किसी ने सच कहा है कि किसी भी शहर के पुराने हिस्सों में आपको वे इमारतें और वे लोग मिलेंगे जो उस शहर के इतिहास को अपनी आंखों के सामने से सिर्फ गुजरते हुए नहीं देखते बल्कि उसे अपने वजूद में घटता हुआ भी महसूस करते हैं. पुराने भोपाल की एक बेनूर-सी सड़क के किनारे बनी एक इमारत में मध्य प्रदेश के एक ऐसे ही मशहूर लेखक रहते हैं. पद्मश्री से सम्मानित इस लेखक ने मुसलिम समुदाय की मनोदशा पर विभाजन के प्रभाव और आजाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की जिंदगी में हो रहे बदलावों को अपने उपन्यासों में बारीकी से उतारा है. ‘सूखा बरगद’ और ‘बशारत मंजिल’ जैसे पांच प्रसिद्ध उपन्यासों, कई कहानी संग्रहों और नाटकों के लेखक मंजूर एहतेशाम ने प्रियंका दुबे से अपनी रचनाओं के साथ-साथ अपनी जिंदगी और लेखन को गहरे तक प्रभावित करने वाले सभी आयामों पर बात की
जिस दौर में भोपाल में आपका जन्म हुआ था उस वक्त यहां उपन्यास लिखने की कोई मजबूत रवायत नहीं थी. ऐसे में आपका साहित्य से परिचय कैसे हुआ? आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
शुरुआत तो घर में आने वाली उर्दू पत्रिकाओं को पढ़ने से हुई. फिर स्कूल में चार्ल्स डिकेंस की ‘ओलिवर ट्विस्ट’ और ‘डेविड कापरफिल्ड’ से परिचय हुआ. पढ़ने में रुचि तो थी पर साहित्य से मेरा असली परियच मेरे एक दूर के रिश्तेदार नफीस भाई ने कराया. जब मैं छोटा था तब एक दफे वो कराची से भोपाल आए और उन्होंने मुझे दोस्तोवस्की की ‘ब्रदर्स कारमाजोव’ तोहफे में दी. बस वहीं से पढ़ने-लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैंने क्लासिकल के साथ-साथ पॉप्यूलर फिक्शन भी खूब पढ़ा. तभी इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया पर मैं कालेज में भी एक पत्रिका निकालने लगा. फिर मन नहीं लगा तो अंतिम वर्ष में मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और एक दोस्त की दवाइयों की दुकान में बैठने लगा. वहां भी लिखता रहता. फिर मेरे प्रिय दोस्त सत्येन मुझे मिले. उनके जरिए और भी कई लेखकों से मेरा परिचय हुआ. तभी मेरी पहली कहानी ‘रमजान में मौत’ भी प्रकाशित हुई. इस तरह जो लिखने-पढ़ने का सफर शुरू हुआ..वो आज तक जारी है.
आपके सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूखा बरगद’ का प्रोटोगोनिस्ट सोहेल क्या आपका ही प्रतिबिंब है?
जी हां, सोहेल काफी हद तक मेरे ही जैसा है. हालांकि ‘सूखा बरगद’ को लिखते दौरान मैंने खुद को अपने दो प्रमुख पात्रों – रशीदा और सोहेल में बांट दिया था. ये दोनों ही पात्र मेरे जैसे हैं और मेरे दिल के बहुत करीब हैं.
आपके ज्यादातर उपन्यासों और कहानियों के मुख्य पात्र किसी बड़ी सियासी घटना और उसके नतीजों का हिस्सा बन कर रह जाते हैं. आपके पात्र बड़े राजनीतिक परिवर्तनों का आम जिंदगी पर पड़े असर को लगातार सहते हैं. क्या आपको लगता है कि इंसान की जिंदगी उसके देश या शहर में हो रहे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से पूरी तरह बदल जाती है?
