूल नाश हुआ था ठीक उसी प्रकार हमें लव जिहाद करने वालों को समान रूप से कुचलना होगा। केवल भगवान राम की पूजा से कुछ नहीं होगा।

संघ के पूर्व सह कार्यवाह भैयाजी जोशी ने कहा कि, राम जन्म उत्सव पर्व पर हम लोग भगवान राम के साथ रामराज्य की कल्पना करते है जिसमें बेहतर शिक्षा साथ ही बेहतर सुरक्षा भी हो। हालांकि आज हम आसुरी शक्तियों से लड़ रहे है किंतु अंत में जीत सत्य की होती है।

आपको बता दे, विश्व हिन्दू परिषद की तरफ से आयोजित किए गए रामोत्सव में 6 हजार बच्चे राम और 1100 बच्चे हनुमान रूप वेश धारण कर शामिल भी हुए। साथ ही इस आयोजन में दूर-दूर से आए कलाकारों ने वाद्ययंत्र से समां बांधा।

हाथापाई के बीच मतदान में पीएम शहबाज़ के बेटे हमजा चुने गए पंजाब के मुख्यमंत्री

पाकिस्तान में जहाँ इस्लामाबाद में शहबाज़ शरीफ की सत्ता स्थापित हुई है, वहीं देश के दूसरे सबसे बड़े सूबे पंजाब में उनके सबसे बड़े बेटे हमजा शहबाज़ (48) मुख्यमंत्री चुन लिए गए हैं। पंजाब विधानसभा में छह घंटे तक चले सत्र में इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के सदस्यों के शोरशराबे और दोनों पक्षों में हाथापाई के बीच हमजा का चुनाव हुआ। मतदान में पीटीआई के 24 विधायकों ने भी हमजा के पक्ष में वोट किया।

रिपोर्ट्स के मुताबिक पीटीआई और उसकी सहयोगी पीएमएल-क्यू ने विधानसभा सत्र का बहिष्कार किया। सत्र के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जमकर हाथापाई हुई। हमजा के खिलाफ खड़े पीटीआई-पीएमएलक्यू के साझे उम्मीदवार परवेज इलाही इस दौरान घायल हो गए। यहाँ तक कि डिप्टी स्पीकर दोस्त मुहम्मद मजारी से भी हाथापाई हुई।

मजारी पर हमला करने के आरोप में पुलिस ने पीटीआई के तीन विधायकों को हिरासत में ले लिया है। डिप्टी स्पीकर की घोषणा के मुताबिक हमजा को चुनाव में 197 मत मिले। पंजाब देश का दूसरा सबसे बड़ा प्रांत है। हमजा को मुख्यमंत्री बनने के लिए 371 के सदन में 186 मतों की जरूरत थी। यहाँ तक कि हमजा पीटीआई के असंतुष्ट विधायकों के भी 24 मत पाने में सफल रहे।

यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि हमजा (48) शहबाज के सबसे बड़े पुत्र हैं। उनके खिलाफ 14 अरब रुपये के धन शोधन का मामला चल रहा है और वो जमानत पर हैं। मामले की जांच संघीय जांच एजेंसी (एफआईए) कर रही है। धनशोधन मामलों में जमानत पर रिहा होने से पहले हमजा 20 महीने जेल में रहे थे।

पुलिस का पहरा भी, भय में लोग और डर ऐसा कि राशन जमा करने में लगे

हनुमान जयंती के अवसर पर जहांगीरपुरी में हुई दो समुदायों के बीच हुई तीखी झड़प के बाद से जहांगीरपुरी के सी, बी और ए ब्लॉक में रहने वालों ने तहलका संवाददाता को बताया कि कुछ उपद्रवियों की वजह से पूरा समाज पीड़ित होता है।
आज यहां पर रहने वाले लोगों के अंदर भय है और तनाव है कि अभी तो पुलिस है कल पुलिस और कहीं ड्यूटी में होगी तो क्या होगा। क्योंकि मंदिर और मस्जिद में लोगों का आना-जाना रहता है। सी ब्लॉक में रहने वाले हेमराज का कहना है कि दोनों समुदायों के बीच जो तनाव बना है वो जल्दी से दूर होने वाला नहीं है। हेमराज का कहना है कि जहांगीरपुरी में अब स्थाई तौर पर अक्सर तनाव देखने को मिलेगा। वजह साफ क्योंकि सियासत करने वाले ऐसे है जो दोनों समुदाय के बीच तनाव का माहौल बनाने से नहीं चूकेगें।
परचून की दुकान चलाने वाले किशोर कुमार साहू का कहना है कि उनकी दुकान दो दिनों से बंद है। डर लगता है कि कहीं उनके ऊपर ही हमला न कर दें। कुछ लोगों ने तो नाम न छापने पर बताया कि डर का माहौल तो ऐसा है कि लोगों ने अपने घरों में कई-कई दिनों का राशन रखना शुरू कर दिया है।
समाजसेविका पूनम का कहना है कि काम धंधा कोरोना के चलते वैसे ही मंदा पड़ा हुआ है। उस पर ये दो समुदाय के बीच जंग जिससे यहां पर रहने वाले परिवार आज सदमें है। उनके बच्चे स्कूल में पढ़ने नहीं जा पा रहे है। टीचर जो ट्यूशन पढ़ाने  को आते है। वे नहीं आ रहे है। उनका कहना है कि पुलिस का पहरा भले ही दोनों समुदाय के बीच शांति बनाये हुये है। लेकिन कहीं-कहीं ये तनाव अंदर-अंदर पनप रहा है। ऐसे में दोनों समुदाय के लोगों को मिल बैठकर समाधान निकालना होगा। अन्य़था राजनीतिक लोगोें के चलते मामला पूरा सियासी हो जायेगा। जो कभी भी हिंसक रूप ले सकता है।  

कोरोना मामलों में 90 फीसदी की उछाल, 2,183 नए मामले

देश में पिछले करीब 24 घंटे में कोविड-19 के मामलों में करीब 90 फीसदी उछाल आया है और इस दौरान महामारी से जुड़े 2,183 मामले सामने आये हैं। यह पिछले डेढ़ महीने में एक दिन की सबसे बड़ी संख्या है। इस दौरान कोरोना से 214 मरीजों की जान चली गयी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के आज सुबह जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले 24 घंटे के दौरान देशभर में कोरोना के 2,183 केस दर्ज सामने आये हैं। आंकड़ों के मुताबिक कल देश में 1,150 मामले, 16 अप्रैल को 975 और 15 अप्रैल को 949 नए मामले सामने आए थे। इस तरह मामलों में ये उछाल करीब 90 फीसदी है। हाल के दिनों में फिर से कोरोना के मामले तेजी से बढ़ने लगे हैं, जिससे सरकार की चिंता भी बढ़ी है।

