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हिमाचल में जमने से पहले ही उखड़े आप के पाँव

प्रदेश में आम आदमी पार्टी को शुरुआत में ही लगा झटका, प्रदेश अध्यक्ष ने ही छोड़ा साथ

एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर जब चार बार के सांसद और केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने एक ट्वीट किया- ‘केजरीवाल ने सोचा था, हिमाचल में सरकार बनाएँगे; लेकिन वहाँ तो आम आदमी पार्टी को अपना संगठन बचाना मुश्किल हो गया है।‘ तो साफ़ था कि यह आम आदमी पार्टी के लिए पहाड़ी राज्य में एक बड़ा झटका था। अनुराग का यह ट्वीट आम आदमी पार्टी के हिमाचल में अध्यक्ष अनूप केसरी और दो अन्य पदाधिकारियों के भाजपा में शामिल होने को लेकर था। ज़ाहिर है आम आदमी पार्टी को इससे बड़ा झटका लगा। हालाँकि पार्टी नेता और प्रदेश प्रभारी सत्येंद्र जैन, जो दिल्ली सरकार में मंत्री हैं; ने ट्वीट कर कहा कि हिमाचल प्रदेश की आम आदमी पार्टी की राज्य कार्यसमिति भंग कर दी गयी है, नयी राज्य कार्यसमिति का पुनर्गठन जल्द किया जाएगा। ज़ाहिर है प्रदेश अध्यक्ष के दलबदल करने से आम आदमी पार्टी को झटका लगा है।

पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल ने इस घटनाक्रम पर कहा कि आम आदमी पार्टी का हिमाचल में कोई भविष्य नहीं है और भाजपा राज्य में सत्ता बरक़रार रखेगी। धूमल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा कि लोग केंद्र और राज्य में सरकार के प्रदर्शन से बहुत ख़ुश हैं। उन्होंने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद पहाड़ी प्रदेश में कांग्रेस नेताविहीन हो गयी है।

बता दें धूमल एक ज़मीनी नेता हैं और इन दिनों काफ़ी सक्रिय हैं। हालाँकि वह विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि वह भाजपा के एक वफ़ादार सिपाही हैं और पार्टी के आदेश पर सब कुछ करेंगे।

उधर आम आदमी पार्टी ने सात प्रमुख पदाधिकारियों के पार्टी छोडऩे के बाद हिमाचल की इकाई की राज्य कार्यसमिति को भंग कर दिया। विधानसभा चुनाव से पहले राज्य इकाई को तगड़ा झटका देते हुए यह नेता भाजपा में शामिल हो गये। आम आदमी पार्टी राज्य इकाई के सात पदाधिकारियों का भाजपा में दलबदल अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले मंडी में बड़े रोड शो के बाद हुआ। भाजपा ने आम आदमी पार्टी से उस अपमान का बदला लिया है, जिसमें शिमला से उसके पूर्व पार्षद गौरव शर्मा, जो अब आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं और उनके सहयोगी पिछले महीने भाजपा छोड़ आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये थे।

8 अप्रैल को आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी, राज्य के संगठन सचिव सतीश ठाकुर और ऊना के ज़िला अध्यक्ष इकबाल सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हुए थे। ठाकुर ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की हिमाचल विरोधी कार्यशैली के विरोध में नेता आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ रहे हैं।

हिमाचल के लिए आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रभारी सत्येंद्र जैन ने राज्य इकाई को भंग करने की घोषणा की। वैसे विधानसभाओं की इकाइयाँ यथावत कार्य करती रहेंगी। उन्होंने कहा कि जल्द ही एक मज़बूत संगठन का गठन किया जाएगा। आम आदमी पार्टी की यह घोषणा उसके प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी और पार्टी के संगठन सचिव के शिमला में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के रोड शो से कुछ घंटे पहले भाजपा में शामिल होने के बाद हुई।

इसके बाद आम आदमी पार्टी की महिला विंग की प्रमुख ममता ठाकुर, पाँच अन्य पदाधिकारियों के साथ नई दिल्ली में केंद्रीय कार्यालय में भाजपा में शामिल हो गयीं। अन्य नेताओं में आम आदमी पार्टी की महिला शाखा की उपाध्यक्ष सोनिया बिंदल और संगीता, आम आदमी पार्टी की औद्योगिक शाखा के उपाध्यक्ष डी.के. शर्मा और सोशल मीडिया के उपाध्यक्ष आशीष कुमार शामिल हैं।

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, जिन्हें इन नेताओं को भाजपा में शामिल कराने का श्रेय दिया जाता है; ने कहा कि आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी के और नेता भाजपा में शामिल होंगे। पता चला है कि आम आदमी पार्टी की महिला विंग की प्रदेश अध्यक्ष ममता ठाकुर को भाजपा में शामिल करने में अनुराग ठाकुर की अहम भूमिका थी।

इस मौक़े पर केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी भी मौज़ूद रहीं। अनुराग ठाकुर ने कहा कि आम आदमी पार्टी के लिए हिमाचल में अपनी पार्टी को बचाना मुश्किल हो गया है।

निश्चित ही भाजपा जोखिम लेना चाहती है। कुछ महीने पहले सत्तारूढ़ भाजपा को तब बड़ा झटका लगा था, जब तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर वह उपचुनाव हार गयी थी। इनमें मंडी की लोकसभा सीट मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले में पड़ती है। पिछले साल 30 अक्टूबर को यह उपचुनाव हुए थे। इस हार के झटके से उबरने के लिए निश्चित ही भाजपा अब आक्रामक हो रही है।

आम आदमी पार्टी ने 6 अप्रैल को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके पंजाब समकक्ष भगवंत मान के रोड शो के साथ मौज़ूदा मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर के गृह क्षेत्र मंडी से राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अपना चुनाव अभियान शुरू किया था। इस साल के अन्त तक होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले यह पार्टी का पहला बड़ा आयोजन था और यह पहाड़ी राज्य में जनता के मूड को भी प्रदर्शित कर रहा था। आम आदमी पार्टी ने शिमला नगर निगम चुनाव लडऩे की योजना की भी घोषणा की थी, जिसके लिए कार्यक्रम की घोषणा जल्द होने की उम्मीद है। आम आदमी पार्टी प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बड़े-बड़े होर्डिंग प्रमुख स्थानों पर लगे हैं और आम आदमी पार्टी ने सभी 41 वार्डों में चुनाव लडऩे के लिए राजधानी में अपने क़दम बढ़ाते हुए सदस्यता अभियान शुरू कर दिया है।

एक चतुर रणनीति के रूप में भाजपा ने आम आदमी पार्टी नेताओं के भाजपा में शामिल होने के पूरे शो को लाइव और प्रमुखता से सोशल मीडिया पर प्रचारित किया। ज़ाहिर है उसका मक़सद इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले सामूहिक दलबदल करवाकर आम आदमी पार्टी पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना है।

हालाँकि यह सा$फ संकेत है कि भाजपा को डर है कि पड़ोसी राज्य पंजाब में आम आदमी पार्टी की लहर और आम आदमी पार्टी सरकार के गठन से हिमाचल में चुनाव प्रभावित हो सकते हैं, जहाँ आम आदमी पार्टी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वह आने वाले विधानसभा चुनावों में सभी 68 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उसने अपना सदस्यता अभियान भी शुरू किया था।

सदस्यता समारोह के दौरान अनुराग ठाकुर के अलावा मीनाक्षी लेखी, पार्टी महासचिव अरुण सिंह और राष्ट्रीय सह मीडिया प्रभारी संजय मयूख भी मौज़ूद थे। दिलचस्प बात यह है कि आम आदमी पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हुए अध्यक्ष अनूप केसरी, संगठन महासचिव सतीश ठाकुर भी आम आदमी पार्टी को सन्देश देने के लिए इस कार्यक्रम में मौज़ूद थे।

आम आदमी पार्टी और भाजपा जहाँ राजनीतिक लड़ाई और दलबदल कराने में लगे हुए हैं, वहीं राज्य कांग्रेस भ्रम और राजनीतिक अलगाव की स्थिति में दिखायी दे रही है। हाल ही में पड़ोसी राज्य पंजाब में जो हुआ, उससे पार्टी नेताओं का विश्वास डगमगाया है। एक कारण और है- हिमाचल में कांग्रेस के नेता वैसे ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं; जैसा पंजाब में था।

चंडीगढ़ पर अधिकार को लेकर सियासत

केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ के मूल कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में गृहमंत्री अमित शाह ने बदलाव कर दिया है। अब चंडीगढ़ के कर्मचारी केंद्रीय कर्मचारियों के समकक्ष सुविधाएँ पाएँगे। लेकिन इससे हरियाणा और पंजाब की यह राजधानी फिर विवाद में आ गयी है। हालाँकि यह मुद्दा पाँच दशक से भी ज़्यादा पुराना है और समय-समय पर उठता रहा है। दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी के तौर पंजाब-हरियाणा की संयुक्त राजधानी और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ पर हक़ के लिए फिर से दोनों राज्य सरकारों में राजनीतिक सरगर्मी शुरू हो गयी है।

पंजाब में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए यह पहली बड़ी परीक्षा थी। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। इसमें कहा गया कि केंद्र सरकार तुरन्त प्रभाव से चंडीगढ़ पंजाब को हस्तांतरित किया जाए। पंजाब के रुख़ पर हरियाणा में भी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने भी विधानसभा में सर्वसम्मति से चिन्ता प्रस्ताव पारित कर पंजाब के रुख़ को बेमानी बताते हुए केंद्र के क़दम को सही बताया।

चूँकि चंडीगढ़ दोनों राज्यों की राजधानी के अलावा केंद्र शासित प्रदेश भी है। इस नाते अमित शाह ने चंडीगढ़ प्रशासन के तहत आने वाले कर्मचारियों को केंद्रीय कर्मचारियों के समकक्ष कर सभी सुविधाएँ देने की घोषणा की, तो पंजाब की प्रतिक्रिया होनी लाज़िमी ही थी। ऐसा होने पर चंडीगढ़ पर पंजाब की दावेदारी नहीं रहेगी और यह शहर दोनों राज्यों की राजधानी बना रहेगा, जबकि पंजाब में विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर चंडीगढ़ को पंजाब को हस्तांतरित करने की माँग की है।

उधर हरियाणा में भी सरकारें चंडीगढ़ पर पंजाब के समकक्ष अपनी दावेदारी जताती रही हैं। चूँकि हरियाणा में भाजपा की सरकार है, इस नाते वह केंद्र के रुख़ के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और उसे राज्य के लोगों की भावनाओं को देखते हुए मज़बूती से दावेदारी रखनी पड़़ेगी। दोनों राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, चंडीगढ़ पर दावेदारी समान रूप से होती रही है। सवाल यह है कि आख़िर चंडीगढ़ पर अधिकार किस राज्य का है? पंजाब तो शुरू से मानता रहा है कि चंडीगढ़ को राजधानी के तौर पर उसके लिए ही विकसित किया गया था।

