रुश्दी और शैतानी आयतें पढ़कर भागे मुल्ला

जयपुर के ‘लिट फेस्ट’ यानी साहित्य समारोह में न सलमान रुश्दी आ सके और न ही उनका भाषण हो सका. लेकिन इस पूरे समारोह पर जैसे उनकी उपस्थिति छाई रही. पांच दिन के इस आयोजन के पहले से आखिरी दिन तक सबसे बड़ी खबर सलमान रुश्दी बनाते रहे- पहले उनके आने की खबर आई, फिर देवबंद के विरोध की खबर आई, फिर राजस्थान सरकार की हिचक की खबर आई, और अंत में आयोजक रोते हुए नजर आए- इस बात से मायूस कि कट्टरपंथी ताकतों के दबाव में कार्यक्रम में रुश्दी का भाषण तक नहीं हो सका.

अपने विश्वासों के लिए लेखकों का जेल जाना कोई अजूबा नहीं. एशिया की बड़ी आवाज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जेल भुगती थीइसका कुछ श्रेय तो उस मीडिया को भी जाता है जिसे इस आयोजन में सबसे जाना-पहचाना नाम सलमान रुश्दी का ही मिला और उसने बाकी कार्यक्रम छोड़कर उनकी मौजूदगी या गैरमौजूदगी को बड़ा मुद्दा बना डाला. लेकिन क्या खुद आयोजकों या इस कार्यक्रम में शामिल दूसरे लेखकों का रवैया भी ऐसा नहीं था कि रुश्दी का सवाल कार्यक्रम का सबसे बड़ा सवाल बन गया? असल में इस विवाद के कई अहम पहलुओं पर चर्चा अभी बाकी भी है और ज़रूरी भी, अगर इस प्रसंग का एक सिरा देश में बढ़ रहे कट्टरपंथ से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा अभिव्यक्ति के सवाल पर सरकार के रवैये से. फिर एक तीसरा और छिपा हुआ सिरा भी है जिसका वास्ता जयपुर जैसे समारोहों के पीछे सक्रिय दृष्टि और मानसिकता से है.

सबसे पहली बात तो यही कि भारत जैसे देश में सलमान रुश्दी या किसी अन्य लेखक को आने-जाने और अपने विचार रखने की पूरी छूट होनी चाहिए. रुश्दी को भी यह छूट हासिल है. सैटेनिक वर्सेज़ को लेकर उठे विवाद और उस पर लगी पाबंदी के बाद सलमान रुश्दी कई बार भारत आकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सा ले चुके हैं. कभी उनके आगमन या भाषणों को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ. सलमान रुश्दी ने भी भारत में कभी सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़ने चाहे, इसकी कोई सूचना नहीं है. लेकिन इस बार देवबंद ने अचानक रुश्दी की यात्रा का विरोध किया और उनको भारत आने से रोकने की मांग की. हो सकता है, इसके पीछे पांच राज्यों में चल रही चुनावी राजनीति की प्रेरणा भी रही हो या फिर कोई दूसरा तात्कालिक फितूर रहा हो, लेकिन मायूस करने वाली बात थी देवबंद की मांग पर सरकारों का रवैया. किसी ने देवबंद को सख्ती से नहीं कहा कि उसे ऐसी मांग करने का हक नहीं है. केंद्र सरकार सिर्फ यह बताती रही कि रुश्दी को रोकना उसके वश में नहीं है, जबकि राजस्थान सरकार ने तो बाकायदा रुश्दी का आगमन रोकने की कोशिश की. लेकिन इस प्रसंग को बिल्कुल दूसरे सिरे से देखें. एक तरफ सलमान रुश्दी का जितना सतही विरोध हो रहा था, दूसरी तरफ उनके उतने ही सतही समर्थन में कुछ जोशीले लेखक उठ खड़े हुए. समारोह में रुचिर जोशी, हरि कुंजरू, अमिताव कुमार और जीत थायिल ने रुश्दी की प्रतिबंधित किताब सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़े और इस पर लगी पाबंदी को चुनौती दी. लेकिन इसके बाद क्या हुआ? अभिव्यक्ति की आज़ादी का झंडा उठाने वाले इन लेखकों को जैसे ही पता चला कि उनके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई हो सकती है, वे सब भाग खड़े हुए. बताया जा रहा है कि आयोजकों ने भी उन्हें ऐसी ही सलाह दी. कार्यक्रम में शामिल और ऐसे आयोजनों के काफी करीब रहने वाली लेखिका नमिता गोखले ने अलग से चेतावनी दी कि कोई रुश्दी की विवादित किताब के अंश पढ़ने की कोशिश न करे, क्योंकि यह कानून के खिलाफ है और इसके लिए जेल हो सकती है.