दिल्ली, यूपी और हरियाणा में कोरोना के मामलों में हाल में काफी तेजी देखी गयी है।  पिछले 24 घंटे में कोरोना से 214 मरीजों की मौत हो गयी है। वहीं 1985 और लोग बीमारी से ठीक हुए हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश में फिलहाल एक्टिव केस 11,542 हैं।

पिछले 24 घंटों में कोरोना के 2,61,440 परीक्षण किए गए जिसके बाद अब तक कोरोना के परीक्षणा का आकंडा 83.21 करोड़ हो गया है। टीकाकरण अभियान के तहत अब तक 186.54 करोड़ टीके की खुराक दी जा चुकी है।

उपचुनाव में कांग्रेस-टीएमसी ने 2 -2 सीटें जीतीं, एक आरजेडी को, भाजपा रही खाली हाथ  

एक लोकसभा और चार विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव की शनिवार को हुई मतगणना में कांग्रेस और टीएमसी ने क्रमशः 2 -2 सीट जीत ली हैं जबकि आरजेडी को एक सीट मिली है। भाजपा की झोली खाली रही है। बंगाल की लोकसभा सीट पर  शत्रुघ्न सिन्हा बड़े अंतर से चुनाव जीत गए हैं।

कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र, टीएमसी ने दोनों बंगाल और आरजेडी ने बिहार में  एक सीट जीती है। बंगाल की आसनसोल लोकसभा सीट पर टीएमसी के लिए शत्रुघ्न सिन्हा और बालीगंज विधानसभा सीट पर टीएमसी के ही बाबुल सुप्रियो बड़े अंतर से जीत गए हैं। बिहार के बोचहां विधानसभा सीट पर राजद के अमर पासवान विजयी हुए हैं।

महाराष्ट्र की कोल्हापुर नॉर्थ सीट से कांग्रेस उम्मीदवार जयश्री जाधव ‌ने भाजपा के सत्यजीत कदम को करीब 19,000 वोटों से बड़ी शिकस्त दी। छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ विधानसभा सीट पर भी कांग्रेस उम्मीदवार यशोदा वर्मा 19 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गयी हैं। यह सीट जनता कांग्रेस के विधायक देवव्रत सिंह के निधन के बाद खाली हुई थी।

बंगाल की आसनसोल लोकसभा सीट पर शत्रुघ्न सिन्हा ने भाजपा के अग्निमित्रा पॉल को 2 लाख 64 हजार 913 वोट के बड़े अंतर से हराया। ये सीट पिछले साल बाबुल सुप्रियो के इस्तीफे के बाद खाली हुई थी। सुप्रियो भाजपा छोड़ टीएमसी में शामिल हो गए थे।

बालीगंज विधानसभा सीट से बाबुल सुप्रियो ने भाजपा की केया घोष और माकपा की  सायरा शाह को हराया। यह सीट पर पूर्व विधायक और राज्य के मंत्री रहे सुब्रत मुखर्जी के निधन के बाद खाली हुई थी।

बिहार की बोचहां विधानसभा सीट पर राजद के अमर पासवान ने भाजपा की बेबी कुमारी को 36,653 वोटों से हराया। यह सीट विधायक मुसाफिर पासवान के निधन के बाद खाली हुई थी।

चीन के तीन यात्री अंतरिक्ष स्टेशन पर रेकार्ड छह महीने बिताकर धरती पर लौटे

चीन के यात्रियों ने अंतरिक्ष स्टेशन पर 6 महीने रहने का रेकॉर्ड बना दिया है। उसके तीन यात्री अंतरिक्ष स्टेशन में छह महीने रहने के बाद शनिवार सुबह धरती पर वापस लौट आये। उनके अंतरिक्ष यान शेनझोउ-13 ने केवल आठ घंटे में पृथ्वी पर वापसी की।

चीन की ‘ग्लोबल टाइम्स’ अखबार के मुताबिक यह सभी यात्री स्वस्थ हैं। यह तीन अंतरिक्ष यात्री चीन के नए अंतरिक्ष स्टेशन पर रेकॉर्ड छह महीने बिताने के बाद शनिवार सुबह स्थानीय समयानुसार 9.56 बजे सफलतापूर्वक धरती पर वापस उतर गए। अखबार ने बताया कि शेनझोउ-13 मानवयुक्त अंतरिक्ष यान मिशन पूरी तरह से सफल रहा है।

अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक अंतरिक्ष यात्रियों ने तियानगोंग अंतरिक्ष स्टेशन पर छह महीने का समय बिताया। इस मिशन के यात्रियों ने शेनझोउ-12 के 92 दिनों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है। अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने के अलावा, इस मिशन ने देश के मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन इतिहास में कई और रिकॉर्ड भी बनाए हैं।

उधर शेनझोउ अंतरिक्ष यान को बनाने वाली ‘चाइना अकेडमी ऑफ स्पेसक्राफ्ट टेक्नोलॉजी’ (सीएएसटी) के एक बयान में कहा गया है कि शेनझोउ-13 मिशन ने पहली बार आपातकालीन मिशन तंत्र की खोज की।

रिपोर्ट्स के मुताबिक शेनझोउ-13 और लॉन्ग मार्च-2एफ वाई13 के प्रक्षेपण के ठीक बाद शेनझोउ-14 मानवयुक्त अंतरिक्ष यान और लॉन्ग मार्च-2एफ वाई14 रॉकेट को प्रक्षेपण के लिए तैयार रखा गया था, ताकि अंतरिक्ष यान को पृथ्वी पर लौटने से रोकने वाली कोई भी खराबी होने पर शेनझोउ-13 के अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बचाव कार्य किया जा सके।

अभी मैदान में हैं इमरान!

