कयासों के विशेषज्ञ

विधानसभा चुनाव खत्म हुए  और इसके साथ चैनलों पर अहर्निश  जारी चुनावी तमाशा भी खत्म हुआ. एक बार फिर वोटर चैनलों के एंकरों, राजनीतिक संपादकों, रिपोर्टरों और मेरे जैसे अनाड़ी राजनीतिक विशेषज्ञों से ज्यादा तेज निकले. उत्तराखंड को छोड़कर बाकी सभी राज्यों  में स्पष्ट जनादेश देकर वोटरों ने सभी तरह के राजनीतिक सस्पेंस और उठापटक और उसमें  फलने-फूलने वाले चैनलों के लिए कयास लगाने की गुंजाइश को खत्म कर दिया. एक बार फिर कई एक्जिट और ओपिनियन पोल वोटरों के मन को पकड़ने में नाकाम रहे तो कई वास्तविक नतीजों से काफी आगे-पीछे रहने के बावजूद रुझानों का सही अनुमान लगाने में कामयाब रहे.  
एक बार फिर साबित हुआ कि एक्जिट पोल और ओपिनियन  पोल बड़े जोखिम हैं खासकर वोटों के प्रतिशत और सीटों के अनुमान के मामले में गणित अक्सर गड़बड़ा जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि सीएनएन-आईबीएन पर राजनीतिक विज्ञानी और सेफोलाजिस्ट योगेंद्र यादव ने एक्जिट पोल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के बारे रुझानों के बारे में काफी हद तक सही पूर्वानुमानों के बावजूद इस धंधे को अलविदा कहने का एलान कर दिया है. अफसोस इस धंधे में गंभीर और ईमानदार खिलाड़ी होने के बावजूद उन्होंने रिटायर होने का एलान कर दिया.

इसी का नतीजा है कि चैनलों और अखबारों में चुनावों को लेकर होने वाली स्वतंत्र और बारीक फील्ड रिपोर्टिंग लगातार कम होती जा रही हैलेकिन योगेंद्र यादव रहें या न रहें, न्यूज चैनल एक्जिट और ओपिनियन पोल या कहें चुनावों के संभावित नतीजों को लेकर कयास लगाए बिना नहीं रह सकते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उसमें एक सस्पेंस, सनसनी और ड्रामा है. असल में, चैनलों समेत समूचे न्यूज मीडिया में चुनाव का मतलब ही कयास और पूर्वानुमान हो गया है. इसी का नतीजा है कि चैनलों और अख़बारों में चुनावों को लेकर होने वाली स्वतंत्र और बारीक फील्ड रिपोर्टिंग लगातार कम होती जा रही है, जबकि चैनलों पर स्टूडियो में होने वाली बहसों और चर्चाओं, नेताओं की रैलियों, प्रेस कॉन्फ्रेंसों, आरोप-प्रत्यारोपों और उम्मीदवारों के बीच बहस के नाम पर होने वाले दंगल का शोर-शराबा बढ़ता जा रहा है.  

हालांकि अपवाद भी हैं. इस मामले में अखबारों खासकर अंग्रेजी अखबारों ने फील्ड से कई अच्छी रिपोर्टें और चुनाव यात्रा विवरण छापे. इनमें भी खासकर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘द हिंदू’ ने कई बेहतरीन रिपोर्टें और गंभीर विश्लेषण छापे जो जमीन पर बदल रही राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों की वास्तविक तस्वीर पेश कर रहे थे. उनमें गहरी अंतर्दृष्टि, राजनीति और समाज के रिश्ते और उनमें आ रहे बदलावों को समझने की कोशिश थी. लेकिन इसके उलट ज्यादातर हिंदी अखबारों और चैनलों ने चुनाव कवरेज का मतलब शोर-शराबा और तमाशा समझ लिया है. खासकर चैनलों के लिए तो इस बार के चुनाव क्रिकेट के तमाशे की भरपाई करते दिखे क्योंकि एक तो कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं हो रहा था और दूसरे, ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय टीम बुरी तरह हार रही थी. इसके कारण उसमें न तो वह ड्रामा और न सस्पेंस रह गया था कि चैनल उसके पीछे भागते. नतीजा, चैनलों ने चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को 20-20 क्रिकेट मैच और कुछ हद तक डब्ल्यूडब्ल्यूएफ कुश्ती में बदल दिया. उसी तरह की लाइव कमेंट्री और उस पर मेरे जैसे कथित वरिष्ठ पत्रकारों और विशेषज्ञों की कभी चुटकुलानुमा और कभी कुछ तथ्य और ज्यादातर अनुमान पर आधारित 20 सेकंड की टिप्पणियों का ड्रामा अंत तक चलता रहा.  

चूंकि चैनल बहुत हो गए हैं और सबको विशेषज्ञ चाहिए, इसलिए इस बार अपन को भी कुछ चैनलों पर चुनाव विशेषज्ञ बनकर जाने का मौका मिल गया. इस अनुभव के बारे में जितना  कहूं, उतना कम होगा. अंदर की बात यह है कि ये चुनाव विशेषज्ञ भी अद्भुत प्रजाति हैं. इनमें से ज्यादातर अखबारों के पत्रकार और संपादक हैं. वे राजनीति के पंडित और चुनाव शास्त्र के विशेषज्ञ बताए जाते हैं. कुछ मशहूर विशेषज्ञों की तो इतनी मांग थी कि वे इस चैनल से उस चैनल शिफ्ट में भी काम करते दिखे. कई चैनलों ने अपना जलवा दिखाने के लिए एक-दो या तीन नहीं बल्कि एक दर्जन से ज्यादा विशेषज्ञ जुटा लिए.  

इस चक्कर में चैनलों में विशेषज्ञ जुटाने की होड़-सी शुरू हो गई. जिसके पास जितने विशेषज्ञ, वह उतना बड़ा चैनल. इस होड़ में हालत यह हुई कि आखिर में ‘टाइम्स नाउ’ पर अपने अर्नब गोस्वामी ने इतने विशेषज्ञ बुला लिए कि खुद बैठने को जगह नहीं मिली और खड़े-खड़े 100 घंटे तक अहर्निश चर्चा करनी पड़ी. वैसे यह मालूम नहीं कि उन विशेषज्ञों में से कोई इन चुनावों में नीचे जमीन पर झांकने भी गया या नहीं, लेकिन वे बात ऐसे करते दिखे जैसे उनका हाथ सीधे जनता की नब्ज पर हो. यह और बात है कि मुझ समेत उनमें से ज्यादातर की विशेषज्ञता कयास से आगे नहीं बढ़ पाई.  

अक्सर उनकी विशेषज्ञता ‘यह भी हो सकता है और उसका उल्टा भी हो सकता है’ में उलझ कर रह जा रही थी. यह मत पूछिए कि इससे बेचारे टीवी दर्शक का राजनीतिक ज्ञान और समझदारी कितनी बढ़ी, लेकिन इस तमाशे में मनोरंजन की कोई कमी नहीं थी. चैनलों को भला और क्या चाहिए?