'आप भारत के माओवादियों को बता दें कि…

नेपाल में जनयुद्ध की स्थिति क्यों बनी?

भारत में ब्रिटिश राज की व्यवस्था के समय से ही यहां की नेपाली जनता अपनी जीविका के लिए संघर्ष करती रही है. अपनी बेहतरी के लिए नेपाली जनता को ब्रिटिश शासकों से युद्ध भी करना पड़ा है. हालांकि इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली. लेकिन एक बात जरूर साफ हुई कि नेपाली जनता अपने अधिकारों के लिए युद्ध करना जानती है. जब देश में सामंती राज व्यवस्था ने लोगों को जकड़ना प्रारंभ किया तो शोषण के नए-नए स्वरूप सामने आए. राजशाही व्यवस्था में सुख भोगने वाले लोग और उनके पैरोकार नेपाल को विकास के मार्ग पर ले जाने की बात तो करते थे लेकिन उनके कथित विकास का फायदा दलालों और बुर्जुआ लोगों को पहुंचता था. वैसे नेपाल में 1949 से कम्युनिस्टों ने अपनी जड़ें जमाने की शुरुआत कर दी थी लेकिन तब के कम्युनिस्ट आंदोलन में क्रांतिकारी परिस्थितियों को आवाज देने के लिए वाजिब जगह मौजूद नहीं थी. कम्युनिस्ट आंदोलन में संशोधनवाद को पनपने का अवसर मिला तो सामंती व्यवस्था को अपना विस्तार करने में सहूलियत हुई. लेकिन जहां भी सामंती व्यवस्था रहती है वहां क्रांति की परिस्थितियां भी रहती हैं. आखिरकार राजा-महाराजा कब तक जनता को उत्पीड़ित करते रहेंगे. एक न एक दिन तो जनता उनसे जवाब मांगती ही. जनयुद्ध की शुरुआत करने से पहले हमने महसूस किया कि जनता जवाब मांगने के लिए आकुल है. बस उसे एक नेतृत्व की जरूरत थी. हमने छोटे-छोटे आधार इलाकों से युद्ध की शुरुआत करने के पहले नेपाल की भौगोलिक परिस्थिति, उसके इतिहास, सांस्कृतिक मानक, जनता की सांस्कृतिक चेतना, आर्थिक स्थितियां, वर्ग शत्रुओं की स्पष्ट पहचान के साथ-साथ सामाजिक संबंधों और युद्ध के खिलाफ सक्रिय रहने वाली ताकतों को विशेष तौर पर जानने- पहचानने तथा खंगालने का काम किया. जब हम ठोस अध्ययन के बाद नेपाल की जमीनी हकीकत से वाकिफ हुए तो हमने एक बड़े परिवर्तन के लिए युद्ध को प्रारंभ करने का फैसला किया. हालांकि युद्ध शुरू करने के पहले यह प्रचार भी सामने आता रहा कि अभी हथियारबंद संघर्ष का समय नहीं आया है लेकिन आवाम के शोषण की इंतहा को देखने के बाद हमने यह माना कि सशस्त्र संघर्ष की स्थिति निर्मित हो चुकी है. लोगों के खून को चूसने की स्थिति का भयावह रूप देखने के बाद जब हमने एक बड़े परिवर्तन के लिए युद्ध के रास्ते का चयन किया तो जनता ने हमारा साथ दिया.

जंगल से शहर का सफर पूरा करने के लिए आपने कौन-सी रणनीति बनाई थी?

