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अकाल कभी अकेले नहीं आता…

देश के अनेक हिस्सों में भूजल का स्तर भारतीय राजनीति के स्तर से भी बहुत नीचे गिर चुका है

बादल गरजे पर कई जगह खेतों में बरसे नहीं. हमारे खेती मंत्री भी गरजे लेकिन बिल्कुल नहीं बरसे. उनका गरजना मंत्रिमंडल में अपने घटते असर को लेकर था. केंद्र की सत्ता में उनका दल एक बटाईदार की हैसियत से शामिल है. इस हैसियत में कुछ कमी आते देख वे गरजे थे. उन्हें लगता है कि अनाज की फसल से ज्यादा अपने वोटों की फसल का ध्यान रखना होगा. उसके ठीक होने के संकेत मिलते ही उनके बरसने की गुंजाइश खत्म हो गई. 

लेकिन देश के खेतों में बादलों का गरजना और बरसना दोनों जरूरी हैं. लेकिन इस बार ऐसा हो नहीं सका है. समय तेजी से बीत रहा है. मौसम विभाग ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए गुणा-भाग करके अखबारों और पीएमओ को बता दिया है कि इस बार पूरे देश के स्तर पर कम से कम 20 प्रतिशत और कई जगह 60 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है. कुल मिलाकर चित्र बहुत दर्दनाक है. 

इधर भाखड़ा भी चीं बोल गया है. इस बड़े बांध में जमा पानी अब इतना कम बचा है कि भाखड़ा ब्यास प्रबंध बोर्ड ने बांध से होने वाली सिंचाई में फिलहाल 10 प्रतिशत की कटौती कर दी है. इसका सीधा असर पंजाब और हरियाणा के किसानों पर पड़ेगा. खरीफ की बुवाई और फिर बोई गई फसल की सिंचाई – दोनों पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसे अभी समझने में मंत्रालयों की फाइलों को और देर लग सकती है. 

भाखड़ा के अलावा देश के कोई 80 बड़े बांधों की हालत भी ऐसी ही है. इनको देखने वाले प्रबंध बोर्डों ने बताया है कि इनमें बरसात के मौसम में जितना पानी आता है उसमें 80 फीसदी तक की कमी दर्ज हो चुकी है. इस तरह पंजाब और हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात भी अकाल की चपेट में कभी भी आ सकते हैं. अकाल की पदचाप सुनाई दे रही है, लेकिन कहीं जातीय हिंसा तो कहीं आंदोलनों की आवाजों में इसकी तरफ भला कैसे ध्यान जाएगा?

अकाल कोई पहली बार नहीं आ रहा है. हमारे यहां एक पुरानी कहावत है – ‘आग लगने पर कुंआ खोदना.’ कई बार आग लगी और कई बार कुएं खोदे गए होंगे तब जाकर अनुभवों की मथानी से मथकर ऐसी कहावतें मक्खन की तरह ऊपर आई होंगी. लेकिन अब जब हम आग लगने पर कुआं खोदते हैं तो उन कुंओं में पानी मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है. देश के अनेक हिस्सों में भूजल का स्तर देश की राजनीति के स्तर से भी बहुत नीचे गिर चुका है. हमारे योजनाकारों को इस बात का बहुत भरोसा था कि बड़े बांध अकाल से निपटने का सबसे कारगर तरीका हैं. कई बार हमने इस घमंडी बयान को सुना है कि किसानों को हम मानसून के भरोसे नहीं छोड़ सकते, हमारे बांधों में इतना पानी होगा कि उनसे अकाल से भी निपटा जा सकता है और बाढ़ से भी. लेकिन इतने सालों का अनुभव बताता है कि जब खेतों को पानी चाहिए तब इन बांधों में पानी नहीं रहता  और जब तेज बरसात होती है तब इन बांधों को बचाने के लिए इनके सारे दरवाजे खोल देने पड़ते हैं. आंकड़े बताते हैं कि सब आधुनिक उपायों के बाद भी हमारे कई बड़े शहर और अनगिनत गांव बांधों से अचानक पानी छोड़े जाने के कारण देखते-देखते डूब जाते हैं. 

इससे पहले चलन यह था कि लोग बिना सरकार की तरफ देखे अपने गांव और शहरों में जहां ठीक जगह मिलती थी, वहां छोटे-बड़े तालाब बना लिया करते थे. अच्छी वर्षा हो तो इनमें खूब पानी भर जाता जो उन्हें अगले मानसून तक ले जाता था. इस दौरान भूजल स्तर भी उन छोटे-बड़े तालाबों से इतना ऊंचा उठ जाता था कि जरूरत पड़ने पर यदि वे कहावत का कुआं खोदें तो उसमें पानी भी मिल जाए. 

सिर्फ हमारे यहां ही नहीं, दुनिया भर के कई देशों में विकास की नई योजनाओं ने समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीकों को ताक पर रख कर नई-नई योजनाओं को अपनाया है. नतीजे चारों तरफ एक से दिख रहे हैं. रूस जैसे संपन्न देश में बाढ़ आई और दो सौ लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं. पड़ोसी देश चीन में भी ऐसा ही हो रहा है. असम में, बंगाल में पहले पानी न गिरने की शिकायत थी और  अब पानी गिरते ही ऐसी बाढ़ आई है कि आदमी तो आदमी काजीरंगा के जानवर भी बह गए. वहां परिस्थिति अभी भी उतनी ही खराब है लेकिन पहले छेड़छाड़ और फिर हिंसा की दुखद घटनाओं ने बाढ़ की खबरों को बहा दिया है. 

कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं और इन्हीं में से एक बात है कि अकाल कभी भी अकेले नहीं आता. उससे बहुत पहले विचारों का अकाल पड़ने लगता है. अच्छे विचारों का मतलब है– अच्छी योजनाएं और अच्छे काम. ऐसी अच्छी योजनाओं का अकाल पड़ने लगता है और बुरे कामों की भी बाढ़-सी आ जाती है. देश को स्वर्ग बना देने की तमन्ना में तमाम नेताओं ने स्पेशल इकोनॉमिक जोन, सिंगूर, नंदीग्राम और न जाने इतनी बड़ी-बड़ी योजनाओं का पूरा ध्यान रखा.बीच में यह भी सुना गया था कि इतने सारे लोगों को खेती नहीं करनी चाहिए. एक जिम्मेदार नेता ने यह भी कहा था कि भारत को कब तक गांवों का देश कहते रहेंगे.

गांव में रहने वाले लोग शहरों में आकर रहने लगें तो हम उन्हें आसानी से बेहतर चिकित्सा, बेहतर शिक्षा और एक बेहतर जीवन की तमाम सुविधाएं दे सकेंगे. इन्हें लगता होगा कि शहरों में रहने वाले सभी लोगों को ये सभी सुविधाएं मिल ही चुकी हैं. इसका उत्तर तो शहर वाले ही दे सकेंगे.  इसलिए अच्छा तो यह हो कि बादल फिर से गरजें और खूब बरसें. लेकिन यदि दुर्भाग्य से ऐसा न हो पाए, अकाल आने लगे तो हम सब एक बार इस बात को याद रखें कि अकाल अकेले नहीं आता. अगली बार हम इसकी पूरी तैयारी करें. 

कहीं तकरार, कहीं बंटाढार

झारखंड का नगड़ी नाम का एक छोटा-सा कस्बा इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है. वजह है वहां इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, लॉ यूनिवर्सिटी, ट्रिपल आईटी जैसे संस्थान बनाने के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन पर विवाद.  इसे लेकर पुलिस-प्रशासन और स्थानीय ग्रामीणों के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. किसानों का कहना है कि वे अपनी जमीन पर कब्जा नहीं छोड़ेंगे. सरकार का रुख इसके उलट है. इस टकराव का नतीजा क्या होगा, अभी पक्के तौर पर कहना मुश्किल है. लेकिन यह जरूर पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि जो सक्रियता राज्य सरकार ये संस्थान खोलने के लिए दिखा रही है वह अगर उसने राज्य के दूसरे विश्वविद्यालयों के लिए दिखाई होती तो राज्य में उच्च शिक्षा का काफी भला हो जाता. झारखंड के अधिकांश बच्चों का भविष्य राज्य सरकार द्वारा संचालित पांच विश्वविद्यालयों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है लेकिन सरकारी अनदेखी के चलते इनका बुरा हाल है.  

झारखंड में पांच विश्वविद्यालय हैं-रांची विश्वविद्यालय(रांची), विनोबा भावे विश्वविद्यालय (हजारीबाग), कोल्हान विश्वविद्यालय (चाईबासा), नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय (डालटनगंज) और सिद्धो-कान्हो विश्वविद्यालय (दुमका). इन पांचों विश्वविद्यालयों से कुल 65 कॉलेज जुड़े हुए हैं. करीब तीन लाख से ज्यादा छात्र इनके भरोसे हैं. अब इनमें हजारीबाग स्थित विनोबा भावे विश्वविद्यालय को छोड़ दें तो बाकी विश्वविद्यालय वर्षों से एक अदद कैंपस तक के लिए तरस रहे हैं. सबसे पहले रांची विश्वविद्यालय की बात करते हैं. 50 साल पहले खुला यह झारखंड का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है. इसके अंतर्गत 15 सरकारी कॉलेज संचालित होते हैं. सरकार ने इस विश्वविद्यालय के लिए 162.5 एकड़ जमीन दी थी. लेकिन आज इसके पास सिर्फ 67 एकड़ जमीन बची है. विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति डॉ. बीपी शरण कहते हैं, ‘सरकारों के निरंतर उदासीन रवैये के कारण विश्वविद्यालय की जमीन हाथ से निकलती गई. सरकार ने रांची से सटे पिठौरिया में जमीन देने का आश्वासन दिया था, लेकिन उस जमीन का अभी तक अधिग्रहण नहीं हो पाया है. इस कारण विश्वविद्यालय का विस्तार भी नहीं हो पा रहा है.’ 

