'कोई भी कहीं भी अल्पसंख्यक हो सकता है'

खोसला का घोंसला और चक दे इंडिया लिखने वाले जयदीप साहनी अलग-अलग भारत के बीच का पुल बनना चाहते हैं और उन ‘छोटेलालों’ को उनके हिस्से का सम्मान देना चाहते हैं जो शायद कभी हीरो नहीं बनेंगे, गौरव सोलंकी से उनकी बातचीत के अंश

इंजीनियरिंग छोड़कर ऐडवरटाइजिंग में आए. तब परिवार की कैसी प्रतिक्रिया थी?

वैसे तब मैंने एमबीए के लिए छोड़ा था. मुझे मुंबई के कई कॉलेजों से कॉल भी आ गई थी. मैं जाने की सोच ही रहा था कि मेरा एक कजिन जो एमबीए करके आया था, वह ऐड में जा रहा था. मुझे बचपन से ही ऐड बहुत मजेदार लगते थे. मैं उसके साथ चला गया. मेरे भाई का तो सेलेक्शन नहीं हुआ लेकिन मेरा हो गया. साढ़े छह सौ वाली वह नौकरी थी. मैं तो एमबीए-वैमबीए छोड़कर खुश कि ऐड बनाऊंगा. आईटी में जबकि दस- बारह हजार मिलते थ,े इसलिए पापा मम्मी कुछ परेशान भी थे कि यह क्या कर रहा है. मगर उन्होंने कोई रोक नहीं लगाई कभी.

फिर छह साल लंबा उसका अच्छा-खासा करियर छोड़कर फिल्मों की तरफ आना कैसे हुआ?

जब हम ऐड कर रहे थे, उसमें बहुत पैसा भी था. सरकारी नौकरी में काम करने वाले मां-बाप के बच्चे के लिए तो वे वाकई बहुत थे. लेकिन वो मोनोटोनस हो रहा था. मुझे लगा कि इसमें फंस गया तो फंस ही जाऊंगा. मुझमें बस उसे छोड़ने की हिम्मत आ गई और मैंने छोड़ दिया. फिर मैं इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट बन गया. बस लैपटॉप वाला एक बंदा. कोई कॉर्पोरेट या एनजीओ या ऐड एजेंसी आपको हायर कर ले कम्युनिकेशन स्ट्रेटेजी के लिए. उसमें एक-दो बार महीने में काम करने से अच्छा पैसा मिल जाता था. उम्मीद से कहीं ज्यादा. तब फुर्सत बहुत होती थी और मैं पढ़ता रहता था. उन्हीं दिनों साउथ एक्सटेंशन की एक दुकान में किताबें पलटते हुए गांधी की पटकथा मेरे हाथ लग गई. मुझे लगा कि यह तो कंप्यूटर प्रोग्रामिंग जैसा है, बस इसमें भावनाएं वेरिएबल बन गई हैं.

उससे पहले क्या-क्या पढ़ते थे?

मैं नेशनल बुक ट्रस्ट और गीता प्रेस की किताबें पढ़ते हुए बड़ा हुआ. मेरी मम्मी गर्मियों की छुट्टियों में साठ दिन के लिए साठ किताबें ले आती थीं. उनके विषय बिल्कुल अलग-अलग होते थे. किसी वैज्ञानिक की आत्मकथा भी और अर्थशास्त्र भी. और मैं बाल भवन में जाकर पढ़ता था. बहादुर बेला, राजन इकबाल और शेक्सपियर…सब किताबें चाट लीं.

फिल्मी गीतकार होना कितना मुश्किल व चुनौती भरा काम है? 