देखिए…जिसे आप लोग जिसे जंगल कहते हैं मैं उसे जंगल नहीं मानता. हम लोग  हमेशा जनता के बीच ही रहते थे. मैं कभी कांठमांडू में रहता था तो कभी किसी गांव में और कभी किसी कस्बे में. हर जगह हम जनता की समस्याओं और उनकी दिक्कतों से वाकिफ होते रहते थे. वैसे यहां मैं यह बात बताना जरूरी समझता हूं कि जनयुद्ध की कार्रवाई में भाग लेने से पहले हम नेपाल की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति के रूप में मौजूद थे. हम उचित मंच से ही नेपाली जनता की बुनियादी मांगों को पूरा करना चाहते थे लेकिन नेपाल का सिस्टम इसके लिए तैयार ही नहीं था. जब हमने अवाम की आवाज को एक शक्ल देने की कोशिश की तो उन इलाकों में दमन की कार्रवाई तेज हो गई जहां हमारा आधार मजबूत था. दमन की कार्रवाइयों के खिलाफ जनता उठ खड़ी हुई और प्रतिरोध का आंदोलन तेज होने लगा. जहां तक युद्ध के लिए रणनीति अपनाने का सवाल है तो मैं आपको बता दूं कि इसके लिए विश्व की राजनीतिक परिस्थिति के साथ नेपाल की स्थानीय परिस्थिति का विशद अध्ययन किया गया. पूरी दुनिया में क्रांति और प्रति क्रांति का जो चक्र चला उसको देखने-समझने की भी पुरजोर कोशिश हुई. जनयुद्ध में शामिल होने से पहले भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के अध्ययन और विश्लेषण से यह जानने-समझने की कोशिश भी की गई कि आंदोलन के सकारात्मक और नकारात्मक अध्याय से किस तरह का सबक लिया जा सकता है. हमने पारंपरिक तौर-तरीके से की जाने वाली क्रांति के मार्ग में थोड़ा बदलाव किया और एक नया रास्ता बनाया. हमारी प्राथमिकताओं में जनता की आकांक्षा तो शामिल थी ही इसे पूरा करने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न भी हमारे लिए बहुत मायने रखता था. हमने अपने प्रयत्नों से यह साबित करने की कोशिश की कि बहुत कम समय में भी ग्रामीण क्षेत्रों में आधार कायम किया जा सकता है.

क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा में आने और सत्ता हासिल करने के साथ ही सफर का एक अध्याय पूरा हो गया है?

नहीं, ऐसा नहीं है. अभी लंबा सफर तय करना है. निश्चित तौर पर एक चुनौतीपूर्ण सफर पार करने के बाद हमने सत्ता हासिल कर ली है लेकिन पूरी दुनिया की मानव जाति के बीच जो भेदभाव, अन्याय और शोषण मौजूद है उसे खत्म करने का काम अभी बाकी है. हमारी अपनी विशिष्ट स्थितियों में नेपाली जनता ने पिछले पचास-साठ सालों में जिस तरह का संघर्ष किया है उसे सही मायनों में एक आकार देने के लिए हम संविधान सभा में नए संविधान की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं. चूंकि हमारी पार्टी के नेतृत्व में जनयुद्ध हुआ, इसलिए हमें उम्मीद है कि हम जनता की भावनाओं और नेपाल राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप नया संविधान बनाने में कामयाब हो जाएंगे.

किसी समय आप उदारवादियों को संशोधनवादी कहते थे. ऐसा क्या हुआ कि प्रचंड को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए लोकतंत्र का रास्ता अख्तियार करना पड़ा?

देखिए, विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवाद के बारे में हमारी राय यही है कि वह निरंतर गतिमान और विकसित अवस्था में रहता है. सच तो यह है कि परिस्थिति के अनुसार ही विचारधारा को विकसित भी करना पड़ता है. जब हमने आंदोलन प्रारंभ किया तब हमने देशों की परिस्थितियों का अध्ययन तो किया लेकिन उसका अंधानुकरण नहीं किया. हम अंधानुकरण के जरिए कभी आगे नहीं बढ़ सकते थे. हमें अपनी परिस्थिति के अनुसार ही आगे जाना था. हमने यह कभी नहीं कहा कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और शांति वार्ता पर हमारा विश्वास नहीं है. इन प्रक्रियाओं से यदि नेपाली जनता को फैसला करने का अधिकार मिलने जा रहा था तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था. हमने हमेशा यही कहा कि यदि जनता को फैसला करने का अधिकार मिलता है तो हम शांति वार्ता के लिए तैयार हंै. हमारी पार्टी के भीतर भी क्रांति- प्रति क्रांति सहित बहुत-से मसलों को लेकर लंबा विवाद चलता रहा. इस विवाद से हमने रणनीतियों की एक श्रृखंला विकसित की. हम बहुत ज्यादा पारंपरिक तौर-तरीकों से जनता के करीब नहीं पहुंच सकते थे, इसलिए हमने विचारधारा को आधुनिक बनाने का यत्न किया.