रामलखन सिंह जैसे कॉलेज सिर्फ चार-चार कमरों में चल रहे हैं जबकि विद्यार्थी आठ-आठ हजार हैं. ऐसे में क्या पढ़ाई होती होगी, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं

रांची विश्वविद्यालय की जमीन को समय-समय पर सरकार ही लेती रही. कभी पार्क (सिद्धो-कान्हो पार्क), कभी हेलीपैड, कभी मंत्री आवास तो कभी स्टेडियम के नाम पर. विश्वविद्यालय के एक अधिकारी कहते हैं, ‘सरकार के साथ अपने संबंध बेहतर रखने के लिए कुलपतियों ने ही कैंपस की जमीन  दिल खोलकर लुटाई. नतीजा यह है कि आज राज्य के एक उपमुख्यमंत्री जिस आवास में रहते हैं वह कायदे से वीसी का आवास होना चाहिए था. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को जो आवास आवंटित हुआ था वह भी विश्वविद्यालय की ही जमीन पर है.’ इस मुद्दे की पड़ताल करने पर तहलका को पता चला कि दो साल पहले राज्य में हुए राष्ट्रीय खेलों के लिए बना बिरसा मुंडा स्टेडियम भी रांची विश्वविद्यालय की जमीन पर खड़ा है. इस खास स्टेडियम के निर्माण में विश्वविद्यालय ने नौ लाख रुपये का सहयोग भी किया था. उस समय तय हुआ था कि जमीन और पैसे के एवज में विश्वविद्यालय को हर साल 100 दिन के लिए स्टेडियम इस्तेमाल करने की छूट रहेगी.

लेकिन अब विश्वविद्यालय से रोज के हिसाब से 20 हजार रुपये शुल्क मांगा जाता है. बिजली के 15 हजार अलग से. यकीन करना मुश्किल है कि अपनी नाक के नीचे चल रहे विश्वविद्यालय में हो रही गड़बड़ियों की जानकारी सरकार को नहीं होगी. लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी प्राथमिकताओं में नगड़ी में ट्रिपल आईटी, आईआईएम और लॉ यूनिवर्सिटी का मुद्दा इससे ऊपर है. रांची विश्वविद्यालय के एसएस मेमोरियल कॉलेज, रामलखन सिंह जैसे कॉलेज सिर्फ चार-चार कमरों में चल रहे हैं जबकि यहां विद्यार्थियों की संख्या आठ-आठ हजार तक है. विद्यार्थी कहां बैठते होंगे, पढ़ाई क्या होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. 

झारखंड का ही एक दूसरा अहम हिस्सा संथाल परगना है. इसी इलाके में पड़ने वाले दुमका में 1992 में सिद्धो-कान्हू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी. उन दिनों यह एकीकृत बिहार का हिस्सा हुआ करता था. झारखंड के सबसे कद्दावर नेता शिबू सोरेन और बाबूलाल मरांडी संथाल परगना से ही खाद-पानी लेकर राजनीति करते हैं और इसके बूते मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुके हैं. लेकिन यहां के विश्वविद्यालय की हालत जर्जर है. अपनी शुरुआत से ही यह अपने कैंपस के लिए तरस रहा है. सिद्धो-कान्हू विश्वविद्यालय के अंतर्गत 13 सरकारी कॉलेज संचालित होते हैं. कुलपति बशीर अहमद खान कहते हैं कि बजट के अभाव में विश्वविद्यालय का विस्तार नहीं हो पा रहा. इतने साल बाद भी विश्वविद्यालय संथाल परगना कॉलेज में ही चल रहा है. 12-13 कमरों में विश्वविद्यालय की पूरी दुनिया सिमटी हुई है. एक कमरे में एक विभाग का निपटारा हो जाता है. इसी विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने-वाले गोड्डा कॉलेज और साहेबगंज कॉलेज में जनजातीय विषयों की पढ़ाई के लिए विभाग तो खोला गया है मगर इस विभाग में आज तक किसी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है. 

झारखंड का एक और महत्वपूर्ण इलाका कोल्हान है. इसके दायरे में स्टील नगरी जमशेदपुर, सारंडा आदि इलाके आते हैं.

इसी इलाके से वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी आते हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा भी इसी इलाके से ताल्लुक रखते हैं. यहां चाईबासा में स्थित कोल्हान विश्वविद्यालय की दशा भी दयनीय है. कुलपति सलिल राय का मानना है कि समय के साथ जरूरतें भी बदलनी होंगी. बकौल सलिल राय, ‘वैसे तो किसी भी विश्वविद्यालय के लिए 100 से 150 एकड़ जमीन की जरूरत होती है. लेकिन आज की तारीख में यह संभव नहीं लग रहा इसलिए विकल्प सोचना होगा. हमने इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 75 एकड़ भूमि की मांग की है.’ फिलहाल यह विश्वविद्यालय टाटा कॉलेज, चाईबासा कैंपस में चल रहा है. अब विश्वविद्यालय इसी कॉलेज के कैंपस में प्रशासनिक भवन खोलने की तैयारी में है. कोल्हान विश्वविद्यालय से 14 कॉलेज जुड़े हुए हैं. करीब 64,000 विद्यार्थी इनमें नामांकित हैं.

वोकेशनल कॉलेजों को जोड़ दें तो इस आंकड़े में लगभग 8,500 छात्रों की बढ़ोतरी हो जाएगी. लेकिन 18 विभागों वाला यह विश्वविद्यालय सिर्फ चार डीनों से काम चला रहा है. स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यहां हर साल 92 परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं और शिक्षकों की संख्या सिर्फ 425 है. 250 पद अब भी खाली हैं. अब जरा इससे हो रहे नुकसान पर नजर डालिए. विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी टाटा कॉलेज के पुस्तकालय और प्रयोगशाला से काम चलाते हैं. इसी विश्वविद्यालय की प्रति कुलपति लक्ष्मीश्री बनर्जी को कुछ ही दिनों पहले वित्तीय अनियमितताओं सहित कई अन्य आरोपों के चलते पद से हटाया जा चुका है.

और इन सबके बाद यदि भूखे-सूखे को नियति बनाये गये पलामू की ओर रुख करें तो वहां जिस तरह वर्षों से सूखा-अकाल दूर करने के नाम पर थोथी लोकप्रियता की राजनीति साधी जाती रही है, कुछ वैसा ही हाल विश्वविद्यालय को लेकर है. यहां विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे भी लोकप्रिय राजनीति ही थी. करीब तीन साल पहले जनवरी 2009 में शुरू हुए नीलांबर-पितांबर विश्वविद्यालय में छात्र तो भरपूर हैं. पलामू के तीन जिलों पलामू, लातेहार और गढ़वा के चार सरकारी काॅलेज इसी विश्वविद्यालय से संचालित होते हैं और करीब 50 हजार से अधिक विद्यार्थियों का भविष्य इसी विश्वविद्यालय की दशा-दिशा से तय होना है. लेकिन खुद विश्वविद्यालय की हालत यह है कि वह अब तक एक अदद प्रशासनिक भवन के लिए तरस रहा है, कैंपस वगैरह तो बहुत दूर की बात है. इस पिछड़े और नक्सल प्रभावित इलाके के विश्वविद्यालय व कॉलेजों में शिक्षकों, लाइब्रेरी, लेबोरेटरी सबका घोर अभाव है. जाहिरे-सी बात है कि ऐसे में आईआईएम, ट्रिपल आईटी या दूसरे व्यावसायिक संस्थानों के लिए सरकार की इतनी तत्परता लोगों को आसानी से हजम नहीं हो रही.

मेहरबानी की मार

कहानी दिसंबर, 2010 से शुरू होती है. उत्तर प्रदेश में तब भी भारी बिजली संकट था. उन्हीं दिनों तत्कालीन बसपा सरकार ने 24 दिन में ही समस्या को दूर करने का एक उपाय खोज निकाला और निजी क्षेत्र की नौ बिजली कंपनियों के साथ बिजली घर लगाने के सहमति पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए. ये करार 10 दिसंबर, 2010 से चार जनवरी, 2011 के बीच हुए. तय हुआ कि 18 महीने में बिजली घरों का काम शुरू हो जाएगा. शर्त यह भी थी कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो बिजली कंपनियों की धरोहर राशि जब्त कर ली जाएगी.  बसपा सरकार ने जो करार किया था उसके हिसाब से 18 महीने की मियाद जून, 2012 में पूरी हो गई, लेकिन एक भी कंपनी का काम शुरू नहीं हुआ. इस दौरान मार्च, 2012 में प्रदेश का निजाम भी बदल गया और बसपा के बदले समाजवादी पार्टी की सरकार आ गई. पर सपा सरकार ने एमओयू के हिसाब से करार निरस्त करके कंपनियों की करोड़ों की धरोहर राशि जब्त नहीं की. इसकी बजाय दरियादिली दिखाते हुए उसने उन्हीं कंपनियों को फिर से 18 महीने की मोहलत और दे दी.

अब सवाल कई हैं. बसपा की सरकार मई, 2007 में बन गई थी. उस समय भी उत्तर प्रदेश में बिजली का भारी संकट था. तो फिर 2007 से लेकर नवंबर, 2010 तक कोई करार क्यों नहीं किया गया? आखिर आनन-फानन में 24 दिन में ही नौ कंपनियों से 10,340 मेगावाट बिजली बनाने का करार क्यों? और जब बिजली कंपनियों ने 18 महीने तक कोई काम नहीं किया तो सपा सरकार ने यह करार रद्द क्यों नहीं किया? सवाल यह भी है कि जब सपा सरकार ने पूर्ववर्ती बसपा सरकार के कई बड़े फैसले निरस्त किए हैं तो निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों पर इतनी मेहरबानी क्यों. इन सब सवालों के जवाब में आॅल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के सेक्रेटरी जनरल शैलेंद्र दुबे कहते हैं, ‘सपा हो चाहे बसपा, सभी ने निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों को फायदा देने के लिए ऐसा किया. कंपनियों पर दरियादिली दिखाने में सपा सरकार पूर्ववर्ती बसपा सरकार से भी दो कदम आगे निकल गई है.’  

