Home Blog Page 1504

पेड न्यूज का पाप

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनावी पेड न्यूज का जिन्न लौट आया है. वैसे वह कहीं गया नहीं था क्योंकि मुनाफे की बढ़ती भूख के बीच न्यूज मीडिया में पेड न्यूज ही शाश्वत सत्य है. रिपोर्टों के मुताबिक, चुनाव आयोग को पंजाब में पेड न्यूज की कोई 523 शिकायतें मिलीं. 339 मामलों में आयोग ने उम्मीदवारों को नोटिस जारी किया. जवाब में 201 उम्मीदवारों ने स्वीकार किया कि उन्होंने खबरों के लिए पैसे दिए और वे उसे अपने चुनाव खर्च में जोड़ेंगे. अन्य 78 उम्मीदवारों ने इन आरोपों को नकारा है जबकि 38 मामलों में उम्मीदवारों या संबंधित मीडिया संस्थान ने आरोपों को चुनौती दी है.

समाचार माध्यम सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खंभे को ही दांव पर नहीं लगा रहे बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं

अब इन 201 मामलों में मीडिया संस्थानों की प्रतिक्रिया या उन पर प्रेस काउंसिल की कार्रवाई का इंतजार है. कहते हैं कि इस बार पंजाब में पेड न्यूज का आलम यह था कि सत्ता की दावेदार पार्टियों का शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जिसने अखबारों/चैनलों के पैकेज न लिए हों. ऐसे में 523 शिकायतें कुछ नहीं हैं. एक आरोप यह भी लगाया गया है कि उम्मीदवारों को ब्लैकआउट का डर दिखाकर पेड न्यूज पैकेज खरीदने के लिए ब्लैकमेल किया गया.  

पंजाब कोई अपवाद नहीं है. पिछले साल एक पत्रकार ने गोवा में सबसे अधिक प्रसार वाले अंग्रेजी दैनिक के मार्केटिंग मैनेजर को एक स्टिंग ऑपरेशन में चुनावों के एक संभावित उम्मीदवार से ‘अनुकूल और सकारात्मक खबर’ के बदले में पैसे मांगते हुए पकड़ लिया. इस घटना से साफ हो गया कि अवैध खनन से लेकर विधायकों और वोटरों की खरीद-फरोख्त के लिए कुख्यात हो चुके गोवा के अखबार और चैनल भी बिकाऊ हैं.  

ऐसे में, चुनावी पेड न्यूज  की प्रयोगभूमि उत्तर प्रदेश के अखबार और चैनल भी कहां पीछे रहने वाले हैं? खबरें हैं कि यहां भी बहती चुनावी गंगा में अखबार और चैनल जमकर हाथ धो रहे हैं. अखबारों  और चैनलों के चुनावी पैकेजों की खूब चर्चाएं हैं. अलबत्ता कहते हैं कि इस बार पेड न्यूज का तरीका थोड़ा बदला हुआ है. अखबार और चैनल उम्मीदवारों के पक्ष में प्रशंसात्मक खबरों की बजाय इस बार नकारात्मक या उनकी असलियत बताने वाली खबरें न छापने के लिए पैसे ले रहे हैं. असल में, इन चुनावों को 2014 के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस कारण इन पर बड़े राजनीतिक दांव लगे हुए हैं. नतीजा, पैसा पानी की तरह बह रहा है. चैनल/अखबार भी दोनों हाथों से बटोरने में जुटे हुए हैं. कहने का अर्थ यह कि पिछले काफी दिनों से पेड न्यूज को लेकर मचे हो-हंगामे, विरोधों और चुनाव आयोग/प्रेस काउंसिल की सक्रियता के बावजूद चुनावी पेड न्यूज न सिर्फ जिंदा है बल्कि बदले तौर-तरीकों के साथ और मोटी और मजबूत हुई है.

हालांकि उत्तर प्रदेश में एक विधायक की सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अखबारों/चैनलों की उत्साहपूर्ण भागीदारी के बाद एक बार उम्मीद जरूर जगी थी कि चुनावी पेड न्यूज अब रुक जाएगी. लेकिन लगता है कि अखबारों/चैनलों को पेड न्यूज का ऐसा स्वाद लग गया है कि उनकी भूख बढ़ती ही जा रही है. इस भूख ने उनसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है. खबरों को बेचकर या छिपाकर वे अपने पाठकों/दर्शकों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं.

इस खेल में वे सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खंभे को ही दांव पर नहीं लगा रहे बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता के पास अपने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में पूरी और सच्ची जानकारी होना जरूरी शर्त है? लेकिन क्या अखबार/चैनल लोगों को पूरी और सच्ची जानकारी दे रहे हैं? कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन आरोप है कि इस बार अखबार/चैनल उम्मीदवारों की असलियत छिपाने के लिए पैसे ले रहे हैं.  आश्चर्य नहीं कि सभी उम्मीदवारों  द्वारा दाखिल संपत्ति और आपराधिक रिकॉर्ड के सार्वजनिक  ब्योरों के बावजूद अखबारों/चैनलों ने उसे विस्तार से छापने/दिखाने में भी संकोच किया. उम्मीदवारों के हलफनामों की बारीकी से छानबीन, उनके आय के स्रोतों की पड़ताल, उनके आपराधिक मामलों की पुलिस जांच से लेकर कोर्ट की कार्रवाई तक की ताजा स्थिति से लेकर उनके अन्य कारनामों को सामने लाना तो बहुत दूर की बात है. क्या यह सिर्फ अखबारों/चैनलों के पत्रकारों की काहिली/उदासीनता है या इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? गौर से देखें तो पैटर्न साफ दिखता है.  

इसके कारण ही राजनीति और संसद/विधानसभाओं में कृपा शंकर सिंह जैसे माननीयों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनकी संपत्ति न जाने किस जादू से देखते-देखते न्यूनतम दस से लेकर सौ और हजार गुने तक बढ़ जा रही है. आखिर इसे सामने कौन लाएगा? कहते हैं कि कभी एक खोजी पत्रकारिता नाम की चीज हुआ करती थी. लगता है, पेड न्यूज के साथ वह इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. इस कैंसर ने पत्रकारिता की आत्मा से लेकर उसकी आवाज तक को मारना शुरू कर दिया है.  बीमार मीडिया लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं. डर यह है कि कहीं पेड न्यूज से निकला रास्ता पेड लोकतंत्र की राह न बनाने लगे.   

इस रफ्तार से हम कहां जा रहे हैं?

सभ्यता के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मानक क्या है? इस प्रश्न के बहुत सारे उत्तर हो सकते हैं. एक मानक उन बहुत सारे आविष्कारों के सिलसिले से बनता है जिन्होंने हमारा जीवन बिल्कुल बदल कर रख दिया है- पहिये से लेकर सुपरसोनिक विमान तक, सुई से लेकर तलवार और तरह-तरह की आधुनिक तोपों और मिसाइलों तक, और आग और शीशे की खोज से लेकर उन उपग्रहों तक जिन्होंने सूचना और संचार के एक जादुई संसार को संभव बनाया है.

हमारे समय का सबसे बड़ा तनाव उस प्रतिस्पर्द्धा का तनाव है, जिसमें पीछे छूट जाने का डर हमें दौड़ाता रहता है

दूसरी कसौटी उन सामुदायिक-सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं से बनती है जो हमने इन सदियों में विकसित की है. निश्चय ही धर्म और राजनीति इनमें सबसे बड़े नियामक की भूमिका निभाते रहे हैं- इन्होंने हमारे सामाजिक-आर्थिक व्यवहार भी तय किए हैं.
हो सकता है, कुछ दूसरे लोगों के दिमाग में विकास की और भी कई कसौटियां आएं, जिनका वास्ता मनुष्य के गरिमापूर्ण और एक समान जीवन से हो या फिर हिंसा के विरुद्ध लगातार बढ़ती और हिंसा से लड़ती मानवीय चेतना से हो.

लेकिन अगर बहुत ध्यान से देखें तो विकास का यह पूरा सफर असल में रफ्तार का खेल है- बल्कि विकास और गति जैसे एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. पहिये के आविष्कार ने इस रफ्तार को पहले पंख दिए. आने वाले दिनों में यह रफ्तार बिल्कुल अतिमानवीय हदों के पार जाती दिखी. आज की तारीख में रफ्तार ने खुद को तरक्की और बेहतरी का पर्याय बना लिया है. रफ्तार जैसे माध्यम या जरिया नहीं रही, सीधे मूल्य हो गई है. सबसे अच्छी कार वह है जो सबसे तेज दौड़ सके. सबसे अच्छे फोन वे हैं जिनमें सबसे तेज डाटा ट्रांसफर हो सके, सबसे अच्छा टीवी चैनल वह है जो सबसे तेजी से ख़बर पहुंचा सके. ये बहुत स्थूल उदाहरण हैं, ज़्यादा गहराई से देखेंगे तो लगेगा कि हमने समय की शिला को जैसे चूर-चूर कर डाला है और उसके एक-एक मिनट और सेकंड का नहीं, नैनो सेकंड तक का इस्तेमाल कर लेने पर तुले हैं.

आखिर इतनी रफ्तार का फायदा क्या है?  पहला और सीधा जवाब तो यही हो सकता है कि रफ्तार हमारा समय बचाती है. इस रफ्तार से ही दुनिया बिल्कुल मुट्ठी में आ गई है. अब हम वहां घंटों में पहुंच जाते हैं जहां पहुंचने में पहले महीनों और उससे भी पहले साल लगते थे. अब हम मिनटों में इतना सारा सामान तैयार कर लेते हैं जो पहले कई दिन में होता था. इस तर्क से हम इस नतीजे तक पहुंच सकते हैं कि हमारी रफ्तार जितनी ज्यादा होगी, हमारे पास समय उतना ही ज़्यादा होगा.

लेकिन जीवन का, सभ्यता का और विकास का अनुभव इसकी पुष्टि नहीं कर रहा. जो जितनी तेजी से भाग रहा है, उसके पास समय की उतनी ही कमी हुई जा रही है. यह व्यक्तियों का भी सच है और समाजों का भी. हम अपने पुराने सुस्त रफ्तार समाज को याद करते हैं और पाते हैं कि वहां आदमी के पास समय काफी ज्यादा था. साफ है कि रफ्तार की उस विडंबना को हम समझने को ठीक से तैयार नहीं हैं जिसे गांधी जी ने सौ साल पहले समझ लिया था, जब उन्होंने ट्रेनों की आलोचना की थी. उनका कहना था कि जब हम पैदल या बैलगाड़ी पर एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं तो हमें उस परिवेश को समझने का पूरा समय मिलता है. सफर में आने वाले गांव-देहातों और बस्तियों की बोली-बानी और उनकी जीवन शैली से हमारा परिचय इतना प्रगाढ़ होता चलता है कि हम किसी भी इलाके में परायापन महसूस नहीं करते. महात्मा गांधी के मुताबिक दरअसल ये तेज रफ्तार से चलने वाली रेल हैं जिन्होंने देश को बांटा है, हिंदुस्तान के भीतर कई राष्ट्र बना दिए हैं.

टहलते हुए आप हर तरफ देखते हैं, हर किसी का हालचाल ले लेते हैं, दौड़ते हुए आप बस एक तरफ देखते हैं, अपनी भी सांस अपने वश में नहीं रहती

सच है कि यह तर्क आसानी से पचता नहीं क्योंकि हम यह मानने के आदी हो गए हैं कि यह रफ्तार हमें करीब ला रही है. अब हजारों मील दूर बैठे लोगों का हालचाल लिया जा सकता है, उनसे सीधी बातचीत की जा सकती है और जरूरत पड़ने पर उन तक तत्काल पहुंचा भी जा सकता है. लेकिन खुद यह रफ्तार क्या इतनी आसानी से हासिल होती है? इस रफ्तार की एक आर्थिक कीमत है जो आपको अपना समय लगाकर हासिल करनी है. दरअसल जब यह समय खर्च हो जाता है तो हमें रफ्तार अपरिहार्य लगने लगती है. हर कोई जैसे जल्दी में रहता है. कभी दफ्तर पहुंचने की हड़बड़ी, कभी घर भागने की जल्दबाजी तो कभी किसी पार्टी में जाने की बेताबी- इन सबके बीच दबाव, तनाव और थकान के ऐसे कोलाहल भरे लम्हे हैं जो जीवन को लगभग असह्य बना डालते हैं. इस असहनीयता से भागने के लिए भी हमने ढेर सारे उपाय कर लिए हैं. पर्यटन और होटल उद्योग इन दिनों खूब फूल-फल रहे हैं क्योंकि लोगों के पास पैसा है और वे गर्मियों में पहाड़ पर और सर्दियों में समंदर के किनारे जाकर मौसम का लुत्फ उठाते हैं.

लेकिन यहां भी रफ्तार उनका पीछा नहीं छोड़ती. उनके पास गिनती के कुछ दिन होते हैं जिनके बीच सब कुछ देख लेना और घूम लेना होता है- और अब तो देखने-घूमने से ज्यादा बेताबी इस पर्यटन के अनुभव को तत्काल साझा करने की होती है. पहाड़ पर पहुंचे नहीं, बर्फ देखी नहीं कि उसके धड़ाधड़ फोटो फेसबुक पर अपलोड करने लग गए. यह लगातार आम बनता हुआ चलन बताता है कि हड़बड़ी पहले मजबूरी थी, अब आदत बन गई है. ऐल्विन टॉफलर ने अपनी किताब फ्यूचर शॉक में इस संकट की तरफ बड़ी खूबसूरती से इशारा किया है. अब लोगों के पास किसी अनुभव को ठीक से महसूस करने, उसे जज्ब करने, उसकी अलग-अलग रंगतों को पहचानने का सब्र नहीं रह गया है- या शायद इसकी जरूरत भी नहीं रह गई है. हर अनुभव जैसे पूर्व निर्धारित है, जैसे पैकेज्ड टूर होते हैं जहां आपको बिल्कुल मालूम होता है कि सुबह किसी प्वाइंट से सूर्योदय देखेंगे और शाम को किसी प्वाइंट से सूर्यास्त. यह भी पता होता है कि वह सूर्योदय या सूर्यास्त कैसा होगा.

जाहिर है, अनुभव में दो तरह के तत्व ख़त्म हो गए हैं- वह धीरज नहीं बचा है जिससे किसी चीज को उसकी बारीकियों या ब्योरों के साथ समझा जाए. जबकि यह कहावत पुरानी है कि खुदा बारीकियों में बसता है. सूक्ष्मता के इस विलोप से आस्वाद की संपूर्णता खत्म हो गई है. दूसरी तरफ अनुभव का अनूठापन भी नहीं बचा हुआ है – यानी कोई ऐसा दृश्य जिसकी आपने उम्मीद न की हो, कोई ऐसा पहलू जो आप पहली बार देख रहे हों.

अनुभव संसार में इस बदलाव की छाप संस्कृति, साहित्य और कला से जुड़े माध्यमों में भी बहुत साफ नजर आ रही है. फिल्मों में धीरे-धीरे बनता कोई दृश्य अब नज़र नहीं आता. चीजें बिल्कुल धड़धड़ाती हुई आती हैं और वे हमारे संवेदन तंत्र को छूना नहीं, बिल्कुल उस पर ख़ुद को आरोपित कर लेना चाहती हैं. मुश्किल यह है कि हमें इससे भी तृप्ति नहीं मिलती. हम फिर रफ्तार का सहारा लेते हैं- इसमें वह रोमांच मिलता है जो हमारे शिथिल स्नायु तंत्र में बिजली भरता है. लेकिन यह रोमांच भी उतनी ही देर टिकता है जितनी देर गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार पर होती है. जहां आपके पांव ब्रेक पर होते हैं, वह अनुभव भाप की तरह उड़ जाता है. 
लेकिन हमारे समय में इस रफ्तार के असली मूल्य को समझना जरूरी है. वह समय बचाने का, वक्त पर कहीं पहुंच जाने का माध्यम भर नहीं है, वह दूसरों को पीछे छोड़ने, उनसे आगे निकल जाने का खेल भी हो गई है. हमारे समय का सबसे बड़ा तनाव उस प्रतिस्पर्धा का तनाव है, जिसमें पीछे छूट जाने का डर हमें दौड़ाता रहता है. यहां रफ्तार और सफलता एक-दूसरे के हमसफर हो जाते हैं.

इस रफ्तार की विडंबनाएं और भी हैं. टहलते हुए आप हर तरफ देखते हैं, हर किसी का हालचाल ले लेते हैं, दौड़ते हुए आप बस एक तरफ देखते हैं, अपनी भी सांस अपने वश में नहीं रहती. हमारे देखते-जानते ही इस रफ्तार ने हमारी सामाजिकता तार-तार कर दी है. जीवन में वह अवकाश बचा ही नहीं कि आप दूसरों से मिलें, उनसे बात कर लें, उनके बारे में कुछ याद रखें. मनुष्य वह सामाजिक प्राणी नहीं रहा जिसने कभी समाज बनाया था. हालांकि यह सामाजिकता हमारी प्रकृति है, इसलिए किसी न किसी बहाने हम लोगों से जुड़ना चाहते हैं. फेसबुक, ऑरकुट या ट्विटर जैसे माध्यम यों ही लोकप्रिय नहीं हो गए. इन्होंने हमारे लिए वे चौराहे और मोहल्ले फिर बसाए जिन्हें हम आगे बढ़ने की होड़ में कहीं छोड़ आए हैं. उनके माध्यम से हम अपने संबंधों को पुनर्जीवित करने की कोशिश में हैं.

