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मशीन मरम्मत मांगती है

उत्तर प्रदेश में छह मार्च को मतगणना के साथ शुरू हुई जनादेश की सुनामी ने मायावती को तो सत्ता से बाहर जाने का रास्ता दिखा ही दिया मगर इसने राज्य में सत्ता के केंद्र रहे सचिवालय (पंचम तल) के तिलिस्म को भी भरभरा कर ध्वस्त कर दिया है. पूरे पांच साल तक पंचम तल उत्तर प्रदेश पर निरंकुश राज करता रहा है. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका तानाशाह चरित्र समाजवाद की बौछार में धुल कर साफ हो जाए.

उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार को किस तरह का जनादेश मिलने जा रहा है इसकी आहट तो करीब दो महीने पहले तब ही मिल गई थी जब पंचम तल में मौजूद मायावती के सारे सिपहसालारों ने उत्तर प्रदेश से दिल्ली जाने के लिए राज्य सरकार की स्वीकृति हासिल कर ली थी. चूहे जिस तरह जहाज डूबने से पहले भाग खड़े होते हैं उसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार के डूबते भविष्य की सुगबुगाहट लगते ही पंचम तल में भी भगदड़ शुरू हो गई थी.

मायावती का पिछला कार्यकाल कई कारणों से याद किया जाएगा और उनमें से एक बड़ा कारण पंचम तल भी होगा. उत्तर प्रदेश में सचिवालय एनेक्सी के नाम से पहचाने जाने वाले सचिवालय में पांचवें तल पर मुख्यमंत्री के दफ्तर में मायावती अपने पिछले कार्यकाल में मुश्किल से तीन-चार बार ही पहुंची थीं. इस पूरे दौर में प्रमुख रूप से कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ही एक तरह से सरकार और मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते रहे. मुख्यमंत्री की कोर टीम के कई अन्य अधिकारी भी पंचम तल के बादशाह बन कर सरकार का काम-काज चलाते रहे. सारी शक्तियां इन्हीं लोगों के हाथों में थीं.

इस दौर में पंचम तल की स्थिति ऐसी थी कि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के विधायकों और माया सरकार के मंत्रियों को भी शशांक शेखर सिंह से मुलाकात करने के लिए इंतजार करना पड़ता था. पंचम तल के अधिकारी जो चाहते थे वही होता रहा. न विधायकों की बात सुनी जाती थी, न ही मंत्रियों की और आम आदमी के लिए तो पंचम तल तक पहुंचने की बात सोचना भी गुनाह जैसा था.

पंचम तल में शशांक शेखर सिंह की तूती इस कदर बोलती थी कि उत्तर प्रदेश के तमाम वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने नतमस्तक रहते थे. आईएएस न होते हुए भी उन्होंने उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर नौकरशाही को अपने सामने बौना बना कर रखा हुआ था. हालांकि खुद उनकी नियुक्ति हमेशा विवादों में रही, लेकिन उनका इतना खौफ था कि उत्तर प्रदेश आईएएस एसोसिएशन भी उनके खिलाफ कोई कानूनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई. उनके खिलाफ जो जनहित याचिकाएं दर्ज की गई थीं वे या तो बगैर किसी सुनवाई के या बीच में ही वापस ले ली गईं. ये याचिकाएं कानूनी दांव-पेंचों में ही फंसी रह गईं. इन्हें किसी अंजाम तक नहीं पहुंचाया गया.

बीएसपी विधायकों को भी उनसे हमेशा ढेरों शिकायतें रहीं, लेकिन फिर भी मायावती के ‘सबसे खास’ बने रहने की वजह से उनके अधिकार को कोई चुनौती नहीं मिल सकी. करीब चार साल तक उत्तर प्रदेश में अपना राज चलाने के बाद जब उन्हें माया सरकार की नैया डूबती नजर आने लगी तो उन्होंने नई सरकार आने से पहले ही स्वेच्छा से समय पूर्व सेवानिवृत्ति ले ली. यानी नई सरकार के आते ही उन पर कोई गाज न गिरे उससे पहले ही वे पंचम तल से दबे पांव रुख्सत हो गए. मायावती की कृपा से एक बार सेवा का विस्तार पा चुके शशांक को 31 मार्च, 2012 को रिटायर होना था, लेकिन उन्होंने अपनी फजीहत की आशंका से नौ मार्च को ही चुपचाप पंचम तल से विदाई ले ली.

उम्मीद है कि अखिलेश ‘चेहरा पसंद’ नीति को खत्म करके सरकार के कार्य और योजनाओं के लिए समर्पित अधिकारियों को तैनात करने की नीति को अमल में लाना पसंद करेंगे

इस कवायद में वे अकेले नहीं हैं. पंचम तल से पहले ही खिसक जाने की कोशिश करने वालों में मायावती के खास दुर्गाशंकर मिश्र, रवींद्र सिंह और मुख्य सचिव अनूप मिश्र को भी केंद्र सरकार की सेवा में प्रतिनियुक्ति के लिए राज्य सरकार की हरी झंडी मिल चुकी है और इन अधिकारियों का केंद्र में जाना तय है. एक और चर्चित अधिकारी फतेह बहादुर भी इसी लाइन में हैं, यानी पंचम तल का पाप अब खुद-ब-खुद साफ होने लगा है.

लेकिन समाजवादी पार्टी और अखिलेश की चुनौतियों का सिलसिला भी यहीं से शुरू होता है. मनपसंद अधिकारियों को चुनने की आजादी तो उनके पास है मगर जैसा उन्होंने खुद कहा है कि प्रशासन में ईमानदार अधिकारियों को तरजीह दी जाएगी तो उन्हें अपनी टीम बनाने में बहुत सावधानी रखनी होगी. उनके पिता के मुख्यमंत्री रहते हुए पिछले कार्यकाल में उनके कुछ चहेते अधिकारियों ने समाजवादी पार्टी सरकार के लिए मुश्किलें पैदा की थीं. यह माना जा रहा है कि अखिलेश इन सब विवादों से बचने का प्रयास करेंगे.

दरअसल उत्तर प्रदेश का हालिया समय देखा जाए तो हम पाते हैं कि यहां नौकरशाही सरकार की मशीनरी होने की बजाय पार्टी की मशीनरी के तौर पर काम करने लगी है. इस कारण हर बार सत्ता बदलते ही अधिकारियों के चेहरे बदल जाते हैं. पुराने चेहरों को कहीं किनारे कर दिया जाता है और उनकी जगह पार्टी या सरकार की सुविधा से काम करने वाले अधिकारियों की तैनाती हो जाती है. लेकिन अब यह उम्मीद की जा रही है कि अखिलेश इस ‘चेहरा पसंद’ नीति को खत्म करके सरकार के कार्य और योजनाओं के लिए समर्पित अधिकारियों को तैनात करने की नीति को अमल में लाना पसंद करेंगे.

यह तय है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने जो भरोसा उनमें दिखाया है उसे कायम रखने के अखिलेश के सारे प्रयासों की सफलता में नौकरशाही की सबसे अहम भूमिका होगी. नए निजाम में न सिर्फ पंचम तल का चेहरा बदलेगा बल्कि नौकरशाही की कार्य संस्कृति में भी व्यापक स्तर पर बदलाव आने की उम्मीद की जा रही है.

अखिलेश की सबसे बड़ी समस्या उत्तर प्रदेश में गुंडाराज की वापसी की आशंका है. उन्होंने अब तक लगातार यही कहा है कि गुंडागर्दी किसी भी हालत में सहन नहीं की जाएगी. चाहे कोई व्यक्ति पार्टी में कितने भी महत्वपूर्ण पदों पर क्यों न हो अगर वह गुंडागर्दी करेगा तो उसके खिलाफ कानून के मुताबिक ही कार्रवाई होगी. पार्टी के लोगों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे इस तरह का कोई काम न करें और न ही होने दें. यहां यह भी गौरतलब है कि राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई होने पर उन्हें येन केन प्रकारेण छुड़ा लेने के राजनीतिक प्रयास भी शुरू हो जाते हैं. नई सरकार में ऐसा नहीं होगा यह यकीन तो किया जा सकता है लेकिन अपराध नियंत्रण के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस की क्षमताएं हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही हैं.

राज्य में पुलिस का मनोबल तो कमजोर है ही, संख्या और संसाधनों की भी उसके पास भारी कमी है. उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में पुलिस के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन के बिना किसी भी सरकार के लिए अपराध पर नियंत्रण करना संभव नहीं है. वे कहते हैं, ‘चूंकि अखिलेश युवा हैं, उनकी सोच में दूरदर्शिता दिखती है, इसलिए हमें उम्मीद है कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पुलिस सुधार शुरू हो जाएंगे और प्रदेश की पुलिस सरकार तथा जनता दोनों की ही अपेक्षाओं पर खरी उतरने के काबिल बन जाएगी.’

उत्तर प्रदेश में अखिलेश की उम्मीदों की साइकिल लंबे समय तक दौड़ती रहे, इसके लिए प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस दोनों की चाल, चेहरा और चरित्र बदलना जरूरी है. फिलहाल प्रदेश की जनता इन्हीं उम्मीदों के सपनों में जी रही है.

एमपी, यूपी या उमा भारतीय!

भाजपा में वापसी के बाद जब उमा भारती को उत्तर प्रदेश भेजा गया तब किसी को भी यह भ्रम नहीं था कि वे वहां जाकर क्रांति करने वाली हैं. भाजपा और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी समेत खुद उमा भारती भी जानती थीं कि पार्टी में वापसी के बाद यूपी में उन्हें मिली पहली पोस्टिंग का क्या मतलब है. खैर, कार्यकर्ता, संगठन और नेतृत्व विहीन या कहें मरणासन्न प्रदेश भाजपा के साथ उन्होंने काम किया. नतीजा सामने है. पार्टी बुरी तरह चुनाव हार चुकी है. 2007 के मुकाबले न सिर्फ उसे चार सीटें कम मिली हैं बल्कि वोट प्रतिशत में भी कमी आई है. हां, उमा चरखारी विधानसभा से अपनी सीट जीतने में कामयाब हुईं. अब फिर से वही यक्ष प्रश्न सामने है कि उमा भारती का अगला राजनीतिक कदम क्या होगा.

अगर उमा भारती के गृह प्रदेश की बात करें तो 2003 के मध्य प्रदेश और अब के मध्य प्रदेश में बहुत परिवर्तन आ गया है. वहां अब प्रदेश भाजपा में बहुत कम ऐसे लोग बचे हैं जो साल 2003 के उस वक्त को याद करना चाहते हैं जब उमा ने राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह को चुनावी दंगल में धूल चटाई थी. उनके जो थोड़े-बहुत शुभचिंतक यहां हैं भी उनकी स्थिति बेहद कमजोर है.

उमा इस बात को जानती हैं कि वापसी के समय जिन शर्तों को उन्होंने स्वीकार किया उनमें सबसे बड़ी यही थी कि वे मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहेंगी. ऐसे में एक चीज स्पष्ट है कि भले ही उमा की और कहीं कोई भूमिका निकल सकती हो लेकिन मध्य प्रदेश के राजनीतिक कपाट उनके लिए बंद हो चुके हैं. यहां के भाजपा नेताओं ने उमा की वापसी का सबसे ज्यादा विरोध किया था. उन्हें डर था कि वापसी के बाद प्रदेश के मामलों में उमा हस्तक्षेप जरूर करेंगी.

यह भी रोचक तथ्य है कि जैसे ही उमा को बुंदेलखंड के चरखारी से विधानसभा का टिकट दिया गया उमा से ज्यादा खुशी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अन्य नेताओं को हुई. इससे वे आश्वस्त हो गए कि उमा अब उत्तर प्रदेश में ही रहने वाली हैं. यही कारण है कि जो उमा शिवराज सिंह चौहान पर कभी बच्चा चोर होने का आरोप लगाती थीं वही कुछ समय बाद उनके गले लगते दिखाई दीं. और जिन उमा को शिवराज अपनी राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे उन्हीं को चुनाव जितवाने की अपील वे चरखारी की जनता से करते हुए नजर आए. शिवराज को उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत या हार से उतना मतलब नहीं था जितना कि चरखारी में उमा की जीत से था क्योंकि ऐसा होने पर उनके वापस मध्य प्रदेश जाने की आशंका कुछ और कम हो जाती.

