क्या यह शख्स गिलानी की राजनीतिक विरासत का वारिस है?

आज के कश्मीर में पत्थर फेंकते नौजवानों और आजादी के नारों के बीच मसर्रत आलम के असर को नजरअंदाज करना मुश्किल है. 2008 तक बहुत कम लोग इस अलगाववादी नेता के बारे में जानते थे, लेकिन भूमिगत आलम की सक्रियता पिछले दो सालों में काफी बढ़ी है. आजादी के समर्थन में दीवारों पर नारे लिखने से लेकर फेसबुक पर प्रचार तक आलम को विरोध का ऐसा हर तरीका मालूम है जो पत्थर फेंकती भीड़ में जोश की लहर पैदा कर सके.

आलम की प्रतिष्ठा एक ऐसे नेता की है जो जनता से कटा हुआ नहीं है. दूसरे नौजवान और जाने-माने अलगाववादी नेताओं से उलट वे नारे लगाते हुए, बैनर पकड़े हुए और पत्थरबाजी में मदद करते हुए देखे गए हैं

39 वर्षीय आलम पुराने दिग्गज सैयद अली शाह गिलानी की राजनीतिक विरासत के प्रमुख उत्तराधिकारियों में से एक बनकर उभरे हैं. वे कश्मीर में मुसलिम लीग के अध्यक्ष हैं और गिलानी धड़े वाली हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के महासचिव भी. आलम 10 साल से अधिक समय तक जेल में रह चुके हैं. पुलिस सूत्र बताते हैं कि आलम के सिर पर पांच लाख रुपए का ईनाम रखा गया है, हालांकि आधिकारिक तौर पर पुलिस इसका खंडन करती है. हर हफ्ते अफवाहें इस रकम को दोगुना कर रही हैं और अब यह बढ़ती हुई 20 लाख हो गई है.

इस सबने आलम के इर्द-गिर्द एक रहस्य का जाल बुन दिया है. कश्मीर पुलिस के चरमपंथ विरोधी सेल के एक अधिकारी अपना नाम बताने से इनकार करते हुए कहते हैं, ’जेल से छूटते ही आलम वहीं से काम शुरू करता है जहां से उसने छोड़ा था. मैंने उसके जैसा धुन का पक्का अलगाववादी नेता नहीं देखा.’ कभी पाकिस्तान के समर्थक रहे आलम का इस्लामाबाद से मोहभंग उसकी कश्मीर नीति के कारण हुआ. वे अब एक स्वतंत्र कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं. पुलिस सूत्रों का कहना है कि वे पाकिस्तान की नजरों में तब चढ़ गए जब उन्होंने परवेज मुशर्रफ से अपनी मुलाकात के दौरान उनके चार सूत्री फॉर्मूले को रुखाई से नकार दिया था. कश्मीर के एक प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल के छात्र रहे आलम एक संपन्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं. 10 साल की उम्र में अपने पिता को खो देने के बाद वे अपनी मां और बहन के साथ अपने दादा के साथ रहते थे. पुराने शहर में उनके परिवार की कपड़ों की कई दुकानें थीं और उनके बचपन के दोस्त बताते हैं कि अपने कपड़ों, जूतों और पॉकेट मनी की वजह से वे अलग ही पहचाने जाते थे. एसपी कॉलेज से विज्ञान में ग्रेजुएट आलम जब 1987 में राजनीतिक आंदोलन से जुड़े तब वे 16 साल के थे और मुसलिम युनाइटेड फ्रंट की रैलियों में शामिल होते थे, जो 1987 में चुनाव लड़ रही अलगाववादी पार्टियों का गठबंधन था. उनके एक पुराने दोस्त याद करते हैं, ’एक बार हमारे पास बैनर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे तो उसने अपने नए जूते बेच दिए थे.’ ये वही बदनाम चुनाव थे, जिनके बाद घाटी में हथियारबंद जनउभार भड़का था.

आलम 1990 के दशक की शुरुआत में चरमपंथी आंदोलन में शामिल हुए और हिज्बुल्लाह धड़े के कमांडर बने. वे उन कुछ लोगों में से थे जिन्होंने कोई दूसरा नाम अपनाने से इनकार कर दिया जैसा उन दिनों चलन था. एक वरिष्ठ आजादी समर्थक नेता, जो आलम को 1997 से जानते हैं, बताते हैं कि उनके उभार ने कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्व के भविष्य के लिए उम्मीदें पैदा की हैं. आलम को लेकर उन्हें बहुत उम्मीदें हैं. वे कहते हैं, ’वह एक नई पीढ़ी का अलगाववादी नेता है जो जनता के बीच लोकप्रिय हो गया है. उम्मीद है कि वह इस रास्ते पर आगे बढ़ता रहेगा.’ आलम की प्रतिष्ठा एक ऐसे नेता की है जो जनता से कटा हुआ नहीं है. दूसरे नौजवान और जाने-माने अलगाववादी नेताओं से उलट वे नारे लगाते हुए, बैनर पकड़े हुए और पत्थरबाजी में मदद करते हुए देखे गए हैं. 2008 में जब अमरनाथ भूमि हस्तांतरण विवाद के दौरान बड़े पैमाने पर आजादी समर्थक प्रदर्शन हुए थे, आलम ने ’रगड़ा’ की योजना बनाई. रगड़ा एक ऐसा नाच है जिसमें लोग एक घेरे में कंधे से कंधा मिलाकर अपने पैरों पर आगे-पीछे होते हुए भारत विरोधी नारे लगाते थे. इस साल आलम ने नया नारा उछाला, गो इंडिया, गो बैक.

जैनादार मोहल्ले में आलम के पुराने घर में उनकी मां, बहन और बीवी एक बेहद गरीबी भरा जीवन जी रही हैं, जिसे बार-बार पड़ने वाले पुलिस के छापों ने और बदतर बना दिया है. कपड़ों की दुकान बंद हो चुकी है. लेकिन आलम की राजनीतिक योजनाएं काम कर रही हैं. उन्होंने राजनीतिक कुशलता और सादगी भरी अपनी पहचान का मेल बखूबी किया है.