लेकिन इन माध्यमों पर होने वाली ये वायवीय मुलाकातें क्या वास्तविक मेलजोल की जगह ले सकती हैं?  अंततः एक सीमा के बाद फेसबुक थका देता है, ऊब पैदा करने लगता है, क्योंकि शब्दों या तस्वीरों के लेन-देन का अपना एक मोल है, लेकिन वह बिल्कुल प्रामाणिक आत्मीयता नहीं है जिसमें हम दूसरे का चेहरा पहचानते हैं, उसमें पहली बार आ रही मूंछों या बाद के दौर में उस पर पड़ रही झुर्रियों और सफेदियों को देखते हैं, उसकी आवाज को उसके उतार-चढ़ावों के साथ पहचानते हैं, उसके साथ मिलकर ठहाके लगाते हैं. फेसबुक में हा हा हा लिखकर काम चलाना पड़ता है.

लेकिन हम जिस तरह के बदले हुए आदमी हैं, उसमें इतना भी हमें काफी लग रहा है. रफ्तार ने हमारे भीतरी अवयवों को बदल डाला है. अब शायद किसी से मिलने पर भी हमारा ध्यान भटकता रहता है- बातचीत के सिरे टूटते रहते हैं, रिश्तों से जुड़े पुराने ब्योरे करीने से याद तक नहीं आते. यहां भी एक हड़बड़ी जैसे हमारे पीछे लगी रहती है. दरअसल यह उस सभ्यता की कीमत है जो हमने रफ्तार के माध्यम से बनाई है- यह समझे बिना कि इस रफ्तार ने सबसे ज्यादा हमें ही कुचला है. हम बस दौड़ते जा रहे हैं, यह जाने बिना कि हम जा कहां रहे हैं.  

क्या रेलवे यूपीए-2 की नाकामी का सबसे बड़ा प्रतीक है?

जब केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने 2009 में दोबारा राजकाज संभाला था तो कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इस सरकार की वापसी के लिए पिछले कार्यकाल के दौरान सरकार द्वारा किए गए कुछ अच्छे कार्यों को जिम्मेदार ठहराया था. कहा गया था कि संप्रग की पहली सरकार ने रोजगार गारंटी से लेकर सूचना का अधिकार तक कुछ ऐसे काम किए जिससे लोगों को काफी फायदा हुआ और इसका ईनाम जनता ने अपने वोटों के जरिए कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को दिया. संप्रग के पहले कार्यकाल में रेल मंत्री थे लालू प्रसाद यादव.  2004 में जब वे रेल मंत्री बने तो सालों से घाटे में चल रही भारतीय रेल के अचानक से फायदे में आने की खबरें सुनाई देने लगीं. अखबार और चैनल रेलवे के मुनाफे की खबरों से पट गए. संप्रग 2009 में दोबारा सत्ता में आया और बिहार में लालू की पार्टी बुरी तरह हारी. नतीजा यह हुआ कि रेल मंत्रालय लालू के हाथ से निकलकर संप्रग के नए सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख ममता बनर्जी के हाथों में चला गया.

संप्रग के दोबारा सत्ता में आने के कुछ ही महीने बाद मनमोहन सिंह सरकार को कई मोर्चों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जो लोग संप्रग की पहली सरकार की तारीफ करते हुए नहीं अघा रहे थे वे दूसरी सरकार के खिलाफ खुलकर बोलने लगे. सबसे पहले 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में धांधली सामने आई. इसके बाद राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घोटाले की बात सामने आई. केजी बेसिन घोटाला उजागर हुआ. जिन मनमोहन सिंह की साख एक ईमानदार प्रधानमंत्री के तौर पर बनी थी, उन्हीं के राज में एक से बढ़कर एक घोटालों ने संप्रग की दूसरी सरकार को इस गठबंधन की पहली सरकार के बिल्कुल उलटा खड़ा कर दिया. कई विभागों में भयानक अराजकता दिखने लगी. रेलवे की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. पहले कार्यकाल में जहां रेलवे भारी मुनाफा कमाता हुआ दिख रहा था, वह अचानक से कर्ज के बोझ तले दबा दिखने लगा. संप्रग के दूसरे कार्यकाल में रेल मंत्रालय ममता बनर्जी के हाथ में पहुंचा तो उन्होंने श्वेत पत्र लाकर कहा कि लालू का मुनाफे का दावा खोखला था.

अभी रेलवे की हालत यह है कि जो घोषणाएं पहले से हुई हैं, उन्हें लागू करने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं. अपने बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए भी रेलवे के पास पैसे नहीं हैं और इस वजह से कई मुद्दों पर रेल मंत्रालय और योजना आयोग के बीच मतभेद की खबरें भी आती रहती हैं. कई जानकार तो इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल की नाकामी का सबसे बड़ा उदाहरण रेलवे बन गया है. बिहार के मुख्यमंत्री रहे और अभी रेलवे की स्थायी संसदीय समिति के सदस्य रामसुंदर दास कहते हैं, ‘संप्रग के दूसरे कार्यकाल में रेलवे बहुत बुरी हालत में है.’

रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष रहे आरएन मल्होत्रा कहते हैं, ‘हर रेल मंत्री पर रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगे हैं. रेलवे की खराब हालत के लिए इसका राजनीतिक इस्तेमाल काफी हद तक जिम्मेदार है.’ जब से ममता बनर्जी रेल मंत्री बनीं तब से उन पर यह आरोप लगते रहे कि वे रेलवे और खास तौर पर रेल बजट का इस्तेमाल पश्चिम बंगाल की सत्ता में आने के लिए कर रही हैं. वे 2009 में रेल मंत्रालय में आई थीं और उन्होंने जो तीन रेल बजट संसद में पेश किए उनमें से सभी में उन्होंने अपने गृह राज्य पश्चिम बंगाल पर खास मेहरबानी दिखाई. पिछले साल यानी वित्त वर्ष 2011-12 के लिए रेल बजट पेश करते समय भी ममता बनर्जी ने बंगाल के लिए कई घोषणाएं कीं. पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल को देखते हुए ममता बनर्जी ने इस राज्य को न सिर्फ नई रेलगाडि़यां दी थीं बल्कि यहां रेलवे की कई परियोजनाएं लगाने की भी घोषणा की थी. इसमें दार्जिलिंग में सॉफ्टवेयर एक्सिलेंस पार्क, नंदीग्राम में रेल इंडस्ट्रीयल पार्क और सिंगुर में मेट्रो रेल कोच कारखाना प्रमुख हैं.

पिछले साल ममता पर बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के सांसद भेदभाव का आरोप लगा रहे थे. दरअसल, रेल बजट में अपने राज्य को ज्यादा देने का चलन नया नहीं है. बिहार से रेल मंत्री बनने वाले नेताओं ने भी ऐसा किया है. अब इसे स्वाभाविक भी मान लिया गया है. रामविलास पासवान से लेकर लालू यादव तक बिहार से आने वाले सभी रेल मंत्रियों पर रेल बजट में गृह राज्य को तरजीह देने का आरोप लगा.

रेल मंत्रालय के राजनीतिक इस्तेमाल से जुड़ा एक आयाम यह भी है कि जब से देश में गठबंधन सरकारों का दौर आया है तब से प्रमुख सहयोगी दल को रेल मंत्रालय देने का चलन बन गया है. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय नीतीश कुमार को रेल मंत्री बनाया गया था जो एनडीए के प्रमुख सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के नेता हैं. इसके बाद जब कांग्रेस की अगुवाई में केंद्र में संप्रग सरकार आई तो पहले राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव तो बाद में तृणमूल की ममता बनर्जी के हाथ में रेल मंत्रालय आया.

अब सवाल यह उठता है कि आखिर रेल मंत्रालय से जुड़ी वे कौन-सी बातंे हैं जिनकी वजह से हर प्रमुख सहयोगी इस मंत्रालय को अपने हाथ में लेना चाहता हैं इस बारे में रेलवे की यात्री सेवा समिति के हाल तक सदस्य रहे रघुनाथ गुप्ता कहते हैं, ‘रेल सीधे तौर पर देश की एक बड़ी आबादी से जुड़ी हुई है. इसलिए रेल मंत्री के पास यह अवसर होता है कि वह अपने लोकलुभावन फैसलों के जरिए अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करे.’ ममता बनर्जी को इसका सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है. रेल मंत्रालय के एक अधिकारी बताते हैं, ‘ममता ने सिंगुर और नंदीग्राम के आंदोलन के जरिए पश्चिम बंगाल में अपनी खास पहचान बनाई. फिर रेलवे से संबंधित लोकलुभावन घोषणाएं करके उन्होंने बंगाल के लोगों में अपनी यह छवि बैठाई कि वे आम आदमी और गरीबों के साथ हैं, इसलिए वे रेल किराया नहीं बढ़ा रही हैं. ममता ने यह संकेत भी दिया कि जब रेल मंत्री रहकर वह अपने राज्य के लिए इतना कर सकती हैं तो फिर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद तो वे बहुत कुछ कर सकती हैं. वे अपने मकसद में कामयाब भी रहीं और पश्चिम बंगाल की जनता ने उन्हें प्रदेश की सत्ता थमा दी. मगर रेलवे की दशा जस की तस रही.’ खुद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने दो फरवरी को पत्रकारों से बातचीत के दौरान स्वीकार किया कि रेलवे बीमार हालत में है. उनका कहना था, ‘अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो रेलवे का परिचालन और इसकी माली हालत दोनों की दशा काफी बिगड़ जाएगी.’

‘करीब 3,000 रेल पुलों की उम्र 100 साल से ज्यादा हो गई है. वैज्ञानिक ढंग से न तो इनकी मरम्मत की जा रही है और न ही इन पर निगाह रखी जा रही है’

इस बयान से साफ हो जाता है कि भारतीय परिवहन व्यवस्था की जीवन रेखा रेल संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में नाकामी का कितना बड़ा उदाहरण बन गई है. ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के महासचिव शिवगोपाल मिश्रा कहते हैं, ‘जब तक रेलवे का राजनीतिक इस्तेमाल बंद नहीं होगा तब तक भारतीय रेल का कायाकल्प नहीं हो सकता.’

अब संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल की सबसे बड़ी नाकामी रेलवे की समस्याएं एक-एक करके समझते हैं. कोई भी व्यवस्था तब ही सही ढंग से चल पाती है जब आमदनी और खर्च का एक सही संतुलन कायम रहे. भारतीय रेलवे से यह संतुलन गायब है. अभी भारतीय रेल का परिचालन औसत 95.7 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ कि अगर रेलवे को 100 रुपये की आमदनी हो रहे ंहैं तो इसमें 95.7 रुपये परिचालन पर खर्च हो रहे हैं. यानी रेलवे की विकास योजनाओं पर निवेश के लिए हर 100 रुपए में से बचे सिर्फ 4.3 रुपये. उल्लेखनीय है कि 2007-08 में परिचालन औसत 75.9 फीसदी था और हाल के सालों में इसमें हुई बढ़ोतरी को सीधे तौर पर रेल की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. लेकिन अभी रेलवे को होने वाली कुल आमदनी का महज 4.3 फीसदी ही विकास योजनाओं पर निवेश के लिए बच रहा है.

हालांकि, रेलवे से जुड़े कई जानकार परिचालन औसत को बहुत ज्यादा महत्व नहीं देने की बात करते हैं. गुप्ता कहते हैं, ‘रेलवे का संचालन मुनाफा बनाने के मकसद से नहीं हो रहा. इसका मकसद जन कल्याण है.

रेलवे की खराब माली हालत का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि पिछले कुछ सालों में रेल दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ने के बावजूद रेलवे ने यात्री बीमा खरीदना बंद कर दिया है. 2009 से रेलवे ने अपनी ट्रेनों में सफर करने वाले लोगों का बीमा करवाना बंद कर दिया है क्योंकि इस पर रेलवे को हर साल औसतन 78 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे थे. इसका परिणाम यह हो रहा है कि रेल दुर्घटनाओं में जो लोग मारे जा रहे हैं या घायल हो रहे हैं उन्हें मुआवजे का भुगतान रेलवे को अपनी जेब से करना पड़ रहा है.

रेलवे में घोषणाओं का हश्र क्या होता है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि 2011-12 का रेल बजट पेश करते हुए ममता बनर्जी ने  घोषणा की थी कि 266 स्टेशनों का विकास आदर्श रेलवे स्टेशन के तौर पर किया जाएगा. लेकिन इनमें से सिर्फ नौ स्टेशनों पर ही अब तक यह काम पूरा हो पाया है. इस घोषणा के एक साल पहले यानी 2010-11 के रेल बजट में ममता ने घोषणा की थी कि 201 स्टेशनों को आदर्श रेलवे स्टेशन बनाया जाएगा लेकिन दो साल गुजरने के बावजूद अब तक इनमें से सिर्फ 76 का काम ही पूरा हो पाया है. 2011-12 के रेल बजट में  ममता ने 131 नई ट्रेनों की घोषणा की थी. रेल मंत्रालय की तरफ से मिली आधिकारिक सूचना के मुताबिक 31 जनवरी, 2012 तक इनमें से 70 नई ट्रेनें ही शुरू हो सकीं, जबकि 61 ट्रेनों के बारे में बताया गया कि चालू वित्त वर्ष में ही इन्हें शुरू करने की कोशिश हो रही है.

आज यह बात हर कोई स्वीकार कर रहा है कि रेलवे के बुनियादी ढांचे में जरूरी निवेश नहीं करना मौजूदा संप्रग सरकार की सबसे बड़ी गलती साबित हो रही है और इस वजह से पिछले दो साल में कई रेल दुर्घटनाएं हुई हैं. हर रोज दो करोड़ लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने वाली भारतीय रेल के लिए आज सुरक्षा सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है. कुछ महीने पहले रेल मंत्रालय ने देश के प्रख्यात परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी. इसका मकसद था रेलवे की सुरक्षा संबंधी समस्याओं काे अध्ययन और इनके समाधान की राह सुझाना. समिति की रिपोर्ट में यात्रियों को सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंचाने की रेलवे की क्षमता पर सवाल उठाया गया है. रेलवे ने प्रति व्यक्ति यात्री सुरक्षा पर महज 2.86 रुपये का निवेश किया है. यह बात भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से सामने आई है. कैग की रिपोर्ट कहती है कि रेलवे ने सुरक्षा मद में आवंटित रकम को भी पूरी तरह से खर्च नहीं किया. यह इसलिए चिंताजनक है क्योंकि सुरक्षा खामियों की वजह से रेल दुर्घटनाएं लगातार होती रहीं.

रेल मंत्रालय के आंकड़े ही बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच कुल 2,431 रेल दुर्घटनाएं हुईं. इनमें 120 मामले टक्कर के हैं तो 1,410 पटरी से उतरने के. काकोदकर समिति की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ 2007-08 से 2010-11 के बीच हुई रेल दुर्घटनाओं में 1,019 लोग काल के गाल में समा गए. हर साल कई लोगों की मौत ट्रेन से कटकर भी हो जाती है लेकिन रेलवे इसे अपने नेटवर्क में हुई मौतों में नहीं गिनता. काकोदकर समिति कहती है, ‘हर साल तकरीबन 15,000 लोगों की मौत ट्रेन से कटकर होती है. इसमें करीब 6,000 लोगों की जान तो सिर्फ मुंबई के लोकल नेटवर्क की वजह से जाती है. रेलवे भले ही इन मौतों को रेल दुर्घटना नहीं माने लेकिन कोई भी सभ्य समाज अपने रेल तंत्र द्वारा हो रही इतनी मौतों को स्वीकार नहीं कर सकता. ‘भारत में दुर्घटनाओं की वजह से होने वाली कुल मौतों में आठ फीसदी मौतें रेल दुर्घटनाओं की वजह से हो रही हैं. 2010 में पूरी दुनिया में हुई 50 बड़ी रेल दुर्घटनाओं में से 14 भारत में हुईं. रेल दुर्घटनाओं में सिर्फ यात्रियों की ही मौत नहीं हो रही बल्कि रेलकर्मी भी मारे जा रहे हैं. काकोदकर समिति बताती है कि 2007-08 से 2010-11 के बीच ड्यूटी के दौरान रेलवे के तकरीबन 1,600 कर्मचारी मारे गए और 8,700 कर्मचारी घायल हो गए. इनमें पटरी की मरम्मत करने से लेकर रेल कारखानों में काम करने वाले और यार्ड में काम करने वाले कर्मचारी शामिल हैं.

जब नीतीश कुमार रेल मंत्री थे तो उन्होंने 2003 में कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान की शुरुआत की थी. इस योजना को दस साल और दो चरणों में पूरा किया जाना था. पहला चरण 2008 में पूरा होना था. कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 31,835 करोड़ रुपये के फंड के साथ 2003 में शुरू हुए कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान का पहला चरण 2008 में नहीं पूरा किया जा सका. इसके तहत पुराने रेल इंजनों को बदला जाना था, पटरियों व पुलों की स्थिति सुधारी जानी थी. ऐसे में रेलवे को लेकर मौजूदा संप्रग सरकार के रवैये को देखते हुए अब इस प्लान के दूसरे चरण के 2013 तक पूरा होने की संभावना पर भी ग्रहण लग गया है. मल्होत्रा कहते हैं, ‘अगर रेलवे को यात्रियों का भरोसा वापस पाना है और अपनी ब्रांड वैल्यू बचाकर रखनी है तो सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे अधिक तत्परता के साथ निवेश की जरूरत है. दुर्घटनाएं इस मोर्चे पर रेलवे की नाकामी बयां कर रही हैं.’

रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने भी कुछ दिन पहले कहा था, ‘सवारी और मालवाहक गाड़ियों की संख्या बढ़ने से रेलवे के बुनियादी ढांचे पर दबाव बढ़ गया है. पिछले एक दशक में इन गाड़ियों की संख्या में 30 फीसदी बढ़ोतरी हुई है.’ बुनियादी ढांचा दुरुस्त किए बगैर नई गाडि़यां चलाए जाने के रेल मंत्रालय के राजनीतिक कदम के खिलाफ दबी जुबान में विरोध जोनल रेलवे के अधिकारियों ने भी कुछ दिनों पहले किया था. इन अधिकारियों ने यह कहा था कि उनके जोन में मौजूदा क्षमता को देखते हुए और अधिक रेलगाडि़यों के परिचालन की क्षमता नहीं है. रेल मंत्रालय के ही एक अधिकारी कहते हैं, ‘कोई भी अधिकारी नई गाड़ी शुरू करने का खुलेआम विरोध इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि देश में रेल और राजनीति एक साथ चलती है. नई ट्रेनों की शुरुआत के कई फैसले राजनीतिक होते हैं.’

‘हर रेल मंत्री पर रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगे हैं. रेलवे की खराब हालत के लिए इसका राजनीतिक इस्तेमाल काफी हद तक जिम्मेदार है’

रेलवे कितना सुरक्षित है, इसकी पोल खोलते हुए काकोदकर समिति अपनी रिपोर्ट में कहती है, ‘देश में तकरीबन 3,000 ऐसे रेल पुल हैं जिनकी उम्र 100 साल से अधिक हो गई है. वैज्ञानिक ढंग से न तो इनकी मरम्मत की जा रही है और न ही इन पर निगाह रखी जा रही है. ऐसे में तब-तब सुरक्षा को लेकर खतरा बना रहता है जब-जब इन पुलों से होकर कोई रेलगाड़ी गुजरती है.’ रेल दुर्घटनाओं की वजह बताते हुए समिति कहती है, ‘कुल रेल दुर्घटनाओं में पटरी से उतरने की घटना की हिस्सेदारी 50 फीसदी है. पटरी से उतरने की तकरीबन 30 फीसदी घटनाएं रेल पटरियों की खराब हालत की वजह से हो रही हंै. इन पटरियों पर क्षमता से अधिक बोझ पड़ रहा है, इसलिए पटरियों में दरार आने की वजह से रेल दुर्घटना के मामले सामने आ रहे हैं.’

अहम सवाल यह है कि क्या काकोदकर समिति की सिफारिशों पर अमल किया जाएगा? जब इस समिति का गठन रेल मंत्रालय ने किया था तो रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा था कि रेलवे की माली हालत खराब होने के बावजूद काकोदकर समिति की सिफारिशों को लागू करने की कोशिश की जाएगी. रेल मंत्रालय के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए इसकी संभावना कम ही लगती है. रेलवे ने पहले भी कई समितियों का गठन बड़े उत्साह के साथ किया लेकिन जब सिफारिशों को लागू करने की बात आई तो उसे कदम खींचने पड़े. उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एचआर खन्ना की अध्यक्षता वाली समिति ने रेल सुरक्षा पर 1998 में रिपोर्ट दी थी, लेकिन उस समिति की सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं हो पाया है. दास कहते हैं, ‘जब तक इन समितियों की सिफारिशें धूल फांकती रहेंगी तब तक रेलवे की समस्याओं का समाधान संभव नहीं लगता.’

रेल हादसों की एक बड़ी वजह के तौर पर जानकार मानवरहित रेलवे क्रॉसिंगों को भी जिम्मेदार मानते हैं. ऐसी क्रॉसिंगों की संख्या अभी तकरीबन 14,896 है जो कुल रेलवे क्रॉसिंगों का 36 फीसदी है. 2004 से लेकर अब तक हुई रेल दुर्घटनाओं में से एक तिहाई के लिए यही जिम्मेदार हैं. कुल रेल दुर्घटनाओं में से 59 फीसदी मौतें मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर हुई दुर्घटनाओं में ही हुई हंै. मिश्रा कहते हैं, ‘मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर तैनाती की बात हर बार चलती है, लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से यह योजना उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ रही जितनी तेजी से बढ़नी चाहिए थी.’
जानकार बताते हैं कि रेलवे की सुरक्षा से संबंधित कार्यों को पूरा करने के लिए कम से कम 70,000 करोड़ रुपये की जरूरत है. पैसे के अभाव में रेलवे सुरक्षा संबंधी बंदोबस्त नहीं कर पा रहा है. रेल दुर्घटनाओं को रोकने के मकसद से कोंकण रेलवे ने 1999 में ही टक्कर रोकने वाला उपकरण विकसित किया था, लेकिन धन नहीं होने की वजह से इन उपकरणों को ट्रेनों में नहीं लगाया जा सका है. दुनिया के कई प्रमुख देशों में रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए जीएसएमआर नाम की तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके जरिए रेल पटरी पर ट्रेन की रफ्तार खुद-ब-खुद निर्धारित होती है और रेड सिग्नल पार करने व एक ही पटरी पर दो ट्रेनों की आने की हालत में ट्रेन खुद-ब-खुद रूक जाती है. लेकिन इस तकनीक को भी पैसे की कमी का रोना रोकर इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है.

पिछले दो साल में रेल दुर्घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी के लिए रेलवे में खाली पदों को भी एक वजह बताया जा रहा है. जानकार बताते हैं कि रेलवे के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इन खाली पदों को भर पाए. भारतीय रेलवे में 13,102 ड्राइवरों का पद खाली है. कुछ दिनों पहले खुद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा था कि रेलवे की सुरक्षा से संबंधित तकरीबन 1.26 लाख पद खाली पड़े हैं. रेलवे स्टेशनों पर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार जीआरपी में खाली पदों की संख्या 2005-06 की सात फीसदी की तुलना में बढ़कर 16 फीसदी पर पहुंच गई. रेलवे सुरक्षा बल आरपीएफ का भी यही हाल है. आरपीएफ में भी बड़ी संख्या खाली पदों की है. कुल मिलाकर देखा जाए तो रेलवे में तकरीबन 2.54 लाख पद खाली हैं. भारतीय रेल से संबंधित एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि पिछले 20 साल में सवारी और मालवाहक गाड़ियों की संख्या बढ़ने के बावजूद रेलवे कर्मचारियों की संख्या घटी है. 1990 में कर्मचारियों की कुल संख्या 16 लाख थी जो अब घटकर 12.34 लाख पर पहुंच गई है. रेलवे में खाली पदों की कहानी यह है कि सुरक्षा के लिहाज से भारतीय रेल के लिए डाॅग स्क्वाॅयड में 405 कुत्तों की जरूरत बताई गई है, लेकिन अभी रेलवे के पास सिर्फ 292 कुत्ते ही हैं. यानी डॉग स्क्वॉयड में भी जरूरत से 28 फीसदी यानी 113 कुत्ते कम हैं.

बढ़ती रेल दुर्घटनाओं के लिए रेलवे के खाली पदों को भी वजह बताया जा रहा है. लेकिन रेलवे के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इन खाली पदों को भर सके

जानकारों का मानना है कि रेलवे में भी तेजी से तकनीकी बदलाव हो रहा है लेकिन इसके सही संचालन के लिए रेल कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा है. संप्रग के दूसरे कार्यकाल में भी रेलकर्मियों के प्रशिक्षण का स्तर सुधारने के लिए भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. मल्होत्रा कहते हैं, ‘बगैर सही प्रशिक्षण के आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि सही ढंग से भारतीय रेल जैसे विशाल तंत्र का संचालन हो पाएगा. रेलवे को अपने कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर भी अच्छा-खासा निवेश करना चाहिए.’

बड़ी घोषणाओं के इतर भी अगर देखा जाए तो आज रेलवे कई मामूली लेकिन अहम मोर्चों पर भी फिसड्डी साबित हो रहा है. आम यात्री को रेलवे स्टेशन पर न तो पीने लायक पानी मिलता है और न ही उसे साफ-सुथरे शौचालय मिलते हैं. ममता बनर्जी रेलवे पर जो श्वेत पत्र लाई थीं उसमें भी इस समस्या को रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि गंदगी दूर करने के लिए जितना काम होना चाहिए था उतना नहीं हुआ. काकोदकर समिति ने स्पष्ट किया है कि रेलवे की गंदगी की समस्या किस तरह से यात्रियों की सुरक्षा के लिए खतरा बनती जा रही है, ‘ट्रेनों के शौचालयों से मल-मूत्र पटरियों पर गिरता है. इससे गंदगी तो बढ़ती है साथ में सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा होता है. क्योंकि इस गंदगी की वजह से पटरियों की देखरेख और मरम्मत का काम मुश्किल हो जाता है. अगर इस समस्या का समाधान नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में रेल पटरियों के और खराब होने और इनकी मरम्मत और देखरेख से रेलकर्मियों के इनकार जैसी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है.’

रेलवे की सभी समस्याओं के जड़ में पैसे की कमी को मुख्य वजह बताया जाता है. काकोदकर समिति ने भी भारतीय रेल की मौजूदा माली हालत पर चिंता जताई और कहा कि इसे सुधारने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है. अब सवाल यह है कि आखिर रेलवे की माली हालत कैसे सुधरे. कई लोग यह मानते हैं कि इसका एकमात्र रास्ता यात्रा किराये में बढ़ोतरी करना है. लेकिन ऐसे लोगों के इस तर्क को खुद रेलवे की आमदनी के आंकड़े काटते हैं. 1 अप्रैल, 2011 से 31 मार्च, 2012 के बीच रेलवे की कुल आमदनी पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 10.4 फीसदी बढ़कर 84,155.4 करोड़ रुपये हो गई. इस अवधि में यात्री सेवाओं से होने वाली आमदनी भी 9.41 फीसदी बढ़कर 23,345.48 करोड़ रुपये पर पहुंच गई. इसका मतलब यह हुआ कि यात्री किराये में बढ़ोतरी के बगैर भी इस क्षेत्र में रेलवे की आमदनी बढ़ रही है लेकिन फिर भी रेलवे की जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं. संकेत साफ है कि आमदनी के वैकल्पिक रास्ते तलाशने होंगे या फिर जन कल्याणकारी सेवा की अपनी साख बचाने के लिए सरकार से भारी सब्सिडी मांगनी होगी.

आमदनी के वैकल्पिक रास्तों के तौर पर कुछ जानकार रेलवे की खाली पड़ी जमीन के व्यावसायिक इस्तेमाल की वकालत करते हैं. गुप्ता कहते हैं, ‘रेलवे की काफी जमीन देश के प्रमुख व्यावसायिक केंद्रों पर खाली पड़ी है. अगर इसका ठीक से व्यावसायिक इस्तेमाल हो तो इसकी माली हालत सुधारने में काफी मदद मिलेगी.’ हाल ही में इस दिशा में संभावनाओं को तलाशने के मकसद से एक अलग कंपनी रेलवे स्टेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड की स्थापना हुई है. रेलवे ने 2000 में रेलटेल नाम से एक कंपनी का गठन किया था. इसके तहत दूरसंचार सेवाएं मुहैया कराके पैसा कमाने की योजना बनाई गई थी. तब कई जानकारों ने इसे रेलवे की माली हालत सुधारने की दिशा में अहम कदम माना था. क्योंकि भारत में दूरसंचार क्षेत्र का कारोबार तेजी से बढ़ रहा था. लेकिन12 साल बाद भी इस मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई है.

रेलवे की माली हालत सुधारने के उपाय बताते हुए दास, मिश्रा और गुप्ता, तीनों यह कहते हैं कि सरकार को यह मानसिकता बदलनी चाहिए कि रेलवे का संचालन एक मुनाफा कमाने वाली कंपनी की तरह किया जा सकता है. दास कहते हैं कि रेलवे से करोड़ों लोगों का कल्याण सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है इसलिए इसमें जन कल्याण की बात सबसे पहले होनी चाहिए. वहीं मिश्रा निजी कंपनियों की तर्ज पर रेलवे को बेलआउट पैकेज देने की बात करते हैं. मिश्रा कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि अगले पांच साल में रेलवे में 2.5 लाख करोड़ रुपये निवेश की जरूरत है. अगर हर साल भारत सरकार रेलवे में 50,000 करोड़ रुपये निवेश करे तो देश की परिवहन व्यवस्था की इस जीवनरेखा की सेहत सुधर जाएगी. वर्ना खतरा इस बात का है कि कहीं भारतीय रेल भी एयर इंडिया की राह न चल पड़े और कर्मचारियों का वेतन समय पर मिलना बंद हो जाए.’ गुप्ता के मुताबिक कर राहत से लेकर कई तरह की छूट जब निजी कंपनियों को मिल सकती है तो फिर देश के आम लोगों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़े रेलवे के लिए भी सरकार को सब्सिडी का रास्ता अपनाना चाहिए.

काफी कोशिशों के बावजूद रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुए. आम लोगों से सीधे जुड़े रेलवे के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति का जवाब देने से कतराना कई सवाल खड़े करता है. मंत्रालय के अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि भले ही रेल मंत्री त्रिवेदी हैं लेकिन बड़े फैसले कोलकाता से हो रहे हैं और त्रिवेदी ‘दस्तखत मंत्री’ बनकर रह गए हैं. बताते हैं कि राहुल गांधी से उनके घर जाकर मिलने पर ममता बनर्जी त्रिवेदी से नाराज हुई थीं और उन्हें आगे ऐसा न करने की हिदायत दी थी.

जब हालात ऐसे हों तो फिर स्वाभाविक तौर पर उम्मीदें कम और आशंकाएं ज्यादा दिखती हैं.

छापों में कुछ ‘छिपा’ है!

मध्य प्रदेश पिछले कुछ महीनों से लगातार एक ही वजह से राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बना हुआ है. हर पखवाड़े छापे की कम-से-कम एक कार्रवाई और उसमें निचले से निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी के घर से करोड़ों रु की बरामदगी.

यह फरवरी, 2010 की घटना है जब आयकर अधिकारियों ने प्रदेश के एक प्रतिष्ठित आईएएस दंपति अरविंद जोशी और टीनू जोशी के घर छापा मारा था. जनवरी, 2011 में राज्य सरकार और प्रदेश लोकायुक्त को सौंपी अपनी रिपोर्ट में आयकर विभाग ने इन दोनों को सबसे भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारी घोषित करते हुए उनकी कुल काली कमाई 360 करोड़ रुपये बताई. उसके बाद से ही राज्य में भ्रष्टाचार उजागर करने वाले छापों का एक सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक जारी है. शुरुआत में आयकर विभाग और आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) भ्रष्टाचारियों पर छापे की मुहिम चला रहे थे. बाद में राज्य की लोकायुक्त संस्था भी इसमें शामिल हो गई और पिछले तीन महीनों के दौरान प्रदेश की लोकायुक्त पुलिस ने इंजीनियरों,  डॉक्टरों और बाबुओं से लेकर सरकारी चपरासियों तक के घरों से करोड़ों रुपये का काला धन बरामद किया है.

अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन के बाद इस तरह की खबरों को ज्यादातर लोग सिर्फ दो नजरियों से देख रहे हैं. पहला यह कि प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं और दूसरा यह कि भ्रष्टाचारियों पर सरकार कड़ाई से कार्रवाई कर रही है. लेकिन कुछ जानकारों की राय में प्रदेश सरकार की इस तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जुड़े कुछ ऐसे पहलू भी हैं जो इसकी तमाम अच्छाइयों के बाद भी इसे संदिग्ध बनाते हैं. जानकारों का मानना है कि इंदौर के सुगनी देवी जमीन घोटाले में सरकार के मंत्रियों सहित दूसरे मामलों में फंसे उच्च अधिकारियों को लोकायुक्त का संरक्षण मिला हुआ है. और वे छोटे अधिकारियों पर छापे की मुहिम से एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश कर रहे हैं.

‘दिग्विजय सिंह से लेकर वर्तमान सरकार तक का लोकायुक्त राज्य सरकार के इतना प्रभावित रहा है कि भ्रष्ट मंत्री खुद ही उसकी पहुंच से दूर हो गए’

मध्य प्रदेश में लोकायुक्त संस्था का अतीत भी यही बात जाहिर करता है कि राज्य में अब तक के लगभग सभी लोकायुक्त ईमानदारी को धता बताते हुए सरकार के प्रति झुके रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा कहते हैं, ‘यहां लोकायुक्त हमेशा ही सरकार से इतना प्रभावित रहा है कि सत्ता के गलियारों में बैठने वाले तमाम भ्रष्ट चेहरे स्वतः ही उसकी पहुंच से बाहर हो गए. दिग्विजय सिंह की सरकार के दौरान लोकायुक्त वीपी सिंह ने उनके मंत्री मुकेश नायक को हटाने की अनुशंसा की थी. लेकिन जातिगत समीकरणों की वजह से मुख्यमंत्री ने उन्हें पद से हटाने की बजाय राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बना दिया. फिर आए जस्टिस फैजुनुद्दीन. उनकी भी दिग्विजय सिंह से बहुत करीबी मित्रता थी. उन्होंने आयकर से जुड़े कुछ मामलों में सीधे-सीधे उनके मंत्रियों को क्लीन चिट भी दे दी. यहां से जो मामला खराब हुआ तो वह आगे बिगड़ता ही गया. जस्टिस नावलेकर तो अपनी नियुक्ति से ही विवादों में रहे हैं. उन्होंने अभी तक न तो अपने कार्यालय में लंबित 10 से ज्यादा नौकरशाहों से जुड़े मामलों में कार्रवाई की है और न ही सुगनीदेवी जैसे मामलों में कैलाश विजयवर्गीय जैसे भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की है.’

