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विरोधियों की फाइल

विपक्षियों और विरोधियों पर कार्रवाई के लिए तैयार हो चुकी हैं फाइल्स

जब सत्ता हाथ में हो और उसका नशा इस क़दर सवार हो कि सत्ता पक्ष किसी को कुछ न समझे, तो तानाशाही, अकड़ और मनमानी स्वाभाविक रूप से हावी हो जाती हैं। विरोधी सुरों को दबाने की केंद्र सरकार की कोशिश से यही ज़ाहिर होता है। सत्ता में आने के बाद पिछले आठ साल से केंद्र सरकार ने हर तरह के विरोधियों पर, चाहे वो लेखक हों, समाजसेवी हों, पत्रकार हों, नौकरशाह हों, किसान हों या फिर नेता हों, सभी पर खुले रूप से राष्ट्रद्रोह के तहत या दूसरे तरीक़ों से दोषी ठहराकर या फिर गुप्त तरी$के से कार्रवाई की है। लोकतंत्र में कहा गया है कि किसी सरकार को राष्ट्रहित और जनहित वाली सरकार बनाने में मज़बूत विपक्ष की बहुत बड़ी भूमिका होती है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई भी इस बात को मानते थे। लेकिन मौज़ूदा केंद्र सरकार ने विपक्ष और विरोध की आवाज़ को दबाने के लिए न सिर्फ़ संसद सत्रों से प्रश्नकाल को ख़त्म करने की कोशिश की है, बल्कि उन्हें दबाने के लिए हर तरह से क़ानून को अपने हाथ की कठपुतली बनाने की पूरी कोशिश की है।

दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी किसी भी तरह देश की केंद्र की सत्ता पर हावी रहना चाहती है। इसके लिए इस जोड़ी ने विरोधियों को दबाने के लिए उनके कारनामों की फाइल्स का सहारा लेना शुरू कर दिया है। भाजपा के गोपनीय सूत्र बताते हैं कि तक़रीबन 150 विरोधी नेताओं की फाइलें केंद्र की मुट्ठी में हैं। इनमें विपक्ष के ही नहीं, विरोधी सुर वाले सत्ता पक्ष के लोग भी हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके बेटे राहुल गाँधी की नेशनल हेराल्ड वाली फाइल तो खुल भी चुकी है। लेकिन जो जानकारी बाहर निकलकर सामने आ रही है, उसके मुताबिक, क़रीब 122 सांसदों और विधायकों की फाइल्स तैयार की जा चुकी हैं, जिन्हें केंद्र सरकार चुनाव के दौरान हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगी।

दिल्ली नगर निगम के चुनाव टालकर दिल्ली में स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन पर भी कथित तौर पर इसी के तहत कार्रवाई हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो यहाँ तक दावा कर चुके हैं कि केंद्र सरकार मनीष सिसोदिया पर भी अवैध और $गैर-क़ानूनी तरी$के से कार्रवाई की तैयारी कर रही है। हिमाचल में आम आदमी पार्टी के लोगों को तोड़ा और जो नहीं टूटे, उन्हें गिर$फ्तार करना इसी साज़िश का हिस्सा है।

नेशनल हेराल्ड मामले में तो ईडी ने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को समन भी जारी कर दिये हैं। हालाँकि सोनिया गाँधी बीमार हो गयी हैं। हालाँकि ईडी ने उनकी पेशी में राहत देते हुए तारीख़ बढ़ा दी है। वहीं राहुल गाँधी को 13 जून से बार-बार ईडी ने बुलाया। हर बार उनसे लम्बी पूछताछ हुई। इससे पहले वह सत्याग्रह करने की कोशिश में थे; लेकिन सरकार ने पुलिस घेरेबंदी से उन्हें और उनके समर्थकों को रोक लिया। इस बीच कांग्रेस नेताओं ने इकट्ठा होकर प्रदर्शन करने की कोशिश भी की।

दरअसल नेशनल हेराल्ड एक न्यूज पेपर रहा है, जिसे साल 1938 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गाँधी की सहमति से शुरू किया था। इस न्यूज पेपर को शुरू करने का उद्देश्य वही था, जो आज की केंद्र सरकार का है कि मीडिया से जनता तक अपनी बात अपने हिसाब से पहुँचाने के लिए अपना ही कोई न्यूज पेपर होना चाहिए। फ़र्क़ यह है कि उस समय नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस ने ख़ुद खोला था; लेकिन आज की केंद्र सरकार भाजपा या अपने किसी नेता के नाम से मीडिया हाउसेस नहीं चला रही, बल्कि पूँजीपतियों या दूसरे लोगों के उन न्यूज चैनल्स और न्यूज पेपर्स को बढ़ावा दे रही है, जो उसके मन की बात करते हैं।

ख़ैर, नेशनल हेराल्ड न्यूज पेपर को चलाने के लिए एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड नाम की एक कम्पनी खोली गयी। नेशनल हेराल्ड में क़रीब 5,000 स्वतंत्रता सेनानी स्टेक होल्डर थे और उस समय इस न्यूज पेपर को अंग्रेजी में शुरू किया गया। इसके बाद नवजीवन न्यूज पेपर हिन्दी में और क़ौमी आवाज़ न्यूज पेपर उर्दू में निकलने शुरू हुए। शुरुआत से इस कम्पनी में कांग्रेस और गाँधी परिवार के लोग ही रहे। लेकिन यह कम्पनी 2008 में घाटे की वजह से सभी न्यूज पेपर्स को बन्द कर दिया गया। क्योंकि उस समय इस कम्पनी पर क़रीब 90 करोड़ रुपये का क़र्ज़ हो गया। इसके अलावा इसके स्टेक होल्डर भी घटकर बहुत कम रह गये थे। यह क़र्ज़ कैसे हुआ, यह जाँच का विषय है, जिस पर कांग्रेस ने कभी ग़ौर नहीं किया। अब सवाल यह उठा कि इस क़र्ज़ को निपटाया कैसे जाए? इसके लिए कांग्रेस ने एसोसिएट्स जर्नल्स लिमिटेड को पार्टी फंड से बिना ब्याज के 90 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिया, जिसके चलते यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड को एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड में 99 फ़ीसदी की हिस्सेदारी मिल गयी। यंग इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना कांग्रेस की मनमोहन सिंह सत्ता के दौरान 23 नवंबर 2010 को की गयी, जिसमें सबसे पहले दो लोग- सुमन दुबे और सैम पित्रोदा, जिनका पूरा नाम सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा है; शामिल हुए। 13 दिसंबर, 2010 को इसमें राहुल गाँधी को शामिल किया गया और 22 जनवरी, 2011 को इस कम्पनी में सोनिया गाँधी, मोती लाल बोहरा और ऑस्कर फर्नांडीज के नाम और शामिल किये गये। इस कम्पनी में सोनिया और राहुल गाँधी की 38-38 (कुल 76) फ़ीसदी की हिस्सेदारी है, जबकि बाक़ी की 24 फ़ीसदी हिस्सेदारी पहले मोतीलाल बोहरा और ऑस्कर फर्नांडिस के पास थी, अब उसमें मोती लाल बोहरा की जगह शायद दूसरे नाम हैं। क्योंकि साल 1997 में मोती लाल बोहरा की मृत्यु हो गयी थी, जिसके बाद उनकी जगह 2021 में पवन कुमार बंसल का नाम जोड़ा गया था। नेशनल हेराल्ड मामले में पवन कुमार बंसल को भी पूछताछ की जा चुकी है।

ख़ैर, अब इस मामले में केंद्र सरकार प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के माध्यम से सोनिया गाँधी पर कार्रवाई करना चाहती है। कांग्रेस का कहना है कि नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी की जाँच का कोई मतलब नहीं बनता। क्योंकि ईडी केवल मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े मामलों को देख सकती है, जबकि यह मामला मनी लॉन्ड्रिंग का नहीं है। बता दें कि नेशनल हेराल्ड का मामला इनकम टैक्स के पास भी है।

दरअसल इस मामले की शिकायत तो 2012 में कांग्रेस की सरकार में ही भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने की थी; लेकिन उस दौरान इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई थी। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस मामले में सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और कम्पनी के अन्य स्टेक होल्डर्स पर धोखाधड़ी की साज़िश रचने और यंग इंडियन प्राइवेट लिमिटेड के ज़रिये पैसे के ग़बन का आरोप लगाया था। लेकिन 2014 में सत्ता भाजपा (एनडीए) के हाथ लगते ही अदालत ने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ समन जारी कर दिये। इसके बाद इसी साल अगस्त में ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग के तहत मामला दर्ज किया। साल 2015 में सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ने 50-50 हज़ार रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही जमानत राशि देकर दिल्ली के पटियाला कोर्ट से जमानत ली थी। मामले में कार्रवाई चलती रही। बता दें कि इस मामले में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी, उनके बेटे और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, पार्टी के दिवंगत नेता मोतीलाल बोहरा, ऑस्कर फर्नांडीस, सुमन दुबे, सैम पित्रोदा और यंग इंडिया प्राइवेट लिमिटेड आरोपी हैं। साल 2016 में ये लोग सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गये। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत पेशी से छूट दे दी; लेकिन कार्रवाई रद्द करने से इन्कार कर दिया। पिछले साल आरोपियों के नाम फिर नोटिस जारी हुआ और फरवरी, 2021 में सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी को नोटिस जारी किये थे। अब ईडी और इनकम टैक्स ने इस मामले में कार्रवाई शुरू कर दी है।

दरअसल नेशनल हेराल्ड मामले में गाँधी परिवार पर कई गम्भीर आरोप हैं, जिसमें एक इक्विटी लेन-देन से सम्बन्धित है, जिसमें सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी पर एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड को महज़ 50 लाख का भुगतान करके कम्पनी की 2,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की सम्पत्ति अपने हक़ में करने का आरोप है।

अब जब इसी साल का शीत सत्र नये संसद भवन में शुरू होने जा रहा है, तो सवाल यह है कि क्या इस नये संसद भवन में जाने से पहले कांग्रेस की कमर तोडऩे की केंद्र सरकार की तैयारी है, ताकि उसके नेता इस नये संसद भवन की सीढिय़ाँ न चढ़ सकें, यानी कांग्रेस ही ख़त्म होने की कगार पर आ जाए।

नया संसद भवन, जिसे ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेहद ज़रूरी कामों की लिस्ट में डालकर बनवाया है, क्या विपक्षी दलों के बैठने के लिए नहीं बना है? क्या वहाँ से भविष्य में केवल एक ही स्वयंभू सत्ता चला करेगी? ऐसे सवाल भी हैं, जो लोगों के ज़ेहन में उठने ही चाहिए। सवाल यह भी है कि अगर विपक्ष रहित सत्ता किसी के हाथ में होगी, तो क्या वह लोकतांत्रिक और निष्पक्ष रह सकेगी?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

धार्मिक उन्माद फैलाने वाले दोषी

महान् लेखक, कवि, नाटककार एवं दार्शनिक वाल्तेयर लिखते हैं- ‘हमारे सम्मान का पात्र वह है, जो हमारे मस्तिष्क पर सच्चाई के साथ प्रभाव डालता है; वह नहीं जो हिंसा के माध्यम से प्रभुत्त्व स्थापित करता है।’
हालाँकि भारतीय राजनीति व समाज में ऐसे लोग दुर्लभ हो गये हैं, जो कर्म एवं वचन से सम्मान पाने के उत्तराधिकारी हों। सदैव विवादित तथा कोलाहलपूर्ण वातावरण में अपना आधार खोजना भारतीय राजनीति का एक दुर्गुण रहा है। इसीलिए ज्ञानवापी मामले के बीच ही पैगम्बर के तथाकथित अपमान के मुद्दे पर देश की सियासत गरमायी हुई है। नूपुर शर्मा एवं नवीन जिंदल के निष्कासन के साथ ही अंतत: भाजपा ने इस मामले के पटाक्षेप का प्रयास किया; लेकिन ये विवाद थमता नहीं दिख रहा। 70 के दशक से धार्मिक एकता के नाम पर वोटबैंक की जो राजनीति शुरू हुई, वह 90 के दशक तक धार्मिक ध्रुवीकरण में बदल गयी। वर्तमान विवाद उसी प्रक्रिया का अगला चरण है। छद्म पंथनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण की जो राजनीति कांग्रेस सपा और राजद जैसे दलों ने की, उसी के प्रतिपक्ष में जनसंघ और उसकी उत्तराधिकारी पार्टी भाजपा ने भी धार्मिक, व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के इस आश्चर्यजनक उत्कर्ष में विपक्ष का तुष्टिकरण और भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण का बराबर योगदान है। असल में इस समय हिन्दुत्व का नारा भाजपा के हाथ एक ऐसे ब्रह्मास्त्र की तरह लग गया है, जिसका इस्तेमाल वह अपनी सफलता के साथ-साथ नाकामियों को छिपाने के लिए आसानी से कर रही है। उसी के समानांतर विपक्ष अपनी तुष्टिकरण की नीति को और दृढ़ता के साथ लेकर आगे बढ़ा रहा है। सत्य यही है कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, यहाँ कोई भी उचित के साथ नहीं, बल्कि अपनी अनुकूलता के साथ खड़ा है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में धर्म एवं पन्थ के मुद्दों ने देश के सभी आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक मसलों को नेपथ्य में धकेल दिया है। जबकि अभी हमारे सामने कई ऐसे मूलभूत प्रश्न हैं, जिन पर भारत के भविष्य के राजनीतिक-सामाजिक जीवन को ध्यान में रखते हुए विचार करना आवश्यक है। कई दफ़ा घटनाओं की विकरालता के प्रभाव के कारण उनकी वास्तविकता या उनमें निहित कारणों की अनदेखी कर दी जाती है।

धार्मिक-पंथीय आस्था व मान्यताएँ समाज के लिए आवश्यक होती हैं। लोक संस्कृतियों में उनकी उपयोगिता भी है। किन्तु उन्हें देश व समाज की रक्षा से ऊपर प्राथमिकता देना अनुचित है। डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति में जातिवाद को एक बीमा की तरह मानते थे; लेकिन सबसे उत्तम श्रेणी का बीमा तो धर्म हो गया है। देश के राजनीतिक दल धर्म के सुविधाजनक मुद्दे से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे हैं। ज्ञानवापी पर चैनल्स की मुर्ग़ा-कुश्ती से उपजे विवाद में अब अरब देशों के कूद पडऩे के बाद यह मामला सुलझने के बजाय और उलझता जा रहा है। इसमें संशय नहीं है कि नूपुर शर्मा का बयान ग़लत था; लेकिन अरब देशों का भारत के आंतरिक मामले में दख़ल देना भी उचित नहीं है। डच सांसद गिर्ट वाइल्डर्स ने नूपुर शर्मा के बयान का समर्थन करके और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने उसका विरोध करके वैश्विक स्तर पर एक लम्बी बहस को जन्म देने का प्रयास किया।

