' स्पर्श करने से गंगा न निर्मल बन सकती है न अविरल '

गंगा की अविरलता और निर्मलता दोनों एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं. उत्तराखंड सरकार हेमा मालिनी और दूसरे सितारों को लेकर गंगा स्पर्श करने की बात कर रही है. लेकिन उसे समझने की जरूरत है कि स्पर्श करने से न गंगा निर्मल बन सकती है न अविरल. पिछले दिनों उत्तराखंड के कई साधुओं और सरोकारी लोगों के साथ मिलकर हमने गंगोत्री में कचरे का वैज्ञानिक प्रबंधन करने का काम शुरू किया. साधु-संन्यासियों, मंदिरों, पुजारियों, होटल मालिकों आदि से गंगोत्री में कचरा नहीं डालने के लिए बात की. पावनधाम गंगोत्री को सीवर से अलग रखने की भी लड़ाई लड़ी.

हम हैरान थे. भला कचरे से वन विभाग को क्या काम. हमने अधिकारियों से पूछा कि उनके ऐसा करने की वजह क्या हैइसी क्रम में हमने पाया कि गोमुख के पास भोजवासा में बहुत पुराना प्लास्टिक के कचरे का ढेर है. गंगोत्री से गोमुख जाने वाले लोगों का गर्मियों में तांता लगा रहता है. लेकिन पर्यावरण को लेकर उनमें से ज्यादातर में संवेदनशीलता नहीं होती जिसकी आज इस क्षेत्र को बेहद जरूरत है. यही वजह रही होगी कि  इतना सारा कचरा वहां जमा हो गया. यह गंगा में न जा सके, इसलिए हमने उस ढेर को और गोमुख से गंगोत्री के बीच पड़े कचरे को चुन-चुनकर 17 बोरों में भर दिया. मकसद यह था कि इस कचरे से क्षेत्र को मुक्त किया जाए. यह आठ जून की बात है.

अब इस कचरे को ठिकाने लगाने की बारी थी. हमने बोरों में भरे इस कचरे को छह-सात खच्चरों पर लादा और इसे ठिकाने लगाने के लिए ले जाने लगे. लेकिन रास्ते में ही उत्तराखंड वन विभाग के अधिकारियों ने वन चौकी पर हमारा रास्ता रोक लिया. उन्होंने हमसे बोरों के बारे में काफी पूछताछ की. फिर उनकी तलाशी ली. इसके बाद उन अधिकारियों ने सभी बोरों को जब्त कर लिया. हम हैरान थे. भला कचरे से वन विभाग को क्या काम. हमने अधिकारियों से पूछा कि उनके ऐसा करने की वजह क्या है. जवाब सुनकर हमारी हैरानी और भी बढ़ गई. उनका कहना था कि वह कचरा वन विभाग की संपत्ति है और हम उसे अपने साथ नहीं ले जा सकते.

हमने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की. लेकिन अधिकारी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे. हमें लग चुका था कि हम प्लास्टिक को पहाड़ों से नीचे नहीं ले जा सकेंगे. तब हमने उनसे कहा कि आप भले ही बोरों को रख लें लेकिन उस कचरे को गंगा में न बहाएं. 
दरअसल हमें यह आशंका इसलिए थी कि पहले भी उत्तराखंड सरकार से प्लास्टिक निपटाने के लिए पैसा लेने के बावजूद अधिकारियों ने प्लास्टिक को गंगा में बहा दिया था, जो आगे जाकर विद्युत टर्बाइन में फंस गया था.

चूंकि अधिकारियों ने हमारी बात की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था, इसलिए हमें डर सताया कि कहीं प्लास्टिक से भरे ये बोरे भी गंगा में न बहा दिए जाएं. वापस आकर इस विषय में मैंने उत्तराखंड के कई उच्चाधिकारियों से बात की, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला. और कोई रास्ता नहीं सूझा तो  आखिर में मैंने भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विशेष सचिव आरएच ख्वाजा से मिलकर उन्हें हालात के बारे में जानकारी दी. इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड के पेयजल सचिव एमएच खान को हमारे गंगा स्वच्छता कार्यक्रम में मदद करने को कहा है.

समझ में नहीं आता कि उत्तराखंड सरकार एक तरफ तो गंगा को मां कहती है और दूसरी तरफ उसे कचरा और मैला ढोने वाली मालगाड़ी बनाती है. और  जब हमारे समाज के लोग अपनी प्रेरणा से गंगा की स्वच्छता को अपना जरूरी काम मानकर इसमें जुटते हैं तो इसका वन विभाग उनसे बोरों में भरा कचरा छीन लेता है, उनके साथ ठीक से पेश नहीं आता. ऐसे में सवाल उठता है कि गंगा आखिर कब तक बची रह पाएगी. इतना ही नहीं, गंगा की पवित्रता और निर्मलता के बड़े-बड़े नारे देने वाला गंगा स्पर्श अभियान चलाने वाली यह सरकार गंगा के खनन और उसके प्रवाह में बाधा डालने वाले बांध, सुरंग और झील बनाने के काम में भी जुटी हुई है. यह स्थिति बड़ी निराशाजनक है.

हम सभी के लिए एक बात समझनी बेहद जरूरी है. उत्तराखंड का विकास केवल ऊर्जा से ही नहीं होगा. केवल गंगा की हत्या करके ही उत्तराखंड समृद्धि और विकास के रास्ते आगे नहीं बढ़ सकता और ऐसी समृद्धि हमें विनाश के ही रास्ते पर ले जाएगी. जल, जंगल और जमीन को प्यारपूर्वक सहेजकर जीवन चलाने की परंपरा का रास्ता ही स्थायी और सनातन विकास का रास्ता है.