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देर से दुर्घटना भली

चैनलों पर लड़कपन इस कदर हावी है कि वे तथ्यों को उत्तेजना और सनसनी के साथ परोस रहे हैं.

सनसनी, अति उत्साह और उत्तेजना न्यूज चैनलों की स्थाई पहचान बन चुकी है. हालांकि बीते कई सालों से चैनलों के कर्ताधर्ता यह दावा करते रहे हैं कि ये चैनलों के बालपन की समस्याएं हैं जो उम्र बढ़ने के साथ खत्म होती जाएंगी और चैनलों में परिपक्वता आएगी. लेकिन  चैनलों का लड़कपन खत्म होता नहीं दिख रहा है. उल्टे चैनलों में अति उत्साह, उत्तेजना और सनसनी के लगातार बढ़ते जोर को देखकर कई बार आशंका होती है कि कहीं उन्हें हाई ब्लड प्रेशर की स्थायी शिकायत तो नहीं है? 

जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदाल उर्फ अबू जुंदल उर्फ अबू जंदाल उर्फ अबू जंदल उर्फ अबू हमजा के मामले को ही लीजिए. कथित तौर पर लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े और मुंबई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के निर्देशकों में से एक जबीउद्दीन अंसारी की सउदी अरब की मदद से 21 जून को दिल्ली में गिरफ्तारी के बाद से भारतीय मीडिया में जिस तरह की अति उत्साह और उत्तेजना से भरी और सनसनीखेज रिपोर्टिंग हुई है, उससे बाकी दर्शकों की तो नहीं जानता लेकिन अपनी जानकारी व समझ कम बढ़ी और भ्रम व हैरानी ज्यादा बढ़ गई. चैनलों की रिपोर्टिंग की हालत यह थी कि शुरुआती कई दिनों तक तो अंसारी के नाम को लेकर उलझन बनी रही. 

अबू के मामले में टेलीविजन चैनलों के बीच आगे बढ़ने की ऐसी होड़ लगी कि वे तथ्यों के बजाय कल्पना से अधिक काम लेते रहे

जितने चैनल, जितने अखबार, उतने मुंह और उतनी ही कहानियां. नाम का यह भ्रम इस हद तक पहुंच गया कि गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि गिरफ्तार जंदाल, अबू हमजा नहीं है. इसके बावजूद यह उलझन आज भी बनी हुई है कि वह जिंदाल है, जुंदल है या जंदाल है. जैसे नाम का जंजाल काफी नहीं था, समाचार मीडिया खासकर चैनलों में जंदाल के कारनामों को लेकर एक से एक सनसनीखेज ‘खबरें’ दिखाई गईं. इस मामले में चैनलों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ने की ऐसी होड़ मची हुई थी कि उत्तेजना में वे तथ्यों से कम और कल्पना से अधिक काम ले रहे थे. 

कल्पनाशीलता में वे ऐसी-ऐसी रिपोर्टें दिखा रहे थे कि आज की रिपोर्ट कल की रिपोर्ट को काट रही थी, सुबह का ‘खुलासा’ शाम के ‘खुलासे’ पर उल्टा पड़ रहा था और एक चैनल की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दूसरे की एक्सक्लूसिव को सर के बल खड़ा कर दे रही थी. पता नहीं चैनलों में अपने पिछले दिनों की रिपोर्टों को देखने का चलन है या नहीं, लेकिन उन पर जिस तरह हर दिन सुबह-शाम जंदाल से पूछताछ के बाद सूत्रों के हवाले से ‘खुलासे’ प्रसारित हो रहे थे, उसमें कोई तारतम्य नहीं दिख रहा था.लगता है कि चैनल या तो बहुत जल्दी में रहते हैं और कल क्या दिखाया था, इसका ख्याल करने की फुर्सत नहीं होती है या फिर वे ‘दिखाओ और भूल जाओ’ (स्मृति भ्रंश) की बीमारी के शिकार हो गए हैं.    

लेकिन क्या इस स्मृति भ्रंश की बड़ी वजह यह नहीं है कि ऐसे मामलों में चैनल (और अखबार भी) ‘सूत्रों’ पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं? यह भी कि वे इन खुफिया-पुलिस सूत्रों से सवाल नहीं पूछते हैं और उनसे मिली हर कच्ची-पक्की जानकारी को बिना छानबीन और जांच-पड़ताल के और अक्सर अपनी ओर से भी कुछ नमक-मिर्च लगाकर चैनलों पर उगल देते हैं? यही नहीं, अधिकांश चैनलों की रिपोर्टिंग में तथ्यों/भाषा के स्तर पर संयम, संतुलन और वस्तुनिष्ठता को भी किनारे रख दिया जाता है. इस मामले में इंडिया टीवी और बाकी चैनलों के बीच का फर्क खत्म होते देर नहीं लगती है. लेकिन क्या करें जब उत्तेजना से भरे चैनलों का नीति वाक्य  ‘देर से दुर्घटना भली’ बन गया है. यह और बात है कि इस दुर्घटना में हम दर्शकों की समझ और जानकारी का सिर फूटता है. लेकिन इससे चैनलों को क्या फर्क पड़ता है?

दारा जो कभी न हारा

दारा सिंह का जाना उस भारतीय गांव के आखिरी नायक का जाना है जो खुद भी दम तोड़ रहा है.

दारा सिंह का मैं कभी मुरीद नहीं रहा. बचपन में मैं सुनील गावसकर का फैन हुआ करता था. ये सत्तर और अस्सी के वे दशक थे जिनमें पहली बार क्रिकेट दूसरे खेलों को पीछे छोड़कर अपनी एक बड़ी जगह बना रहा था- बेशक, अपनी कामयाबियों की वजह से, नए इलाकों में अपने फैलाव के चलते और सुनील गावसकर के बाद कपिल देव से लेकर सचिन तेंदुलकर तक की उस चमकती हुई परंपरा के कारण, जिसने भारतीय क्रिकेट को एक अलग मुकाम दिया. इत्तिफाक से यही वे वर्ष थे जब भारत के गांव पीछे खिसकते जा रहे थे और शहर बड़े होते जा रहे थे.

नब्बे के दशक में शुरू हुए उदारीकरण ने अचानक इन शहरों की शक्ल कुछ और बदलनी शुरू की, गांवों को कुछ और पीछे धकेलना शुरू किया. इक्कीसवीं सदी तो जैसे बिल्कुल अपनी नगर-योजना और अपना नागरिक एजेंडा लेकर आई, जिसमें नगर महानगर हो गए, घर अपार्टमेंट हो गए, मुहल्ले सेक्टर हो गए और हाट-बाजार मॉल में बदल गए. यह बाजारवाद आज भी स्थानीयता की अलग-अलग खुशबुओं को अपदस्थ करके एक वैश्विक पहचान स्थापित करने में लगा हुआ है जिसके कई आयाम हैं. एक आयाम खेलों की उस दुनिया में दिखता है जिसमें क्रिकेट मेरी तरह के शहरी मध्यवर्ग का शौक, शगल या जुनून भर नहीं रहा, वह बाजार का उपकरण हो गया है जिसका मकसद एक ऐसा इकहरा राष्ट्रीय जुनून पैदा करना है जिसकी मदद से पेप्सी-कोक से लेकर पजेरो-क्वैलिस तक बेचे जा सकें. 