जहां तक क्रांतिकारी संगठनों का सवाल है तो देर-सबेर ही सही सबको मल्टीपार्टी कंपटीशन और पीस प्रोसेस का रास्ता अख्तियार करना ही होगा

क्या भारत के माओवादियों का आंदोलन पारंपरिक है अथवा उन्हें भी अपने आंदोलन के संदर्भ में किसी तरह का कोई परिवर्तन करना चाहिए?

मैं किसी भी पार्टी को ऐसा करना चाहिए, वैसा करना चाहिए जैसा उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं. किस पार्टी के क्रांतिकारी को अपने देश की जनता के लिए क्या करना चाहिए इसका फैसला करने का अधिकार तो वहां की पार्टी को ही है. इसमें किसी को हस्तक्षेप भी नहीं करना चाहिए, लेकिन फिर भी हम अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचते-समझते हैं इसलिए यह मानते हैं कि जब लक्ष्य एक हो तब विचारधारा के स्तर पर एका जरूर होना चाहिए. जनयुद्ध की शुरुआत से पहले जब मैं पीडब्ल्यूजी से जुड़ा था तब भारतीय माओवादियों से मेल-मुलाकात होती थी. इस मुलाकात के दौरान मैंने महसूस किया था कि पीडब्लूजी (पीपुल्सवार ग्रुप) और एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) के  लक्ष्य एक होने के बावजूद लड़ाई- झगड़े की स्थिति रहती थी. यह एक अच्छी स्थिति नहीं मानी जा सकती थी. मैं दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं से अक्सर कहा करता था कि विवाद खत्म होना चाहिए. इस विवाद को खत्म करने के लिए हमारी तरफ से काफी सकारात्मक प्रयास भी हुए. वास्तविकता यही है कि जब विचारधारा के स्तर पर एका हो और झगड़ा चलता रहे तो लक्ष्य तक पहुंचा नहीं जा सकता. हम नेपाल को बहुत थोड़े समय में यदि आगे ले जा सके तो उसके पीछे हमारी एका ही थी. हमने बहुत-से कम्युनिस्ट ग्रुपों को अपने साथ कर लिया था. आज हम अपने देश की परिस्थिति के मद्देनजर राजशाही का खात्मा कर नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने में कामयाब हुए हैं तो दुनिया के तमाम कम्युनिस्टों से इतना ही कह सकते हैं कि यदि हमारी विचारधारा के  स्कूल से किसी तरह की कोई सकारात्मक चीज आपके काम आती है उसे ले सकते हैं. यदि कुछ नकारात्मक है तो उसे ग्रहण करने की जरूरत नहीं है.

आपकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि दुनिया के कम्युनिस्टों को पहले एक कठोर तरह की प्रतियोगिता के लिए तैयार रहना चाहिए, और जब वे खुद को तैयार कर लें तब राजनीति में कूद जाएं.

