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कयासों के विशेषज्ञ

विधानसभा चुनाव खत्म हुए  और इसके साथ चैनलों पर अहर्निश  जारी चुनावी तमाशा भी खत्म हुआ. एक बार फिर वोटर चैनलों के एंकरों, राजनीतिक संपादकों, रिपोर्टरों और मेरे जैसे अनाड़ी राजनीतिक विशेषज्ञों से ज्यादा तेज निकले. उत्तराखंड को छोड़कर बाकी सभी राज्यों  में स्पष्ट जनादेश देकर वोटरों ने सभी तरह के राजनीतिक सस्पेंस और उठापटक और उसमें  फलने-फूलने वाले चैनलों के लिए कयास लगाने की गुंजाइश को खत्म कर दिया. एक बार फिर कई एक्जिट और ओपिनियन पोल वोटरों के मन को पकड़ने में नाकाम रहे तो कई वास्तविक नतीजों से काफी आगे-पीछे रहने के बावजूद रुझानों का सही अनुमान लगाने में कामयाब रहे.  
एक बार फिर साबित हुआ कि एक्जिट पोल और ओपिनियन  पोल बड़े जोखिम हैं खासकर वोटों के प्रतिशत और सीटों के अनुमान के मामले में गणित अक्सर गड़बड़ा जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि सीएनएन-आईबीएन पर राजनीतिक विज्ञानी और सेफोलाजिस्ट योगेंद्र यादव ने एक्जिट पोल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के बारे रुझानों के बारे में काफी हद तक सही पूर्वानुमानों के बावजूद इस धंधे को अलविदा कहने का एलान कर दिया है. अफसोस इस धंधे में गंभीर और ईमानदार खिलाड़ी होने के बावजूद उन्होंने रिटायर होने का एलान कर दिया.

इसी का नतीजा है कि चैनलों और अखबारों में चुनावों को लेकर होने वाली स्वतंत्र और बारीक फील्ड रिपोर्टिंग लगातार कम होती जा रही हैलेकिन योगेंद्र यादव रहें या न रहें, न्यूज चैनल एक्जिट और ओपिनियन पोल या कहें चुनावों के संभावित नतीजों को लेकर कयास लगाए बिना नहीं रह सकते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उसमें एक सस्पेंस, सनसनी और ड्रामा है. असल में, चैनलों समेत समूचे न्यूज मीडिया में चुनाव का मतलब ही कयास और पूर्वानुमान हो गया है. इसी का नतीजा है कि चैनलों और अख़बारों में चुनावों को लेकर होने वाली स्वतंत्र और बारीक फील्ड रिपोर्टिंग लगातार कम होती जा रही है, जबकि चैनलों पर स्टूडियो में होने वाली बहसों और चर्चाओं, नेताओं की रैलियों, प्रेस कॉन्फ्रेंसों, आरोप-प्रत्यारोपों और उम्मीदवारों के बीच बहस के नाम पर होने वाले दंगल का शोर-शराबा बढ़ता जा रहा है.  

हालांकि अपवाद भी हैं. इस मामले में अखबारों खासकर अंग्रेजी अखबारों ने फील्ड से कई अच्छी रिपोर्टें और चुनाव यात्रा विवरण छापे. इनमें भी खासकर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘द हिंदू’ ने कई बेहतरीन रिपोर्टें और गंभीर विश्लेषण छापे जो जमीन पर बदल रही राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों की वास्तविक तस्वीर पेश कर रहे थे. उनमें गहरी अंतर्दृष्टि, राजनीति और समाज के रिश्ते और उनमें आ रहे बदलावों को समझने की कोशिश थी. लेकिन इसके उलट ज्यादातर हिंदी अखबारों और चैनलों ने चुनाव कवरेज का मतलब शोर-शराबा और तमाशा समझ लिया है. खासकर चैनलों के लिए तो इस बार के चुनाव क्रिकेट के तमाशे की भरपाई करते दिखे क्योंकि एक तो कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं हो रहा था और दूसरे, ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय टीम बुरी तरह हार रही थी. इसके कारण उसमें न तो वह ड्रामा और न सस्पेंस रह गया था कि चैनल उसके पीछे भागते. नतीजा, चैनलों ने चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को 20-20 क्रिकेट मैच और कुछ हद तक डब्ल्यूडब्ल्यूएफ कुश्ती में बदल दिया. उसी तरह की लाइव कमेंट्री और उस पर मेरे जैसे कथित वरिष्ठ पत्रकारों और विशेषज्ञों की कभी चुटकुलानुमा और कभी कुछ तथ्य और ज्यादातर अनुमान पर आधारित 20 सेकंड की टिप्पणियों का ड्रामा अंत तक चलता रहा.  

चूंकि चैनल बहुत हो गए हैं और सबको विशेषज्ञ चाहिए, इसलिए इस बार अपन को भी कुछ चैनलों पर चुनाव विशेषज्ञ बनकर जाने का मौका मिल गया. इस अनुभव के बारे में जितना  कहूं, उतना कम होगा. अंदर की बात यह है कि ये चुनाव विशेषज्ञ भी अद्भुत प्रजाति हैं. इनमें से ज्यादातर अखबारों के पत्रकार और संपादक हैं. वे राजनीति के पंडित और चुनाव शास्त्र के विशेषज्ञ बताए जाते हैं. कुछ मशहूर विशेषज्ञों की तो इतनी मांग थी कि वे इस चैनल से उस चैनल शिफ्ट में भी काम करते दिखे. कई चैनलों ने अपना जलवा दिखाने के लिए एक-दो या तीन नहीं बल्कि एक दर्जन से ज्यादा विशेषज्ञ जुटा लिए.  

इस चक्कर में चैनलों में विशेषज्ञ जुटाने की होड़-सी शुरू हो गई. जिसके पास जितने विशेषज्ञ, वह उतना बड़ा चैनल. इस होड़ में हालत यह हुई कि आखिर में ‘टाइम्स नाउ’ पर अपने अर्नब गोस्वामी ने इतने विशेषज्ञ बुला लिए कि खुद बैठने को जगह नहीं मिली और खड़े-खड़े 100 घंटे तक अहर्निश चर्चा करनी पड़ी. वैसे यह मालूम नहीं कि उन विशेषज्ञों में से कोई इन चुनावों में नीचे जमीन पर झांकने भी गया या नहीं, लेकिन वे बात ऐसे करते दिखे जैसे उनका हाथ सीधे जनता की नब्ज पर हो. यह और बात है कि मुझ समेत उनमें से ज्यादातर की विशेषज्ञता कयास से आगे नहीं बढ़ पाई.  

अक्सर उनकी विशेषज्ञता ‘यह भी हो सकता है और उसका उल्टा भी हो सकता है’ में उलझ कर रह जा रही थी. यह मत पूछिए कि इससे बेचारे टीवी दर्शक का राजनीतिक ज्ञान और समझदारी कितनी बढ़ी, लेकिन इस तमाशे में मनोरंजन की कोई कमी नहीं थी. चैनलों को भला और क्या चाहिए?   

सीमा पर सुलगते सवाल

आप जानते हैं कि इस बस्ती का नाम भिखनाठोरी क्यों है?  बुद्ध के जमाने में बौद्ध भिक्षुओं का अहम ठौर था, इसीलिए. अपभ्रंश नाम है यह. कहते हैं कि ह्वेनसांग, फाह्यान भी गुजरे थे इधर से. 1904 में ही यहां रेल लाइन पहुंच गई थी. भारत का आखिरी रेलवे स्टेशन बना भिखनाठोरी. अब भी रोजाना तीन दफा सवारी ट्रेन की आवाजाही होती है. एक दशक पहले तक यह गांव 10-12 हजार लोगों की बसाहट से गुलजार रहता था. फिर एक-एक कर लोग चले गए. जो रह गए हैं उनकी जिंदगी पहाड़ है. पीने का पानी, आने-जाने के लिए रास्ता तो कभी मिला ही नहीं. जो पगडंडीनुमा राह थी उसमें भी अब ताले जड़ दिए गए हैं.  1972 से एक सरकारी स्कूल है. दो कमरों में आठवीं तक के बच्चे बैठते हैं. नामांकन बढ़ता ही जा रहा है. काफी कोशिश के बाद स्कूल की खातिर नई बिल्डिंग का फंड आया. बिल्डिंग बननी शुरू ही हुई थी कि उसे रुकवा दिया जंगलवालों ने. यह कहकर कि यहां रेलवे और वन विभाग के अलावा किसी विभाग की या किसी निजी व्यक्ति की जमीन नहीं है. सब अवैध हैं. राशन की दुकान, सरकारी स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र और इंसानों की बसाहट… सब अवैध. जब यह वन विभाग और रेल का ही इलाका रहा था तो स्कूल क्यों खोल दिया था सरकार ने? जब इंसानों के बसने की इजाजत नहीं थी तो करीब 400 मतदाताओं का वोट लेने के लिए पोलिंग बूथ क्यों बनता है यहां? जो लोग पीढ़ियों से अपना घर-बार और जमीन छोड़कर यहां बसने आ गए थे, उनकी यह पीढ़ी अब कहां चली जाए, बताइए…?’

भारत-नेपाल सीमा पर बसे एक गांव भिखनाठोरी में आयोजित एक चौपाल की ये बातें और उनके अंत में उठे सवाल उस त्रासदी की एक झलक देते हैं जिस पर अगर जल्द ही ध्यान न दिया गया तो वह एक बड़े खतरे का सबब बन सकती है. यह खतरा है हिंसा की राह चलने का.

नेपाल से सटे हुए इस इलाके का नाम थरुहट है. थरुहट यानी थारुओं का इलाका. थारु यानि पीढ़ियों से वनक्षेत्र में रहने वाली और नौ साल पहले कागजी तौर पर आदिवासी समुदाय में शामिल हुई एक जाति. ऐतिहासिक, पौराणिक दृष्टि से भी नायकविहीन समुदाय. वह समुदाय, जो कड़ी मशक्कत के बाद कागजी तौर पर आदिवासी समुदाय में शामिल कर लिए जाने के बावजूद घड़ी के पेंडुलम की तरह डोल रहा है. पिछड़ी श्रेणी में होने का लाभ मिलता था, वह भी गया और आदिवासी समुदाय में शामिल कर लिए जाने के बाद भी कागजी पेंच की वजह से वे सुविधाएं उसे नहीं मिल सकी हैं जो मिलनी चाहिए.

भिखनाठोरी, इसके बाद भतुझला और फिर ढायर जैसे थरुहट के कई गांवों से गुजरते हुए और इस दौरान कई चौपाली बतकहियों में शामिल होने के बाद रात को हम दोन क्षेत्र में प्रवेश करते हैं. थरुहट और दोन दोनों ही इलाके बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के हिस्से हैं. घनघोर जंगल में राह तलाशते हुए गाड़ी चला रहे थारू समुदाय के सुधांशुु गढ़वाल और हेमराज तरह-तरह के किस्से सुनाते हैं. हेमराज बताते हैं कि पिछले सप्ताह गन्ना काट रही एक महिला पर जंगली भालू ने हमला किया था. कुछ दूर आगे बढ़ने पर सुधांशु बताते हैं कि कुछ साल पहले यहां से गुजरते हुए दो दोस्तों में से एक को बाघ ने हमला कर मार डाला था. रोंगटे खड़े कर देने वाले ऐसे किस्सों की यहां कमी नहीं.

एक ही नदी को करीब दर्जन बार पार करके रात को हम सघन दोन के केंद्र में पहुंचते हैं. बिहार के बेतिया शहर से हमारे मार्गदर्शक बने वनाधिकार मंच के शशांक कहते हैं, ‘आप बिहार और भारत के उस हिस्से में चल रहे हैं जो बारिश के दिनों में शेष हिस्से से पूरी तरह कट जाता है. यहां जिंदगी गुजारने का अपना फॉर्मूला है. इतने संघर्ष के बाद भी यहां के लोग सब्र नहीं खोते.’मवेशियों के लिए रहने का जगह

लेकिन अब वह सब्र जवाब दे रहा है. कुदरत इन लोगों के सामने जो मुश्किलें खड़ी करती है उनसे उन्हें कोई शिकायत नहीं. व्यवस्था की उपेक्षा के भी वे आदी हो चुके हैं. लेकिन पिछले कुछ समय में उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ने की जो तैयारी हो रही है और जिस अंदाज में हो रही है उसके विरोध में ये लोग किसी भी राह जाने को तैयार दिखते हैं. हिंसक टकराव की भी.

थरुहट और दोन में ऐसे सवाल और उसकी परिधि में एक नई लड़ाई की अंगड़ाई दरअसल सरकार और शासन के एक फरमान के बाद से तेज हुई है. पश्चिमी चंपारण के जिलाधिकारी श्रीधर सी ने 26 नवंबर, 2011 को आदेश दिया था कि आठ दिसंबर को वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना के अंतर्गत पड़ने वाले राजस्व ग्रामों की ग्रामसभा की बैठक में इस परियोजना के लिए बफर क्षेत्र की स्वैच्छिक घोषणा को पारित करवाया जाए. जिलाधिकारी द्वारा प्रखंड विकास अधिकारी व अन्य छोटे अधिकारियों के जरिए ग्रामसभाओं को लिखी गई इस चिट्ठी ने थरुहट व दोन क्षेत्र के लोगों को सकते में डाल दिया.

इस फरमान ने अपने-अपने दुखों के साथ बिखरे थरुहटवासियों को बहुत हद तक एक होने का मौका भी उपलब्ध कराया. 26 नवंबर को चिट्ठी जारी हुई. आठ दिसंबर को ऐसा कर लेने का आदेश था. इस बीच के समय को थरुहट और दोन क्षेत्र के लोगों ने दिन-रात एक कर एक-दूजे से संपर्क स्थापित करने में लगाया. जबरदस्त तरीके से गोलबंदी हुई. नतीजा यह हुआ कि आठ दिसंबर को जिलाधिकारी का आदेश कहीं काम न कर सका. 152 गांवों की करीब 51 हजार एकड़ जमीन को बफर क्षेत्र घोषित करने के संदर्भ में यह आदेश था. एकाध गांव को छोड़ करीब-करीब सभी ने इसका बहिष्कार कर दिया. अपनी बसाहट वाले क्षेत्र और रैयती जमीन को बफर जोन में शामिल नहीं करने की जिद तो इतने गांवों के लोगों ने एक साथ दिखाई ही, अब उसी के बहाने नासूर की तरह अंदर ही अंदर रिस रहे सभी जख्म भी ताजा हो आए हैं. इसी एकजुटता के बूते एक-एक कर हर हिसाब लेने की सुगबुगाहट भी इस इलाके में शुरू हो गई है.

दोन में रहने वाले लोग कई मायने में नाम के नागरिक हैं.  बिजली, सड़क जैसी सुविधाएं यहां दूर-दूर तक नहीं दिखतीं. मोबाइल जरूर दिखता है मगर उससे भी आपस में संपर्क हो पाएगा इसकी गारंटी नहीं. मोबाइल से बात हो जाए इसके लिए घर-घर में एंटीना लगे दिखते हैं. एंटीना में तार जोड़ घंटों मशक्कत करने के बाद बात हो जाती है. ऐसी कई मुश्किलें हैं यहां. विकसित होते बिहार का रोजमर्रा वाला जो गान होता है उसकी गूंज क्या कानाफूसी तक नहीं हुई यहां. लेकिन संघर्ष के बीच सृजन की अद्भुत कला और क्षमता से लबरेज इलाका. बीते आठ-नौ नवंबर को दोन क्षेत्र के हजारों बाशिंदों ने बैलगाड़ियों पर मिट्टी ढो-ढाकर दो दिन में 13 किलोमीटर का रास्ता खुद ही तैयार कर लिया.

उसी नए रास्ते से गुजरते हुए हम रात के करीब दस बजे दोन क्षेत्र के गोबरहिया दोन गांव पहुंचते हैं. वहां सामुदायिक भवन में पहले से ही ग्रामीणों की भीड़ दिखती है. एक और चौपाली सभा. कुछ देर में ही पता चल जाता है कि यहां मौजूद भीड़ में शामिल ग्रामीण दूसरी सभाओं में मिले लोगों की तरह ही सहज-सरल तो हैं लेकिन उनकी बातों में दया के पात्र बन जाने की याचना भर नहीं दिखती. आर-पार की लड़ाई लड़ने की कसमसाहट और अकुलाहट भी दिखती है. आधी रात तक चली सभा में दर्जन भर से अधिक लोगों के संवादों के टकराव के कई निहितार्थ निकलते हैं. लेकिन मूल में एक ही बात कि हम जंगल नहीं छोड़ेंगे और अब याचना भी नहीं करते रहेंगे.

हालांकि बफरजोन निर्धारण के लिए चिट्ठी जारी करने वाले पश्चिमी चंपारण के जिलाधिकारी श्रीधर सी तहलका से बातचीत में कहते हैं कि कहीं न कहीं चिट्ठी को लेकर कोई भ्रम जैसा हुआ है और उसकी गलत व्याख्या कर ली गई. वे बताते हैं, ‘फिर भी किसी ग्रामीण ने बहिष्कार नहीं किया है. बल्कि एक भ्रम का माहौल बना है, जिसे हम दूर कर लेंगे. हम ग्रामीणों से मिल रहे हैं. हम शीघ्र ही उस इलाके में ईको हर्ट सेंटर शुरू करेंगे, इंटरप्रेटेशन सेंटर खोलेंगे…’ यह सब कहने के बाद वे कहते हैं कि जंगल और जंगल के दावेदारों के तकनीकी पेंच को समझने के लिए आप वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क करें.

श्रीधर सी बहुत ही सहजता से बात समेट देते हैं. लेकिन बात इतनी आसानी से समेटने वाली नहीं लगती. खबरिया दुनिया में इस दुरूह क्षेत्र की
मुकम्मल खबर नहीं आने की वजह से भले ही इसका अंदाजा बाहरी तौर पर नहीं मिल रहा और इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा लेकिन संकेत कुछ ठीक नहीं मिल रहे.

वाल्मीकि व्याघ्र अभयारण्य नेपाल की सीमा पर स्थित देश का चर्चित बाघ अभयारण्य है. सब मिलाकर यह कुल  880.78 वर्ग किलोमीटर का इलाका है. बिहार सरकार की ख्वाहिश है और बार-बार घोषणा की जा रही है कि इस स्थल को ईको टूरिज्म, टाइगर सफारी, बेजोड़ पर्यटन स्थल आदि के तौर पर विकसित किया जाएगा. इलाके को लेकर और भी कई हसीन ख्वाब दिखाए जा रहे हैं. इसी सिलसिले में टाइगर प्रोजेक्ट एरिया में निर्माण के लगभग दो दशक बाद कोर और बफर जोन का निर्धारण किए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई है. बफर जोन यानी वह इलाका जहां जंगली जानवर आसानी से विचरण कर सकते हैं. लेकिन इस जोन का दायरा कितना होगा, यही अब तक तय नहीं हो सका है और चिट्ठी जारी हो गई. भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि कोर जोन कितना होगा यह अब तक तय नहीं है.

इस मूल सवाल को पूछने पर वन संरक्षक संतोष तिवारी उसी को तो निर्धारित करने की प्रक्रिया में लगे हैं हम, सर्वे होगा, नोटिफिकेशन होगा जैसी तमाम बातें कहते हैं. वे यह भी स्वीकारते हैं कि कुछ गलती ग्रामीणों की है कि वे किसी तीसरे पक्ष के बहकावे में आकर सहयोग नहीं कर रहे और कुछ गलती उनके महकमे की भी है कि वह उन्हें ठीक से समझा नहीं सका. तिवारी कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि थरुहट है, थारू हैं तभी व्याघ्र क्षेत्र है और पार्क है, यह हम जानते हैं इसलिए हम चाहते हैं कि उन्हें वनाधिकार मिलें.’