शेक्सपियर ने लिखा था- ‘होना या न होना, यही बड़ा सवाल है।’ यह बात किसी हद तक पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पर लागू होती है। कहा जा सकता है कि इमरान ख़ान बोल्ड हो गये हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वह वास्तव में आउट हो गये हैं? पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के सदस्य जिस तरह से इस्लामाबाद, कराची, पेशावर, मलकंद, मुल्तान खानेवाल, खैबर, झांग और क्वेटा जैसे शहरों में रैलियाँ निकाल रहे हैं, उससे लगता है कि क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान ख़ान आख़िरी गेंद तक खेलने के लिए तैयार हैं। उन्होंने पाकिस्तान में अपनी सरकार के जाने के पीछे विदेशी षड्यंत्र बताया है। इसके ख़िलाफ़ नये स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा के साथ अपना इरादा साफ़ कर दिया है।

इस पखवाड़े ‘तहलका’ के लिए अपनी आवरण कथा में विशेष संवाददाता राकेश रॉकी लिखते हैं- ‘सत्ता में आकर नया पाकिस्तान बनाने का वादा करने वाले इमरान ख़ान सत्ता चले जाने के बाद अब देश की जनता के बीच जाकर आज़ादी की नयी जंग लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। इमरान का एजेंडा साफ़ है-जनता के बीच रहकर वर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन को भ्रष्ट बताते जाना, ताकि अगले चुनाव तक ख़ुद को प्रासंगिक बनाकर रखा जाए।’

नये घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान 75 साल के अपने इतिहास में जकड़ी हुई राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता को देखते हुए ख़ुद को चौराहे पर खड़ा महसूस करता है। पाकिस्तान में अगला आम चुनाव 2023 के आख़िर में होना है और इससे पहले मौज़ूदा उथल-पुथल शायद ही कम हो। यह स्थिति हम पर कैसे प्रभाव डालती है? यह आने वाले दिनों में देखा जाएगा; क्योंकि पहले ही पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ संकेत दे चुके हैं कि वह भारत के साथ सम्बन्ध सुधारना चाहते हैं।

जैसा कि अपेक्षित था, पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय को अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज करने के फ़ैसले को रद्द करके इमरान ख़ान के सत्ता में बने रहने की हताश कोशिश में मध्यस्थता करनी पड़ी। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में विपक्ष के अपना अविश्वास जीतने के कारण इमरान ख़ान का कार्यकाल तय समय से 16 महीने पहले समाप्त हो गया। ख़ान ने भ्रष्टाचार मुक्त और 10 मिलियन नौकरियाँ सृजित करने वाले जिस ‘नये पाकिस्तान’ का वादा किया था, वह कभी नहीं हो सका और वह अपने वादों पर खरे नहीं उतरे। अर्थ-व्यवस्था डूब गयी और मुद्रास्फीति 13 फ़ीसदी के उच्च स्तर तक बढ़ गयी, जिससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, चीन और मध्य पूर्व से भीख माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा। इधर पाकिस्तान की शक्तिशाली सेना के साथ उनके सम्बन्धों में पूरी तरह से दरार आ गयी थी।

वास्तव में पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए उभरता ख़तरा नये प्रधानमंत्री, शहबाज़ शरीफ़ के सत्ता में आ जाने के बाद भी ख़त्म नहीं हुआ है। उन्होंने पिछली सरकार पर अर्थ-व्यवस्था के कुप्रबंधन का आरोप लगाते हुए कहा है कि इसे वापस पटरी पर लाना उनकी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी। उनके सामने एक और चुनौती सेना के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रखने की है, जो देश में ताक़तवर हैसियत रखती है। अगले सेना प्रमुख की नियुक्ति और एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाने की चुनौती भी उनके समक्ष है। अपदस्थ प्रधानमंत्री ने उन्हें हटाने की साज़िश के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ बताया था। ज़ाहिर है इमरान ख़ान भी शहबाज़ के लिए चुनौती हैं, जो 2023 के संसदीय चुनाव के लिए अभी से तैयारी में दिखते हैं। इमरान ख़ान कह चुके हैं कि वह आख़िरी गेंद तक लड़ेंगे।

चरणजीत आहुजा

मनरेगा में पश्चिम बंगाल शीर्ष पर

केंद्र से 2,786 करोड़ रुपये लेने का राज्य अभी भी कर रहा इंतज़ार

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत रोज़गार आवंटन और धन का उपयोग करने के मामले में पश्चिम बंगाल सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य बन गया है। हालाँकि जब बात धन प्राप्त करने की आती है, तो उसे अभी तक केंद्र से 2,786 करोड़ रुपये की राशि का इंतज़ार है।

बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी ने एक ट्वीट में कहा- ‘ञ्चममता बनर्जी के अनुकरणीय नेतृत्व में मनरेगा (2021-22) में काम करने वाले कुल व्यक्तियों (नियोजित) में बंगाल सभी राज्यों में पहले स्थान पर है। बंगाल सरकार ने मनरेगा के ज़रिये क़रीब 1.1 करोड़ लोगों को काम दिया। यह प्तबंगालमॉडल है, जिसका ञ्चनरेन्द्रमोदी जी केवल सपना देख सकते थे।’

पार्टी ने एक अन्य ट्विटर पोस्ट में कहा- ‘कार्य दिवस सृजन (2021-22) में बंगाल सभी राज्यों में दूसरे स्थान पर है, जिसने 36.4 करोड़ कार्य दिवस सृजित किये हैं। राज्य के 2,876 करोड़ रुपये केंद्र सरकार से 31 मार्च, 2022 तक लम्बित हैं। हम अभी भी भुगतान की प्रतीक्षा कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि क्या सरकार अधिक समय सोने और ज़हर उगलने में बिताती है।’ ग्रामीण विकास राज्य मंत्री राम कृपाल यादव के हाल में राज्यसभा में उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल ने अब तक इस योजना के तहत 28.21 करोड़ से अधिक कार्य दिवस सृजित किये हैं और इसके लिए 7,335.31 करोड़ रुपये से अधिक ख़र्च किये हैं।

मंत्री ने यह जानकारी तृणमूल कांग्रेस के सदस्य मानस रंजन भुनिया के एक सवाल के जवाब में दी। उन्होंने यह भी कहा कि तमिलनाडु ने 22.17 करोड़ कार्य दिवसों के साथ दूसरे स्थान पर क़ब्ज़ा कर लिया और 5,981.75 करोड़ रुपये ख़र्च किये। आंध्र प्रदेश 18.16 करोड़ कार्य दिवसों और 5,054.17 करोड़ रुपये के फंड के साथ तीसरे स्थान पर रहा।

भाजपा शासित राज्य पीछे

भूनिया ने कहा कि गोवा, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों का प्रदर्शन प्रभावशाली नहीं रहा। गोवा को 94,000 कार्य दिवसों के साथ सूची में सबसे नीचे स्थान दिया गया है, जिसने महज़ 2.47 करोड़ रुपये ख़र्च किये हैं। गुजरात ने 2.93 करोड़ कार्य दिवस सृजित किये और 793.50 करोड़ रुपये की धनराशि ख़र्च की, जबकि उत्तर प्रदेश ने 15.6 करोड़ कार्य दिवसों का सृजन किया और 3701.54 करोड़ रुपये की धनराशि का उपयोग किया।

पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस राज्य के सीमावर्ती इलाक़ों में मनरेगा और जीएसटी बक़ाया और बीएसएफ की ज्यादतियों के मुद्दों पर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की तैयारी में है। लोकसभा और विधानसभा के एक-एक सीट के उपचुनाव हो जाने के बाद अब पार्टी ये विरोध-प्रदर्शन शुरू करने जा रही है। पश्चिम बंगाल में यह उपचुनाव 12 अप्रैल को हुए, जिसके नतीजे 16 अप्रैल को घोषित होने हैं। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व ग़ैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी सम्पर्क करेगा और उनसे मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का हिस्सा बनने का आग्रह करेगा।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि यह पहल ममता बनर्जी की दीर्घकालिक योजना से प्रेरित है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी पार्टी देश में भाजपा विरोधी ताक़तों की एकता बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

तृणमूल कांग्रेस ने दावा किया है कि पश्चिम बंगाल को अभी तक भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से 2,786 करोड़ रुपये का मनरेगा बक़ाया नहीं मिला है। पार्टी ने हाल ही में केंद्र की तरफ़ से जारी एक सूची का हवाला देते हुए कहा कि पूर्वी राज्य महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत 2021-22 में 1.1 करोड़ लोगों को काम देकर रोज़गार प्रदान करने में सबसे ऊपर है और श्रम दिवस सृजित करने में दूसरे स्थान पर है।

पाकिस्तान में सत्ता पलट

नयी शहबाज़ सरकार से भारत को बेहतर रिश्तों की उम्मीद

पाकिस्तान में थोड़े दिन चले राजनीतिक घटनाक्रम के बाद सत्ता पलट गयी और शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में विपक्ष की साझी सरकार सत्ता में आ गयी। पड़ोस में हुए इस राजनीतिक बदलाव के बाद भारत में द्विपक्षीय बातचीत की उम्मीद की जाने लगी है। इसका कारण है- नये प्रधानमंत्री शहबाज़ के बड़े भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के साथ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहतर सम्बन्ध होना। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म होने जैसे घटनाक्रमों के बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि पाकिस्तान का नया नेतृत्व भारत के साथ रिश्तों को लेकर क्या रूख़ अपनाता है? इसकी सम्भावनाओं पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

इमरान ख़ान जब सत्ता के आख़िरी हफ़्ते में थे और वहाँ जबरदस्त राजनीतिक हलचल थी, तो इस बीच उन्होंने वहाँ के सेना प्रमुख और कुख्यात सरकारी एजेंसी आईएसआई के प्रमुख को हटाने का इरादा बनाया था। भारत पाकिस्तान के घटनाओं पर नज़र रखे हुए था और हमारे देश के थिंक टैंक में यह आशंका उभरी थी कि इमरान की इस कोशिश के नाकाम होने पर कहीं सेना सत्ता न हथिया ले। हालाँकि ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष के गठबंधन ने इमरान ख़ान को सत्ता से बाहर करके अपनी सरकार बना ली। नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के अब तक के राजनीतिक सफ़र को देखें, तो उनके बयान भारत को लेकर मिलेजुले रहे हैं। हालाँकि यह तय है कि शहबाज़ के राजकाज में उनके भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ का दख़ल रहेगा। लिहाज़ा सम्भावना है कि सरकार के बाक़ी बचे डेढ़ साल में भारत से रिश्ते सुधारने की पहल हो। शरीफ़ भारत के पड़ोसी देशों के उन नेताओं में शामिल हैं, जो सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने पर उनके शपथ ग्रहण में ख़ासतौर पर शामिल हुए थे। बहुत कम लोगों को पता होगा कि शरीफ़ बंधुओं के पूर्वज भारतीय कश्मीर के अनंतनाग से ताल्लुक़ रखते थे। वैसे सत्ता में आने के बाद अपने पहले बयान में शहबाज़ ने कश्मीर राग छेड़ा है। लेकिन यह उनकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है; क्योंकि सेना कश्मीर के मसले पर राजनीतिक दबाव बनाकर रखती है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर को लेकर शहबाज़ सकारात्मक पहल करेंगे।

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन भारत के लिए इसलिए भी बहुत अहम है कि पड़ोस के अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत है और चीन के साथ भारत की तनातनी कम नहीं हुई है। यूक्रेन युद्ध के चलते वैश्विक राजनीतिक और कूटनीतिक स्थितियाँ बदली हैं और भारत भी इससे बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को बेहतर करने की कोशिश होती है, तो यह बेहतर ही होगा।

शहबाज़ शरीफ़ के लिए आने वाला समय काफ़ी चुनौतीपूर्ण होगा, इसमें कोई दो-राय नहीं। उन पर आंतरिक और बाहरी दोनों ही दबाव रहेंगे। इमरान ख़ान ने जिस तरह जाते-जाते अमेरिका को कोसा है, उससे पाकिस्तान के राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक हलक़ों में काफ़ी बेचैनी महसूस की गयी थी। भले पाकिस्तान की जनता अमेरिका को बहुत पसन्द न करती हो, वहाँ के हुक्मरान यह समझते हैं कि सीधे अमेरिका से पंगा लेना उनके देश को बहुत मुश्किल में डाल सकता है। यह माना जाता है कि इमरान ख़ान के अपने ख़िलाफ़ होने से अमेरिका सख़्त नाराज़ था और वह उन्हें सत्ता से बाहर करना चाहता था। ज़ाहिर है शहबाज़ शरीफ़ को उस मोर्चे पर भी काम करके अमेरिका से पाकिस्तान के रिश्तों को पटरी पर लाना होगा।

इमरान ख़ान ने भले ही जाते-जाते भारत का गुणगान किया हो; लेकिन यह कड़वा सच है कि उनके तीन साल के सत्ताकाल में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते निम्न स्तर पर रहे। न कोई बातचीत हुई और न किसी तरह की पहल। उलटे कश्मीर को लेकर तल्ख़ियाँ और गहरी हुईं। दोनों देशों के बीच पहले से जो आदान-प्रदान था, वह भी पूरी तरह से बन्द हो गया। हालाँकि शहबाज़ शरीफ़ के आने से कुछ बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है; भले उनके पास अगले चुनाव से पहले बहुत कम वक़्त है। दूसरे जिस गठबंधन के वह नेता हैं, उसमें भारत के साथ रिश्तों को लेकर गम्भीर तरह की वैचारिक भिन्नता है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि शहबाज़ और नवाज़ अब भारत से कैसे रिश्ते रखते हैं? क्योंकि अब नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान लौटने की सम्भावना है।

