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'आत्मकथा लिखने के लिए किसी विभूति के कमेंट सुनने का साहस चाहिए'

आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?

उपन्यास. उपन्यासों में मुझे मैला आंचल, नटरंग, स्पार्टाकस, संस्कार, ओल्ड मैन एंड द सी, पद्मा नदीर मांझी और मछुआरे बहुत पसंद हैं. मछुआरे की शैली आकर्षित करती है.

अभी क्या पढ़ रही हैं?

अभी तो वह पढ़ रहे हैं जो विभूतिनारायण राय ने लिखा है. वैसे मैं इधर एक उपन्यास लिख रही हूं इसलिए बहुत पढ़ नहीं पा रही. लेकिन हाल में ’पतन’ और ’एक स्त्री के जीवन के 24 घंटे’ पढ़े.

वे रचनाएं या लेखक जो आपको बेहद पसंद हों.

सबसे अधिक पसंद हैं रेणु. उनकी कहानियां भी मैं बहुत रुचि से पढ़ती हूं. सीधी-सादी ग्रामीण परिवेश की बातें बांध लेती हैं. मशीनी परिवेश मुझे बांध नहीं पाता. साहित्य में रचनात्मकता जब मशीनी हो जाती है तो बांध नहीं पाती. आप मशीन की भी कहानी लिखें तो उसमें मानवीय संवेदना होनी चाहिए. नए लेखकों को मुझसे शिकायत है कि मैं उन्हें नहीं पढ़ती, लेकिन उनकी रचनाएं मुझे बांध नहीं पातीं. हां, नए लेखकों में अल्पना मिश्र को रुचि से पढ़ लेती हूं.

कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?

प्रेमचंद का गोदान बहुत मशहूर हुआ, लेकिन रंगभूमि उससे अच्छा उपन्यास है. उसके पात्र अधिक प्रगतिशील हैं. हमें इसमें पात्रों को भी शामिल करना चाहिए जैसे मैला आंचल के जिन पात्रों पर कम ध्यान दिया गया, उनमें लक्ष्मी दासिन और कमली जैसी नारी पात्र हैं. लक्ष्मी दासिन को तो बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं मिलती, जबकि उसने पूरे मठ की व्यवस्था बदल कर रख दी. इसी तरह कमली ने जाति व्यवस्था को बदल कर रख दिया. लेकिन इन पात्रों को नजरअंदाज किया गया. ये साहित्य की नाइंसाफियां हैं. चित्रलेखा की चित्रलेखा और त्यागपत्र की मृणाल को भी नजरअंदाज किया गया. भगवती चरण वर्मा लगातार कहते हैं चित्रलेखा वेश्या नहीं है लेकिन वे साथ ही प्रमाणित करते जाते हैं कि वह वेश्या थी. मृणाल ने भी खूब विद्रोह किया, लेकिन लेखक ने उसे बता दिया कि तुम विद्रोह करोगी तो कोठरी में सड़ कर मरोगी.

दलित लेखकों की आत्मकथाएं अधिक आई हैं, लेकिन महिला लेखकों की उतनी नहीं. क्या वजह है?

आत्मकथा लिखने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए और किसी विभूतिनारायण के कमेंट सुनने का साहस चाहिए. हमारे समाज में तो लड़कियों को सच बोलने से डराया जाता है, बचपन से ही. परिवार के बारे में सच, रिश्तों के बारे में सच. आत्मकथा वही लिख सकता है जो सच बोलने से न डरे. जैसे जब मेरी आत्मकथाएं आईं तो लोगों ने कहा कि राजेंद्र यादव से आपके संबंधों के बारे में इनमें कुछ भी नहीं है. लेकिन जब कोई संबंध था ही नहीं तो लोगों के जबरदस्ती रखवाने से थोड़े होगा. यह हमारी जिंदगी है- न आप इसमें जबरदस्ती संबंध रखवा सकते हैं न तुड़वा सकते हैं.

पढ़ने की परंपरा कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

सबसे जरूरी चीज है कि पढ़ने की ललक बनी रहे. यही खत्म हो जाएगा तो आप अपनी रचनाएं कहीं भी प्रकाशित कर लीजिए कौन पढ़ेगा? जब आप सहज भाव से लिखते हैं और उसमें से लोगों की जिंदगी झांकती है- वे अपनी जीवन की उसमें कल्पना कर पाते हैं और आपका लेखन उन्हें कदम दर कदम बांधता चला जाता है तो लोग उसे पढ़ते हैं. पाठक तो रचना से ही बनते हैं, लेखक से नहीं. इसलिए लेखन को जिंदगी से और जुड़ना होगा.

रेयाज उल हक

वाह रे लेखक! गरिमा भी गई,

लेखक की स्वतंत्रता, उसका सम्मान मेरे लिए एक बड़ा मूल्य है. इसलिए जब किसी लेखक को अपने लिखे या कहे हुए के लिए क्षमायाचना करनी पड़े, किसी अफ़सर या मंत्री के आगे सिर झुकाना पड़े, सफाई देनी पड़े तो मुझे अफ़सोस होता है. `नया ज्ञानोदय’ नाम की पत्रिका में प्रकाशित अपने साक्षात्कार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से विभूति नारायण राय को माफी मांगते देखकर भी ऐसा ही अफ़सोस हुआ.

आप कीचड़ उछाल कर भाग रहे हैं और बार-बार अपनी जगह बदल रहे हैं ताकि न आप कीचड़ उछालते नज़र आएं और न ही इसकी कोई सज़ा पाएं

क्या विभूति नारायण राय को भी दुख हुआ होगा? या उनके लिए यह माफ़ीनामा सिर्फ अपने बच निकलने की एक रणनीति भर था जिसके बाद वे मुस्कुराते हुए लेखिकाओं को अपना मित्र बताते रहे? दुर्भाग्य से यह पूरा छिनाल प्रसंग इसी संदेह की पुष्टि करता है. एक रणनीति के तहत उन्होंने साक्षात्कार दिया और एक दूसरी रणनीति के तहत माफ़ी मांग ली. अपने साक्षात्कार में जो कुछ उन्होंने कहा, अगर उस पर उन्हें ख़ुद इतना बद्धमूल भरोसा होता तो शायद वे माफी नहीं मांगते. एक लेखक अगर अपने विश्वासों की, उनसे जुड़े शब्दों की रक्षा नहीं कर सकता, उनके लिए कोई क़ीमत चुकाने को तैयार नहीं रह सकता तो उसे लेखक रहने का अधिकार नहीं रह जाता है.
दरअसल, विभूति नारायण राय ने अपने माफ़ीनामे से अपने पूरे साक्षात्कार को अविश्वसनीय और अप्रासंगिक बना डाला है. जो लेखक-लेखिकाएं इस तथ्य की ओर ध्यान खींचने की मासूम कोशिश कर रहे हैं कि इस साक्षात्कार को कुछ शब्दों की छाया से बचाकर पूरा पढ़ा जाए तो इसकी नारी पक्षधरता को कहीं ज्यादा बेहतर और बहसतलब ढंग से समझा जा सकता है, उन्हें भी इस माफीनामे के बाद समझना चाहिए कि विभूति नारायण राय ने साक्षात्कार में जो कुछ कहा वह उनके लेखकीय विश्वास की नहीं, सही-गलत की दुविधा और नैतिकता-अनैतिकता के पचड़ों से दूर एक विवादप्रिय मस्तिष्क की उपज है जिसके केंद्र में स्त्री अस्मिता के प्रश्न से ज्यादा साहित्यिक गुटबाज़ी का प्रसंग है.

अगर यह आरोप है तो इसके तर्क साक्षात्कार के बाद विभूति नारायण राय के आचरण ने ही सुलभ कराए हैं. दो दिन तक वे बताते रहे कि छिनाल शब्द का इस्तेमाल प्रेमचंद ने भी किया है- इस जाने-पहचाने तर्क की उपेक्षा करते हुए कि कथा साहित्य में चरित्रों के हिसाब से भाषा तय होती है, वहां ली जाने वाली भाषिक छूट आलोचनात्मक और वैचारिक लेखन में नहीं ली जा सकती. इसके बाद उन्होंने इस शब्द के प्रयोग से बचने की कोशिश की- इस कच्ची सफाई के साथ कि उन्होंने बेवफ़ा कहा था जिसे छिनाल कर दिया गया. अपनी लेखकीय ज़िम्मेदारी से भागने का यह निकृष्टतम उदाहरण है क्योंकि इसका शिकार कोई और- इस प्रसंग में पत्रिका का कोई अदना-सा उपसंपादक या प्रूफरीडर- बन सकता है, बनाया जा सकता है.

दुर्भाग्य से इस पलायन को पहला सहयोग नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया के इस वक्तव्य से मिला कि उन्होंने तो इस शब्द को संपादित कर दिया था, फिर भी यह चला गया तो यह किसी और की चूक है. हैरान करने वाली बात है कि एक-दूसरे के सहयोग के लिए दिए जा रहे इन अंतर्विरोधी वक्तव्यों के तत्काल बाद दूसरी तरह के वक्तव्य आ चुके हैं. अभी तक आई नवीनतम सफाई यह है कि रवींद्र कालिया ज्ञानपीठ सम्मान के सिलसिले में गोवा प्रवास पर थे और तभी यह असंपादित-अमर्यादित प्रसंग पत्रिका में चला गया. यहां भी लेखक और संपादक की वह ख़तरनाक दुरभिसंधि प्रत्यक्ष है जिसके निशाने पर कोई और- कोई प्रूफरीडर या उपसंपादक- हो सकता है.
विभूति नारायण राय या रवींद्र कालिया अपने रुख पर कायम रहते और छिनाल शब्द के प्रयोग को सही बता रहे होते तब भी यह उतने अफसोस का विषय नहीं होता जितना यह अनैतिक और गैरज़िम्मेदार रवैया है. अगर वाकई किसी लेखक को लगता हो कि लेखिकाएं छिनाल हैं और उनका लेखन बेवफाई का महोत्सव है तो अपनी बीमार मानसिकता के बावजूद उसे यह बात कहने और इसके लिए लड़ने का हक है. ज्ञानपीठ से सम्मानित राजेंद्र शाह ने गुजरात पर लिखी अपनी विवादास्पद कविताओं के लिए कभी खेद नहीं जताया और `जनसत्ता’ में सती प्रसंग पर प्रभाष जोशी अपने अखबार में छपे मत के साथ अडिग खड़े रहे. यह हठधर्मिता अवांछित भले हो, इसमें राय और कालिया वाली बेईमानी नहीं है.

