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खेल को चाहिए नई नकेल

2010 को भारत के लिए घोटालों का साल माना जाता है. इसी साल कई बड़े घोटाले उजागर हुए. चाहे वह 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी का मामला हो या फिर आदर्श सोसायटी का मामला. इसी साल काले धन के मसले ने भी काफी जोर पकड़ा. 2010 में जब एक पर एक घोटाले सामने आ रहे थे तभी खेलों से जुड़े दो घोटालों ने भी लोगों को सन्न कर दिया. इनमें एक था आईपीएल और दूसरा राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अरबों रुपये के हेरफेर का मामला. आईपीएल में आम लोगों की गाढ़ी कमाई सीधे तौर पर नहीं लगी थी शायद इसलिए यह मामला अपने ढंग से उठकर दब गया. लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में धांधली का मामला शांत होता नहीं दिख रहा है. इसमें सीधे तौर पर सरकारी पैसा यानी आम आदमी की गाढ़ी कमाई में से कर के तौर पर वसूला जाने वाला पैसा लगा था. आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी समेत उनके कई सहयोगी इस मामले में दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद हैं.

जब ये दोनों मामले सामने आए तो हर ओर से कहा गया कि देश में खेलों के संचालन में पारदर्शिता का घोर अभाव है. आरोप लगे कि ज्यादातर खेल संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और सालों से एक ही व्यक्ति या एक ही कुनबा खेल संगठनों पर काबिज है. ये ऐेसेे लोग हैं जिन्हें संबंधित खेलों का कोई अनुभव नहीं है.  यह बात भी सामने आई कि कई लोग एक से ज्यादा खेल संगठनों के कर्ताधर्ता बने हुए हैं. हर तरफ से मांग उठी कि यदि खेलों के संचालन में पारदर्शिता बढ़ेगी तो ऐसे घोटालों पर अंकुश लग सकेगा और खेलों का भी विकास होगा. एक मजबूत कानून की जरूरत पर जोर दिया गया. अब जबकि केंद्रीय खेल राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अजय माकन एक ऐसा मजबूत कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें न सिर्फ विपक्षियों के बल्कि अपने दल के और सहयोगी नेताओं के भी भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि खेल संगठनों के काम-काज पर पहली बार 2010 में ही सवाल उठे.  इन संगठनों पर तरह-तरह के आरोप तो लंबे समय से लगते रहे हैं. 2008 में एक खबरिया चैनल के स्टिंग ऑपरेशन से यह बात सामने आई थी कि भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के महासचिव के ज्योति कुमारन ने राष्ट्रीय टीम में एक खिलाड़ी के चयन के लिए पैसे लिए हैं. अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के लिए जा रही टीम में चयन के लिए कुमारन ने पांच लाख रुपये की रिश्वत की मांग की थी. कुमारन को दो किश्तों में तीन लाख रुपये लेते हुए दिखाया गया था. इस विवाद में कुमारन की कुर्सी तो गई ही साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) ने आईएचएफ की मान्यता भी रद्द कर दी. इसके साथ ही लंबे समय से हॉकी पर कब्जा जमाकर बैठे पूर्व पुलिस अधिकारी केपीएस गिल की भी छुट्टी हो गई. गिल पर भारतीय हॉकी पर अपनी दादागीरी चलाने का आरोप लगता रहा है. भारतीय हॉकी से जुड़े लोग तहलका से कहते हैं कि गिल ने राज्य हॉकी संघों में पुलिस अधिकारियों को पदाधिकारी बनवा दिया था और इसके एवज में ये पदाधिकारी गिल को आईएचएफ का अध्यक्ष बनाए रखते थे. इन लोगों का दावा है कि आईएचएफ में चुनाव नाममात्र को होता था क्योंकि सदस्य गिल को हाथ उठाकर अध्यक्ष चुन लेते थे.

मान्यता रद्द होने पर आईएचएफ के अधिकारी अदालत गए और दूसरी तरफ हॉकी इंडिया के नाम से एक नया संगठन बना. इसे आईओए और अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) से मान्यता मिल गई. लगा अब हॉकी के दिन बदलेंगे. लेकिन यहां भी चुनाव में वही पुराना ढर्रा अपनाया गया और ओलंपिक खिलाड़ी रह चुके 45 साल के परगट सिंह को 83 साल की कांग्रेसी नेता विद्या स्टोक्स ने हरा दिया. एक बार फिर राष्ट्रीय खेल के दिन बदलने का हॉकी खिलाडि़यों का मंसूबा धरा का धरा रह गया. हॉकी इतिहासकार और स्टिकटूहॉकी डॉट कॉम के संपादक के अरुमुगम तहलका को बताते हैं, ‘यह एक अच्छा अवसर था कि भारतीय हॉकी को चलाने का काम किसी हॉकी खिलाड़ी के हाथ में जाता. लेकिन ऐसा हो नहीं सका और हॉकी फिर सियासत की शिकार बन गई. इससे उन पुराने खिलाडि़यों को भी झटका लगा जो हिम्मत करके हॉकी की सेहत सुधारने के लिए खेल प्रशासन की ओर रुख कर रहे थे.’ बाद में अदालत ने आईएचएफ के मामले में आईओए को यह निर्देश दिया कि आप किसी व्यक्ति पर तो कार्रवाई कर सकते हैं लेकिन संगठन को बेदखल नहीं कर सकते. अभी यह मामला अदालत में है.

यदि मेरे थोड़ा समझौता कर लेने से देश का भला हो तो ऐसा करने में हर्ज ही क्या? कपिल देव,पूर्व क्रिकेट कप्तान

2010 के शुरुआती दिनों में हॉकी विश्व कप के ठीक पहले खिलाड़ियों ने बोर्ड पर बाकी 4.5 लाख रुपये मेहनताने को लेकर विद्रोह कर दिया था और तैयारी में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. इससे पता चला कि हॉकी पर राज करने वाला संगठन हॉकी इंडिया खिलाड़ियों के प्रति कितना असंवेदनशील है. इसी तरह महिला हॉकी टीम के कोच एमके कौशिक और आधिकारिक वीडियोग्राफर बसवराज पर यौन उत्पीड़न का आरोप टीम की खिलाड़ी ने ही लगाया. इसके बाद दोनों की छुट्टी कर दी गई.

जनवरी, 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस समय के खेल मंत्री एमएस गिल को सांख्यिकी एवं क्रियान्वयन मंत्रालय में भेजा और गृह राज्य मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय में ले आए. माकन के आते ही मंत्रालय ने राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक लाने की कोशिश की और इसका पहला मसौदा फरवरी में जारी हुआ. जब यह विधेयक अगस्त में केंद्रीय कैबिनेट में पहुंचा तो इसे यह कहते हुए वापस लौटा दिया गया कि इसमें काफी सुधार करने की जरूरत है. हालांकि, विधेयक का मसौदा पढ़ने के बाद यह साफ हो जाता है कि आखिर कैबिनेट ने इस विधेयक को वापस क्यों लौटा दिया. इसमें खेल संगठनों को पारदर्शी बनाने के लिए इन्हें सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने और पदाधिकारियों के लिए उम्र और कार्यकाल की सीमा निर्धारित करने की बात थी. कैबिनेट में जिन मंत्रियों ने इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोध किया वे थे – शरद पवार, विलासराव देशमुख, प्रफुल्ल पटेल, फारुख अब्दुल्ला और सीपी जोशी. ये सभी केंद्रीय मंत्री किसी न किसी खेल संगठन से भी जुड़े हुए हैं.

इसके बाद मंत्रालय ने विधेयक के मसौदे में कुछ बदलाव किए और अब माकन एक बार फिर इसे कैबिनेट में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं. तहलका के साथ बातचीत में वे इस विधेयक को संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में पारित करवाने की इच्छा जताते हुए कहते हैं, ‘हमने पुराने मसौदे में से उन चीजों को हटाया है जिससे लोगों को यह लग रहा था कि हम खेलों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.’ आरटीआई के तहत भी खेल संगठनों को चयन आधार और खिलाडि़यों की फिटनेस से संबंधित सूचनाओं को उजागर नहीं करने की छूट इस नए बिल में दी गई है.
इसके बावजूद इस विधेयक के पारित होने का रास्ता आसान नहीं है. विरोध करने वालों में वििभन्न खेल संगठनों के पदाधिकारी और सिर्फ कैबिनेट के लोग नहीं हैं बल्कि खेल संगठनों पर काबिज सभी दलों के नेता शामिल हैं. इनमें कैबिनेट के पांच नेताओं के अलावा प्रमुख हैं- राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टायटलर, भाजपा नेता और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, दिल्ली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा, भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर, अकाली दल के सुखदेव सिंह ढींढसा, इंडियन नैशनल लोकदल के अभय चौटाला और अजय चौटाला आदि.

माकन के लिए विधेयक पारित करवाना बेहद चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनका विरोध न सिर्फ विपक्षी दलों के लोग कर रहे हैं बल्कि खुद माकन की पार्टी के तमाम प्रभावशाली नेता खुलेआम नए कानून का विरोध कर रहे हैं. भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष और आईओए के कार्यकारी अध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा तहलका के साथ बातचीत में विधेयक पर कड़ा एतराज जताते हुए इसे दमनकारी और असंवैधानिक करार देते हैं, ‘आखिर क्यों माकन देश में खेल को बर्बाद करने पर आमादा हैं. जिस तरह से वे खेलों पर सरकारी कब्जा जमाना चाहते हैं उससे तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. क्योंकि आईओसी ने कहा है कि हम ऐसे सरकारी नियंत्रण को नहीं मानेंगे और अगर ऐसा किया गया तो हम भारत की मान्यता रद्द कर देंगे.’ मल्होत्रा कहते हैं.

आरटीआई के सवाल पर वे कहते हैं, ‘आईओए पर तो अब भी आरटीआई लागू होता है और इसके आर्थिक मामले सीएजी की जांच के दायरे में हैं. इसलिए नए सिरे से कुछ करने की जरूरत ही क्या है. सभी खेल संगठन सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन ऐक्ट के तहत पंजीकृत होते हैं. अगर सरकार खेल संगठनों को आरटीआई के दायरे में लाना चाहती है तो आरटीआई कानून में संशोधन करके सोसाइटीज ऐक्ट के तहत पंजीकृत  सभी संगठनों को आरटीआई के दायरे में ला सकती है. जहां तक सवाल चुनाव में धांधली का है तो ऐसा कहीं-कहीं है हर जगह नहीं…खेल संगठन निर्णय प्रक्रिया में खिलाडि़यों की हिस्सेदारी खुद ही बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.’

खेलों पर सरकारी कब्जा जमाने की कोशिश से तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. वीके मल्होत्रा,कार्यकारी अध्यक्ष, आईओए

खेल प्रशासकों के लिए उम्र की सीमा तय करने के मसले पर 32 साल से तीरंदाजी संघ के अघ्यक्ष  रहे 80 वर्षीय मल्होत्रा कहते हैं, ‘यह कहां का न्याय है कि सांसदों और मंत्रियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं लेकिन खेल प्रशासकों की उम्र सीमा तय हो. प्रधानमंत्री 80 साल के होने वाले हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की उम्र 76 साल है. विदेश मंत्री एसएम कृष्णा 79 साल के हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर खेल संगठनों के प्रमुख 70 साल से अधिक उम्र के हैं.’ इसका जवाब माकन यह कहते हुए देते हैं कि सांसदों या किसी भी जनप्रतिनिधि का चुनाव सीधे जनता करती है जबकि खेल संगठनों के पदाधिकारियों का चुनाव इस ढंग से नहीं होता इसलिए यह तुलना ठीक नहीं है.

हालांकि, खेल संगठनों और खेल प्रशासकों के विरोध के बावजूद खिलाड़ी, खेलों के जानकार और खेलप्रेमियों की तरफ से माकन की कोशिशों को भारी समर्थन मिल रहा है. भारत को पहली दफा क्रिकेट विश्व कप दिलाने वाले कपिल देव तहलका को बताते हैं, ‘यह विधेयक देश में खेलों का भला करेगा. इसे लागू करवाया जाना चाहिए.’ यह पूछे जाने पर कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने इस विधेयक को खारिज कर दिया है, कपिल देव कहते हैं, ‘नए कानून से बीसीसीआई सीधे तौर पर प्रभावित होगी इसलिए वे विरोध कर रहे हैं. मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर मेरे थोड़ा-सा समझौता कर लेने से देश का भला होता है तो ऐसा करने में आखिर किसी को दिक्कत क्यों हो रही है.’

माकन कहते हैं कि जिस तरह का कानून हम लाने जा रहे हैं अगर वैसा कानून पहले होता तो राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो गड़बड़ियां हुईं वे नहीं होतीं. इस बात से सहमति जताते हुए अरुमुगम कहते हैं कि अगर ऐसा कानून होता तो हाॅकी में भी जो गड़बडि़यां हुईं उसकी नौबत ही नहीं आती. यही बात क्रिकेट पर भी लागू होती है. अगर बीसीसीआई के आर्थिक मामलों में पारदर्शिता होती तो संभवतः आईपीएल के नाम पर अरबों रुपये का हेरफेर नहीं होता.

खेल विकास विधेयक के दूरगामी असर के बारे में अरुमुगम कहते हैं, ‘इससे हर खेल को फायदा होगा. मुझे लगता है कि नए कानून से सबसे ज्यादा फायदा हॉकी को मिलने वाला है क्योंकि अभी देश में खेलों की जो स्थिति है उसके लिए अगर सबसे अधिक कोई चीज जिम्मेदार है तो वह है खेलों का प्रशासन गलत हाथों में होना. अगर खेलों को चलाने का काम खिलाडि़यों के हाथों में आता है और हर स्तर पर पारदर्शिता आती है तो इसका फायदा निश्चित तौर पर खेलों को मिलेगा और इसका असर कुछ ही सालों में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत के अच्छे प्रदर्शन के तौर पर दिखेगा.’­

‘वजन बढ़ने का क, ख, ग, समझेंगे तो बात बनेगी’

मोटापे को लेकर डॉक्टर से प्रायः दो तरह के सवाल पूछे जाते हैं. पहला सवाल- क्या मैं मोटा हूं? डॉक्टर एक स्वयंसिद्घ बात को कैसे कहे? भैया, मोटापा जानने का सबसे सटीक तरीका है कि अपने सारे कपड़े उतारकर आदमकद शीशे के सामने खड़े हो जाएं. अब यदि आप एक ही जगह कदमताल करें तो बदन पर यत्र-तत्र चर्बी की लहरों का उठना गिरना ही आपके प्रश्न का उत्तर दे देगा. दूसरा प्रश्न भी बड़ा आम है कि डॉक्टर साब, मेरा वजन कितना होना चाहिये? यूं डॉक्टर के कमरे में लटके चार्टों-टेबलों में, विशेष कद के लिए ‘आदर्श वजन’ दर्ज हुआ रहता है लेकिन आदर्श वजन का मामला भी इतना सरल नहीं है. साधारण सी बात है कि स्वयं को तब मोटा मान लें जब आपसे अपना ही वजन उठाते न बने, जब इंडियन टॉयलेट में बैठने में नानी मरने लगे.

कैलोरी जलकर शरीर को ऊर्जा देती है. जरूरत से ज्यादा कैलोरी को शरीर चर्बी के रूप में जमाकर मोटापा बढ़ाता है

एक और प्रश्न इस प्रश्न से जुड़ा है. आप डॉक्टर से पूछेंगे ही कि वजन कम कैसे करें? प्रायः डॉक्टर का उत्तर बेहद जटिल, अति संक्षिप्त तथा कठिन वैज्ञानिक शब्दावली में पगा होता है. वह उड़ता-उड़ता सा कह देता है कि शक्कर, आलू, चावल कम करिए, घी-तेल मत खाइए, या इसी तरह की कोई कुहासे में डूबी धुंधलके भरी सलाह. कितना कम? इन चीजों की जगह फिर क्या खाएं? इन प्रश्नों के उत्तर में वह आपको डायटीशियन के पास भेज देगा. डायटीशियन आपको ऐसा जन्मपत्रीनुमा चार्ट थमा देता है जिसमें इतनी सारी हिदायतें रहती हैं कि या तो आपका भोजन अलग से पकाया जायेगा, या फिर पत्नी आपसे तलाक ले लेगी. फिर मोटा आदमी क्या करे?