सन् 1966 में पंजाब से भाषा के आधार पर हरियाणा अलग राज्य के तौर पर वजूद में आया। हिमाचल प्रदेश पहले केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर और सन् 1970 में उसे पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हुआ, जिसकी राजधानी शिमला को बनाया गया। लेकिन हरियाणा और पंजाब ने संयुक्त तौर पर चंडीगढ़ पर अपना-अपना दावा जताया। यही वजह है कि यहाँ उच्च न्यायालय, विधानसभाएँ और सचिवालय के भवन एक ही परिसर में हैं। हरियाणा को अलग राजधानी बनाने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने 10 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद और 10 करोड़ रुपये क़र्ज़ के तौर पर (कुल 20 करोड़ रुपये) का प्रस्ताव दिया। हरियाणा को राजधानी बनाने के लिए अधिकतम 10 वर्ष का समय दिया गया था। केंद्र और हरियाणा में राज्य कांग्रेस सरकार के दौरान कई बार हरियाणा की अलग राजधानी के बारे में प्रयास हुए; लेकिन कोई योजना सिरे नहीं चढ़ी। आख़िर उसने चंडीगढ़ पर ही अपनी दावेदारी जतायी, जो बदस्तूर अब तक जारी है। केंद्र के नयी राजधानी के प्रस्ताव पर हरियाणा मन से कभी राज़ी नहीं हुआ। जिस तरह से पंजाब के लोगों की भावनाएँ चंडीगढ़ से जुड़ी हैं, ठीक उसी तरह से हरियाणा के लोगों की भी भावनाएँ जुड़ी हैं। मामला केवल चंडीगढ़ का ही नहीं है, बल्कि उस पर अधिकारों के विवादों का भी है। भविष्य में अगर चंडीगढ़ के हस्तांतरण का फ़ैसला होता है, तो उसके साथ कई और विवाद भी सुलझाने होंगे। इनमें पंजाब में कई हिन्दी भाषी इलाक़े ऐसे हैं, जिन पर हरियाणा का दावा है। इसके साथ ही सतलुज-यमुना जोड़ नहर का मसला भी है। पंजाब इस नहर के पक्ष में नहीं, जबकि हरियाणा के लिए यह जीवनदायिनी जैसी है।

पहले तो हरियाणा चंडीगढ़ पर कभी अपना दावा छोड़ेगा नहीं। लेकिन अगर समझौते की कोई बात होती है, तो उसकी कई शर्तें होंगी, जिन पर पंजाब में कभी सहमति नहीं बन सकेगी। दशकों पुराने इस मुद्दे के निकट भविष्य में सुलझने की उम्मीद कम ही है। चंडीगढ़ में प्रशासन के कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव से ज़्यादातर कर्मचारी संगठन ख़ुश हैं; लेकिन पंजाब सरकार केंद्र के इस फ़ैसले से नाराज़ है।

पंजाब के मुख्यमत्री भगवंत मान के मुताबिक, केंद्र सरकार के चंडीगढ़ कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव देश के फेडरेल ढाँचे से छेड़छाड़ जैसा है। यह एक तरह से पंजाब के हितों से खिलवाड़ है, जिसे राज्य के लोग सहन नहीं करेंगे। उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर का मानना है कि चंडीगढ़ प्रशासन के कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव केंद्र सरकार का सही क़दम है। जब चंडीगढ़ दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी है, तो फिर पंजाब को इस घोषणा के बाद विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इसके हस्तांतरण का प्रस्ताव पास करने की क्या ज़रूरत है? फिर मामला केवल चंडीगढ़ का ही तो नहीं है। इसके साथ पंजाब में स्थित हिन्दी भाषी क्षेत्र और सतलुज-यमुना जोड़ नहर जैसे मुख्य मामले हैं। पंजाब उनके बारे में किसी तरह की बातचीत करने को तैयार नहीं है।

सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन से पहले संयुक्त पंजाब की राजधानी लाहौर हुआ करती थी। विभाजन के बाद पश्चिम पंजाब पाकिस्तान में चला गया, जबकि पूर्वी पंजाब भारत के पास रहा। तब यहाँ के पंजाब में पंजाबी, हिन्दी और पहाड़ी भाषाओं के आधार पर अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव सामने आया। चूँकि संयुक्त पंजाब की राजधानी लाहौर पाकिस्तान में चला गया। ऐसे में हमारे यहाँ के पंजाब की राजधानी का मसला खड़ा हो गया। इसके लिए चंडीगढ़ को राजधानी के तौर पर विकसित किया जाने लगा। सन् 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और सन्त हरचंद सिंह लौंगोवाल के बीच अन्य कुछ शर्तों के साथ समझौता हुआ। इसमें चंडीगढ़ पंजाब को देने की बात भी थी। लेकिन बाद में इस शर्त पर लिखित समझौता नहीं हो सका। यही वजह रही कि चंडीगढ़ किसी एक राज्य की नहीं, बल्कि संयुक्त तौर पर राजधानी बनी रही।

चंडीगढ़ पर हरियाणा के मुक़ाबले पंजाब की भागीदारी ज़्यादा है। इस पर हरियाणा को कभी ऐतराज़ नहीं रहा। पंजाब के राज्यपाल ही चंडीगढ़ के प्रशासक के तौर पर काम करते हैं। इसके अलावा उपायुक्त और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जैसे अहम पद पर दोनों राज्यों की भागीदारी है। चंडीगढ़ पर पंजाब का हिस्सा 60 फ़ीसदी, जबकि हरियाणा का 40 फ़ीसदी है।

दोनों राज्यों के ज़्यादातर मुख्यालय भी यहीं पर हैं। किसी भी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं है; लेकिन नये फ़ैसले से दोनों मुख्यमंत्रियों में अब जैसे तलवारें खिंच गयी हैं। चंडीगढ़ नगर निगम की विशेष बैठक में शहर को केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर ही रहने पर चर्चा हुई। मेयर सरबजीत कौर के मुताबिक, दिल्ली की तरह चंडीगढ़ की भी अलग विधानसभा हो और इसे केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर ही रखना चाहिए। यहाँ सब काम सुचारू रूप से चल रहे हैं। ज़्यादातर लोग भी किसी एक प्रदेश की राजधानी नहीं, बल्कि केंद्र शासित के तौर पर ही देखना चाहते हैं।

 

“केंद्र का चंडीगढ़ प्रशासन के सर्विस रूल्स में बदलाव का फ़ैसला पंजाब के हितों पर कुठाराघात है। चंडीगढ़ पर पंजाब का हक़ है और यह उसे तुरन्त प्रभाव से हस्तांतरित किया जाना चाहिए। हमारी सरकार ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर बता भी दिया है। जल्द ही हम इस मुद्दे पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राज्य के लोगों की भावनाओं से अवगत कराएँगे। पूर्व की केंद्र सरकारों ने चंडीगढ़ पर पंजाब के अधिकार को माना है।“

                                भगवंत मान

मुख्यमंत्री, पंजाब

 

“पंजाब और हरियाणा भाई-भाई हैं। पंजाब बड़े भाई जैसा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि छोटे भाई के अधिकार का हनन करे। अगर बड़ा भाई छोटे का हक़ मारने की कोशिश करेगा, तो यह (छोटा भाई) चुप कैसे बैठ सकता है? चंडीगढ़ दोनों राज्यों की राजधानी है और रहेगी। केंद्र ने प्रशासन कर्मियों के सर्विस रूल्स में बदलाव करके देश के संघीय ढाँचे से किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। चंडीगढ़ पर हरियाणा का हक़ भी पंजाब जितना ही है।“

                             मनोहर लाल खट्टर

मुख्यमंत्री, हरियाणा

 

कर्मचारियों का फ़ायदा

चंडीगढ़ प्रशासन में कर्मियों के सर्विस रूल्स में बदलाव ही मुद्दे की असली जड़ है। इसके बाद से ही दोनों राज्यों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ है। फ़ैसले से चंडीगढ़ प्रशासन के कर्मचारियों को हर क्षेत्र में फ़ायदा होगा। फ़ैसले से पहले चंडीगढ़ प्रशासन में पंजाब जैसे वेतनमान और अन्य नियम हैं; लेकिन अब उन्हें केंद्रीय कर्मियों जैसी सुविधाएँ मिलेंगी। शिक्षकों और नर्सों को नये सर्विस रूल्स से काफ़ी फ़ायदा होगा। सेवानिवृत्ति की आयु में ही दो साल की वृद्धि हो जाएगी। इसके अलावा और बहुत से फ़ायदे मिलेंगे। विभिन्न कर्मचारी संगठन केंद्र के फ़ैसले से ख़ुश हैं। केंद्र के सर्विस रूल्स में बदलाव से दबा हुआ मुद्दा फिर गर्म हो गया है। सम्भव है कि केंद्र के इस फ़ैसले के कई निहितार्थ हों।

आप का सपना: भाजपा-कांग्रेस मुक्त भारत

इन दिनों हिन्दुस्तान की सियासत में राजनीतिक बदलाव की वह आँधी-सी चल पड़ी है, जिसने कांग्रेस की रोशनी को बिल्कुल मद्धम कर दिया है। यह आँधी नरेंद्र मोदी की है, जिससे 2014 में कांग्रेस का केंद्र में जलने वाला दीपक बुझा और अब धीरे-धीरे कांग्रेस के राज्यों में जलने वाले दीपक भी बुझते जा रहे हैं। इस बदलाव की आँधी में कुछ काम आम आदमी पार्टी ने भी कर दिखाया है।

भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का बयान शुरू में ही दे चुके हैं, तो आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति का सपना लोगों को दिखा रहे हैं। हालाँकि कुछ लोग इन दोनों को ही आरएसएस की बिसात के दो मोहरे बता रहे हैं और कह रहे हैं कि केजरीवाल भी मोदी की मुहिम को ही आगे बढ़ाने और उनके कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान में उनका सहयोग करते हुए हिटलरशाही को बढ़ावा दे रहे हैं। क्योंकि वह उसी हिन्दुत्व की राह पर चल पड़े हैं, जिस हिन्दुत्व पर भाजपा चलती आ रही है। हालाँकि उनमें और भाजपा की राजनीति में यह एक बड़ा अन्तर है कि अरविंद केजरीवाल को लोग भेदभाव की राजनीति से दूर मान रहे हैं। वह अपने कामों को लिए लोगों में इतने चर्चित हो रहे हैं और दूसरी पार्टियों को उनकी मुफ़्त की राजनीति का मजबूरन हिस्सा बनना पड़ रहा है। आज हाल यह है कि देश को कोई भी पार्टी मुफ़्त की इस राजनीति से अपने को दूर नहीं रख पा रही है। हाल ही में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान सभी पार्टियों के घोषणा-पत्र इसका सुबूत हैं।

हालाँकि मुफ़्त सुविधाओं का भोग करने से लोगों की आदत $खराब होती है और इस पर दूसरे राजनीतिक दलों के नेता सवाल भी उठाते रहे हैं। लेकिन केजरीवाल उनका यह कहकर मुँह बन्द करने में माहिर हैं कि जब नेताओं और मंत्रियों को तमाम सुविधाएँ मुफ़्त में मिलती हैं, तो जनता को थोड़ी-बहुत सुविधाएँ देने पर इन लोगों के पेट में दर्द क्यों होने लगता है? ज़ाहिर है देश का निम्न ग़रीब और मध्यम वर्गीय तबक़ा, जो कि काफ़ी बड़ा है; केजरीवाल की इन बातों से प्रभावित हो रहा है और इस तबक़े को ऐसा लगने लगा है कि यही उसके हित की बात है। देश का यही बड़ा तबक़ा, जो महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त दिख रहा है; कांग्रेस और भाजपा से मुक्त भारत चाहता है और एक ऐसे तीसरे मोर्चे अथवा दल की तलाश में है, जो इन दोनों पार्टियों की हेकड़ी निकालते हुए देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हो सके और लोगों के हित में काम कर सके।