हालाँकि ज़्यादातर जानकार मानते हैं कि अब भारत की पहल ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होगी, जो हमेशा से पाकिस्तान में वहाँ की सत्ता और सेना / आईएसआई के आतंकवाद को प्रश्रय देने का सख़्त विरोध करता रहा है और आज भी अपनी इस नीति पर कायम है। जम्मू-कश्मीर में स्थितियाँ पहले से काफ़ी बदल गयी हैं और वहाँ राज्य को विशेष दर्जा देने वाली धारा-370 को कब का ख़त्म किया जा चुका है। भारत की सरकार आने वाले महीनों में वहाँ विधानसभा के चुनाव कराने की सोच रखती है। लिहाज़ा पाकिस्तान से बातचीत की पहल सूबे में माहौल को बेहतर कराने में मददगार साबित हो सकती है। इससे चुनाव को शान्तिपूर्ण तरीके से निपटाने में भी मदद मिलेगी। भले ही वहाँ की अलहदगी पसन्द हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और आतंकवादी तंज़ीमें चुनाव के बॉयकॉट की अपील हमेशा करती रही हैं और इस बार भी करेंगी।

 

इमरान और शहबाज़

इसमें कोई दो-राय नहीं कि इमरान ख़ान जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तो चीन की तरफ़ उनके देश का झुकाव ज़्यादा हुआ। इमरान ख़ान के अमेरिका विरोधी सुर काफ़ी पहले से महसूस किये जाने लगे थे। यहाँ तक कि पिछले एक साल में जब जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो एक बार भी उन्होंने इस्लामाबाद फोन नहीं किया, जबकि इस दौरान उनकी प्रधानमंत्री मोदी से कई बार बात हुई है। शायद इसका ही असर था कि इमरान ख़ान यूक्रेन युद्ध शुरू होने से ऐन पहले क्रेमलिन पहुँच गये और उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से मुलाक़ात की। माना जाता है कि इसके बाद ही इमरान ख़ान की सत्ता की उल्टी गिनती शुरू हो गयी।

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में हाल के वर्षों में काफ़ी तल्ख़ी दिखी है। ख़ासकर पुलवामा और बालाकोट के समय ऐसा लगने लगा था कि कहीं युद्ध की नौबत ही न आ जाए। इमरान का स्टैंड भी भारत को लेकर इन ढाई-तीन साल में अलग ही दिखा है। पुलवामा के आतंकी हमले और बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में जो कड़वाहट आयी थी, वह लगातार बढ़ी है। इमरान कई मौक़े पर सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करते रहे और उन्होंने आरएसएस को भी निशाने पर लिया। भले राजनयिक स्तर पर भारत और पाकिस्तान आधिकारिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े रहे हों, दोनों में रिश्ते ख़राब होते गये हैं।

यह एक कड़वा सच है कि भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी रिश्ते बेहतर करने की पहल होती है, वहाँ की एजेंसी आईएसआई उप पर मिट्टी डालने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसका कारण आईएसआई है। क्योंकि यदि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होते हैं, तो उनकी कोई क़ीमत नहीं रह जाएगी। लिहाज़ा रिश्ते पटरी पर लाने की राजनीतिक कोशिश इतनी आसान नहीं होगी।

पाकिस्तान की राजनीति के जानकार मानते हैं कि शहबाज़ के सेना के अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। उनके मुताबिक, शहबाज़ के ताक़तवर फौज के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं और जिस तरह सेना आज भी सुरक्षा और विदेश नीति के मामलों में अपना दख़ल रखती है, उसमें राजनीतिक सरकार के लिए स्वतंत्रता के साथ काम करने में दिक्क़त रहती ही है। लेकिन एक सच यह भी है कि हाल के कुछ वर्षों में पाकिस्तान की सेना की ताक़त कुछ कम हुई है।

कई जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान में इमरान ख़ान बनाम विपक्ष की हाल में जो राजनीतिक जंग हुई, यदि सेना पुराने समय वाले तेवर दिखाती, तो सत्ता आज शहबाज़ के हाथ नहीं, सेना के हाथ होती। पाकिस्तानी जनरल बाजवा के समय भले सेना का विदेश और रक्षा मामलों में हस्तक्षेप रहा हो, यह उस स्तर का नहीं था जो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के समय रहा था। उन्होंने सन् 1999 में सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था। वैसे देखा जाए, तो पाकिस्तान में हुए अब तक के तख़्तापलट में यह आख़िरी था। उसके बाद पाकिस्तान में राजनीतिक सरकारें ही रहीं, भले वो पूरा समय न चल पायी हों। वैसे जनरल जिया-उल-हक़ तानाशाह के रूप में सबसे लम्बा शासन करने वाले फ़ौजी जनरल रहे, जिन्होंने क़रीब 11 साल सत्ता सँभाली। उनकी एक हेलीकॉप्टर हादसे में मौत हुई। इस हादसे को हमेशा संदिग्ध माना जाता रहा है।

इमरान ख़ान के जाने से दोनों देशों के सम्बन्धों में एक  ख़ालीपन तो आया है; लेकिन इमरान का जाना इस लिहाज़ से बेहतर हो सकता है कि उनके काल में बातचीत के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। जाते-जाते भले इमरान ने भारत की विदेश नीति के क़सीदे पड़े; लेकिन यह उनकी आंतरिक राजनीति थी। उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री भारत के ख़िलाफ़ काफ़ी ख़राब भाषा का इस्तेमाल किया था।

हालाँकि एक और सच यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी के शहबाज़ शरीफ़ के भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से अच्छे ताल्लुक़ात रहे हैं। जानकार मानते हैं कि शहबाज़ सरकार पर नवाज़ शरीफ़ की सोच की छाप रहेगा और हस्तक्षेप भी। लिहाज़ा उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ महीनों में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का रास्ता खुले। हालाँकि इसमें एक पेच यह ज़रूर है कि पाकिस्तान में अक्टूबर, 2023 में अगले चुनाव होने हैं। लिहाज़ा शरीफ़ बंधुओं का ध्यान आंतरिक राजनीति पर ज़्यादा रहेगा।

लेकिन जानकार मानते हैं कि इस बात की काफ़ी सम्भावना है कि यदि कोई बड़ी (आतंकी) घटना नहीं होती है, तो शहबाज़ कुछ महीने में भारत के साथ पटरी से उतरे रिश्तों को सही करने की पहल कर सकते हैं। इसमें निश्चित ही नवाज़ शरीफ़ की बड़ी भूमिका होगी। नवाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएल (एन) का रूख़ हमेशा से भारत से बातचीत की समर्थक पार्टी वाला माना जाता रहा है।