लेकिन लगता है कि बात समझने-समझाने, चाहने-न चाहने की मंशा के दायरे से बाहर निकल चुकी है. थरुहट और दोन क्षेत्र के लोग एक-एक कर कई सवालों का जवाब चाहते हैं. स्थानीय पत्रकार सत्यार्थी कहते हैं, ‘पता नहीं क्यों जान-बूझकर फिर एक गलती की जा रही है. क्यों शासन-प्रशासन के लोग भूल जा रहे हैं कि 2005 में इसी दोन से सटे नेपाल के पास धूप पहाड़ पर माओवादियों की एक बड़ी बसाहट का पता चला था. वहां से पांच-छह जेनरेटर, कई टेंट, अत्याधुनिक उपकरण, कंप्यूटर आदि मिले थे. अब यदि दोनवालों को और परेशान किया जाएगा तो फिर वे किसी के सॉफ्ट कॉर्नर बन सकते हैं, क्योंकि वे सहज लोग हैं.’

सत्यार्थी जैसी ही बात थारू समुदाय के प्रतिष्ठित बुजुर्ग, पूर्व विधान पार्षद व इस समुदाय के अब तक के इकलौते पूर्व मंत्री व थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष प्रेमनारायण गढ़वाल कहते हैं. वे कहते हैं, ‘करीब साढ़े तीन लाख की आबादी है, 2.60 लाख वोटर हैं, सैकड़ों गांव हैं, राजनीतिक-सामाजिक और व्यक्तिगत कोई अधिकार ही नहीं मिलेगा और कोई रास्ता नहीं बचेगा तो आंदोलन ही होगा और आंदोलन तो किसी दिशा में जा सकता है!’
गढ़वाल की बातों को यदि हालिया घटनाओं से जोड़कर देखें तो सिर्फ जिलाधिकारी की बफर-कोर जोन वाली चिट्ठी ही नहीं बल्कि उसके समानांतर भी कई मसलों को लेकर इसकी बुनियाद तैयार होती रही है. पिछले 31 दिसंबर को शेरवा दोन में डीएफओ ने ईंट भट्ठे पर काम कर रही महिलाओं की ईंटें अपनी गाड़ी से रौंद डाली थीं. ग्रामीण बताते हैं कि डीएफओ नशे में धुत थे और उन्होंने हवा में दो-तीन गोलियां भी चलाईं. बाद में डीएफओ की जमकर पिटाई हुई. वहां वन संरक्षक भी पहुंचे. डीएफओ ने लिखकर दिया कि उनकी गलती है. लेकिन जैसे ही वे गांव से छूटे उनको बचाने वाले ग्रामीणों पर ही केस कर दिया गया. इस घटना के बारे में संतोष तिवारी कहते हैं, ‘मैं गवाह नहीं लेकिन यह देखना होगा कि डीएफओ ने तीन गोली ही चलाई, वह चाहता तो कुछ और कर सकता था.’ फिर संभलते हुए कहते हैं, ‘हां, कुछ गलती डीएफओ की भी रही होगी. यह अकेली घटना नहीं है. अतीत में यह सब होता रहा है.’

वनाधिकार मंच के प्रवक्ता शशांक कहते हैं, ‘थरुहट के साथ हमेशा पेंच फंसाया जाता रहा है. वर्तमान जिलाधिकारी ने पत्र जारी कर बफर व कोर जोन के निर्धारण की बात कही है. ऐसा ही प्रस्ताव 2005 में भारत ज्योति नामक एक अधिकारी ने तैयार किया था. लेकिन उसे राज्य सरकार ने खारिज कर दिया था. फिर वही प्रस्ताव लाया गया है जबकि जो मूल काम होना चाहिए था वह नहीं हो रहा.’

उनका इशारा वनाधिकार की तरफ है. एक जनवरी, 2008 को देश में वनाधिकार कानून लागू हुआ. सात जुलाई, 2008 को बिहार में राज्यपाल ने इस संबंध में पत्र जारी किया. लेकिन उसके बाद से इस कानून को लागू करवाने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं हुई. काफी मशक्कत के बाद अब किसी तरह ग्राम समितियों के गठन का काम शुरू हुआ है. लेकिन उसमें भी खानापूरी ही अधिक है, जबकि वनाधिकार लागू करने से इस क्षेत्र की कई समस्याओं का हल खुद ही हो जाएगा. दूसरी ओर थरुहट के रहनेवाले और अनुसूचित जनजाति आयोग के सदस्य नंदलाल महतो से जब बात होती है तो वे जो बोलते हैं उसका आशय कुछ नहीं निकल पाता. वे कहते हैं, ‘2001 की जनगणना के आधार पर चुनाव हुआ है, 2003 में थारू आदिवासी बने, अब की जनगणना के बाद उनके लिए विधानसभा सीट रिजर्व हो ही जाएगी. डीएफओ भी बहुत बदमाशी करते रहता है तो लोग गुस्साएंगे ही. वैसे कोर और बफर जोन क्या होता है, हम नहीं जानते.’

उस रात गोबरहिया दोन में सामुदायिक भवन में आधी रात तक चली ग्रामीण चौपाली सभा में प्रतापचंद काजी, समाजसेवी गगनदेव बाबू, महेंदर बाबू, शीतलजी,मोतीचंद, मुसला साह, रामप्रवेशजी, सुधांशु,रूदल, हेमराज जैसे थरुहट के चर्चित लोगों की उपस्थिति में कई-कई वाक्य एक-दूजे से टकराए थे. उन वाक्यों को समेटकर-सहेजकर यदि एक मुकम्मल स्वरूप दें तो अधरतिया की सभा का आख्यान कुछ ऐसा था- ‘हम दोन वाले, थरुहट वाले जंगल के लोग हैं. जंगल से पीढ़ियों से नाता है. जानवर हमें मारते हैं, हमारी फसल बर्बाद करते हैं, लेकिन हम धैर्य नहीं खोते. हम जानते हैं कि यह उनका जन्मगत स्वभाव है. आजादी के बाद हमें कुछ नहीं मिला लेकिन हम इसके लिए भी सड़कों पर नहीं उतरते. हमारे इलाके में बिजली आ जाती, सड़क बन जाता तो क्या-क्या बदलाव होते हमारी जिंदगी में, इसका आकलन नहीं करते हम कभी! हम यथासंभव खुद ही अपनी राह तैयार करते रहते हैं. नदियों पर पुल तो नहीं बना सकते लेकिन आपस में एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए राह बनाते रहते हैं. पिछले माह ही बैलगाड़ी से मिट्टी वगैरह ढोकर दोन के करीब आठ हजार लोगों ने स्वेच्छा से 13 किलोमीटर सड़क तैयार की, ताकि खेत में उपजे गन्ने को हम गन्ना बिक्री केंद्रों तक पहुंचा सके.

हमारी यह उद्यमिता चर्चा में नहीं आई, क्योंकि रातों-रात 13 किलोमीटर रास्ता तैयार करने में नए और विकसित होते बिहार की सरकार की कोई भूमिका नहीं थी. खैर, हमें इसकी चाहत भी नहीं. पर अब पानी सिर के उपर से गुजर रहा है तो धैर्य चूकता जा रहा है. सहने की एक सीमा होती है. हम समझौता करते-करते सिमटते रहे हैं, लेकिन अब याचना की बजाय रण चाहते हैं. दो दशक पहले बगैर हमारी जानकारी के हमारी रैयती जमीन का रसीद नहीं काटे जाने की भूमिका तैयार हुई. तब से रसीद नहीं कट रही. हमें घरसंगहा, हरसंगहा, सवइया आदि मिलता था. घरसंगहा से हम घर बनाने के लिए लकड़ी ला सकते थे, हरसंगहा के लिए हल बनाने के लिए लकड़ी ला सकते थे और सवइया घास से हम झाडू़ आदि बनाकर जीवन की गाड़ी चला पाते थे. यह सब बंद कर दिया गया, हम कुछ नहीं बोले. समझौता-दर-समझौता कर खुद को छोटे दायरे में समेटते गये. लेकिन अब हमें उस दायरे से भी बेदखल किए जाने की तैयारी है. बाघों को बचाने और बाहर से आने वाले सैलानियों के दम पर हम मूल बाशिंदों को यहां से हटाए जाने की योजना बनी है. बाघ के नाम पर कैसा खेल चलता है, यह हर कोई जानता है. दो दशक पहले जब जंगल वाले यहां नए-नए आए थे तो बाघों की संख्या 80 से ज्यादा बताई गई थी. ‘

‘अब आठ बचे हैं. हमारी व्यवस्था रहने तक 80 बाघ रहते थे, जंगल वालों का राज आया तो दसवां हिस्सा बचा. हम चाहते हैं कि सैलानी यहां आए, हमें भी अच्छा लगेगा. रोजगार मिलेगा. बाघ बचे, हम भी चाहते हैं, उनके संग पीढ़ियों से हमारा रिश्ता है. लेकिन यह सब हमारे अस्तित्व की कीमत पर हो, यह कैसे संभव होगा? कई बार जंगल के अधिकारी कहते हैं कि एक बाघ की कीमत दोन के दो-तीन गांवों के बराबर है, हम हंसकर टाल देते हैं कि चलो कुछ तो कीमत है हमारी. हम मूलतः गन्ना उपजाने वाले किसान हैं. हमारे गन्ने का भुगतान जंगल में ही होता रहा है. लेकिन अब उसे भी रोक दिया गया है. अब हमें दूर-दराज जाकर चीनी मिल से पेमेंट लेने को कहा जा रहा है. दस-बीस हजार रुपये मिलते हैं साल भर में. वह लेकर आएंगे, रास्ते में कोई छीन ले तो हमारी साल भर की कमाई एक झटके में चली जाएगी. दोन के करीब 27 गांवों में 20 हजार आबादी है हमारी. दोन और उसके बाहर रहने वाले 152 गांव के बाशिदों को पिछले माह एक नोटिस मिला. इसमें कहा गया था कि हम ग्राम सभा की बैठक में शामिल होकर यह फैसला कर लंे कि हम अपनी बसाहट वाले इलाके में करीब 51 हजार एकड़ रैयती जमीन बाल्मीकि नगर टाइगर प्रोजेक्ट के लिए बफर जोन घोषित करने का एलान करते हैं. चिट्ठी का लहजा ऐसा है जैसे वह कोई तानाशाही फरमान हो. ग्रामसभाओं को इस लहजे में आदेश देने का यह पहला मामला होगा शायद. हमने भी वही किया जो कभी, कहीं नहीं हुआ होगा शायद. हम ने एकजुट होकर जिलाधिकारी के आदेश का बहिष्कार कर दिया. अब संभव है, बौखलाहट में हम पर थर्ड डिग्री का भी इस्तेमाल हो. हम बहुत शांतिप्रिय लोग हैं. कुछ साल पहले माओवादियों ने फरमान सुनाया था कि हर गांव से पांच बेटे-बेटियों को देना होगा, हमने उन्हें खदेड़ दिया था. बाद में वे इधर फटके भी नहीं. हम थारूओं की आबादी बिहार में तीन लाख से भी ज्यादा है. हम एक ही हिस्से में रहते हैं. सामूहिकता के साथ ही रहना चाहते हैं. लेकिन जब बार-बार हमारे अस्तित्व को मिटा देने, सामूहिकता को खत्म कर देने की कोशिश होगी तो हम किसी भी रास्ते जा सकते हैं…!’

हमारे लोकतंत्र की सेहत दुरुस्त है

पांच राज्यों के चुनावी नतीजों की धूल अब बैठ चुकी है. अब यह देखने का समय है कि इन चुनावों ने हमारे लोकतंत्र के रक्तचाप पर क्या असर डाला है.  उत्तर प्रदेश में यह लगातार दूसरी बार है जब वोटरों ने किसी एक दल को साफ बहुमत दिया है. 2007 के पहले बीते बीस सालों में ऐसा नहीं हुआ था. पंजाब में 40 साल में पहली बार है जब किसी दल या गठबंधन को लगातार दूसरी बार विधानसभा में बहुमत मिला हो. उत्तराखंड में किसी को बहुमत नहीं मिला और सिर्फ एक सीट के अंतर से सबसे आगे निकलने वाली कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी.

यूपी-पंजाब को देखते हुए एक बात कही जा रही है कि भारतीय मतदाता अब स्थिर सरकारें चाहता है, इसलिए उसने दलों को स्पष्ट बहुमत दिया है. लेकिन क्या स्पष्ट बहुमत कोई ऐसी चीज है जिससे लोकतंत्र या राजकाज के बेहतर होने की गारंटी मिलती हो?  मायावती से पहले आखिरी बार उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की जिस सरकार को बहुमत हासिल हुआ था उसके रहते और उसकी भागीदारी से बाबरी मस्जिद गिरी. गुजरात में दंगों के बावजूद नरेंद्र मोदी को विराट बहुमत मिला और अब तो वे खुद को गुजरात का गौरव बताते हैं. 2004 में अपने सहयोगियों पर कहीं ज्यादा निर्भर यूपीए सरकार कहीं ज्यादा जिम्मेदार नजर आती रही, लेकिन 2009 की मजबूत हैसियत ने उसे आज की तारीख में ज्यादा गैरजिम्मेदार बनाया है.

वोटर को अपने इलाके के दल और नेता चाहिए. राहुल गांधी जनता की निगाह में बाहरी थे जिसके मुकाबले अखिलेश बिल्कुल लोकल थे 

मतलब यह कि स्पष्ट बहुमत वह चीज नहीं है जिस पर लोकतंत्र को बहुत खुश होना चाहिए. बेशक, इसकी वजह से विधानसभाओं में दिखने वाली घोड़ा मंडी बंद हो जाती है, कई बार सरकारें बेजा दबाव झेलने से भी बच जाती हैं, लेकिन अक्सर बड़ा बहुमत सत्ताओं को निरंकुश बनाता है और ताकतवर तबकों के बहुसंख्यकवाद को मजबूत करता है. जब कांशीराम कहा करते थे कि उन्हें मजबूत नहीं मजबूर सरकारें चाहिए तो वे दरअसल यही बताया करते थे कि मजबूत सरकारें कमजोर लोगों और तबकों की नहीं सुनतीं. यूपी में मजबूर सरकारों के सहारे ही वह दलित राजनीति परवान चढ़ पाई जिसने इस राज्य को आजादी के बाद पहली बार ऐसा मुख्यमंत्री दिया जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया. विडंबना बस यही है कि मायावती खुद को मिले स्पष्ट बहुमत को दीर्घावधिक जनादेश में नहीं बदल सकीं. भरोसा करना चाहिए कि अखिलेश यादव मायावती का हश्र याद रखेंगे.

बहरहाल, अब दूसरे मुद्दे पर लौटें. यह सच है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में राहुल गांधी नहीं चले, जबकि उनकी मदद के लिए सोनिया भी आईं और प्रियंका भी. लेकिन सारा दम लगा लेने के बावजूद कांग्रेस 30 सीटों तक भी नहीं पहुंच सकी. नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी मानते हैं कि जनता ने राहुल गांधी के नाटक को नकार दिया है. लेकिन क्या यह राहुल गांधी या वंशवाद की हार है?  बेशक, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उतनी सीटें नहीं मिलीं जितनी उसे उम्मीद थी, लेकिन कायदे से राज्य में उसके वोट भी बढ़े हैं और सीटें भी. इसलिए यह नतीजा जल्दबाजी भरा लगता है कि वे यूपी में अंतिम तौर पर खत्म हो गए हैं या खारिज कर दिए गए हैं. आखिर 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को यहीं से 22 सीटें मिली थीं.

दूसरी बात यह कि नेहरू-गांधी परिवारवाद की भले हार हुई हो, उत्तर प्रदेश और पंजाब दोनों राज्यों में परिवारवाद ही जीता है. मुलायम सिंह यादव की जगह अखिलेश यादव ले रहे हैं और प्रकाश सिंह बादल की जीत का सेहरा सुखबीर सिंह बादल के सिर बांधा जा रहा है. जाहिर है, पार्टियों में वह आंतरिक लोकतंत्र नहीं है जिसमें परिवार के बाहर किसी नेता के उदय की गुंजाइश बने.
सवाल है, इन चुनावों का क्या कोई सकारात्मक पहलू है?  एक तो यह कि जनता ने इन चुनावों में, जहां-जहां क्षेत्रीय विकल्प दिखे, उन्हें तरजीह दी. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बाद ही बीजेपी-कांग्रेस को जगह मिली है. पंजाब में अकाली-बीजेपी गठजोड़ का जो बहुमत है वह अकालियों के बूते आया है, बीजेपी की सीटें भी घटी हैं और उनके वोट भी. उत्तराखंड में चूंकि ऐसा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए लड़ाई कांग्रेस-बीजेपी के बीच बनी रही. गोवा में बीजेपी ने कांग्रेस को शिकस्त दी, लेकिन अपनी राष्ट्रीय छवि से अलग उसने वहां एक उदार चेहरा पेश किया और चर्च का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की. मणिपुर में कांग्रेस के दबदबे को चुनौती देने की स्थिति नहीं थी, लेकिन वहां भी तृणमूल कांग्रेस ने अपनी लक्ष्य की जा सकने लायक मौजूदगी दर्ज करा दीं.

इसका एक मतलब साफ है कि वोटर को अपने इलाके के दल और नेता चाहिए. यूपी में राहुल गांधी के पिटने की एक वजह यह भी रही कि वे जनता की निगाह में बाहरी आदमी थे जिसके मुकाबले अखिलेश बिल्कुल लोकल थे. इस लिहाज से ये चुनाव भारतीय राष्ट्र राज्य के संघीय ढांचे की अवधारणा को कुछ और ताकत देते हैं. दिल्ली की निर्भरता राज्यों पर बढ़ी है- लखनऊ, पटना, भोपाल, या कोलकाता में अब वह अपने फैसले आसानी से थोप नहीं सकती. बेशक, यह स्थिति इन चुनावों से पहले भी थी- आखिर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से पहले बीएसपी की ही सरकार थी. फिर भी इन चुनावों से यह प्रक्रिया मजबूत हुई है और कांग्रेस और बीजेपी जैसे दलों पर यह दबाव है कि वे अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं में कुछ स्थानीय हसरतों के लिए भी गुंजाइश बनाएं. दरअसल इन चुनावों में सबसे बुरा हाल बीजेपी का हुआ है. उसकी सीटें भी कम हुई हैं, वोट भी, और जहां उसे कामयाबी मिली है – गोवा में- वहां स्थानीय स्तर पर खुद को बदलने की कोशिश की वजह से ही मिली है.

बहरहाल, यह चुनाव चर्चा कुछ सरलीकरणों का सच समझे बिना पूरी नहीं होगी. एक सरलीकरण तो यह था कि इस बार बहुत बड़ी तादाद में वोटर निकले. जबकि चुनाव शास्त्र के जानकार योगेंद्र यादव बताते हैं कि जो नई मतदाता सूचियां हैं वे पहले से कहीं बेहतर और सटीक हैं जिनमें बरसों से चले आ रहे, या अलग-अलग जगहों पर दुहराए जा रहे नाम हटाए जा चुके हैं. इसलिए वोटरों की संख्या जरूर बढ़ी है, लेकिन यह बढ़ोतरी उतनी बड़ी नहीं है जितनी प्रतिशत के लिहाज से दिखती है.

दूसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण बात चुनाव आयोग की वह भूमिका है जिसकी इन दिनों कुछ ज्यादा तारीफ हो रही है. बेशक, चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से कई गड़बड़ियां रुकी हैं, लेकिन इसके कुछ अवांतर प्रभाव भी रहे. जो चुनाव भारत में लोकतंत्र के त्योहार की तरह हुआ करते थे, वे बहुत तकनीकी किस्म की औपचारिकता में बदलते जा रहे हैं. हमारे यहां चुनावी राजनीति का एक देशज रंग रहा जिसमें आम लोगों को चुनाव होने की जानकारी चुनाव आयोग की अधिसूचनाओं से नहीं, दीवारों पर लिखे लाल नारों से होती थी. पार्टियों के वादों की सूचना उनके घोषणापत्रों से नहीं, नेताओं के भाषणों से मिलती थी और चुनावी हवा की थाह घरों और सड़कों पर लगे झंडों से लगती थी. लेकिन अब घरों पर झंडे नहीं लग सकते, दीवारों पर नारे नहीं लिखे जा सकते और नेता मनचाहे वादे नहीं कर सकते. सतह पर दिख रहा है कि इससे चुनाव साफ-सुथरे हुए हैं, लेकिन सच यह है कि इसकी वजह से जो खर्च खुलकर होता था वह अब छिपकर होने लगा है और उसमें काले पैसे की भूमिका और बढ़ गई है. इन चुनावों में यूपी से पंजाब तक जितने बड़े पैमाने पर रुपये और शराब बंटने की खबर आई, उससे अंदाजा मिलता है कि यह चुनावी साफ-सुथरापन कैसा था. दूसरी बात यह कि सड़क और मैदान पर प्रचार की कमी ने मीडिया पर नेताओं और पार्टियों की निर्भरता बढ़ाई और जानकार बताते हैं कि इन चुनावों में पेड न्यूज का खेल शर्मनाक ढंग से खेला गया.

बेशक, चुनाव आयोग को अपना काम करना चाहिए और नेता कायदे तोड़ें तो उन्हें रोकना भी चाहिए. लेकिन अंततः चुनाव आयोग एक प्रशासनिक संस्था ही है, राजनीतिक प्रक्रियाओं के नियमन और निर्धारण में उसकी भूमिका एक हद से आगे नहीं हो सकती. चुनाव अंततः समाज में और लोगों के बीच लड़े जाने हैं. लोग अपने ढंग से फैसले करते हैं और उन्होंने किया है. यूपी में पूरी तरह सरकार बदल डाली, पंजाब में अकालियों को दुबारा मौका दिया और उत्तराखंड में कांग्रेस को सांत्वना पुरस्कार देकर छोड़ दिया कि वह मिल-मिलाकर सरकार बना ले. यह भी स्पष्ट है कि लोग मीडिया के असर में नहीं आए. मीडिया में राहुल गांधी की हवा चल रही थी जो जनता के बीच निकल गई. ज्यादातर एग्जिट पोल इन नतीजों का अनुमान लगाने में नाकाम रहे.

जो लोग इन चुनावों को 2014 की लोकसभा का सेमीफाइनल बता रहे हैं, वे कुछ ज्यादा हड़बड़ी में हैं. इसी साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हैं, अगले साल पहले कर्नाटक में और लोकसभा चुनावों से ठीक पहले चार और राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में. हालांकि तब भी उन नतीजों को लोकसभा चुनावों का पूर्वाभास मानने की भूल  खतरनाक होगी. हम याद कर सकते हैं कि 2003 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जीत ने ही बीजेपी को यह गुमान दिया कि अगर वह जल्दी चुनाव कराए तो 2004 में केंद्र में लौट सकती है. लेकिन नतीजों ने उन्हें अंगूठा दिखा दिया.

दरअसल इन चुनावों ने यही बताया है कि सारे तनावों-दबावों के बीच, पैसे और बाहुबल जैसी बीमारियों के बावजूद और जातिगत-सांप्रदायिक मधुमेह के रहते हुए भी हमारे लोकतंत्र के बुनियादी अवयव ठीक से काम कर रहे हैं, उसका रक्तचाप दुरुस्त है और उसकी सेहत अच्छी है.

अवैध खनन का ‘राज’स्थान

पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय के सामने राजस्थान सरकार ने दावा किया था कि अरावली की पहाड़ियों में खनन पूरी तरह बंद है. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी के मुहाने पर बसे सीकर जिले की तस्वीर ही इस दावे की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है. शिरीष खरे की रिपोर्ट

राजस्थान की राजधानी जयपुर को देश की राजधानी दिल्ली से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-8 के साथ ऊंट के आकार-सी उठती-बैठती अरावली पर्वत श्रृंखला भी सरपट दौड़ती है. मगर हमें जिसकी तलाश है उसका रास्ता जयपुर से कोई दो घंटे की दूरी पर पावटा कस्बे से खुलता है. यह सीकर जिला है, राजस्थान में चल रहे अवैध खनन और उससे हो रहे पर्यावरण विनाश का एक बड़ा केंद्र. यहां के दुर्गम रास्तों से 45 किलोमीटर दूर नीम का थाना (सीकर की एक तहसील) की तरफ बढ़ते हुए सफेद पत्थरों से ओवरलोडेड ट्रकों का काफिला देखकर ही पता चल जाता है कि आगे आपको बड़े पैमाने पर खनन देखने को मिलेगा. और आधा घंटे के बाद ही आपको बूचाड़ा नदी का वह किनारा भी मिल जाता है जिसके किनारे-किनारे कोई 15 किलोमीटर तक बजरी (बारीक पत्थर) फिल्टर प्लांटों का जाल बिछा हुआ है. यहीं बने बूचाड़ा बांध से लगी पहाड़ियों पर थोड़ी-थोड़ी देर में होने वाले धमाकों से इलाके में चल रहे खनन के काले कारोबार की सूचना सुनी जा सकती है. जगह-जगह पर मशीनी पंजों के जरिए अरावली के सीने से पत्थरों को निकालकर बड़े-बड़े पहाड़ इकट्ठा किए गए हैं. और उनकी ढुलाई के लिए नजदीक ही बड़ी तादाद में ट्रक भी तैनात हैं. मशीनों पर न तो सर्दी-गर्मी का असर पड़ता है और न ही दिन-रात का. लिहाजा खुदाई से ढुलाई तक का काम बेरोकटोक जारी है.

खनन माफिया अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ पत्थरों की इतनी खुदाई कर जाते हैं कि ठीक-ठाक कुछ बताया भी नहीं जा सकता. यह तो खनन का शुरुआती दृश्य है. इससे भयावह रूप पहाडि़यों के बीच छिपा है. यहां के गांव टोडा से लेकर भराला और रायपुर मोड़ से लेकर पाटन और कोटपुतली इलाके की पहाड़ियों तक बर्बादी का आलम कई किलोमीटरों में टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरा दिखता है.
अरावली भारत के सबसे प्राचीन पर्वतों में से एक है. दिल्ली के कुछ उत्तर से गुजरात तक तकरीबन 692 किलोमीटर लंबी यह पर्वत श्रृंखला बीच-बीच में टूट गई है. इसी के पश्चिमी भाग पर बालेश्वर पर्वत श्रृंखला की गोद में राजस्थान का यह जिला स्थित है. दिल्ली और हरियाणा के नजदीक स्थित यह इलाका फिलहाल लूट की गहरी खदानों में तब्दील हो चुका है. स्थानीय मानवाधिकार कार्यकर्ता कैलाश मीणा बताते हैं, ‘इस इलाके की स्थिति सड़क पर पड़े उस ट्रक की भांति है जिसमें भरे संतरों को बचाने की बजाय लोगों द्वारा उसे लूटा जाता है. दिल्ली और गुड़गांव के कुछ रसूखदारों के लिए भी यह इलाका अब लूट का गढ़ बन चुका है.’

खनन माफिया ने सीकर में बहने वाली कासावती नदी को पत्थरों से पाट दिया है, इसके चलते रायपुर बांध में पानी की आवक भी ठप पड़ गई है

2002 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली क्षेत्र में खनन के नए पट्टे के आवंटन पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी. बीते साल सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथपत्र में भी राज्य सरकार ने यहां किसी भी तरह का खनन न होने का दावा किया था. मगर स्थानीय बाशिंदे बताते हैं कि बीते दो साल में अवैध खानों के चलते इलाके का नक्शा कुछ ऐसा बदला है कि अब स्थानीय आदमी ही रास्ता भूल जाए तो वह एक खान से दूसरी खान में भटकता रह जाएगा.

अरावली की इसी पट्टी पर मोडा पहाड़ी भी है. कई करोड़ रुपये का घोटाला सामने आने के बाद इसे घोटाला पहाड़ी भी कहा जाने लगा है. सितंबर, 2010 में स्थानीय लोगों ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अवैध खनन को लेकर लिखित शिकायत की थी. मुख्यमंत्री कार्यालय के निर्देश पर खनन विभाग के एक दल ने जब यहां का दौरा किया तो भारी मात्रा में अवैध खनन की शिकायत को सही पाया. इसके बाद 18 खानों को बंद किया गया. दल ने अपनी रिपोर्ट में 18.44 लाख टन अवैध खनन की पुष्टि और 23 करोड़ रुपये जुर्माना वसूलने की सिफारिश की थी. मगर इस कार्रवाई के बाद बाद में वही हुआ जो यहां सालों से चलता आ रहा है. सीकर के खनन इंजीनियर द्वारा वसूली किए बिना ही सभी 18 खानों को दुबारा खनन करने की अनुमति दे दी गई और खनन आज भी धड़ल्ले से जारी है. नीम का थाना नगर पालिका के चेयरमेन केशव अग्रवाल बताते हैं, ‘इस धंधे के गैरकानूनी तौर-तरीके पुलिस, अधिकारियों और राजनेताओं की मिलीभगत के बिना मुमकिन नहीं. यह तो एक पहाड़ी पर हुए अवैध खनन का मामला है. यहां से पूरे इलाके में जारी लूट की छूट का अनुमान लगाया जा सकता है.’

यहां खनन माफिया के लिए खनन का एक मतलब है जितनी खुदाई उसी अनुपात में पानी का दोहन भी. इसके लिए नदी-नालों और बांधों को भी नहीं बख्शा गया है. सुप्रीम कोर्ट और राजस्थान अप्रधान खनिज (छोटे खनिज) अधिनियम,1986 के अनुसार जल भराव क्षेत्रों में खनन नहीं हो सकता. मगर यहां के रेला बांध भराव क्षेत्र में 16 खानों से खनन का मामला उजागर हुआ है. इस मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा कलेक्टर धर्मेंद्र भटनागर और पूर्व कलेक्टर जीएल गुप्ता सहित कई अधिकारियों को नोटिस भेजा गया है. दूसरी तरफ ऐसे मामलों से बेपरवाह खनन माफिया क्रशिंग मशीनों का रास्ता बनाने के लिए कई नदियों का रास्ता भी रोक रहा है. यहां कासावती एकमात्र ऐसी नदी है जिसमें लगातार पानी बहता था. मगर माफिया ने अपने कारोबार के लिए नदी का रास्ता भी रोक दिया है. उसने खनन क्षेत्रों से निकलने वाले भारी-भरकम पत्थरों से नदी को पाट दिया है. इससे बीते छह महीने में कासावती का पानी तो रुका ही, नदी पर बने रायपुर बांध के लिए पानी की आवक भी ठप पड़ गई है. इसी क्रम में पाटन के डाबरा नदी के आस-पास फैले बजरी फिल्टर प्लांटों पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा आपत्ति जताए जाने के बावजूद प्लांटों से चौबीसों घंटे बजरी साफ की जा रही है. इससे कई गांवों में ट्यूबवेलों के पानी से बारूद की बदबू आना आम बात हो गई है. इसी के समानांतर धरती का सीना छलनी करने वाली बोरिंग मशीनों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है. 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान की सभी बोरिंग मशीनों का रजिस्ट्रेशन करने का आदेश दिया था. मगर आरटीआई से मिली सूचनाएं बताती हैं कि सीकर जिले में एक भी बोरिंग मशीन का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है. जाहिर है खनन के इस कारोबार में प्रतिदिन लाखों लीटर पानी को भी अवैध तौर पर ही उलीचा जा रहा है.

यहां पत्थरों से सोना बनाने के खेल में पर्यावरण के कई नियमों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मापदंडों के मुताबिक आबादी से 1,500 मीटर और स्कूलों से 500 मीटर की सीमा में कोई भी विस्फोट नहीं किया जा सकता. मगर यहां आबादी और स्कूलों से बामुश्किल 100 मीटर के दायरे में ही धमाका कर दिया जाता है. इन धमाकों से कई घर धसकते हैं तो कई पत्थर स्कूल की दीवारों से टकरा जाते हैं. कुठियाला गांव में खनन माफिया की धमक का खौफ कुछ ऐसा है कि यहां का स्कूल खाली हो चुका है. फिलहाल इस स्कूल में माफिया का कार्यालय खुला है. वहीं रामल्यास गांव में स्कूल के हेडमास्टर ब्रजमोहन बताते हैं कि धमाकों से कोई न कोई कमरा चटकता ही रहता है. बच्चे जिस छत के नीचे पढ़ने आते हैं उसकी बार-बार मरम्मत के बाद भी हालत इतनी जर्जर है कि पता नहीं यह कब गिर जाए.

सवाल है कि धमाकों में काम आने वाला बारूद आता कहां से है. आरटीआई के तहत मिली जानकारी में भारत सरकार के पेट्रोलियम एवं विस्फोटक सुरक्षा संगठन ने बताया कि उसने सीकर जिले में सिर्फ पांच लोगों को प्रतिदिन 70 से 250 किलोग्राम तक विस्फोट करने का लाइसेंस दिया है. इलाके के लोग बताते हैं कि यहां हर दिन तकरीबन 100  से 150 धमाके होते हैं और एक धमाके में कम से कम 120 किलो बारूद की जरूरत होती है. इस हिसाब से हर दिन यहां कम से कम 12,000 किलो बारूद का इस्तेमाल हो रहा है. सीधा मतलब है कि गैरकानूनी तरीके से यहां की खानों में प्रतिदिन कई क्विंटल विस्फोटक का प्रयोग किया जाता है. यहां अवैध विस्फोटक को कई बार पुलिस ने जब्त भी किया है लेकिन ज्यादातर मामलों में खानापूर्ति के बाद मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है. जबकि विस्फोटक अधिनियम, 1908 में जीवन को खतरे में डालने या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले विस्फोटक को रखने पर दस वर्ष के कठोर कारावास का प्रावधान है. दो साल पहले स्थानीय लोगों की मुहिम पर उच्च कोटि के विस्फोटक से भरा एक ट्रक पाटन पुलिस चौकी के पास पकड़ा गया था. मगर सिविल न्यायाधीश ने ड्राइवर को मात्र एक हजार के जुर्माने पर छोड़ दिया. हालांकि न्यायाधीश ने पाटन थानाधिकारी को विस्फोटक नष्ट करने का भी आदेश दिया था, लेकिन आरटीआई से मिली सूचना से पता चला है कि बाद में पुलिस ने यह विस्फोटक भी ट्रक के मालिक को ही सौंप दिया.

सवाल यह भी है कि इन पहाडि़यों से निकला माल ट्रकों के जरिए अपनी मंजिल तक पहुंचता कैसे है. डाबला पहाड़ी इलाके के किसान मालीराम बताते हैं कि उनके गांव में हर दिन 40 ट्रकों की आवाजाही होती है. कई व्यापारी बताते हैं कि यह माल पड़ोसी राज्य हरियाणा की सीमा से बाहर पहुंचता है. पाटन से सटे हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जिले की दूरी सिर्फ आठ किलोमीटर है और धूल उड़ाते ट्रकों का रास्ता भी पाटन पुलिस थाने से होते हुए सीधा हरियाणा की ओर जाता है. ऐसे में पुलिस के कुछ नहीं कर पाने से उसकी भूमिका संदिग्ध बन जाती है. मगर सीकर कलेक्टर धर्मेंद्र भटनागर कहते हैं, ‘हर चौकी पर सख्ती से जांच की जाती है.’ उनका तर्क है कि यहां पर्याप्त चौकियां नहीं हैं और अगर कोई ट्रक किसी तरह हरियाणा की सीमा में चला जाए तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता.

विडंबना यह है कि खनन की अवैध गतिविधियों को रोक पाने में नाकारा साबित हुए कई विभागों के पास उससे जुड़ी बुनियादी सूचनाएं तक नहीं. जैसे कि आरटीआई के तहत तहसीलदार, विद्युत विभाग और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जब नीम का थाना में कुल स्टोन क्रशरों की संख्या पूछी गई तो सभी ने अलग-अलग आंकड़ा दिया. तहसीलदार ने 52, विद्युत विभाग ने 173 और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 34 स्टोन क्रशर बताए. वहीं कुछ मामलों में सूचनाएं होने के बाद भी प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की गई. हालांकि भूमि राजस्व अधिनियम, 1991 की धारा 6 के मुताबिक अगर कोई अधिकारी या कर्मचारी सरकारी जमीन पर अतिक्रमण की सूचना होने के बावजूद कार्रवाई नहीं करता तो वह भी सजा का पात्र है. मगर आरटीआई से मिली सूचनाएं बताती हैं कि राजस्व विभाग के अधिकारियों को इस इलाके के नदी-नालों सहित चरागाहों की सरकारी जमीनों पर खनन माफिया द्वारा किए गए कब्जों की जानकारी है. मगर अफसरशाही पर खनन माफिया इस कदर भारी है कि किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.

‘आपने अपना शैतान खुद गढ़ा है’

‘चाणक्य’ और ‘पिंजर’ बनाने वाले डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का नया धारावाहिक ‘उपनिषद गंगा’ पिछले इतवार से दूरदर्शन पर शुरू हुआ है. उनकी फ़िल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ भी इसी साल रिलीज होने वाली है. डॉ. द्विवेदी से मेरी मुलाकात उनके घर में होती है, जिसमें विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध की अनेक मूर्तियां हैं और उनसे भी ज्यादा सकारात्मकता. उनके साथ समय बिताना भारत के अतीत की छांह में बैठने जैसा है, किसी और समय में पहुंचने जैसा है जिसमें आपको लगेगा कि आप किसी शांत जंगल में एक तालाब के किनारे बैठे हैं और बाहर जो शोर हो रहा है, वह किसी और समय की बात है. वे ऐसे गिने-चुने व्यक्तियों में से हैं जो अपने काम की बजाय वेदांत पर बात करते हुए ज्यादा खुश दिखते हैं. वे बताते हैं कि कैसे अपने सर्जक होने का अहंकार करने के लिए हम सब बहुत मामूली हैं, कैसे हर चीज का अतीत निश्चित है और इसलिए अतीत से बचने या उसे हिकारत से देखने की बजाय उसे समझने की कोशिश ज्यादा काम आ सकती है. यहां उसी बातचीत के कुछ अंश हैं.

आपका अधिकांश काम इतिहास पर है. इतिहास में सबसे ज़्यादा क्या लुभाता है या कहीं कोई ऐसी लालसा है कि मैं इस बहाने इतिहास में जी लूं.

हजारों साल पहले किसी ऋषि ने भी यही कहा कि हम उससे मिलने की शर्त पर ही अलग हुए हैं. अब हर कोई किसी से मिलना चाह रहा है. किसी का आनन्द स्त्री या पुरुष तक आकर ही रुक गया और कोई है जो ‘उस’से मिलने का इंतज़ार कर रहा है.

ये सच है कि मैं किसी और समय में जी लेता हूं. यह एक्वायर्ड है. लम्बे समय के अभ्यास और अनुभव के बाद ये हुआ कि मैं कहता हूं लोगों से कि मेरे लिए किसी युग में जाकर उस युग के पात्रों के साथ रहना और उन्हें देख पाना आसान है. वो हो सकता है कि मेरा अपना भ्रम भी हो. क्योंकि कल्पना और भ्रम के बीच एक झीनी सी रेखा होती है. लेकिन कल्पना के दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसका कारण है कि मैंने भारत के अतीत को लेकर जिसे डेवलपमेंट ऑफ मैटीरियल कल्चर, सभ्यता का विकास कहते हैं जिसमें स्थापत्य है, कला है, वेशभूषा है, समाज है. समाज का सामाजिक इतिहास कि वह किस तरह से विकसित हो रहा है, उसका लम्बे समय तक अध्ययन किया है.