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि इन डॉक्टरों, इंजीनियरों और बाबुओं की कुर्बानी अगले साल होने वाले चुनावों में शिवराज सरकार के नंबर बढ़ाने के लिए दी जा रही है और चुनाव हो जाएं तो छापों का यह सिलसिला थम जाएगा. लोकायुक्त जस्टिस नावलेकर की नियुक्ति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘सारे छापे सिर्फ अपनी छवि सुधारने के लिए डाले जा रहे हैं. वर्तमान लोकायुक्त की नियुक्ति अगस्त, 2009 में हुई थी. पिछले दो साल से वे चुपचाप बैठे थे और जैसे ही हमने इनकी नियुक्ति के खिलाफ याचिका दायर की तो अपनी छवि सुधारने के लिए वे छापे मारने लगे. चूंकि मुख्यमंत्री जी इन्हें अपने उच्च अधिकारियों और कैबिनेट मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने देंगे,  इसलिए छोटे कर्मचारियों को पकड़ कर वे खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित कर रहे हैं.’

हालांकि लोकायुक्त नावलेकर इन आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘मैं अपनी आलोचना के डर से कोई कार्रवाई नहीं करता. किसी राजनेता के खिलाफ यदि सबूत नहीं हैं तो सिर्फ शिकायत के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती.’

‘आम आदमी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उच्च स्तर पर प्रशासनिक-राजनीतिक गलियारों में क्या हो रहा  है’

प्रियंका दुबे से बातचीत में मध्य प्रदेश के लोकायुक्त पीपी नावलेकर कह रहे हैं कि सिर्फ शिकायत के आधार पर वे किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकते

आपकी नियुक्ति के बाद आयोजित पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में आपने कहा था कि आम आदमी को सिर्फ निचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से फर्क पड़ता है. क्या यही वजह है कि लोकायुक्त सिर्फ निचली श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के घरों में छापे मार रहा है ?

मेरे कहने का मतलब था कि आम आदमी नीचे के स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से वाकई बहुत परेशान होता है. उसे इस बात से ज्यादा मतलब नहीं होता कि ऊंचे प्रशासनिक और राजनीतिक गलियारों में क्या चल रहा है. बाबुओं और पटवारियों के द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से उसकी मुश्किलें बढ़ती हैं. इस लिहाज से देखें तो हालिया छापे बहुत महत्वपूर्ण हैं.
 

फिर भी प्रदेश के मुख्य सचिव सहित दस से ज्यादा शिकायतें लोकायुक्त के दफ्तर में लंबित हैं. इन मामलों पर कार्रवाई कब शुरू होगी ?

हम ऐसे ही किसी के घर जाकर कार्रवाई नहीं कर सकते. शिकायत मिलने के बाद लोकायुक्त पुलिस उस शिकायत की तहकीकात करती है और अगर शुरुआती सबूतों के आधार पर ऐसा लगता है कि व्यक्ति की आय और उसकी संपत्ति में फर्क है, तभी हम छापा मारते हैं. मैं किसी के खिलाफ सिर्फ इसलिए कार्रवाई नहीं करूंगा कि मेरी आलोचना हो रही है. और जहां तक राजनेताओं का सवाल है तो लोकायुक्त के पास उनकी जांच करने का अधिकार नहीं है. हमें तहकीकात करके रिपोर्ट वापस सरकार को सौंपनी होती है.

प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा सुनी जाती है कि सुगनीदेवी भूमि घोटाला मामले में लोकायुक्त संस्था परोक्ष रूप से भाजपा सरकार के नेताओं को संरक्षण दे रही है?

इस मामले की फाइल हमने आगे बढ़ा दी है और वह केंद्र सरकार के पास एक जरूरी मंजूरी के लिए अटकी हुई है. और वैसे भी सुगनीदेवी वगैरह तो बहुत छोटे मामले हैं. मैं एक जज हूं. मैं सिर्फ सबूतों और कानून के हिसाब से काम करूंगा. इस बात से प्रभावित होकर नहीं कि लोग क्या कह रहे हैं. लोकायुक्त पूर्ण स्वतंत्र संस्था है.

क्या आपको लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन का फर्क मध्य प्रदेश में भी पड़ा है?  क्या इसकी भूमिका हालिया छापों की संख्या बढ़ाने में भी रही है?

हां, बिलकुल. अन्ना के आंदोलन के बाद अचानक से हमारे पास आने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी. लोगों में जागरूकता बढ़ी है, इसलिए वे ज्यादा शिकायत दर्ज करवा रहे हैं. मैं एक सकारात्मक प्रेरणा तो महसूस करता ही हूं.

किसे मिलेगी कमान?

चुनाव के बाद मतगणना में एक महीने से भी ज्यादा वक्त होने के कारण उत्तराखंड में इस बार चर्चाओं के लिए खूब फुर्सत है. कौन-सी सीट से कौन जीतकर आ रहा है, किस पार्टी की सरकार बन रही है, किसी एक दल को बहुमत मिलेगा या गठबंधन की सरकार बनेगी, जैसी चर्चाएं हर नुक्कड़ और कोने में होती देखी जा सकती हैं.  हर चर्चा आखिर में मुख्यमंत्री की कुर्सी से जुड़े सवालों पर आकर अटकती है. जैसे किस दल या गठबंधन का मुख्यमंत्री कौन होगा? मुख्यमंत्री विधायकों में से बनेगा या वह गैरविधायक होगा? और ऐसे ही तमाम सवाल.

राज्य में 30 जनवरी को हुए विधानसभा चुनाव की मतगणना छह मार्च को होगी. 70 विधानसभा सीटों वाले उत्तराखंड में व्यापक जनाधार वाली पार्टियां कांग्रेस और भाजपा हैं. पिछली दो विधानसभाओं में 10 प्रतिशत से अधिक विधायक बसपा के थे. हरिद्वार जैसे मैदानी जिले में अच्छा जनाधार होने के साथ बसपा को पूरे राज्य में पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में छह प्रतिशत से अधिक मत मिले थे. विधायकों की संख्या और मत प्रतिशत के लिहाज से यह प्रदर्शन क्षेत्रीय दल उक्रांद से बेहतर था. हाल के विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल के रूप में चुनाव लड़े उक्रांद के पंवार धड़े और टीपीएस रावत की पार्टी रक्षा मोर्चा ने न सिर्फ बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे बल्कि कुछ सीटों पर जीत लायक मौजूदगी भी दिखाई. इनके अलावा कई निर्दलीय उम्मीदवार भी जीतने की स्थिति में दिख रहे हैं.  ये सभी निर्दलीय कांग्रेस या भाजपा का टिकट न मिलने पर बागी के रूप में चुनाव लड़े हैं.
वैसे तो उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला छह मार्च को ईवीएम करेगी लेकिन, अलग-अलग स्थितियों में कौन मुख्यमंत्री बन सकता है, इस पर विचार करने पर एक दिलचस्प खाका खिंचता नजर आता है.

क्या कहता है अतीत

उत्तराखंड में पिछले 12 साल में छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. 2000 में जब अलग राज्य बना था तब एक अंतरिम विधानसभा बनी थी. इसका गठन उस समय उत्तर प्रदेश में विधानसभा और विधान परिषद में मौजूद उत्तराखंड के सदस्यों की सिम्मलित संख्या से किया गया. भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य रहे वयोवृद्ध नित्यानंद स्वामी पर दांव खेला और उन्हें मुख्यमंत्री बनाया. हालांकि तब भाजपा के ज्यादातर विधानसभा सदस्यों ने इसका विरोध किया था. इसके साल भर बाद चुनाव से कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी भगत सिंह कोश्यारी को सौंपी गई. कोश्यारी भी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद सदस्य रहे थे. यानी अंतरिम विधानसभा में वरिष्ठ और व्यापक जनाधार वाले नेताओं की मौजूदगी के बाद भी भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री के रूप में स्वामी और कोश्यारी को चुना.

2002 में राज्य में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए. जनादेश कांग्रेस को मिला. चुनाव तब पार्टी के अध्यक्ष रहे हरीश रावत के नेतृत्व में लड़ा गया था. जीतकर आए विधायकों में से ज्यादातर उनके साथ थे. मगर पार्टी दिग्गज नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें चित कर दिया. ये वही तिवारी थे जो चुनाव से पहले कह रहे थे कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का चार बार मुख्यमंत्री रहने और केंद्र सरकार में हर मंत्रालय संभालने के बाद उनकी कोई आकांक्षा शेष नहीं रही. चुनाव के बाद उनके सुर बदल गए. तब उनका कहना था कि इस नवोदित राज्य को विकास की अच्छी दिशा देने के लिए उन्हें आलाकमान का हर आदेश स्वीकार है.  जानकार बताते हैं कि पुराने धुरंधर तिवारी ने मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदारों को हरीश रावत का भय दिखा कर आखिरी समय में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां बना दी थीं कि आलाकमान के पास तिवारी को चुनने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था. यानी प्रदेश में पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया भी आलाकमान की पसंद से ही बना.

2007 के चुनावों में भाजपा को जनादेश मिलने के बाद भी ऐसा ही हुआ. तब चुनाव राज्य में स्वयं को बड़ा और जनाधार वाला नेता सिद्ध कर चुके भगत सिंह कोश्यारी  के नेतृत्व में लड़ा गया था. विजयी विधायकों में भी ज्यादातर कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे. लेकिन संघ के आशीर्वाद के बावजूद भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री के रूप में सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को देहरादून भेजा. इन्हीं खंडूड़ी को ढाई साल बाद मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया. मुख्यमंत्री पद से हटाते समय भाजपा विधायक दल के अधिकतर विधायकों का समर्थन खंडूड़ी के साथ था. विडंबना देखिए कि जब खंडूड़ी के साथ विधायक नहीं थे तो उन्हें मुख्यमंत्री पद का ताज पहनाया गया और जब वे ज्यादातर विधायकों का दिल जीत चुके थे तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का फरमान सुना दिया गया. आलाकमान ने तब विधायकों से नया मुख्यमंत्री चुनने को कहा. शर्त यह थी कि वह खंडूड़ी या कोश्यारी में से न हो. खंडूड़ी और उनके खेमे ने रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का समर्थन किया. भाजपा विधायक दल में मतदान के आधार पर ‘निशंक’ मुख्यमंत्री चुने गए. यानी पहली बार आलाकमान की बजाय विधायकों ने अपना मुख्यमंत्री चुना. बाद में भाजपा आलाकमान ने चुनाव से ठीक छह महीने पहले निशंक को हटाकर एक बार फिर खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया.

यानी अब तक उत्तराखंड में मुख्यमंत्री चुने जाने के छह मौकों में से पांच मौकों पर पार्टी आलाकमान की ही चली. भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने ही विधायकों की इच्छा के विपरीत फैसला किया.

अगर भाजपा जीतती है तो…

भाजपा ने उत्तराखंड विधानसभा चुनाव ही खंडूड़ी को आगे करके लड़ा है. पोस्टर, बैनर, होल्डिंग से लेकर पैंफ्लेट तक हर चुनाव सामग्री में एक ही नारा था -‘खंडूड़ी हैं जरूरी’. प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल, पूर्व मुख्यमंत्री कोश्यारी और निशंक चुनाव प्रचार सामग्री में एक कोने पर सिमटे रहे. राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी तो प्रचार सामग्री में जगह बनाने में ही असफल रहे. विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में प्रचार करने आए भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने कहा कि भाजपा की पहली और एकमात्र पसंद खंडूड़ी ही हैं. इसलिए कोई भी मान सकता है कि यदि उत्तराखंड में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलता है या उसके गठबंधन की सरकार सत्ता में आती है तो स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री वे ही होंगे.

लेकिन ‘खंडूड़ी हैं जरूरी’ नारे की सार्थकता सिद्ध करने के लिए खंडूड़ी को न केवल अपने विधानसभा क्षेत्र में भारी बहुमत से जीत हासिल करनी होगी बल्कि पार्टी को कम से कम साधारण बहुमत दिलाने के नैतिक दबाव की परीक्षा भी पास करनी होगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि स्पष्ट बहुमत न मिल पाने की स्थिति में खंडूड़ी का मुख्यमंत्री पद के लिए दावा उतना मजबूत नहीं रहेगा. खंडूड़ी के राजनीतिक कौशल और प्रबंधन की परीक्षा इससे भी होगी कि उनकी पहल और स्वीकृति पर टिकट पाए नेताओं में से कितने जीतकर आते हैं. राज्य भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘पार्टी ने टिकट वितरण, प्रचार अभियान और पूरी चुनाव प्रक्रिया में खंडूड़ी को वैसी ही छूट दी थी जैसी गुजरात में नरेंद्र मोदी को मिलती है, इसलिए बेहतर नतीजे लाना भी उनकी जिम्मेदारी होगी.’

वैसे चुनावों में टिकट वितरण में खंडूड़ी के साथ पूर्व मुख्यमंत्री कोश्यारी की भी खूब चली. इसलिए नतीजे आने तक यह कहना मुश्किल है कि खंडूड़ी और कोश्यारी की पसंद में से किसके विधायक अधिक संख्या में आएंगे. विधानसभा चुनावों तक खंडूड़ी और कोश्यारी खेमा हर मामले में एक सुर में बोला है, परंतु जरूरी नहीं कि बाद में भी ऐसा ही रहे. पार्टी में तीसरे धड़े के रूप में स्थापित निशंक समर्थकों में से इक्का-दुक्का को ही टिकट मिला है, इसलिए संख्या बल पर शायद ही वे मुख्यमंत्री पद के लिए खुद को पेश कर पाएं. जानकारों की मानें तो अतीत को देखते हुए यह मानना मुश्किल है कि कोश्यारी ने खुद को मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से बिल्कुल अलग कर रखा है.

और यदि कांग्रेस जीती तो…

कांग्रेस ने उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों में राज्य के किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया. कांग्रेसी सांसदों में से फिलहाल मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार हरीश रावत, सतपाल महाराज व विजय बहुगुणा हैं. जीत कर आने वाले संभावित विधायकों में से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य, नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत और पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश का नाम भी मुख्यमंत्री पद के लिए उछल रहा है.

एनडी तिवारी भी उत्तराखंड में मतदान के बाद दो साल के लिए मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं. हैदराबाद राजभवन से वापस उत्तराखंड आने के बाद उन्होंने खुद को राजनीतिक दलों की विचारधारा से ऊपर उठा हुआ दिखाया था. लेकिन चुनावों से ठीक पहले उन्होंने राज्य की सभी 70 सीटों पर एक अनाम और अस्तित्वविहीन संगठन के माध्यम से अपने चेलों को चुनाव लड़ाने की धमकी दे कर अपने तीन समर्थकों को टिकट दिलवाया. हालांकि हाल की घटनाओं ने साफ संकेत दे दिए हैं कि अब 10 जनपथ की नजर में न तो उनकी कोई पूछ है न ही राज्य में अब उनकी कोई राजनीतिक पकड़ ही रह गई है. फिर भी राजनीतिक जानकार तिवारी की खेल बिगाड़ने की क्षमता को कम करके नहीं आंकते.

संसदीय राजनीति के लिहाज से देखें तो 1980 में पहली बार सांसद चुने गए हरीश रावत राज्य में नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे वरिष्ठ नेता हैं. वे हरिद्वार से सांसद हैं. इस चुनाव में सबसे ज्यादा टिकट उनके समर्थकों को मिले. राज्य की चारों लोकसभा सीटों पर हरीश रावत के समर्थक मौजूद हैं. कुमाऊं में पूर्व मंत्री महेंद्र सिंह माहरा व गोविंद सिंह कुंजवाल उनके समर्थक हैं और गढ़वाल में कोटद्वार से मुख्यमंत्री खंडूड़ी के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी और प्रीतम सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की गिनती भी उनके समर्थकों में होती है. इसके अलावा तीसरी बार विधायक बनने की संभावना वालेे एक दर्जन से अधिक विधायक भी हरीश रावत के कट्टर समर्थकों में गिने जाते हैं. लेकिन तमाम अनुकूल समीकरणों के बाद भी सांसदों में से मुख्यमंत्री न बनाने के आलाकमान के निर्णय और राज्य में मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदारों का कड़ा विरोध 2002 की तरह हरीश रावत की राह में रोड़े अटका सकता है. अन्य दावेदार सांसदों में पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री रहे सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा हैं. दोनों का ही सांसद के रूप में दूसरा कार्यकाल है. 1996 में पहली बार सांसद बने महाराज को 10 जनपथ का सहारा है और वे हाल ही में उत्तर प्रदेश के चुनावों में अपनी रैलियों में जुटी भारी भीड़ को अपनी राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता का पैमाना बताते हैं. सांसदों में से मुख्यमंत्री न बनाए जाने की स्थिति में और किसी महिला के मुख्यमंत्री बनने की सूरत में महाराज अपनी पत्नी और पूर्व राज्य मंत्री अमृता रावत को भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उतार सकते हैं. रावत भी दो बार विधायक रह चुकी हैं. महाराज को मुख्यमंत्री बनाने की स्थिति में वे उनके लिए अपनी विधानसभा सीट भी आसानी से छोड़ सकती हैं.
2007 के उपचुनाव में पहली बार टिहरी से सांसद बने विजय बहुगुणा भी संभावित दावेदारों में से एक हैं. बताया जाता है कि उन्हें अपनी बहन और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के जरिए 10 जनपथ से काफी उम्मीदें हैं. राज्य में तिवारी के बाद बहुगुणा ही ब्राह्मण नेताओं में बड़ा नाम हैं. उनके पिता हेमवती नंदन बहुगुणा की ख्याति भी उनके पक्ष में काम करती है. हालांकि महाराज और बहुगुणा गुटों से जीत कर आने वाले विधायकों की संख्या कम है. इसलिए इन दोनों ही गुटों को आलाकमान के दम पर ही मुख्यमंत्री बनने का भरोसा है.