ख़ैर अब अगर इस तीसरे दल की बात करें, तो अभी तक कोई भी ऐसा दल लोगों के सामने इस लायक नज़र नहीं आ रहा है, जो केंद्र की सत्ता तक पहुँच बनाते हुए इन दोनों ही मज़बूत दलों को दरकिनार करके इन्हें गौण कर सके। ख़ासतौर पर भाजपा को देश की सत्ता से ख़ारिज़ करना फ़िलहाल किसी के वश में नहीं है। लेकिन ख़म बहुत-से नेता ठोक रहे हैं। इनमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो काफ़ी समय से सक्रिय हैं और केजरीवाल पंजाब में जीत के बाद केंद्र की सत्ता में आने के ख़्वाब देखने लगे हैं। उनके लोगों ने अभी उन्हें 2024 का प्रधानमंत्री चेहरा घोषित करना शुरू कर दिया है।

ममता बनर्जी और केजरीवाल का उद्देश्य एक ही है, भाजपा और कांग्रेस मुक्त भारत। लेकिन फ़िलहाल इतना दमख़म दोनों में नहीं है कि वे अकेले अपने-अपने दम पर ऐसा कर सकें। एक तरफ़ ममता बनर्जी जहाँ कांग्रेस को छोड़कर बाक़ी अधिकतर छोटे दलों को साथ लेकर तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश में लगी हैं, तो वहीं केजरीवाल 2024 से पहले बाक़ी जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से हिमाचल, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों को जीतकर यह चुनौती नरेंद्र मोदी को देना चाहते हैं। पिछले दिनों जिस तरह से गुजरात में अरविंद केजरीवाल की रैली में भीड़ दिखी और राजस्थान में जिस तरह आम आदमी पार्टी जनाधार बनाने के लिए एक मुहिम चला रही है, उससे कांग्रेस में ही नहीं, बल्कि भाजपा में भी एक डर बनता दिख रहा है। इन दिनों दिल्ली में भाजपा और आम आदमी पार्टी में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चरम पर है।

ग़ौरतलब है कि इससे पहले पिछले साल नेशनल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार तीसरे मोर्चे की क़वायद कर चुके हैं, जिसकी कोशिश चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने की थी, उन्होंने इसके लिए कांग्रेस समेत कई दलों के प्रमुखों से बातचीत भी कई थी। हालाँकि इस तीसरे मोर्चे का भ्रम तब टूट गया, जब राहुल गाँधी के नेतृत्व में बैठक में तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के समेत कई छोटे दल नहीं पहुँचे। शायद इन दलों को राहुल गाँधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी एक राष्ट्रीय चेहरा हैं और भाजपा को हर मोर्चे पर घेरे रहते हैं, भले ही भाजपा ने उन्हें पप्पू साबित करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है।

तीसरे मोर्चे की लगातार विफल कोशिशों के बीच भाजपा अपने को हर तरह से मज़बूत करने की कोशिश में लगी है। प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी समेत तक़रीबन सभी केंद्रीय मंत्री और तमाम बड़े नेताओं की दिन-रात की मेहनत के बाद पाँच राज्यों में से चार में जीत के बाद 2024 में जीत के लिए भाजपा का शीर्ष नेतृत्व काफ़ी आश्वस्त हुआ है। लेकिन अभी भाजपा का डर पूरी तरह से गया नहीं है। क्योंकि उसके पास इस समय पूर्ण रूप से केवल उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, गोवा और मणिपुर आदि 12 राज्यों की सत्ता है। जबकि देश में कुल 28 राज्य और आठ केंद्र शासित प्रदेश हैं। इन राज्यों में बिहार, नागालैंड, मेघालय और पुडुचेरी, इन चार राज्यों में भाजपा की गठबंधन वाली सरकारें हैं। इस हिसाब से भाजपा के पास कुल 16 राज्य हैं, जिनमें उसकी सत्ता है। वहीं कांग्रेस के पास राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पूर्ण सत्ता है, जबकि महाराष्ट्र और झारखण्ड में उसकी गठबंधन वाली सरकारें हैं। इसके अलावा दिल्ली व पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकारें हैं।

वहीं क्षेत्रीय पार्टियों की अगर बात करें, तो ओडिशा में बीजू जनता दल की, केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) की, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस की, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति की, सिक्किम में सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा की, मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कडग़म की सरकार है। इसीलिए भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में अभी से जुट गयी है, जिसका एक उदाहरण दिल्ली के एमसीडी चुनाव से पहले उनका एकीकरण करने वाला केंद्र सरकार का क़दम है।

कयास लग रहे हैं कि केंद्र सरकार दिल्ली में एमसीडी चुनावों से बचने का रास्ता निकालने की साज़िश रच रही है। आरोप लगाये जाते रहे हैं कि भाजपा की तरफ़ से बहुत पहले-से ही कहा जाता रहा है कि भाजपा में एक देश एक चुनाव, चीन की तर्ज पर जीवन पर्यंत एक राजा, हम 50 साल तक शासन करेंगे जैसी बातों के अलावा चुनाव बन्द कराने जैसी आवाज़ें उठ चुकी हैं। इसी के मद्देनज़र तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव भाजपा, $खासतौर पर प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ खुलकर आवाज़ उठा चुके हैं। ऐसे और भी कई नेता हैं।

लेकिन इन सबसे हटकर कुछ दिन पहले एक और बात जो सामने आयी, वह यह कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते दिखे थे। नीतीश कुमार भाजपा सरकार की वादाख़िलाफ़ी को लेकर नाराज़ बताये जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने प्रधानमंत्री की वादाख़िलाफ़ी को लेकर आवाज़ भी उठायी थी। हालाँकि सुनने में आया है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें ख़िलाफ़ शान्त कर लिया है।

इधर बिहार में गठबंधन की एनडीए सरकार के गिरने के भी कयास लगे थे। अभी कुछ दिन पहले विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख और बिहार सरकार में मंत्री मुकेश साहनी ने सिर उठाया था, जिसके बाद उनके तीन विधायक भाजपा में शामिल हो गये। नीतीश कुमार उसी के बाद नाराज़ दिखे थे। इधर उत्तर प्रदेश समेत उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में भाजपा की जीत से अधिकतर विपक्षी दलों में नाराज़गी बढ़ गयी है। उनका आरोप है कि भाजपा ये चुनाव ईमानदारी से नहीं जीती है।

भाजपा पर आरोप लग रहे हैं कि वह देश में गृहयुद्ध जैसे हालात खड़े कर रही है। कुछ लोगों ने तो फ़िल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को भी इसी का हिस्सा बताया। इस फ़िल्म को 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी का हिस्सा बताया जा रहा है। उनका मानना है कि इसी के चलते भाजपा शासित राज्यों में यह फ़िल्म मुफ़्त में और कर मुक्त (टैक्स फ्री) करके लोगों को दिखायी गयी और कुछ ग़ैर-भाजपा शासित राज्यों में इस फ़िल्म पर से कर (टैक्स) हटाकर इसे दिखाने पर ज़ोर दिया गया।

इस बीच तेज़ी से बढ़ी महँगाई ने भाजपा को सवालों के घेरे में लिया है, जिससे केंद्र से लेकर राज्य तक की भाजपा सरकारें बचती नज़र आ रही हैं। विपक्षियों का यह भी कहना है कि चुनावों के बाद अचानक बढ़ी महँगाई ने इस तरह की गतिविधियों को और भी हवा दी है। इन दिनों बिहार में यही स्थिति नज़र आती है, जहाँ सरकार टूटने तक के कयास लग रहे हैं।

हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि महँगाई, बेरोज़गारी और बार-बार महामारी के बीच पिसती जनता किसी ऐसे तीसरे दल की तलाश कर रही है, जो उसे राहत दे सके। लेकिन उसे कोई ऐसा राष्ट्रीय चेहरा नज़र नहीं आ रहा, जो उसकी यह इच्छा पूरी करते हुए कांग्रेस मुक्त और भाजपा मुक्त सरकार देश में दे सके। वाम मोर्चा पहले दो बार ऐसा कर चुका है। एक बार सन् 1989 में और एक बार सन् 1996 में, और दोनों बार वह सफल रहा।

हालाँकि सन् 1989 में तीसरे मोर्चे के गठन में भाजपा भी शामिल थी, जिसके सहयोग से जनता दल की सरकार बनी थी। अब एक बार फिर देश किसी तीसरे मोर्चे या दल की तलाश करता दिखायी दे रहा है, जिसकी कुछ झलक आने वाले अगले कुछ महीनों में दिखायी दे सकती है। ख़िलाफ़ जनता के लिए भाजपा मुक्त और कांग्रेस मुक्त सरकार एक सपना ही है, जिसके हक़ीक़त में बदलने में वक़्त भी लग सकता है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

रामराज्य की प्रतीक्षा में ग्राम-देवता

अमीर ख़ुसरो ने लिखा है- ‘राजकीय मुकुट का प्रत्येक मोती ग़रीब किसान की अश्रुपूरित आँखों से गिरी हुई रक्त की घनीभूत बूँद है।’ लोकतंत्र के आवरण में व्याप्त पूँजीवादी साम्राज्यवाद के कुलीनतंत्र ने कृषि और किसान दोनों का निरंतर उत्पीडऩ किया है। आश्चर्य है कि $गरीबों के शोषण के लिए पूँजीवाद का सबसे सुलभ हथियार लोकतान्त्रिक सरकारें बन गयी हैं।

भारत में आधिकारिक तौर पर पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी, 2016 को बरेली में एक रैली को सम्बोधित करते हुए चालू वर्ष 2022 तक (देश की आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ के अवसर तक) किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन बढ़ी कृषि लागत ने किसानों की आय और कम कर दी है। आज लक्षित वर्ष में प्रवेश के पश्चात् सरकार के उस दावे की समीक्षा आवश्यक है।

हालाँकि सरकार को स्वयं इस पर स्पष्टीकरण देना चाहिए था, किन्तु बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री सरकार के इस बहु-प्रचारित वादे की चर्चा से बचकर निकल गयीं। उन्होंने इस बहु-प्रतीक्षित लक्ष्य को लेकर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझा। कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने भी कहा कि पिछले लगभग पाँच साल से किसानों की आय दोगुनी करने की बात ज़ोर-शोर से कही जाती रही है कि वर्ष 2022 तक इस मंज़िल को हासिल करने की सरकार की योजना है; लेकिन बजट में इस बहु-प्रचारित दावे पर चुप्पी साध ली गयी है।