वैसे यह सत्य है कि हमारा तौर-तरीका पूरी दुनिया के लिए एक अनुपम उदाहरण तो बन गया है. लोगों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि जो लड़ाके लंबे समय तक सत्ता के खिलाफ लड़ते रहे आज वही सत्ता पर काबिज हैं. सचमुच यह चमत्कार जैसा है क्योंकि राजतंत्र का खात्मा आसान काम नहीं था. भारत में जब कभी भी राज्य की सत्ता की तरफ से किसी की हत्या होती है तब मैं यह बात जरूर कहता हूं कि दमन से कभी कोई मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता. मैं मानता हूं कि बड़ी से बड़ी और छोटी सी छोटी समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए बातचीत की जा सकती है. लेकिन बातचीत भी तभी संभव है जब राज्य की सत्ता अपने राज्य के मजदूरों और किसानों के साथ- साथ अवाम के प्रति जवाबदार और ईमानदार रहे. जब हम युद्धरत थे तब हम बातचीत के जरिए शांति की कोशिशों में भी लगे रहते थे. मेरा यह मानना है कि जो राज्यसत्ता जनता की भावनाओं को समझने में कामयाब रहती है वहां कभी दमन की स्थिति पैदा ही नहीं होती है. जहां तक क्रांतिकारी संगठनों का सवाल है तो मुझे सिर्फ इतना पता है कि देर-सबेर ही सही सबको मल्टीपार्टी कंपटीशन और पीस प्रोसेस का रास्ता अख्तियार करना होगा. मुझे लगता है कि एक न एक दिन और हो सकता है कि कुछ दिनों बाद ही शांति वार्ता की स्थिति बन जाएगी.

आप भारत के बहुत-से इलाकों में क्रांतिकारी संगठनों के प्रमुखजनों से मेल-मुलाकात करते रहे हैं. वहां आपका अनुभव कैसा रहा?

जनआंदोलन से जुड़ाव के चलते वैसे तो मैं दुनिया के बहुत-से हिस्सों में आता-जाता रहा हूं लेकिन भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के बहुत से प्रांतों में मेरा अपना ठिकाना भी रहा है. मैं एक बार छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में भी गया हूं. मैंने वहां के स्थानीय लोगों के अलावा जमीनी हकीकत को जानने-समझने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों से बातचीत की है. मैं मानता हूं कि भारत और नेपाल की भौगोलिक संरचना, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक स्थिति दुनिया के हर हिस्से से अलग है. यह विशेषता यूनिक तो है, लेकिन थोड़ी बहुत समस्या भी यहीं से उत्पन्न होती है. यदि आप राजनीतिक नजरिए से भी देखेंगे तो यह पाएंगे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में नेपालियों ने हिस्सेदारी दर्ज की है. इस तरह नेपाल के मूवमेंट को आगे बढ़ाने में भी भारत के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है. जनरल पॉलिटिकल मूवमेंट में भी हम साथ-साथ खड़े दिखाई देते हैं. जहां तक कम्युनिस्ट मूवमेंट का सवाल है तो हमारी पार्टी का गठन भी भारत के कलकत्ता में ही हुआ है. मेरा यह मानना रहा है कि देश और दुनिया की परिस्थितियों को समझने के लिहाज से दुनिया के तमाम कम्युनिस्टों को एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहना चाहिए. मैंने अपनी जरूरी मुलाकातें कभी बंद नहीं कीं.

भारत को लेकर आपका नजरिया फिलहाल तो साफ-सुथरा दिखाई देता है, फिर यह क्यों प्रचारित होता रहा है कि आप भारत के प्रति नफरत का भाव रखते हैं, भारत के प्रति जहर उगलते हैं…