वह पुराना भारत कितना मजबूत था, उसके न दिखने वाले धागे कितनी दूर तक पसरे थे- यह दारा सिंह की लोकप्रियता बताती है

यह लंबी भूमिका बस यह याद दिलाने के लिए लिखी कि इस पूरे परिदृश्य में वह भारतीय भदेस गांव जैसे भूगोल, इतिहास, स्मृति सब कुछ से बेदखल होता जा रहा है जो दारा सिंह को अपना नायक बनाता था. ओलिंपिक में सुशील कुमार या विजेंदर जैसे भारतीय पहलवानों की शानदार कामयाबी के बावजूद कुश्ती या पहलवानी वह खेल नहीं है जिसे तथाकथित संभ्रांत घरों के उच्च मध्यवर्गीय लड़के अपनाएं – वे क्रिकेट के अलावा ज्यादा से ज्यादा टेनिस या फिर शूटिंग जैसे खेलों में दिलचस्पी ले सकते हैं, जहां एक करिअर ऑप्शन फिर भी उनकी नजर में बनता है. यहां आकर हम पाते हैं कि दरअसल दारा सिंह का जाना उस भारतीय गांव के आखिरी नायक का जाना है जो खुद भी दम तोड़ रहा है. यह गांव अगर बचा है तो कुछ भूपतियों की सामंती ऐंठ में बचा है, कुछ बहुत कमजोर लोगों की मजबूरी में, कुछ अपने से लगे शहरों की फूहड़ नकल में और बाकी उन लाखों-करोड़ों विस्थापित जनों की स्मृति में जो महानगर के दैनिक जुए में जुते हुए इस पूरी व्यवस्था को अपने छिले हुए कंधों पर खींच रहे हैं. यह एक नया भारत है जो पुराने भारत को जैसे नेस्तनाबूद करने पर तुला है.

जबकि वह पुराना भारत कितना मजबूत था, उसके न दिखने वाले धागे कितनी दूर तक पसरे थे- यह दारा सिंह की लोकप्रियता बताती है. वे अपने जीवनकाल में किंवदंती और मुहावरे में बदल चुके थे. दारा सिंह होने, दारा सिंह बनने या दारा सिंह को ले आने का मतलब किसी को समझाने की जरूरत नहीं थी. ऐसी अपार शोहरत और पहचान हिंदी फिल्मों के कुछ सितारों के नसीब में आई हो तो आई हो, लेकिन किसी दूसरे खिलाड़ी को अब तक नहीं मिली. इन दिनों बाजार द्वारा रोज भगवान बताए जा रहे सचिन तेंदुलकर भी दारा सिंह जैसी वह पहचान हासिल नहीं कर सके हैं जो उन्हें किसी मुहावरे में बदल दे. और यह सब दारा सिंह ने किस दौर में हासिल किया? जब टीवी नहीं था, जब विज्ञापनों की यह चमकती दुनिया नहीं थी, जब बाज़ार का यह कद्दावर और कानून से भी लंबा हाथ नहीं था, तब दारा सिंह को उनका गंवई और कस्बाई समाज अपने सिर पर लिए घूमता रहा, उनके पोस्टर लगाता रहा, तमाम अखाड़ों में उतारता रहा, लाउड स्पीकरों पर उनका प्रचार करता रहा और उनकी किंवदंतियां बनाता रहा. 

निस्संदेह दारा सिंह की इस लोकप्रियता में कुछ हाथ पेशेवर कुश्ती के उस माहौल का भी रहा होगा जिसमें मिली-जुली कुश्तियां भी लड़ी जाती थीं, और कुश्ती लड़ाने वाले नकली दारा सिंह बनाम असली दारा सिंह का, या फिर दारा सिंह बनाम किंगकांग या दारा सिंह बनाम मैन माउंटेनजैक का तूमार बांधा करते थे. लेकिन दरअसल इन सबका वास्ता उस भोले भारत के हौसले और अभिमान से भी था जिसे लगता था कि उसकी ताकत को दुनिया में कोई चुनौती नहीं दे सकता. दारा सिंह की इस लोकप्रियता को देखते हुए ही हिंदी फिल्मों ने उन्हें अपने बीच जगह दी और जब रामायण जैसे धारावाहिक के लिए अपराजेय हनुमान जैसा चरित्र खोजने की नौबत आई तो रामानंद सागर को दारा सिंह ही दिखे. यह हिंदुस्तान की वास्तविक जनता के दिलों में बैठा रुस्तमे हिंद, रुस्तमे जमां दारा सिंह था जिसको किसी और मुहर की, किसी और मेडल की, किसी और सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं थी.

 कह पाना मुश्किल है कि आज दारा सिंह होते तो उनको वही शोहरत और इज्ज़त नसीब होती जो उस दौर में हुई. कई बार यह लगता है कि आज हम पहले से कहीं ज्यादा परमुखकातर हैं. अपनी श्रेष्ठता पर, अपने सामर्थ्य पर हमको तब भरोसा होता है जब बाहर वाला हमारी पीठ थपथपाता है. हमें फिल्मों के लिए कांस के सर्टिफिकेट और ऑस्कर अवार्ड चाहिए, खेलों के लिए ओलिंपिक मेडल चाहिए, साहित्य के लिए बुकर चाहिए और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी या सफलता-असफलता का पैमाना मापने के लिए द टाइम चाहिए. मुश्किल यह है कि ऐसी जगहों पर पहुंचने की अपनी पात्रता होती है जो कुछ उनके जैसा ढलने से भी हासिल होती है. दारा सिंह बहुत सारी भूमिकाओं में ढले, लेकिन अंततः वही भारतीय पहलवान बने रहे जिसने किंगकांग को खूनी पंजा दांव लगाकर चित्त किया था. वे एक दौर के ग्रामगंधी, कस्बाई भारत के अभिमान और आत्मगौरव की निशानी थे- उस भारत के आखिरी नायक, जिनका जाना याद दिलाता है कि इस बीच हमने न जाने कितने नायक खो दिए, उनसे लिपटी कितनी किंवदंतियां खो दीं और कितना आत्मगौरव खो दिया है. 

समृद्ध खेती की आपराधिक खाद!

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर इलाकों की एक जमीनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम क्षेत्र के कुल सात गांवों में घूमी. इस दौरान हमने कई बच्चों को देखा जो खेतों या घरों में काम कर रहे थे, स्थानीय नहीं थे और जिनसे बात करना बेहद चुनौती भरा था. हम बागपत के इब्राहिमपुर माजरा गांव के प्रधान शाकिंदर सिंह के घर पर हैं. कोठीनुमा घर में दाखिल होते ही हमारी नजरें भैसों का चारा मशीन से काटते हुए एक 15-16 साल के बच्चे पर टिक जाती हैं. वह भी हमारी तरफ देखता है पर सहमकर नजरें झुका लेता है. इसी बीच एक 14-15 साल का बच्चा हमारे लिए पानी के ग्लास लेकर बरामदे में दाखिल होता है. हम एक लड़के से पूछते हैं कि वह कौन-सी क्लास में पढ़ता है. वह धीरे से जवाब देते हुए कहता है कि वह अब नहीं पढ़ता. बस इसके बाद उन्हें अंदर जाने का इशारा कर दिया जाता है. ग्राम प्रधान कहते हैं कि मजदूरों की इतनी कमी है कि बुआई-कटाई के वक्त ये लड़के भी खेत पर काम के लिए जाते हैं. इन दोनों लड़कों का शारीरिक ढांचा और चेहराढ-मोहरा स्थानीय लोगों के ठीक उलट दिखाई देता है.

गांव के अलग-अलग घरों में हमें काम करते, चारा काटते हुए 3-4 और बच्चे दिख जाते हैं. हालांकि इनसे हमारी तो बात नहीं होती, लेकिन उनके घरवालों से बात करने के तरीके से यह जरूर मालूम पड़ जाता है कि वे घर के सदस्य नहीं बल्कि नौकर हैं. यह भी कि वे स्थानीय नहीं हैं. इब्राहिमपुर माजरा के बाद फतेहपुर चक गांव के प्रधान मास्टर राजपाल सिंह हमें बताते हैं कि गांव में खेतिहर मजदूरों की भारी कमी है. मजदूरों की कमी को गन्ने की खेती के ठप होने की प्रमुख वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘पहले तो आस-पास से ही मजदूर मिल जाया करते थे पर अब कई लोग बिहार, बंगाल से काम करने आते हैं.’