भारत सरकार के पास किसानों की आय में हुई बढ़त से सम्बन्धी कोई स्पष्ट आँकड़े मौज़ूद नहीं हैं। परन्तु कृषि सम्बन्धित योजनाओं की स्थिति, कृषि की वृद्धि दर, अर्थ-व्यवस्था में कृषि क्षेत्र का हिस्सा, फ़सलों के दामों में हुई वृद्धि और किसानों की आर्थिक स्थिति या उनके आत्महत्या से सम्बन्धित आँकड़ों इत्यादि से सत्य का अनुमान लगाया जा सकता है। किसानों की आय को दोगुनी करने के उद्देश्य में सहयोग देने हेतु केंद्र सरकार ने अशोक दलवई समिति का गठन किया। दलवई समिति ने वर्ष 2015-16 के थोक मूल्यों के आधार पर 2022 तक किसानों की औसत वार्षिक आय को 96,000 रुपये से 1.92 लाख रुपये तक बढ़ाने के लिए एक विस्तृत रणनीति के साथ रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

समिति के आकलन के अनुसार, यदि 2015-16 को आधार वर्ष मानकर भी इस दिशा में कार्य किया जाए, तो 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए प्रतिवर्ष कृषि आय में 10.4 फ़ीसदी की दर से वृद्धि आवश्यक थी। वहीं बहुत-से आर्थिक एवं कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 2022 तक किसानों की आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश की वार्षिक कृषि विकास दर 14.86 फ़ीसदी होनी चाहिए। लेकिन कृषि क्षेत्र के पिछले कुछ वर्षों के विकास दर के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों की वार्षिक विकास दर 2012-13 में 1.5 फ़ीसदी, 2013-14 में 5.6 फ़ीसदी, 2014-15 में -0.2 फ़ीसदी, 2015-16. में 0.6 फ़ीसदी, 2016-17 में 6.3 फ़ीसदी, 2017-18 में 5.0 फ़ीसदी, 2018-19 में 2.9 फ़ीसदी, 2019- 20 में 2.8 फ़ीसदी ही रही है।

वहीं जीवीए (कृषि सकल मूल्य वर्धित) 2014-15 में 18.2 फ़ीसदी, 2015-16 में 17.7 फ़ीसदी, 2016-17 में 17.9 फ़ीसदी, 2017-18 में 17.2 फ़ीसदी, 2018-19 में 16.1 फ़ीसदी, 2019-20 में 16.5 फ़ीसदी रहा। ये आँकड़े कृषि क्षेत्र में कमोबेश नकारात्मक ही हैं। ऐसे में सरकार किस प्रकार निरंतर कृषि आय में वृद्धि के दावे कर रही थी? यह समझ से परे है। इन बीते वर्षों में कृषि क्षेत्र के बेहतरी, निरंतर किसानों की दशा में सुधार के लिए कई योजनाओं की घोषणा की गयी। परन्तु वास्तव में हर योजना असफल रही। उदाहरण के लिए ई-नैम, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना आदि।

भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, भारत में कुल कृषि भूमि के 52 फ़ीसदी हिस्से अर्थात् 14.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर ही कृषि होती है। इस कृषि भूमि का लगभग आधा भाग या उससे अधिक सिंचाई के लिए वर्षा के अनियमित स्रोत पर निर्भर है। स्पष्ट है कि देश में कृषि संकट से उबरने के लिए सिंचाई समस्या का निदान प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके समाधान हेतु पाँच वर्ष में 50,000 करोड़ के भारी-भरकम बजट वाली जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना प्रारम्भ की गयी। किन्तु समय बीत जाने के बावजूद देश का बड़ा कृषि क्षेत्र सिंचाई-सुविधा से वंचित है। इसी तरह किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से फ़सलों को हुए नुक़सान की भरपाई हेतु प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना फरवरी, 2016 में शुरू की गयी। निरपेक्ष रूप से देखें, तो यह भी एक बेहतरीन योजना थी। किन्तु यह तकनीकी आधारित योजना थी और दूसरे इसके क्रियान्वयन में भी कमियाँ थीं। इस योजना में कम प्रीमियम के भुगतान की शिकायत मिली, जिसमें किसानों को भुगतान के प्रतिफल में नुक़सान ही हुआ। समय बीतने के साथ इस योजना के दायरे में आने वाले किसानों की संख्या में बड़ी गिरावट देखी गयी। वर्ष 2016-17 में प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के अंतर्गत कुल 5.80 करोड़ किसानों ने पंजीकरण कराया था। लेकिन वर्ष 2017-18 में ही यह संख्या घटकर 4.70 करोड़ रह गयी। इसमें किसानों की रुचि निरंतर कम हो रही है। सरकार द्वारा देश के हर किसान को इस योजना के दायरे में लाकर उसे नुक़सान से बचाने का दावा तो सही साबित नहीं हुआ, मगर बीमा क्षेत्र इससे अधिक लाभान्वित हुआ।

इसी तरह कृषि बाज़ार को विकसित करने के उद्देश्य से ई-नेम योजना एक उत्कृष्ट योजना के तौर पर प्रचारित की गयी। किन्तु तकनीकी ज्ञान पर आधारित यह योजना भारतीय किसानों के लिए कहीं से भी तर्कसंगत नहीं साबित हुई। इसी कारण किसानों की बड़ी आबादी इसके बहु-प्रचारित लाभों से वंचित ही रही। ऊपर से धान क्रय केंद्र किसानों के उत्पीडऩ और शोषण के सबसे बड़े केंद्र बन चुके हैं। वहाँ धान में 10 कमियाँ निकालना। पल्लेदार के न होने का बहाना बनाकर कई दिनों तक किसानों को इंतज़ार कराना इन क्रय केंद्रों पर रोज़मर्रा की बात है; लेकिन सरकार और प्रशासन इन शिकायतों के निस्तारण के लिए तत्पर कभी नहीं रहे हैं।

भाजपा सरकार की एक बड़ी समस्या रही है- ‘ज़मीनी हक़ीक़त को समझे बिना योजनाओं का निर्माण करना।’ वह जब तक सत्ता से बाहर होती है, तब तक स्वदेशी एवं सांस्कृतिक नारे देती है। मगर जब सत्ता में आती है, तो भारत को सीधे अमेरिका और यूरोप में तब्दील करने लग जाती है। जिस देश में पूरा ज़ोर प्राथमिक शिक्षा को मानक स्तर पर पहुँचाने का हो एवं लगभग 70 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती हो, वहाँ किसान या जन कल्याण की योजनाओं को डिजिटल माध्यम से संचालित करने का तर्क समझना कठिन है।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में किसानों को डिजिटल और हाईटेक सेवाएँ मुहैया कराने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कराने की घोषणा की। ऐसे समय में जब सरकार को सिंचाई, खाद, उन्नत बीज और बिजली की उपलब्धता जैसी मूलभूत समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तब वह ड्रोन तकनीक में उलझी है। प्रश्न यह भी है कि अपना और परिवार का पेट भरने को जूझता आम किसान हज़ारों रुपये के ड्रोन पर क्यों और कहाँ से निवेश करेगा? ऊपर से यह ड्रोन तकनीक भारतीय कृषि के लिए निकट भविष्य में कामयाब होगी या नहीं; इस पर भी संशय है।

इसके अतिरिक्त किसानों की एमएसपी को क़ानूनी रूप देने की माँग की भी अनदेखी कर दी गयी। सरकार की ओर से एमएसपी पर एक समिति के गठन का वादा किया गया था। बजट सत्र में सरकार को उस समिति के गठन की औपचारिक घोषणा करनी चाहिए थी; लेकिन इस दिशा में भी कोई पहल नहीं हुई। कृषि की अन्य दूसरी मदों में कमी के अलावा एमएसपी की राशि को इस बजट में गेहूँ-धान के लिए 2.37 लाख करोड़ निर्धारित किया गया है, जबकि पिछले साल यह 2.48 लाख करोड़ था। साथ ही 2022-2023 के मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये। यह राशि भी मौज़ूदा वित्त वर्ष के लिए संशोधित अनुमान से 25.51 फ़ीसदी कम है। वित्त वर्ष 2021-22 में भी इस योजना के लिए 73,000 करोड़ रुपये ही आवंटित हुए थे, जिसे बाद में काम की अधिक माँग को देखते हुए संशोधित कर 98,000 करोड़ रुपये कर दिया गया था। देवेंद्र शर्मा का कहना है कि अगर देखा जाए, तो नरेगा सहित तमाम मदों में कमी ही की गयी है और कृषि प्रणाली में जान फूँकने जैसा कोई प्रयास नहीं दिखता है।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि किसान हमेशा से संकट में रहे हैं, और अब भी हैं। एक पुराने आँकड़े को लें, तो मात्र सन् 2014 से सन् 2018 के बीच कुल 57,345 किसानों ने आत्महत्या की है अर्थात् हर वर्ष औसतन 11,469 और प्रतिदिन 31 किसानों ने आत्महत्या की है।

हालाँकि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना (सन् 2019 में घोषित) जिसके अंतर्गत किसानों को 6,000 रुपये वार्षिक की आर्थिक मदद दी गयी। यह सरकार का एक प्रशंसनीय प्रयास रहा है; लेकिन इस राशि में वृद्धि की जानी चाहिए। साथ ही इस योजना में कृषि मज़दूरों को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि वैश्विक महामारी कोरोना के समय कृषि क्षेत्र ने ही अर्थ-व्यवस्था को सबसे बड़ा संबल दिया।

ऐसा नहीं कि किसानों की दुर्दशा के लिए प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, ओला, आँधी, बीमारियाँ और पशु ही ज़िम्मेदार होते हैं। दरअसल पूँजीवादी शक्तियों का यह पुराना षड्यंत्र है कि कृषि और गाँवों का विकास न हो। क्योंकि इससे उनके हित सधते हैं। एक तो कृषि के नष्ट होने से उद्योगों के लिए मज़दूर अधिक होने से सस्ता श्रम मिलता है, जिससे आसानी से उनका शोषण पूँजीपति करते हैं।

दूसरे कृषि की हानि से ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था की आत्मनिर्भरता समाप्त होती है, जिससे पूँजीवादी बाज़ार का प्रसार होता है। इसमें भी दो-राय नहीं है कि वर्तमान सरकार ने किसानों के हित में काम करने की पहल की है। किन्तु सत्तारूढ़ दल के साथ कई समस्याएँ हैं। पहली यह कि पार्टी अपने चुनावी मोड और कुर्सी के मोहजाल से बाहर निकल ही नहीं पा रही है।

दूसरी यह कि शीर्ष नेतृत्व नौकरशाही के एक $खास समूह से घिर चुका है, जो भाजपा सरकार को घेरकर बैठा है और उसे जनता से दूर-दूर भटकाकर पूरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है। साथ ही सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी सरकार में बैठे ऐसे लोगों की है, जो कि वातानुकूलित कमरों में बैठकर नीतियाँ तय करते हैं। लेकिन देश के प्रधान सेवक एवं उनका मंत्रिमंडल इन परिस्थितियों की अन्तिम ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते; क्योंकि जनता ने सत्ता तो इन्हें ही सौंपी है। उन्हें याद रखना है कि ‘ग्राम-देवता’ (रामकुमार वर्मा के काव्य में किसान के लिए सम्बोधन) अभी तक रामराज्य की प्रतीक्षा में हैं।