जानकारों का मानना है कि उमा इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी हैं कि मध्य प्रदेश में अब उनके लिए कोई राजनीतिक जमीन बची नहीं है और राष्ट्रीय स्तर पर नेताओं के बीच ऐसे ही पद और वर्चस्व को लेकर सिर-फुटौव्वल मची हुई है. उमा के एक अत्यंत करीबी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘देखिए, दीदी जानती हैं कि उनके पास विकल्प नहीं है. मध्य प्रदेश वे जा नहीं सकती. केंद्र में अभी न कोई जगह है न ही पार्टी के कई नेता उन्हें वहां देखना चाहते हैं ऐसे में उनके लिए यूपी ही एकमात्र विकल्प बचता है.’

कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि उमा आगे क्या करेंगी, पार्टी में उन्हें क्या नई जिम्मेदारी मिलेगी, उनकी राजनीतिक हैसियत कितनी कमजोर या मजबूत होगी यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि नितिन गडकरी की स्थिति आने वाले समय में कैसी रहती है. तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए पार्टी में उन्हें वापस लाने वाले गडकरी अगर कमजोर होते हैं तो उमा की राजनीतिक यात्रा में जबरदस्त मुश्किलें पेश आने वाली हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि खुद को स्थापित करने और खोई हैसियत पाने के साथ ही पार्टी को स्थापित करने के लिए भी यह जरूरी है कि उमा उत्तर प्रदेश में रहकर काम करें क्योंकि वर्तमान चुनाव परिणामों ने बता दिया है कि जब तक दिल दिल्ली में लगा रहेगा तब तक उत्तर प्रदेश में जीत नामुमकिन है. उमा ने भी जीत के बाद पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा है कि वे यूपी में ही काम करना चाहेंगी, उनकी नई पहचान उत्तर प्रदेश के चरखारी की विधायक के तौर पर है और वे इससे बहुत खुश हैं. अब देखने वाली बात यह होगी कि जो व्यक्ति विधानसभा में सबसे पहली पंक्ति के सबसे पहले स्थान पर कभी बैठा हो वह 403 लोगों की भीड़ में किसी कोने में बैठा कैसा महसूस करेगा. मगर पिछले सात-आठ साल में उमा इससे कहीं ज्यादा अजीबोगरीब और बुरा एक नहीं बल्कि कई-कई बार देख चुकी हैं.

प्रश्नों से घिरे परीक्षण

हाल ही में मध्य प्रदेश के इंदौर में वैध दवा परीक्षण (ड्रग ट्रायल) के मामले उजागर होने से कई सवाल खड़े हो रहे हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2010 में दवा परीक्षण के दौरान 22 लोगों की मौत हुई. आर्थिक अपराध शाखा की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2008 से 2010 तक कुल 81 लोगों की दवा परीक्षण के दौरान मौत हुई. इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों ने चिकित्सा की आड़ में चल रहे इस जानलेवा और आपराधिक खेल पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं.

इस घटना ने यह भी उजागर कर दिया है कि हिंदी पट्टी में इंदौर दवा परीक्षण के एक हब के रूप में वर्षों से सक्रिय है. प्रदेश विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना था कि यहां 2010 तक 2365 मरीजों पर दवाओं के परीक्षण हुए जिनमें 1644 तो बच्चे थे. इसी तरह संसद में एक सवाल के उत्तर में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री ने माना कि एलोपैथिक दवा परीक्षण के दौरान देश में 2008 में 288, 2009 में 637 तथा जून 2010 तक के प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 597 मौतें हो चुकी थीं.

इंदौर अवैध दवा परीक्षण कांड ने चिकित्सकों की नैतिकता और चिकित्सा व्यवस्था की पवित्रता पर फिर से बहस छेड़ दी है. दवा परीक्षण की अहम शर्तों में नैतिक समितियों का गठन जरूरी माना जाता है. इंदौर में भी यह समिति सक्रिय है. लेकिन समाज के प्रतिष्ठित एवं प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिनिधियों वाली यह समिति इस अवैध दवा परीक्षण पर मौन रही और सैकड़ों निरीह मरीज एक-एक कर मरते रहे. विडंबना देखिए  कि इस नैतिक समिति से जुड़ा एक चिकित्सक स्वयं अवैध परीक्षण में लिप्त था.

दवा परीक्षण की एक और अनिवार्य शर्त है, परीक्षण और अध्ययन का प्रतिष्ठित शोध पत्रिका में प्रकाशन तथा परीक्षण के लिए प्राप्त राशि और इसके स्रोत का सार्वजनीकरण. इंदौर मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ. खबर है कि मध्य प्रदेश के 95 फीसदी चिकित्सकों (जो वैध या अवैध दवा परीक्षण में शामिल हैं) ने न तो परीक्षण के नतीजे किसी शोध पत्रिका में प्रकाशित कराए हैं और न ही प्राप्त धन की राशि व इसके स्रोत सार्वजनिक किए हैं. दवा परीक्षण में शामिल मरीजों का जीवन बीमा भी कराना अनिवार्य है, लेकिन इंदौर के धन पिपासु चिकित्सकों ने ऐसा भी नहीं किया. गोपनीयता की आड़ लेकर मरीजों के ये ‘दूसरे भगवान’ उनकी जान से खेलते रहे, लेकिन न तो सरकार और न ही समाज ने समय पर इसका संज्ञान लिया.

दुनिया में दवा परीक्षण की शुरुआत सन 1747 में हुई जब डॉ जेम्सलिंड ने कुछ सैनिकों पर यह अध्ययन किया कि खट्टे-मीठे फल खाने वाले सैनिकों को स्कर्वी रोग नहीं होता. बाद में दवा परीक्षण की जरूरत जब बढ़ने लगी तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक संस्था कांट्रेक्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीआरओ) बनी. इस संगठन की मदद से कई कंपनियां मनमर्जी के मानदंड तय करके अपने फायदे के लिए दवा परीक्षण करने लगीं. विडंबना देखिए कि अमीर एवं विकसित देशों की बड़ी कंपनियां नई एलोपैथिक दवाओं का अविष्कार तो अमेरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि में करती हैं लेकिन दवाओं का परीक्षण अफ्रीका के देश, भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, भूटान आदि गरीब व अल्पविकसित देश के नागरिकों पर करती हैं.

तेजी से बढ़ती कथित आधुनिकता और झटपट विकास के मंसूबे पाले नवउदारवादी समाज के लोग सेहत के लिए अब प्रकृति की बजाय अंग्रेजी दवाओं पर निर्भर हैं. इस ताबड़तोड़ विकास ने लोगों को कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने का जो नुस्खा दे दिया है, आधुनिक चिकित्सकों का एक वर्ग उससे खासा प्रभावित है. इसके लिये वह पेशागत नैतिकता को भी भुलाकर हर वैध-अवैध कार्य करने को तैयार है. अनुमान है कि एक मरीज पर दवा के परीक्षण के लिये चिकित्सकों को दो से पांच लाख रुपये तक मिल जाते हैं. इसके लिये उसे थोड़ा बेईमान, बेशर्म और नीच बनना पड़ता है जो आज के दौर में बिल्कुल सहज है. बताते हैं कि दवा परीक्षण का धंधा इन दिनों 1500 करोड़ रुपये का है जो तेजी से फल-फूल रहा है और इस वर्ष के अंत तक इसके 2700 करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है. यह भी खबर है कि इन दिनों भारत में लगभग 2000 विभिन्न प्रकार की दवाओं के परीक्षण चल रहे हैं. इनमें अधिकांश दवाएं ‘खतरनाक’ हैं. हालांकि भारत सरकार ने 2005 में ड्रग एवं कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन कर ड्रग ट्रायल के नये मानदंड निर्धारित किए हैं, लेकिन लालच में फंसे चिकित्सकों, कानून के रखवालों और पर्यवेक्षकों की मिलीभगत से ‘धंधा’ बेखौफ जारी है. इंदौर का दवा परीक्षण कांड इसकी गवाही दे रहा है जहां अवैध दवा परीक्षक  चिकित्सकों ने महज ‘पांच हजार’ रुपये में इन मासूम रोगियों का जीवन तबाह कर दिया. उल्लेखनीय है कि दोषी चिकित्सकों पर मात्र पांच हजार रुपये का आर्थिक जुर्माना लगाया गया है.

व्यापक जनहित में दवा परीक्षण जरूरी होते हैं, लेकिन उसके कुछ उसूल व कायदे हैं. मरीजों के लिए ‘भगवान’ का दर्जा प्राप्त चिकित्सकों को यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि डॉ एडवर्ड जेनर ने खसरे के टीके का आविष्कार करने के बाद उसका पहला परीक्षण अपने बेटे पर किया था और फिर उसे अपने रिश्तेदार मरीजों और अन्य लोगों को दिया. दवा परीक्षण की इस नैतिक मिसाल को क्या हम चिकित्सक याद रख सकेंगे?

(लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं)

वैचारिक आस्था के स्तंभ थे डॉ राममनोहर लोहिया

डॉक्टर राममनोहर लोहिया का व्यक्तित्व बहुआयामी था और भारत की सांस्कृतिक चेतना पर उनके विचारों की छाप गहरी थी. स्त्री-पुरुष संबंध, जाति व्यवस्था, भारतीय भाषाओं और कला व जीवन को प्रभावित करने वाले मिथकीय आदर्श पुरुषों राम, कृष्ण और शिव से संबंधित सामाजिक चेतना को उन्होंने अपनी विशिष्ट दृष्टि से आलोकित किया. जो मिथक अपने पारंपरिक रूप में जड़ हो गए थे वे लोहिया के स्पर्श से फिर स्पंदित होकर सामाजिक जीवन के लिए सार्थक बनते दिखाई दिए. खास तौर से राम एक मर्यादापुरुष के रूप में राजनीति में छीजती हुई मर्यादाओं को फिर से जागृत करने की मांग करने लगे. लौकिक जीवन को संवारने-बनाने में मिथकों की बड़ी भूमिका होती है और लोहिया ने राम के मर्यादित व्यक्तित्व को इसी दृष्टि से उजागर किया.

लोहिया खुद से और अपने अनुयायियों से भी नीति और कार्य में कुछ कठोर मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा रखते थे. 1956 में उनकी नवगठित सोशलिस्ट पार्टी ने बिहार में कुछ मांगों को लेकर आंदोलन शुरू किया था. आंदोलन के संचालन में लोहिया की गहरी रुचि थी. इसमें बिहार भर में सरकारी प्रतिष्ठानों के सामने सविनय अवज्ञा से गिरफ्तारी देने का कार्यक्रम था. लोहिया ने पाया कि आंदोलन रस्मी बनता जा रहा है और सरकार आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने की बजाय नजरअंदाज कर रही है. यह देखकर उन्होंने आंदोलनकारियों को संदेश दिया कि उनको अपनी अवज्ञा में ऐसी दृढ़ता दिखानी चाहिए कि सरकार को उन्हें या तो जेल भेजना पड़े या अस्पताल. इसके बाद अवज्ञा की दृढ़ता का ऐसा असर हुआ कि अनेक जगह आंदोलनकारियों पर बर्बर प्रहार हुए और उन्हें गिरफ्तार किया जाने लगा. अनेक लोग घायल अवस्था में अस्पताल भेजे गए. इस आंदोलन के क्रम में लगभग छह हजार लोग गिरफ्तार किये गए.

लोकतांत्रिक राजनीति में मर्यादा का महत्व सर्वोपरि है. यह शासक और शासित दोनों को बांधती है. मर्यादा के अभाव में शासक स्वेच्छाचारी और लोकतंत्र अनियंत्रित भीड़तंत्र में बदल जाता है. वर्तमान परिदृश्य में इसके अभाव का नतीजा भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में देखा जा सकता है. राम से जुड़े मिथक से लोहिया ने भारत के लोकतंत्र को मर्यादा में बंधे रहने का गंभीर संदेश दिया था. शासकीय उच्छृंखलता के इसी पक्ष को लोहिया ने संसार में उजागर किया जब उन्होंने इस तथ्य की ओर देश का ध्यान खींचा कि देश का सबसे गरीब आदमी तीन आने रोज पर गुजारा करता है जबकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर रोजाना पच्चीस हजार रुपये खर्च होते हैं. आज यह अनुपात शायद बीस रुपये और कई लाख का हो गया है. लेकिन सत्ताधरियों के ऐसे उच्छृंखल व्यवहार पर आज कोई उंगुली नहीं उठाता. बीस रुपया रोजाना पर गुजर करने वालों को नजरअंदाज करके सांसद और मंत्री रोज अपनी सुविधाएं बढ़ाते जाते हैं.