इस पूरे विवाद के मूल दोषी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के मंच हैं, जो बहुत आसानी से आग लगाकर बच जाते हैं। इस मामले में मीडिया को भी वादी बनाया जाना चाहिए। पिछले एक दशक से भारतीय न्यूज चैनल्स पर होने वाले वाद-विवाद (डिबेट) दुनिया के सबसे ग़ैर-ज़रूरी कार्यक्रम बन गये हैं। इनसे सिर्फ़ उन्मादी भीड़ पैदा होती है। किसी भी टीवी डिबेट को देखिए, आपको एक भी संतुलित बयान नहीं मिलेगा और न ही कोई सार्थक बात सुनने को मिलेगी। आख़िर तक आप नहीं समझ पाएँगे कि इस बहस का निष्कर्ष क्या निकला? कई दफ़ा डिबेट के मसले ही अनौचित्यपूर्ण होते हैं। विभिन्न न्यूज चैनल्स पर में बुलाये जाने वाले लोगों के व्यक्तित्व, योग्यता, कार्यानुभव से दर्शक बहुत हद तक अनभिज्ञ होते हैं। यहाँ तक कि वे किस संस्था और किस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; इसका भी समुचित ज्ञान नहीं होता। ऐसे लोगों को न्यूज चैनल्स द्वारा उकसाया जाता है, जो ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तथा उत्तेजक बयान देते रहते हैं। कभी-कभी तो इनकी भाषा इतनी अभद्र होती है कि चैनल बदलना पड़ जाता है। ऐसा सिर्फ़ अपरिचित चेहरों के साथ नहीं है, बल्कि राजनीति के परिचित चेहरे भी इससे अलग नहीं हैं। चैनल्स पर चलने वाली बहसें देश की राजनीति का विद्रूप चेहरा दिखा रही हैं।

कुछ समय पूर्व एक टीवी डिबेट के दौरान अति-उत्तेजना में कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी की हृदय गति रुक जाने से मृत्यु ही गयी थी। एक अन्य बहस में भाजपा एवं सपा के प्रवक्ता आपस में मारपीट करते नज़र आये। ऐसे और भी अभद्र व्यवहार वाले दृश्यों को यह न्यूज चैनल्स बड़ी ही रुचि के साथ प्रसारित करते हैं। यह समझ पाना कठिन है कि न्यूज चैनल्स का इन कार्यक्रमों के पीछे वास्तविक मंतव्य क्या है? ये आख़िर देश के राजनीतिक विमर्श को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? ऐसा लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस देश को हिंसा की आग में झोंककर ही रहेगा।
याद कीजिए, जब राम मन्दिर विवाद मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने वाला था, तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसा माहौल बना रखा था, मानो सड़कों पर दोनों समुदायों के लोग हिंसा करने को तैयार बैठे हैं और निर्णय आते ही देश में गृह युद्ध छिड़ जाएगा। लेकिन वास्तविकता में सामान्य जनजीवन बिलकुल शान्तिपूर्ण था। हाँ, एक उत्सुकता ज़रूर थी। लेकिन ऐसा कोई अशान्ति का माहौल नहीं था, जैसा मीडिया ने बना रखा रखा था। रूस-युक्रेन युद्ध को ही लें, तो इस दौरान भारतीय मीडिया के उग्र एवं ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये की विश्व भर में काफ़ी आलोचना हुई थी। अगर कभी यह देश हिंसा की आग में झुलसा, तो उसकी पूरी ज़िम्मेदारी आज की घटिया राजनीति और भोंपू मीडिया पर ही पड़ेगी। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आज जिस तरह से पत्रकारिता का स्तर गिरा है, उसके लिए सबसे ज़्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज़िम्मेदार है। किसी भी व्यवसाय के अपने आंतरिक द्वंद्व होते हैं; लेकिन एक व्यवसाय के रूप में मीडिया ने नैतिकता के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिये हैं। व्यावसायिक लाभ के लिए पत्रकारिता जैसे सम्मानित और ज़िम्मेदार पेशे को किस तरह कलंकित एवं अपमानित किया जा सकता है, इसका सबसे पुख़्ता उदाहरण आज के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रस्तुत कर रहा है।

एक दौर था, जब किसी व्यक्ति द्वारा ख़ुद का परिचय एक पत्रकार के रूप में देने पर लोग उसे सम्मान की नज़र से देखते थे। आज पत्रकार होने का अर्थ अविश्वास व शंका हो गया है, जो हास्यास्पद है। कई बार तो बहुत गम्भीर पत्रकार अपना परिचय इस रूप में देना भी पसन्द नहीं करते। आज पत्रकारिता कई ख़ेमों में बँटी हुई है। कोई सत्ता के साथ है, तो कोई विपक्ष के। किन्तु कोई भी भारत के लोकतंत्र के साथ खड़ा नहीं दिख रहा है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह प्रजातंत्र में जनता की आवाज़ होता है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि भारत का मीडिया तो ख़ुद ही सत्ता एवं पूँजीवाद के सामने नतमस्तक है। इसके साथ ही मुस्लिम पक्ष की उग्रतापूर्ण प्रतिक्रिया की भी आलोचना होनी चाहिए। इस मामले में मिली सहानुभूति को उन्होंने अपनी जाहिलियत और स्तरहीन विरोध के कारण गँवा दिया। किसी व्यक्ति का दोष तय करना, उसे दण्ड देना न्यायालय व क़ानून का काम है। मुस्लिम पक्ष द्वारा जिस प्रकार की अभद्र भाषा में नूपुर शर्मा एवं नवीन जिंदल को मारने, घर जलाने, सिर क़लम करने और हाथ काटने जैसी धमकियाँ जिस तरह से सोशल मीडिया पर दी जा रही हैं, वो नितांत ही असभ्य, अशोभनीय एवं ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हैं।

इसके अतिरिक्त अपने पंथीय सम्मान को लेकर व्यग्र रहने वाले मुसलमानों का एक समूह टीवी डिबेट ही नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्स ऐप और इंस्टाग्राम जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर भी सनातन समाज के विरुद्ध उकसावेपूर्ण और अनर्गल बयानबाज़ी करता रहता है। शिवलिंग को लेकर की जाने वाली अभद्र टिप्पणियाँ इसका प्रमाण हैं, जिसके उत्तर में सनातन पक्ष द्वारा भी इसी तरह की बयानबाज़ी की गयी। इसमें भी अपुष्ट एवं भ्रामक ख़बरों का प्रयोग होता रहता है, जिससे समाज में उत्तेजना और अराजकता फैलती है। इस पर भी लगाम कसना ज़रूरी है। क़ुरआन की सूरह अल कहफ़ की आयत संख्या-6 के अनुसार, ‘ऐ ईमान वालो! अगर कोई बिन-भरोसे की तबीयत वाला आदमी तुम्हारे पास कोई ख़बर ले आवे, तो उस बात की जाँच कर लिया करो। कहीं ऐसा न हो कि बेख़बरी, नादानी में किसी क़ौम पर जा पड़ो, फिर तुमको अपने किये पर पछताना पड़े।’
यह सीख सभी के लिए उपयोगी है। किसी भी लोकतंत्र के लिए धर्म, संस्कृति, राजनीति, समाज इत्यादि से जुड़े विभिन्न विषयों पर बहस-मुबाहिसे से चलना आवश्यक है। लेकिन भारत में समस्या यह है कि इन दिनों बहस के सारे मुद्दे सिर्फ़-और-सिर्फ़ धर्म पर केंद्रित हो गये हैं। ऐसी सोच विघटनकारी साबित होगी। स्वधर्म के प्रति आग्रह में कोई बुराई नहीं, किन्तु जब यह भावना अन्य धर्म, समाज या उनसे जुड़े लोगों के प्रति दुराग्रह रूप ले लेती है, तब यह विखंडनवाद को धार देते हुए राष्ट्र तथा समाज के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होने लगती है। दुर्भाग्य यही है कि हमारा देश अब तेज़ी से धार्मिक टकराव की तरफ़ बढ़ रहा है, जिसमें सभी पक्ष बराबर के दोषी हैं। उचित हो कि हम सब त्वरित प्रयास से नियति से किये गये अपने वादे पर क़ायम रहें और सभी धर्मों में पढ़ाये गये अहिंसा के पाठ को याद रखे।

ईडी की कार्रवाई से कांग्रेस गदगद!

राजनीति में कौन अपना है और कौन पराया, इस पर कम ही महत्त्व दिया जाता है। लेकिन मौक़े की तलाश में सियासतदान सदैव रहते हैं। जैसा कि मौज़ूदा समय में कांग्रेस पार्टी को ईडी के बहाने ही सही, पर केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मौक़ा मिल ही गया है। बीते आठ वर्षों से केंद्र की सत्ता से बेदख़ल कांग्रेस पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी को एक मौक़े की तलाश थी, जो उसे सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की कार्रवाई से मिल गया है। इससे कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक तो एकजुट हुए ही हैं, बल्कि काफ़ी लोगों के मन में भी केंद्र सरकार की दण्डनीति के प्रति आक्रोश दिख रहा है। कांग्रेस इसी तलाश में रही है कि कांग्रेस के क़द्दावर नेता से लेकर कार्यकर्ता जाग जाएँ, पार्टी के पक्ष में जनसमर्थन हासिल हो और केंद्र की मोदी सरकार के विरोध में एक माहौल बन सके।

जो कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता नहीं कर पा रहे थे, वो काम 13 जून को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने बड़ी आसानी से कर दिया है। ‘तहलका’ ने इस विषय में देश के विभिन्न राज्यों के लोगों से बातचीत की। कुछ लोगों ने कहा कि भाजपा द्वारा जो माहौल बनाया जा रहा था कि कांग्रेस के दिन लद गये हैं, उसे झटका लगा है। क्योंकि ईडी ने कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को अपने कार्यालय में बुलाकर जो व्यवहार किया है, उससे कांग्रेस के प्रति लोगों की सहानुभूति और बढ़ी है। पहले ही जो लोग कांग्रेस के भ्रष्टाचार से असन्तुष्ट थे, अब मौज़ूदा सरकार में बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और दण्डनीति से तंग आकर फिर से कांग्रेस को याद करने लगे हैं।

ईडी की कार्रवाई को लेकर जानकारों का कहना है कि कांग्रेस इस घटनाक्रम को एक अवसर के रूप में देख रही है। ईडी की इस कार्रवाई को लेकर कांग्रेस के नेता पूरे देश में एक माहौल बनाने के लिए तत्पर हैं। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि 13 जून को शुरू हुआ सत्याग्रह अगले कई दिनों तक देश भर में जारी रहेगा।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अमरीश सिंह का कहना है कि जिस तरह आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी के विरोध में तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने कार्रवाई की थी और उसके विरोध में जो सहानुभूति कांग्रेस और इंदिरा गाँधी के प्रति लोगों के मन में उभरी थी, वही सहानुभूति कांग्रेस के प्रति फिर से उभरती दिख रही है। विपक्ष सहित जनता इस बात को मान रही है कि केंद्र सरकार बदले की भावना से लोगों के ख़िलाफ़ ईडी, सीबीआई और तमाम जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है। उनका कहना है कि सरकार रोज़गार देने में असफल है। बढ़ती महँगाई को क़ाबू करने में असफल है। देश में जो दो समुदायों के बीच तनाव चल रहा है, उसको भी वह क़ाबू नहीं कर पा रही है। ऐसे में केंद्र सरकार अपनी कमियों को छिपाने के लिए और जनता का ध्यान भटकाने के लिए विपक्ष को फँसाने का काम कर रही है, जिससे भाजपा को कुछ हासिल नहीं होगा।
अमरीश सिंह का कहना है कि बदले की भावना से पीडि़त केंद्र की मोदी सरकार ने कांग्रेस पार्टी को बैठे-बिठाये यह मुद्दा थमा दिया है, जिससे कांग्रेसी गदगद हैं और इसे भुनाने में लगे हैं।

कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नेशनल हेराल्ड समाचार पत्र से जुड़े कथित धनशोधन के एक मामले में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी से 10 घंटे तक पूछताछ की। इसके बाद फिर से 14 जून को उन्हें दोबारा पेशी पर बुला लिया। बिना मतलब ईडी द्वारा इस तरह की कार्रवाई पूरी तरह से ग़लत है। यह क़ानून का दुरुपयोग है। उन्होंने कहा कि पुलिस ने मार्च से पहले ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक को हिरासत में ले लिया था, जबकि कई नेताओं को नज़रबंद कर दिया था। उन्होंने बताया कि हद तो यह है कि पुलिस ने प्रदर्शन से एक दिन पहले से ही लोगों की धरपकड़ शुरू कर दी थी। दिल्ली को छावनी में तब्दील कर दिया गया।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना है कि ईडी ने राहुल गाँधी को सुबह से बैठाकर लम्बी पूछताछ की। इससे भी काम नहीं चला, तो फिर से दबाब बनाने के लिए दोबारा पूछताछ को बुला लिया। राहुल गाँधी ने क्या ग़लत किया है? उन्होंने तो सिर्फ़ अख़बार को क़र्ज़ दिया है। इसमें कुछ ग़लत नहीं है। उन्होंने बताया कि इस कम्पनी (यंग इंडिया) से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी एक रुपया भी नहीं ले सकते हैं। इसमें कोई लाभ भी नहीं उठा सकते हैं। यह सब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और तमाम जाँच एजेंसियों को भली भाँति मालूम है।

कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ‘तहलका’ को बताया कि कई बार सियासत में दाँव उलटा पड़ जाता है, जैसा कि भाजपा और मोदी सरकार पर अब सब कुछ उलटा पडऩे वाला है। क्योंकि कांग्रेस को जिस तरीक़े से परेशान किया जा रहा है, उससे पूरे देश में अब भाजपा के ख़िलाफ़ एक माहौल बनने लगा है। उनका कहना है कि जिस अंदाज़ में देश भर के कांग्रेसी नेता गाँधी परिवार के साथ हो रहे दुव्र्यवहार को लेकर एकजुट हो गये हैं, वह कांग्रेस के हित में है। अब कांग्रेस बड़ी लड़ाई को अंजाम देने के मूड में है। कांग्रेस सड़कों पर उतरने को तैयार है। उन्होंने बताया कि कांग्रेस अब गाँव-गाँव तक इस सत्याग्रह आन्दोलन को ले जाने की तैयारी में है।