अगर पूरे करार पर गौर से नजर डाली जाए तो तथ्य दुबे की बात की पुष्टि करते लगते हैं. पहले बसपा सरकार के करार पर नजर डालते हैं जो आनन-फानन में किया गया. हुआ यह था कि केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग ने एक अध्ययन के बाद पाया कि एमओयू के माध्यम से बनने वाले बिजली घरों की बिजली प्रतिस्पर्धात्मक रूप से बनने वाले बिजलीघरों की तुलना में काफी महंगी पड़ रही है. लिहाजा केंद्र सरकार ने पांच जनवरी, 2011 को सभी राज्यों के लिए नियम बना दिए कि अब एमओयू के माध्यम से बिजली घर नहीं लगाए जा सकते. दुबे कहते हैं, ‘बसपा सरकार को जब इस बात की भनक लगी कि केंद्र सरकार नए नियम बनाने जा रही है तो आनन-फानन में उसने 24 दिन के भीतर 10,340 मेगावाट बिजली बनाने का करार निजी क्षेत्र के बिजली घरों से कर लिया. करार में कंपनियों से जमानत राशि पांच लाख रुपये प्रति मेगावाट की दर से जमा करवाई गई. इस तरह कंपनियों की ओर से सरकार के पास करीब साढ़े पांच अरब रुपये जमानत राशि के रूप में जमा हुए. बसपा सरकार ने करार के तहत कंपनियों को 18 महीने का समय काम शुरू करने के लिए दिया था. करार में लिखा था कि यदि कंपनियां 18 महीने में काम नहीं शुरू करती हैं तो उनकी जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी.’ 

जून, 2012 में 18 महीने की मियाद पूरी हो गई, लेकिन तब तक किसी भी कंपनी ने काम शुरू नहीं किया था. इसके बावजूद सपा सरकार ने लगभग साढ़े पांच अरब की जमानत राशि जब्त करने के बजाय कंपनियों को 18 महीने की मोहलत और दे दी. दुबे कहते हैं, ‘केंद्र सरकार के पांच जनवरी, 2011 के नियम के अनुसार एमओयू के माध्यम से बिजली घर लगाए ही नहीं जा सकते. तो सपा सरकार ने समय से काम शुरू न करने वाली बिजली कंपनियों की अरबों की जमानत राशि जब्त करने के बजाय 18 महीने की मोहलत और कैसे दे दी? उधर इस दौरान मशीनरी और प्लांट की लागत 10-15 प्रतिशत तक बढ़ गई है. सरकार ने 18 महीने का समय और दे दिया है लिहाजा बिजली घर लगने तक यह लागत 2010 के मुकाबले 20 से 30 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी.’ दुबे कहते हैं कि इसका असर बिजली की लागत पर दिखेगा और प्रभाव आम जनता पर पड़ेगा. सपा सरकार की दरियादिली यहीं तक सीमित नहीं है. तीन जुलाई को विधानसभा सत्र के अंतिम दिन सरकार ने एक अध्यादेश पारित करा लिया जिसके तहत कंपनियों को विदेशी कोयला आयात करने की छूट भी दे दी गई. विदेशी कोयले को आयात करने के पीछे सपा सरकार ने तर्क दिया कि केंद्र सरकार समय पर बिजली घरों को कोयला उपलब्ध नहीं करवा पा रही है. 

  • डेढ़ साल पहले सरकार ने नौ बिजली कंपनियों के साथ समझौता किया
  • तय हुआ कि 18 महीने में नए बिजली घरों का काम शुरू हो जाएगा
  • 18 महीने की मियाद जून, 2012 में पूरी हो गई लेकिन काम शुरू नहीं हुआ
  • इस बीच सरकार बदल गई, उसने मियाद 18 महीने और बढ़ा दी
  • इस दौरान बिजली घर निर्माण लागत में 25-30 फीसदी बढ़ोतरी होने का अनुमान है जिसका बोझ आखिर में आम आदमी पर ही पड़ना है
  • सहमति पत्र वाले तरीके के बजाय प्रतिस्पर्धात्मक तरीका अपनाया जाता तो बिजली सस्ती पड़ती 
  • नौ में से चार बिजली कंपनियों के पास तो बिजली घर लगाने का कोई अनुभव नहीं है

सपा सरकार की बिजली कंपनियों पर इस मेहरबानी का खमियाजा आम जनता को कैसे भुगतना पड़ेगा अब जरा इस पर भी गौर करें. देशी कोयले की कीमत करीब तीन हजार रुपये प्रति टन है. एक यूनिट बिजली बनने में करीब आठ सौ ग्राम कोयला खर्च होता है. इस लिहाज से भारतीय कोयले से एक यूनिट बिजली बनाने में करीब ढाई रुपये का खर्च आता है. आयातित कोयले की कीमत करीब आठ हजार रुपये प्रति टन है. लिहाजा आयातित कोयले से एक यूनिट बिजली बनाने में करीब साढ़े छह रुपये का खर्च आएगा. आयातित कोयले की ढुलाई में भी अच्छा खासा कंपनियों को खर्च करना पड़ेगा क्योंकि चेन्नई हो चाहे मुंबई सभी बंदरगाह उत्तर प्रदेश से 1,500 से 2,000 किलोमीटर की दूरी पर हैं. जबकि भारतीय कोयला पड़ोसी राज्य बिहार या झारखंड से ही मंगाया जाता है जिस पर ढुलाई का खर्च भी कम आता है. इस हिसाब से सरकार को आयातित कोयले से बनने वाली बिजली देशी कोयले से बनने वाली बिजली से करीब तीन गुना अधिक महंगी पड़ेगी. आखिरकार इसका सीधा असर आम जनता की जेब पर ही पड़ेगा.

निजी क्षेत्र से लगने वाले बिजली घरों की बिजली आखिर और कैसे महंगी होती है जो सीधे आम जनता को प्रभावित करती है? उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद अभियंता संघ के महासचिव ओम प्रकाश पांडे बताते हैं, ‘एमओयू के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों के जमीन अधिग्रहण में सिर्फ सरकार को मदद करना होता है. बाकी कोयला, पानी व पर्यावरण का क्लीयरेंस कंपनी को खुद लेना होता है. आम तौर पर बिजली घर लगाने के लिए कंपनियों को अतिरिक्त खर्च नहीं करना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.’ पांडे आगे बताते हैं कि कंपनी लगाने के नाम पर नीचे से ऊपर तक रुपये की जो बंदरबांट होती है वह करोड़ों में पहुंच जाती है जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं होता.

देशी कोयले के मुकाबले आयातित कोयले से बनने वाली बिजली करीब तीन गुना अधिक महंगी पड़ेगी. इसका बोझ आखिरकार आम जनता को ही उठाना है

लिहाजा कंपनी लगने के बाद मालिकान सब जोड़ कर कंपनी लगाने का खर्च सरकार के पास पेश करते हैं जिसके हिसाब से बिजली का रेट तय होता है. कंपनी लगाने में जो लागत आएगी वह तथा 16 प्रतिशत रिटर्न आॅन कैपिटल इनवेस्टमेंट यानी निवेश पर मिलने वाले फायदे के आधार पर बिजली का रेट निर्धारित होता है. जानकार बताते हैं कि एमओयू के माध्यम से बिजली घर लगाने में सरकार बिजली की दर का निर्धारण नहीं कर सकती, ऐसे में बिजली की दर क्या हो, यह फैसला पूरी तरह से कंपनियों पर ही टिका होता है. उधर, प्रतिस्पर्धात्मक रूप से लगने वाले बिजली घरों में कंपनियों से अगले 25 साल तक की दरें मांगी जाती हैं. जिसकी दरें सबसे कम होती हैं, उसे ही काम करने का मौका दिया जाता है. 25 साल की दर इसलिए मांगी जाती है कि एक बिजली घर की उम्र 25 साल मानी गई है. इतना ही नहीं, प्रतिस्पर्धात्मक रूप से लगने वाले बिजली घरों के लिए पानी, कोयला, पर्यावरण क्लीयरेंस आदि सब कुछ सरकार को करके देना होता है. इस कारण कंपनी लगाने में भी काफी सहूलियत रहती है और बिजली का उत्पादन भी समय से होने लगता है. 

एमओयू के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों का इतिहास टटोलने पर उम्मीदें कम ही जगती हैं. उदाहरण के लिए दादरी गैस परियोजना को ही लिया जाए. जून, 2005 में सपा सरकार ने ही दिल्ली के निकट दादरी में किसानों की बेशकीमती 2,500 एकड़ जमीन अंबानी समूह को कुल 7,400 मेगावाट का बिजली घर लगाने के लिए दी थी. योजना के प्रथम चरण में दादरी में 3,740 मेगावाट तथा दूसरे चरण में 3,660 मेगावाट का प्लांट लगना था. लेकिन अंबानी बंधुओं की आपसी लड़ाई के कारण प्लांट आज तक नहीं लग पाया. अनिल अंबानी के उक्त प्लांट को शुरू करने के लिए गैस चाहिए. केजी गैस बेसिन की लीज केंद्र सरकार ने मुकेश अंबानी को दी है. दोनों भाइयों की आपसी लड़ाई के कारण प्लांट को गैस ही उपलब्ध नहीं हो पा रही है. इसलिए सात साल बाद भी मौके पर काम शुरू नहीं हो सका है. इसके बावजूद किसानों की 2,500 एकड़ उपजाऊ जमीन आज भी दादरी प्रोजेक्ट के नाम पर अनिल अंबानी के स्वामित्व वाली कंपनी के पास ही है. शैलेंद्र दुबे कहते हैं, ‘यदि यही कंपनी प्रतिस्पर्धात्मक रूप से टेंडर आमंत्रित कर लगाई गई होती तो गैस आदि की व्यवस्था करना सरकार के जिम्मे होता और आज तक प्लांट शुरू हो गया होता. गैस का जो विवाद दोनों भाइयों के बीच कायम है सरकार उसका कोई न कोई हल ढूंढ़ कर प्लांट शुरू करने की पहल करती. दादरी प्लांट शुरू होने के बाद बिजली की जो समस्या आज प्रदेश के सामने है वह न होती.’ 

एमओयू के माध्यम से शुरू हो चुके रिलायंस समूह के रोजा बिजली घर का उदाहरण और भी दिलचस्प है. 2005 में इस प्लांट का भी एमओयू हुआ था जो चालू हो गया है. लेकिन समस्या यह है कि इसकी बिजली इतनी महंगी है कि बिजली खरीदने में सरकार की कमर ही टूट जाती है. रोजा बिजली घर से एक यूनिट बिजली की लागत करीब 5.34 रुपये आ रही है. जबकि ओबरा, पनकी, हरदुआगंज और परीक्शा बिजली घरों में एक यूनिट बिजली की लागत दो रुपये प्रति यूनिट ही है. इनमें से अनपरा की बिजली 1.20 रुपये की ही है. रोजा से महंगी बिजली खरीद के कारण उत्तर प्रदेश सरकार पर बिजली का 350 करोड़ रुपये बकाया हो गया है. बकाया भुगतान न होने के कारण चार जुलाई को कंपनी ने रोजा बिजली घर से उत्पादन ही बंद कर दिया. निजी क्षेत्र की कंपनी ने मनमानी करते हुए उस समय अपना उत्पादन बंद किया जिस समय प्रदेश में बिजली के लिए मारामारी थी क्योंकि इस समय गर्मी पूरे चरम पर थी और धान लगाने के लिए किसानों को सिंचाई की भी बहुत जरूरत थी. 

