लाल गलियारे का हीरो

दुनिया के एकमात्र हिंदुराष्ट्र को गणतंत्र बनाने का कारनामा उनके नाम दर्ज है. भारत के प्रति उनका संदेह जगजाहिर है. जिस माओवाद को भारतीय प्रधानमंत्री देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं, वे नेपाल में उसके सर्वोच्च नेता और प्रबल पैरोकार हैं. पच्चीस साल तक अपने सर पर इनाम का बोझ लिए भूमिगत अभियान चलाने वाला गुरिल्ला नायक क्या नेपाल की बदली परिस्थितियों में भारत का मित्र, सच्चा लोकतांत्रिक और बढ़िया पड़ोसी साबित होगा? राजकुमार सोनी की विशेष रिपोर्ट

काठमांडो से दो सौ दस किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद पोखरा पहुंचने पर हमें बर्फ की चादर में लिपटी मछली की पूंछ जैसी एक विशेष पहाड़ी नजर आती है. टैक्सी चालक बताता है कि पहाड़ी का नाम ‘माछापुच्छै’ है और वहां तक पहुंचने में कम से कम चार दिन का समय लगता है. यह भी कि नेपाल की सत्ताधारी पार्टी यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के अध्यक्ष पुष्प कमल दाहाल उर्फ प्रचंड के जन्म स्थान ढिकुर पोखरी से थोड़ा पहले भी उसकी खूबसूरती को निहारा जा सकता है. ढिकुर पोखरी के रास्ते में मौत को निमंत्रण देती गहरी खाइयां हैं और बियाबान में खड़े हुए सूखे पेड़ जिन्हें देखकर समझते देर नहीं लगती कि जनयुद्ध के दौरान यहां की भौगोलिक परिस्थितियों ने कैसे प्रचंड के लड़ाकों का साथ दिया होगा.

ढिकुर पोखरी में हम गांव के भीतर ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों का चक्कर लगाने के बाद एक ऐसे स्कूल में पहुंचते हैं जहां माओवादी नेताओं की बैठक चल रही है. सघन जांच-पड़ताल का दौर चलता है. जब नेपाल में उनकी अपनी सत्ता है तो फिर जांच- पड़ताल का क्या मतलब? एक माओवादी नेता गिरिधारी भंडारी बताते हैं कि लोगों से मेल-मुलाकात के दौरान ही उनके नेता प्रचंड पर हमले की कोशिश हो चुकी है.

इसके दो दिन पहले ही हमारी मुलाकात प्रचंड से होती है. एक गुरिल्ला छापामार के रूप में विख्यात प्रचंड भारतीय मीडिया से बात करने से बचते हैं. हालांकि वे खुद ऐसा नहीं कहते मगर उनके सहयोगियों के साथ बातचीत में इस बात का पता लग जाता है. उन्हें लगता है कि भारत का मीडिया उनके प्रति पूर्वाग्रह रखता है और अक्सर ऐसी खबरें प्रकाशित करता है कि माओवादी सरकार नेपाल में कोई परिवर्तन नहीं ला सकी है. यह बात  कुछ हद तक सही भी है. लगभग दस साल तक नेपाल की राजशाही के खिलाफ युद्ध का संचालन करने वाले प्रचंड जब प्रधानमंत्री बने तब लोगों को उनसे बड़ी अपेक्षाएं थीं. लेकिन नेपाल से राजशाही को खत्म करने और उसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के अलावा वे अब तक कोई दूसरा बड़ा काम नहीं कर सके हैं. संविधान को बनाने के मसले पर जहां अब तक उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी है वहीं माओवादी लड़ाकों के पुनर्वास का मसला भी है, जो हल तो हुआ है लेकिन उसके स्थायित्व पर तमाम प्रश्न चिन्ह हैं. नेपाल के राजनीतिक दलों ने यह तय किया है कि 19 हजार लड़ाकों में से केवल साढ़े छह हजार को ही सेना में शामिल किया जाएगा. जो सेना में शामिल नहीं होंगे उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृति दी जानी है. लड़ाकों को पांच से आठ लाख रुपये का पैकेज दिए जाने की शुरूआत भी हो चुकी है. लेकिन अधिकतर छापामार लड़ाके इन सरकारी पैसों को ‘टुकड़ा’ मानकर चल रहे हैं.