अपने व्यक्तित्व में बहुआयामी होने के बावजूद लोहिया मूलतः एक राजनेता थे, इसलिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए राजनीति के संबंध में उनके विचारों का विशेष महत्व है. उनका कहना था कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति. इस परिभाषा से राजनीति करने वालों पर एक कठोर नैतिक बंधन लग जाता है. यह प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट के ‘क्रिटिक ऑफ प्रैक्टिकल रीजन’ में व्यक्त ’कैटेगोरिकल इम्परेटिव’ जैसा है जो कहता है कि कर्तव्य का पालन बिना इसके लिए तर्क ढूंढ़े करो.

जब लोहिया राजनीति को अल्पकालिक धर्म बताते हैं तो इसे कठोर मूल्यों से बांधने का आग्रह जाहिर करते हैं

शायद अपने इस विचार में लोहिया गांधी से प्रेरणा प्राप्त करते हैं. गांधी लोहिया को अपने समय में जीवित मर्यादापुरुष लगते थे. राजनीति की यह परिभाषा राजनीतिशास्त्र की सभी प्रचलित परिभाषाओं से भिन्न है. भारतीय और पश्चिमी दोनों परंपराओं में आम तौर पर राजनीति  छल-बल से किसी भी तरह सत्ता पाने और इसे सुरक्षित रखने के कौशल से जुड़ी रही है. भारत में इसे कौटिल्य के व्यक्तित्व से जोड़ा जाता रहा है, तो पश्चिमी दुनिया में मैकियावेली से जिसकी विख्यात किताब ‘प्रिंस’ उन सारी मानवीय कमजोरियों का निर्मम विश्लेषण है जिनका सहारा लेकर राजनेताओं को सत्ता हासिल करना और उस पर काबू बनाए रखना चाहिए. अनेक लोगों को यह साक्षात ‘शैतान प्रदत्त शासन सूत्र दिखाई देता है.

इसके विपरीत जब लोहिया राजनीति को अल्पकालिक धर्म बताते हैं तो इसे कठोर मूल्यों से बांधने का आग्रह जाहिर करते हैं. यहां सत्ता स्वयं में काम्य नहीं हो सकती. इसे सदा किसी बड़े मानवीय उद्देश्य से बंधा रहना है.

लेकिन यह नैतिक उद्देश्य कैसे निर्धारित होगा? शायद इसी सवाल के जवाब में लोहिया धर्म को ‘दीर्घकालिक राजनीति’  के रूप में परिभाषित करते हैं. इस अर्थ में धर्म आइडियोलॉजी यानी विचारधारा के एक परिष्कृत रूप की भूमिका में उपस्थित होता है.

विचारधारा  को आम तौर से किसी समूह या वर्ग के स्वार्थों से जोड़ा जाता है. यह समूह के गंतव्य और मार्ग दोनों को निर्देशित करती है. नैतिक दृष्टि से यह तटस्थ हो सकती है या समूह का स्वार्थ ही उसकी नैतिकता बन जाती है. लेकिन जब विचारधारा एक धर्म के रूप में आती है तो यहां नैतिक तटस्थता की गुंजाइश नहीं रह जाती. यहां यह कह कर सभी बंधनों से मुक्ति नहीं मिल सकती कि हमारे वर्ग, हमारे समुदाय या हमारे देश हित के सामने सही या गलत का कोई भी विवाद अर्थहीन है. सबके ऊपर, विवाद से परे है देशहित, वर्गहित या जनहित. भीड़तंत्र के पीछे सामूहिक वफादारी का यह उन्माद बना रहता है. धर्म कम से कम सिद्धांत के स्तर पर कुछ उदात्त मूल्यों को सर्वोपरि मानता है और मानव संबंधों में स्वेच्छाचारिता पर लगाम कसने की नसीहत देता है. दया, परोपकार, सत्य के प्रति इसके घोषित उद्देश्य हैं. यह कहा जा सकता है कि हकीकत में धार्मिक समूहों पर भी उन्माद छा जाता है जिसका उदाहरण अनेक धर्मयुद्ध और हाल के दिनों में उभरा धार्मिक कट्टरपन है.

लेकिन जब लोहिया धर्म की बात करते हैं तो इसके आदर्श रूप में ही. धर्म का सर्वाेच्च रूप होता है आदर्शों के लिए आत्मबलिदान की तैयारी. लोहिया ने अपने जीवन में अपने आदर्शों के लिए- चाहे वह स्वतंत्रता संघर्ष में हो चाहे समाजवादी आंदोलन के उद्देश्यों के लिए- सदा जोखिम उठाया.
इन आदर्शों के विपरीत आचरण के वे कटु आलोचक भी रहे. नेहरू ने पहले पहल लोहिया को कांग्रेस की विदेश विभाग के देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी थी. वे उनके काफी करीब थे. लेकिन आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने समता के आदर्शों के विपरीत काम करना शुरू किया तो लोहिया उनके सबसे कट्टर आलोचक बन गए. जब लोहिया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री थे तब उन्होंने केरल के अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री पी पिल्लई को वहां पुलिस गोलाबारी में कुछ लोगों के मारे जाने पर तुरंत न्यायिक जांच की घोषणा करके इस्तीफा देने का आदेश दिया.

उदात्त मूल्यों को लेकर चलने वाले आंदोलन अपने मूल आदर्शों की बजाय बाहरी आंडबरों को ही लेकर चलने लगते हैं

इससे पैदा हुए विवाद के कारण उन्हें न सिर्फ पार्टी के महामंत्री का पद छोड़ना पड़ा बल्कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना करनी पड़ी.

शायद अपने देश की यह नियति रही है कि सभी उदात्त मूल्यों को लेकर चलने वाले आंदोलन अपने मूल आदर्शों की बजाय बाहरी आंडबरों को ही लेकर चलने लगते हैं. शायद ऐसा भटकाव काफी पहले से रहा है जिस पर कबीर ने यह व्यंग्य किया था ‘मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा’. हमारे देश में समाजवादी नामधारी एक पार्टी है जो लोहिया की विरासत को लेकर चलने का दावा करती है. इसके कई लोग युवा काल में लोहिया के नेतृत्व में काम भी कर चुके हैं. यह पार्टी देश में सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में शासन भी कर चुकी है और फिलहाल फिर वहां शासन करने का जनादेश प्राप्त कर चुकी है. इसके नेता केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भी रह चुके हैं.

लेकिन लोहिया की विरासत से इन्होंने क्या लिया है? यह जरूर है कि कभी-कभी उस राज्य की सड़कें प्रदर्शनों के समय लाल टोपियों से पट जाती हैं. परिवारवाद इस पार्टी में भी हावी होता दिखता है जिसके कारण लोहिया ने नेहरू की कड़ी आलोचना की थी. आज लोहिया की कमी उस सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के अभाव में दिखती है जो देश की राजनीति पर हावी है.

कानपुर की नाक का संकट

एक तस्वीर से पूरी कहानी बयां करने की बात सही है तो एल्गिन मिल की यह तस्वीर इस बात को बहुत अच्छी तरह साबित करती है. 1862 में बनी इसी कपड़ा मिल की वजह से कभी कानपुर को ‘पूरब का मैनचेस्टर’ का खिताब मिला था. आज यह तस्वीर उसी मैनचेस्टर की बदहाली का एक संकेत है.

मिल के मेन गेट पर ही हमारा सामना कुछ मजदूरों से होता है. मिल से निकाले गए ये मजदूर पिछले 3,181 दिन से यहां विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. न्याय पाने के लिए लड़ रहे इन लोगों की आपबीती सुनते हुए आप उस शहर की कहानी से भी रूबरू होते हैं जो जाति और राजनीति के दांवपेचों से तालमेल नहीं बैठा पाया और धीरे-धीरे अपनी प्रतिष्ठा खोते हुए लाखों अधेड़ उम्र के बेरोजगारों का शहर बन गया. यहीं से कुछ दूरी पर महलनुमा लाल इमली मिल है. ढहने के कगार पर खड़ा लाल ईंटों से बना यह ढांचा ऐतिहासिक इमारतों की तरह लगता है. कभी यहां तकरीबन 20 हजार लोग काम करते थे. अब यहां सिर्फ 1,300 कामगार आते हैं.

इस औद्यौगिक शहर के पतन की कहानी का सबसे बुरा हिस्सा यह है कि मुद्दे के रूप में इस समस्या का वजन खत्म हुए भी एक दशक हो गया है.  65 साल के मोतीलाल साहू चाय की दुकान चलाते हैं. 26 साल पहले वे इन्हीं दर्जनों मिलों में काम करने वाले लाखों मजदूरों में से एक थे. साहू बताते हैं कि आज शहर के दस में से नौ रिक्शावाले मिल मजदूर या उनके परिवारों के ही सदस्य हैं. 70 के दौर की बात करते हुए उनके चेहरे पर चमक आ जाती है. तब वे सरकारी कर्मचारियों से भी ज्यादा पैसा कमाते थे. मोतीलाल कहते हैं, ‘यदि सरकार कुछ मिलें चालू कर दे तो वे दिन फिर वापस आ सकते हैं.’ लाखों लोगों की जिंदगी से जुड़ा होने के बावजूद यह समस्या राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कभी चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनी? इसका जवाब वे इन शब्दों में देते हैं, ‘हम कई नेताओं के पास जाकर बात कर चुके हैं. सभी ने वादा तो किया लेकिन हुआ कुछ नहीं.’ 
एक वर्ग इस असफलता का ठीकरा नेताओं पर भी फोड़ता है. एक उद्योगपति बताते हैं, ‘कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में जो फैसले लिए गए थे उन्हें मुलायम सिंह यादव ने इस डर से पलट दिया कि कहीं कल्याण इसका राजनीतिक फायदा न उठा लें. अपने दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह (2003-07) ने कई दौरे किए, उद्योगपतियों को प्रदेश में निवेश के लिए आमंत्रित किया लेकिन खुद राज्य सरकार की सहमति न मिलने से ज्यादातर एमओयू जमीनी हकीकत नहीं बन पाए. कुल मिलाकर राजनीतिज्ञों की तरफ से स्पष्टता के अभाव ने प्रदेश में औद्योगिक विकास का माहौल खराब कर दिया.’

उत्तर प्रदेश में उद्योगपतियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उद्योगों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा बर्बादी के कगार पर है. बिजली की भारी कमी के चलते ज्यादातर छोटी औद्योगिक इकाइयां दूसरे राज्यों में चली गई हैं.  सीवर लाइन के लिए सालों पहले खोदे गए गड्ढों की वजह से खराब हुई सड़कें आज भी बदहाल हैं.

दसवीं लोकसभा (1991) में इस क्षेत्र से सांसद रह चुकी सीपीएम की सुभाषिनी अली बताती हैं, ‘ प्रदेश में कानपुर दूसरे शहरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला क्षेत्र रहा है, इसके बाद भी सबसे ज्यादा उपेक्षा इसी शहर को झेलनी पड़ी. यदि आप उद्योगों को आकर्षित करना चाहते हैं तो आपको सड़कें, बिजली और परिवहन की सुविधाएं उपलब्ध करानी ही होंगी.’ शहर के शानदार अतीत से लेकर इसकी मौजूदा बदहाली तक के साक्षी रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद तिवारी कहते हैं, ‘ इस शहर में कभी बसपा और सपा का मजबूत जनाधार नहीं रहा है जबकि पिछले तकरीबन बीस साल से यही दो पार्टियां सत्ता में हैं. इन पार्टियों के बड़े नेता अक्सर पूछते हैं कि इस शहर से उन्हें क्या मिला है. वे सोचते हैं कि कानपुर की मिलें यदि चालू भी हो जाएं तो उसका फायदा उन्हें नहीं मिलेगा बल्कि केंद्र में बैठी सरकार इसका श्रेय ले लेगी. इसलिए उनकी योजनाओं में कानपुर कभी शामिल नहीं होता.’

पिछले उदाहरण बताते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति करने वाले नेताओं ने भी कानपुर के लिए बड़े-बड़े वादे किए लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदला. प्रधानमंत्री बनने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि कानपुर की मिलों की चिमनियों से धुआं निकलना फिर शुरू होगा. यह बयान काफी चर्चित तो हुआ लेकिन एनडीए सरकार के समय में भी शहर की किस्मत जस की तस रही. हाल की यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री और कानपुर से लोकसभा सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल से जब भी औद्योगिक समूहों के प्रतिनिधि मिलते हैं तो वे राज्य सरकार की उदासीनता का हवाला देकर अपनी असमर्थता जाहिर कर देते हैं.