एक बार किसी बड़े प्रसिद्ध निर्माता ने पूछा था मुझसे कि आपको क्या लगता है कि आपको पकड़ना हो तो कितना समय लगेगा इन सब चीजों में? मैंने कहा पन्द्रह वर्ष. इसीलिए कि मैं पन्द्रह वर्ष लगातार यह पढ़ता रहा और अब जब वह पढ़ना शुरू करेगा, मैं फिर आगे और कुछ पढ़ लूंगा. (हँसते हैं) यह आत्मश्लाघा है, आत्मप्रशंसा है. इससे बचते हुए मैं यह कहूंगा कि भारत का इतिहास, यह विश्व के इतिहास के बारे में मैं नहीं कहता हूं, मुझे मोहनजोदड़ो, बुद्ध का काल, मौर्यकाल की गलियाँ, गुप्तकाल की गलियाँ, ये बुलाती हैं कि आओ यहाँ और देखो. बीच में कभी जब एक दो बार मुझे एड फ़िल्म्स बनाने को कहा गया, तब भी मैं उन एड फ़िल्म्स को लेकर किसी युग में चला गया. हालांकि मैंने बनाई नहीं. पर एक ज़बर्दस्त आकर्षण है. किसी पुरातात्विक स्मारक पर जाकर मुझे अति प्रसन्नता होती है. जैसे मैं नालन्दा गया था तो मैं अकेला था. मैं 1988 या 1989 में गया था नालन्दा. गर्मी का महीना था, चिलचिलाती धूप. उस समय न स्मारक पर कोई सुरक्षा थी. मैं अकेला व्यक्ति था और मेरे हाथ में एक कॉपी थी जिस पर मैं प्लान बना रहा था. एक स्मारक को देखकर मुझे जितना आनन्द आता है, किसी दूसरे पर्यटन स्थल को देखकर नहीं आता है. कहीं न कहीं एक आकर्षण है या कहूं कि वह मेरी चेतना का हिस्सा है. शर्ट पैंट या गाड़ियों से मुझे कोई परहेज नहीं. मैं इसी युग में पैदा हुआ हूं. परंतु बैलगाड़ी और धोती और लालटेन और दिया, यह मुझको ज़्यादा आकर्षित करता है. मैंने गाँव तब जाना बन्द कर दिया, जब गाँव में बिजली आ गई. इसलिए कि मेरे लिए गाँव और शहर का अंतर ख़त्म हो गया. दूसरा एक मेरा मानना है कि जो कुछ भी आप करते हैं, वह सब अतीत के गर्भ में जा रहा है. भूतकाल निश्चित है आपका इसलिए उससे आप बच नहीं पाएँगे. और अगर आप भूत को समझने का प्रयत्न करें तो शायद आप वर्तमान को और बेहतर तरीके से देख पाएँगे. पर हम लोग हमेशा अतीत के प्रति एक हिकारत का भाव रखते हैं. खासकर हमारे भारत में. उसके कई कारण हैं- ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक कारण हैं. परंतु शायद इतिहास लिखा ही इसलिए जाता है और लगातार पीढ़ियों को वह याद दिलाया जाता है कि इतिहास को जान लोगे तो भविष्य भी बेहतर हो सकता है.

लेकिन इतिहास को कैसे पढ़ा जाए? क्योंकि इतिहास के भी कई रूप हैं. कोई नया विद्यार्थी किन चीजों को माने, कहाँ शंका करे?

क्रॉस रेफरेंस के बिना तो संभव भी नहीं है. और हमारे यहां तो अजीब स्थिति है. क्योंकि हमारे यहां इतिहास मौखिक परंपरा में ही जीवित रहा. लिखने की हमारे यहां परम्परा ही नहीं रही है. उसका कारण भी मैं देख पा रहा हूं. जो आत्मा की अमरता का संदेश देने वाला, जो मानता है कि सत्य के अलावा सब चीजें नित्य बदलती जाएँगी, देश काल समाज परिस्थिति, जो कुछ भी आप देख रहे हैं, जो आज है, हर क्षण बदल रहा है, बुद्ध भी वही कहते हैं, वेदांत भी. आत्मा के अलावा और किसी चीज को स्थिर माना ही नहीं गया है इसलिए हमारे यहाँ इसकी बिल्कुल चिंता नहीं की गई कि इतिहास को बिल्कुल सँभालकर रखा जाए और अक्षरों में लिख दिया जाए. और यह अमिट है, यह भी प्रयत्न नहीं हुआ. इतिहास की जो हमारी चेतना है, यह भी पश्चिम की चेतना है जो शब्दों में लिखी जाती है.

किसी एक घटना को लेकर अलग-अलग व्यक्तियों का अलग दृष्टिकोण होगा लेकिन आप उन सबको देखेंगे तो कोई ऐसा सूत्र मिल जाएगा. कोई एक धागा मिल जाएगा जो सभी को जोड़ रहा होगा. तो सच्चाई पर पहुँचना बहुत कठिन काम नहीं है. एक और बात, इतिहास का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी व्यक्ति के जन्म और मृत्यु की तारीखें और उसके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग. इतिहास तो है ही इंटरप्रेटेशन. कि ऐसा क्यों हुआ, या ऐसा नहीं होता तो क्या होता. यानी प्लासी की लड़ाई की हार के कारण. सत्य सिर्फ़ इतना है कि हार गए. कौन जीता, कौन हारा, आपने देख लिया लेकिन बाद में मीमांसा होती है. और यही इतिहास को रोचक बनाता है कि ऐसा क्यों हुआ.

क्या आप मिथकों को भी इतिहास का हिस्सा मानते हैं?

मिथक भी इतिहास का हिस्सा है. इसलिए कि मिथक में भी सत्य आपको मिल जाएगा. सत्य कहीं न कहीं अपना लंगर डाले रहता है. और उसके आसपास कहानियों का आवरण आ चुका होता है. परत दर परत आवरण उतारते जाएँगे तो सच मिल जाएगा. हम दूर क्यों जाएँ. मैं तुमसे जो कह रहा हूं, तुम जब किसी और से कहोगे तो उसमें कुछ शब्द बढ़ और घट जाएँगे. यह मेरे लिए तो नित्य का अनुभव है. मैं हर दिन अपने आपको समझाता हूं कि मैंने उसी बात पर थोड़ा और मुलम्मा क्यों लगा दिया? शायद हमारे भीतर का जो रचनाकार है, वह रोज़मर्रा की बातों के साथ भी रचना करना चाहता है.

यह दिलचस्पी शुरू कब हुई? बहुत बचपन में या पढ़ाई के दौरान?

इतिहास पढ़कर मैंने यही जाना कि मेरे होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़तामेरे एक शिक्षक थे देवनाथ सिंह जो इतिहास पढ़ाते थे लेकिन मुझे लगता है कि वे एक नाटककार थे. क्योंकि जब वे कहते थे कि युद्ध हुआ तो वे युद्ध पर नहीं ठहरते थे. तलवारें टकराईं, खनखनाहट हुई, हाथी चीखे चिंघाड़े, यह सब बताते थे. शायद अपने विद्यार्थियों को इंगेज करने का उनका यह तरीका था. लेकिन उससे मुझे समझ में आया कि इतिहास विजुअली बहुत दिलचस्प हो सकता है. मुझे याद हैं पान खाते हुए देवनाथ सिंह जो इतिहास पंक्तियों तक ही सीमित नहीं रखते थे, उनके बिम्ब बनाते थे. मेरे मन में वही बिम्ब ठहर गए, इसलिए मैं इतिहास को हमेशा चित्रों में देखता हूं. और इसलिए जब मैं लिखता हूं तो मैंने इतिहास को हमेशा अपना विषय चुना, इसलिए कि आपके पास एक पुख़्ता ज़मीन है, एक पुख़्ता कहानी है और इतिहास के जो हम पात्र लेते हैं, ये वो पात्र हैं जिन्होंने युग रचा है. वे असामान्य पात्र हैं. असामान्य व्यक्ति और असामान्य परिस्थितियां ही इतिहास बनाते हैं. जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त असामान्य व्यक्ति हैं. देश खंड खंड में बंटा हुआ है, एक यूनानी आक्रांता देश पर आक्रमण करने जा रहा है. यह अभूतपूर्व परिस्थिति है और अभूतपूर्व चरित्र हैं. इसीलिए युग बदलता है. तो मुझे लगता है कि किसी भी कहानी के लिए इससे ज़्यादा मसालेदार चीज नहीं हो सकती.

अगर हम अपने आसपास भी देखें तो घूम-फिरकर हमारे अतीत की कहानियां ही हमें बार बार सुनाई जाती हैं. रामायण की कहानी को जब भी कोई कथाकार सुनाता है, हर बार वर्तमान के दृष्टांत जोड़ता है, हर बार वह और रसमय बनती जाती है. वह नित्य बढ़ती जाती है. बाबा वाल्मीकि से शुरू हुई और आसाराम बापू तक बढ़ती जा रही है. आसाराम बापू यहाँ सिर्फ़ एक नाम है. आप बनारस जाएँगे तो हर गली मोहल्ले में कोई न कोई कथाकार उसमें कुछ जोड़ता मिलेगा. तो स्कूल के दिनों से इतिहास में रुचि शुरू हुई. मेरा एक अच्छा दोस्त था अब्दुल कादिर. कई बार पीछे जाकर देखता हूं कि कहानी कहना कहाँ से मैंने शुरू किया तो अब्दुल कादिर और मैं प्राइमरी में एक बेंच पर बैठते थे. और अब्दुल कादिर दारासिंह की फिल्में बहुत देखता था. और वह आकर म्यूजिक के साथ कहानियाँ सुनाता था. ढिशुम. तलवारें चलीं तो खचखच खचखच. मैं तो ऐसे परिवार से था जहाँ फ़िल्में देखना भी बहुत अच्छा नहीं माना जाता था. साल-दो साल में एकाध फ़िल्म देखी जाती थी. लेकिन अब्दुल कादिर हमेशा बताता रहता था.

पहली फ़िल्में कौनसी थीं जिन्होंने आप पर प्रभाव डाला.

स्कूल में तो हम सबके आदर्श मनोज कुमार थे. मुझे याद है कि उनकी ‘यादगार’ देखने के लिए हम टिकट के लिए लाइन में लगे थे. और मनोज कुमार की फ़िल्म देखने के लिए घर से परमिशन मिल जाती थी क्योंकि उन्होंने वह प्रतिष्ठा पा ली थी कि अच्छी फ़िल्में बनाते हैं. फ़िल्में देखने का शौक ज़रूर रहा है लेकिन जैसे जैसे सिनेमा में आता गया, मेरी देखने की रुचि घटती गई. इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि मैं जिस तरह की सेरिब्रल फ़िल्में देखना चाहता हूं, जिनमें कोई बौद्धिक विमर्श हो, सिर्फ़ चित्र न हों. चमकीले चित्र, सुन्दर चेहरे हर किसी को अच्छे लगते हैं और अधिकतर हम टीवी या सिनेमा से उसके चेहरों के माध्यम से ही जुड़ते हैं. आइडिया कभी आपको नहीं जोड़ता. मैं आइडिया से जुड़ता हूं और जब वह नहीं होता है सिनेमा में तो सब कुछ होने के बाद भी, कितना भी विस्मयकारी और अद्भुत हो, मुझे लगता है कि उसमें आत्मा नहीं है. मैं पढ़ता ज़्यादा हूं क्योंकि उसमें आप अपने बिम्ब खुद गढ़ने के लिए स्वाधीन होते हैं.

शोध किस तरह का करते हैं आप? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूं कि आपके काम में जो प्रामाणिकता देखने को मिलती है, वह बहुत कम दिखती है.

मुझे लगता है कि आपको लाइब्रेरी तक जाना पड़ेगा और घंटों रहना पड़ेगा. और यह एक दिन का काम नहीं है, वर्षों का काम है. यह निरंतर चलता है. कई चीजें मुझे चाणक्य के निर्माण के बीस साल बाद समझ आईं कि चाणक्य के युग के निर्माण में और क्या बेहतर हो सकता था. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बहुत सारे लोगों ने बहुत सालों तक कालिदास के नाटक किए हैं. ‘आषाढ़ का एक दिन’ बहुत सारे लोगों ने किया है. मैंने उनके बहुत सारे चित्र देखे. एक दिन अचानक मैंने सोचा कि हम पश्चिम की जो फ़िल्में देख रहे हैं 84 ईस्वी या समकालीन समय की और हमारी फ़िल्में देख रहे हैं तो दोनों की सभ्यता में बड़ा अन्तर है. वे लोग सिले हुए वस्त्र पहनने लगे हैं. हम लोगों में सिले हुए वस्त्रों का उल्लेख है लेकिन हम लोग पहन नहीं रहे हैं. हम उत्तरीय और अंतरीय पर अटके हैं. बस दो कपड़े और हमारा बाकी शरीर उघड़ा है. यह कहा जा सकता है कि पश्चिम ठंडा है और हम उष्ण प्रदेश हैं. लेकिन मुझे लगता है कि सर्दी में उत्तर या मध्य भारत में आप सिर्फ़ उत्तरीय के सहारे तो नहीं रह सकते. आपको ऊनी कम्बल की ज़रूरत पड़ी होगी और लगातार उसे लपेटकर रखना भी सम्भव नहीं है, और जबकि सुंई का उल्लेख है कि बौद्ध भिक्षु अपने साथ सुंई रखते थे और सीने की कला से भी हम अनभिज्ञ नहीं थे तो हमारे निरूपण में सिले हुए वस्त्र गायब क्यों हैं?  फिर मैंने एक दिन एनएसडी के कुछ लोगों से पूछा कि बरसात के दिनों में या कश्मीर की ठंडक में कालिदास उत्तरीय पहनकर कैसे घूम सकता था? वे बोले कि इस पर हमने विचार ही नहीं किया था.

दरअसल हमने अपने शोध में शिल्पों को अपना आधार बना लिया. मन्दिरों की जो मिथुन मूर्तियां है, उनको आधार बनाया. लेकिन उसमें उल्लास उत्सव को अभिव्यक्त किया गया है, यथार्थ को नहीं. क्योंकि शिल्पकार तो शरीर का सौंदर्य दिखाता है. इसीलिए हमारे यहां आइटम गीत भी हैं. इसीलिए होता है कि नाचते हुए कभी न कभी कोई नायक शरीर के कपड़े उतार देता है या स्त्रियों को आप कम से कम कपड़ों में देखते हैं. क्योंकि शरीर का सौन्दर्य दर्शनीय है. इसलिए मन्दिरों के शिल्प में आप स्तन, नितम्ब, नाभि, कटि देख रहे हैं. उन पर आप लबादा डाल देंगे तो वह सौन्दर्य नहीं दिखेगा. वह संस्कृति का उद्देश्य है. और जब आप यथार्थ को कहना चाह रहे हैं तो आपका उद्देश्य अलग होता है. यह समझने में मुझे बीस साल लगे. अब अगर मैं मौर्यकाल करूंगा, उसमें ऋतुएं होंगी और उसमें अलग वेशभूषाएं होंगी.

नज़दीक के समय को फिर से रचने में ज़्यादा मेहनत लगती है या प्राचीन समय को?

नज़दीक के समय को. क्योंकि वह हर किसी की चेतना का हिस्सा होता है. बैलगाड़ी का स्वरूप हज़ारों साल तक नहीं बदला लेकिन कारें हर दस साल में बदल जाती हैं. मोहल्ला अस्सी में हमें 1988 से 1998 तक का समय शूट करना था और इसमें मेरी सबसे बड़ी चिंता थी कि मैं सड़कों से गाड़ियाँ कैसे हटवाऊंगा. क्योंकि उस समय में सिर्फ़ मारुति थी, इंडिका वगैरा नहीं आई थी. आखिर एक समय के बाद मैंने परेशान होकर कह दिया कि कुछ मत करो और हम घोषणा कर देंगे कि आप कहानी पर ध्यान दें, समय मेरी रुचि का विषय नहीं है. अब बनारस जैसे भीड़भाड़ वाले इलाके में आप कैसे गाड़ियों को हटाएँगे? या तो आप फिर डिजिटली हटाएँ उन्हें लेकिन फिर सवाल यह है कि इतना श्रम, इतना मेहनत क्या ज़रूरी भी है? और देखने वाले भी जानते हैं कि वे सिनेमा ही देख रहे हैं, असलियत नहीं. वरना क्या आप कभी परदे पर आग लगने पर पानी लेकर दौड़े हैं? इसीलिए मैंने अपने कला निर्देशक से कहा कि हम घोषणा कर देंगे कि हो सकता है कि आप कुछ ऐसी चीजें देख लें, जो उस समय में नहीं थी. वह गुस्से में कहने लगा कि क्यों घोषणा कर दें यार? मैंने कहा कि मेरी प्रतिष्ठा ही पीरियड को लेकर है. लोग कहेंगे कि आपको इंडिका दिखाई ही नहीं दी. वह बोला, जिसको दिखेगा, देख लेगा, घोषणा नहीं करेंगे. तो हम चिंतित थे, चाहे हमारे पास संसाधनों की कमी हो. इसीलिए जब मैं उपनिषद कर रहा था, मैंने सबसे पहले देश, काल, समाज और परिस्थिति को तिलांजलि दी. उसकी शुरुआत में ही आप देखेंगे कि हमारा उद्देश्य भौतिक संस्कृति को फिर से रचना नहीं है. हम बस विचार की बात कर रहे हैं, जो सर्वकालिक है.

उपनिषद गंगा दाराशिकोह से शुरू होता है. इसकी क्या कहानी है?उपनिषद् गंगा का एक दृश्य

उपनिषद एक विचार है. ‘उपनिषद’ का अर्थ है- आओ, मेरे पास बैठो. जब दो लोग बात करते हैं तो वह भी उपनिषद हो जाता है. उपनिषद वेदांत हैं. उन्हें कहने के लिए हम जब उस समाज के बारे में सोच रहे थे, जिसे हम दिखाएं, वह वैदिक समाज जो अपने प्रश्नों के हल ढूंढ़ रहा हो, हमने कहानी कहने के लिए वेदव्यास को भी सोचा, कृष्ण द्वैपायन को भी, लेकिन हमें लगा कि हम दाराशिकोह के साथ अन्याय करेंगे अगर उसकी कहानी देश को नहीं बताते. दाराशिकोह मुमताज महल और शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा था. बहुत बड़ा वैदिक स्कॉलर था. दाराशिकोह ने बावन उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था. वे अनुवाद किसी फ्रेंच यात्री के हाथों यूरोप पहुंचे और वहां उपनिषदों को लेकर जिज्ञासा शुरू हुई. इसलिए मेरा मानना है कि दाराशिकोह का बहुत बड़ा योगदान है, उपनिषदों को विश्व तक ले जाने में. उसी तरह, जैसे अशोक बुद्ध के विचार को दुनिया तक ले गया.

’चाणक्य’ के वक़्त से टीवी बहुत बदल गया है. वह टीआरपी का ग़ुलाम है. सास बहू और फूहड़ता को देख रहे दर्शक क्या जीवन दर्शन की बात करने वाले किसी धारावाहिक में रुचि लेंगे?