आगे जोधी नाम के गांव से गुजरते हुए हम प्रधान इमामुद्दीन खान से मिलते हैं. बच्चों के मजदूरी करने की बात को वे कुछ इस तरह स्वीकारते हैं, ‘कुछ दिनों पहले तक किसान यहां बच्चों को रखा करते थे पर जब से कुछ बच्चे अपने मालिकों के यहां से चोरी करके भागे हैं तब से लोग बाहरी मजदूरों को रखने में हिचकिचाने लगे हैं.’

‘एक मजदूर को लाने का कमीशन 4,000 रुपये होता है और अगर वह बीच में भाग जाए तो इसकी जिम्मेदारी एजेंट की होती है’

गन्ना किसानी में आ रही समस्याएं पूछते-पूछते हम अब तक कई गांवों का माहौल टटोल चुके हैं. हर गांव में हो रही बातचीत महेंद्र, दीपक और पवन की कहानियों को पुष्ट कर रही है. अब हम मुजफ्फरनगर के सिमरती और खिंदड़िया गांव की तरफ बढ़ते हैं. रास्ते में पड़ने वाले छपार गांव में हमें कुछ बच्चे खेतों में काम करते नजर आते हैं. आगे बढ़ने पर सिमरती और खिंदड़िया के बीच के रास्ते में हमें कुल सात बच्चे मिलते हैं. लगभग 13 से 16 वर्ष की उम्र के ये बच्चे गांव के पास की अधपक्की सड़क के पास खड़े हैं. दुबली-पतली काया और मटमैले सांवले रंग वाले ये बच्चे दूर से ही अलग पहचाने जा सकते हैं. हम गाड़ी रोककर उनसे बात करना चाहते हैं मगर वे भाग जाते हैं. काफी कोशिशों के बाद उनमें से एक हमारे पास आता है. हम उससे देवबंद का रास्ता पूछते हैं तो जवाब आता है, ‘इहां से जाओ., ठेठ पुरबिया लहजे में बात करने वाले इन बच्चों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में काम करते देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है.

हमारा अगला पड़ाव सहारनपुर जिले के देवबंद क्षेत्र में आने वाला बंधेडा-खास गांव है. गांव में घूमते हुए कुछ किसान हमसे बात करने को तैयार होते हैं. राऊ शेखावत, राऊ रिजवान और राऊ नौशाद जैसे कई किसान तहलका से बातचीत के दौरान यह स्वीकार करके हैं कि इस क्षेत्र में मौजूद गन्ने के खेतों में कटाई-छिलाई के लिए बिचौलियों की मदद से बिहारी मजदूर मंगवाए जाते हैं. रिकॉर्ड की गई बातचीत के कुछ अंश:

तहलका : बड़े किसान तो रेगुलर मजदूर रखते हैं. पर छोटे किसान तो यह नहीं कर सकते न. 

किसान : नहीं, वो टाइमली ही रखते हैं. 

तहलका : इसका मतलब कि जो सेंटर बने हुए हैं बिहारियों के लिए, वहीं से लाते होंगे?

किसान : सुनिए, हमारा सहारनपुर इस मामले में सबसे पीछे है. इसकी वजह है. बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद की तरफ जो लोग हैं, वो इतने हार्ड होते हैं कि आदमी की जान लेने पर आमादा हो जाते हैं. हमारे यहां आदमी किसी के साथ जुल्म नहीं करता. अगर मजदूर कुछ नुकसान भी कर दे तो उसे भेज देते हैं कि जा यार, तू निकल जा बस. 

तहलका : आपके यहां जो सेंटर्स हैं, वो सीजनल होते हैं या रेगुलर? 

किसान : परमानेंट होते हैं. जिस हिसाब से जिसको जरूरत हो. एक मजदूर को लाने का कमीशन 4,000 रुपये होता है और अगर वह बीच में भाग जाए तो जिम्मेदारी एजेंट की.

वहां से हटने पर एक ग्रामीण किसी से कुछ न बताने की शर्त पर बताता है कि इन मजदूरों में कई बच्चे भी शामिल होते हैं और किसानों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि वे यहां लाए कैसे गए हैं. यहां से निकलते ही हम मुजफ्फरनगर के तेजलहेडा गांव की तरफ बढ़ते हैं. चंद किलोमीटर की दूरी तय करते ही हमारी नजर गन्ने के घने खेतों में काम करते छोटे-छोटे बच्चों पर पड़ जाती है. हम उन्हें बुलाकर बात करने की कोशिश करते हैं और जब कुछ तस्वीरें लेते हैं तो उनमें से एक कहता है, ‘हमार फोटू कहे ले तारा जी.’ अभी हम उससे कुछ बात और करना ही चाहते हैं कि एक स्थानीय व्यक्ति वहां आ जाता है और हमें लगभग धमकाते हुए कहता है कि हम बच्चों से क्यों बात कर रहे हैं. हमारे  ‘बस यूं ही’  कहते ही वह चिल्लाने लगता है. स्थिति बिगड़ती देख हम वहां से निकल जाते हैं और सीधा तेजलहेडा पहुंचते हैं.

गांव के प्रधान बालिन्दू चौधरी के घर ही हमें दो बाल मजदूर दिखाई देते हैं. अपने रंग-रूप और बोली में स्थानीय बच्चों से बिल्कुल अलग ये बच्चे हमें पानी पिलाते हैं और इस बीच धीरे से हम उनकी तस्वीर लेते हैं. गांव में घूमते हुए हमें कुछ और बच्चे काम करते या चारा काटते नजर आते हैं.

रास्ते में हम एक स्थानीय किसान से पूछते हैं कि यहां बच्चे बात-बात में डरकर क्यों भाग जाते हैं. वह कहता है कि जाटों, गुर्जरों और त्यागियों के बच्चे कभी किसी से नहीं डरते. पर जोर देकर दूसरी बार पूछने पर वह बताता है, ‘अरे आप बाहर से आए बिहारी बच्चों से मिले होंगे. वे तो हमेशा ही हर किसी से डर के भागते रहते हैं.’

अगवा बचपन, बंधुआ बचपन

दिल्ली में जहांगीरपुरी की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाला 14 साल का महेंद्र सिंह सात अगस्त, 2008 की सुबह रोज की तरह घर से शौच के लिए निकला था. इसके बाद उसका कुछ पता नहीं चला. घरवालों ने उसे तलाशने की न जाने कितनी और कैसी-कैसी कोशिशें कीं, लेकिन सब बेकार गईं. धीरे-धीरे साढ़े तीन साल गुजर गए. एक दिन अचानक महेंद्र अपने घर वापस आ गया. 16 मई, 2012 की उस दोपहर श्याम कली ने जब अपने बेटे को दरवाजे पर देखा तो पहले-पहल तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. इसकी एक वजह तो इतने लंबे वक्त की गुमशुदगी से उपजी नाउम्मीदी थी और दूसरी महेंद्र की हालत. जहांगीरपुरी की संकरी गलियों में बनी अपनी एक कमरे की खोली के फर्श पर बैठी श्यामकली धीरे से कहती हैं, ‘एकदम कचरा बीनने वाले बच्चों की तरह काला हो गया था. शरीर से जैसे मांस पूरा गायब हो गया था, हड्डी का ढांचा भर बचा था. भिखारियों जैसे फटे-पुराने कपड़े पहने था. दरवाजे पर आया तो पड़ोसियों को लगा जैसे कोई बंधुआ मजदूर हो.’ 