कुछ लोगों की राय में बाबरी मस्जिद ढहाने की घटना के बाद कानपुर के दंगों से बुरी तरह प्रभावित होने की वजह भी यही रही कि शहर की ज्यादातर मिलें और औद्योगिक इकाइयां सालों से बंद पड़ी थीं. अली कहती हैं, ‘एक बार जब मिलें बंद हो गईं तो कामगारों की एकता भी टूट गई. वे वापस अपनी पुरानी पहचान की तरफ लौटने लगे.’ हालांकि सांप्रदायिक द्वेष ज्यादा दिन तक कायम नहीं रहा और शहर बाद में धीरे-धीरे इस संकीर्णता से बाहर आ गया.

तो क्या प्रदेश के राजनीतिक आकाओं से शहर के उद्योग-धंधे दोबारा आबाद करने की उम्मीद की जा सकती है? जानकारों के मुताबिक यह हवा में महल खड़ा करने जैसा है. प्रमोद तिवारी कहते हैं, ‘ मुलायम सिंह और मायावती दोनों ही जातिवादी राजनीति की उपज हैं. यहां उद्योगों को पुनर्जीवित करना कोई मुद्दा ही नहीं है. फिर भी कोई ऐसा करना चाहे तो पहले यह देखना होगा कि उत्तर प्रदेश में सरकार के पास कोई औद्योगिक नीति है कि नहीं. फिर यह भी कि इसके तहत कानपुर के लिए कुछ खास किया जा सकता है. प्रदेश में किसी भी सरकार के पास अपनी कोई औद्योगिक नीति नहीं रही है, ऐसे में कानपुर के लिए अलग नीति की बात ही बेमानी है.’

एक बड़े उद्योगपति नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब कारोबारी दूसरे राज्यों में निवेश के लिए जाते हैं तो उनके लिए सुविधाओं का पिटारा खोल दिया जाता है : टैक्स में छूट, सस्ती दरों पर जमीन और जबर्दस्त बुनियादी सुविधाएं. वहां की सरकारें औद्योगीकरण के फायदे समझती हैं. कानपुर में तो हमें यही महसूस होता है कि सरकार हमें यहां से किसी भी तरह भगाना चाहती है. शहर में जो भी औद्योगिक इकाइयां बची हैं वे अपने दम पर सरकारी मुसीबतों को झेलते हुए यहां टिकी हैं.’

शहर के औद्योगिक ढांचे के बर्बाद होने की वजह सिर्फ राजनीतिक उपेक्षा ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इसके लिए कुछ हद तक मिल मालिक भी जिम्मेदार हैं. अपने अच्छे समय में जब कपड़ा मिलें भारी मुनाफा काट रही थीं तब उनके आधुनिकीकरण के लिए पैसा ही नहीं लगाया गया. नतीजा उनका उत्पादन घटता गया. लाखों की तादाद में मिल मजदूर होने की वजह से ट्रेड यूनियनों की भूमिका का भी यहां नकारात्मक असर पड़ा. जहां एक मिल में एक ट्रेड यूनियन होनी चाहिए वहां कानपुर की इन मिलों में एक समय में दस-दस ट्रेड यूनियनें बन गईं. इस समय जब केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से मिलों को मदद मिलनी चाहिए थी, लेकिन उनकी नीतियों ने अचानक उन्हें बर्बाद कर दिया. इन हालात में मिल मालिकों ने भी कारोबार से हाथ खींचना शुरू कर दिया. इसके बाद सरकारी हस्तक्षेप हुआ और बीमारू मिलों को सरकार ने अधिगृहीत कर लिया. एनटीसी इसी का एक उदाहरण है और इस बात का भी कि सरकारी मिलें बाद में कैसे सफेद हाथी बनकर रह गईं.

सुभाषिनी अली इस बात से सहमति जताती हैं कि सुदूर और पिछड़े इलाकों को छूट मिलने का बुरा असर कानपुर पर पड़ा है. वे कहती हैं, ‘सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि जिस जगह कुशल श्रमिकों की भरमार है और जो पिछले 75 सालों से यहां काम कर रहा है, वहां क्यों नहीं कुछ नई मिलों या उद्योगों को शुरू करने के लिए सरकारी मदद या प्रोत्साहन दिया जाए.’ कानपुर के एक उद्योगपति अपने दर्द को इन शब्दों में साझा करते हैं, ‘यह शहर असहाय भी है और अनाथ भी. हमें कोई ऐसा प्रभावशाली आदमी चाहिए जो कानपुर की आवाज को लखनऊ के साथ-साथ दिल्ली तक पहुंचा सके. और जब तक यह नहीं होता, शहर का तिल-तिल कर मरना जारी रहेगा.’

क्या इनका हश्र भी निगमानंद जैसा होगा?

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के तीन सदस्यों के इस्तीफे ने एक बार फिर गंगा को स्वच्छ करने की महत्वाकांक्षी कवायद पर सवाल खड़े कर दिए हैं. 2008 में जब इस प्राधिकरण की स्थापना हुई थी तो लगा था कि मैली गंगा के दिन फिरने वाले हैं. लेकिन साढ़े तीन साल में ही हाल वही ढाक के तीन पात जैसा हो गया. इस्तीफा देने वाले तीन सदस्यों में से एक जल संरक्षण पर अपने काम के लिए चर्चित राजेंद्र सिंह भी हैं. उनका आरोप है कि प्राधिकरण के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस नदी के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहे. राजेंद्र सिंह के साथ प्राधिकरण के दो अन्य सदस्य रवि चोपड़ा और आरएच. सिद्दिकी भी गंगा को लेकर स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के आमरण अनशन के समर्थन में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा भेज चुके हैं.

इस मुद्दे के केंद्र में हैं 80 वर्षीय स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद जो पहले प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के नाम से जाने जाते थे. उनका यह अनशन भौतिक से आध्यात्मिक परिवर्तन का अनूठा उदाहरण है.जिस सिविल इंजीनियर ने अपनी जिंदगी के सात साल रिहंद बांध परियोजना को दिए हों, आईआईटी प्रोफेसर के तौर पर जिसके पढ़ाए सैकड़ों छात्र रात-दिन देश की अनेक जल विद्युत परियोजनाएं बनाने में जुटे हों, उस व्यक्ति ने गंगा की अविरलता के लिए करीब दो महीने से अन्न और अब जल भी त्याग दिया है. अग्रवाल आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग और पर्यावरण विज्ञान विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. अब वे ज्योतिषपीठ के दीक्षित शिष्य हैं. अपनी पीठ के तीर्थ अलकनंदा नदी के अलावा स्वामी सानंद ने गंगा की दो अन्य धाराओं भागीरथी और मंदाकिनी की अविरलता और पवित्रता की रक्षा के लिए अन्न-जल छोड़ दिया है.

स्वामी सानंद यह आंदोलन गंगा सेवा अभियानम् संगठन के दिशानिर्देश पर कर रहे हैं. इस अभियान के सर्वे-सर्वा उनके आध्यात्मिक गुरु स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद हैं , जो ज्योतिष और द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के शिष्य हैं. आमरण अनशन पर जाने से पहले स्वामी सानंद ने 25 दिसंबर से अन्न त्याग कर फलाहार शुरू कर दिया था. 14 जनवरी से उन्होंने फलाहार भी छोड़ दिया और अब वाराणसी में आठ मार्च, 2012 से उन्होंने जल का भी त्याग कर दिया है. स्वामी सानंद के अलावा स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह, गंगा प्रेमी भिक्षु और स्वामी कृष्ण प्रियानंद ने भी इस तपस्या में संकल्प लिया है. अविमुक्तेश्वरानंद बताते हैं, ‘रणनीति यह है कि एक तपस्यारत के प्राण जाते ही दूसरा उसकी जगह तपस्या में बैठेगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘गंगा की अविरलता और स्वच्छता के लिए हम आंदोलन नहीं बल्कि तपस्या कर रहे हैं.’
इससे पहले प्रोफेसर अग्रवाल नवंबर, 2008 में 18 दिन तक उत्तरकाशी और दिल्ली में गंगा की अविरलता के लिए अनशन कर चुके हैं. उसके बाद 14 जनवरी, 2009 से शुरू हुआ उनका दूसरा अनशन 38 दिन तक दिल्ली में हिंदू महासभा के भवन में चला. साल 2010 में मातृ सदन में उनका तीसरा अनशन 39 दिनों तक चला. इन तीनों अनशनों के बाद वे भागीरथी पर उत्तरकाशी से ऊपर बनने वाली तीन बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं-लोहारी नागपाला, भैरोंघाटी और पाला मनेरी को बंद करवाने में सफल रहे थे.

अभियानम् का मानना है कि गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा करने के बाद भी अभी तक ऐसे कानून नहीं बनाए गए हैं जो इसके अनादर को दंडनीय बनाते हों जैसा कि अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे राष्ट्र ध्वज के मामले में होता है. उनका मानना है कि गंगा पांच राज्यों से बहती है और इसकी सहायक धाराएं तो 11-12 राज्यों और तिब्बत से भी आती हैं, इसलिए गंगा की पवित्रता की रक्षा के लिए केंद्रीय कानून बनना जरूरी है. अविमुक्तेश्वरानंद का तर्क है कि गंगा ऐक्शन प्लान 1 और 2 में करीब 12 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. उन्हें लगा कि इस बार भी तय 15 हजार करोड़ रु यूं ही बर्बाद हो जाएंगे और गंगा वैसी की वैसी रहेगी. इसी डर से गंगा सेवा अभियानम् ने तपस्या का निर्णय लिया.

बड़े नेताओं में से अभी तक इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए केवल भाजपा की उमा भारती ही मातृ सदन आई हैं. केंद्र सरकार की तरफ से अभी तक वार्ता का कोई संकेत नहीं दिख रहा है.

अब सवाल यह है कि क्या जान देने के बाद ही स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद की बात सुनी जाएगी.

ऐतिहासिक चूक

उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनावी नतीजों ने सियासत में अर्श से फर्श की जो मिसाल पेश की है अक्सर भारतीय राजनीति में दिख जाती है. हालांकि न तो सपा ने इतनी बड़ी कामयाबी के ख्वाब देखे थे और न ही बसपा सुप्रीमो मायावती को इतने बड़े सदमे का इल्म था. 20 करोड़ की आबादी वाले सूबे में दुर्गति तो कांग्रेस और भाजपा की भी हुई है, लेकिन सबसे बड़ी चोट उन मायावती को लगी है जिन्हें पांच साल पहले सोशल इंजीनियरिंग के नए फॉर्मूले ने 16 साल बाद प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने का अवसर दिया था. जिस सामाजिक ताने-बाने के चुनावी गणित ने मायावती को पिछली मर्तबा स्टार बनाया था, उसी के उलटने से बसपा को इस बार जमीन सूंघनी पड़ी है. वस्तुतः उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर उसी मुकाम पर वापस पहुंच गई है जो इसके संस्थापक कांशीराम के चरम काल में हुआ करता था.

दरअसल मायावती के इस दुःस्वप्न के लिए उनकी कार्यशैली और वे विश्वस्त जिम्मेदार हैं जिन पर पूरी तरह निर्भर रहते हुए बसपा प्रमुख ने पांच साल तक प्रदेश में राज किया. शासन-प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी जिन अफसरों पर थी उन्होंने ज्यादा वक्त मुख्यमंत्री को इस असलियत से दूर रखा कि अगड़ी जातियों खास तौर से ब्राह्मणों में सरकार के खिलाफ भारी आक्रोश था. यही नहीं, बसपा के जिन जोनल और जिला कोऑर्डिनेटरों के जिम्मे पार्टी संगठन मजबूत करने और सरकार की नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी थी उन्होंने भी पार्टी सुप्रीमो को जमीनी हकीकत से दूर रखा. एक वक्त दो जोड़े कपड़ों में महीनों गुजार देने वाले बसपा के शुरुआती मूवमेंट से जुड़े ज्यादातर कोऑर्डिनेटर महंगी गाड़ियों में घूमने लगे, लेकिन मायावती को यह सब नहीं दिखा.

सरकार के ज्यादातर मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त रहे, लेकिन मुख्यमंत्री को यह तभी नजर आया जब तमाम मामले लोकायुक्त तक पहुंच गए. चुनाव के ऐन पहले तक लोकायुक्त की सिफारिश पर बर्खास्त होने वाले मंत्रियों की संख्या 17 तक पहुंच गई तो जनता को भी लगने लगा कि अगर लोकायुक्त नहीं होता तो शायद मुख्यमंत्री की आंखों को भ्रष्टाचार की भद्दी सूरत नजर ही नहीं आती.