कहा जाता है कि समय (काल) बड़ा निर्मम है। वह किसी को भी उसके कर्मफल के चंगुल से मुक्त नहीं होने देता। इसीलिए कहा गया है कि कठोर पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति भले ही परेशानी में जीवन व्यतीत करे; लेकिन उसका प्रारब्ध स्वर्णिम होता है। किन्तु जब कोई व्यक्ति अपूर्व वैभव और सत्ता प्राप्त करता है, तो उसे अपने शरीर के नश्वर होने तक का ज्ञान नहीं रहता और वह अहंकार से इस तरह घिर जाता है कि वह पाप करने से भी परहेज़ नहीं करता। कहा जाता है कि सत्ता का मद तो देवताओं की भी मति भ्रष्ट कर देता है। लेकिन देवता हो या मानव वक़्त किसी को भी दण्डित करने से नहीं चूकता। यह एक सलाह है, जिस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व और उनकी नौकरशाही को ध्यान देना चाहिए। बाक़ी अपने विधान और ऋत् नियमों (प्राकृतिक व्यवस्था और सन्तुलन के सिद्धांत) के प्रति महाकाल बड़ा निर्मम है।

रक्षकों की असुरक्षा पर सवाल

जिन लोगों की ज़िम्मेदारी रक्षा की हो, अगर उन्हीं की जान जोखिम में पड़ जाए, तो फिर सुरक्षा कौन करेगा। कुछ दिन पहले गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर में ऐसी ही घटना घटी, जिससे सुरक्षाकर्मियों की सुरक्षा चौकसी पर सवालिया निशान तो लगे ही हैं। साथ ही यह भी आशंकाएँ खड़ी हुई हैं कि हमले की योजनाओं को देश में हवा दी जा रही है।

विदित हो कि कुछ दिन पहले गोरखनाथ मन्दिर की सुरक्षा में तैनात सिपाहियों पर जानलेवा हमला हुआ था। इस मन्दिर पर हमले का अर्थ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सुरक्षा चक्र पर हमले जैसा ही है, क्योंकि गोरखनाथ मन्दिर के महंत योगी आदित्यनाथ ही हैं। हालाँकि इस हमले के बाद गोरखनाथ मन्दिर, योगी आदित्यनाथ और उनके सरकारी आवास की सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है। योगी के आवास की सुरक्षा में केंद्रीय सुरक्षा बलों की दो प्लाटून लगे हैं, जिसमें 72 जवान तैनात हैं। इस सुरक्षा चक्र में सीआरपीएफ की 233 बटालियन की अल्फा यूनिट भी है। तैनात जवानों में महिला व पुरुष दोनों हैं।

हमलावर का नाम अहमद मुर्तज़ा अब्बासी है, जो सब जानते ही हैं। मगर यह एक पढ़ा-लिखा भारतीय नागरिक है, जिसके रिश्ते आईएसआईएस से बताये जाते हैं। लखनऊ के सेंट जॉन बॉस्को स्कूल में शुरुआती पढ़ाई करने वाले अहमद मुर्तज़ा अब्बासी ने 12वीं तक की पढ़ाई मुम्बई और फिर उसका आईआईटी मुम्बई में भी चयन हुआ, जहाँ से उसने स्नातक की पढ़ाई की। मुर्तज़ा के तार नेपाल और आईएसआईएस से मिले हैं। वह अंतरराष्ट्रीय सिम कार्ड का इस्तेमाल करता था और उसके बैंक अकाउंट में 20 लाख रुपये की मोटी रक़म के अलावा कई ठिकाने मिले हैं, जहाँ वह जिहाद की गतिविधियाँ चलाता था। एटीएस टीम ने उसके $करीब आधा दर्ज़न ठिकानों पर छापेमारी करके क़रीब एक दर्ज़न संदिग्धों को गिरफ़्तार किया है। पूछताछ और वीडियो की जाँच में पता चला है कि मुर्तज़ा एनआरसी, सीएए, हिजाब और मुस्लिम समुदाय के प्रति चल रहे मसलों को लेकर नाराज़ था।

जिहाद के लिए फंडिंग

गोरखनाथ मन्दिर पर हमले से पहले अहमद मुर्तज़ा अब्बासी ने कई बैंक खातों के ज़रिये फंडिंग की थी। उसने 29 डॉलर से विदेशी सिम ख़रीदकर उसकी मदद से प्रतिबंधित वेबसाइट्स को सर्च करके उन पर जिहादी वीडियो देखता था। मुर्तज़ा का एक मिनट 49 सेकेंड का एक कथित वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, जिसमें वह हमले का कारण बता रहा है। मगर इस वीडियो को उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों ने इस वीडियो को सत्यापित नहीं किया गया है। जब पुलिस ने उसे पकडऩे की कोशिश की, तो उसने हमला करने की कोशिश की, जिसमें उसका हाथ भी टूट गया। गिरफ़्तारी वाले दिन ही कोर्ट ने उसके ख़िलाफ़ बी वारंट और रिमांड लैटर एटीएस की टीम को दे दिया, जिसके बाद उसे लखनऊ ले जाया गया। इस मामले की जाँच में उत्तर प्रदेश पुलिस के अलावा एटीएस और एसटीएफ की टीमें लगी हैं। गिरफ़्तारी के बाद मुर्तज़ा के पास से नेपाली करेंसी और डॉलर भी मिले। बताया जाता है कि मुर्तज़ा ने कुछ समय नौकरी भी की थी, जिससे जुटाये गये पैसे उसने अपनी जिहादी गतिविधियों में लगा दिये थे।

कैसे सम्भव हुआ हमला?

सर्वविदित है कि मुख्यमंत्री से मिलने के लिए आम लोग हर रोज़ उनके आवास और गोरखनाथ मठ में आते रहते हैं। ऐसे में पुलिस निश्चिंत रही होगी कि लोग तो आते ही रहते हैं। क्योंकि हमले का जो वीडियो सामने आया है, उसमें मुर्तज़ा बड़े आराम से हमला करता दिख रहा है और एक पुलिसकर्मी पीछे आराम से अपने हाथ बाँधे उसे देख रहा है। एक बार को तो वीडियो देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी फ़िल्म की शूटिंग चल रही हो। मगर सुरक्षा के मामले में इस तरह के विचार ठीक नहीं। क्योंकि यह एक बड़ी चूक है। इसी चूक का फ़ायदा उठाकर मुर्तज़ा मन्दिर प्रांगण में दाख़िल हुआ और उसने बेख़ौफ़ होकर हमला कर दिया। विदित हो कि मुर्तज़ा ने गोरखनाथ मन्दिर की सुरक्षा में तैनात सिपाहियों पर इसी बीती 3 अप्रैल को शाम के क़रीब 7:15 बजे धारदार हथियार से हमला किया था।

अब गोरखनाथ मन्दिर के मुख्य द्वार तक किसी भी गाड़ी के जाने पर पूरी तरह रोक लगी हुई है। मन्दिर और मुख्यमंत्री आवास पर जाने वालों पर पैनी नज़र रखी जा रही है और उनके पहचान पत्र देखे जा रहे हैं। आवास के द्वार पर बुलेट प्रूफ पोस्ट लगायी गयी है।

योगी का सुरक्षा चक्र

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सुरक्षा में जेड प्लस सिक्यूरिटी लगी हुई है। योगी की सुरक्षा में 24 घंटे लगभग 28 एनएसजी कमांडो तैनात रहते हैं। अब मन्दिर पर हमले के बाद इसमें और मज़बूती लाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश में सबसे मज़बूत सुरक्षा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की हो गयी है। देखने वाली बात यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सुरक्षा के साथ-साथ उनके आवास से लेकर गोरखनाथ मन्दिर तक की सुरक्षा व्यवस्था बेहद कड़ी है। मन्दिर परिसर पर पुलिस और सैन्य बलों की गिद्ध नज़र तो रहती ही है, सीसीटीवी कैमरों की निगरानी भी बहुत मज़बूत है। इसके बावजूद हमलावर अहमद मुर्तज़ा अब्बासी आराम से हथियार लेकर मन्दिर प्रांगण में उपस्थित हो जाता है, तो इस पर सवाल उठने चाहिए और मामले की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। यह तब होता है, जब मन्दिर के द्वार पर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था है। हमलावर इतने आराम से सब कुछ करता है, मानो वह किसी के इशारे पर काम कर रहा हो।

इधर समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने उसके पिता के बयान के आधार पर मुर्तज़ा के मानसिक रोगी होने की बात को साझा किया है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि हमें इस बारे में भी ध्यान देने की आवश्यकता है। भाजपा मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। अखिलेश यादव के बयान पर भाजपा नेता उन पर भड़क गये हैं।

जो भी हो, अब मन्दिर के प्रदेश द्वार पर सुरक्षा और भी मज़बूत कर दी गयी है। मन्दिर द्वार पर बुलेट प्रूफ जैकेट पहने जवानों की तैनाती कर दी गयी है। इसके अतिरिक्त प्रवेश द्वार पर अत्याधुनिक स्कैनर लगाया जाएगा, जिसमें से होकर जाने वाला कोई भी व्यक्ति अगर एक सूई भी लेकर मन्दिर में जाने का प्रयास करेगा, तो पकड़ा जाएगा।

एचडीएफसी का विलय एक दूरगामी सोच

देश की सबसे बड़ी आवास वित्त कम्पनी एचडीएफसी लिमिटेड और निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक एचडीएफसी के विलय होने के प्रस्ताव को मंज़ूरी मिलने के साथ ही बाज़ार में ख़ुशी का माहौल है। बैंक के विलय को लेकर आर्थिक मामलों के जानकारों से ‘तहलका’ संवाददाता ने बात की, तो उन्होंने बताया कि विलय को लेकर कई वर्षों से मूल्यांकन किया जा रहा था। लेकिन अतीत में किसी कारणवश विलय नहीं हो पाया।

आर्थिक मामलों के जानकार व राजनीति विश्लेषक डॉ. सुनील मिश्रा ने बताया कि बैंकों में जुड़ी गतिविधियों में सरकार का भले ही प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) रूप से कोई हस्तक्षेप न हो, पर अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) हस्तक्षेप होता है। क्योंकि मौज़ूदा समय में दुनिया में तमाम उतार-चढ़ाव भरे आर्थिक मामलों को देखते हुए लगता है कि एचडीएफसी कम्पनी का एचडीएफसी बैंक में विलय मील का पत्थर साबित हो सकता है। डॉ. सुनील मिश्रा का कहना है कि जिस दिन विलय की घोषणा भर हुई थी, उसी दिन बेंचमार्क सूचकांक दो फ़ीसदी से अधिक चढ़ गया था। 18 जनवरी के बाद एक बार सेंसेक्स ने 60,000 का स्तर पार किया और निफ्टी भी 18,000 के पार पहुँच गया। ऐसे में बैंक के विलय का हमें साफ़ सन्देश है कि आने वाले दिनों में अन्य बैंकों में सुधार से साथ विलय हो सकते हैं। क्योंकि कई बैंकों की कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान लग रहे हैं। विलय बैंक के ज़रिये ही सही; लेकिन ये सकारात्मक आर्थिक सुधार में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