कांग्रेस के नेता अनिल चौधरी का कहना है कि कांग्रेस की नेता सोनिया गाँधी कोरोना से जूझ रही हैं, उनका दिल्ली के निजी अस्पताल में इलाज चल रहा है। भाजपा वाले जानबूझकर उनके परिवार वालों के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रच रहे हैं। इसका ख़ामियाज़ा आने वाले दिनों में भाजपा को देखने को मिलेगा, क्योंकि आगामी चुनावों में जनता उसे सबक़ सिखाएगी।

तहलका विचार
राजनीति देश के विकास के लिए होनी चाहिए, न कि सत्ता हथियाने और देश के दोहन के लिए। देश की जनता भले ही विवश हो; लेकिन किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति विशेष को इसकी इजाज़त नहीं देती। जनता को मतदान की ताक़त इसीलिए दी गयी थी, ताकि वह अपनी इच्छा से अपने और देश हित के लिए लोकतांत्रिक सरकार चुन सके। लेकिन आज़ादी के बाद अब तक जो भी सरकारें बनी, उनमें से 99 फ़ीसदी भ्रष्टाचार की दलदल में धँसती गयीं। बावजूद इसके किसी भी भ्रष्ट नेता पर तब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, जब तक वह सत्ता में रहा। नेशनल हेराल्ड मामले में अगर गड़बड़ी है, तो कांग्रेस नेताओं पर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन क्या सत्ता पक्ष के नेता दूध के धुले हुए हैं? कई नेता ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार, बलात्कार, धन शोधन, घोटालों के आरोप हैं। लखपति नेता विधायक या सांसद बनते ही करोड़पति हो चुके हैं। उन पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए? उन पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए, जिनके पास सत्ता में आते ही चंद महीनों में अकूत सम्पत्ति आ गयी? क़ानून न्यायसंगत तभी माना जा सकता है, जब वह सभी के लिए समान रूप से लागू हो। सरकार को देशवासियों के प्रति समदर्शी और उदार होना चाहिए, न कि अपने-पराये के क्रूर और भेदभावपूर्ण रवैये वाला।

ईडी की कार्रवाई से भाजपा कांग्रेस को भ्रष्ट सिद्ध करके अवसर तलाश रही है। इसी की आड़ में वह सत्ता की ताक़त से विपक्ष की जड़ें काटना चाहती है। वहीं कांग्रेस यह सन्देश देकर कि उसके साथ द्वेशपूर्ण भावना से ग़लत तरीक़े से कार्रवाई की जा रही है, जनता सहानुभूति बटोरना चाहती है। इस तरह दोनों ही अवसर की तलाश में हैं।

काटना होगा किडनी रैकेट्स का जाल

देश में किडनी (गुर्दा) ख़रीदने व बेचने का अवैध धंधा इन दिनों फिर से चर्चा में है। हाल ही में पुणे व दिल्ली में पुलिस ने किडनी के इस अवैध धंधे से जुड़े कई लोगों को गिरफ़्तार किया है। दरअसल मई में पुणे पुलिस ने वहाँ के एक क्लीनिक से कुछ संदिग्धों को गिरफ़्तार किया, जिन्होंने किडनी कथित तौर पर अवैध प्रत्यारोपण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस धंधे में शामिल कुछ दलालों ने सारिका सुतार नामक एक महिला को 15 लाख में एक किडनी बेचने के लिए तैयार किया। फिर उसे क्लीनिक में जमा कराये गये दस्तावेज़ों में रोगी अमित सांलुके की पत्नी के रूप में दर्शाया गया, अर्थात् फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाये गये और अस्पताल प्रशासन को भी ऐसे दस्तावेज़ पर कोई शक नहीं हुआ। यह हक़ीक़त तब सामने आयी, जब दलालों ने सारिका सुतार को किडनी प्रत्यारोपण के बाद वादे के मुताबिक 15 लाख रुपये की रक़म न देकर उससे कम रक़म देकर वहाँ से जाने को कहा। सारिका ने ख़ुद अस्पताल प्रशासन के सामने सच्चाई बतायी और उसके बाद पुलिस ने संदिग्धों की गिरफ़्तारी की।

जून में दिल्ली में जिस किडनी रैकेट का भंडाफोड़ हुआ है, वह भी चौंकाने वाला है। दिल्ली पुलिस के मुताबिक, 10वीं पास कुलदीप 777 किडनी प्रत्यारोपण करता था। 46 वर्षीय आरोपी कुलदीप ने पुलिस को बताया कि 10वीं के बाद उसने ओटी टेक्नीशियन का डिप्लोमा हासिल करके कई अस्पतालों में काम किया था। इस दौरान डॉक्टरों को सर्जरी करते देख उसने यह सब सीख लिया। उसने हरियाणा के गोहाना में एक क्लीनिक खोला और वहाँ अवैध तरीक़े से किडनी प्रत्यारोपण का धंधा चला रहा था। इस काम में उसके साथ कई डॉक्टर, दलाल व अन्य लोग भी शामिल थे। पुलिस ने इस मामले में जिन 11 लोगों को गिरफ़्तार किया है, उनमें तीन डॉक्टर भी शामिल हैं। मुख्य आरोपी कुलदीप इस काम में कितना पारंगत है, इसका अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि वह प्राइवेट अस्पतालों से डॉक्टरों को लुभाने के लिए दिल्ली के लुटियन जोन में स्थित होटलों में कई सेमिनार व कार्यक्रम भी आयोजित करवाता था। पुलिस के अनुसार, इस गैंग के लोग डॉक्टरों को ख़ुद को हेल्थकेयर ग्रुप का सदस्य बताते थे। बहरहाल इस किडनी रैकेट के बारे में भी पुलिस को असम से आये एक ग़रीब व्यक्ति ने बताया जो तीन लाख के बदले अपनी एक किडनी देने यहाँ आया था। वह इस गैंग के फेसबुक पेज के ज़रिये जुड़ा था। उसकी किडनी प्रत्यारोपण की सारी प्रक्रियाएँ लगभग पूरी हो चुकी थीं। लेकिन दिवाकर नामक इस व्यक्ति ने अपनी किडनी देने से पहले पुलिस को यह जानकारी दे दी और पुलिस फिर सक्रिय हो गयी।

विडंबना यह है कि कई बार किडनी ख़रीदने व बेचने के मामले सामने आने के बाद भी यह अवैध धंधा देश में चल रहा है। कभी-कभार किसी रैकेट का पर्दाफ़ाश हो जाता है और इस पर पुलिस, सम्बन्धित सरकारी एजेंसियाँ सक्रिय भूमिका में नज़र आती हैं; लेकिन फिर कुछ दिनों के बाद सब कुछ ओझल हो जाता है। आख़िर ऐसा क्यों? मानव अंगों की तस्करी एक बहुत बड़ी समस्या है। इसे रोकना एक बहुत बड़ी चुनौती तो है; लेकिन नामुमकिन नहीं। दरअसल देश में हर साल लाखों बीमार लोगों को अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। लेकिन माँग और आपूर्ति में बहुत बड़ा फ़ासला है। इसलिए देश में बड़े पैमाने पर अंगदान के लिए जागरूकता फैलाने व एक जन-आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है, ताकि लोग स्वेच्छा से अंगदान का संकल्प ले सकें। अंगदान दिवस का प्राथमिक उद्देश्य देश में अंगदान और प्रत्यारोपण को बढ़ावा देना है, ताकि अंग विफलता से पीडि़त लोगों को सही वक़्त पर एक नयी ज़िन्दगी मिल सके।

ग़ौरतलब है कि अंग प्रत्यारोपण से अभिप्राय सर्जरी के माध्यम से एक व्यक्ति के स्वस्थ अंग को निकालने और उसे ऐसे व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित करने से है, जिसका अंग किन्हीं कारणों से काम नहीं कर रहा हो। एक कड़ी सच्चाई यह है कि देश में अंगदान को लेकर उतनी गम्भीरता से अभियान नहीं चलाया गया, जितनी गम्भीरता से चलाये जाने की ज़रूरत है। इसी कारण देश में हर साल अंग विफलता के कारण क़रीब पाँच लाख लोग मर जाते हैं। अंगदान ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें किसी व्यक्ति (जीवित या मृत) दोनों स्वस्थ अंगों और ऊतकों को लेकर किसी अन्य ज़रूरतमंद व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। प्रत्यारोपित होने वाले अंगों में दोनों किडनी, लीवर, फेफड़े, हृदय, आँत और अग्नाशय शामिल होते हैं। ऊतकों के रूप में कोर्निया, त्वचा, हृदय वाल्व, कार्टिलेज हड्डियों का प्रत्यारोपण होता है। इन अंगों में सबसे अधिक माँग किडनी की है। इसलिए अवैध किडनी प्रत्यारोपण का धंधा का$फी फल-फूल रहा है। देश में तक़रीबन 1.5 से 2 लाख गुर्दों (किडनियों) की हर साल ज़रूरत होती है। जबकि 50,000 यकृत (लीवर) प्रत्यारोपण की ज़रूरत होती है। लेकिन हर साल तक़रीबन 5000 से लेकर 9000 किडनियाँ ही प्रत्यारोपित हो पाती हैं। 20,000 लोग किडनी डायलिसिस से काम चलाते हैं। शेष अपनी जान गँवा देते हैं। किडनी शरीर से निकालने के बाद 24 से 36 घंटे तक सही रहती है। वहीं लीवर 8 से 12 घंटे तक व फेफड़े चार से पाँच घंटे तक ही प्रत्यारोपण के योग्य रहते हैं।

ग़ौरतलब है कि 80 व 90 के दशक में भारत विश्व में किडनी बाज़ार के रूप में मशहूर था। किडनी रैकेट इस स्तर पर फैल चुका था कि अकेले मुम्बई तत्कालीन बम्बई में ही हर महीने 100 किडनी प्रत्यारोपित होती थीं। दरअसल किडनी की जितनी माँग है, उसके अनुपात में आपूत्ति बहुत ही कम है। इस हालात के मद्देनज़र बहुत-से लोग किडनी ख़रीदने व बेचने के अवैध धंघे से जुड़ गये हैं। इसमें कम पढ़े-लिखे व शिक्षित दोनों ही तरह के लोग हैं। विडंबना यह है कि इस रैकेट से जुड़े लोग अक्सर ग़रीबों और कम आय वाले लोगों को अपने जाल में फँसाते हैं। ऐसा अनुमान है कि अवैध रूप से हर साल क़रीब 2,000 किडनियों की बिक्री देश में होती है। किडनी रैकेट्स के बढ़ते जाल के मद्देनज़र भारत सरकार ने मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम-1994 बनाया था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य चिकित्सीय प्रयोजनों के लिए मानव अंगों के निष्कासन, भण्डारण और प्रत्यारोपण को विनियमित करना है। साथ ही यह मानव अंगों के वाणिज्यिक प्रयोग को भी प्रतिबन्धित करता है।

इस अधिनियम में किसी ग़ैर-सम्बन्धी के अंग प्रत्यारोपण को ग़ैर-कानूनी घोषित किया गया था। बाद में इस अधिनियम में संशोधन किया गया। मानव अंग प्रत्यारोपण (संशोधन) अधिनियम-2011 पारित किया गया। इस अधिनियम में मानव अंगदान की प्रक्रिया को और आसान बनाया गया। साथ ही इसके दायरे को और अधिक व्यापक कर उसमें ऊतकों को भी शामिल किया गया। इसके बाद मानव अंग और ऊतक प्रत्यारोपण नियम-2014 भी आया। सन् 2011 व सन् 2014 के संशोधित अधिनियम के बाद अंगदान करने सम्बन्धी व अन्य नियमों में बदलाव किये गये, संशोधन के बाद मृत व्यक्ति को भी दानकर्ता की सूची में डाल लिया गया। इसी तरह नज़दीकी रिश्तेदार के अलावा दोस्तों व ससुराल पक्ष से भी अंग लेने की इजाज़त मिल गयी; लेकिन दान करने वाले व अंग लेने वाले के बीच में किसी भी प्रकार का पैसा का लेन-देन नहीं होना चाहिए। संशोधन के बाद स्वैप ट्रांसप्लांटेशन की भी इजाज़त मिल गयी, यानी इसमें एक जोड़ी के डोनर किडनी को दूसरे के साथ बदल दिया जाता है। इसके अलावा हृदय गति के अचानक रुकने से मरने वाले लोगों के अंग निकालकर भी प्रत्यारोपण की इजाज़त दी गयी। इससे पहले सिर्फ़ ब्रैन डेड की श्रेणी में आने वाले लोगों से ही अंग लेने की इजाज़त थी। इसके साथ ही क़ानून का उल्लघंन करने वालों के लिए सज़ा बढ़ाकर 10 साल व आर्थिक दण्ड एक करोड़ रुपये कर दिया।

भारत सरकार की मंशा हर इंसान को स्वस्थ व प्रसन्न देखना है। सरकार ने अंग विफलता वाले मामले में अवैध धंधे पर शिंकजा कसने के लिए क़ानून तो बना दिया; लेकिन उस पर अमल उतनी सख़्ती से नहीं हो सका। अवैध काम करने वालों के मन में क़ानून का डर नहीं होना भी एक तरह से सरकार की विफलता ही मानी जाएगी। अगर सरकार इस दिशा में सख़्ती से काम करे, तो देश में मानव अंगों का अवैध धंधा रुक सकता है, जो अभी तक गुपचुप तरीक़े से न जाने कितनी जगह जारी होगा।

बुज़ुर्गों को शिक्षित कर रहे बच्चे

 झारखण्ड की एक बच्ची द्वारा माँ को पढ़ाने से प्रेरित हुए ग्रामीण
 बच्चों ने एक साल में क़रीब 16,000 बुज़ुर्गों को बनाया साक्षर