लेकिन महेंद्र की घर-वापसी के उन खुशनुमा लम्हों के दौरान उसके परिवार को जरा भी आभास नहीं था कि उनका बेटा वास्तव में बंधुआ मजदूरी के एक दुश्चक्र में फंसा हुआ था. एक ऐसा दुश्चक्र जिसने साढ़े तीन साल तक उसकी जिंदगी नरक बनाए रखी. केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2009 से 2011 के बीच भारत से कुल 1,77,660 बच्चे गायब हो गए. यानी औसतन रोजाना 162 बच्चे. केवल दिल्ली की बात करें तो यहां के लिए यह आंकड़ा 14 बच्चे प्रतिदिन है. गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए ये आंकड़े गरीब भारतीय बच्चों के जिस बदसूरत बचपन की तस्वीर दिखाते हैं उसका सबसे कड़वा पहलू यह है कि लगभग 32 फीसदी बच्चे कभी अपने घर वापस नहीं पहुंच पाते. आंकड़े यह भी बताते हैं कि गुमशुदा बच्चों का पता लगाने के लिए बनवाई गई जिपनेट जैसी वेबसाइटों और जागरूकता फैलाने के नाम पर करोड़ों रुपये के खर्च के बावजूद दिल्ली की हालत इस मामले में सबसे ज्यादा चिंताजनक है. आलम यह है कि इस साल 15 अप्रैल, 2012 तक ही लगभग 1,146 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज करने वाली दिल्ली पुलिस इनमें से 529 बच्चों का कोई सुराग अब तक नहीं ढ़ूंढ़ पाई है. ‘लापता बच्चों की राजधानी’ के तौर पर पहचानी जाने वाली दिल्ली से 2011 में कुल 5,111 बच्चे लापता हुए थे. इनमें से 1,359 बच्चों का आज तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है. ज्यादातर मामलों में ये बच्चे अंग व्यापार या भिखारियों के किसी रैकेट का शिकार हो जाते हैं या फिर मासूम उम्र में ही वेश्यावृत्ति में धकेल दिए जाते हैं.अगस्त, 2008 में महेंद्र को अगवा कर लिया गया था. वह साढ़े तीन साल के बाद मई, 2012 में घर वापस आया. इस दौरान वह हरियाणा के करनाल में बंधुआ मजदूर था.

लेकिन तहलका की यह तहकीकात इस दुश्चक्र की एक अलग और चौंकाने वाली कड़ी सामने लाती है. हमारी पड़ताल बताती है कि किस तरह दिल्ली से बच्चों का अपहरण किया जाता है और सिर्फ तीन-चार हजार रुपये में उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों को बेच दिया जाता है जो अपने खेतों और घरों में इनसे जबरन काम करवाते हैं. मजदूरी की बात तो छोड़ दीजिए उन्हें भरपेट खाना तक नहीं मिलता. ऊपर से तरह-तरह की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है सो अलग. हर साल गुमशुदा बच्चों की बढ़ती संख्या से परेशान केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली पुलिस सहित सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को इस बाबत तमाम दिशानिर्देश जारी किए थे. मगर तहलका की पड़ताल बताती है कि इन दिशानिर्देशों के बावजूद स्थिति अब भी एक बड़ी हद तक दिशाहीनता की ही है. गरीब तबके से ताल्लुक रखने वाले लापता बच्चों को ढूंढ़ने की कवायद अक्सर एफआईआर दर्ज करने से आगे नहीं बढ़ पाती. कई मामलों में तो वह भी नहीं होता.

एक तरह से देखा जाए तो यह गंभीर स्थिति है. एक तो बच्चों का अपहरण हो रहा है, दूसरे उनका शोषण हो रहा है और तीसरे, ऐसा कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा जिससे यह दुश्चक्र टूटे. चौंकाने वाला सच यह है कि यह शोषण उस किसान द्वारा किया जा रहा है जिसकी खुद की छवि ही एक शोषित वर्ग की है. सबसे खतरनाक बात तो यह है कि उसे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता. यानी इतने गंभीर अपराध को लेकर एक तरह से सहज स्वीकार्यता की स्थिति दिखती है. वापस महेंद्र की कहानी पर लौटते हैं. कैसे लापता हुए थे, यह पूछने पर महेंद्र थोड़ा असहज हो जाता है. हम उसे विश्वास में लेने की कोशिश करते हैं. धीरे-धीरे उसके चेहरे और व्यवहार से भय हटने लगता है. वह थोड़ा सहज हो जाता है. अपने सिर और हथेलियों के जख्मों को दिखाते हुए वह अपनी गुमशुदगी की स्याह कहानी सुनाना शुरू करता है. इसके साथ ही दिल्ली की गरीब बस्तियों से आए दिन खो जाने वाले बच्चों की तस्करी करने वाले एक अकल्पनीय रैकेट की तस्वीर साफ होने लगती है. 

सात अगस्त, 2008 की सुबह पांच अज्ञात लोगों ने महेंद्र का अपहरण करके उसे करनाल के एक किसान को बेच दिया था. थोड़ी हिम्मत बांधते हुए वह कहता है, ‘हमारी झुग्गी में टॉयलेट नहीं है न, इसलिए हम लोग रोज सुबह बाहर मैदान में जाते हैं. उस दिन भी मैं टॉयलेट जाने के लिए निकला था. सुबह के लगभग सात बजे थे. थोड़ी दूर जाते ही मैंने चार लड़कों को सामने से आते हुए देखा. वे सब लड़के सफेद दवा (व्हाइटनर) सूंघ रहे थे जो कापी-किताब की दुकानों पर मिलती है. उन चारों ने आकर मेरा मुंह दबाया और मुझे न जाने क्या सुंघा दिया कि मैं बेहोश-सा हो गया. पर मुझे अच्छे से याद है कि उन्होंने मुझे बोरी में भरा था और बांध कर कहीं ले जा रहे थे.’ महेंद्र को जब होश आया तो वह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास था. वहां एक सरदार भी था. वह आगे बताता है, ‘उस सरदार के साथ मेरे ही जैसा एक और लड़का खड़ा था. सरदार ने मुझे समोसा खिलाया और कहा कि अब तू मेरे साथ करनाल चलेगा. मैं रोने लगा तो उसने मुझे जोर से डांट कर चुप करवा दिया. फिर वह मुझे और उस दूसरे लड़के को जबरदस्ती अपने साथ करनाल ले गया. करनाल से हमें संडगांव ले गया. वहीं उसका घर है.’ 

यही वह कैद थी जहां महेंद्र को अगले साढ़े तीन साल बिताने थे. वह बताता है, ‘सबसे पहले हमें खेत, घोड़ी और भैसों का तबेला और कटाई-छिलाई का बरामदा दिखाया गया. फिर उसने हमें बताया कि अब हमें रोज सुबह 4 बजे उठकर भैसों का गोबर उठाना होगा. फिर चारा काटकर उनकी सानी-गोती तैयार करनी होगी. और फिर दिन भर गन्ने के खेतों में काम करना होगा’. हरियाणा के उस दूर-दराज के गांव की एक किलेनुमा कोठी और कड़े पहरे से घिरे खेतों के बीच अचानक फंस चुका महेंद्र अगले साढ़े तीन साल तक वहां से नहीं निकल पाया. 

वक्त बीतने के साथ-साथ महेंद्र को संडगांव का माहौल समझ में आने लगा था. आस-पास के कुछ साथी मजदूरों से बात करने पर उसे समझ में आया कि आखिर उसके साथ हुआ क्या था. एक बंधुआ मजदूर के तौर पर अपनी गुलामी के उन त्रासद महीनों के दौरान अचानक एक दिन महेंद्र को मालूम चला कि अगस्त की उस सुबह उन लड़कों ने उसे सरदार के हाथों 4,000 रुपए में बेच दिया था. अपनी निर्मम दिनचर्या का ब्योरा देते हुए महेंद्र बताता है, ‘मुझे रोज सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले गोबर साफ करना होता था. गोबर की टोकरियां उठा-उठा कर तबेला साफ करता और फिर भैसों के लिए चारा बनाता, तभी चाय मिलती थी. दो रोटी खाकर मैं और शाहनवाज गन्ने के खेतों में काम करने निकल जाते. हमें थोड़ा ही खाना मिलता था. मालिक कहता था कि ज्यादा खाएगा तो मोटा हो जाएगा.’ शाहनवाज वही लड़का है जिससे महेंद्र होश में आने के बाद पहली बार रेलवे स्टेशन के पास मिला था.