अगर मुख्यमंत्री विधायकों में से चुना जाता है तो तब कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य इस पद के स्वाभाविक दावेदार होंगे. 1989 में पहली बार विधायक बने आर्य जीतने की स्थिति में पांचवीं बार विधायक चुने जाएंगे. वे पिछली बार विधानसभा अध्यक्ष भी रहे थे. मृदुभाषी और दलित समुदाय से आने वाले आर्य के नेतृत्व में कांग्रेस वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में राज्य की पांचों सीटें जीतने में सफल रही थी. 2001 की जनगणना के अनुसार राज्य में 21 प्रतिशत दलित हैं. इस बार भी विधानसभा चुनावों में राज्य में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन रहने की संभावना है. आर्य के समर्थकों का कहना है कि जब हार की तोहमत प्रदेश अध्यक्ष पर लगाई जाती है तो जीत का ईनाम भी उन्हें ही मिलना चाहिए. आलाकमान भी 2014 के लोकसभा चुनावों में जीत के लिए पिछले चुनावों में कांग्रेस की जीत का आधार बने दलितों और मुसलिमों के गठबंधन को और मजबूती देना चाहेगा. हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षकों को संदेह है कि सरल आर्य शायद ही अकेले दिल्ली दरबार में अपनी बात दमदार तरीके से रख सकें.

नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत ने तो विधानसभा चुनाव ही मुख्यमंत्री बनने के नाम पर लड़ा है. रावत अपने जुझारू तरीकों से राज्य और कांग्रेस आलाकमान में अपनी अलग छवि बना चुके हैं. हालांकि जीत कर आने वाले उनके समर्थक विधायकों की संख्या नगण्य ही होगी.  हरक सिंह के अलावा पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश भी खुले रूप से मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर कर चुकी हैं. राज्य में वरिष्ठ ब्राह्मण नेता हृदयेश, उत्तर प्रदेश में कई बार राज्य विधानपरिषद में शिक्षकों का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं.  2002 में वे पहली बार सीधे चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची थीं. तिवारी समर्थक रही हृदयेश का रुतबा पिछली कांग्रेस सरकार में नंबर-2 का था. लेकिन अपने दम पर विधायकों से उन्हें समर्थन मिलने की संभावना कम ही है. अब हरीश रावत के नजदीक हो गई हृदयेश को हरीश रावत खेमे के समर्थन का ही भरोसा रहेगा.

इन खुले दावेदारों के अलावा कांग्रेस में कुछ छिपे रुस्तम भी हैं. इनमें से चकराता के विधायक प्रीतम सिंह चौहान भी हैं. खानदानी कांग्रेसी परिवार से आने वाले प्रीतम के पिता गुलाब सिंह उत्तर प्रदेश में आठ बार विधायक रहे. 1993 में पहली बार विधायक बने प्रीतम सिंह अब तक तीन बार विधायक और पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. पिछले विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के अधिकतर विधायक प्रीतम को नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए अपनी सहमति कांग्रेस आलाकमान को दे चुके थे लेकिन बनाया गया हरक सिंह रावत को. प्रीतम को नेता प्रतिपक्ष न बनाने पर विरोध में ले. जनरल टीपीएस रावत ने कांग्रेस ही छोड़ दी थी. बाद में वे प्रदेश अध्यक्ष पद के दावेदार भी थे. हालांकि हरीश रावत और विजय बहुगुणा के समर्थन के बाद भी प्रीतम को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनाया गया. अब हरीश रावत के मुख्यमंत्री न बनने की स्थिति में प्रीतम उनकी पहली पसंद हो सकते हैं. हरीश रावत के अलावा टिहरी संसदीय क्षेत्र की चकरौता विधानसभा के विधायक प्रीतम वहां के सांसद विजय बहुगुणा की भी पसंद बन सकतेे हैं. चकरौता विधानसभा का पूरा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति का है, इसलिए राजपूत होने के साथ-साथ प्रीतम अनुसूचित जनजाति का भी कोटा पूरा करते हैं. जनसंख्या के हिसाब से राज्य में राजपूतों का प्रतिशत सबसे अधिक है. इसके अलावा अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या भी कुल जनसंख्या का लगभग चार फीसदी है. किसी एक खेमे की बजाय कांग्रेस की राजनीति करने वाले प्रीतम के नाम पर भी राज्य में कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता एकमत हो सकते हैं. प्रीतम दिल्ली में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के प्रिय भी हैं.

प्रीतम के अलावा कोटद्वार से चुनाव लड़ रहे सुरेंद्र सिंह नेगी भी हरीश रावत की पसंद बन सकते हैं. 1985 में पहली बार कांग्रेस के विधायक चुने गए नेगी यदि अप्रत्याशित रूप से मुख्यमंत्री खंडूड़ी को हराते हैं तो उनका मुख्यमंत्री पद पर दावा मजबूत हो जाएगा. जानकार बताते हैं िक जमीनी नेता और सरल स्वभाव के नेगी को भी कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं का आशीर्वाद आसानी से मिल जाएगा. नेगी के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक और विपरीत समय में भी कांग्रेस का साथ न छोड़ने वाले हीरा सिंह बिष्ट, शूरवीर सिंह सजवाण और अपेक्षाकृत कनिष्ठ किशोर उपाध्याय भी जीतने की सूरत में अपने पक्ष में कुछ अप्रत्याशित नतीजा ला सकते हैं.

राज्य में हवा का रुख कांग्रेस के पक्ष में है. 25 के लगभग सीटें त्रिकोणीय मुकाबले में फंसी हैं. अगर किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो उस सूरत में समर्थन देने वाले निर्दलीयों और छोटे दलों के नेताओं की पसंद भी मुख्यमंत्री के चयन में अहम हो जाएगी.

चक्रव्यूह में अर्जुन

झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा इन दिनों मीडिया से मुखातिब होते हैं तो हंसते-मुस्कुराते हुए पिछले छह महीने में सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं की बात करते हैं. साल 2012 को बिटिया वर्ष घोषित करने और लड़कियों के लिए तमाम तरह की योजनाएं शुरू किए जाने की बात विस्तार से बताते हैं. बात पुरानी हो जाने के बावजूद पंचायत चुनाव और राष्ट्रीय खेल करा लेने जैसी चीजों को सरकार के गौरवबोध से जोड़कर बयां करते हैं. लेकिन जैसे ही सवाल झारखंड में जमीन को लेकर फंस रहे पेंच पर किया जाता है तो वे झल्ला उठते हैं. जब माओवादी घटनाओं में अचानक हुई वृद्धि पर बात की जाती है तो वे केंद्र सरकार को कोसने लगते हैं.

केंद्र को कोसने की जायज वजह हो सकती है, लेकिन इधर-उधर की बातें करके सवालों को बदल देने की कोशिश में लगे मुंडा को शायद अपने जवाबों से खुद भी राहत नहीं मिलती होगी. दरअसल अंदर ही अंदर वे एक चक्रव्यूह में घिरते जा रहे हैं. चक्रव्यूह भी ऐसा कि भले ही वह सरकार को फौरन जकड़कर खत्म न कर दे लेकिन आने वाले दिनों में बार-बार परेशान तो करेगा ही. पिछली जुलाई में बाबूलाल मरांडी द्वारा जमशेदपुर में राजनीतिक मात खाने और कई बार अपने ही दलों के नेताओं द्वारा विरोध का सामना करने की बातों को छोड़ भी दें तो हाल के दिनों में अतिक्रमण, जमीन के सवाल और बढ़ती माओवादी घटनाओं ने मुंडा की मुश्किलों को बढ़ाने का काम किया है.

सबसे नया उदाहरण  सीएनटी (छोटा नागपुर टेनैंसी) एेक्ट का है. उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को यह एेक्ट लागू करने का निर्देश देने के बाद यह मुद्दा इन दिनों राज्य भर में गरमाया हुआ है. हर राजनीतिक दल इस पर बयानबाजी कर रहा है. लेकिन सरकार इस मामले में ऐसे घिर गई है कि उससे न कुछ उगलते बन रहा है न निगलते. इस कानून में प्रावधान है कि अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति की जमीन अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही खरीद सकता है और यही प्रावधान अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के मामले में भी लागू होता है. अदालती आदेश के बाद झारखंड में बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद-बिक्री फिलहाल रुक गई है. ऐसा होने के बाद गैरआदिवासी विशेषकर बाहर से आकर बसे लोग और बड़े रियल एस्टेट कारोबारी लगातार सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं.

सीएनटी एेक्ट में अगर जरा भी छेड़छाड़ की सिर्फ बात भी हुई तो जाहिर-सी बात है कि आदिवासी वोट के गड़बड़ाने का खतरा बढ़ जाएगा. और यदि स्थिति यथावत बनाए रखने की बात हुई तो बाहरी वोटों का गणित गड़बड़ा सकता है. इसी पेंच और द्वंद्व में फंसी सरकार कुछ भी खुलकर बोल नहीं पा रही. जानकार बताते हैं कि सरकार के दो प्रमुख दलों आजसू और झामुमो को तो शायद मौन साध लेने से ज्यादा नुकसान न भी हो लेकिन भाजपा को हर हाल में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. दरअसल गैर आदिवासी वोटर ही भाजपा का बड़ा आधार हैं लेकिन संघ और इसके सहयोगी संगठनों की सक्रियता से आदिवासी वोटों पर भी भाजपा की ठीकठाक पकड़ मानी जाती है.

दूसरी ओर मसले के अभाव से गुजर रहे विपक्षी नेताओं को सीएनटी का बवाल उठने के बाद बैठे-बिठाए एक बना-बनाया मसला मिल गया है. इसे वे हर हाल में भुनाने की फिराक में लगे भी हुए हैं. राजधानी रांची से मांडर क्षेत्र के विधायक बंधु तिर्की कहते हैं, ‘सीएनटी 1908 में बना हुआ कानून है. इसके जरिए तब ही आदिवासी हित की बात सोची गई थी. अब यदि इस कानून में संशोधन हुआ तो आदिवासियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा.’ तिर्की की बातों को आगे बढ़ाते हुए भाकपा माले विधायक विनोद सिंह कहते हैं, ‘जब अतिक्रमण हटाओ के नाम पर लोगों के घर उजाड़े जा रहे थे तो सरकार कह रही थी कि वह कोर्ट के आदेश का पालन कर रही है. तो सीएनटी एेक्ट में भी करे.’ सिंह का आरोप है कि यह सब सिर्फ बड़े भूमाफियाओं,  नेताओं और कॉरपोरेट घरानों की चाल है और इसी वजह से डिप्टी सीएम भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं.

अतिक्रमण हटाओ अभियान से विस्थापित होने वाले वर्ग का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूप से भाजपा का वोट बैंक रहा है

झारखंड के अधिकांश नेताओं ने भी सीएनटी एेक्ट का उल्लंघन करके जमीनें खरीदी हैं और इसलिए वे मौन साधे हुए हैं. और दूसरा पक्ष यह कि जो चिल्ला रहे हैं उनमें से भी कइयों ने इस कानून की धज्जियां उड़ाई हैं.  सीएनटी का पेंच यहां हर कोई समझता है. बंधु तिर्की भी जानते हैं कि इस कानून की आड़ में कई आदिवासी नेताओं और अधिकारियों ने भी कोई कम बड़े खेल नहीं किए हैं और आगे  करने की मंशा भी रखते हैं. लेकिन सवाल अब राजनीति से जुड़ गया है तो हर कोई अपने तरीके से इस पर रोटी सेंकने की कोशिश कर रहा है.

हालांकि अर्जुन मुंडा की ओर से सरकार का बचाव करते हुए मुख्यमंत्री के संसदीय सलाहकार अयोध्यानाथ मिश्र कहते हैं कि सीएनटी एेक्ट कोई मुद्दा ही नहीं है. भाजपा प्रवक्ता दिनेशानंद गोस्वामी कहते हैं कि बीच का कोई रास्ता निकाल लिया जाएगा और इसके लिए सभी दलों से राय-मशविरा किया जाएगा.

अयोध्यानाथ मिश्र मुख्यमंत्री के साथ रहते हैं, इसलिए उनका ऐसा कहना लाजमी है. लेकिन यह सच है कि इस मामले को लेकर आने वाले दिनों में राजनीति के नफा-नुकसान का समीकरण बनाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं. इसमें भाजपा और विशेषकर अर्जुन मुंडा के लिए मुश्किलें ज्यादा बड़ी होंगी. इसलिए कि विपक्षी नेता तो फिर भी अपना धर्म निभाते हुए अर्जुन के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोलने की कोशिश करते हैं लेकिन भाजपा के अंदर ही उनका विरोध करने वाले नेताओं की एक छोटी फौज सक्रिय है जो मौके-बेमौके सामने आकर उनकी घेराबंदी करने की कोशिश करती है. इस फौज की सक्रियता कुछ माह पहले अतिक्रमण के सवाल के दौरान देखी गई थी. तब भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा और विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह जैसे नेता खुलकर अर्जुन मुंडा की मुखालफत करने मैदान में आ गए थे. हाल में जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी देशव्यापी यात्रा के दौरान झारखंड की राजधानी रांची पहुंचे थे तब भी वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री रघुवर दास के बारे में खबरें आई थीं कि वे अर्जुन मुंडा सरकार की रपट अखबारों के पुलिंदे के रूप में एयरपोर्ट पर ही आडवाणी को देने की कोशिश में लगे थे.

बहरहाल, जमीन के इस नए सवाल में अतिक्रमण का मसला फिलहाल भले ही ठंडा पड़ता हुआ दिख रहा हो लेकिन माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में, विशेषकर चुनावी राजनीति के वक्त यह भी भाजपा का खेल बनाने-बिगाड़ने में एक उत्प्रेरक की भूमिका में मौजूद रहेगा. इसलिए कि कुछ माह पहले जिन्हें भी अतिक्रमण हटाओ अभियान के कारण विस्थापित होना पड़ा है उनमें से अधिकांश अब भी मुश्किलों में दिन गुजार रहे हैं. अतिक्रमण से विस्थापित होने वाले वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भाजपा का वोट बैंक ही रहा है. वरिष्ठ पत्रकार विजय भास्कर कहते हैं, ‘झारखंड में आज भी गैरआदिवासियों की तादाद ज्यादा है और इनके वोटों पर ही सरकार बनती-बिगड़ती है. कांग्रेस और भाजपा दोनों राजनीतिक दलों का वोट बैंक गैरआदिवासी लोग हैं और अतिक्रमण के मुद्दे पर सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग भी यही हैं. इसलिए ये अपनी भूमिका तो निभाएंगे और दिखाएंगे ही.’

इन दोनों मसलों पर घिरने के बाद अर्जुन मुंडा के सामने हालिया मुश्किलें राज्य की बिगड़ती कानून-व्यवस्था ने खड़ी की हैं. दो बड़ी माओवादी घटनाओं ने राज्य सरकार की किरकिरी करवाई है. रही-सही कोर-कसर अधिकारी पूरी करते रहते हैं. हाल ही में सुरक्षा सलाहकार डीएन गौतम ने यह कहकर इस्तीफे की पेशकश की कि राज्य में सरकारी अफसर बेलगाम हो गए हैं जिनसे वे तंग हैं. डीएन गौतम बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे हैं और चर्चित आईपीएस अधिकारी भी इसलिए उनके बयान को सिर्फ सुरक्षा सलाहकार की टिप्पणी भर नहीं माना गया. सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा. मानना पड़ा कि अधिकारी ऐसे ही हो गए हैं. गौतम कहते हैं, ‘मुश्किल यह है कि यहां हर अधिकारी के सिर पर किसी न किसी नेता का हाथ है जिसके बल पर अधिकारी इतना इतराते फिरते हैं.’

इसके अलावा नक्सल समस्या तो है ही. पिछले दिनों इस पर केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को भेजा गया एक पत्र काफी सुर्खियों में रहा. इसमें कहा गया था कि झारखंड में नक्सल विरोधी अभियान के नाम पर कुछ नहीं हो रहा है. इसके बाद केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश रांची आए और राज्य के राजनीतिक नेतृत्व को कोसते हुए बयान दे गए कि झारखंड के 24 में से 17 जिलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार है.