चाटर्ड अकाउंटेंट (सीए) ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि एचडीएफसी बैंक के विलय से बैंकिंग उद्योग में समेकन की प्रकिया में तेज़ी आ सकती है। साथ ही भारत के सबसे बड़े कॉर्पोरेट विलय के तौर पर देखा जा सकता है। इसी कारण से इन दोनों कम्पनियों के शेयरों में काफ़ी तेज़ी देखी गयी है। हाउसिंग फाइनेंस डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एचडीएफसी) का शेयर नौ फ़ीसदी तक चढ़ा है, जबकि एचडीएफसी बैंक में 10 फ़ीसदी की तेज़ी देखने को मिली है। सीए ध्रुव अग्रवाल का मानना है कि बैंक में विलय के लिए शेयरों की अदला-बदली का अनुपात भी तय हो चुका है। विलय से एचडीएफसी बैंक शत्-प्रतिशत आम शेयरधारकों की कम्पनी बन जाएगी।

विश्लेषकों का मानना है कि निवेशकों को अपनी उम्मीदें कुछ कम रखने की ज़रूरत है। क्योंकि इस विलय को नियामकीय चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

एचडीएफसी बैंक से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस विलय से हम एक और एचडीएफसी बैंक का सृजन कर सकते हैं। इस विलय की यह एकीकरण प्रक्रिया पूरी तरह से शेयरों में की जाएगी। एकीकृत इकाई का बाज़ार मूल्य $करीब 40 अरब डॉलर होगा। अभी एचडीएफसी बैंकिंग कम्पनी की प्रवर्तक इकाई है। बैंक अधिकारी का कहना है कि विलय की प्रक्रिया दो चरणों की है। एचडीएफसी के पूर्ण स्वामित्व वाली वाली इकाइयों एचडीएफसी इन्वेस्टमेंट्स और एचडीएफसी होल्डिंग्स का विलय। फिर दूसरे चरण में एचडीएफसी का एचडीएफसी बैंक में विलय।

बैंक अधिकारी ने बताया कि 45 वर्षों के दौरान 90 लाख से ज़्यादा ग्राहकों को आवास के लिए लोन मुहैया कराने वाली कम्पनी के लिए नया घर तलाशने का यही सही समय और अवसर होगा। उनका कहना है कि विलय की तो कई वजह हैं, जो समय के साथ सामने आएँगी; लेकिन इतना ज़रूर है कि दोनों कम्पनियों के प्रबंधन को लगा या महसूस हुआ कि ब्याज दरें अभी अनुकूल हैं, जिससे तरलता सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए बैंक की पूँजी की लागत कम आएगी। इन्हीं तमाम पहलुओं को देखते हुए विलय को अंजाम दिया गया है।

स्वतंत्र बाज़ार विश्लेषक और जीएसटी व कर मामलों के जानकार पुनीत जैन का कहना है कि किसी भी देश की तरक़्क़ी और विकास का मुख्य आधार वहाँ की आर्थिक मज़बूत व्यवस्था होती है। उन्होंने बताया कि गत 6-7 महीने से हमने कई अधिग्रहण देखे हैं। ये सभी सन्देश दे रहे हैं कि अच्छी कम्पनियों का बेहतर तरीक़े से मूल्यांकन करके और अर्थ-व्यवस्था का लाभ उठाया जा सकता है। क्योंकि मौज़ूदा समय में कोरोना-काल के बाद से तेज़ी से देश में आर्थिक सुधार हो रहा है। क्योंकि इस बात की पुष्टि के संकेत जीएसटी कर संग्रह तथा कम्पनियों के तिमाही नतीजों के आँकड़े बताते हैं। उनका कहना है कि यह सही समय है, जब बड़े कारोबारियों के साथ-साथ छोटे कारोबारी लाभ उठाने के लिए एकीकरण की ज़रूरत को समझ रहे हैं।

बताते चलें कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल के कुछ वर्षों के दौरान बैंकिंग क्षेत्र में चूक व लापरवाही के कई मामलों को देखते हुए ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (एनबीएफसी) और बैंकों के लिए नियमों में बदलाव किये हैं। इन बदलावों के बारे जानकारी देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और आर्थिक मामलों के जानकार मनोज कुमार का कहना है कि आरबीआई एनबीएफसी क्षेत्र के लिए व्यापक नियमों के साथ आगे आया है, जिसमें बड़ी एनबीएफसी को भी बैंकों के सामान सख़्त जाँच के दायरे में लाया है। उनका कहना है कि इसके अलावा आरबीआई ने एनबीएफसी के लिए आय पहचान और ग़ैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों (एनपीए) वर्गीकरण मानकों को अनुकूल बनाया है, जो विलय के लिए सम्भावित शंकाओं को दूर किया जा सका है।

मनोज कुमार का कहना है कि आरबीआई द्वारा निर्धारित नियामकीय ढाँचे में बदलाव का संकेत देते हुए एचडीएफसी लिमिटेड ने भी नियमों को अनुकूल बनाने जाने की दिशा में कई निर्देश भी जारी किये हैं।

बैंक विलय को लेकर कॉर्पोरेट बैंक से जुड़े कुलदीप कौशल का कहना है कि बैंक के विलय से बाज़ार में छायी मायूसी से रौनक़ लौटी है। छ: महीनों से शेयर बाज़ार की हालत पतली रही है। क्योंकि बैंकिंग सेक्टर ने पिछले 6-7 महीनों में सम्पूर्ण बाज़ार की तुलना में शेयर बाज़ार में कमज़ोर प्रदर्शन किया है। इसकी मुख्य कारण सुस्त लोन वृद्धि, जोखिम, तनावग्रस्त परिसम्पत्तियों से जुड़ी अनिश्चितताएँ रही हैं। क्योंकि कोरोना-काल के चलते बाज़ार और ऋण वृद्धि में काफ़ी रुकावट रही है। मौज़ूदा दौर में एचडीएफसी बैंक का विलय बैंक सेक्टर में ही नहीं, बल्कि बाज़ार में मंदी को दूर करेगा। उनका कहना है कि भले ही यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर दुनिया के अन्य देश आर्थिक मंदी के चपेट में आ रहे हैं। ऐसे समय में हमारे बैंक देश के छोटे-बड़े कारोबारियों से लेकर समाज के हर तबके के लिए ऋण मुहैया कराने के लिए खड़े हैं। सुधीर कौशल का कहना है कि एचडीएफसी और एचडीएफसी बैंक के विलय को भारत में कॉर्पोरेट विलय के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए इन बैंकों के शेयर बाज़ार में उछाल देखा जा रहा है। इसके अलावा इस विलय से प्रतिस्पर्धा दर पर रक़म जुटाने की क्षमता सुधरेगी। उनका कहना है कि संयुक्त इकाई की आय अगले तीन से पाँच साल में सुधर सकती है। बैंकिग सेक्टर से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि मौज़ूदा समय में एचडीएफसी लिमिटेड बैंक की पैतृक कम्पनी है। एचडीएफसी बैंक का बाज़ार पूँजीकरण नौ लाख करोड़ रुपये से अधिक है। लेकिन विदेशी निवेश के लिए सीमित गुंजाइश की वजह से अभी इन वैश्विक सूचकांकों का हिस्सा नहीं है।

बैंकों की मौज़ूदा समय में गिरती साख को अगर बचाना है और अपने ग्राहकों के बीच विश्वास पैदा करना है, तो बैंक के विलय के अलावा हमें अपने ग्राहकों को कम दर ऋण मुहैया कराना होगा। फ़िलहाल एचडीएफसी बैंक के विलय से हमारे देश-विदेश में पढऩे वाले छात्रों के बीच उम्मीद जगी है। उनकी पढ़ाई के लिए अन्य बैंकों की तुलना में ये बैंक सस्ता ऋण मुहैया कराएँगे।

एचडीएफसी बैंक के विलय को लेकर सेवानिवृत्त बैंक प्रबंधक जी. दास का कहना है कि इस विलय से देश के उन बड़े उद्योगपतियों को ज़रूर लाभ होगा, जिनको अधिक ऋण की ज़रूरत होती है। उन्होंने बताया कि अब एचडीएफसी बैंक भी पूँजीपतियों के हाथ में होगा, जहाँ उनके ही अपने निदेशक होंगे। वहीं भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की ओर से एक ही निदेशक होगा। यानी बहुमत में एचडीएफसी के निदेशक ज़्यादा होंगे, जिससे उनके फ़ैसले उनके मनमाफिक होंगे। जी. दास का कहना है कि सरकारी बैंक में सारे क़ायदे-क़ानून लागू किये जाते हैं, जबकि कॉर्पोरेट बैंकों में ऐसा कुछ नहीं होता। उन्होंने कहा कि एचडीएफसी बैंक से बड़ी उम्मीद है और वह देश आर्थिक स्थिति में मज़बूती प्रदान कर सकती है।

बढ़ता मोटापा चिन्ता का विषय

घर के नज़दीक पार्क में सुबह-शाम सैर करने वालों की अलग-अलग टोलियों के आपसी संवाद के दो-तीन विषय सामान्य होते हैं- राजनीति, शेयर बाज़ार और मोटापा। पार्क के दो-तीन फेरे लगाने के बाद बेंच पर आराम फ़रमाने वाले ये लोग अक्सर अपने या घर के किसी अन्य सदस्य के बढ़े हुए वज़न को क़ाबू करने के तरीक़ों के बारे में एक-दूसरे से सवाल-जवाब करते नज़र आ जाते हैं। दरअसल ऐसे दृश्य किसी ख़ास पार्क, जिम या योगा केंद्र तक ही सीमित नहीं हैं। दुनिया में करोड़ों लोग मोटापे की विकट समस्या से जूझ रहे हैं। यही वजह है कि मोटापे को कम करने वाला धन्धा अरबों रुपये का हो चुका है। दुनिया में जैसे-जैसे मोटे लोगों की संख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे इस धन्धे का भी और अधिक विस्तार होगा।

मोटापा कई देशों की समस्या

इस समय दुनिया में 80 करोड़ से अधिक लोग मोटे हैं। विश्व मोटापा संघ के अनुसार, वर्ष 2030 तक दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग मोटापे की चपेट में होंगे। इस महासंघ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सात करोड़ वयस्क मोटे लोगों की श्रेणी में आ जाएँगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि 2010 में यह संख्या क़रीब दो करोड़ थी। भारत में बच्चों में मोटापा भी एक गम्भीर समस्या का रूप ले चुका है। मोटापे के बारे में अक्सर यह सोचा जाता है कि अधिक खाने से वज़न बढ़ता है; लिहाज़ा यह समस्या अमीर लोगों की हो सकती है। लेकिन ऐसी कोई रूढ़ धारणा बनाने से पहले यह जानना भी ज़रूरी है कि आधुनिक जीवनशैली, अस्वस्थकारी खानपान आदि कई कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। दुनिया के 50 फ़ीसदी मोटे पुरुष भारत, अमेरिका समेत नौ देशों में और 50 फ़ीसदी मोटी महिलाएँ अमेरिका, भारत, चीन, पाकिस्तान समेत 11 देशों में पायी जाती हैं। हैरान करने वाला तथ्य यह भी है कि दुनिया के कुल मोटे बच्चों में से 75 फ़ीसदी बच्चे निम्न आय वाले देशों में पाये जाते हैं।