जिन ब्राह्मणों ने पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को वोट दिया था उन्हें सम्मान की बजाय एससी-एसटी ऐक्ट के फर्जी मुकदमों के जरिए अपमान मिला. हालांकि इस ऐक्ट के दुरुपयोग पर मायावती ने सख्ती के निर्देश दिए थे, लेकिन कुछेक घटनाओं के चलते अगड़ी जातियों में सरकार के खिलाफ आक्रोश का माहौल बन गया.

2007 में ऐतिहासिक जीत के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती को सभी जातियों का भरपूर समर्थन मिला. सदियों से एक-दूसरे के खिलाफ रहने वाले ब्राह्मण और दलित बसपा के छाते के नीचे इकट्ठा हो गए, लेकिन मायावती यह संतुलन कायम रख पाने में बुरी तरह असफल रहीं. बसपा सुप्रीमो ने पांच साल तक कमोबेश घर में ही बैठकर सरकार का संचालन किया.

असल में मायावती ने मुलायम सिंह के जंगल राज से निजात दिलाने के सपने तो दिखा दिए थे लेकिन उसको वास्तविकता में बदलने का काम उन्होंने खुद करने की बजाय कुछ चुनिंदा अफसरों के सिर पर छोड़ दिया. प्रदेश के इतिहास में पहली मर्तबा कैबिनेट सचिव का पद बनाकर मुख्यमंत्री नौकरशाही के आसरे हो गईं. पहले जिन मंत्रियों की भीड़ शासकीय दिशानिर्देश के लिए मुख्यमंत्री के दफ्तर में जमती थी वह लाइन कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के दफ्तर में लगने लगी. जनता तो कोसों दूर, मंत्रीगण तक आसानी से मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते थे. यही हाल प्रमुख सचिव और सचिव स्तर के आईएएस अफसरों का था. संवाद का जरिया थे कैबिनेट सचिव और गिनती के कुछ अन्य अफसर और शायद इसी वजह से मायावती को धरातल की खबर हालिया विधानसभा चुनाव के बाद ही मिल पाई.

सत्ता छिनने के बाद मायावती ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन और मुसलमानों के 70 फीसदी मतों के सपा के पक्ष में जाने से बसपा का नुकसान हुआ. मायावती का जोर इस बात पर था कि वे दलितों का पूरा वोट पाने में सफल रही हैं. मायावती के इस बयान में उनकी सबसे बड़ी चिंता छिपी हुई है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे इसे छिपाने की कोशिश कर रही थीं. आंकड़े बताते हैं कि मायावती का दलित जनाधार उनसे दूर हुआ है. वास्तव में गैरजाटव दलित वोटों के बंटने से बसपा का सबसे बड़ा नुकसान हुआ और सूबे की 85 सुरक्षित सीटों में पार्टी को कुल 15 सीटें ही मिल पाईं. पिछली बार यह संख्या 61 थी. इसके विपरीत सपा को 57, कांग्रेस को चार, रालोद और भाजपा को तीन-तीन सीटें मिलीं. मायावती का कहना है कि बसपा की बड़ी हार के पीछे मुसलिम आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच हुई घमासान और हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की चिंता में मुसलिम वोटों का सपा के पक्ष में ध्रुवीकरण एक बड़ा कारण रहा जबकि दलित वोट बैंक पूरी तरह उनके पक्ष में एकजुट रहा. नतीजों पर निगाह डालें तो साफ है कि जाटवों ने तो बसपा का साथ दिया लेकिन धोबी, पासी, बाल्मीकि जैसे गैरजाटव दलितों ने उससे इस बार किनारा कर लिया. मायावती भले ही सफाई दें लेकिन एक हकीकत यह भी है कि गैरजाटव दलित तो 2009 के लोकसभा चुनाव में ही उनसे छिटक गया था. प्रदेश की 17 सुरक्षित लोकसभा सीटों में मुलायम को 11 मिली थीं, जबकि बसपा सिर्फ एक सीट ही जीत सकी थीं.

2007 में सरकार बनते ही मायावती ने अगड़ी जातियों को ज्यादा तवज्जो देते हुए सामाजिक संतुलन का जो ताना-बाना बुना वह दलितों को रास नहीं आया. गांव-गांव और जिलों-जिलों में अंबेडकर की मूर्ति न लगाने के आदेश हुए और एससी/एसटी ऐक्ट का कथित दुरुपयोग रोकने के लिए पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अफसर की सहमति प्राप्त करने का प्रावधान किया गया. दलितों को लगा कि यह मायावती का अगड़ी जातियों के प्रति समर्पण है और गैरजाटव दलितों में इसकी खासी प्रतिक्रिया हुई जो 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों में परिलक्षित हुई.

मायावती सपा के जंगल राज से निजात दिलाने के नाम पर सत्ता में आई थीं, लेकिन उसको लागू करने का   काम उन्होंने कुछ अफसरों के सिर पर छोड़ दिया

इसके बाद मायावती ने अपना स्टैंड बदला और बाकी के ढाई साल उनका रवैया अति दलित प्रेम का रहा. इस अवधि में सूबे में बहुत-से स्थानों पर एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग के मामले हुए, लेकिन मुख्यमंत्री को उनके पसंदीदा अफसरों ने इसकी भनक तक नहीं लगने दी जिसका नतीजा अब सामने आया है.

एंटी इन्कंबेन्सी फैक्टर से निपटने के लिए मायावती ने इस बार 100 से ज्यादा मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए. उनकी सोच थी कि जनता में इन चेहरों के प्रति गुस्सा है इसलिए नए चेहरों के साथ चुनाव में उतरने पर वह सारे कुकर्मों को भूल जाएगी. लेकिन जनता का गुस्सा बसपा से था. ज्यादातर क्षेत्रों में अगड़ी जातियों ने बसपा को हराने के लिए जिसे भी सक्षम पाया उसे वोट दिया. यही काम गैरजाटव दलितों ने भी किया. अंबेडकर नगर बसपा का पुराना गढ़ रहा है जहां से मायावती एक मर्तबा लोकसभा भी पहुंच चुकी हैं. अंबेडकर नगर की सभी पांच सीटों पर पिछली बार बसपा के प्रत्याशियों ने चुनाव जीता था. लेकिन इस बार इस जिले में पार्टी का खाता तक नहीं खुला. आस-पास के जिलों बाराबंकी, गोंडा, फैजाबाद, जौनपुर, सुलतानपुर, लखनऊ और प्रतापगढ़ में भी पार्टी शून्य रही जबकि सात-सात विधायक देने वाले आजमगढ़ से पार्टी का केवल एक प्रत्याशी बमुश्किल जीत सका.

वैसे आनुपातिक लिहाज से सपा के मुकाबले बसपा 3.24 प्रतिशत ही पीछे है, लेकिन कुल साढ़े चौबीस लाख वोटों के अंतर के चलते उसे सपा के मुकाबले 144 सीटें कम मिली हैं.

चिंता की साफ लकीरें

दलितों की उदासीनता और ब्राह्मणों की नाराजगी ने मायावती को बैकफुट पर ला दिया है. संभवतः इन्हीं हालात के मद्देनजर बसपा सुप्रीमो ने सूबे में शीघ्र संभावित स्थानीय निकाय चुनाव से दूर रहने का फैसला किया है. इसके पीछे मायावती की खास रणनीति है. बसपा प्रमुख को लगता है कि लोकसभा के चुनाव वक्त से पहले होंगे और स्थानीय निकाय चुनाव में अगर पार्टी हिस्सा लेती है तो उम्मीदन इसके खराब नतीजे बड़ी लड़ाई में पार्टी की हालत और बिगाड़ सकते हैं. फिलहाल मायावती राज्य में पार्टी संगठन को अपनी देखरेख में मजबूत करके एक बार फिर सामाजिक भाईचारा की कवायद शुरू करने जा रही हैं. बसपा सुप्रीमो ने पार्टी के सभी कोऑर्डिनेटरों के काम-काज में बड़ा बदलाव करते हुए प्रदेश को दो हिस्सों में बांटकर संगठन संचालन स्वयं अपने हाथ में लेने का फैसला किया है.

विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद मायावती ने लखनऊ में लगातार दो दिन तक पार्टी संगठन के साथ बैठक करके कार्यकर्ताओं को नए सिरे से निर्देश जारी किए हैं. इन बैठकों में खास बात यह रही कि सतीश चंद्र मिश्रा और नसीमुद्दीन जैसे कद्दावर नेताओं को मायावती ने पहली बार प्रदेश भर से जुटे पार्टीजनों के सामने ही लताड़ लगाई. बसपा सुप्रीमो ने पांच साल में पहली बार इन नेताओं को मंच पर न बैठाकर आम कार्यकर्ताओं के साथ बैठाया. मायावती ने स्वीकार किया कि इन नेताओं ने उन्हें अंधेरे में रखा. पर इससे उनकी अपनी खामी ही उजागर होती है. मायावती ने नसीमुद्दीन को कार्यकर्ताओं के सामने ही डांटते हुए कहा, ‘तुम चुप रहो, मैं सब देख लूंगी.’ इस पर हॉल में बैठे बसपाइयों ने जमकर तालियां बजाईं. मायावती ने पार्टी के प्रमुख कोऑर्डिनेटर जुगल किशोर को भी खरी-खोटी सुनाई,  ‘यह अकेले ही अस्सी-नब्बे सीटें जिता रहा था, अपने बेटे के लिए टिकट मांगा तो मैने दे दिया, उसको भी नहीं जिता पाया. अब चुपके से पीछे बैठा है.’

बसपा सुप्रीमो ने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टीजनों के बीच अपना एजेंडा साफ कर दिया है. दलित वर्ग के कार्यकर्ताओं के साथ ही सभी सांसदों, विधायकों, पराजित प्रत्याशियों और कोऑर्डिनेटर को कहा गया है कि प्रदेश में एससी/एसटी ऐक्ट के तहत मुकदमे दर्ज कराने से यथासंभव परहेज किया जाए. यदि किसी दलित के साथ कोई संगीन जुर्म होता है तभी थाने जाने की जरूरत है. दरअसल मायावती का सोचना है कि इस ऐक्ट के दुरुपयोग का भ्रामक प्रचार करके दूसरी पार्टियों ने उन्हे बड़ा सियासी नुकसान पहुंचाया है और अब सत्तारूढ़ दल के समर्थक एक बार फिर ऐसा माहौल बनाने की साजिश कर सकते हैं.

अगड़ी जातियों के साथ रिश्ते सुधारने के साथ ही मायावती का दूसरा खास एजेंडा ओबीसी वोट बैंक के बीच फिर से अपनी पहुंच बनाना है. मायावती ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए हैं कि वे पिछड़ी जातियों के बीच जाकर भरोसा पैदा करें और उन्हें समझाएं कि आज उन्हें आरक्षण का जो लाभ मिल रहा है वह वास्तव में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की देन है. बसपा सुप्रीमो ने स्वीकार किया है कि उन्होने अपने दलित पदाधिकारियों पर भरोसा किया लेकिन वे सवर्णों के बीच स्थान नहीं बना पाए.

जाहिर है कि मायावती को अपने सोशल इंजीनियरिंग का गणित फेल होने का अहसास हुआ है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो इसके ठोस उपाय ढूढ़ने की कवायद उन्होने शुरू कर दी है. मायावती की रणनीति अब न्यूनतम गलती करने और समाजवादी पार्टी सरकार की हर गलती पर नजर रखने की होगी.

दिग्पराजय

पिछले तीन साल में मीडिया में आई कांग्रेस संबंधी खबरों का लेखा-जोखा निकाला जाए तो पता चलेगा कि सबसे ज्यादा जगह दिग्विजय सिंह ने घेरी. थोड़ी और पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि मध्य प्रदेश पर दस साल तक राज करने वाला यह नेता अक्सर नकारात्मक वजहों से सुर्खियों में रहा. सरकार में बगैर किसी ओहदे के चर्चा में कैसे बने रह सकते हैं, यह दिग्विजय सिंह ने दिखाया. जितने मुखर वे दिखे, उतना कोई और कांग्रेसी नहीं दिखा. मीडिया, संगठन और सरकार में उनकी छवि कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु की बन गई. राहुल गांधी ने अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को तय किया था. इसके तहत दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया. 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने राहुल का उत्साह बढ़ाने का काम किया था. राहुल बरास्ते उत्तर प्रदेश सात रेस कोर्स रोड में पहुंचने की रणनीति के तहत काम कर रहे थे. लेकिन इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पिछली बार की तरह चौथे नंबर पर रही. राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की रणनीति ढेर हो गई. अब सवाल उठता है कि इसके बाद दिग्विजय सिंह की राजनीतिक दिशा क्या होगी.

