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बुलंद ख्वाबों की ऊंची परवाज

हैदराबाद के उपनगरीय इलाके साइबराबाद में साइना नेहवाल का अपार्टमेंट किसी शादी वाले घर की तरह सजा हुआ है. भारतीय बैडमिंटन की इस शीर्ष महिला खिलाड़ी को इंडोनेशिया सुपर सीरीज जीते हुए दो हफ्ते बीत चुके हैं लेकिन उन्हें बधाई देने वालों की भीड़ कम नहीं हो रही. घर में टीवी देख रही साइना की मां ऊषा नेहवाल, हमसे बैडमिंटन की तकनीक पर बात करते हुए कहती हैं, ‘ पहले उसका (साइना का) हाफ-स्मैश उतना अच्छा नहीं था. मजबूत शरीर वाले खिलाड़ियों के सामने यह बहुत जरूरी है.’ ऊषा खुद बैडमिंटन की राज्यस्तरीय खिलाड़ी रह चुकी हैं. आजकल वे टीवी पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सभी मैचों पर बारीक नजर रखती हैं ताकि उन्हें अपनी बेटी के प्रतिद्वंद्वियों के बारे में पहले से पता हो.

हैदराबाद के पॉश इलाके में बने इस भव्य अपार्टमेंट में नेहवाल परिवार हाल ही में शिफ्ट हुआ है. कुछ साल पहले तक यह परिवार भी हाथखींच कर खर्च करने वाले आम मध्यवर्गीय परिवारों जैसा था. हां, एक चीज इसे जुदा करती थी और वह यह कि यहां हर बात में अकसर बैडमिंटन जरूर शामिल होता था. ऊषा बताती हैं कि साइना जब स्कूल में थी तो राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने के दौरान वे भी उसके साथ जाती थीं और बैडमिंटन कोर्ट की दर्शक दीर्घा में बैठकर चीयरलीडर्स की तरह अपनी बेटी का उत्साह बढ़ाया करती थीं.

अपने आदर्श टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर की तरह साइना भी मानती हैं कि जीत की राह काफी हद तक आपका आंतरिक संघर्ष है. वे कोर्ट पर शांत रहने की उनकी आदत से भी बेहद प्रभावित थींसाइना का परिवार नए अपार्टमेंट में अभी पूरी तरह शिफ्ट नहीं हुआ है. मेंहदीपट्टनम के अपने पुराने घर में ट्रॉफियों के बीच बैठे साइना के पिता हरवीर सिंह को 1998 के वे दिन आज भी याद हैं जब उनका स्थानांतरण हरियाणा के हिसार से हैदराबाद हुआ था. उसी साल दिसंबर में उनकी कंपनी एक बैडमिंटन प्रतियोगिता आयोजित करने वाली थी. आयोजन की जिम्मेदारी सिंह संभाल रहे थे. एक दिन जब वे साइना के साथ स्थानीय स्टेडियम पहुंचकर व्यवस्थाओं का जायजा ले रहे थे तभी आठ वर्षीया साइना अपने हमउम्र बच्चों के साथ बैडमिंटन खेलने लगी. सिंह बताते हैं, ‘उसे देखकर एक कोच ने  मुझसे कहा कि वह बहुत खूबसूरती से रैकेट पकड़ती है.’ कोच ने सिंह से यह भी कहा कि अगले साल बैडमिंटन के ग्रीष्मकालीन शिविर में वे साइना को जरूर लाएं.

गरमी की वे छुट्टियां सिंह और नेहवाल परिवार के लिए सबसे महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुईं. उस दौरान सिंह हर दिन सुबह चार बजे उठते थे और साइना को अपनी स्कूटर से 25 किमी दूर बैडमिंटन एकेडमी छोड़ने जाते थे. भावुक होते हुए सिंह कहते हैं, ‘ वह रास्ते में सो जाती थी, मुझे भी लगता था कि इतने छोटे बच्चे के लिए यह काफी तनाव भरी कवायद है.’ उस समय यह कवायद एक तरह से पूरे परिवार की जिम्मेदारी बन गई थी जिसने बाद में इस परिवार की प्राथमिकताएं तय कर दीं. अब यहां बैडमिंटन पहले था, बाकी सारे काम पीछे. कमाई का एक बड़ा हिस्सा रैकेट-शटल खरीदने और सबसे अच्छे कोच की फीस देने में खर्च होने लगा था. एक विलक्षण प्रतिभा निखरने लगी थी.

बधाई देने वालों से मुलाकात के बाद साइना हमें बताती हैं कि जब उनके सहपाठी खिलौने और वीडियो गेम में उलझे रहते थे तो उनके लिए बैडमिंटन एक काम होता था और साथ में मनोरंजन भी. वे कहती हैं, ‘ यह मुश्किल था लेकिन लगातार अभ्यास एक आदत बन गई.’ अपनी मां और रैकेट के साथ देश भर में घूमते हुए वे जल्दी ही एक और अनुभव की आदी हो गईं. वे कहती हैं, ‘खेलते-खेलते मुझे जीत की लत लग गई.’ राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में जीत के इस सिलसिले के बीच 2004 उनके करियर का सबसे महत्वपूर्ण साल साबित हुआ. इसी साल उन्हें पुलेला गोपीचंद के रूप में एक साथी, मार्गदर्शक और कोच मिला. 2001 में गोपीचंद ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जैसी प्रतिष्ठित प्रतियोगिता जीत चुके थे. बैडमिंटन जैसे खेल में भारत को यह उपलब्धि अचानक मिली थी. इसके बाद और इससे आगे हम भारतीयों के सामने और कोई नहीं था. गोपीचंद ने 2002 में पहली बार साइना पर ध्यान दिया था. उस समय वे अपनी चोट से उबर रहे थे और बैडमिंटन की कोचिंग देने के बारे में मन बना चुके थे. गोपीचंद बताते हैं, ‘ वह उस समय कुछ नाटी और मोटी थी, लेकिन जुझारूपन उसमें कूट-कूटकर भरा था.’

2006 में साइना की विश्व रैंकिंग 186 थी. उसी साल उन्होंने विश्व में चोटी की कई खिलाड़ियों को हराकर फिलीपींस ओपन जीत लिया. 16 साल की इस  खिलाड़ी के लिए यह जीत काफी अहम थी. साइना कहती हैं, ‘ इसके बाद मुझे भरोसा हो गया कि मैं दुनिया के सबसे अच्छे खिलाड़ियों को हरा सकती हूं.’

हाल की सफलताओं के बाद इस बात की भी चर्चा हो रही है कि कहीं अपनी नाम से मिलते-जुलते नाम वाली हैदराबाद की एक और चर्चित खिलाड़ी की तरह ग्लैमर और सफलता की चकाचौंध साइना का ध्यान खेल से न हटा दे. हालांकि उनकी मेहनत और खेल के प्रति रवैए से इस बारे में आश्वस्ति जगती है. साइना जब 10 साल की थीं तब से बैडमिंटन खेल रही हैं. हर सुबह सात बजे से अभ्यास में जुट जाने वाली और दिन में 12 घंटे बैडमिंटन खेलने वाली इस भारतीय शटलर के लिए यह खेल जीवन रेखा बन चुका है. प्रतियोगिताओं के दौरान दबाव दूर रखने के लिए योग का सहारा लेने वाली साइना बैडमिंटन पर योगियों की शब्दावली में बात करती हैं, ‘खेलना मेरे लिए ध्यान करने जैसा है.’ अपने आदर्श टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर की तरह साइना भी मानती हैं कि जीत की राह काफी हद तक आपका आंतरिक संघर्ष है. वे कहती हैं, ‘मैं बचपन में उनका खेल देखती थी, कोर्ट पर शांत रहने की उनकी आदत से मैं बहुत प्रभावित थी. उनको देखकर यह पता लगाना मुश्किल है कि वे मैच हार रहे हैं या जीत रहे हैं. मैं भी खेल के दौरान कोर्ट पर शांत रहने की कोशिश करती हूं.’ शायद साइना की यही सबसे बड़ी खूबी है जिसकी बदौलत उन्हें लगातार तीन प्रतियोगिताओं – इंडियन ओपन ग्रांपी, और उसके बाद सिंगापुर व इंडोनेशिया सुपरसीरीज, जिन्हें बैडमिंटन का ग्रैंड स्लैम माना जाता है, में जीत मिली. इन प्रतियोगिताओं की जीत की आधारशिला तकरीबन एक साल पहले तब रखी गई थी जब उन्होंने फैसला किया कि वे अपनी रैंक सुधारने की बजाय बड़ी प्रतियोगिताएं जीतने पर ध्यान देंगी. अब आने वाले महीनों में उन्हें राष्ट्रमंडल खेल, एशियाड और विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में भाग लेना है. इन प्रतियोगिताओं के लिए भी साइना की यही रणनीति है. हालांकि ये प्रतियोगिताएं गोपीचंद और साइना के लिए एक बड़े लक्ष्य- लंदन में 2012 में आयोजित ओलंपिक में स्वर्ण पदक के बीच की सीढ़ियां भर हैं.

बैडमिंटन में रची-बसी साइना के लिए क्या इससे इतर भी जिंदगी है? वे कुछ देर ठहरकर हमें बताती हैं कि इतवार के दिन वे घर में फिल्में देखना और आराम करना पसंद करती हैं. और बाहर जाकर खाना भी. उनके पसंदीदा कलाकार शाहरुख खान के बारे में चर्चा के दौरान ही आप यह बता सकते हैं कि वह अपनी हमउम्र 20 साल की लड़कियों जैसी हैं.

साइना  की चमत्कारिक सफलता क्या भारत में इस खेल, जो एक लंबे अरसे तक शौकिया तौर पर ही खेला जाता रहा, को नई ऊंचाइयां दे पाएगी?  पुलेला गोपीचंद नम्मीगड्डा अकादमी, जहां साइना अभ्यास करती हैं, के ग्रीष्मकालीन बैडमिंटन शिविर में इस साल शामिल होने वाले बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी इस बात की उम्मीद तो जगाती ही है और यह भी बताती है कि इस साइना जैसी विलक्षण प्रतिभा की उपलब्धियां उनको मिली ट्रॉफियों से कहीं आगे जाती हैं. 

बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड – 1

अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है. तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक

बुंदेलखंड को मिले 3,506 करोड़ रुपए के पैकेज से महोबा जिले के पवा गांव की रामकली को समय पर और नियमित रूप से राशन मिल जाने की कम ही संभावना है. उतनी ही कम संभावना इस बात की भी है कि उन्हें और उनके तीन बेटों और एक बहू के पांच सदस्यों वाले परिवार को साल में 100 दिनों का सुनिश्चित रोजगार मिल जाएगा. और इस बात की संभावना तो बिल्कुल ही नहीं है कि उनके परिवार के ऊपर चढ़ चुके एक लाख रुपए के कर्ज का बोझ इस पैकेज से कम हो जाएगा. बेशक, इस पैकेज से उनके पति के लौट आने की भी कोई उम्मीद नहीं है.

रामकली के पति कहीं गए नहीं हैं. 22 जनवरी की शाम को पास ही बन रही नाली का काम करके लौटने के बाद वे जेब में रोटियां रखकर कहीं चले गए थे. रात गहराने के बाद भी जब वे नहीं लौटे तो रामकली ने अपने बेटों और रिश्तेदारों के साथ उनकी तलाश शुरू की. उन्हें सुंदरलाल को खोजने में बहुत परेशानी नहीं हुई. गांव के पास ही एक पेड़ पर लटकती उनकी लाश मिल गई थी. सुंदरलाल ने खुद को फांसी लगा ली थी.

सुंदरलाल की आत्महत्या की कई सारी और एक-दूसरे में बुरी तरह उलझी हुई वजहें हैं. उनकी मौत के पीछे गरीबी, सूखा, इससे निपटने में सरकार की नाकामी, लोगों को राहत देने के लिए चलाई जा रही योजनाओं में भ्रष्टाचार और पंचायती राज के लुभावने चेहरे के पीछे छिपे सामंती समाज के क्रूर चेहरे की मिली-जुली कहानी है. इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. जिस समय सुंदरलाल ने आत्महत्या करने के अपने फैसले पर अमल किया, उस समय उनके िसर पर लगभग एक लाख रुपए का कर्ज था, जिसे उन्होंने अपनी बेटी की शादी तथा अपने बेटों और बहू की बीमारी के इलाज के लिए गांव के कई लोगों से लिया था. सुंदरलाल एक ऐसे गांव में रहते थे जहां न इलाज के लिए कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र है और न ही कोई ढंग का डॉक्टर. उनके पास राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत एक जॉब कार्ड था, जिसपर अंतिम बार काम 2007 में दिया गया था – पिछले चार वर्षों में कुल मिलाकर 65 दिनों का काम, और मजदूरी के रूप में 3,500 रुपए. जाहिर है, यह राशि छह लोगों के परिवार का 4 साल तो क्या छह महीने पेट भरने के लिए भी काफी नहीं थी. उनके राशन कार्ड पर पिछले दस में से तीन महीने गांव के कोटेदार ने राशन नहीं दिया था. जाहिर है कि उनकी समस्याओं को मीडिया के मायावती बनाम राहुल गांधी समीकरण की मदद से नहीं समझा जा सकता. सुंदरलाल की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की 2 करोड़ 10 लाख की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है. इसलिए उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश समूचे बुंदेलखंड की समस्याओं को समझने सरीखी है.