स्टंटमैन के बाद सबसे मुश्किल काम गीतकार का है. आप अभिमन्यु हैं, आपके हाथ इतने बंधे हैं कि आपको ज्यादातर ट्यून पहले दी जाती हैं, टैम्पो 148 बीट्स प्रति मिनट, उसमें ये शाम मस्तानी आप नहीं लिख सकते. म्यूजिक कंपनियों की सारी आमदनी रिंगटोन से होती है, वे वैसे ही गीत चाहते हैं. गीतकार के पास कोई चॉइस नहीं होती. मेरा चल गया क्योंकि मैंने बहुत कम गाने लिखे हैं और ज्यादातर अपनी फिल्मों के लिए लिखे हैं और अपनी पसंद के लोगों के साथ काम किया है. लेकिन यह सब कम काम करने की कीमत पर होता है. मैंने बारह साल में सात फिल्में लिखी हैं, लोग एक साल में सात लिखते हैं. जिसपर घर चलाने का दबाव हो, वह तो मजबूरी में ज्यादा लिखेगा ही. कई संगीतकार बोलते हैं गीतकारों को कि चाय-रसगुल्ला या समोसा पर कुछ लिखो. कोई आदमी अपने घर से, जबलपुर से भागकर आया है, दस साल से लिख रहा है, एक कमरे में चार लड़के रहते हैं. अब तुम उसे चाय-समोसे पर गाना लिखने को बोल रहे हो. अब क्या करेगा वो? उसकी तासीर वैसी नहीं है पर उसे भी तो अपनी चाय और खाने का इंतजाम करना है ना? जब से कॉर्पोरेट आए हैं, फिल्में एफएमसीजी बन गई हैं, सर्फ और टॉफी की तरह और गाने जिंगल बन गए हैं, उनके विज्ञापन.

मल्टीप्लेक्स क्या नई तरह की फिल्मों के लिए भगवान बनकर आए हैं, जैसा उनके बारे में कहा जा रहा है?

मल्टीप्लेक्स मुझे बांद्रा के सीलिंक की तरह लगते हैं जिसमें स्कूटर- साइकिल-रिक्शावाले अलाउड नहीं हैं. फिर बनाया किसके लिए है? उनका एक फायदा है कि छोटे बजट की और अलग थीम वाली फिल्मों को एक प्लेटफॉर्म मिला है, लेकिन असली भारतीय के लिए अब फिल्म बनाने की जरूरत नहीं रही क्योंकि सत्तर-अस्सी पर्सेंट पैसा मल्टीप्लेक्स से ही आता है. एक लेखक के रूप में मुझे ये अच्छा नहीं लगता कि कल को मुझे कोई कॉर्पोरेट कहे कि उन लोगों के लिए फिल्म लिखो जो महंगे रेस्तरां और नाइट क्लबों में जाते हैं. दस में से एक तो लिख दूंगा लेकिन हर फिल्म उनपर थोड़े ही लिख सकता हूं. मल्टीप्लेक्स की ऑडियंस को आप दो बीघा जमीन दिखाकर दिखा दो. पांच मिनट में नींद आ जाएगी. छत्तीसगढ़ पर एक फिल्म बनाओ, एक पैसा नहीं आएगा. पीवीआर के दर्शकों को बस यही पता है कि माओवादियों को मार दो. वे देखने ही नहीं आएंगे. मुझे कई बार लगता है कि मल्टीप्लेक्स का ज्यादा दर्शक वर्ग वही फ्रंट बेंचर ऑडियंस है जिसे हम पहले दोष देते थे. अब वह इंग्लिश बोलने वाला फ्रंट बेंचर है. इस देश की बहुत बड़ी गलतफहमी है कि अंग्रेजी बोलने वाला आदमी सुसंस्कृत भी हो गया है. यह ऐसा समझना ही है कि बड़ी गाड़ी वाला आदमी केला खाकर सड़क पर छिलका नहीं फेंकेगा.

लिखते हुए किस तरह की प्रेरणा रहती है? कौन-से किरदार हैं जिनकी कहानियां कहने का मन करता है?