हम बिल्कुल निश्चिंत थे. हमें पता था कि हम ऐसी किसी चीज पर काम नहीं कर रहे हैं जो रातों रात लोकप्रिय हो जाए. जिस देश ने हज़ारों सालों से उपनिषदों को हाथों हाथ नहीं लिया, वह एक टीवी सीरियल से उपनिषद को क्या हाथों हाथ लेगा? कितने लोग भौतिकविद होते हैं, गुरुत्वाकर्षण कितने लोग खोजते हैं? खोज करने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं और पूरी मनुष्यता उससे लाभ पाती है. आज जहाज में उड़ने वाले आदमी को मालूम नहीं है कि एक न्यूटन या एक एडिसन या ग्राहम बैल न हुआ होता तो हमारा जीवन कैसा होता. हम नहीं जानते कि उन्होंने कैसे किया लेकिन हम उन सब चीजों का उपभोग कर रहे हैं. उसी तरह से विचार पर कुछ ही लोग काम करते हैं. बस हम चाहते थे कि वह प्रवाह बना रहे. मेरा मकसद बस यही था कि सौ करोड़ की आबादी में नई पीढ़ी के दस लोग भी इस ज्ञान को आगे ले जाने के लिए तैयार हो जाएं तो काफ़ी है. हम विचार के अलावा कुछ नहीं बेच रहे. जो प्रायोजक हैं, वे तो बहाना हैं. बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि हमने किसी चैनल के लिए प्रोग्रामिंग नहीं की. हमारी प्रोग्रामिंग भविष्य के भारत के लिए है. कोई यह न कहे कि आज़ादी के बाद के साठ सालों में किसी ने उपनिषदों को नई पीढ़ी तक उनके माध्यम में पहुँचाने की कोशिश नहीं की. हो सकता है कि इसे पूरी तरह नकार दिया जाए, बकवास कह दिया जाए, ऐसा कहा जाए कि ये अतीतजीवी, मूर्ख, पुरातनपंथी लोग अभी यक इसमें जीवित हैं. लेकिन तब आपकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाएगी कि सही चित्र क्या है, वह आप आगे ले जाएं.

उपनिषदों के साथ इतना वक़्त गुज़ारते हुए आपके जीवन में क्या बदला?

केके रैना का उदाहरण देता हूं जिन्होंने इसमें काम किया है. उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि मैं कभी नहीं मानता था कि कला का कोई माध्यम व्यक्ति का जीवन बदल सकता है लेकिन उम्र के इस मोड़ पर, उपनिषद करते हुए मुझे लगा कि मैं ग़लत था. उन्होंने कहा कि मैं बहुत अशांत था, पीड़ा से भरा हुआ था और बहुत से प्रश्न थे, जिनसे मैं पूरी जिन्दगी लड़ता रहा था. अचानक उन्हें लगा कि उनके उत्तर कितने आसान थे लेकिन किसी ने उन्हें सीधे तरीके से बताए नहीं थे. मेरे साथ भी यही हुआ कि खुद से बहुत से द्वन्द्व कम हुए. ऐसा तो नहीं कहूंगा कि मैं सर्वज्ञानी हो गया हूं लेकिन जीवन आसान हुआ. एक कहानी मैंने तुलसीदास के माध्यम से कही है. तुलसीदास का चरित्र पढ़कर लिखकर यह समझ में आया कि तुम आखिर हो कौन? जिस आदमी का काम भारतीय जनमानस में चार सौ साल से है, उसी को समाज ने इतना दुतकारा तो मैं अहंकार करने वाला कौन हूं?

बहुत सारे लोग आपको इतना दक्षिणपंथी मानते हैं कि पिंजर को भी उसी चश्मे से देखते हैं, जिससे गदर को देखते हैं. आपके कैसे अनुभव रहे हैं?

हाँ, मैं जिस दिन से फ़िल्मों में आया, बिना मुझे मिले, बिना मुझे देखे लोग कहने लगे कि यह आरएसएस वाला है. यह पूर्वाग्रह है. हम बहुत चीजों का निराकरण बहुत जल्दी करना चाहते हैं, सामान्यीकरण करना चाहते हैं. पहले मैं थोड़ा दुखी भी होता था कि मुझे आरएसएस वाला क्यों कहते हैं? अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता. लगता है कि क्या आरएसएस वाले समाज का हिस्सा नहीं हैं? वह अच्छा हो या बुरा, आपके समाज का हिस्सा है. मैं आपको इसलिए आरएसएस वाला लगता हूं क्योंकि मैं भारत की बात करता हूं. लेकिन फिर तो हममें से अधिकतर लोग आरएसएस वाले हैं. मैं तुमसे तीन सवाल करूंगा तो तुम भी दो मिनट में आरएसएस वाले हो जाओगे. और मुझसे बड़े तथाकथित भाजपाई फ़िल्मों में हैं, उनके लिए मैंने कभी एक भी ऐसा शब्द नहीं देखा. कभी सुना है, शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ किसी को? क्योंकि हर किसी को ऐसा आदमी चाहिए जिसका उसे लगता है कि उसमें जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है. आप मेरा संघर्ष नहीं देखते. लोग आसानी से कहते हैं कि उसे क्या दिक्कत है यार, वो बीजेपी वालों को कहेगा, उसे पैसा मिल जाएगा. वे अनजान हैं. उस आदमी के लिए कह रहे हैं जिसे एक सीरियल से दूसरे के बीच में बीस साल लगे. वे वस्तुस्थिति नहीं देखते हैं. मैंने दोनों धारावाहिक तब बनाए, जब कांग्रेस सरकार थी. जब भाजपा की सरकार थी, देखिए कि मैं क्या कर रहा था. लोग ऐसे भ्रम इसलिए फैलाते हैं क्योंकि उनके भीतर हिंसा होती है. आपने अपना शैतान खुद गढ़ा है. मुझे उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

आप खुद को लेफ्ट, राइट या सेंटर के सांचों में से किसी में पाते हैं?

जिनकी मजबूरियां होती होंगी, वे इनमें रहते होंगे. मैं तो उस भारतीय विचार को मानने वाला हूं जिसमें मेरे सिवा कुछ है ही नहीं. आप मतभेद क्यों देखते हैं, यही विचार तो हम ले जा रहे हैं. दूसरा, तुमने पूछा न कि इतिहास का मुझे क्या फ़ायदा हुआ. यही हुआ कि मैंने जाना कि मेरे होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता. और ऐसे में जब आप मान लेते हो कि आपका विचार श्रेष्ठ है तो मुझे आप पर दया आने लगती है. समग्रता से बहुत कम लोग देख पाते हैं. कार्ल मार्क्स और बुद्ध जैसे कितने लोग हैं? बुद्ध स्वयं कहते हैं कि जब आप किसी विचार से इतने जुड़ जाते हैं कि उससे अलग कुछ सोच नहीं पाते, तब तो आपसे पराधीन व्यक्ति कोई नहीं है. मैं हमेशा कहता हूं लोगों से कि आप भी इस लेफ्ट राइट सेंटर के चक्कर से मुक्त होंगे एक दिन, बस थोड़ा ज़्यादा समय लगेगा.

आपका सारा काम साहित्य के एडेप्टेशन का ही है. क्या मौलिक कुछ करना नहीं चाहते?

मैं आसपास की कहानियां लिख सकता हूं, लेकिन लिखना नहीं चाहता. मैं कुछ बड़ा बदलने वाली कहानियां कहना चाहता हूं. एक बार मेरे एक शिक्षक ने कहा था कि तुम जिस विधा में लिखते हो, वह बहुत लम्बी है. संगीत सीखो, कविता लिखो, उससे तुम सम्पूर्ण कलाकार भी बन जाओगे. लेकिन मुझे लगा कि यह मेरे स्वभाव के विरोध में होगा.

जैसा आप कहते रहे हैं कि हम सब एक शाश्वत चेतना का हिस्सा हैं और पुरानी कहानियों को नए दृष्टांत जोड़कर दोहरा रहे हैं. ऐसे में मौलिकता क्या है?

मुझे लगता है कि बात तो सब वही कह रहे हैं. मैं गीत सुनता हूं तो हतप्रभ रह जाता हूं. ‘मैं तुमसे नहीं मिल पा रहा हूं’ के अलावा कोई और बात कहने वाला गीत है तो मुझे बता दो. और इसी को किस किस तरह से अभिव्यक्त किया जा रहा है. हजारों साल पहले किसी ऋषि ने भी यही कहा कि हम उससे मिलने की शर्त पर ही अलग हुए हैं. अब हर कोई किसी से मिलना चाह रहा है. किसी का आनन्द स्त्री या पुरुष तक आकर ही रुक गया और कोई है जो ‘उस’से मिलने का इंतज़ार कर रहा है. लेकिन हमारी पूरी रचना इस मिलन की प्यास पर ही हो रही है. हम उस एक ही कहानी की ओर बढ़ रहे हैं. मूल में वही एक प्रश्न और तनाव है, फिर चाहे आप अनुराग कश्यप की ‘गुलाल’ ले लो या कोई प्रेमकहानी.

कौनसे समकालीन फ़िल्मकारों का काम आपको पसंद है?

मैं विचार से प्रभावित होता हूं. वह विचार किसी का भी हो सकता है. ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के बाद मैंने राजकुमार हीरानी को फ़ोन किया और कहा कि तुम्हें पराजित करने के लिए पता नहीं कौनसा तीर निकालना पड़ेगा गुरू, लेकिन निकालेंगे. वह क्राफ़्ट की दृष्टि से ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ से नीचे थी लेकिन विचार की दृष्टि से सबसे ऊपर थी. ‘ओमकारा’ देखने के बाद मैंने विशाल से कहा कि आपने क्राफ़्ट में पैमाना थोड़ा और ऊपर कर दिया है हमारे लिए, लेकिन लगाएंगे छलांग. ये वो चुनौतियां हैं जो अच्छी लगती हैं, उत्साह जागता है.

'लेडीज मैन?'

भोपाल से भाजपा विधायक ध्रुव नारायण सिंह के फ़ोन की कालर ट्यून सुख के सब साथी, दुख में न कोय‘, उनकी वर्तमान स्थिति पर बिल्कुल मुफीद बैठती है. बीते पखवाड़े शेहला मसूद हत्याकांड से जुड़े सनसनीखेज खुलासों के बाद भोपाल की सड़कों से रातों-रात उनके पोस्टर और होर्डिंग उतरवा लिए गए. राजधानी के लोकप्रिय युवा नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले मध्यप्रदेश टूरिस्म डेवलपमेंट कारपोरशन के पूर्व अध्यक्ष सिंह के पोस्टरों से राजधानी के गली-मोहल्ले हमेशा पटे रहते थे. जानकारों का मानना है कि ऐसा करके प्रदेश भाजपा ने सिंह से दूरी बनाये रखने के अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं. प्रदेश भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की उम्मीद लगा रहे सिंह का राजनीतिक करियर अब लगभग समाप्त हो चुका है. पार्टी से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, हत्याकांड से जुड़े खुलासों के बाद जिस तरह से उनका नाम कई महिलाओं के साथ जोड़ा जा रहा है, उससे पार्टी की छवि को काफ़ी नुकसान हो रहा है. ध्रुव को इसके लम्बे राजनीतिक दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे क्योंकि पार्टी किसी एक नेता के लिए अपनी राजनीतिक संभावनाओं का बलिदान नहीं करने वाली.

ध्रुव नारायण सिंह की जाहिदा परवेज़ से पुरानी मित्रता थी और उन्होंने ही जाहिदा को बिना ज़रूरी डिग्रियों के मध्यप्रदेश टूरिस्म में रजिस्टर्ड आर्किटेक्ट के तौर पर शामिल भी करवाया था

बाघ बचाओ अभियान के तहत आयोजित एक प्रदर्शन में शेहला मसूद (दायें)हाल ही में सीबीआई ने राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित शेहला मसूद हत्याकांड से जुड़े अहम खुलासे किये हैं. जांच एजेंसी के अनुसार भोपाल के एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार की बहू जाहिदा परवेज ने अपनी महिला सेक्रेटरी के साथ मिलकर, प्रेम और व्यापार, दोनों की अपनी प्रतिद्वंद्वी शेहला मसूद का भाड़े के हत्यारों द्वारा क़त्ल करवा दिया. सीबीआई का कहना है कि 36 वर्षीय जाहिदा को शेहला मसूद की ध्रुव नारायण सिंह से बढ़ती नजदीकियां पसंद नहीं थीं. मध्यप्रदेश टूरि्ज्म से मिलने वाले तमाम ठेकों में शेहला का बढता दखल भी जाहिदा को रास नहीं आ रहा था. ध्रुव नारायण सिंह की जाहिदा परवेज़ से पुरानी मित्रता थी और उन्होंने ही जाहिदा को बिना ज़रूरी डिग्रियों के मध्यप्रदेश टूरिस्म में रजिस्टर्ड आर्किटेक्ट के तौर पर शामिल भी करवाया था. सूत्रों के अनुसार जब शेहला ने जाहिदा को मिलने वाले ठेकों से जुड़ी जानकारियां सूचना के अधिकार के तहत मांगनी शुरू कर दीं तो जाहिदा के काम में तमाम अड़चनें आने लगीं. हालांकि इस मामले में सीबीआई  ने अभी तक ध्रुव नारायण सिंह को गिरफ्तार नहीं किया है पर उन्हें तलब कर उनसे सघन पूछताछ की जा रही है. पिछले दिनों दिल्ली में उनका पोलिग्राफी टेस्ट भी हो चुका है. सीबीआई अधिकारियों का कहना है कि मामले की तहकीकात जारी है और फिलहाल ध्रुव को क्लीन चिट नहीं दी गई है.

शेहला मसूद हत्याकांड के केंद्र में उलझे ध्रुव नारायण सिंह मध्यप्रदेश के प्रभावशाली और अमीर राजनीतिक परिवार से जुड़े हैं. ध्रुव के पिता गोविन्द नारायण सिंह मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनके दादा अवधेश प्रताप सिंह विंध्यप्रदेश के पहले प्रधानमंत्री थे. पर अपनी खानदानी कांग्रेसी पृष्ठभूमि से इतर ध्रुव का राजनीतिक झुकाव भाजपा की तरफ रहा. उनके एक पुराने मित्र तहलका से बातचीत में कहते हैं, ध्रुव को राजनाथ सिंह का वरदहस्त प्राप्त था. वही ध्रुव को राजनीति में लेकर आए. यों तो पार्टी में उनके खिलाफ एक मजबूत लॉबी हमेशा से काम करती रही पर अब उनके प्रतिद्वंदियों को उनके खिलाफ एक मज़बूत आधार मिल गया है. आखिर राजधानी की मध्य भोपालसीट से कई लोग टिकिट पाना चाहते थे. फिर इतनी कम उम्र में उन्हें एमपीटीडीसी के अध्यक्ष का जो पद मिला था, उसके लिए भी बहुत मारा-मारी थी. पर अपनी साफ़-सुथरी छवि के लिए पहचाने जाते रहे ध्रुव नारायण सिंह का लेडीज मैनमें हुआ यह रूपांतरण त्वरित नहीं है. पिछले 2 दशकों से ध्रुव को करीब से जानने वाले उनके एक मित्र बताते है, उन्होंने एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम विवाह किया और पिछले 25 सालों में अपनी पत्नी के सिवा कभी किसी दूसरी महिला को नहीं देखा. पर पिछले 3 -4 सालों में जैसे ही वे रियल-एस्टेट के धंधे में आए, तब से उनकी संगत में कुछ नए लोग जुड़े. ये लोग ज़मीनों की संदिग्ध खरीद-फरोक्त के साथ-साथ ठेकों से जुड़े काम-काज के लिए आने वाली तमाम महिलाओं से मित्रता बढ़ाने वाले लोग थे. ध्रुव को भी पता था कि ये ठीक लोग नहीं है पर उन्होंने उनसे मेल-जोल जारी रखा और इस भयानक हत्याकांड में बिना-वजह उलझ गए.

‘क्या सर सर लगा रखा है? मुझसे बात कीजिए ना!’ : कहानी

फिल्म कहानी

निर्देशक सुजॉय घोष

कलाकार विद्या बालन, परमब्रता चट्टोपाध्याय, नवाज़ुद्दीन

एक अकेली गर्भवती औरत, अनजान शहर में अपने पति को ढूंढ़ती और वह शहर भी शोर और भीड़ से भरा कोलकाता, जो उसका नाम भी अपनी मर्ज़ी से बदल देता है जैसा ये सब महानगर हम सबके साथ करते हैं, और जो उसे यक़ीन दिलाना चाहता है कि हारकर अपने घर ज़िन्दा लौट पाना भी इस हत्यारे समय में बहुत बड़ी बात है. और इस कहानी से आप सोच रहे होंगे कि अपने पति की इकलौती तस्वीर हाथ में लेकर कोलकाता की तंग गलियों में घूमती यह औरत बहुत आँसू बहाएगी, उन यथार्थपरक फ़िल्मों की तरह, जो हमारे यहाँ फ़ेमिनिस्ट फ़िल्में बनाने का सबसे लोकप्रिय ढंग रहा है. वे फ़िल्में, जो दुनिया को आईना तो दिखाती हैं, लेकिन अपनी स्त्री को हिम्मत कभी नहीं देतीं. वे उसे डांस बार में नाचते, वेश्या बनते, कास्टिंग काउच में शरीर देकर हीरोइन बनते बार-बार दिखाते हैं क्योंकि उनमें शरीर दिखाने के बहुत मौके हैं और इस तरह एंटरटेनमेंट वैल्यू भी, और इस तरह राष्ट्रीय पुरस्कार भी. ख़ैर छोड़िए, अब तो एक राष्ट्रीय पुरस्कार हमारी विद्या बालन के पास भी है और यह राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज्यूरी के लिए निश्चित रूप से गर्व करने की बात है.

यह सच है कि कहानी के पास बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और उससे भी दो कदम आगे का प्रामाणिकता से भरा निर्देशन (और प्रोडक्शन डिजाइन) है, जिसमें आप शहर की धड़कनें सुन सकते हैं, उसे अंगडाइयां लेते देख सकते हैं, उसे डरते, उदास होते, भागते और रोते हुए. लेकिन यह भी सच है कि विद्या बालन के बिना फ़िल्म का उतना ज़िन्दा होना बहुत मुश्किल होता. वे जब इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक बड़े अफ़सर को आंखों में आंखें डालकर कहती हैं कि बेहतर होगा कि वह उसे न बताए कि उसे क्या करना चाहिए तो उनकी आंखों में मेरे साथ बहुत बुरा हुआ है वाला गुस्सा नहीं है. वे उस तरह लड़ाई लड़ती हैं जैसे हमारी फ़िल्मों में अब तक अक्सर हीरो ही लड़ा करते हैं. वे पुरुष को अपना दुश्मन नहीं मानती लेकिन यह भी नहीं कि उसके प्यार और सहारे के बिना यह कहकर चलने से इनकार कर दें कि दुनिया बहुत जालिम है. कभी-कभी इम्तियाज अली की फ़िल्में अपनी स्त्रियों को इतनी आज़ादी देती हैं या शायद सिर्फ़ बेफ़िक्री, और बाद में वे भी अकेले में अपनी नायिकाओं को बेचैन होने देती हैं. भले ही वह प्रेम के कारण हो, लेकिन जब वी मेट की गीत जब अकेली होकर बच्चों को पढ़ाने लगती है तब भी वह पूरा समय उदास ही है. बैकग्राउंड में आओगे जब तुम साजना की कल्पनाएँ हर बार बजनी ही हैं. लेकिन कहानी में रवींद्रनाथ टैगोर का एकला चलो रे बजता है और सिर्फ़ बैकग्राउंड में नहीं. और अच्छा यह है कि उस एकला चलो रे में कहीं भी पुरुषों के लिए गालियाँ नहीं हैं, बल्कि दुनिया के लिए प्यार है.

फिर भी अपनी ऊपरी परत में कहानी फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म होने का दावा नहीं करती. यह एक रोचक रहस्य कथा है जो आपकी साँसों को अपनी मुट्ठियों के बीच दबाए रखती है और अपने कमाल के इंटरवल सीन के अलावा भी बार-बार आपको चौंकाती है. आप फ़िल्म के दौरान शंकित हो सकते हैं कि कहीं अंत में सब गड़बड़ा न जाए, लेकिन बेफ़िक्र रहिए, यह अपनी सबसे ख़ूबसूरत अदा अंत के लिए बचाकर रखती है.