नेपाल की सबसे पहली और बड़ी जरूरत विकास से जुड़ी हुई है. लेकिन दीगर देशों में भ्रमण के दौरान नेपाल में निवेश की प्रचंड की गुहार को कोई महत्व नहीं मिल सका है. तहलका से बातचीत में(देखें साक्षात्कार) प्रचंड स्वीकारते हैं कि विकास का रिश्ता राजनीतिक स्थिरता से जुड़ा हुआ होता है. जनयुद्ध में शामिल रहे लड़ाकों को नेपाली सेना में शामिल करने के मुद्दे पर सेना प्रमुख रुकमागुंद कटवाल से विरोध के बाद प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. तभी से नेपाल अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है. थोड़े-थोड़े समय के लिए माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खलाल ने नेपाल की बागडोर संभाली, लेकिन इनके कार्यकाल में नेपाली जनता की बेहतरी के लिए कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया जा सका है. वर्तमान में माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई प्रधानमंत्री है, किंतु नेपाल को विकास की चादर ओढ़ाने के लिए उन्हें भी एक अपेक्षित वातावरण नहीं मिल पा रहा है.

संविधान न बना सकने के अलावा माओवादी लड़ाकों के पुनर्वास का मसला भी है, जो हल तो हुआ है लेकिन उसके स्थायित्व पर तमाम प्रश्न चिह्न हैं

कुल मिलाकर नेपाल झंझावतों के दौर से गुजर रहा है. लेकिन अनिश्चय के काले बादलों के बीच भी प्रचंड के समर्थक यह मानते हैं कि उनके नेता की स्थिति केवल और केवल मीडिया में खराब हुई है. जनता में उनकी छवि स्थिर है. पोखरा में रेडियो गंडकी चलाने वाले एलपी बंजारा कहते हैं, ‘दो सौ चालीस साल पुरानी राजशाही को प्रचंड ने दस साल के जनयुद्ध से ध्वस्त कर दिया था. बेहद अल्प समय में उनके द्वारा किए इस काम का शायद यही अर्थ निकाल लिया गया है कि सब कुछ चुटकी बजाते ही संभव हो जाता है.’ खुद प्रचंड अपनी आलोचनाओं और आरोपों से बेफिक्र नजर आते हुए कहते हैं, ‘मैं ऐसी परंपराओं को बदलने की कोशिश जारी रखूंगा जिनमें मनुष्य का वजूद समझने की चेष्टा नहीं की जाती.’

ढिकुर पोखरी में चर्चा के दौरान भंडारी बताते हैं कि विश्व के साम्राज्यवादी देश किसी भी सूरत में नेपाल में कम्युनिस्ट सत्ता की स्थापना के पक्षधर नहीं थे. मीडिया में भी इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती थीं कि नेपाल के माओवादियों के संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से बने हुए हैं. कई बार ऐसी खबरें भी देखने-पढ़ने को मिलीं कि प्रचंड के लड़ाके श्रीलंका के आतंकवादी संगठन एलटीटीई और असम के उल्फा से सैन्य प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं. जनयुद्ध के दौरान मेडिकल टीम की कमान संभालने वाले एक दूसरे माओवादी नेता आभाष कहते हैं कि साम्राज्यवादी देशों की दलाली करने वाले मीडिया समूहों ने प्रचंड की छवि को मटमैला करने की कोशिशें जारी रखी हैं, लेकिन ये नाकामयाब होती रही हैं क्योंकि समाज का एक बड़ा वर्ग चेतना संपन्न हो चुका है. नेपाल के माओवादी आंदोलन की विशिष्टता के बारे में बताते हुए आभाष कहते हैं, ‘हमारे नेता प्रचंड ने समय-समय पर विभिन्न कम्युनिस्ट आंदोलनों का अध्ययन तो किया लेकिन उनके अंधानुकरण पर जोर नहीं दिया. उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन के विकास, विश्व इतिहास के समाजवादी अनुभव और ज्ञान को अपने देश की परिस्थितियों के मुताबिक इस्तेमाल किया. इसका नतीजा यह हुआ कि लाल गलियारे के नए हीरो के तौर-तरीकों पर लोगों ने यकीन किया. पूरी दुनिया में जब बूढ़ा पूंजीवाद अपने क्रूर और घिनौने चेहरे के साथ अट्टहास कर रहा था तब प्रचंड ने यह साबित किया कि अभी विकल्प जिंदा है और समाजवाद का सपना देखने वालों की मौत नहीं हुई है.’

इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में नेपाल के स्थानीय मीडिया में प्रचंड के सर्वसुविधायुक्त घर को लेकर नई बहस छिड़ी थी. अखबारों में प्रचंड के नए घर की कीमत एक अरब रुपये बताई गई थी. नेपाली कांग्रेस के उपसभापति एवं नेता प्रतिपक्ष रामचंद्र पौंडल प्रचंड को 25 हजार लड़ाकों की हत्या का दोषी ठहराने के साथ यह आरोप भी लगाते हैं कि उनकी पार्टी एशिया की सबसे धनी पार्टी है और इसके कार्यकर्ता अब बगैर पैसों के किसी का कोई काम नहीं करते.