सहमति पत्र वाले रास्ते में सरकार बिजली की दर का निर्धारण नहीं कर सकती. यह फैसला पूरी तरह से बिजली घर लगाने वाली कंपनियों पर ही टिका होता है

बिजली खरीद पर नजर डालें तो केंद्रीय बिजली खरीद का औसत तीन रुपये प्रति यूनिट पड़ रहा है जबकि निजी क्षेत्र से 2011-12 में खरीदी गई बिजली का औसत 4.64 रुपये आया है. जिसमें से रोजा का औसत 5.34 रुपये आ रहा है. रोजा बिजली घर के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जो बात केंद्रीय बिजली नियामक आयोग ने कही है कि ओएमयू के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों की बिजली महंगी पड़ती है, वह सच है. अब तक बात हुई एमओयू के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों पर सरकार की मेहरबानी की. अब अगर उन कंपनियों पर नजर डालें जिन्होंने बिजली घर लगाने के लिए सरकार से करार किया है तो और भी चौंकाने वाली बात सामने आती है. आॅल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के सेक्रेटरी जनरल शैलेंद्र दुबे का आरोप है कि इनमें से चार कंपनियों के पास देश के किसी भी राज्य में बिजली घर लगाने का कोई तजुर्बा नहीं है.

यूनीटेक मशींस लिमिटेड, पारिख एल्यूमिनैक्स, वेल्सपन पावर लिमिटेड और क्रिएटिव थर्मोलाइट प्राइवेट लिमिटेड ने बिजली घर लगाने का काम कभी नहीं किया. दो बिजलीघरों का काम बजाज हिंदुस्तान लिमिटेड के पास है. इस कंपनी ने उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में छोटे प्लांट ही लगाए हैं. बड़े प्लांट का अनुभव इसके पास भी नहीं है. इन कंपनियों में टोरेंट पावर लिमिटेड और लैन्को के पास ही बिजली घर लगाने का अनुभव है. दुबे सवाल करते हैं, ‘जब सरकार और बिजली विभाग के भी बड़े अधिकारियों को ये बात अच्छी तरह मालूम है कि कुछ कंपनियों के पास बिजली घर लगाने का अनुभव एकदम नहीं है तो आखिर उन्हें काम किस लिहाज से दिया गया? अनुभवहीन कंपनियों को काम देना ही सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगाता है.’ बिजली उत्पादन निगम के पूर्व सीएमडी अभय शरण कपूर भी एमओयू के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों पर सवालिया निशान लगाते हैं. कपूर कहते हैं, ‘प्रतिस्पर्धात्मक रूप से टेंडर प्रक्रिया के माध्यम से लगने वाले बिजली घरों की बिजली का रेट वाजिब मिल जाता है जबकि एमओयू में रेट को लेकर कंपनियां पूरी तरह ईमानदारी नहीं बरतती हैं.’ 

उधर, उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम के सीएमडी अवनीश अवस्थी किसी गड़बड़ी से इनकार करते हैं.  वे कहते हैं, ‘जिन कंपनियों से एमओयू हुआ, उन्हें 18 महीने का समय कोल लिंकेज की व्यवस्था करने के लिए दिया गया है. इसके अतिरिक्त कोयला आयात करने की जो बात सरकार ने कही है वह केंद्र सरकार के निर्देश पर हुआ है क्योंकि केंद्र ने ही कहा है कि कोयले की कुछ व्यवस्था सुनिश्चित की जाए.’जनता की जेब पर कम भार डालने के लिए एमओयू के बजाय प्रतिस्पर्धात्मक तरीका क्यों नहीं अपनाया गया, यह पूछने पर अवस्थी ने कहा, ‘सारा काम एमओयू से ही नहीं किया जा रहा. 6,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए टेंडर प्रक्रिया भी अपनाई जा रही है ताकि आम जनता पर महंगी बिजली का बोझ न पड़े.’

कश्मीर प्रिंसेज : चाऊ एन लाई

चीन के राष्ट्र प्रमुख को मारने की साजिश जिसका शिकार एक भारतीय विमान बना.

कश्मीर प्रिंसेज एयर इंडिया का एक चार्टेड एयरक्राफ्ट था जो 1955 में एक बम धमाके में क्रैश हो गया था. यह उस दशक की बात है जब पूरी दुनिया साम्यवादी और गैरसाम्यवादी खेमों में बंट रही थी. और भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू एशिया व अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों को दोनों खेमों की खींचतान से बचाने के लिए इंडोनेशिया के बांडुंग में एक सम्मेलन आयोजित करवा रहे थे. यह सम्मेलन अप्रैल, 1955 में आयोजित होना था.

नेहरू चाहते थे कि इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्र प्रमुख चाऊ एन लाई भी शामिल हों और उन्होंने इसके लिए चाऊ को सहमत भी कर लिया. लेकिन अप्रैल में इस सम्मेलन के शुरू होने के ठीक तीन दिन पहले  एक ऐसी घटना हुई जिसने यह साबित भी कर दिया कि इस सम्मेलन के खिलाफ कुछ देशों में विरोध पनप रहा है.

चाऊ एन लाई को बांडुंग पहुंचाने के लिए भारत से एक विशेष चार्टेड विमान कश्मीर प्रिंसेज हांगकांग भेजा गया था. लेकिन ऐन मौके पर चीन के राष्ट्र प्रमुख ने अपनी योजना बदल दी. यह विमान उनके बिना ही कुछ विदेशी पत्रकारों और भारतीय क्रू के सदस्यों के साथ बांडुंग रवाना हो गया. लेकिन इससे पहले कि कश्मीर प्रिंसेज वहां पहुंचता बीच हवाई मार्ग में ही उसमें एक बम धमाका हुआ और विमान क्रैश हो गया. इसमें सवार तकरीबन बीस लोग मारे गए. 

इस घटना के पीछे तुरंत साजिश की आशंका जताई जाने लगी. चीन की सरकारी एजेंसियों ने दावा किया कि यह चाऊ एन लाई को मारने की साजिश थी और इसके पीछे पश्चिमी देश हैं. इंडोनेशिया की जांच एजेंसियों ने इस मामले की जांच की और उन्हें विमान के मलबे में एक अमेरिकी बम के अवशेष मिले. हालांकि वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस घटना के पीछे अमेरिकी एजेंसियों का हाथ है. यह भारतीय विमान था और यह संभावना भी जताई जा रही थी कि इस साजिश में नई दिल्ली के अमेरिकी एजेंट शामिल हैं. इसलिए भारतीय जांच एजेंसियों ने भी इस मामले की जांच की. हालांकि यह जांच कभी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. इन घटनाओं के बाद भी आखिरकार बांडुंग सम्मेलन आयोजित हुआ जो आगे चलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद बना.

-पवन वर्मा

मुख्यमंत्री राहुल गांधी !

खबर थी कि राहुल गांधी पार्टी या/और सरकार में बड़ी भूमिका निभाना चाहते हैं. बड़ी खबर थी कि राहुल गांधी बोले. एक तो वे बोलते ही कम हैं और उत्तर प्रदेश की हार के बाद प्रेस वालों से शायद यह उनकी पहली बातचीत थी.

पिछले आठ साल की राहुल गांधी की उपलब्धियों के बारे में पूछें तो जवाब मिलता है कि उन्होंने युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का जबर्दस्त लोकतंत्रीकरण कर उन्हें सुधार दिया है. मगर मनचाहे पद पर बैठ जाने की इच्छा जाहिर करते ही ऐसा हो जाना किस तरह के लोकतंत्रीकरण की श्रेणी में आता है? कहा जा सकता है कि समूची कांग्रेस पार्टी की इच्छा थी कि राहुल गांधी कांग्रेस में आएं और इतने सारे लोगों की इच्छा का आदर करना सच्चे लोकतांत्रिक होने की ही तो निशानी है. मगर समूची कांग्रेस तो पिछले आठ साल से ही उन्हें न जाने क्या-क्या करने-बनने के लिए कहती रही है.

राहुल ने संगठन में लोकतांत्रिक और दूसरे सुधारों के लिए सबसे ज्यादा काम उत्तर प्रदेश में किया है. वहां के विधानसभा चुनाव में कुछ ही महीनों पहले हुई पार्टी की फजीहत हम सबके सामने है. उनके किए सांगठनिक सुधारों की हालत यहां यह थी कि पार्टी को ढूंढ़े से भी ढंग के प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे थे. उसने तमाम महत्वपूर्ण जगहों पर दूसरी पार्टियों, खासकर सपा से आए नेताओं को खड़ा किया था. पार्टी की हालत कांग्रेस पार्टी और नेहरू-गांधी परिवार के गढ़ सुल्तानपुर-रायबरेली में ही किसी को मुंह दिखाने वाली नहीं थी. हाल ही में हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में भी पार्टी का उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया. अब इसके बाद क्या उनकी संगठन को बनाने या संगठन की उनके द्वारा बनने की क्षमताओं के बारे में कुछ और जानना बाकी रह जाता है. अब तो केवल उनकी प्रशासनिक क्षमताओं के बारे में जानना बाकी बचा है, जो हो सकता है कि जल्दी ही हो जाए. 

फिलहाल यूपीए सरकार की जिस तरह की हालत है उसमें कैसे भी करिश्माई व्यक्तित्व से आते ही चमत्कार की आशा करना व्यर्थ है. राहुल वैसे भी घोषित तौर पर पहले जानने-सीखने और फिर कुछ करने की बात करते रहे हैं. तो क्या यह अच्छा नहीं होता कि वे केंद्र सरकार में शामिल होकर कुछ अजीबोगरीब मुश्किलें खड़ी करने के बजाय किसी कांग्रेस शासित प्रदेश – जैसे दिल्ली – के मुख्यमंत्री बनते, वहां के हालात में चमत्कारिक बदलाव लाते और फिर केंद्र सरकार में कुछ भी बनने के स्वाभाविक अधिकारी हो जाते.