99.8% किसानों को 2009 में खरीफ की फसल पर नुकसान उठाना पड़ा. इनमें से 74 प्रतिशत को 50 से 100 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ा. 33 प्रतिशत लोगों को कोई सहायता नहीं मिली

सुंदरलाल का चार भाइयों का परिवार जितना आज बिखरा हुआ है उतना तब भी नहीं बिखरा था. जब उनके पिता शिवदयाल कोरी 1992 में कारसेवा के लिए अयोध्या जाने के बाद फिर कभी नहीं लौटे थे. कुछ समय बाद सभी भाइयों ने आपस में जमीन बांट ली और खेती करने लगे. अभी एक दशक पहले तक उनके साथ कोई समस्या नहीं थी. उनकी जमीन पर इतनी दाल और गेहूं हो जाती थी कि काम चल जाता था. हालांकि मजदूरी तब भी करनी पड़ती थी, लेकिन वह गांव में ही मिल जाती थी. समस्या तब शुरू हुई जब दस साल पहले बारिश ने धोखा देना शुरू किया. इससे पानी की कमी होने लगी. कुएं सूखने लगे और डीजल इंजन वाले पंप सेट से सिंचाई करने की हैसियत गांव के अधिकतर लोगों की नहीं थी. इसका सीधा असर खेती पर पड़ा और धीरे-धीरे खेतों की बुवाई कम होती गई. जमीन परती रहने के कारण गांव में काम मिलना बंद हो गया तो भुखमरी से बचने के लिए सुंदरलाल को गांव छोड़ना पड़ा. वे अब कानपुर के ईंट भट्ठों पर काम करने आ गए.

ईंट भट्ठे पर दो लोगों को एक दिन में 1,200 ईंटें बनाने पर मजदूरी मिलती थी 240 रुपए. इस कमाई से पेट तो भर जाता था लेकिन परिवार चलाने के लिए सिर्फ पेट भरना ही काफी नहीं होता. घर में दूसरी जरूरतें भी पड़ती हैं. शादियां और बीमारी उन वजहों में सबसे ऊपर हैं जिनमें सबसे अधिक खर्च होता है. सुंदरलाल की एक बेटी है और तीन बेटे. सात साल पहले जब खरेला में उन्होंने अपनी बेटी की शादी की तब सूखे का तीसरा साल था. उन्हें कर्ज लेना पड़ा था. वह तो किसी तरह चुक गया, लेकिन असली संकट तब सामने आया जब उनका छोटा बेटा बीमार पड़ा.

करण की उम्र 15 के आसपास है. लगभग एक साल पहले उसके बीमार पड़ने पर सुंदरलाल उसका इलाज कराने ग्वालियर और फिर झांसी लेकर गए. वे इस बीमारी से परिचित थे. यह उनके दोनों बड़े बेटों को भी हो चुकी थी. लेकिन झांसी के डॉक्टर करण को ठीक नहीं कर पाए. तब तक सुंदरलाल के िसर पर एक लाख रुपए का कर्ज चढ़ चुका था. आखिरकार वे करण को लेकर एक बाबा की शरण में गए.

करण की बीमारी अब कुछ ठीक है, लेकिन सुंदर अब इस दुनिया में नहीं हैं.

सुंदरलाल के भाई कल्लू उनके अंतिम दिनों को याद करते हुए बताते हैं, ‘वे हमेशा रोते रहते थे. बोलते थे कि पैसा बहुत खर्च हो गया. उन्हें टेंशन बहुत रहती थी.

सुंदरलाल के लिए ये दिन बहुत यातनामय रहे थे. सूखे के कारण अपने हिस्से की डेढ़ बीघा जमीन में वे कुछ बो नहीं पा रहे थे. उनकी आय का एकमात्र जरिया दिहाड़ी मजदूरी था, जिसका कोई भरोसा नहीं था. गांव के दूसरे 75 प्रतिशत लोगों की ही तरह सुंदरलाल अब कर्ज के उसी जाल में फंस चुके थे जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता.

अपने घर के सूनेपन की आदत डालने की कोशिश करते हुए रामकली बुदबुदाती हैं, ‘सूखे और कर्ज ने उनकी जान ले ली. अगर बारिश हो रही होती तो शायद वे इतने निराश नहीं हुए होते. तब काम मिलने की उम्मीद थी. हमने पहले भी कर्ज चुकाए थे.

कर्ज एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं. लेकिन गांव के अधिकतर लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि बैंक से आसानी से कर्ज मिल सके. इसके अलावा, अगर जमीन हो भी तो बैंकों की दौड़ लगाना और अधिकारियों को कमीशन देना सबके बस की बात नहीं. फिर बैंकों के साथ एक और समस्या है. उनसे आपको जब जरूरत हो तब और बार-बार कर्ज नहीं मिल सकता. एेसे में लोगों की आखिरी आशा गांव के महाजनों पर ही टिकी रहती है.

रामविशाल राजपूत रहते पवा में हैं, लेकिन वे पास ही के चितैयां गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. वे गांव के उन लोगों में से एक हैं जिनसे सुंदरलाल ने कर्ज लिया था. किसी बाहरी व्यक्ति के सामने लोगों को कर्ज देने का राज खुल जाने के कारण वे थोड़ी झिझक में हैं और हमारे सवालों के जवाब देने के दौरान संभलने की कोशिश करते हैं, ‘मैंने सुंदर को तीन हजार रुपए दिए थे, क्योंकि उसका एलआईसी में बीमा था और उसकी किश्त जमा करने लायक उसके पास पैसे नहीं थे.

रामविशाल उस समय एक मीटिंग में थे जब उन्होंने सुंदरलाल की मौत की खबर सुनी. उन्हें दुख तो हुआ था, लेकिन शायद वे अकेले आदमी थे, जिन्हें इसकी आशंका पहले से थी. मौत से 6 दिन पहले हुई अपनी आखिरी भेंट में सुंदरलाल ने उनसे बैंक में जमा अपने रुपए के बारे में पूछा था. वे बताते हैं, ‘सुंदर के बैंक खाते में 20 हजार रुपए थे. उसने पूछा था कि अगर उसने आत्महत्या कर ली तो उसके खाते में जमा रकम उसके परिवार को मिल पाएगी कि नहीं. वह बहुत परेशान था. उसका दिमाग खराब हो गया था. मैंने समझाया कि एेसा नहीं करना, नहीं तो पैसे डूब जाएंगे.

रामविशाल एेसा जताते हैं कि उन्हें चिंता अपने पैसों के डूब जाने की नहीं, लोगों के बरबाद होने की अधिक है. वे जबर्दस्ती की मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘इन लोगों के करम ही ऐसे हैं कि ये हमेशा कर्ज में बने रहेंगे. ये जुआ खेलकर अपने पैसे बरबाद कर देते हैं और फिर शादी-ब्याह के लिए कर्ज में फंसते हैं.

लेकिन जो सवाल हैं वे रामविशाल की चिंता से कहीं अधिक जटिल हैं. ये वे सवाल हैं जो बुंदेलखंड के सात जिलों के लाखों किसानों की जिंदगी से जुड़े हैं. यह उनकी खुशहाली और उनके सपनों से जुड़े सवाल हैं. इन सवालों का संबंध उन योजनाओं के औचित्य से है जो इन जिलों में सूखे से निपटने के नाम पर चलाई जा रही हैं. इन सवालों का संबंध उन पागलपन भरी नीतियों से भी है जो सूखे से हो रही भारी तबाही के बावजूद इसकी वजहों को और बढ़ावा दे रही हैं. इसका संबंध समाज की उस उत्पीड़क व्यवस्था से भी है जो पानी की कमी को कुछ समुदायों के लिए अधिक तकलीफदेह बना रही है. सबसे बढ़कर ये सवाल सरकार की कार्यप्रणाली और जनता की भलाई को लेकर उसकी मंशा से जुड़े हुए हैं. आने वाले पन्नों में हम इन सवालों को समझने और सुलझाने की कोशिश करेंगे. हम यह भी देखने की कोशिश करेंगे कि जिस व्यवस्था पर अपनी योजनाओं के जरिए बुंदेलखंड को मिले पैकेज से लोगों को राहत दिलाने का जिम्मा है वह उसके साथ कैसे पेश आती है जो उसका लाभ उठाना चाहता है.

5000 किसानों ने पांच साल में बुंदेलखंड में आत्महत्या की है. अधिकतर मामलों की वजह किसानों द्वारा कर्ज न चुका पाना है. बांदा में 80 से अधिक और महोबा में 62 आत्महत्याओं के मामले

हमारी कहानी में जो शब्द बार-बार आएगा वह है बुंदेलखंड. लेकिन यह महज एक शब्द नहीं है. यह मध्य भारत के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैला एक विशाल पठारी इलाका है, जो लगभग श्रीलंका के बराबर है. यहां करीब 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 2 करोड़ 10 लाख की आबादी रहती है. उत्तर प्रदेश में इसके सात और मध्य प्रदेश में छह जिले आते हैं. जो जिले उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में पड़ते हैं वे हैं- झांसी, महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर और ललितपुर. बुंदेलखंड का जितना हिस्सा उत्तर प्रदेश में है उसमें दिल्ली जैसे 20 शहर समा सकते हैं. 

बुंदेल, चंदेल, छत्रसाल और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई जैसे शासकों के कारण मशहूर रहा यह इलाका अब भी आल्हा-ऊदल की यादों में जीता है. महोबा के चंदेल राजा परमाल के दरबार के इन दो योद्धाओं को महोबा ही नहीं, बुंदेलखंड के किसी भी शहर और कस्बे में निकल जाइए, आप एक मिनट के लिए भी भूल नहीं सकते. चौराहों और इमारतों पर उनकी वीरता के किस्से बताती प्रतिमाएं और प्रतीक चिह्न मिलेंगे. बाहर से आए किसी आदमी से बात करते हुए यहां के लोग आल्हा-ऊदल का जिक्र जरूर करते हैं.

अब इसमें एक चीज और जुड़ गई है – सूखा.

पिछले एक दशक से अधिक समय से बुंदेलखंड लगातार सूखा झेल रहा है. 2008 को छोड़कर जब इस इलाके में पर्याप्त बारिश हो गई थी, इस दौरान यहां औसत से बहुत कम बारिश हुई है. महोबा जैसे जिले  में तो 2008 में औसत से 66  प्रतिशत कम बारिश हुई थी. सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए. एेसे में, जब इलाके की 80 फीसदी आबादी खेती और पशुपालन से होने वाली आय पर निर्भर है, खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं.

सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही. सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है. गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में नेशनल रेनफेड एरियाज अथॉरिटी के जेएस सामरा के नेतृत्व में एक केंद्रीय टीम गठित की थी. 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के अनुसार 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 वर्ष सूखा पड़ा था. यानी इस अवधि में सूखा पड़ने का औसत हर 16 वर्ष में एक बार का था. लेकिन 1968 से लेकर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में औसतन पांच साल में एक बार सूखा पड़ने लगा. और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है.

सूखे के लंबे इतिहास को देखते हुए यहां कुछ दशक पहले तक तालाबों, कुओं और हौजों का जाल बिछा हुआ था. पानी के ये पारंपरिक स्रोत दो तरह से काम करते थे. एक तो इनसे साल भर पानी मिलता था, दूसरे बारिश का पानी इनके जरिए भूमिगत जल को बढ़ाता था. लेकिन पिछली आधी सदी से भी अधिक समय से इन ढांचों पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, जिसने इस पूरे तंत्र को ध्वस्त कर दिया. स्थानीय जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया गया और आंख मूंदकर नई तकनीक को अपनाया गया.

ललितपुर जिले में इस विडंबना का सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिलता है. यहां छोटे-बड़े कुल सात बांध और पांच निर्माणाधीन बांधों के चलते यह जिला एशिया का वह इलाका है जहां बांधों की सघनता सबसे ज्यादा है. बावजूद इसके यहां कृषियोग्य भूमि का एक छोटा-सा हिस्सा ही सिंचित हो पाता है. राजस्व विभाग के आंकड़े बताते हैं कि जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था. 

महोबा के इतिहास पर किताब लिखने वाले बुजुर्ग समाजसेवी वासुदेव चौरसिया पुराने दिनों को याद करते हैं, ‘पहले पानी की कमी होने पर लोग कुआं खोदते थे. यह पानी के उचित इस्तेमाल और फिर से रिचार्ज करने के नियम पर काम करता था. लेकिन अब झट से एक हैंडपंप लगा दिया जाता है.

अकेले महोबा शहर में ही बासुदेव चौरसिया की बात को सही ठहराने के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे. एेसे अनेक कुएं हैं जो पहले पानी के अच्छे स्रोत हुआ करते थे, लेकिन अब उनके पास हैंड पंप लगा दिए जाने के कारण वे सूख गए हैं. महोबा शहर को मदन सागर जैसे तालाबों के अलावा मदनौ और सदनौ दो कुओं से पानी मिला करता था. मदनौ कुआं अब ढक दिया गया है और सदनौ कुएं पर अतिक्रमण करके घर बना लिया गया है.