पढ़ाई को बचपन से जोड़ा गया है। लेकिन इसकी कोई उम्र नहीं होती। प्राचीन ग्रन्थों को देखें, तो गर्भावस्था में भी शिक्षा मिलती थी। सुभद्रा के गर्भ में रहकर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह-भेदन की कला सीख ली थी। हाल ही में सिने अभिनेता अभिषेक बच्चन की एक फ़िल्म दसवीं पास। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि अभिषेक एक क़द्दावर नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें भ्रष्टाचार में जेल होती है। वहाँ वह 10वीं पास करने की ठान लेते हैं। वह जेल से ही 10वीं की पढ़ाई करके परीक्षा पास करते हैं। बाद में मंत्री बनकर शिक्षा का प्रचार करते हैं और कहते हैं कि पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती है। इससे ज्ञान बढ़ता है। सोचने की शक्ति बढ़ती है। जीवन स्तर बदलता है।

यह फ़िल्म की बात है; पर यह एक सच्चाई भी है। झारखण्ड की बात करें, तो शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो को मंत्री बनने के बाद ताना सुनना पड़ा कि वह केवल 10वीं पास हैं। जगरनाथ महतो पारिवारिक परेशानी के कारण आगे नहीं पढ़ पाये थे। महतो 10वीं पास के ताने से इतने आहत हुए कि अपनी पुरानी ख़्वाहिश को पूरा करने में जुट गये। मंत्री बनने के बाद उन्होंने पहला काम किया 11वीं में कॉलेज में नामांकन लिया। वह परीक्षा भी दे रहे हैं।

यह सही है कि पढ़ाई के लिए सबसे अच्छा बचपन माना गया है। लेकिन कई ऐसे लोग हैं, जो कारणवश पढ़ाई के सपने को पूरा नहीं कर पाते हैं। समाज में इस तरह के लोग उम्र के एक पड़ाव पर जाकर शिक्षा हासिल करते हैं। केरल के कोल्लम में रहने वाली 105 साल की भागीरथी अम्मा ने राज्य साक्षरता मिशन के तहत चौथी कक्षा के बराबर की परीक्षा पास करके मिसाल क़ायम कर दी। पढ़ाई करना उनकी बचपन की ख़्वाहिश थी।

देहरादून के निवासी मोहनलाल ओनएनजीसी से उप महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। उन्होंने अपने सपनों को साकार करने के लिए रिटायरमेंट के बाद दोबारा पढ़ाई शुरू की। दो साल पहले इग्नू से मास्टर इन टूरिज्म में डिग्री हासिल की। इस तरह के कई उदाहरण हमारे देश में भरे पड़े हैं। ऐसा ही कुछ पढ़ाई का सिलसिला इन दिनों झारखण्ड के लातेहार में चल रहा है। $खास बात यह है कि इस शिक्षा की अलख जगा रहे बच्चे अपने माँ-बाप के साथ-साथ आसपास के लोगों को भी साक्षर बना रहे हैं।

प्रौढ़ शिक्षा का नाम बदला
केंद्र सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा को एक बार फिर नये सिरे से शुरू करते हुए इसका नाम न्यू इंडिया साक्षरता कार्यक्रम (नव भारत साक्षरता कार्यक्रम) रखा था। अब सरकार ने इसका नाम भी बदलकर ‘सभी के लिए शिक्षा’ रखा है। वित्त वर्ष 2022-2027 की अवधि में शिक्षा को एक नये रूप में लेकर आने की योजना है। इस योजना का उद्देश्य न केवल आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मकता प्रदान करना है, बल्कि 21वीं सदी के नागरिक के लिए आवश्यक अन्य घटकों को भी शामिल करना है।

झारखण्ड की साक्षरता दर
झारखण्ड की भौगोलिक स्थिति, यहाँ के रहन-सहन, परिवेश, ग़रीबी आदि के कारण साक्षरता दर काफ़ी कम रही है। हालाँकि बीते कुछ वर्षों में इसमें सुधार आया है; लेकिन अभी और सुधार की ज़रूरत है। राज्य में सन् 1961 में केवल 21.14 साक्षरता दर थी। उस वक़्त महिलाओं का केवल 6.11 फ़ीसदी हिस्सेदारी थी। सन् 1991 में साक्षरता दर 41.59 फ़ीसदी पर पहुँची। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता दर 66.41 फ़ीसदी थी। राज्य के शिक्षा विभाग के आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2018 में साक्षरता दर 73.20 फ़ीसदी थी। लेकिन कोरोना वायरस के कारण साक्षरता कार्यक्रम पर बुरा असर पड़ा। हालाँकि एक बार फिर इस अभियान को शुरू किया गया है।

नक्सली इलाक़े में शिक्षा की अलख
झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर 3,622 वर्ग किलोमीटर में फैला लातेहार ज़िला है। इसकी आबादी लगभग 7.26 लाख है। इसमें 3.69 लाख पुरुष और 3.57 लाख महिलाएँ हैं। कुल आबादी में 66 फ़ीसदी से अधिक अनुसूचित जाति (लगभग 45.54 फ़ीसदी) और बाक़ी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं।

लातेहार अपनी समृद्ध प्राकृतिक सुंदरता, वन, वन उत्पादों और खनिज के लिए जाना जाता है। यह ज़िला कभी घोर नक्सल प्रभावित था। गोलियों की आवाज़ इलाक़े में गूँजा करती थी। पिछले कुछ वर्षों में नक्सल प्रभाव कम हुआ, तो इलाक़े में बदलाव आने लगा। अब कई जगहों पर गोलियों की जगह ककहरा (वर्णमाला पढऩे) की आवाज़ आने लगी है।

पढ़ रहे बुज़ुर्ग
लातेहार में बच्चों द्वारा बुज़ुर्गों को पढ़ाने की घटना खेल-खेल में ही शुरू हुई। स्थानीय लोगों का कहना है कि ज़िले के सुदूर इलाक़े में एक गाँव है, जहाँ के आठवीं कक्षा में एक बच्ची पढ़ती थी। एक दिन उसकी माँ बच्ची के साथ किसी काम से स्कूल जाना पड़ा। वहाँ अध्यापक ने बच्चों को मिलने वाली सुविधा से सम्बन्धित किसी काग़ज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। बच्ची की माँ अनपढ़ थी, वह न ही काग़ज़ पर लिखा समझ सकी और न हस्ताक्षर कर सकी।

शिक्षक और बेटी द्वारा काग़ज़ पर लिखी बातें बताने पर उन्होंने अँगूठा लगाया। इस पूरे घटनाक्रम ने बच्ची को शर्मिंदा किया। उसने माँ को कहा कि वह उसे पढऩा-लिखना सिखाएगी। बच्ची रोज़ाना स्कूल से आने के बाद माँ को पढ़ाने-लिखाने लगी। धीरे-धीरे वह महिला पूरा-पूरा वाक्य पढऩे लगी और कुछ-कुछ लिखने भी लगी। आस-पड़ोस की महिलाओं को यह देख अच्छा लगा। वे भी फ़ुरसत के समय बच्ची से पढऩे लगीं। इस तरह क्षेत्र में बुज़ुर्गों की पहली पाठशाला की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे क्रम बढ़ता गया, और एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए यह सिलसिला लातेहार के कई गाँवों तक पहुँच गया।

प्रशासन का लक्ष्य
लातेहार ज़िले की जनसंख्या 7.26 लाख है। यहाँ की साक्षरता दर 2011 की जनगणना के अनुसार 59.51 फ़ीसदी थी। मौज़ूदा में साक्षरता दर का आँकड़ा थोड़ा बढ़ गया है। स्थानीय प्रशासन पूर्ण साक्षर ज़िला बनाने के लिए प्रयासरत है। इसके तहत प्रौढ़ शिक्षा (सभी के लिए शिक्षा) योजना पर काम शुरू किया गया है। स्थानीय प्रशासन ने पिछले दिनों अनुभव कि किया बच्चों की मदद से प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा मिल सकता है।

खेल-खेल में शुरू की गयी पाठशाला का नतीजा सफल साबित हुआ है। इसे देखकर प्रशासन भी बच्चों की मदद लेने की तैयारी में है। स्थानीय बच्चों का कहना है कि स्कूल के शिक्षक ने उन्हें अपने माता-पिता और आसपास के लोगों को पढ़ाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उन्हें भी बुज़ुर्गों को पढ़ाने में बहुत आनन्द आता है। ज़िले के शिक्षा विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पिछले एक वर्ष में लगभग 16 हज़ार बुज़ुर्गों को बच्चों ने साक्षर बनाया है। यह आँकड़ा मार्च, 2022 तक का है। नये वित्तीय वर्ष में इसे संगठित रूप दे कर आगे बढऩे की योजना पर काम चल रहा है। ज़िले में 772 गाँव हैं। हर गाँव से निरक्षर लोगों का आँकड़ा लिया जा रहा है। इस महीने के अन्त तक ज़िले के विभिन्न गाँव में एक बार फिर बुज़ुर्गों के लिए बच्चों की पाठशाला शुरू हो जाएँगे। इस बार रात्रि पाठशाला भी शुरू करने की योजना है, क्योंकि दिन में महिलाएँ तो समय निकाल लेती हैं; लेकिन पुरुष समय नहीं निकाल पाते। रात्रि पाठशाला से पुरुषों को लाभ होगा।


“ज़िला के उपायुक्त के नेतृत्व में साक्षरता कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है। बच्चों ने खेल-खेल में जिस तरह से अपने माता-पिता, परिवार और आस-पड़ोस को साक्षर बनाया वह सराहनीय है। आने वाले दिनों में साक्षरता कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए बच्चों की भी मदद लेने की योजना है। इस वित्तीय वर्ष में ज़िले के एक लाख लोगों को साक्षर बनाने का लक्ष्य है। इसलिए लातेहार में भले ही अभी केवल साक्षर बनाने की योजना पर काम शुरू हुआ हो; लेकिन सम्भव है कि कुछ बुज़ुर्ग महिला-पुरुष केरल की भागीरथी अम्मा की तरह चौथी कक्षा या इससे आगे की पढ़ाई भी कर लें।’’
निर्मला कुमारी बरेलिया
ज़िला शिक्षा अधीक्षक, लातेहार

पुरुषों को रोने दें!

जब जॉनी डेप और एम्बर हर्ड मामले की ख़बर दुनिया भर में फैली, तो इसने सभी का ध्यान खींचा। क्योंकि यह दो मशहूर हस्तियों के बीच अत्यधिक प्रचारित अदालती लड़ाई का मामला था। दूसरी बात यह एक ऐसे व्यक्ति से जुड़ी थी, जो एक बेहद सफल और बहुत लोकप्रिय हॉलीवुड अभिनेता था। इस अभिनेता का अपनी पूर्व पत्नी पर अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) और खुले तौर पर उस मानसिक और भावनात्मक शोषण का आरोप था, जो उसे अपनी पत्नी की तरफ़ से झेलना पड़ा।

यह कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं है कि पुरुष भी अपनी हिंसक, भावनात्मक और मानसिक रूप से बीमार साथी की तरफ़ से शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से पीडि़त होते हैं। हालाँकि शायद ही कोई पुरुष यह सच कहने के लिए सामने आता है। क्योंकि ज़्यादातर समय पुरुष इस बात से इन्कार करते हैं कि उनके साथ दुव्र्यवहार किया जा रहा है। अगर किसी मौक़े पर वे इस तथ्य का सामना करने के लिए तैयार भी हैं कि वे एक अपमानजनक रिश्ते में हैं। ख़ासतौर से शारीरिक प्रताडऩा का शिकार हैं, तो भी एक पुरुष के लिए सामाजिक प्रतिक्रिया के कारण यह स्वीकार करना आसान नहीं है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में पत्नी की तरफ़ से शारीरिक रूप से हावी होना और दुव्र्यवहार करना अमानवीय माना जाता है। दु:ख की बात है कि अगर यह सामने आता है कि कोई व्यक्ति ऐसी प्रताडऩा का सामना कर रहा है, तो वह सहानुभूति पाने के बजाय बेतुके चुटकुलों का पात्र बन जाता है। इसलिए जब हॉलीवुड सुपरस्टार डेप ने अदालत में अपने निजी जीवन के बारे में कुछ चौंकाने वाले विवरणों का ख़ुलासा किया, तो सभी ने उस पर तुरन्त ध्यान दिया। आईपीवी के ख़िलाफ़ उनकी आवाज़ और एम्बर द्वारा उनकी पत्नी के भावनात्मक शोषण को सुना गया और गम्भीरता से लिया गया।

ख़ुद से हुई हिंसा के बारे में डेप ने ख़ुलासा किया कि एम्बर उसे थप्पड़ मारती थी और धक्का देती थी। एक बहस के दौरान उसने डेप पर वोदका की बोतल फेंकी। जब डेप ने अपने बचाव की कोशिश की, तो ऐसा करते हुए बोतल से उसकी दाहिनी मध्यमा उँगली पर इतना गहरा ज़ख़्म हो गया कि हड्डी दिखने लगी। अभिनेता ने कहा कि वह कभी-कभी ख़ुद को एक बेडरूम या बाथरूम में बन्द करके हिंसक बहस से ख़ुद को दूर कर लेते था, और उसने कभी हर्ड (पत्नी) को नहीं पीटा। डेप ने गवाही में कहा कि मेरा मुख्य लक्ष्य पीछे हटकर अपना बचाव करना भर होता था।
हालाँकि डेप न केवल आईपीवी के अन्तिम पड़ाव पर थे, बल्कि उन्हें भावनात्मक शोषण भी झेलना पड़ रहा था। उन्होंने कहा कि उनके (मेरे और पत्नी हर्ड के) बीच अक्सर तर्क होते थे, जिनमें ग़ुस्से से नाम पुकारना और डराना-धमकाना शामिल था। उनके मुताबिक, यह मेरे प्रति शुद्ध घृणा की तरह था।

तथ्य यह है कि डेप इस मामले में जिस तरह सामने आये, उससे उम्मीद है कि अन्य पुरुष, जो चुपचाप पीडि़त होते हैं; अब सामने आने और मदद लेने का साहस करेंगे। क्योंकि हमेशा महिलाएँ ही ऐसी स्थिति का शिकार नहीं होती हैं, बल्कि पुरुषों को भी प्रताडि़त किया जाता है। हमें एक समाज के रूप में इसे स्वीकार करने की आवश्यकता है। साल 2005 में गठित सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन (एसआईएफएफ), जो अपनी जीवनसाथी द्वारा हिंसा, मानसिक और भावनात्मक उत्पीडऩ का सामना कर रहे पुरुषों के अधिकार की लड़ाई लडऩे के साथ-साथ उन्हें परामर्श, सहायता और समर्थन देता है। इस समूह के मुताबिक, स्व-स्वीकार्य रूप से ऐसे पुरुषों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है और हर ह$फ्ते चार या पाँच लोग समूह में शामिल होते हैं।