फ़िल्म की कास्टिंग बहुत अच्छी हैवह आदमी, जो मारने से पहले नमस्कार बोलता है, आपके दिमाग में देर तक बैठा रह जाना है और प्यारे परमब्रता, जो इतने शरीफ़ हैं कि लगता है कि ग़लती से पुलिस में आए गए हैं. सिनेमेटोग्राफर सेतु और एडिटर नम्रता राव थ्रिलर के लिए ज़रूरी तनाव और डर बहुत अच्छे से रचते हैं. हां, फ़िल्म कुछ दृश्यों पर थोड़ा और ठहरती तो ज़्यादा मानवीय हो सकती थी. लेकिन यह कमी नहीं है और फ़िल्म के लेखक उसे लाख संभावनाओं के बावज़ूद कहीं भी सतही ढंग से भावुक और प्रत्याशित नहीं होने देते, यह बड़ी बात है.

विद्या बालन हमारे समय का सबसे बड़ा फ़िल्मी हीरो बनकर उभरती हैं. पुरुष उनके किरदार के लिए साथी भी है लेकिन कभी-कभी सिर्फ़ सारथी भी हो सकता है और अपने क्लाइमैक्स के आवेगमयी क्षणों पर हॉल में सीटियां बजवाने के लिए उन्हें न हमारे सितारे नायकों की तरह शर्ट उतारने की ज़रूरत पड़ती है और न हमारी नायिकाओं की तरह क्लीवेज दिखाने की. उनसे प्यार होता जाता है और दिल में इतना आदर उमड़ता है कि उसकी बात फिर कभी करेंगे.

-गौरव सोलंकी 

'आप भारत के माओवादियों को बता दें कि…

नेपाल में जनयुद्ध की स्थिति क्यों बनी?

भारत में ब्रिटिश राज की व्यवस्था के समय से ही यहां की नेपाली जनता अपनी जीविका के लिए संघर्ष करती रही है. अपनी बेहतरी के लिए नेपाली जनता को ब्रिटिश शासकों से युद्ध भी करना पड़ा है. हालांकि इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली. लेकिन एक बात जरूर साफ हुई कि नेपाली जनता अपने अधिकारों के लिए युद्ध करना जानती है. जब देश में सामंती राज व्यवस्था ने लोगों को जकड़ना प्रारंभ किया तो शोषण के नए-नए स्वरूप सामने आए. राजशाही व्यवस्था में सुख भोगने वाले लोग और उनके पैरोकार नेपाल को विकास के मार्ग पर ले जाने की बात तो करते थे लेकिन उनके कथित विकास का फायदा दलालों और बुर्जुआ लोगों को पहुंचता था. वैसे नेपाल में 1949 से कम्युनिस्टों ने अपनी जड़ें जमाने की शुरुआत कर दी थी लेकिन तब के कम्युनिस्ट आंदोलन में क्रांतिकारी परिस्थितियों को आवाज देने के लिए वाजिब जगह मौजूद नहीं थी. कम्युनिस्ट आंदोलन में संशोधनवाद को पनपने का अवसर मिला तो सामंती व्यवस्था को अपना विस्तार करने में सहूलियत हुई. लेकिन जहां भी सामंती व्यवस्था रहती है वहां क्रांति की परिस्थितियां भी रहती हैं. आखिरकार राजा-महाराजा कब तक जनता को उत्पीड़ित करते रहेंगे. एक न एक दिन तो जनता उनसे जवाब मांगती ही. जनयुद्ध की शुरुआत करने से पहले हमने महसूस किया कि जनता जवाब मांगने के लिए आकुल है. बस उसे एक नेतृत्व की जरूरत थी. हमने छोटे-छोटे आधार इलाकों से युद्ध की शुरुआत करने के पहले नेपाल की भौगोलिक परिस्थिति, उसके इतिहास, सांस्कृतिक मानक, जनता की सांस्कृतिक चेतना, आर्थिक स्थितियां, वर्ग शत्रुओं की स्पष्ट पहचान के साथ-साथ सामाजिक संबंधों और युद्ध के खिलाफ सक्रिय रहने वाली ताकतों को विशेष तौर पर जानने- पहचानने तथा खंगालने का काम किया. जब हम ठोस अध्ययन के बाद नेपाल की जमीनी हकीकत से वाकिफ हुए तो हमने एक बड़े परिवर्तन के लिए युद्ध को प्रारंभ करने का फैसला किया. हालांकि युद्ध शुरू करने के पहले यह प्रचार भी सामने आता रहा कि अभी हथियारबंद संघर्ष का समय नहीं आया है लेकिन आवाम के शोषण की इंतहा को देखने के बाद हमने यह माना कि सशस्त्र संघर्ष की स्थिति निर्मित हो चुकी है. लोगों के खून को चूसने की स्थिति का भयावह रूप देखने के बाद जब हमने एक बड़े परिवर्तन के लिए युद्ध के रास्ते का चयन किया तो जनता ने हमारा साथ दिया.

जंगल से शहर का सफर पूरा करने के लिए आपने कौन-सी रणनीति बनाई थी?

देखिए…जिसे आप लोग जिसे जंगल कहते हैं मैं उसे जंगल नहीं मानता. हम लोग  हमेशा जनता के बीच ही रहते थे. मैं कभी कांठमांडू में रहता था तो कभी किसी गांव में और कभी किसी कस्बे में. हर जगह हम जनता की समस्याओं और उनकी दिक्कतों से वाकिफ होते रहते थे. वैसे यहां मैं यह बात बताना जरूरी समझता हूं कि जनयुद्ध की कार्रवाई में भाग लेने से पहले हम नेपाल की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति के रूप में मौजूद थे. हम उचित मंच से ही नेपाली जनता की बुनियादी मांगों को पूरा करना चाहते थे लेकिन नेपाल का सिस्टम इसके लिए तैयार ही नहीं था. जब हमने अवाम की आवाज को एक शक्ल देने की कोशिश की तो उन इलाकों में दमन की कार्रवाई तेज हो गई जहां हमारा आधार मजबूत था. दमन की कार्रवाइयों के खिलाफ जनता उठ खड़ी हुई और प्रतिरोध का आंदोलन तेज होने लगा. जहां तक युद्ध के लिए रणनीति अपनाने का सवाल है तो मैं आपको बता दूं कि इसके लिए विश्व की राजनीतिक परिस्थिति के साथ नेपाल की स्थानीय परिस्थिति का विशद अध्ययन किया गया. पूरी दुनिया में क्रांति और प्रति क्रांति का जो चक्र चला उसको देखने-समझने की भी पुरजोर कोशिश हुई. जनयुद्ध में शामिल होने से पहले भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के अध्ययन और विश्लेषण से यह जानने-समझने की कोशिश भी की गई कि आंदोलन के सकारात्मक और नकारात्मक अध्याय से किस तरह का सबक लिया जा सकता है. हमने पारंपरिक तौर-तरीके से की जाने वाली क्रांति के मार्ग में थोड़ा बदलाव किया और एक नया रास्ता बनाया. हमारी प्राथमिकताओं में जनता की आकांक्षा तो शामिल थी ही इसे पूरा करने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न भी हमारे लिए बहुत मायने रखता था. हमने अपने प्रयत्नों से यह साबित करने की कोशिश की कि बहुत कम समय में भी ग्रामीण क्षेत्रों में आधार कायम किया जा सकता है.

क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा में आने और सत्ता हासिल करने के साथ ही सफर का एक अध्याय पूरा हो गया है?

नहीं, ऐसा नहीं है. अभी लंबा सफर तय करना है. निश्चित तौर पर एक चुनौतीपूर्ण सफर पार करने के बाद हमने सत्ता हासिल कर ली है लेकिन पूरी दुनिया की मानव जाति के बीच जो भेदभाव, अन्याय और शोषण मौजूद है उसे खत्म करने का काम अभी बाकी है. हमारी अपनी विशिष्ट स्थितियों में नेपाली जनता ने पिछले पचास-साठ सालों में जिस तरह का संघर्ष किया है उसे सही मायनों में एक आकार देने के लिए हम संविधान सभा में नए संविधान की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं. चूंकि हमारी पार्टी के नेतृत्व में जनयुद्ध हुआ, इसलिए हमें उम्मीद है कि हम जनता की भावनाओं और नेपाल राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप नया संविधान बनाने में कामयाब हो जाएंगे.

किसी समय आप उदारवादियों को संशोधनवादी कहते थे. ऐसा क्या हुआ कि प्रचंड को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए लोकतंत्र का रास्ता अख्तियार करना पड़ा?

देखिए, विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवाद के बारे में हमारी राय यही है कि वह निरंतर गतिमान और विकसित अवस्था में रहता है. सच तो यह है कि परिस्थिति के अनुसार ही विचारधारा को विकसित भी करना पड़ता है. जब हमने आंदोलन प्रारंभ किया तब हमने देशों की परिस्थितियों का अध्ययन तो किया लेकिन उसका अंधानुकरण नहीं किया. हम अंधानुकरण के जरिए कभी आगे नहीं बढ़ सकते थे. हमें अपनी परिस्थिति के अनुसार ही आगे जाना था. हमने यह कभी नहीं कहा कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और शांति वार्ता पर हमारा विश्वास नहीं है. इन प्रक्रियाओं से यदि नेपाली जनता को फैसला करने का अधिकार मिलने जा रहा था तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था. हमने हमेशा यही कहा कि यदि जनता को फैसला करने का अधिकार मिलता है तो हम शांति वार्ता के लिए तैयार हंै. हमारी पार्टी के भीतर भी क्रांति- प्रति क्रांति सहित बहुत-से मसलों को लेकर लंबा विवाद चलता रहा. इस विवाद से हमने रणनीतियों की एक श्रृखंला विकसित की. हम बहुत ज्यादा पारंपरिक तौर-तरीकों से जनता के करीब नहीं पहुंच सकते थे, इसलिए हमने विचारधारा को आधुनिक बनाने का यत्न किया.

जहां तक क्रांतिकारी संगठनों का सवाल है तो देर-सबेर ही सही सबको मल्टीपार्टी कंपटीशन और पीस प्रोसेस का रास्ता अख्तियार करना ही होगा

क्या भारत के माओवादियों का आंदोलन पारंपरिक है अथवा उन्हें भी अपने आंदोलन के संदर्भ में किसी तरह का कोई परिवर्तन करना चाहिए?

मैं किसी भी पार्टी को ऐसा करना चाहिए, वैसा करना चाहिए जैसा उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं. किस पार्टी के क्रांतिकारी को अपने देश की जनता के लिए क्या करना चाहिए इसका फैसला करने का अधिकार तो वहां की पार्टी को ही है. इसमें किसी को हस्तक्षेप भी नहीं करना चाहिए, लेकिन फिर भी हम अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचते-समझते हैं इसलिए यह मानते हैं कि जब लक्ष्य एक हो तब विचारधारा के स्तर पर एका जरूर होना चाहिए. जनयुद्ध की शुरुआत से पहले जब मैं पीडब्ल्यूजी से जुड़ा था तब भारतीय माओवादियों से मेल-मुलाकात होती थी. इस मुलाकात के दौरान मैंने महसूस किया था कि पीडब्लूजी (पीपुल्सवार ग्रुप) और एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) के  लक्ष्य एक होने के बावजूद लड़ाई- झगड़े की स्थिति रहती थी. यह एक अच्छी स्थिति नहीं मानी जा सकती थी. मैं दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं से अक्सर कहा करता था कि विवाद खत्म होना चाहिए. इस विवाद को खत्म करने के लिए हमारी तरफ से काफी सकारात्मक प्रयास भी हुए. वास्तविकता यही है कि जब विचारधारा के स्तर पर एका हो और झगड़ा चलता रहे तो लक्ष्य तक पहुंचा नहीं जा सकता. हम नेपाल को बहुत थोड़े समय में यदि आगे ले जा सके तो उसके पीछे हमारी एका ही थी. हमने बहुत-से कम्युनिस्ट ग्रुपों को अपने साथ कर लिया था. आज हम अपने देश की परिस्थिति के मद्देनजर राजशाही का खात्मा कर नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने में कामयाब हुए हैं तो दुनिया के तमाम कम्युनिस्टों से इतना ही कह सकते हैं कि यदि हमारी विचारधारा के  स्कूल से किसी तरह की कोई सकारात्मक चीज आपके काम आती है उसे ले सकते हैं. यदि कुछ नकारात्मक है तो उसे ग्रहण करने की जरूरत नहीं है.

आपकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि दुनिया के कम्युनिस्टों को पहले एक कठोर तरह की प्रतियोगिता के लिए तैयार रहना चाहिए, और जब वे खुद को तैयार कर लें तब राजनीति में कूद जाएं.

वैसे यह सत्य है कि हमारा तौर-तरीका पूरी दुनिया के लिए एक अनुपम उदाहरण तो बन गया है. लोगों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि जो लड़ाके लंबे समय तक सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे आज वही सत्ता पर काबिज हैं. सचमुच यह चमत्कार जैसा है क्योंकि राजतंत्र का खात्मा आसान काम नहीं था. भारत में जब कभी भी राज्य की सत्ता की तरफ से किसी की हत्या होती है तब मैं यह बात जरूर कहता हूं कि दमन से कभी कोई मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता. मैं मानता हूं कि बड़ी से बड़ी और छोटी सी छोटी समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए बातचीत की जा सकती है. लेकिन बातचीत भी तभी संभव है जब राज्य की सत्ता अपने राज्य के मजदूरों और किसानों के साथ- साथ अवाम के प्रति जवाबदार और ईमानदार रहे. जब हम युद्धरत थे तब हम बातचीत के जरिए शांति की कोशिशों में भी लगे रहते थे. मेरा यह मानना है कि जो राज्यसत्ता जनता की भावनाओं को समझने में कामयाब रहती है वहां कभी दमन की स्थिति पैदा ही नहीं होती है. जहां तक क्रांतिकारी संगठनों का सवाल है तो मुझे सिर्फ इतना पता है कि देर-सबेर ही सही सबको मल्टीपार्टी कंपटीशन और पीस प्रोसेस का रास्ता अख्तियार करना होगा. मुझे लगता है कि एक न एक दिन और हो सकता है कि कुछ दिनों बाद ही शांति वार्ता की स्थिति बन जाएगी.

आप भारत के बहुत-से इलाकों में क्रांतिकारी संगठनों के प्रमुखजनों से मेल-मुलाकात करते रहे हैं. वहां आपका अनुभव कैसा रहा?

जनआंदोलन से जुड़ाव के चलते वैसे तो मैं दुनिया के बहुत-से हिस्सों में आता-जाता रहा हूं लेकिन भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के बहुत से प्रांतों में मेरा अपना ठिकाना भी रहा है. मैं एक बार छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में भी गया हूं. मैंने वहां के स्थानीय लोगों के अलावा जमीनी हकीकत को जानने-समझने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों से बातचीत की है. मैं मानता हूं कि भारत और नेपाल की भौगोलिक संरचना, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक स्थिति दुनिया के हर हिस्से से अलग है. यह विशेषता यूनिक तो है, लेकिन थोड़ी बहुत समस्या भी यहीं से उत्पन्न होती है. यदि आप राजनीतिक नजरिए से भी देखेंगे तो यह पाएंगे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में नेपालियों ने हिस्सेदारी दर्ज की है. इस तरह नेपाल के मूवमेंट को आगे बढ़ाने में भी भारत के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है. जनरल पॉलिटिकल मूवमेंट में भी हम साथ-साथ खड़े दिखाई देते हैं. जहां तक कम्युनिस्ट मूवमेंट का सवाल है तो हमारी पार्टी का गठन भी भारत के कलकत्ता में ही हुआ है. मेरा यह मानना रहा है कि देश और दुनिया की परिस्थितियों को समझने के लिहाज से दुनिया के तमाम कम्युनिस्टों को एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहना चाहिए. मैंने अपनी जरूरी मुलाकातें कभी बंद नहीं कीं.

भारत को लेकर आपका नजरिया फिलहाल तो साफ-सुथरा दिखाई देता है, फिर यह क्यों प्रचारित होता रहा है कि आप भारत के प्रति नफरत का भाव रखते हैं, भारत के प्रति जहर उगलते हैं…

यही तो दुख की बात है. मैंने कभी भारत और वहां की जनता के खिलाफ दुश्मनी की बात नहीं की. मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि भारत और नेपाल के बीच अच्छे संबंधों का होना बहुत जरूरी है. जब हम जनयुद्ध प्रारंभ करने की प्रक्रिया से गुजर रहे थे तब भी भारत के बहुत-से प्रांतों में वहां के जनवादी लीडरों, बुद्धिजीवियों आदि से मेल- मुलाकात करते थे. यदि भारत के जनवादी लीडरों और बुद्धिजीवियों से हमारा परिचय नहीं होता तो मुझे नहीं लगता कि हम इतनी आसानी से नेपाल की सत्ता के करीब पहुंचते. वैसे तो यह आसान इसलिए हो पाया क्योंकि इसके लिए नेपाली जनता ने अपना बलिदान भी दिया था. फिर भी दस साल के अल्प समय में हम जहां पर खड़े हैं उसके पीछे शहीद भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस की विचारधारा तो है ही भारतीय बुद्धिजीवियों, वहां की जनता, क्रांतिकारी लीडरों और कम्युनिस्टों का भी बड़ा योगदान है. हमने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत की बुर्जुआ पार्टियों के नेताओं से भी चर्चा की थी. बहुत सारे लोगों को जानने- समझने के बाद हम अपने देश की परिस्थिति को ध्यान में रखकर आगे बढ़े. जब मैं भूमिगत था तब मेरा अधिकांश समय भारत में ही व्यतीत होता था. मैं लगभग दस साल तक भारत के विभिन्न प्रांतों में रहा. पहले-पहल जब मैं भारत पहुंचा तब एक मनोवैज्ञानिक दबाव के चलते यह महसूस हो रहा था कि पता नहीं मैं एडजस्ट कर पाऊंगा या नहीं लेकिन भारतीय लोगों ने मुझे जिस तरह का सहयोग और प्यार दिया उसके बाद मेरी गलतफहमी दूर हो गई. मैं बंबई से लेकर पंजाब, सिलीगुड़ी जहां कहीं भी जाता  वहां लोगों का प्यार मिलता रहा. मैं अपनी पार्टी के भीतर भी इस बात को कहता हूं कि भारतीय लोगों के सहयोग के बगैर हम आगे नहीं जा सकते थे. यदि आप इतिहास को उठाकर देखेंगे तब भी यह पाएंगे कि भारतीय और नेपाली जनता साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में हमेशा आगे रही हैं. आज की तारीख में किसी निरकुंश तंत्र के खिलाफ भारतीय और नेपाली जनता को एक साथ लड़ाई लड़नी चाहिए.

हम मजदूर वर्ग की चिंता तो कर ही रहे हैं पर अब हमने अपनी चिंताओं में मध्य और उच्चवर्ग की जरूरतों को भी शामिल कर लिया है

माओवादी सरकार की स्थापना से नेपाल को क्या मिला?