लेकिन क्या रुश्दी की किताब का पाठ सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए कि उससे कानून टूटता है? अपने विश्वासों के लिए लेखकों-पत्रकारों का जेल जाना कोई अजूबी बात नहीं है. एशिया की काफी बड़ी आवाज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जेल भुगती थी. नाज़िम हिकमत को कई बार जेल जाना पड़ा. भारत में भी रेणु और नागार्जुन जेल गए. आजादी की लड़ाई के दौर में माखनलाल चतुर्वेदी जेल गए. एक तरह से देखें तो भारत की पत्रकारिता और लेखन की परंपरा तो जेलखानों में ही बड़ी हुई है.
लेकिन लेखक जेल जाने से भी डरे और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल उठाते हुए कानून भी तोड़े- ये दोनों बातें नहीं चलेंगी. हालांकि इससे यह नतीजा निकालना ठीक नहीं कि जिन लेखकों ने रुश्दी की किताब के अंश पढ़े उनमें लेखक की आजादी की प्यास वाकई उतनी तीखी और सच्ची नहीं रही होगी जितनी होनी चाहिए. ऐसा मान कर हम इन लेखकों के साथ भी अन्याय करेंगे और अपने साथ भी, क्योंकि तब न इन लेखकों की नीयत ठीक से समझ पाएंगे और न ही इस समारोह की फितरत. सच तो यह है कि अगर इन लेखकों को आजादी का सवाल इतनी शिद्दत से नहीं सताता तो शायद ये जयपुर के आयोजन का उल्लास भंग करने की ऐसी कोशिश नहीं करते.  लेकिन फिर इस कोशिश की सीमा क्या है? दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी या किसी भी दूसरे सवाल को बिल्कुल शून्य से नहीं उठाया जा सकता. उसमें सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी शामिल होता है और लेखकीय संदर्भ भी. कुछ साल पहले डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट के कार्टूनों पर इसी तर्क से प्रतिबंध लगे और किसी ने उन्हें गलत नहीं माना. भारत जैसी बहुलतावादी संस्कृति के देश में भी अभिव्यक्ति की आज़ादी कई तरह की सामाजिक कसौटियों से छन कर ही हासिल हो सकती है. यह बात समझे बिना जो लोग किसी अपरिमित आजादी की कल्पना और मांग करते हैं, वे अंततः आजादी के सवाल को ही क्षतिग्रस्त करते हैं.

