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' मेरी फिल्म पसंद नहीं आई तो आपको बाद में कभी कॉफी पिला दूंगा'

फिल्म समीक्षक से फिल्म निर्देशक बने सुधीश कामथ की नई फिल्म गुड नाइट, गुड मॉर्निंग देखना ऐसा अनुभव है मानों आप चोरी‌छिपे एक लड़के और लड़की की निजी बातचीत सुन रहे हों. गौरव सोलंकी का आलेख

मुम्बई के एक मल्टीप्लेक्स में हम टिकट खिड़की पर हैं. हम सुधीश कामथ की फिल्म गुड नाइट गुड मॉर्निंग देखने आए हैं जिसका कोई विज्ञापन आपको किसी अखबार या टीवी चैनल में नहीं दिखेगा. न ही हमें सिनेमाहॉल के आसपास फिल्म का कोई पोस्टर दिखता है और कतार में मेरे आगे खड़ा एक लड़का, जो टिकट बेचने वाले से कहता है कि किसी भी फिल्म का टिकट दे दो, वह गुड नाइट.. का टिकट लेने से सिर्फ इसलिए मना कर देता है क्योंकि उसने इसका नाम नहीं सुना. वही हम सब हैं. जो गाना जितना टीवी पर बजता है, उसे उतना ही गुनगुनाते हुए.

वे आज भी मोटरसाइकिल पर ऑफिस जाते हैं, घर या कार खरीदने जैसी चीजें उनकी योजनाओं में दूर-दूर तक नहीं हैं और सारी कमाई उन्होंने अपनी दो फिल्में बनाने पर लगा दी है 

बाद में सुधीश बताते हैं कि एक स्वतंत्र फिल्मकार की इस तरह की फिल्म का रिलीज हो पाना ही बड़ी बात है और प्रचार के लिए जितना पैसा चाहिए, वह तीस लाख में एक फिल्म बना लेने वाले सुधीश के पास नहीं है. वे इस पर हंसते हैं कि कैसे उन्होंने यूं ही विज्ञापनों की दरें पता करने के लिए कल एक बड़े अंग्रेजी अखबार से सम्पर्क किया और उन्हें बताया गया कि 30 वर्गमीटर के एक विज्ञापन के लिए उन्हें सत्तर हजार रुपए देने होंगे.

आप जानते हों या न जानते हों, लेकिन सच यही है कि ढेरों छोटी फिल्में सिर्फ इसलिए रिलीज नहीं हो पाती कि उनके पास प्रचार के लिए पैसा नहीं है और वह भी तब, जब उनका मुकाबला ऐसी दानव फिल्मों से है, जो हवा की तरह पैसा बहा सकती हैं.

लेकिन फिर भी सुधीश के चेहरे और आवाज में मुस्कुराता हुआ हौसला है. यह दूसरी फिल्म है, जो उन्होंने अपनी तनख्वाह की बचत के पैसे और कुछ उधार से बनाई है. वे जान गए हैं कि हमारे सिनेमा में स्वतंत्र फिल्मकार होने का मतलब सबसे मजबूर फिल्मकार होना है जिसे फिल्म बनाने के बाद भी जाने कितने वक्त तक वेटिंगरूम में बैठे रहना पड़ता है. वे जैसे बारह साल पहले नौकरी के शुरुआती दिनों में जाते थे, आज भी मोटरसाइकिल पर ऑफिस जाते हैं, घर या कार खरीदने जैसी चीजें उनकी योजनाओं में दूर-दूर तक नहीं हैं और सारी कमाई उन्होंने अपनी दो फिल्में बनाने पर लगा दी है लेकिन फिर भी सुधीश के चेहरे पर हौसला है. आप गुड नाइट गुड मॉर्निंग देखेंगे (अगर वह आपके सिनेमाघरों तक पहुंची या इस लेख के पहुंचने तक बड़े सितारों वाली फिल्म ने उसे लगे रहने दिया) तो जान जाएंगे कि रात भर की एक फोन कॉल पर मामूली से बजट में इतनी खूबसूरत ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार का उस हौसले पर हक तो बनता ही है.

सुधीश द हिन्दू के फिल्म समीक्षक हैं. मैं पूछता हूं कि क्या इससे कुछ फायदा होता है? वे हंसते हुए कहते हैं कि बस इतना ही कि लोग आपको नोटिस कर लेते हैं. लोग आपकी फिल्म की समीक्षाएं पढ़कर बधाइयां देते हैं लेकिन आसानी से फिल्म देखने नहीं जाते. और यही रवैया दिनदहाड़े फिल्मों की हत्या करता है. जब आप अपनी बैठक में आराम से पसरकर इस बात पर बहस कर रहे होते हैं कि अच्छा सिनेमा आखिर बन क्यों नहीं रहा, तब आपके नजदीकी सिनेमाघर में एक छोटी फिल्म किसी चिकनी चमेली या रा.वन के पैरों तले कुचली जा रही होती है.  

सुधीश की पहली फिल्म दैट फोर लैटर वर्ड जब 2007 में मुम्बई के एक सिनेमा में रिलीज हुई तो पहले शो में एक भी दर्शक नहीं पहुंचा था. वजह वही कि प्रचार शून्य था. शो कैंसल करना पड़ा. उस फिल्म पर सुधीश ने आठ साल लगाए थे और इस दौरान पूरी फिल्म को दो बार शूट किया था. हालांकि अब वे उस फिल्म को दस में से चार नम्बर वाली फिल्म मानते हैं लेकिन उन्हें उन आठ सालों से एक बड़ी सीख मिली- कि अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छे एक्टर एक फिल्म के लिए सबसे जरूरी चीज हैं. और गुड नाइट गुड मॉर्निंग में आपको ये दोनों चीजें ही कमाल दिखेंगी.

यह सुधीश और उनकी साथी लेखक शिल्पा रत्नम के डायलॉग और उनके मुख्य अभिनेताओं मनु नारायण और सीमा रहमानी की एक्टिंग का ही जादू है कि आप उस एक घंटा लम्बी फोन कॉल को जो सेक्स की उम्मीद में शुरू होती है और किसी अमर प्रेमकथा की तरह खत्म- उसे आप ऐसे सुनते हैं जैसे सचमुच चोरी से किसी का फोन सुन रहे हों. पुरानी फिल्मों की तरह लगभग पूरी फिल्म में स्क्रीन दो हिस्सों में बंटी रहती है और आप दोनों किरदारों को एक ही वक्त में देखते हैं. दोनों के सीन अलग-अलग वक्त में शूट किए गए हैं और परदे पर उन्हें एक साथ इतना स्वाभाविक दिखाना बहुत मेहनत का काम है.

सुधीश अपनी फिल्म की ही तरह बहुत मीठे हैं और ट्विटर पर सार्वजनिक रूप से यह प्रस्ताव वही दे सकते हैं कि अगर आपको उनकी फिल्म पसंद नहीं आई तो बाद में कभी वे आपको एक कॉफी पिला देंगे. मैं उनसे पूछता हूं कि अब तक कितने लोगों ने कॉफी मांगी?  किसी ने भी नहीं, और वे हंस देते हैं.

 

मुश्किलों से मिसाल तक

‘झारखंड की राजधानी रांची से करीब 190 किलोमीटर दूर है सिमडेगा. वहां से तकरीबन 55 किलोमीटर पथरीले और उबड़-खाबड़ रास्ते तय करने के बाद आता है नोनगडा. वही है मेरा गांव. वहीं के ऊबड़-खाबड़ मैदान में मैंने बांस के फट्टे से हॉकी खेलना शुरू किया था. वहीं रहते हुए सारे ख्वाब देखे. अब उन्हीं ख्वाबों को पूरा करना चाहती हूं. फिलहाल एक ही सपना है- ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम पहुंचे और कप लेकर आए.’

भारतीय महिला हॉकी टीम की नई कप्तान असुंता लकड़ा जब इस मुकाम तक पहुंचने की अपनी कहानी सुनाती हैं तो उनकी इस कहानी में संघर्ष और प्रेरणा की परछाई एक साथ दिखती है. असुंता बताती हैं, ‘हमारे बाबा किसान हैं. हमने बचपन में वे दिन भी देखे हैं जब हमारे घर में खाने के लिए चावल तक नहीं होता था. कुछ साल तो हमारे परिवारवालों ने गोंदली (एक खास किस्म का अनाज) खाकर दिन गुजारे. मुझे तो तब भी जरा भी नहीं भाता था गोंदली का स्वाद, लेकिन करती तो क्या करती! पेट जो भरना होता था.’

लेकिन मुश्किलों के वे दिन उन्हें रोक नहीं पाए. आज असुंता के कंधों पर भारतीय महिला हॉकी टीम को नई बुलंदियों पर ले जाने की जिम्मेदारी है. अपने सफर को याद करते हुए वे बताती हैं, ‘पास के ही गांव टैंनसेर में संत अन्ना बालिका उच्च विद्यालय से प्राथमिक तक पढ़ाई की. फिर रांची के बरियातू हाईस्कूल में 1997 में सातवीं कक्षा में दाखिला लिया. रांची आने का एक ही मकसद था कि वहां रहकर हॉकी के गुर सीख सकूंगी. लेकिन रांची आने के बाद भी कई मुश्किलें थीं. कई बार हॉस्टल की फीस तक चुकाने के पैसे नहीं होते थे. बाहर खेलने जाने के कारण भी पढ़ाई बाधित होती रही. घरवाले भी क्या करते? छह भाई-बहनों में पांचवें नंबर की हूं. घोर गरीबी में इतने सदस्यों का पालन-पोषण करना ही सबसे बड़ी चुनौती थी, फिर भी घरवालों ने मानसिक तौर पर हर कदम पर साथ दिया. मैं टूटी नहीं. शायद इसीलिए यहां तक पहुंच सकी हूं.’

असुंता जिस गांव से आती हैं उसके बारे में कहा जा सकता है कि हॉकी वहां की मिट्टी में बसती है. खुद असंुता अपने घर में हॉकी को करियर बनाने वाली पांचवीं खिलाड़ी हैं. उनके तीनों भाई वीरेंद्र लकड़ा, सुनील लकड़ा, विमल लकड़ा और भाभी कांति भी हॉकी खिलाड़ी रहे हैं. किस्मत से असुंता को रांची के बरियातू हाईस्कूल में ख्यातिप्राप्त नरेंद्र सिंह सैनी जैसे कोच भी मिले जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें प्रोत्साहन दिया.

विमल लकड़ा बताते हैं, ‘असुंता बचपन से ही हॉकी की दीवानी थी.’ झारखंड से ही ताल्लुक रखने वाली पूर्व हॉकी खिलाड़ी और फिलहाल जूनियर हॉकी महिला टीम की चयनकर्ता सावित्री पूर्ति कहती हैं, ‘मैं असुंता को बचपन से देख रही हूं और उसमें एक अच्छे खिलाड़ी के सारे गुण हैं.’

लेकिन उत्कृष्टता तक पहुंचने की इस राह में रोड़ों की भी कमी नहीं थी. कई ऐसे मौके आए जब असुंता ने हॉकी को बाय बोलने का मन भी बना लिया. वे बताती हैं, ‘पढ़ाई के दौरान या बाद तक हम जब कभी बाहर खेलने जाते थे तो सारा खर्च हमें जेब से भरना होता था. हमारे पास पैसे नहीं होते थे. ऐसा भी कई बार हुआ कि हम रेलवे की बोगी में वॉशरूम के पास बैठकर खेलने गए. लेकिन हॉकी को लेकर जुनून था, जिद थी इसलिए कभी खेलना नहीं छोड़ा. हॉकी के कारण ही पढ़ाई भी दरकिनार कर दी.’ हालांकि असुंता ने पढ़ाई से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ा. 2006 में कॉमनवेल्थ गेम्स खेलने के बाद उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी और अब वे रांची के ही गोस्सनर कॉलेज से स्नातक कर रही हैं. 2004 में उन्हें रेलवे की नौकरी मिल गई जिससे खेल के सिलसिले में आने-जाने के आर्थिक संकट से थोड़ी निजात मिल गई.

राह में रोड़ों की कमी नहीं थी. कई ऐसे मौके आए जब असुंता ने हॉकी को बाय बोलने का मन भी बना लिया था

लेकिन यह सिर्फ एक मुश्किल का अंत था. असुंता बताती हैं, ‘ नेशनल टीम में मैं भेदभाव का शिकार होती रही. एक समय ऐसे हालात बना दिए गए थे कि लगता था अब खेलना मुश्किल होगा. मैंने भी मन बना लिया कि मुझे अब खेल छोड़ देना चाहिए.’

असुंता को आदिवासी होने की सजा भी भुगतनी पड़ी. वे बताती हैं, ‘आदिवासी होने के नाते मुझे कई बार कोसा गया. रास्ते में छेड़खानी होती ही थी, कमेंट किए जाते थे, हमारे एक पूर्व कोच ने तो हद ही कर दी थी. पता नहीं मुझसे क्या खुंदक थी उन्हें. मुझसे कहते थे कि तुम्हारे जैसी बहुतों को देखा है हमने. कई बार ऐसा भी हुआ कि मैं टीम में सेलेक्ट हो गई और जाने के वक्त मेरा टिकट नहीं लिया गया. कई बार तो बिना टेस्ट के ही टीम बना ली जाती थी. मानसिक दबाव व उपेक्षा के कारण मैंने यह मन बना लिया था कि अब मुझे भारतीय टीम से नहीं खेलना चाहिए. यदि वे कोच अब भी होते तो मैं शायद टीम में नहीं होती.’

यह सब बताने के बाद लंबी और गहरी सांस लेते हुए असुंता ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करती हैं कि उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिली है. वे कहती हैं, ‘मुझे उसे बखूबी निभाना है. मैं तो कैप्टन चुने जाने की सूचना मिलने पर विश्वास ही नहीं कर रही थी. मुझे लगा कि शायद मैं गलत सुन रही हूं  यह मेरे जन्मदिन यानी 20 नवंबर का अनमोल तोहफा था.’

असुंता इसकी एक वजह वर्तमान कोच को भी बताती हैं जिन्होंने उनका हौसला बढ़ाया और उन्हें खेल न छोड़ने की सलाह भी दी. वे कहती जतहैं, ‘मैंने लीग मैच में बढ़िया प्रदर्शन किया. फिर अर्जेंटीना में भी बढ़िया खेल दिखाया और जब मैं लौटकर आई तो 20 नवंबर को कोच सर ने बताया कि मैं महिला हॉकी टीम की कैप्टन चुनी गई हूं.’ असुंता आगे कहती हैं, ‘एक कोच से ही कितना कुछ बदल गया. कहां मैं पूर्व कोच की वजह से खेल छोड़ने का फैसला कर चुकी थी, कहां एक कोच की वजह से ही मैं ओलंपिक जीतने का सपना देख रही हूं.’

यह सब बताने के बाद असुंता हंसते हुए कहती हैं, ‘खैर, अब पुराने कोच वाली बात पुरानी हो गई. वैसे ही जैसे कि नौ साल की उम्र में मुर्गा टूर्नामेंट जीतने वाली बात. फिर डबल खस्सी टूर्नामेंट जीतने वाली बात. और मुर्गा-खस्सी के रास्ते 1998 में सब-जूनियर नेशनल हॉकी में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाली बात.’ फिर बच्चों- सी खिलखिलाकर हंसती हैं असुंता.

पुरानी बातों पर अब वे ज्यादा नहीं बोलतीं. जानती हैं कि अब वे कप्तान हैं. उनके ज्यादा बोलने से उनसे ज्यादा उनके खेल और उनके राज्य झारखंड की साख को धक्का लगेगा, जिसकी खेल की दुनिया में एक बड़ी पहचान हॉकी को लेकर ही है.  झारखंड हॉकी का हब रहा है. जयपाल सिंह, सिलवानुस डुंगडुंग, सावित्री पूर्ति, सुमेराय टेटे, पुष्पा टोपनो, एलेन समेत कई खिलाड़ी राज्य से निकलकर देश-दुनिया के स्तर पर अपना जलवा दिखाते रहे हैं. जयपाल सिंह मुंडा ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं तो सुमराय टेटे सीनियर भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रह चुकी हैं.

कभी नरेंद्र सिंह सैनी जैसे कोच की बदौलत झारखंड के गांवों से हॉकी की प्रतिभाएं थोक के भाव निकल रही थीं. एक समय ऐसा भी आया जब भारतीय महिला हॉकी टीम में 50 फीसदी से अधिक खिलाड़ी झारखंड की ही रहने लगीं. फिलहाल टीम में असुंता और प्रीति, दो ही खिलाड़ी झारखंड से हैं.  इसमें कुछ क्रिकेट के बुखार का हाथ है और कुछ बड़े स्तर पर पिछले कई वर्षों से लगातार होती उपेक्षा. झारखंड से हॉकी की प्रतिभाओं की जोरदार दस्तक सुनाई पड़नी बंद हो रही थी लेकिन अब असुंता ने एक ऐसी दस्तक दी है, जिससे संभावनाओं के द्वार फिर तेजी से खुलते नजर आ रहे हैं.

हालांकि चुनौतियां अब भी हैं. असुंता कहती हैं, ‘हॉकी टर्फ ग्राउंड पर खेलने का खेल है. उसमें ज्यादा स्टेमिना और प्रैक्टिस की जरूरत होती है. लेकिन हमलोगों को बमुश्किल ही उस पर प्रैक्टिस करने को मौका मिल पाता है. नेशनल गेम्स कराने के लिए झारखंड में एस्ट्रोटर्फ ग्राउंड भी बन गया है लेकिन हालत यह है कि कई बार प्रैक्टिस के दौरान मोटर खराब होने के कारण पानी नहीं रहता. ऐसे में ग्राउंड पर खेलने पर बॉल में बंपिंग ज्यादा होती है.’ वे कहती हैं कि क्रिकेट का देश दीवाना है मगर कुछ ध्यान हॉकी पर भी दिया जाए तो अकेले झारखंड की प्रतिभाएं ही इसे दुनिया के फलक पर बुलंदी तक पहुंचाने में सक्षम हैं. बगैर किसी काॅरपोरेट घराने के सहयोग के, बिना ग्लव्स, स्पाइक्स और हॉकी के स्टीक के सिर्फ बांस के फट्टे से प्रैक्टिस करके जब झारखंड के खिलाड़ी इस कदर प्रदर्शन करते रहे हैं तो सोचिए कि अगर सुविधाएं मिलेंगी तो वे क्या कमाल दिखाएंगे!

असुंता कहती तो ठीक हैं लेकिन उन्हें भी पता है कि कॉरपोरेट जगत की उपेक्षा के साथ राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद आज यदि हॉकी हाशिये पर है तो उसमें राजनीति और खेल संघों की राजनीति की भूमिका भी कोई कम नहीं रही है. हालांकि खेल संघों और राजनीति पर नहीं बोलना चाहतीं. वे कहती हैं, ‘यह वक्त सिर्फ अपने खेल पर ध्यान देने का है. मैं ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने पर ही सारा ध्यान लगाना चाहती हूं. मुझे ओलंपिक गोल्ड लाना है..’

उसके बाद की प्राथमिकताएं भी तय हैं. वे बताती हैं, ‘इस लक्ष्य को भेदने के बाद फिर वापस अपने गांव आऊंगी. वहां हॉकी अकादमी खोलना चाहती हूं. सरकार से आरजू करूंगी कि प्रशिक्षण कैंप लगे. कोशिश करूंगी कि अल्बर्ट एक्का, बिरसा मुंडा, जयपाल सिंह मुंडा जैसे टूर्नामेंट, जो बंद हो चुके हैं, फिर शुरू हों. लेकिन यह सब होगा ओलंपिक का लक्ष्य प्राप्त करने के बाद. फिलहाल सारा ध्यान वहीं है.’ ओलंपिक-ओलंपिक की रट इतनी बार लगाती हैं असुंता और इतने उत्साह और जोश से कि सच में उनकी बातों से लगता है कि इस बार ओलंपिक गोल्ड वे लेकर आ ही रही हैं.

विदा लेते वक्त रुकवाकर असुंता कहती हैं, ‘आपने मेरे बाबा और मां का नाम नहीं पूछा. मेरे बाबा मारकुस लकड़ा हैं और मां सिलवंती लकड़ा. मेरी चर्चा हो तो उनकी चर्चा जरूर कीजिएगा. उन्होंने मुझे बनाने में खुद को खपा दिया है. मैं जो हूं, उनकी वजह से ही हूं..’