मोटापे से होने वाले रोग

अधिक वज़न / मोटापा व्यक्ति के शरीर में असामान्य या अधिक वसा के होने से होता है, जो स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। यह जोड़ों में दर्द, माँसपेशियों में दर्द, उच्च रक्तचाप, थायराइड, शुगर पैदा करने के अलावा हृदय, लीवर, किडनी और प्रजनन प्रणाली को ख़राब करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यह भी कहता है कि मोटापे से टाइप-2 मधुमेह, हो वयघात, उच्च रक्तचाप, कई तरह के कैंसर, मानसिक रोग, चर्म रोग, मस्तिष्काघात, हृदयाघात आदि हो सकते हैं। कई अध्ययन यह भी दर्शाते हैं कि मोटे लोगों को अगर कोरोना वायरस का संक्रमण हो जाता है, तो उनके अन्य लोगों की तुलना में अस्पताल में भर्ती होने की सम्भावना तीन गुना अधिक हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह भी मानना है कि दुनिया भर के देशों को मोटापे के संकट से निपटने के लिए तेज़ी से कार्रवाई करने वाली योजनाएँ बनानी चाहिए, जिन पर गम्भीरता से अमल भी करना होगा। दरअसल इस समस्या से राष्ट्र सरकारों व लोगों को आगाह करने के मक़सद से विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर विश्व मोटापा महासंघ 11 अक्टूबर, 2015 से विश्व मोटापा दिवस मना रहा है। यह दिवस मोटापा के बारे में जागरूकता फैलाने और इसके उन्मूलन की दिशा में कार्रवाई को प्रोत्साहित करने, लोगों का ध्यान स्वस्थ वज़न की अहमियत की ओर खींचने के लिए आयोजित किया जाता है, जिसके तहत मोटापा कम करने की दिशा में उठाये जा रहे वैश्विक प्रयासों का संचालन व नेतृत्व होता है। सन् 2020 से विश्व मोटापा दिवस हर वर्ष 4 मार्च को मनाया जाता है और 2022 की थीम ‘एवरीबॅडी नीड्स टू एक्ट’ है।

शारीरिक श्रम की ज़रूरत

अधिक वज़न / मोटापे की मुख्य कारणों में से अधिक वसा वाला भोजन करना भी है। इसके साथ ही कम व्यायाम करना व ऐसी ज़िन्दगी जीना, जिसमें निष्क्रियता हावी हो। शारीरिक गतिविधि कम होना भी इसका कारण हो सकता है। लोगों में होम डिलीवरी का रुझान बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ऑर्डर देने के 10 मिनट के भीतर घर का सामान पहुँचाने के विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये ख़र्च करती हैं। लोग भी होम डिलीवरी के विकल्प को तरजीह देने लगे हैं। घर बैठे ही दूध, सब्ज़ियाँ, फल, आटा, चावल, दालें आदि मँगवाने लगे हैं। यही नहीं अगर किसी कारणवश घर के आसपास निकलना भी पड़ता है, तो कार या स्कूटर आदि का इस्तेमाल करते हैं। पैदल चलना/साइकिल चलाने का मतलब अपने आर्थिक व सामाजिक हैसियत को कम करने से जोड़ लिया गया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि मोटापा स्वास्थ्य संकटों में से एक है और इसके उन्मूलन के लिए ख़ुराक में बदलाव के साथ व्यायाम पर भी ज़ोर देने की ज़रूरत है। यह संगठन शहरों व गाँवों में आमजन के लिए सुरक्षित पैदल चलने व साइकिल के लिए अलग से जगह बनाने पर भी ज़ोर देता है। विदेशों में तो सड़क निर्माण व ग्रामीण और शहरी योजनाओं को बनाते वक़्त इस पर ध्यान दिया जाता है। लेकिन जहाँ तक भारत में इस दिशा में सन्तोषजनक प्रगति नहीं हुई है। महानगरों में कहीं-कहीं अलग से पैदल व साइकिल चलाने वालों के लिए लेन तो बना दी गयी हैं; लेकिन वो वीरान नज़र आती हैं या उन पर मोटरसाइकिल सवार दौड़ते हैं, या उन्हें दुकानदारों और रेहड़ी-पटरी वालों और वाहन खड़े करने वालों ने घेर लिया है, जिसके चलते पैदल यात्रियों को चलने में दिक़्क़त होती है। यूरोपीय देशों में हरी बत्ती होने पर पहले सड़क पार करने का हक़ पैदल चलने वालों व साइकिल चलाने वालों का होता हैं। लेकिन यहाँ उन्हें किस नज़र से देखा जाता है, हर कोई इससे वाक़्किफ है। सरकार को मोटापे की समस्या से निपटने के लिए इस पहलू पर भी ध्यान देना होगा।

असन्तुलित आहार

असन्तुलित आहार, $खराब जीवनशैली व स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली खाद्य सामग्री का सेवन इंसान को मोटा बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अब विश्व में इस बात पर ज़ोर दिया जाने लगा है कि पैकेट बन्द खाद्य सामग्री पर हेल्थ स्टार रेटिंग होनी चाहिए। हेल्थ स्टार रेटिंग पैकेट बन्द खाने में शामिल नमक, चीनी और वसा की मात्रा के आधार पर दी जाती है। अभी ब्रिटेन, चिली, मैक्सिको, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में यह प्रणाली लागू है। भारत जो कि दुनिया में आबादी के आँकड़ों में दूसरे नंबर पर है, वहाँ जीवनशैली से जुड़ी बीमारियाँ बहुत हैं। लिहाज़ा यहाँ भी रेटिंग प्रणाली को लागू करने की बहुत ज़रूरत है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण इस दिशा में काम कर रहा है। इसका एक मक़सद उपभोक्ताओं को स्वस्थ भोजन के प्रति जागरूक करना है। यह हेल्थ स्टार रेटिंग पैकेट बन्द खाने में शामिल नमक, चीनी और वसा की मात्रा के आधार पर दी जाएगी और पैकेट के सामने वाले हिस्से पर प्रकाशित होगी, ताकि ख़रीदार पहले उसे पढ़ सकें व उसके बाद सोच-समझकर फ़ैसला लें कि यह उनके लिए कितनी सेहतमंद या नुक़सानदायक साबित होगी?

फ्रंट ऑफ पैकेजिंग लेबलिंग को लेकर भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण नयी नीति बना रहा है। भारतीय प्रबन्धन संस्थान, अहमदाबाद की पैकेट बन्द और प्रसंस्कृत खाद्य सामग्री पर सामने के हिस्से में प्रकाशन के प्रभाव से जुड़ी रिपोर्ट के आधार पर यह करने का फ़ैसला लिया गया है। सरकार इस सन्दर्भ में मसौदा विनियमन तैयार कर रही है और उधर भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने इस बाबत उद्योग संगठनों से प्रतिक्रिया भी माँगी है। इनका वैज्ञानिक पैनल के ज़रिये मूल्यांकन कराया जाएगा, ताकि सरकार की ओर से तैयार हो रहे मसौदे में उन्हें भी शामिल किया जाए। कोरोना महामारी से पूर्व एक उच्च स्तरीय संस्था में इस बिन्दु पर भी चर्चा हुई थी कि स्कूली बच्चों के नज़दीक पैकेट बन्द खाद्य सामग्री की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। लेकिन अभी तक ऐसी कोई पहल दिखायी नहीं देती। भारत में साल 2030 तक मोटे बच्चों व किशोरों की संख्या क़रीब 2.70 करोड़ होगी। जंक फूड से निजात दिलाने के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत है। अस्वस्थकारी खाद्य सामग्री के विज्ञापन व विपणन पर नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी है।

कई अभिनेता ऐसे विज्ञापनों के ज़रिये अपनी ब्रांड वैल्यू बढ़ाकर करोड़ों रुपये कमा रहे हैं और बच्चे, किशोर व आमजन उनका अनुसरण करते हुए वही पैकेट ख़रीदते हैं। ख़राब खानपान से निजात दिलाना बहुत ज़रूरी है। बदलते वक़्त के साथ ख़राब खानपान देश में 60 फ़ीसदी अकाल मौतों की वजह बन सकता है। इसी के मद्देनज़र तेलगांना के राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने खानपान के तौर-तरीक़ों का नया मसौदा तैयार करने की बात कही है। जिसमें छ: माह से अधिक आयु के इंसान के खानपान का नया मानक तय होगा। एनआईएन के निदेशक डॉ. अवुला का कहना है कि हाल ही में वसा व चीनी वाले खाद्य पदार्थों की खपत बढ़ी है, जिससे रोग बढ़े हैं। लेकिन पौष्टिक खानपान से कई रोगों की रोकथाम सम्भव है। दुर्भाग्य यह है कि आज एक तरफ़ लोगों को मोटापा कम करने के लिए अधिक खाने से रोकना पड़ रहा है, तो वहीं करोड़ों लोगों को भरपेट खाना भी नहीं मिलता है। हैरानी की बात यह है कि आज पालतू जानवरों में भी मोटापा बढ़ रहा है, जिसे कम करने के लिए उनके मालिक उन्हें डॉक्टरों के पास और जिम ले जाते हैं।

झारखण्ड विधानसभा से अब तक कई माननीय बाहर

अब बंधु तिर्की की सदस्यता गयी, कई और हैं निशाने पर

झारखण्ड युवा हो गया है। वर्ष 2000 में गठित यह राज्य 22वाँ बसंत देख रहा। युवा होते इस झारखण्ड को जब-जब मौक़ा लगा सज़याफ़्ता माननीयों को विधानसभा के बाहर का रास्ता दिखा दिया। अभी हाल में कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष सह विधायक बंधु तिर्की की सदस्यता गयी है। इससे पहले बीते 21 साल में राज्य के पाँच विधायकों की विधायकी छिन चुकी है। झारखण्ड के मौज़ूदा विधानसभा के 81 सदस्यों में 44 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कई सदस्यों का ट्रायल चल रहा है। इनकी भी सदस्यता पर ख़तरा मंडरा रहा है। विधानसभा को कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार है। फ़ैसला आने के बाद विधानसभा ऐसे सज़ायाफ़्ता सदस्यों को बंधु तिर्की की तरह बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूकेगा।