ढिकुर पोखरी के लिवाड़े नामक स्थान पर एक टूटे-फूटे घर में हमारी मुलाकात प्रचंड के परिजनों से होती हैं. उन्हें देखने के बाद यह सवाल कुलबुलाने लगता है कि यदि प्रचंड की पार्टी एशिया में सबसे अमीर है और उसके कार्यकर्ताओं के पास जरूरत से ज्यादा धन है तो फिर उनके अपनों की आर्थिक दशा इतनी खराब क्यों है? प्रचंड के भाई की पत्नी रूकी दाहाल बताती हैं कि वे अब भी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए खेतों में काम करने जाती हैं. प्रचंड की चाची माया दाहाल को भी अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है.

प्रचंड के चाचा कुलप्रसाद बताते हैं कि नेपाल के पड़ोसी देश चीन में जब सर्वहारा क्रांति की शुरुआत हुई तो इसका असर नेपाल पर भी पड़ा. वे कहते हैं, ‘सांस्कृतिक क्रांति ने मुख्य रूप से कम्युनिस्टों की युवा पीढ़ी को कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया. प्रचंड भी एक नई तरह की पार्टी के पुनर्गठन और जनता के विद्रोह की जरूरत का अध्ययन करने में जुट गए. नेपाल में जनयुद्ध की शुरुआत से पहले प्रचंड ने सभी जरूरी उपायों को जुटाने पर विशेष रूप से जोर दिया. लड़ाकों को हथियारों के साथ सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए कई तरह के कैंप संचालित किए. उन्हें देशकाल की ताजा परिस्थिति से अवगत कराने के लिए जलजला एवं जनगण एफएम का प्रसारण प्रारंभ किया. नेपाल के ‘बुर्जुआ’ मीडिया को जवाब देने के लिए जनादेश, जन आह्वान, पृष्ठभूमि, ज्वाला और महिमा जैसे अखबारों के प्रकाशन को प्रोत्साहित किया. कुलप्रसाद कहते हैं कि प्रचंड हमेशा एक सच्चे कम्युनिस्ट बने रहे, क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि एक कम्युनिस्ट चार कार्यकर्ताओं का काम कैसे करता है.’ नेपाली अखबार गंडकी के कार्यकारी संपादक प्रशांत लामिछाने बताते हैं, ‘प्रचंड के भीतर आयोजनकर्ता, प्रकाशक, निर्माता और मौका आने पर खुद को योद्धा साबित करने का गुण अब भी देखने को मिलता है.’

कुछ माओवादी नेता भी प्रचंड के दस साल के भीतर देश में लाए क्रांतिकारी बदलाव को बेहतर नजरिये से ही देखते हैं. लेकिन यह भी मानते हैं कि फिलहाल प्रचंड को दुष्चक्रों में फंसा दिया गया है. लामिछाने इसके लिए संसदीय राजनीति को जवाबदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘सबके साथ तालमेल बिठाना एक कठिन काम होता है. विचारधारा के स्तर पर अंतर्विरोध के चलते बीच का रास्ता निकालना हमेशा से कठिन रहा है क्योंकि बीच का कोई रास्ता कभी सफल रास्ता नहीं होता है.’ नेपाल की क्रांतिकारी गतिविधियों की खबरों के प्रकाशन के लिए चर्चित साप्ताहिक अखबार जनादेश के संपादक मनऋषि धिताल कहते हैं, ‘प्रचंड के नेतृत्व को डैमेज करने के लिए उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं. कोई उन्हें लड़ाकों की मौत का जिम्मेदार ठहराता है तो कोई उन पर संविधान बनने की प्रक्रिया में रोड़ा अटकाने का आरोप लगाता है. जबकि नेपाल की 601 सदस्यों वाली संसद में माओवादियों की संख्या मात्र 240 ही है. संविधान के निर्माण को लेकर अनिश्चितता की स्थिति इसलिए भी है क्योंकि अमेरिका चाहता है कि साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली माओवादी पार्टी अस्थिर रहे.’ अपनी इस बात की पुष्टि करने के लिए ऋषि एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘भूमिगत रहकर जनयुद्ध का संचालन करने वाली माओवादी पार्टी और सात संसदीय दलों के बीच शांति, संविधान का निर्माण और गणतंत्र की स्थापना के लिए दिल्ली में जो समझौता हुआ था उस समझौते के बाद अमेरिका के तत्कालीन राजदूत जेम्स मोरिआर्टी ने संसदीय राजनीतिक दलों को सलाह देते हुए कहा था कि वे माओवादियों से हाथ मिलाने की बजाय नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र के साथ मिलकर माओवादियों का विरोध करें. मोरिआर्टी ने यहां तक कहा था कि अगर किसी कारणवश संसदीय दलों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर भी दिए हैं तो समीक्षा के नाम पर बाहर निकल सकते हैं.’