पुराने समय की याद करें, तो ज़ाहिर होता कि अटल बिहारी वाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी तक नवाज़ शरीफ़ के व्यक्तिगत रिश्ते ख़राब नहीं रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने शरीफ़ की माँ के लिए साड़ी भिजवायी, तो उधर से मोदी की माँ के लिए शरीफ़ की तरफ़ से ख़ास साड़ी आयी। अच्छी बात यह है कि तमाम तल्ख़ियों के बावजूद दोनों देशों के बीच सीमा तनाव के लिए युद्ध विराम अभी भी काम कर रहा है।

पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने हाल में कहा था कि यदि भारत चाहे, तो पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर आगे बढ़ सकता है। इसे सकरात्मक रूप से देखा जाना चाहिए, क्योंकि हमेशा पाकिस्तान की सेना पर शक के आधार पर हमेशा अविश्वास नहीं किया जा सकता; क्योंकि वैश्विक स्तर पर हालत में काफ़ी बदलाव आया है। दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि दक्षिण एशिया या बाहर अपने पड़ोसियों से भारत के सम्बन्धों में सुधार आया है। चाहे नेपाल हो, मालदीव हो या यूएई और सऊदी अरब हों। चीन को छोड़कर भारत ने इन देशों से रिश्तों को बेहतर किया है।

हंबनटोटा बंदरगाह पर चीन के श्रीलंका के साथ समझौते के बाद उसका जो झुकाव बीजिंग की तरफ़ था, उससे भारत में काफ़ी चिन्ता थी। लेकिन श्रीलंका के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने की जो कोशिश भारत ने की थी, वह श्रीलंका के हाल के आर्थिक संकट में भारत की मदद से और मज़बूत हुई है। अरब देशों के साथ भारत के रिश्ते और भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसका दबाव पाकिस्तान पर भी पड़ता है। पाकिस्तान का नेतृत्व इसे समझता है। इमरान ख़ान के शासनकाल में अमेरिका के साथ पाकिस्तान के गड़बड़ हुए रिश्तों से पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, सेना पर भी दबाव बना है।

पाकिस्तान को जानने वाले कहते हैं कि वहाँ सेना की राजनीतिक भूमिका धीरे-धीरे सीमित हो रही है। इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव के मामले में एक हफ़्ते की सियासी खींचतान के बाद पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की तरफ़ से बड़ा फ़ैसला आना अपने आपमें अहम है। हाल के दशकों में किसी सरकार को हटाने में सेना की ही भूमिका रहती आयी है। लेकिन इस बार पाकिस्तान के राजनीतिक घटनाक्रम के बीच सेना अध्यक्ष बाजवा की तरफ़ से मात्र एक ही टिप्पणी आयी, जिसमें उन्होंने कहा कि यह एक राजनीतिक घटनाक्रम है और सेना का इससे कुछ लेना-देना नहीं। इसका श्रेय इमरान ख़ान को भी कुछ हद तक दिया जा सकता है, जिन्होंने अमेरिका की दादागिरी के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत भी दिखायी।

कुछ जानकार इसे पाकिस्तान में लोकतंत्र मज़बूत होने के संकेत के रूप में देखते हैं। यदि हक़ीक़त में पाकिस्तान में लोकतंत्र मज़बूत होता है, तो इसे भारत ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए शुभ माना जाएगा। यदि पाकिस्तान की विदेश नीति में सेना का हस्तक्षेप कम या ख़त्म होता है तो राजनीतिक संस्थान अपने हिसाब से भारत या दूसरे पड़ोसी देश से नीति तय कर पाएगा। नवाज़ शरीफ़ यूपीए सरकार के समय सन् 2013 में भारत आये थे। उस दौरान शहबाज़ पाकिस्तान हिस्से के पंजाब के मुख्यमंत्री थे। नवाज़ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात के बाद पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में भारत के साथ मिलकर काम करने पर ज़ोर दिया था।

याद रहे 25 दिसंबर, 2015 में प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने बाद नरेंद्र मोदी ने रूस से लौटते हुए अचानक लाहौर में उतरकर सबको चौंका दिया था। ख़ुद पाकिस्तानी नवाज़ शरीफ़ ने हवाई अड्डे आकर उनकी अगुआई की थी। उस समय ऐसा लगा था कि यह दोनों देशों के रिश्तों में नया अध्याय लिखने की तैयारी है। हालाँकि इस मुलाक़ात के हफ़्ते भर बाद ही पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकियों ने हमला कर दिया। बहुत-से जानकार मानते हैं कि इस घटना के पीछे सेना और आईएसआई थे, जो नहीं चाहते थे कि दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व में दोस्ती हो और उनकी (सेना और आईएसआई की) अहमियत कम हो जाए।

 

अब क्या करेंगे इमरान?

सत्ता में आकर ‘नया पाकिस्तान’ बनाने का वादा करने वाले इमरान ख़ान सत्ता चले जाने के बाद अब देश में जनता के बीच जाकर ‘आज़ादी की नयी जंग’ लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। बिलावल भुट्टो ने उनकी सरकार जाने के बाद कहा था कि ‘पुराना पाकिस्तान’ लौट आया है; लेकिन पीटीआई नेता इसे ‘लुटेरों का फिर सत्ता में आना’ बता रहे हैं। इमरान का एजेंडा साफ़ है कि जनता के बीच रहकर वर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन को भ्रष्ट बताते जाना। पाकिस्तान में भ्रष्टाचार की जड़ें काफ़ी गहरी हैं। इमरान हाल के दशकों में पाकिस्तान के शायद इकलौते नेता हैं, जिन पर तीन साल सत्ता में रहने के बावजूद भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है। यही कारण है कि ख़स्ता हो चुकी आर्थिक हालत और जबरदस्त महँगाई के बावजूद विपक्ष पर तीखे आक्रमण कर रहे हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार सीधे रूप से जनता को प्रभावित करने वाला मुद्दा है।

इमरान ख़ान ने आने वाले डेढ़ साल तक जनता के बेच रहकर रैलियाँ करने का ऐलान किया है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि संसद में सरकार हारने के बावजूद इमरान ख़ान की जनता में लोकप्रियता है और वह अगले चुनाव में पीएमएल-एन और पीपीपी को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में रहेंगे, बशर्ते इस दौरान कोई बड़ा राजनीतिक उलटफेर न हो। इमरान ख़ान की राजनीतिक स्थिति वैसी ही है, जैसी आज भारत में नरेंद्र मोदी की है। जैसे यहाँ एक तरफ़ मोदी और और दूसरी तरफ़ सारा विपक्ष है, वैसे पाकिस्तान में एक तरफ़ इमरान ख़ान और दूसरी तरफ़ सारा गठबंधन (अब सत्तारूढ़) है।