महेंद्र बताता है कि संडगांव में उसके जैसे कई बच्चे थे, जिन्हें शहरों से उठवा कर लाया जाता था और फिर उनसे गन्ने के खेतों में मजदूरी करवाई जाती थी. अपने मालिकों के बारे में पूछने पर वह फिर से सहम जाता है. फिर दबी आवाज में कहता है, ‘सरदार का नाम गिज्जा सिंह है. उसके बेटे का नाम दिलबाग सिंह है और बहन का प्रीती सिंह. वे लोग संडगांव के बहुत अमीर किसान हैं. उनकी कोठी के चारों ओर बड़ी-सी बाउंड्री बनी थी, इसलिए मैं भाग नहीं पाता था. उनके पास टाटा सूमो, जीप, मोटरसाइकल सब कुछ था और उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते थे. पर सरदार मुझसे सुबह से लेकर शाम तक फावड़ा चलवाता और मां-बहन की गालियां भी देता. घर का नाम लेने भर से पिटाई करने लगता. हमें मोटर-पंप वाली झुग्गी में सुलाता. पैसों की बात तो दूर, भरपेट खाना भी नहीं देता था. 

फिर मई, 2012 की एक दोपहर सरदार ने महेंद्र और शाहनवाज को बीज खरीद कर लाने के लिए 15,00 रुपये देकर भेजा. मौका पाते ही दोनों लड़के वहां से भाग निकले. महेंद्र को लगता है कि साढ़े तीन साल की कैद के बाद शायद सरदार को विश्वास हो गया होगा कि वे लोग भाग नहीं सकते. वह आगे बताता है, ‘जिस दिन हम भाग कर आए उसी दिन सरदार का बेटा एक नए लड़के को उठवा कर लाया था. वह मुझसे भी छोटा था, शायद 13-14 साल का. मुझे याद है सरदार का बेटा कह रहा था कि वो ‘नया भैया’ लेकर आया है. वहां ऐसे ही चलता है. वहां के पैसे वाले किसान शहरों से बच्चों को उठवाकर ले जाते हैं और उनसे गन्ने के खेतों और तबेलों में काम करवाते है. इधर दिल्ली के जहांगीरपुरी में महेंद्र के माता-पिता उसे तीन साल से लगातार ढ़ूंढ़ रहे थे. वे स्थानीय थाने के चक्कर लगाते रह, पर उनके बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज होने में भी साल भर का समय लग गया. एक जर्दा कंपनी में मजदूरी करने वाले महेंद्र के पिता राम रतन सिंह तहलका को बताते हैं, ‘जिस दिन गुम हुआ था उसी दिन दौड़े-दौड़े जहांगीरपुर थाना गए थे. वहां जो लेडी बैठी थी उन्होंने मेरे पास मौजूद कुल जमा 200 रु मुझसे लेते हुए कहा कि बर्फी खिलाओगे तभी रिपोर्ट लिखेंगे. बड़ी मुश्किल से उन्होंने डायरी में एंट्री की और कहा कि खुद ही ढूंढ लो बच्चा. कहते-कहते साल गुजर गया तब जाकर 2009 में मेरे बच्चे के गुमशुदा होने की एफआईआर दर्ज हो पाई.’ 

महेंद्र के घर वापस आने के बाद भी उसके पिता थाने गए और अपने बच्चे के अपहरण, तस्करी और उससे करवाई गई बंधुआ मजदूरी के खिलाफ लिखित में शिकायत भी दर्ज करवाई पर पुलिस ने अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है. राम रतन आगे बताते हैं, ‘मैं इसे ढ़ूंढ़ने हरिद्वार तक गया. सभी चौराहों पर पोस्टर चिपकाए और हर आदमी से पूछा कि मेरे बच्चे को देखा है क्या. पर पुलिस ने उसे ढूंढ़ने में हमारी कभी कोई मदद नहीं की. उसके लौट आने के बाद जब मैंने जहांगीरपुरी थाने में अधिकारियों से मामले की तफ्तीश करने के लिए कहा तो उनका कहना था कि पहले गाड़ी का इंतजाम करवाओ.’ लेकिन यह बरसात की एक सुबह अपने घर से निकले सिर्फ एक बच्चे के बंधुआ मजदूर बनाए जाने की कहानी नहीं है. तहलका की पड़ताल बताती है कि दिल्ली से रोज गायब होने वाले 14 बच्चों में से कई ऐसे होते हैं जिन्हें राजधानी की झुग्गियों से उठाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गन्ना किसानों को बेच दिया जाता है.

दिल्ली से बड़ी संख्या में लापता हो रहे इन बच्चों के बारे में एक सामान्य जांच-पड़ताल के दौरान तहलका को झुग्गी बस्तियों से गुमशुदा हुए ऐसे कई बच्चों की कहानियां मिलीं जिनका अपहरण करके उन्हें गन्ना पट्टी के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, बागपत और करनाल जैसे जिलों के गन्ना किसानों को बेच दिया गया था. इन सभी बच्चों की तस्करी गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूरी करवाने के लिए की जा रही थी. यह जमीनी पड़ताल इन शहरी एजेंटों और ग्रामीण बिचौलियों के एक कमोबेश बिखरे लेकिन आपस में जुड़े हुए नेटवर्क की तीन अलग-अलग परतों को उजागर करती है. राजधानी से लेकर मुजफ्फरनगर और सहारनपुर के दूरस्थ गांवों तक फैले इस नेटवर्क की पहली परत में मौजूद अपहर्ता दिल्ली की गरीब बसाहटों से बच्चों का अपहरण करके उन्हें गन्ना पट्टी के कस्बों तक ले जाते हैं. फिर दूसरी परत के ग्रामीण बिचौलिये इन बच्चों को इनके अंतिम ग्राहक तक पहुंचाते हैं और इन्हें गन्ना किसानों के पास बंधुआ मजदूरों के तौर पर बेच दिया जाता है. इन बच्चों का अंतिम ‘ग्राहक’ किसान इस पूरे नेटवर्क को उसके हिस्से का कमीशन देता है जो आम तौर पर 4,000 -5,000 रुपए के आस-पास होता है.

हम दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के अंतिम छोर पर बसे बदरपुर की धूल भरी बस्तियों में हैं. बदबू से भभकती कई आवासीय बस्तियों, गंदले नालों और कबाड़ से भरे खुले मैदानों को पार करके हम एक छोटे-से कस्बाई बाजार जैसी एक जगह पहुंचते हैं. वहां एक छोटी-सी कपड़े की दुकान में बैठकर हम दीपक साहू का इंतजार करने लगते हैं. दुकान के सामने बनी कच्ची सड़क से लगातार भैंसागाड़ियां गुजर रही हैं. कबाड़ से भरे खुले मैदानों की धूल सीधे दुकान में दाखिल हो रही है. लगभग एक घंटे बाद, अपने दोनों हाथों में कपड़ों के बंडल लिए दीपक दुकान पर पहुंचता है. सांवले रंग, दुबली-पतली कद-काठी और बड़ी-बड़ी आंखों वाला दीपक 16 साल की अपनी उम्र के किसी भी सामान्य लड़के की तरह दिखता है. मगर जैसे ही वह अपनी नजरें उठाता है, उसकी आंखों में पसरा एक अजीब-सा खालीपन साफ महसूस किया जा सकता है. 