जैसी हालत आज कांग्रेस पार्टी की है उसमें पार्टी में ऐसे बड़े बदलाव लाना मुश्किल है, जो किसी भी चुनावी परिणाम को सर के बल खड़ा कर दें. मगर किसी भी प्रदेश में बहुमत की हालत में अपनी प्रशासनिक क्षमता – अगर है तो – साबित करना कहीं आसान साबित हो सकता है. वह भी तब जब केंद्र की सरकार आपकी एक-एक इच्छा पर 10-10 बार बारी जाने को तैयार हो. इसके बाद बड़े फलक पर आपको आजमाने की लोगों की इच्छा आपके लिए संभावनाओं के बुलंद दरवाजे खोल सकती है. 

'जनता को आगे बढ़कर व्यवस्था अपने हाथ में लेनी होगी'

टीम अन्ना के अहम सदस्य प्रशांत भूषण प्रखर जैन को बता रहे हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में अरविंद केजरीवाल की भूमिका हमेशा से बड़ी रही है इसलिए वे अनशन पर बैठे हैं. इसमें टकराव जैसी कोई बात नहीं है

पिछली बार आपकी मांग सिर्फ लोकपाल तक सीमित थी. इस बार आप एसआईटी और मंत्रियों के खिलाफ जांच की मांग भी कर रहे हैं. आपने अपना दायरा और फैला लिया है. 

बिल्कुल, हमने लक्ष्य बदल दिया है. हम जन लोकपाल चाहते हैं. यह आंदोलन लोकपाल की जरूरत को रेखांकित करता है. हालांकि हमें पता है कि वे इतनी आसानी से लोकपाल नहीं लाएंगे.  

क्या आपके पास ऐसी कोई पुख्ता जानकारी है कि सरकार लोकपाल बिल हाल-फिलहाल नहीं लाने वाली?
हम 15 मंत्रियों के खिलाफ जांच चाहते हैं. इस देश के भविष्य के लिए यह जरूरी है. इन मंत्रियों को हटाए बिना लोकपाल नहीं मिलेगा हमें.

क्या ये वही मंत्री हैं जिन्होंने लोकसभा में लोकपाल बिल पेश किया था और इसे कानूनी शक्ल देने की कोशिश की थी?
उन लोगों ने संसद में जो बिल पेश किया था वह भ्रष्ट जनसेवकों को जेल भेजने के बजाय उन्हें सुरक्षा प्रदान करने वाला था.
इस बार अरविंद केजरीवाल बड़ी भूमिका तलाश रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अरविंद के ही इशारे पर काम करते हैं.
केजरीवाल शुरुआत से ही इस पूरे आंदोलन के सूत्रधार रहे हैं. उनकी हमेशा से बड़ी भूमिका रही है. इस बार हमने अन्ना के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उनसे उपवास न रखने का अनुरोध किया था. हालांकि उन्होंने चार दिन बाद से उपवास शुरू करने पर जोर दिया.

क्या एनसीपीआरआई और अरुणा रॉय जैसे दूसरे संगठनों और सिविल सोसाइटी के लोगों को साथ लाने की कोशिश हुई है?
हम एक-एक एनजीओ के पास तो जा नहीं सकते हैं लेकिन हमने अपना संदेश सब तक पहुंचाने की कोशिश जरूर की है. यह एक साथ मिलकर काम करने का मामला नहीं है लेकिन आप देखेंगे कि वे लोग भी हमारा समर्थन कर रहे हैं.

पिछले छह महीने के दौरान, लोकसभा में बिल पास हो जाने के बाद आप लोगों ने सरकार की आलोचना कम कर दी है. क्या यूपीए के प्रति आपके रुख में नरमी आ गई है?
हमने सरकार के 15 मंत्रियों को भ्रष्ट बता कर सरकार के प्रति अपना कठोर रवैया पहले ही जाहिर कर दिया है. हम सरकार में फैले भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा रहे हैं.  क्या मीडिया के हद से ज्यादा हस्तक्षेप ने आम लोगों में लोकपाल का आकर्षण कम किया है? क्या इसी वजह से कम लोग आ रहे हैं? ऐसा नहीं है. धीरे-धीरे लोगों की समझ में आने लगा है कि सरकार लोकपाल लाना ही नहीं चाहती. लोगों को समझ आने लगा है कि अगर उन्होंने आगे बढ़कर चीजों को अपने हाथ में नहीं लिया, अगर वे खड़े नहीं हुए तो देश गर्त में चला जाएगा.

पिछले एक साल के अनुभवों से आपने जो सीखा है उससे अलग अब क्या करेंगे ताकि लोकपाल का सपना वास्तविकता में बदल सके?
इस बार हम नई बात कह रहे हैं कि मंत्रिमंडल का बड़ा हिस्सा भ्रष्ट है. इनसे बचने के लिए हमें लोकपाल की जरूरत है. इसी वजह से सरकार लोकपाल लाने में आनाकानी कर रही है.

यही बात टीम अन्ना के बारे में कही जा सकती है. पहले एक विस्तृत कमेटी हुआ करती थी. अब एक कोर कमेटी है. फैसले लेने का अधिकार कुछेक सदस्यों के हाथ में सिमट गया है. इस वजह से कई सदस्य साथ छोड़ चुके हैं.
कई नहीं, कुछेक लोग गए हैं. फैसला तो हमेशा कुछ लोग ही लेते हैं; इसके बाद ही कोर कमेटी इस पर ठप्पा लगाती है. टीम के बीच इसे लेकर कोई मतभेद नहीं है.

आंदोलन से बाबा रामदेव के जुड़ाव का क्या अर्थ है?
हमने हमेशा कहा है कि हम काले धन के खिलाफ चल रहे अभियान का समर्थन करते हैं. बाबा रामदेव भी जन लोकपाल आंदोलन का समर्थन करते हैं.

हम नरेंद्र मोदी को गुजरात से बाहर निकलने ही नहीं देंगे’

नरेंद्र मोदी को भाजपा और मीडिया का एक वर्ग भले ही भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर रहा हो, लेकिन कभी उनके साथ रहे नेता ही उन्हें गुजरात की सत्ता से भी बेदखल करने के अभियान में लगे हुए हैं. इस अभियान की अगुवाई कर रहे महागुजरात जनता पार्टी  के अध्यक्ष और मोदी सरकार में गृह मंत्री रहे गोर्धन जडाफिया हिमांशु शेखर को बता रहे हैं कि मोदी के साथ तो संघ की गुजरात इकाई भी नहीं है.

क्या आपको लगता है कि गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों को आपकी पार्टी त्रिकोणीय बनाने में कामयाब होगी?

हम तो इसी भरोसे के साथ काम कर रहे हैं. पिछले चुनाव में हमारी पार्टी सिर्फ चार महीने पुरानी थी. इस बार तो पांच साल पुरानी है. इस बार हमारा साथ गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल भी दे रहे हैं. अन्य कई ऐसे नेता हमारे साथ हैं जिनकी राज्य की राजनीति में अपनी एक पहचान है. मैं तीसरे कोण के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा, चुनाव के नतीजे खुद इसे साबित करेंगे.

केशुभाई पटेल तो अब भी भाजपा के साथ बने हुए हैं.

आप सही कह रहे हैं. वे अभी तक तो भाजपा में हैं लेकिन वे महागुजरात जनता पार्टी के कार्यक्रमों में लगातार शामिल हो रहे हैं. वे हर कदम पर हमारे साथ हैं. उन्होंने शीर्ष नेतृत्व को भी पूरी बात बता रखी है. आने वाले दिनों में स्थिति और साफ होगी.

भाजपा आरोप लगा रही है कि आप मोदी का खेल खराब करने के लिए कांग्रेस के समर्थन से गुजरात में काम कर रहे हैं. 

यह आरोप बिल्कुल बेबुनियाद है. भाजपा से कहीं अधिक हमारी दूरी कांग्रेस से है. कांग्रेस के समर्थन से काम करने का सवाल ही नहीं उठता.

चुनाव से पहले या चुनाव के बाद अगर कांग्रेस आपको गठबंधन करने का प्रस्ताव देती है तो आप क्या करेंगे?

कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का सवाल ही नहीं पैदा होता. कांग्रेस की सरकार को भी राज्य की जनता ने मौका दिया, लेकिन उसने भी यहां के लोगों को ठगने का ही काम किया. इससे भी बड़ी बात यह है कि पिछले दस साल से मोदी ने जिस तरह से विकास का हौवा खड़ा किया उसका पर्दाफाश कांग्रेस ने एक जिम्मेदार विपक्ष की तरह नहीं किया. विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, इससे जनता निराश है.

मोदी तो विकास के लंबे-चौड़े दावे कर रहे हैं. ऐसे में राज्य की जनता आप जैसे किसी नए विकल्प पर भरोसा क्यों करेगी?

मोदी जिस विकास की बात कर रहे हैं वह सिर्फ मीडिया में है. जमीनी स्तर पर जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि कितना विकास हुआ है. जिस विकास की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं उसकी भारी कीमत राज्य की जनता को चुकानी पड़ी है. गुजरात की जनता मोदी के इन दावों की हकीकत समझ गई है, इसलिए आज लोग खुद नया विकल्प तलाश रहे हैं.

गुजरात भाजपा यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि मोदी को जिताओगे तो उनके दिल्ली जाने का रास्ता साफ होगा और गुजरात को पहला प्रधानमंत्री मिलेगा. इससे आप कैसे निपटेंगे?

राज्य की जनता ने देख लिया है कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके दावे और जमीनी सच्चाइयों में कितना फर्क है. हम राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लगातार जा रहे हैं और लोगों से जिस तरह का समर्थन मिल रहा है उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि हम मोदी को गुजरात से बाहर निकलने ही नहीं देंगे.

भाजपा के पास मोदी के तौर पर मुख्यमंत्री का एक मजबूत उम्मीदवार है. क्या आपके पास कोई मजबूत और विश्वसनीय चेहरा है जिस पर जनता भरोसा कर सके?

अगर हम चुनाव जीतने में सफल रहते हैं और हमारे पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या आती है तो कोई न कोई नया और मजबूत नेतृत्व खुद ही लोगों के सामने आ जाएगा. लोग महागुजरात जनता पार्टी पर इसलिए भरोसा करेंगे क्योंकि नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल में लोगों को भरोसा बार-बार तोड़ा है.