भारत की बात करें, तो वर्ष 2004 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) ने ख़ुलासा किया कि देश में लगभग 1.8 फ़ीसदी महिलाओं ने अपने पतियों के ख़िलाफ़ हिंसा का सहारा लिया था। आँकड़ों के मुताबिक, ग्रामीण भारत की कहानी कुछ अलग नहीं लगती। ग्रामीण हरियाणा इसका नमूना है, जहाँ 21-49 आयु वर्ग के विवाहित पुरुषों के एक अध्ययन में 51.5 फ़ीसदी पुरुषों ने यातना या आईपीवी का सामना किया; जबकि 10.5 फ़ीसदी पुरुषों ने अपनी पत्नियों के हाथों हिंसा झेली।

हालाँकि अपमानजनक रिश्ते केवल हिंसा के बारे में नहीं हैं, उनमें भावनात्मक और मानसिक शोषण भी शामिल है। रिलेशनशिप एक्सपट्र्स के मुताबिक, लोगों के लिए यह पहचानना आसान नहीं है कि वे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से अपमानजनक रिश्ते में हैं। आधा समय तो उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगती। हालाँकि कुछ व्यवहार सम्बन्धी लक्षण हैं, जिन्हें विवाह सलाहकार और मनोवैज्ञानिक एक पति या पत्नी द्वारा किये जा रहे मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक शोषण से पहचानते हैं। उदाहरण के लिए यदि आपका जीवनसाथी आपके प्रति अति-आलोचनात्मक या निर्णयात्मक है, तो आप एक अपमानजनक विवाह में हैं। आप उनके और आपके परिवार के लिए कुछ भी हासिल नहीं करते हैं। वे शायद ही कभी उन्हें ख़ुश करने के आपके प्रयासों की सराहना करते हैं। जब आप उनकी किसी बात के लिए सहमत नहीं होते हैं, तो आपका जीवनसाथी नाराज़ या परेशान हो जाता है। वह बिना अनुमति के आपके ईमेल, टेक्स्ट मैसेज, सोशल मीडिया, लैपटॉप या फोन की जाँच करके अपनी सीमाओं को नियंत्रित कर रहा है। आपकी सीमाओं की अनदेखी कर रहा है, और आपकी गोपनीयता पर हमला कर रहा है।
आपको यह भी महसूस करना चाहिए कि आप भावनात्मक रूप से अपमानजनक रिश्ते में हैं, यदि आपका जीवनसाथी अधिकारपूर्ण और अनुचित रूप से ईष्र्यालु है। साथ ही जब आप आसपास नहीं होते हैं, तो लगातार कॉल करता है। इससे आप यदि अकेले या परिवार या दोस्तों के साथ समय बिताना चाहते हैं, तो आप परेशान हो जाते हैं। यदि वह आपकी दुनिया का केंद्र बनना चाहता है और आपको अपने जीवन के अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों जैसे आपके माता-पिता, भाई-बहन, विस्तारित परिवार, दोस्तों से अलग-थलग करना चाहता है या अन्य गतिविधियों का आनंद लेने से आपको रोकना चाहता है, तो यह आप पर हावी होने की कोशिश है।

एक अपमान करने वाला जीवनसाथी आप पर बेवफ़ाई का आरोप लगाता है। आपकी बार-बार जाँच करता है और आपको यह बताकर अपराधबोध कराता है कि उसने आपके लिए एक लाख बलिदान किये हैं। वह आपको हर समय एक अपराधबोध से देखता है और सन्देह के घेरे में रखता है। आपको अपर्याप्त महसूस कराता है और आत्महत्या करने की धमकी देता है, या बच्चों को आपसे दूर ले जाता है। ऐसे जीवनसाथी आमतौर पर आपकी उपलब्धियों, आशाओं और सपनों को कम करके आपको नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अपने तर्कहीन व्यवहार के बारे में बात करने से इन्कार करते हैं या अपनी ग़लतियों और कार्यों की ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं। वे अपनी विफलता के लिए आपको या किसी और को दोष देते हैं। तर्कहीन होते हैं, और जब आपने कुछ ग़लत किया है, तो स्नेह वापस ले लेते हैं।

शोध से पता चलता है कि लगभग 43 फ़ीसदी पतियों ने अपनी पत्नियों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार, अपमान, उत्पीडऩ और निराशा के कारण आत्महत्या करने पर विचार किया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, विश्व स्तर पर आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में दोगुनी है। मैं यह नहीं कह रही हूँ कि सभी आत्महत्याएँ एक अपमान करने वाले पति या पत्नी के कारण होती हैं; लेकिन इन आँकड़ों पर भरोसा करें, तो यह उनमें से एक बड़ा कारण है, जिसका फ़ीसद बहुत है।

जैसा कि आँकड़े बताते हैं कि पुरुष अधिक कमज़ोर होते हैं, क्योंकि वे यह मानने से इन्कार करते हैं या छिपाते हैं कि वे एक अपमानजनक रिश्ते में हैं। वे इन्कार की स्थिति में रहते हैं और इसके बारे में बात नहीं करते हैं। यहाँ तक कि अगर उन्हें पता चलता है कि वे एक अपमानजनक रिश्ते में हैं, तो वे किसी से मदद तक नहीं माँगते। क्योंकि दूसरे व्यक्ति के साथ साझा करने की बात तो दूर है, वे ख़ुद इसे स्वीकार करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं। आख़िर एक मर्दाना आदमी कैसे कमज़ोर हो सकता है या किसी के द्वारा चालाकी या बदसलूकी का शिकार हो सकता है, ख़ासकर एक महिला के हाथों। लेकिन कई लोग यह सब चुपचाप सहते रहते हैं। क्योंकि उनके दिमाग़ में यह भरा है कि वे दु:ख उठाने के लिए ही हैं। क्योंकि असली मर्द रोते नहीं हैं। असली मर्द अपनी भावनाओं के बारे में बात नहीं करते हैं। यह कहेंगे कि डर लगता है, तो लोग क्या कहेंगे? अगर मैं किसी को बता दूँ कि मेरी पत्नी मुझे मार रही है या भावनात्मक रूप से गाली दे रही है, तो वे मुझे डरपोक या जोरू का ग़ुलाम कहेंगे। महिलाओं की ही तरह पुरुष भी तलाक़ के सामाजिक और आर्थिक परिणामों, लम्बी क़ानूनी लड़ाई, अपने बच्चों तक पहुँच खोने, अपने साथियों और सहकर्मियों की नज़र में सम्मान खोने के कारण इस स्थिति तक क़दम उठाने से बचते हैं।

सबसे बुरी बात यह है कि ख़ुद को और अपने परिवार को झूठे मामले में फँसाने का ख़ौफ़ भी रहता है, क्योंकि भारतीय दण्ड संहिता के तहत कई क़ानून महिलाओं के पक्ष में हैं। अच्छे कारण के लिए भी, क्योंकि बड़ी संख्या में महिलाओं को इसके संरक्षण की आवश्यकता है। हालाँकि हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि बहुत-सी महिलाएँ अपनी सुरक्षा के लिए बनाये गये क़ानूनों का दुरुपयोग करती हैं। गुरुग्राम के उस 31 वर्षीय पुरुष के परिवार से पूछो, जिसने 6 मई को एक होटल में आत्महत्या कर ली; क्योंकि उसकी पत्नी और उसके दूसरे परिजन उसे परेशान कर रहे थे और झूठे मामले में फँसाने की धमकी दे रहे थे।

आप कह सकते हैं कि अधिक लिंग-तटस्थ घरेलू हिंसा क़ानूनों और महिलाओं द्वारा क़ानूनों के दुरुपयोग की आवश्यकता के बारे में यह तर्क और धारा-498(ए) जैसे क़ानूनों में दुरुपयोग के प्रावधान को लागू करने की आवश्यकता (एक महिला के पति या रिश्तेदार के साथ क्रूरता के अधीन) या दहेज़ अधिनियम की धारा-4 को भुला दिया गया है। लेकिन इसे सख़्ती से कुचलने की ज़रूरत है। क्योंकि यह दु:ख की बात है कि भारत में अपनी पत्नी के हाथों हिंसा और भावनात्मक शोषण का सामना करने वाले पुरुष ख़ुद को बचाने के लिए कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि क़ानून उन्हें पीडि़त के रूप में नहीं मानता है। दुनिया भर के अधिकांश देशों के विपरीत भारत में घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून दोनों लिंगों को सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए विदेशों में प्रताडि़त और प्रताडि़त पति अदालतों से बचाव आदेश माँग सकते हैं; लेकिन भारत में दुव्र्यवहार का शिकार होने वाले पतियों के पास वह विकल्प नहीं है। हम क़ानूनी तौर पर भारतीय समाज में कई सकारात्मक बदलाव देख रहे हैं। अब भारत को भी क़ानूनी तौर पर अपने जीवनसाथी या परिवार के सदस्यों के हाथों घरेलू हिंसा या भावनात्मक और मानसिक शोषण का सामना करने वाले पुरुषों को अधिक समर्थन करना चाहिए।

हालाँकि एक अनुपयोगी और असंगत क़ानूनी व्यवस्था को छोड़कर क्या हम एक समाज के रूप में अपने आप को सभी दोषों से मुक्त कर सकते हैं? क्या हम भी समान रूप से दोषी नहीं हैं? क्या हम अपने लड़कों को हमेशा कठिन होने और इसे एक मर्द की तरह लेने के लिए कहकर मर्दानगी की पुरातन, यहाँ तक कि मध्ययुगीन धारणा के साथ नहीं जी रहे हैं? क्या हम उन पुरुषों का भी मज़ाक़ नहीं उड़ाते, जो अपनी भावनाओं के सम्पर्क में हैं और उन्हें बहन कहते हैं? इसके लिए दूसरों से ज़्यादा पुरुष ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि जब कोई महिला आईवीपी या मानसिक शोषण की शिकायत करती है, तो उसके जीवन में महिलाएँ उस पर हँसती नहीं हैं या उसे ख़ारिज नहीं करती हैं। वे इसे गम्भीरता से लेती हैं और पीडि़ता के साथ सहानुभूति रखती हैं, उसे दिलासा देती हैं और उसके साथ खड़ी होती हैं। वे उसे मदद लेने की सलाह भी देती हैं और कुछ मामलों में उसके लिए मदद भी देती हैं। लेकिन पुरुष क्या करते हैं? वे अविश्वास और उपहास में हँसते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि एक आदमी को उसकी पत्नी ने पीटा था। वे उसे जोरू का ग़ुलाम करार दे देते हैं। तो क्या भाईचारा केवल शराब की मेज तक सीमित है, और शरारत भर करने के लिए है? जब कोई अन्य पुरुष घरेलू प्रताडऩा का शिकार हो रहा हो, तो मानव-संहिता कहाँ जाती है? इस क्षेत्र में पुरुष एक दूसरे का समर्थन क्यों नहीं करता?

क्या हमने कभी सोचा है कि इस मध्ययुगीन मानसिकता को बदलने का समय आ गया है कि मर्द को दर्द नहीं होता या लड़के रोते नहीं हैं। क्या यह सही समय नहीं है कि हम एक समाज के रूप में उन पुरुषों के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण बनें, जो अपने जीवनसाथी के हाथों पीडि़त हैं? सिर्फ़ इसलिए कि एक आदमी शान्ति बनाये रखने के लिए चुप रहता है या क्योंकि वह अपने बच्चों को खोना नहीं चाहता, उसकी क़ीमत किसी इंसान से कम नहीं हो जाती। हमें उसकी तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए या सहानुभूतिपूर्ण सहयोग करना चाहिए। उस व्यक्ति का मज़ाक़ नहीं उड़ाया जाना चाहिए, जो यह स्वीकार करने का हौसला दिखा रहा है कि वह अपनी पत्नी से शारीरिक या भावनात्मक शोषण का सामना कर रहा है। क्योंकि ख़ुद ऐसा स्वीकार करने के लिए हिम्मत चाहिए होती है, बाक़ी की तो बात ही छोडि़ए।
हमें यह महसूस करने की ज़रूरत है कि एक पुरुष का शारीरिक और भावनात्मक शोषण एक वास्तविकता है, और हमें इसे हल करने की आवश्यकता है। उसके लिए हमें कितने और जॉनी डेप या एम्बर हर्ड चाहिए? आख़िर हमें पुरुषों में यह धारणा रखने की आवश्यकता है कि अगर कोई शारीरिक और भावनात्मक रूप से अपमानजनक रिश्ते में है, तो उसका अपनी समस्याओं के बारे में बात करना ठीक है। आख़िर हम कितनी और आत्महत्यायों का इंतज़ार करेंगे? क्या ऐसे मुद्दों पर हँसना और आहत भावनाओं को हवा देना ठीक है? समय आ गया है कि पुरुष को रोने दें!

(लेखिका पायनियर में वरिष्ठ संपादक हैं।)

योगी सरकार पर अखिलेश लगातार हमलावर

विपक्ष जब मज़बूत हो, तो वह सरकार से सीधे सवाल कर सकता है, उसे किसी मुद्दे पर घेर भी सकता है। मगर योगी पर हमलावर होने वालों को यह छूट नहीं है। इसे तानाशाही कहें या कुछ और, मगर योगी आदित्यनाथ को अपने विरोध में कुछ भी सुनना उसी तरह नागवार गुज़रता है, जिस तरह एक तानाशाह को अपने विरोध में कुछ भी सुनना पसन्द नहीं होता। देश के एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने विरोधी सुरों को बुलडोज़र से दबाने में अपनी शान समझते हैं। इसके उपरांत भी योगी आदित्यनाथ के विरोध में उठने वाले सुर दिनोंदिन बुलंद होते जा रहे हैं। योगी बुलडोज़र का जितना अधिक प्रयोग कर रहे हैं, उनके विरोध में लोगों के सुर भी उतने ही बुलंद होते जा रहे हैं, जिसे लेकर उनका पूरा अमला इम विरोधी सुरों को दबाने में लगा हुआ है। इन विरोधी सुरों में सबसे अधिक विरोध समाजवादी पार्टी अध्यक्ष तथा नेता विपक्ष अखिलेश यादव दर्ज करा करे हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लाल टोपी वाले अखिलेश के विरुद्ध भी बुलडोज़र का प्रयोग कर पाएँगे?

