ग्रहण की चपेट में अधिग्रहण कानून

विकास के बहाने किसानों से ली जा रही जमीन के बदले उनका वाजिब हक देने के मकसद से बनाया जा रहा नया जमीन अधिग्रहण कानून सियासी शह-मात का शिकार होता दिख रहा है. कांग्रेस पार्टी की चाहत है कि नया कानून जल्द-से-जल्द बने वहीं दूसरे दलों (भाजपा और बसपा) को डर है कि जल्द कानून लाने से कांग्रेस को चुनावी लाभ मिल जाएगा. सारी खींचतान उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के चलते मची है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और राहुल गांधी ने बार-बार यह इच्छा जताई कि नया भूमि अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में ही पारित हो जाए. मानसून सत्र में यह विधेयक संसद में पेश किया गया था और विपक्षी दलों व सिविल सोसाइटी की तमाम आपत्तियों के बीच इसे ग्रामीण विकास की स्थायी संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था. इसी समिति में विधेयक को लेकर शह और मात का खेल चल रहा है.

समिति की अध्यक्ष इंदौर की वरिष्ठ भाजपा नेता और सांसद सुमित्रा महाजन हैं. तहलका से बातचीत में वे कहती हैं, ‘समिति विभिन्न पक्षों की राय ले रही है. हमने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पक्ष सुन लिया है. सिविल सोसाइटी के लोगों से भी बात हुई है. 16 नवंबर को समिति की बैठक फिर से होने वाली है.’ यह पूछे जाने पर कि क्या शीतकालीन सत्र में समिति अपने सुझावों के साथ विधेयक का अंतिम स्वरूप संसद को वापस भेज देगी, वे कहती हैं, ‘हम अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन जमीन अधिग्रहण बेहद संवेदनशील मुद्दा है और हम इसमें कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहते.’ संकेत साफ हैं कि राहुल गांधी और जयराम रमेश की इच्छा चाहे जो हो, शीतकालीन सत्र में यह कानून पारित होता नहीं दिख रहा. इसकी पुष्टि समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने तहलका से बातचीत में की. उन्होंने कहा कि ऑफ द रिकॉर्ड सच्चाई यह है कि शीतकालीन सत्र तक हम इस विधेयक को वापस नहीं भेज रहे इसलिए इसके पारित होने का सवाल ही नहीं उठता.

इस समिति के सदस्यों की कुल संख्या 31 है लेकिन अभी एक जगह खाली है. इसमें कांग्रेस, भाजपा, बहुजन समाज पार्टी समेत कई अन्य राजनीतिक दलों के सांसद भी शामिल हैं. यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि जमीन को लेकर हर दल की अपनी एक अलग राजनीति है. कांग्रेस जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी-से-जल्दी इसलिए लाना चाहती है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है और राहुल गांधी ने जिस तरह से उत्तर प््रदेश में इस मुद्दे को हवा दी है उसमें इसका पास होना न होना कांग््रेस  के लिए बड़ा मायने रखता  है. यमुना एक्सप्रेसवे के आसपास जिस तरह से किसानों की जमीन ली गई उसे आधार बनाकर राहुल गांधी भट्टा-पारसौल भी गए और बाद में अलीगढ़ में नौ जुलाई को किसान महापंचायत का भी आयोजन किया.

इस विधेयक को संसदीय समिति के चक्रव्यूह से निकलवाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर हो गई है

इलाके के लोग भी यही कहते  हैं कि अगर राहुल गांधी या उनकी केंद्र की सरकार हमारे हितों की रक्षा करने में सक्षम जमीन अधिग्रहण कानून लाती है तो वे 2012 में वोट कांग्रेस को ही देंगे. इस इलाके मेंं जमीन इतना बड़ा मुद्दा इसलिए बन गया है कि इलाके के किसानों और पुलिस-प्रशासन के बीच हुए संघर्ष में कुछ किसानों की जान भी गई. दूसरी वजह है कि किसानों से जिस भाव पर जमीन ली गई उससे कई गुना ऊंची कीमत पर उसे रियल एस्टेट के धुरंधरों के हाथों बेचा गया. यही वजह है कि इलाके के किसानों ने पदयात्रा कर रहे राहुल गांधी को बार-बार याद दिलाया कि हमें जमीन के बदले उचित मुआवजा दिलाओ और अगले चुनाव में हमारे वोट ले जाओ.