यह सब करके इन दोनों लेखकों ने लेखिकाओं पर बाद में, पहले अपने कुलपतित्व और संपादकत्व पर ही कीचड़ उछाला हैऐसा नहीं कि कोई लेखक अपने विचार बदल नहीं सकता या अपने कहे हुए को वापस नहीं ले सकता. संशयशीलता एक अनिवार्य लेखकीय मूल्य है. अगर विभूति नारायण राय ने साक्षात्कार के प्रकाशन के तत्काल बाद क्षमा मांगी होती कि उनसे किसी असावधानी में चूक हो गई है और वे शर्मिंदा हैं, तब भी उनके साथ सहानुभूति हो सकती थी. लेकिन यह कैसी लड़ाई और सफाई है जिसमें आप कीचड़ उछालकर भाग रहे हैं और बार-बार अपनी जगह बदल रहे हैं ताकि न आप कीचड़ उछालते नज़र आएं और न ही इसकी कोई सज़ा पाएं?  क्या यह सिर्फ एक लेखकीय और संपादकीय असावधानी का मामला है और एक अपवाद भर है जिसमें हिंदी की लेखिकाओं और उनके लेखन के लिए एक अशिष्ट शब्दावली चली आई? या इसका वास्ता किसी मानसिकता, किसी मनोवृत्ति से है जो स्त्री अस्मिता के साथ यह खिलवाड़ पहले से करती आई है? इस सवाल के जवाब में हमें साक्षात्कार से नज़र हटाकर उस पत्रिका पर निगाह डालनी होगी जिसमें यह छपा है. `नया ज्ञानोदय’ ने अपने इस विशेषांक को `सुपर बेवफाई विशेषांक’ कहा है. यह सुपर बेवफ़ाई क्या होती है? यह विज्ञापनबाज़, बाज़ारू भाषा स्त्री-पुरुष के रिश्तों की जटिलता समझने, स्त्री और पुरुष का मन टटोलने की भाषा है या बाजार में खड़े पाठकों को पुकारने की कि देखो, हम तुम्हें कुछ ऐसा दिखाने और पढ़ाने जा रहे हैं जिसमें आपसी रिश्तों की गंदगी नजर आएगी, जिसमें दैहिक संबंधों के कुत्सित खेल दिखेंगे. दरअसल, यह स्पष्ट है कि विभूति नारायण राय बेवफ़ाई के जिस महोत्सव के लिए लेखिकाओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं, वह `नया ज्ञानोदय’ के पन्नों पर चल रहा है. ऐसे महोत्सव में ही संभव है कि संपादक अपने संपादकीय में उस साक्षात्कार को खास माल की तरह पेश करे जिसकी सड़ांध की वजह से बाद में उसे वापस लेने की मजबूरी पैदा हो जाए.

लेकिन यह सब करके इन दोनों लेखकों ने लेखिकाओं पर बाद में, पहले अपने कुलपतित्व और संपादकत्व पर ही कीचड़ उछाला है. निश्चय ही यह ज्ञानपीठ और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं की अवमानना है. अगर मेरे लिए इन दोनों को इनके पदों से हटाए जाने की उचित और सार्वजनिक मांग का कोई ख़ास मतलब नहीं है तो बस इसलिए कि ऐसी सारी संस्थाओं के पतन की कहानी मुझे कहीं ज़्यादा वीभत्स और डरावनी लगती है जिनमें कोई आता है तो अपनी योग्यता से कम और अपने संपर्कों और तिकड़मों के बूते ज्यादा आता है और जाता है तो इसलिए कि समीकरण उसके ख़िलाफ़ चले जाते हैं.

लेकिन यह सब लिखने का मतलब सिर्फ विभूति नारायण राय या रवींद्र कालिया को अपात्र या अपराधी साबित करना नहीं है. मेरे लिए ज्यादा अहम सवाल दूसरा है. यह सिर्फ अनायास नहीं है कि जिस विवाद की वजह से ये दोनों सज्जन कठघरे में हैं उसके केंद्र में स्त्री और उसके रिश्ते हैं. दरअसल, हमारा यह दौर स्त्री के साथ एक दोहरे खेल का दौर है. इस दौर में स्त्री काफी आज़ाद हुई है- घर और दफ्तर की कई बाड़ेबंदियां उसने तोड़ी हैं, वह नए क्षेत्रों में जा रही है, नए इलाकों में दाखिल हो रही है, नया साहित्य लिख रही है. वह अपने आप को बदल रही है. देश और दुनिया की सरहदें अब उसके लिए मायने नहीं रखतीं.

लेकिन क्या इत्तिफाक है कि इसी दौर में स्त्री सबसे ज्यादा व्यापार की वस्तु भी बनी है. जिसे ट्रैफिकिंग कहते हैं वह अपराध देह व्यापार की एक अंतर्राष्ट्रीय मंडी बनाता है जिसमें गरीब देशों की छोटी-छोटी बच्चियां अमीर सैलानियों की कुंठित ज़रूरतें पूरी करने के लिए सरेआम बेची-खरीदी और परोसी जा रही हैं. बाजार ने स्त्री को नए अवसर दिए हैं, ऊंचे ओहदे दिए हैं, लेकिन उसने उसे एक उत्पाद में भी बदल डाला है. अनजाने में नहीं, जान-बूझ कर हमारा पूरा का पूरा मनोरंजन उद्योग, हमारा विज्ञापन संसार 24 घंटे तक कटी-छंटी देह मुद्राओं के साथ एक ऐसी स्त्री बनाता चलता है जिसका उसकी देह के बाहर कोई वजूद ही नहीं है. इस लिहाज से देखें तो वाकई स्त्री नितांत मार्मिक अर्थों में वर्चस्ववादी पुरुष सत्ता का आखिरी उपनिवेश और आखेट प्रांत बनी हुई है.

यही वह स्त्री है जो क्रिकेट को बेचने के लिए चीयरलीडर्स की तरह पेश की जाती है और `नया ज्ञानोदय’ के विशेषांक बेचने के लिए छिनाल की तरह. ज्ञानपीठ को अगर गुमान है कि उसके नए संपादक ने पत्रिका की बिक्री बढ़ा दी है तो उसे देखना चाहिए कि इस बिक्री के विज्ञापन किस तरह तैयार किए जा रहे हैं. इसी दोहरे रवैये की वजह से स्त्री मुक्ति के पक्ष में दिया और बताया जा रहा एक साक्षात्कार अचानक एक बीमार मानसिकता का आईना बन जाता है.

हैरानी की बात नहीं कि यह मानसिकता उस स्त्री पर हमले कर रही है जो इस दोहरे रवैये से लड़ती हुई, उसे पहचानती हुई, इससे पैदा हुए जटिल अनुभव का साहित्य रचती हुई, कई निजी प्रसंगों को सार्वजनिक करने का जोखिम उठाती हुई, अपने लिए जगह बना रही है. छिनाल प्रसंग ने सिर्फ इतना बताया है कि उसकी लड़ाई सबसे ज़्यादा अपने करीब दिखने वाले, अपने को उसका दोस्त बताने वाले लोगों से है. यह लड़ाई ज़रूरी है क्योंकि इसका वास्ता दो लोगों को उनके पद से हटाने भर से नहीं है, स्त्री के उस स्वाभिमान से भी है जिसे बचाकर ही वह इस जटिल दुनिया में अपनी बराबरी की जगह हासिल कर सकती है.  अफसोस कि राय न इस स्त्री अस्मिता- और इसके माध्यम से व्यक्त होने वाली मानवीय गरिमा- का सम्मान कर पाए और न अपने लेखकीय स्वाभिमान का. काश वे समझ पाते कि ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी चीज़ें हैं. एक को निशाना बनाने की कोशिश में अंततः उन्होंने दूसरे को नष्ट कर दिया. 

कश्मीर पर न्यूज कर्फ्यू

कश्मीर उबल रहा है. लोग सड़कों पर हैं. क्या नौजवान, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं और क्या बच्चे, सभी सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने में होड़ कर रहे हैं. चौबीस घंटे का कर्फ्यू भी बेमानी हो चुका है. लोगों को जान की परवाह नहीं. पत्थर फेंकती भीड़ पर सुरक्षा बलों की गोलीबारी में पिछले दो-ढाई महीनों में कोई 50 से ज्यादा लोग, जिनमें ज्यादातर युवा हैं, मारे जा चुके हैं. एक तरह की आम सिविल नाफरमानी का माहौल है. लगता नहीं कि वहां राज्य या केंद्र की सत्ता का कोई इकबाल रह गया है, लगभग खुले विद्रोह की स्थिति है.

