औपनिवेशिक शोषण के आइबिस पर

फरवरी, 2008 में जब मॉरिशस के प्रधानमंत्री नवीनचंद्र रामगुलाम अपने पूर्वजों के गांव बिहार के भोजपुर जिले में हरिगांव आए थे तो राजधानी से लेकर हरिगांव तक जश्न का माहौल था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर रामगुलाम के परिजन तक  बिछुड़े परिजनों के मिलने के मौके पर बहुत खुश थे. लेकिन इन बातों में कहीं भी उस औपनिवेशिक शोषण के दुष्चक्र का जिक्र नहीं था जिसने लाखों किसानों को तबाह किया था और जो इन जगहों से गुलामों की तरह लोगों को जहाज पर लादकर मॉरिशस और दुनिया के दूसरे हिस्सों में ले जाने के लिए जिम्मेदार था.

लेकिन लगभग उन्हीं दिनों सुदूर अमेरिका में बैठे एक भारतीय लेखक अमिताभ घोष का उपन्यास प्रकाशित हुआ- सी ऑफ पॉपीज. हाल ही में इस किताब का हिंदी अनुवाद पेंगुइन ने अफीम सागर  नाम से छापा है. थोड़े कमजोर अनुवाद के बावजूद यह एक जरूरी उपन्यास है, जो मुख्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों की नियति के बारे में बताता है. इन किसानों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने कर्ज देकर अफीम उगाने पर बाध्य किया. लेकिन फसल खरीदने की व्यवस्‍था ऐसी थी कि कर्ज कभी खत्म नहीं होता. किसान धीरे-धीरे तबाह हो जाते और आखिरकार गुलामों के रूप में खरीद लिए जाते, जिन्हें कलकत्ता से जहाज में लादकर मॉरिशस भेज दिया जाता.

कलकत्ता में आइबिस नामक जहाज पर मॉरिशस जाने के लिए जो लोग सवार हैं वे सभी इस औपनिवेशिक दुष्चक्र में फंसे हैं. एक अमेरिकी अश्वेत, एक फ्रांसीसी अनाथ युवती, एक कंगाल राजा और सैकड़ों गुलाम किसान. यह उपन्यास हमें 1830 के दशक के औपनिवेशिक भारत की यात्रा पर ले जाता है, जहां मनुष्य की आजादी और सभ्यता के नाम पर ब्रिटिश साम्राज्य अमेरिका से लेकर चीन तक तबाही फैला रहा था तथा गुलामों और अफीम के व्यापार के जरिए मोटा मुनाफा निचोड़ रहा था. कुछ लोग संपन्न हो रहे थे और दूसरे हजारों कंगाल. यह उपन्यास इसी प्रक्रिया की कहानी कहता है. आइबिस के यात्रियों की अपनी-अपनी जिंदगियां इतनी कुशलता से बुनी गई हैं कि सभी अपनी राह चलते हुए लुटेरी कंपनी के नजर नहीं आने वाले लेकिन सर्वव्यापी फंदे में फंस कर आखिरकार आइबिस पर आ गिरते हैं.

उपन्यास की दो विशेषताएं अलग से पहचानी जा सकती हैं. लेखक आधुनिकता का दावा करने वाले अंग्रेेज अधिकारियों की परतें खोल देता है जो अपनी सत्ता और मुनाफे के लिए उत्पीड़क, क्रूर और मध्ययुगीन ऊंची जातियों के साथ खड़े थे और उनकी ताकत को भी बनाए हुए थे. दूसरी विशेषता यह है कि उपन्यास में दुनिया भर के उत्पीड़ित वर्ग अपरिचित होने के बावजूद आपस में जुड़ जाते हैं. जहाज पर अमेरिकी अश्वेत हों या गाजीपुर का एक दलित या एक चीनी कैदी, संकट के समय वे एक-दूसरे की मदद करते हैं. वे अपने उत्पीड़कों के खिलाफ विद्रोहों में भी खुद को एक साथ पाते हैं.

अफीम सागर बांग्ला उपन्यासकार मानिक बंद्योपाध्याय के पद्मा नदीर मांझी की याद दिलाता है. पद्मा नदीर मांझी में भी कमोबेश एसी ही कहानी कहने की कोशिश की गई है. तीन उपन्यासों की श्रृंखला का यह पहला उपन्यास खत्म करते-करते यह लगने लगता है कि आज भी भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकतर देश औपनिवेशिक शोषण के उसी आइबिस पर सवार हैं जिसकी यात्रा सदियों पहले शुरू हुई थी. नाविकों और पहरेदारों के चेहरे भले बदल गए हों.

रेयाज उल हक