विधानसभा चुनाव में हार के बाद से ही अखिलेश यादव नाराज़ हैं। कुछ समय पहले ही विधानसभा के बजट सत्र में अखिलेश यादव ने प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से अभद्रता की थी। हालाँकि बात एक ओर से नहीं बढ़ी, बल्कि दोनों ही ओर से बढ़ी थी। अखिलेश यादव के यह कहने पर कि उनकी सरकार में प्रदेश की सड़क परिवहन व्यवस्था बेहतर हुई थी, क्योंकि उन्होंने कई सड़कें बनवायीं केशव प्रसाद मौर्य ने उन पर तंज़ कसा कि सड़कें बनवाने का पैसा क्या आप अपने गाँव से लाये थे। इतना कहना था कि अखिलेश यादव का पारा चढ़ गया और उन्होंने कहा कि आप अपने पिताजी से पैसा लाते हैं, बनाने के लिए? बात इतनी बढ़ी कि योगी आदित्यनाथ को हस्तक्षेप करना पड़ा। हालाँकि अखिलेश पर योगी को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु वह उसे स्पष्ट रूप से उजागर नहीं कर सके और अपने भाषण में मर्यादा में रहने की दुहाई देते दिखायी दिये। अब जब उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के कामकाज में कई कमियाँ दिखायी दे रही हैं, ऊपर से बुलडोज़र, दंगा जैसी स्थितियाँ चरम पर हैं, तब अखिलेश यादव लगातार योगी आदित्यनाथ पर हमलावर दिख रहे हैं।

स्वास्थ्य व्यवस्था पर तंज़
समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था पर तंज़ कसा है। उन्होंने कहा है कि पिछले पाँच साल के भाजपा राज में स्वास्थ्य सेवाएँ निम्नतर स्तर पर पहुँच चुकी है, जिसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली सरकार ही पूरी तरह दोषी है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भाजपा राज में $खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं के चलते उत्तर प्रदेश बदनुमा मॉडल बन गया है, क्योंकि भाजपा सरकार में न तो एम्बुलेंस हैं, न दवा है, न उपचार मिलता है, मिलता है तो केवल इंतज़ार मिलता है। नये स्वास्थ्य मंत्री इस सच्चाई से अवगत भी हैं, पर नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है।

अखिलेश यादव ने कहा कि समाजवादी पार्टी की सरकार ने अपने कार्यकाल में नये मेडिकल कॉलेजों की स्थापना के साथ-साथ एमबीबीएस की सीटें भी बढ़ाई थीं। गम्भीर बीमारियों के उपचार की पूर्ण व्यवस्था की थी। कैंसर, किडनी, हृदय और लीवर के इलाज की मु$फ्त व्यवस्था की थी। परन्तु भाजपा सरकार ने ग़रीबों के इलाज में कोई रुचि नहीं दिखायी।

अखिलेश सच बोले या झूठ?
राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी तो है, जो पूरी तरह से जनता के प्रति ईमानदार हों। ऐसा भी नहीं है कि नेता झूठ नहीं बोलते, चाहे वो सत्ता पक्ष के हों और चाहे विपक्ष के नेता हों। अखिलेश यादव की बात की बात करें, तो सरकारी अस्पतालों की दशा वास्तव में ठीक नहीं है। इन दिनों की अगर बात करें, तो ज़िला अस्पतालों में क्षमता से कई कई गुना अधिक रोगी वहाँ हैं और बेड, दवाओं व अन्य सुविधाओं की कमी से धक्के खा रहे हैं। भीषण गर्मी में जिन रोगियों को समय पर उपचार नहीं मिल पा रहा है, उनकी दशा और भी बिगड़ती जा रही है। लोगों के पास इतने पैसे नहीं कि वो निजी अस्पतालों में उपचार करा सकें। ग्रामीण रोगियों की अगर बात करें, तो वो ब्लॉक में बने चिकित्सा केंद्रों पर निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त गाँवों में ही निजी चिकित्सकों से सैकड़े वाली गोलियाँ लेकर स्वस्थ होने की इच्छा रखते हैं। ग्रामीण चिकित्सक, जिनमें अधिकतर बिना डिग्री वाले हैं, किसी रोगी को थोड़ी सी भी कमज़ोरी होने पर सीधे ग्लूकोज की बोतल चढ़ा देते हैं। इससे उन्हें रोगी से अच्छी कमायी हो जाती है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों की दशा अभी ऐसी हुई है, पहले भी कभी इनकी दशा बहुत अच्छी नहीं रही। परन्तु यह भी सच है कि अब सरकारी अस्पतालों की दशा पहले से भी बदहाल हुई है, जिसे योगी आदित्यनाथ क वर्तमान सरकार को स्वीकार भी करना चाहिए और इस ओर ध्यान भी देना चाहिए। कहा जा सकता है कि अखिलेश ने प्रदेश में स्वास्थ्य व्यवस्था का जो मुद्दा उठाया है, वो अति आवश्यक मुद्दा है, जिस पर सरकार का ध्यान जाना चाहिए।

बुलडोज़र नीति
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के दूसरे कार्यकाल में बुलडोज़र नीति का प्रकोप जनता में लगातार भय पैदा कर रहा है। योगी आदित्यनाथ का यह बुलडोज़र विरोध करने वालों पर चल रहा है। इनमें मुस्लिम समाज के विरोधी तत्काल निशाने पर आ जाते हैं। इसे लेकर भी अखिलेश यादव ने योगी सरकार को घेरा है। पीडि़तों का कहना है कि गुंडों पर बुलडोज़र चलाने की बात कहने वाले योगी आदित्यनाथ अब स्वयं ही न्यायाधीश बन बैठे हैं और जो भी उनका विरोध करता है, उसे बिना सुनवाई के बुलडोज़र का डर दिखाते हैं। हाल ही में कानपुर से लेकर प्रयागराज तक प्रदर्शन और हिंसा के बाद बुलडोज़र चला। सरकार की इस कार्रवाई से प्रदेश में राजनीति गरमा गयी है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री तथा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस बुलडोज़र नीति पर राज्य सरकार को घेरा है। उन्होंने एक ट्वीट लिखा कि ये कहाँ का इंसा$फ है कि जिसकी वजह से देश में हालात बिगड़े और दुनिया भर में स$ख्त प्रतिक्रिया हुई, वो सुरक्षा के घेरे में हैं और शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बिना वैधानिक जाँच पड़ताल बुलडोज़र से सदा दी जा रही है। उसकी अनुमति न हमारी संस्कृति देती है, न धर्म, न विधान, न संविधान। अखिलेश के इस ट्वीट के बाद प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने उन पर निशाना साधा। इसके बाद लोगों ने केशव प्रसाद मौर्य को आड़े हाथों ले लिया।

बुलडोज़र चलना सही या ग़लत?

जैसा कि सभी जानते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लोगों से राम राज्य का वादा करके सत्ता में आये हैं। इसके बाद उनका हर कहीं बिना न्यायालय में अपराधियों या आरोपियों पर मुक़दमा चलाये, बिना किसी न्यायाधीश के फ़ैसला सुनाये सीधे लोगों के घर पर, व्यावसायिक स्थल पर बुलडोज़र चलवा देना भी न्यायोचित तो नहीं है। किसी भी नेता को फ़ैसला करने का अधिकार न हमारा संविधान देता है और न मानवता इसकी अनुमति प्रदान करती है। राम प्रसाद कहते हैं कि इस तरह तो राजतंत्र में होता था कि जो भी राजा के मन में आता था, वही किया जाता था। परन्तु अब तो लोकतंत्र है। लोकतंत्र में सरकार को लोगों के द्वारा ही चुना जाता है। अगर वह लोगों पर ही इस तरह का दबाव बनाएगी, तो लोगों में भय भी पैदा होगा और सरकार, विशेषतौर पर मुख्यमंत्री व उनके अन्य नेताओं के प्रति घृणा का भाव पैदा होगा। जब लोकतंत्र में न्यायालय हैं, पुलिस है, प्रशासन है, तो फिर सीधे बुलडोज़र चलवाना कैसे सही हो सकता है? यह तो उचित नहीं है। दोषियों पर पुलिस कार्रवाई करे, न्यायालय उन्हें दण्ड दे, सरकार का काम है प्रदेश में विकास कार्यों पर ध्यान देना। कुल मिलाकर योगी आदित्यनाथ की बुलडोज़र नीति से अधिकतर लोग $खुश नहीं हैं। वहीं कुछ लोग ख़ुश भी हैं। उनका कहना है कि मुसलमानों को तो इस देश में रहने का अधिकार ही नहीं है, यह देश उनका है ही नहीं, वे तो बाहरी लोग हैं। परन्तु यह राय उचित नहीं है। क्योंकि जो भी यहाँ कई पीढिय़ों से रह रहा है, वह देश का नागरिक है। संविधान ने उसके लिए भी समान अधिकार व कर्तव्य निहित किये हैं। योगी आदित्यनाथ सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

वैश्विक खाद्य संकट का ज़िम्मेदार अमेरिका

कारण है पशु चारा, इथेनॉल, कृषि-ईंधन के लिए उपयोग होने वाला भोजन

संयुक्त राज्य अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भारत को गेहूँ का निर्यात निलंबित करने के अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कह रहे हैं। अध्ययन करने से जो आँकड़े सामने आते हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि आसन्न खाद्य संकट के लिए भारत नहीं, बल्कि अमेरिका को दोषी ठहराया जाना चाहिए। अनाज मनुष्यों के इस्तेमाल होने की चीज है; लेकिन अमेरिकी सरकार के वित्त पोषित इथेनॉल उद्योग 473 मिलियन टन अनाज के वैश्विक विश्व व्यापार के 35 फ़ीसदी के बराबर का उपयोग करता है। भूख को रोकने के लिए निर्धारित भारतीय निर्यात प्रतिबंध इस राशि के दो फ़ीसदी से भी कम को प्रभावित करेगा।

इस मामले में वास्तविक दोषी पशु आहार के साथ-साथ अन्य ग़ैर-खाद्य उपयोगों, मुख्य रूप से कृषि-ईंधन के लिए भोजन का उपयोग होना है। विडंबना यह है कि अमेरिकी सरकार और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भारत से गेहूँ निर्यात को निलंबित करने के अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कह रहे हैं। उनकी चिन्ता यह है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बीच निर्यात प्रतिबंध भोजन की कमी को बढ़ा देंगे। लेकिन तर्क तकनीकी या नैतिक रूप से ज़मीन पर नहीं टिकता।

विदेश व्यापार के महानिदेशक, संतोष कुमार सारंगी कहते हैं कि गेहूँ की क़ीमतों में वैश्विक स्तर पर अचानक तेज़ी आयी है, जिसके परिणामस्वरूप भारत और पड़ोसी देशों की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में है। नतीजतन सरकार ने अपनी निर्यात नीति में कुछ संशोधन किये। हालाँकि सरकार ने गेहूँ निर्यात को प्रतिबंधित करने पर विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी), वाणिज्य विभाग की तरफ़ से जारी 13 मई के अपने आदेश में कुछ छूट की घोषणा की। यह निर्णय किया गया कि जहाँ कहीं भी गेहूँ की खेप जाँच के लिए सीमा शुल्क विभाग को सौंपी गयी है और 13 मई को या उससे पहले उनकी व्यवस्था में पंजीकृत की गयी है, ऐसी खेपों को निर्यात करने की अनुमति दी जाएगी।

सरकार ने मिस्र के लिए एक गेहूँ शिपमेंट की भी अनुमति दी, जो पहले से ही कांडला बंदरगाह पर लोड हो रहा था। इसके बाद मिस्र सरकार ने कांडला बंदरगाह पर लदान किये जा रहे गेहूँ के माल की अनुमति देने का अनुरोध किया। मिस्र को गेहूँ के निर्यात का ज़िम्मा उठा रही कम्पनी मीरा इंटरनेशनल इंडिया ने भी 61,500 मीट्रिक टन गेहूँ की लोडिंग पूरी करने के लिए एक प्रेसेंटेशन दी थी, जिसमें से 44,340 मीट्रिक टन गेहूँ पहले ही लोड किया जा चुका था और केवल 17,160 मीट्रिक टन लदान किया जाना बाक़ी था। सरकार ने 61,500 मीट्रिक टन की पूरी खेप की अनुमति देने का निर्णय किया और इसे कांडला से मिस्र जाने की अनुमति दी।

सरकार ने पहले भारत में समग्र खाद्य सुरक्षा स्थिति का प्रबंधन करने के लिए और पड़ोसी और कमज़ोर देशों की ज़रूरतों का समर्थन करने के लिए गेहूँ के निर्यात को प्रतिबंधित कर दिया था, जो गेहूँ के लिए वैश्विक बाज़ार में अचानक बदलाव से प्रतिकूल रूप से प्रभावित हैं और पर्याप्त गेहूँ की आपूर्ति तक पहुँचने में असमर्थ हैं। इस आदेश के अनुसार, यह प्रतिबंध उन मामलों में लागू नहीं होगा, जहाँ निजी व्यापार द्वारा लेटर ऑफ क्रेडिट के माध्यम से पूर्व प्रतिबद्धताओं के साथ-साथ उन स्थितियों, जहाँ भारत सरकार द्वारा अन्य देशों को उनकी खाद्य सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने की अनुमति दी जाती है, जब उनकी सरकारों का अनुरोध होता है।

आदेश ने तीन मुख्य उद्देश्यों को पूरा किया- भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना और मुद्रास्फीति की जाँच करना। यह अन्य देशों को खाद्य घाटे का सामना करने में मदद करता है और यह एक आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की विश्वसनीयता बनाये रखता है। आदेश का उद्देश्य गेहूँ की आपूर्ति की जमाख़ोरी को रोकने के लिए गेहूँ बाज़ार को एक स्पष्ट दिशा प्रदान करना भी है। दिलचस्प बात यह है कि द ऑकलैंड इंस्टीट्यूट, सैन फ्रांसिस्को के नीति निदेशक फ्रेडरिक मूसो ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की 6 मई, 2022 की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि दुनिया अनाज की अपेक्षाकृत आरामदायक आपूर्ति स्तर का लाभ उठाती है।