ऐसी रिपोर्टिंग से कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर किसी वैकल्पिक व साहसिक पहल और हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाती

लेकिन अगर आप खबरों के लिए केवल अपने खबरिया खासकर हिंदी न्यूज चैनल देखते हों तो संभव है कि कश्मीर के मौजूदा हालात का उपर्युक्त चित्रण आपको स्थिति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया या चौंकाने वाला या फिर ‘पाकिस्तान की कोई नई साजिश’ लगे. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. इसमें आपकी कोई गलती भी नहीं है. आपको उतनी ही जानकारी है, जितना न्यूज चैनलों ने बताया-दिखाया है. हालांकि इस मामले में न्यूज चैनल अकेले नहीं हैं, अख़बारों का भी कमोबेश यही हाल है. लगता है जैसे कश्मीर के मामले में चैनलों में किसी अदृश्य और अघोषित सहमति के साथ एक सेल्फ सेंसरशिप काम कर रही है. लगभग एक तरह का न्यूज कर्फ्यू सा मालूम होता है. नतीजा, सभी खबरिया चैनल कश्मीर की सच्चाई से उसी तरह आंखें चुराने की कोशिश कर रहे हैं जैसे राजनीतिक रूप से यूपीए सरकार कर रही है. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की कश्मीर की मौजूदा स्थिति में कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं पड़ती. कश्मीर की लगातार बिगड़ती और विस्फोटक होती स्थिति के बावजूद उन्हें यह इतनी बड़ी खबर नहीं दिखाई देती जिसे कभी-कभार हेडलाइंस में ले लेने और कभी चलते-चलाते किसी भी अन्य खबर की तरह बुलेटिन में दिखा देने से अधिक कुछ किया जाए. वहां स्टार रिपोर्टरों की टीम भेजने और उसे प्राइम टाइम में ‘तानने’ का तो सवाल ही बहुत दूर है. उल्टे एक तरह से हिंदी चैनलों के दृश्यपटल से कश्मीर काफी हद तक ब्लैक आउट है.

संभव है कि इसकी एक वजह यह भी हो कि कश्मीर में एक भी टीआरपी मीटर नहीं लगा है. न्यूज चैनल कहते भी रहे हैं कि जहां हमारे दर्शक नहीं वहां हमारी दिलचस्पी नहीं. इसलिए कश्मीर जलता भी रहे तो क्या? जाहिर है कि टीआरपी के मारे चैनलों के लिए उससे भी बड़े कई गम हैं. उन्हें ‘डांस इंडिया डांस’ और राहुल महाजन से फुरसत कहां? उनके न्यूज जजमेंट में आम तौर पर कश्मीर की मौजूदा स्थिति से बड़ी खबर दिल्ली की बारिश और उससे लगा जाम या लौकी के जूस से कोई मौत या फिर ऐसी ही कोई ‘खबर’ होती है.    

मीडिया की इसी प्रवृत्ति को लक्षित करते हुए शायद जार्ज बर्नार्ड शा ने कभी कहा था कि अखबार (अब चैनल भी) एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम मालूम होते हैं. लगता है कि अपने खबरिया चैनल भी दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद की बारिश से जाम या लौकी के जूस से हुई एक मौत और कश्मीर की निरंतर गहराती त्रासदी के बीच फर्क करने में अक्षम हो गए हैं. लेकिन बात सिर्फ यही नहीं, कश्मीर के मामले में यह वास्तव में एक ‘साजिश भरी चुप्पी’ (कांसपिरेसी ऑफ साइलेंस) का भी मामला लगता है.

आखिर सवाल देशभक्ति का है. ऐसा लगता है कि अधिकांश खबरिया चैनलों को डर लगता है कि अगर कश्मीर की असलियत को दिखाया गया तो इसका फायदा देश-विरोधी अलगाववादी शक्तियां उठाएंगी. कश्मीर को लेकर जारी प्रोपेगेंडा युद्ध में पाकिस्तान इसे सबूत की तरह पेश करेगा. यह एक ऐसा डर है जिसके जवाब में चैनलों की ‘देशभक्ति’ जग जाती है. नतीजतन अधिकांश चैनल खुद भी एक तरह के प्रोपेगंडा युद्ध में शामिल हो गए हैं. वे साबित करने पर तुले हैं कि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी-अलगाववादी संगठनों के भड़कावे और भाड़े पर हो रहा है, कुछ गुमराह और बेरोजगार नौजवान 200 रुपए के डेली वेज पर पत्थर फेंक रहे हैं, यह पूरी समस्या सिर्फ कुछ इलाकों (खरी बात कहने वाले विनोद दुआ के शब्दों में सिर्फ 50 किलोमीटर) तक सीमित है. ठीक इसी तर्ज पर कश्मीर पर होने वाली बहसों में भी चर्चा बहुत सीमित दायरे में होती है. 

सबको पता है कि यह सच नहीं है या पूरा सच नहीं है. लेकिन कोई सच स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. सभी उसे दबाने में लगे हुए हैं. गोया उनके दबाने से सच दब जाएगा! कश्मीर में सच तो नहीं दब रहा है, अलबत्ता उसे दबाने की कोशिश में कश्मीर के हालात और बिगड़ते जा रहे हैं.  चैनलों की ऐसी रिपोर्टिंग और सीमित बहसों से कश्मीर को लेकर देश में जो जनमत बनता है उसमें कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर किसी वैकल्पिक और साहसिक पहल और हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाती. साफ है कि कश्मीर में न्यूज मीडिया समाधान का नहीं समस्या का हिस्सा बना हुआ है. न्यूज कर्फ्यू से समस्या सुलझ नहीं, और उलझ रही है. नतीजा, कश्मीर में सच एक नासूर की तरह लगातार बह और दर्द दे रहा है.  

कुछ दूर तो चलकर देखें…

स्वायत्तता की दबी फाइल को बाहर निकालना और वादी में सेना की उपस्थिति स्थायी है इस भावना को खत्म करना, दो ऐसी चीजें हैं जो तुरंत की जा सकती हैंकिसी लोकतांत्रिक संप्रभु राष्ट्र के लिए दो बातें सबसे अहम होती हैं. एक, उसे हर चीज स्वीकार्य हो सकती है लेकिन देश की अखंडता के साथ समझौता नहीं. और दूसरी यह कि वह देश अपनी जनता की आकांक्षाओं और पीड़ा को ज्यादा देर तक नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकता. अब कश्मीर की तात्कालिक और 60 साल पुरानी समस्यायों का समाधान भी लोकतंत्र के इन्हीं दो सर्वमान्य सिद्धांतों के दायरे में खोजे जाने की जरूरत है. अगर स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो कश्मीर के उन बाशिंदों को जो आज भारत से अलग होने की मांग पर अड़े हैं, सीधे-सीधे यह समझना होगा कि भारत से खुद को अलग करने की मांग का नतीजा वही ढाक के तीन पात होने वाला है. उन्हें समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय एक संपूर्ण और अपरिवर्तनीय सत्य है और बात तथा आंदोलन की कोई भी गुंजाइश केवल उसके केंद्र के साथ संबंधों को पुनर्परिभाषित करने, उनमें कुछ नई व्यवस्थाओं की स्थापना पर ही बन सकती है.

दूसरी ओर कश्मीर पर कोई भी निर्णय ले सकने और धारा 370 खत्म करने की जिद पर अड़े लोगों को कश्मीरी लोगों की आकांक्षाओं और पीड़ा को भलीभांति समझना और इसके लिए संविधान के दायरे में जो संभव हो करना होगा. उन्हें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में तंत्र की व्यवस्था लोगों के लिए ही होती है और यदि इस तंत्र में लोग ही शामिल न हों या जबरन किए गए हों तो उसका कोई मतलब ही नहीं.

1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत से विलय का अनुरोध न केवल वहां के राजा ने बल्कि कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंदोलन चला रहे वहां के सबसे बड़े और प्रभावशाली संगठन के मुखिया शेख अब्दुल्ला ने भी अलग से किया था. पाकिस्तान ने भी कश्मीर पर हमला इसीलिए बोला था. उसे पता था कि जो एक साल का ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ उसने किया है उसके खत्म हो जाने के बाद भी कश्मीर उसके हाथ नहीं आने वाला क्योंकि वहां का ज्यादातर जनमानस भारत के साथ विलय का पक्षधर था. यही वजह थी कि नेहरू जी ने भी अपनी तरफ से ही पाकिस्तानी सेना के कश्मीर से खदेड़े जाने के बाद जनमत संग्रह की बात यह कहते हुए कही थी कि वे कश्मीर की मजबूरी का फायदा उठाकर नहीं बल्कि उसकी जनता की मांग पर उसे अपने साथ रखने के पक्षधर हैं. बाद में भी वे संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक 1956 तक जनमत संग्रह कराने के लिए तैयार थे बशर्ते पाकिस्तान पहले अपने कब्जे वाले कश्मीर से हट जाए. 1956 में जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा ने भारत के साथ विलय का अनुमोदन कर दिया और मामले को अब ज्यादा उलझने से बचाने के लिए भारत ने इसी को पूरे जम्मू-कश्मीर की भावनाओं का प्रतिबिंब मान लिया.

तो फिर कभी इस कदर भारत के पक्ष में होने वाला कश्मीर की जनता का मानस आज इस तरह भारत विरोधी क्यों दिखाई दे़ रहा है? दरअसल, ऐसा होने के पीछे भी ‘बाहरी ताकतों’ से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं. जिस तरह से हिंदी के पैरोकारों की राजभाषा बनाने की उतावली और बेसिरपैर कोशिशों ने हिंदी को हमेशा के लिए देश में अंग्रेजी की पुछल्ली भाषा बनाकर छोड़ दिया है कुछ-कुछ उसी प्रकार कश्मीर के मामले में भी हुआ. धारा 370 हटाने और कश्मीर के भारत में संपूर्ण विलय के लिए जम्मू प्रजा परिषद और जनसंघ द्वारा चलाए आंदोलनों और जल्दबाजी में कश्मीर के प्रशासनिक ढांचे में बदलाव लाने की कोशिशों ने सारे मसले को बिगाड़कर रख दिया. इससे घाटी में अलगाव और संप्रदायपरस्त ताकतों को सर उठाने में मदद मिली. इन ताकतों की ताकत को ज्यादा और भारत की धर्मनिरपेक्षता की ताकत को कम आंककर शेख अब्दुल्ला के सुर भी बदलने लगे. 1953 में अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद से कश्मीर भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अकर्मण्यता और सरकारों और राष्ट्रपति शासनों के आने-जाने के भीषण दुश्चक्र में फंसा रहा. चूंकि पाकिस्तान भी कश्मीर की मूल समस्या का एक स्थायी खंभा रहा है, इसलिए सेना की लगातार उपस्थिति ने भी मानवाधिकारों के हनन आदि की समस्याओं को जन्म देकर समस्या में नए आयाम जोड़ दिए.