क्या वह डायटिंग करे जिसकी सलाह उसे हर एैरा-गैरा देता रहता है. परंतु डायटिंग कर रहे किसी आदमी को कभी देखा है आपने? मैं बताता हूं ऐसे आदमी की पहचान. एक मोटा-ताजा, हंसमुख आदमी जो अचानक कुछ दिनों से बेवजह चिड़चिड़ा हो गया हो- जान लें कि डायटिंग पर है. क्या करे बेचारा. वह भूखा है. वह निरंतर भोजन की ही सोचता रहता है और बौखलाया-सा रहता है. तो डायटिंग वह चीज है जो लंबे समय तक नहीं सुहाती. तो फिर क्या किया जाए?

मैं आपको कुछ बुनियादी बातें बता दूं फिर उनके आधार पर आप स्वयं ही तय कर सकेंगे कि अपना वजन कैसे कम करें? इन बुनियादी बातों के बिना वजन कम नहीं कर पाएंगे. जब तक आप ठीक से यह नहीं जानेंगे कि आप जो खा रहे हैं उसमें मोटे तौर पर कितनी कैलोरीज हैं, चर्बी या कार्बोहाइड्रेट आदि कितना है तथा वह खाने के बाद कितनी देर में पचकर आपको ताकत देगा- तब तक आप वजन कम नहीं कर पाएंगे. पहले इस कैलोरीज फैट, प्रोटीन, कार्बो आदि की माया समझ लें.

कैलोरीः कैलोरी काे मान लें, ताकत. जो आप खाते हैं वह शरीर में ईंधन बन जाता है. मानव शरीर का बुनियादी ईंधन है ग्लूकोज. आप जो खाते हैं शरीर उसे ग्लूकोज में बदल कर ही ताकत पैदा कर पाता है. कार्बोहाइड्रेट्स तो सीधे ग्लूकोज में बदल जायेंगे. प्रोटीन तथा चर्बी को भी ग्लूकोज में बदलने का जटिल सिस्टम हमारे लिवर में है जो उस मौके पर काम आता है जब किसी कारण शरीर को ग्लूकोज न मिल रहा हो. भूखे हों, डायबिटीज कंट्रोल में न हो रही हो- ऐसी स्थितियों में.

यह ग्लूकोज, ऑक्सीजन की सहायता से शरीर के इंजन में जलकर जो ऊर्जा पैदा करता है वह कैलोरी कहलाती है. जरूरत से ज्यादा कैलोरी की शरीर को जरूरत नहीं होती. कैलोरी का काम है आपको दौड़ने-भागने की ताकत देना, दिल, दिमाग, किडनी को निरंतर सक्रिय रखना. इससे ज्यादा जो भी होगा, वह अंततः चर्बी में बदलकर शरीर में जमा हो जायेगा. अधिक खाना चर्बी बनकर इकट्ठा होता जाता है और आप मोटे होते जाते हो. यह जानना होगा कि हम ऐसा क्या खाते रहते हैं जिसमें बहुत कैलोरी होती है? यह पता चल जाए तो आप उस पर नियंत्रण करके अपने वजन पर नियंत्रण कर सकते हैं.

कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा फैटः खाने की वैज्ञानिक शब्दावली में ये तीन शब्द बराबर आते हैं. इन्हें समझ लें तो मान लीजिए कि वजन पर नियंत्रण की कुंजी आपके हाथ लग जायेगी. कार्बोहाइड्रेट का मतलब है दो तरह के खाद्य पदार्थ. एक तो सरल कार्बोहाइड्रेट जैसे कि शक्कर, ग्लूकोज, फल आदि. ये इस मायने में सरल हैं कि आपने खाया कि सीधे पंद्रह मिनट से आधे पौन घंटे में ही पचकर रक्त में ग्लूकोज बढ़ा देते हैं. इससे तुरंत शक्ति भी मिलती. दूसरे कार्बोहाइड्रेट जटिल कार्बो कहलाते हैं. ये पचने में एक से दो घंटे लेते हैं. ग्लूकोज ये भी बढ़ाते हैं, पर देर से. इनमें आलू, अरवी, गेहूं, चावल, मटर, फलियां आदि आते हैं.

प्रोटीन दूसरा ग्रुप है. इसे पचने में तीन से चार घंटे लगते हैं. इसीलिए यदि भूख लगी हो तो यह तुरंत मदद नहीं करेगा. खा लोगे, पर भूख बनी रहेगी. इस चक्कर में ज्यादा खा जाओगे. शरीर में प्रोटीन का काम मांसपेशियां बनाना, तथा अन्य तोड़फोड़ को वापस दुरुस्त करना है. मांस, मछली, अंडे की सफेदी, दूध तथा दालों में प्रोटीन होता है. तीसरा ग्रुप है फैट या चर्बी. घी, तेल, मक्खन, मलाई, अंडे, की (पीली) जर्दी आदि में मूलतः यही होता है. इसे खा तो लो पर पचने में आठ घंटे लगेंगे. इसमें कैलोरी तो बहुत है परंतु शरीर इसे सीधे ताकत प्राप्त करने में इस्तेमाल नहीं कर पाता, फिर? यह थोड़े बहुत हार्मोन में इस्तेमाल होने अलावा ज्यादातर चर्बी में बदलकर शरीर में यत्र-तत्र जमा हो जाता है. इतने सारे इस ज्ञान का मतलब क्या हुआ भैया? गुस्सा न हों. इस ज्ञान का संदर्भ तब आएगा जब अगली बार आपको वजन कम करने के एकदम वैज्ञानिक तथा सीधे उपाय बताए जाएंगे. सो इसे याद रखियेगा. तब काम आयेगा. 

यह गूंजता हुआ बेबस गुस्सा

शरद पवार पर हरविंदर सिंह ने थप्पड़ एक बार चलाया, टीवी चैनलों ने सैकड़ों बार दिखाया- और हर बार यह बताते हुए कि यह बहुत बुरा हुआ, लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए. अण्णा हजारे बड़ी मासूमियत से इसकी निंदा करते हुए भी यह खुशी छिपा नहीं पाए कि एक ही मारा! यानी यह एहसास सबको है कि जो हुआ सो गलत हुआ. लेकिन फिर भी क्या कोई छिपी हुई संतृप्ति है कि हो गया तो ठीक हुआ? वरना इतने अफसोस में होते तो टीवी चैनल इसे इतनी बार दिखाते क्यों? और अगर उन्हें डर होता कि लोग इसे नापसंद करेंगे तो इसे बार-बार तरह-तरह के बहानों में फेंट और लपेट कर पेश क्यों करते रहते?

यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है

टीवी चैनलों पर ही नहीं, सबसे पहले प्रतिक्रिया देने और दिखाने वाली सोशल साइटों और तरह-तरह के ब्लॉगों पर भी शरद पवार को लगे थप्पड़ पर कुल मिलाकर चुटकी वाला अंदाज ही है. फेसबुक पर कई लोगों ने सलमान खान की फिल्म दबंग का संवाद कुछ बदल कर दुहराया, ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, चैनलों पर बार-बार दिखाए जाने से डर लगता है.’ अगले दिन संसद में भी इस बात पर चिंता जताई गई कि मीडिया नेताओं की छवि खराब कर रहा है. शरद यादव ने कहा कि एक बार चले थप्पड़ को पचास बार दिखाया गया. लेकिन थप्पड़ की यह आवृत्ति सिर्फ मीडिया का चरित्र ही नहीं, हमारे नेताओं की छवि का सच भी उजागर करती है. बेशक, हमारे नेता लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से चुन कर आए हैं; बेशक, उनमें से बहुत सारे लोग ईमानदार हैं या कम से कम ऐसे बेईमान नहीं जैसी उनकी छवि बना दी गई है, लेकिन कुल मिलाकर जनता और नेता के बीच दूरी है और इस दूरी में आपसी सम्मान का भाव कम, जनता की तरफ से शिकायत और नेता की तरफ से उपेक्षा का भाव ज्यादा है. नेता और जनता के बीच खाऊ-पकाऊ और दिखाऊ कार्यकर्ता हैं जो हर काम वफादारी साबित करने से ज्यादा प्रदर्शित करने की नीयत से करते दिखाई पड़ते हैं और इसलिए अपने नेताओं की मनाही के बावजूद अदालत से निकलते हताश और कुंठित हरविंदर सिंह के साथ हाथापाई करते हैं और महाराष्ट्र की सड़कों पर ताकत दिखाते हैं. सुप्रिया सुले या शरद पवार भी इन्हें सख्ती से नहीं रोकते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इससे उनकी राजनीतिक हैसियत प्रकट होती है.

वैसे यह मामला सिर्फ शरद पवार का नहीं है. चाहें तो याद कर सकते हैं कि इराक में मुंतजेर अल जैदी ने बुश पर जूता फेंक कर एक निजी किस्म के प्रतिरोध की जो सनसनीखेज शुरुआत की उसकी सबसे ज्यादा अनुगूंजें भारत में दिखाई दीं. 1984 की सिख विरोधी हिंसा के बाद की नाइंसाफी से तंग एक पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाला था. उसे उसके अखबार से निकाल दिया गया. लेकिन उसके बाद भी बहाने बदलते रहे हैं, निशाने बदलते रहे हैं, लेकिन जूते-चप्पल भारतीय राजनीति में उछलते रहे हैं.

इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से राजनीतिक दल बदलती रहती है

आखिर इसकी वजह क्या है? क्या हमारे नेता बहुत सारे लोगों की निगाह में इस लायक हैं कि उनके साथ ऐसा सलूक हो?  निश्चय ही नहीं, और अगर वे हैं भी तो उसके लिए जिम्मेदार हम हैं, क्योंकि आखिर हम ही तो उन्हें चुन कर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं. फिर यह कहावत चाहे जितनी विदेशी और पुरानी हो, लेकिन पूरी तरह सच है कि जनता को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसी वह खुद होती है.

लेकिन जनता और नेता के बीच का रिश्ता वोट की जगह चोट से बनने लगे तो मानना चाहिए कि गड़बड़ी कुछ ज्यादा है. इस गड़बड़ी के कई संगीन पहलू हैं. एक सच्चाई तो यही है कि आम आदमी इन दिनों अपने सार्वजनिक जीवन में अकेला और असहाय हुआ है. वैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं में उसकी आस्था घटी है क्योंकि उसे कहीं से न्याय मिलता नजर नहीं आता. थानों में उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, अदालतों में अच्छा वकील करने लायक पैसे उसके पास नहीं होते, विधानसभाओं और संसद में उसे ऐसे दागदार चेहरे दिखते हैं जिनके खिलाफ वह शिकायत तक नहीं कर पाता. इस बेचारगी का दूसरा सिरा इस हकीकत से जुड़ता है कि उसकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, उसके अभाव बड़े होते जा रहे हैं और दूसरों की संपन्नता उसका मुंह चिढ़ाती जा रही है. इन सबके बीच हताशा और कुंठा की ऐसी घड़ियां बहुत संभव हैं जिनमें इन सबके लिए जिम्मेदार लोगों को थप्पड़ लगाने की इच्छा पैदा हो और कभी कोई दुस्साहसी शख्स ऐसा कर भी डाले. फिर दुहराना होगा कि यह हरविंदर सिंह के किए की कैफियत नहीं है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि हमारे समाज में हरविंदर जैसे शख्स क्यों बढ़ रहे हैं.

इस संकट का एक पहलू और है. हमारे समाज में हिंसा की स्वीकृति बढ़ी है. कहने को हमारी सरकारें आतंकवाद और नक्सलवाद सबसे लड़ने की बात करती हैं, सबकी भर्त्सना करती हैं, लेकिन उनके अपने बरताव में, हमारी राजनीतिक और सार्वजनिक चर्या में हिंसा इतने सूक्ष्म और स्थूल रूपों में विद्यमान है कि उससे आंख चुराना संभव नहीं है. बल्कि जो ताकतवर लोग हैं वे इस हिंसा की बहुत कुत्सित अभिव्यक्ति में लिप्त पाए जाते हैं. ज्यादा दिन नहीं हुए जब फूलपुर में राहुल गांधी की रैली के दौरान उन्हें काला झंडा दिखाने आए एक शख्स की सार्वजनिक पिटाई हुई. इस पिटाई में आम लोग नहीं, राहुल गांधी के सबसे करीबी रहने वाले नेता और मंत्री शामिल थे. किसी ने इस पिटाई पर अफसोस नहीं जताया, उल्टे वे बताते रहे कि जब बाकी एजेंसियां फेल हो गईं तो कैसे उन्होंने बहादुरी दिखाते हुए अपने राहुल गांधी की रक्षा की.

निश्चय ही यह हिंसक बरताव का बहुत शाकाहारी उदाहरण है. इसके कहीं ज्यादा गंभीर और डरावने उदाहरणों की कमी नहीं. कुछ ही महीने पहले कश्मीर पर प्रशांत भूषण के रुख से नाराज एक दक्षिणपंथी संगठन के लोगों ने उनके चैंबर में घुसकर उन पर हमला किया, उनके साथ मारपीट की. पेंटिंगों और नाटकों पर हमलों का भी जैसे एक पूरा सिलसिला है. इन सबके शिखर 1984 की हिंसा से लेकर 2002 के गुजरात दंगे तक दिखाई पड़ते हैं. इन दोनों के लगभग बिल्कुल बीच पड़ने वाला बाबरी मस्जिद ध्वंस भी हमारे लोकतंत्र विरोधी हिंसक व्यवहार की एक वेधक पुष्टि भर है.

आम तौर पर इन घटनाओं को दलगत नजरिये से देखने के आदी हम पाते और बताते हैं कि एक घटना एक पार्टी विशेष के समय हुई तो दूसरी घटना दूसरी पार्टी के समय. जबकि सच्चाई यह है कि इन सारी घटनाओं के पीछे एक ही तरह के लोग हैं, एक ही तरह की जमात है जो अपनी समझ, सुविधा और जरूरत के हिसाब से अपने राजनीतिक दल बदलती रहती है. मूलतः यह हिंसक प्रतिक्रियावाद किसी भी तरह के नए विचार के विरुद्ध ज्यादा दिखता है और जब उसे अपनी जड़ों पर चोट होती लगती है, तो वह ज्यादा खौफनाक हो उठता है. लेकिन इसके मूल में छिपा पाखंड- चाहे वह धार्मिकता का हो या देशभक्ति का या फिर अहिंसा और सदाचार का- वह छिपा नहीं रह पाता.

दरअसल थप्पड़ जैसे दुस्साहसी प्रयत्न की तीसरी वजह इस पाखंड से भी निकलती है. इस देश में धीरे-धीरे आदमी समझता जाता है कि वह कई पाखंडों के बीच जी रहा है- सदाचार का पाखंड, न्याय का पाखंड, कानूनी समानता का पाखंड और इन सबसे बढ़कर लोकतंत्र की आम सहमति का पाखंड. यह पाखंड फिर उसे ऐसे दुष्चक्र में धकेलता है कि उसका किसी व्यवस्था पर भरोसा बचा ही नहीं रहता. वह अंततः सनसनी का सहारा लेता है और इस आखिरी उम्मीद में चप्पल या थप्पड़ चलाता है कि कम से कम इसकी गूंज सुनी तो जाएगी. लेकिन थप्पड़ पर भी एक आम सहमति बनी दिखती है. इसमें दूसरों के प्रति निंदा भाव तो मिलता है, लेकिन अपने सख्त आत्मालोचन की जरूरत नहीं दिखती. नेता जैसे धूल झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं- इस बात से आश्वस्त कि थप्पड़ मारने वालों से उनके कार्यकर्ता निपट लेंगे या ऐसे लोगों से उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई आंच नहीं आएगी.