यही तो दुख की बात है. मैंने कभी भारत और वहां की जनता के खिलाफ दुश्मनी की बात नहीं की. मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि भारत और नेपाल के बीच अच्छे संबंधों का होना बहुत जरूरी है. जब हम जनयुद्ध प्रारंभ करने की प्रक्रिया से गुजर रहे थे तब भी भारत के बहुत-से प्रांतों में वहां के जनवादी लीडरों, बुद्धिजीवियों आदि से मेल- मुलाकात करते थे. यदि भारत के जनवादी लीडरों और बुद्धिजीवियों से हमारा परिचय नहीं होता तो मुझे नहीं लगता कि हम इतनी आसानी से नेपाल की सत्ता के करीब पहुंचते. वैसे तो यह आसान इसलिए हो पाया क्योंकि इसके लिए नेपाली जनता ने अपना बलिदान भी दिया था. फिर भी दस साल के अल्प समय में हम जहां पर खड़े हैं उसके पीछे शहीद भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस की विचारधारा तो है ही भारतीय बुद्धिजीवियों, वहां की जनता, क्रांतिकारी लीडरों और कम्युनिस्टों का भी बड़ा योगदान है. हमने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भारत की बुर्जुआ पार्टियों के नेताओं से भी चर्चा की थी. बहुत सारे लोगों को जानने- समझने के बाद हम अपने देश की परिस्थिति को ध्यान में रखकर आगे बढ़े. जब मैं भूमिगत था तब मेरा अधिकांश समय भारत में ही व्यतीत होता था. मैं लगभग दस साल तक भारत के विभिन्न प्रांतों में रहा. पहले-पहल जब मैं भारत पहुंचा तब एक मनोवैज्ञानिक दबाव के चलते यह महसूस हो रहा था कि पता नहीं मैं एडजस्ट कर पाऊंगा या नहीं लेकिन भारतीय लोगों ने मुझे जिस तरह का सहयोग और प्यार दिया उसके बाद मेरी गलतफहमी दूर हो गई. मैं बंबई से लेकर पंजाब, सिलीगुड़ी जहां कहीं भी जाता  वहां लोगों का प्यार मिलता रहा. मैं अपनी पार्टी के भीतर भी इस बात को कहता हूं कि भारतीय लोगों के सहयोग के बगैर हम आगे नहीं जा सकते थे. यदि आप इतिहास को उठाकर देखेंगे तब भी यह पाएंगे कि भारतीय और नेपाली जनता साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में हमेशा आगे रही हैं. आज की तारीख में किसी निरकुंश तंत्र के खिलाफ भारतीय और नेपाली जनता को एक साथ लड़ाई लड़नी चाहिए.

हम मजदूर वर्ग की चिंता तो कर ही रहे हैं पर अब हमने अपनी चिंताओं में मध्य और उच्चवर्ग की जरूरतों को भी शामिल कर लिया है

माओवादी सरकार की स्थापना से नेपाल को क्या मिला?

फिलहाल तो कुछ नहीं मिला लेकिन राजशाही के खात्मे के बाद जो राजनीतिक बदलाव हुआ उसे मैं बड़ा और जरूरी बदलाव मानता हूं. कुछ साल पहले तक नेपाल की पहचान एक रूढ़िवादी राष्ट्र के रूप में थी लेकिन अब नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाता है. राजशाही के खात्मे के बाद नेपाल में एक और खास बात हुई है और वह कि अब इसकी संसदीय व्यवस्था में बहुत ही सुंदर ढंग की स्थानीय विविधता देखने को मिल रही है. अलग-अलग संस्कृति और बोलियों को जानने-समझने वाले लोग हैं. हम सत्ता में जरूर हैं, लेकिन अभी माओवादी बदलाव के संवेदनशील दौर से गुजर रहे हैं. फिलहाल हमारी कोशिश यही है कि नेपाली जनता की भावनाओं के अनुरूप एक ऐसे संविधान का निर्माण हो जाए जिसमें साम्राज्य और सामंतवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने की ताकत हो. शांतिवार्ता को समुचित महत्व मिले हम यह भी चाहते हैं. वैसे जब मैं प्रधानमंत्री था तब मैंने कुछ परंपरागत संस्थाओं को बदलने का प्रयास किया था. मेरे अपने इस प्रयास का विरोध हुआ तो मुझे पद भी त्यागना पड़ा. इसका अफसोस नहीं है. मैं ऐसी परंपरा को बदलने की कोशिश जारी रखूंगा ही जिसमें मनुष्य का वजूद समझने की चेष्टा नहीं की जाती.

विकास के मसले पर बेहद पिछड़े हुए राष्ट्र का दाग क्यों नहीं धुल पा रहा है.