मार्च, 2011 की एक सुबह दीपक हमेशा की तरह अपने दोस्तों के साथ खेलने निकला था. घूमने का मन हुआ तो सभी दोस्त आपस में टहलते हुए पास ही के तुगलकाबाद स्टेशन तक पहुंच गए. शाम ढलने लगी तो दीपक घर जाने लगा. लेकिन दुर्भाग्य से वह अगले एक साल तक अपने घर नहीं पहुंच पाया. आज वह कपड़ों का एक नया धंधा शुरू करने में अपने पिता का हाथ बंटा रहा है. उसकी शिक्षा सिर्फ सातवीं कक्षा तक हुई है. पहले वह आगे पढ़ना चाहता था. पर एक बार अपनी जिंदगी की धुरी खो देने के बाद से उसके अंदर पढ़ने, खेलने जैसी सामान्य इच्छाएं अपने आप समाप्त सी हो गई हैं. अब वह बस अपने पिता की किराये की दुकान संभालना और खामोश रहना चाहता है. दीपक का अपहरण करके उसे मुजफ्फरनगर के एक गांव में बेच दिया गया था. दिल्ली से 120 किलोमीटर की दूरी पर बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस जिले को ‘चीनी का कटोरा’ भी कहा जाता है. यह पूरा क्षेत्र साल भर गन्ने की अलग-अलग फसलों से लहलहाता रहता है. दीपक को अगवा करने और फिर उसकी तस्करी करके उसे बंधुआ मजदूर के तौर पर बेचने का पूरा तरीका महेंद्र की तस्करी की कहानी से कहीं ज्यादा क्रूर और दुस्साहसिक था.

दुकान में पिता के साथ बैठा हुआ दीपक धीरे-धीरे अपनी कहानी सुनाना शुरू करता है, ‘जब अंधेरा होने लगा और ठंड बढ़ने लगी तब मुझे एहसास हुआ कि कितना टाइम निकल गया है. मैं घर जाने के लिए निकल ही रहा था कि मुझे चार आदमी अपनी तरफ बढ़ते हुए नजर आए. उन्होंने मुझे दबोचा और घसीट कर एक मोटरसाइकिल पर बैठा लिया. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, उन्होंने मुझे दो आदमियों के बीच में बैठाकर गाड़ी भगानी शुरू कर दी. जब मैं चिल्लाया तो उन्होंने मेरे मुंह पर एक मोटा-सा कपड़ा बांध दिया. उसके बाद न जाने क्या हुआ कि मैं बेहोश-सा होने लगा. जब पूरी तरह आंख खुली तो हम मुजफ्फरनगर के एक गांव में थे. बाद में पता चला कि वो मुझे बाइक से ही मुजफ्फरनगर के खिंदड़िया गांव में ले गए थे.’  

मुजफ्फरनगर में पहले ही दिन दीपक को सबसे पहले उसका काम समझाया गया. उसके काम में भैसों के तबेले का ध्यान रखना, गोबर साफ करना और गन्ने की कटाई-छिलाई शामिल था. बंधुआ मजदूरी के उस पहले दिन को याद करते हुए वह आज भी सिहर जाता है. अपनी उम्र के विपरीत, उसके चेहरे पर अवसाद की एक गहरी छाया झूलती रहती है. लगभग बुदबुदाते हुए वह आगे जोड़ता है, ‘मुजफ्फरनगर जिले में एक छपार गांव है. खिदड़िया उस गांव से लगभग 8-10 किलोमीटर अंदर जाने पर पड़ता है. वह गांव इतना दूर है और ऊंचे-ऊंचे गन्ने के खेतों से घिरा हुआ है कि कोई लाख कोशिश करने पर भी वहां से नहीं भाग सकता. गाड़ी वाले लड़के सीधे मुझे पंडित राम कुमार के घर ले गए और बोले कि अब से यही तेरा मालिक है. मेरे जैसे कई और बच्चे भी उस गांव में गन्ने के खेतों में काम करते हैं.’ खिंदड़िया में दीपक के साथ एक रंजीत नाम का आदमी भी काम करता था. वह शादीशुदा था और उम्र में दीपक से लगभग 10 साल बड़ा भी. रंजीत ने ही दीपक को पहली बार यह बताया था कि उसे खरीद कर बंधुआ मजदूर बनाया गया है. दीपक कहता है, ‘पंडित राम कुमार खिंदड़िया का बहुत अमीर और बड़ा किसान था. रंजीत ने ही मुझे बताया कि दिल्ली और बिहार से मेरे जैसे कई लड़कों को 3,000 से 4,000 रुपयों में खरीदकर लाया जाता है ताकि उनसे गन्ने के खेतों में काम करवाया जा सके. ऐसे कई बच्चे पास के सिमराती, तेजलहेड़ा और छपार गांव में भी मौजूद हैं. रंजीत कह रहा था कि इनमें से कई तो 7-7 साल तक यहां से बाहर नहीं निकल पाते.’

पर दीपक खुशकिस्मत था. 26 फरवरी, 2012 की सुबह किसी तरह वह वहां से भागने में सफल रहा. पर बंधुआ मजदूरी के इस एक साल ने उससे उसके बाएं हाथ की एक उंगली छीन ली. अपनी कटी हुई उंगली दिखाने के लिए वह जैसे ही अपना हाथ बढ़ाता है, उसके पिता रोने लगते हैं. दीपक बताता है कि मालिक उससे जरूरत से ज्यादा चारा कटवाता था. एक दिन जल्दबाजी की वजह से उसकी उंगली मशीन के ब्लेड से कट गई. राम कुमार के घर के माहौल के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता है, ‘वे सब बहुत खतरनाक लोग हैं. घर जाने का जिक्र भी करो तो मारने लगते थे. उनके पास एक बंदूक थी जिसे बात-बात पर दिखाते रहते थे. मैं सुबह 4 बजे से काम में लग जाता था.’ 

बातों ही बातों में अचानक दीपक एक चौंकाने वाला तथ्य उजागर करते हुए कहता है, ‘दिल्ली और बिहार से आए हुए कई बच्चे इन गांवों में रहते हैं. लेकिन ये लोग अपने घरों में रहने वाले कई बंधुआ मजदूरों के पैरों में सांकल डाल कर रखते हैं ताकि वे भाग न पाएं. पंडित राम कुमार के पड़ोस वाले घर में भी दो बच्चे रहते थे हमने कई बार एक-दूसरे से बात करने की कोशिश की पर हमारे मालिक हमें कभी बात नहीं करने देते थे. साथ में खड़े हुए देख लिया तो भी पिटाई होती थी. वहां की पुलिस भी उनसे मिली हुई थी. कोई बच्चा भागने की कोशिश करता तो पुलिसवाले उसे पकड़ कर वापस किसानों के पास भेज देते थे.’  

दूसरी तरफ दिल्ली में दीपक के माता-पिता उसे बदहवास होकर ढ़ूंढ़ रहे थे. उसके पिता भजन साहू तहलका को बताते हैं, ‘इसके खोते ही हम दौड़े-दौड़े पास के सराय ख्वाजा पुलिस स्टेशन (चौकी-पल्ला) गए. पुलिसवालों ने कहा कि तुम्हारा लड़का नशा करता होगा और ऐसे ही कहीं भाग गया होगा. काफी चक्कर लगाने के बाद आखिर उन्होंने मामला तो दर्ज कर लिया पर मेरे लड़के को ढूंढ़ने के लिए कुछ नहीं किया. मेरे पास जितना भी पैसा था वह सब कुछ मैंने उसे ढूंढ़ने में लगा दिया. फिर अचानक एक दिन बच्चे का फोन आया. उसने बताया कि वह मुजफ्फरनगर में है. हम लोगों को ठीक से समझ में नहीं आया और हम उसे ढूंढ़ने मुजफ्फरपुर पहुंच गए. वह वहां मिला नहीं. फिर कुछ दिनों बाद उसका वापस फोन आया तो हमें पता चला कि वह मुजफ्फरनगर में है.’ 

 दीपक ने अपने माता-पिता से रंजीत के मोबाइल फोन से बात की थी. साहू ने उसके फोन आने की सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी पर उन्होंने यह कहकर उन्हें टाल दिया कि अगर अगली बार फिर से फोन आए तब बताना. कुछ दिन बाद दीपक के मालिक ने उसे रंजीत को साइकिल से स्टेशन छोड़कर वापस आने के लिए कहा. मौका पाते ही उसने साइकिल स्टेशन पर छोड़ी और दिल्ली की बस पकड़ कर भाग निकला. भजन साहू बताते हैं, ‘उसने हमें मुजफ्फरनगर से फोन करके बताया कि वह वापस आ रहा है. उसके वापस आने के बाद मैंने पुलिस स्टेशन जाकर अधिकारियों से मामले की तहकीकात करने को कहा पर आज तक पुलिस ने मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है.’