तो अब क्या किया जा सकता है? कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कोई एक बटन तो है नहीं. इसके कई पहलू हैं और सभी से एकसाथ निपटना संभव नहीं है. कुछ हमारे हाथ में हैं भी नहीं. मगर जो हैं उन पर तो शुरुआत की ही जा सकती है. हो सकता है उस दिशा में बढ़ने पर आगे और रास्ते खुलने लगें. तो जो तुरत-फुरत में किया जा सकता है वह है स्वायत्तता की दबी फाइल को झाड़-फूंककर बाहर निकालना और वादी में सेना की उपस्थिति स्थायी है इस भावना को खत्म करना. स्वायत्तता के मुद्दे पर कुछ घोषणाएं तुरंत ही की जा सकती हैं कुछ पर बाद में बातचीत हो सकती है. आम कानून-व्यवस्था के लिए साधारण पुलिस बल को सक्षम बनाने की जरूरत है. कुछ सुझाव उमर अब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त करने के भी दिए जा रहे हैं लेकिन ऐसा करना न केवल सफल और निष्पक्ष चुनाव की हमारी उपलब्धि को कम कर देगा बल्कि कश्मीर के मामले में केंद्र के अनावश्यक हस्तक्षेप के आरोपों को और भी मजबूत करने का काम करेगा.

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक

क्या यह शख्स गिलानी की राजनीतिक विरासत का वारिस है?

आज के कश्मीर में पत्थर फेंकते नौजवानों और आजादी के नारों के बीच मसर्रत आलम के असर को नजरअंदाज करना मुश्किल है. 2008 तक बहुत कम लोग इस अलगाववादी नेता के बारे में जानते थे, लेकिन भूमिगत आलम की सक्रियता पिछले दो सालों में काफी बढ़ी है. आजादी के समर्थन में दीवारों पर नारे लिखने से लेकर फेसबुक पर प्रचार तक आलम को विरोध का ऐसा हर तरीका मालूम है जो पत्थर फेंकती भीड़ में जोश की लहर पैदा कर सके.

आलम की प्रतिष्ठा एक ऐसे नेता की है जो जनता से कटा हुआ नहीं है. दूसरे नौजवान और जाने-माने अलगाववादी नेताओं से उलट वे नारे लगाते हुए, बैनर पकड़े हुए और पत्थरबाजी में मदद करते हुए देखे गए हैं

39 वर्षीय आलम पुराने दिग्गज सैयद अली शाह गिलानी की राजनीतिक विरासत के प्रमुख उत्तराधिकारियों में से एक बनकर उभरे हैं. वे कश्मीर में मुसलिम लीग के अध्यक्ष हैं और गिलानी धड़े वाली हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के महासचिव भी. आलम 10 साल से अधिक समय तक जेल में रह चुके हैं. पुलिस सूत्र बताते हैं कि आलम के सिर पर पांच लाख रुपए का ईनाम रखा गया है, हालांकि आधिकारिक तौर पर पुलिस इसका खंडन करती है. हर हफ्ते अफवाहें इस रकम को दोगुना कर रही हैं और अब यह बढ़ती हुई 20 लाख हो गई है.

इस सबने आलम के इर्द-गिर्द एक रहस्य का जाल बुन दिया है. कश्मीर पुलिस के चरमपंथ विरोधी सेल के एक अधिकारी अपना नाम बताने से इनकार करते हुए कहते हैं, ’जेल से छूटते ही आलम वहीं से काम शुरू करता है जहां से उसने छोड़ा था. मैंने उसके जैसा धुन का पक्का अलगाववादी नेता नहीं देखा.’ कभी पाकिस्तान के समर्थक रहे आलम का इस्लामाबाद से मोहभंग उसकी कश्मीर नीति के कारण हुआ. वे अब एक स्वतंत्र कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं. पुलिस सूत्रों का कहना है कि वे पाकिस्तान की नजरों में तब चढ़ गए जब उन्होंने परवेज मुशर्रफ से अपनी मुलाकात के दौरान उनके चार सूत्री फॉर्मूले को रुखाई से नकार दिया था. कश्मीर के एक प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल के छात्र रहे आलम एक संपन्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं. 10 साल की उम्र में अपने पिता को खो देने के बाद वे अपनी मां और बहन के साथ अपने दादा के साथ रहते थे. पुराने शहर में उनके परिवार की कपड़ों की कई दुकानें थीं और उनके बचपन के दोस्त बताते हैं कि अपने कपड़ों, जूतों और पॉकेट मनी की वजह से वे अलग ही पहचाने जाते थे. एसपी कॉलेज से विज्ञान में ग्रेजुएट आलम जब 1987 में राजनीतिक आंदोलन से जुड़े तब वे 16 साल के थे और मुसलिम युनाइटेड फ्रंट की रैलियों में शामिल होते थे, जो 1987 में चुनाव लड़ रही अलगाववादी पार्टियों का गठबंधन था. उनके एक पुराने दोस्त याद करते हैं, ’एक बार हमारे पास बैनर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे तो उसने अपने नए जूते बेच दिए थे.’ ये वही बदनाम चुनाव थे, जिनके बाद घाटी में हथियारबंद जनउभार भड़का था.

आलम 1990 के दशक की शुरुआत में चरमपंथी आंदोलन में शामिल हुए और हिज्बुल्लाह धड़े के कमांडर बने. वे उन कुछ लोगों में से थे जिन्होंने कोई दूसरा नाम अपनाने से इनकार कर दिया जैसा उन दिनों चलन था. एक वरिष्ठ आजादी समर्थक नेता, जो आलम को 1997 से जानते हैं, बताते हैं कि उनके उभार ने कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्व के भविष्य के लिए उम्मीदें पैदा की हैं. आलम को लेकर उन्हें बहुत उम्मीदें हैं. वे कहते हैं, ’वह एक नई पीढ़ी का अलगाववादी नेता है जो जनता के बीच लोकप्रिय हो गया है. उम्मीद है कि वह इस रास्ते पर आगे बढ़ता रहेगा.’ आलम की प्रतिष्ठा एक ऐसे नेता की है जो जनता से कटा हुआ नहीं है. दूसरे नौजवान और जाने-माने अलगाववादी नेताओं से उलट वे नारे लगाते हुए, बैनर पकड़े हुए और पत्थरबाजी में मदद करते हुए देखे गए हैं. 2008 में जब अमरनाथ भूमि हस्तांतरण विवाद के दौरान बड़े पैमाने पर आजादी समर्थक प्रदर्शन हुए थे, आलम ने ’रगड़ा’ की योजना बनाई. रगड़ा एक ऐसा नाच है जिसमें लोग एक घेरे में कंधे से कंधा मिलाकर अपने पैरों पर आगे-पीछे होते हुए भारत विरोधी नारे लगाते थे. इस साल आलम ने नया नारा उछाला, गो इंडिया, गो बैक.

जैनादार मोहल्ले में आलम के पुराने घर में उनकी मां, बहन और बीवी एक बेहद गरीबी भरा जीवन जी रही हैं, जिसे बार-बार पड़ने वाले पुलिस के छापों ने और बदतर बना दिया है. कपड़ों की दुकान बंद हो चुकी है. लेकिन आलम की राजनीतिक योजनाएं काम कर रही हैं. उन्होंने राजनीतिक कुशलता और सादगी भरी अपनी पहचान का मेल बखूबी किया है.  

' दोनों तरफ के कश्मीर का एकीकरण किया सकता है '

भारत और पाकिस्तान, दोनों देश कश्मीर मसले पर ज्यादा कठोर रुख अपनाने की नीति पर चलते रहे हैं. सूबे में भ्रष्टाचार, विकास, बिजली या रोजगार से जुड़ी दिक्कतों को दूर करने की बजाय आप कश्मीर पर  कड़ा रुख बनाए रखना चाहते हैं. लेकिन ऐसा करके हमने जनता को  आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया है. यह वक्त इस तरफ ध्यान देने का है कि जम्मू और कश्मीर में क्या होना चाहिए. यदि हम आगे बढ़ने को तैयार हैं तो देश की राजनीतिक व्यवस्था में इस बात की पूरी गुंजाइश है कि कश्मीरी लोगों की जरूरतों और उनकी इच्छाओं को पूरा किया जा सके. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी चाहती है कि भारत-पाक सरहद को बेमानी बनाते हुए दोनों कश्मीर एक कर दिए जाएं. साथ ही अन्य बाध्यताएं भी दूर की जाएं. मसलन हम यहां भारत और पाकिस्तान दोनों देश की मुद्रा चला सकते हैं.

हम एक संयुक्त विधान परिषद का गठन कर सकते हैं जिसमें दोनों तरफ के सदस्य हों. नई दिल्ली अपनी तरफ से पांच सदस्यों को नामांकित कर सकती है, पाकिस्तान अपनी तरफ वाले कश्मीर से

हम एक ऐसा संयुक्त तंत्र बना सकते हैं जहां दोनों तरफ के प्रतिनिधि मिलकर एक सलाहकार परिषद की तरह काम कर सकें. भले वे कानूनी मसलों पर बात न करें पर आम कश्मीरियों की दोनों ओर के कश्मीरियों को साथ देखने की इच्छा तो पूरी हो ही जाएगी.  हमें दोनों तरफ के कश्मीर को जोड़ने वाले रास्तों को भी खोलना चाहिए. कश्मीर की भौगोलिक स्थिति काफी अच्छी है. पहले कश्मीर से गुजरने वाले रास्ते मध्य एशिया, दक्षिण एशिया सहित चीन तक जाते थे, लेकिन सेना के आने के बाद ये सारे बंद कर दिए गए. सड़क मार्ग से हम सिर्फ नई दिल्ली से जुड़े हुए हैं लेकिन सर्दियों में वह भी बंद हो जाता है. कश्मीर की जनता चाहती है कि ये सारे रास्ते खोले जाएं.