इमरान ख़ान को लगता है कि यह गठबंधन टिकाऊ नहीं है। क्योंकि उनके जो मतभेद हैं, वो बहुत गहरे हैं। लिहाज़ा उनका रैलियों के ज़रिये जनता में बने रहने का अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को निर्देश इसी रणनीति का हिस्सा है, ताकि अगले चुनाव में सत्ता में लौटने का रास्ता खुला रहे।

 

धारा-370 और पाकिस्तान

जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म किये जाने पर पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दलों का स्टैंड कमोवेश एक-सा रहा है। इसके बाद दोनों पक्षों में और दूरी आयी है। पाकिस्तान के किसी भी राजनीतिक नेता के लिए धारा-370 ख़त्म होने के बावजूद बातचीत के मेज पर आना उतना आसान नहीं है, क्योंकि सेना और आईएसआई दोनों इसे भारत के ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। भले भारत ने इसे अपना अंदरूनी मामला बताया था; लेकिन पाकिस्तान और उसके समर्थक अंतरराष्ट्रीय संगठन इसे वैश्विक मंच पर कश्मीरियों पर ज़्यादती बताते हुए भारत के ख़िलाफ़ प्रचारित करते रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तान के नए नेतृत्व के लिए भी यह पेच रहेगा ही।

शहबाज़ शरीफ़ के बारे में कहा जाता है कि उनकी छवि कठिन कार्यों में कोई कसर न छोडऩे वाली रही है। हाल में एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया था कि उनके नेतृत्व में अमेरिका से सम्बन्ध कैसे होंगे? तो उनका जवाब था- ‘भिखारी कभी चुनाव करने की स्थिति में नहीं होता।’ पीएमएल (एन) के सांसद और शहबाज़ के क़रीबी समीउल्लाह ख़ान ने हाल में कहा था कि उनके नेता (शहबाज़) भारत के साथ सम्बन्ध के लिए नयी नीति बनाएँगे। उनके मुताबिक, शहबाज़ के नेतृत्व में पाकिस्तान, भारत के लिए नयी नीति के साथ आएगा। मूल बात है कि इमरान ख़ान शासन के पास भारत को लेकर कोई नीति नहीं थी या कमज़ोर थी, जिसने भारत को कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने की अनुमति दी और ख़ान केवल असहाय होकर देखते रह गये।

हालाँकि प्रमुख पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषक हसन अस्करी का कहना है कि भारत और पाकिस्तान को सबसे पहले संवाद शुरू करना चाहिए, जो भारत की तरफ़ से सन् 2014 में तब स्थगित कर दिया गया था, जब पठानकोट आतंकी घटना हुई थी। उनके मुताबिक, बातचीत शुरू किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उनका यह भी कहना कि चूँकि भारत ने वार्ता स्थगित की है, इसलिए इसे बहाल करने की ज़िम्मेदारी भारत पर है। पाकिस्तान की किसी सरकार ने सार्थक संवाद का विरोध नहीं किया है। हालाँकि इमरान ख़ान की तरफ़ से ऐसी कोई पहल तीन साल में नहीं हुई। वैसे अस्करी मानते हैं कि इमरान ख़ान के सन् 2018 में सत्ता में आने पर उन्होंने तो पहल की थी; लेकिन पुलवामा आतंकी हमले ने खटास भर दी।

जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन भारत-पाकिस्तान के बीच सम्बन्धों को नये सिरे से शुरू करने का मौक़ा बन सकता है। नये प्रधानमंत्री शहबाज़ कह चुके हैं कि इमरान ख़ान ने पाकिस्तान की विदेश नीति को नष्ट कर दिया। निश्चित ही यह बात भारत से रिश्तों के मामले में भी लागू होती है। यह जगज़ाहिर है कि आज भी पीएमएल (एन) के सभी राजनीतिक फ़ैसले नवाज़ शरीफ़ ही लेते हैं। लिहाज़ा उनके भाई के नेतृत्व में पाकिस्तान में आयी सरकार को नवाज़ की तत्कालीन सरकार के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। नवाज़ और प्रधानमंत्री मोदी के सम्बन्ध इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

लेकिन शहबाज़ की आंतरिक राजनीतिक मजबूरियाँ बातचीत के रास्ते में रोड़ा बन सकती हैं। नवाज़ शरीफ़ जब सत्ता में थे, तो विरोधी उन्हें ‘मोदी का यार’ कहकर बुलाते थे। ज़ाहिर है शहबाज़ इस ‘तमगे’ से बचना चाहेंगे; क्योंकि उन्हें डेढ़ साल बाद ही चुनाव में उतरना है। उन पर जम्मू-कश्मीर का पुराना दर्ज़ा बहाल करने के लिए भारत को कहने का दबाव भी निश्चित ही विपक्ष की तरफ़ से बनाया जाएगा। इसके बावजूद शरीफ़ बंधुओं को सुलझा हुआ नेता माना जाता है और यदि वह भारत से बातचीत की कोई पहल करते हैं, तो कोई रास्ता ज़रूर निकालेंगे।

 

शहबाज़ का सियासी सफ़रनामा

 सितंबर 1951 में लाहौर में पंजाबी भाषी कश्मीरी परिवार में शहबाज़ का जन्म हुआ।

 अस्सी के दशक के बीच बड़े भाई नवाज़ शरीफ़ के साथ राजनीति में प्रवेश किया।

 पहली बार सन् 1988 में पंजाब विधानसभा के सदस्य बने। उस चुनाव में भाई नवाज़ शरीफ़ पंजाब के मुख्यमंत्री बने।

 शहबाज़ पहली बार सन् 1997 में पंजाब के मुख्यमंत्री बने और संयोग से उस समय उनके भाई देश के प्रधानमंत्री थे।

 सन् 1999 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने तख़्तापलट कर नवाज़ शरीफ़ को बर्ख़ास्त कर दिया।

 शहबाज़ को इसके बाद परिवार के साथ आठ साल तक सऊदी अरब में निर्वासन की ज़िन्दगी बितानी पड़ी। बाद में वह सन् 2007 में पाकिस्तान लौटे।

 शहबाज़ सन् 2008 में दूसरी और सन् 2013 में तीसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने।