फिलहाल तो कुछ नहीं मिला लेकिन राजशाही के खात्मे के बाद जो राजनीतिक बदलाव हुआ उसे मैं बड़ा और जरूरी बदलाव मानता हूं. कुछ साल पहले तक नेपाल की पहचान एक रूढ़िवादी राष्ट्र के रूप में थी लेकिन अब नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाता है. राजशाही के खात्मे के बाद नेपाल में एक और खास बात हुई है और वह कि अब इसकी संसदीय व्यवस्था में बहुत ही सुंदर ढंग की स्थानीय विविधता देखने को मिल रही है. अलग-अलग संस्कृति और बोलियों को जानने-समझने वाले लोग हैं. हम सत्ता में जरूर हैं, लेकिन अभी माओवादी बदलाव के संवेदनशील दौर से गुजर रहे हैं. फिलहाल हमारी कोशिश यही है कि नेपाली जनता की भावनाओं के अनुरूप एक ऐसे संविधान का निर्माण हो जाए जिसमें साम्राज्य और सामंतवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने की ताकत हो. शांतिवार्ता को समुचित महत्व मिले हम यह भी चाहते हैं. वैसे जब मैं प्रधानमंत्री था तब मैंने कुछ परंपरागत संस्थाओं को बदलने का प्रयास किया था. मेरे अपने इस प्रयास का विरोध हुआ तो मुझे पद भी त्यागना पड़ा. इसका अफसोस नहीं है. मैं ऐसी परंपरा को बदलने की कोशिश जारी रखूंगा ही जिसमें मनुष्य का वजूद समझने की चेष्टा नहीं की जाती.

विकास के मसले पर बेहद पिछड़े हुए राष्ट्र का दाग क्यों नहीं धुल पा रहा है.

अब देखिए, राजनीति और आर्थिक विकास में एक अंतर्सबंध तो रहता ही है. जब तक राजनीतिक स्थिरता नहीं रहती तब तक विकास के लिए सकारात्मक वातावरण भी तैयार नहीं होता और कई बार आर्थिक विकास के बगैर भी राजनीतिक स्थिरता को हासिल करना कठिन नजर आता है. नेपाल में माओवादियों की सत्ता तो स्थापित हो गई है, लेकिन राजनीतिक समाधान अभी बाकी है. एक बार समाधान मिल गया तो नेपाल विकास के रास्ते पर खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाएगा. प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है. हम प्रकृति की दी हुई नेमतों का एक अंश भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं तथा अन्य स्त्रोतों की वजह से पर्यटन का विकास बेहतर तरीके से हो सकता है. तरक्की के मसले पर अपने संसाधनों को तरजीह देने वाले दो देश भारत और चीन हमारे आजू-बाजू खड़े हैं. हम इन देशों का सहयोग भी लेना चाहेंगे.

आप किस तरह का नेपाल देखना चाहेंगे?

मैं आपको बताना चाहता हूं कि नेपाल और वहां की जनता के विकास के लिए सात प्रमुख पार्टियों के बीच दिल्ली में एक समझौता हुआ था. इस समझौते के दौरान गिरिजा प्रसाद कोइराला भी मौजूद थे, जबकि मैंने अपनी पार्टी के तरफ से दस्तखत किए थे. इस समझौते की भूमिका में हमने साफ तौर पर लिखा था कि नेपाल से वर्गीय, जातीय और क्षेत्रीय भेदभाव खत्म किया जाएगा. मेरा साफ तौर पर मानना है कि जब तक लोगों के बीच का भेदभाव खत्म नहीं होगा तब तक नेपाल तरक्की का सफर भी तय नहीं कर पाएगा. जो लोग श्रमजीवी है उन्हें उनका अधिकार तो मिलना चाहिए. सबसे बड़ी बात यह है कि प्रकृति ने जो वरदान हमें दिया है उसका बेहतर इस्तेमाल होना चाहिए. नेपाल में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी सगरमाथा है. मेरी दिली ख्वाहिश यही है कि नेपाल की सभ्यता को सगरमाथा चोटी से भी ऊंचा दर्जा मिले.

सच तो यह है कि पूरी दुनिया में माओवादी पार्टियां लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ही काम करती हैं. हम भी बेहतर लोकतंत्र के लिए संघर्षरत है

लोकतांत्रिक राजनीति में आने के बाद क्या आपको अब उन लोगों के बारे में भी नहीं सोचना है जिनके खिलाफ लड़ते रहे हैं?

हम शहरों में मजदूर वर्ग की चिंता तो कर ही रहे हैं क्योंकि इनकी बेहतरी के लिए कार्य करना सबसे ज्यादा जरूरी है. हम लगातार इस कोशिश में जुटे हुए हैं कि शहरी मजदूरों के साथ हमारी पार्टी के लोगों का संवाद लगातार बना रहे. संबंध मजबूत रहे. मगर अब हमने अपनी चिंताओं में मध्य और उच्चवर्ग की जरूरतों को भी शामिल कर लिया है. यह सही है कि जिस वर्ग की वजह से हम मौजूद है उसमें किसानों और मजदूरों की भूमिका थोड़ी ज्यादा है लेकिन अब उस वर्ग का भी ध्यान रखना होगा जो नेपाल के हितों के लिए कार्य करने का इच्छुक है.

नेपाली कांग्रेस के एक नेता रामचंद्र पौडल का यह आरोप है कि जनयुद्ध के दौरान लगभग 25 हजार लोगों की मौत हुई. इन मौतों के लिए वे सीधे-सीधे आपको जवाबदार मानते हैं. आपका क्या कहना है.

यह गलत आरोप है. पच्चीस हजार लोग तो हैं ही नहीं. विद्रोह की अवस्था में लगभग पंद्रह हजार लोगों की मौत की बात सामने आई थी और ये मौतें राज व्यवस्था की तरफ हुई थीं.

पौडल का यह भी आरोप है कि आप लोकतंत्र की बहाली का ढोंग करते हैं.

बिल्कुल गलत है. मैं उनके बारे में व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं कहना चाहूंगा लेकिन उनकी पार्टी नेपाली कांग्रेस के बारे में इतना कह सकता हूं कि उसकी  वजह से ही नेपाल में संघर्ष की स्थिति पैदा होती रही है. यह पार्टी अभी भी यह समझने को तैयार नहीं है कि नेपाली जनता की भावनाएं क्या है. नेपाली जनता किस तरह का परिवर्तन चाहती है. नेपाली कांग्रेस के नेताओं का थोड़ा-बहुत इंटरनेशनल रिलेशन है उसके जरिए ही वे चल रहे हैं. मैं आपको बता दूं कि जब हम चुनाव में हिस्सा लेने जा रहे थे तब नेपाल में नेपाली कांग्रेस की सत्ता कायम थी. चुनाव में जनता ने हमें सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का मौका दिया. यदि हम ढोंगी होते तो क्या जनता हमें अपना प्यार देती?

सर्वहारा वर्ग की हिमायत करने वाले प्रचंड के शाही महल को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है. सच्चाई क्या है?

इस आरोप को लेकर मैं किसी तरह की कोई सफाई देना नहीं चाहता था लेकिन बात उठ ही गई है तो साफ कर दूं कि जब मैं कांठमाडों में आया था तब पार्टी की तरफ से मुहैया कराए गए एक किराये के मकान में रहता था. मैं अब भी किराये के घर में ही रहता हूं. मैं लजीमपाट के जिस घर में रहता हूं उसे कानूनी अनुबंध के तहत पांच साल के लिए किराये पर लिया गया है. मेरे किराए के घर पर रहने को यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि मैंने करोड़ों रुपये का घर खरीद लिया है. राजशाही के जमाने को महत्वपूर्ण मानने वाले लोग मुझे सुविधाभोगी साबित कर अपना मकसद सिद्ध करने में लगे हुए हैं. लेकिन जनता इस बात को जानती है कि प्रचंड क्या है और क्यों है. जब मैं युद्ध क्षेत्र में डटा हुआ था तब भी मीडिया के जरिए यह प्रचारित होता था कि माओवादियों ने बेशुमार दौलत इकट्ठा कर ली है, लेकिन मैं जानता हूं कि आंदोलन को चलाने के लिए धन जुटाना, जनसहयोग लेना कितना मुश्किल था. राजनीति में बदनाम करने की भी एक नीति होती है. यह नीति जनता के बीच भ्रम पैदा करने का काम करती है, लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे क्या करना है. अभी चंद रोज पहले जब हमारी पार्टी की बैठक हुई तब मैंने स्पष्ट तौर पर यह कहा है कि मैं उस मकान में नहीं रहना चाहता हूं. आपको बता दूं कि मैं जल्द ही उस मकान को छोड़ने वाला हूं. शायद ऐसा करने से गंदे तरीके से प्रचार-प्रसार में जुटे लोगों को जवाब भी मिल जाएगा.

हम पूरी दुनिया की ताकतों को देखें तो पाएंगे कि जो लोग भी ताकतवर हैं उनके पीछे बंदूक है. दुनिया की कोई भी ताकत बंदूक के बगैर टिक नहीं सकती

अब जबकि आप सत्ता पर काबिज हैं तब सबको साथ लेकर चलने की उठापटक किस तरह से मैनेज करते हैं?

सचमुच यह एक कठिन काम है, लेकिन इस तरह के चुनौतीपूर्ण कामों से हमारा परिचय तब भी होता रहा है जब हम एक बड़े बदलाव की तैयारियों में जुटे हुए थे. काम की शुरूआत में हमारे सामने इस बात का संकट कायम था कि हम जनता के बीच अपनी निजी पहचान को किस तरह से दर्ज करें. हमारे सामने कई तरह की धाराएं थीं सो हमने दकियानूसी धाराओं के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का फैसला किया और वैचारिक तौर पर अपनी पहचान मजबूत की. वैचारिक मजबूती के बाद ही हमने पार्लियामेंट तक पहुंचने का सफर पूरा किया. यहां पहुंचने के बाद भी हम नए तरह की जटिलता झेल रहे हैं. जब हम लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे तब हमारे बारे में यह प्रचारित किया गया कि हम पीपुल्स डिक्टेटरशिप के लिए लड़ रहे हैं. इधर जब हम शांतिवार्ता की बात कर रहे हैं तो कहा जाता है कि हमारा रास्ता कुछ और है. सच तो यह है कि पूरी दुनिया में माओवादी पार्टियां लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ही काम करती हैं. हम भी बेहतर लोकतंत्र के लिए संघर्षरत हैं. आप भारत के माओवादियों और कम्युनिस्टों को यह बता सकते हैं कि नेपाल का माओवादी खुले दिल और दिमाग के साथ सभी तरह की प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के लिए तत्पर है. नेपाल का माओवादी खुले दिल और दिमाग से काम करता है.

क्या आप यह मानते हैं कि चीन की सांस्कृतिक क्रांति का जो विस्तार है उसका खासा असर नेपाल पर विशेषकर आपकी पार्टी पर हुआ है.

हम लोग जिस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं उस पर सांस्कृतिक क्रांति का असर हुआ ही है, लेकिन अभी मैं कुछ समय पहले जब चीन गया था तब वहां उलट स्थिति देखने को मिली थी.

पूरी दुनिया में यह जोर-शोर से प्रचारित है कि विचारधारा की मौत हो चुकी है तब माओवाद का भविष्य किस तरह का नजर आता है?

दुनिया की कोई भी ताकत विचारधारा को फांसी पर नहीं लटका सकती है. विचारधारा के फैलाव के लिए वैसे तो बहुत सारे लोगों की जरूरत होती है लेकिन वह एक-दो लोगों के  जरिए भी पूरी दुनिया में कब्जा जमा सकती है. मार्क्स और एंगेल्स ने अपने विचार में जिस तरह से श्रमजीवियों के महत्व को स्वीकारा उसका वर्णन सौ सालों तक होता रहा और आगे भी होता रहेगा. जो लोग विचारधारा को फांसी पर लटकाने की बात करते हैं वास्तव में वे लोग ही फांसी पर लटके हुए रहते हैं. जहां तक माओवाद के भविष्य का सवाल है तो जब तक अन्याय, अत्याचार और शोषण मौजूद है, माओवाद जिंदा है. जब तक जनता का आंदोलन चलेगा तब तक माओवाद आगे बढ़ता ही रहेगा. यहां एक सवाल यह भी है कि कम्युनिस्ट पार्टियां माओवाद को गतिमान बनाए रखने के लिए किस रूप में तैयार हंै. जो पार्टी जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने आपको विकसित करने के लिए तैयार रहेगी उस पार्टी का भविष्य कायम रहेगा. जो पार्टी समय के साथ खुद के विकास और प्रतियोगिता के लिए तैयार नहीं है वह खत्म हो जाएगी. जहां तक नेपाल के कम्युनिस्ट माओवादियों का सवाल है तो उनके ऊपर फिलहाल बहुत बड़ी जवाबदारी आ गई है. संघर्ष के बाद सत्ता मिलने से पूरी दुनिया के सामने एक दूसरे तरह का संदेश पहुंचा है. दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं. यदि हम सर्वहारा वर्ग यानी अवाम को उसका वाजिब हक दिलाने में कामयाब हो गए तो यह तय है कि हमारे  स्कूल का विचार पूरी दुनिया में फैल जाएगा.

क्या यह मान लिया जाए कि सत्ता का रास्ता अब बंदूक की नली से होकर नहीं गुजरेगा?

इस बात को लेकर काफी लंबी बहस चलती रही है. यह एक दार्शनिक किस्म की बहस है. लेकिन सच्चाई यह भी है कि जब हम पूरी दुनिया की ताकतों को देखते हैं तो पाते हैं कि जो लोग भी ताकतवर हैं उनके पीछे बंदूक है. दुनिया की कोई भी ताकत बंदूक के बगैर टिक नहीं सकती.

लाल गलियारे का हीरो

दुनिया के एकमात्र हिंदुराष्ट्र को गणतंत्र बनाने का कारनामा उनके नाम दर्ज है. भारत के प्रति उनका संदेह जगजाहिर है. जिस माओवाद को भारतीय प्रधानमंत्री देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं, वे नेपाल में उसके सर्वोच्च नेता और प्रबल पैरोकार हैं. पच्चीस साल तक अपने सर पर इनाम का बोझ लिए भूमिगत अभियान चलाने वाला गुरिल्ला नायक क्या नेपाल की बदली परिस्थितियों में भारत का मित्र, सच्चा लोकतांत्रिक और बढ़िया पड़ोसी साबित होगा? राजकुमार सोनी की विशेष रिपोर्ट

काठमांडो से दो सौ दस किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद पोखरा पहुंचने पर हमें बर्फ की चादर में लिपटी मछली की पूंछ जैसी एक विशेष पहाड़ी नजर आती है. टैक्सी चालक बताता है कि पहाड़ी का नाम ‘माछापुच्छै’ है और वहां तक पहुंचने में कम से कम चार दिन का समय लगता है. यह भी कि नेपाल की सत्ताधारी पार्टी यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के अध्यक्ष पुष्प कमल दाहाल उर्फ प्रचंड के जन्म स्थान ढिकुर पोखरी से थोड़ा पहले भी उसकी खूबसूरती को निहारा जा सकता है. ढिकुर पोखरी के रास्ते में मौत को निमंत्रण देती गहरी खाइयां हैं और बियाबान में खड़े हुए सूखे पेड़ जिन्हें देखकर समझते देर नहीं लगती कि जनयुद्ध के दौरान यहां की भौगोलिक परिस्थितियों ने कैसे प्रचंड के लड़ाकों का साथ दिया होगा.

ढिकुर पोखरी में हम गांव के भीतर ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों का चक्कर लगाने के बाद एक ऐसे स्कूल में पहुंचते हैं जहां माओवादी नेताओं की बैठक चल रही है. सघन जांच-पड़ताल का दौर चलता है. जब नेपाल में उनकी अपनी सत्ता है तो फिर जांच- पड़ताल का क्या मतलब? एक माओवादी नेता गिरिधारी भंडारी बताते हैं कि लोगों से मेल-मुलाकात के दौरान ही उनके नेता प्रचंड पर हमले की कोशिश हो चुकी है.

इसके दो दिन पहले ही हमारी मुलाकात प्रचंड से होती है. एक गुरिल्ला छापामार के रूप में विख्यात प्रचंड भारतीय मीडिया से बात करने से बचते हैं. हालांकि वे खुद ऐसा नहीं कहते मगर उनके सहयोगियों के साथ बातचीत में इस बात का पता लग जाता है. उन्हें लगता है कि भारत का मीडिया उनके प्रति पूर्वाग्रह रखता है और अक्सर ऐसी खबरें प्रकाशित करता है कि माओवादी सरकार नेपाल में कोई परिवर्तन नहीं ला सकी है. यह बात  कुछ हद तक सही भी है. लगभग दस साल तक नेपाल की राजशाही के खिलाफ युद्ध का संचालन करने वाले प्रचंड जब प्रधानमंत्री बने तब लोगों को उनसे बड़ी अपेक्षाएं थीं. लेकिन नेपाल से राजशाही को खत्म करने और उसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के अलावा वे अब तक कोई दूसरा बड़ा काम नहीं कर सके हैं. संविधान को बनाने के मसले पर जहां अब तक उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी है वहीं माओवादी लड़ाकों के पुनर्वास का मसला भी है, जो हल तो हुआ है लेकिन उसके स्थायित्व पर तमाम प्रश्न चिन्ह हैं. नेपाल के राजनीतिक दलों ने यह तय किया है कि 19 हजार लड़ाकों में से केवल साढ़े छह हजार को ही सेना में शामिल किया जाएगा. जो सेना में शामिल नहीं होंगे उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृति दी जानी है. लड़ाकों को पांच से आठ लाख रुपये का पैकेज दिए जाने की शुरूआत भी हो चुकी है. लेकिन अधिकतर छापामार लड़ाके इन सरकारी पैसों को ‘टुकड़ा’ मानकर चल रहे हैं.

नेपाल की सबसे पहली और बड़ी जरूरत विकास से जुड़ी हुई है. लेकिन दीगर देशों में भ्रमण के दौरान नेपाल में निवेश की प्रचंड की गुहार को कोई महत्व नहीं मिल सका है. तहलका से बातचीत में(देखें साक्षात्कार) प्रचंड स्वीकारते हैं कि विकास का रिश्ता राजनीतिक स्थिरता से जुड़ा हुआ होता है. जनयुद्ध में शामिल रहे लड़ाकों को नेपाली सेना में शामिल करने के मुद्दे पर सेना प्रमुख रुकमागुंद कटवाल से विरोध के बाद प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. तभी से नेपाल अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है. थोड़े-थोड़े समय के लिए माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खलाल ने नेपाल की बागडोर संभाली, लेकिन इनके कार्यकाल में नेपाली जनता की बेहतरी के लिए कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया जा सका है. वर्तमान में माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई प्रधानमंत्री है, किंतु नेपाल को विकास की चादर ओढ़ाने के लिए उन्हें भी एक अपेक्षित वातावरण नहीं मिल पा रहा है.

संविधान न बना सकने के अलावा माओवादी लड़ाकों के पुनर्वास का मसला भी है, जो हल तो हुआ है लेकिन उसके स्थायित्व पर तमाम प्रश्न चिह्न हैं

कुल मिलाकर नेपाल झंझावतों के दौर से गुजर रहा है. लेकिन अनिश्चय के काले बादलों के बीच भी प्रचंड के समर्थक यह मानते हैं कि उनके नेता की स्थिति केवल और केवल मीडिया में खराब हुई है. जनता में उनकी छवि स्थिर है. पोखरा में रेडियो गंडकी चलाने वाले एलपी बंजारा कहते हैं, ‘दो सौ चालीस साल पुरानी राजशाही को प्रचंड ने दस साल के जनयुद्ध से ध्वस्त कर दिया था. बेहद अल्प समय में उनके द्वारा किए इस काम का शायद यही अर्थ निकाल लिया गया है कि सब कुछ चुटकी बजाते ही संभव हो जाता है.’ खुद प्रचंड अपनी आलोचनाओं और आरोपों से बेफिक्र नजर आते हुए कहते हैं, ‘मैं ऐसी परंपराओं को बदलने की कोशिश जारी रखूंगा जिनमें मनुष्य का वजूद समझने की चेष्टा नहीं की जाती.’