मदन सागर महोबा शहर के एक छोर पर स्थित है. यह शहर के किनारों पर बने और आपस में नहरों के जरिए जुड़े चार तालाबों में से सबसे बड़ा है, जिसपर यह शहर पीने के पानी के लिए पिछले 900 साल से निर्भर था. यह तालाब अपने इतिहास में कभी नहीं सूखा, लेकिन 2007 में वह भी सूख गया. पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए तालाब में एक नहर के जरिए मध्य प्रदेश के उर्मिल बांध से पानी लाया जाता है, पर इस साल उर्मिल बांध भी सूख गया है.

यही हाल कीरत सागर तथा दूसरे सागरों का भी है. उनको आपस में जोड़ने वाली नहरें कूड़े से भरी हुई हैं, इसलिए बाहर के पानी के तालाबों में आने की संभावना कम ही है. केवल उनके पेंदे में थोड़ा-बहुत पानी बचा रह गया है, जिससे शहर के लोगों को पानी की आपूर्ति हो रही है. अगर बारिश नहीं हुई तो कुछ दिनों में यह पानी भी खत्म हो जाएगा. तब शहर के लोगों को सिर्फ टैंकरों का आसरा रह जाएगा.

सरकारी टैंकरों की संख्या पर्याप्त नहीं होती और लोग प्रायः निजी टैंकरों पर निर्भर रहते हैं, जो महंगे पड़ते हैं. इनपरप्रतिमाह करीब 1,000-1,200 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. यह रकम आधिकारिक गरीबी रेखा के चार गुणा से थोड़ा ही कम है. जाहिर है, बहुसंख्यक आबादी के लिए टैंकर का पानी भी दुर्लभ है.

जब शहरों का यह हाल है तो गांवों में तो स्थिति और भी भयावह है. जालौन स्थित परमार्थ समाज सेवी संस्थान द्वारा लगभग 2 साल पहले जालौनबांदा, महोबा, हमीरपुर, ललितपुर, झांसी और चित्रकूट के 119 गांवों में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनमें से सिर्फ 7 प्रतिशत (आठ गांवों) में साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है. पानी के लिए महिलाओं को घंटों पैदल चल कर जाना होता है. इसके अलावा गांवों के सामंती ढांचे के कारण सूखे से दलितों और दूसरी नीची जातियों के लिए संकट और बढ़ गया है.

58% कर्ज निजी स्रोतों से लिए जाते हैं जिनमें सूदखोर भी शामिल हैं. किसानों पर 1 अरब 25 करोड़ 47 लाख रुपए का सरकारी कर्ज भी है. सहकारी समितियों ने भी एक अरब रु से अधिक का कर्ज दिया

एेसा नहीं है कि सरकार ने पेयजल पर खर्च नहीं किया है. 2008 में आई वाटरएड इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार ने बुंदेलखंड में लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने और मिट्टी के संरक्षण के लिए 2002 से 2007 के बीच 29,2.50 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. लेकिन ठीक इसी अवधि में पीने के पानी का संकट भी बढ़ा है. हम इसे उक्त रिपोर्ट में ही देख सकते हैं. उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड  के 7 जिलों के 60 गांवों में चर्च्स ऑक्जिलियरी फॉर सोशल एक्शन (कासा) तथा जनकेंद्रित विकास मंच द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक आधे से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं या बेकार पड़े हैं. इसके आंकड़ों के अनुसार 486 कुओं, 56 तालाबों में से क्रमशः 266 कुएं, 29 तालाब बेकार पड़े हुए हैं. बारिश के न होने के अलावा एक बड़ा कारण इनकी मरम्मत का न होना है.

अगर हम इस आंकड़े में कुछ और तथ्यों को जोड़ दें तो यह हमें पानी के अभाव से जुड़ी दूसरी सबसे बड़ी समस्या की ओर ले जाएगा. उक्त सर्वेक्षण हमें यह भी बताता है कि इन इलाकों की 6 नदियों और 26 नालों में से 4 नदियां और 25 नाले सूखे और बेकार पड़े हैं या उनपर अतिक्रमण हो चुका है. इस बीच सरकारी खर्च कई गुणा बढ़ा है, पर हालात और खराब हुए हैं. इसलिए आज बुंदेलखंड में पेयजल के बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या सिंचाई के पानी की है.

ललितपुर का उदाहरण हमारे सामने है ही और यदि महोबा के अर्जुन सागर बांध की हालत भी देख ली जाए तो यह साफ हो जाता है कि सरकार पैसा चाहे कितना भी खर्च करे लेकिन किसानों की वास्तविक समस्या हल हो ही यह कतई जरूरी नहीं है. यह बांध 1950 के दशक में बना था और इससे कुल 26,551 हेक्टेयर इलाके की सिंचाई हो सकती है. अप्रैल से पहले इसके फाटकों में ग्रीजिंग हो जानी चाहिए थी ताकि जब बारिश हो और पानी आए तो कोई दिक्कत न हो. लेकिन देखने से लगता है कि इसके फाटकों को वर्षों से किसी ने छुआ तक नहीं है. फाटकों और दूसरे उपकरणों में जगह-जगह जंग लगी हुई है और उन्हें देखकर ही समझ आ जाता है कि एक लंबे समय से इसकी ओर कोई सरकारी कर्मचारी फटका भी नहीं है. वैसे भी, पानी की कमी के कारण पिछले साल बांध से एक एकड़ खेत की भी सिंचाई नहीं हो सकी थी. बांध इस हद तक खाली रहता है कि इसके भीतर लोगों ने खेत बना लिए हैं. कमोबेश यही हाल दूसरी योजनाओं का भी है.

आगे की स्टोरी पढ़ने के लिए भाग दो पर जाएं.

हम इतना कैसे हंस पाते तेरे बिन लादेन?

फिल्म तेरे बिन लादेन

निर्देशक  अभिषेक शर्मा

कलाकार अली जाफर, प्रद्युम्न सिंह, सुगंधा गर्ग, पीयूष मिश्रा, निखिल रत्नपारखी, राहुल सिंह, बैरी जॉन

अनीस बज्मी, डेविड धवन, साजिद खान, रोहित शेट्टी और हेराफेरी के बाद वाले प्रियदर्शन के लिए ‘तेरे बिन लादेन’ का एक स्पेशल शो आयोजित किया जाना चाहिए ताकि अगली बार जव वे अपनी यातनामयी फिल्मों को ‘हंसी का तूफान’ (अंग्रेजी में लाफ रायट) कहकर प्रचारित कर रहे हों, तब उनकी आत्मा का एक हिस्सा उन्हें कोसे या कम से कम कचोटे ही.

तो साहेबान, ये अभिषेक शर्मा हैं जिन्हें गले से लगाने के लिए आपको अपनी सकुचाती हुई बांहें पूरी खोल लेनी चाहिए और उनसे इस बात पर रूठ जाना चाहिए कि जब हम ‘गोलमाल 2’ देख रहे थे और ‘गोलमाल 3’ बनने की खबरों से आतंकित हो रहे थे या ‘फिर हेराफेरी’, ‘पार्टनर’, ‘वेलकम’, ‘कम्बख्त इश्क’ और ‘हाउसफुल’ देखने के बाद बॉलीवुड की कॉमेडी की दुर्दशा पर आंसू बहाकर अपना फर्ज अदा कर रहे थे, तब वे क्यों नहीं आए? लेकिन रूठने के तुरंत बाद आपको चाहिए कि मुस्कुराएं और फिर फिल्म का कोई भी दृश्य याद करके ठहाका मारकर हंसें.

यह हमारे उपमहाद्वीप की अमेरिकापरस्ती और लादेन के हव्वे पर सबसे करारा व्यंग्य है. यह लादेन की सारी संकल्पना (आपको आपत्ति हो तो ‘संकल्पना’ को ‘सच’ पढ़ें) का मजाक उड़ाकर उसका डर खत्म करती है. यह अपने गानों में बार-बार नायक के अमेरिका जाने के सपने की तह में जाकर उसका मजाक उड़ाती है. इसके मुख्य पात्र अरबी में ‘….हबीबी जॉर्ज बुश’ गाते हुए नाचते हैं. यह बिना हथियार के अमेरिका के अहंकार को मारने जैसा है और आपको इसका अर्थ नहीं पता लेकिन आप जानते हैं कि ‘तले हुए पकौड़ों के शौकीन’ बुश अगर कभी इसे किसी के साथ देखेंगे तो उससे नजरें नहीं मिला पाएंगे.

यह पाकिस्तान की कहानी है और सबसे सुखद आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि हिन्दी फिल्मों की मुख्यधारा के उलट यह उसकी बात अपने देश की तरह करती है. इसके मूल में पाकिस्तान के लिए इतना अपनापन है कि यह वहां की व्यवस्था का मजाक उड़ाते समय इतनी बेपरवाह रहती है (और बदतमीज नहीं होती) जैसे अपने देश का मजाक उड़ा रही हो. पाकिस्तान में स्टेज पर राजनैतिक और सामाजिक व्यंग्यों की (जो कभी कभी फूहड़ भी हो जाते हैं) एक पूरी संस्कृति है और इस फिल्म में भी उनकी शालीन सोहबत दिखती है.

फिल्म के नकली लादेन को अपने मुर्गों से बहुत प्यार है और अगर आप फिल्म की अन्दर वाली परत में झांकेंगे तो पाएंगे कि ये वही निरीह पाकिस्तानी और अफगानी हैं जिन्हें मारने के लिए अमेरिका कई बिलियन डॉलर झोंकने को तैयार था/है. अमेरिकी फौज मुर्गों को मार भी देती है. लेकिन आखिर में आपको उस पर तरस ही आता है. कोई अच्छा राजनैतिक व्यंग्य वही काम करता है जो दस साल का तानाशाही शासन या दस लाख की फौज नहीं कर सकती. इसी तरह ‘तेरे बिन लादेन’ भी अमेरिका और लादेन, दोनों का मजाक उड़ाती है और इस तरह उन्हें फिल्म की अपनी दुनिया में ‘बेचारा’ कर देती है.

अभिषेक शर्मा, दिबाकर और कुछ-कुछ ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ तक वाले हीरानी की कतार में आ खड़े हुए हैं और खूब हंसने के इन घंटों में भी यह हंसी की बात नहीं है

गौरव सोलंकी

   

       

बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड – 2

अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है. तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक

सही है कि पूरे बुंदेलखंड में लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं – या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं- लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है. मगर पंचायतों और अधिकारियों का सारा जोर नए कुएं-तालाब खुदवाने पर अधिक रहता है. एेसा इसलिए होता कि इनमें ठेकेदारों, जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को फायदा होता है. पचपहरा के पूर्व प्रधान और महोबा के किसान नेता पृथ्वी सिंह इस प्रक्रिया को समझाते हैं, ‘मान लीजिए कि लघु सिंचाई विभाग के पास पैसा आया और उसे यह खर्च करना है. तो वे पुराने कुओं की मरम्मत पर खर्च नहीं करेंगे, क्योंकि उसमें बहुत कम खर्च आएगा. वे एक नया कुआं खोदेंगे. इसमें तीन लाख रुपए की लागत आती है. विभाग का मानक अगर 20 फुट का है तो ठेकेदार 20 फुट गहरा कुआं खोद कर चले जाएंगे. उन्हें इससे मतलब नहीं है कि इतनी गहराई पर कुएं में पानी है भी कि नहीं.

नतीजे सामने हैंः फसलें बरबाद हो रही हैं. किसान बदहाल हैं. परिवार उजड़ रहे हैं.  इसने इलाके के पुराने  गौरवों को भी अपनी चपेट में लिया है. कभी महोबा की एक पहचान यहां उगने वाले पान से भी थी. मगर दूसरी और वजहों के अलावा पानी की कमी के कारण आज शहर से जुड़ी पट्टी में इसकी खेती पूरी तरह से चौपट हो चुकी है और करीब 5 हजार परिवार  बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

यह बरबादी बहुआयामी है. अभी कुछ साल पहले तक महोबा के ही कछियनपुरवा गांव के 70 वर्षीय पंचा के पास सब-कुछ था. उनके चार बेटों और तीन बहुओं का परिवार अच्छी स्थिति में था. उनके 21 बीघा (करीब तीन एकड़) खेतों ने कभी साथ नहीं छोड़ा था. लेकिन पिछले दस साल में सब-कुछ बदल गया. पहले पानी बरसना कम हुआ, इसके बाद बारी आई फसलों के सूखने की. इतनी लंबी उमर में उन्होंने जो नहीं देखा था वह देखा- गांव के पास से गुजरती चंद्रावल नदी की एक नहरनुमा धारा सूख गई, लोगों के जानवर मरने लगे. घरों पर ताले लटकने लगे. अब तो उनकी बूढ़ी आंखों को किसी बात पर हैरत नहीं होती, पिछले साल कुआर’ (अगस्त-सितंबर) में 16 बीघे में लगी अपनी उड़द की फसल के सूखने पर भी नहीं.