स्वयं राहुल मानते हैैं, ‘मौजूदा जमीन अधिग्रहण कानून बहुत पुराना है. हमारी पूरी कोशिश होगी कि हम इस कानून को बदलें, लोकसभा में आपको एक ऐसा कानून दें जिससे आप सबको फायदा हो.’

अब जरा घटनाक्रम पर ध्यान दीजिए. नौ जुलाई को राहुल गांधी अलीगढ़ में बोले और 12 जुलाई को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल किया. ग्रामीण विकास मंत्रालय में सीपी जोशी की जगह ली अपेक्षाकृत तेज-तर्रार माने जाने वाले जयराम रमेश ने. रमेश ने पर्यावरण और वन मंत्रालय में रहते हुए अपनी पहचान एक सरोकारी नेता  के रूप मेंं बनाई है. उन्होंने कई औद्योगिक परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने से मना किया. इस वजह से उनसे काॅरपोरेट जगत के लोग थोड़े नाराज भी थे. जानकारों का मानना है कि ऐसे में उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय में लाना एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था.

जल्द ही इस रणनीति  से पर्दा हट गया जब नया मंत्रालय संभालने के दो महीने के भीतर ही सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून के नए मसौदे को संसद में पेश कर दिया गया. रमेश ने इतनी तेजी इसलिए दिखाई कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इससे पहले ही राज्य में जमीन अधिग्रहण की नई नीतियां लागू कर चुकी थीं. देश के मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानूनों में इसे सबसे अच्छा बताया गया. ऐसे में राहुल गांधी की उत्तर प्रदेश की राजनीति को मजबूत करने के लिए यह जरूरी था कि केंद्र कोई ऐसा कदम उठाए जिससे प्रदेश के लोगों को लगे कि राहुल गांधी और कांग्रेस उनके लिए कुछ कर रहे हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि संसद का सत्र खत्म होते-होते नया जमीन अधिग्रहण विधेयक रमेश ने पेश कर दिया और इसे 13 सितंबर को स्थायी संसदीय समिति में भेज दिया गया. संसद में विधेयक पेश करने के बाद रमेश ने कहा, ‘यह एक राजनीतिक समस्या का राजनीतिक जवाब है. सिर्फ 55 दिनों के अंदर इस कानून के मसौदे को तैयार करवाने, कैबिनेट से मंजूरी दिलवाने और इसे संसद में पेश करवाने का श्रेय राहुल गांधी को जाता है. राहुल गांधी ने इस विधेयक के बुनियादी सिद्धांतों के बारे में कई सुझाव दिए.’ जयराम का यह बयान इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि राहुल गांधी की सियासत में इस कानून की कितनी अहमियत है.

इस बीच ग्रामीण विकास को लेकर बनी स्थायी संसदीय समिति का पुनर्गठन हुआ और एक अक्टूबर से नई समिति अस्तित्व में आई. जमीन अधिग्रहण कानून पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल यहीं चल रहा है क्योंकि भाजपा और बसपा को लग रहा है कि अगर जमीन अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में पारित हो गया तो उत्तर प्रदेश में अगले साल मार्च-अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा उठाने का पर्याप्त समय मिल जाएगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस मोटे तौर पर एक ही सियासी जमीन को कब्जा जमाने की कोशिश में जुटे हैं और दोनों ही पार्टियां तीसरे स्थान की अपनी दावेदारी मजबूत रखना चाहती हैं. वहीं बसपा इस कानून को किसी हाल में इसलिए नहीं पास होने देना चाहती कि इससे मायावती ने जो कानून बनाया है उसकी हवा निकल जाएगी और कांग्रेस इसका फायदा उठाएगी.