ढिकुर पोखरी में चर्चा के दौरान भंडारी बताते हैं कि विश्व के साम्राज्यवादी देश किसी भी सूरत में नेपाल में कम्युनिस्ट सत्ता की स्थापना के पक्षधर नहीं थे. मीडिया में भी इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती थीं कि नेपाल के माओवादियों के संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से बने हुए हैं. कई बार ऐसी खबरें भी देखने-पढ़ने को मिलीं कि प्रचंड के लड़ाके श्रीलंका के आतंकवादी संगठन एलटीटीई और असम के उल्फा से सैन्य प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं. जनयुद्ध के दौरान मेडिकल टीम की कमान संभालने वाले एक दूसरे माओवादी नेता आभाष कहते हैं कि साम्राज्यवादी देशों की दलाली करने वाले मीडिया समूहों ने प्रचंड की छवि को मटमैला करने की कोशिशें जारी रखी हैं, लेकिन ये नाकामयाब होती रही हैं क्योंकि समाज का एक बड़ा वर्ग चेतना संपन्न हो चुका है. नेपाल के माओवादी आंदोलन की विशिष्टता के बारे में बताते हुए आभाष कहते हैं, ‘हमारे नेता प्रचंड ने समय-समय पर विभिन्न कम्युनिस्ट आंदोलनों का अध्ययन तो किया लेकिन उनके अंधानुकरण पर जोर नहीं दिया. उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन के विकास, विश्व इतिहास के समाजवादी अनुभव और ज्ञान को अपने देश की परिस्थितियों के मुताबिक इस्तेमाल किया. इसका नतीजा यह हुआ कि लाल गलियारे के नए हीरो के तौर-तरीकों पर लोगों ने यकीन किया. पूरी दुनिया में जब बूढ़ा पूंजीवाद अपने क्रूर और घिनौने चेहरे के साथ अट्टहास कर रहा था तब प्रचंड ने यह साबित किया कि अभी विकल्प जिंदा है और समाजवाद का सपना देखने वालों की मौत नहीं हुई है.’

इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में नेपाल के स्थानीय मीडिया में प्रचंड के सर्वसुविधायुक्त घर को लेकर नई बहस छिड़ी थी. अखबारों में प्रचंड के नए घर की कीमत एक अरब रुपये बताई गई थी. नेपाली कांग्रेस के उपसभापति एवं नेता प्रतिपक्ष रामचंद्र पौंडल प्रचंड को 25 हजार लड़ाकों की हत्या का दोषी ठहराने के साथ यह आरोप भी लगाते हैं कि उनकी पार्टी एशिया की सबसे धनी पार्टी है और इसके कार्यकर्ता अब बगैर पैसों के किसी का कोई काम नहीं करते.

ढिकुर पोखरी के लिवाड़े नामक स्थान पर एक टूटे-फूटे घर में हमारी मुलाकात प्रचंड के परिजनों से होती हैं. उन्हें देखने के बाद यह सवाल कुलबुलाने लगता है कि यदि प्रचंड की पार्टी एशिया में सबसे अमीर है और उसके कार्यकर्ताओं के पास जरूरत से ज्यादा धन है तो फिर उनके अपनों की आर्थिक दशा इतनी खराब क्यों है? प्रचंड के भाई की पत्नी रूकी दाहाल बताती हैं कि वे अब भी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए खेतों में काम करने जाती हैं. प्रचंड की चाची माया दाहाल को भी अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है.

प्रचंड के चाचा कुलप्रसाद बताते हैं कि नेपाल के पड़ोसी देश चीन में जब सर्वहारा क्रांति की शुरुआत हुई तो इसका असर नेपाल पर भी पड़ा. वे कहते हैं, ‘सांस्कृतिक क्रांति ने मुख्य रूप से कम्युनिस्टों की युवा पीढ़ी को कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया. प्रचंड भी एक नई तरह की पार्टी के पुनर्गठन और जनता के विद्रोह की जरूरत का अध्ययन करने में जुट गए. नेपाल में जनयुद्ध की शुरुआत से पहले प्रचंड ने सभी जरूरी उपायों को जुटाने पर विशेष रूप से जोर दिया. लड़ाकों को हथियारों के साथ सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए कई तरह के कैंप संचालित किए. उन्हें देशकाल की ताजा परिस्थिति से अवगत कराने के लिए जलजला एवं जनगण एफएम का प्रसारण प्रारंभ किया. नेपाल के ‘बुर्जुआ’ मीडिया को जवाब देने के लिए जनादेश, जन आह्वान, पृष्ठभूमि, ज्वाला और महिमा जैसे अखबारों के प्रकाशन को प्रोत्साहित किया. कुलप्रसाद कहते हैं कि प्रचंड हमेशा एक सच्चे कम्युनिस्ट बने रहे, क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि एक कम्युनिस्ट चार कार्यकर्ताओं का काम कैसे करता है.’ नेपाली अखबार गंडकी के कार्यकारी संपादक प्रशांत लामिछाने बताते हैं, ‘प्रचंड के भीतर आयोजनकर्ता, प्रकाशक, निर्माता और मौका आने पर खुद को योद्धा साबित करने का गुण अब भी देखने को मिलता है.’

कुछ माओवादी नेता भी प्रचंड के दस साल के भीतर देश में लाए क्रांतिकारी बदलाव को बेहतर नजरिये से ही देखते हैं. लेकिन यह भी मानते हैं कि फिलहाल प्रचंड को दुष्चक्रों में फंसा दिया गया है. लामिछाने इसके लिए संसदीय राजनीति को जवाबदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘सबके साथ तालमेल बिठाना एक कठिन काम होता है. विचारधारा के स्तर पर अंतर्विरोध के चलते बीच का रास्ता निकालना हमेशा से कठिन रहा है क्योंकि बीच का कोई रास्ता कभी सफल रास्ता नहीं होता है.’ नेपाल की क्रांतिकारी गतिविधियों की खबरों के प्रकाशन के लिए चर्चित साप्ताहिक अखबार जनादेश के संपादक मनऋषि धिताल कहते हैं, ‘प्रचंड के नेतृत्व को डैमेज करने के लिए उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं. कोई उन्हें लड़ाकों की मौत का जिम्मेदार ठहराता है तो कोई उन पर संविधान बनने की प्रक्रिया में रोड़ा अटकाने का आरोप लगाता है. जबकि नेपाल की 601 सदस्यों वाली संसद में माओवादियों की संख्या मात्र 240 ही है. संविधान के निर्माण को लेकर अनिश्चितता की स्थिति इसलिए भी है क्योंकि अमेरिका चाहता है कि साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली माओवादी पार्टी अस्थिर रहे.’ अपनी इस बात की पुष्टि करने के लिए ऋषि एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘भूमिगत रहकर जनयुद्ध का संचालन करने वाली माओवादी पार्टी और सात संसदीय दलों के बीच शांति, संविधान का निर्माण और गणतंत्र की स्थापना के लिए दिल्ली में जो समझौता हुआ था उस समझौते के बाद अमेरिका के तत्कालीन राजदूत जेम्स मोरिआर्टी ने संसदीय राजनीतिक दलों को सलाह देते हुए कहा था कि वे माओवादियों से हाथ मिलाने की बजाय नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र के साथ मिलकर माओवादियों का विरोध करें. मोरिआर्टी ने यहां तक कहा था कि अगर किसी कारणवश संसदीय दलों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर भी दिए हैं तो समीक्षा के नाम पर बाहर निकल सकते हैं.’

नेपाल में फिलहाल 33 राजनीतिक दल सक्रिय हैं. इनमें से प्रचंड की पार्टी के अलावा ज्यादातर नेपाल का संविधान तैयार नहीं होने देना चाहते

नेपाल की राजनीति में रुचि रखने वाले भेषराज पौंडेल भी ऋषि धिताल की बातों का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘नेपाल की दो करोड़ पचास लाख की आबादी में फिलहाल 33 राजनीतिक दल सक्रिय हैं. इनमें से प्रचंड की पार्टी को छोड़ दें तो ज्यादातर की अंदरूनी भावना यही है कि किसी भी सूरत में नेपाल का संविधान तैयार न हो पाए.’ इस गतिरोध के और क्या ठोस कारण हो सकते हैं, पूछने पर भेषराज कहते हैं कि यदि नेपाली जनता की भावनाओं के अनुरूप संविधान निर्माण हो गया तो पूरी दुनिया में अपने देसी तौर-तरीकों से स्थापित होने वाले प्रचंड और ज्यादा स्थापित हो जाएंगे. लेकिन पार्टियां प्रचंड को स्थापित होने का कोई मौका नहीं देना चाहती हैं.

स्थापना का सवाल प्रचंड की पार्टी के भीतर भी खदबदा रहा है. काठमांडो के एक माओवादी कार्यकर्ता का कहना है कि प्रचंड और उनके मुद्दों को लेकर पार्टी में ही कई तरह के मतभेद चल रहे हैं. माओवादी पार्टी अब संयुक्त इकाई की बजाय प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई, पार्टी के उपाध्यक्ष किरण वैध तथा अध्यक्ष प्रचंड के अलग-अलग धड़े के रूप में नजर आने लगी है. कुछ राजनीतिक प्रेक्षक यह भी मानते हैं कि अब वे भटक गए हैं. कुछ समय पहले जब जनमुक्ति सेना के कमांडरों की बैठक हुई थी तब कई कमांडरों ने प्रचंड के फैसलों का विरोध किया था. पार्टी के उपाध्यक्ष किरण वैध ने भी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच प्रचंड के 18 विचलन नाम से एक पर्चे का वितरण किया था. इस पर्चे में साफ तौर पर यह कहा गया था कि प्रचंड राजनीतिक स्तर पर दक्षिणपंथी सुधारवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं. पर्चे में प्रचंड के बारे में यह भी कहा गया है कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के बल पर न केवल अनैतिक क्रियाकलापों को बढ़ावा दिया है बल्कि संसदीय पार्टियों के साथ समझौता करके ऐसे संविधान निर्माण को मंजूरी दी है जो पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी है. उन पर फासिस्ट प्रवृति को बढ़ावा देने का आरोप भी लगा है. इतने आरोपों से घिरे होने के बावजूद प्रचंड के समर्थकों को यकीन है कि वे हमेशा की तरह झंझावातों को तमाचा रसीद करते हुए आगे बढ़ जाएंगे.

भारत के साथ संबंधों पर नेपाल के इस सबसे ताकतवर व्यक्ति के नजरिये की बात करें तो उसे भारत विरोधी चश्मे से देखा जाता है. मीडिया में यहां तक खबरें आई हैं कि प्रचंड ने भारत के नक्सलियों के खिलाफ अर्धसैनिक बलों के प्रयोग की निंदा करते हुए भारत को उनकी पार्टी का प्रमुख शत्रु करार दिया था. वे भारत और नेपाल के बीच की 1950 की संधि के भी विरोध में खड़े दिखाई देते हैं. मगर तहलका के साथ बातचीत में प्रचंड साफ करते हैं कि उन्होंने भारत और वहां की जनता के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देने वाली कोई बात कभी नहीं की है. वे अपने सत्ता हासिल करने का श्रेय भारत के जनवादी लीडरों और बुद्धिजीवियों को भी देते हैं और भारत के माओवादियों को भी अपने दिल और दिमाग खुले रखने का संदेश देते हैं. मगर दिल्ली में स्थापित सत्ता और नेपाल के प्रति उसके रवैये पर वे अपनी राय स्पष्ट नहीं करते. बल्कि उसे चेता ही देते हैं कि राज्य की सत्ता के दमन से कभी कोई मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता.

आगे के पन्नों में प्रचंड के साथ जो विस्तृत बातचीत है उसमें वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं जो इतिहास के कई पन्नों मे दर्ज होने के बाद  भी उससे आगे जाने की कोशिशों को लेकर प्रतिबद्ध है. जो समय के साथ चलने की बेधड़क कोशिश न केवल खुद को बल्कि जिन विचारधाराओं में वह यकीन करता है उन्हें भी प्रासंगिक बनाए रखने के लिए करता है.

‘चश्मे पर बारीक नज़र’

चश्मे को लेकर पचासों तरह के भ्रम हैं तथा हजारों सलाहें चलती हैं. मैं जानता हूं. मुझे दी गई हैं. लानतें भी, सलाहें भी. बचपन में चाहे जो मुझे चश्मा लगाये देख लेता. ढेरों सलाहें देता डालता. लानतें कि तेरे को इतनी कम उम्र में चश्मा लग गया क्योंकि तू फालतू ही इतना पढ़ाकू है, सब्जियां नहीं खाता है, जरूर ही हस्तमैथुन आदि ऐसी गलत आदतें रही होंगी कि शरीर कमजोर होने से आंखें भी ऐसी हो गईं वगैरह. मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था. तब से ही चश्मा लगा रहा हूं. अभी तो ऐसा लगता है कि मैं चश्मा लगाकर ही पैदा हुआ होऊंगा. पूरा जीवन चश्मे के बारे में ऊलजुलूल बातें सुनते गुजारी है मैंने. ‘चश्मा हटाने’ के हजारों टोटके अभी भी गांव-कस्बों में बताए जाते हैं. मऊरानीपुर में मेरी दादी तथा अन्य रिश्तेदार दुखी थे कि ज्ञानू को इत्ती कम उम्र में चश्मा लग गया है. उन्होंने सामने की दुकान पर बैठने वाले गोपी का उदाहरण दिया जिनका ‘चश्मा हट गया’ था. दादी के कहने पर मैं भी चश्मा हटने का रहस्य जानने के लिये गोपी से मिला. मैंने  उनसे पूछा कि चश्मा तो हट गया पर दिखता तो ठीक-ठाक है कि नहीं? गोपी ने बताया कि ‘चश्मा तो हट गया है’ परंतु ठीक से दिखता नहीं है! आज मैं चश्मे और नजर को लेकर ऐसे ही कुछ सही, कुछ ऊलजुलूल प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करूंगा. संभावना है कि ये प्रश्न आपके मन में भी उठते हों.

क्या लेटकर पढ़ने, ज्यादा पढ़ने, हरी सब्जियां न खाने या अन्य कमजोरी के कारण ही नजर का चश्मा लग जाता है?

नजर का चश्मा मायोपिया, हाइपरमेट्रोपिया, प्रेसवायेपिया आदि नेत्र रोगों के कारण लगता है जो प्रायः अनुवंशिक कारणों से होते हैं. आंख की बनावट कुछ ऐसी हो जाती है कि उसके कारण रेटिना पर साफ तस्वीर नहीं बनती. चश्मे का लेंस ‘फोकल लेंथ’ को ठीक करके सही तस्वीर बनाने का काम करता है. लेटने, बहुत पढ़ने आदि से आंख की बनावट पर कोई असर नहीं होता. फिर भी लेटकर पढ़ना, कम प्रकाश में पढ़ना आदि ‘विज़न हाइजीन’ के विरूद्घ तो है ही. एक चीज कहलाती है ‘विजन हाईजीन’. चश्मा लगे, न लगे पर आंखों में दर्द, आंखों का थक जाना, आंखों का सूखा लगना या पानी सा आना जैसे नेत्र तनाव के लक्षण तो पढ़ने-देखने के गलत तरीकों से हाेते ही हैं. पुस्तक या कंप्यूटर-स्क्रीन आंखों के लेवल पर हो. अच्छी रोशनी हो. कमरे में न बहुत तीखी, न ही ‘कंस्ट्रास्ट’ वाली रोशनी हो.  हर आधे घंटे, पौन घंटे पर कुछ मिनट के लिए कंप्यूटर या किताब को छोड़ दें. चश्मा लगने, न लगने पर इन चीजों का कोई असर न हो पर आंखें थकेंगी नहीं, यह तय है. हरी सब्जियां भी इसी तरह मदद करती हैं. अनीमिया हो तो उसकी दवाइयां लें. पर  इनसे ‘चश्मा छूट जायेगा’, ऐसा भ्रम न पालें.

यदि छुटपन से ही चश्मा लग गया तो आगे भी नंबर बढ़ता ही जाएगा. इसीलिये क्या छोटे बच्चों को चश्मा नहीं लगवाना जाएगा?

यह सोच ही गलत है. लेकिन ऐसा करेंगे तो संभव है कि बाद में चश्मा भी काम न आये. अतः ऐसी गलती कभी न करें. बच्चे को हल्का नंबर दिया गया है तो भी जरूर लगवाएं. ऐसा करेंगे तो बाद में चश्मे लायक आंखें भी नहीं बचंेगी.

कान्टेक्ट लेंस बेहतर हैं कि चश्मा लगाना?

चश्मे की अपनी सीमायें तथा परेशानियां हैं. आदमी ‘चश्मुद्दीन’ लगे तब भी चल जाता है बल्कि चश्मा लग जाने से कई बार आदमी खामख्वाह ही बुद्घिजीवी तथा विद्वान नजर आने लगता है.  हां, लड़कियों को लगता है कि चश्मे से उनकी खूबसूरती तथा लुक पर गलत असर पड़ता है. फिर चश्मे की संभाल. फिर चश्मा आपकी पूरी दृष्टि को समेट नहीं पाता.  आपका ‘पेरीफेरल विज़न’ या कह लें कि परिधि की दृष्टि धुंधली ही बनी रहती है. कान्टेक्ट लेंस इस सबसे मुक्ति दिलाते हैं. वे पूरी दृष्टि साफ करते हैं क्योंकि वे आंख (की कॉर्निया) पर ही धरे जाते हैं. कान्टेक्ट लेंस खूबसूरती तथा दृष्टि के व्यापक पैनेपन के हिसाब से बेहद कारगर हैं. फिर भी, चश्मे ही ज्यादा चलते हैं तो क्यों? क्योंकि कान्टेक्ट लेंस लगाना बहुत संभाल का काम है. उन्हें बहुत साफ रखना होता है. कई लोग उन्हें साधारण पानी से धो डालते हैं जो ठीक नहीं. लेंस को बार- बार, ठीक से साफ न करो या ठीक से न बरतो तो कॉर्निया पर छाले (कॉर्नियल अल्सर) हो सकते हैं और अंधा भी बना सकते हैं. यही वजह है कि बच्चे या लापरवाह किस्म के बड़े लोगों के लिए कान्टेक्ट लेंस लगा पाना कठिन काम है और  खतरनाक भी.

‘लेसिक सर्जरी’ से चश्मा हट सकता है न?

सौ प्रतिशत तो नहीं, लेकिन हट सकता है. परंतु लेसिक की भी अपनी सीमाएं हैं. इस आॅपरेशन में आपकी काॅर्निया की सतह से झिल्ली निकालकर (फ्लैप बनाकर) नीचे की बची सतह को लेजर द्वारा सर्जरी करके कार्निया के आकार को (पूर्वनिर्धारित नापतौल द्वारा) ऐसा कर देते हैं कि उससे गुजरने वाली प्रकाश किरणें फिर से सही जगह पड़ें और तस्वीर साफ बनने लगे. यहां तक तो सब बड़ा बढ़िया प्रतीत होता है परंतु ऐसे ऑपरेशन के संभावित खतरे भी होते ही हैं. बिगड़ जाए, इन्फेक्शन हो जाए तो आंख ही चली जाए. कॉर्निया को पतला करने और उसके आकार को बदलने में भी बिगाड़ की आशंका तो रहती ही है. परंतु बहुत हाई पावर के मायोपिक लेंस लगाने वालों के लिए यह सचमुच उपयोगी है. नंबर पूरा ठीक हो सकता है या काफी कम तो हो ही सकता है. फिर हर आंख लेसिक लायक नहीं होती. इसलिए डॉक्टर से पूछपाछ कर ही लेसिक कराए.

आंखों की संभाल को लेकर और भी बातें हैं, कंप्यूटर के इस्तेमाल को लेकर. फिर कभी.