विश्व बैंक ने भी इसकी पुष्टि की है, जिसने पाया कि अनाज का वैश्विक स्टॉक ऐतिहासिक रूप से उच्च स्तर पर है और युद्ध शुरू होने से पहले ही रूसी और यूक्रेनी गेहूँ का लगभग तीन-चौथाई निर्यात किया जा चुका था। इन सबका मतलब है कि वास्तव में भोजन की कोई कमी नहीं है। ये संख्या यूक्रेन के कृषि मंत्रालय के आँकड़ों के अनुरूप हैं, जिसने 19 मई को रिपोर्ट किया था कि देश ने 2021-22 के सीजन में 46.51 मिलियन टन अनाज का निर्यात किया था, जो पिछले वर्ष 40.85 मिलियन था।
इसके अलावा खाद्य संकट अटकलों के कारण भी हो सकता है, क्योंकि सट्टेबाज़ों ने बढ़ती क़ीमतों से लाभ कमाने के प्रयास में कमोडिटी बाज़ारों में तेज़ी ला दी है। एक बेहतर उदाहरण दो शीर्ष कमोडिटी-लिंक्ड ‘एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्सÓ (ईटीएफ) हैं, जिन्होंने यूएस 1.2 बिलियन डॉलर का निवेश हासिल किया है, जबकि पूरे 2021 के साल में यह 197 मिलियन डॉलर था। अर्थात् 600 फ़ीसदी की वृद्धि। रिपोर्ट बताती हैं कि अप्रैल में पेरिस गेहूँ बाज़ार में 72 फ़ीसदी ख़रीद गतिविधि के लिए सट्टेबाज़ ज़िम्मेदार थे, जो महामारी से पहले 25 फ़ीसदी से ऊपर था और इसका मक़सद स्व-निर्मित कमी से पैसा बनाना था

भोजन की कमी के बजाय वास्तविकता यह है कि जितना हम खाते हैं, दुनिया उससे कहीं अधिक अन्न का उत्पादन करती है। विश्व स्तर पर उत्पादित अन्न का 33 फ़ीसदी से अधिक पशु आहार के साथ-साथ अन्य ग़ैर-खाद्य उपयोगों के लिए उपयोग किया जाता है, मुख्य रूप से कृषि-ईंधन। क़रीब 400 मिलियन टन मकई का 40 फ़ीसदी (160 मिलियन टन) से अधिक इथेनॉल उत्पादन में जाता है। अन्य 40 फ़ीसदी पशु आहार में जाता है। केवल 10 फ़ीसदी का उपयोग भोजन के रूप में किया जाता है, जबकि बाक़ी 10 फ़ीसदी का निर्यात किया जाता है। साल 2022-2023 में भारत से 10 मिलियन टन से अधिक गेहूँ निर्यात करने की सम्भावना नहीं थी, जो कि अमेरिकी संख्या की तुलना में नगण्य है। वास्तव में कृषि-ईंधन के उत्पादन के लिए भोजन की बढ़ती मात्रा-वैश्विक अनाज बाज़ारों में तनाव पैदा करने वाला एक प्रमुख कारक है।

अमेरिका में इथेनॉल उत्पादन 2001 में 3.6 मिलियन बैरल से बढ़कर अब 102 मिलियन बैरल से अधिक हो गया था। यह इस तथ्य के बावजूद है कि इथेनॉल गैसोलीन की तुलना में कम-से-कम 24 फ़ीसदी अधिक कार्बन गहन है। यह किसी पाखण्ड से कम नहीं है कि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व खाद्य कार्यक्रम और विश्व व्यापार संगठन, सभी देशों से व्यापार को खुला रखने और खाद्य या उर्वरक पर निर्यात प्रतिबंध जैसे प्रतिबंधात्मक उपायों से बचने का आग्रह कर रहे हैं, जिससे सबसे कमज़ोर लोगों की पीड़ा ही बढ़ेगी। लेकिन अगर सरकारें और अंतरराष्ट्रीय संस्थान उच्च खाद्य क़ीमतों के कारण मानव पीड़ा को ख़त्म करने के लिए गम्भीर हैं, तो उन्हें उन देशों पर दबाव डालने से बचना चाहिए, जो खाद्य आपूर्ति को उस स्तर पर बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं, जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। यह ज़रूरी है कि वे सभी राष्ट्रों की खाद्य सम्प्रभुता को पहचानें और उनका सम्मान करें।

विश्व बाज़ार पर दबाव ख़त्म करने के लिए देशों को तत्काल अहम उपाय करने चाहिए। यह हैं- ईंधन के रूप में उपयोग किये जाने वाले भोजन की मात्रा को कम करना, खाद्य उत्पादों पर अटकलों पर अंकुश लगाना, ख़ासकर कथित भविष्य के कमोडिटी बाज़ारों को प्रतिबंधित करना जहाँ सट्टेबाज़ भविष्य की क़ीमतों पर दाँव लगाते हैं। उनके लिए एकमात्र उचित निर्णय यह होगा कि वे उच्च खाद्य क़ीमतों के व्यापक कारणों पर निर्णायक कार्रवाई करें और खाद्य वस्तुओं पर लगने लगने वाले अनुमानों पर अंकुश लगाएँ और ईंधन के उत्पादन के लिए भोजन का डायवर्जन करें। भारत अपनी ओर से व्यापार विनियमन उपायों के माध्यम से और बाज़ारों को विनियमित करके अपने किसानों का समर्थन करके घरेलू बाज़ारों में मूल्य संचरण को रोकने में सफल रहा है।

भारत की उपलब्धि ऐसे समय में आयी है, जब उसने तय समय से पाँच महीने पहले पेट्रोल का 10 फ़ीसदी एथेनॉल मिश्रण हासिल कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर आध्यात्मिक नेता सद्गुरु की संचालित ईशा फाउंडेशन के आयोजित सेव सॉयल कार्यक्रम को संबोधित करते हुए ख़ुद पुष्टि की कि इस उपलब्धि ने 27 लाख टन कार्बन उत्सर्जन को कम किया है, देश को बचाया है। विदेशी मुद्रा ख़र्च (तेल आयात पर) में 41,000 करोड़ रुपये और आठ वर्षों में किसानों की आय में 40,000 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई।

सिद्धू मूसेवाला हत्याकांड बेक़ाबू गैंगस्टर्स पर शिकंजा ज़रूरी

पंजाब के मानसा ज़िले के छोटे से गाँव मूसा के शुभदीप सिंह सिद्धू अपनी मेहनत के दम पर सिद्धू मूसेवाला के नाम से मशहूर हुए। लेकिन शायद कुछ लोगों को उनकी प्रसिद्धि हज़म नहीं हो रही थी। काफ़ी दिन से घात लगाये बैठे गैंगस्टर्स की मंशा आख़िर 29 मई को पूरी हो ही गयी। उस दिन अचानक मूसेवाला का अपने पैतृक गाँव मूसा से बाहर जाने का कार्यक्रम बनना, बुलेटप्रूफ गाड़ी और सरकारी सुरक्षाकर्मियों को छोडऩा, चूक से ज़्यादा दुस्साहस ही कहा जाएगा, जिसमें उनकी जान चली गयी।

मूसेवाला को हथियारों का बड़ा शौक़ था। उनके पास 15 गोलियों वाला लाइसेंसी विदेशी रिवॉल्वर भी था, जिसे वह हर समय अपने पास रखते थे। घटना के दिन भी वह उनके पास था। लेकिन उसमें महज़ तीन ही गोलियाँ थीं। हमले के दौरान उन्होंने दो गोलियाँ चलायीं भी थीं। लेकिन एक से दो मिनट के अन्दर तीन तरफ़ से हमलावरों ने उन पर 30 से ज़्यादा गोलियाँ चलायीं, जिनमें से 19 गोलियाँ उन्हें सीधे लगीं। जीप में सवार दो अन्य लोगों को भी गोलियाँ लगीं; लेकिन भाग्य से वे बच गये।

हमलावरों का इतनी बड़ी घटना को अंजाम देकर गाडिय़ों की पहचान के बावजूद सुरक्षित निकल जाना पुलिस की नाकामी ही माना जाएगा। घटना के बाद राज्य में पुलिस अलर्ट नहीं किया गया। कहीं कोई नाकेबंदी भी नहीं हुई। मूसेवाला के अन्तिम अरदास (भोग) तक पुलिस ने आठ से ज़्यादा आरोपियों को गिरफ़्तार किया। ये लोग भेदिये से लेकर हमलावरों को गाडिय़ाँ और अन्य चीज़ें पहुँचाने वाले हैं। हमलावरों की पहचान भी कर ली गयी है। पुलिस का कहना है कि जल्द ही वे गिरफ़्त में होंगे। इस घटना में 15 से ज़्यादा लोगों की गिरफ़्तारी होगी। यह घटना अपने में अनोखी है। किस तरह से हज़ारों किलोमीटर दूर बैठकर कोई शख़्स अलग-अलग राज्यों के हमलावरों को वारदात के लिए तैयार करता है। ऐसी फुलप्रूफ साज़िश रचता है, जिसमें वह सफल हो जाता है। कोई जेल में बैठकर पूरी घटना पर नज़र रखता है और बाद में वहीं से सोशल मीडिया पर बाक़ायदा बयान जारी करता है। मूसेवाला की हत्या के बाद गैंगवार छिडऩे की आंशका मज़बूत होती जा रही है। दिल्ली के कुख्यात गैंगस्टर नीरज बवाना की ओर से बदला लेने की धमकी दी गयी है। यह गैंगवार आपस में होगी; लेकिन इसकी चपेट में दूसरे लोग भी आ सकते हैं।

मूसेवाला की हत्या के बाद उनकी सरकारी सुरक्षा में कटौती को बड़ी वजह माना गया; लेकिन कटौती के बाद भी उनके पास दो हथियारबंद कमांडो थे। अगर उस दिन बुलेटप्रूफ गाड़ी और कमांडो साथ होते, तो शायद हमला होता नहीं। अगर हो भी जाता, तो जवाबी कार्रवाई निश्चित तौर पर होती। मूसेवाला तो गायक थे, अपने गीतों के माध्यम से वे लाखों-करोड़ों लोगों की पसन्द बने हुए थे। बहुत कम समय में उन्होंने लोकप्रियता हासिल की। उनकी किसी से कोई निजी दुश्मनी भी नहीं थी, फिर उनकी निर्मम हत्या क्यों की गयी? क्यों वह एक कुख्यात गैंग के निशाने पर थे? कुछ तो वजह ज़रूर रही होंगी, वरना इतनी बड़ी घटना नहीं होती। मौत की धमकी के बाद ही उन्हें सरकारी सुरक्षा मुहैया करायी गयी थी।

पंजाब में वीपीआई लोगों के लिए भारी-भरकम सुरक्षा व्यवस्था है। यह बरसों से चली आ रही है। इनमें पूर्व विधायक से लेकर पूर्व मंत्री तक हैं। एक पूर्व उप मुख्यमंत्री के पास तो कटौती से पहले 37 से ज़्यादा सुरक्षाकर्मियों की व्यवस्था थी। सरकार में रहते अपने हिसाब से सुरक्षाकर्मी लेने का चलन-सा रहा है। पंजाब में नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस चलन पर रोक लगाने का प्रयास किया। सरकार के मुताबिक, सुरक्षाकर्मियों की कटौती समीक्षा हुई। क़रीब 100 वीआईपी लोगों के कमोबेश आधे सुरक्षाकर्मियों को हटा लिया गया। किन लोगों के पास कितने सुरक्षाकर्मी और गाडिय़ाँ हैं? इसका ब्योरा बाक़ायदा मीडिया को दिया गया। सुविधा में कटौती के बाद सरकार की ओर से सूची भी जारी गयी, जिसमें कटौती की पूरी जानकारी मुहैया करायी गयी। यह सब गोपनीय होना था, जिसे सरकार ने सार्वजनिक कर दिया। 27 मई से पहले सुरक्षाकर्मियों में कटौती हो गयी थी और 29 मई को मूसेवाला की हत्या हो गयी। उँगलियाँ सीधे सरकार के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये को लेकर उठीं।

बिना समीक्षा इस तरह कटौती करना तर्कसंगत नहीं था। आनन-फ़ानन में जिस तरह से काम किया गया वह ठीक नहीं था। भविष्य में इसकी आड़ में सरकार की आलोचना न हो इसके लिए फिर से पुरानी व्यवस्था बहाल करने की घोषणा भी हो गयी है। लोगों ने भी मुख्यमंत्री भगवंत मान के इस फ़ैसले को सराहा लेकिन मूसेवाला की हत्या के बाद यह वाहवाही उनके लिए मुसीबत बन गयी। मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय पहुँचा जहाँ सरकार से सुरक्षाकर्मियों की कटौती पर स्पष्टीकरण माँगा गया। सरकारी आदेश के मुताबिक, 6 जून के बाद फिर से सुरक्षा की पुरानी व्यवस्था बहाल करने की बात कही गयी है।

मूसेवाला की हत्या की ज़िम्मेदारी कनाडा में बैठे गैंगस्टर सतविदर सिंह उर्फ़ गोल्डी बराड़ ने ली और इसे विक्की मिड्डूखेड़ा की हत्या का बदला लेने की कार्रवाई बताया। गोल्डी पंजाब के कुख्यात गैंगस्टर लारेंस बिश्नोई का साथी है और फ़िलहाल कनाडा में बैठकर इस तरह की घटनाओं की साज़िश रचता है। पंजाब में फ़िलहाल प्रमुख तौर पर लारेंस बिश्नोई और लक्की पटियाल नाम से दो गैंग सक्रिय हैं। लारेंस का अपना गैंग है; जबकि लक्की पटियाल देविंद्र बंबीहा गैंग का संचालन करता है।

बंबीहा मारा जा चुका है; लेकिन अब भी गैंग उसके नाम से ही चल रहा है। दोनों गैंग अपने वर्चस्व के लिए एक दूसरे के लोगों को निशाना बनाते रहते हैं। जून, 2021 से मई, 2022 तक राज्य में छ: लोगों की हत्या हुई, जिनमें से पाँच लोग लारेंस बिश्नोई गैंग के क़रीबी माने जाते हैं। लारेंस गैंग के लोग किसी बड़े टारगेट की तलाश में था और सिद्धू मूसेवाला उनके राडार पर आ गये।

पिछले वर्ष अगस्त में चंडीगढ़ के क़रीब मोहाली में पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष और शिरोमणि अकाली दल नेता विक्रमजीत सिंह उर्फ़ विक्की मिड्डूखेड़ा की सरेआम हत्या हो गयी थी। विक्की को लारेंस बिश्नोई का क़रीबी माना जाता है। अगस्त में विक्की की मोहाली में दौड़ा-दौड़ाकर हत्या के मामले के बाद पहली बार मूसेवाला के मैनेजर रहे शगनप्रीत सिंह का नाम अपरोक्ष तौर पर हमलावरों को संरक्षण देने का आरोप लगा। शगनप्रीत पुलिस से बचने के लिए आस्ट्रेलिया भाग गया।