 सन् 2017 में पनामा पेपर्स लीक में नाम आने के बाद नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया। उनकी पार्टी पीएमएल (एन) ने शहबाज़ को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

 सन् 2018 के चुनाव के बाद शहबाज़ नेशनल असेंबली में विपक्ष के नेता बने।

 सितंबर, 2020 में शहबाज़ को पाकिस्तान की भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो ने धनशोधन और आय के स्रोत से अधिक आमदनी के आरोप में गिर$फ्तार कर लिया। तब इमरान ख़ान की सरकार सत्ता में थी। शहबाज़ ने आरोपों से इन्कार किया। हालाँकि उन्हें कई महीने जेल में रहना पड़ा। इसके बाद वह जमानत पर जेल से बाहर आये।

 शहबाज़ अभी भी ब्रिटेन में पाकिस्तान की संघीय जाँच एजेंसी (एफआईए) की तरफ़ से उनके ख़िलाफ़ 14 अरब पाकिस्तानी रुपये के धन शोधन के मामले का सामना कर रहे हैं और इसमें भी वह जमानत पर हैं।

 शहबाज़ को 11 अप्रैल को साझे विपक्ष ने अपने नेता चुना और 12 अप्रैल को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। पाकिस्तान में भुट्टो परिवार (ज़ेड.ए. भुट्टो-बेनज़ीर भुट्टो) के बाद वे दूसरे नेता हैं, जो एक ही परिवार में प्रधानमंत्री बने।

 

“मियाँ मुहम्मद शहबाज़ शरीफ़ को उनके पद सँभालने पर बधाई। भारत क्षेत्र में शान्ति और स्थिरता के साथ-साथ आतंकवाद-मुक्त माहौल चाहता है, ताकि हम अपने सामने विकास से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर सकें और अपने लोगों की समृद्धि और बेहतरी सुनिश्चित कर सकें।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री, भारत

 

“आइए, हम लोग कश्मीर मुद्दे का हल खोजें और अवाम को ग़ुर्बत, बेरोज़गारी से बाहर निकालें। बदक़िस्मती है कि भारत के साथ हमारे रिश्ते अच्छे नहीं बन सके। नवाज़ शरीफ़ ने भारत के साथ रिश्ते सुधारे थे। नवाज़ शरीफ़ ने कश्मीर के लिए असेंबली में आवाज़ उठायी थी।’’

                          शहबाज़ शरीफ़

पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री

 

शहबाज़ का परिवार

शहबाज़ ने पाँच शादियाँ कीं। उनकी दो पत्नियाँ- नुसरत और तहमीना दुर्रानी उनके साथ रहती हैं, जबकि तीन- आलिया हनी, नीलोफ़र खोसा और कुलसुम से उनका तलाक़ हो चुका है। नुसरत से उनके दो बेटे और तीन बेटियाँ हैं और आलिया से एक बेटी है। शहबाज़ के बड़े बेटे हमज़ा शहबाज़ पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। हमज़ा पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) गठबंधन के उम्मीदवार परवेज़ इलाही के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री पद का चुनाव भी लड़ रहे हैं। उनका छोटा बेटा सुलेमान शहबाज़ परिवार का कारोबार देखता है। हालाँकि वह धनशोधन और आय के स्रोत से अधिक आमदनी मामले में देश से भागकर ब्रिटेन में रहता है। शहबाज़ के पिता मुहम्मद शरीफ़ उद्योगपति थे, जो कारोबार के लिए कश्मीर के अनंतनाग से आये और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में पंजाब के अमृतसर ज़िले के जट्टी उमरा गाँव में बस गये थे।

उनकी माँ का परिवार पुलवामा से आया था। विभाजन के बाद शहबाज़ का परिवार अमृतसर से लाहौर चला गया, जहाँ उन्होंने (लाहौर के बाहरी इलाक़े में रायविंड में स्थित) अपने घर का नाम ‘जट्टी उमरा’ रखा। उन्होंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की। एक दिलचस्प बात यह है कि तीन बार के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को 2017 में जब शीर्ष अदालत ने ब$र्खास्त कर दिया था, तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद के शेष 10 महीने की अवधि के लिए छोटे भाई शहबाज़ के बजाय पार्टी नेता शाहिद खाकान अब्बासी को तरजीह दी थी। एक और बात कही जाती है कि हाल में जब इमरान ख़ान की सत्ता जाने वाली थी, नवाज़ शरीफ़ उन्हें नहीं अपनी बेटी मरियम को प्रधानमंत्री बनाने के हक़ में थे। लेकिन चूँकि मरियम एवेनफील्ड भ्रष्टाचार मामले में दोषी ठहरायी गयी हैं, नवाज़ को मजबूरी में शहबाज़ को आगे करना पड़ा। कुछ समय पहले शहबाज़ ने दावा किया था कि तत्कालीन जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की पेशकश इस शर्त पर की थी कि वह अपने बड़े भाई नवाज़ शरीफ़ को छोड़ दें; लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया था।

 

चार ताक़तवर चेहरे 

वैसे तो इमरान की कुर्सी जाने में चार ताक़तवर लोगों की भूमिका रही, जिनमें से एक सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा भी हैं। बाजवा सेवा विस्तार पर चल रहे हैं, जिन्हें इमरान ख़ान ने ही 2019 में सेवानिवृत्त होने के बाद तीन साल की एक्सटेंशन दी थी। बाजवा को और सेवा विस्तार नहीं मिला, इसलिए उन्हें 28 नवंबर, 2022 को रिटायर होना है। निश्चित ही नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के लिए भी वह एक मुश्किल घड़ी होगी।

उनके अलावा निश्चित ही शहबाज़ शरीफ़ ने बड़ी भूमिका निभायी। शहबाज़ लगातार लंदन में बैठे अपने भाई नवाज़ शरीफ़ से राय लेते रहे। चाचा शहबाज़ के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलीं नवाज़ की बेटी मरियम। नवाज़ की बेटी मरियम नवाज़ पिता का बदला चुकाने सड़क पर उतर आयीं और इमरान की विदाई के आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा बन गयीं। चौथा सबसे महत्त्वपूर्ण चेहरा रहे पीपीपी के नेता और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो ज़रदारी। उनके पिता आसिफ़ अली ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके हैं; जबकि बिलावल पीपीपी के चेयरमैन हैं। बिलावल लगातार इमरान ख़ान को चुनिंदा प्रधानमंत्री बताते रहे। बाजवा को छोड़ दें, तो तीनों ने इमरान ख़ान को चक्रव्यूह में घेर लिया और उन्हें सत्ता से बाहर करके ही दम लिया।