अब देखिए, राजनीति और आर्थिक विकास में एक अंतर्सबंध तो रहता ही है. जब तक राजनीतिक स्थिरता नहीं रहती तब तक विकास के लिए सकारात्मक वातावरण भी तैयार नहीं होता और कई बार आर्थिक विकास के बगैर भी राजनीतिक स्थिरता को हासिल करना कठिन नजर आता है. नेपाल में माओवादियों की सत्ता तो स्थापित हो गई है, लेकिन राजनीतिक समाधान अभी बाकी है. एक बार समाधान मिल गया तो नेपाल विकास के रास्ते पर खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाएगा. प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है. हम प्रकृति की दी हुई नेमतों का एक अंश भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं तथा अन्य स्त्रोतों की वजह से पर्यटन का विकास बेहतर तरीके से हो सकता है. तरक्की के मसले पर अपने संसाधनों को तरजीह देने वाले दो देश भारत और चीन हमारे आजू-बाजू खड़े हैं. हम इन देशों का सहयोग भी लेना चाहेंगे.

आप किस तरह का नेपाल देखना चाहेंगे?

मैं आपको बताना चाहता हूं कि नेपाल और वहां की जनता के विकास के लिए सात प्रमुख पार्टियों के बीच दिल्ली में एक समझौता हुआ था. इस समझौते के दौरान गिरिजा प्रसाद कोइराला भी मौजूद थे, जबकि मैंने अपनी पार्टी के तरफ से दस्तखत किए थे. इस समझौते की भूमिका में हमने साफ तौर पर लिखा था कि नेपाल से वर्गीय, जातीय और क्षेत्रीय भेदभाव खत्म किया जाएगा. मेरा साफ तौर पर मानना है कि जब तक लोगों के बीच का भेदभाव खत्म नहीं होगा तब तक नेपाल तरक्की का सफर भी तय नहीं कर पाएगा. जो लोग श्रमजीवी है उन्हें उनका अधिकार तो मिलना चाहिए. सबसे बड़ी बात यह है कि प्रकृति ने जो वरदान हमें दिया है उसका बेहतर इस्तेमाल होना चाहिए. नेपाल में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी सगरमाथा है. मेरी दिली ख्वाहिश यही है कि नेपाल की सभ्यता को सगरमाथा चोटी से भी ऊंचा दर्जा मिले.

सच तो यह है कि पूरी दुनिया में माओवादी पार्टियां लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ही काम करती हैं. हम भी बेहतर लोकतंत्र के लिए संघर्षरत है

लोकतांत्रिक राजनीति में आने के बाद क्या आपको अब उन लोगों के बारे में भी नहीं सोचना है जिनके खिलाफ लड़ते रहे हैं?

हम शहरों में मजदूर वर्ग की चिंता तो कर ही रहे हैं क्योंकि इनकी बेहतरी के लिए कार्य करना सबसे ज्यादा जरूरी है. हम लगातार इस कोशिश में जुटे हुए हैं कि शहरी मजदूरों के साथ हमारी पार्टी के लोगों का संवाद लगातार बना रहे. संबंध मजबूत रहे. मगर अब हमने अपनी चिंताओं में मध्य और उच्चवर्ग की जरूरतों को भी शामिल कर लिया है. यह सही है कि जिस वर्ग की वजह से हम मौजूद है उसमें किसानों और मजदूरों की भूमिका थोड़ी ज्यादा है लेकिन अब उस वर्ग का भी ध्यान रखना होगा जो नेपाल के हितों के लिए कार्य करने का इच्छुक है.

नेपाली कांग्रेस के एक नेता रामचंद्र पौडल का यह आरोप है कि जनयुद्ध के दौरान लगभग 25 हजार लोगों की मौत हुई. इन मौतों के लिए वे सीधे-सीधे आपको जवाबदार मानते हैं. आपका क्या कहना है.

यह गलत आरोप है. पच्चीस हजार लोग तो हैं ही नहीं. विद्रोह की अवस्था में लगभग पंद्रह हजार लोगों की मौत की बात सामने आई थी और ये मौतें राज व्यवस्था की तरफ हुई थीं.

पौडल का यह भी आरोप है कि आप लोकतंत्र की बहाली का ढोंग करते हैं.