मारकुस लकड़ा को अपनी बेटी पर गर्व है.  वे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि असुंता ओलंपिक में अच्छा खेले और देश को हॉकी में ओलंपिक विजेता बनाए. वह मेहनती है और मुझे लगता है कि वह टीम के साथ जीत हासिल करेगी. इसके अलावा जैसे वह आगे बढ़ी है, वैसे ही गांव के अन्य लोगों को भी सिखाए और आगे बढ़ाए.’ सीनियर भारतीय महिला हॉकी टीम की पूर्व कप्तान व वर्तमान में टीम की सहकोच सुमराय टेटे कहती हैं,  ‘अगर उसने थोड़ी और कोशिश की तो वह इस खेल के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक होगी.’

10 चीजें जो उत्तर प्रदेश को राजनीति की अबूझ गुत्थी बना देती हैं

उत्तर प्रदेश की राजनीति लोकतंत्र का वह चमत्कार दिखा सकती है जो एक गरीब दलित की बेटी को देश के सबसे बड़े और ऐसे प्रदेश का चार बार मुखिया बना देता है जो जनसंख्या के लिहाज से दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश ब्राजील से भी बड़ा है. यहां की राजनीति ज्यादातर अन्य मामलों में भी अप्रत्याशित व्यवहार करती है. यहां किस व्यक्ति या पार्टी को चुनाव में जीत मिलेगी, यह सिर्फ उस व्यक्ति या पार्टी की बजाय एक ऐसे नाजुक संतुलन पर निर्भर करता है जो कई तत्वों के होने, न होने, होकर भी न होने या न होकर भी होने जैसी अजीबोगरीब स्थितियों से बन सकता है. इस वजह से यहां की राजनीति को साधना या समझना इतना मुश्किल है कि मझे हुए राजनीतिज्ञ और विश्लेषक भी हर तीसरे दिन इस पर अपनी समझ और धारणाएं बदल लेते हैं. इसके उदाहरण हर तीसरे दिन बदलते पार्टी के उम्मीदवारों और अखबारों के विश्लेषणों में देखे जा सकते हैं. आगे के पन्ने उन दस महत्वपूर्ण कारकों के बारे में बताते हैं जो काफी हद तक उत्तर प्रदेश की राजनीति को जैसी रहस्यमयी वह है वैसा बनाने के लिए जिम्मेदार हैं. गोविंद पंत राजू, जयप्रकाश त्रिपाठी, हिमांशु बाजपेयी और हिमांशु शेखर का आकलन

आसमानी अवसरवाद

पिछले कुछ वर्षों से चुनावों का सिलसिला उत्तर प्रदेश में कुछ इस तरह चल पड़ा है कि विधानसभा चुनाव खत्म होते नहीं कि लोकसभा चुनाव आ जाते हैं. फिर एक के बाद एक पंचायत, नगर पालिका और नगर निगम के चुनाव होते हैं. इससे प्रदेश कभी चुनाव की खुमारी से बाहर ही नहीं निकल पाता. लगातार होते रहने वाले चुनावों के बावजूद अपने जीवन में कोई बुनियादी बदलाव न आ पाने की स्थिति ने प्रदेश की जनता में एक किस्म की तटस्थता का भाव भर दिया है. शायद इसी कारण राज्य में मतदान का प्रतिशत निरंतर कम होता जा रहा है. उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए अब तक सर्वाधिक 56 फीसदी वोट 1974 में इंदिरा गांधी के दौर में पड़े थे. 2007 के चुनाव में बीएसपी की लहर के बावजूद मतदान सिर्फ 46 फीसदी ही हुआ था. उस चुनाव में 306 विजयी उम्मीदवार ऐसे थे जिन्हें कुल मत का 10 से 20 फीसदी ही मिला था. 20 विजयी उम्मीदवारों को तो 10 फीसदी से भी कम वोट मिले थे. 150 सीटें ऐसी थीं जिन पर जीत का अंतर 5000 से भी कम था.

यही गणित राज्य में जोड़-तोड़ और अवसरवादिता की राजनीति को पालता-पोसता रहा है. इसी का नतीजा है कि हाल ही में भाजपा ने बाबू सिंह कुशवाहा को 3-4 प्रतिशत कुशवाहा मतों के लिए पार्टी में शामिल कर लिया. उत्तर प्रदेश की राजनीति का मिजाज ही ऐसा है कि यहां हर पार्टी दूसरी पार्टी के विद्रोहियों को अपनी पलकों पर बैठाने को तैयार रहती है और एक दिन पहले ही दल बदल कर आए नेताओं को टिकट देकर सालों पुराने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करने में जरा भी संकोच नहीं करती.

पाला बदलने की राजनीति का पहला बड़ा प्रयोग यहां मुलायम सिंह यादव ने दिसंबर 1989 में किया था जब वे रातों-रात जनता दल के नेता बनकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. दिसंबर 1993 में अपनी दूसरी पारी  की शुरुआत मुलायम सिंह ने बसपा से दोस्ती करके की और मुख्यमंत्री पद संभाला था. इसके बाद दोनों दलों के संबंध बिगड़े और दो जून, 1995 को लखनऊ में हुए स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों दलों की राहें एकदम जुदा हो गईं. फिर शुरू हुआ बीजेपी और बीएसपी की दोस्ती और दुश्मनी का सिलसिला, जिसमें बीजेपी ने मायावती से धोखा खाने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति के सबसे सनसनीखेज दल-बदल को अंजाम दिया. कांग्रेस में बड़ी टूट हुई. नरेश अग्रवाल के एक दर्जन साथी कांग्रेस छोड़ कर लोकतांत्रिक कांग्रेस के रूप में और बसपा के 35 से अधिक विधायक जनतांत्रिक बसपा के रूप में कल्याण सिंह के साथी बने और उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी को सहारा दिया. आया राम-गया राम का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. प्रदेश ने इसी दौर में जगदंबिका पाल के रूप में एक दिन का अभूतपूर्व मुख्यमंत्री भी देखा और इसी दौर में नरेश अग्रवाल, हरिशंकर तिवारी, चौधरी लक्ष्मीनारायण आदि अनेक ऐसे विधायकों की भी चल निकली जो हर सरकार में शामिल रहने का गुर सीख गए थे. अजित सिंह ने भी इसी दौर में सत्ता का स्वाद चखा और फिर हमेशा सत्ताधारी पार्टी का हिस्सा बने रहने का नुस्खा हासिल कर लिया जो आज भी उनके काम आ रहा है.

बुंदेलखंड की दर्जन भर सीटों पर कांग्रेस ने बसपा और सपा के उन नेताओं को टिकट दिए हैं जो कल तक उसके धुर विरोधी थे

आज उत्तर प्रदेश की राजनीति में नेताओं के लिए पार्टियां बदलना अचरज और नैतिकता की बात नहीं रही. ज्यादातर जनता को भला लगे या बुरा उनका अपना वोट बैंक (जात-धर्म पर आधारित) इससे ज्यादा प्रभावित नहीं होता. हाल के दिनों में भी इस तरह की घटनाओं की बाढ़-सी देखने को मिली जब नेताओं ने दल बदल किए और दूसरी पार्टियों ने उन्हें सिर-आंखों पर बैठाया. नरेश अग्रवाल और उनके पुत्र तमाम घाटों से होते हुए एक बार फिर से समाजवादी घाट लग गए. इसी तरह महज कुछ दिन पहले तक अजित सिंह की सबसे विश्वस्त रही अनुराधा चौधरी ने भी दूसरा दरवाजा देखने का फैसला किया तो मुलायम सिंह के दरवाजे पर ही दस्तक दी. जवाब में अजित सिंह का कहना था, ‘यह अवसरवाद है.’

बुंदेलखंड की कम से कम दर्जन भर सीटें ऐसी हैं जिन पर कांग्रेस ने बसपा और सपा के उन सिटिंग विधायकों और कार्यकर्ताओं को टिकट थमा दिया है जो कल तक उसके धुर विरोधी थे. भाजपा का किस्सा तो सबके सामने ही है. कुशवाहा के अलावा, अवधेश कुमार वर्मा और बादशाह सिंह के पुनर्वास का जुगाड़ उसने कर दिया था. बस कुशवाहा के मामले में थोड़ी फजीहत हो गई. यही दशा सपा की है. अखिलेश यादव डीपी यादव को पार्टी में लाने का विरोध करते हैं लेकिन बसपा से निकाले गए बलात्कार के आरोपित गुड्डू पंडित को शामिल करते जरा भी नहीं सोचते.

चरम पर मुसलिम राजनीति

यूं तो देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं लेकिन मुसलमान वोटों को लेकर जैसी मारामारी उत्तर प्रदेश में मची है वैसी किसी और राज्य में नहीं है. पिछले कुछ सालों में मुसलमान यहां वह बीमार बनकर उभरा है जिसकी खिदमत में सौ अनार हाजिर हैं. सपा, बसपा और कांग्रेस तो इसके पुराने दावेदार थे ही पर हाल का उत्तर प्रदेश काफी बदल गया है. आज यहां बहुत बड़ी तादाद में नए और छोटे दल उभर आए हैं जो खुद को मुसलमानों का असल पैरोकार बताते हैं. राजनीतिक विश्लेषक शमीम खान कहते हैं, ‘मुसलमानों के सामने पार्टियां ही बढ़ी हैं विकल्प नहीं.’ पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, परचम पार्टी, राष्ट्रीय इंकलाब पार्टी, वेलफेयर पार्टी, राष्ट्रीय पीस पार्टी, यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा, मोमिन कॉंफ्रेंस, कौमी एकता दल, इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल आदि नामों से भरी यह फेहरिस्त बड़ी लंबी है. इनमें से ज्यादातर की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद पंख लगे हैं, जिनमें मुसलमानों की बड़ी आबादी ने उत्तर प्रदेश में पहली बार सपा से अपने मोहभंग का संकेत दिया था.

इसके बाद की लड़ाई 2012 का चुनाव ही है जिसमें हर पार्टी मुसलमानों के आगे खुद को सपा के विकल्प के रूप में पेश करना चाहती है.
तकरीबन चार करोड़ मुसलमान देश के सबसे बड़े सूबे की लगभग 130 सीटों पर जीत-हार का फैसला करते हैं. इनमें से सत्तर सीटों पर वे बीस प्रतिशत से ज्यादा हैं और 40 पर 30 से 35 प्रतिशत के बीच. इसलिए मुसलमानों की हलकी सी करवट इस राज्य की सियासत की तस्वीर बदल सकती है. 2009 के चुनावों में सबने इसकी झलक देखी है. तब कल्याण सिंह के सपा में आगमन से नाराज मुसलमानों ने दशकों बाद कांग्रेस को खुश होने का मौका दे दिया था. इसी के चलते जहां सपा के सभी 11 मुसलिम प्रत्याशी चुनाव हार गए वहीं उम्मीद के विपरीत कांग्रेस जमानों बाद बीस लोकसभा सीटों के पार पहुंची. 2009 की चुनावी कामयाबी ने ही कांग्रेस का यह भरोसा मजबूत किया कि मुसलमानों को सपा से तोड़ा भी जा सकता है. इसी के चलते 2009 से 2012 तक दिग्विजय सिंह एक खास तरह की भूमिका में दिखे. यह भूमिका उनकी अपनी पार्टी के लिए सिरदर्द भी बनी. पीछे-पीछे राहुल गांधी भी बुनकरों के पैकेज, आरटीआई से मदरसों को बाहर करने और मुसलिम आरक्षण का समर्थन करते हुए मुसलमानों के बीच गए.

यह मुसलमानों की नाराजगी का भय ही था कि मुलायम सिंह को सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा और व्यक्तिगत हमले तक करने वाले आजम खां को पार्टी में मान-मनौव्वल करके  वापस लाना पड़ा. इनके सहारे से ही मुलायम ने तीन बार उत्तर प्रदेश की सत्ता देखी और इसी की खातिर उन्होने मुल्ला मुलायम का संबोधन भी स्वीकार किया. मुसलिम राजनीति की नब्ज़ पहचानने वाले डॉ. खान आतिफ कहते हैं, ‘लंबे समय तक कांग्रेस मुसलमानों को दंगों और हिंदूवादी संगठनों का भय दिखाकर वोट लेती रही.’ इसके बाद मंदिर-मस्जिद के दौर में सपा ने कांग्रेस से ज्यादा आक्रामकता के साथ मुसलमानों की तरफदारी की और उनका सपा से जुड़ाव मौजूदा दौर तक आ पहुंचा है. पर अब यह जुड़ाव इतना सीधा और सरल नहीं है. झउआ भर सियासी पार्टियों के साथ-साथ उलमा के राजनैतिक हस्तक्षेप ने मुसलिम राजनीति को और भी उलझा दिया है. नदवातुल उलमा, दारूलउलूम देवबंद और फिरंगी महल जैसी कई इस्लामिक संस्थाएं इसी राज्य में हैं, जिनका प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बड़ा प्रभाव है. यही वजह है कि उलमा अपनी अलग पार्टी भी बनाते हैं और पार्टियों की गोद में भी बैठ जाते हैं. इसके लिए इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बाद उनके वारिस राहुल गांधी को भी नदवा जाना पड़ता है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी फिरंगीमहल गेट बनवाते हैं और मुसलमानों को लगभग अछूत मानने वाली पार्टी भाजपा को भी लखनऊ में शिया उलमा के एक तबके को साथ लेकर चलना पड़ता है. अपने में ही उलझी मुसलिम राजनीति उत्तर प्रदेश की राजनीति को किस हद तक उलझा रही है अनुमान लगाना मुश्किल है.

जातिवाद और मंडल राजनीति की रंगभूमि

जातिवाद उत्तर प्रदेश की राजनीति का पुराना राग है तो मंडल आयोग के बाद पिछड़ों की राजनीति ने भी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमा लीं. उत्तर प्रदेश में इसी राजनीति ने कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई. मुलायम के एम-वाई (मुसलिम-यादव) समीकरण ने समाजवादी पार्टी को और दलित-पिछड़ा गठजोड़ ने बसपा को प्रदेश की राजनीति की बड़ी ताकतें बना दिया. बाद में मुलायम सिंह ने इसमें क्षत्रियों को जोड़ने की जुगत भिड़ाई तो बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़कर नई ऊंचाइयों पर पहुंच गई.

2009 के लोकसभा चुनावों की कामयाबी ने ही कांग्रेस का यह भरोसा मजबूत किया कि मुसलमानों को सपा से तोड़ा भी जा सकता है

इस बार के चुनावों में भाजपा यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों, ब्राह्मणों आदि को अपने पक्ष में करने के प्रयासों में लगी है तो कांग्रेस महादलितों के लिए कोटा के भीतर कोटा की बात कर रही है. पिछड़ी जातियों को साधने के क्रम में भाजपा बसपा सरकार में मंत्री रहे और भ्रष्टाचार का प्रतीक बन कर उभरे बाबू सिंह कुशवाहा जैसे लोगों को भी अपनी पार्टी में शामिल करने से परहेज नहीं कर रही. उधर कांग्रेस अवसरवाद की नाव पर हर समय सवार रहने वाले राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह के साथ जातीय समीकरणों को साधने में लगी है. हद तो तब हो जाती है जब हमेशा नई तरह की राजनीति की बातें करते रहने वाले राहुल गांधी भी जातीय समीकरणों को साधने के लिए सैम पित्रोदा को बढ़ई बताने लगते हैं. आज अगर समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए बेनीप्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनावी अभियान की धुरी बने हुए हैं तो इसका कारण उनका कुर्मी समुदाय से होना भी है जो राज्य में 100 के करीब सीटों पर खासा प्रभाव रखती है.

उत्तर प्रदेश में चुनाव में टिकट पाने के लिए किस क्षेत्र में किस नेता ने जनता के बीच क्या और कैसा काम किया है, यह महत्वपूर्ण नहीं. योग्यता का असली पैमाना होता है कि उम्मीदवार की जाति क्या है. यहां जातीय संतुलन को साधने की कला को अंग्रेजी में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ या ‘सोशल जस्टिस’ जैसे आकर्षक नाम दिए गए हैं. हालत यह है कि चुनाव में प्रत्याशियों की सूची जारी करते हुए हर पार्टी यह बताना नहीं भूलती कि इस सूची में किस जाति के कितने उम्मीदवार हैं. अब तो अधिकारियों को भी यही कह कर नियुक्त किया जाता है कि वह फलां जाति का है.

राज्य में चुनावी गणित के खिलाड़ियों की पहली नजर इस बात पर टिकी रहती है कि राज्य में कुल वोटरों का 25 फीसदी हिस्सा पिछड़ी जातियों का है और लगभग 18 फीसदी मुसलिम, 13 फीसदी जाटव और 10 फीसदी जाट वोटर हैं. राज्य में दस फीसदी से अधिक ब्राह्मण और इससे कुछ कम यादव वोट हैं. लगभग नौ फीसदी अन्य दलित जातियां व शेष अन्य जातियां हैं. यही गणित राज्य के जनप्रतिनिधियों का सारा हिसाब-किताब बनाता-बिगाड़ता है.

बंटवारा या बंदरबांट

उत्तर प्रदेश देश का इकलौता राज्य है जहां की मुख्यमंत्री इसे चार टुकड़ों में बांटने की वकालत कर रही हैं. जबकि इनमें से तीन हिस्सों के लिए यहां कभी कोई गंभीर आंदोलन या मांग ही नहीं रही.

हरित प्रदेश या पश्चिमांचल जैसे शब्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए यदा-कदा उठते रहे हैं. राष्ट्रीय लोकदल इसकी पैरवी यदा-कदा करता रहा है. लेकिन उत्तराखंड, झारखंड या तेलंगाना की मांगों जैसी गंभीरता इसमें नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग करने की जो मांग है उसके पीछे विकास और सुशासन के तर्क से ज्यादा पिछड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश और सूखे बुंदेलखंड से पीछा छुड़ाने का भाव ज्यादा है. या फिर इस मांग के पीछे अजित सिंह की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं रही हैं.

पूर्वांचल की गाहे-बगाहे उठने वाली मांग अलग बोली और इलाके के पिछड़ेपन की बुनियाद पर टिकी है. लेकिन एक समग्र आंदोलन या क्षेत्रीय स्वाभिमान का तत्व इसमें से हमेशा नदारद रहा है. हालांकि अमर सिंह पूर्वांचल के बहाने अपनी राजनीति जमाने की कोशिश में लगे हुए हैं, लेकिन उनके अभियान का असर उनकी पार्टी की हैसियत जितना ही प्रभावी है.

अकेला बुंदेलखंड ऐसा इलाका है जहां अलग राज्य के लिए एक आंदोलन है. विकास का हर नारा बुंदेलखंड के लिए फीका रहा है. वन और खनिज संपदा की भरमार होने पर भी यहां आम आदमी के हिस्से बदहाली ही आती रही है. प्रदेश में भूख से दम तोड़ने वाले किसानों में भी सबसे अधिक इसी इलाके से होते हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा की तर्ज पर बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा यहां लंबे समय से आंदोलन की अलख जगा रहा है. इसके अलावा कुछ और राजनीतिक पार्टियां भी हैंजो बुंदेलखंड केंद्रित राजनीति कर रही हैं. हाल ही में खड़ी हुई बुंदेलखंड कांग्रेस के सर्वेसर्वा राजा बुंदेला हैं जिन्होंने कांग्रेस से अपनी राहें जुदा करके अलग राज्य के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने का फैसला किया है. वर्तमान में यहां के 20 में से 14 विधायक बसपा के हैं और यह इलाका पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है.

राज्य विभाजन की इस पृष्ठभूमि में मायावती ने एक झटके में उत्तर प्रदेश को पश्चिम प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध प्रदेश के नाम से चार टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव कर दिया. न विपक्ष से कोई सलाह मशविरा किया गया और न ही राज्य की जनता से. नतीजा यह हुआ कि प्रस्तावित अवध प्रदेश में पड़ने वाले जिलों के तीन करोड़ 65 लाख से ज्यादा निवासी हक्के-बक्के रह गए. मायावती की इस घोषणा के पीछे अलग-अलग वजहें तलाशी जा रही हैं. कुछ लोग यह मानते हैं कि मायावती यह सोचती हैं कि जब वे केंद्र में राजनीति करें तो उनके क्षेत्रीय छत्रपों का कद बहुत बड़ा न होने पाए इसीलिए वे इस तरह का विभाजन चाहती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर प्रकाश कुमार कहते हैं, ‘यह विभाजन प्रस्ताव सोवियत संघ के बंटवारे के गोर्वाच्योफ के प्रस्ताव की तरह है. अगर यह प्रस्ताव मंजूर होता है तो इससे न सिर्फ भारत का संघीय ढांचा प्रभावित होगा बल्कि संसद का स्थायित्व भी गड़बड़ा जाएगा.’ केंद्र ने इस प्रस्ताव को फिलहाल वापस भेज दिया है और इसका मंजूर होना अभी बहुत दूर की कौड़ी है. मगर मौजूदा विधानसभा चुनाव में इस प्रस्ताव पर जनता का फैसला आना अभी बाकी है.