अपने-अपने सियासी हितों के चलते भाजपा और बसपा खुद को एक ही जमीन पर पा रहे हैं. संसदीय समिति के एक सूत्र के मुताबिक इन दोनों पार्टियों के सदस्य इस विधेयक को कम से कम उत्तर प्रदेश के चुनाव निपटने तक लटकाए रखना चाहते हैं. समिति में कांग्रेस के दस सदस्य हैं और इसमें अगर उसके सहयोगी दलों को जोड़ दें तो यूपीए के सदस्यों की कुल संख्या हो जाती है 13. जबकि अन्य की संख्या है 17. ऐसे में इस विधेयक को संसदीय समिति के चक्रव्यूह से निकलवाना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर हो गया है. कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी कहते हैं, ‘कांग्रेस तो चाहती है कि जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी से जल्दी पारित हो. लेकिन अब सब कुछ स्थायी संसदीय समिति पर निर्भर करता है.’

ऐसा लगता है कि जयराम रमेश को संसदीय समिति के अंदर चल रहे सियासी दांवपेंच का अहसास है. यही वजह है कि उन्होंने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली से मुलाकात कर यह अनुरोध किया कि वे सुमित्रा महाजन को विधेयक पास करके संसद वापस भेजने के लिए तैयार करें. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज रमेश की बात कितना मानेंगे, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि भाजपा राहुल गांधी को किसी तरह का सियासी लाभ नहीं लेने देगी.

खबर है कि सुमित्रा महाजन ने रमेश को बता दिया है कि उन्हें 700 से अधिक सुझाव मिले हैं, इसके अलावा वे राज्यों से भी इस संबंध में सलाह-मशविरा करने के बाद ही फाइनल मसौदा संसद को भेजेंगी. यहां बताते चलें कि नौ राज्यों में भाजपा की सरकार है और बसपा भी उनकी राजनीति को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती. नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर के साथ स्थायी संसदीय समिति के पास अपना पक्ष रखने गए माटू जनसंगठन के विमल भाई कहते हैं, ‘जब हम अपनी बात रख रहे थे तो सबसे ज्यादा आपत्ति और टीका-टिप्पणी बसपा के सांसद ही कर रहे थे. हमें यह सब देखकर ऐसा लगा कि किसानों के नाम पर कानून बनाने की आड़ में यहां दलगत राजनीति चल रही है और इस विधेयक की खामियों को दूर करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.’

इस स्थायी संसदीय समिति की अब तक सिर्फ तीन बैठकें हुई हैं. दूसरी तरफ कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली उस स्थायी संसदीय समिति की अब तक कई बैठकें हो चुकी हैं जिसके पास लोकपाल कानून का मसौदा है. जब तक समिति की सिफारिशें नहीं आ जातीं तब तक अंतिम मसौदा तैयार होकर कैबिनेट में नहीं जाएगा और न ही इसे संसद से पारित करवाकर कानून का रूप देना संभव होगा.

राजनीति को जानने-समझने वाले लोग मानते हैं कि राहुल गांधी की सियासी उड़ान में पर लगाने का काम उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे करेंगे और अगर प्रदेश में कांग्रेस तीसरे नंबर पर भी नहीं रही तो केंद्र में अहम भूमिका के लिए राहुल का इंतजार थोड़ा लंबा खिंच सकता है. राहुल गांधी ने प्रदेश के सियासी ताप को जिस तरह से अपनी यात्राओं के जरिए बढ़ाया था उस पर पानी डालने का काम अन्ना हजारे के आंदोलन ने किया. इसलिए जमीन अधिग्रहण कानून जल्दी-से जल्दी पारित करवाना और इसका चुनावी लाभ लेना कांग्रेस की रणनीति का अहम हिस्सा है.