दो दिनों से आसमान में बादल आ-जा रहे हैं और धूप न होने का फायदा उठाते हुए वे अपने छप्पर की मरम्मत कर रहे हैं. उनकी उम्मीद बस अब अच्छे मौसम पर टिकी है. जितना उन्होंने देखा और समझा है उसमें पंचायत और सरकार से कोई उम्मीद नहीं रह गई है. वे बताते हैं, ‘जब फसल सूखी तो हमें बताया गया कि सरकार इसका मुआवजा दे रही है. चार महीने चरखारी ब्लॉक के चक्कर लगाने के बाद मुझे दो हजार रुपए का चेक मिला. यह तो फसल बोने में लगी मेरी मेहनत जितना भी नहीं है. क्या 16 बीघे की उड़द को आप 20 दिनों की मेहनत में उपजा सकते हैं?’

आज उनका घर बिखर-सा गया है. उनके चारों बेटे पंजाब में रहते हैं. दो बहुएं घर छोड़कर किसी और के साथ जा चुकी हैं. उनकी जमीनें अब साल-साल भर परती पड़ी रहती हैं. 

हमारे आग्रह पर उनकी पत्नी बैनी बाई शर्माते हुए बारिश या सूखे से जुड़ा कोई गीत याद करने की कोशिश करती हैं, लेकिन शुरू करते ही उनकी सांस उखड़ने लगती है. सांस उखड़ने की यह बीमारी उन्हें लंबे समय से है, जिसका इलाज वे चार साल से सरकारी डॉक्टर के यहां करा रही हैं. उन्हें बारिश के साथ एक अच्छे (लेकिन सस्ते) डॉक्टर का भी इंतजार है जो इस बीमारी को ठीक कर दे. इसके बावजूद कि राशन के कोटेदार ने पिछले सवा दो साल में पंचा को सिर्फ एक बार 20 किलो गेहूं और 2 लीटर मिट्टी का तेल दिया है, और इस बात को भी आठ माह हो चुके हैं, वे पूरी विनम्रता से मुस्कुराते हैं. आप उनकी मुस्कान की वजहें नहीं जानते लेकिन उनमें छिपी एक गहरी पीड़ा को जरूर महसूस कर सकते हैं.

पंचा थोड़े अच्छे किसान माने जा सकते हैं क्योंकि उनके पास करीब तीन एकड़ खेत हैं. लेकिन बुंदेलखंड में एेसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जिनके पास या तो बहुत कम जमीन है या वे भूमिहीन हैं. उनके पास दूसरों के खेतों में काम करने का विकल्प भी नहीं बचा है, क्योंकि खेती का सब जगह ऐसा ही हाल है. तब वे पलायन करते हैं और दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों के निर्माण कार्यों तथा कानपुर के ईंट-भट्ठों में जुट जाते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और पानी के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले और एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब लिखने वाले अनुपम मिश्र इस पर तंज स्वर में कहते हैं, ‘अगर सूखे और अकाल की स्थितियां न होतीं तो राष्ट्रमंडल खेल कैसे होते भला!

महोबा स्थित एक एनजीओ कृति शोध संस्थान की एक टीम ने जब इस साल फरवरी में जिले के आठ गांवों का दौरा किया तो पाया कि यहां के कुल 1,689 परिवारों में से 1,222 परिवार पलायन कर चुके हैं. इनमें से 269 घरों पर ताले लटके हुए थे जबकि 953 परिवारों के ज्यादातर सदस्य दूसरी जगह चले गए थे.

लोगों ने पलायन करने को नियम बना लिया है. वे जून-जुलाई में गांव लौटते हैं और इसके बाद फिर काम की अपनी जगहों पर लौट जाते हैं. उनके गांव आने की दो वजहें होती हैं. वे या तो किसी शादी में शामिल होने के लिए आते हैं या बारिश की उम्मीद में.

बिंद्रावन अभी एक हफ्ते पहले गांव से लौटे हैं. महोबा के खरेला थाना स्थित पाठा गांव के रहने वाले बिंद्रावन पूर्वी दिल्ली में रहते हैं, सीलमपुर के पास गोकुलपुरी के एक छोटे और संकरे-से दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर. उनकी पत्नी फिलहाल थोड़ी बीमार हैं, इसलिए वे थोड़े चिंतित दिख रहे हैं.

64% वन खत्म हो चुके हैं. बारिश की कमी के पीछे यह बड़ा कारण है. बुंदेलखंड के सातों जिलों में 10 करोड़ पौधे लगाने की योजना सरकार चला रही है, पर इसकी सफलता पर संदेह जताया जा रहा है

वे यहां पिछले 6 साल से हैं और दिल्ली नगर निगम के तहत राजमिस्त्री का काम करते हैं. इससे उन्हें रोज 225 रुपए मिलते हैं. उनकी पत्नी भी कभी-कभी काम करती हैं और उन्हें 140 रुपए मिल जाते हैं. दोनों मिला कर महीने में लगभग सात हजार रुपए कमा लेते हैं.

लेकिन उनके लिए इस आमदनी से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके खर्च का ब्योरा है. वे इस रकम से 1,300 रुपए कमरे और बिजली के किराए के रूप में दे देते हैं. 1,000 रुपए अपने बच्चों की फीस और किताबों पर खर्च होते हैं. 3,000 रुपए हर महीने वे राशन पर खर्च करते हैं. 1,000 रुपएहर माह जेल में बंद उनके एक रिश्तेदार पर खर्च हो जाते हैं. अगर कोई बीमार नहीं पड़ा-जिसकी संभावना कम ही होती है- तो वे महीने में 700 रुपए बचा सकते हैं.  

लेकिन यह आमदनी बहुत भरोसे की नहीं है. बारिश के दिनों में काम कई दिनों तक ठप रहता है. बिंद्रावन अपनी आय में कुछ और बचत कर सकते थे, अगर उन्हें राशन की सस्ते दर की दुकान से राशन मिलना संभव होता, दिल्ली में चलने पर गाड़ियों में कुछ कम पैसे देने होते, बीमारी के इलाज पर उन्हें हर महीने एक-दो हजार रुपए खर्च नहीं करने होते और सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी अच्छी होती कि उनमें भरोसे के साथ बच्चों कोे पढ़ाया जा सके. तब वे अपने पिता के सिर से कर्ज का बोझ उतारने में उनकी मदद कर सकते थे. बिंद्रावन ने 7 साल पहले जब गांव छोड़ा तो उनके पिता के ऊपर कर्ज था. उनके पिता पर आज भी कर्ज है, क्योंकि उन्हें अपने 6 बीघे खेतों से उम्मीद बची हुई है.

एक किसान आसानी से अपने खेतों से उम्मीद नहीं छोड़ता. तब भी नहीं जब दस साल से बारिश नहीं हो रही हो और लगातार कर्जे के जाल में फंसता जा रहा हो. लेकिन तब एेसा क्यों है कि उनका भरोसा चुकता जा रहा है?

सुंदरलाल का नाम उस सूची में 62वें स्थान पर है जिसे महोबा के एक किसान नेता और पचपहरा ग्राम के पूर्व प्रधान पृथ्वी सिंह ने 2008 में बनाना शुरू किया था. पिछले पांच सालों में अकेले इस जिले में 62 लोगों ने आत्महत्या की है. बांदा के एक सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र के अनुसार पूरे बुंदेलखंड के लिए यह संख्या 5,000 है. आत्महत्या करने वाले किसानों में सिर्फ भूमिहीन और छोटे किसान ही नहीं हैं, वे किसान भी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति एक समय अच्छी थी और जिनके पास काफी जमीन भी थी. आत्महत्या करने की उनकी वजहों में सबसे ऊपर बैंकों का कर्ज चुका पाने में उनकी नाकामी है. पृथ्वी सिंह कहते हैं, ‘किसान यहां अकसर ट्रैक्टर या पंपिंग सेट के लिए कर्ज लेते हैं. लेकिन जमीन में पानी ही नहीं है, इसलिए प्रायः पंपिंग सेट काम नहीं करता. किसानों के घर में जब खाने को नहीं होता तब बैंक उन्हें अपना कर्ज लौटाने पर मजबूर करते हैं. मजबूरन कई जगह किसान उसे लौटाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेते हैं और एक दूसरे तथा और बुरे जाल में फंस जा रहे हैं.

बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी हालांकि उतने बड़े किसान भी नहीं हैं. उनके पास करीब 9 बीघा जमीन है. उन्हें ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थी, लेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए 2 लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए. फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत वैसे भी खस्ता थी और ट्रैक्टर ने उनकी आय में कोई वृद्धि नहीं की थी, इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे. आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए. इसके पहले बैंक ने उनसे 1 लाख 25 हजार रु की वसूली का नोटिस जारी किया था. ट्रैक्टर छीने जाने के बाद बैंक ने जब बकाया राशि की रिकवरी का आदेश जारी किया तो तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी. इसमें कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आए. बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर 1 लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था.      

दो साल बाद जब सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की तो बुंदेलखंड भी इसमें शामिल था. तिवारी ने इसके लिए आवेदन किया. कुछ ही दिनों बाद तिवारी भी उन सौभाग्यशाली किसानों की सूची में शामिल थे जिनके कर्ज मानवीय चेहरेवाली केंद्र सरकारने माफ किए थे. तिवारी के लिए भले न हो आपके लिए उस रकम के बारे में जानना महत्वपूर्ण हो सकता है. वह रकम थी 525 रुपए.

यह मजाक था. लेकिन तिवारी को इसे सहना पड़ा. उन्होंने अपने साथ हुए इस अपमानजनक व्यवहार के बारे में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखा है. उन्हें हाल ही में कृषि मंत्रालय का जवाब भी मिला है जिसमें कहा गया है कि उनके मामले पर विचार किया जा रहा है.

पुष्पेंद्र कर्ज देने की इस पूरी प्रक्रिया को ही किसानों के लिए उत्पीड़क बताते हैं. उनका कहना है कि किसानों को सहायता के नाम पर ट्रैक्टर के लिए कर्ज थमा दिए जाते हैं जबकि अधिकतर किसानों को न तो ट्रैक्टर की जरूरत होती है न उन्होंने इसकी मांग की होती है. वे इसे बैंक और ट्रैक्टर एजेंसी के लाभों की संभावना से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘एक ट्रैक्टर के लिए दिए जाने वाले कर्ज पर बैंक मैनेजर 20 से 40 हजार रुपए, ट्रैक्टर एजेंसी के दलाल 10 से 20 हजार रुपए और ट्रैक्टर एजेंसी 40 से 60 हजार रुपए कमीशन लेते हैं. इस तरह किसान से 1 लाख रुपए तो कमीशन के रूप में ही ले लिए जाते हैं. इस तरह किसान को वह राशि तो अपनी जेब से चुकानी ही पड़ती है, उस पर सूद भी देना पड़ता है, जो उसे कभी मिली ही नहीं.यह एेसे होता है कि एजेंसी कर्ज की राशि में ट्रैक्टर के साथ हल-प्लाऊ जैसे अनेक उपकरण भी जोड़ लेती है, लेकिन उन्हें किसानों को दिया नहीं जाता. इसके अलावा कई बार बीमा और स्टांप के नाम पर भी किसानों से नकद राशि ली जाती है. अगर किसान के पास पैसे न हों तो उन्हें एजेंट नकद कर्ज भी देते हैं.

दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की असलियत कर्ज माफी और संस्थागत ऋणों की इस कहानी से अलग नहीं है.

75-80% आबादी गांवों से पलायन करती है. यह प्रायः  जुलाई-अगस्त में शुरू होता है.  इनमें भूमिहीन किसान भी हैं और जमीनवाले भी. इस दौरान गांवों में सिर्फ महिलाएं और वृद्ध रह जाते हैं

नरेगा को ही लेते हैं. नरेगा की राष्ट्रीय वेबसाइट पर 2009-10 के लिए हमीरपुर जिले के भमई निवासी मूलचंद्र वर्मा के जॉब कार्ड (UP-41-021-006-001/158) के बारे में पता लगाएं. वेबसाइट बताती है कि 1 मई 2008 से 25 अप्रैल 2010 तक उनको 225 दिनों का काम मिल चुका है. लेकिन मूलचंद्र के कार्ड पर इस पूरी अवधि में सिर्फ 16 दिनों का काम चढ़ा है. हालांकि वे जो ज़बानी आंकड़े देते हैं उनसे साइट के आंकड़ों की  कमोबेश पुष्टि हो जाती है. पुष्टि नहीं होती तो भुगतान की गई रकम की. मूलचंद्र का दावा है कि उन्होंने नरेगा के तहत 3 साल में 300 दिनों का काम किया है. उन्हें अब तक 18,300 रुपए का भुगतान किया गया है. वे अपने बाकी 11,300 रुपए के लिए पिछले तीन-चार महीनों से भाग-दौड़ कर रहे हैं. लेकिन यह नहीं मिली है. वे कहते हैं कि प्रधान और पंचायत सचिव उनसे नरेगा के तहत काम करवाते हैं लेकिन उसे जॉब कार्ड पर दर्ज नहीं करते, ‘2008 से लेकर अब तक मैंने 300 दिनों का काम किया है. लेकिन यह मेरे कार्ड पर दर्ज नहीं है. उन्होंने मेरे खाते में रकम जमा भी कराई है, लेकिन जो रकम बाकी है उसका भुगतान वे नहीं कर रहे हैं.