चार ध्रुवीय राजनीति

देश की राजनीति अभी एक ऐसे दौर में है जब कई चुनावों ने यह साबित किया है कि ऐंटी-इनकंबेंसी का प्रभाव घट रहा है. केंद्र के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, आंध्र प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में सत्ताधारियों की वापसी ने विपक्ष को कमजोर बनाकर एक ध्रुवीय राजनीति को मजबूती देने का काम किया है. ज्यादातर राज्य ऐसे हैं जहां राजनीति दो ध्रुवीय है. कहीं दो दलों के बीच तो कहीं दो गठबंधनों के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है. बिहार में सियासी त्रिकोण दिखता था लेकिन 2005 के पहले चुनाव में रामविलास पासवान द्वारा किसी पक्ष को समर्थन नहीं देने के बाद जब दूसरा चुनाव हुआ तो वहां भी त्रिकोण बिखर गया और दो ध्रुव ही बचे. 2010 ने तो बिहार में दूसरे ध्रुव को भी डिगा दिया. लेकिन बिहार से सटा उत्तर प्रदेश इस मामले में अपवाद है और अब भी यहां की राजनीति में चार ध्रुव बने हुए हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को बहुमत मिलने के अलावा सपा, भाजपा और कांग्रेस को भी इतनी सीटें मिली थीं कि उनका वजूद बचा रहे.

हालत यह है कि चुनाव में प्रत्याशियों की सूची जारी करते हुए हर पार्टी यह बताना नहीं भूलती कि इस सूची में किस जाति के कितने उम्मीदवार हैं

सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य की राजनीति की एक खासियत यह भी है कि यहां के चारों सियासी पक्षों ने कभी न कभी अपने बूते पंचम तल से प्रदेश पर राज किया है. 2007 में 206 सीटें बसपा को, 97 सपा को, 51 भाजपा को और 22 सीटें कांग्रेस को मिली थीं. इस चुनाव में भी ये चारों अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी जमीन को मजबूत करना भाजपा और कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी है ताकि उन्हें दिल्ली की सरकार बनाने में सहूलियत हो. सबसे ज्यादा सांसदों को चुनकर भेजने वाले इस राज्य के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की राह इधर से ही होकर गुजरती है. मायावती की पर्याय बसपा और मुलायम सिंह यादव की पर्याय सपा का अस्तित्व ही सूबे के जनादेश पर निर्भर करता है. इसलिए चुनावों में यहां हर सीट पर मारामारी दिखती है.

सूबे में अपना सांगठनिक ढांचा खो चुकी कांग्रेस को राहुल की संजीवनी का सहारा है. जब भी प्रदेश में कांग्रेसियों का हौसला टूटता है तो वे 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर निगाह डालते हैं. कांग्रेस को इनमें 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. वैसे यह बात पार्टी के आला नेता भलीभांति जानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदान का पैटर्न बिल्कुल अलग होता है. कांग्रेस और भाजपा को सपा और बसपा के मुकाबले मजबूत उम्मीदवारों की कमी कई सीटों पर खल रही थी, लेकिन मायावती और मुलायम के बागियों के सहारे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां चुनावी बैतरणी पार होने का सपना संजोए हुए हैं. इस चार ध्रुवीय लड़ाई में आम मतदाता इस बात को लेकर भ्रमित है कि वह किसके साथ खड़ा हो. क्योंकि कई सीटों पर सबका पलड़ा एकसमान दिखता है और नीतियों के स्तर पर भी चारों मोटे तौर पर समान दिख रहे हैं. वहीं सामाजिक और आर्थिक विविधता वाले इस प्रदेश के मतदाताओं ने भी अब तक राजनीतिक विविधता को बनाए रखने के पक्ष में ही जनादेश दिया है. यह सवाल बना हुआ है कि जब देश के दूसरे हिस्सों में राजनीतिक विविधता घट रही है तो क्या यह प्रदेश 2012 में भी उसी राह पर चलेगा या फिर चारों पक्षों को प्रदेश की राजनीति में जिंदा रखकर सूबे के राजनीतिक समीकरणों को उलझाए रखने का विकल्प ही चुनेगा.

मंदिर-मस्जिद विवाद

बाबरी ध्वंस के तकरीबन बीस साल बीत जाने के बावजूद आज भी उत्तर प्रदेश की लगभग हर राजनैतिक बहस में इस घटना का जिक्र आ ही जाता है. उत्तर प्रदेश से निकला मंदिर-मस्जिद विवाद उन कुछ राजनैतिक घटनाक्रमों में से है जो भारतीय राजनीति के एक पूरे दौर को रेखांकित करते हैं. भारत के किसी दूसरे राज्य में धर्मस्थल के मालिकाना हक की लड़ाई उस प्रदेश और समूचे देश की राजनीति पर इस तरह हावी नहीं रही. उत्तर प्रदेश की राजनीति आज जैसी  दिखती है उसे वैसा बनाने में दैरो-हरम के झगड़े का बड़ा किरदार है. अजीबो-गरीब ढंग से इस मुद्दे ने शुरुआती दौर में भाजपा और सपा को दो कद्दावर राजनैतिक ध्रुवों में बदल दिया तो बाद के दौर में इसको लेकर निष्ठा-परिवर्तन उनके ढलान का कारण भी बना. मुलायम सिंह के पक्ष में यादवों के साथ मुसलमानों की गोलबंदी इस विवाद की ही देन है और दो दशकों से देश की राजनीति की अहम धुरी बनी बैठी भाजपा भी इसी के दम पर यहां विराजमान है.

इस मामले पर आए हाई कोर्ट के फैसले के बाद कायम रहा अमन यह बताता है कि जनता इस विवाद पर कुछ जरूरी सबक सीख चुकी है, लेकिन यह मुद्दा राज्य की राजनीति से कुछ इस तरह लिपटा है कि आने वाले कई दिनों तक इसके छूटने की उम्मीद नहीं है. भाजपा 2012 चुनावों के संदर्भ में अपनी महत्वाकांक्षी स्वाभिमान यात्रा की शुरुआत काशी और मथुरा से करती है तो समापन अयोध्या से. वहीं मुलायम कल्याण से दोस्ती के लिए मुसलमानों से  माफी मांगते घूमते हैं साथ ही हाई कोर्ट के फैसले को मुसलमानों के साथ ठगी बताते हैं. ये वही कल्याण सिंह है जिनके दामन पर अयोध्या जमा हुआ है. और जिनके साथ की वजह से 2009 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह का एमवाई(मुस्लिम-यादव) किला लगभग दरक गया था. वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार कहते हैं, ‘बीते कुछ सालों में राजनैतिक हथियार के रूप में इसकी धार भले ही कुछ कम हो गई हो लेकिन लोगों के विचारों पर इसका असर अभी तक बना हुआ है. हिंदू और मुसलमान दोनों समाज इस मुद्दे से जुड़ाव रखते हैं. इसीलिए इस मुद्दे से हटने पर भाजपा को और कल्याण को लेने पर सपा को जनता सबक सिखा देती है.’

यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा की तरफ से चुनाव प्रचार का जिम्मा उमा भारती ने संभाला है और सपा की तरफ से आजम खां ने

भाजपा के सहयोगी संगठन आज भी अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराश रहे हैं. दूसरी पार्टियां भी अपने फायदे के लिए जख्मों की पपड़ी को उधेड़ती रहती हैं. मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड यूं तो शरई मामलों के लिए बना था लेकिन अपने सारे इजलासों में उसकी तरफ से भी इस विवाद को लेकर राजनैतिक बयानबाजी बार-बार की जाती रही है. अयोध्या पर हाई कोर्ट के फैसले की घड़ी एक नाज़ुक वक्त था लेकिन उसका भी सियासी लाभ लेने  में उत्तर प्रदेश की राजनैतिक पार्टियों ने कोई कमी नहीं बरती. यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा की तरफ से चुनाव प्रचार का जिम्मा उमा भारती ने संभाला है और सपा की तरफ से आजम खां ने. पिछले कुछ सालों में यह मुद्दा एक ऐसे सामान की तरह हो गया है जिसे ऐन चुनाव से पहले बस्ते से निकाल कर झाड़ा-फूंका जाता है और जनता के सामने पेश कर दिया जाता है, इस उम्मीद के साथ कि क्या पता जनता इसे फिर से उठा ले.

अधिग्रहण और उपेक्षित किसान

राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते कॉरपोरेट दबदबे के बीच कभी मुलायम सिंह को तो कभी मायावती को साध कर कई औद्योगिक घराने उत्तर प्रदेश में जब अपने साम्राज्य विस्तार में लगे थे तो लगने लगा कि प्रदेश के सियासी फलक से किसान और जमीन जैसे मुद्दे गायब हो रहे हैं. उम्मीद तब जगी जब दादरी में अनिल अंबानी बिजली घर लगाने चले और उस वक्त भूतपूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने किसानों को एकजुट करके जबरिया जमीन अधिग्रहण का मुद्दा उठाया. लेकिन वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े थे जहां उनके पास न तो सियासी समर्थन था और न ही कोई सांगठनिक ढांचा. फिर भी उनकी आवाज दूर-दूर तक पहुंची. वीपी सिंह किसानों के शोषण का मुद्दा उस वक्त उठा रहे थे जब खुद को ‘किसानों का नेता’ कहने वाले मुलायम सिंह यादव राज्य की सत्ता पर काबिज थे.

बाद में कांग्रेस को लगा कि वह जमीन और किसान के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस पा सकती है. कांग्रेस के इस अभियान की कमान ‘भविष्य के प्रधानमंत्री’ कहे जाने वाले राहुल गांधी ने संभाली. बुंदेलखंड के बदहाल किसानों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करवाने से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से अधिग्रहण के नाम पर जबरन छीनी जा रही जमीन के खिलाफ हल्ला बोलने का काम राहुल ने किया. इसने सियासी दांव-पेंच में माहिर मायावती को भी इस बात के लिए मजबूर किया कि वे किसानों से संबंधित मसलों पर मुखर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कई सरकारी योजनाओं की घोषणा करें. भट्टा-पारसोल से किसान संदेश यात्रा लेकर बीते नौ जुलाई को अलीगढ़ पहुंचे राहुल गांधी ने अपनी उस रैली में कहा, ‘विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश में लाखों किसानों की जमीन ली जा रही है गोल्फ क्लब और रेसिंग क्लब बनाने के लिए. जमीन बिल्डरों को दी जा रही है. दिल्ली में जमीन ली जाती है तो बेचने वाले को उसके मन के हिसाब से पैसे मिलते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी मांग करने वाले किसानों पर गोली चलाई जाती है. हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपको एक ऐसा कानून दें जिससे किसानों और मजदूरों को फायदा हो.’ संकेत साफ था, प्रदेश में कांग्रेस की डूबी सियासी नैया में उम्मीद का संचार करने के लिए जमीन अधिग्रहण का मसला टॉनिक का काम करने वाला है.

सिर्फ तीन दिन बाद गांधी परिवार के चहेते माने जाने वाले जयराम रमेश को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री बना दिया गया. रमेश ने भी सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून का मसौदा 55 दिन में तैयार करके संसद में पेश कर दिया.

बाद में कांग्रेस को लगा कि वह जमीन और किसान के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन को दुबारा पाने की हालत में आ सकती है

लेकिन सियासी अजूबों वाले इस सूबे की राजनीति ने एक बार फिर अपना रंग दिखाया. मसौदा जिस स्थायी संसदीय समिति के पास पहुंचा उसकी अगुवाई भाजपा की सुमित्रा महाजन कर रही हैं और इसमें मौजूद बसपा सांसदों ने भी विधेयक को लटकाए रखने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी. विधेयक पारित नहीं हो पाया. इसके कुछ ही हफ्ते पहले नई जमीन अधिग्रहण नीति की घोषणा करने वाली मायावती खुद की बजाय कांग्रेस को किसानों का हमदर्द कैसे बनने दे सकती थीं!

चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही जमीन और किसान के मुद्दे पर चोट खाई कांग्रेस चौधरी अजित सिंह के साथ गठबंधन करके एक बार फिर जाति और संप्रदाय की राजनीति के उसी मैदान में वापस आ गई है जिसके सबसे मजबूत खिलाड़ी के तौर पर बसपा और सपा को जाना जाता है. जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री और देश के सबसे बड़े किसान नेता रहे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के प्रदेश के किसान आज एक बार फिर से जहां से चले थे वहीं खड़े हैं.

दलित राजनीति की प्रयोगशाला

कभी दलित वोट बैंक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सबसे खास जनाधार माना जाता था. कांशीराम ने जब उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को अपने साथ लेने की मुहिम शुरू की तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह मुहिम एक दिन उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने तक भी जा पहुँचेगी. हालांकि महाराष्ट्र में दलित आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है और पंजाब सहित कई अन्य राज्यों की जनसंख्या में दलितों का हिस्सा उत्तर प्रदेश के 22 फीसदी के मुकाबले कहीं ज्यादा रहा है, लेकिन दलित आंदोलन की सफलता का सबसे बड़ा और चमकीला प्रतीक आज उत्तर प्रदेश ही है.

उत्तर प्रदेश में बसपा की सत्ता में भागीदारी के शुरुआती दौर ने सामाजिक ताने-बाने में काफी उथल पुथल पैदा की. यही कारण था कि उस दौर में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित ऐक्ट के मुकदमों की बाढ़-सी आ गई थी जो बसपा को सहयोग दे रहीं भाजपा और सपा जैसी पार्टियों की नाराजगी की एक बड़ी वजह रही. लेकिन मायावती ने कभी उनकी नाराजगी की परवाह नहीं की. 2007 के विधानसभा चुनाव में कुर्सी पाने और उसे बचाए रखने की मजबूरी में बीएसपी ने बहुजन की बजाय सर्वजन का नारा अपना लिया. इसका लाभ उसे अपने दम पर सरकार बनाने में तो मिल गया मगर यह सर्वजन की सरकार न बन कर कुछ कुनबों की बन कर रह गई जिसमें दलित कहीं पीछे रह गया. इसका असर लोकसभा चुनाव में बसपा की बुरी हालत के रूप में भी देखा गया.

बीएसपी सरकार ने अपने वर्तमान कार्यकाल में स्मारकों और पत्थरों का काम करके दलित स्वाभिमान के वाह्य स्वरूप को भले ही सहलाया हो, उसने भले ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का पूर्ण पालन और कई दलित अधिकारियों को प्रोत्साहन भी दिया हो मगर जिन महादलितों के घर राहुल गांधी दस्तक दे रहे हैं वहां तक खुशहाली पहुंचाने के लिए कोई ठोस काम नहीं किया. कभी मायावती के बेहद करीबी और अब केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर तैनात एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी कहते हैं, ‘हमने उनको निचले स्तर तक नवोदय विद्यालयों की तरह दलित बच्चों के लिए एक विशेष प्रकार के स्कूलों की श्रृंखला खोलने का सुझाव दिया था. इसके लिए धन की व्यवस्था भी बाहरी साधनों से हो रही थी. लेकिन अचानक इस प्रोजेक्ट को किनारे कर दिया गया. इस तरह की शिक्षा से ग्रामीण स्तर तक दलित बच्चों की प्रतिभा को निखारा जा सकता था, मगर ऐसा हो नहीं सका.’ इसका नतीजा यह हुआ कि इस बार भी चुनाव में हर दल दलित वोट बैंक की ओर हसरत भरी निगाहों से देख रहा है.

कांग्रेस महादलितों की बात कर इस जोड़ तोड़ में बहुत गंभीरता से जुटी है और भाजपा भी. भाजपा ने मायावती की जाटव बिरादरी के अलावा अन्य दलित जातियों के भरोसे सफलता हासिल करने की योजना के तहत राज्य की 60 से अधिक अन्य दलित जातियों के प्रतिनिधियों को टिकट दिए हैं.

दलित वोट बैंक का गणित दो तरह से काम करता है. एक तो राज्य की आरक्षित सीटों के जरिए और दूसरा सामान्य सीटों में अधिक बड़ी मतदाता संख्या के जरिए. राज्य की लगभग 58 सीटों पर दलित वोट निर्णायक है और मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय होने पर यह संख्या काफी बढ़ भी जाती है. आरक्षित सीटों का गणित तो अलग है ही. 2007 के चुनावों में मायावती ने 62 आरक्षित सीटें जीती थीं और भाजपा के हिस्से में महज 7 सीटें ही आई थीं. इस बार भी सभी प्रमुख पार्टियां सुरक्षित सीटों पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करने के प्रयास में हैं क्योंकि इन सीटों पर किसका कितना कब्जा होता है यह बात लोकसभा चुनावों में अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाएगी.

बाहुबल और वोट-कटवा पार्टियां

उत्तर प्रदेश की चुनावी शतरंज का एक खास पहलू है बाहुबल. दाग यहां राजनीति की खूबी माना जाता है और दागी होना सफलता की पहली शर्त. तभी तो उत्तर प्रदेश की विधान सभा में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, राजा भैया, डीपी यादव आदि अनेक स्वनामधन्य जन प्रतिनिधि शान से विचरण करते दिखाई देते हैं. 2007 की उत्तर प्रदेश विधानसभा में दागियों की भरमार थी तो अनेक बार ऐसे मौके भी आए जब विधानसभा की बैठकों के लिए अनेक विधायक जेल से लाए गए.

हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने ज्यादातर बाहुबलियों को नकार दिया था मगर विधानसभा चुनावों में एक बार फिर इनकी धूम है. यूपी इलेक्शन वॉच की सूचना के मुताबिक उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए पहले दौर में घोषित कांग्रेस, भाजपा, सपा और लोकदल के कुल 617 उम्मीदवारों में से 248 आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं और इनमें से 15 फीसदी गंभीर आरोपों से घिरे हैं. राज्य की मौजूदा विधान सभा की कहानी भी कुछ खास अलग नहीं है. सूबे के कुल 403 विधायकों में से 143 के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. इनमें से 76 विधायकों पर गंभीर अपराधों के मुकदमे हैं.

आपराधिक राजनीति का उत्तर प्रदेश की छोटी सियासी पार्टियों से भी गहरा रिश्ता है. डीपी यादव खुद एक पार्टी, राष्ट्रीय परिवर्तन दल के मालिक हैं तो मुख्तार अंसारी अपने कौमी एकता दल के जरिए सियासत में हैं. अपना दल जैसे छोटे दल तो पहले से ही बाहुबलियों की शरणगाह बने हुए हैं. दल की महासचिव अनुप्रिया पटेल का नजरिया इस बारे में बहुत साफ है. वे कहती हैं, ‘हम राजनीति कर रहे हैं. कौन अपराधी है या कौन माफिया यह तय करना हमारा काम नहीं है. यह अदालतों का काम है.’ यही कारण है कि पांच लाख के इनामी और अब अहमदाबाद जेल में बंद बृजेश सिंह को चंदौली जिले की सैयदराजा सीट से प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का टिकट मिल गया है और एक दर्जन से अधिक हत्याओं के आरोपित मुन्ना बजरंगी को अपना दल से. ऐसे नामों की एक लंबी श्रंखला है.

पीस पार्टी, बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, जन क्रान्ति पार्टी, उलेमा काउंसिल सहित 100 से अधिक छोटी पार्टियां इस बार भी चुनावी मैदान में उतरी हैं

छोटे दलों की एक भूमिका वोट काटने वाली पार्टियों की भी होती है. पिछले विधानसभा चुनाव में 112 छोटे दलों ने भागीदारी की थी. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा ने सर्वाधिक 118 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. अपना दल को सीट तो एक भी नहीं मिल पाई मगर उसने कांग्रेस से अधिक लगभग 10 फीसदी वोट हासिल किए थे. डीपी यादव के राष्ट्रीय परिवर्तन दल ने 14 सीटों पर लड़ कर 6 फीसदी वोट पाए थे. उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी ने भी 66 सीटों पर लड़कर 1.75 फीसदी मत हासिल किए थे और राज्य में भाजपा का गणित बिगाड़ने में खासी भूमिका निभाई थी. तब कुल 7 फीसदी से अधिक वोट ऐसे ही छोटे दलों के हिस्से में आए थे. हालांकि इनमें से महज छह विधायक ही विधानसभा में पहुंच सके मगर इन्होेेेंने लगभग 50 से ज्यादा उम्मीदवारों का चुनावी गणित गड़बड़ा दिया. 2007 में 28 सीटें ऐसी थीं जहां जीत का अंतर 1000 से भी कम था और 122 सीटों पर यह अंतर मात्र एक से 5000 मतों का था.