यानी मुसीबत कई मोर्चों पर है. जानकार मानते हैं कि सरकार के लिए मुश्किलों का जो पहाड़ खड़ा होता जा रहा है उससे जूझने की बारी आएगी तो यह काम बहुत हद तक अर्जुन मुंडा को अकेले ही करना होगा. माना जा रहा है कि सरकार में साझेदार बने दोनों दल आजसू और झामुमो जो फिलहाल मौन की राजनीति कर रहे हैं, आगे सारा दोष मुंडा के मत्थे मढेंगे.

हालांकि पिछले 11 साल के दौरान झारखंड में अर्जुन मुंडा की छवि एक ऐसे नेता की भी बनी है जिसे ऐसी परिस्थितियों से निपटने की कला आती है. शायद इसीलिए जानकार मानकर चल रहे हैं कि मुश्किलों के इस चक्रव्यूह से निकलने के लिए वे जल्द ही कोई ऐसी चाल चल सकते हैं जिसके बाद विरोधियों को कोई जवाब देते न बने. फिलहाल तो वे घिरते दिख रहे हैं.

पानी पर मनमानी

खबर 24X7. बैंकिंग 24X7. पिज्जा 24X7. और अब इसी तर्ज पर राजस्थान के कई शहरों में 24 घंटे और सातों दिन पानी पिलाने का दावा किया जा रहा है. यह दावा राज्य सरकार के उस जलदाय विभाग का है जो आज तक लोगों को 24 घंटे में से बामुश्किल दो घंटे भी पानी नहीं पिला पाया. विभाग की मानें तो उसने पीपीपी यानी जन-निजी साझेदारी के जरिए 24 घंटे पानी पिलाने के लिए कमर कस ली है.

मगर तहलका की पड़ताल बताती है कि विभाग ने अपनी कमर जनता का पानी कंपनियों के हाथ सौंपने के लिए कसी है. असल में राजस्थान की मरु धरा पर धाराप्रवाह पानी पिलाने की तस्वीर दिखाना कुछ और नहीं बल्कि 24 घंटे पानी पर मनमानी का रास्ता साफ करने की एक कवायद है.  उन कंपनियों के लिए जिन्हें इसका ठेका मिलेगा.

देश के भीतर 24 घंटे जलापूर्ति के सपने गिने-चुने शहरों में ही दिखाए गए हैं. मगर मध्य प्रदेश के खंडवा,  महाराष्ट्र के पिंपरी-चिंचवड़ (पुणे) और अहमदाबाद जैसे शहरों के हालिया तजुर्बे बताते हैं कि निजी कंपनियों के उतरते ही 24 घंटे जलापूर्ति से जुड़े सपने पिछले दरवाजे से हवा कर दिए जाते हैं. खंडवा में 24 घंटे पानी के सब्जबाग दिखाए गए थे. मगर जब योजना अनुबंध पर हस्ताक्षर हुए तो पता चला कि ठेकेदार कंपनी विश्वा इन्फ्रास्ट्रक्चर्स को सेवा शुरू करने से पहले ही जलापूर्ति 24 घंटे से घटाकर छह घंटे करने की छूट दे दी गई है. पिंपरी-चिंचवड़ में भी जलापूर्ति का समय छह घंटे ही रखा गया है. खंडवा, पिंपरी-चिंचवड़ के अलावा अहमदाबाद में भी कंपनियों द्वारा 24 घंटे जलापूर्ति को अत्यंत खर्चीली बताकर खारिज किया जा चुका है.  जलापूर्ति की इस योजना का एक दुखद पहलू यह है कि इससे जुड़ी कंपनियों द्वारा अगर छह घंटे भी पानी नहीं दिया जाता तो भी उनके खिलाफ सेवा में कमी का मामला दर्ज नहीं किया जा सकता. वजह यह है कि योजना अनुबंधों में कहीं भी कंपनियों को उनकी जलापूर्ति की जवाबदेही से नहीं जोड़ा गया है.

सूत्रों का कहना है कि किसी भी जगह 24 घंटे जलापूर्ति तभी साकार होती है जब पानी की दरें बढ़ाई जाएं. जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) के मुख्य अभियंता (विशेष योजना) रुपाराम कहते हैं, ‘विभाग को जयपुर शहर में जलापूर्ति के लिए प्रति एक हजार लीटर पर 25 रुपये खर्च करना पड़ता है. ऐसे में 24 घंटे पानी पहुंचाया गया तो खर्च कई गुना बढ़ जाएगा. इसे भरने के लिए बिलों में बढ़ोतरी से इनकार नहीं किया जा सकता.’ जयपुर में फिलहाल एक हजार लीटर पानी के लिए शुल्क 1.25 रुपये है. जानकारों के मुताबिक अगर सरकार निजी कंपनी के मार्फत 24 घंटे पानी पहुंचाती भी है तो उपभोक्ताओं के लिए पानी का बिल कई गुना बढ़ जाएगा. उधर, राजस्थान के पीएचईडी मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह कहते हैं, ‘24 घंटे पानी पहुंचाने का यह मतलब थोड़े है कि सरकार दरें बढ़ाएगी ही. पहले हम काम करके दिखाएंगे और उसके बाद दरों की बात करेंगे.’ सिंह यह भी दावा करते हैं कि 24 घंटे जलापूर्ति सिर्फ सपना नहीं बल्कि हकीकत होगी.

राजस्थान के जलदाय विभाग की मानंे तो मौजूदा जलापूर्ति व्यवस्था को बदलने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी. लिहाजा जोधपुर की मौजूदा पेयजल व्यवस्था को बदलने और 24 घंटे जलापूर्ति के लिए उसने फ्रांस की वित्तीय संस्था एजेंसी फ्रांसिस डेवलपमेंट से 440 करोड़ रुपये का कर्ज ले लिया है. जयपुर में भी यही तैयारी चल रही है. हाल ही में जापान की वित्तीय संस्था जापान इंटरनेशनल कॉरपोरेशन एजेंसी ने राज्य सरकार को जयपुर में भी जलापूर्ति और सीवेज से जुड़े कामों के लिए कंपनी बनाने की सलाह दी है. उसकी सलाह पर पीएचईडी मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने सहमति जताई है. सिंह की सहमति के बाद जापानी संस्था की ओर से तैयार किए गए  बिजनेस प्लान को कैबिनेट में मंजूरी मिल सकती है. ऐसा हुआ तो जयपुर में कंपनी बनाने के लिए नोटिफिकेशन जारी किया जाएगा और फिर पीएचईडी की संपत्तियों और व्यवस्थाओं को कंपनी को सौंप दिया जाएगा. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सरकार अपनी सामाजिक जवाबदेही से बच जाएगी और कंपनी को भी मुनाफा कमाने का मौका मिल जाएगा. इस बारे में बात करने पर जल संसाधन विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव रामलुभाया कहते हैं, ‘यह पेयजल व्यवस्था में सुधार के लिए की जा रही एक जरूरी कोशिश है.’

लेकिन पीएचईडी तकनीकी कर्मचारी संघ को इस सुधार के पीछे एक बड़ा बाजार दिखाई देता है. इसीलिए कर्मचारी संघ ने राज्य की पेयजल व्यवस्था को गुपचुप तरीके से कंपनियों के हवाले किए जाने का आरोप लगाया है. कर्मचारी संघ के मुख्य संरक्षक महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘निजीकरण के लिए सरकार इतनी उतावली है कि उसने इस बड़े निर्णय से पहले जलदाय से जुड़े कर्मचारियों तक से चर्चा करना जरूरी नहीं समझा.’

दूसरी तरफ जल संरक्षण अभियान से जुड़े वरिष्ठ कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह राजस्थान के भीतर पानी जैसे सार्वजनिक क्षेत्र में कंपनियों की घुसपैठ को अपशकुन मानते हैं. वे कहते हैं, ‘पीपीपी निजीकरण का ही नया अवतार है और यह निजीकरण से भी खतरनाक है. निजीकरण में कंपनियां सीधा धन लगाती हैं जबकि पीपीपी में तो कंपनियां जनता के धन पर ही चांदी काटती हैं. यह गरीब जनता के धन पर कंपनी को बेहिसाब मुनाफा दिलाने की साझेदारी है.’ खंडवा में भी इसी साझेदारी के तहत लगने वाला 90 प्रतिशत धन जनता का ही है. मगर लागत का एक मामूली हिस्सा लगाने वाली कंपनी को मुनाफे का मालिक बनाया गया है. पानी में निजीकरण के शोधकर्ता रहमत बताते हैं कि 2010 में जब खंडवा की जलापूर्ति का काम विश्वा इन्फ्रास्ट्रक्चर्स को सौंपा गया तो परियोजना की लागत 115.32 करोड़ रुपये बताई गई. इस कुल लागत पर उसे निगम से 93.25 करोड़ रुपये की सब्सिडी मिली. कंपनी ने अपना सालाना संचालन खर्च 7.62 करोड़ रुपये बताया और पानी की दर 11.95 रुपये प्रति हजार लीटर तय की. यानी कुल दो लाख 15 हजार की आबादी वाले खंडवा में कंपनी को अपना संचालन खर्च निकालने के लिए सिर्फ 174. 7 करोड़ लीटर प्रतिदिन जलापूर्ति करनी है. यानी खंडवा के हर नागरिक के हिस्से में 81 लीटर प्रतिदिन ही पानी आना है और यह सरकारी मानक 135 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से काफी कम है. इसी तरह, नागपुर में जल कनेक्शन शुल्क तो 300 रुपये ही रखा गया है लेकिन उसके साथ विओलिया कंपनी घर तक लाइन बिछाने, मीटर, कनेक्शन सामग्री के अलावा सड़क की खुदाई और प्लंबर का खर्च भी कनेक्शनधारियों से ही ले रही है. कंपनी द्वारा एक कनेक्शन का खर्च करीब 12 हजार रुपये वसूला जा रहा है.

‘पीपीपी में कंपनियां जनता के धन पर ही चांदी काटती हैं. यह गरीब जनता के धन पर कंपनी को बेहिसाब मुनाफा दिलाने की साझेदारी है’

फिर भी राजस्थान का जलदाय विभाग राजधानी जयपुर के एक तिहाई हिस्से को जून से पहले 24 घंटे पानी पिलाने पर आमादा है. पीएचईडी के मुख्य अभियंता (मुख्यालय) अनिल भार्गव कहते हैं कि उनके कंधों पर भारी बोझ है. मई के अंत तक उन्हें नई जलापूर्ति से जुड़े सारे सर्वे निपटाने हैं, पाइपलाइनें बदलवानी हैं और साठ हजार से ज्यादा कनेक्शन लगवाने हैं.

मगर भार्गव ने जयपुर में सतत जलापूर्ति की उम्मीद जिस बीसलपुर बांध से बांधी है उस पर खुद उनका विभाग भरोसा नहीं करता. पीएचईडी की रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल के भीतर बीसलपुर बांध दम तोड़ देगा. भीषण गर्मियों में बीसलपुर बांध से जयपुर और अजमेर को पानी लेना भारी पड़ जाता है. तब जयपुर को दो दिन में एक बार और अजमेर को पांच दिन में एक बार पानी देने की नौबत आ जाती है. और वैसे भी बीसलपुर मुख्य तौर से सिंचाई परियोजना है और गर्मियों में किसानों को भी इसी से पानी चाहिए होता है.

फिर सवाल यह भी है कि अगर जलदाय विभाग 24 घंटे जल की धारा को कुछ देर के लिए धरातल पर उतार भी लाएगा तो भी क्या राजस्थान की भौगोलिक और आर्थिक स्थितियां उसे ऐसा करने की इजाजत देंगी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के इस सबसे बड़े राज्य में देश की कुल आबादी का 5.5 प्रतिशत और पशुधन का 18.7 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि पानी सिर्फ एक प्रतिशत है. यहां बरसात का औसत भी 400-500 मिलीमीटर ही है. पूरे राज्य में चंबल को छोड़कर कोई बड़ी नदी भी नहीं है और आबादी का बड़ा भाग उस भूजल के भरोसे पर है जो हर साल दो मीटर नीचे जा रहा है.

यानी राजस्थान में जलस्रोतों की उपलब्धता इतनी नहीं है कि 24 घंटे पानी उपलब्ध कराया जा सके. वहीं 24 घंटे की अवधारणा के साथ भारी-भरकम खर्च भी जुड़ा हुआ है. इसमें हर समय जलापूर्ति बनाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर बिजली और खर्चीले उपकरणों की जरूरत पड़ती है. साथ ही लीकेज रोकने के लिए भी पाइपलाइनों को बदलने की वजह से लागत काफी बढ़ जाती है. नागपुर के लिए यह लागत 1000 करोड़ रुपये है. इस लागत को भी पानी के बिलों और अन्य करों के साथ जनता से ही वसूला जाएगा. इसलिए राजस्थान जैसे सूखे और बीमारू राज्य में जलापूर्ति की इस खर्चीली प्रणाली के साथ कई तरह की आशंकाएं जुड़ी हुई हैं.

फिर भी 24 घंटे जलापूर्ति समर्थकों की अपनी दलीलें हैं. यहां कई वित्तीय संस्थाओं द्वारा आयोजित सेमिनारों में जोर दिया गया है कि पानी को वित्तीय संसाधन के तौर पर देखा जाए. इसमें पूर्ण लागत वापसी के साथ मुनाफे का भी प्रावधान रखा जाए. तभी तो निवेश बढ़ेगा और सेवाएं बेहतर होंगी.
मगर 24 घंटे सेवा को लेकर फिलहाल स्थानीय नागरिकों के बीच कौतूहल की स्थिति बनी हुई है. इनमें से कइयों के कुछ रोचक सवाल भी हैं. जैसे कि 24 घंटे नल में पानी रखने की जरूरत ही क्या है? क्या जरूरी है कि हर बार पानी का गिलास लेकर मटके की बजाय निगम के नल की ओर ही जाया जाए? या फिर नहाने के लिए अपनी टंकी की बजाय सीधे निगम की टंकी का पानी ही लिया जाए? जयपुर निवासी राजीव चौधरी कहते हैं, ‘जरूरत इस बात की है कि 24 घंटे में तयशुदा समय पर दो घंटे पानी दिया जाए. अगर आम आदमी को समय पर उसकी जरूरत का पानी दे दिया जाए तो उसे वैसे ही 24 घंटे पानी मिलता रहेगा. फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि 24 घंटे पानी उसे अपनी टंकी से मिला है या निगम की टंकी से.’ यानी सरकार द्वारा भुगतान करने लायक दरों पर सभी को पानी उपलब्ध करवाना अधिक महत्वपूर्ण है.

दरअसल राजस्थान में 24 घंटे जलापूर्ति का खाका मलेशिया से लौटे जलदाय विभाग के दल की रिपोर्ट के आधार पर खींचा गया है. विभागीय सूत्रों के मुताबिक 2010 में अभियंताओं का एक दल इस प्रकार की जलापूर्ति व्यवस्था में पानी की बचत और राजस्व में बढ़ोतरी को समझने के लिए मलेशिया गया था. उसी दल के एक सदस्य ने तहलका से बात की. उनके मुताबिक मलेशिया जलापूर्ति प्राधिकरण के सदस्यों ने उन्हें जानकारी दी थी कि 24 घंटे जलापूर्ति वहीं साकार हो सकती है जहां पर्याप्त पानी हो.

मगर इस जलापूर्ति को मंजूरी दिलाने के लिए यह बात रिपोर्ट से गोल कर दी गई. तहलका के पास मौजूद दस्तावेजों से भी राज्य सरकार की कथनी और करनी के बीच का अंतर सामने आता है. सरकार मौजूदा जलापूर्ति व्यवस्था में गैरराजस्व पानी के तौर पर होने वाली पानी की बर्बादी रोकने के लिए मलेशिया की 24 घंटे जलापूर्ति का हवाला देती है. मगर मलेशिया गई टीम द्वारा सरकार को भेजी रिपोर्ट के दस्तावेज बताते हैं कि खुद मलेशिया में गैरराजस्व पानी के तौर पर 30 प्रतिशत तक पानी की बर्बादी होती है. जानकारों के मुताबिक राजस्थान में गैरराजस्व पानी की असली जड़ तो अवैध जल कनेक्शन है. जयपुर में ही इन कनेक्शनों की संख्या एक लाख से अधिक है. अगर राज्य के लाखों अवैध कनेक्शन और बंद मीटर दुरुस्त किए जाएं तो पानी की बचत के साथ ही आय में भी बढ़ोतरी हो जाएगी. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि एक तो मलेशिया में पानी की उपलब्धता राजस्थान की तुलना में कहीं ज्यादा है, दूसरे वहां पर पानी निजी हाथ में देने वाली परियोजना के प्रभाव का पूरा आकलन अभी होना बाकी है. ऐसे में सवाल यह है कि वहां के अंधानुकरण से क्या मकसद हल होगा.

सरकार का यह भी दावा है कि वह राजस्थान में पहली बार 24 घंटे जलापूर्ति लेकर आ रही है. मगर आरटीआई से मिली जानकारी बताती है कि 2002 में जर्मनी की वित्तीय संस्था केएफडब्ल्यू की वित्तीय मदद से राजस्थान के ही चुरु में आपणी योजना के तहत 24 घंटे जलापूर्ति का सपना दिखाया जा चुका है. इस सपने की सच्चाई यह है कि बीते दस साल में यहां कभी 24 घंटे पानी नहीं दिया गया. लेकिन खुद अपनी ही सूचनाओं को नजरअंदाज करता जलदाय विभाग 24 घंटे मीठी नींद में डूबा लगता है. तभी तो उसने इस योजना को अजमेर, बीकानेर, उदयपुर सहित राज्य के 22 जगहों में शुरू करने का एलान किया है. पीएचईडी मुख्य अभियंता(ग्रामीण) वीके माथुर द्वारा यह एलान भी किया जा चुका है कि राज्य के किसी भी इलाके में, चाहे वह ग्रामीण ही क्यों न हो, जो अभियंता 24 घंटे जलापूर्ति लागू करेगा उसे विभाग सम्मानित करेगा और विदेश यात्रा भी कराएगा.