विधानसभा चुनावों में खास तौर पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार पर सोनिया गांधी का कहना था कि हार की समीक्षा होगी और जरूरी कदम उठाए जाएंगे. कुछ लोग यह संकेत निकाल सकते हैं कि इस हार के लिए कुछ लोगों पर गाज गिरेगी. लेकिन सच्चाई कुछ और है. वरिष्ठ पत्रकार रसीद किदवई ‘तहलका’ से कहते हैं, ‘कांग्रेस विचित्र पार्टी है. यहां अकाउंटेबिलिटी का अभाव है. किसी को सजा देने की परंपरा यहां नहीं है. इसलिए यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व दिग्विजय सिंह के पर कतरेगा.’

राजनीति के चतुर खिलाड़ी दिग्विजय सिंह ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का इंतजाम पहले से ही कर रखा है. हिमांशु शेखर का आकलन

तो फिर आगे दिग्विजय सिंह की भूमिका क्या होगी? कांग्रेसी सूत्रों के मुताबिक पार्टी में कई वरिष्ठ नेता उन्हें पसंद नहीं करते. इन नेताओं में दो सबसे बड़े नाम हैं पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल. सूत्र बताते हैं कि पार्टी की आंतरिक बैठकों में इन दोनों नेताओं ने दिग्विजय पर हल्ला बोल दिया है. यूपी की हार का ठीकरा वे दिग्विजय की अनावश्यक बयानबाजी पर फोड़ना चाहते हैंैं. चिदंबरम और दिग्विजय का टकराव पुराना है. नक्सलवाद से लेकर बाटला हाउस मुठभेड़ तक दोनों नेताओं की अलग-अलग लाइन रही है. बाटला हाउस को जिस आजमगढ़ में दिग्विजय ने बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की वहां की सभी दस विधानसभा सीटों पर कांग्रेस तीसरे और चौथे स्थान पर रही. कहा जाए तो उत्तर प्रदेश में दिग्विजय का कोई भी दांव सफल नहीं हुआ. यही वजह है कि चिदंबरम और सिब्बल समेत कई कांग्रेसी दिग्विजय सिंह को किनारे करने के पक्षधर हैं. लेकिन क्या यह संभव है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए एक घटना का जिक्र जरूरी है. कुछ ही महीने पहले एक पत्रकार ने दिग्विजय सिंह से पूछा कि क्या उनकी कोई ऐसी इच्छा बची है जो पूरी नहीं हुई हो. उन्होंने जवाब दिया कि वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते हैं. मतलब साफ है कि दिग्विजय की ताकत का मूल स्रोत गांधी परिवार की भक्ति है. इस भक्ति का ही नतीजा है कि 2003 में विधानसभा चुनावों में उमा भारती की अगुवाई वाली भाजपा से मात खाने के बाद उनका विस्थापन नहीं होता बल्कि उनका पुनर्वास राष्ट्रीय राजनीति में करवाया जाता है बतौर महासचिव.

दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश के नतीजों से अनजान नहीं थे. यही वजह है कि राहुल गांधी के साथ उत्तर प्रदेश में लगे रहने के बावजूद उन्होंने अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में कांग्रेस की आपसी गुटबाजी में बिसात कुछ इस तरह बिछाई कि अब वहां एक ही गुट बचा है. वह है दिग्विजय सिंह का गुट. मतलब साफ है कि 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के हर कदम के केंद्र में दिग्विजय रहने वाले हैं.

2014 के लोकसभा चुनावों से तकरीबन आठ महीने पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में चुनाव होने हैं. इन चुनावों में गांधी परिवार ऐसे नतीजे चाहेगा जिनसे कांग्रेस की केंद्र में वापसी की संभावना बनी रहे. ऐसे में राजस्थान की सरकार बचाने के अलावा कांग्रेस का जोर मध्य प्रदेश में अपनी सेहत सुधारने पर भी रहेगा. यहीं पर दिग्विजय एक बार फिर से प्रासंगिक हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में स्थानीय नेतृत्व का संकट झेलने वाली कांग्रेस दिग्विजय को किनारे करके मध्य प्रदेश में वही संकट पैदा करने का खतरा मोल नहीं ले सकती.

आरंभ है प्रचंड

अखिलेश यादव की तफसील में जाने से पहले दो छोटी-छोटी कहानियों पर गौर करना ठीक रहेगा.  उत्तर प्रदेश में चौथे चरण का मतदान खत्म हो चुका था. चुनावी मारामारी से उबरकर थोड़ा सुकून की तलाश में राहुल गांधी दिल्ली आए हुए थे. मौके का फायदा उठाने के लिए उन्होंने शहर के तमाम बड़े पत्रकारों को नाश्ते पर आमंत्रित किया. इनमें एनडीटीवी के बड़े पत्रकार थे, टाइम्स नाउ के थे, सीएनएन आईबीएन के थे और लगभग सभी बड़े अंग्रेजी अखबारों के संपादक भी मौजूद थे. इन सभी पत्रकारों के सामने राहुल ने अपना विजन उत्तर प्रदेश पेश किया. लेकिन इनमें करोड़ों की प्रसार संख्या वाले हिंदी अखबारों का एक भी पत्रकार आमंत्रित नहीं था. लाखों घरों में धमकने वाले हिंदी न्यूज चैनलों के भी किसी संपादक को बुलाने की जरूरत नहीं समझी गई. सवाल है कि उत्तर प्रदेश जैसे भदेस हिंदीभाषी प्रदेश के लिए भी राहुल को इनकी जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई.

दूसरी कहानी सुनिए, तीसरे चरण के मतदान से ठीक पहले एक चर्चित अंग्रेजी न्यूज चैनल की विख्यात और तेज-तर्रार महिला पत्रकार दिल्ली से लखनऊ पहुंची थी. अखिलेश यादव चुनावी सभाओं में व्यस्त थे. पत्रकार महोदया ने अखिलेश से उसी दिन उनके हेलिकॉप्टर में चुनावी यात्रा करने की मांग रखी. अखिलेश ने पूरी विनम्रता के साथ उनका आवेदन यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वे पहले से ही किन्हीं हिंदीभाषी पत्रकार को समय दे चुके हैं. महिला पत्रकार नाराज हो गईं. यह उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं था. हालांकि उन्होंने दो दिन बाद अखिलेश के साथ यात्रा की और सड़क किनारे पूरी पंचायत भी लगाई जो कि उनकी ट्रेडमार्क शैली है.

ये दो कहानियां देश में युवा राजनीति का परचम लहरा रहे दो नेताओं के बीच का फर्क दिखाती हैं. ये कहानियां उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों में सीटों का फर्क भी तय करती हैं. इन किस्सों को सुनाने वाले वरिष्ठ अंग्रेजी पत्रकार अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘आप हिंदीवालों को साथ लेकर नहीं चलेंगे और उत्तर प्रदेश, बिहार को जीतने का सपना देखेंगे तो बात कैसे बनेगी? कांग्रेस ने अपने अभियान के दौरान भीड़ भले ही जुटा ली हो पर भीड़ का मन उसके साथ कभी नहीं जुड़ा. हर सपाई के पास एक पता होता है पांच विक्रमादित्य मार्ग. वह आसानी से वहां नेताजी से लेकर अखिलेश तक से मुलाकात और बातचीत कर सकता है. पर एक कांग्रेसी के पास कोई पता नहीं है पूरे सूबे में. जहां कार्यालय है वहां कोई नेता बैठना पसंद नहीं करता. राहुल जी से मिलना तो दूर की कौड़ी है. कहने का मतलब है मतदाता राहुल को दिल्लीवाला ही मानता रहा. जबकि अखिलेश बातचीत से लेकर व्यवहार के स्तर तक लोगों को अपने करीब लगे, अपने वादों और प्रयासों में ईमानदार नजर आए.’

सपा को मिला जनादेश जितना अप्रत्याशित था उतना आश्चर्य लोगों को तब नहीं हुआ जब अखिलेश को विधानमंडल दल का नेता चुना गया. हालांकि पार्टी के कुछ पुराने दिग्गजों और परिवार के कुछ लोगों की असहजता अखिलेश की राह में बाधा बन रही थी, मगर सात मार्च को मुलायम के नाम की घोषणा न होने से ही इस बात के संकेत मिल गए थे. उस दिन अखिलेश के नाम को लेकर कोई सहमति नहीं बन सकी तो इसकी एक वजह यह भी थी कि वरिष्ठ सपा नेता और पार्टी का मुसलिम चेहरा रहे आजम खान उस दिन संसदीय बोर्ड की मीटिंग में पहुंचे ही नहीं.

पहली बार पुराने नेताओं ने युवाओं के साथ बैठकर एक ही सीट के लिए दावा पेश किया. इस प्रक्रिया में कई पुरानों का टिकट कटा; परिवार के कई सहयोगी भी टिकट से वंचित हुए

अब मामला दस मार्च को होने वाली नवनिर्वाचित विधायकों की मीटिंग पर टल गया था. इस दौरान होली पड़ गई और अखिलेश के अलावा पूरा परिवार सैफई में इकट्ठा हुआ. यहां पर अखिलेश की राह का दूसरा सबसे बड़ा रोड़ा बन रहे उनके चाचा शिवपाल को समझाने का काम मुलायम ने रामगोपाल यादव (अखिलेश के प्रिय चाचा) को सौंपा. शिवपाल को यह अहसास था कि मुलायम सिंह और सपा के इतर उनकी अपनी कोई हैसियत नहीं है. इसलिए उन्हें पार्टी लाइन के आगे झुकना पड़ा. शिवपाल के खिलाफ एक और बात गई जिसे एक नवनिर्वाचित विधायक इस तरह बताते हैं, ‘403 उम्मीदवारों में से एक ने भी शिवपाल को अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं मांगा. इससे उनकी उम्मीदवारी को बड़ा झटका लगा.’

शिवपाल को साधने के बावजूद आजम खान के रूप में सबसे बड़ी चिंता कायम थी. इससे पार पाने के लिए नौ तारीख की रात को मुलायम सिंह ने अपने आवास पर मैराथन मीटिंग आयोजित की. आजम खान लखनऊ में मौजूद होने के बावजूद तब तक नेताजी (मुलायम सिंह) से मिले नहीं थे. मुलायम सिंह ने उन्हें बुलवाया और अपने खराब स्वास्थ्य और अखिलेश की वजह से मिले प्रचंड बहुमत का हवाला देते हुए साफ कर दिया कि वे केवल अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. इसके बाद आजम खान के पास भी कोई और विकल्प नहीं रह गया था. इसी बैठक में आजम खान को स्पीकर बनाने का प्रस्ताव भी दिया गया जिसे उन्होंने यह कहते हुए निरस्त कर दिया, ‘मंत्री बनूंगा स्पीकर नहीं.’ बैठक में अगले दिन की कार्यवाही पर भी विचार हुआ जिसका निष्कर्ष यह निकला कि आजम अखिलेश के नाम का प्रस्ताव रखेंगे और शिवपाल उसका अनुमोदन करेंगे ताकि सभी तरह की नकारात्मक चर्चाओं पर विराम लग सके.

अगले दिन यानी दस मार्च को 224 विधायकों से खचाखच भरे सपा कार्यालय में इसे अमलीजामा पहना दिया गया. इसके दो नतीजे निकले. एक उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड अखिलेश यादव के नाम दर्ज हो गया. दूसरा समाजवादी पार्टी में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपने का काम भी पूरा हो गया.

1999 में राजनीति शुरू करने वाले अखिलेश को 2012 में हासिल हुई ऊंचाई किसी परीकथा सरीखी है. सिडनी यूनिवर्सिटी से पर्यावरण विज्ञान में इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर जब वे भारत लौटे थे तब उनका सपना अपना अलग व्यवसाय शुरू करने और अपनी अलग पहचान बनाने का था. कहीं किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता की तर्ज पर अखिलेश का भी आधा ही सपना पूरा हुआ. मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. उन्हें राजनीति में आना पड़ा और अपना धंधा शुरू करने का कभी वक्त ही नहीं मिला. पर हां, अपनी अलग नजीर बनाने की उनकी दूसरी इच्छा इन चुनावों के बाद जरूर पूरी हो गई है.