इस बार ये छोटे दल फिर से मैदान में हैं और अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस, भारतीय जनशक्ति पार्टी, जनमोर्चा, हाजी याकूब की यूपी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट आदि के चुनाव में मौजूद न होने के बाद भी पीस पार्टी, बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, कल्याण सिंह की जन क्रांति पार्टी, उलेमा काउंसिल, राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी आदि 100 से अधिक छोटी पार्टियां मैदान में उतर चुकी हैं. पिछले चुनाव में उमा भारती और कल्याण सिंह जिस तरह भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे थे, समाजवादी पार्टी के खिलाफ वैसी ही कोशिश में अमर सिंह भी अबकी बार अपनी पार्टी के जरिए कूद पड़े हैं. एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, जदयू आदि, पार्टियां भी यूपी की चुनावी लड़ाई में हिस्सा लेने पहुँच गई हैं.

पहले चुनावी शतरंज के महारथी चुनाव खर्च के प्रबंध, विरोधी उम्मीदवारों का जातीय गणित बिगाड़ने, मिलते-जुलते नाम वाले उम्मीदवारों से मतदाता को संशय में डालने आदि कारणों से निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव लड़वाते थे. जानकार मानते हैं कि चुनाव आयोग की सख्ती के बाद अब यही काम छोटे दलों की मदद से किया जाता है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान बहुत तेजी से उभरने वाली पीस पार्टी के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है तो अनेक मुसलिम सियासी पार्टियों के बारे में भी. इन छोटे दलों के लिए प्रतिबद्धता या विश्वसनीयता कोई मुद्दा नहीं होता. पिछले विधानसभा चुनाव में जनमोर्चा ऐसे दलों की अगुवाई कर कहा था तो इस बार यह भूमिका इत्तहाद फ्रंट यानी एकता मंच निभा रहा है. इस फ्रंट में लगभग 20 छोटे दल शामिल हैं और बाहुबलियों को टिकट देने के लिए चर्चा में आ चुकी डॉक्टर अयूब की पीस पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद यह फ्रंट अब अधिक आत्मविश्वास की मुद्रा में आ गया है. इस मंच में बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, भारतीय समाज पार्टी, कौमी एकता दल, इत्तहाद मिल्लत कौंसिल, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी आदि शामिल हैं और इसके अध्यक्ष सलमान नदवी का दावा है कि पीस पार्टी से अलग होने के बाद अब यह फ्रंट उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया असर पैदा करेगा.

चार संभावित प्रधानमंत्री

उत्तर प्रदेश की राजनीति को खूबी यह भी है कि यह सपने दिखाती है, सपने बेचती है और सपने ही पालती है. फिलहाल जब तक यूपी अखंड है तब तक दिल्ली की सत्ता का रास्ता बिना उत्तर प्रदेश के मिल पाना मुमकिन नहीं. इसलिए यूपी तमाम नेताओं को प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना भी दिखाता है. अतीत इसका गवाह भी है. जवाहर लाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह, इंदिरा गांधी, राजीव, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी, इन सभी प्रधानमंत्रियों का संबंध उत्तर प्रदेश से रहा है. यही सुनहरा अतीत वर्तमान नेताओं के लिए भी उम्मीदें पैदा करता है.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश में राजनीति कर रहे कम से कम चार चेहरे तो ऐसे हैं ही जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार कहे जा सकते हैं. इनमें पहला नाम सोनिया गांधी का लिया जा सकता है जिन्होंने कांग्रेस के नेताओं के मुताबिक खुद इस पद का त्याग कर भारतीय राजनीति में एक मिसाल कायम कर दी है. इसके बाद नंबर आता है उन्हीं के यशस्वी पुत्र राहुल गांधी का जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की कवायद में इस समय दिन रात एक किए हुए हैं. अनेक बार राहुल गांधी के भाषणों और तेवरों से भी उनकी प्रधानमंत्री बनने से पहले वाली मनःस्थिति साफ झलकती है.

इसके बाद बारी आती है समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की. मुलायम एक बार तो प्रधानमंत्री बनते -बनते रह ही गए थे. तब अगर लालू प्रसाद यादव ने लंगड़ी न मारी होती तो मुलायम का नाम देश के प्रधानमंत्रियों की सूची में आ जाना तय हो गया था. लेकिन सपना अब भी बाकी है और 2012 के विधानसभा चुनावों से ही यह तय होगा कि इस सपने का क्या हश्र होने वाला है. एक दौर था जब मुलायम बार-बार इस बात को बताते थे कि इस तरह वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे. मगर इस समय वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं और उनकी समाजवादी पार्टी किसी भी तरह यूपी का किला तोड़ना चाहती है क्योंकि यहीं से उसकी आगे की राह तय होगी.

प्रधानमंत्री पद की चौथी दावेदार उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती हैं. उन्होने प्रधानमंत्री बनने के लिए पिछले लोकसभा चुनावों में तीसरे मोर्चे के दम पर बहुत अधिक सपने भी देख डाले थे. समाज की नब्ज समझने वाले शायर खुशवीर सिंह शाद कहते हैं, ‘मायावती के पास बड़ा मौका था. अगर वे सिर्फ दो वर्ष तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में खुद को एक धननेता की बजाय जननेता के रूप में स्थापित कर लेतीं तो उत्तर प्रदेश से उनके कम से कम 60 सांसद दिल्ली पहुंचते और अगर ऐसा होता तो निश्चित रूप से दिल्ली का नक्शा आज कुछ और ही होता’. लेकिन बंद कमरे में चाटुकार अधिकारियों से घिरी मायावती शायद इतनी-सी बात को ढंग से समझ नहीं सकीं. प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की मायावती की संभावनाएं अभी बरकरार हैं और इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी दिन दिल्ली के खास इलाकों में भी उनकी प्रतिमाएं नजर आने लगें.

अब जिस प्रदेश में प्रधानमंत्रित्व की संभावनाओं से भरे इतने व्यक्तित्व होंगे वहां की राजनीति कैसी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.

आयोग करे, विपक्ष भरे

चुनाव आयोग ने मायावती के हाथ ‘मौत का सौदागर’ वाला हथियार थमा दिया है. इतना भर अंतर है कि तब दो पार्टियों के बीच मसला था और चुनाव आयोग रेफरी था यहां खुद चुनाव आयोग और एक पार्टी के बीच पेंच फंस गया है और नुकसान बसपा को छोड़ सबको हो सकता है. आयोग ने सद्भावना के तहत ही मायावती और उनके चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों को ढकने का आदेश दिया होगा. इसकी इच्छा रही होगी कि बाकी पार्टियों के लिए बराबरी का मौका रहे. किसी को सत्ता का अतिरिक्त लाभ न मिल सके. लेकिन सच्चाई यह है कि आयोग के सारे गुणा-भाग गलत रहे हैं, उसके फैसले में व्यावहारिकता और दूरदर्शिता के तकाजे का अभाव है. उसके सलाहकारों ने एक गलत फैसले को अमलीजामा पहनाया है. इसने मायावती के हाथ में वह लगाम पकड़ा दी है जिस पर दलित अस्मिता की सवारी बड़ी आसानी से की जा सकती है. बिल्कुल उसी तरह जैसे गुजरात के विगत विधानसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने ‘मौत का सौदागर’ की सवारी की थी.

मूर्तियों को ढकने के फैसले के बाद सबसे ज्यादा बेचैनी उन लोगों में देखी जा रही है जो अब तक मायावती के पार्कों और मूर्तियों का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे थे. एक भाजपा नेता की चिंता सवालों के रूप में सामने आती है, ‘आप ही बताइए सामान्य मूर्ति आपका ध्यान खींचेगी या बेढब तरीके से चिथड़े में लपेटी हुई.’ उत्सुकता मानव स्वभाव का अंग है. जिस ओर ढांकने-तोपने की कोशिशें होती हैं उसी ओर उसका ध्यान सबसे ज्यादा जाता है. नोएडा से लेकर लखनऊ तक पर्दे से ढकी मूर्तियां न चाहने वालों को भी बरबस अपनी तरफ खींच रही हैं. यानी अनजाने में ही वह काम हो रहा है जो आयोग नहीं चाहता और बसपा दिलोजान से चाहती है. इस लिहाज से आयोग के फैसले के पीछे की सोच असफल हो जाती है.

प्रतीकों से भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले मतदाता इस फैसले से नाराज होकर अगले चुनावों में उबाल खा-खाकर वोट कर सकते हैं. और अपने स्वभाव के अनुसार मायावती अगर इसे केंद्र की कांग्रेस सरकार के षड्यंत्र के रूप में प्रचारित करें या फिर चुनाव आयोग पर सीबीआई की तरह काम करने के आरोप लगाएं तो भी कोई आश्चर्य नहीं.

पार्कों और मूर्तियों की राजनीति और मायावती के अपव्यय-सुव्यय पर एक लंबी बहस खींची जा सकती है. लेकिन अपनी राजनीति को मायावती ने हमेशा दलितों के उत्कर्ष, स्वाभिमान और अस्मिता से जोड़े रखा है. इसका नमूना देखना हो तो कभी भी लखनऊ में उनके द्वारा बनवाए गए दलित प्रेरणा स्थल हो आएं. पर्यटक के रूप मंे देश भर से आने वाली भीड़ (दलित वर्ग के लोग) करीने से मुख्य द्वार के बाहर चप्पल-जूते उतार कर अंबेडकर, कांशीराम के साथ-साथ मायावती की मूर्तियों पर मत्था टेकती है. इस स्तर का सम्मान अपने नायकों के प्रति एक वर्ग में है. ऐसी हालत में जब उन्हें ढकने-तोपने की बात आती है तो भावनाओं का आहत होना कोई बड़ी बात नहीं है. और हमारे राजनेता आहत भावनाओं को वोट में तब्दील करने वाले इल्म के माहिर हैं.

अनजाने में ही वह काम हो रहा है जो आयोग नहीं चाहता और बसपा दिलोजान से चाहती है

चुनाव आयोग का कदम एक हद तक प्रतीकात्मक भी है. इस तर्ज की राजनीति हमारे नेता लंबे समय से करते आए हैं. कभी चौराहे का नाम रखना तो कभी शहर का नाम बदल देना. हाल में ही भाजपा काबिज दिल्ली नगर निगम ने ऐतिहासिक चांदनी चौक का नाम बदल कर तेंदुलकर चौराहा करने का प्रस्ताव पेश किया है. नामों के साथ उसका इतिहास, भूगोल, पृष्ठभूमि और विशेषताएं जुड़ी होती हैं, पर नेताओं का यकीन तर्क-वितर्क में कम कुतर्क में ज्यादा होता है. इसका विरोध करते हुए अंग्रेजी के मशहूर साहित्यकार पंकज वर्मा ने प्रस्ताव दिया है कि क्यों न लगे हाथ लाल किले का नाम बदल कर अमिताभ बच्चन किला कर दिया जाए.

सवाल है कि इनसे कुछ फर्क भी पड़ता है. चुनाव चिह्नों का तो मूल मकसद ही होता है रोजमर्रा के जीवन से जुड़े ऐसे प्रतीक चुनना जिन्हें लोग-जहान एकदम आसानी से दिमाग में बैठा लें. हैंडपंप, हवाई जहाज, साइकिल, लालटेन से लेकर तृण-मूल तक तमाम नाम हैं. तो क्या चिह्न मतदाताओं पर इतना असर डालते हैं कि उनके वोट को प्रभावित कर सकें? शायद नहीं. मतदाता वोट अपने मन से देता है जबकि उसके सामने दस चिह्न विकल्प के तौर पर होते हैं जो सिर्फ अलग-अलग व्यक्तियों और विचारों को उन चिह्नों से जोड़ने का काम करते हैं न कि उसके वोट को.

अब अगर चुनाव आयोग को लगने लगा है कि मायावती की मूर्तियों और हाथी से जनता का मन भटक जाएगा तो यहां कुछ विचार और दिए देते हैं. इससे चुनाव (आयोग के मुताबिक) और भी स्वच्छ, निर्मल हो सकने की संभावना बढ़ जाएगी. अमूमन देश भर के हर शहर-कस्बे में चौराहों पर लगी इंदिरा, जवाहर और राजीव की मूर्तियों को चुनाव से पहले चादर ओढ़ा देना चाहिए. हमारे देश के ट्रांसपोर्ट विभाग के पास साइकिल चालकों का रिकॉर्ड नदारद है. लेकिन सवा सौ करोड़ की आबादी में एक करोड़ साइकिलें तो होंगी ही, हो सके तो सभी साइकिलों को चुनाव तक चलने से रोक दिया जाए बल्कि हो सके तो उन्हें उनके मालिक चुनाव तक अपने घर के अंदर पर्दानशीं रखें. आज भी देश के छह लाख गांवों में लोग धड़ल्ले से लालटेन जलाकर अपनी जिंदगी में रोशनी जगमगाए हुए हैं. लेकिन चुनाव निष्पक्ष होने चाहिए, इसलिए चुनाव आयोग से गुहार है कि चुनाव निपटने तक सारे घरों की लालटेन बुझवा दे. अंधेरा चलेगा, लालटेन नहीं.

अब एक गंभीर सलाह जो शरद यादव की तरफ से आई है, कम से कम आयोग के सलाहकारों से तो बेहतर ही है, आयोग उस पर गौर फरमाए तो बेहतर होगा. ‘मायावती के पार्क, उनकी मूर्तियां और असंख्य हाथी उनके सद्कर्मों, धतकर्मों और खटकर्मों की बानगी खुद-ब-खुद हैं. ढकने की बजाय खुला होने पर जनता भ्रष्टाचार को ज्यादा गहराई से महसूस करेगी.’

चुनाव की चुनौतियां

इस विधानसभा चुनाव की दौड़ में अब तक जो हुआ है उसे देखकर  तो यही लगता है कि उत्तराखंड उसी उत्तर प्रदेश की राह पर सरपट दौड़ने लगा है जिससे अलग होकर करीब 11 साल पहले उसका जन्म हुआ था. जोड़-तोड़, अवसरवाद, टिकट के लिए घमासान, बगावत, भितरघात जैसी चीजें यहां पहले भी होती रही हैं मगर उनका इतना विकराल स्वरूप पहले कभी नहीं देखा गया था.

हालांकि इसके बावजूद जानकार मानते हैं कि फैसला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होना है. वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र रावत बताते हैं, ‘भले ही राष्ट्रीय दलों ने उत्तराखंड को अपनी चरागाह समझा हो फिर भी तीसरे और सशक्त विकल्प की अनुपस्थिति में उत्तराखंड के मतदाताओं का मोटा रुझान हमेशा राष्ट्रीय दलों और स्थिर सरकारों के साथ रहा है.’ राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में यह तीसरा विधानसभा चुनाव है. 2014 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड में चुनाव जीतना सत्ताधारी भाजपा और प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए काफी अहम है. दोनों पार्टियां जी तोड़ से इस कोशिश में लगी भी हैं.

देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बना रही भाजपा ने उत्तराखंड के लोकायुक्त कानून को संसद से लेकर सड़क तक भुनाने की कोशिश की है तो कांग्रेस ने राज्य में पिछले पांच साल में हुए उस भ्रष्टाचार को जमकर मुद्दा बनाया है जो भाजपा की किरकिरी कराता रहा. 2009 में राज्य की पांचों लोकसभा सीटें जीतकर कांग्रेस का आत्मविश्वास आसमान पर है तो भाजपा को भी देश भर में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस के  विरुद्ध बने माहौल से आशा है. उधर, भाजपा सरकार को समर्थन देने के मुद्दे पर दो हिस्सों में बंटे क्षेत्रीय दल उक्रांद के दिवाकर भट्ट धड़े के दो विधायक इस बार भाजपा के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं. इसका दूसरा धड़ा उक्रांद (पी) जनता में पैठ बना कर तीसरा विकल्प बनने में असफल रहा है. चौथे विकल्प के रूप में ले. जनरल (सेवानिवृत्त) टीपीएस रावत की पार्टी उत्तराखंड रक्षा मोर्चा है. यह चुनाव से पहले कुछ सीटों पर अपनी जोरदार उपस्थिति तो दिखा ही रही थी, अब यह भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्टों की शरणस्थली भी बन गई है.

कौन कितना दमदार

पार्टियों द्वारा प्रत्याशियों के चुनाव से लेकर नामांकन तक की प्रक्रिया को बारीकी से देखा जाए तो एक खास बात दिखती है. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में ऐसा हुआ है कि कुछ समय पहले तक जिन नेताओं के बारे में यह माना जा रहा था कि टिकट बंटवारे में उनकी ही प्रमुख भूमिका रहेगी उनकी ऐन चुनाव के मौके पर बुरी गत हो गई. छह महीने पहले तक मुख्यमंत्री रहे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ राज्य में भाजपा के एकछत्र नेता थे. तय था कि ज्यादातर सीटों पर उनकी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट मिलेगा. पर खंडूड़ी के मुख्यमंत्री पद पर आते ही सब कुछ बदल गया. प्रदेश भाजपा में मोटे तौर पर खंडूड़ी, कोश्यारी और निशंक गुट हैं. फिलहाल कोश्यारी और खंडूड़ी एक तरफ हैं जिसकी मार निशंक गुट पर पड़ी है. भाजपा ने 11 वर्तमान विधायकों के टिकट काटे हैं,  इनमें दो मंत्री भी हैं. जिन विधायकों के टिकट कटे हैं उनमें से ज्यादातर निशंक समर्थक हैं. अपने समर्थकों को टिकट दिलवाने के मामले में हर बार की तरह इस बार भी बाजी कोश्यारी ने मारी. संगठन के धुरंधर कोश्यारी कुमाऊं के अलावा गढ़वाल में भी अपने समर्थकों के लिए टिकट झटकने में सफल रहे. खंडूड़ी ने गढ़वाल की कई सीटों पर राजनीतिक रूप से परिपक्व निशंक समर्थकों के टिकट कटा कर लंबे समय से ‘टिकट की बाट जोह रहे’ अपने समर्थकों को टिकट दिलाए.

उधर, कांग्रेस में टिकट वितरण प्रक्रिया में पार्टी की शीर्ष समितियों के सदस्य और कई टिकट बांटने का दावा कर रहे प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत को अंत में खुद के लिए भी मनपसंद सीट नहीं मिली. रुद्रप्रयाग में नामांकन करते हुए जब वे फूट-फूटकर रो रहे थे तो उनकी बेबसी और व्यथा साफ दिख रही थी. मुख्यमंत्री पद के कई दावेदारों वाली पार्टी कांग्रेस में सांसदों को अपने लोकसभा क्षेत्रों में खुलकर प्रत्याशी चुनने की छूट दी जाती रही है. कांग्रेस में अपने समर्थकों को टिकट बांटने के मामले में केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत ने बाजी मार ली. उनके लगभग 31 समर्थकों को कांग्रेस के टिकट मिले. अपने वर्तमान लोकसभा क्षेत्र हरिद्वार के अलावा पुराने लोकसभा क्षेत्र अल्मोड़ा के अधिकांश टिकट उनकी पसंद के लोगों को मिले.