नेपाल में फिलहाल 33 राजनीतिक दल सक्रिय हैं. इनमें से प्रचंड की पार्टी के अलावा ज्यादातर नेपाल का संविधान तैयार नहीं होने देना चाहते

नेपाल की राजनीति में रुचि रखने वाले भेषराज पौंडेल भी ऋषि धिताल की बातों का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘नेपाल की दो करोड़ पचास लाख की आबादी में फिलहाल 33 राजनीतिक दल सक्रिय हैं. इनमें से प्रचंड की पार्टी को छोड़ दें तो ज्यादातर की अंदरूनी भावना यही है कि किसी भी सूरत में नेपाल का संविधान तैयार न हो पाए.’ इस गतिरोध के और क्या ठोस कारण हो सकते हैं, पूछने पर भेषराज कहते हैं कि यदि नेपाली जनता की भावनाओं के अनुरूप संविधान निर्माण हो गया तो पूरी दुनिया में अपने देसी तौर-तरीकों से स्थापित होने वाले प्रचंड और ज्यादा स्थापित हो जाएंगे. लेकिन पार्टियां प्रचंड को स्थापित होने का कोई मौका नहीं देना चाहती हैं.

स्थापना का सवाल प्रचंड की पार्टी के भीतर भी खदबदा रहा है. काठमांडो के एक माओवादी कार्यकर्ता का कहना है कि प्रचंड और उनके मुद्दों को लेकर पार्टी में ही कई तरह के मतभेद चल रहे हैं. माओवादी पार्टी अब संयुक्त इकाई की बजाय प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई, पार्टी के उपाध्यक्ष किरण वैध तथा अध्यक्ष प्रचंड के अलग-अलग धड़े के रूप में नजर आने लगी है. कुछ राजनीतिक प्रेक्षक यह भी मानते हैं कि अब वे भटक गए हैं. कुछ समय पहले जब जनमुक्ति सेना के कमांडरों की बैठक हुई थी तब कई कमांडरों ने प्रचंड के फैसलों का विरोध किया था. पार्टी के उपाध्यक्ष किरण वैध ने भी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच प्रचंड के 18 विचलन नाम से एक पर्चे का वितरण किया था. इस पर्चे में साफ तौर पर यह कहा गया था कि प्रचंड राजनीतिक स्तर पर दक्षिणपंथी सुधारवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं. पर्चे में प्रचंड के बारे में यह भी कहा गया है कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के बल पर न केवल अनैतिक क्रियाकलापों को बढ़ावा दिया है बल्कि संसदीय पार्टियों के साथ समझौता करके ऐसे संविधान निर्माण को मंजूरी दी है जो पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी है. उन पर फासिस्ट प्रवृति को बढ़ावा देने का आरोप भी लगा है. इतने आरोपों से घिरे होने के बावजूद प्रचंड के समर्थकों को यकीन है कि वे हमेशा की तरह झंझावातों को तमाचा रसीद करते हुए आगे बढ़ जाएंगे.

भारत के साथ संबंधों पर नेपाल के इस सबसे ताकतवर व्यक्ति के नजरिये की बात करें तो उसे भारत विरोधी चश्मे से देखा जाता है. मीडिया में यहां तक खबरें आई हैं कि प्रचंड ने भारत के नक्सलियों के खिलाफ अर्धसैनिक बलों के प्रयोग की निंदा करते हुए भारत को उनकी पार्टी का प्रमुख शत्रु करार दिया था. वे भारत और नेपाल के बीच की 1950 की संधि के भी विरोध में खड़े दिखाई देते हैं. मगर तहलका के साथ बातचीत में प्रचंड साफ करते हैं कि उन्होंने भारत और वहां की जनता के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देने वाली कोई बात कभी नहीं की है. वे अपने सत्ता हासिल करने का श्रेय भारत के जनवादी लीडरों और बुद्धिजीवियों को भी देते हैं और भारत के माओवादियों को भी अपने दिल और दिमाग खुले रखने का संदेश देते हैं. मगर दिल्ली में स्थापित सत्ता और नेपाल के प्रति उसके रवैये पर वे अपनी राय स्पष्ट नहीं करते. बल्कि उसे चेता ही देते हैं कि राज्य की सत्ता के दमन से कभी कोई मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता.

आगे के पन्नों में प्रचंड के साथ जो विस्तृत बातचीत है उसमें वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं जो इतिहास के कई पन्नों मे दर्ज होने के बाद  भी उससे आगे जाने की कोशिशों को लेकर प्रतिबद्ध है. जो समय के साथ चलने की बेधड़क कोशिश न केवल खुद को बल्कि जिन विचारधाराओं में वह यकीन करता है उन्हें भी प्रासंगिक बनाए रखने के लिए करता है.