जहां तक मीडिया के अपने व्यवहार का सवाल है, उसके अपने असंतुलन छिपे हुए नहीं हैं. लेकिन जनता की नब्ज पर उसका हाथ कम से कम अपने नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा है. उसे यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि ऐसे चप्पल और थप्पड़ वाले दृश्य वह जितना दिखाएगा, जनता उतना ही देखेगी. दुर्भाग्य से वह अपने नेताओं को प्रेम से कम, हिकारत से ज्यादा देखने की आदी हो गई है. ऐसा नहीं कि यह भारतीय मीडिया का ही मिजाज हो. चाहें तो याद कर सकते हैं कि बुश पर चले जूते को पश्चिम के मीडिया ने कितनी बार और कितनी तरह से दिखाया था. उसकी मिनटों और घंटों में गिनती हो रही थी और उस पर रातों-रात वीडियो गेम तैयार कर लिए गए. अमेरिका ने जैदी के जिस जूते को नष्ट कर दिया वह साइबर संसार में पूरी ढिठाई के साथ स्थापित और अमर हो गया.

उन्हीं दिनों हिंदी की मशहूर उपन्यासकार अलका सरावगी ने ‘जनसत्ता’ में अपने साप्ताहिक स्तंभ में एक टिप्पणी करते हुए लिखा था कि मीडिया पर दृश्यों का दुहराव देखकर अक्सर कोफ्त होती है, लेकिन बुश पर जूता उछाले जाने का दृश्य जब भी चलता है, तब यह उम्मीद पैदा होती है कि इस बार तो जूता लग जाएगा. यहां तो किसी उम्मीद की जरूरत भी नहीं. थप्पड़ लग चुका है, बस उसे दिखाने का बहाना चाहिए. 

अपराध और दंड

अकसर देखा गया है कि चैनलों को दूसरों के दुख या परेशानी या कष्ट की खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है. लेकिन कहते हैं कि कभी-कभी ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ जाता है.  सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पीबी सावंत द्वारा दाखिल मानहानि के मुकदमे में पुणे की एक स्थानीय अदालत ने ‘टाइम्स नाउ’ पर 100 करोड़ रु का जुर्माना ठोंक दिया है. यही नहीं, इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट में ‘टाइम्स नाउ’ की अपील पर कोर्ट ने कोई राहत देने से पहले चैनल से कोर्ट में 20 करोड़ रु और 80 करोड़ रु की बैंक गारंटी जमा करने का आदेश दिया है. चैनल ने इसके बाद राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि वह राहत के लिए हाई कोर्ट के पास ही जाए. कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले ने न्यूज चैनलों के साथ-साथ सभी समाचार माध्यमों को सन्न कर दिया है. एडिटर्स गिल्ड से लेकर प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू तक अनेक मीडिया संगठनों और अरुण जेटली जैसे इक्का-दुक्का नेताओं ने भी इस फैसले की आलोचना की है.

यह संयोग नहीं कि अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं 

लेकिन विरोध के सुर बहुत तीखे नहीं बल्कि दबे-दबे और कुछ सहमे-सहमे से हैं. विरोध में औपचारिकता अधिक है. यही नहीं, इस फैसले का विरोध जुर्माने की भारी राशि को लेकर ज्यादा है. सभी मान रहे हैं कि ‘टाइम्स नाउ’ से गलती हुई है और वह गलती जान-बूझकर नहीं हुई है. ऐसे में, वे हर्जाने की इतनी भारी राशि को पचा नहीं पा रहे हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, मानहानि के किसी मुकदमे में यह पहला ऐसा मामला है जहां इतनी बड़ी राशि का हर्जाना ठोंका गया है.

लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अलग-अलग कारणों से ‘टाइम्स नाउ’ पर ठोंके गए इस हर्जाने से अंदर ही अंदर खुश हैं. बहुतों को इसमें एक तरह का ‘परपीड़क सुख’ मिल रहा है. यही कारण है कि देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी के लिए गंभीर और गहरे निहितार्थों से भरे इस फैसले को लेकर वैसी बहस और चर्चा नहीं हो रही है, जैसी कि अपेक्षा थी. यह संयोग नहीं है कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने और बोलने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं या उतनी मुखर नहीं हैं जितनी अकसर दिखाई पड़ती हैं.

पुणे कोर्ट का फैसला सिर्फ ‘टाइम्स नाउ’ तक सीमित मामला नहीं है. यह एक तरह से टेस्ट केस है. अगर यह नजीर बन गया तो अखबारों और चैनलों का आजादी और निर्भीकता के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा. इसका सबसे अधिक फायदा ताकतवर लोग और कंपनियां उठाएंगी. वे इस फैसले का दुरुपयोग चैनलों और न्यूज मीडिया को धमकाने और उनका मुंह बंद करने के लिए करने लगेंगे. आश्चर्य नहीं होगा अगर इस फैसले से प्रेरणा लेकर ताकतवर राजनेता, अफसर, कारोबारी और कंपनियां सिर्फ परेशान करने के लिए चैनलों और अखबारों पर मुकदमे ठोकने लगें. कितने अखबार और चैनल ये मुकदमे लड़ने के लिए संसाधन जुटा पाएंगे? आखिर कितने चैनल और अखबार 100 करोड़ रु का हर्जाना देकर चलते और छपते रह सकते हैं? ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कड़े मानहानि कानूनों के कारण पत्रकारिता के तेवर पर असर पड़ा है. समाचार कक्षों में वकील नए गेटकीपर बन गए हैं. खबरों को संपादकों के साथ-साथ वकीलों के चश्मे से भी गुजरना पड़ता है. इससे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप की स्थिति पैदा हो जाएगी जो वॉचडाॅग पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो सकती है.

लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि चैनलों को मनमानी करने, जान-बूझकर किसी पर कीचड़ उछालने और लापरवाही करने की छूट देनी चाहिए. निश्चय ही, चैनलों को खबरों और विजुअल के चयन और प्रस्तुति में तथ्यों, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता जैसे संपादकीय मूल्यों के पालन पर जोर देना चाहिए. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि तमाम सावधानियों के बावजूद समाचार संकलन और माध्यम के साथ-साथ पत्रकारों की सीमाओं के कारण चैनलों से गलतियां होना असामान्य बात नहीं है. अलबत्ता, ध्यान दिलाने पर उन गलतियों खासकर तथ्यों संबंधी भूलों को तुरंत दुरुस्त न करना कहीं बड़ी गलती है जो चैनल की बदनीयती को जाहिर करता है. ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए. लेकिन अपराध और सजा के बीच भी कोई अनुपात, संतुलन और तर्क होना चाहिए. ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में अदालत के फैसले में यह संतुलन और अनुपात नहीं है.

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी की दुहाइयां देने वाले चैनलों को यह जवाब जरूर देना चाहिए कि वे खुद अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए मानहानि कानून की धमकी क्यों देने लगते हैं. ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें ‘टाइम्स नाउ’ जैसे बड़े चैनलों ने मीडिया साइटों और ब्लॉग लेखकों को कानूनी नोटिस भेजे हैं. आखिर उनमें अपनी आलोचना सुनने को लेकर इतनी तंगदिली क्यों है? क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जो दूसरों की आजादी के हक में नहीं खड़ा होता उसे अपनी आजादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए?     

सिनेमाई समझ वाला रॉकस्टार

रॉकस्टार के शुरुआती दृश्य में रणबीर कपूर रोम की गलियों में भटकते हुए कुछ लोगों से पिटते दिखते हैं. फिर वे बचकर भागते हैं और जल्दी में एक बस की सवारी लेकर अपने कंसर्ट में पहुंचते हैं. वहां पहुंचकर वे आयोजनस्थल पर लगे बैरीकेडों को लात मार कर भीतर घुसते हैं, प्रशंसकों के गगनभेदी शोर के बीच अपने आपको कामचलाऊ तरीके से व्यवस्थित करते हैं और गुस्से में भरा चेहरा ताने माइक की तरफ बढ़ आते हैं. इस एक सीन में आप रणबीर कपूर को एक बेचैन एंग्री यंग मैन के किरदार को आत्मसात करते हुए देख सकते हैं.

‘ मैं आदर्श फिल्मी हीरो जैसे रोल नहीं कर सकता क्योंकि वे मेरे लिए स्वाभाविक नहीं हैं. मुझे राज कपूर की श्री 420 जैसी फिल्में ही पसंद आती हैं. मुझे किरदार का फालतू रहना और व्यर्थ समय गंवाना अच्छा लगता है ‘

रॉकस्टार उस विचार को फिल्माती है जो कहता है कि टूटे हुए दिल से ही संगीत निकलता है. नायक जनार्दन जाखड़ (या जार्डन) के पास सृजनात्मकता भी इसी फलसफे से आती है जिसके बाद वह अकसर बेचैनी में स्टेज पर जोर-जोर से तब तक चिल्लाता है जब तक वह थक कर चूर नहीं हो जाता. जार्डन के इस बेचैन और उग्र किरदार के ठीक विपरीत 29 साल का यह अभिनेता अपने गुस्से और बेचैनी को दरकिनार करके अपना पूरा ध्यान अभिनय पर केंद्रित करना चाहता है. मुंबई के चांदीवली स्टूडियो में अपनी अगली फिल्म बर्फी की शूटिंग में व्यस्त रणबीर कपूर पक्के पेशेवर की तरह पेश आते हैं जो मृदुभाषी और शिष्ट होने के साथ ही सहज भी है. एक मुश्किल सीन को आसानी से सिर्फ एक बार में ओके करने के बाद भी 20वें शॉट तक लगातार बिना विचलित हुए रीटेक देना, सिर्फ इसलिए कि दूसरे को-स्टार भी अपना बेहतर दे सकें, एक पेशेवर अभिनेता होने की ही निशानी है.

रणबीर कपूर के पास ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व है जो लोगों को अपनी तरफ खींचता है और साथ ही एक ऐसा चेहरा भी जो अलग-अलग हाव-भावों को आसानी से पर्दे पर उकेर सकता है. शॉट खत्म होने के बाद रणबीर  अपने में व्यस्त हो जाते हैं. कभी ब्लैकबेरी के साथ तो कभी आई-पैड पर पसंदीदा गेम के साथ. रणबीर से मिलने पर आपको दो चीजें चकित करती हैं. एक उनका कुछ ज्यादा ही सपाट शरीर और दूसरा उनके सुर्ख लाल होंठ जो उनके अंकल शम्मी कपूर की याद दिलाते हैं.

2007 में आई सांवरिया और 2008 की बचना ऐ हसीनों की साधारण शुरुआत के बाद रणबीर ने 2009 में तीन अलग-अलग तरह की फिल्मों से अपनी पहचान मजबूत की थी. शहरी युवाओं की समस्याएं दिखाती वेक अप सिड हो या अनोखी अजब प्रेम की गजब कहानी या फिर सच्चाई दर्शाती राकेट सिंह, सभी में रणबीर ने जमीन से जुड़े किरदार निभा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. इन सभी फिल्मों में वे अपनी दिलचस्प कॉमिक टाइमिंग और नाटकीयता के लिए तारीफें बटोर ले गए. इसके बाद आई फिल्म राजनीति में उनके निर्जीव चेहरे ने उनके प्रशंसकों के एक वर्ग को निराश किया मगर रॉकस्टार में अपनी पीढ़ी का यह सबसे बेहतरीन अभिनेता यह दिखा जाता है कि वह गंभीर सिनेमा भी कर सकता है.

‘मैं कभी किसी शादी में नहीं नाचूंगा. किसी समारोह में जाकर फीता नहीं काटूंगा. कभी फेयरनेस क्रीम, सिगरेट या शराब का एड नहीं करूंगा’

अभी तक की अपनी आठ फिल्मों में रणबीर ने पढ़े-लिखे युवा की भूमिका ही निभाई है. कारण बताते हुए रणबीर कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि मेरा व्यक्तित्व सुपरहीरो वाला है. मैं आदर्श फिल्मी हीरो जैसे रोल नहीं कर सकता क्योंकि वे मेरे लिए स्वाभाविक नहीं हैं. मुझे राज कपूर की श्री 420 जैसी फिल्में पसंद आती हैं. मुझे किरदार का फालतू रहना और व्यर्थ समय गंवाना पसंद आता है. अगर मैं कसरत करने के लिए वजन उठाने वाले सीन में कुछ नया नहीं कर पाता तो उसमें हास्य जोड़ देता हूं, थोड़ा अनाड़ीपन ले आता हूं, वही मुझे बचा ले जाता है.’

फिल्मी परिवार में पले-बढ़े होने के कारण रणबीर फिल्मों की रिलीज के वक्त चिंतित नहीं होते लेकिन जब पिता ऋषि कपूर उनकी फिल्म देखते हैं तब रणबीर जरूर बेचैन होते हैं. वे बताते हैं, ‘मुझे सबसे ज्यादा घबराहट तब होती है जब मेरे पिता मेरी फिल्म देखते हैं. अभी तक उन्होंने सिर्फ दो फिल्में देखी हैं. हाल ही में मैंने उनके साथ एक ऐड फिल्म की थी और मैं बहुत डरा हुआ था क्योंकि मैं जानता था कि अगर मैंने खराब अभिनय किया तो वे इकलौते इंसान हैं जो यह बात आसानी से पकड़ लेंगे और फिर शायद वह यह मान कर चलंे कि मैं हमेशा से ही बुरा अभिनेता था.’ जब रणबीर का जन्म हुआ था तो पंजाब के एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ने उनके दादा राजकपूर को एक टेलीग्राम भेजा था. इसमें लिखा था कि इंडस्ट्री में एक नये हीरो का स्वागत है. पिछले कुछ सालों से रणबीर कपूर को अगले सुपरस्टार की तरह पेश किया जा रहा है. और इस बात से रणबीर वाकिफ भी हैं और सीधे तौर पर स्वीकार भी करते हैं कि ऐसा वे हमेशा से चाहते थे. वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि मैं प्रतिभाशाली हूं. मुझमें वह प्रतिभा है जो मुझे इस देश का सबसे बेहतरीन अभिनेता बना सके. और मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिए मेरे पास काफी सारा अच्छा काम होना चाहिए, ढेरों साल होने चाहिए और इस दौरान मुझे कई तरह के त्याग भी करने होंगे, मगर मैं इन सबके लिए तैयार हूं. मैंने अपने आपको इसके लिए ही तैयार किया है. मेरे आदर्श राज कपूर हैं लेकिन मैं उनसे भी बेहतर करना चाहता हूं. वे मेरे दादा थे और सभी अभिनेताओं में सर्वश्रेष्ठ थे, लेकिन अब वक्त है कि कोई उनसे भी बड़ा अभिनेता और बड़ा निर्देशक आए. यही मेरी महत्वाकांक्षा है.’