जिनके बारे में थोड़े ही समय पहले तक माना जा रहा था कि टिकट बंटवारे में उनकी ही चलेगी उन नेताओं की बुरी गत हो गई

नैनीताल लोकसभा क्षेत्र में भी हरीश रावत गुट को अच्छी संख्या में टिकट मिले. पौड़ी और टिहरी में भी वे अपने कुछ समर्थकों के लिए टिकट झटकने में सफल रहे. अल्मोड़ा के सांसद प्रदीप टम्टा और नैनीताल के सांसद केसी सिंह ‘बाबा’ का झुकाव भी हरीश रावत की ओर है. सांसद विजय बहुगुणा के आठ समर्थकों और प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य के सात समर्थकों को टिकट मिला. इस मामले में सबसे अधिक किरकिरी सतपाल महाराज की हुई. उन्होंने जिन पांच प्रत्याशियों को टिकट दिलवाए उनमें से तीन की निष्ठा अलग-अलग खेमों में डोलती रही है. महाराज की सबसे बड़ी असफलता अपने खेमे के प्रमुख रणनीतिकार और प्रदेश महामंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी और भरत सिंह चौधरी को टिकट न दिला पाना है. अब ये दोनों कांग्रेस से इस्तीफा देकर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री और अब हाशिये में जा चुके कांग्रेसी दिग्गज नारायण दत्त तिवारी ने भी चुनाव से ऐन पहले अपने समर्थकों को निरंतर विकास समिति की ओर से प्रदेश की सभी सीटों पर लड़ाने की धमकी देकर कांग्रेस को असहज स्थिति में ला डाला. यह पार्टी भी उनके समर्थकों ने ही बनाई थी. तिवारी को समझाने के लिए प्रदेश प्रभारी और तिवारी कांग्रेस के पुराने नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह और सतपाल महाराज की सेवाएं ली गईं. दरअसल तिवारी के ओएसडी रहे आर्येंद्र शर्मा देहरादून की सहसपुर विधानसभा सीट पर एक साल से मेहनत कर रहे थे. स्थानीय विरोध और खराब छवि के कारण टिकट पाने में असफल रह रहे आर्येंद्र को आखिरकार सहसपुर सीट से टिकट मिला. तिवारी के भतीजे मनीष तिवारी को पहले ऊधमसिंह नगर की काशीपुर विधानसभा सीट और फिर वहां से विरोध होने पर अंतिम क्षणों में गदरपुर से कांग्रेस का टिकट पकड़ा कर कांग्रेस ने तिवारी से ‘कांग्रेस का सिपाही’ होने का बयान दिलाकर राहत की सांस ली. तिवारी की देखादेखी भाजपा के बुजुर्ग नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी भी कोप भवन में चलेे गए. वे भी अपनी बेटी के लिए भाजपा का टिकट चाह रहे थे. अब उनकी बेटी ने देहरादून की कैंट विधानसभा सीट से निर्दलीय के रूप में नामांकन कराया है. उधर, बसपा के टिकट चुनाव घोषणा के तीन महीने पहले ही तय हो गए थे. पार्टी में टिकट पाने का पैमाना जिताऊ और हर दृष्टि से सामर्थ्यवान प्रत्याशी रहे.

रणछोड़ दास

उत्तराखंड में इस बार काफी ऐसे उम्मीदवार हैं जो अपनी पुरानी और परंपरागत सीटोें को छोड़कर इधर-उधर चले गए. इनमें भाजपा और कांग्रेस दोनों के कद्दावर नेता शामिल हैं. मुख्यमंत्री खंडूड़ी वर्तमान में धूमाकोट से विधायक हैं, लेकिन वे अपना क्षेत्र छोड़कर कोटद्वार से चुनाव लड़ रहे हैं. 2007 में मुख्यमंत्री बनते वक्त खंडूड़ी विधायक नहीं थे. छह महीने के भीतर उनका विधायक बनना जरूरी था. कोई भी पार्टी विधायक खंडूड़ी के लिए स्वेच्छा से विधायकी छोड़ने को राजी नहीं था. तब अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस के धूमाकोट से विधायक और पूर्व मंत्री टीपीएस रावत ने विधानसभा से इस्तीफा देकर खंडूड़ी के लिए सीट छोड़ी थी. टीपीएस रावत कांग्रेस द्वारा हरक सिंह रावत को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने से नाराज थे. बाद में भाजपा ने रावत को खंडूड़ी के इस्तीफे से खाली हुई संसदीय सीट पर चुनाव लड़ाया. 2009 में लोकसभा आम चुनाव हारने के बाद पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी टीपीएस ने  जुलाई, 2011 में भाजपा पर भ्रष्ट पार्टी होने का आरोप लगाते हुए  इस्तीफा दे दिया और उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के नाम से क्षेत्रीय दल का गठन किया. नए परिसीमन में धूमाकोट विधानसभा के सारे क्षेत्र और पुरानी लैंसडाउन व बीरोंखाल के कुछ हिस्से को मिलाकर नया विधानसभा क्षेत्र लैंसडाउन बना है. इसमें 80 प्रतिशत मतदाता धूमाकोट विधानसभा के ही हैं फिर भी खंडूड़ी लैंसडाउन से चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर पाए. वे अब मैदानी सीट कोटद्वार से भाग्य आजमा रहे हैं.

दरअसल लैंसडाउन से चुनाव लड़कर खंडूड़ी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे. भाजपा छोड़ने के बाद फिर एक बार लैंसडाउन से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे टीपीएस रावत ने खंडूड़ी को खुली चुनौती दी है कि यदि वे मुख्यमंत्री और सत्ता दल द्वारा किए गए विकास कार्यों के आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं तो लैंसडाउन से चुनाव लड़ कर देखें. वहीं खंडूड़ी कोटद्वार से उतरने के पीछे तर्क देते हैं कि कोटद्वार उनकी पुरानी लोकसभा सीट में पड़ने वाली विधानसभा सीट है और मैदानी सीट होने के कारण यहां चुनाव लड़ने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.

विपक्षी नेता की चुनौती को छोड़कर विधानसभा सीट बदलने वालों में प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी हैं. हरक सिंह 2002 से लेकर हाल तक लैंसडाउन विधानसभा से विधायक हैं. परिसीमन के बाद नई बनी लैंसडाउन विधानसभा में पुरानी लंैसडाउन विधानसभा के केवल 12 मतदान केंद्र आए हैं  इसलिए वे अब रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ेंगे. लैंसडाउन से रुद्रप्रयाग पहुंचने के बीच हरक सिंह ने कई विधानसभा सीटों को टटोला. वे पिछले तीन साल से देहरादून जिलेे की सहसपुर विधानसभा से चुनाव लड़ने का मन बना रहे थे. लेकिन सहसपुर में जमीन खरीद के एक विवादास्पद  मामले में उनकी पत्नी और उनकी एक नजदीकी महिला का नाम आने पर पिछले छह महीने से उन्होंने देहरादून की ही डोईवाला सीट से लड़ने की तैयारियां शुरू कीं. हाल ही में इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के भी चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट बढ़ी. हरक सिंह ने निशंक को डोईवाला से चुनाव लड़ने की चुनौती भी दी. परंतु निशंक को भाजपा से टिकट मिलने के बाद हरक सिंह ने पिछले 10 दिन में नई सीट खोजनी शुरू कर दी थी. वे पौड़ी जिले की यमकेश्वर या चौबट्टाखाल सीट से लड़ना चाहते थे पर हाईकमान ने उन्हें रुद्रप्रयाग जिले की रुद्रप्रयाग विधानसभा का टिकट पकड़ा दिया जहां उनके सामने उनके ही साढू मातबर सिंह कंडारी होंगे. रुद्रप्रयाग के कांग्रेसी बाहरी प्रत्याशी होने के कारण हरक सिंह का विरोध कर रहे हैं. कांग्रेस से टिकट के दो तगड़े दावेदार अब निर्दलीय के रूप में लड़ने की तैयारी कर रहे हैं जो हरक सिंह का रास्ता रोक सकते हैं.

उम्मीदवारों को विरोधियों के अलावा अपने ही दल के बागियों और भितरघातियों से भी भिड़ना है

भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ भी पौड़ी जिले की अपनी परंपरागत सीट छोड़कर राजधानी देहरादून की डोईवाला सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. परंपरागत सीट और गृह जनपद छोड़कर मैदान में उतरने के पीछे वे तर्क देते हैं, ‘राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के कारण मुझे अन्य राज्यों और प्रदेश भर में भी चुनाव प्रचार में जाना है. इसलिए हाईकमान से मैदानी जिले की सीट मांगी.’ दूसरी वजह वे हरक सिंह की चुनौती को भी बताते हैं. निशंक कहते हैं, ‘नेता प्रतिपक्ष मुझे चुनौती दे कर खुद रण-भूमि छोड़कर चले गए हैं.’

गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज की पत्नी और पूर्व राज्य मंत्री अमृता रावत दो बार पौड़ी जिले की बीरोंखाल से विधायक थीं. वे भी अपना परंपरागत चुनाव क्षेत्र छोड़कर नैनीताल जिले की मैदानी सीट रामनगर से लड़ रही हैं. रामनगर विधानसभा सीट उनके पति सतपाल महाराज की संसदीय सीट में पड़ती है.

उधर, कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य अपनी पुरानी नैनीताल की मुक्तेश्वर सीट को छोड़कर  ऊधमसिंहनगर जिले की बाजपुर सीट से चुनाव लड़ेंगे. अनुसूचित जाति के आर्य बाजपुर से चुनाव लड़ना मजबूरी बताते हैं. उनकी मुक्तेश्वर सीट हाल के परिसीमन के बाद अनारक्षित हो गई है. वे कहते हैं, ‘बाजपुर मेरे पुराने क्षेत्र खटीमा का हिस्सा था, इसलिए हाईकमान ने मुझे यहां से लड़ने का आदेश दिया है.’

इसी कड़ी में एक और नाम नैनीताल की हल्द्वानी सीट को छोड़कर कालाढ़ूंगी से चुनाव लड़ रहे मंत्री वंशीधर भगत का भी है. पिछले चुनावों में बदरीनाथ से चुनाव हारने के बाद भी कर्णप्रयाग से टिकट पाने में सफल महाराज समर्थक कांग्रेसी नेता अनुसुया प्रसाद मैखुरी भी इस सूची में हैं. देहरादून की राजपुर सीट आरक्षित होने पर निशंक के मुकाबले डोईवाला से चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट हैं. बिष्ट रायपुर से टिकट मांग रहे थे, लेकिन उन्हें डोईवाला का टिकट पकड़ा दिया गया. मैदानी सीट ऋषिकेश से पिछला चुनाव हारे पूर्व कांग्रेसी मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण इस बार फिर अपनी पहाड़ की पुरानी सीट देवप्रयाग से कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे हैं.

आया राम-गया राम

पांच साल तक भाजपा सरकार में सत्ता सुख लेने वाले मंत्री राजेंद्र भंडारी ने उत्तराखंड में आया राम-गया राम की नई संस्कृति शुरू की है. चमोली जिले की नंदप्रयाग सीट से पिछला चुनाव निर्दलीय लड़े भंडारी को मुख्यमंत्री खंडूड़ी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़वाना चाहते थे. परंतु हवा का रुख भांप कर ऐन मौके पर भंडारी ने खंडूड़ी को झटका देकर सतपाल महाराज की उंगली पकड़ कर कांग्रेस में प्रवेश किया. पहले कभी कांग्रेसी रहे भंडारी के कांग्रेस में आने का चमोली जिले के कांग्रेसियों ने जमकर विरोध किया पर ‘महाराज के जोर’ के सामने उनकी एक नहीं चली. भंडारी कांग्रेस में आने को ‘घर वापसी’ बता रहे हैं. तो उनके आने से असंतुष्ट स्थानीय कांग्रेसी उन्हें उत्तराखंड का ‘बाबू राम कुशवाहा’ घोषित करने की हर कोशिश कर रहे हैं.
भंडारी के कांग्रेस में आने का जवाब भाजपा ने हल्द्वानी की नगर पालिका अध्यक्ष व यशपाल आर्य की समर्थक रेणु अधिकारी और हरिद्वार की पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष बरखा रानी को पार्टी में शामिल करके दिया. रेणु को भाजपा ने हल्द्वानी से कांग्रेस की पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश के मुकाबले में मैदान में उतारा है. भाजपा के टिकट पर टिहरी लोकसभा से चुनाव लड़ चुके निशानेबाज जसपाल राणा ने भी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया है. राणा वरिष्ठ भाजपा नेता और उत्तराखंड में भाजपा के चुनाव संयोजक राजनाथ सिंह के दामाद हैं.

असंतुष्टों का आश्रय : रक्षा मोर्चा

टीपीएस रावत, कुछ रिटायर्ड नौकरशाहों और पूर्व सैन्य अधिकारियों की पार्टी रक्षा मोर्चा इन चुनावों में दोनों राष्ट्रीय दलों से टिकट पाने में असफल उम्मीदवारों का नया ठिकाना है. टिहरी के जिला पंचायत सदस्य रतन सिंह गुनसोला ने विधानसभा चुनाव से चार महीने  पहले पार्टी छोड़ दी थी. वे अब रक्षा मोर्चा के टिकट पर टिहरी से चुनाव लड़ रहे हैं. बदरीनाथ के विधायक व वरिष्ठ भाजपा नेता रहे केदार सिंह फोनिया ने भी टिकट न मिलने पर अंतिम समय में रक्षा मोर्चे से चुनाव लड़ने का फैसला किया है. करीब तीन दशक तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे राजेंद्र पंत भी देहरादून की कैंट विधानसभा सीट से मैदान में उतरे हैं जहां से भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेता हरबंस कपूर को प्रत्याशी बनाया है. यमकेश्वर विधानसभा सीट से टिकट न मिलने पर कांग्रेस की पूर्व ब्लॉक प्रमुख और वर्ष 2007 में कांग्रेस से चुनाव लड़ चुकी रेणु बिष्ट भी रक्षा मोर्चा का दामन थाम चुकी हैं. इस सीट पर कांग्रेस की महिला प्रदेश अध्यक्ष सरोजनी कैंतुरा, कैबिनेट मंत्री विजया बड़थ्वाल व रक्षा मोर्चा की रेणु बिष्ट के सामने त्रिकोणीय मुकाबला है. साल 2007 के विधानसभा चुनाव में रेणु बिष्ट भाजपा की विजया बड़थ्वाल से 2,841 वोटों से हार गई थीं. नैनीताल की भीमताल सीट से भाजपा के सुदर्शन शाह बगावत कर चुके हैं. टिकट न मिलने से खफा शाह अब रक्षा मोर्चा के सिपाही हैं.

खेल बिगाड़ते बागी

छोटे राज्य की विधानसभाओं का आकार छोटा होने से नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ गई हैं. इसलिए बड़े राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को प्रमुख विपक्षी दलों के अलावा अपने ही दलों के बागियों और भितरघातियों से भी भिड़ना है. प्रदेश में हर सीट पर कांग्रेस और भाजपा के बागी खड़े हैं. धनोल्टी सीट पर कांग्रेस के जोत सिंह बिष्ट ,मसूरी पर गोदावरी थापली, यमनोत्री पर महावीर सिंह रावत, गंगोत्री सीट पर सुरेश चौहान, डोईवाला पर एसपी सिंह, रुद्रप्रयाग सीट पर कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री बीरेंद्र बिष्ट व भरत चौधरी, देवप्रयाग सीट पर प्रदेश महामंत्री प्रसाद नैथानी, कर्णप्रयाग से सुरेंद्र सिंह नेगी, बाजपुर पर राजकुमार, किच्छा में सुरेश अग्रवाल, खटीमा में राजू जोशी, कफकोट में कुंती परिहार और कालाढूंगी में महेश शर्मा कांग्रेस के प्रमुख बागी उम्मीदवारों में से हैं.

इस बार ज्यादातर कद्दावर नेता अपनी परंपरागत सीट छोड़कर दूसरी जगहों से भाग्य आजमा रहे हैं

अनुशासित मानी जाने वाली भाजपा में भी बागियों की कमी नहीं. अल्मोड़ा से पूर्व विधायक कैलाश शर्मा, काशीपुर से पूर्व विधायक राजीव अग्रवाल,  थराली से विधायक जीएल शाह, कर्णप्रयाग से विधायक अनिल नौटियाल प्रमुख बागियों में से हैं. इनके अलावा देवप्रयाग से महिपाल बुटोला, प्रतापनगर से राजेश्वर पैन्यूली आदि भाजपा के प्रमुख बागी उम्मीदवार हैं. आलाकमान के हस्तक्षेप से पूर्व मंत्री गोविंद बिष्ट, वरिष्ठ नेता मोहन सिंह गांववासी और कोटद्वार के विधायक शैलेंद्र रावत ने निर्दलीय लड़ने का विचार छोड़कर पार्टी का ही सिपाही रहने का फैसला किया है.

पिछले चुनाव में कई सीटों में इकाई के अंकों से जीत-हार हुई है. मुख्यमंत्रियों के उम्मीदवारों से लेकर टिकट पाने में असफल उम्मीदवारों के अंतर्दलीय संबंध किसी भी सीट के समीकरण बिगाड़ने के लिए काफी हैं. ऐसे में लड़ाई राजनीतिक विचारधारा की न रह कर अपने राजनीतिक समीकरणों की है. आंकडे़ गवाह हैं कि दो प्रतिशत के मत अंतर से उत्तराखंड में सरकारें बनी या बिगड़ी हैं. ऐसे में राज्य की राजनीति का भविष्य इस बार भी बागियों को मिले मत और असंतुष्टों का भितरघात तय करे तो हैरत नहीं होनी चाहिए.

2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में 70 विधायकों वाली विधानसभा में 26.91 फीसदी वोट के साथ कांग्रेस ने 36 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार बनाई थी. उससे सिर्फ 1.10 फीसदी मतों से पीछे रहने के बाद भी भाजपा की झोली में केवल 19 सीटें आईं. 2007 में भाजपा के मतों में सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन 31.90 प्रतिशत मत पाने के बाद भी उसे सामान्य बहुमत से एक कम यानी 34 विधानसभा सीटें ही मिलीं. उस चुनाव में भाजपा से 2.31 प्रतिशत कम मत पाने के बाद कांग्रेस ने 21 सीटें जीतीं. सामान्य बहुमत का आंकड़ा छूने में नाकामयाब रहने पर भाजपा ने उत्तराखंड क्रांति दल के तीन विधायकों व तीन निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाई.

अब तक हुए दो विधानसभा चुनावों में तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में बसपा सामने आई है. 2002 में 11.20 फीसदी मत पाकर बसपा ने सात सीटें जीतीं. ये सभी सीटें मैदानी जिलों में थीं. 2007 के चुनावों में उसका मत प्रतिशत 11.76 हो गया और सीटें बढ़कर आठ हो गईं. 2002 के चुनाव में लगभग 6.36 फीसदी मत पाने वाला क्षेत्रीय दल उक्रांद ने चार सीटें जीतीं. 2007 के चुनाव में उसके मत प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी हुई, लेकिन विधानसभा में उसकी एक सीट घट गई. उसके तीन प्रत्याशी ही चुनाव जीत पाए. 2002 के चुनाव में 4.02 फीसदी पाकर एक निर्दलीय जीता तो 2007 में 6.38 फीसदी मतों के साथ इनकी संख्या तीन हो गई. राज्य में सदन और सड़क पर हमेशा सत्ता और विपक्ष से बराबर दूरी बनाकर चली बसपा के मुख्य गढ़ हरिद्वार में कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में ही सेंध लगा दी थी. पार्टी के दो विधायक कांग्रेस पार्टी का दामन थाम चुके हैं. ऐसे में सबसे अधिक 10 विधानसभा सीटों वाले बसपा के गढ़ हरिद्वार जिले से इस बार चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं.                                        l

‘हम सियासत करते हैं सौदा नहीं’

अब तक की स्थिति में विधानसभा चुनाव किस ओर जाता दिख रहा है?

पूरी दुनिया में बदलाव का माहौल है. अरब देशों से लेकर अमेरिका तक आंदोलन चल रहे हैं. भारत में भी अन्ना हजारे का आंदोलन काफी बड़ा हुआ. तो जब हर ओर बदलाव का माहौल है तो पंजाब भी इससे अलग नहीं है. मैं राज्य के अलग-अलग हिस्सों में पिछले कई महीने से जाकर लोगों से मिल रहा हूं. सूबे के लोगों की आंखों में वही जज्बा दिख रहा है जो 1947 में यहां के बुजुर्गों की आंखों में था. उस वक्त देश को बनाने का जज्बा था और इस बार राज्य को बचाने का जज्बा है. इसलिए मैं कह सकता हूं कि पंजाब के इस विधानसभा चुनाव को बदलावों के लिए याद किया जाएगा.

पंजाब के सामने विकास, अर्थव्यवस्था की बुरी सेहत और बीमार कृषि जैसे कई वास्तविक मुद्दे हैं, लेकिन इन पर कोई बात नहीं कर रहा. क्या पंजाब की राजनीति में अब मुद्दों का कोई मोल नहीं है?