महेंद्र और दीपक के गायब होने की रिपोर्ट पुलिस ने बर्फी खाने, थाने के दसियों चक्कर लगवाने और बहुत सारा बहुमूल्य समय बेकार करने के बाद लिखी. जब वे किसी तरह घर लौट आए तो पुलिसवाले उनकी जानकारी के आधार पर न केवल अपराधियों को गिरफ्तार कर सकते थे बल्कि शायद इसके बाद कई बच्चों का अपहरण होने से भी रोक सकते थे. मगर पुलिस ने आपराधिक उदासीनता दिखाते हुए कोई कार्रवाई ही नहीं की. बावजूद इसके कि गृह मंत्रालय से लेकर दिल्ली हाई कोर्ट तक ने बच्चों के लापता होने की बाबत कड़े दिशोनिर्देश जारी कर रखे हैं. सितंबर, 2009 के अपने एक निर्णय में दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस महकमे को निर्देश देते हुए कहा थाः

 

  •  किसी बच्चे के गुमशुदा होने की स्थिति में स्थानीय पुलिस के लिए एफआईआर दर्ज करना जरूरी है.
  •  पीड़ित परिवार को दिल्ली लीगल सर्विसेस अथॉरिटी की तरफ से कानूनी मदद दी जाएगी.
  •  यदि किसी भी बच्चे को रेस्क्यू ऑपरेशन के तहत बचाया जाता है या वह खुद वापस आ जाता है तो जांच अधिकारियों को पूरे मामले की पड़ताल करनी चाहिए.
  •  पड़ताल में संगठित गिरोहों की भूमिका के साथ-साथ बंधुआ मजदूरी और वेश्यावृत्ति जैसी बातों की जांच करना भी जरूरी है. 

 

पर पुलिसिया तहकीकात का ढर्रा नहीं बदला. सितंबर, 2010 में दिल्ली लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ने दिल्ली पुलिस की खिंचाई करते हुए एक रिपोर्ट दिल्ली हाई कोर्ट में पेश की. इसके तुरंत बाद 20 सितंबर, 2010 को जस्टिस मनमोहन की एकल बेंच ने दिल्ली पुलिस को जबरदस्त फटकार लगाई थी.  कोर्ट का कहना था, ‘पुलिस इस अदालत द्वारा 16.09.09 को दिए आदेश के मुताबिक निर्धारित कर्तव्यों को पूरा नहीं कर रही है. उसकी तफ्तीश में गंभीरता की भारी कमी है.’  

दिल्ली के बदरपुर और जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रों से हमेशा ही बच्चों के लापता होने की सबसे ज्यादा खबरें आती रही हैं. लेकिन पिछले पांच साल में राजधानी में ऐसी गतिविधियों के केंद्र लगातार बदलते रहे हैं. 2008-09 के दौरान बच्चों की गुमशुदगी के सबसे ज्यादा मामले बाहरी दिल्ली में दर्ज हुए थे तो 2010 के आस-पास यह केंद्र उत्तर-पूर्वी दिल्ली हो गया. 2011 में सबसे ज्यादा मामले दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के बदरपुर, मीठापुर, खड्डा कालोनी और संगम विहार जैसे क्षेत्रों में दर्ज हुए. इधर अप्रैल, 2012 तक के आंकड़े इस साल जहांगीरपुरी, आदर्शनगर और आजादपुर जैसे क्षेत्रों को लापता होने वाले बच्चों के नए गढ़ के तौर पर स्थापित कर रहे हैं. 

साल दर साल उठाईगीर गिरोहों और तस्करों के जाल में फंसकर अपना बचपन गंवाने वाले बच्चों की संख्या में इजाफा होता गया है और आज दिल्ली गुमशुदा बच्चों की नई राजधानी में तब्दील हो गई है. लेकिन सामान्य गुमशुदगियों से इतर, दिल्ली के मुकुंदपुर के रहने वाले पवन कुमार की कहानी बच्चों को अगवा करके उन्हें चीनी पट्टी में बेचने वाले इस नए चलन का सबसे भयावह उदाहरण है. 

17 वर्षीय पवन कुमार से मिलने के लिए हमें काफी कोशिशें करनी पड़ती हैं. दिल्ली के मुकुंदपुर इलाके में रहने वाले पवन के माता-पिता को अब हर अजनबी से डर लगता है. वे लगभग डेढ़ साल तक बंधुआ मजदूरी करने के बाद घर लौटे अपने बेटे से हम जैसे किसी बाहरी को मिलने नहीं देना चाहते.

एक हफ्ते बाद की गई हमारी दूसरी कोशिश कामयाब होती है. पवन के माता-पिता अपने बच्चे से हमारी बात करवाने के लिए राजी हो जाते हैं. पवन के पिता हनुमान रिक्शा चलाते हैं और उनका परिवार एक कमरे के किराये के घर में रहता है. उस अंधेरे-से कमरे में दाखिल होते ही पवन हमें देखकर नमस्ते करता है. उसके व्यवहार में सहजता है पर सामने खड़े हुए उसके माता-पिता बहुत घबरा रहे हैं. उनको आश्वस्त करके जैसे ही हम बात शुरू करते हैं, पवन शुरुआत में ही एक चौंकाने वाली बात बताता है. वह कहता है कि उसे दो बार बेचा गया था. दो फरवरी, 2011 की सुबह पवन अपने घर से बुराड़ी नाम के इलाके की तरफ निकल गया था. यहां से उसे छह लड़कों ने अगवा कर लिया. वह बताता है, ‘एक दिन बस यूं ही घर से गुस्से में निकल गया था. जैसे ही बुराड़ी पहुंचा छह लड़कों ने मुझे जबरदस्ती एक बाइक पर बैठा लिया. जब मैंने चिल्लाना शुरू किया तो उन्होंने मेरा मुंह एक गमछे से दबा दिया और कहने लगे कि काम दिलवाने ले जा रहे हैं. वहां से मुझे सीधे मेरठ के पास गोविंदपुरी गांव ले गए. पहली रात को उन्होंने मुझे किसी ऑफिस में बंद करके रखा और अगले दिन प्रीतम सिंह शर्मा और संजय सिंह शर्मा के यहां छोड़ दिया. ये लोग वहीं गोविंदपुरी में गन्ना किसानी करते हैं. मुझे बताया गया कि अब यही मेरा घर है और प्रीतम सिंह शर्मा मेरा मालिक. फिर वो बाइक वाले लड़के मुझे छोड़ कर चले गए. मेरठ के खेतों में मैं सुबह और शाम 6-7 घंटे गन्ना छीला करता था. वो लोग सुबह-शाम मुझे रोटी देते थे. मुझे सख्त पहरे में रखा था जिससे कि मैं भाग न जाऊं.’ 