रॉकस्टार इसी महत्वाकांक्षा का परिणाम है. चाॅकलेटी हीरो का किरदार करते-करते रणबीर यहां तक तो आ गए लेकिन अब वे बदलाव चाहते हैं. अपनी इस अभिलाषा को बताते हुए रणबीर कहते हैं, ‘अंजाना-अंजानी करने के बाद मैं उस छवि से उकता गया था. अब रॉकस्टार और बर्फी के साथ मैं एक युवा लड़के से युवा आदमी के किरदार की तरफ बढ़ रहा हूं.’ न्यूयॉर्क से फिल्म और ऐक्टिंग स्कूल से पढ़ाई करके लौटने के बाद रणबीर ने परंपरा का सम्मान करते हुए घुड़सवारी, डांस, ऐक्शन और उच्चारण की क्लास ली. लेकिन आज अभिनय की परिभाषा के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘ज्यादातर लोगों को यह गलतफहमी होती है कि अभिनय का मतलब बॉडी बनाना और डांस क्लास में जाना होता है यानी अगर आप दिखने में अच्छे हैं तो आप हीरो बन जाएंगे. मगर अभिनेता बनना उसके आगे की चीज है. आप अपनी जिंदगी में जो कुछ इकट्ठा करते हैं, कभी समझदार बनकर, कभी भावुक होकर और कभी संवेदना के साथ…वह सब एक कलाकार का खजाना होता है. क्योंकि इसके बाद जब आप सेट पर अभिनय करने जाते हैं तो आपके पास देने के लिए बहुत कुछ होता है. अगर आप सिर्फ ऊपर-ऊपर से अभिनय करेंगे तो अभिनेता के तौर पर आपकी उम्र लंबी नहीं हो पाएगी क्योंकि लोग आपका बनावटी अभिनय पकड़ लेंगे.’

रणबीर की शैली देखकर आप समझ सकते हैं कि वे अमेरिकी कला से किस कदर प्रभावित हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि एक निर्देशक की अपने अभिनेता के साथ बढ़िया छननी चाहिए. इम्तियाज अली के साथ उनकी निकटता इसका ताजा उदाहरण है. फिल्म के लिए उनकी तैयारियां भी उनके इस अमेरिकी प्रभाव को जाहिर करती है. वे कहते हैं, ‘रॉकस्टार के लिए हमलोगों ने जनार्दन को तंग जींस और स्वेटर दिए ताकि उसे एक खास चाल दी जा सके. अपने किरदारों के लिए मैं जूतों का काफी उपयोग करता हूं. वेक अप सिड के लिए मैंने ढीले जूते पहने जिससे यह लगे कि यह आलसी बंदा है जो जूते जमीन से रगड़-रगड़ के चलता है. राजनीति के लिए मैंने तंग जूते पहने. यहां तक कि उसमें पत्थर तक डाले ताकि किरदार को असुविधा का अनुभव हो. साथ ही मैं हर फिल्म में अलग-अलग परफ्यूम का उपयोग करता हूं क्योंकि पुरानी खुशबू आपको पुराने वक्त के किरदार में ले जाती है जिससे आज ध्यान केंद्रित करने में मुश्किल होती है.’

एक तरफ जहां रणबीर अपने अभिनय को जीवंत करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाते हैं वहीं वे मेथड ऐक्टिंग और विस्तृत स्क्रिप्ट के पक्ष में नहीं हैं. वजह बताते हुए कहते हैं, ‘राॅकस्टार में एक अभिनेता के तौर पर यह मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं नौसिखिए की तरह गिटार न बजाऊं, ताकि दर्शक मेरे किरदार के साथ खुद को जोड़ पाएं और बेवजह उनका ध्यान मेरे गिटार बजाने की तरफ न जाए. इस तरह की तैयारी आपका काम है और इसमें बहुत समझदार होने की जरूरत नहीं है. किरदार को जानने के लिए मैं उसका इतिहास वगैरह जानना जरूरी नहीं समझता. किरदार की आत्मा, सतहीपन, गहराई जैसी चीजों को समझने के लिए उस किरदार को जान लेना भर काफी होता है.’

रणबीर की इन स्पष्ट और समझदारी भरी बातों के पीछे यह व्यावहारिक ज्ञान भी छिपा है कि अभिनय दूसरों की बातों को समझना और उसे परदे पर उतारना है. वे कहते हैं, ‘आपके अंदर समर्पण का भाव होना चाहिए. मेरे खयाल से यह सबसे ज्यादा जरूरी है. अपने काम के प्रति समर्पण. टैलेंट का यही मतलब होता है शायद. मुझे समर्पण करने से डर नहीं लगता. मुझे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि लोग मुझे बेवकूफ समझें, मेरे निर्देशक मुझ पर चिल्लाएं या लोग मुझ पर हंसें. क्योंकि मेरे काम का यही तकाजा है. मैं शारीरिक और मानसिक तौर पर बेशर्म हूं. मैंने अपनी पहली ही फिल्म में तौलिया गिराने वाला सीन दिया था, कहा जाए तो मैं पूरी तरह से नंगा था, लेकिन मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं हुई. मानसिक तौर पर अगर कोई मुझे ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां बेइंतहा दर्द हो तो मैं उसका अनुभव करने के लिए एकदम से तैयार हो जाऊंगा.’

रणबीर के आत्मविश्वास और अभिनय का संबंध कुछ हद तक अपने शरीर को लेकर उनकी सोच से भी है. गठीले शरीर वाले स्टारों से अलग सोचने वाले रणबीर कहते हैं, ‘अगर मैं बॉडी बनाऊंगा तो मैं हर किरदार में रणबीर रहूंगा, किरदार नहीं. मुझे पूर्णता पसंद नहीं है क्योंकि यह आपको अवास्तविक बना देती है. मुझे त्रुटियां पसंद हैं न कि खूबसूरत चेहरे या गठीला शरीर.’ रणबीर ने अपने गाल पर मौजूद निशान मिटाने से मना कर दिया था जबकि मीडिया अभी भी उस निशान को फोटो पर से हटा देता है. रणबीर को डेविएटेड सेप्टम नाम की तकलीफ है जिसके चलते उन्हें मुंह से सांस लेनी पड़ती है. लेकिन रणबीर ने उसका आॅपरेशन कराने से भी मना कर दिया क्योंकि वे इस स्थिति के साथ सहज हैं. इस दिक्कत की वजह से रणबीर तेज सांसें लेते हैं और जल्दी खाना खाते हैं. और शायद इसीलिए वे हमेशा गतिमान भी रहते हैं.

अपने रिश्तों को लेकर भी रणबीर सुर्खियों में रहते हैं. दीपिका पादुकोण के साथ उनके रिश्ते की काफी चर्चा हुई. इसके खत्म होने के बाद भी उन्हें लेकर अटकलें लगती रहती हैं. सवाल उछलते रहते हैं. जैसे कि, क्या रणबीर ने सोनम कपूर को डेट किया? या नरगिस फाखरी को? मीडिया और पीआर ने रणबीर की एक ऐसी छवि बनाई है जिसमें वे एक साथ दिलफेंक आशिक और मां के लाडले जैसे नजर आते हैं. वैसे जब रणबीर से यह सवाल किया गया कि हीरोइनों के साथ उनके रिश्तों को लेकर उड़ती अफवाहों, लोगों का उन्हें दिलफेंक आशिक बताना और उनका नई हीरोइनों के प्रति आकर्षित होना जैसे आरोपों से वे परेशान नहीं होते, तो उनका जवाब लाजवाब करने वाला था, ‘इनमें से ज्यादातर बातें सच हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि सभी झूठ हैं. मगर लोग इन बातों को बढ़ा-चढ़ा कर और ग्लैमर के साथ बताते हंै. मैं हमेशा इन बातों का बुरा नहीं मान सकता क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सच है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यह एक गलत धारणा है कि ऐक्टर कुछ ज्यादा ही डेट करते हैं. असल में उन्हें जो महिलाएं मिलती हैं वे फिल्म सेटों पर ही मिलती हैं. अभिनेत्रियां, कॉस्ट्यूम डिजाइनर, स्टाफ वगैरह-वगैरह. शायद इसीलिए ज्यादातर अभिनेताओं की शादी अभिनेत्रियों से ही होती है.’ बहुत-से बड़े ब्रांडों का विज्ञापन करने वाले रणबीर इस बात को लेकर कतई असमंजस में नहीं हैं कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता. वे कहते हैं, ‘मैं कभी किसी शादी में नहीं नाचूंगा. किसी समारोह में जाकर फीता नहीं काटूंगा. मैं नहीं चाहता कि मैं अपने बच्चों के लिए करोड़ों का बैंक बैलेंस इकट्ठा करूं जिसे वे लॉस वेगस के जुआघरों में उड़ाएं.’ वे यह भी बताते हैं कि वे कभी फेयरनेस क्रीम, सिगरेट और शराब के विज्ञापन नहीं करेंगे. साथ ही रणबीर को लगता है कि अभिनेताओं को अपना सेलिब्रिटी स्टेटस चैरिटी या कहें तो परोपकार के कामों में इस्तेमाल करना चाहिए.

मगर आखिर में रणबीर के लिए सब कुछ फिल्मों पर आकर ही रुकता है. वे कहते हैं कि वे एक दिन में दो फिल्में देखते हैं. क्रिस्टोफर नोलन की इन्सेप्शन जहां रणबीर को खास प्रभावित नहीं कर पाई वहीं जिंदगी न मिलेगी दोबारा उन्हें काफी अच्छी लगी. फिलहाल उन्होंने तय किया है कि वे साल में सिर्फ दो फिल्मों तक ही सीमित रहेंगे. रणबीर का यह भी मानना है कि उनकी सफलता का कुछ लेना-देना इस बात से भी है कि वे सही वक्त पर सही जगह पर थे. वे कहते हैं, ‘मेरा आना ऐसे वक्त पर हुआ जब आगे की पांत वाले कुछ हीरो एक उम्र के आगे निकल गए थे. इसलिए नौजवानों वाली कई भूमिकाएं मेरे खाते में आ गईं.’
स्टारडम की इस चमक के आगे क्या जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियां मिस नहीं करते, मसलन अपनी कार से कहीं घूमने जाना या फिर दोस्तों के साथ वक्त बिताना? इस सवाल पर रणबीर कहते हैं कि उन्हें समझ में नहीं आता दोनों जिंदगियों में कैसे संतुलन बैठाया जाए. वे कहते हैं, ‘चाहता तो हूं यह सब करना लेकिन अभी इतना फंसा हूं कि निकल नहीं सकता.’ 

सबके शरीर को बराबर दिखाने वाली फिल्म : देसी ब्वॉयज

फिल्‍म देसी ब्वॉयज

निर्देशक  रोहित धवन               

कलाकार  अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, चित्रांगदा

ओमी वैद्य यदि उससे बेहतर ढंग से सोचते हों, जिस ढंग से वे फिल्मों में हिंदी बोलते हैं, तो उन्हें एक बिन मांगी सलाह कि थ्री इडियट्स से बाहर आएं. समय वहीं नहीं रुका हुआ है और वे एआर रहमान नहीं हैं कि खुद को दोहराएं, तब भी उतने अच्छे लगें.
इस शुरुआत के बाद हम चाहें तो फिल्म समीक्षकों की उस मजबूरी का रोना एक और बार रो सकते हैं जिनमें उन्हें हर शुक्रवार फिल्में देखनी होती हैं और पूरी देखनी होती हैं. लेकिन यह न करते हुए हम रोहित धवन की इस फिल्म के बारे में बात करेंगे, जिसमें एडिटिंग के साथ सौतेले बच्चे जैसा बर्ताव किया गया है. हम चाहें तो दीपिका पादुकोण की टांगों और उनके ‘लव आजकल’ के किरदार की भी बात कर सकते हैं जिसमें वे ओमी वैद्य जितनी शिद्दत से तो नहीं, लेकिन फिर भी बैठी रह गई हैं और कुछ उनके निर्देशकों ने उन्हें बिठाए रखा है. और चित्रांगदा ‘मैं हूं ना’ की सुष्मिता जैसे किरदार में आती हैं और ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘ये साली जिंदगी’ देखने के बाद यह कोई बहुत खुशनुमा अनुभव नहीं कि वे अक्षय कुमार के एक सही जवाब के बदले अपने बदन का एक कपड़ा उतारने के लिए फिल्म में हों. लेकिन समय अच्छा नहीं है और यह आप उस बच्चे की बच्ची एेक्टिंग देखकर भी समझ सकते हैं जिसे आपको इमोशनल करने के लिए रखा गया है. जॉन के चेहरे पर आजकल मुश्किल से मिलने वाली मासूमियत है लेकिन वे अपनी एेक्टिंग से कई अच्छे दृश्यों को बर्बाद करने का माद्दा रखते हैं. अक्षय ने अपना काम अच्छा किया है, सिवा उस काम के, जिसे वे कई सालों से ठीक नहीं कर रहे और वह है- अच्छी फिल्म चुनना.

ऐसा नहीं कि सब बुरा है. संगीत अच्छा है, फिल्म में आप कई जगह हंसते हैं, फिल्म अपने पुरुषों और स्त्रियों की त्वचा दिखाने में कोई भेदभाव नहीं बरतती और इस तरह समानता का संदेश देती है. एक बात और, जिसे आप पता नहीं तारीफ समझेंगे या बुराई, लेकिन फिल्म के अंत में क्रेडिट्स के साथ आने वाले शूटिंग के दृश्य फिल्म से ज्यादा अच्छे लगते हैं.

जैसा कि अक्षय एक जगह कहते भी हैं, जॉन और अक्षय साथ में अच्छे लगते हैं, जॉन और दीपिका के साथ अच्छे लगने से ज्यादा अच्छे. गाने हिंदी फिल्मों के परंपरागत महान स्टाइल में बेवजह आते हैं और नायिका चाहे नायक से नाराज भी है लेकिन गाने में मेहनत से नाचती है. बाकी बेशुमार गोरी अधनंगी लड़कियां तो हैं ही, जिस तरह रोहित के पिता डेविड धवन की फिल्मों में होती हैं. इसके अलावा कुछ बासी चुटकुले और क्लाइमैक्स में सिर नोचने को मजबूर करने वाला कोर्टरूम ड्रामा है. प्यार है जो प्यार जैसा लगता तो नहीं और पिता अनुपम खेर हैं जो कई और फिल्मों की तरह डीडीएलजे छाप फिल्मी पिता हैं. किरदारों में बहुत सारी सेक्स की चाह है लेकिन सेक्स कहीं नहीं है और आप चाहें तो इसे पारिवारिक फिल्म मान सकते हैं जैसे आप बहुत सारी दूसरी फिल्मों को मानते हैं.

नाम के नागरिक

यह कहानी मध्य प्रदेश के कुछ ऐसे गांवों की है जिनके रहवासी युद्ध के शरणार्थियों से भी बदतर जीवन जीने को अभिशप्त हैं. हम बात कर रहे हैं प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले अलीराजपुर की. देश के विकास के लिए इन गांवों के लोगों की जिंदगी कुछ टापुओं तक सीमित कर दी गई. ऐसे टापू जो सिर्फ पानी से नहीं बल्कि भूख, कुपोषण और बुनियादी सुविधाओं के अभाव जैसी समस्याओं से भी घिरे हैं.

अलीराजपुर जिले से जो सड़क सोंडवा होते हुए ककराना जाती है उसके दोनों तरफ ऊंचे पहाड़ और उन पर बिखरी हरियाली अपने सौंदर्य से आपकी आंखों और मन को कुछ ऐसे तरबतर कर देती हैं कि आप यहां पहुंचने तक की सारी पीड़ा भूलने की कोशिश करने लगते हैं. जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे पक्की सड़क और मोबाइल सिग्नल का साथ आपसे छूटता जाता है. सड़क पर आपको इक्का दुक्का गाड़िया ही रेंगती हुई दिखाई देती हैं जो यह बताती हैं कि न यहां कोई जल्दी आता है और न ही यहां से बाहर जाता है. गाड़ी आपको ककराना के अंतिम छोर पर नर्मदा के मुहाने पर लाकर छोड़ देती है. यहां पहाड़ों के बीच नर्मदा इतने विस्तारित रूप में है कि आंखें इस तथ्य को आसानी से स्वीकार नहीं कर पातीं कि पहाड़ों की इन गुफाओं के पीछे भी कुछ लोग रहते हैं. वे जिनके लिए पहाड़ ही उनकी धरती है. वे लोग जो इसी देश के नागरिक हैं लेकिन विकास की आंधी ने जिन्हें एक कल्याणकारी राज्य में अनाथों की तरह छोड़ दिया है. जहां उनके लिए जीवनयापन ही युद्ध लड़ने से दुरूह काम जान पड़ता है. ये ऐसे इलाके हैं जिन्हें सिर्फ सरकारी कागजात के आधार पर भारतीय गणराज्य और मध्य प्रदेश का हिस्सा माना जा सकता है.