मैं अक्सर दोहराता आया हूं कि इस बार पंजाब में चुनाव दो तरह के लोगों के बीच हो रहा है. इनमें से एक पक्ष वैसा है जो यथास्थितिवादी है और दूसरा पक्ष ऐसा है जो बदलाव चाहता है. दुर्भाग्य से राज्य की जो स्थापित पार्टियां हैं जैसे शिरोमणी अकाली दल, कांग्रेस और भाजपा, ये तीनों यथास्थितिवादी हैं. इसलिए यहां भाई-भतीजावाद भी दिख रहा है और मुद्दे भी गुम होते दिख रहे हैं. लेकिन इसमें अच्छी बात यह है कि सूबे के लोग इन तीनों पार्टियों के खेल को समझ गए हैं और वे बदलाव के पक्ष में दिख रहे हैं.

आपके राजनीतिक विरोधियों का कहना है कि मनप्रीत बादल खुद तो अपने उम्मीदवार जिता नहीं पाएंगे लेकिन दूसरों का खेल जरूर खराब करेंगे. इस पर आप क्या कहेंगे?

ऐसे लोगों को जवाब देने का काम चुनावी नतीजे करेंगे. आप इस बात का यकीन कीजिए कि इस बार के नतीजे हैरान करने वाले होंगे. कुछ ऐसे जिसकी उम्मीद किसी को नहीं है. लोगों ने आजादी के बाद के 64 साल में विभिन्न विकल्पों को आजमाकर देख लिया है और वे अपने आप को ठगा हुआ पा रहे हैं. वे समझ रहे हैं कि अगर इस बार बदलाव का मौका चूके तो फिर भविष्य अंधकारमय ही रहेगा.

तो क्या चुनावों के बाद पंजाब में जो अगली सरकार बनेगी उसकी चाबी आपके पास ही रहेगी?

हमारा तो मानना है कि सिर्फ चाबी ही नहीं बल्कि पंजाब में हम सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे. मैं छोटे-छोटे स्तर पर जाकर लोगों से सीधे मिल रहा हूं और बदलाव की आहट को महसूस कर रहा हूं. इतिहास इस बात का गवाह है कि पंजाब ने कई मौकों पर देश को रास्ता दिखाने का काम किया है. इस बार भी ऐसा ही होगा. पंजाब को कुर्बानी के लिए जाना जाता है. मुझे इस बात पर रोना आता है कि जिस मिट्टी के लिए भगत सिंह जैसे महान सपूतों ने कुर्बानी दी उसकी हालत इन लोगों ने कैसी कर दी है. आज हर पंजाबी यह महसूस कर रहा है कि ऐसे लोगों की कुर्बानी के मकसद को पूरा करने के लिए राज्य में बदलाव की जरूरत है.

अगर आपको इतनी सीटें नहीं मिलतीं कि आप सरकार बना पाएं तो आप किसका समर्थन करेंगे?

हम सियासत करते हैं सौदा नहीं. अगर हमारे सभी मुद्दों पर कोई पार्टी सहमति देती है तो उसका समर्थन करने में हमें कोई एतराज नहीं है. हमारी किसी से निजी खुन्नस तो है नहीं. हम दूसरे दलों का विरोध उनकी नीतियों की वजह से कर रहे हैं. लेकिन सभी मतलब सभी, हम किसी भी मुद्दे पर किसी दल से सौदा नहीं करने वाले हैं.

आपकी पार्टी जिन मुद्दों को उठा रही है उनसेे पंजाब का युवा वर्ग खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ पा रहा है. लेकिन यह वर्ग पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंचता. इससे क्या आपकी चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ेगा?

शुरुआत से ही राज्य के नौजवान हमारे संघर्ष की ताकत रहे हैं. हम उनके बीच अपनी बात पहुंचाने और उन्हें जगाने में कामयाब रहे हैं. अब हम उन्हें इस बात के लिए जागरूक कर रहे हैं कि वे पोलिंग बूथ तक जाकर मतदान करें. मैं खुद अगले 20 दिन में तकरीबन 80 सभाएं करने वाला हूं. इनके जरिए मैं युवाओं को इस बात के लिए प्रेरित करूंगा कि वे मतदान करें. हम उन्हें समझा रहे हैं कि कुल आबादी में आपकी हिस्सेदारी अच्छी-खासी है इसलिए आप वोट देकर बदलाव के वाहक बन सकते हैं.

मंजिल की राह हुई मुश्किल

पंजाब की राजनीति में पिछले कुछ विधानसभा चुनावों से देखा जा रहा है कि कांग्रेस और शिरोमणी अकाली दल व भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के बीच सत्ता की अदला-बदली हो रही है. इस हिसाब से अगर देखें तो 2012 में बारी कांग्रेस की है. राज्य की अकाली दल और भाजपा की मौजूदा सरकार को लेकर सूबे के लोगों में थोड़ा गुस्सा भी है. दो महीने पहले तक यह लग रहा था कि कांग्रेस आसानी से एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो जाएगी. इसकी वजय यह थी कि उस समय अकाली दल-भाजपा सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी हुई थी और प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल (देखें साक्षात्कार) अकाली दल से अलग होकर पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब (पीपीपी) के जरिए अकालियों का वोट काटते दिख रहे थे. लग रहा था कि मनप्रीत पंजाब की राजनीति में जो तीसरा कोण जोड़ रहे हैं उसका सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को होगा.

लेकिन अब ये स्थितियां नहीं हैं. क्लीन स्वीप की संभावना के साथ चुनाव की तैयारियों में जुटी कांग्रेस के लिए अब अपने बूते बहुमत पाना भी मुश्किल दिख रहा है. इसके लिए अकाली दल, भाजपा और पीपीपी की तरफ से की गई कोशिशों से कहीं अधिक जिम्मेदार कांग्रेस की अपनी गलतियां हैं. पंजाब की राजनीति को जानने-समझने वाले लोग और खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों का मानना है कि उम्मीदवारों के चयन में कांग्रेस ने जो गलतियां की हैं उससे क्लीन स्वीप की दावेदार इस पार्टी ने पंजाब चुनाव को बराबरी के टक्कर में तब्दील कर दिया है.

पंजाब विधानसभा में कुल 117 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए किसी भी दल या गठबंधन को 59 सीटें चाहिए. पिछले चुनावों में अकाली-भाजपा गठबंधन को 67 सीटें मिली थीं और उनकी सरकार प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में बन गई थी. सत्ता से बेदखल होने वाली कांग्रेस को जहां 44 सीटों से संतोष करना पड़ा था वहीं स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीतने वालों की संख्या छह थी. लेकिन इस बार राज्य में जो सियासी त्रिकोण बन रहा है उसमें 59 का जादुई आंकड़ा छूना अभी किसी भी राजनीतिक पक्ष के लिए आसान नहीं लग रहा. हालांकि, ओपीनियन पोल कांग्रेस को सत्ता के करीब दिखा रहे हैं. सर्वेक्षण एजेंसी सी-वोटर का ओपिनियन पोल बताता है कि कांग्रेस को 61 सीटें यानी पूर्ण बहुमत मिलने की संभावना है. वहीं अकाली दल को 40 और भाजपा को छह सीटें मिल सकती हैं. जबकि मनप्रीत बादल को छह सीटें मिल सकती हैं और अन्य को चार सीटें. यह पोल कांग्रेस की राह को जितना आसान बता रहा है, स्थितियां उतनी आसान हैं नहीं. अगर इस पोल की ही मानें तो कांग्रेस एक ऐसे मुहाने पर है जहां थोड़ी-सी गड़बड़ भी उसे 59 के जादुई आंकड़े के नीचे ला सकती है.

हालांकि, पंजाब में कांग्रेस के अभियान की अगुवाई कर रहे प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह यह दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी इस चुनाव में जीतेगी. चंडीगढ़ में आयोजित एक प्रेस वार्ता के वक्त ‘तहलका’ के एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘हमारी पार्टी 70 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी. शिरोमणी अकाली दल और भाजपा का असली चेहरा राज्य के लोग देख चुके हैं. इस बार पंजाब की जनता हमारे साथ है.’ पंजाब की राजनीति को जानने-समझने वाले कई लोगों से बातचीत करने के बाद यह पता चला कि अमरिंदर सिंह जो बात कह रहे हैं, उनकी पार्टी वैसा प्रदर्शन करने के करीब दो महीने पहले जरूर थी लेकिन अब नहीं है. कारण बताते हुए पंजाब कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री कहते हैं, ‘एक तो मनप्रीत बादल की वजह से धर्मनिरपेक्ष वोटों का बंटवारा हो रहा है क्योंकि पीपीपी की नीतियां सेकुलर हैं और ये नीतियां खास तौर पर युवा वर्ग को खासा आकर्षित कर रही हैं.’ दूसरी वजह बताते हुए वे कहते हैं कि 1952 से लेकर अब तक के चुनाव में कांग्रेस में टिकट बंटवारे के बाद इतने बागी नहीं खड़े हुए जितने इस बार खड़े हैं. उनके मुताबिक इस बार करीब 40 सीटें ऐसी हैं जिन पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार खड़े हैं. इनमें से कोई भी अपना नाम वापस लेने को तैयार नहीं है.

बगावत खत्म करने के लिए गठित कांग्रेसी समिति में कोई वरिष्ठ नेता नहीं है, इसलिए कोई इसे भाव नहीं दे रहा है

वैसे कांग्रेस ने अपने बागियों को मनाने के लिए एक तीन सदस्यीय समिति बनाई है. इस समिति में रमेश चंद्रा, अमेंद्र सिंह लिमड़ा और जगजीवन सिंह पाल शामिल हैं. यह समिति कितनी हल्की है इस बात का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि इन तीनों में से सिर्फ रमेश चंद्रा ही विधायक रहे हैं बाकी के दो तो अब तक कभी विधायक भी नहीं बने. यही वजह है कि कांग्रेस का कोई भी बागी उम्मीदवार इनकी बात मानकर अपना नाम वापस लेने के लिए तैयार नहीं है. चंडीगढ़ में पंजाब प्रदेश कांग्रेस समिति के कार्यालय में तो पार्टी के नेता आपसी हंसी-मजाक में इस समिति को कुछ वैसा ही बता रहे हैं जैसे किसी बात पर प्रणव मुखर्जी को मनाने के लिए सांसद के चुनाव में हारे हुए किसी व्यक्ति को भेज दिया जाए.

सूबे के प्रशासनिक हलकों में भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस की यदि संभावनाएं कमजोर हुई हैं तो इसके लिए उसके अपने फैसले ही जिम्मेदार हैं. राज्य में काम कर रही खुफिया एजेंसियों ने भी एक सर्वेक्षण किया है. इसके मुताबिक अकाली दल-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस दोनों को 45 से 50 सीटें मिलने की उम्मीद है. इस गोपनीय रिपोर्ट में कहा गया है कि मनप्रीत सिंह बादल की पीपीपी को नौ-दस सीटें मिल सकती हैं. इसमें यह भी कहा गया है कि तकरीबन 20 सीटों पर अभी स्थिति साफ नहीं है और इस पर उम्मीदवारों की अंतिम स्थिति के हिसाब से ही कोई नतीजा निकाला जा सकता है. पंजाब में काम कर रही खुफिया सरकारी एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ‘तहलका’ से अपने सर्वेक्षण के नतीजों को साझा करते हुए बताया कि सूबे में कांग्रेस की हालत अच्छी थी लेकिन उम्मीदवारों के चयन में इस पार्टी ने गलती करके राज्य में चुनाव को कांटे का बना दिया है. इस अधिकारी ने बताया, ‘हमारा आकलन यह कहता है कि कांग्रेस ने 17 से 20 ऐसे लोगों को टिकट दिए हैं जो किसी भी कीमत पर नहीं जीत सकते. वहीं अकाली दल, भाजपा और पीपीपी की कुछ सीटें निश्चित हैं. इनकी संख्या भी 18 से 20 के बीच है. ऐसे देखा जाए तो 80 से 82 सीटें ऐसी बचती हैं जहां से कांग्रेस को 59 सीटें निकालनी हैं तब जाकर उसकी सरकार बन पाएगी. कई सीटों पर बागियों की मौजूदगी और पीपीपी की चुनौती की वजह से कांग्रेस के लिए 59 का जादुई आंकड़ा छूना आसान नहीं है.’

जिन सीटों पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार लड़ रहे हैं उनमें से मोहाली, जलालाबाद, धर्मकोट, बरनाला, पठानकोट, जालंधर कैंट, अमरगढ़, फतेहगढ़ साहिब, अमृतसर सेंटल, सुनाम, कोटकपुरा, डेराबस्सी, अमलोह, बठिंडा शहर, मौड़ मंडी, मानसा, बलाचौर और भदौड़ प्रमुख हैं. खुद अमरिंदर सिंह के भाई मलविंदर सिंह बागी होकर अकाली दल में शामिल हो गए हैं. वे समाना से टिकट मांग रहे थे जहां से कांग्रेस ने अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह को टिकट दिया है. राज्य के दोआबा और माझा क्षेत्र में भी टिकटों में बंटवारे से असंतोष है. जालंधर में 13 कांग्रेस पार्षदों ने एकजुट होकर पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

ऐसा नहीं है कि अकाली दल में बागी नहीं हैं लेकिन उन्हें मनाने के लिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रयासरत है. अकाली दल के बागी जरनैल सिंह औलख रोपड़ से निर्दलीय किस्मत आजमा रहे हैं. वहीं लुधियाना पश्चिम से जतिंदर पाल सिंह सलूजा, लुधियाना पूर्व से ईश्वर सिंह और लुधियाना मध्य से रविंदर पाल सिंह खालसा अकाली दल के बागी के तौर पर मैदान में हैं. कांग्रेस के ही एक नेता ने बताया कि अकाली दल के बागियों को मनाने के लिए खुद मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल उनके घर जा रहे हैं. यही वजह है कि मोहाली सीट पर बगावत का बिगुल फूंकने वाले बब्बी बादल अब अकाली दल के आधिकारिक उम्मीदवार बलवंत सिंह रामूवालिया के लिए चुनाव प्रचार करने लगे हैं. इस नेता ने बताया कि कांग्रेस के बागी यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि महाराजा यानी कैप्टन अमरिंदर सिंह उन्हें मनाने आएंगे लेकिन यह महाराजा के स्वभाव के उलट है इसलिए पार्टी में बगावत की आग ठंडी पड़ती नहीं दिख रही और कोई भी बागी नाम वापस लेने के लिए तैयार नहीं है.

कांग्रेस की सरकारों में मंत्री रहे और अभी प्रदेश कांग्रेस समिति में अहम जिम्मेदारी संभाल रहे एक नेता ने तहलका से बातचीत में माना कि सत्ता विरोधी लहर का नुकसान सिर्फ अकाली दल और भाजपा को ही नहीं होगा बल्कि कांग्रेस को भी इसका नुकसान उठाना पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘पंजाब मुख्यतः तीन हिस्सों में बंटा हुआ है. ये हैं- मालवा, दोआबा और माझा. पिछले यानी 2007 के चुनावों में कांग्रेस ने मालवा में क्लीन स्वीप किया था. लेकिन इस बार यहां के लोगों में गुस्सा है. स्थानीय विधायकों से लोगों की नाराजगी है. इसलिए संभव है कि कांग्रेस को इस बार इस क्षेत्र में दिक्कत हो.’ मालवा में डेरा सच्चा सौदा का ढुलमुल रवैया भी कांग्रेस की परेशानी को बढ़ाने का काम कर रहा है. लंबे समय से पंजाब में राजनीतिक रिपोर्टिंग कर रहे संजीव पांडेय कहते हैं, ‘2007 में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह ने बाकायदा प्रेस वार्ता आयोजित करके कांग्रेस का समर्थन करने की अपील की थी. इस वजह से कांग्रेस को इस क्षेत्र में जबर्दस्त सफलता मिली थी.

डेरा का संगरुर, बठिंडा, बरनाला, फरीदकोट और बांसा में व्यापक जनाधार है. इस चुनाव में डेरा ने किसी दल को समर्थन देने की बजाय उम्मीदवार आधारित समर्थन देने की रणनीति अपनाई है ताकि किसी की भी सरकार बनने की हालत में स्थितियां उनके अनुकूल रहें.’ कहा जाता है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करने की वजह से डेरा अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के निशाने पर आ गई थी और प्रदेश सरकार ने कई जगह छापे मरवाए थे. 2009 के लोकसभा चुनावों में डेरा ने सुखबीर सिंह बादल से समझौता करके उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल को बठिंडा से जिताने का रास्ता साफ किया. इसके बाद बादल सरकार द्वारा बंद करवाए गए डेरा के ‘नाम चर्चा घर’ अचानक एक-एक कर खुलने लगे.

कांग्रेस और अकाली दल के बीच कांटे की टक्कर में सरकार बनाने की चाबी मनप्रीत के पास रह सकती है

इस बार का चुनाव कई बातों से मुद्दाविहीन चुनाव में तब्दील होता जा रहा है. इस बारे में चंडीगढ़ में रह रहे एक पूर्व केंद्रीय मंत्री तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के खिलाफ महीने भर पहले तक लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप अब गौण होते जा रहे हैं. अब यहां सिर्फ इस बात की चर्चा हो रही है कि किसका रिश्तेदार कहां से चुनाव लड़ रहा है और कहां से कौन बागी उम्मीदवार मैदान में है.’ उनका मानना है कि अकाली दल और भाजपा भी केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने में नाकाम रहे हैं. हालांकि, जानकार यह जरूर बता रहे हैं कि पिछले कुछ हफ्तों में भाजपा ने खुद को काफी संभाला है. पिछले चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली भाजपा के बारे में अनुमान लगाया जा रहा था कि इसकी सीटें काफी घट जाएंगी, लेकिन खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का विरोध करके भाजपा ने कारोबारी वर्ग के शहरी मतदाताओं को अपने साथ जोड़ा है. भाजपा ने इन लोगों के मन में यह बात बैठाने में कामयाबी हासिल की है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो केंद्र सरकार विदेशी निवेश की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ाएगी.

पंजाब की राजनीति इस बार अदला-बदली फाॅर्मूले से थोड़ा अलग हटकर त्रिकोणीय संघर्ष में तब्दील हो गई है. इसमें तीसरा पक्ष है साझा मोर्चा. इस मोर्चे की अगुवाई मनप्रीत सिंह बादल की पीपीपी कर रही है और इसके तहत वाम दल भी राज्य में तीसरा विकल्प विकसित करने के लिए जोर लगा रहे हैं. इसका नुकसान अकाली दल व भाजपा गठबंधन के साथ-साथ कांग्रेस को भी हो रहा है. पांडेय मानते हैं कि मनप्रीत की वजह से कांग्रेस की राजनीति भी प्रभावित हो रही है. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस ने मनप्रीत के प्रभाव को रोकने के लिए उनके खास दो सहयोगी कुशलदीप ढिल्लों और जगवीर सिंह बराड़ को तोड़ा क्योंकि मनप्रीत कई जगहों पर कांग्रेस के वोटों का नुकसान कर रहे है.’ अकाली दल की संभावनाओं पर पीपीपी के असर के बारे में वे कहते हैं, ‘मनप्रीत ने लंबी विधानसभा क्षेत्र में अपने चाचा प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ अपने पिता गुरदास बादल को खड़ा कर दिया है.

उल्लेखनीय है कि अब तक के चुनावों में प्रकाश सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र में प्रचार और प्रबंधन की कमान गुरदास बादल ही संभालते थे. इसलिए लोग यह मान रहे हैं कि प्रकाश सिंह बादल हारेंगे तो नहीं लेकिन उनके लिए जीत उतनी आसान नहीं रहेगी जितनी गुरदास बादल के रहते होती थी. कई ऐसी सीटें हैं जहां मनप्रीत अकाली दल व भाजपा के वोटों में बिखराव की वजह भी बनेंगे.’ विधानसभा के चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए कांग्रेस और अकाली दल में टिकटों के बंटवारे के बाद हुई बगावत भी जिम्मेदार है क्योंकि इन दोनों पार्टियों के बागी न सिर्फ स्वतंत्र तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं बल्कि कई पीपीपी में शामिल होकर मनप्रीत बादल की पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं. इसलिए कई सीटें ऐसी हो गई हैं जहां मुकाबला पार्टी आधारित न होकर उम्मीदवार आधारित हो गया है और इस वजह से पीपीपी की संभावनाओं को थोड़ी मजबूती और मिली है.