हम सरहद पार के कश्मीर को भी देश का हिस्सा कहते हैं और इसलिए हमारी विधान सभा में उनके लिए कई सीटें आरक्षित हैं. तो हम एक संयुक्त विधान परिषद का गठन कर सकते हैं जिसमें दोनों तरफ के सदस्य हों. नई दिल्ली अपनी तरफ से पांच सदस्यों को नामांकित कर सकती है, पाकिस्तान अपनी तरफ वाले कश्मीर से. इस परिषद को सलाहकार की भूमिका अदा करने दी जाए, यह प्रतीकात्मक रूप से कश्मीर का एकीकरण होगा. इससे हमारी संप्रभुता पर कोई असर नही पड़ेगा क्योंकि हम पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को अपना ही हिस्सा मानते रहे हैं. इस तरह जम्मू और कश्मीर सार्क सहयोग की एक मिसाल बन जाएगा. और यह सब भारतीय संविधान के दायरे में ही होगा. इसके बाद आपको सिर्फ एक ही काम करना है, कश्मीर के लिए सारी दुनिया को खोल देना. यहां वीजा कार्यालय खोले जा सकते हैं ताकि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा होने पर हम यहां से सीधे ही कहीं भी जा सकें. इन उपायों से कश्मीरी आवाम एक तरह की आजादी महसूस करेगी.

आप उन्हें तकनीकी रूप से आजादी नहीं दे सकते, लेकिन देश की संप्रभुता से समझौता किए बगैर हम जो कर सकते हैं वह तो करना चाहिए. दूसरी जरूरी बात है आर्थिक आत्मनिर्भरता. हमें लगता है कि सिंधु जल संधि में हमारे साथ भेदभाव बरता गया है. हम इसे रद्द नहीं कर सकते क्योंकि हमारे देश और पाकिस्तान दोनों को इससे फायदा हो रहा है. लेकिन हमारे देश को हमें हो रहे नुकसान की भरपाई करनी चाहिए. हमारे पास संसाधनों के नाम पर सिर्फ जलस्रोत हैं और इनका उपयोग न कर पाने की वजह से हर साल हमें  50 हजार करोड़ रुपए का नुकसान होता है. स्वशासन का मतलब सत्ता का विकेंद्रीकरण भी है, हम चाहते हैं कि जम्मू, लद्दाख और लेह को भी बराबर का फायदा मिले. हम जम्मू और कश्मीर का एकीकरण चाहते हैं. यदि प्रदेश का राज्यपाल जम्मू से होगा तो वहां के लोगों को सत्ता की भागीदारी का एहसास होगा.
संविधान की धारा 356 को हटाया जाना चाहिए. यदि जनता सरकार चुनती है तो आपातकालीन स्थितियों के अलावा सरकार हटाने का हक भी जनता को ही होना चाहिए. अगर हम ये कदम उठाते हैं तो महीनों की ढलान को काबू में किया जा सकता है. आज कश्मीरियों के पास बंदूकें नहीं हैं. लेकिन अब वे ज्यादा मजबूती से एकजुट हैं. आप बंदूकों की लड़ाई तो और ज्यादा बंदूकें जुटाकर लड़ सकते हैं लेकिन जब लोगों की भावनाएं एक होने लगती हैं तब ऐसा करना मुश्किल होता है.

कश्मीर मसले पर राजनीतिक प्रक्रिया फिर से शुरु हो इसके लिए जरूरी है कि संवाद शुरु हो. इसके लिए सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाया जाए और चरणबद्ध तरीके से सेना की वापसी सुनिश्चित की जाए. यदि आप लोगों को लोकतंत्र की बुनियादी आजादी देने से मना करते हैं तो यह आप खुद अपनी चुनावी प्रक्रिया का अपमान करते हैं. विरोध की आवाज तेजी से बढ़ती है, यह लोगों को एकजुट करती है और इससे असुरक्षा बढ़ती है. देश और कश्मीर के बीच बिगड़ते संबंधों की यही वजह है.

हीरो या नीरो

दुर्लभ बात यह नजर आती है कि दिल्ली या अन्य राज्यों के उलट यहां आम जनता तो धूप से बचाने वाले तंबू के नीचे है मगर राज्य का मुख्यमंत्री ऐसी सड़ी गर्मी में भी चिलचिलाती धूप में बैठा हुआ है. सभी को कुछ न कुछ कहना है. तकरीबन डेढ़ घंटे के बाद उमर की बारी आती है. वे हिंदी में बोलते हैं, ‘अक्सर हमारे बीच की बातचीत एकतरफा हो जाती है. हमें इसे सही करना है. जम्मू और कश्मीर से जुड़ा सबसे बड़ा मसला हमारे हाथ में नहीं है. ये नई दिल्ली और इस्लामाबाद के हाथों में है.’

कश्मीरियों के लिए गले लगना उनकी एक जरूरत सरीखा है. वे अपने स्नेह को खुलकर जताने के लिए जाने जाते हैं. मगर उमर ऐसा करने के प्रति सहज ही नहीं हो पाते

‘हर बार जब हम कश्मीर के मुद्दे के हल के करीब पहुंचते हैं तो कुछ ऐसा हो जाता है कि हम फिर वहीं पहुंच जाते हैं. आज हालत यह हो गई है कि दो देशों के विदेश मंत्री एक-दूसरे पर प्रेस कॉन्फ्रेंसों में आरोप लगा रहे हैं. मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि वह नेताओं को हमें करीब लाने की हिम्मत दे.’ अब वे उस बात पर आ जाते हैं जो उनकी नजर में आज सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. ‘हम एक के बाद एक हड़तालों से कश्मीर समस्या हल नहीं कर सकते. इससे हम अनपढ़ों वाला राज्य बन जाएंगे. हमारे बच्चे कुछ नहीं कर सकेंगे. हम केवल भीख मांगने लायक रह जाएंगे. क्या हम यही चाहते हैं? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हमें पैसा देते हैं. हम उनके शुक्रगुजार हैं. आपकी मदद के लिए धन्यवाद. मगर यदि वे यह सोचते हैं कि पैसों से यह मुद्दा हल हो सकता है तो यह सही नहीं है. यह एक राजनीतिक समस्या है जो 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के साथ शुरू हुई थी.’

मगर श्रीनगर की सड़कों, जहां पिछले कुछ सप्ताहों से पत्थर और आंसू गैस के गोले उड़ रहे हैं,  पर कोई उन्हें सुनने को तैयार ही नहीं. आजकल यहां के एक आम दिन की शुरुआत बेहद शांत-सी होती है. दुकानें नहीं खुलतीं, औरतें ज्यादातर घरों में ही रहती हैं. धीरे-धीरे युवा इकट्ठे होने लगते हैं और आधा दिन होते-होते शांति कोलाहल में तब्दील होने लगती है. शुक्रवार की एक दोपहर को श्रीनगर के रामबाग इलाके में करीब 500 लोगों की भीड़ इकट्ठा है. यह पत्थर फेंकने वालों की भीड़ है. प्रशासन ने हाल ही में एक स्थानीय समाचार चैनल को उकसाऊ  खबरों के लिए प्रतिबंधित कर दिया है और भीड़ को इसके पीछे उसे खबरों से दूर करने की साजिश की बू आ रही है. कुछ लोगों के सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाने की खबरें हवा में हैं.

इसी भीड़ में एक बेहद दुबला-पतला सा 12वीं कक्षा का छात्र अशरफ भी शामिल है. चीखने-चिल्लाने-नारेबाजी से उसका गला बैठा हुआ है. ‘वे (सुरक्षा बल) हमें स्कूल नहीं जाने देते, दूध नहीं खरीदने देते. सुबह-सुबह उन्होंने दूध के पैकेट लेकर घर लौट रहे एक आदमी को गोली मार दी. हम उन्हें राज नहीं करने देंगे. उन्हें वापस जाना ही होगा. हमें आजादी चाहिए,’ अशरफ बिना रुके बोलता जाता है. पत्थर फेंकने वालों ने अब एक मोर्चे जैसा रूप ले लिया है और वे खतरनाक तरीके से करीब आधा किमी दूर खड़े कुछ पुलिसवालों की ओर बढ़ चले हैं. इनमें से कइयों के चेहरे ढके हुए हैं. अचानक वे गालियों और पत्थरों की बौछार करते हुए भागने लगते हैं.

‘वे (सुरक्षा बल) हमें स्कूल नहीं जाने देते, दूध नहीं खरीदने देते. सुबह-सुबह उन्होंने दूध के पैकेट लेकर घर लौट रहे एक आदमी को गोली मार दी. हम उन्हें राज नहीं करने देंगे. उन्हें वापस जाना ही होगा. हमें आजादी चाहिए,’

पुलिसवालों के हाथों में लाठियां, बांस की बनी ढालें और कुछ के सर पर हेलमेट हैं. वे बड़े बेचारे-से लगते हैं जिन्हें ऐसी परिस्थितियों से निपटने का कोई प्रशिक्षण और अनुभव नहीं है. पुलिसवाले बचने और इसके लिए छुपने का प्रयास करते हैं. रेडियो पर सहायता की गुहार लगाई जाती है और थोड़ी ही देर में बख्तरबंद गाड़ियों का एक काफिला वहां पहुंच जाता है. आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं. चारों ओर और फेफड़ों में बस धुंआं ही धुआं. सड़कों पर ईंट-पत्थरों का ढेर लग जाता है. पत्थरबाज गलियों की ओर रुख कर लेते हैं. अब बारी पुलिस कांस्टेबलों की है. वे पत्थर फेंकने लगते हैं. शाम तक कई बार इस चक्र को दोहराया जाता है. पिछले कुछ समय से कश्मीर का आम दिन कुछ-कुछ ऐसा होता रहा है.
बमुश्किल 18 महीने पहले उमर को कश्मीर में एक बड़ी उम्मीद के बतौर देखा गया था. मगर अपनी दूसरी सभा के लिए

हेलिकॉप्टर में बैठकर जाते उमर आज खुद ही उस उम्मीद के प्रति आश्वस्त नजर नहीं आते. जैसे ही हम उड़ान भरते हैं, उमर अपने आईपैड में खो जाते हैं. वे संगीत सुनते हुए अंग्रेजी की किताब पढ़ रहे हैं. हम बीच-बीच में उनसे बातें करते जाते हैं. वे बताते हैं कि वे इंटरनेट पर किताबें और फिल्में किराए पर लेते हैं, यानी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के प्रति उनका लगाव अब फिर से लौट आया है. जब वे मुख्यमंत्री बने ही थे तो असेंबली में किसी मुद्दे पर बहस के दौरान अपने ब्लैकबेरी फोन से उलझे हुए थे. इस पर हुए विवाद के बाद उन्होंने ब्लैकबेरी फोन से तौबा कर ली थी. मगर आज वे और उनके निजी सचिव ही दो ऐसे व्यक्ति हैं जो जम्मू और कश्मीर में आईपैड इस्तेमाल करते हैं.