यह एक तरह से उस अंग्रेजी तबके का आयोजन है जो भारत में तो विशेषाधिकार-संपन्न है, लेकिन वैश्विक स्तर पर अपनेआप को विपन्न पाता हैइसका प्रमाण इन चार लोगों के रचना पाठ का नतीजा ही है. रुश्दी-साहित्य से परिचित लोगों की आम राय यही है कि रुश्दी की यह किताब उनके बाकी साहित्य के मुकाबले काफी हल्की है. जाहिर है, अभिव्यक्ति की आज़ादी के इन पैरोकारों ने असल में सैटेनिक वर्सेज़ इसीलिए चुनी कि वे कुछ लोगों को चिढ़ाना भर चाहते थे. अगर ये अंश नहीं पढ़े गए होते तो हो सकता है कि न रुश्दी का विवाद इतना बड़ा हुआ होता न उनके भाषण में ऐसा अड़ंगा आता. लेकिन यह मामला सिर्फ कुछ लेखकों की नादानी का नहीं है. यह ठीक से समझने की ज़रूरत है कि जयपुर का पूरा साहित्य समारोह जिस दृष्टि से प्रेरित और संचालित है, वहां ऐसे हादसे सहज मुमकिन हैं. यह एक तरह से उस अंग्रेजी तबके का आयोजन है जो भारत में तो विशेषाधिकार-संपन्न है, लेकिन वैश्विक स्तर पर अपने-आप को विपन्न पाता है. जयपुर जैसे आयोजन करके दरअसल वह अपनी यह विपन्नता दूर करता है और भारतीय या एशियाई अंग्रेजी लेखन को स्थापित करने की कोशिश करता है. बाकी दुनिया इस काम में उसकी मदद इसलिए भी करती है कि इन दिनों भारत अंग्रेजी प्रकाशनों का बहुत तेजी से बढ़ता हुआ बाजार है. इस बाजार को और बढ़ाने में ऐसे समारोह मददगार हो सकते हैं, इसलिए इस समारोह को पांच करोड़ देने वाले वैश्विक प्रायोजक मिल जाते हैं. भव्यता हासिल करने की भूख में यह समारोह पूंजी के इस वैश्विक चरित्र पर निगाह डालने और रुपये के रंग को पहचानने से इनकार करता है. लेकिन जैसा कि एक टीवी कार्यक्रम में एक समाजशास्त्री मनोज कुमार झा ने कहा, वैश्विक पूंजी का भी अपना एक स्वभाव होता है. वह हर चीज को एक तमाशे में बदलना चाहती है. उसके लिए आईपीएल, अण्णा का आंदोलन और जयपुर का समारोह लगभग एक जैसे तमाशे हैं. इस तमाशे में संजीदगी कम होती है, सेलेब्रिटी का खेल ज्यादा होता है. इसलिए भी जयपुर के इस समारोह में या तो सलमान रुश्दी छाए दिखते हैं या जावेद अख्तर, प्रसून जोशी या गुलजार जैसी फिल्मी हस्तियां. दरअसल यहां उसी हंसते-खेलते इंडिया का साहित्यिक तमाशा दिखता है जिसे हल्का-फुल्का मनोरंजन या दर्शन चाहिए. इसलिए यहां कई भगतनुमा लेखक उपदेश देते मिल जाते हैं और दीपक चोपड़ा भी लेखक की तरह ही बुलाए जाते हैं. यहां अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल भी जैसे एक तमाशे में बदल जाता है. इस तमाशे में अगर कुछ उदारता दिखाकर हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं शामिल की जाती हैं तो इसलिए कि तमाम दावों के बावजूद अंग्रेजी जानती है कि इन भाषाओं के बिना उस पर अखिल भारतीयता की मुहर नहीं लगेगी.  
 
बहरहाल, जयपुर के समारोह का ही नतीजा मानना चाहिए कि भारत में सलमान रुश्दी की किताब पर पाबंदी हटाने की मांग को लेकर एक ऑनलाइन याचिका नए सिरे से चल पड़ी है. दरअसल अगर सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी लगाने का फैसला निहायत बेतुका और नासमझी भरा था, तो अब इतने साल बाद उसे हटाने की मांग करने में भी कोई बहुत ज़्यादा समझदारी नहीं है. सैटेनिक वर्सेज के बाद भी भारत में- और सारी दुनिया में- किताबों पर पाबंदी लगी है, उन्हें जलाया गया है, चित्र बर्वाद किए गए हैं, नाटक रोके गए हैं और लेखकों-कलाकारों को जलावतन होना पड़ा है.लेकिन इन सारे प्रसंगों को भूल कर सिर्फ एक किताब की पाबंदी हटाने की मांग दरअसल फिर एक फैशनेबल किस्म की मांग है जो इस तथ्य की कुछ और उपेक्षा करती है कि पाबंदियों के बावजूद लेखक पढ़े जाते हैं, किताबें पढ़ी जाती हैं. आखिर सैटेनिक वर्सेज आज भी सलमान रुश्दी की सबसे महत्वपूर्ण कृति बनी हुई है तो इसलिए कि उस पर विवाद हुआ और पाबंदी लगाई गई. वरना इतने साल बाद किसी साहित्यिक समारोह में चार उत्साही लेखक उसका पाठ क्यों करते?

जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, वह सिर्फ कानूनी नहीं, सामाजिक मसला भी है. इसे व्यक्तिगत अहंकार या भाषाई विशेषाधिकार से हल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जोखिम भी उठाने पड़ते हैं और खुद को भी बदलना पड़ता है और समाज को भी. लेकिन इसके लिए सनसनीखेज रचना-पाठों से ज़्यादा संवेदनशील और सिलसिलेवार संघर्ष की जरूरत है.