पंजाब की राजनीति समझने वाले लोगों का अनुमान है कि कांग्रेस और भाजपा-अकाली गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर में नई सरकार बनाने की चाबी मनप्रीत सिंह बादल के पास रहेगी. मनप्रीत सिंह बादल तहलका को बताते हैं कि ऐसे में वे किसी के साथ सियासी सौदा करने की बजाय दोबारा चुनाव की मांग करेंगे. हालांकि, जानकारों का मानना है कि मनप्रीत की पार्टी के विधायक सत्ता से दूर रहने का बोझ नहीं उठा सकते क्योंकि वे किसी बड़ी पार्टी से नहीं हैं इसलिए खर्च का बोझ उन पर रहेगा. इसलिए कहा जा रहा है कि मनप्रीत को किसी न किसी के साथ तो आना पड़ेगा. बादल परिवार से जुड़े रहे एक खास व्यक्ति बताते हैं कि प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल के साथ मनप्रीत सिंह बादल को व्यक्तिगत समस्याएं हैं इसलिए उनके कांग्रेस के साथ जाने की ज्यादा संभावना है. नीतियों के मसले पर भी मनप्रीत कांग्रेस के ज्यादा करीब लगते हैं. कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं से उनकी नजदीकी भी उन्हें त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में कांग्रेस के करीब लाने की संभावना को बल देती है.

राहत शिविर या शामत शिविर!

वे गांव लौटे तो नक्सलवादियों का निशाना बन जाएंगे और यदि राहत शिविरों में रहते हैं तो उन्हें अमानवीय परिस्थितियों के बीच ही बाकी जिंदगी गुजारनी पड़ेगी. सलवा जुडूम अभियान के दौरान बस्तर के राहत शिविरों में रहने आए हजारों ग्रामीण आदिवासी आज त्रिशंकु जैसी स्थिति में फंसे हैं. राजकुमार सोनी की रिपोर्ट

कोतरापाल गांव की प्रमिला कभी 15 एकड़ खेत की मालकिन थी, लेकिन गत छह साल से वह अपने पति और तीन बच्चों के साथ माटवाड़ा के एक शिविर में जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रही है. यह आदिवासी महिला बताती है, ‘गांव का एक भी आदमी यहां रहना नहीं चाहता था, लेकिन नक्सली सबको मार डालेंगे बोलकर पुलिसवालों ने बंदूक के जोर पर इतना ज्यादा डराया कि पूछिए मत.’ आयतु के लिए इन शिविरों में आ जाना मालिक से मजदूर बन जाने की कहानी है. वे कहते हैं, ‘कभी मेरे खेत में सौ- डेढ़ सौ लोग काम किया करते थे, लेकिन अब खुद का पेट भरने के लिए काम तलाशना पड़ता है.’  दुश्वारियों के बीच जीवन जी रहे पोडयम लच्छा बताते हैं कि जब सलवा- जुडूम चल रहा था तब अफसर  शिविर में आकर  बड़ी- बड़ी बातें किया करते थे, लेकिन अब सरकारी राशन मिलना बंद हो गया है. वे कहते हैं,  ‘कोई यह देखने भी नहीं आता कि हम जी रहे हैं या मर रहे हैं.’  सबलम सवाल दागते हैं, ‘कोई बताएगा कि हम लोग क्या करें. गांव लौटते हैं तो नक्सली मार देंगे और इधर शिविर में रहते हैं तो भूखों मरेंगे.’

कहने को तो ये सिर्फ चार लोगों की व्यथाएं हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित जिलों के शिविरों में रह रहे हजारों आदिवासियों की जिंदगी कमोबेश ऐसी ही है. पिछले दिनों जब तहलका की टीम बीजापुर और सुकमा के राहत शिविरों का जायजा लेने पहुंची तो इसी तरह के कई सुगबुगाते सवालों से हमारा सामना हुआ. नक्सली आतंक से सुरक्षा के नाम पर अपनी संस्कृति से अलग-थलग होकर जीवन जीने को मजबूर हुए ग्रामीण भय, आक्रोश और अनिश्चितता के बीच सरकार को कोसते हुए मिले.

गौरतलब है कि पांच जून, 2005 को बीजापुर जिले के फरेसगढ़ थाना क्षेत्र के अंबेली गांव में ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ पहली बैठक की थी. तब यह साफ नहीं था कि यह बैठक काल्पनिक नेतृत्वकर्ता सोढ़ी देवा की अगुवाई में सलवा जुडूम जैसे एक कथित शांति अभियान की शुुरुआत बन जाएगी और जल्दी ही यह अभियान नक्सलप्रभावित इलाकों में फैलने लगेगा. जब यह आंदोलन बीजापुर और दंतेवाड़ा जिलों के गांव-गांव में विस्तार पाने लगा तब देश-प्रदेश के बहुत-से बुद्धिजीवियों ने यह माना कि सलवा जुडूम ग्रामीणों का अपना अभियान है. हालांकि बाद में इसमें राजनेताओं,  प्रशासनिक अफसरों और अर्ध सैनिक बलों की घुसपैठ के चलते अभियान की कलई खुलने में भी देर नहीं लगी. जुडूम के सदस्य जुलूस की शक्ल में गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को अभियान में सक्रिय भागीदारी के लिए बाध्य करने लगे. गांव के जो लोग जुलूस में शामिल नहीं होते थे उन्हें न केवल धमकी दी जाती थी बल्कि उन पर जुर्माना भी लगाया जाता था. जुडूम कार्यकर्ताओं की हिंसक निगरानी के चलते गांवों में धरपकड़ की कार्रवाई तेज हुई तो नक्सलियों ने भी पलटवार किया. नक्सली उन लोगों पर हमला करने लगे जो सलवा-जुडूम अभियान को बढ़ावा देने में लगे थे. दूसरी ओर गांव के वे लोग जिन्हें नक्सलियों को पनाह देने के लिए शंका की नजरों से देखा जाता था उन्हें पुलिसिया जोर-जबरदस्ती से शिविरों में ठूंसा जाने लगा. इस दौरान ऐसे कई मामले आए जब आदिवासियों को उनके गांवों से विस्थापित करने के लिए उनके घरों को जलाने, उनके साथ मारपीट करने, यहां तक हत्या जैसी जघन कार्रवाइयां भी की गईं.

एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक अभियान की शुरुआत होने के एक वर्ष के भीतर ही 265 ग्रामीण अपनी जान गंवा बैठे थे. बाद के वर्षों में यह आंकड़ा बढ़ता ही चला गया. नक्सल मुद्दों पर विचार-विमर्श के दौरान सरकार ने कई मौकों पर यह भी माना है कि  सलवा-जुडूम अभियान के कारण 644 गांव खाली हुए थे और इन गांवों  के 52 हजार 659 ग्रामीणों को शिविरों  में पनाह लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था. हालांकि 5 जुलाई, 2011 को सलवा जुडूम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद बहुत-से ग्रामीण अपने गांव तो लौट गए हैं, लेकिन अब भी बीजापुर जिले के चेरपाल, गंगालुर, नेलसनार, मिरतुर, भैरमगढ़, माटवाड़ा, जांगला, कुटरू, बेदरे, फरेसगढ़, आवापल्ली, उसूर और बासागुड़ा में 11 हजार 410, दंतेवाड़ा जिले के कासोली और बांगापाल में 814 और सुकमा जिले के इंजरम, कोंटा, मरईगुड़ा, एर्राबोर, दोरनापाल तथा जगरगुड़ा शिविर में आठ हजार 259 लोग अपने ही घर के पास विस्थापितों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

देश के संविधान में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि प्रत्येक राज्य में नागरिक गरिमा की ठीक-ठाक हिफाजत होनी चाहिए, लेकिन जैसे ही हम भैरमगढ़ के पत्तागोदाम क्षेत्र  में स्थापित किए गए शिविर में दस्तक देते हैं वैसे ही मानवीय गरिमा को शर्मसार करने वाले दृश्य से हमारा सामना होता है. झाड़ियों में एक बालिका के साथ कुछ युवक अश्लील हरकत करते हुए दिखते हैं. हालांकि हमारे वहां पहुंचते ही युवक भाग खड़े हुए, लेकिन जो दृश्य हमने देखा था उसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का यह आरोप पूरी तरह से सही लगा कि शिविर में रहने वाले आदिवासी ग्रामीणों को एक मांस के लोथड़े में तब्दील कर दिया गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर ने भी तीन साल पहले जब राहत शिविरों का जायजा लिया था तब कुछ महिलाओं ने उन्हें बताया था कि जुडूम से जुड़े हुए लंपट किस्म के समर्थक कार्यकर्ता औरतों और कम उम्र की लड़कियों के साथ न केवल मारपीट करते थे बल्कि उनका शारीरिक शोषण करके उन्हें गर्भपात करने के लिए भी मजबूर करते थे.

पुलिस की तगड़ी चौकसी के बाद भी उड़ीसा के काटन पिल्ली गांव की तरफ से नक्सलवादी गाहे-बगाहे शिविरों वाले क्षेत्रों में आते रहते हैं

हमने जब बालिका के साथ अभद्र व्यवहार करने वाले युवकों के बारे में जानना चाहा तो पता चला कि शिविरों के दड़बेनुमा कमरों के भीतर और बाहर महिलाओं तथा लड़कियों के साथ नोंच-खसोट का व्यवहार अब एक सामान्य घटनाक्रम  बन गया है. एक ग्रामीण ने बताया कि लड़कियों और महिलाओं के शोषण की शिकायत पुलिस थाने में दर्ज नहीं की जाती. ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि शिविरों में रहने वाले लोगों को यह मालूम है कि उनकी कोई सुनेगा नहीं. और फिर शिकायत दर्ज हो भी गई तो वे जाएंगे कहां. हालांकि अब बस्तर में नगा बटालियन तैनात नहीं है, फिर भी एक ग्रामीण जगुराम भास्कर ने इस बटालियन से संबद्ध रहे जवानों की हरकतों के बारे में बताते हुए कहा कि बटालियन के जवानों द्वारा शिविर में रहने वाली लड़कियों का शोषण आम बात थी.

हमने जगुराम के घर में लेटी एक किशोरवय लड़की के बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि वह लंबे समय से बुखार से पीड़ित है. लेकिन आसपास कोई अस्पताल नहीं हैं जहां उसका ठीक-ठाक इलाज हो सके. जहां तक शिविर में डॉक्टरों की व्यवस्था की बात है तो सलवा-जुडूम अभियान जब चल रहा था तब हर 15 दिन में डॉक्टरों का दल मलेरिया, उल्टी-दस्त की जांच करने के लिए आता था लेकिन अब यहां के लोगों काे याद नहीं आता कि पिछली बार डॉक्टर का दौरा कब हुआ था.

लोग अपनी गरीबी और बीमारी से तो लड़ ही रहे हैं, उन्हें अपने सिर पर मंडराती हुई मौत को छकाने का खेल भी खेलना पड़ता है. शिविर में रहने वाले अबका फागु का कहना था कि तमाम तरह की पुलिसिया सुरक्षा के बावजूद नक्सली गांव लौट जाने की चेतावनी देते हुए बाजारों और शिविरों तक आ धमकते हैं. एक ग्रामीण बुगुर कोडयाम बताते हैं कि पहले जंगल उन्हें अपना घर लगता था, लेकिन अब यहां से जलाऊ लकड़ी लेने के लिए भी पचास बार सोचना पड़ता है क्योंकि जंगलों पर नक्सलियों ने कब्जा कर रखा है.

जब हम बीजापुर से 22 किलोमीटर दूर जांगला शिविर में पहुंचे तो वहां हमारी मुलाकात गोगला गांव में सरपंच रह चुके कोरसा सुकलु से हुई. कोरसा ने बताया कि उसने लगभग 13 गांवों में खेती की जमीन खरीद ली थी. नक्सलियों को शायद यही बात बुरी लगी. नक्सली चाहते थे कि जरूरत से ज्यादा जमीन न रखी जाए. जब टकराव बढ़ गया तो नक्सलियों ने उनके दो भाइयों पांडू और मोशा की हत्या कर दी. अपनी जान बचाने के लिए कोरसा को शिविर में आना पड़ा, लेकिन यहां भी उन्हें धमकी मिलती रही. हमने कोरसा से शिविर का अनुभव साझा करने का आग्रह किया तो उनकी आंख से आंसू निकल पड़े. हिचकियों के बीच कोरसा ने कहा, ‘भला बताइए जिसके पास खेत ही खेत है वह फसल नहीं उगा पा रहा है, यह बदनसीबी नहीं तो और क्या है.’ कोरसा ने जानकारी दी कि अब उन्हें दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए नक्सलियों की नजरों से बचते हुए मजदूरी करनी पड़ रही है.
माओवादियों के प्रभाव वाले दोरनापाल इलाके को कभी दंतेवाड़ा जिले के अधीन रखा गया था, लेकिन एक जनवरी, 2012 को नए जिले के गठन के साथ इसे सुकमा जिले में शामिल कर लिया गया है. सुरक्षाबलों से जुड़े हुए लोग दोरनापाल को एक कठिन इलाका मानते रहे हैं. राज्य के गृह विभाग का यह मानना है कि दोरनापाल के आसपास के गांवों मेंडवई, टुब्बा टोंडा, पेंटा, पुसवाड़ा, जगवारा और थोड़े दूर-दराज के इलाकों, मसलन पोलमपल्ली, इंजरम और एर्राबोर में नक्सलियों की अच्छी-खासी धमक देखने को मिलती है.

जब हम अपने अगले पड़ाव में दोरनापाल पहुंचे तो कंटीले तारों और सीमेंट की बोरियों के पीछे बंदूक थामे हुए जवानों की चौकसी देखकर सहसा ही लग गया कि यहां कुछ असामान्य हुआ है. पूछताछ करने पर पता चला कि नक्सलियों ने बस्तर बंद के एलान के तहत रास्ते रोकने का काम प्रारंभ कर दिया है. थोड़ा आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात एक युवक सोयम एर्रा से हुई. पुलिस से नाराज सोयम का कहना था, ‘नक्सलियों को ठिकाने लगाने के बहाने उनके जैसे कई लोगों को शिविर में ठूंस तो दिया गया, लेकिन कभी भी किसी सरकारी आदमी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हम अपना पेट किस तरह से भर रहे हैं.’ इस आदिवासी युवक का कहना था कि ज्यादातर युवा या तो खाली बैठे हैं या फिर काम की तलाश में उधर ( मतलब आंध्र प्रदेश ) चले गए हैं. शिविर में रहने वाले टुब्बा टोंडा के पूर्व सरपंच पूनेम उर्रा शिकायत के लहजे में कहते हैं, ‘सरकार के लोगों ने पहले-पहल भरोसा दिलाने के लिए रोजगार गांरटी योजना के तहत थोड़ा-बहुत काम तो दिलवाया लेकिन बाद में हमें भाग्य के भरोसे जीने के लिए छोड़ दिया गया.’

पहले राहत शिविरों में सरकारी अनाज नियमित रूप से मिलता था लेकिन अब वह भी बंद हो गया है

दोरनापाल में कुछ वक्त गुजारने के बाद हम उस राहत शिविर में जा पहुंचे जहां 17 जुलाई, 2007 को नक्सलियों ने 33 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. मारे गए सभी लोगों के बारे में तब यह प्रचारित हुआ था कि वे सलवा-जुडूम समर्थक थे. एर्राबोर के सरपंच सोयम मुक्का ने हमें बताया कि पुलिस की तगड़ी चौकसी के बावजूद नक्सली शबरी नदी को पार करके उड़ीसा के काटन पिल्ली गांव की तरफ से अपनी आमद दर्ज कराते रहते हैं. वहीं शिविर में रहने वाली एक महिला कड़तीवीरी की शिकायत थी कि सरकारी कोटे के चावल की आपूर्ति बंद कर दिए जाने से पेट भरने का संकट पैदा हो गया है. अफसरों पर राशन की बंदरबांट का आरोप लगाते हुए कोंटा विकासखंड के बंडा राहत कैंप में रहने वाले केकट्टम का कहना था, ‘कोंटा के सात राहत शिविरों में हर साल लगभग सात करोड़ रु की राशन सप्लाई की जाती थी. जब एक शिकायत के बाद यह पता चला कि राशन सप्लाई का ठेका लेने वाले व्यापारी पांच रुपये का सामान 25 रु में बेच रहे हैं उसके बाद से सरकार ने राशन की वितरण व्यवस्था ही खत्म कर दी.’

इंजरम के राहत शिविर में हमारी मुलाकात बोड्डू विजया, शांति और दुलारी से हुई.  शिविर में आदिवासी परंपराओं से देवी-देवताओं की पूजा करके फुर्सत हुई इन युवतियों का कहना था कि वे अपने जंगल और गांव में स्वतंत्रता से जीना चाहती हैं लेकिन उन्हें बिलकुल नहीं पता कि ऐसा कब हो पाएगा. होगा भी या नहीं.

फिलहाल बस्तर के राहत शिविरों में रहने वाले सभी आदिवासी इस उम्मीद में जी रहे हैं कि कभी न कभी उनकी मुश्किलें खत्म होंगी. हालांकि जो हालत है उसमें ऐसा होना निकट भविष्य में तो मुश्किल ही लगता है.

दवा परीक्षण सरकार फेल

एक महीना पहले ही मध्य प्रदेश में कच्ची दवाओं के परीक्षण (ड्रग ट्रायल) पर प्रतिबंध हटाया गया था. लेकिन इसके तुरंत बाद इंदौर में मानसिक रोगियों पर गैरकानूनी दवा परीक्षण का एक और मामला सामने आने के बाद अब सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट

मरीजों पर उनकी अनुमति के बिना किए जा रहे कच्ची दवाओं के परीक्षण या ‘ड्रग ट्रायल’ के मामले में लगातार आलोचना झेल रही मध्य प्रदेश सरकार की मुश्किलें हर नए खुलासे के साथ बढ़ती ही जा रही हैं. पिछले पखवाड़े इंदौर के सरकारी डॉक्टरों द्वारा कुल 233 मानसिक रोगियों पर यौन रोगों के उपचार के साथ-साथ ऐंटी-डिप्रेसेंट (अवसाद के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली एक दवा) के तौर पर विकसित की जा रही दवाओं के परीक्षण से जुड़े दस्तावेज सामने आने के बाद राज्य में फिर सनसनी फैल गई. लगभग एक महीना पहले ही राज्य में दवा परीक्षण पर से प्रतिबंध हटाया गया है. इसलिए जैसे ही यह मामला सामने आया, जांच के लिए आनन-फानन में एक कमेटी गठित कर दी गई. लेकिन पिछली कमेटियों की जांच रिपोर्टों पर राज्य सरकार के रवैये को देखते हुए जैसी आशंका थी, इस जांच कमेटी की रिपोर्ट भी दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में कोई उम्मीद नहीं जगा पाई. गौरतलब है कि मामले की प्राथमिक जांच रिपोर्ट दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सामने आई थी. और इसके बाद राज्य सरकार ने अपनी कार्रवाई में 78 दोषी डॉक्टरों में से सिर्फ 12 सरकारी डॉक्टरों पर मात्र  5,000 हजार रुपये का आर्थिक दंड लगाकर मामले को रफा-दफा कर दिया. इस मसले से जुड़ी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राज्य सरकार पर्याप्त कार्रवाई करने में खुद को असमर्थ बता रही है. हाल ही में चिकित्सा शिक्षा स्वास्थ्य मंत्री महेंद्र सिंह हार्डिया ने मीडिया में एक बयान जारी करते हुए कहा था कि राज्य सरकार अपने स्तर पर पूरी कार्रवाई कर चुकी है, इसके बाद मामला केंद्र और ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) के हाथों में है.