वे प्रदेश की मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं. लेकिन अब तक उन्हें यह रकम नहीं मिल पाई है. पैसे के अभाव में वे अपनी बीमार बेटी का इलाज तक नहीं करा सके और वह मर गई. इसके उलट भमई की प्रधान उर्मिला देवी बताती हैं, ‘मूलचंद्र झूठ बोल रहे हैं. उन्हें पूरी रकम दी जा चुकी है.लेकिन तब भी जॉब कार्ड और उनके अपने आंकड़ों में इतना भारी अंतर बताता है कि कुछ गड़बड़ है. और यह गड़बड़ी एेसी नहीं है कि इसे खोजना पड़े. यह सतह पर दिखती है. अधिकतर शिकायतें प्रधानों के रवैए को लेकर हैं. वे नरेगा की रकम को कर्ज के रूप में देते हैं और जॉब कार्ड पर काम कराकर उसे ब्याज समेत वसूलते हैं. प्रायः वे  अपने नजदीकी लोगों को काम पर रखते हैं. अगर किसी तरह काम मिल जाए तो प्रायः 100 दिनों की गारंटी पूरी नहीं होती. ये सारी धांधलियां इस तरह की जाती हैं कि कोई भी उन्हें पकड़ सकता है. तहलका को उपलब्ध दस्तावेज दिखाते हैं कि साल में सौ दिन से अधिक काम दिए गए हैं और मर चुके लोगों के नाम पर भी भुगतान किए गएहैं.

महोबा जिला हाल के कुछ दिनों में नरेगा में भारी भ्रष्टाचार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा है. शायद यह अकेला जिला है जहां 52 प्रधानों से रिकवरी का ऑर्डर हुआ है. नरेगा के नियमों के तहत जितना खर्च होना चाहिए उससे 20 गुना अधिक खर्च की भी घटनाएं सामने आई हैं. जिले में मुख्य विकास अधिकारी समेत सात बड़े प्रशासनिक अधिकारी नरेगा में भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित हुए हैं.

लेकिन महोबा के मौजूदा मुख्य विकास अधिकारी रवि कुमार के लिए यह बहुत परेशानी की बात नहीं है. वे कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार तो ग्लोबल फिनोमेना है. इसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता. दरअसल, इसमें पंचायतों को इतना पैसा खर्च करने के लिए दे दिया जाता है कि वे समझ नहीं पातीं कि क्या करना है.वे चाहते हैं कि पंचायती राज के नियमों की समीक्षा की जाए, क्योंकि इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं.

सवाल कुछ और भी हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों की पर्सपेक्टिव नाम की एक टीम अक्तूबर 2009 में बुंदेलखंड गई थी. इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम ने इसे रेखांकित किया है कि नरेगा जैसी योजना, जो सामान्य स्थितियों में गांव के एक सबसे वंचित हिस्से को राहत मुहैया कराने के लिए बनाई गई है, वह एेसे संकट के समय सारी आबादी को संकट से नहीं उबार सकती.

और एेसे में जब केंद्र सरकार ने सामरा रिपोर्ट में सिफारिश किए जाने के दो साल की देरी के बाद 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया है, जिसमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे, तो उम्मीद से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. ये चिंताएं बड़ी राशि की प्रधानों और अधिकारियों द्वारा लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह राशि भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी अब तक हमने पढ़ी है.

ये चिंताएं कितनी वाजिब हैं, इनका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पैकेज मिलने के तीन महीने के भीतर मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में 11 योजनाएं पूरी कर ली गई हैं और पिछले छह महीने में 36 योजनाओं को पूरा किया गया है. पैकेज गांवों में रोजगार और काम पर कितना सकारात्मक असर डाल रहा है, इसके संकेत के तौर पर हम कुतुब (महाकौशल एक्सप्रेस) से दिल्ली लौटने वालों की भारी भीड़ के रूप में भी देख रहे हैं. योजनाएं तेजी से पूरी हो रही हैं, उस समय भी जब लोग गांवों में नहीं हंै. वे काम की अपनी पुरानी जगहों पर लौट रहे हैं.

इसीलिए रामकली को उम्मीद नहीं है कि यह पैकेज उनकी कोई मदद कर सकता है. वे कानपुर में ईंट भट्ठे पर अपने बेटे और बहू के पास जाने की सोच रही हैं.

(तारा पाटकर के सहयोग के साथ)

‘वे इतिहास को वल्गराइज कर रहे हैं’

मध्यकालीन भारत पर दुनिया के सबसे बड़े विशेषज्ञों में गिने जाने वाले इरफान हबीब आजकल भारत के जन इतिहास शृंखला पर काम कर रहे हैं. इसके तहत दो दर्जन से अधिक किताबें आ गई हैं. रेयाज उल हक के साथ बातचीत में वे बता रहे हैं कि किस तरह इतिहासकारों के लिए वर्तमान में हो रहे बदलाव इतिहास को लेकर उनके नजरिए को भी बदल देते हैं

क्रिस हरमेन का ‘’विश्व का जन इतिहास’ और हावर्ड जिन का ’’अमेरिका का जन इतिहास’  काफी चर्चित रहे हैं. भारत के इतिहास के बारे में यह विचार कैसे आया?

दस साल हुए, जब यह खयाल पैदा हुआ कि भारत का जन इतिहास लिखा जाना चाहिए. तब भाजपा मनमाने तरीके से इतिहास को तोड़-मरोड़ रही थी. उन दिनों हमने इसपर काम शुरू किया. हमें मध्य प्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम ने इसके लिए अनुदान दिया था. शुरू में इसे मूलत: शिक्षकों के पढ़ने के लिए तैयार करना था. हम इसके जरिए एक नैरेटिव देना चाहते हैं. इसमें हम उन चीजों को भी रख रहे हैं जिनसे असहमति है. इसका आम तौर से ख्याल रखा जाता है कि एक समग्र दृश्य उभरे.

एक आम पाठक के लिए जन इतिहास और आम इतिहास में क्या फर्क होता है?

जन इतिहास में हम सभी पहलुओं को लेने की कोशिश करते हैं. भारत में राज्य काफी महत्वपूर्ण हुआ करता था. यह सिर्फ शासक वर्ग का संरक्षक ही नहीं था बल्कि वह उसकी विचारधारा का भी संरक्षक था. जाति यही विचारधारा है. जाति इसीलिए तो चल रही है कि उत्पीड़ितों ने भी उत्पीड़कों की विचारधारा को अपना लिया- उनकी बातें मान लीं. इस तरह विचारधारा भी महत्वपूर्ण होती है. हमारे यहां औरतों की जिंदगी के बारे में कम सूचना है. हालांकि उनके बारे में हम बहुत कम बातें जानते हैं, पर इसकी तुलना में भी उनपर कम लिखा गया. हमारी पुरानी संस्कृति में बहुत सारी खराबियां भी थीं. जन इतिहास इनपर विशेष नजर डालने की कोशिश है. भारत का इतिहास लिखना आसान है. थोड़ी मेहनत करनी होती है- और वह तो कहीं भी करनी होती है. मध्यकालीन भारत के लिए ऐतिहासिक स्रोत काफी मिलते हैं. प्राचीन भारत के लिए शिलालेख मिलते हैं, जिनकी डेटिंग बेहतर होती है. इतिहास के मामले में भारत बहुत समृद्ध रहा है. लेकिन यहां बहुत-से शर्मिंदगी भरे रिवाज भी रहे हैं जैसे दास प्रथा आदि. इस श्ृंखला में इन सब पर विस्तार से विचार किया जा रहा है.

भारत का जन इतिहास क्या देश के बारे में नजरिए में कोई बदलाव लाने जा रहा है?

इतिहास लेखन का मकसद नई खोज करना नहीं है. बहुत सारी चीजों पर अकसर लोगों की नजर नहीं जाती. जैसे तकनीक का मामला है. मध्यकालीन समाज में हमारे देश में कैसी तकनीक थी. तब खेती कैसे होती थी, क्या उपकरण इस्तेमाल होते थे. इन पहलुओं पर नहीं लिखा गया है अब तक. इसी तरह बौद्ध-जैन परंपराओं पर इतिहास में उतना ध्यान नहीं दिया गया. गुलाम कैसे रहते थे, इसके बारे में भी इतिहास में नहीं लिखा गया. जन इतिहास इन सबको समेट रहा है.

इतिहास का अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति जैसे दूसरे अनुशासनों के साथ संवाद लगातार बढ़ रहा है. इससे इतिहास लेखन  कितना समृद्ध हो रहा है?

अर्थशास्त्र पर कौटिल्य की एक किताब है. अब उस किताब को समझने के कई तरीके हो सकते हैं. हम उसे अपने तरीके से समझते हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा नजरिया ही सही है. गुंजाइश तो रही है हमेशा नए विचारों की. ऐसे नए पहलू हमेशा सामने आते रहेंगे जिनपर नजर नहीं डाली गई और जिनपर काम होना है.

भारत में पूंजीवादी विकास की बहस अब भी जारी है. मध्यकाल पर और पूंजीवाद में संक्रमण पर आपका भी अध्ययन रहा है. देश में पूंजीवाद का विकास क्यों नहीं हो पाया? इसमें बाधक ताकतें कौन-सी रहीं?

पूंजीवाद का विकास तो पश्चिम यूरोप के कुछ देशों में ही हुआ. चीन, रूस, अफ्रीका और यूरोप के भी बहुत सारे देशों में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया. हम यह नहीं कह सकते कि इसके लिए सिर्फ भारत ही दोषी है कि यहां पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया. पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के विकास में अनेक बातों का योगदान था. वहां तकनीक का विकास हुआ, विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति हुई. उपनिवेशवाद के कारण उन देशों को फायदा पहुंचा- इन सब बातों से वहां पूंजीवाद का विकास हो सका. अब हर मुल्क में तो वैज्ञानिक क्रांति नहीं होती. हर मुल्क में कॉपरनिकस पैदा नहीं होता. हां, लेकिन ऐसे तत्व भारत में मौजूद थे, जो देश को पूंजीवाद के विकास की तरफ ले जा सकते थे. मध्यकाल के दौरान यहां व्यापार था, लेन-देन था, बैंकिंग व्यवस्था थी, जिसे हुंडी कहते थे, बीमा की व्यवस्था मौजूद थी. लेकिन इनसे व्यापारिक पूंजीवाद ही आ सकता है. इसमें अगर श्रम की बचत करने की व्यवस्था बनती तो पूंजीवाद विकसित हो सकता था. इसके लिए विज्ञान और विचारों में विकास की जरूरत थी- जो यहां नहीं थे. तकनीक की तरफ भी ध्यान देना चाहिए था. अकबर हालांकि नई खोजों में रुचि दिखाता था. उसने उन दिनों वाटर पूलिंग जैसी तकनीक अपनाई थी. शिप कैनाल तकनीक का विकास उसने किया. दरअसल, जहाज बनाने के बाद उसे नदी के जरिए समुद्र में ले जाने में दिक्कत आती थी. लाहौर में जहाज के लिए लकड़ी अच्छी मिलती थी. लेकिन वहां से उसे समुद्र में ले जाना मुश्किल था. तो अकबर ने कहा कि जहाज को जमीन पर मत बनाओ. उसने शिप कैनाल विधि का विकास किया. यह 1592 की बात है. यूरोप में भी इसका इस्तेमाल सौ साल बाद हुआ. पानी ठंडा करने की विधि भी भारत में ही थी, यूरोप में नहीं. पर जो तकनीकी विकास इसके साथ होना चाहिए था वह यूरोप में हुआ और उसका कोई मुकाबला नहीं है.

एक इतिहासकार का काम अतीत को देखना होता है. लेकिन क्या वह भविष्य को भी देख सकता है?

नहीं. इतिहासकार भविष्य को नहीं देख सकता. बल्कि कभी-कभी तो इसका उल्टा होता है. जैसे-जैसे इतिहास का तजरबा बढ़ता जाता है, इतिहासकार इसे दूसरी तरह से देखने लगता है. जैसे फ्रांस की क्रांति हुई. वहां किसानों ने 33 प्रतिशत जमींदारों की जमीनें छीन लीं. इसपर 19वीं सदी में बहस चलती रही कि यह बहुत बड़ी कार्रवाई थी. हालांकि तब भी 66 प्रतिशत जमींदार बच रहे थे. लेकिन जब रूस में अक्तूबर क्रांति हुई तो वहां सभी जमींदरों की जमीनें छीन ली गईं. इसके आगे देखें तो फ्रांस की क्रांति में 33 प्रतिशत जमींदारों को खत्म करने की घटना कितनी छोटी थी. लेकिन इतिहासकार उसके आगे नहीं देख पाए. वे ये संभावनाएं नहीं देख पाए कि सौ प्रतिशत जमींदारी खत्म की जा सकती है. जैसे-जैसे मानव का विकास होता है तो इतिहास का भी विकास होता है. जैसे अब इतिहास में महिलाओं के आंदोलन या उनपर हुए जुल्मों को देखना शुरू किया गया है. जाति के नजरिए से भी इतिहास को देखा जाने लगा है. पहले मुसलिम दुनिया को पिछड़ा माना जाता था, लेकिन इतिहास के विकास के साथ यह सिद्ध होता जा रहा है कि मुसलिम दुनिया भी पीछे नहीं थी. मैंने ‘द एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया’ में महिलाओं के बारे में नहीं लिखा है. लेकिन अब अगर वह किताब लिखूंगा तो यह मुमकिन नहीं कि उनके श्रम और उनकी गतिविधियों के बारे न लिखूं. महिलाएं तब भी मेहनत करती थीं, लेकिन आज की तरह ही उनकी मेहनत का भुगतान तब भी नहीं होता था. उनकी आय मर्दों में शामिल हो जाती थी. ये हालात आज भी हैं. यह ठीक है कि मुझे इन सबके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन मुझे इनपर कहना चाहिए था. जन इतिहास में इन सब पर विस्तार से लिखा जा रहा है. ये सारी बातें और तथ्य वर्तमान के आंदोलनों से उभरकर सामने आ रहे हैं. इस तरह हम यह भी देख रहे हैं कि इतिहास पर वर्तमान का बहुत असर होता है.