उमर आज जैसे हैं उन्हें वैसा बनाने में उनके बोर्डिंग स्कूल – लॉरेंस स्कूल सनावर – का भी बहुत बड़ा योगदान है. वे आज भी अपने में ही रहने वाले व्यक्ति हैं. वे बहुत सख्त कॉर्पोरेट अनुशासन को पसंद करते हैं जिस वजह से परिणाम उनके लिए बहुत महत्व रखता है. इसके उलट उनके पिता फारुख अब्दुल्ला बेहद खुले मिजाज के व्यक्ति थे. उमर को देखकर उनमें भावनाओं की कमी होने का सा एहसास होता है जो उनके लोगों से जुड़ने की राह की सबसे बड़ी बाधा है. हालांकि अच्छे प्रशासकों को भावनाओं को बहुत ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए मगर कश्मीर इस मामले में अपवाद है. जहां हर चीज एक प्रकार से भावनाओं से ही संचालित होती हो वहां उमर के जैसा होना चीजों को थोड़ा और उलझा देता है.

कश्मीरियों के लिए गले लगना उनकी एक जरूरत सरीखा है. वे अपने स्नेह को खुलकर जताने के लिए जाने जाते हैं. मगर उमर ऐसा करने के प्रति सहज ही नहीं हो पाते. अकसर उनके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं होता जिसकी वजह से लोग उन्हें समझ नहीं पाते और थोड़ा सशंकित रहते हैं. अपने इस व्यवहार की वजह से वे आज युवाओं, प्रौढ़ों, महिलाओं, बुिद्धजीवियों, विपक्षी पार्टियों सभी के निशाने पर हैं.

चूंकि वे सार्वजनिक रूप से कम ही दिखाई देते हैं और यदि ऐसा होता भी है तो वे ज्यादा सहज नजर नहीं आते इसलिए ऐसा आभास होता है कि जैसे सब-कुछ उनके नियंत्रण में नहीं है. इसीलिए उनके विरोधी यह आरोप लगाते हैं कि राज्य का प्रशासन राज्यपाल एनएन वोहरा देखते हैं और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी गृहमंत्री चिदंबरम संभालते हैं. उमर को इन चुनौतियों का एहसास है. वे एक सुबह हमसे थोड़ा खुलकर बात करते हैं, ‘मुझे कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है. हमारा पड़ोसी हमेशा कश्मीर समस्या को सुर्खियों में बनाए रखना चाहता है. भारत सरकार राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया को जारी नहीं रख पा रही है. मुझे लोगों के अंदर घर करते जा रहे इस एहसास से भी निपटना है कि शांति प्रक्रिया में कोई प्रगति नहीं हो रही है, न तो बाहरी स्तर पर न ही अंदरूनी स्तर पर. सूबा भीषण बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा है. विपक्ष की भूमिका पूरी तरह नकारात्मक हो चुकी है. वे इस नीति पर चल रहे हैं कि यदि वे शासन नहीं कर सकते तो किसी को करने भी नहीं देंगे. मुझे हर तरह के उन निहित स्वार्थों का सामना करना पड़ रहा है जो जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थितियां बहाल होते नहीं देखना चाहते. मेरी उम्र भी मेरे लिए एक चुनौती ही है. मैं अभी महज 40 साल का ही हूं. वे चाहते हैं कि मैं शुरुआत में ही असफल हो जाऊं ताकि उन्हें आज से 30 साल बाद मेरे लिए चिंता नहीं करनी पड़े.’

सब-कुछ बुरी तरह उलझा हुआ है. एक तरफ भारत है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान, पत्थरबाज हैं, धड़ों में बंटी हुई हुर्रियत पार्टी है, आतंकवादी हैं, सशस्त्र बल हैं और इनके अलावा अमेरिका व अफगानिस्तान भी इससे जुड़े हैं. राज्य में इस समय आक्रोश अपने चरम पर है. और इसका कोई एक कारण नहीं है. तमाम घटनाओं की एक मिली-जुली प्रतिक्रिया है जो गुस्से के रूप में उमर और सुरक्षा बलों के खिलाफ देखने को मिल रही है. हर लिहाज से उमर इस वक्त देश की सबसे संवेदनशील जिम्मेदारियों में से एक संभाल रहे हैं. वे ऐसा ठीक से कर पाएं इसके लिए उन्हें अपनी कॉर्पोरेट शैली में काम करने की आदत का तालमेल गर्मजोशी और अपनेपन से बैठाना होगा.

इस समय कश्मीर के लोगों की उग्र प्रतिक्रियाओं के मूल में विद्रोह की बजाय प्रतिरोध ज्यादा दिख रहा है. यही वजह है कि काफी विचार-विमर्श के बाद उमर और उनकी पार्टी इससे निपटने की एक रणनीति पर पहुंच चुके हैं. रणनीति यह है कि प्रदर्शनकारियों को थका दिया जाए. इसका मतलब है कि उमर विवाद के राजनीतिक पक्ष की बात करते हुए कानून और व्यवस्था को बहाल करने पर जोर देंगे. वे कहते हैं, ‘मैं लोगों को बातचीत के लिए तैयार करने की कोशिश करूंगा. हो सकता है कि यह खुले में होने की बजाय चुपचाप हो. मुझे पता है कि भारत सरकार ने भी इस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश की थी लेकिन जमीन पर कुछ हो उससे पहले ही ऐसे हालात पैदा हो गए कि यह बंद हो गई. यदि ज्यादा कुछ नहीं भी होता है तब भी उस बातचीत में शामिल कुछ पक्षों को भारत सरकार के साथ मतभेदों को कम करने के लिए एक लंबे दौर की सार्थक बातचीत की शुरुआत करते देख कर मुझे खुशी होगी.’ उमर आगे कहते हैं,’ एक दिक्कत यह है कि जो लोग इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहते हैं उनकी शर्त होती है कि भारत सरकार बिना शर्त बातचीत करे जबकि वे अपने साथ शर्तों की पूरी सूची लेकर बात करना चाहते हैं. आप सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाना चाहते हैं, राज्य से सेना हटाने की बात कहते हैं कैदियों को राहत देने की बात की जाती है. इन सारे मसलों पर फैसला बातचीत के बाद ही हो सकता है. बातचीत के पहले ही इन पर एकराय बन जाए, यह मुमकिन नहीं है.’

कश्मीर मसले पर सरकार की गुपचुप बातचीत की रणनीति का असर पिछले दिनों देखने को भी मिला. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने पांच अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करके रेलवे स्टेशन जलाने की घटना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि वे ऐसा नहीं चाहते. उन्होंने लोगों से गांधीवादी तरीके से प्रदर्शन करने की भी अपील की. उस दिन श्रीनगर में कड़ाई से कर्फ्यू लागू किया गया था और वहां सड़कों पर सन्नाटा छाया हुआ था. इस पर लोगों का कहना था कि उमर ने ही गिलानी को प्रेस कॉन्फ्रेंस आयाेजित करने के लिए तैयार किया था ताकि राज्य के सभी इलाकों में अमन बहाली का संदेश दिया जा सके.

वैसे इस घटना का महत्व हालात पर तात्कालिक रूप से काबू पाने की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है. जहां तक कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की बात है तो इस पर किसी नई सोच के प्रमाण कश्मीर में जरा भी नहीं मिलते. इस बात से उमर भी इत्तेफाक रखते हैं, ‘शायद इस मसले पर नए सिरे से कोई सोचना ही नहीं चाहता. मुझे पता है कि प्रदर्शन के दौरान लोगों के मरने में अलगाववादियों के छिपे हुए स्वार्थ हैं. जैसे ही कोई युवा मारा जाता है, इन लोगों को अपना आंदोलन एक और हफ्ते चलाने का मौका मिल जाता है’, वे आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता कि पीडीपी का इससे क्या फायदा है. अलगाववादियों का आंदोलन जितना ज्यादा बढ़ेगा, पीडीपी को उतना ही ज्यादा राजनीतिक नुकसान उठाना होगा. मैं जब आम लोगों से मिलने के लिए कंगन, हंदवाड़ा और दूसरी जगहों पर घूम रहा था तब पीडीपी को एक ही काम करना मुफीद लग रहा था- सचिवालय में तालाबंदी करना. उनके विधान सभा में 21 विधायक हैं. मैं यह नहीं कहता कि वे व्यापक स्तर पर जनसंपर्क की कोशिश करें. लेकिन जो हो रहा है इसके खिलाफ कुछ तो बोल ही सकते थे. मुझे उनकी तरफ से एक भी सकारात्मक आवाज सुनाई नहीं दी.’