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश विधानसभा के हालिया शीतकालीन सत्र में स्वतंत्र विधायक पारस सकलेचा द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में मिली जानकारी से इंदौर के 233 मानसिक रोगियों पर ‘प्रीमेच्योर इजैक्यूलेशन’ (शीघ्रपतन नामक एक यौन रोग) को ठीक करने के लिए बनाई जा रही दवाअों के परीक्षण का चौंका देने वाला मामला सामने आया था. यह दवा परीक्षण इंदौर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज (एमजीएम) से संबद्ध महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय एवं मानसिक चिकित्सालय के सरकारी डॉक्टरों द्वारा निजी क्लीनिकों में किया गया था. इस पूरे मामले में संदेह की सबसे बड़ी वजह यह थी कि डॉक्टरों ने एमजीएम शासकीय अस्पताल की एथिक्स कमेटी को अनदेखा करते हुए, अपनी सुविधा के अनुसार स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों से अनुमति ली थी. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के नियमों के अनुसार किसी भी दवा परीक्षण से पहले संबंधित अस्पताल में मौजूद एथिक्स कमेटी से अनुमति लेना अनिवार्य होता है. सरकारी अस्पतालों के संबंध में तो यह और भी जरूरी है क्योंकि स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों का प्रावधान केवल उन दवा परीक्षणों के लिए है जहां संबंधित अस्पताल की अपनी कोई एथिक्स कमेटी न हो. पर इंदौर के मानसिक रोगियों पर उनकी अनुमति के बिना कच्ची दवाओं का परीक्षण करने वाले डॉ रामगुलाम राजदान, डॉ वीएस पाल, डॉ उज्ज्वल सरदेसाई, डॉ अभय पालीवाल और डॉ पाली रस्तोगी नामक पांचों डॉक्टरों ने मध्य प्रदेश के साथ-साथ अहमदाबाद और पुणे की स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों से अनुमति लेकर परीक्षण किए थे.

एक और चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि पिछले तीन साल से जिन प्राइवेट क्लीनिकों में इन मानसिक रोगियों पर डेपोक्सीटाइन और रेमेलटिऑन जैसी कई कच्ची दवाओं के परीक्षण किए जा रहे थे, उनमें से मात्र दो क्लीनिक मध्य प्रदेश नर्सिंग होम एेक्ट के तहत पंजीकृत हैं.  गैरकानूनी ड्रग ट्रायल से जुड़े मसलों को जोर-शोर से उठाने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ आनंद राय कहते हैं, ‘इन डाक्टरों ने शासकीय कर्मचारी होते हुए भी आईसीएमआर के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए निजी क्लीनिकों में दवा परीक्षण किए हैं. एमजीएम की एथिक्स कमेटी को अनदेखा इसलिए किया गया ताकि सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देने से बचा जा सके. मानसिक रोगी तो पहले ही कमजोर वर्ग में आते हैं और नियमानुसार उन पर परीक्षण नहीं किया जा सकता. और सबसे बड़ा सवाल है कि वे यह कैसे बता सकते हैं कि किसी यौन रोग की दवा का उन पर क्या असर हो रहा है. ऐसे में मरीजों से सहमति लेने के नियम का कितना पालन किया गया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.’

‘जब तक दवा परीक्षणों पर हम जिम्मेदार संस्थान खड़ा नहीं कर लेते या कानून नहीं बदलते तब तक इन पर रोक लगानी चाहिए’

इंदौर के इस मामले की हाल ही में इतनी चर्चा हुई कि पिछले दो साल से चल रहे ड्रग ट्रायल विवाद से बेखबर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोग भी अचानक सक्रिय हो गए और तुरंत मुख्य सचिव को तलब किया गया. जवाब में मुख्य सचिव ने स्वास्थ्य सचिव और राज्य चिकित्सा शिक्षा के निदेशक को तलब किया और इंदौर में मामले की जांच के लिए एक पांच सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया गया. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इंदौर के 78 डॉक्टरों को विभिन्न नियमों का उल्लंघन करके कच्ची दवाओं का परीक्षण करने का दोषी पाया. भारी अनियमितताओं को देखते हुए रिपोर्ट में डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द करके उन पर आपराधिक कार्रवाई शुरू करने की अनुशंसा की गई थी. लेकिन सरकार ने केवल 12 सरकारी डॉक्टरों पर मात्र 5000 रु का न्यूनतम आर्थिक दंड लगाया और कमेटी की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी. गौरतलब है कि राज्य सरकार पहले के ड्रग ट्रायल मामले पर बनी आर्थिक अपराध शाखा और चिकित्सा शिक्षा विभाग की दो  अलग-अलग जांच रिपोर्टों पर भी चुप्पी साध लेने की वजह से भी काफी आलोचना झेल रही है.

राज्य सरकार के इस कदम के तुरंत बाद कांग्रेस ने इस मसले को एक राजनीतिक मुद्दा बना दिया. प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह ने मामले की सीबीआई जांच की मांग करके यह स्पष्ट कर दिया कि पिछले दो साल से इस मसले पर लापरवाही भरा रवैया दिखाने वाली राज्य सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘भाजपा सरकार प्रत्यक्ष रूप से दोषी डॉक्टरों को संरक्षण दे रही है. पिछले दो साल में इन्होंने सिर्फ कमेटियां बनाईं और फिर अपनी ही बनाई हुई कमेटियों की सिफारिशों को मानने से इनकार कर दिया. और यह 5000 रुपये का जुर्माना तो सिर्फ जनता को मूर्ख बनाने के लिए घोषित किया गया है.’
मध्य प्रदेश में ड्रग ट्रायल के मुद्दे पर जारी पक्ष-विपक्ष की लड़ाई के बीच राज्यसभा के हालिया सत्र में इस मसले से जुडी कुछ मत्वपूर्ण जानकारियां उजागर हुईं हैं. मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद कप्तान सिंह सोलंकी को स्वास्थ्य मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक 2008 से 2010 के बीच भारत में ड्रग ट्रायल से उपजे गंभीर प्रतिकूल प्रभावों के चलते कुल 1,593 लोगों की मौत हुई है. और अब तक इनमें से सिर्फ 25 लोगों को नियमानुसार मुआवजा दिया गया है. इस मामले को केंद्रीय स्तर पर उठाने का मन बना चुके कप्तान सिंह तहलका को बताते हैं, ‘इनमें से 81 लोगों की मौत तो हमारे मध्य प्रदेश में ही हुई है. स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने मुझे चिट्ठी लिखकर कहा है कि केंद्र सरकार ड्रग ट्रायल में मरीजों के बीमा और मुआवजे संबंधी पक्षों को और मजबूत बनाएगी. साथ ही एथिक्स कमेटी की जवाबदेही बढ़ाई जाएगी और ‘सूचित सहमति पत्र’ लेने के मामले को और पारदर्शी बनाया जाएगा.’

स्वास्थ्य मंत्रालय के इस पत्र और इससे जुड़ी कार्रवाई के संबंध में जब तहलका ने केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की प्रमुख संसदीय कमेटी के अध्यक्ष बृजेश पाठक से बात की तो उन्होंने इसकी पुष्टि करते हुए कहा, ‘इंदौर जैसे मिनी मेट्रो शहरों में छोटे-छोटे विदेशी संस्थानों से पैसा लेकर गैरकानूनी ढंग से कच्ची दवाओं का परीक्षण करने का एक नया ट्रेंड शुरू हो गया है. यह देश की गरीब जनता के साथ खिलवाड़ है. हमने इस बारे में स्वास्थ्य मंत्रालय को स्पष्ट लिखा है कि जब तक दवा परीक्षणों को करवाने के लिए हम एक ज्यादा पारदर्शी और जिम्मेदार संस्थान खड़ा नहीं कर लेते या कानून में जरूरी फेर-बदल नहीं कर लेते, तब तक हमें इन दवा परीक्षणों पर रोक लगानी चाहिए. सबसे दुखद बात यह है कि इसमें मरीज को सूचित नहीं किया जाता है और न ही शारीरिक क्षति की स्थिति में उन्हें मिलने वाला मुआवजा ही उन तक पहुंचता है.’

कुल मिलाकर हाल के घटनाक्रम और नियम-कानूनों में बदलाव की संभावना के बाद कम से कम मध्य प्रदेश सरकार से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने स्तर से राज्य में ड्रग ट्रायल पर लगाम लगाए.

नियुक्ति बनी नाक का संकट

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ 2007 में जुड़ा और अब खत्म हो चुका डंपर प्रकरण सरकार की छीछालेदर करने वाली दूसरी बड़ी वजह बन जाएगा. प्रकरण यह था कि चौहान की पत्नी श्रीमती साधना सिंह ने तब कर्ज लेकर कुछ डंपर खरीदे थे लेकिन मुख्यमंत्री के आय-व्यय के ब्योरे में उनका जिक्र नहीं था. साथ ही इन डंपरों के पंजीयन से जुड़ी कथित अनियमितताएं भी सामने आई थीं. अब शिवराज सिंह पर यह आरोप लग रहा है कि डंपर प्रकरण से निकलने के लिए उन्होंने कई नियमों को ताक पर रखकर लोकायुक्त पीपी नावलेकर की नियुक्ति करवाई जिन्होंने बाद में मुख्यमंत्री को डंपर प्रकरण में पाक-साफ करार दे दिया. नावलेकर की लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति को कई कारणों के आधार पर अनुचित एवं असंवैधानिक ठहराया जा रहा है. फिलहाल यह मामला हाई कोर्ट में पहुंच चुका है.

2009 में नावलेकर की लोकायुक्त पद पर हुई नियुक्ति के बाद से अब तक उनके चयन की वैधानिकता को लेकर सत्तारूढ़ दल भाजपा एवं विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच छिटपुट तकरार तो देखी जा रही थी, लेकिन हाल ही में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बयान के बाद यह मामला भाजपा सरकार के लिए गले की फांस बनता दिख रहा है. कुछ समय पहले ही भोपाल स्थित पार्टी कार्यालय में दिग्विजय सिंह का कहना था, ‘मुझे लोकायुक्त पर कोई भरोसा नहीं है. नावलेकर ने पुख्ता प्रमाणों के होने के बावजूद डंपर प्रकरण में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और उनकी पत्नी साधना सिंह को क्लीनचिट दी.’ पूर्व मुख्यमंत्री ने तो लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर पूर्व नेता प्रतिपक्ष स्वर्गीय जमुना देवी के हस्ताक्षर, जिन्हें राज्य सरकार नावलेकर को नियुक्त करने के संबंध में जमुना देवी की सहमति मानती थी, की सत्यता पर भी संदेह व्यक्त किया. इसके बाद से ही पार्टी ने भाजपा के खिलाफ सदन से लेकर सड़क तक हल्ला बोलना शुरू कर दिया. इसी बीच मध्य प्रदेश के पूर्व डीजीपी एवं पूर्व आईजी लोकायुक्त अरुण गुर्टू तथा प्रयत्न  संस्था के अजय दुबे ने सर्वोच्च न्यायालय में मामले को लेकर जनहित याचिका दायर कर दी. हालांकि कुछ समय बाद ही अदालत ने दोनों को इस मामले में उच्च न्यायालय जाने का आदेश दिया.

उधर, भाजपा सरकार लोकायुक्त नियुक्ति मामले को विपक्ष द्वारा जबर्दस्ती उठाया हुआ एक मुद्दा बताते हुए इसमें मुख्यमंत्री की भूमिका नकार रही है. लेकिन बीते साल में सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत हासिल किए गए दस्तावेज बताते हैं कि नावलेकर की नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं जो उनकी कथित ईमानदार नियुक्ति को संदिग्ध बनाते हैं.

दूसरे उम्मीदवार कौन थे?

22 जून, 2009 को प्रदेश के तत्कालीन लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल का कार्यकाल समाप्त होने वाला था. इसलिए सरकार ने नये लोकायुक्त के चयन की प्रक्रिया शुरू की. आरटीआई से हासिल किए गए दस्तावेज बताते हैं कि 18 जून को जबलपुर उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एके पटनायक ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस संबंध में एक पत्र भेजा था. इसमें जस्टिस पटनायक ने पूर्व में मुख्यमंत्री से फोन पर हुई बात का जिक्र किया जिसमें दोनों के बीच नये लोकायुक्त के चयन को लेकर चर्चा हुई थी. पत्र में पटनायक ने पीपी नावलेकर का उल्लेख करते हुए लिखा है कि बाकी योग्य लोगों के बीच वे इस पद के लिए सबसे योग्य हैं.

जस्टिस पटनायक के इसी पत्र से विवाद, संदेह और कलह की शुरुआत होती है. सवाल यह है कि नये लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए सरकार ने किसी पैनल का गठन क्यों नहीं किया. अरुण कहते हैं, ‘इतने बड़े और महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति के लिए जरूरी था कि सरकार जजों के नामों का एक पैनल तैयार करती, जिसमें से एक नाम रिकमेंड होता. यहां तो एक ही नाम आया, एक ही नाम पर चर्चा हुई और उसे फाइनल कर दिया गया.’
जानकारों के मुताबिक लोकायुक्त की नियुक्ति के संबंध में जो प्रक्रिया अन्य राज्यों में अपनाई जाती है उसमें सबसे पहले लोकायुक्त पद के लिए योग्यता रखने वाले लोगों का एक पैनल बनाया जाता है. फिर उसी पैनल में से चीफ जस्टिस और नेता प्रतिपक्ष से विचार-विमर्श करके उस व्यक्ति को लोकायुक्त चुना जाता है जो सबसे योग्य होता है.  लेकिन यहां यह देखने में आया कि सरकार ने एक ही नाम तय किया, उसे आगे बढ़ाया और अंत में उसे फाइनल कर दिया.

क्या प्रतिपक्ष की नेता से उचित प्रक्रिया के तहत सहमति ली गई थी?

इसे विपक्ष द्वारा जबर्दस्ती उठाया गया मुद्दा बताते हुए सरकार इसमें मुख्यमंत्री की भूमिका नकार रही है

अपने पत्र में जस्टिस पटनायक ने लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए प्रतिपक्ष की नेता से ‘ कंसल्ट ‘ करने की बात लिखी थी. लोकायुक्त की नियुक्ति नेता प्रतिपक्ष और राज्य के चीफ जस्टिस से परामर्श के बाद करने का प्रावधान है. उस समय जमुना देवी इंदौर के एक अस्पताल में भर्ती थीं. 25 जून, 2009 को मुख्यमंत्री तरफ से उन्हें एक फैक्स भेजा गया. इसमें जानकारी दी गई थी कि लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल का कार्यकाल 22 जून, 2009 को समाप्त हो गया है और मुख्य न्यायाधीश ने इस पद पर जस्टिस पीपी नावलेकर की नियुक्ति का परामर्श दिया है. ऐसे में वे (जमुनादेवी) पूर्व में हुई उनसे (शिवराज सिंह चौहान) चर्चा का स्मरण करें और नावलेकर को नियुक्त किए जाने के संबंध में अपना परामर्श दें. उसी तारीख को रात में उस पत्र के निचले हिस्से पर ‘प्रस्ताव अनुमोदित’ लिखकर और जमुना देवी के हस्ताक्षर व 22-6-09 की दिनांक के साथ वह पत्र वापस सरकार के पास आ गया. इसी पत्र को राज्य सरकार जमुना देवी की सहमति के रूप में प्रस्तुत करती है.

नियुक्ति के इस चरण पर कई तरह के गंभीर आरोप लगे हैं. कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जमुना देवी के हस्ताक्षर को फर्जी ठहरा रहे हैं तो साथ में एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि जो व्यक्ति आईसीयू में भर्ती है, जिसे कैंसर है, जो हाइपरटेंशन से जूझ रहा है, क्या वह इतने गंभीर विषय पर सोच-विचार कर सकता है. इस संबंध में सरकार ने बार-बार यह कहा कि जमुना देवी स्वस्थ थीं और निर्णय ले पाने में सक्षम थीं. ऐसे में यह सवाल भी खड़ा होता है कि अगर वे स्वस्थ और सक्षम थीं तो उन्हें बैठक में आमंत्रित क्यों नहीं किया गया. सरकार इस बारे में यह भी कहती है कि जमुना देवी के स्वस्थ होने और इस प्रक्रिया में उनकी सहमति का प्रमाण यह है कि 29 जून को लोकायुक्त के शपथ ग्रहण समारोह में वे शामिल थीं. इससे स्पष्ट है कि वे पीपी नावलेकर के लोकायुक्त पद पर चयन से सहमत थीं. अगर ऐसा नहीं होता तो फिर उन्होंने विरोध किया होता. इस पर पूर्व डीजीपी अरुण गुर्टू कहते हैं, ‘उस दौरान जमुना देवी ऑल्टर्ड सेंसोरियम से पीड़ित थीं. यानी एक ऐसी अवस्था जिसमें पीड़ित कोई तार्किक निर्णय ले पाने में अक्षम होता है. ऐसी गंभीर मानसिक और शारीरिक अवस्था में प्रतिपक्ष की नेता से सलाह मांगी गई.’

नियुक्ति में इतनी हड़बड़ी क्यों?

जमुना देवी से कथित परामर्श कर लेने और उनका कथित सहमति पत्र प्राप्त कर लेने के बाद अगले 24 घंटे में लोकायुक्त की नियुक्ति हो गई. 25 जून से लोकायुक्त की नियुक्ति संबंधित फाइल सामान्य प्रशासन विभाग से लेकर मुख्यमंत्री सचिवालय, राज्यपाल कार्यालय सहित छह प्रमुख टेबलों को 24 घंटे में ही पार कर गई. 26 जून को राज्यपाल ने पीपी नावलेकर की नियुक्ति संबंधी फाइल को हरी झंडी दे दी. 26 जून को ही गजट नोटिफिकेशन जारी हो गया और 29 जून को राज्यपाल बलराम जाखड़ ने नये लोकायुक्त को पद की शपथ दिला दी.

यहां यह उल्लेखनीय है कि 29 जून तत्कालीन राज्यपाल बलराम जाखड़ के कार्यकाल का अंतिम दिन था. अगले दिन से नये राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर पद ग्रहण करने वाले थे.  परंपरा है कि राज्यपाल अपने कार्यकाल के अंतिम हफ्ते-दस दिन में बड़े फैसले नहीं लेते. यही वजह है कि इस पूरे मामले में राज्यपाल की भूमिका पर भी संदेह जताया जा रहा है. आलोचक कहते हैं कि राज्यपाल ने इस मामले में मुख्यमंत्री की इच्छा के अनुरूप काम किया. जानकार कहते हैं कि आवश्यकता के सिद्धांत तथा विशेष परिस्थितियों को देखते हुए राज्यपाल को खुद  इस मामले में पहल करनी चाहिए थी. जब वे जानते थे कि लोकायुक्त की नियुक्ति में मुख्यमंत्री का खुद का स्वार्थ निहित है यानी जिस लोकायुक्त का चयन मुख्यमंत्री करने जा रहे हैं वही लोकायुक्त संगठन उनके खिलाफ जांच कर रहा है तो ऐसे में राज्यपाल को खुद मामले में पहल करनी चाहिए थी. पूर्व में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाम सुब्रमण्यम स्वामी (1996) 4 एससीसी 104:   मध्य प्रदेश विशेष पुलिस स्थापना बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (2004) 8 एससीसी 788:  जैसे कई मामलों में प्रतिपादित और स्वीकार किया है. इन मामलों से यह स्थापित हुआ कि ऐसी परिस्थिति में राज्यपाल लोकायुक्त चयन के मामले में अगर चाहते तो स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय ले सकते थे.

बिजनेस रूल का उल्लंघन क्यों हुआ?

लोकायुक्त की नियुक्ति में सरकार द्वारा बिजनेस रुल के नियम सात भाग दो के अंतर्गत कही गई बातों को भी नजरअंदाज किया गया. बिजनेस रुल में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि लोकायुक्त की नियुक्ति संबंधी प्रस्ताव को सर्वप्रथम मंत्रिपरिषद के सामने लाना जरूरी है. उसके बाद ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है. लेकिन इस मामले में मंत्रिपरिषद से कोई सलाह-मशवरा नहीं किया गया. नियुक्ति होने के करीब दो महीने बाद पहली बार 25 अगस्त, 2009 को कैबिनेट की बैठक में इस विषय को रखा गया. उसके बाद मंत्री परिषद ने इस पर अपनी सहमति दी. हालांकि बिजनेस रुल में यह प्रावधान है कि मुख्यमंत्री चाहे तो बिना मंत्री परिषद के सामने मामले को रखे ही नियुक्ति की प्रक्रिया आगे बढ़ा सकता है, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि ऐसा तभी किया जाए जब ऐसा करना अति आवश्यक हो. लेकिन इस मामले में सरकार ने किसी प्रकार के अति आवश्यक कारण को स्पष्ट नहीं किया है. सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों में उस अति आवश्यक कारण का कहीं भी जिक्र नहीं है.

सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा इस मामले पर कोई टिप्पणी न करने की बात कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं. लेकिन मसला जिस तरह से आगे बढ़ रहा है उससे लगता है कि यह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का पीछा इतनी जल्दी नहीं छोड़ने वाला.