आपने हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों (सबऑल्टर्न इतिहासकारों) को  ‘त्रासदियों के प्रसन्न इतिहासकार’  (हैपी हिस्टोरियन)  कहा है. सबऑल्टर्न इतिहासकारों के काम करने का तरीका क्या है? वे इतिहास पर किस तरह का प्रभाव डाल रहे हैं?

वे मुझे कभी प्रभावित नहीं कर पाए. सबऑल्टर्न इतिहासकारों के यहां वर्ग नहीं हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग और उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं. उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एलीट) हैं, जिनके खिलाफ भारतीय अभिजात खड़े हैं.
जब हम इतिहास और समाज को इस तरह देखने लगते हैं तो जनता का पूरा उत्पीड़न गायब हो जाता है, उद्योगों की बरबादी और उनकी संभावनाओं को जिस तरह तबाह किया गया वह गायब हो जाता है. बस बचते हैं तो अंग्रेेज- जो अत्याचार कर रहे हैं और गरीब किसान और जमींदार जो अंग्रेजों के जुल्म के मारे हुए हैं. लेकिन इसमें उस गरीब किसान और जमींदार के बीच के अंतर्विरोध को नहीं देखा जाता. इसीलिए मैं कहता हूं कि वे (सबऑल्टर्न इतिहासकार) इतिहास को वल्गराइज कर रहे.                                                

लाल सलाम का बेरंग सिनेमा : रेड अलर्ट

फिल्म   : रेड अलर्ट
निर्देशक : अनंत महादेवन
कलाकार : सुनील शेट्टी, सीमा बिस्वास, समीरा रेड्डी

आप सुनील शेट्टी से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते और करते हैं तो यह शुद्ध अत्याचार ही होगा. उनके चेहरे पर इतने जटिल भाव एक साथ थे और अगर आपको उनके कृत्रिम-सी बेवकूफी वाले किरदार पर हंसी आती है तो यह उनका नहीं, कहानी और डायलॉग लिखने वाले लोगों का दोष है. नक्सलियों की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में गुस्से, प्रतिशोध, दुख या क्रांति का एक भी डायलॉग ऐसा नहीं जो आपको जरा भी परेशान करे और इसीलिए इतना खूबसूरत जंगल और बढ़िया सिनेमेटोग्राफी बिल्कुल बेकार चली गई है. न ही कोई बड़ा तनाव या दुविधा है. कुछ वर्षों से फिल्मों में कंक्रीट के जंगल देखने की आदत पड़ने के बाद यह सच्चा जंगल आपको देर तक याद रहता है और यही इस फिल्म की एक सफलता है. नसीरुद्दीन शाह ने न जाने क्यों एक छोटा-सा रोल किया है और वे इतने सतही डायलॉग बोलते हैं कि उनकी दमदार एक्टिंग ओढ़ी हुई लगने लगती है. सीमा बिस्वास ही हैं जो उस कमजोरी में से भी अपना मजबूत रास्ता बना लेती हैं.

बेवकूफियां बहुत हैं. एक लड़की, जिससे रात भर पुलिसवालों ने बलात्कार किया है, उसे छुड़ाकर लाने के बाद हीरो उससे पूछता है कि उसे बंद क्यों किया गया था. चूंकि निर्देशक को दर्शकों को कहानी बताने का यही एक तरीका पता है, इसलिए वह अपनी व्यथा सुनाती है और एक-दो मिनट बाद मुस्कुराते हुए पूछती है कि ‘क्या तुम्हारी शादी हो गई?’ हीरो शर्मा जाता है क्योंकि उसकी जिन भाग्यश्री से शादी हुई है उनके पास बच्चों की फीस के पैसे और खाने को अनाज नहीं है, लेकिन वे हर रात सज-धज कर गजरा लगाकर सो रही होती हैं और अपने हर दृश्य में एक ही भाव से रात को लौटे पति का स्वागत करती हैं. सुनील शेट्टी एलान करते हैं कि अब फलां आदमी को मारना ही होगा और फिर उसे मारने का लंबा दृश्य आता है.

फिल्म राजनीतिक रूप से जंगल में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे लोगों के साथ है और अच्छी बात यह है कि उसके पास इसके लिए तर्क हैं. वह इतनी हिम्मत करती है कि पुलिस को आदिवासी गांवों में अत्याचार करते दिखा सके और नक्सलियों को किसी स्कूल में छिपे पुलिसवालों पर हमला करने से पहले बच्चों को बाहर निकालने की फिक्र करते हुए दिखा सके. मुख्यधारा की कोई फिल्म यह कहानी चुनकर उसका विद्रोही संस्करण दिखा रही हो, इस मल्टीप्लेक्सीय समय में यही बहुत है. हां, फिल्म उस दुनिया और पूरी लड़ाई को उसी रूप में जानती है जिस रूप में रोज अखबार पढ़ने वाला कोई भी आदमी जानता होगा. उससे गहरी एक भी परत नहीं. लेकिन फिल्म अंत में बदलाव के लिए नया रास्ता चुनने के संदेश की घुट्टी पिलाने की कोशिश करती है और अपने मूल रास्ते से भटककर अंधेरे में खो जाती है. शायद सुख-शांति से रिलीज हो पाने के लिए यह जरूरी भी रहा हो. 

जूते कहां उतारे थे…

उड़ान पिछले 16 साल में पहली ऐसी भारतीय फिल्म है जिसे कांस फिल्म महोत्सव की प्रतियोगी श्रेणी में दिखाने के लिए चुना गया. छोटे बजट की इस बड़ी फिल्म के बारे में बता रहे हैं गौरव सोलंकी

यह छोटे बजट की एक फिल्म की मजबूरी भी कही जा सकती है, लेकिन यदि बड़े होर्डिंग या टीवी पर आने वाले ट्रेलरों की फ्रीक्वेंसी आपके लिए फिल्म का स्तर पूरी तरह तय नहीं करते तो कई वजहें हैं कि आप इसे साल की कुछ बड़ी फिल्मों में से एक मान लें

34 साल के विक्रमादित्य मोटवाने चुप रहना ही पसंद करते हैं. वे चाहते हैं कि इंटरव्यू के सवाल उन्हें भेज दिए जाएं और वे लिखकर जवाब दें. इसी तरह उनका काम भी अपनी तारीफों के पुल पहले नहीं बांधता और अपने देखे जाने का इंतज़ार करता है. पिछले कई महीनों से हमारी इंद्रियों पर चाहे-अनचाहे बरस रहे काइट्स, राजनीति और रावण के प्रमोशन के उलट उनकी पहली फिल्म ‘उड़ान’ के पास इसीलिए एक सभ्य खामोशी है. यह छोटे बजट की एक फिल्म की मजबूरी भी कही जा सकती है, लेकिन यदि बड़े होर्डिंग या टीवी पर आने वाले ट्रेलरों की फ्रीक्वेंसी आपके लिए फिल्म का स्तर पूरी तरह तय नहीं करते तो कई वजहें हैं कि आप इसे साल की कुछ बड़ी फिल्मों में से एक मान लें.

उड़ान पिछले 16 साल में पहली ऐसी भारतीय फिल्म है, जिसे कांस फिल्म महोत्सव की ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में दिखाने के लिए चुना गया. यह कांस की प्रतियोगी श्रेणी है जिसमें दुनिया भर की मौलिक और अलग फिल्में ही चुनी जाती हैं. निर्देशक विक्रमादित्य ने जब ‘उड़ान’ का आइडिया 2003 में अनुराग कश्यप को सुनाया था तो अनुराग ने कहा था कि इसे मेरे सिवा कोई प्रोड्यूस नहीं कर सकता. यह मजाक था पर बाद में मजाक नहीं रहा. उड़ान साल दर साल स्थगित होती रही. दोनों ‘देव डी’ लिखने के दौरान साथ थे और तब तक उड़ान को कोई निर्माता नहीं मिला था. ‘देव डी’ के बाद अनुराग एक बड़े दर्शक-वर्ग के बीच पहचाने जाने लगे थे और इसलिए परिस्थितियां पहले से कुछ सहज हो गई थीं. अनुराग ने तय किया कि वे ही इसके निर्माता बनेंगे, क्योंकि यह कहीं न कहीं जिस तरह विक्रमादित्य की कहानी थी, उसी तरह अनुराग की भी थी. 

उड़ान सोलह-सत्रह साल के एक लड़के की कहानी है जो बोर्डिंग में आठ साल गुजारने के बाद अपने घर लौटता है. जमशेदपुर के अपने घर में उसे ऐसे पिता के साथ रहना है जो ‘पापा’ की बजाय ‘सर’ कहलवाना पसंद करते हैं. बॉलीवुड में जहां पिता-पुत्र के रिश्ते की कहानियां गिनी-चुनी हैं वहीं किशोर मन की कहानियां भी. आप हिंदी फिल्मों की लिस्ट को छानेंगे तो किशोर कहानियों के नाम पर ‘मेरा पहला-पहला प्यार’ जैसी प्रेम-कहानियां दिखेंगी जो परंपरागत प्रेम-कहानियों से सिर्फ इसलिए अलग हैं क्योंकि उनके नायक-नायिका कॉलेज की बजाय स्कूल में पढ़ते हैं या फिर ‘एक छोटी-सी लव स्टोरी’. यह अपनी महत्वाकांक्षाओं के अपमान को हर समय अपने माथे पर रखकर भीतर की सतह पर जमते जाने वाले आक्रोश की कहानी है. कुछ नायकीय नहीं, वही सादी कहानी जो उस उम्र में हममें से बहुत लोग जीते हैं. यही सादगी ‘उड़ान’ की सबसे बड़ी खासियत है. यह उस प्रक्रिया की रिकॉर्डिंग है जिसमें एक लड़का आदमी बनता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विक्रमादित्य ने इस प्रक्रिया के सेक्सुअल पहलू को जान-बूझकर छोड़ दिया है.
विक्रमादित्य संजय लीला भंसाली के सहायक भी रहे. ‘हम दिल दे चुके सनम’ के ‘आंखों की गुस्ताखियां’ का खूबसूरत सांग डायरेक्शन देखकर ही अनुराग ने उन्हें ‘पांच’ के एक गाने के निर्देशन के लिए चुना था. विक्रमादित्य से पूछा जाए कि उन पर भंसाली का ज्यादा प्रभाव रहा या अनुराग का तो वे कहते हैं, ‘मैंने सारी फिल्ममेकिंग भंसाली से ही सीखी. अनुराग से मैंने तुरंत काम करना सीखा. वे तीन दिन में एक स्क्रिप्ट पूरी कर लेते हैं और फिर चौथे दिन उसे शूट करना चाहते हैं. वे कहते हैं कि आप किसी आइडिया को ज्यादा सोचेंगे तो उसे खराब कर देंगे.’

‘आमिर’ के बाद ‘उड़ान’ जैसी अनूठी फिल्म प्रोड्यूस करने वाले अनुराग कश्यप के लिए भी यह खुद का नया और उतना ही भला अवतार है. अनुराग खुद अपनी गर्वीली और साथ ही मासूम मुस्कुराहट के साथ कहते हैं, ‘मैं सच में बहुत अच्छा निर्माता हूं. मैं कभी शूटिंग पर नहीं जाता और एडिट से पहले फिल्म नहीं देखता.’ शायद वे अपने निर्देशकों को उस दखल से बचाना चाहते हैं जिससे वे बार-बार जूझते रहे.

‘उड़ान’ का नायक कविताएं लिखता है और उसकी एक कविता उन नंगे पैरों के बारे में है जो भूल गए हैं कि उन्होंने जूते कहां उतारे थे. 16 जुलाई को रिलीज हई ‘उड़ान’ कुछ भूली तो नहीं है, लेकिन फिर भी सितारों और भव्य प्रचार के बिना उसके पैर नंगे हैं और विक्रमादित्य नहीं चाहते कि कांस की वजह से उनकी सादी-सरल फिल्म पर कला फिल्म होने का अपशकुनी ठप्पा लग जाए.    