उमर एक ऐसा कदम उठाने का प्रयास भी कर रहे हैं जो सड़कों पर एक बड़े बदलाव का कारण बन सकता है. वे कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस के हाथों में देने की कोशिशों में लगे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘यह जरूरी है कि हमारे कुछ सुरक्षा बलों को कानून और व्यवस्था की बहाली के लिए अलग तरह का प्रशिक्षण दिया जाए. यहां इंडियन रिजर्व पुलिस की पांच बटालियनें हैं जिन्हें एक विशेष कमांडो ट्रेनिंग के लिए भेजा जाना था ताकि उन्हें आतंकवाद विरोधी अभियान में इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन हमें अब एहसास हो रहा है कि हमारी प्राथमिकता कानून व्यवस्था की बहाली है. हमने फैसला किया है कि इन बटालियनों को कानून व्यवस्था से निपटने के लिए रैपिड एक्शन फोर्स की तर्ज पर प्रशिक्षित किया जाए, भीड़ को नियंत्रित करने के लिए उन्हें ऐसे हथियार दिए जाएं जिनसे किसी की जान जाने का जोखिम न हो. हमें कुछ इस तरह की चीजें करनी होंगी.’

कश्मीर का आधुनिक राजनीतिक इतिहास बताता है कि राज्य में इस तरह के संकट नए नहीं हैं. हां, उमर के लिए यह एक नई शुरुआत जरूर है. वे भारत के सबसे कम उम्र के और सबसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं. हो सकता है कि आने वाले दिनों में उनसे कुछ और गलतियां हों, और जो इस पद पर रहते हुए किसी से भी हो सकती हैं. लेकिन ताजा संकट के अनिश्चित समाधान के बावजूद एक तयशुदा बात यह है कि उन्हें नायक या जलते कश्मीर का नीरो बनते देखना भारत में हालिया दिनों की सबसे दिलचस्प राजनीतिक घटना बनने वाला है. 

नत्था! और हमारा अंधा होना… : पीपली लाइव

फिल्म पीपली लाइव

 

निर्देशक अनुषा रिजवी

 

कलाकार रघुवीर यादव, ओमकार दास, नवाजुद्दीन

 

आप बाहर निकलते हैं और रो लेना चाहते हैं. क्या यह पूरी फिल्म के दौरान बार-बार जोर-जोर से हंसने का पछतावा है? शायद हो, शायद कुछ और हो. शायद अनुषा रिजवी इस तरह से हम पर हंस रही हों कि कैसे बेशर्मी से गरीबी और मृत्यु के दृश्यों में हम मुंह फाड़कर हंस पाते हैं. हां, वे इसे इसी तरह बनाना चाहती थी और पॉपकोर्न के थैलों के बीच किसी और तरह इसे बनाना शायद मुमकिन भी नहीं था. हमने हिन्दी फिल्मों को बस इस एक कोने में ले जाकर छोड़ दिया है. हम कोई गंभीर बात नहीं सुनेंगे. सुनाओगे तो चिल्लाकर उसका विरोध करेंगे या इगनोर कर देंगे. हम महात्मा गांधी को सिरे से खारिज करते हैं, जब तक वह ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ न हो. हम गाँवों की कहानियों पर थूकते हैं, जब तक वह ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ न हो. हम नहीं जानते कि विदर्भ कहां है और कौन बेवकूफ किसान हैं, जो अपनी जान दे रहे हैं और हम जानना भी नहीं चाहते. ऐसे में ‘पीपली लाइव’ उस आखिरी हथियार ‘हंसी’ के साथ आती है और हमें हमारे समय की सबसे मार्मिक कहानियां ठहाकों के बीच सुनाती है. यही सबसे त्रासद है.

 

अनुषा रिजवी और उनके सह-निर्देशक पति महमूद फारुकी दास्तानगोई की परंपरा से आते हैं और इसीलिए उनका हाथ आपकी नब्ज पर है. वे सबसे हताश कर देने वाली बातों पर रसीले चुटकुले गढ़ सकते हैं और आप ध्यान दीजिए, पसीने से भीगा एक मजदूर जब हर रोज वही गड्ढ़ा खोद रहा है, तब आप अकेले हैं जो हंस रहे हैं. फिल्म तो उसके साथ खड़ी होकर उसकी तकलीफ में रो रही है. यही कला है. या जादू.

 

ऐसा ही जादू रघुवीर यादव में है और उनसे ज्यादा नवाजुद्दीन में, जिनके छोटे से चरित्र के पास फिल्म की सबसे ज्यादा दुविधाएं हैं. एक स्थानीय अखबार का पत्रकार राकेश ही फिल्म के दो हिन्दुस्तानों के बीच की कड़ी है. वही है जो गढ्ढ़ा खोदने वाले होरी महतो और अंग्रेजी समाचार चैनल की एंकर नंदिता मलिक को करीब से देखता है और ऐसा देखने के बाद कोई संवेदनशील आदमी चैन से कैसे रह सकता है? वह बेचैन होता है, लेकिन बेचारा है मगर फिर भी घटनाएं उसी से होकर बदलती हैं.   नत्था, जो हर जगह है, मरता हुआ या जीते हुए मरने की कामना करता हुआ, धूल से पटे चेहरे के साथ जिसे आप दैवीय विनम्रता से गुड़गांव की भव्य इमारतें रचते हुए देखते हैं, जिसके खेत उसी बैंक ने कर्ज के बदले हथिया लिए हैं, जो टीवी पर रोज यह विज्ञापन दिखाता है कि वह हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा या सर उठा के जियो. कैसे जियो भाई? क्या उसके पास सर झुका कर या कीचड़ में धंसाकर भी जीते रहने का विकल्प छोड़ा गया है? यह उसी नत्था की तलाश है, जिसकी खबर टीवी पर आने पर आप शिल्पा शेट्टी या सानिया मिर्जा की खोज में चैनल बदल देते हैं. लेकिन पा लेने के बावजूद यह उसी नत्था को हमेशा के लिए खो देने की भी कहानी है क्योंकि आप उसे दिन में हजार बार देखते हैं और एक बार भी नहीं देखते. कोई फिल्म हमें कितना बदलेगी?

औपनिवेशिक शोषण के आइबिस पर

फरवरी, 2008 में जब मॉरिशस के प्रधानमंत्री नवीनचंद्र रामगुलाम अपने पूर्वजों के गांव बिहार के भोजपुर जिले में हरिगांव आए थे तो राजधानी से लेकर हरिगांव तक जश्न का माहौल था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर रामगुलाम के परिजन तक  बिछुड़े परिजनों के मिलने के मौके पर बहुत खुश थे. लेकिन इन बातों में कहीं भी उस औपनिवेशिक शोषण के दुष्चक्र का जिक्र नहीं था जिसने लाखों किसानों को तबाह किया था और जो इन जगहों से गुलामों की तरह लोगों को जहाज पर लादकर मॉरिशस और दुनिया के दूसरे हिस्सों में ले जाने के लिए जिम्मेदार था.

लेकिन लगभग उन्हीं दिनों सुदूर अमेरिका में बैठे एक भारतीय लेखक अमिताभ घोष का उपन्यास प्रकाशित हुआ- सी ऑफ पॉपीज. हाल ही में इस किताब का हिंदी अनुवाद पेंगुइन ने अफीम सागर  नाम से छापा है. थोड़े कमजोर अनुवाद के बावजूद यह एक जरूरी उपन्यास है, जो मुख्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों की नियति के बारे में बताता है. इन किसानों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने कर्ज देकर अफीम उगाने पर बाध्य किया. लेकिन फसल खरीदने की व्यवस्‍था ऐसी थी कि कर्ज कभी खत्म नहीं होता. किसान धीरे-धीरे तबाह हो जाते और आखिरकार गुलामों के रूप में खरीद लिए जाते, जिन्हें कलकत्ता से जहाज में लादकर मॉरिशस भेज दिया जाता.

कलकत्ता में आइबिस नामक जहाज पर मॉरिशस जाने के लिए जो लोग सवार हैं वे सभी इस औपनिवेशिक दुष्चक्र में फंसे हैं. एक अमेरिकी अश्वेत, एक फ्रांसीसी अनाथ युवती, एक कंगाल राजा और सैकड़ों गुलाम किसान. यह उपन्यास हमें 1830 के दशक के औपनिवेशिक भारत की यात्रा पर ले जाता है, जहां मनुष्य की आजादी और सभ्यता के नाम पर ब्रिटिश साम्राज्य अमेरिका से लेकर चीन तक तबाही फैला रहा था तथा गुलामों और अफीम के व्यापार के जरिए मोटा मुनाफा निचोड़ रहा था. कुछ लोग संपन्न हो रहे थे और दूसरे हजारों कंगाल. यह उपन्यास इसी प्रक्रिया की कहानी कहता है. आइबिस के यात्रियों की अपनी-अपनी जिंदगियां इतनी कुशलता से बुनी गई हैं कि सभी अपनी राह चलते हुए लुटेरी कंपनी के नजर नहीं आने वाले लेकिन सर्वव्यापी फंदे में फंस कर आखिरकार आइबिस पर आ गिरते हैं.

उपन्यास की दो विशेषताएं अलग से पहचानी जा सकती हैं. लेखक आधुनिकता का दावा करने वाले अंग्रेेज अधिकारियों की परतें खोल देता है जो अपनी सत्ता और मुनाफे के लिए उत्पीड़क, क्रूर और मध्ययुगीन ऊंची जातियों के साथ खड़े थे और उनकी ताकत को भी बनाए हुए थे. दूसरी विशेषता यह है कि उपन्यास में दुनिया भर के उत्पीड़ित वर्ग अपरिचित होने के बावजूद आपस में जुड़ जाते हैं. जहाज पर अमेरिकी अश्वेत हों या गाजीपुर का एक दलित या एक चीनी कैदी, संकट के समय वे एक-दूसरे की मदद करते हैं. वे अपने उत्पीड़कों के खिलाफ विद्रोहों में भी खुद को एक साथ पाते हैं.