आप अब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाते हैं. तो क्या आपके इस मोदी विरोधी अभियान को संघ का समर्थन हासिल है? 

मैं संघ का स्वयंसेवक हूं और जो भी कर रहा हूं उससे संघ के अधिकारियों को मैंने वाकिफ कराया है. यहां गुजरात में तो संघ की इकाई भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ हमारा समर्थन करती है.

लेकिन संघ नेतृत्व तो मोदी का हिमायती  है.

पहले भी ऐसा मौका आया है जब संघ नेतृत्व और राज्य इकाई ने अलग रवैया अपनाया है. इस बार मैंने और केशुभाई पटेल ने संघ के सभी बड़े अधिकारियों को मोदी की कार्यशैली और अपनी योजना के बारे में बता रखा है.

अंग्रेजी हटाओ आंदोलनः लोहिया

ऐसा आंदोलन जो दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन के लिए एक उत्प्रेरक बन गया.

भारत में साठ के दशक में शुरू हुआ अंग्रेजी हटाओ एक ऐसा आंदोलन था जिसने भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव किया. प्रख्यात समाजवादी डॉ राममनोहर लोहिया (दाएं) इस आंदोलन के प्रणेता थे. वे चाहते थे कि राजकाज के लिए अंग्रेजी की जगह पूर्ण रूप से भारतीय भाषाओं को अपनाया जाए. वैसे भारतीय संविधान जब लागू हुआ तब उसमें भी यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा.

इससे पहले कि संवैधानिक समयसीमा पूरी होती, लोहिया ने 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया. वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे. लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों खासकर तमिलनाडु में आंदोलन का विरोध होने लगा. यहां लोगों को लग रहा था कि अंग्रेजी हटाने की आड़ में उनके ऊपर हिंदी थोपे जाने की कोशिश हो रही है. इसका असर यह हुआ कि राज्य में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके पार्टी ने हिंदी विरोधी आंदोलन को और तेज कर दिया. 1962-63 में जनसंघ भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गया.

इसके बाद कुछ शहरों में आंदोलन का हिंसक रूप भी देखने को मिला. कई जगह दुकानों के ऊपर लिखे अंग्रेजी के साइनबोर्ड तोड़े जाने लगे. 1965 की समयसीमा नजदीक होने की वजह से तमिलनाडु में भी हिंदी विरोधी आंदोलन काफी आक्रामक हो गया. यहां दर्जनों छात्रों ने आत्मदाह कर लिया. इस आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित करवाया. इसमें प्रावधान किया गया कि 1965 के बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल राजकाज में किया जा सकता है.

सरकार के एक सर्कुलर के कारण फिर भी हिंदी की वरीयता संबंधी कुछ नियम बने रहे फलस्वरूप डीएमके का आंदोलन चलता रहा. इसका एक बड़ा असर यह हुआ कि आजादी के बाद से तमिलनाडु में शासन कर रही कांग्रेस 1967 में विधानसभा चुनाव हार गई और फिर कभी पार्टी को राज्य में उबरने का मौका नहीं मिला. इसी साल राजभाषा कानून में एक और संशोधन हुआ जिसके तहत अंग्रेजी को हिंदी के साथ अनिश्चित काल के लिए इस्तेमाल की अनुमति दे दी गई. कुछ जगहों पर हिंदी की अनिवार्यता खत्म कर दी गई.

-पवन वर्मा

 

 

मर्ज कुछ, दवा कुछ

उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले में एक गांव है, राजपुरा. गांव में कुछ बड़े किसान हैं और बाकी बंगाली शरणार्थी या उत्तर प्रदेश से आए खेतिहर मजदूर. गदरपुर नाम के एक कस्बे के पास बसे इस गांव के कुल 800 वोटरों में से आधे भूमिहीन हैं. इसी गांव के नीलूबल्लभ को 28 सितंबर, 2005 को राज्य पुलिस ने माओवादी बताते हुए गिरफ्तार किया था. उनके साथ दो अन्य व्यक्तियों की भी गिरफ्तारी हुई थी. पुलिस  के अनुसार उस दिन सात माओवादी पास के राधाकांतपुर गांव के सूदखोर कोकन गोलदार की हत्या करने आए थे जिनमें चार गोलीबारी और मुठभेड़ के बाद भाग गए थे. 

नीलू अकेले नहीं थे जिन पर उस दौर में माओवादी होने का आरोप लगा था. तब इस आरोप में बहुत-से लोगों की गिरफ्तारियां हुई थीं. दरअसल उत्तराखंड का उधमसिंह नगर जिला नेपाल की सीमा से लगा है. उन दिनों नेपाल में माओवादी संघर्ष सत्ता हासिल करने के करीब था. इन गिरफ्तारियों को तब पुलिस और राज्य सरकार ने माओवाद को काबू में करने की दिशा में एक बड़ी सफलता बताया था. 

लेकिन ऐसे एक मामले में बीती 14 जून को उधमसिंह नगर की एक त्वरित अदालत का जो फैसला आया है उससे पुलिस द्वारा तब किए गए बड़े दावों की पोल खुलती दिख रही है. इससे यह भी लगता है कि जिन मामलों को पुलिस राष्ट्र के खिलाफ युद्ध बता रही थी वे वास्तव में उसने अपनी पीठ थपथपाने के लिए खुद तैयार किए थे. बाकी मामलों पर भी गौर करें तो  साफ लगता है कि पिछड़े इलाकों का विकास करने के बजाय सरकार सिर्फ पुलिसिया कार्रवाई करके माओवाद से लड़ना चाहती है.  

50 साल के नीलूबल्लभ बंगाली भूमिहीन शरणार्थी हैं और एक अधबने घर में अपनी पत्नी, तीन बेटों और विधवा मां के साथ रहते हैं. परिवार की रोजी-रोटी बड़े किसानों के खेतों या पास की फैक्टरियों में मजदूरी से चलती है. वे बताते हैं कि पुलिस ने उन्हें 25 सितंबर को ही गदरपुर बाजार जाते हुए उठा लिया था. तीन दिन तक अलग-अलग थानों में अमानवीय यातना और पूछताछ के बाद 28 सितंबर को दिनेशपुर थाने की पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी दिखाई. पुलिस ने इस मुठभेड़ में वांछित बताए गए माओवादियों के जोनल कमांडर, अनिल चौड़कोटी और पत्रकार जीवन चंद्र को भी पकड़ा. 

पर सवाल यह है कि राज्य की कितनी सीटों पर खुद मुख्यमंत्री चुनाव लड़ेंगे और और कितनी विधानसभा सीटें सितारगंज हो पाएंगी.

नीलू बताते हैं कि गिरफ्तारी से पहले उन्हें माओवादी आंदोलन के बारे में कुछ भी पता नहीं था. वे तब तक चौड़कोटी को भी नहीं जानते थे. जीवन चंद्र बताते हैं कि वे नैनीताल जिले के रामनगर कस्बे में होने वाले एक सम्मेलन के लिए जनसमर्थन जुटाने गदरपुर गए थे जहां से उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. जीवन ने उधमसिंह नगर पुलिस द्वारा की जा रही अवैध उगाही पर अपने अखबार का विशेष अंक निकाला था. उनके अनुसार पुलिस इसीलिए उन्हें सबक देना चाहती थी.

तराई कहे जाने वाले उत्तराखंड के इस हिस्से में हजारों बीघा सीलिंग की भूमि ताकतवर किसानों और भूमाफियाओं के कब्जे में है. यहीं नीलू जैसे एक लाख से अधिक बंगाली शरणार्थी और अन्य भूमिहीन भी हैं. भूमिहीन मजदूर नीलू का दोष इतना था कि वे ‘मजदूर किसान संघर्ष समिति’ (एमकेएसएस) के बैनर तले 1998 से होने वाले गरीबों के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे. इस संगठन के अध्यक्ष उनके गांव के पास के कस्बे दिनेशपुर के मास्टर प्रताप सिंह थे. 28 सितंबर की मुठभेड़ से एक दिन पहले पुलिस ने सिंह के घर पर छापा मारा था. उनके न मिलने पर उनके बेटे और पत्रकार रूपेश कुमार को हिरासत में लिया गया था. पत्रकारों के तीखे विरोध के कारण पुलिस ने रूपेश को तो छोड़ दिया था, लेकिन अन्य तीन को माओवादी बताते हुए इनकी गिरफ्तारी को बड़ी उपलब्धि बताया था.  

इससे करीब एक साल पहले 29 अगस्त, 2004 को उधमसिंह नगर में थाना नानकमत्ता पुलिस ने भी रंसाली नाम के एक जंगल से पांच कथित माओवादियों को गिरफ्तार किया था. इनमें हयात राम, उनका बेटा प्रकाश और रमेश राम शामिल थे जो नैनीताल जिले में पड़ने वाले हंसपुर खत्ते के निवासी थे. खत्ता तराई के बीहड़ जंगलों में बसे छोटे-छोटे गांवों को कहते हैं. इनमें पशुपालक समुदाय रहते हैं. चौथा उनका एक रिश्तेदार कैलाश था. गिरफ्तार लोगों में पांचवां शख्स कल्याण सिंह, हंसपुर से लगे उधमसिंह नगर के सितारगंज क्षेत्र का रहने वाला था. कल्याण सिंह  तराई में तब तक हुए हर भूआंदोलन में सक्रिय रहे थे. बाद में इसी मामले में नैनीताल जिले के दो युवकों हरीश राम और संतोष राम को भी गिरफ्तार किया गया. इसके बाद ईश्वर चंद्र उर्फ जूनियर और गोपाल भट्ट नाम के दो व्यक्तियों की भी गिरफ्तारी हुई. 2005 में दिनेशपुर मुठभेड़ में गिरफ्तार अनिल चौड़कोटी भी इस मामले में आरोपित बने. सुनवाई के दौरान 22 साल के कैलाश राम और 70 साल के कल्याण सिंह की मृत्यु हो गई. हंसपुर मामले में गिरफ्तार सात अभियुक्त अनुसूचित जाति के भूमिहीन और गरीब कृषि मजदूर थे. 