न्यूजरूम से पीपली लाइव तक

अनुषा रिजवी और महमूद फारूकी को लगता था कि आज की हिंदी फिल्में असल भारतीय समाज से कटी हुई हैं. इसलिए उन्होंने खुद एक कोशिश की जिसका नतीजा है पीपली लाइव. गौरव जैन की रिपोर्ट 

इस साल सनडांस फिल्मोत्सव जहां फिल्म पीपली लाइव प्रतियोगिता श्रेणी में शामिल होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी में एक अमेरिकी किसान फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी के पास आया और पूछने लगा, ‘उस बकरी का नाम क्या था?’ रिजवी को ध्यान ही नहीं आया तो उन्होंने तुरंत ही एक नाम ईजाद करके उसे बता दिया. वह किसान बोला, ‘दरअसल मेरे पास भी एक बकरी है और मुझे फिल्म पूरी तरह से समझ में आई है. हम छोटे किसानों की जिंदगी में यही सब तो होता है.’

जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं हैदिन-ब-दिन सुर्खियां बटोर रही पीपली लाइव एक बदकिस्मत किसान नत्था और उसके भाई बुधिया की कहानी है जो पीपली नाम के एक गांव में रहते हैं. कर्ज के चलते वे अपनी जमीन गंवाने ही वाले होते हैं कि एक नेता उन्हें खुदकुशी करने की सलाह देता है ताकि उन्हें सरकार से मुआवजे की रकम मिल जाए. भावी आत्महत्या की खबर फैलने लगती है और नेताओं, न्यूज चैनलों सहित हर कोई पीपली की तरफ दौड़ पड़ता है. आमिर खान द्वारा निर्मित इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के बिडवई में हुई है. 13 अगस्त को भारत में रिलीज हो रही पीपली लाइव का प्रदर्शन बर्लिन फिल्म महोत्सव 2010 में भी हो चुका है.

34 वर्षीया अनुषा और फिल्म के सहनिर्देशक उनके 39 वर्षीय पति महमूद फारुकी का फ्लैट दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से कुछ ही दूरी पर है. आठ साल पहले हुई उनकी शादी दो अलग-अलग धाराओं के मिलने जैसी घटना थी. फारूकी इसका खास तौर पर जिक्र करते हैं कि वे गोरखपुर के पुरबिया हैं जबकि अनुषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखती हैं, वे सुन्नी मुसलमान हैं और अनुषा शिया, उनके परिवार में कस्बाई संस्कृति रची-बसी है जबकि अनुषा जमींदारी वाले माहौल में पली-बढ़ी हैं.

थिएटर और समाचार चैनल में काम करने के बाद फिल्म बनाने की कैसे सूझी, यह पूछने पर महमूद बताते हैं कि पांच साल पहले अचानक ही अनुषा बेडरूम से बाहर निकलीं और एलान कर दिया कि उन्हें एक आइडिया मिल गया है. पिछले कुछ समय से वे कई संभावित आइडियों को अपने रजिस्टर में लिख रही थीं. उन्होंने किसान आत्महत्याओं पर एक टीवी कार्यक्रम देखा था जिसके बाद उन्हें यह विचार आया था. अनुषा कहती हैं, ‘मैं इससे हैरान थी कि मुआवजा मरने के बाद दिया जा रहा है. यानी अहमियत लाश की है, जिंदा आदमी की नहीं.’

अनुषा को एक बार में ही सूझ गया था कि कहानी क्या होगी और उसे किस तरह दिखाया जाएगा. यह भी कि बुधिया का रोल रघुबीर यादव को ही करना चाहिए. कहानी लिखने और इसे सही जगह तक पहुंचाने में उन्हें एक साल लग गया. 2006 में आमिर खान ने इसमें दिलचस्पी दिखाई और 2009 में कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ.

आमिर खान कह रहे हैं कि पीपली लाइव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उनका पहला प्रोडक्शन है. मगर अनुषा और महमूद कहते हैं कि उन्होंने फिल्म बनाते हुए पहले उन दर्शकों के बारे में सोचा था जो मल्टीप्लेक्स तक नहीं जा सकते. महमूद कहते हैं, ‘मल्टीप्लेक्सों ने आम जनता को अछूत बना दिया है. ए बी सी सेंटर जैसी चीजें तो खत्म ही हो गईं. यही वजह कि बड़ी फिल्में यूपी जैसे राज्यों में पैसा नहीं कमा पातीं. हम पीपली को उन लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. इस देश में वास्तविक कहानियों और चरित्रों पर फिल्में बन सकती हैं. ये उन लोगों को दिखाई जा सकती हैं और लोग भी इन्हें पसंद करेंगे.’ अनुषा को भी लगता है कि ज्यादातर फिल्में वास्तविक भारत की संवेदना से नहीं जुड़तीं. वे कहती हैं, ‘हम अंग्रेजी सोच के साथ अंग्रेजी फिल्में बना रहे हैं और उनका हिंदी में अनुवाद करने की कोशिश कर रहे हैं.’

आमिर खान ने यह भी कहा है कि अपनी पहली ही फिल्म से अनुषा दूसरे निर्देशकों के लिए जलन का सबब बन सकती हैं. अनुषा के मित्र और थिएटर में काम कर रहे हिमांशु त्यागी कहते हैं, ‘थिएटर से आए ज्यादातर निर्देशक अपनी फिल्मों में कुछ कहना चाहते हैं और पीपली में भी आप यह देख सकते हैं.’ मीडिया में इसे किसानों की दशा पर व्यंग्य कहा जा रहा है, मगर अनुषा कहती हैं, ‘मैंने इसे जान-बूझकर व्यंग्य नहीं बनाया था. हकीकत ही ऐसी है. यह अतिशयोक्ति नहीं है.’ वे कहती हैं कि अगर नत्था किसान की बजाय कोई बुनकर या कुम्हार होता तब भी फिल्म यही असर छोड़ती क्योंकि अहम बात भारत के शहर और गांव के बीच की खाई को दिखाना था.

अनुषा और महमूद दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज जैसे नए फिल्मकारों के प्रशंसक हैं. हालांकि उन्हें लगता है कि आज की ज्यादातर फिल्में अपने समाज से कटी हुई हैं और उनमें उस परिपक्वता का 20वां हिस्सा भी नहीं है जो 70 के दशक के सिनेमा में दिखती थी. महमूद कहते हैं, ‘हम उस स्तर के आसपास भी नहीं हैं जब विजय तेंदुलकर ने मंथन के लिए संवाद लिखे थे.’

जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं है. महमूद कहते हैं, ’70 और 80 के दशक में अगर आपके पास पैसा नहीं होता था तो भी आपको इज्जत मिलती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब ऐसा कोई नहीं है जो कहे कि कोई बात नहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. और मीडिया भी इस मानसिकता के लिए तमाम दूसरी चीजों जितना ही जिम्मेदार है.’
अनुषा अब फिर से दिल्ली में हैं. फिलहाल वे किसी नए प्रोजेक्ट पर काम नहीं कर रहीं. उधर, महमूद 1857 की क्रांति पर लिखी गई अपनी पहली किताब निकालने की तैयारी कर रहे हैं. उन्हें अपने संघर्ष के दौर वाले वे दिन अब भी याद हैं जब उनके पास कपड़े खरीदने और कभी-कभी तो खाने तक के पैसे नहीं होते थे. अनुषा कहती हैं, ‘हम शिद्दत से यह फिल्म बनाना चाहते थे, इसलिए हम इसे वीडियो पर भी बना लेते.’ 

ऑक्टोपसी चंगुल में चैनल

स्पेन ने फुटबॉल विश्वकप भले ही कलात्मक और बेहतर खेल के कारण जीता हो लेकिन अपने खबरिया चैनल इसका श्रेय उसे देने के लिए तैयार नहीं हैं. चैनलों की मानें तो स्पेन की जीत का असली क्रेडिट पॉल नाम के एक ऑक्टोपस को जाता है जिसने मैच से पहले ही उसकी ‘भविष्यवाणी’ कर दी थी. चैनलों के मुताबिक इस बार फुटबॉल विश्वकप का असली हीरो ऑक्टोपस पॉल है जिसने कई प्रमुख मैचों के बारे में बिलकुल सटीक ‘भविष्यवाणियां’ की. खासकर जर्मनी के मैचों और सेमीफाइनल और फ़ाइनल मैच के नतीजों को लेकर की गई उसकी सभी सात ‘भविष्यवाणियां’ सही निकलीं.

ऑक्टोपस पॉल टीवी की पैदाइश है, यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं

बस, अपने खबरिया चैनलों को और क्या चाहिए था? तेज तारों, तीन देवियों, ग्रहों-ग्रहणों, नक्षत्रों, ज्योतिषियों और बाबाओं से अटे पड़े चैनलों पर ‘बाबा’ ऑक्टोपस पॉल को छाते देर नहीं लगी. उसके अहर्निश महिमागान में कोई चैनल पीछे नहीं रहा. आश्चर्य नहीं कि नियमित और प्राइम टाइम बुलेटिनों से लेकर आधा घंटे के विशेष कार्यक्रमों में जितना समय फुटबॉल विश्वकप के मैचों  की रिपोर्टों को मिला, उससे कम एयरटाइम ऑक्टोपस पॉल के करिश्माई खेल को नहीं मिला. कुछ इस हद तक कि मैच सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गए जो पॉल की भविष्यवाणी को सही साबित करने के लिए हो रहे हों.               

जाहिर है कि ऐसा करते हुए खबरिया चैनलों ने सामान्य बुद्धि, तर्क और विवेक को ताक पर रख दिया. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है लेकिन चैनल ऑक्टोपस पॉल के चंगुल में जिस तरह से फंसे उससे साफ है कि तर्क और बुद्धि से उनकी दुश्मनी अब काफी पुरानी और गहरी हो चुकी है. अफसोस की बात यह है कि चैनलों के इस अतार्किक और बुद्धिविरोधी रवैए का असर फुटबॉल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टिंग पर भी पड़े बिना नहीं रह पाया. अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की फुटबॉल विश्वकप में वैसी दिलचस्पी नहीं थी, जैसी क्रिकेट के ऐरे-गैरे चैंपियनशिप को लेकर दिखती है. रही-सही कसर ऑक्टोपस पॉल ने निकाल दी. चैनलों ने काफी हद तक कमजोर रिपोर्टिंग की भरपाई ऑक्टोपस पॉल के चमत्कारों को दिखाकर पूरी करने की कोशिश की.

नतीजा, एक ऐसा तमाशा जिसने फुटबॉल जैसे शानदार खेल के विश्वकप को काफी हद तक मजाक में बदल दिया. वैसे, टीवी ने फुटबॉल ही नहीं, लगभग सभी खेलों को पहले ही तमाशे में बदल दिया है जहां खेल अब सिर्फ खेल नहीं रह गए हैं. वे टीवी के लिए खेले जाते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनमें खेलों की सामूहिकता, सहभागिता और  मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा की भावना की बजाय तमाशे, तड़क-भड़क और उन्माद का बोलबाला बढ़ गया है. यह टीवी के स्वभाव के अनुकूल है क्योंकि उसकी दिलचस्पी खेल से ज्यादा खेल के तमाशे और उसकी नाटकीयता में है. ऐसे में, अंधविश्वास और टोने-टोटके कहां पीछे रहने वाले थे.

असल में, ऑक्टोपस पॉल टीवी की रचना या पैदाइश है. यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप और दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया में ऑक्टोपस पॉल छाया रहा. टीवी चैनलों को ऑक्टोपस पॉल इसलिए चाहिए कि वह अपनी नाटकीयता से अधिक से अधिक दर्शक खींचता है. चैनल को दर्शक चाहिए. इसलिए कि चैनलों की टीआरपी दर्शकों की संख्या पर निर्भर करती है. टीआरपी से विज्ञापन आता है और विज्ञापन से मुनाफा होता है. चैनलों को मुनाफा चाहिए और मुनाफे के लिए जरूरी है कि दर्शकों को ऑक्टोपसी चंगुल में फंसाए रहा जाए, चाहे वह अंधविश्वासों का ही क्यों न हो.

सवाल है कि दर्शक इन्हें क्यों देखते हैं? इसके मुख्यतः दो कारण हैं. पहला यह कि इनमें एक खास तरह का अनोखापन या अजीबोगरीबपन है. आम तौर पर  अजीबोगरीब चीजें ध्यान खींचती हैं. इसीलिए चैनलों पर अजीबोगरीब चीजें खूब दिखाई जाती हैं. कुछ खबरिया चैनल तो इसी विधा के विशेषज्ञ हो गए हैं. ऑक्टोपस अपने आप में काफी अजीबोगरीब जीव है, ऊपर से अगर उसे भविष्यवक्ता बना दिया जाए तो उत्सुकता स्वाभाविक है. दूसरा कारण ज्यादा महत्वपूर्ण और गहरा है. ऑक्टोपस पॉल एक आदमी के अंदर बैठे अनजान के भय, आशंकाओं और चिंताओं को भुनाने के लिए पैदा होता है, उसी पर पलता और फलता-फूलता है. ज्योतिष और भविष्यवाणियों का जन्म भी इसी ‘अनजान के भय’ से हुआ है. ज्योतिष और उसकी भविष्यवाणियां लोगों को कुछ हद तक इसी ‘अनजान के भय’ से राहत देने का आभास पैदा करती हैं.