अफीम सागर बांग्ला उपन्यासकार मानिक बंद्योपाध्याय के पद्मा नदीर मांझी की याद दिलाता है. पद्मा नदीर मांझी में भी कमोबेश एसी ही कहानी कहने की कोशिश की गई है. तीन उपन्यासों की श्रृंखला का यह पहला उपन्यास खत्म करते-करते यह लगने लगता है कि आज भी भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकतर देश औपनिवेशिक शोषण के उसी आइबिस पर सवार हैं जिसकी यात्रा सदियों पहले शुरू हुई थी. नाविकों और पहरेदारों के चेहरे भले बदल गए हों.

रेयाज उल हक

' निराला ब्राह्मणवाद से ग्रसित लेखक हैं '

आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?

फिक्शन. मैं कहानी लिखता रहा हूं. अभी एक उपन्यास पर काम चल रहा है, शायद इस साल पूरा हो जाए. डायरी जरूर लिखता हूं. मैं उम्र के इस पड़ाव पर हूं जिसमें बस लिखने के लिए लिखना नुकसानदेह ही होता है, अगर लिखने लायक आपके पास कुछ खास न हो. मुझे जब संवाद बनाना होता है तो लिखता हूं और उसके लिए जरूरी विधा अपना लेता हूं. हां, कविता कभी मेरा माध्यम नहीं रही.

अभी क्या पढ़ रहे हैं?

अभी एक बहुत बढ़िया उपन्यास पढ़ा, रणेंद्र का ग्लोबल के देवता. इसी समीक्षा भी लिखी है हंस के लिए. वाकई बहुत मौजू और खूबसूरत उपन्यास है. मिथकीय पौराणिकता के बीच जिस देवासुर संग्राम की चर्चा सुनते आ रहे थे, उसको समझा इसके जरिए. यह जाना कि आज भी 10 हजार की संख्या में असुर झारखंड में रह रहे हैं. हमने तो समझा था कि असुर अनार्य है, वे काले होते हैं. लेकिन यह धारणा टूट गई. यह धातु बनानेवाली जाति है, जिसका देवासुर संग्राम के समय से हम दमन करते आए हैं. आज भी उनका दमन जारी है. वही लोग नक्सली हैं और बहुत संख्या में मारे गए हैं. उपन्यास के माध्यम से रणेंद्र ने बहुत अच्छे से दर्शाया है कि किसी जाति को बहिष्कृत करने और फिर शामिल करने की क्या प्रक्रिया रही है. बहिष्करण और शामिल करने की यह प्रक्रिया को समझना हमारा बड़ा सांस्कृतिक संकट रहा है. लंबे दौर में हमने इसे समझने की कोशिश की. इस उपन्यास के जरिए इसे समझा.

वे रचनाएं या लेखक जिन्हें आप बेहद पसंद करते हों?

प्रेमचंद, मुक्तिबोध, रेणु बार बार अपनी ओर खींचते हैं. खास कर एक जटिल और नजदीक के लगते हैं मुक्तिबोध. उन्होंने कहानियां, कविताएं, डायरी, समीक्षा, आलोचना लिखी. उन्हें पढ़ कर सीखा कि लेखक की चिंता और प्रतिबद्धता, मूल्य, समर्पण कैसा होना चाहिए. जहां तक सीखने की बात है, मार्क्वेज से लेकर काफ्का और चेखव सबसे सीखा है. जब मैं रूसी साहित्य पढ़ता था, जो मेरा प्रिय है तो मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित होने के बावजूद मुझे गोर्की के बजाय चेखव अब भी बहुत पसंद आते हैं.

कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?

संस्कृत की एक प्रगतिशील धारा भी रही है. अश्वघोष और शूद्रक जैसे महत्वपूर्ण कवियों को नजरअंदाज किया गया. अश्वघोष का बुद्धचरितम का लीला भाग तो हमारे पास रहा, लेकिन ज्ञान प्राप्ति के बाद विचार वाला भाग नष्ट कर दिया गया, जिसे चीन से अनुवाद करके मंगाया गया है. उसका संस्कृत वाला भाग नहीं बचा है. आखिर अश्वघोष की चर्चा क्यों नहीं होती. कालिदास पर अश्वघोष के प्रभाव को लोगों ने रेखांकित किया है. इतने महत्वपूर्ण कवि को क्यों नजरअंदाज करते रहे हैं. क्योंकि वे बौद्ध थे. सूर्यनारायण चौधरी ने बुद्धचरितम का अनुवाद किया है. संस्कृत की प्रगतिशील परंपरा पर काम नहीं हुआ…एसा समझा गया कि यह तो ब्राह्मणवाद की भाषा है, रूढ़ मूल्यों की भाषा है. जबकि इसमें जो प्रतिरोध की संस्कृति रही है, उसकी बार-बार उपेक्षा की गई है. वर्चस्व की संस्कृति की हमने ज्यादा परवाह की है.

कोई रचना जो बेवजह मशहूर हो गई हो?

राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास समेत निराला की रचनाएं. भाषा के मामले में निराला की जो काव्य क्षमता है, वह आकर्षित करती है. मैं राम की शक्ति पूजा पर बार-बार रीझता हूं. अपने शाब्दिक शौष्ठव में यह अद्भुत कविता है. मंत्रों या आयतों की तरह यह आकर्षित तो करती है, लेकिन जब मैं इसका अर्थ ढूंढ़ने की कोशिश करता हूं तो निराश होता हूं. मुझे समझ में नहीं आता कि कवि कहना क्या चाहता है, वह हमें किस ओर ले जाना चाहता है. मुक्तिबोध की अंधेरे में कविता में आज के आदमी की पीड़ा झलकती है. लेकिन निराला की इस रचना में एक पूजा का दूसरी पूजा से उत्तर देना, एक दासता का गहरी दासता से उत्तर देना- यह समझ में नहीं आता. मेरे मन में सवाल उठता है कि यह है क्या. उन दिनों देश में राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था और निराला तुलसीदास लिख रहे थे, जिसमें सांस्कृतिक एकांगीपन और सांप्रदायिक पुट है. यह पढ़ने पर हिंदू महासभा से जुड़े लेखक की रचना लगती है. अगर मुझे निराला और (मैथिलीशरण) गुप्त में से चुनना होगा तो गुप्त ज्यादा प्रगतिशील दिखते हैं, मैं उन्हें चुनूंगा. मुझे गुप्त जी ज्यादा आधुनिक लगते हैं. वे ज्यादा उदार हैं, उनमें निराला जैसी कट्टरता नहीं है. गुप्त में भागवत भाव है. हिंदुत्व का भाव नहीं है जो निराला में है. ब्राह्मणवाद से ज्यादा ग्रसित लेखक हैं निराला. वे रामनामी हैं. गुप्त हिंदू हैं इस पर उन्हें शर्म नहीं है पर उनके लिए दूसरे धर्मवाले भी बुरे नहीं हैं. जबकि निराला कहते हैं कि दूसरे धर्मवाले गर्त में हैं. निराला कहते हैं कि दूसरे सारे गलत हैं और मैं ठीक हूं. इस आधार पर हिंदी का मिजाज क्या है, उसने किस तरह अपने रचनाकारों देखा है. इस पर चर्चा नहीं हुई है.

पढ़ने की परंपरा को कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

बिना पढ़े मुझे तो मुक्ति नही मिलती. यह आनेवाली पीढ़ी के ऊपर है कि वह कौन से रास्ता अपनाती है. पढ़ने के संदर्भ में किताबों को लिया जाता है लेकिन किताब भी हमेशा इस रूप में नहीं रही. बहुत दिनों तक श्रुति में बातें चलन में रही, बातों को एक दूसरे से याद किया गया. बहुत बाद में जा कर उनका ग्रंथन हुआ. ताल पत्रों पर आंका गया. कुछ ही सौ सालों से किताबें इस रूप में हैं. कंप्यूटर के बाद किताबों का एक रूप बदल सकता है. मैं उससे भयभीत नहीं हूं. मैं भले न समझ पाऊं पर पीढ़ियों में इसके जरिए विमर्श जीवित रहेगा. जरूरी है कि पढ़ने से अधिक विमर्श जीवित रहे, सोचने समझने की प्रवृत्ति जीवित रहे. आज की हमारी पीढ़ी से अधिक सेकुलर है और समझदार है. लोग समझते हैं कि आज की पीढी बहुत सांप्रदायिक हो गई है और गांधी की पीढ़ी बहुत उदार थी. लेकिन वह गांधी की ही पीढ़ी थी कि एक मुसलमान कलाकार को अपना नाम दिलीप कुमार या मीना कुमारी रखना पड़ता था. उनके मूल नाम तक बहुत कम लोगों को पता होते थे. हमारी पीढ़ी में नक्सलवाद पर जिस तरह बात होती थी आज की पीढ़ी में उसी तरह नहीं हो रही है. नई पीढ़ी के बच्चे ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए तैयार नहीं है. यह वही पीढ़ी है जिसे आप कंप्यूटर की औलाद और कम पढ़ा लिखा समझ रहे हैं. जबकि आज तो नामवर सिंह की पीढ़ी इस ग्रीन हंट पर चुप है. यह आज की ही पीढ़ी है जो इसके खिलाफ विरोध दर्ज करा रही है अरुंधति को समझ रही है और उसके साथ है. नामवर की पीढ़ी तो 1084वें की मां पढ़ कर रोनेवाली पीढ़ी थी. वह विरोध जतानेवाली पीढ़ी नहीं थी. आज की पीढ़ी ज्यादा जानकारी रखती है. जानकारी रखना और सोचना ही अधिक महत्वपूर्ण है. यह जरूरी नहीं कि हमारी कहानियों को पढ़ कर नई पीढ़ी बालू से तेल निकालती रहे. पढ़ना, सोचना और एक विवेक का निर्माण करना यह प्रक्रिया तेज हुई है कमजोर नहीं हुई है.

रेयाज उल हक