अलीराजपुर के ये इलाके उन लोगों के घर हैं जिन्हें सरदार सरोवर बांध के कारण विस्थापित होना पड़ा था. विभिन्न कारणों से विवादों की परियोजना बन चुके इस बांध से मध्य प्रदेश के 193 गांव प्रभावित हुए. इनमें से 26 गांव अलीराजपुर जिले के हैं. इन्हीं 26 गांवों में से 15  ऐसे हैं जो चारों तरफ से पानी और पहाड़ों से घिरे हैं. आज जहां आज पानी ही पानी दिखाई देता है वहां कभी इनके लहलहाते खेत हुआ करते थे.ककराना के नर्मदा किनारे से इन गांवों तक जाने का एकमात्र साधन प्राइवेट नावें ही हैं. वे भी जल्दी उपलब्ध नहीं हो पातीं. हम तीन घंटे इंतजार करते हैं तब जाकर एक नाव का इंतजाम हो पाता है.

सुप्रीमकोर्ट के आयुक्तों की रिपोर्ट बताती है कि अंजनवाड़ा में 63 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं

रास्ते में नाव के चालक पुटिया कुछ हैरानी भरी नजरों से देखते हुए हमसे पूछते हैं, ‘ कहां से आए हैं? ‘ जवाब देने पर कहते है, ‘ यहां बाहर से जल्दी कोई नहीं आता. गांवों से भी इलाज आदि इमरजेंसी के लिए ही लोग बाहर जाते हैं.’ रास्ते में नदी के दोनों तरफ पहाड़ों पर झोपड़ियां दिखती हंै. पहाड़ों की ऊंचाई पर इक्के-दुक्के लोग भी. घुमावदार रास्ते और दो घंटे के सफर के बाद हम डूबखेड़ा गांव पहुंचते हैं. यहां पहुंचकर ऐसा लगता है मानों आप किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों. जमीन से 100 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस गांव में कुल 22 घर हैं. एक घर से दूसरे घर के बीच की दूरी कम से कम एक किमी है. एक घर यहां है तो दूसरा पहाड़ के दूसरे छोर पर. यह दूरी भी ऐसी कि जिसे तय करने में आपको दस किमी पैदल चलने वाली थकान होने लगे. गांव में प्रवेश करते ही लोगों की नजरें कुछ इस कदर आपको आशा भरी नज़रों से देखती हैं कि शायद सरकारी मुलाजिम होंगे, कोई राहत लेकर आए होंगे. आसपास खेलते बच्चे भी अपनी इस दुनिया में कुछ नये लोगों को देखकर चौंकते हैं. लेकिन यह पता चलते ही कि हम कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं और कोई राहत लेकर नहीं आए हैं, लोगों के चेहरे पर पूर्व जैसी भावशून्यता पसर जाती है. लोगों से बातचीत करने के बाद हम दूसरे गांव के लिए निकल जाते हैं.

हर गांव में लोगों का एक जैसा ही हाल है. इन गांवों के लोगों के जीवन को करीब से देखने के बाद उनके वर्तमान और भविष्य की एक बेहद अमानवीय और त्रासद तस्वीर हमारे सामने उभरती है.

डूबती जिंदगी की सहारा बस एक नाव

डूबखेड़ा सहित इन 15 गांवों को जो समस्या प्रदेश के डूब प्रभावित बाकी अन्य गांवों से अलग करती है वह है इनका चारों तरफ पानी से घिरा होना. यानी इन गांवों में आने और जाने का एकमात्र साधन नाव है. जब आपको यह पता चल गया कि नाव ही यहां परिवहन का एकमात्र जरिया हो सकता है तो मन में स्वाभाविक सवाल उठता है कि प्रशासन ने इसके लिए क्या व्यवस्था की है. पानी से घिरे इन गांवों में परिवहन की जमीनी हकीकत काफी चौंकाने वाली है.

प्रशासन की तरफ से इन लोगों के लिए सार्वजनिक परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. हां, सिर्फ मानसून के दौरान नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण बाढ़ राहत के नाम पर कुछ नावें किराए पर लेता है. इस संबंध में स्थानीय लोग बताते हैं कि डूब प्रभावित जिलों में बाढ़ राहत के नाम पर सालाना लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं. जिला प्रशासन  भी नावें किराए पर लेता है लेकिन इनसे राहत का कोई काम नहीं किया जाता. इन नावों का दुरुपयोग शराब और राशन के अनाज की तस्करी तथा जंगल से लकड़ियों की अवैध कटाई और ढुलाई में किया जाता है. या फिर ये प्राधिकरण के अधिकारियों को ही ढोने का काम करती हैं.

नर्मदा विकास प्राधिकरण की नावें यहां सिर्फ प्राधिकरण के अधिकारियों को लाने ले जाने का काम करती हैं

साल के बाकी दिनों में यहां आम नागरिकों के लिए कोई नाव नहीं है. जो इक्का-दुक्का नावें चलती हैं वे प्राइवेट हैं. जिनका किराया इतना ज्यादा होता है कि इन गांववालों के लिए उसे वहन कर पाना असंभव जैसा है. अंजनवाडा के बुधिया बताते हैं, ‘ एक बार ककराना जाने आने में ही 100 से 150 रुपये खर्च हो जाते हैं. यहां गांव में लोगों के पास रोजगार नहीं है. हम दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. कैसे इतना किराया चुकाएं?’ गांव के लोग बहुत मजबूरी में ही प्राइवेट नाव से आना-जाना करते हैं. मुलिया कहते हैं, ‘अगर हम सोचें कि शहर जाकर दिहाड़ी मजदूरी कर आएं तो वह भी नहीं कर सकते क्योंकि जितनी मजदूरी मिलेगी उससे ज्यादा पैसा तो नाव वाला ले लेगा.’

डूबखेड़ा के भनिया बताते हैं, ‘ इन सभी गांवों के लोग केवल शनिवार को बाहर जाते हैं. शनिवार को बाजार लगता है. उसी दिन हर घर से एक-एक आदमी घर की जरूरत का सामान लेने बाजार जाता है क्योंकि फिर हम एक हफ्ते तक बाजार नहीं जा पाते.’
स्थानीय लोगों का कहना है कि वे प्रशासन से कई बार प्रशासन से कम से कम एक नाव की व्यवस्था करवाने के लिए अर्जी दे चुके हैं. लेकिन आज तक उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. यहां एनवीडीए (नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण) की कुछ नावें हैं भी लेकिन लोग बताते हैं कि वे सिर्फ प्राधिकरण के अधिकारियों को लाने ले जाने का काम करती हैं.

जीवनयापन भी एक चुनौती है

डूब से पहले इन 15 गांवों के लोगों के पास अपने खेत थे, जहां खूब फसलें होती थीं. जीवन इतना आत्मनिर्भर था कि इन्हें नमक और चीनी के अलावा बाजार से कोई और चीज खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी. डूबखेड़ा के भनिया कहते हैं, ‘ हमने पहले कभी अपनी किसी जरूरत के लिए सरकार का मुंह नहीं देखा. लेकिन बांध बनने के बाद तो हर चीज के लिए तरस गए हैं.’

ग्रामीणों को उनके घर के नजदीक ही रोजगार देने वाली मनरेगा का अस्तित्व भी यहां है. लेकिन इससे ग्रामीणों को अभी तक कोई फायदा नहीं मिला. भनिया कहते हैं, ‘ किसी ने बताया था कि अब सरकार सबको काम दे रही है (मनरेगा). हमने सोचा चलो अब तो हमें भी कोई काम मिल जाएगा. गांव के लोगों ने जाकर सचिव से काम की मांग की तो सचिव ने कहा कि अंजनवाडा आ जाओ. यहां से अंजनवाडा 12 किलोमीटर दूर है जहां नाव से ही जाया जा सकता है. वहां जाने में तो रोज के ही हमारे 100 रुपये खर्च हो जाते इसलिए हम वहां नहीं गए. सचिव से हमने यहीं नजदीक काम का इंतजाम करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया.’

जहां तक अंजनवाडा की बात है तो यहां 27 परिवारों के पास पिछली पंचवर्षीय योजना में जॉब कार्ड नहीं था. लोगों ने जॉब कार्ड बनवाने के लिए कई बार आवेदन किया पर उनके आवेदन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसके चलते ये परिवार भी अपने काम के अधिकार से वंचित रह गए. गांव में किसी के भी जॉब कार्ड पर एंट्री नहीं की गई है. इस दौरान हमें कई ऐसे उदाहरण भी मिले जहां लोगों को काम तो दिया गया लेकिन उन्हें उनकी मजदूरी नहीं मिली या कम मिली. अंजनवाडा में ही लोगों ने तालाब खुदाई का काम छह हफ्तों तक किया लेकिन आज तक किसी परिवार को मजदूरी नहीं मिली है. जबकि मनरेगा कानून के मुताबिक अगर उनकी मजदूरी 7 से 15 दिन के अंदर नहीं दी जाती है तो उन्हें मजदूरी के साथ मुआवजा भी दिया जाना चाहिए. कुछ ऐसी ही कहानी दूसरे गांवों की है. डूबखेड़ा गांव के लोगों ने 2010 में तालाब निर्माण में 26 दिन का काम किया था लेकिन उसकी मजदूरी उन्हें आज तक नहीं मिली. इन इलाकों में ऐसे एक नहीं बल्कि दसियों उदाहरण हैं जहां मनरेगा में मिला रोजगार इन लोगों के लिए एक बड़ा सहारा हो सकता था लेकिन प्रशासनिक उदासीनता ने यहां के लोगों को उनके इस संवैधानिक अधिकार से भी वंचित कर दिया.

लोगों के पास जब रोजगार नहीं है, आमदनी का दूसरा जरिया नहीं है तो ऐसे में सरकारी राशन की भूमिका अहम हो जाती है. लेकिन इस मोर्चे पर भी प्रशासन की असंवेदनशीलता सामने आती है. इन गांवों में घूमते हुए आप लोगों को देखकर उनके पोषण और स्वास्थ्य का अंदाजा बहुत अच्छी तरह लगा सकते हैं. सामने खेलते बच्चों के सीने की हड्डियां गिनने में आपको अपनी आंखों को बहुत तकलीफ देनी नहीं पड़ेगी. क्या बच्चे, बूढ़े और क्या महिलाएं सभी हड्डियों के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं दिखाई देंगे. और यह हालत तब है जब आपको इन गांवों में घूमते हुए कई जगह सरकारी राशन की दुकान के बोर्ड दिखाई देंगे. लेकिन जैसे पूरे देश में सफलता का ढिंढोरा पीटने वाली मनरेगा की हकीकत यहां दूसरी तरह से उजागर होती है वैसा ही हाल इन राशन की दुकानों का भी है. डूबखेड़ा के निवासी वकलिया बताते हैं, ‘ गांव में सिर्फ बोर्ड टंगा है लेकिन यहां से राशन नहीं मिलता. असल में राशन आएगा तब तो मिलेगा. यहां पिछले दो सालों से अनाज आया ही नहीं. सरकारी अधिकारी जब कभी भूले भटके अनाज लेकर आते हैं तो उसे नाव से उतारकर ऊपर नहीं लाते हैं. उसे बोट से ही बांटते हैं. नाव वहां केवल दो घंटे के लिए ही रुकती है. इन दो घंटों में जिसने राशन ले लिया उसने ले लिया बाकी लोग ऐसे ही बिना राशन के अगली बार बोट आने के इंतजार में रह जाते हैं.’ भनिया बताते हैं कि वे पिछली बार राशन नहीं ले पाए थे क्योंकि जिस समय बोट आई उनके पास पैसा ही नहीं था. इन गांवों में भनिया जैसे कई लोग हैं जो सिर्फ इस वजह से सरकारी अनाज नहीं ले पाते क्योंकि जब बोट आती है तब उनके पास पैसे नहीं होते. जलसिंधी गांव के महरिया कहते हैं, ‘ अगर सरकारी अनाज का रास्ता देखेंगे तो भूखों मर जाएंगे. इसीलिए मजबूरन इस पथरीली जमीन पर हाड़ तोड़कर कुछ मोटा अनाज उगाने की कोशिश करते हैं. इससे बस यह होता है कि भूखे मरने की नौबत नहीं आती.’

अंजनवाड़ा गांव के लोग कहते हैं पिछली बार उन्हें तीन महीने का एकमुश्त राशन दिया गया था. सरकारी हिसाब से हमें पूरे गांव के लिए तीन महीने का राशन बनता है 5615 किलो लेकिन उन्हें मिला 1700 किलो. गांव के प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 35 किलो महीने के हिसाब से राशन मिलना चाहिए लेकिन मिला केवल सात किलो राशन. गांव के दाजिया कहते हैं,  ‘ न तो हमें उतना अनाज मिलता जितना सरकार ने खुद देने का वादा किया है और न ही यह तय होता है कि हमें राशन में क्या मिलेगा. आप इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि हमें चावल पिछली होली में देखने को मिला था.’

अंजनवाड़ा गांव के तकरीबन सारे लोगों को सरकार ने गरीब न मानते हुए एपीएल कार्ड दिया है

भोजन के अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट आयुक्तों के राज्य सलाहकार सचिन जैन ने भी कोर्ट के आयुक्तों को सौंपी अपनी रिपोर्ट में इन गांवों में पोषण, स्वास्थ्य समेत अन्य बुनियादी मानवीय सुविधाओं तथा अधिकारों की भयावह तसवीर उजागर की है. रिपोर्ट के मुताबिक अंजनवाडा में जहां 63 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. वहीं बाकी गांवों के लोगों के पास केवल आठ महीने के अनाज की ही उपलब्धता है शेष चार महीने इन्हें भूख के साथ जीना पड़ता है. इससे निपटने के लिए वे राबड़ी जैसे भोजन (आटे को ज्यादा पानी में घोलकर नमक मिलाकर बनाई गई सामग्री ) से पेट भरने की कोशिश करते हैं. ताकि शेष नौ माह के भोजन की व्यवस्था की जा सके.

गांवों में भयानक खद्यान्न संकट है. एक अन्य गांव भिताड़ा की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. यहां गांव के सरपंच ने जाति प्रमाण पत्र बनवाने के नाम पर गांव के सभी परिवारों के राशन कार्ड पिछले दो माह से अपने पास रखे हैं. इस गांव में भी सरकारी राशन व्यवस्था का वही हाल है जो बाकी दूसरे गांवों में है. भले ही शासन से एपीएल और बीपीएल को राशन देने की राशि अलग अलग रखी हो लेकिन यहां सभी को एक दर पर राशन दिया जा रहा है. इसकी वजह पूछने पर सरपंच बताते हैं कि सरकारी अनाज को यहां तक लाने के लिए अलग से कोई रकम नहीं मिलती इसलिए इसकी ढुलाई के खर्च की भरपाई गांव के विकास के लिए मिली दूसरी रकम से की जाती है. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक इस गांव में हमेशा समय से और पूरी मात्रा में अनाज दिया गया. गांव में 271 राशन कार्ड वाले लोग हैं. नियम के अनुसार इन्हें हर माह 94 क्विंटल अनाज मिलना चाहिए लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि इन्हें केवल सात क्विंटल अनाज मिल रहा है.