खबरिया चैनल हर आदमी के अंदर बैठे इसी ‘अनजान के भय’ का दोहन करते हैं. ऑक्टोपस पॉल भी इसी दोहन के मकसद से भविष्यवक्ता बना दिया गया. हैरानी नहीं होगी, अगर जल्दी ही अपने खबरिया चैनल कोई देशी तोता, बिल्ली, बंदर, गाय या हाथी खोज लाएं. 

यहां से कश्मीर को देखिए

हाल के दिनों में श्रीनगर की सड़कों पर दिखने वाला पथराव क्या सिर्फ पेशेवर पत्थरबाज़ों का काम था? सुरक्षा बलों द्वारा सुलभ कराए गए किन्हीं ऑडियो टेपों की मार्फत टीवी चैनलों और अख़बारों ने यही बताया और साबित किया. हो सकता है, इसमें सच्चाई हो. श्रीनगर में पिछले दिनों चल रहे हंगामे में कुछ ऐसे ही पेशेवर पत्थरबाज़ों की भूमिका भी रही हो जो सीमा के उस पार या इस पार बैठे लोगों के इशारे पर यह धंधा कर रहे होंगे.

शेख अब्दुल्ला ने जब कश्मीर घाटी में भूमि सुधार लागू किए तो इसका ज्यादा नुकसान हिंदू जमींदारों को हुआ क्योंकि ज़मीन उनके पास थी

लेकिन क्या कश्मीर का सारा गुस्सा प्रायोजित है? क्या यह प्रचार भी प्रायोजित है कि इन्हीं कुछ दिनों में सुरक्षा बलों की गोलियों से राज्य में 15 लोगों की मौत हुई? इन प्रदर्शनों के बीच छत पर खड़ी एक महिला को कोई भटकी हुई गोली लगी, ट्यूशन पढ़कर लौट रहे एक लड़के की खोपड़ी एक प्लास्टिक की गोली से फटी और सुरक्षा बलों ने तीन युवकों को घर में घुसकर गोली मारी. ये वे घटनाएं हैं जिनकी पुष्टि राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कर रहे हैं और विपक्ष की नेता महबूबा मुफ़्ती भी.

बहरहाल, टीवी पर कश्मीर के इन प्रदर्शनों को देखते हुए और इनके प्रायोजित या स्वतःस्फूर्त होने की बहस से गुजरते हुए मुझे संजय काक द्वारा कश्मीर पर बनाई गई डॉक्युमेंटरी जश्ने आज़ादी की याद आई. उस डॉक्युमेंटरी में बहुत-कुछ है- एक तरफ आजादी के जुलूसों में बदलती मय्यतें हैं तो दूसरी तरफ स्वाधीनता दिवस समारोह मनाते सरकारी प्रतिष्ठान. बीच में वे सुरक्षा बल भी, जो आम लोगों के बीच रेडियो बांट रहे हैं और उऩसे एक रिश्ता कायम करने की कोशिश कर रहे हैं.

पूरी फिल्म में जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा मेरा ध्यान खींचा, वह यह कि जब भी कश्मीर की सड़कों पर कोई जुलूस निकलता या कोई मय्यत गुजरती, अचानक पूरे माहौल में जैसे बिजली पैदा हो जाती. सड़कों पर चीख-चीखकर नारे लगाते लोग दिखते, रोती और छाती पीटती महिलाएं मिलतीं और भिंचे हुए जबड़ों के साथ मुट्ठियां उछालते नौजवान नजर आते, जो जैसे स्क्रीन के बाहर चले आने को बेताब हों. दूसरी तरफ जब भी कोई सरकारी आयोजन नज़र आता, हवा भारी-सी लगती, सड़कें सूनी दिखतीं, कुर्सियां खाली नज़र आतीं, उदास, भावहीन चेहरे ताली बजाते- जैसे यह आयोजन लोगों पर थोपा जा रहा हो.

कश्मीर का असंतोष एक स्तर पर देश में चल रहे कई दूसरे असंतोषों की तरह भारतीय राष्ट्र राज्य की नाकामी का भी नतीजा है

इस लिहाज से देखें तो कश्मीर में पथराव और प्रदर्शन जितने नियोजित-प्रायोजित हैं, शांति उससे कहीं ज़्यादा नियोजित और प्रायोजित है. आखिर इस शांति के लिए सात लाख सिपाही वहां तैनात किए गए हैं. जब संगीनों के सहारे शांति कायम की जाती है तो उसका यही हाल होता है. एक हल्का-सा गुस्सा इस शांति की सीवन को उधेड़ डालता है और 20 साल बाद भी सेना को सड़कों पर फ्लैग मार्च करने की नौबत आती है. दरअसल, आज की तारीख में कश्मीर एक टभकता हुआ घाव है- जब तक उसपर रूई के फाहे होते हैं, जब तक कोई मरहम होता है, उस घाव की तकलीफ मालूम नहीं होती, लेकिन जैसे ही कोई उसे छूता और दबाता है तो जैसे कश्मीर का सारा जिस्म ऐंठने लगता है.

सवाल है, ऐसा क्यों हुआ. 1978 में प्रकाशित सलमान रुश्दी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रेन का बूढ़ा कश्मीरी मल्लाह बोलता है कि कश्मीरी डरपोक होते हैं. कश्मीरी के हाथ में एक बंदूक दो तो वह तुम्हें थमा देगा. आज कश्मीरियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता. तो इस कश्मीर ने बंदूक चलाना और क़त्ल करना कब सीख लिया? आखिर ऐसा क्या हुआ कि सन अस्सी के बाद कश्मीर के पुराने बाशिंदे राज्य छोड़कर भागने को मजबूर हुए और कश्मीर में एक नई बंदूक संस्कृति का उदय हुआ जिसे दिल्ली से वजह और इस्लामाबाद से मदद मिलती रही?

इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं. इनकी ऐतिहासिक व्याख्याओं के कई स्तर हैं. इनमें उतरें तो कश्मीर की सदियों से चली आ रही साझा विरासत का यह पहलू भी सामने आएगा कि उन सदियों में शोषक कोई और थे, शोषित कोई और. फिर यह बात भी खुलेगी कि मूलतः प्रगतिशील रुझानों वाले शेख अब्दुल्ला ने जब कश्मीर घाटी में भूमि सुधार लागू किए तो इसका ज्यादा नुकसान हिंदू जमींदारों को हुआ क्योंकि ज़मीन उनके पास थी. जम्मू के जमींदारों को यह डर भी था कि ये सुधार उन
तक न पहुंचें.

बहरहाल भारत के विभाजन ने कश्मीर के राजनीतिक हालात और दुश्वार किए. कश्मीर का भारत के साथ आना भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य की पुष्टि था, अगर पाकिस्तान के साथ जाता तो धर्म के आधार पर विभाजन को जायज़ ठहराता. रामचंद्र गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी का अध्याय सिक्योरिंग कश्मीर बताता है कि उन दिनों कश्मीर के सबसे बड़े नेता रहे शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान के साथ जाना अनैतिक लगता था और कश्मीर की आज़ादी का खयाल अव्यावहारिक. वे मानते थे कि भारत में अगर सांप्रदायिकता को दफन कर दिया जाए तो कश्मीर का भविष्य भारत के साथ सुरक्षित है. दुर्भाग्य से इसी सांप्रदायिक विचारधारा ने सबसे ज्यादा कश्मीर मांगा और इस बात की परवाह किए बिना मांगा कि इसकी वजह से कश्मीरी उससे और दूर होता जाएगा, बिदकता जाएगा. वाकई कश्मीर की यह फांस इसी वजह से बड़ी होती गई और दिल्ली की राजनीतिक चूकों ने वहां अलगाववाद की एक ऐसी गांठ बनाई जो अब तक मरने का नाम नहीं ले रही.

सवाल है, अब हम क्या करें. क्या कश्मीर को हमेशा बंदूक के दम पर अपने पांवों के नीचे रखें? अगर वह शांति से रहने को तैयार हो तो उसे रोटी और रोज़गार दें, उसको राहत और रियायत के नाम पर लाखों-करोड़ों की रिश्वत दें वरना उसके सीने में संगीन भोंकें? जाहिर है, यह काम न उचित है और न ही व्यावहारिक. कश्मीर को अगर भारतीय राष्ट्र राज्य के जिस्म का सहज और संवेद्य हिस्सा बनाना है तो इलाज के नाम पर कसी हुई वे बड़ी-बड़ी पट्टियां हटानी होंगी जिनकी वजह से उसका हिलना-डुलना मुश्किल होता है और सहज रक्त संचार भी प्रभावित होता है.

लेकिन अगर इसके बाद भी कश्मीर न माने तो क्या करें? क्या उसे आज़ाद करके उसके हाल पर छोड़ दें? आखिर एक तर्क यह तो कहता है कि हर आदमी को अपना देश चुनने का हक है और अगर कश्मीरी अलग रहना चाहते हैं तो उन्हें भी यह अधिकार देना चाहिए. आखिर अब भी कश्मीर में भारत और पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र कश्मीर की बात सबसे लोकप्रिय अपील पैदा करती है.
लेकिन मामला इतना सरल नहीं है. सिर्फ इसलिए नहीं कि कश्मीर की आजादी भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक चोट होगी और हमारी सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियां और भी जटिल होंगी. यह हक़ीक़त हो भी तो इसमें स्वार्थ की बू आती है. लेकिन ज़्यादा सच्ची बात यह है कि कश्मीर क्या चाहता है, यह समझने की कोशिश किसी ने की ही नहीं. बल्कि एक स्तर पर यह सिर्फ कश्मीर का मामला नहीं है. दरअसल किसी भी आधुनिक और तरक्कीपसंद कौम को रोटी, इज्ज़त और इंसाफ़ चाहिए. यह अगर एक राष्ट्र के दायरे में रहकर मिलते हैं तो ठीक, और अगर उससे बाहर जाकर हासिल होते हैं तो भी ठीक. इस नई समझ और संवेदना का ही असर है कि दुनिया भर में सरहदें धुंधली पड़ी हैं, राष्ट्र राज्यों का लौह परदा गिरा है और बीसवीं सदी में आपस में बुरी तरह लड़ने वाले यूरोपीय देश अब एक सिक्का चला रहे हैं.

यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि दुनिया के जिन देशों में राष्ट्रवाद अपने सबसे प्रबल रूपों में बचा है वे सबसे पिछड़े देश भी हैं. अपनी मजहबी और नस्ली लड़ाइयों में डूबा पूरा का पूरा दक्षिण एशिया इसका सबसे बड़ा सबूत है. इस लिहाज से देखें तो यह राष्ट्र राज्य के झड़कर गिरने का मौसम है. राष्ट्र अपनी भूमिका को जितना सिकोड़ेगा, वह नागरिकों को उतने ही अधिकार, उतनी ही आजादी देगा. दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्र राज्य आर्थिक स्तर पर तो अपनी भूमिका खत्म कर रहा है, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर यह काम करने को तैयार नहीं.

कश्मीर का असंतोष एक स्तर पर देश में चल रहे कई दूसरे असंतोषों की तरह भारतीय राष्ट्र राज्य की नाकामी का भी नतीजा है. लेकिन अगर इस राज्य के बाहर जाकर कश्मीर एक नया राष्ट्र राज्य बनाएगा तब भी कश्मीरी खुशहाल होंगे, यह गारंटी नहीं दी जा सकती. क्योंकि तब वहां नई तरह की जटिलताएं होंगी, नए राजनीतिक समीकरण होंगे, कहीं ज्यादा मुश्किल हालात होंगे और अंततः राष्ट्र राज्य की अपनी ज्यादतियां होंगी. यह बात कश्मीर को समझनी होगी और भारत को भी. कश्मीर का दूर जाना भारत में वे दरारें और बड़ी करेगा जो सांप्रदायिक राजनीति पैदा करती रही हैं.

लेकिन सवाल फिर वहीं आकर टिक जाता है- हम कश्मीर का क्या करें, उसके संकट का क्या हल हो. इस सवाल का जवाब फिलहाल इतना ही हो सकता है कि उससे हम हमदर्दी से पेश आएं, बंदूक कम चलाएं बात ज्यादा सुनें. कश्मीरियों को यह महसूस होना चाहिए कि उनके साथ दगा नहीं हो रहा. अगर यह एहसास पैदा हुआ तो वह कश्मीर को आर्थिक पैकेज के नाम पर दी जा रही रिश्वत से ज्यादा बड़ी राहत साबित होगा. फिर सीमा पार के उकसावों से निपटना भी आसान होगा, पाकिस्तान से शांति की बातचीत आगे बढ़ाना भी और पाक अधिकृत कश्मीर के बंधन खोलना भी.

इन सबके लिए बड़ी पहल जम्हूरियत के हामी कश्मीरी नेताओं को ही करनी होगी. लेकिन क्या आपस में ही बुरी तरह उलझे हुए ये नेता यह कर पाएंगे? हमारे पास इंतज़ार, उम्मीद और दुआओं के अलावा कोई रास्ता नहीं है.