हां, वाकई चीजें बिलकुल बदल जाती हैं. जिस वक्त मैं ‘सूखा बरगद’ लिख रहा था उस वक्त मुझे लगा कि बदलते राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में सोहेल का कायांतरण होना ही चाहिए. इसके सिवा कोई विकल्प नहीं था. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि राजनीतिक पतन शायद हमें ऐसा करने पर मजबूर करता है. पर हां, सुहेल के चरित्र में आया परिवर्तन अंतिम नहीं था. वो शायद सिर्फ एक भटकाव था.
‘सूखा बरगद’ की रचना के पीछे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया जाना भी एक प्रेरणा रही है. आखिर भुट्टो की मौत में ऐसा क्या था जिसने आपको भीतर तक झकझोर दिया?
मेरी नजर में जुल्फिकार अली भुट्टो एक सोशलिस्ट थे और उन्हें मैंने हमेशा एक नायक की तरह देखा. पाकिस्तानी तानाशाहों से मैं हमेशा नफरत करता रहा पर भुट्टो की मौत ने सारी सीमाएं तोड़ दीं. पहली बार मैं निजी तौर पर इस व्यावहारिक निर्णय पर पहुंचा कि मजहब के नाम पर बने एक देश में इंसान की जिंदगी का यही दर्दनाक अंत है. मुझे लगा कि पाकिस्तान में इंसानों का भविष्य यही है. इसलिए ‘सूखा बरगद’ की पात्र रशीदा अंत तक पकिस्तान नहीं जाती बल्कि अपने लोगों के बीच हिंदुस्तान में रहना चाहती है.
आप शुरुआत से ही अंग्रेजी लेखकों से काफी प्रभावित रहे हैं, फिर आपने हिंदी भाषा को ही अपने लेखन के माध्यम के तौर पर क्यों चुना? आज आप हिंदी लेखन के सामने किन बड़ी चुनौतियों को देखते हैं?
मैं हमेशा आम आदमी की भाषा में लिखकर ‘मास’ तक पहुंचना चाहता था, इसीलिए मैंने हिंदी को चुना. जहां तक हिंदी लेखन की चुनौतियों की बात है तो पैसे के हिसाब से आज भी हिंदी के लेखक के पास कुछ नहीं है. इसके पीछे मुख्य वजह प्रकाशक की बेईमानी है. आज भी हिंदी के लेखकों को रायल्टी नहीं मिलती और न ही उनकी किताबें पाठकों तक पहुंच पाती हैं.
आपके उपन्यासों में भोपाल हमेशा एक पात्र के तौर पर मौजूद रहा है. ऐसे में पिछले कई सालों में भोपाल में हुए बदलावों को आप कैसे देखते हैं?
भोपाल का विकास तो हुआ पर वो विकास कई मायनों में नकारात्मक भी रहा. पुरानी विरासत को तोड़कर नयी इमारतें बनाना कहीं से भी विकास नहीं. विरासत को सहेजना भी ज़रूरी है. इन मायनों में आज इस शहर को लेकर मेरे अंदर एक गहरा ‘सेंस ऑफ लॉस’ है.
आपके प्रिय लेखक कौन हैं ? जब आपने लिखना शुरू किया था, तब से आज के हिंदी लेखन परिदृश्य में आप क्या प्रमुख बदलाव महसूस करते हैं?
समकालीन लेखकों में मुझे ओरहान पामुक, कोएत्जे और अरुंधती राय खासा पसंद हैं. हिंदी में कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा मुझे बहुत भाते हैं. आज हिंदी लेखन में भाषा के स्तर पर सतर्कता बढ़ी है. किताबों का उत्पादन भी बेहतर हो गया है. पहचान भी धीरे-धीरे मिलने लगी है पर हां, आज भी हिंदी के लेखक को ठीक से पैसे नहीं मिलते. इस मामले में अभी हमें काफी लंबा सफर तय करना है.