‘चश्मे पर बारीक नज़र’

चश्मे को लेकर पचासों तरह के भ्रम हैं तथा हजारों सलाहें चलती हैं. मैं जानता हूं. मुझे दी गई हैं. लानतें भी, सलाहें भी. बचपन में चाहे जो मुझे चश्मा लगाये देख लेता. ढेरों सलाहें देता डालता. लानतें कि तेरे को इतनी कम उम्र में चश्मा लग गया क्योंकि तू फालतू ही इतना पढ़ाकू है, सब्जियां नहीं खाता है, जरूर ही हस्तमैथुन आदि ऐसी गलत आदतें रही होंगी कि शरीर कमजोर होने से आंखें भी ऐसी हो गईं वगैरह. मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था. तब से ही चश्मा लगा रहा हूं. अभी तो ऐसा लगता है कि मैं चश्मा लगाकर ही पैदा हुआ होऊंगा. पूरा जीवन चश्मे के बारे में ऊलजुलूल बातें सुनते गुजारी है मैंने. ‘चश्मा हटाने’ के हजारों टोटके अभी भी गांव-कस्बों में बताए जाते हैं. मऊरानीपुर में मेरी दादी तथा अन्य रिश्तेदार दुखी थे कि ज्ञानू को इत्ती कम उम्र में चश्मा लग गया है. उन्होंने सामने की दुकान पर बैठने वाले गोपी का उदाहरण दिया जिनका ‘चश्मा हट गया’ था. दादी के कहने पर मैं भी चश्मा हटने का रहस्य जानने के लिये गोपी से मिला. मैंने  उनसे पूछा कि चश्मा तो हट गया पर दिखता तो ठीक-ठाक है कि नहीं? गोपी ने बताया कि ‘चश्मा तो हट गया है’ परंतु ठीक से दिखता नहीं है! आज मैं चश्मे और नजर को लेकर ऐसे ही कुछ सही, कुछ ऊलजुलूल प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करूंगा. संभावना है कि ये प्रश्न आपके मन में भी उठते हों.

क्या लेटकर पढ़ने, ज्यादा पढ़ने, हरी सब्जियां न खाने या अन्य कमजोरी के कारण ही नजर का चश्मा लग जाता है?

नजर का चश्मा मायोपिया, हाइपरमेट्रोपिया, प्रेसवायेपिया आदि नेत्र रोगों के कारण लगता है जो प्रायः अनुवंशिक कारणों से होते हैं. आंख की बनावट कुछ ऐसी हो जाती है कि उसके कारण रेटिना पर साफ तस्वीर नहीं बनती. चश्मे का लेंस ‘फोकल लेंथ’ को ठीक करके सही तस्वीर बनाने का काम करता है. लेटने, बहुत पढ़ने आदि से आंख की बनावट पर कोई असर नहीं होता. फिर भी लेटकर पढ़ना, कम प्रकाश में पढ़ना आदि ‘विज़न हाइजीन’ के विरूद्घ तो है ही. एक चीज कहलाती है ‘विजन हाईजीन’. चश्मा लगे, न लगे पर आंखों में दर्द, आंखों का थक जाना, आंखों का सूखा लगना या पानी सा आना जैसे नेत्र तनाव के लक्षण तो पढ़ने-देखने के गलत तरीकों से हाेते ही हैं. पुस्तक या कंप्यूटर-स्क्रीन आंखों के लेवल पर हो. अच्छी रोशनी हो. कमरे में न बहुत तीखी, न ही ‘कंस्ट्रास्ट’ वाली रोशनी हो.  हर आधे घंटे, पौन घंटे पर कुछ मिनट के लिए कंप्यूटर या किताब को छोड़ दें. चश्मा लगने, न लगने पर इन चीजों का कोई असर न हो पर आंखें थकेंगी नहीं, यह तय है. हरी सब्जियां भी इसी तरह मदद करती हैं. अनीमिया हो तो उसकी दवाइयां लें. पर  इनसे ‘चश्मा छूट जायेगा’, ऐसा भ्रम न पालें.