तुम्हीं से करार तुम्हीं से तकरार

कथाकार शैवाल की एक कहानी है- ‘अक्स दरबार’. उसमें एक प्रसंग रेड लाइट एरिया का है. एक दफा एक आदमी वहां पहुंचता है. वहां खड़ी दो महिलाएं अपने-अपने अंदाज में उसे बुलाती हैं. एक खुद के जवान होने का वास्ता देकर, दूसरी उम्र के अनुभव को बताकर. दुविधाग्रस्त अजनबी जवान लड़की पर मोहित होता है. दूसरी कहती है, ‘जा करमजलउ, तेरे नसीब में सुजाक ही है, तो क्या कहें! अजनबी डर जाता है. भागना चाहता है.’ उसे पलटते देख दोनों फट से गलबहियां करती हैं. हंसते हुए कहती हैं, ‘एकदम  बेवकूफ है, हमने मजाक में सुजाक की बात कही, यह सच मान बैठा. डर गया. अनाड़ी है.’ लजाया अजनबी कहता है, ‘मैं भी मजाक ही मान रहा हूं. डरा नहीं हूं.’ अबकी वह अधेड़ की तरफ बढ़ता है. लड़की फुफकारकर कहती है, ‘जा बुढ़ऊ, लेकिन पूछ तो, वह बुढि़या मेरी मां है कि नहीं..!’

पिछले कुछ समय पर निगाह डालें तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दो प्रमुख और सबसे पुराने घटकों भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के रिश्ते की कहानी भी कुछ इसी अंदाज में चल रही है. हालांकि उसे राजनीति की सामान्य प्रक्रिया के आवरण से ढकने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन कई बार दिख जाता है कि मामला उतना सामान्य है नहीं. शैवाल कहते भी हैं, ‘अस्तित्व बनाए-बचाए रखने के लिए गलबहियां करने और मौका मिलते ही एक-दूजे का अस्तित्व मिटा देने की फिराक में किसी भी हद तक जाने की प्रक्रिया हर क्षेत्र में चलती रहती है.’

करीब 14 साल पहले राष्ट्रीय राजनीति के जरिए देश में राज करने के लिए एक-दूजे के करीब आकर सहयोगी बने जदयू और भाजपा अब बिहार में सत्ता के सवाल पर साझा अस्तित्व को बचाए रखने की मजबूरी तक ही मजबूती दिखा पाते हैं. उसके बाद वे एक-दूजे को आईना दिखाने और कमजोर करने के हर मौके की तलाश करते नजर आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान और उसके पहले झारखंड में एक उपचुनाव के दरम्यान यह साफ दिखा. उत्तर प्रदेश मंे भी भाजपा और जदयू में इस बार गठबंधन नहीं था. नीतीश भी वहां प्रचार करने गए. सभा में भाषण हुआ- कमल खिला तो उत्तर प्रदेश कीचड़-कीचड़ हो जाएगा. यह बात स्थानीय अखबारों के पन्ने में उभरी, लेकिन दबकर रह गई. लेकिन इसका असर आगे हुआ. भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी और शाहनवाज हुसैन ने उत्तर प्रदेश के एक चुनावी सभा में कहा कि जदयू से गठबंधन होने के कारण प्रदेश में भाजपा का जनाधार घटा है. इसके बाद तो तूफान ही मच गया. लगे हाथ जदयू के प्रवक्ता नीरज कुमार ने उत्तर प्रदेश के ही संत कबीरनगर जिले के मेंहदावल में प्रेसवार्ता आयोजित करके भाजपा और आडवाणी-शाहनवाज की आलोचना की. उन्होंने कहा कि संाप्रदायिक चरित्र, माफिया चरित्र और भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दिए जाने के कारण भाजपा गति से दुर्गति प्राप्त कर रही है. अन्य जदयू नेताओं ने बिहार में भाजपा को औकात बताए जाने की चेतावनी भी दे डाली.

जुबानी तल्खी जारी रही. जदयू नेताओं ने कहा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा अपने नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक मॉडल, मध्य प्रदेश के शिवराज मॉडल या छत्तीसगढ़ के रमण सिंह मॉडल का प्रचार करे लेकिन बिहार मॉडल का सहारा न ले क्योंकि वह नीतीश कुमार मॉडल है और बिहार में भाजपा जदयू और नीतीश के नाम पर ही अस्तित्व में है. लेकिन भाजपा इससे बेअसर दिखी. नीतीश उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों में चुनाव प्रचार करने गये, उनमें उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी बिहार मॉडल के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे.

वैसे दोनों दलों के बीच दूरियां बढ़ने और एक-दूजे को पटखनी देने के इस खेल की शुरुआत बिहार में दूसरी पारी में साथ मिलकर सरकार बनाने से ही हो गई थी. उत्तर प्रदेश चुनाव में यह खेल तेज हो गया.  कुछ माह पहले झारखंड में मांडू विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भी यह खेल दिखा था. मांडू जदयू की सीट थी लेकिन जब विधायक के निधन के बाद वह सीट खाली हुई तो भाजपा ने प्रदेश में जदयू से सत्ता का गठबंधन रहने के बावजूद अपना खुला समर्थन सरकार के दूसरे सहयोगी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा को दे दिया था. तब नीतीश कुमार ने तहलका से बातचीत में कहा भी कि झारखंड में यह ठीक नहीं हुआ. बताया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में दोनों दलों के बीच चली जुबानी जंग एक तरह से झारखंड मंे भाजपा द्वारा किए गए विश्वासघात का बदला लेने की प्रक्रिया की तरह रही. जानकारों के मुताबिक इसमें नीतीश कुमार और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की मौन सहमति थी. इसके पहले बिहार में भी दोनों दलों के बीच अंदरखाने में एक-दूजे को घेरने और पटखनी देने की कोशिशें दिखती रही हैं. पिछले साल के आखिर में बिहार के बेगुसराय में हुए सिमरिया अर्धकुंभ के मसले पर भी दोनों दल बंटे रहे थे.

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक भाजपा गैरसवर्ण वोट में सेंधमारी की कोशिश कर रही है और जद यू सवर्ण वोटों में. रिश्ते में उठापटक की जड़ यही है

बिहार में दूसरी पारी की सरकार शुरू होने के बाद भाजपा ने राजनीति और सत्ता के मोर्चे पर भी कई नई योजनाएं शुरू की हैं. बिहार में जदयू के मुकाबले सफलता दर ज्यादा रहने और मजबूत स्थिति होने के कारण भाजपा खुलकर अपने अभियान को चला भी पा रही है. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सोमवार को जनता के दरबार में उपस्थित होते हैं तो अब मंगलवार को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी अपने अहाते में जनता के दरबार में आते हैं. जदयू की ओर से महापुरुषों को जाति के खोल में समेटकर जयंती और पुण्यतिथि मनाने का सिलसिला चला तो भाजपा ने भी उसे अपने ढंग से परवान चढ़ाया. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘यह अकारण नहीं है कि भाजपा दलितों की बस्ती में सहभोज का अभियान चला रही है, मुजफ्फरपुर में मल्लाहों का सम्मेलन कर रही है और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग कर रही है.’ सुमन कहते हैं कि लड़ाई दूसरी दिशा में है. उनके मुताबिक भाजपा यह मानकर चल रही है कि सवर्णों के वोट पर उसका अधिकार है इसलिए वह पिछड़ों-अति पिछड़ों व दलितों के वोट में सेंधमारी की कोशिश करके जदयू को कमजोर करना चाहती है. उधर, जदयू यह मानकर चल रही है कि सवर्णों में आधार मजबूत किए बगैर अकेले सत्ता में आने की गुंजाइश नहीं रहेगी. अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक सम्मेलन में जब यह घोषणा की िक वे अब जातीय सभाओं/सम्मेलनों में नहीं जाएंगे तो उसे भी इसी से जोड़कर देखा गया कि ऐसा वे सवर्णों के बीच पैठ बनाने के लिए कह रहे हैं.

हालांकि जदयू और भाजपा में हो रही इस रस्साकशी में कभी एक भारी दिखता है तो कभी दूसरा. कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक संगठन डंके की चोट पर मनमाना आयोजन करके पटना से चले जाते हैं तो कभी नीतीश के बूते जदयू का पलड़ा भारी दिखता है. इधर हाल के दिनों में कांग्रेस के जयराम रमेश जैसे नेताओं ने बिहार से लेकर झारखंड तक के मंच पर नीतीश का गुणगान अचानक शुरू कर दिया है तो उसके भी राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं.

हालांकि कहा जा रहा है कि अभी दोनों दलों के बीच रिश्ता ‘तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई’ की तर्ज पर ही चलता रहेगा. बीच में कई मौकों पर इसका लिटमस टेस्ट होता रहेगा. अगले माह बिहार में विधान परिषद और राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होना है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणामों और चारा घोटाला मुकदमे में लालू प्रसाद यादव के संदर्भ में आए फैसले की कसौटी पर भी दोनों दलों के रिश्ते की परीक्षा होगी. कुछ और तल्खी आई तो भी यह रिश्ता घिसट-घिसटकर लोकसभा चुनाव तक चलेगा.

जानकारों के मुताबिक उस बिंदु पर तय होगा कि तमाम मतभिन्नताओं और अवरोध-विरोध के बावजूद इन पुराने दोस्तों का रिश्ता कोई नई शक्ल लेता है या नहीं.

भलाई नाम भर की

बिहार में अल्पसंख्यकों के कल्याण से जुड़ी संस्थाओं की स्थिति ऐसी है कि कहीं ताले हैं और जहां ताले नहीं हैं वहां काम करने वालों को तनख्वाह के लाले हैं. अल्पसंख्यक वित्त निगम की हालत तो यह है कि बेरोजगारों के हजारों आवेदन पड़े हैं पर उसके पास एक भी पैसा नहीं कि वह जरूरतमंदों को कर्ज दे सके.

इस मुद्दे पर दो बयान गौर करने लायक हैं. पहला पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के पूर्व अध्यक्ष शरीफ कुरैशी का है. कुरैशी कहते हैं, ‘2009 में जब मेरा कार्यकाल खत्म हुआ तो मैं अपने दफ्तर से तमाम फर्नीचर और कंप्यूटर लेकर घर चला आया क्योंकि यह सब मेरा निजी सामान था. अपने तीन साल के कार्यकाल के दौरान अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए मैं ज्यादातर अपने ही खर्च से विभिन्न जिलों में भ्रमण करता रहा, जबकि मुझे राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त था. मेरे हटने के बाद से पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के दफ्तर पर ताला पड़ा है.’

दूसरा कथन बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के वर्तमान अध्यक्ष नौशाद अहमद का है. वे कहते हैं, ‘अपने पांच साल के कार्यकाल में राज्य में मैंने मुसलमानों या अल्पसंख्यकों के प्रति ऐसी कोई समस्या महसूस ही नहीं की जिसके मामले में हमें कोई कार्रवाई करनी पड़े या इस संबंध में राज्य सरकार को कोई अनुशंसा करनी पड़े. सरकार अल्पसंख्यकों की समस्या के प्रति खुद ही इतनी संवेदनशील है कि आयोग को इस मामले में दखल की जरूरत महसूस नहीं होती.’

दोनों बयानों को देखा जाए तो ये बिहार सरकार के अल्पसंख्यकों के प्रति रवैये पर एकदम विरोधाभासी टिप्पणियों जैसे लगते हैं. लेकिन इन दोनों कथनों के निहितार्थ कुछ-कुछ एक जैसे ही हैं. दूसरी टिप्पणी को अगर थोड़ी देर के लिए वाजिब मान लिया जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान की देखरेख करने वाली पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति और अल्पसंख्यकों की समस्याओं के प्रति सरकार को समय-समय पर अनुशंसा करने वाले आयोग की कोई जरूरत ही नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार अल्पसंख्यकों की तमाम समस्याओं का समाधान समुचित ढंग से कर रही है. ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक आयोग पर सरकारी बजट का करोड़ों रुपये खर्च करने का कोई औचित्य ही नहीं है और उस पर भी पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति की तरह ताला डाल दिया जाना चाहिए. पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति अल्पसंख्यक समुदाय के विकास, उसकी शिक्षा, सुरक्षा, सांप्रदायिक दंगों के नियंत्रण और पुनर्वास आदि से जुड़े 15 महत्वपूर्ण मामलों की निगरानी करने वाली महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र सरकार की पहल पर गठित किया गया है. हालांकि अल्पसंख्यक विभाग के मंत्री शाहिद अली खान का तर्क है कि नई व्यवस्था के तहत इस समिति की जिम्मेदारी राज्य के मुख्य सचिव को देने की बात है. लेकिन सच यह है कि पिछले तीन साल में सरकार ने इस नई व्यवस्था के तहत भी कोई शुरुआत नहीं की है.

राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद प्रोफेसर जाबिर हुसैन बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. वे इस पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हैं कि अल्पसंख्यक आयोग जैसी वैधानिक संस्था की कोई रिपोर्ट पिछले छह साल में सरकार ने विधानसभा में पेश तक नहीं की जबकि 1994 में राज्य सरकार ने यह जरूरी कर दिया था कि आयोग की रिपोर्ट हर वर्ष सदन में पेश की जाए और उस पर बहस हो. हुसैन कहते हैं कि पिछले छह साल में अल्पसंख्यक आयोग को पंगु बना कर रख दिया गया है.

अल्पसंख्यकों या दूसरे शब्दों में मुसलमानों से जुड़ी दूसरी स्वायत्त संस्थाओं को जानने-समझने के क्रम में अगला नंबर आता है उर्दू परामर्शदातृ समिति का. उर्दू के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए जिम्मेदार इस समिति के तत्कालीन अध्यक्ष और उर्दू के विख्यात शायर कलीम आजिज का तीन वर्षीय कार्यकाल 15 जून, 2011 को खत्म हो चुका है. इस पद पर राज्य सरकार ने किसी नए व्यक्ति की नियुक्ति नहीं की है. चूंकि समिति के अध्यक्ष के दस्तखत से ही यहां के कर्मियों का वेतन दिया जाता है, इसलिए कर्मियों को नए अध्यक्ष के आने का इंतजार करना पड़ेगा, जो वे पिछले आठ महीने से कर रहे हैं. इस समिति में कार्यरत कर्मियों की पीड़ा मो. अयूब की बातों से झलकती है. अयूब कहते हैं, ‘पिछले कई महीनों से हम अपने अधिकारियों के निजी काम करके कुछ पैसे जुटा लेते हैं, यही मेरे परिवार का सहारा है.’ मो. अयूब समिति में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हैं.

अब कुछ ऐसी ही हालत बिहार उर्दू अकादमी की भी होने वाली है. अकादमी की पूरी कार्यकारिणी की मियाद चार नवंबर, 2010 को खत्म हो गई थी. पिछले 16 महीने से अकादमी बिना कार्यकारिणी के ही है. और अब हालत यह है कि 31 जनवरी, 2012 को अकादमी के लिए जिन अस्थायी सचिव मंजूर एजाजी को तैनात किया गया था उनका कार्यकाल भी 31 जनवरी, 2011 को ही समाप्त हो चुका है. सरकार की तरफ से अभी ऐसा कोई संकेत भी नहीं है कि अकादमी का अगला सचिव कब और किसको बनाया जाएगा. इसलिए अकादमी के कर्मियों को आशंका है कि उन्हें अगले महीने से अपने वेतन से वंचित होना पड़ेगा.

सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की शिक्षा के लिए चलाई गई योजना ‘तालीमी मरकज’ का हाल भी बुरा है. यह योजना गरीब और पसमांदा मुसलमानों के बच्चों के लिए शुरू की गई थी. पिछले तीन साल में राज्य भर में 3,700 तालीमी मरकज (शिक्षा केंद्र) खोले गए. हर केंद्र पर एक शिक्षक को नियुक्त किया गया. लेकिन ज्यादातर शिक्षकों को मिलने वाला मानदेय पिछले 14 महीने से नहीं मिला है. मो. मुअज्जम आरिफ अपने साथी दूसरे शिक्षकों के साथ जब हमसे मिलते हैं तो उनकी झल्लाहट छिपाए नहीं छिपती. आरिफ कहते हैं, ‘ऐसे रोजगार से तो बेरोजगारी ही भली थी.’ इतना ही नहीं, अधिकतर तालीमी मरकज पर मिड-डे मील की भी व्यवस्था नहीं होने के कारण गरीब बच्चे इन केंद्रों पर आने में हिचकने लगे हैं. नतीजा यह कि इन केंद्रों का वजूद भी खतरे में पड़ता नजर आ रहा है.