लेकिन हंसपुर खत्ता मामले की सुनवाई के दौरान उठे बहुत-से सवालों ने पुलिस की किरकिरी करवाई. जैसे घटना स्थल तक वाहन नहीं जा सकते थे. लेकिन एफआईआर के अनुसार रंसाली के जंगल में ट्रैक्टरों की आवाज और पुलिस फोर्स को देखकर मीटिंग कर रहे पांच संदिग्ध लोग जंगल की ओर भागने लगे. इस हाईप्रोफाइल मामले में पुलिस के ‘गुड वर्क’ की पोल तब खुल गई जब जूनियर की गिरफ्तारी के समय उनके पास पकड़े गए ओर उसी दिन सील किए गए सामान को अदालत के सामने खोला गया. 20 सितंबर को गिरफ्तारी के दिन सील किए गए इस ’अपत्तिजनक और राष्ट्रद्रोही‘ साहित्य को अदालत के सामने खोलने पर पता चला कि यह सामान सील किए जाने के दो महीने बाद के यानी 23 नवंबर, 2004 के अखबारों पर लपेटा गया था. इस मामले में 23 नवंबर, 2004 को ही पुलिस ने कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी. साफ है कि इस हाईप्रोफाइल मामले में सारी सावधानी बरतने का दावा करने वाली पुलिस ने  चार्जशीट दाखिल करने के दिन ही यह सामग्री कहीं और से लाकर सील की. अदालत ने 20 सितंबर को हुई प्रतिबंधित और राष्ट्रद्रोही साहित्य की बरामदगी को बिल्कुल फर्जी माना. पुलिसकर्मियों ने जिरह में माना कि उन्हें पता नहीं था कि जो साहित्य जूनियर के पास मिला वह केंद्र या राज्य सरकार द्वारा प्रतिबंधित है या नहीं. नतीजा यह हुआ कि हंसपुर खत्ता मामले में अदालत ने सभी आरोपितों को बरी कर दिया.  

साफ लगता है कि जिन मामलों को पुलिस राष्ट्र के खिलाफ युद्ध बता रही थी वे वास्तव में उसने अपनी पीठ थपथपाने के लिए खुद तैयार किए थे

उधर, राधाकांतपुर मुठभेड़ का मामला अदालत में गवाही के स्तर पर है. कानून के जानकार इसे भी कमजोर और पुलिस द्वारा बनाया गया मामला बता रहे हैं. इस मामले में जिस स्थान पर मुठभेड़ और गोलाबारी वाली घटना बताई गई है वह भीड़-भाड़  वाला इलाका है. लेकिन आस-पास किसी को उस मुठभेड़ का पता नहीं चला. दिन दहाड़े गोलियां चलने, आतंकियों के भागने और पुलिस के कांबिंग करने के बाद आस-पास के लोगों को घटना का पता न चले, यह बात हजम नहीं होती. 

उधर, हंसपुर खत्ता मामले में शामिल भूमिहीन मजदूर-किसानों और युवकों के इन मामले में जमानत होने की संभावना बनते ही पुलिस ने इनमें से अधिकांश पर उत्तराखंड में अलग-अलग जिलों में और मुकदमे दर्ज कर दिए. आठवीं पास हरीश और उसके गांव के अनपढ़ संतोष राम दोनों गरीब भूमिहीन कृषि श्रमिक हैं. इन दोनों पर हंसपुर के अलावा अल्मोड़ा, चम्पावत और हल्द्वानी में मुकदमे दर्ज किए गए. ये दोनों गरीब लगभग साढ़े छह साल जेल में रहे. हरीश के घर में एक बूढ़े पिता और एक छोटा नाबालिग भाई है. वह बताता है, ‘हम दोनों का कोई पूछने वाला नहीं था, इसलिए हमें फंसाया गया.’ हरीश फिलहाल हल्द्वानी में एक होटल में काम करता है. उसे अब भी पता नहीं कि जिस माओवाद के कारण वह साढ़े छह साल जेल में रहा वह वास्तव में है क्या बला.

हंसपुर खत्ते मामले में 28 वर्षीय जूनियर उर्फ ईश्वर चंद्र को सबसे पहले जमानत मिली थी. वे बताते हैं कि जमानत पर छूटने के बाद पुलिस के दबाव के चलते उन्हें कई बार मकान बदलना पड़ा. उनके मुताबिक पुलिस के दबाव में उन्हें 5,000 रुपये महीने पगार वाली नौकरी से भी निकाल दिया गया. वे अब किसी तरह जिंदगी को फिर से सही ढर्रे पर लाने की कोशिश में हैं.  प्रकाश राम और उसके पिता हयात राम दो साल जेल में रहे. प्रकाश अब सितारगंज में फैक्टरी मजदूर हैं. 

माओवाद के नाम पर तीसरे और महत्वपूर्ण मामले में 22 दिसंबर, 2007 को पत्रकार प्रशांत राही को गिरफ्तार किया गया था. उनकी गिरफ्तारी हंसपुर खत्ते के पास से दिखाई गई थी. पुलिस का आरोप था कि उन्होंने अपने माओवादी साथियों के साथ मिलकर गिरफ्तारी के तीन महीने पहले हंसपुर खत्ता क्षेत्र में प्रशिक्षण शिविर चलाया था. लेकिन जमानत पर छूटने के बाद राही ने बताया था कि उन्हें 17 दिसंबर को राजधानी देहरादून के भीड़-भाड़ वाले इलाके धर्मपुर से गिरफ्तार किया गया था. देहरादून से पकड़ने के पांच दिन बाद पुलिस ने राही को हंसपुर खत्ते के पास से गिरफ्तार दिखाया. राही ने पुलिस पर आरोप लगाए कि उन्हें हिरासत में लेने के बाद पुलिस उन्हें गाड़ी में नकाब डाल कर अज्ञात स्थानों पर ले गई और उन्हें यातनाएं दी गईं. पत्रकार राही की उत्तराखंड में हुए कई जन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी रही थी. बाद में उनकी पत्नी चंद्रकला को भी इसी मामले में गिरफ्तार किया गया. दोनों फिलहाल जमानत पर हैं. 

इसी मामले में फरवरी, 2008 में गोपाल भट्ट और दिनेश पांडे की भी गिरफ्तारी की गई. छात्र आंदोलनों में काफी सक्रिय रहे भट्ट को हंसपुर खत्ता, दिनेशपुर और प्रशांत राही मामले के अलावा बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में भी एक मामले में आरोपित बनाया गया है. वे भी साढ़े तीन साल जेल में रहे. दिनेश पांडे के मुताबिक उन्हें उनके एडवोकेट चाचा और भाई के चैंबर से पूछताछ के बहाने ले जाया गया और अगले दिन ध्यानपुर के जंगलों से गिरफ्तार दिखाया गया.  

छात्र संगठनों में सक्रिय रहे अनिल चौड़कोटी अलग-अलग मामलों में साढ़े छह साल जेल में रहने के बाद जमानत पर छूट पाए हैं.  हंसपुर खत्ता अल्मोड़ा और चंपावत मामले में बरी होने के बाद अब उन्हें पूर्वी चंपारण जिले की माओवादी घटनाओं में शामिल दिखाते हुए अभियुक्त बनाया गया है. अल्मोड़ा से साप्ताहिक अखबार निकालने वाले और चौड़कोटी के साथ गिरफ्तार किए गए जीवन चंद्र भी साढ़े तीन साल जेल में रहे. जमानत के बाद फिर अखबार निकालने पर पुलिस ने जीवन के माओवादी गतिविधियों में फिर सक्रिय होने की दलील के साथ उच्च न्यायालय  से उनकी जमानत निरस्त कराने का निवेदन किया था, लेकिन अदालत ने यह तर्क नकार दिया. 

आज तक उत्तराखंड में माओवादी या नक्सली हिंसा का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है. लेकिन माओवाद के नाम पर छह मुकदमे दर्ज किए गए हैं. इन मुकदमों में आठ भूमिहीन कृषि मजदूरों के अलावा अन्य छह को घुमा-फिरा कर अभियुक्त बनाया गया है. इनमें से हंसपुर खत्ता, अल्मोड़ा व चंपावत मामलों में सभी अभियुक्त बरी हो गए हैं. इन सभी मामलों को न्यायालय में लड़ने वाली राजनैतिक बंदी रिहाई समिति के सदस्य पान सिंह बोरा कहते हैं, ‘किसी विचारधारा से सहमति या असहमति हो सकती है, लेकिन उससे सहमति रखने के नाम पर और  उसका साहित्य पढ़ने के नाम पर किसी को गिरफ्तार करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं.’  

देश के कई राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं. जानकार मानते हैं कि माओवाद के पनपने का कारण इन दूरस्थ क्षेत्रों का विकास न होना और वनों और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके परंपरागत अधिकार को समाप्त होना है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने माओवाद से लड़ने के उपायों के तहत पुलिस बलों को सुविधासंपन्न बनाने के साथ-साथ इन क्षेत्रों के विकास के लिए समन्वित योजना बनाने की बात कही है. यह भी तय हुआ है कि इन क्षेत्रों में केंद्रीय योजनाओं की विशेष निगरानी करके इनके विकास पर ध्यान दिया जाएगा. 

हंसपुर खत्ते में माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलने की दो बहुप्रचारित घटनाओं के आठ साल बाद भी वहां विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है

जानकार मानते हैं कि उत्तराखंड में भी माओवाद से निपटने के नाम पर केंद्र सरकार ने पुलिस बलों को करोड़ों रुपये दिए हैं. जिस साल प्रशांत राही की गिरफ्तारी हुई, उसी साल उत्तराखंड सरकार ने केंद्र से माओवाद से निपटने के नाम पर 208 करोड़ रुपये की मांग की थी. इस तथ्य के बावजूद कि तब तक राज्य में नक्सली हिंसा से जुड़ी कोई वारदात नहीं हुई थी. उसे इतनी रकम तो नहीं मिली पर सीमांत क्षेत्रों के आधुनिकीकरण के मद में 8.71 करोड़ रुपये मिल गए. अगले साल यह रकम बढ़कर करीब 19 करोड़ रु हो गई. लेकिन हंसपुर खत्ता में माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलने की दो बहुप्रचारित घटनाओं के आठ साल बाद भी वहां विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ. होता भी कैसे? अब भी न तो यह राजस्व ग्राम है और न ही ग्राम सभा. फिर कैसे यहां राज्य और केंद्र की किसी योजना का पैसा आता? वन विभाग की कच्ची सड़क से साल के छह महीने हंसपुर नहीं पहुंचा जा सकता. खत्ते में न तो बिजली है न ही पानी. देश भर में भले ही पंचायत राज की धूम मची हो लेकिन इस खत्ते के लोगों की न कोई पंचायत है न ही प्रतिनिधि. उत्तराखंड में तराई के अन्य सैकड़ों खत्तों का हाल भी हंसपुर जैसा ही है. राज्य सरकार भले ही माओवाद के नाम पर मिले करोड़ों रुपये से अपनी पुलिस को सुविधासंपन्न कर चुकी हो लेकिन उसके अधिकारियों और नेताओं ने कभी कथित रूप से माओवादी विचारधारा के संक्रमण में आ रहे इन खत्तों की समस्या के लिए राजनीतिक हल की पहल नहीं की. 