यदि छुटपन से ही चश्मा लग गया तो आगे भी नंबर बढ़ता ही जाएगा. इसीलिये क्या छोटे बच्चों को चश्मा नहीं लगवाना जाएगा?

यह सोच ही गलत है. लेकिन ऐसा करेंगे तो संभव है कि बाद में चश्मा भी काम न आये. अतः ऐसी गलती कभी न करें. बच्चे को हल्का नंबर दिया गया है तो भी जरूर लगवाएं. ऐसा करेंगे तो बाद में चश्मे लायक आंखें भी नहीं बचंेगी.

कान्टेक्ट लेंस बेहतर हैं कि चश्मा लगाना?

चश्मे की अपनी सीमायें तथा परेशानियां हैं. आदमी ‘चश्मुद्दीन’ लगे तब भी चल जाता है बल्कि चश्मा लग जाने से कई बार आदमी खामख्वाह ही बुद्घिजीवी तथा विद्वान नजर आने लगता है.  हां, लड़कियों को लगता है कि चश्मे से उनकी खूबसूरती तथा लुक पर गलत असर पड़ता है. फिर चश्मे की संभाल. फिर चश्मा आपकी पूरी दृष्टि को समेट नहीं पाता.  आपका ‘पेरीफेरल विज़न’ या कह लें कि परिधि की दृष्टि धुंधली ही बनी रहती है. कान्टेक्ट लेंस इस सबसे मुक्ति दिलाते हैं. वे पूरी दृष्टि साफ करते हैं क्योंकि वे आंख (की कॉर्निया) पर ही धरे जाते हैं. कान्टेक्ट लेंस खूबसूरती तथा दृष्टि के व्यापक पैनेपन के हिसाब से बेहद कारगर हैं. फिर भी, चश्मे ही ज्यादा चलते हैं तो क्यों? क्योंकि कान्टेक्ट लेंस लगाना बहुत संभाल का काम है. उन्हें बहुत साफ रखना होता है. कई लोग उन्हें साधारण पानी से धो डालते हैं जो ठीक नहीं. लेंस को बार- बार, ठीक से साफ न करो या ठीक से न बरतो तो कॉर्निया पर छाले (कॉर्नियल अल्सर) हो सकते हैं और अंधा भी बना सकते हैं. यही वजह है कि बच्चे या लापरवाह किस्म के बड़े लोगों के लिए कान्टेक्ट लेंस लगा पाना कठिन काम है और  खतरनाक भी.

‘लेसिक सर्जरी’ से चश्मा हट सकता है न?

सौ प्रतिशत तो नहीं, लेकिन हट सकता है. परंतु लेसिक की भी अपनी सीमाएं हैं. इस आॅपरेशन में आपकी काॅर्निया की सतह से झिल्ली निकालकर (फ्लैप बनाकर) नीचे की बची सतह को लेजर द्वारा सर्जरी करके कार्निया के आकार को (पूर्वनिर्धारित नापतौल द्वारा) ऐसा कर देते हैं कि उससे गुजरने वाली प्रकाश किरणें फिर से सही जगह पड़ें और तस्वीर साफ बनने लगे. यहां तक तो सब बड़ा बढ़िया प्रतीत होता है परंतु ऐसे ऑपरेशन के संभावित खतरे भी होते ही हैं. बिगड़ जाए, इन्फेक्शन हो जाए तो आंख ही चली जाए. कॉर्निया को पतला करने और उसके आकार को बदलने में भी बिगाड़ की आशंका तो रहती ही है. परंतु बहुत हाई पावर के मायोपिक लेंस लगाने वालों के लिए यह सचमुच उपयोगी है. नंबर पूरा ठीक हो सकता है या काफी कम तो हो ही सकता है. फिर हर आंख लेसिक लायक नहीं होती. इसलिए डॉक्टर से पूछपाछ कर ही लेसिक कराए.

आंखों की संभाल को लेकर और भी बातें हैं, कंप्यूटर के इस्तेमाल को लेकर. फिर कभी.