कमजोर वर्ग के अल्पसंख्यकों के स्वरोजगार से जुड़ी संस्था बिहार राज्य अल्पसंख्यक वित्त निगम की भी सेहत ठीक नहीं. निगम न्यूनतम ब्याज पर बेरोजगारों को कर्ज देकर स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करता है. लेकिन 2011-12 में उसने एक भी पैसे का कर्ज नहीं दिया. वह भी तब जब राज्य के निगम के लोन अफसर अनवारुल हक स्वीकार करते हैं कि 2011 में निगम के पास पांच हजार से अधिक बेरोजगारों ने कर्ज के लिए अर्जी लगाई थी. अनवर कहते हैं, ‘निगम को राज्य सरकार ने इस वर्ष पैसा दिया ही नहीं तो वे आवेदकों को कहां से देंगे.’ अल्पसंख्यक वित्त निगम को केंद्र और राज्य सरकार, दोनों से एक निर्धारित राशि मिलती है.

सामाजिक कार्यकर्ता अशरफ अस्थानवी कहते हैं, ‘आप अल्पसंख्यक विभाग की वेबसाइट पर देखिए जो बताती है कि 2011 में 31 हजार 632 छात्रों को पोस्ट मैट्रिक स्काॅलरशिप दी गई, पर ऐसे अनगिनत छात्र हैं जिन्हें वह रकम अभी तक मिली ही नहीं.’ अपनी बात की पुष्टि में अस्थानवी हमारे सामने पटना के सद्दाम हुसैन और मो. शादाब को मिसाल के रूप में पेश कर देते हैं.

बात आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक विश्लेषक रेहान गनी और पत्रकार महफूज आलम कहते हैं कि सरकार की घोषणाओं और व्यवहार में जमीन-आसमान का फर्क है. एक तरफ वह तालीमी मरकज और अल्पसंख्यकों को कर्ज देने की घोषणा तो बढ़ा-चढ़ा कर करती है, लेकिन दूसरी तरफ वह अल्पसंख्यक वित्त निगम जैसे संस्थान, जिसे कर्ज देना है, को एक पैसा उपलब्ध नहीं करवाती. ऐसी स्थिति में जरूरतमंदों को कर्ज कहां से मिलेगा. महफूज ऐसे कई आंकड़े पेश करते हैं जो सरकार की कथनी और करनी की पोल खोलते हैं.

इन तमाम सवालों और मुद्दों पर सरकार का पक्ष भी हैरान और मायूस करने वाला है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहिद अली खान बातों-बातों में यह सच कह जाते हैं कि फिलहाल अल्पसंख्यकों से जुड़ी अकादमियों और समितियों के पुनर्गठन की कोई बात नहीं चल रही है. वे यह भी स्वीकार करते हैं कि अल्पसंख्यक वित्त निगम द्वारा बेरोजगार अल्पसंख्यकों को वित्त वर्ष 2011-12 में एक पैसे का कर्ज न दिया जाना चिंता का कारण है. पर शाहिद अली खान इस बात को टाल जाते हैं कि आखिर निगम को सरकार पैसे उपलब्ध क्यों नहीं कराती ताकि वह कर्ज दे सके.

सूबे की सत्ता के चार समीकरण

जटिलताओं की जमीन उत्तर प्रदेश का चुनाव अपने आखिरी पड़ाव की ओर है, लेकिन सियासी पंडित अभी भी किसी स्पष्ट नतीजे की घोषणा नहीं कर पा रहे हैं. इस असमंजस के वातावरण में छह मार्च को उभरने वाले संभावित समीकरणों की पड़ताल कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी

उत्तर प्रदेश में अगली विधानसभा की सूरत क्या होगी, सियासत के इस लाख टके के सवाल का फिलहाल कोई मुफीद जवाब नहीं है. अरसे बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है जब चुनाव के पहले या चुनाव के दौरान सियासत का कोई भी पंडित दावे के साथ यह नहीं कह पा रहा कि लखनऊ की गद्दी फलां पार्टी संभालेगी. पांच साल पहले जब विधानसभा चुनाव पहले चरण में था तभी इस बात का इल्म होने लगा था कि मुलायम सिंह की विदाई हो रही है और मायावती आ रही हैं. लेकिन इस मर्तबा सियासी फिजा में सिर्फ कयास ही कयास हैं. पांच चरणों के चुनाव के बाद एक बात जरूर यकीन से कही जा सकती है कि नई विधानसभा की किस्मत में खंडित जनादेश है और कोई भी पार्टी अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी. इस सूरत में चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार की सूरत क्या होगी? यह गठबंधन की होगी, किसी एक पार्टी की होगी या फिर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगेगा? पांच चरण का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद सूबे की जनता में इसी को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा है.

देश की दो दिग्गज राजनीतिक पार्टियों के लिए यह चुनाव सत्ता की दौड़ में शामिल होने से कहीं ज्यादा दो साल बाद होने वाली दिल्ली की लड़ाई के लिए अपने कील-कांटे मजबूत करने का पूर्वाभ्यास है. केंद्र सरकार में शामिल सहयोगियों के चलते रोज-रोज की जिल्लत से निजात पाने के लिए कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन मजबूत करना नितांत जरूरी है तो दिल्ली की गद्दी पाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के लिए भी हिंदी हृदय प्रदेश में अपनी स्थिति बेहतर करना जरूरी है. सपा और बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में सत्ता पर कब्जा उनके अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है. इन दीर्घकालिक लक्ष्यों के साथ ही बड़े राष्ट्रीय दलों के लिए निकट भविष्य के तकाजे भी सूबे में सत्ता के नए समीकरण गढ़ने में अपनी भूमिका निभाएंगे.

सीन 1: सपा + (कांग्रेस+रालोद)

वस्तुतः 2014 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहे जा रहे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पार्श्व में कई स्तरों पर लड़ाई चल रही है. मायावती किसी भी सूरत में सत्ता में बने रहना चाहती हैं तो पांच साल से सत्ता से बाहर रहे मुलायम सिंह यादव के सामने सियासी रसूख बचाए रखने का सवाल है. फिलहाल चुनाव के बाद के जिन राजनीतिक परिदृश्यों का आकलन आम-ओ-खास में चल रहा है उसके मुताबिक समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन की सरकार बनने के ज्यादा आसार हैं. ऐसी सूरत में मुख्यमंत्री कौन होगा? यह प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है. पहले चरण के मतदान के एक हफ्ता पहले तक समूचे पूर्वांचल (पहले दो चरणों में इसी इलाके के चुनाव संपन्न हुए) में यह चर्चा जोरों पर थी कि अगली सरकार मुलायम सिंह की होगी, कांग्रेस और लोकदल उनका समर्थन करेंगे. मतदान के कुछ दिन पहले जब कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का आभास होने लगा कि इस चर्चा से उसके कार्यकर्ताओं में हताशा फैल रही है और इसका सीधा मुनाफा समाजवादी पार्टी को हो रहा है तो पहले राहुल गांधी और बाद में दिग्विजय सिंह ने चुनावी सभाओं में कहना शुरू किया कि अगर हमें बहुमत नहीं मिला तो हम विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे, किसी की सरकार नहीं बनवाएंगे. हालांकि दिग्विजय सिंह का हालिया रिकॉर्ड बयान देने और फिर मुकर जाने का रहा है.

कांग्रेस को भी अहसास है कि उसके पास सूबे की शीर्ष कुर्सी के लिए संख्याबल नहीं होगा फिर भी पार्टी की स्थिति ‘सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठ’ जैसी है

दूसरी ओर पूर्वी व मध्य उत्तर प्रदेश के पांच चरणों के चुनाव देखने के बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी अपना सुर बदला है. अब तक कांग्रेस के प्रति चुप्पी साधे रहे सपा प्रमुख ने कहना शुरू कर दिया है, ‘प्रदेश में कांग्रेस से न तो समर्थन लिया जाएगा और न ही दिया जाएगा. हम अपनी खुद की सरकार बनाएंगे.’ यहां यह बात गौर करने वाली है कि शुरुआती चार चरणों के मतदान में मुसलिम मतदाताओं का सपा के प्रति स्पष्ट रुझान दिखा है और इसका अहसास कहीं न कहीं कांग्रेस को भी है. स्पष्ट है कि जिस मुसलिम वोट बैंक को लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच लगातार तलवारें तनी हैं उसकी सपा के प्रति बढ़ती दिलचस्पी एक ऐसा सामान्य समीकरण है जो इन दोनों पार्टियों के हितों से जुड़ा हुआ है. ऐसी हालत में मिशन 2014 के तहत काम कर रहे राहुल औरर कांग्रेस के लिए कतई मुफीद नहीं होगा कि वे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाएं. चाहे वह मुलायम हों या फिर अखिलेश यादव, अखिलेश तो कतई नहीं. इसका एक कारण उनकी युवा छवि भी है जो राहुल से सीधे टकराती है ठीक उसी तरह जैसे मुसलिम वोटों के लिए कांग्रेस और सपा के हित टकरा रहे हैं. इन दोनों नेताओं की चुनावी सभाओं को देखने के बाद साफ तौर पर कहा जा सकता है कि एक खास वर्ग के मतदाताओं पर पकड़ के मामले में कोई किसी से कम नहीं है. इसका मतलब साफ है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस किसी भी सूरत में नहीं चाहेगी कि अखिलेश यादव का राजनीतिक कद एक हद से ऊपर जाए. जहां तक इस संभावित गठबंधन में कांग्रेसी मुख्यमंत्री की दावेदारी का प्रश्न है, सपा नेतृत्व संख्याबल के आधार पर इसे पहली ही निगाह में खारिज कर देगा. कांग्रेस नेतृत्व को भी इस बात का कायदे से अहसास है कि उसकी संख्या इस लायक नहीं होगी कि वह सूबे की शीर्ष कुर्सी के लिए दावा पेश कर सके. बावजूद इसके कांग्रेस की स्थिति ‘सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठ’ जैसी है. बेनी प्रसाद वर्मा से लेकर श्रीप्रकाश जायसवाल तक आधा दर्जन ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. इस हालत में देखना दिलचस्प होगा कि दोनों पार्टियां कैसे तालमेल बैठाती हैं.

सीन 2:  सपा + (कांग्रेस+रालोद) जयंत चौधरी मुख्यमंत्री

अगर उपर्युक्त स्थिति पैदा होती है तो प्रदेश में सबसे अविश्वसनीय समीकरण देखने को मिल सकता है. एक-दूसरे का मुख्यमंत्री स्वीकार्य न होने की हालत में कांग्रेस एक सुरक्षित राजनीतिक चाल चल सकती है. इसके तहत रालोद के युवा नेता और अजित सिंह के पुत्र जयंत चौधरी का नाम मुख्यमंत्री के लिए आगे कर सकती है. संसद सदस्य होने के बावजूद जयंत से विधानसभा का चुनाव लड़वाना कुछ हद तक इसी रणनीति का नतीजा है. कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव परवेज हाशमी यह बात जाने-अनजाने कह भी चुके हैं. दूसरी तरफ रालोद प्रमुख अजीत सिंह, जो कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगातार कह रहे हैं कि जयंत को लखनऊ पहुंचाना है. इस समीकरण के तहत कांग्रेस समाजवादी पार्टी को केंद्र सरकार में सम्मान के साथ शामिल करने और प्रदेश सरकार में संख्या बल के अनुरूप अधिक प्रतिनिधित्व देने का प्रस्ताव दे सकती है. कांग्रेस के इस प्रस्ताव को मुलायम सिंह यदि अस्वीकार करते हैं तो कांग्रेस नेतृत्व के पास राष्ट्रपति शासन लगाने का तार्किक बहाना होगा और जनता के सामने सफाई देने में भी आसानी रहेगी.

सीन 3:  बसपा + भाजपा

तीसरा परिदृश्य जो चुनाव के बाद संभव है वह बसपा और भाजपा गठबंधन की सरकार का है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान जिस तरह एक-दूसरे के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात सिरे से खारिज कर रहे हैं ठीक उसी तरह बसपा और भाजपा भी सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के प्रति नापसंदगी जाहिर कर रहे हैं. भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार बताई जा रही उमा भारती तो ऐसी स्थिति में सरयू नदी में डूबने तक की बात कह रही हैं. मगर उत्तर प्रदेश का इतिहास ऐसे तमाम झूठों का गवाह रहा है. भाजपा और बसपा की पुरानी दोस्ती प्रदेश की जनता को कायदे से याद है. बसपा ने इस चुनाव में 85 मुसलिम उम्मीदवार उतारे हैं और पार्टी मुखिया को अच्छी तरह याद है कि भाजपा के साथ कथित भावी गठजोड़ की हवा फैला कर 2009 के लोकसभा चुनाव में उनका काफी नुकसान किया गया था. कल्याण सिंह के साथ से नाराज मुसलिम मतदाताओं ने इस चुनाव में न सिर्फ मायावती बल्कि मुलायम सिंह को भी झटका दिया था. लेकिन उत्तर प्रदेश की चाबी अपने हाथ में बचाए रखने के लिए बसपा भाजपा का साथ ले सकती है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. यहां बसपा नेतृत्व यह भी देखेगा कि इस चुनाव में उसके कितने मुसलिम उम्मीदवार विधानसभा पहुंचते हैं.

उमा भारती भले ही बसपा से समझौता करने की बजाय सरयू में डूबने की बात कह रही हों मगर भाजपा और बसपा की पुरानी दोस्ती प्रदेश की जनता को याद है

सीन 4 : राष्ट्रपति शासन

राष्ट्रपति शासन वह विकल्प है जिसकी संभावना मौजूदा रुझान के मद्देनजर सबसे ज्यादा है. दिग्विजय सिंह अपने बयानों में इस विकल्प को बार-बार याद करते हैं. केंद्र में काबीना मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल दो बार यह कह कर पार्टी की फजीहत करवा चुके हैं कि पूर्ण बहुमत न मिलने की सूरत में उत्तर प्रदेश का रिमोट कंट्रोल कांग्रेस के हाथ में रहेगा. हालांकि उनके बयान से पूरी पार्टी ने खुद को अलग कर लिया है, लेकिन चुनाव के आखिरी चरण में कांग्रेसी नेताओं के ये बयान अनायास नहीं माने जा सकते. यह संकेत है कि पार्टी के अंदरखाने में राष्ट्रपति शासन को लेकर गंभीर विमर्श की स्थिति है और साथ ही कहीं न कहीं इस बात का अहसास भी कि वे उत्तर प्रदेश को जीतने नहीं जा रहे. सूबे का सियासी गणित बताता है कि बसपा और सपा के बीच ज्यादातर सीटों पर सीधी लड़ाई है और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने की होड़ भी इन्हीं दोनों में है. देखना दिलचस्प होगा कि नंबर गेम में कौन-से संभावित गठबंधन के आंकड़े फिट बैठते हैं. यदि सपा, कांग्रेस और रालोद का पूरा आंकड़ा 200 पार नहीं करता या फिर यही स्थिति बसपा और भाजपा को मिला कर बनती है तो स्पष्ट तौर पर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प होगा. इतना ही नहीं, यदि भाजपा और बसपा की कुल विधायक संख्या 200 पार हो जाती है तब भी तुरंत सरकार बनने की स्थिति तय नहीं है. इस सूरत में भी एक बार फिर से विकल्प राष्ट्रपति शासन ही होगा, थोड़े समय के लिए ही सही.

महत्वपूर्ण कारक

कुछ और भी सामयिक राजनीतिक कारण उपज रहे हैं जो उत्तर प्रदेश में चुनाव बाद की स्थितियों को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले हैं. उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की 10 सीटों पर चुनाव आने वाले अप्रैल में होने हैं. इसके तुरंत बाद देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद राष्ट्रपति का चुनाव भी होना है. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल इसी वर्ष जुलाई में समाप्त हो रहा है और ये दोनों ही चुनाव सूबे के राजनीतिक वातावरण को प्रभावित करेंगे. राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को उत्तर प्रदेश में दोनों प्रमुख पार्टियों यानी सपा और बसपा के सहयोग की जरूरत पड़ेगी. ऐसे में प्रदेश में सरकार बनाने की दृष्टि से भी एक के साथ एक का पाला खिंचना स्वाभाविक है. यहां भी भाजपा के साथ बसपा की नजदीकी ज्यादा स्वाभाविक है, जबकि कांग्रेस इन दोनों स्थितियों से पार पाने के लिए राष्ट्रपति शासन को सबसे ऊपर तरजीह देगी. वैसे यह सारी कवायद और गुणा-गणित तब तक कोई मायने नहीं रखते जब तक चुनाव के साफ नतीजे नहीं आ जाते हैं.

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे भी कुछ नए समीकरण बना सकते हैं. जब से उत्तराखंड राज्य बना है, पांच साल बाद वहां सरकारें बदली हैं. लेकिन इस बार वहां भी खंडित जनादेश के आसार नजर आते हैं. भाजपा और कांग्रेस की सीटों में यदि ज्यादा फर्क नहीं होता है तो वहां भी बसपा की भूमिका बन सकती है. उत्तराखंड के मैदानी हिस्सों में बसपा का असर है और यहां उसे पहले सीटें मिलती रही हैं. बड़ी पार्टियों की सीटों की कमी की स्थिति में बसपा वहां महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है. लखनऊ में भाजपा-बसपा के गठजोड़ पर उत्तराखंड के नतीजों की भी छाया पड़ेगी. वैसे भी राजनीतिक सौदेबाजी में मायावती का रिकॉर्ड पुराना है और यदि परिस्थितियां बनीं तो उत्तराखंड में वे भाजपा की सरकार बनवा कर उत्तर प्रदेश में उसकी कीमत वसूलने से नहीं चूकेंगी.