बिल्कुल गलत है. मैं उनके बारे में व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं कहना चाहूंगा लेकिन उनकी पार्टी नेपाली कांग्रेस के बारे में इतना कह सकता हूं कि उसकी  वजह से ही नेपाल में संघर्ष की स्थिति पैदा होती रही है. यह पार्टी अभी भी यह समझने को तैयार नहीं है कि नेपाली जनता की भावनाएं क्या है. नेपाली जनता किस तरह का परिवर्तन चाहती है. नेपाली कांग्रेस के नेताओं का थोड़ा-बहुत इंटरनेशनल रिलेशन है उसके जरिए ही वे चल रहे हैं. मैं आपको बता दूं कि जब हम चुनाव में हिस्सा लेने जा रहे थे तब नेपाल में नेपाली कांग्रेस की सत्ता कायम थी. चुनाव में जनता ने हमें सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का मौका दिया. यदि हम ढोंगी होते तो क्या जनता हमें अपना प्यार देती?

सर्वहारा वर्ग की हिमायत करने वाले प्रचंड के शाही महल को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है. सच्चाई क्या है?

इस आरोप को लेकर मैं किसी तरह की कोई सफाई देना नहीं चाहता था लेकिन बात उठ ही गई है तो साफ कर दूं कि जब मैं कांठमाडों में आया था तब पार्टी की तरफ से मुहैया कराए गए एक किराये के मकान में रहता था. मैं अब भी किराये के घर में ही रहता हूं. मैं लजीमपाट के जिस घर में रहता हूं उसे कानूनी अनुबंध के तहत पांच साल के लिए किराये पर लिया गया है. मेरे किराए के घर पर रहने को यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि मैंने करोड़ों रुपये का घर खरीद लिया है. राजशाही के जमाने को महत्वपूर्ण मानने वाले लोग मुझे सुविधाभोगी साबित कर अपना मकसद सिद्ध करने में लगे हुए हैं. लेकिन जनता इस बात को जानती है कि प्रचंड क्या है और क्यों है. जब मैं युद्ध क्षेत्र में डटा हुआ था तब भी मीडिया के जरिए यह प्रचारित होता था कि माओवादियों ने बेशुमार दौलत इकट्ठा कर ली है, लेकिन मैं जानता हूं कि आंदोलन को चलाने के लिए धन जुटाना, जनसहयोग लेना कितना मुश्किल था. राजनीति में बदनाम करने की भी एक नीति होती है. यह नीति जनता के बीच भ्रम पैदा करने का काम करती है, लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे क्या करना है. अभी चंद रोज पहले जब हमारी पार्टी की बैठक हुई तब मैंने स्पष्ट तौर पर यह कहा है कि मैं उस मकान में नहीं रहना चाहता हूं. आपको बता दूं कि मैं जल्द ही उस मकान को छोड़ने वाला हूं. शायद ऐसा करने से गंदे तरीके से प्रचार-प्रसार में जुटे लोगों को जवाब भी मिल जाएगा.

हम पूरी दुनिया की ताकतों को देखें तो पाएंगे कि जो लोग भी ताकतवर हैं उनके पीछे बंदूक है. दुनिया की कोई भी ताकत बंदूक के बगैर टिक नहीं सकती

अब जबकि आप सत्ता पर काबिज हैं तब सबको साथ लेकर चलने की उठापटक किस तरह से मैनेज करते हैं?