घोटाले से छिनी सदस्यता

देश में करोड़ों रुपये के घोटाले, करोड़ों रुपये की आय से अधिक सम्पत्ति के मामले सामने आते हैं। बंधु तिर्की का मामला अनूठा है। महज़ 6.28 लाख रुपये को लेकर उनकी सदस्यता चली गयी। रांची के मांडर विधानसभा सीट से विधायक बंधु तिर्की पर सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने 28 मार्च को दोषी पाते हुए तीन साल की सज़ा और तीन लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया था। ज़ुर्माना नहीं देने पर छ: माह की अतिरिक्त सज़ा काटनी होगी। बंधु का मामला इसलिए भी अनूठा है कि इस मामले सीबीआई ने जाँच के बाद 21 मई, 2013 में क्लोजर रिपोर्ट दाख़िल की थी। कहा गया कि बंधु के पास आय से अधिक सम्पत्ति पायी गयी है पर यह इतनी कम है कि सीबीआई उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के पक्ष में नहीं है। सीबीआई के तत्कालीन विशेष न्यायाधीश आर.के. चौधरी ने इसे अमान्य करार दिया था। इसके बाद फिर से मामले पर जाँच शुरू हुई। इस मामले में सीबीआई ने तिर्की को 12 दिसंबर, 2018 को गिरफ़्तार किया था। क़रीब 40 दिन जेल में रहने के बाद सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिली थी। सीबीआई ने तिर्की के ख़िलाफ़ 11 अगस्त, 2010 को प्राथमिकी दर्ज की थी। 16 जनवरी, 2019 को आरोप गठित किया गया था। इस पर गवाह और दलील के बाद सीबीआई कोर्ट ने 28 मार्च, 2022 को उन्हें दोषी करार दिया। जन प्रतिनिधि अधिनियम में दो साल या उससे अधिक सज़ा पर किसी भी सदन की सदस्यता स्वत: समाप्त कर दी जाती है। न्यायालय के निर्णय के बाद बंधु तिर्की की विधायकी ख़त्म हो गयी है। इस सम्बन्ध में झारखण्ड विधानसभा सचिवालय ने 8 अप्रैल, 2022 को अधिसूचना जारी कर दी। झारखण्ड विधानसभा के प्रभारी सचिव सैयद जावेद हैदर की ओर से जारी अधिसूचना में कहा गया कि सीबीआई की स्पेशल न्यायालय ने बंधु तिर्की को दोषी करार देने पर जन प्रतिनिधित्व नियम-1951 की धारा-8 तथा संविधान के अनुच्छेद-191 (1)(ई) के प्रावधान के तहत 28 मार्च, 2022 के प्रभाव से झारखण्ड विधानसभा की सदस्यता ख़त्म की जाती है। विधानसभा ने चुनाव आयोग को मांडर विधानसभा सीट ख़ाली होने की सूचना भेज दी है। अब आयोग को छ: महीने के अन्दर यहाँ चुनाव कराना होगा।

पाँच विधायक पहले हुए बाहर

बंधु तिर्की से पहले पाँच विधायकों की सदस्यता न्यायालय की तरफ़ से सज़ा सुनाने के बाद ख़त्म हो गयी है। इनमें झामुमो के राजधनवार विधायक निजामुद्दीन अंसारी, झारखण्ड पार्टी के कोलेबिरा विधायक एनोस एक्का, लोहरदगा के आजसू विधायक कमल किशोर भगत, गोमिया के झामुमो विधायक योगेंद्र प्रसाद व सिल्ली के झामुमो विधायक अमित महतो के नाम शामिल हैं। कमल किशोर भगत को 21 साल पुराने मारपीट के मामले में सात साल की सज़ा सुनायी गयी थी और उनकी सदस्यता जून 2015 में समाप्त हुई थी। इसी तरह एनोस एक्का को पारा अध्यापक की हत्या के मामले में उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी गयी थी। योगेंद्र प्रसाद को कोयला चोरी के मामले में पाँच साल की सज़ा हुई थी। इसी तरह नजामुद्दीन अंसारी और अमित महतो को अलग-अलग मामले में दो साल से अधिक की सज़ा हुई और उनकी विधायकी चली गयी।

बदलेंगे समीकरण

राज्य में झामुमो के नेतृत्व में कांग्रेस और राजद के गठबंधन की सरकार है। बंधु की सदस्यता जाने से सरकार को कोई ख़तरा नहीं है। क्योंकि बहुमत के लिए सरकार को 41 सदस्यों का समर्थन चाहिए। झामुमो के 30 कांग्रेस के 17 और राजद के एक सदस्य के साथ सत्ता पक्ष के पास 48 विधायकों का आँकड़ा है। पर बंधु की सदस्यता जाने का राजनीतिक समीकरण पर असर ज़रूर पड़ेगा। बंधु तिर्की सन् 2019 में झाविमो के टिकट से जीतकर विधायक बने थे। सन् 2020 में वह अपने साथी प्रदीप यादव के साथ कांग्रेस में शामिल हो गये। हालाँकि उन्हें विधानसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के सदस्य की मान्यता नहीं दी थी। इस बीच कांग्रेस पार्टी ने उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया। कांग्रेस उनके साथ प्रदीप यादव को अपना सदस्य मानकर चल रही थी। लिहाज़ा उनके सदस्यों की संख्या 18 से घटकर 17 हो जाएगी। इससे कांग्रेस गठबंधन में थोड़ी कमज़ोर होगी।

दूसरी बात कांग्रेस के पास आदिवासी विधायक का ऐसा चेहरा नहीं है, जो पूरे राज्य के आदिवासी क्षेत्रों पर पकड़ बना सके। बंधु तिर्की एक मुखर आदिवासी नेता माने जाते हैं। वह विभिन्न मुद्दों को लेकर मुखर भी रहे हैं। जिसका लाभ कांग्रेस लेने की कोशिश करती; जो अब सम्भव नहीं हो सकेगा।

मुसीबत में रहेंगे बंधु

बंधु तिर्की जमानत पर अभी जेल के बाहर हैं, पर उनकी मुसीबत फ़िलहाल कम होते नहीं दिख रही। तिर्की की 6.28 लाख रुपये की सम्पत्ति सीबीआई जल्द ही ज़ब्त करेगी। न्यायालय ने बंधु तिर्की को सज़ा सुनाने के बाद सीबीआई को निर्देश दिया आय से अधिक जितनी सम्पत्ति पायी गयी है। उसे जल्द-से-जल्द ज़ब्त करें। इस बीच बंधु के ख़िलाफ़ ईडी भी जाँच करने की तैयारी में है। ईडी की जाँच शुरू होने के बाद निश्चित ही परेशानी बढ़ेगी। हालाँकि बंधु तिर्की ने सीबीआई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में याचिका दायर की है।

अब किसकी बारी?

सन् 2019 में हुए झारखण्ड विधानसभा चुनाव के दौरान मौज़ूदा विधायकों ने जो शपथ पत्र दिया था, उसे देखा जाए, तो माननीयों पर आपराधिक मामलों में दर्ज मुक़दमे की फ़ेहरिस्त लम्बी है। इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के विधायक शामिल हैं। 81 विधानसभा सीट वाले झारखण्ड के सदस्यों में से 44 ऐसे विधायक हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। उन पर कोर्ट में कोई में मामला चल रहा है। अगर कोर्ट के फ़ैसले में दो साल या उससे ज़्यादा की सज़ा हुई, तो सदस्यता जानी तय है। ख़ासकर दो विधायक भाजपा के भानु प्रताप शाही और एनसीपी के कमलेश सिंह के मामले पर सभी की नज़र टिकी है। इन पर भी आय से अधिक सम्पत्ति और मनी लांड्रिंग मामले में सीबीआई व ईडी कोर्ट में मुक़दमे चल रहे हैं। विधायक भानु प्रताप शाही पर चार साल चार महीने में ज्ञात आय से 7.97 करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति अर्जित करने का आरोप है। कमलेश सिंह पर चार करोड़ रुपये से अधिक की राशि आय से अधिक अर्जित करने का आरोप है। उधर इन दो मामलों के साथ कई अन्य मामलों में भी कोर्ट में हाज़िरी का दौर चल रहा है। कई मामलों में गवाही हो चुकी है। तो कई मामलों में बहुत जल्द फ़ैसला आने की भी उम्मीद है। ऐसे में अब देखना होगा कि अगला नाम किसका होता है। क्योंकि जिस तेज़ी के साथ कोर्ट में सुनवाई हो रही है, उससे तो यह उम्मीद दिख ही रही है कि राज्य में चुनाव से पूर्व कई विधायकों के भाग्य का फ़ैसला ज़रूर सुना दिया जाएगा।

उपचुनाव : बंगाल में टीएमसी, महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, बिहार में आरजेडी आगे

लोकसभा की एक सीट और चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे आज घोषित हो जाएंगे, जहाँ मतगणना शुरू हो गयी है। इनमें बंगाल की आसनसोल लोकसभा सीट शामिल है जहाँ से शत्रुघ्न सिन्हा मैदान में हैं। यह सीट बाबुल सुप्रियो के इस्तीफे से खाली हुई है जो भाजपा छोड़कर अब टीएमसी में शामिल हो गए हैं।

साथ ही छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार की भी एक-एक विधानसभा सीट पर मतगणना जारी है। बंगाल में टीएमसी,
महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, बिहार में आरजेडी आगे आगे हैं।

बंगाल उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने दो सितारों को मैदान में उतारा है। आसनसोल से अभिनेता-राजनेता शत्रुघ्न सिन्हा जबकि बालीगंज विधानसभा सीट पर पूर्व केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को मैदान में उतारा है। सिन्हा और सुप्रियो दोनों आगे चल रहे हैं।

बिहार के बोचहां उपचुनाव के वोटों की गिनती जारी है। दूसरे दौर के बाद राजद  आगे है। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के खैरागढ़ में कांग्रेस की यशोदा वर्मा 5000 मतों से आगे चल रही हैं। उपचुनाव पश्चिमी महाराष्ट्र के कोल्हापुर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में भी हो रहा है। वहां कांग्रेस आगे चल रही है।

पंजाब में मान सरकार की 300 यूनिट तक फ्री बिजली योजना घोषित, जुलाई से होगी शुरू  

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने चुनाव के वक्त किया अपना वादा एक महीने में पूरा करते हुए शनिवार को घोषणा की कि पंजाब में हर घर को 300 यूनिट तक फ्री बिजली योजना पहली जुलाई से लागू हो जाएगी। आप सरकार पिछले महीने ही सत्ता में आई है।

मुख्यमंत्री भगवंत मान ने हाल में संकेत दिया था कि इस योजना का ब्लू प्रिंट तैयार है और इसे जल्दी ही लागू कर दिया जाएगा। चुनाव में मान ने वादा किया था कि सत्ता में आने के एक महीने में यह वादा पूरा किया जाएगा। अब पंजाब सरकार ने शनिवार को घोषणा की है कि पंजाब में हर घर को 300 यूनिट तक बिजली फ्री दी जाएगी और ये नया नियम पहली जुलाई से लागू हो जाएगा।

वैसे पंजाब में मई-जून में धान रोपने का सीजन होता है। उस समय किसानों को बिजली की नियमित सप्लाई की जरूरत रहती है। पंजाब में पावर प्लांट में कोयले की कमी और रोपाई के सीजन के बाद लागू हो रहे इस नियम से देखना होगा कि क्या असर होता है। हो सकता है कि सरकार अपनी घोषणा को रिवाइज कर मई से कर दे।

आप की सरकार दिल्ली में 200 यूनिट तक फ्री बिजली  देती है। केजरीवाल ने पंजाब में चुनाव प्रचार के दौरान फ्री बिजली का वादा किया था। सत्ता में आकर मान सरकार ने कई योजनाओं की घोषणा की है। पिछले महीने राशन की डोर स्टेप डिलीवरी योजना के बाद मंत्रिमंडल की पहली बैठक में विभिन्न सरकारी विभागों में 25,000 भर्तियाँ करने जिनमें 10,000 भर्तियां पुलिस विभाग में की जाएंगी, का फैसला किया गया था। इससे पहले भ्रष्टाचार के लिए हेल्पलाइन जारी गयी थी।