लारेंस गैंग का आरोप है विक्की की हत्या के पीछे मूसेवाला का कहीं-न-कहीं हाथ रहा है। पंजाब और हरियाणा में गैंगस्टर्स ख़ूब फल-फूल रहे हैं, उन पर तेज़ी से शिकंजा कसा जाना चाहिए। पुलिस ने विक्की हत्याकांड में मूसेवाला से कभी पूछताछ नहीं की। फौरी तौर पर मूसेवाला की हत्या की वजह मिड्डूखेड़ा की हत्या का बदला लेना बताया गया है। बदले की यह कार्रवाई आगे भी चलती रहेगी। गैंगवार के चलते पंजाब में स्थिति ख़राब हो सकती है। मूसेवाला की हत्या के सभी आरोपी पकड़े जाएँगे। इकलौते बेटे को खो चुके उनके पिता बलकौर सिंह और माँ चरण कौर कभी इस हादसे को भुला नहीं सकेंगे। इस घटना को लेकर लोगों में भी रोष है और वे न्याय की माँग कर रहे हैं, और उन्हें इसकी आशा भी है।

गैंगवार में सात हत्याएँ

जून, 2021 से मई, 2022 तक पंजाब में सात लोगों की हत्याएँ हो चुकी हैं। जून, 2021 में सुखमीत डिप्टी की जेल से बाहर आने के बाद हत्या कर दी गयी। जुलाई में गैगस्टर कुलबीर नरवाना को विरोधी गैंग ने मौत की नींद सुला दिया। अगस्त में विक्की मिड्डूखेड़ा को मार डाला गया। जनवरी, 2022 में मनप्रीत छल्ला और मनप्रीत विक्की मारे गये। इसी वर्ष मार्च में खेल के दौरान कबड्डी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी संदीव नंग्गल अंबिया को सरेआम गोलियों से भून दिया गया। इनमें अंबिया और मिड्डूखेड़ा के अलावा बाक़ी का आपराधिक रिकॉर्ड था।

विवादों से रहा नाता

मूसेवाला ने गायकी के क्षेत्र में थोड़े समय में बहुत नाम कमाया; लेकिन उनका विवादों से नाता रहा है। गानों में हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप हैं। जालंधर की पुलिस रेंज में एके-47 से अभ्यास करने के मामले में उन पर प्राथमिकी भी दर्ज हुई थी। गीतों में हथियारों का महिमा मंडन पर वे खुलकर कहते रहे हैं कि हाँ, उन्हें इनका शौक़ है; लेकिन वह इसका दुरुपयोग करने के पक्ष में नहीं हैं। उनके गीतों में अश्लीलता नहीं। वह वही लिखते हैं, जो सच है और इसके नतीजे वह भुगतते रहेंगे। संजय दत्त पर आधारित उनके संजू नामक एल्बम पर मूसेवाला की ख़ूब आलोचना हुई थी, जिसमें वह एके-47 रखने को कोई ग़लत नहीं बताते हैं, जबकि ख़ुद संजय दत्त इसे बड़ी भूल स्वीकार कर चुके हैं।

मुफ़्त पैरवी

मानसा बार संघ ने सिद्धू मूसेवाला का केस मुफ़्त में लडऩे और आरोपियों की पैरवी न करने का प्रस्ताव पास किया है। इस प्रस्ताव से साबित होता है कि मूसेवाला आसपास के क्षेत्रों में कितने लोकप्रिय थे। पंजाब में वर्ष 2022 के मई अन्त तक 158 हत्याएँ हो चुकी हैं। वर्ष 2020 में यह संख्या 757 और वर्ष 2021 में 724 रही है।

महिला विश्व कप हॉकी कितनी तैयार है भारतीय नारी

भारतीय महिला हॉकी टीम पिछले साल टोक्यो ओलिंपिक खेलों में चौथा स्थान लेने के बाद अब विश्व की बड़ी टीमों में शुमार हो गयी है। इससे पूर्व भारत ने सन् 1980 के मास्को ओलिंपिक में चौथा स्थान हासिल किया था। आजकल यह टीम गोलकीपर सविता पूनिया के नेतृत्व में एफआईएच महिला प्रो लीग हॉकी टूर्नामेंट में भाग ले रही है। 01 जुलाई से 17 जुलाई तक होने वाले विश्व कप से पहले यह आख़िरी टूर्नामेंट है। विश्व कप की मेज़बानी स्पेन और नीदरलैंड मिल कर कर रहे हैं।

प्रो लीग में अभी तक भारत 10 मैच खेल चुका है। उसने 10 में से चार मैच जीते, तीन मैच ड्रा किये और तीन हारे। पिछले दिनों भारत के दो मैच बेल्जियम के ख़िलाफ़ हुए। पहले मैच में मेज़बान बेल्जियम ने 2-1 से जीत दर्ज की जबकि दूसरे में वह 5-0 के बड़े अन्तर से जीता। वैसे अगर आँकड़ों पर नज़र डालें, तो सन् 2012 से लेकर अब तक दोनों टीमों के बीच सात मुक़ाबले हो चुके हैं, जिनमें से छ: बेल्जियम ने जीते हैं और एक मुक़ाबला 1-1 से ड्रा रहा था। बराबरी पर ख़त्म हुआ मैच भी सन् 2013 का है। इन मुक़ाबलों के दौरान कुल 27 गोल हुए, जिनमें से 21 बेल्जियम ने किये, जबकि भारत केवल छ: गोल कर सका।

अभी एफआईएच प्रो लीग में खेले गये पहले मैच में भारत ने शुरुआत बहुत तेज़ी से की थी। शुरू के एक डेढ़ मिनट तक उसने बेल्जियम की डी को दबाये रखा। पर उसके बाद मैच बेल्जियम की पकड़ में जाता रहा। वैसे तो भारत की पूरी टीम ही उखड़ी दिख रही थी, पर रक्षा पंक्ति बहुत-ही धीमी थी। यह तो कप्तान सविता पुनिया का शानदार प्रदर्शन था कि बेल्जियम केवल दो ही गोल कर पाया, नहीं तो स्कोर कहीं अधिक हो सकता था। इस मैच का यदि विश्लेषण करें, तो पाएँगे कि शारीरिक और मानसिक तौर पर भारतीय टीम यूरोपीय टीम के सामने कमज़ोर नज़र आ रही थी। मिड फील्ड पर बेल्जियम की खिलाड़ी क़ब्ज़ा बनाये हुए थीं। भारत के लिए फ्री हिट लेना भी कठिन था। बेल्जियम की खिलाड़ी अक्सर भारतीय खिलाडिय़ों की स्टिक पर से भी गेंद छीनकर ले जातीं। इस मैच में भारत को केवल एक ही पेनल्टी कॉर्नर मिला, जिसे पूर्व कप्तान रानी रामपाल ने बाहर मारकर गँवा दिया। असल में टीम की कोई रणनीति नज़र नहीं आ रही थी। इस दौरान भारतीय टीम कैसे हमला करेगी? इसका पूर्व अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं था। इनका खेल लेफ्ट बैक से शुरू होता। लेफ्ट से गेंद राइट बैक के पास जाती वहाँ से लाइन के साथ राइट हाफ को तलाशती और फिर राइट आउट तक भेजी जाती। राइट आउट गेंद को कोने में ले जाती और वहाँ से डी में प्रवेश की कोशिश करती। इसी तरह लेफ्ट फ्लेंक में होता। सेंटर हाफ वाली पोजीशन से गेंद को राइट या लेफ्ट में दिया जाना कम ही देखने को मिला। भारत ने तेज़ी से कभी फ्लेंक नहीं बदले। इसका नतीजा यह हुआ कि विपक्षी टीम की रक्षा पंक्ति उसी फ्लेंक पर पूरा ज़ोर लगाकर भारतीय हमले को बेकार कर देती। अगर कभी खिलाड़ी उनकी डी में पहुँच भी गये, तो भी कोण इतना तीखा कर लेते कि वहाँ से गोल में गेंद डालना नामुमकिन न सही, पर कठिन ज़रूर हो जाता। किसी भारतीय फॉरवर्ड को गोल लाइन से गेंद माइनस करते नहीं देखा गया। इस पूरी प्रक्रिया में में भी हमारे फॉरवर्ड ख़ुद ही फाउल कर बैठते। यही वजह है कि हमें अधिक पेनल्टी नहीं मिल पायी।

इसके अलावा गेंद को अपने पास रहने में भी भारतीय खिलाड़ी नाकाम रहे। बड़ी आसानी से बेल्जियम के खिलाड़ी उनसे गेंद छीन लेते थे। अपनी तेज़ गति के कारण जवाबी हमलों में वे कहीं बेहतर साबित हुए। इन दो मैचों में जो सात गोल उन्होंने किये उनमें से चार जवाबी हमलों में आये। भारत की अनुभवी खिलाड़ी दीपा ग्रेस इक्का और गुरजीत कौर ने भी कई ग़लतियाँ की। उनमें और मिड फील्ड के बीच कोई तालमेल नज़र नहीं आया। इसका पूरा लाभ विरोधी टीम उठाती रही।

इसके अतिरिक्त बेल्जियम के दायें छोर से होने वाले हमलों को रोकने की कोई कोशिश नज़र नहीं आ रही थी। उस छोर से उनके फॉरवर्ड बड़ी आसानी से भारत की डी में प्रवेश कर जाते। दूसरी ओर भारत की पुरानी कमज़ोरी एक बार फिर देखने को मिली। भारतीय खिलाड़ी गेंद को ज़रूरत से अधिक अपने पास रखने की कोशिश करते। इस चक्कर में उनके साथ बेहतर पोजीशन में खड़े खिलाड़ी गेंद से वंचित हो जाते, साथ ही विपक्षी टीम को अपनी रक्षा पंक्ति को मज़बूत करने का टाइम मिल जाता। आज की हॉकी में तेज़ी और गति का ज़ोरदार महत्त्व है। गेंद को फुर्ती से इधर-उधर करना भी ज़रूरी है।

नये खिलाडिय़ों में इशिका चौधरी, संगीता, दीपिका, बलजीत से भविष्य में आशा की जा सकती है। इन मुक़ाबलों में यह बात भी देखने को मिली कि रानी रामपाल अभी पूरी तरह तंदरुस्त नहीं हैं। उनकी गति भी धीमी है और शायद अब बहुत समय तक वह अंतरराष्ट्रीय हॉकी नहीं खेल पाएँगी। उनका विकल्प संगीता या दीपिका में तलाशना पड़ेगा।

भारतीय टीम अब 18 और 19 जून को नीदरलैंड में दो मैच खेलेगी। नीदरलैंड एक जानी मानी टीम है। यह ठीक है कि बेल्जियम के ख़िलाफ़ खेलने का अनुभव वहाँ काम आएगा पर भारतीय टीम और उनकी कोच जेनेके शोपमैन को टीम की कमजोरियों पर काम करना पड़ेगा। टीम में प्रतिभा और स्किल की कोई कमी नहीं है। बस आत्मविश्वास जगाना होगा। इसके बाद 21 और 22 जून को अमेरिका से मैच खेलने हैं। वो कोई बड़ी टीम नहीं है; लेकिन दुनिया की किसी भी टीम मो टक्कर देने में सक्षम है।

इस एफआईएच प्रो लीग में कुल नौ टीमें भाग ले रही हैं, जिनमें भारत के अलावा अर्जेंटीना, बेल्जियम, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, नीदरलैंड, स्पेन और अमेरिका शामिल हैं। ध्यान रहे कि भारत को इसमें खेलने का मौक़ा ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के भाग न लेने के कारण मिला है। इन दोनों टीमों ने कोरोना महामारी के कारण टूर्नामेंट से नाम वापस ले लिया था। इसके बाद टीम विश्व कप के लिए टीम तैयार है।

विश्व कप

महिला विश्व कप हॉकी टूर्नामेंट इस बार कुल 16 टीमें भाग ले रही हैं, जिनमें एशिया की चार टीमें भारत, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। भारत को अपेक्षाकृत आसान पूल मिला है। वह इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और चीन के साथ पूल बी में है। उसे राष्ट्रमंडल खेलों में इंग्लैंड और न्यूजीलैंड के ख़िलाफ़ खेलने का का$फी अनुभव है। चीन के साथ भारत एशियाई खेलों में खेलता रहता है। इसके अलावा पूल-ए में मेज़बान नीदरलैंड के साथ जर्मनी, आयरलैंड और चिली की टीमें हैं। पूल-सी में अर्जेंटीना, स्पेन, कोरिया, और कनाडा को रखा गया है। पूल-डी में ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, जापान और दक्षिण अफ्रीका हैं। भारत के लिए पूल क्लियर करने का अच्छा अवसर है।

भारत का पहला मैच 3 जुलाई को पूल की सबसे मज़बूत टीम इंग्लैंड के साथ है। फिर 05 जुलाई को वह चीन से भिड़ेगी। पूल का आख़िरी मुक़ाबला न्यूजीलैंड से 07 जुलाई को न्यूजीलैंड के साथ होगा।
भारत के लिए इंग्लैंड को हराना ज़रूरी होगा। टोक्यो ओलिंपिक में इंग्लैंड ने अन्तिम समय में गोल करके भारत को 4-3 से हराकर उसे कांस्य पदक जीतने से वंचित कर दिया था। यहाँ बदला लेने का अवसर है।
जहाँ तक न्यूजीलैंड की बात है, तो उसे हराकर भारत एक बार राष्ट्रमंडल खेलों का गोल्ड जीत चुका है। इस कारण उसका कोई मनोवैज्ञानिक असर भारतीय टीम पर नहीं होना चाहिए। चीन को तो भारत कुछ दिन पहले ही हरा चुका है। वैसे भी भारत के लिए बड़ी चुनौती यूरोप के देश ही बनते हैं। एशिया में भारत एक बड़ी ताक़त है।

पूल देखकर यह भी लगता है कि पूल-सी से कोरिया और पूल-डी से जापान का आगे निकल पाना शायद मुमकिन न हो, क्योंकि पूल-सी में अर्जेंटीना और स्पेन और पूल-डी में ऑस्ट्रेलिया और बेल्जियम के होने से जापान के लिए मौक़ा कम ही है।