कुछ वक्त पहले तेंदुलकर कमिटी ने जब बताया कि देश में केवल 37 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं तो उसकी बात पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ. लेकिन वह कमिटी बिलकुल सच कह रही थी. 37 फीसदी का आंकड़ा कैसे निकला होगा इसका जीता जागता उदाहरण आप अलीराजपुर में देख सकते हैं. जिस अंजनवाडा गांव के बार में हम बात कर रहे हैं उसके बारे में यह जानकर आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे कि गांव में कोई गरीब नहीं है. प्रशासन ने गांव के सभी लोगों को एपीएल (यानी गरीबी रेखा से ऊपर) वाला कार्ड दिया गया है. इस वजह से लोगों को न सिर्फ सरकारी अनाज की कीमतें ज्यादा चुकानी पड़ती हैं साथ ही वे उन तमाम सरकारी कल्याणकारी योजनाओं जैसे वृद्धावस्था पेंशन, अंत्योदय योजना, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, दीनदयाल स्वास्थ्य योजना आदि से बाहर हो गए हैं जो बीपीएल  लोगों के लिए हैं.

प्रशासन के पास इस बात का अपना तर्क है. इसके मुताबिक 2006 के बीपीएल सर्वे में पात्र परिवारों की सूची प्रकाशित की गई थी लेकिन इसमें नाम जोड़ने के लिए इस गांव से किसी ने भी 10 दिन के भीतर आवेदन नहीं किया. प्रशासन का यह जवाब सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का सीधा उल्लंघन है जिसमें कोर्ट ने कहा है कि बीपीएल सूची में नाम जुड़वाने और काटने की प्रक्रिया सालभर सतत जारी रहनी चाहिए. सूची में नाम जोड़ने का दावा कोई भी व्यक्ति कभी भी कर सकता है और दावा आने के 10 दिन के भीतर तहसीलदार को जांच और सर्वे के बाद मामले का निराकरण करना होगा. हालांकि जहां संविधान के मौलिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाने में कोई कोरकसर न छोड़ी गई हो वहां इस बात को कौन तवज्जो देगा.
2004 और 2005 में सुप्रीम कोर्ट के आयुक्त एनसी सक्सेना और एसआर शंकरन ने डूब प्रभावित गांवों में भुखमरी और खाद्य असुरक्षा की स्थिति को देखते हुए तत्कालीन मुख्य सचिव विजय सिंह को कुछ निर्देश दिए थे. इनमें कहा गया था कि डूब प्रभावित सभी अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को मुफ्त में राशन दिया जाए या फिर अंत्योदय की दर पर. इसके अलावा प्रत्येक डूब प्रभावित गांव में राशन दुकान खोलकर हफ्ते में कम से कम एक बार अनाज वितरण किया जाए.  जमीनी स्तर पर जो व्यवस्था लागू है वह इस निर्देश के ठीक विपरीत है. अंत्योदय योजना में शामिल करना तो दूर शासन ने इन गांवों के लोगों को गरीबी रेखा के ऊपर घोषित कर दिया. गांव के लोग कई सालों से अंत्योदय योजना में शामिल करने की बात कर रहे हैं. लेकिन शासन का कहना है कि ये लोग चूंकि गरीबी रेखा से ऊपर हैं इसलिए इन्हें अंत्योदय अन्न योजना का लाभ नहीं दिया जा सकता. जबकि इस बारे में उच्चतम न्यायालय का साफ आदेश है कि अंत्योदय अन्न योजना में शामिल होने के लिए बीपीएल में शामिल होना जरुरी नहीं है.

भगवान भरोसे स्वास्थ्य

डूब के इन 15 गांवों में से किसी में भी न तो कोई सरकारी अस्पताल है,  न डॉक्टर और न ही कोई दवा दुकान. चारों तरफ पानी और पहाड़ से घिरे इन गांवों में अगर कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाए तो उसे ककराना ही जाना पड़ता है. ककराना के सबसे नजदीकी गांव से वहां पहुंचने में दो घंटे का समय लगता है. यहां पहुंचने के लिए लोगों को प्राइवेट नाव का इंतजाम करना पड़ता है. जैसा कि पहले जिक्र हो चुका है कि प्राइवेट नाव भी इक्की दुक्की ही हैं इसलिए वक्त पर नाव का इंतजाम हो पाना भी किस्मत की बात होती हैं. इसके बाद भी किसी तरह जब मरीज ककराना पहुंचता है तो यहां स्थित एकमात्र उप स्वास्थ्य केंद्र जिस पर इन 15 गांवो के स्वास्थ्य-उपचार की जिम्मेदारी है, वह हमेशा की तरह बंद मिलता है. गांव वाले कहते हैं कि स्वास्थ्य केंद्र पिछली बार कब खुला था यह बता पाना भी उनके लिए मुश्किल है. इसके बाद लोगों को इलाज के लिए सोंडवा (अलीराजपुर) या फिर डही (धार) जाना पड़ता है. यहां पहुंचने में दो घंटे और लगते हैं. यह रास्ता कुछ इस कदर खराब है कि गाड़ियां रेंगती हुईं चलती हैं. ककराना से यहां जाने के लिए इक्की दुक्की गाड़ियां ही हैं. इसलिए लोगों को फिर किसी प्राइवेट गाड़ी करके जाना पड़ता है. इसका किराया कम से कम 600 से 800 रुपये होता है. वहीं नाव से ककराना लाने तक का किराया उन्हें 200 रुपये के करीब देना पडता है. इस प्रकार लगभग हजार रुपये खर्च करके तथा चार से पांच घंटे का सफर करने के बाद ये लोग किसी अस्पताल पहुंच पाते हैं. ऐसे में इस बात का बहुत सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है की अगर किसी की अचानक तबीयत खराब हो गई तो उसके बचने की कितनी संभावना है.

जलसिंधी गांव के अंबाराम बताते हैं, ‘ 2006 में जिला स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा था कि इन 15 गांवों के लिए जलसिंधी और भिताड़ा में स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किया जाएगा. ऐसा हुआ भी लेकिन यह केंद्र सिर्फ एक साल तक चल पाया. शासन का कहना है कि उसने स्वास्थ्य कार्यकर्ता नियुक्त किए हैं जो नियमित रुप से इन गांवों का दौरा करते रहते हैं. लेकिन अंजनवाड़ा गांव के लोग बताते हैं कि पिछली बार स्वास्थ्य कार्यकर्ता बाल सुरक्षा अभियान और पल्स पोलियो अभियान के सिलसिले में गांव आए थे. इस साल तो जनवरी से लेकर अब तक कोई गांव नहीं आया.

मध्य प्रदेश के ठीक विपरीत महाराष्ट्र ने अपने हिस्से के डूब वाले गांवों के लिए मोबाइल हेल्थ बोट की व्यवस्था की है. वहां प्रभावित परिवारों की नियमित स्वास्थ्य जांच और गांव में ही डॉक्टर की सुविधा दी गई है. साथ ही सरकार ने आपात स्थिति में मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के लिए भी सुविधा प्रदान की है. गांव वाले कहते हैं, ‘ जब महाराष्ट्र सरकार अपने नागरिकों के लिए ये सुविधाएं कर सकती है तो फिर हमारी सरकार क्यों नहीं.’

ग्रहण की चपेट में अधिग्रहण कानून

विकास के बहाने किसानों से ली जा रही जमीन के बदले उनका वाजिब हक देने के मकसद से बनाया जा रहा नया जमीन अधिग्रहण कानून सियासी शह-मात का शिकार होता दिख रहा है. कांग्रेस पार्टी की चाहत है कि नया कानून जल्द-से-जल्द बने वहीं दूसरे दलों (भाजपा और बसपा) को डर है कि जल्द कानून लाने से कांग्रेस को चुनावी लाभ मिल जाएगा. सारी खींचतान उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के चलते मची है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और राहुल गांधी ने बार-बार यह इच्छा जताई कि नया भूमि अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में ही पारित हो जाए. मानसून सत्र में यह विधेयक संसद में पेश किया गया था और विपक्षी दलों व सिविल सोसाइटी की तमाम आपत्तियों के बीच इसे ग्रामीण विकास की स्थायी संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था. इसी समिति में विधेयक को लेकर शह और मात का खेल चल रहा है.

समिति की अध्यक्ष इंदौर की वरिष्ठ भाजपा नेता और सांसद सुमित्रा महाजन हैं. तहलका से बातचीत में वे कहती हैं, ‘समिति विभिन्न पक्षों की राय ले रही है. हमने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पक्ष सुन लिया है. सिविल सोसाइटी के लोगों से भी बात हुई है. 16 नवंबर को समिति की बैठक फिर से होने वाली है.’ यह पूछे जाने पर कि क्या शीतकालीन सत्र में समिति अपने सुझावों के साथ विधेयक का अंतिम स्वरूप संसद को वापस भेज देगी, वे कहती हैं, ‘हम अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन जमीन अधिग्रहण बेहद संवेदनशील मुद्दा है और हम इसमें कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहते.’ संकेत साफ हैं कि राहुल गांधी और जयराम रमेश की इच्छा चाहे जो हो, शीतकालीन सत्र में यह कानून पारित होता नहीं दिख रहा. इसकी पुष्टि समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने तहलका से बातचीत में की. उन्होंने कहा कि ऑफ द रिकॉर्ड सच्चाई यह है कि शीतकालीन सत्र तक हम इस विधेयक को वापस नहीं भेज रहे इसलिए इसके पारित होने का सवाल ही नहीं उठता.

इस समिति के सदस्यों की कुल संख्या 31 है लेकिन अभी एक जगह खाली है. इसमें कांग्रेस, भाजपा, बहुजन समाज पार्टी समेत कई अन्य राजनीतिक दलों के सांसद भी शामिल हैं. यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि जमीन को लेकर हर दल की अपनी एक अलग राजनीति है. कांग्रेस जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी-से-जल्दी इसलिए लाना चाहती है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है और राहुल गांधी ने जिस तरह से उत्तर प््रदेश में इस मुद्दे को हवा दी है उसमें इसका पास होना न होना कांग््रेस  के लिए बड़ा मायने रखता  है. यमुना एक्सप्रेसवे के आसपास जिस तरह से किसानों की जमीन ली गई उसे आधार बनाकर राहुल गांधी भट्टा-पारसौल भी गए और बाद में अलीगढ़ में नौ जुलाई को किसान महापंचायत का भी आयोजन किया.

इस विधेयक को संसदीय समिति के चक्रव्यूह से निकलवाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर हो गई है

इलाके के लोग भी यही कहते  हैं कि अगर राहुल गांधी या उनकी केंद्र की सरकार हमारे हितों की रक्षा करने में सक्षम जमीन अधिग्रहण कानून लाती है तो वे 2012 में वोट कांग्रेस को ही देंगे. इस इलाके मेंं जमीन इतना बड़ा मुद्दा इसलिए बन गया है कि इलाके के किसानों और पुलिस-प्रशासन के बीच हुए संघर्ष में कुछ किसानों की जान भी गई. दूसरी वजह है कि किसानों से जिस भाव पर जमीन ली गई उससे कई गुना ऊंची कीमत पर उसे रियल एस्टेट के धुरंधरों के हाथों बेचा गया. यही वजह है कि इलाके के किसानों ने पदयात्रा कर रहे राहुल गांधी को बार-बार याद दिलाया कि हमें जमीन के बदले उचित मुआवजा दिलाओ और अगले चुनाव में हमारे वोट ले जाओ.

स्वयं राहुल मानते हैैं, ‘मौजूदा जमीन अधिग्रहण कानून बहुत पुराना है. हमारी पूरी कोशिश होगी कि हम इस कानून को बदलें, लोकसभा में आपको एक ऐसा कानून दें जिससे आप सबको फायदा हो.’

अब जरा घटनाक्रम पर ध्यान दीजिए. नौ जुलाई को राहुल गांधी अलीगढ़ में बोले और 12 जुलाई को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल किया. ग्रामीण विकास मंत्रालय में सीपी जोशी की जगह ली अपेक्षाकृत तेज-तर्रार माने जाने वाले जयराम रमेश ने. रमेश ने पर्यावरण और वन मंत्रालय में रहते हुए अपनी पहचान एक सरोकारी नेता  के रूप मेंं बनाई है. उन्होंने कई औद्योगिक परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने से मना किया. इस वजह से उनसे काॅरपोरेट जगत के लोग थोड़े नाराज भी थे. जानकारों का मानना है कि ऐसे में उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय में लाना एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था.

जल्द ही इस रणनीति  से पर्दा हट गया जब नया मंत्रालय संभालने के दो महीने के भीतर ही सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून के नए मसौदे को संसद में पेश कर दिया गया. रमेश ने इतनी तेजी इसलिए दिखाई कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इससे पहले ही राज्य में जमीन अधिग्रहण की नई नीतियां लागू कर चुकी थीं. देश के मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानूनों में इसे सबसे अच्छा बताया गया. ऐसे में राहुल गांधी की उत्तर प्रदेश की राजनीति को मजबूत करने के लिए यह जरूरी था कि केंद्र कोई ऐसा कदम उठाए जिससे प्रदेश के लोगों को लगे कि राहुल गांधी और कांग्रेस उनके लिए कुछ कर रहे हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि संसद का सत्र खत्म होते-होते नया जमीन अधिग्रहण विधेयक रमेश ने पेश कर दिया और इसे 13 सितंबर को स्थायी संसदीय समिति में भेज दिया गया. संसद में विधेयक पेश करने के बाद रमेश ने कहा, ‘यह एक राजनीतिक समस्या का राजनीतिक जवाब है. सिर्फ 55 दिनों के अंदर इस कानून के मसौदे को तैयार करवाने, कैबिनेट से मंजूरी दिलवाने और इसे संसद में पेश करवाने का श्रेय राहुल गांधी को जाता है. राहुल गांधी ने इस विधेयक के बुनियादी सिद्धांतों के बारे में कई सुझाव दिए.’ जयराम का यह बयान इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि राहुल गांधी की सियासत में इस कानून की कितनी अहमियत है.

इस बीच ग्रामीण विकास को लेकर बनी स्थायी संसदीय समिति का पुनर्गठन हुआ और एक अक्टूबर से नई समिति अस्तित्व में आई. जमीन अधिग्रहण कानून पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल यहीं चल रहा है क्योंकि भाजपा और बसपा को लग रहा है कि अगर जमीन अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में पारित हो गया तो उत्तर प्रदेश में अगले साल मार्च-अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा उठाने का पर्याप्त समय मिल जाएगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस मोटे तौर पर एक ही सियासी जमीन को कब्जा जमाने की कोशिश में जुटे हैं और दोनों ही पार्टियां तीसरे स्थान की अपनी दावेदारी मजबूत रखना चाहती हैं. वहीं बसपा इस कानून को किसी हाल में इसलिए नहीं पास होने देना चाहती कि इससे मायावती ने जो कानून बनाया है उसकी हवा निकल जाएगी और कांग्रेस इसका फायदा उठाएगी.

अपने-अपने सियासी हितों के चलते भाजपा और बसपा खुद को एक ही जमीन पर पा रहे हैं. संसदीय समिति के एक सूत्र के मुताबिक इन दोनों पार्टियों के सदस्य इस विधेयक को कम से कम उत्तर प्रदेश के चुनाव निपटने तक लटकाए रखना चाहते हैं. समिति में कांग्रेस के दस सदस्य हैं और इसमें अगर उसके सहयोगी दलों को जोड़ दें तो यूपीए के सदस्यों की कुल संख्या हो जाती है 13. जबकि अन्य की संख्या है 17. ऐसे में इस विधेयक को संसदीय समिति के चक्रव्यूह से निकलवाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर हो गया है. कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी कहते हैं, ‘कांग्रेस तो चाहती है कि जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी से जल्दी पारित हो. लेकिन अब सब कुछ स्थायी संसदीय समिति पर निर्भर करता है.’

ऐसा लगता है कि जयराम रमेश को संसदीय समिति के अंदर चल रहे सियासी दांवपेंच का अहसास है. यही वजह है कि उन्होंने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली से मुलाकात कर यह अनुरोध किया कि वे सुमित्रा महाजन को विधेयक पास करके संसद वापस भेजने के लिए तैयार करें. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज रमेश की बात कितना मानेंगे, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि भाजपा राहुल गांधी को किसी तरह का सियासी लाभ नहीं लेने देगी.