सचमुच यह एक कठिन काम है, लेकिन इस तरह के चुनौतीपूर्ण कामों से हमारा परिचय तब भी होता रहा है जब हम एक बड़े बदलाव की तैयारियों में जुटे हुए थे. काम की शुरूआत में हमारे सामने इस बात का संकट कायम था कि हम जनता के बीच अपनी निजी पहचान को किस तरह से दर्ज करें. हमारे सामने कई तरह की धाराएं थीं सो हमने दकियानूसी धाराओं के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का फैसला किया और वैचारिक तौर पर अपनी पहचान मजबूत की. वैचारिक मजबूती के बाद ही हमने पार्लियामेंट तक पहुंचने का सफर पूरा किया. यहां पहुंचने के बाद भी हम नए तरह की जटिलता झेल रहे हैं. जब हम लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे तब हमारे बारे में यह प्रचारित किया गया कि हम पीपुल्स डिक्टेटरशिप के लिए लड़ रहे हैं. इधर जब हम शांतिवार्ता की बात कर रहे हैं तो कहा जाता है कि हमारा रास्ता कुछ और है. सच तो यह है कि पूरी दुनिया में माओवादी पार्टियां लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ही काम करती हैं. हम भी बेहतर लोकतंत्र के लिए संघर्षरत हैं. आप भारत के माओवादियों और कम्युनिस्टों को यह बता सकते हैं कि नेपाल का माओवादी खुले दिल और दिमाग के साथ सभी तरह की प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के लिए तत्पर है. नेपाल का माओवादी खुले दिल और दिमाग से काम करता है.

क्या आप यह मानते हैं कि चीन की सांस्कृतिक क्रांति का जो विस्तार है उसका खासा असर नेपाल पर विशेषकर आपकी पार्टी पर हुआ है.

हम लोग जिस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं उस पर सांस्कृतिक क्रांति का असर हुआ ही है, लेकिन अभी मैं कुछ समय पहले जब चीन गया था तब वहां उलट स्थिति देखने को मिली थी.

पूरी दुनिया में यह जोर-शोर से प्रचारित है कि विचारधारा की मौत हो चुकी है तब माओवाद का भविष्य किस तरह का नजर आता है?

दुनिया की कोई भी ताकत विचारधारा को फांसी पर नहीं लटका सकती है. विचारधारा के फैलाव के लिए वैसे तो बहुत सारे लोगों की जरूरत होती है लेकिन वह एक-दो लोगों के  जरिए भी पूरी दुनिया में कब्जा जमा सकती है. मार्क्स और एंगेल्स ने अपने विचार में जिस तरह से श्रमजीवियों के महत्व को स्वीकारा उसका वर्णन सौ सालों तक होता रहा और आगे भी होता रहेगा. जो लोग विचारधारा को फांसी पर लटकाने की बात करते हैं वास्तव में वे लोग ही फांसी पर लटके हुए रहते हैं. जहां तक माओवाद के भविष्य का सवाल है तो जब तक अन्याय, अत्याचार और शोषण मौजूद है, माओवाद जिंदा है. जब तक जनता का आंदोलन चलेगा तब तक माओवाद आगे बढ़ता ही रहेगा. यहां एक सवाल यह भी है कि कम्युनिस्ट पार्टियां माओवाद को गतिमान बनाए रखने के लिए किस रूप में तैयार हंै. जो पार्टी जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने आपको विकसित करने के लिए तैयार रहेगी उस पार्टी का भविष्य कायम रहेगा. जो पार्टी समय के साथ खुद के विकास और प्रतियोगिता के लिए तैयार नहीं है वह खत्म हो जाएगी. जहां तक नेपाल के कम्युनिस्ट माओवादियों का सवाल है तो उनके ऊपर फिलहाल बहुत बड़ी जवाबदारी आ गई है. संघर्ष के बाद सत्ता मिलने से पूरी दुनिया के सामने एक दूसरे तरह का संदेश पहुंचा है. दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं. यदि हम सर्वहारा वर्ग यानी अवाम को उसका वाजिब हक दिलाने में कामयाब हो गए तो यह तय है कि हमारे  स्कूल का विचार पूरी दुनिया में फैल जाएगा.

क्या यह मान लिया जाए कि सत्ता का रास्ता अब बंदूक की नली से होकर नहीं गुजरेगा?

इस बात को लेकर काफी लंबी बहस चलती रही है. यह एक दार्शनिक किस्म की बहस है. लेकिन सच्चाई यह भी है कि जब हम पूरी दुनिया की ताकतों को देखते हैं तो पाते हैं कि जो लोग भी ताकतवर हैं उनके पीछे बंदूक है. दुनिया की कोई भी ताकत बंदूक के बगैर टिक नहीं सकती.