वनवासियों के बीच माओवाद का प्रसार कम करने के लिए संसद में 2007 में अनुसूचित जनजाति और वनवासी अधिकार कानून पारित हुआ. इस कानून के अनुसार तीन पीढ़ियों से अधिक वन विभाग की जमीन पर रहने वालों को वहां भूमिधरी अधिकार मिलने थे. कानून के लागू होने के पांच साल बाद भी उधमसिंहनगर, नैनीताल और हरिद्वार जिलों के तराई के खत्तों में पीढ़ियों से रह रहे हजारों परिवारों में से अभी तक किसी को भूमिधरी का अधिकार नहीं मिल पाया है. 

नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड ने हाल ही में ‘तहलका’ को दिए एक साक्षात्कार में भारत के माओवादियों से अपील की थी कि वे भी नेपाली माओवादियों की तरह हिंसा का रास्ता छोड़ कर राजनीतिक प्रक्रिया में भरोसा करें. बात एक तरह से सच भी है. भले ही बंगाली शरणार्थी नीलू को भूमिधरी के आंदोलनों में शामिल होने के चलते माओवादी होने के आरोप में जेल जाना पड़ा हो, लेकिन इन्हीं भूमिहीन बंगालियों की भूमिधरी पाने की आकांक्षा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के विधानसभा पहुंचने में सबसे बड़ा कारक बनी. उधमसिंह नगर जिले में ही सितारगंज के विधायक किरन मंडल ने बंगालियों को भूमिधरी अधिकार दिलाने की मांग के साथ अपनी सीट विजय बहुगुणा के लिए खाली की और मुख्यमंत्री 40,000 मतों से उपचुनाव जीत गए. इसके एवज में मुख्यमंत्री ने उपचुनाव से पहले कृषि पट्टों को भूमिधरी में बदलने वाला शासनादेश जारी किया. यानी यह सब राजनीतिक प्रक्रिया से ही हुआ. 

लेकिन सवाल यह है कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कितनी सीटों से चुनाव लड़ेंगे और कितनी विधानसभा सीटें सितारगंज हो पाएंगी. 

तारणहार तकनीक

महिलाओं की बात पर हरियाणा एक विरोधाभास-सा लगता है. अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला कल्पना चावला इसी राज्य की थी, लेकिन बेटी के जन्म से पीछा छुड़ाने वाले भी सबसे ज्यादा इसी राज्य में हैं. महिला और पुरुष की संख्या का अंतर हरियाणा में खतरे की सीमा को पार कर गया है. 

दिल्ली से सटा हुआ जिला है हरियाणा का झज्जर. गृह मंत्रालय के रजिस्ट्रार जनरल एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय से जारी साल 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि शून्य से छह वर्ष आयु वर्ग के लड़के-लड़कियों के अनुपात के मामले में यह जिला अंतिम पायदान पर था. समाज की इस बिगड़ती तस्वीर के पीछे लड़कियों के प्रति सदियों से चले आ रहे पूर्वाग्रह को एक वजह माना जा सकता है. दुर्भाग्य यह कि सदियों पुराने पूर्वाग्रह को बल दिया आधुनिक विज्ञान की खोज सोनोग्राफी मशीन ने. लेकिन तकनीक की इस मार से बचने का रास्ता भी तकनीक ने ही खोज निकाला है.  

अरसे से हरियाणा अपने बिगड़ते स्त्री-पुरुष अनुपात के लिए  लोगों का ध्यान खींच रहा था. 2011 की जनगणना के आंकड़ों ने सबके होश उड़ा दिए. शून्य से छह वर्ष के बीच झज्जर में प्रति हजार लड़कों पर सिर्फ 774 लड़कियां थीं. यह आंकड़ा इस मामले में देश के अब तक के सबसे खराब माने जाने वाले हरियाणा के ही एक अन्य जिले महेंद्रगढ़ से भी चार कम था. सवाल उठने लगे कि तमाम जागरूकता कार्यक्रमों के बावजूद लड़कियों के प्रति इतना पूर्वाग्रह क्यों है और क्या सिर्फ जागरूकता के भरोसे ही इस गंभीर समस्या से निपटा जा सकता है. 

पानी सिर से गुजर चुका था,  इसलिए उपाय जरूरी था. तकनीक की काट तकनीक के जरिए ही खोजी गई. झज्जर जिले में पहली बार एडवांस एक्टिव ट्रैकर सिस्टम का इस्तेमाल किया गया. देश में पहली बार इस्तेमाल किए जा रहे इस सिस्टम को झज्जर जिले के सभी 29 अल्ट्रासाउंड सेंटरों में सोनोग्राफी मशीन पर लगाया गया. 2001 के जनगणना के आंकड़ों में झज्जर का स्त्री-पुरुष अनुपात 1000-847 था जो 2011 में थोड़ा सुधर कर 1000-861 हो गया. पर यह कहीं से भी सुखद स्थिति नहीं थी. सिर्फ राज्य के आंकड़ों से तुलना करें तो यह औसत से 16 कम थी. इसके बाद सरकार और जिला प्रशासन के माथे पर भी चिंता की लकीरें खिंच गईं. ये आंकड़े पूरे देश और मीडिया में झज्जर और हरियाणा के लिए बदनामी की वजह बन गए थे.   

पुणे की मैग्नम ऑपस कंपनी द्वारा ईजाद किए गए इस यंत्र से मिले नतीजे बेहद उत्साहवर्धक रहे हैं.  इसकी सफलता से उत्साहित जिला प्रशासन ने राज्य सरकार से अब इसे पूरे राज्य में लागू करने की सिफारिश कर दी है. एक्टिव ट्रैकर के इस्तेमाल के बाद से लिंगानुपात में आया सुधार इसकी सफलता की कहानी बयान करता है. साल 2011 में जनवरी से दिसंबर महीने के बीच पैदा हुए बच्चों का लिंगानुपात जहां 1000-815 था वहीं साल 2012 की शुरुआत में सोनोग्राफी मशीनों पर एक्टिव ट्रैकर के इस्तेमाल के बाद दो महीने के भीतर ही लड़कों और लड़कियों का अनुपात 1000-837 पर पहुंच गया. दो महीने के भीतर आए नतीजों ने सिर्फ बड़े अंतर को जाहिर नहीं किया बल्कि यह बात भी साबित की कि किस तरह से यहां के सोनोग्राफी सेंटर अवैध रूप से बालिका भ्रूण हत्या का काम कर रहे थे. 

­­आगे के महीनों यानी मार्च-अप्रैल में स्वास्थ्य विभाग ने जो आंकड़े जारी किए वे और भी उत्साहजनक रहे हैं. इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति हजार 876 रहा, जबकि झज्जर नगर पालिका क्षेत्र में यह अनुपात प्रति हजार 959 तक पाया गया. ठीक एक साल पहले इसी अवधि के दौरान के आंकड़ों पर आप नजर डालेंगे तब आपको हालात की भयावहता का अंदाजा लगेगा. 2011 में पूरे साल झज्जर नगर पालिका क्षेत्र में लिंगानुपात प्रति हजार 788 था. 

झज्जर में एडवांस एक्टिव ट्रैकर का प्रयोग करने वाले जिले के उपायुक्त अजित बालाजी जोशी कहते हैं, ‘संतुलन के प्रयास अगर अभी से नहीं हुए तो भविष्य में समाज की तस्वीर बेहद भयावह हो सकती है. जागरूकता के प्रयास तो जारी रहने ही चाहिए, लेकिन तकनीक के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए तकनीक का सहारा लेना भी बेहद जरूरी है. अब हमारे यहां इसकी कामयाबी के बाद राज्य के दूसरे हिस्सों में भी इसका इस्तेमाल होने लगा है.’ उम्मीद की जानी चाहिए कि इस तकनीक का दायरा और भी ज्यादा फैले.  

योजना एक नजर में

एडवांस ऐक्टिव ट्रैकर यंत्र को सोनोग्राफी मशीनों से जोड़ दिया जाता है. यह ऐसी मशीन है जो एक बार सोनोग्राफी मशीन से जुड़ने के बाद उसकी हर एक गतिविधि को रिकॉर्ड करती है. गर्भवती महिला जब पहली बार सोनोग्राफी जांच करवाती है उसी समय उसका सारा डेटा मशीन में कैद हो जाता है. इसके आधार पर प्रशासन हर महिला की जचगी तक निगरानी रख सकता है. बच्चे की पैदाइश नियत समय पर हुई या नहीं, अगर कोई गड़बड़ी हुई तो क्या उसके लिए कोई पुख्ता कारण थे आदि बातों पर नजर रखी जाती है. एक्टिव ट्रैकर एक सर्वर से जुड़ा रहता है और अपने यहां दर्ज सारी जानकारी एक मुख्य सर्वर में भेज देता है. मुख्य सर्वर तक जिले के आला चिकित्सा और प्रशासनिक अधिकारियों की पहुंच होती है. वे इन आंकड़ों का विश्लेषण करते रहते हैं. एक्टिव ट्रैकर के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ संभव नहीं है. इसका डिजाइन ऐसा है कि पहले ट्रैकर ऑन होता है फिर यहां से पावर आगे बढ़ती है और सोनोग्राफी मशीन चालू होती है. बिना ट्रैकर के ऑन हुए सोनोग्राफी मशीन ऑन ही नहीं हो सकती है. इसमें जीपीआरएस सिस्टम भी लगा है. ट्रैकर के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ होने पर यह तुरंत एक एसएमएस संबंधित अधिकारी को भेजकर चेतावनी जारी कर देता है.