खबर है कि सुमित्रा महाजन ने रमेश को बता दिया है कि उन्हें 700 से अधिक सुझाव मिले हैं, इसके अलावा वे राज्यों से भी इस संबंध में सलाह-मशविरा करने के बाद ही फाइनल मसौदा संसद को भेजेंगी. यहां बताते चलें कि नौ राज्यों में भाजपा की सरकार है और बसपा भी उनकी राजनीति को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती. नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर के साथ स्थायी संसदीय समिति के पास अपना पक्ष रखने गए माटू जनसंगठन के विमल भाई कहते हैं, ‘जब हम अपनी बात रख रहे थे तो सबसे ज्यादा आपत्ति और टीका-टिप्पणी बसपा के सांसद ही कर रहे थे. हमें यह सब देखकर ऐसा लगा कि किसानों के नाम पर कानून बनाने की आड़ में यहां दलगत राजनीति चल रही है और इस विधेयक की खामियों को दूर करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.’

इस स्थायी संसदीय समिति की अब तक सिर्फ तीन बैठकें हुई हैं. दूसरी तरफ कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली उस स्थायी संसदीय समिति की अब तक कई बैठकें हो चुकी हैं जिसके पास लोकपाल कानून का मसौदा है. जब तक समिति की सिफारिशें नहीं आ जातीं तब तक अंतिम मसौदा तैयार होकर कैबिनेट में नहीं जाएगा और न ही इसे संसद से पारित करवाकर कानून का रूप देना संभव होगा.

राजनीति को जानने-समझने वाले लोग मानते हैं कि राहुल गांधी की सियासी उड़ान में पर लगाने का काम उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे करेंगे और अगर प्रदेश में कांग्रेस तीसरे नंबर पर भी नहीं रही तो केंद्र में अहम भूमिका के लिए राहुल का इंतजार थोड़ा लंबा खिंच सकता है. राहुल गांधी ने प्रदेश के सियासी ताप को जिस तरह से अपनी यात्राओं के जरिए बढ़ाया था उस पर पानी डालने का काम अन्ना हजारे के आंदोलन ने किया. इसलिए जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी-से जल्दी पारित करवाना और इसका चुनावी लाभ लेना कांग्रेस की रणनीति का अहम हिस्सा है.

और कितनी आहुतियां?

हरिद्वार में जिला प्रशासन और गायत्री परिवार की बदइंतजामियों के कारण नौ नवंबर को गायत्री महायज्ञ में मची भगदड़ ने 20 जिंदगियां लील लीं. पिछले साल ही हुए महाकुंभ में मची भगदड़ में नौ श्रद्धालु मरे थे. परंतु प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया. मरने वाले 20 साधकों में से देश के अलग-अलग हिस्सों से आई 18 महिलाएं थीं.

इस घटना ने एक बार फिर दिखाया कि बदइंतजामी के साथ जब पिछली गलतियों से न सीखने की जिद, अपने प्रभाव को दिखाने की होड़ और अमानवीयता जैसे दुर्गुण मिल जाएं तो इसके नतीजे कितने भयानक हो सकते हैं. यह हादसा गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा की जन्म शताब्दी के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय गायत्री परिवार द्वारा आयोजित गायत्री महाकुंभ में हुआ. विज्ञापनों में इस आयोजन को गत वर्ष हुए हरिद्वार महाकुंभ को टक्कर देने वाला बताया जा रहा था. आयोजन के इंतजामों के सामने सरकार द्वारा आयोजित कराए गए महाकुंभ के इंतजामों को तुच्छ बताने वाली खबरें भी लगभग सभी अखबारों में छप रही थीं. आयोजन का बेस कैंप लालजीवाला था. वहीं 1551 कुंडीय यज्ञशाला बनी थी. महाकुंभ और इस आयोजन में अंतर इतना ही था कि महाकुंभ में दुनिया भर के हिंदू आस्थावान पुण्य प्राप्ति के लिए बिना किसी के बुलावे के खिंचे चले आते हैं जबकि गायत्री महाकुंभ में गायत्री परिवार ने अपने साधकों को महायज्ञ में आहुति देने के लिए एकत्रित किया था.

गायत्री परिवार संगठन की नींव पं. श्रीराम शर्मा ने रखी थी. यह संगठन दुनिया भर में अपने आठ करोड़ साधकों के होने का दावा करता है. युग निर्माण योजना और युग परिवर्तन इस धार्मिक संस्था के उद्देश्य हैं. पं. श्रीराम शर्मा के निधन के बाद गायत्री परिवार के प्रमुख अब उनके दामाद प्रणव पंड्या हैं.

पांच दिवसीय महाकुंभ की शुरुआत छह नवंबर को शोभा यात्रा (कलश यात्रा) के साथ हुई. अगले ही दिन सात नवंबर को देव पूजा के साथ गायत्री महायज्ञ शुरू हो गया. गायत्री परिवार के प्रवक्ता दिनेश व्यास के अनुसार इस आयोजन में हर दिन दो से लेकर पांच लाख तक साधकों के आने की संभावना थी. गायत्री परिवार ने पुलिस प्रशासन से बेहद कम मदद ली थी. भीड़ को स्वयंसेवक ही संभाल रहे थे. यज्ञ की समाप्ति (पूर्णाहुति) कार्तिक पूर्णिमा के दिन 10 नवंबर को होनी थी. व्यास के अनुसार पिछले दो महीनों से लगभग 25 हजार स्वयंसेवक दिन-रात महायज्ञ की तैयारियों में लगे थे.

खुद को बड़ा दिखाने की होड़ में संत कोशिश करते हैं कि उनके आयोजन में ज्यादा से ज्यादा लोग और वीआईपी आएं

आठ नवंबर को भी सुबह 7.45 बजे यज्ञ अग्नि प्रज्जवलित हुई. लेकिन यज्ञ में आहुति देने वालों की भीड़ तड़के चार बजे से ही जमा होने लगी थी. एक बार में 18  हजार साधकों को यज्ञ में आहुति देनी थी. आहुति के लिए एक बार में साधकों को 20 मिनट दिए गए थे. दो शिफ्टों के बीच समय नहीं रखा गया था. गायत्री परिवार ने पहले केवल कार्डधारक साधकों को ही यज्ञ में आहुति देने की अनुमति दी थी, परंतु बाद में आयोजकों की ओर से घोषणा की गई कि बाकी लोग भी यज्ञ में आहुति डाल सकते हैं. सुरक्षा व्यवस्था की निगरानी कर रहे एक अधिकारी बताते हैं कि इस घोषणा के बाद बड़ी संख्या में हरिद्वार आने वाले आम यात्री भी आहुति डालने पहुंचने लगे जिससे अव्यवस्था पैदा होने लगी. गौरतलब है कि हरिद्वार में हर दिन हजारों यात्री पहुंचते हैं.

यज्ञशाला तक पहुंचने के लिए एक बार सीढ़ियां चढ़कर ऊपर प्लेटफॉर्म तक पहुंचना था और फिर ऊंचाई पर बने प्लेटफाॅर्म से सीिढ़यों द्वारा नीचे उतर कर ही यज्ञकुंडों तक पहुंचा जा सकता था. उस दिन वहां मौजूद एक साधक के अनुसार पंडाल में बने 1551 यज्ञकुंडों में एक साथ हवन होने से अंदर धुआं बढ़ता जा रहा था. पुरवाई हवा चल रही थी जिससे धुआं दक्षिण-पश्चिम की ओर जा रहा था. दिनेश व्यास कहते हैं, ‘कुछ साधक बाहर जाने वाले रास्ते से अंदर घुसने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें एक बूढ़ी साधक नीचे गिर गई और फिर उसके बाद भगदड़ मच गई.’ यज्ञशाला में उपस्थित लोगों के अनुसार यज्ञशाला के अंदर से आते धुएं से उस दिन न केवल अंदर आहुति देने वालों का बल्कि बाहर लाइन पर खड़े साधकों का भी दम घुट रहा था. घटनास्थल पर उपस्थित एक साधक के अनुसार सुबह लगभग 10.20  मिनट पर एक बूढ़ी साधक सीढि़यों पर बेहोश हो कर गिर पड़ी. उसके गिरने से भगदड़ मच गई. इस भगदड़ को काबू करने के लिए गायत्री परिवार के स्वयंसेवकों ने लाठियां भांजीं. जिससे स्थिति और बिगड़ गई. बस कुछ मिनटों में ही एक के ऊपर दूसरे साधकों की भीड़ का रेला गिरने लगा. एक बार नीचे गिर गए श्रद्धालु के लिए फिर उठना मुश्किल था. नीचे दबने वालों में महिलाएं अधिक थीं.

इस सारे क्षेत्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी गायत्री परिवार के स्वयंसेवकों पर थी. सादी वरदी में भी कोई पुलिसकर्मी किसी अप्रिय स्थिति से उबरने के लिए नहीं लगाया गया था. अप्रशिक्षित स्वयंसेवक अचानक आई इस तरह की स्थितियों से निपटने में असफल थे, इसलिए बचाव कार्य समय रहते और ठीक तरह से नहीं हो पाया. इतने बड़े आयोजन का दावा करने वाले गायत्री परिवार के पास स्ट्रेचर तक नहीं थे, इसलिए किसी तरह घायलों और मृतकों को ढोते हुए अस्पताल तक पहुंचाया गया.

इस घटना ने राज्य में सुरक्षा व्यवस्था, सूचना तंत्र और दरकती प्रशासनिक मशीनरी की पोल खोल दी. जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक घटना के दो घंटे बाद तक किसी के भी न मरने का बयान दे रहे थे. देहरादून में भी शासन के अधिकारी और पुलिस महानिदेशक इस घटना में सुरक्षा की जिम्मेदारी गायत्री परिवार की होने का हास्यास्पद बयान दे कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे थे. देर शाम अंतरराष्ट्रीय गायत्री परिवार के प्रमुख प्रणव पंड्या ने घटना की नैतिक जिम्मेदारी तो ले ली लेकिन यह आरोप नकार दिया कि गायत्री परिवार ने प्रशासन को पुलिस व्यवस्था करने से रोका था. उन्होंने उलटे प्रशासन और पुलिस की कार्यप्रणाली पर संदेह व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले एक साल से गायत्री परिवार प्रशासन औरशासन से महायज्ञ में आने वालों की संभावित संख्या और इंतजामों के विषय में पत्र व्यवहार कर रहा था लेकिन गायत्री महाकुंभ में एक बार भी प्रशासन और शांतिकुंज के बीच व्यवस्थाओं का समन्वय नहीं दिखा. या कहें कि अपने अप्रशिक्षित स्वयंसेवकों  को राज्य की व्यवस्थाओं से ऊपर दिखाने के गायत्री परिवार के दंभ और राजनीतिक प्रभाव के आगे अधिकारी अनिर्णय की स्थिति में थे. छह नवंबर को हुई कलश यात्रा में ही प्रशासन यातायात को नियंत्रित करने में विफल साबित हो गया था. अगले ही दिन यानी सात नवंबर को आयोजन स्थल में तीन जगहों पर भगदड़ मची. लेकिन इन संकेतों से भी शांतिकुंज और प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया.

भगदड़ के बाद आयोजकों का अमानवीय चेहरा सामने आया. किसी तरह यज्ञ को पुर्णाहुति तक पहुंचाने की जिद में वे किसी तरह घायलों और मृतकों के परिजनों को धकिया-लठिया कर चुप रखना चाहते थे ताकि अति विशिष्ट अतिथियों को घटना का पता ही न चल पाए. आयोजकों ने कई घंटों तक मृतकों के परिजनों को उनके शव देखने तक नहीं दिया. घटना में 16 लोगों के मरने की पुष्टि पहले ही दिन हो गई थी. पुलिस के अनुसार चार श्रद्धालुओं के शवों को गायत्री परिवार ने घंटों तक छिपा कर रखा था.

अमानवीयता का आलम देखिए कि गायत्री परिवार ने प्रशासन को इस दुर्घटना की जानकारी नहीं दी. दो घंटों तक गायत्री परिवार भगदड़ में केवल कुछ बीमारों के बेहोश होने की घोषणा करता रहा. दुर्घटना के घंटे भर बाद जिलाधिकारी और एसएसपी मौके पर पहुंचे. 12.40 बजे पर गायत्री परिवार  ने भगदड़ में चार लोगों के मरने की पुष्टि की.

उस दिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी, हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित अन्य कई अति विशिष्टजनों को यज्ञ में आहुति देनी थी. गडकरी की अगवानी के लिए राज्य भाजपा के लगभग सभी दिग्गज हरिद्वार में थे या पहुंचने वाले थे. बड़े अधिकारियों सहित जिला पुलिस का एक बड़ा हिस्सा इन महानुभावों की अगवानी और सुरक्षा में लगा था. आयोजन स्थल के पास के क्षेत्र में सामान्य दिनों में भी ट्रैफिक जाम होने की अधिक संभावना रहती है, पर महायज्ञ की भीड़ और उसके बाद हुई भगदड़ ने सारी सड़कें जाम कर दी थी. लिहाजा घटना की सूचना के बाद भी प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों को घटना स्थल तक पहुंचने में काफी समय लगा.

यज्ञशाला के बाहर भगदड़ में लोग मर रहे थे. घायल कराह रहे थे. लेकिन भीतर किसी ‘बड़े’ फल की प्राप्ति के लिए यज्ञ निर्विघ्न चल रहा था. दुर्घटना होने के बाद हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यज्ञकुंडों में आहुति दी. दुर्घटना होने के चार घंटे बाद दोपहर ढाई बजे डीआईजी संजय गुंज्याल ने यज्ञ बंद कराने का आदेश दिया तब जाकर आयोजकों ने यज्ञ बंद किया.
कई आरोपों-प्रत्यारोपों के बाद हरिद्वार के जिला प्रशासन ने इस हादसे के लिए गायत्री महाकुंभ के आयोजकों को जिम्मेदार माना है. आयोजकों के खिलाफ धारा 304-ए (लापरवाही से मौत) के तहत मामला दर्ज किया गया है. राज्य सरकार ने इस हादसे के कारणों की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दिए हैं. इस जांच के बाद ही कानूनी कार्रवाई शुरू होगी.

लेकिन इस कवायद से एक वर्ग में असंतोष है. समाजवादी पार्टी के उपाध्यक्ष सुभाष वर्मा ने गायत्री परिवार के प्रमुख प्रणव पंड्या, उनकी पत्नी शैल जीजी और गौरी शंकर के विरुद्ध मुकदमा कायम करने का आवेदन दिया है. वर्मा कहते हैं, ‘इन लोगों ने आम जनता को यज्ञ में बुलाया और पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की. इसलिए ये तीनों आयोजक भगदड़ और 20 लोगों की मौत के जिम्मेदार हैं.’ उनका आरोप है कि पुलिस गुमनाम के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज करके इन ताकतवर आयोजकों को बचा रही है. हरिद्वार के एक पत्रकार बताते हैं कि संतों के दरबार में आने वाले राजनेताओं के कद से संतों के कद का निर्धारण होता है. अपने कार्यक्रम में बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों को कार्यक्रम में बुलाकार संत अपने भक्तों के सामने बड़े कद का प्रदर्शन करते हैं. संतो की यही जिद अधिकांशतया हरिद्वार में दुर्घटना का कारण बनती है. अखाड़ा परिषद के एक हिस्से के अध्यक्ष महंत ज्ञान दास ने भी इस भगदड़ के लिए गायत्री परिवार को दोषी ठहराया है.