कई बार आपकी जिंदगी आपको कई तरह के भारत की झलक दिखा देती है और जब ऐसा हो जाता है तब आप दिखावा नहीं कर सकते कि यह नहीं होता. मैं उन लोगों को अपनी कहानी में जगह देना चाहता हूं जो कभी कहानियों में नहीं आएंगे. ऐसा लगता है कभी कि इस आदमी का चेहरा किसी चैनल या अखबार में कभी नहीं आएगा, जब तक इसके घर में बम ही न फट जाए. जैसे भोंपू होता है न, ये मीडियम मुझे वैसा ही लगता है जिससे कोई बात मैं सबको बता सकूं.
ऐसे ही मुझे समझ नहीं आता कि एक बंटवारा हुआ होगा. मेरी फेमिली के भी बहुत लोग खोए हैं उसमें, बीदर में दंगे हुए थे, सबसे पहला घर मेरा जला था, मैं जब मुआवजा लेने थाने गया तो पुलिसवाले ने मुझसे रिश्वत मांगी थी, फिर मुझे थप्पड़ मारकर बाहर निकाला था. ऐसा नहीं है कि मैंने देखा नहीं है. लेकिन पार्टीशन में एक आदमी ने कहा कि मैं इसी मिट्टी में जिया हूं, बड़ा हुआ हूं. वह नहीं गया और आपके साथ रह गया. उस आदमी को आज आप शक से देखोगे. मैं उसे फिल्म में लो एंगल से देखना चाहता हूं न कि ऐसे कि साथ वाले घर में मुसलमान रहते हैं. ये बस बच्चे पैदा करते हैं ताकि इनकी संख्या बढ़ जाए और एक दिन सारा भारत मुसलमान बन जाए. मैं उसे उस तरह नहीं देख सकता. मेरा घर जला क्योंकि उस समय उस कस्बे में मैं अल्पसंख्यक था. दिल्ली में रात के दो बजे बस स्टॉप पर खड़ी लड़की अल्पसंख्यक होती है. एक पिक्चर हॉल के अंदर एक विकलांग आदमी अल्पसंख्यक है. कोई भी कहीं भी अल्पसंख्यक हो सकता है. आप सोचते हैं कि आप अल्पसंख्यक नहीं हैं और मैं आपको एक मिनट में अल्पसंख्यक बना सकता हूं.

आपकी ज्यादातर फिल्में सुखांत ही हैं…

मुझे समझ में नहीं आता. रॉकेट सिंह मुझे हैप्पी एंडिंग लगती है पर लोगों को वो भी सैड लगती है. वैसे प्लान करके कुछ नहीं होता, हो जाता है. मुझे लगता है कि जैसे चक दे में साड़ी में सारी लड़कियां आती हैं शान से ऑस्ट्रेलिया में, मैं उन्हें वाकई वैसे देखना चाहता हूं. या छोटेलाल है रॉकेटसिंह में, मैं चाहता हूं कि इन सब लोगों को वह इज्जत मिले जिसके वे हकदार हैं. चाहे वह चपरासी है, चाहे टेक्नीशियन है, मैं उन सबको वही सम्मान देना चाहता हूं जिन्हें हमारा समाज कभी हीरो नहीं मान सकता. छोटेलाल ने छह बच्चे बड़े किए हैं, चार लड़कियों की शादी की है, एक घर बना लिया और उसे वे नीची निगाह से देखते हैं जो किसी उपलब्धि के नाम पर बस बरिस्ता जाकर वापस आ जाते हैं. असली हीरो कौन है? यही असंतुलन मुझे बहुत खाता है. मेरे लिए हैप्पी एंडिंग कोई सिनेमाई नियम नहीं है पर मुझे लगता है कि नॉर्थ इस्ट की इस लड़की को लोग साउथ एक्स में वेश्या समझते हैं, मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के बाद जब वह साउथ एक्स में दिखे तो लोग उसे दूसरी नजर से देखें. तो जो हैप्पी एंडिंग आप कह रहे हैं वह उन लोगों को इज्जत देने के लिए ही होती है. ऐसी वाली तो नहीं होती ना कि सब गले लगकर रो रहे हैं और पुलिस आ जाती है? मैं उस आम आदमी को जितवाना चाहता हूं बस.