अखिलेश ने अपना पहला चुनाव 2000 में कन्नौज लोकसभा से लड़ा और जीता. इसके बाद 2004 और 2009 में भी वे यहां से सासंद बने. मगर तब तक किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था. शायद तब तक वे भी राजनीति को इतनी संजीदगी से नहीं लेते थे.

मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. उन्हें राजनीति में आना पड़ा और अपना धंधा शुरू करने का कभी वक्त ही नहीं मिला

2009 अखिलेश के जीवन का निर्णायक बिंदु है. इस साल उन्होंने कन्नौज के साथ फिरोजाबाद से भी लोकसभा का चुनाव लड़ा था. बाद में उन्होंने फिरोजाबाद की सीट खाली कर दी. उपचुनाव में  उनकी पत्नी डिंपल यादव को यहां से सपा का उम्मीदवार बनाया गया जिनके खिलाफ कांग्रेस ने कुछ समय पहले तक समाजवादी रहे राजबब्बर को उतारा. इस चुनाव में डिंपल बुरी तरह हार गईं. पार्टी के एक कार्यकर्ता बताते हैं कि इस हार से अखिलेश बहुत निराश और नाराज थे. उन्होंने पार्टी की कार्यशैली पर गुस्सा जताया और इसे बदलने का प्रण किया. इस प्रण के साथ ही एक छिपा हुआ प्रण उन्होंने और किया – कांग्रेस को मजा चखाने का. 2012 में उनकी सारी इच्छाएं पूरी हो चुकी हैं. पार्टी भी बदल चुकी है और कांग्रेस की आंखों (अमेठी, रायबरेली और सुलतानपुर) से काजल चुरा लाने का कारनामा भी सपा ने कर दिखाया है.

2009 के उपचुनाव में हार ने अखिलेश को जमीन पर ला दिया था. शायद 2012 के परिणाम राहुल गांधी को भी जमीन पर लाने में सफल रहें. सपा सिर्फ उपचुनाव ही नहीं हारी थी बल्कि आम चुनावों में भी उसे करारी शिकस्त खानी पड़ी थी. 39 सीटों का आंकड़ा 23 पर सिमट गया था. मंडल की पोटली से उपजी सियासत के नायक मुलायम सिंह यादव का किला दो दशकों में पहली बार ध्वस्त होता हुआ दिखा था और कांग्रेस ने हैरतअंगेज कारनामा करते हुए अपना आंकड़ा 21 लोकसभा सीटों तक पहुंचा दिया था.

पार्टी के लिए यह आपात स्थिति थी. इस घड़ी में मुलायम सिंह ने सपा की ध्वजा अखिलेश को पकड़ाने का निश्चय किया. वे उत्तर प्रदेश सपा के अध्यक्ष बना दिए गए. यहां से अखिलेश ने सपा का चाल-चरित्र-चेहरा बदलने के अभियान की शुरुआत कर दी.  वे एक साथ कई मोर्चों पर बदलाव की मुहिम चला रहे थे और संगठन में जोश भरने और उसे मजबूत करने का काम खुद गांव-बाजार में साइकिल पर घूमते हुए कर रहे थे.

इस दरम्यान मुलायम सिंह यादव अपनी कुछ पुरानी भूलों को दुरुस्त करने में लगे हुए थे. सबसे पहले उन्होंने 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले साथी बने कल्याण सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. मुसलमानों ने लोकसभा चुनावों के दौरान उन्हें इसकी सजा दे दी थी. सपा की सीटें घटने के साथ ही मुसलिम-यादव समीकरण वाली पार्टी का एक भी मुसलिम प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका था. यह शुरुआत थी. अब मुलायम सिंह के सबसे खासुल खास अमर सिंह की बारी थी. यह वह दौर था जब अमर सिंह नेताजी के आंख-कान हुआ करते थे.

अमरकाल में सपा ने तमाम पुराने समाजवादियों को किनारे लगाकर पार्टी में फिल्मी और पूंजीवादी संस्कृति का सूत्रपात किया था. इसी दौरान आजम खान, रामआसरे विश्वकर्मा जैसे नेताओं को बाहर कर दिया गया और वरिष्ठ नेता बलराम यादव हाशिये पर चले गए. पर 2009 के आखिर तक अमर की मौजूदगी सपा को भारी पड़ने लगी थी. पार्टी उनसे मुक्ति पाने का रास्ता तलाश रही थी और रास्ता खुद अमर सिंह ने ही उसे मुहैया करवाया. वे पार्टी के निर्णयों में की जा रही अपनी अनदेखी से नाराज चल रहे थे. हालांकि उनसे पार पाने का फैसला पार्टी में पहले ही हो चुका था पर उन्हें अपनी खिसकती जमीन का अहसास ही नहीं था. मुलायम सिंह पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने ब्लैकमेलिंग की अपनी चिरपरिचित शैली का इस्तेमाल किया और अपने इस्तीफे का दांव चला. यह दांव उल्टा पड़ गया. अमर सिंह का इस्तीफा थोड़ी ना-नुकुर के बाद कबूल हो गया. अमर सिंह को इसकी उम्मीद नहीं थी. जनवरी 2010 में सिंह सपा से बाहर हो गए या कर दिए गए. व्यक्तिगत बातचीत में सपा कार्यकर्ता इस घटना का विवरण बड़े चाव से देते हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के शब्दों में, ‘अखिलेश भैया के इशारे पर नेताजी ने अमर सिंह का इस्तीफा कबूल किया था. भैया किसी भी हाल में पार्टी को उनके चंगुल से बाहर निकालना चाहते थे.’

इन दो बोझों से मुक्ति पाने के बाद अब मुलायम सिंह और अखिलेश के सामने अपनों को मनाने का वक्त था. उन्होंने इस काम में देरी नहीं की. उन्हें इस बात का इल्म था कि 2012 ज्यादा दूर नहीं है. तो मुलायम सिंह ने अपनी गलतियों के लिए प्रदेश के मुसलिम समाज से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी. इसके बाद पार्टी के मुसलिम चेहरे आजम खान को तमाम मनुहारों के बाद दिसंबर, 2010 में पार्टी में वापस ले आया गया. आजम खान की दो बड़ी दिक्कतें – कल्याण सिंह, अमर सिंह – पहले ही दूर हो चुकी थीं. इसी दौरान पार्टी ने अपने पिछड़े वोटबैंक का दायरा और विस्तृत करने की प्रक्रिया में विशंभर प्रसाद निषाद और रामआसरे कुशवाहा को अपने साथ जोड़ लिया. इस तरह से सपा ने 2011 के मध्य तक अपने सभी कील-कांटे पूरी तरह से दुरुस्त कर लिए थे.

अखिलेश के सामने एक बड़ी चुनौती थी योग्य उम्मीदवारों के चयन की. सपा में पहली बार उम्मीदवारों के चयन के लिए आवेदन और साक्षात्कार की परंपरा शुरू की गई. इसका मकसद नए नेताओं को सामने लाने के साथ केवल वरिष्ठता के आधार पर मठाधीशी करने वाले नेताओं से मुक्ति पाना भी था. पहली बार तमाम पुराने नेताओं ने युवाओं के साथ बैठकर एक ही सीट के लिए दावा पेश किया. 3000 से ज्यादा आवेदन आए. इस प्रक्रिया में कई पुरानों का टिकट कटा; परिवार के कई सहयोगी भी टिकट से वंचित हुए.

मुलायम सिंह ने अखिलेश की पारी सुगम बनाए रखने के लिए प्लान ‘बी’ भी तैयार कर रखा है

अब सपा सभी हथियारों से लैस होकर जनता के बीच पहुंची. चयनित प्रत्याशियों के लिए एक गाइडलाइन बनाई गई. इसके तहत सभी प्रत्याशियों को अपने क्षेत्र में हर बूथ के लिए बूथ समिति बनानी थी. यह एक जटिल प्रक्रिया थी लिहाजा इसमें कई उम्मीदवारों ने हीला-हवाली की. इसके नतीजे में कुछ उठापटक भी देखने को मिली. कई सीटों पर उम्मीदवारों को बदला गया. खैर यह प्रक्रिया भले ही जटिल रही हो लेकिन कितनी कारगर रही इसका फैसला चुनावी नतीजों के आधार पर किया जा सकता है- 224 सीटें. ऐसा बहुमत जो भाजपा तक प्रचंड राम लहर और एकीकृत उत्तर प्रदेश में कभी नहीं पा सकी थी.

यहां से सपा ने निर्णायक संघर्ष शुरू किया. टिकट वितरण का काम लगभग संपन्न हो चुका था और इस समय तक अखिलेश की युवाओं की टीम काम करने लगी थी. सुनील यादव (राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी छात्र सभा), आनंद भदौरिया (राष्ट्रीय अध्यक्ष, लोहिया वाहिनी), नफीस अहमद (राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी युवजन सभा), जगत सिंह, नावेद सिद्दीकी (प्रदेश सचिव, सपा), विजय चौहान आदि के रूप में अखिलेश की टीम अपने काम में लगी हुई थी.

सुनील यादव और आनंद भदौरिया अखिलेश के सबसे करीबी लोगों में शुमार हैं. दोनों 9 मार्च, 2010 को राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बन गए थे. सपा ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था जिसमें अखिलेश को गिरफ्तारी देनी थी. अखिलेश को पुलिस ने हवाई अड्डे से गिरफ्तार कर लिया. तब आनंद और सुनील ने इस प्रदर्शन का नेतृत्व किया. जवाब में पुलिस ने दोनों पर जमकर लात और लाठियां बरसाई थीं. अगले दिन अखबारों में एक पुलिस अधिकारी आनंद भदौरिया के मुंह पर अपना पैर रखे हुए और सुनील लाठियों के नीचे दबे हुए दिखे. इस घटना ने बसपा सरकार और पुलिस की खासी किरकिरी करवाई.

इन आंदोलनों से होता हुआ सपा का कारवां सितंबर, 2011 तक आ पहुंचा था. तब अखिलेश ने अंतिम शंखनाद किया. वे समाजवादी क्रांति रथ लेकर प्रदेश में निकल पड़े. 1987 में मुलायम सिंह यादव भी समाजवादी रथ लेकर प्रदेश भर में घूमे थे. यह निर्णायक वार सिद्ध हुआ, जिसने चतुष्कोणीय मुकाबले में फंसे उत्तर प्रदेश की बाकी तीनों पार्टियों को बुरी तरह से चित कर दिया. जिन 21 सीटों पर कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव में परचम फहराया था उनकी 97 विधानसभा सीटों में से उसे सिर्फ 9 सीटें इस बार मयस्सर हुई हैं. यह आंकड़ा उस सच्चाई की गवाही है कि कितनी तेजी से सपा ने 2009 में अपनी खोई हुई जमीन पर वापस कब्जा जमाया है.

छह मार्च को प्रचंड बहुमत मिलने के बाद भी अखिलेश बार-बार दोहरा रहे थे कि नेताजी ही मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन नेताजी का वह बयान अखिलेश के दावे को संदिग्ध बना रहा था कि 10 मार्च को विधायक दल ही अपने नेता का फैसला करेगा. जिस पार्टी में नेताजी बाईडिफॉल्ट लीडर हुआ करते थे वहां उनका यह बयान इशारा था कि नेतृत्व अखिलेश को सौंपे जाने का विमर्श गंभीरता से जारी है. वही हुआ भी, दस मार्च को आजम खान ने अखिलेश के नाम का प्रस्ताव रखा जिसका शिवपाल यादव ने अनुमोदन किया और विधायकों के दल ने हर्षध्वनि के साथ उन्हें स्वीकार कर लिया.