15 जुलाई, 1996 को सोमवती अमावस्या पर्व में गउघाट पुल पर भगदड़ मचने से 20 श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई थी और कई घायल हुए थे. उस समय उत्तर प्रदेश सरकार ने इस घटना की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बनाया था. न्यायाधीश आरके अग्रवाल आयोग ने घटना की जांच करके अपने सुझाव मुख्यमंत्री को भेजे थे. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ‘मेरा सुझाव है कि स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता मेला प्रशासन के नियंत्रण और मार्गदर्शन में ही कार्य करें. अन्यथा प्रशासन को इन संस्थाओं के क्रियाकलापों से कठिनाई उत्पन्न हो सकती है. जो भी संस्थाएं तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु कार्य करना चाहती हैं वे मेला प्रशासन के सक्षम अधिकारी को सूचित करें और अपने कार्यकर्ताओं की संख्या व नाम प्रस्तुत करें. उनकी (स्वयंसेवकों की) तैनाती मेला प्रशासन द्वारा विभिन्न जगहों पर की जाएगी. जस्टिस अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया था कि मुख्य पर्वों पर विशिष्ट व्यक्ति हरिद्वार आने से बचें.

गायत्री महाकुंभ में आई भीड़ से यज्ञ स्थल के आसपास उतने ही लोग जमा हो गए थे जितने शाही स्नान में ब्रह्म कुंड या हर-की-पैड़ी के आसपास हो जाते हैं. महाकुंभ से पहले प्रशिक्षत पुलिसकर्मियों और अन्य कर्मचारियों को वृहत प्रशिक्षण दिया गया था. वे भीड़ को संभालने और भगदड़ मचने पर बचाव कार्य के लिए प्रशिक्षित थे.  दूसरी ओर गायत्री परिवार के स्वयंसेवक आम दिनों में तो अपने श्रद्धालुओं को संभाल सकते थे परंतु संकट के क्षणों से निपटना उनके बूते की बात नहीं थी. हरिद्वार में पूर्व में तैनात रहे एक पुलिस अधिकारी बताते हैं , ‘संतों का राजनीतिक लोगों पर बड़ा प्रभाव रहता है, इसलिए इन आयोजनों में प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की बजाय संतों द्वारा लिए गए निर्णयों को सहमति दी जाती है.’

उनकी बात में दम लगता है. भगदड़ के दिन पहुंचे  भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने दुर्घटना की जांच के विषय में सवाल पूछ रहे पत्रकार को झिड़क कर प्रणव पंड्या के रुतबे का संकेत दे दिया. 20 लोगों की मौत का कारण बनी घटना में खानापूरी करने के लिए बेहद हल्की धाराओं में लिखे गए मुकदमे को भी प्रणव पंड्या ने अपना उत्पीड़न बताया है. गायत्री महाकुंभ के शुभारंभ में शामिल रहे केंद्रीय मंत्री और हरिद्वार के लोकसभा सदस्य हरीश रावत ने भी पंड्या पर मुकदमा दर्ज करने को विश्व भर में जनकल्याण में लगी एक धार्मिक संस्था की छवि खराब करने का प्रयास बताया.

देवभूमि उत्तराखंड का द्वार हरिद्वार संतों को किसी भी आयोजन के लिए प्रिय है. धार्मिक माहात्म्य और पवित्र गंगा का किनारा यों ही हिंदुओं को खींचने के लिए काफी है. गायत्री महायज्ञ में आहुति डालकर पुण्य अर्जन की इच्छा से गायत्री महायज्ञ में आए लाखों श्रद्धालुओं में से 20 अभागे बदइंतजामियों के चलते पुण्य प्राप्त करने की बजाय पुण्य धाम को ही प्रस्थान कर गए और पीछे छोड़ गए रोते-बिलखते परिजनों को.

राजनीति का भंवर

भंवरी देवी सेक्स कांड के चलते राजस्थान की राजनीति में एक तरफ खलबली है तो दूसरी ओर सन्नाटा. इस कांड ने जहां सत्तारूढ़ कांग्रेस में सिरे तक पसरी अंदरूनी राजनीति को खुलकर मैदान में ला दिया है वहीं भाजपा को चुपचाप नए सिरे से जातीय समीकरण बनाने का मौका भी दे दिया है. अलग-अलग गुट और पार्टियां अपने-अपने समीकरणों के हिसाब से इस प्रकरण से या तो पल्ला झाड़ने में लगी हैं या अपने हित साधने में, लेकिन राजनीति के इस भंवर में भंवरी की खोज-खबर लेने वाला कहीं कोई नहीं.

सभी मंत्रियों के इस्तीफे के बाद राजस्थान कैबिनेट का पुनर्गठन हो चुका है, लेकिन लगता नहीं कि इस कवायद से मौजूदा सियासी तूफान की भयंकरता पर कोई खास फर्क पड़ने वाला है. राजस्थान हाई कोर्ट सीबीआई को फटकारते हुए कह चुका है कि जांच एजेंसी इस मामले का हाल आरुषि मर्डर केस जैसा न करे. अदालत ने सीबीआई से यह भी कहा है कि 24 नवंबर को वह फिर से खाली हाथ नहीं बल्कि कुछ नतीजे लेकर आए.
सीबीआई की पूछताछ में मदेरणा के भंवरी से नजदीकी रिश्तों की बात मान लेने के बाद कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ चंद्रभान ने उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित करने में थोड़ी भी देर नहीं की. इस निलंबन के साथ ही मदेरणा परिवार का करीब पांच दशक पुराना साम्राज्य हिल गया. महीपाल मदेरणा दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा के पुत्र हैं. उन्होंने लंबे समय से अपनी पिता की राजनीतिक विरासत संभाल रखी थी. साठ के दशक से मारवाड़ की राजनीति में सक्रिय परसराम मदेरणा का जाट समाज पर बड़ा दबदबा माना जाता है. माना यह भी जाता है कि राज्य की राजनीति को प्रभावित करने वाले जाट समाज का एक बड़ा तबका मदेरणा परिवार के चलते कांग्रेस से संबंध रखता है. यह संबंध अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए चुनौती बन सकता है.

इन दिनों गहलोत अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े संकट से जूझते हुए दिख रहे हैं. गोपालगढ़ की घटना से नाखुश हाईकमान भंवरी प्रकरण को सही तरीके से नहीं निपटा पाने के चलते गहलोत के सामने ही उनका विकल्प तलाशने की मंशा जाहिर कर चुका है. गहलोत की दूसरी मुश्किल यह है कि भंवरी प्रकरण में उजागर सभी नेताओं के संबंध कांग्रेस से है. सीबीआई ने अब तक की जांच में पूर्व मंत्री महीपाल मदेरणा के अलावा कांग्रेस के दो बड़े नेताओं–लूणी से विधायक मलखान सिंह बिश्नोई और पाली से सांसद बद्रीप्रसाद जाखड़-के अलावा मलखान की बहन इंद्रा बिश्नोई को भी शामिल किया है. इन नेताओं के एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से भी सरकार की छवि खराब हो रही है.

हालांकि पार्टी के भीतर का एक तबका गहलोत पर आए इस संकट को उनके लिए एक और राजनीतिक संभावना बता रहा है. गहलोत के करीबियों की माने तो गहलोत के पास बड़े से बड़े संकट को अपने लिए एक अच्छे अवसर में बदलने का हुनर है. इसी हुनर के चलते उन्होंने कांग्रेस के भीतर एक के बाद एक दर्जनों जाट नेताओं की छुट्टी कर दी है. 1998 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष परसराम मदेरणा को मुख्यमंत्री का प्रबल दावेदार माना जा रहा था. मगर वाया 10 जनपथ अशोक गहलोत यहां पहले पहुंच गए. उस समय पार्टी के भीतर परसराम मदेरणा अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने मुख्यमंत्री के लिए गहलोत की ताजपोशी का सरेआम विरोध किया था. 2008 में जब पार्टी ने गहलोत को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाना तय किया तो कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह की मौजूदगी में महीपाल मदेरणा ने दरवाजे पर लात मारी और सभा से बाहर निकल गए. आज मदेरणा कांग्रेस से भी बाहर हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक गहलोत मदेरणा की बलि का बोझ अपने कंधों पर उठाकर नहीं घूमना चाहते थे. इसलिए जाटों की नाराजगी से बचने के लिए उन्होंने सबसे पहले मीडिया के दबाव को महसूस किया, हाई कोर्ट की फटकार को सिर-माथे पर लिया और अंततः हाईकमान के निर्देशों का बाकायदा पालन करते हुए मदेरणा को ठिकाने लगा दिया.

मगर मदेरणा की बलि से जाटों को नाराज होना ही था. बीते दिनों पुष्कर के जाट सम्मेलन में गहलोत को जाट विरोधी बताया गया. इस मौके पर अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष राधेश्याम ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री ने मदेरणा पर जाट नेता होने के चलते कार्रवाई की है. जाहिर है कांग्रेस पर दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में जाटों की नाराजगी झेलने का खतरा बढ़ चुका है. तकरीबन 11 से 14 प्रतिशत वोट बैंक का दावा करने वाले जाट विधानसभा की 200 सीटों में 30 पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं.

भाजपा की कमान संभाले वसुंधरा को यह हिसाब सीधा समझ आता है. बताया जाता है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी को और करीब खींचने के लिए उन्होंने जाटों को अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया है. यही वजह है कि भंवरी प्रकरण को लेकर वह मदेरणा के खिलाफ ऐसा कोई बयान नहीं देना चाहतीं जिससे जाट राजनीति उनके विरुद्ध हो जाए. उनके सिपहसालार दिगंबर सिंह ने तो मदेरणा का बचाव करते हुए यहां तक कह दिया, ‘किसान का बेटा आगे बढ़ रहा है तो कांग्रेस में कुछ लोगों को जलन होती है. इसीलिए यह सब हो रहा है.’

वसुंधरा के बारे में कहा जाता है कि वे कांग्रेस में गहलोत विरोधी गुटों से संपर्क बनाने में देर नहीं लगातीं. इसी कड़ी में इन दिनों मदेरणा परिवार भी वसुंधरा के संपर्क में है. पांच अक्टूबर को परसराम मदेरणा के जन्मदिन के मौके पर दिगंबर सिंह ने महीपाल मदेरणा से मुलाकात की थी. माना जा रहा है कि वसुंधरा के सिपहसालार और गहलोत के पूर्व मंत्री की यह मुलाकात आने वाले समय में राजस्थान की राजनीति को एक नया मोड़ दे सकती है.

दूसरी तरफ भंवरी कांड के बहाने एक-दूसरे को ठिकाने लगाने की राजनीतिक उठापटक में भंवरी के अपहरण से जुड़ा सवाल पीछे छूटता जा रहा है. भंवरी के चरित्र का जिस ढंग से सार्वजनिक चित्रण हुआ है उसके बाद से भंवरी एक खलनायिका की तरह सामने आई है. अभी तक सामने आई आॅडियो क्लिपिंग से पता चलता है कि भंवरी अपने रिश्तों की सीडी के बदले मदेरणा से पैसा चाहती थी. भंवरी के बारे में कहा जा रहा है कि वह ब्लैकमेलिंग कर रही थी. राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रो. राजीव गुप्ता कहते हैं, ‘किसी महिला के जरिए जब आप अपने अवसरों का फायदा उठाते हैं तो यह क्यों सोचते हैं कि ऐसा फायदा केवल एकतरफा रह जाएगा. आप सामने वाले की महत्वाकांक्षाओं को भी तो आगे बढ़ाते हैं. एक स्तर पर सामने वाला पक्ष भी आपके जरिए फायदा उठाना चाहेगा. धीरे-धीरे ऐसे रिश्ते विनिमयमूलक हो जाते हैं. आप ऐसे रिश्ते को दोतरफा नहीं बनाना चाहते मगर सामने वाला पक्ष इसके लिए तैयार नहीं तब आप उसे ब्लैकमेलिंग का नाम देते हैं.’ कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन के मुताबिक जिन महिलाओं के साथ बहुत ज्यादा यौन शोषण किया जाता है उनमें से कुछ महिलाएं ऐसा भी सोचने लगती हैं कि क्यों न हम भी दूसरे का इस्तेमाल करें.

भंवरी कांड का एक अहम पहलू पंचायती राज से जुड़ी महिलाओं पर राजनीतिक दबाव डालकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए मजबूर बनाने से भी जुड़ा है. अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति परिसंघ के महासचिव विसराम मीणा बताते हैं, ‘अक्सर कुछ महिलाओं को जान-बूझकर दूर-दराज के इलाके में स्थानांतरित करने के बाद जन प्रतिनिधियों द्वारा उन्हें समझौते को मजबूर किया जाता है. एक बार चक्रव्यूह में फंसी ऐसी महिला के लिए उससे निकलना आसान नहीं होता.’

राज्य में शासकीय कर्मचारियों को अपने स्थानांतरण के लिए विधायक से लेटरपैड पर टीप लिखवाना जरूरी है. यह टीप लिखना विधायक की इच्छा पर निर्भर करता है. जोधपुर में अनुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारियों के नेता मूलाराम के मुताबिक पंचायती राज से जुड़ी महिलाओं के यौन शोषण की शुरुआत भी विधायक की इसी इच्छा से जुड़ी होती है. भंवरी मदेरणा की पहली मुलाकात भी भंवरी के जैसलमेर से बोरूंदा स्थानांतरण के सिलसिले में हुई थी. यहीं से भंवरी बड़े राजनेताओं के भंवर में पड़ गई और उसके बाद नेताओं ने ही उसे विधायक और जिला परिषद सदस्य के टिकट जैसे प्रलोभन देकर उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ा दिया था.

भंवरी के बारे में प्रचारित किया जा रहा है कि वह नट जाति से है, जिसका नाचना, तमाशा दिखाना और मनोरजंन करना पेशा रहा है. समाज का एक बड़ा तबका मानता है कि नट जाति का इतिहास ही यही रहा है. महीपाल मदेरणा की पत्नी तथा राजस्थान राज्य सहकारी बैंक की अध्यक्ष लीला मदेरणा की भी यही दलील है, ‘यह सब तो राजा-रजवाड़ों के जमाने से ही होता आया है. ‘जाति की राजनीति से जुड़े कई जानकारों की राय में भंवरी का पक्ष कमजोर बनाने के लिए उसकी जाति पर निशाना साधा जा रहा है. अगर भंवरी नट जाति से भी है तो राजनेताओं ने तो उसकी जाति का ही फायदा उठाया और अपनी निजी जरूरतों को पूरा करने के लिए उसका इस्तेमाल किया. मूलाराम कहते हैं, ‘संविधान में किसी भी नागरिक की जातीय आधार पर पहचान नहीं की जा सकती. मगर राजस्थान के भीतर नट जाति के सरकारी कर्मचारियों की संख्या ही 15 से 20 है, लिहाजा सरकारी गलियारों में भंवरी की आवाज दबकर रह गई है.’

भंवरी के बारे में यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि गरीब पृष्ठभूमि की होने के बावजूद वह करोड़ों की कमाई करके शान की जिंदगी जी रही थी. इस पर भंवरी के परिवार से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता चकराराम कहते हैं, ‘भंवरी की करोड़ों की संपत्ति को टीवी पर देख- देखकर तो हम सब भी हैरान हैं. इस तरह की खबरें आम आदमी के मन में कौतूहल तो पैदा करती हैं लेकिन सही स्थिति सामने नहीं लातीं.’ चकराराम के मुताबिक भंवरी की संपत्ति बढ़ा-चढ़ाकर बताई जा रही है. उनके मुताबिक भंवरी के बोरूंदा स्थित जिस आलीशान मकान की चर्चा दूर-दूर तक फैली है उसकी वास्तविक कीमत पांच से सात लाख रु आंकी गई है. भंवरी की एक बेटी अश्विनी के बारे में भी यह चर्चा है कि वह जयपुर के सबसे महंगे स्कूलों में से एक में पढ़ती है. पर हकीकत यह है कि वह एक सरकारी उच्च माध्यमिक विद्यालय में 10वीं की छात्रा है.