किन परिस्थितियों में ‘निराश’ लोगों ने हामी भरी इसका जिक्र पहले किया जा चुका है. इस दशा में नए नवेले अखिलेश के लिए यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि आजम खान या दूसरे लोग मन से उनके तहत कितना काम कर पाते हैं. नई लकीर गढ़ने वाले अखिलेश को इस मोर्चे पर भी खुद को सिद्ध करना होगा. हालांकि जानकार मानते हैं कि मुलायम सिंह ने अखिलेश की पारी सुगम बनाए रखने के लिए प्लान ‘बी’ भी तैयार कर रखा है. इसके तहत पार्टी के वे पुराने समाजवादी भी या तो सरकार में शामिल किए जाएंगे या उन्हें अन्य महत्वपूर्ण ओहदे दिए जाएंगे जो मुलायम सिंह यादव के बेहद विश्वसनीय हैं और पार्टी में जिनका कद आजम खान या दूसरे असंतुष्टों के बराबर है. इससे पार्टी में एक किस्म का संतुलन बना रहेगा. ऐसे नेताओं में छह बार से लगातार चुनाव जीत रहे माता प्रसाद पांडेय हैं. अंबिका चौधरी जैसे नेता भी हैं जो चुनाव भले ही हार गए हों लेकिन उन्हें नेताजी ने राज्यसभा भेजकर उनके पुनर्वास का जुगाड़ कर दिया है. चौधरी की स्थिति यह है कि उन्हें नेताजी ने विधानमंडल दल की बैठक में आमंत्रित किया था पर उन्हें पहुंचने में देर हो गई. लेकिन जब तक वे बैठक में पहुंचे नहीं तब तक मुलायम सिंह ने बैठक की कार्यवाही शुरू नहीं होने दी. बैठक के बाद राज्यपाल के पास औपचारिक दावा पेश करने के लिए अखिलेश चले तो आजम खान के साथ अंबिका चौधरी भी गए. मुलायम सिंह ने खुद को इससे दूर रखा. उन्होंने अपने भाषण में भी यह बात स्पष्ट कर दी, ‘अब मैं ज्यादा समय दिल्ली को ही दूंगा. लखनऊ के लिए अब कम वक्त रहेगा.’

हालांकि पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि अगले कुछ महीनों तक नेताजी लखनऊ से किसी तरह निगाह नहीं हटाने वाले हैं. उन्हें अफसरशाही से लेकर राजनीति तक के सभी दांवपेंच और सबकी काट पता है. इसका फायदा अखिलेश को होगा. हालांकि वे लोग यह विश्वास भी जताते चलते हैं कि अखिलेश को किसी कवच की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस बीच अखिलेश ने अपने स्तर पर बदलाव का संकेत देना शुरू भी कर दिया है. छह मार्च को नतीजे आए और सात मार्च को पूरे लखनऊ शहर को छुटभैये नेताओं ने नेताजी और भैया के बैनर होर्डिंगों से पाट कर रख दिया. अखिलेश ने तत्काल कार्रवाई करते हुए इन सबको हटाने का निर्देश जारी किया. अपने सबसे विश्वसनीय सहयोगी सुनील यादव को उन्होंने इस काम की जिम्मेदारी सौंपी. सुनील यादव एक-एक होर्डिंग को हटवाने की कार्रवाई में लगे रहे. और आठ मार्च को एक बार फिर से पुरानी स्थिति बहाल हो गई. सारे शहर से बैनर-होर्डिंग हटा दिए गए.

यही नई राजनीति है जिसकी चर्चा मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक छाई हुई है. पर यह सवाल भी उठता है कि लोगों को राहुल गांधी वाले मॉडल पर यकीन क्यों नहीं हुआ. वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर कहते हैं, ‘राहुल का अभियान सुनियोजित नहीं था बल्कि हवाई था. जो योजना अखिलेश के अभियान में दिखती है वह कहीं और नजर नहीं आती. राहुल के बदलाव को लोग हवाई मानकर चल रहे थे.’ अखिलेश के उत्कर्ष को संकर्षण कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता करार देते हैं, ‘अब तक युवा राजनीति पर राहुल गांधी का एकाधिकार था. कांग्रेस जिसे तुरुप का इक्का मानकर चल रही थी उसके मुकाबले में अब उससे भी ज्यादा विश्वसनीय विकल्प खड़ा हो गया है. अखिलेश की उम्र राहुल से चार साल कम है. इसका मतलब है कि अगले तीस साल के दोनों के राजनीतिक सफर में बार-बार एक-दूसरे का टकराव होना है. राहुल को जल्द ही खुद को साबित करना होगा वरना अखिलेश उनके रास्ते में आ खड़े होंगे. कांग्रेस के लिए संकट की घड़ी है.’

संकट का काल मीडिया के लिए भी है. मुद्दे और बारीकियां उसके हाथों से फिसलती जा रही हैं. अंग्रेजी की सुविख्यात पत्रकार सागरिका घोष प्राइम टाइम पर अखिलेश से पूछ बैठती हैं, ‘अखिलेश… आपने अपनी पार्टी को तो बदल दिया है पर अपनी पार्टी को हिंदी बोलने की आदत से कब छुटकारा दिलवाएंगे.’ गौरतलब है कि अपने पूरे चुनावी अभियान के दौरान अंग्रेजी बोलने की क्षमता होते हुए भी अखिलेश ने अंग्रेजी मीडिया के साथ भी हिंदी में ही बात की थी. यह पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) का एक सकारात्मक पहलू है.

सागरिका गलत व्यक्ति से गलत सवाल पूछ रही थीं. सही व्यक्ति राहुल होते और सही सवाल होता, ‘राहुल, आप और आपकी पार्टी यह अंग्रेजियत का चोला कब उतारेगी?’ उत्तर प्रदेश की यही सच्चाई है.

12वीं की उम्र 5वीं का पाठ

हिंदी में एक कहावत है –  दूसरों के घरों में झांकने से पहले अपना आंगन बुहार लेना चाहिए. शायद राहुल गांधी और उनकी पार्टी को अभी सबसे ज्यादा यही करने की जरूरत है. केवल दिल्ली और पूरे देश वाली दिल्ली, दोनों की सरकारें आज कांग्रेस की हैं. हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, असम, केरल सहित देश के अन्य 12 राज्यों में भी कांग्रेस या उसके गठबंधन की ही सरकारें हैं. तो क्या इन राज्यों को उन्होंने आदर्श की स्थिति में पहुंचा दिया है? क्या यहां गांधी-नेहरु के सपनों के 10 फीसदी पर भी चलने वाली सरकारों का राज है? क्या इन प्रदेशों में मनरेगा से लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की दूसरी तमाम योजनाएं बढ़िया से चल रही हैं? क्या यहां भ्रष्टाचार पर लगाम लगते और इस मोर्चे पर स्थिति सुधरती दिख रही है? क्या यहां कांग्रेस की स्थिति हर बीते दिन के साथ सकारात्मक बदलावों के चलते बेहतर हो रही है? अगर ऐसा नहीं है तो राहुल किस मुंह से अपनी पार्टी के कब्जे से बाहर वाले राज्यों को रंगीन बाग दिखाए जा रहे हैं? क्या वे देश की जनता को इतना नादान समझते हैं कि बाकी जगह उनकी पार्टी की सरकारें क्या कर रही हैं या वे उनसे क्या करवा पा रहे हैं इसका उसे कोई भान ही नहीं है? पहले अपना घर दुरुस्त करने वाली बात को रेखांकित करना इसलिए भी जरूरी है कि नेहरू-गांधी परिवार के परंपरागत चुनाव क्षेत्रों – अमेठी, रायबरेली, सुल्तानपुर – में ही कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया. यानी दुनिया भर की दशा बदलकर उसे संतुष्ट करने का दावा करने वाले लोगों पर उनके घर के लोगों को ही भरोसा नहीं हो पा रहा है.

अगर 2012 के परिणामों की नजर से राहुल के नजदीकी भविष्य पर नजर डालें तो 15वीं लोकसभा में उनका प्रधानमंत्री न बनना अब लगभग तय हो चुका है

एक और कहावत है – थोथा चना बाजे घना. इस बार के चुनावों में राहुल का व्यवहार कुछ-कुछ ऐसा भी रहा. युवावस्था में गुस्सा आना स्वाभाविक है. चुनावों की गरमा-गरमी में दो-चार बातें इधर-उधर की कह जाना भी चलता है. मगर दूसरी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र को ही फाड़कर फेंक देना सार्वजानिक और राजनीतिक शिष्टाचार की हर सीमा को लांघ जाना है. अगर केवल भारतीय क्रिकेट टीम का उपकप्तान बनाए जाने पर विराट कोहली पर यह सवाल उठ रहा है कि कई बार उनका व्यवहार संयत नहीं होता तो राहुल तो पूरे देश का ही कप्तान बनने के दावेदार माने जा रहे हैं. वे उम्र में भी विराट कोहली से करीब 20 साल बड़े हैं.

अगर उनके पिता की ही बात करें तो राजीव गांधी उनकी आज की उम्र से दो साल पहले ही देश के प्रधानमंत्री बन गए थे. उन्हें राजनीति का अनुभव भी राहुल से काफी कम था. ब्रिटेन के वर्तमान प्रधानमंत्री डेविड केमरन भी मात्र 43 साल की उम्र में बिना किसी राजनीतिक विरासत के प्रधानमंत्री बन गए थे. मगर राहुल सक्रिय राजनीति में आने के आठ साल बाद भी राजनीति के नौसिखिये बने हुए हैं. बुनियादी जरूरतें तो आज भी हमारे देश की 70 फीसदी आबादी की वही बिजली, पानी, सड़क, रोजगार आदि ही हैं. तो कितनी जगह और कितनी बार इन्हें जानने-समझने की राहुल को जरूरत है! क्या वे इतने कमजोर छात्र हैं कि उन्हें 12वीं कक्षा की उम्र में भी पांचवीं कक्षा का पाठ लगातार पढ़ते रहना होता है? क्या उन्हें देश के सामने खड़े 12वीं कक्षा के सवालों को समझने और उन्हें हल करने के लिए कुछ करने की जरूरत महसूस नहीं होती?

अगर 2012 के परिणामों की नजर से राहुल के नजदीकी भविष्य पर नजर डालें तो 15वीं लोकसभा में उनका प्रधानमंत्री न बनना अब लगभग तय हो चुका है. अगर चुनावों के परिणाम अनुकूल होते और केंद्र सरकार कुछ और मजबूत होती तो बहुत संभावना थी कि किसी बहाने से मनमोहन सिंह को हटाकर उनके स्थान पर राहुल को लाया जाता. मगर 70 असंतुलित बैसाखियों पर टिकी सरकार का प्रधानमंत्री बनने से शुरुआत करने का साहस राहुल शायद ही कर सकेंगे. अब जो होगा वह शायद यह कि यदि आगे का कुछ समय कांग्रेस के लिए थोड़ा अच्छा रहता है और विपक्ष की हालत में कोई खास सुधार नहीं होता तो अगला आम चुनाव पार्टी राहुल के नेतृत्व में लड़ सकती है. नहीं तो, नेतृत्व तो राहुल का ही रहेगा मगर शायद उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की बात चुनाव से पहले न कहकर एक बचाव का रास्ता बचाकर रखा जाए. राहुल और कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता क्या हो इस बारे में विचार करने के लिए उन्हें उस प्रदेश की ओर ही देखना होगा जिसे वे अपना कहते हैं और जिसने उन्हें हालिया चुनावों में सबसे बड़ा सबक सिखाया है.

अगर आज से दो साल पहले की बात करें तो समाजवादी पार्टी एकदम विलुप्ति के कगार पर खड़ी नजर आ रही थी. 2007 के विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में भी उसकी सीटें 37 से घटकर 23 पर पहुंच गई थीं. इसके बाद फिरोजाबाद उपचुनाव में अखिलेश की छोड़ी सीट से उनकी पत्नी डिंपल को भी राज बब्बर के हाथों शर्मनाक हार झेलनी पड़ी थी. मगर इसके बाद जो किया गया वह बड़ा सोच-समझकर बिना शोर-शराबे के हुआ. पार्टी की कमान एक प्रकार से अखिलेश के हाथों में सौंप दी गई. अमर सिंह सरीखे अनुपयोगी लोगों को पार्टी से चलता कर दिया गया. और अपनी गलतियों को न केवल मुलायम और अखिलेश ने माना बल्कि सार्वजनिक तौर पर उन्हें स्वीकार करके उनके लिए जनता से माफी भी मांगी. परिणाम आज सारी दुनिया के सामने है.

अगले लोकसभा चुनाव में भी अभी दो साल से कुछ ज्यादा का समय है. कुछ से कुछ ज्यादा अनुपयोगी बल्कि नुकसानदेह लोग राहुल के साथ भी हैं. और कुछ गलतियां उनसे भी हुई ही होंगी. तो राहुल ने जो कुछ भी अब तक सीखा है उसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें इन सभी चीजों से पार पाने के प्रयास करने ही होंगे. नहीं तो वे केवल दुआ ही कर सकते हैं कि उनके सामने वाली पार्टियां इतनी मजबूत न हो जाएं कि वे उनकी और उनकी पार्टी की कमजोरियों का फायदा उठा लें.