लेकिन पवन लगभग आठ महीने बाद वहां से भाग निकला. वह दिल्ली जाने के लिए सीधा मेरठ रेलवे स्टेशन गया. मगर वहां उसे फिर से 10 आदमियों ने दबोच लिया. पवन बताता है कि उनके पास पहले से उसके जैसे दो और लड़के थे. इसके बाद पवन के साथ जो हुआ वह दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना क्षेत्र के किसानों के बीच मौजूद गठजोड़ का पुष्ट प्रमाण है. पवन की कहानी बिचौलियों और एजेंटों के बहुपरतीय नेटवर्क को भी बारीकी से सामने रखती है. पवन को बाइक पर बैठाकर बागपत ले जाया गया. वह बताता है, ‘बागपत में जहां उसने गाड़ी रोकी वहां एक राशन की दुकान थी और सामने बहुत सारे ऑटो खड़े हुए थे. दुकानवाला बार-बार किसी को फोन कर रहा था. दो घंटे बाद एक आदमी आया और वह हम तीनों लड़कों को बड़ौत ले गया. उसने गाड़ी बड़ौत ट्रैक्टर एजेंसी पर रोकी. वहां पर पहले से दो और बच्चे मौजूद थे. हमें उन्हीं के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया. अंदर बैठे हुए एक लड़के ने मुझे कहा कि इन लोगों के साथ मत जाना वरना ये बहुत मारेंगे और कभी वापस नहीं आने देंगे. मैं उससे कुछ और पूछता इससे पहले ही मुझे वहां से घसीटकर बाहर निकाला गया और फिर से बाइक पर बैठाकर किशनपुर बिराल ले जाया गया. बाकी बच्चे वहीं छूट गए, उनका क्या हुआ यह मुझे भी नहीं पता. किशनपुर बिराल से मुझे फतेहपुर चक गांव ले जाया गया. वे लोग मुझे विक्रम सिंह दरोगा के घर छोड़ चले गए. उसका घर पानी की टंकी के पास है.’  

मेरठ में आठ महीने काम करने के बाद पवन ने फतेहपुर चक में भी करीब पांच महीने काम किया. पवन बताता है कि फतेहपुर चक के आस-पास मौजूद सभी गांवों में उसके जैसे बच्चे बंधुआ मजदूरी करते थे. वह बताता है कि पड़ोस के इब्राहिमपुर माजरा और बूढ़पुर गांवों में उसके जैसे बहुत-से बच्चे बंदियों जैसा जीवन गुजार रहे हैं. महेंद्र और दीपक की ही तरह, पवन के साथ भी सुरजीत और राजू नाम के दो लड़के काम करते थे. सुरजीत ने उसे बताया था कि उसे 2,500 रु में खरीदा गया है. वहां काम कर रहे बच्चों की हालत बताते हुए वह कहता है, ‘वह सारे गांव बहुत हराम  हैं, दीदी.’ अगर बच्चे भागने की कोशिश करें तो उसके पीछे कुत्ते छोड़ देते थे. और भाग कर जाते भी तो कहां? वहां सारे ही गांव में लोग बच्चे पकड़ते हैं और 3,000-3,000 रुपये में लड़के ढूंढ़ते रहते हैं. एक गांव से भागो तो दूसरे में पकड़ लेंगे.’

पवन के साथ त्रासदी यह हुई कि इस बंधुआ मजदूरी और गन्ने के खेतों में जारी छिलाई-कटाई के दौरान वह अपना घर का फोन नंबर भूल गया था. पांच महीने बाद अचानक उसे अपना नंबर याद आया तो किसी तरह सेे उसने अपने माता-पिता को फोन कर दिया. दीपक के पिता हनुमान कहते हैं, ‘उसने हमें पास के इब्राहिमपुर माजरा गांव में बुलाया ताकि किसी को शक न हो. पहले तो हमें लगा कि उस दरोगा के घर जाकर पूछें कि उसने हमारे बेटे को बंधुआ मजदूर क्यों बनाया पर पवन ने ही मना कर दिया. कह रहा था कि वे सब बहुत खतरनाक लोग हैं. हम वहां पहुंच ,गए और वह हमें गांव के स्कूल के पास मिल गया. हम लोग उसे लेकर तुरंत दिल्ली भागे. हमें लगा था कि पुलिस मेरे बेटे के अपराधियों को सजा देगी पर आज तक मामले में कोई छान-बीन ही नहीं हुई है. आज तक डरते हैं कि कहीं कोई फिर से हमारे बेटे को हमसे छीन कर न ले जाए.’

महेंद्र, दीपक और पवन की ये झकझोर देने वाली कहानियां हमें इस मसले से जुड़े एक बड़े सवाल की ओर ले जाती हैं. आखिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गन्ना किसान, दिल्ली की गरीब झुग्गी बस्तियों के बच्चों को खरीद कर, उनसे बंधुआ मजदूरी करवाने के इस नए तस्करी रैकेट का हिस्सा क्यों और कैसे बन रहे हैं? इन सभी बच्चों द्वारा बताए गए घटनाक्रमों से यह भी स्पष्ट होता है कि इस समस्या की जड़ें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की गन्ना पट्टी में बहुत गहरे तक फैली हैं. गन्ना पट्टी में बंधुआ मजदूरी कर रहे बच्चों की जमीनी हकीकत और समस्या के फैलाव का पता लगाने के लिए तहलका की टीम ने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और बागपत के कुछ गांवों का दौरा करने का फैसला किया. इस दौरे के लिए गन्ना पट्टी के गांवों का चयन मोटे तौर पर दीपक, पवन और महेंद्र के बयानों के आधार पर किया गया. यहां गैरकानूनी रूप से काम कर रहे बंधुआ मजदूर बच्चों का पता लगाने के लिए हम गन्ना किसानी पर शोध करने वाले एक गैरसरकारी संगठन के प्रतिनिधि बनकर गए. दौरे के लिए एक ओर जहां बागपत से फतेहपुर चक, इब्राहिमपुर मांजरा और जोधी गांव को चुना गया वहीं मुजफ्फरनगर में खिंदड़िया, तेजलहेड़ा और सिमराती गांवों को चुना गया. साथ ही सहारनपुर के बंधेड़ा-खास गांव का भी हमने दौरा किया.

इन इलाकों में जाने के लिए जून के आखिरी हफ्ते का समय निश्चित किया गया ताकि ‘ऑफ सीजन’ में भी खेतों में मौजूद बच्चों का पता लगाया जा सके. गौरतलब है कि गन्ने की कटाई और पेराई से जुड़े सभी काम अक्टूबर-नवंबर में शुरू होते हैं और फरवरी-मार्च तक खत्म हो जाते हैं. सूत्रों के अनुसार इस दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की गन्ना पट्टी के अंतर्गत आने वाले गांवों में भारी संख्या में बाल मजदूर लाए जाते हैं. इनमें से ज्यादातर को गन्ना कटाई के दौरान बढ़ने वाले काम के लिए ही लाया जाता है. जो बाहरी बच्चे जून के महीनों में भी खेतों में काम करते हुए दिख गए वे गन्ना कटाई और पशुपालन में लंबे समय से फंसे हुए स्थायी बंधुआ मजदूर होते हैं. जून के आखिरी हफ्ते में इस तहकीकात के दौरान तहलका की टीम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सात गांवों में घूमी. इस दौरान हमने मजदूरी करते हुए करीब तीस बच्चों को देखा (स्टोरी के आखिर में दिया गया लिंक देखें). इनमें से कुछ बच्चों से बातचीत के साथ-साथ उनकी तस्वीरें भी जुटाई गईं. ज्यादातर बच्चों को उनकी भाषा, उच्चारण, हुलिये और हाव-भाव के आधार पर चिह्नित किया गया. जाहिर है, यह मापदंड उन्हीं बच्चों पर लागू हुए जो गन्ने के खेतों में काम कर रहे थे या फिर बड़े किसानों के घरों में चारा काट रहे थे. गौरतलब है कि बंधुआ मजदूरी के लिए 14 से 16 साल तक के बच्चे गन्ना किसानों की पहली पसंद हैं. स्थानीय सूत्र बताते हैं कि यह एक ऐसी उम्र होती है जब बच्चा गन्ने की कटाई-छिलाई करने लायक बड़ा तो हो जाता है पर उसे डरा-धमकाकर, आसानी से काबू में भी रखा जा सकता है. वह बंधुआ मजदूरी करने में तो सक्षम हो जाता है पर विरोध करने लायक ताकतवर नहीं होता.

बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने वाली गैरसरकारी संस्था ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी की मानें तो शहरी बच्चों को अगवा करके उनसे गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूरी करवाने का यह खतरनाक ट्रेंड पुलिसिया लापरवाही और अधपकी विकास योजनाओं का मिला-जुला नतीजा है. वे कहते हैं, ‘ये घटनाएं मनरेगा और ‘सड़क बनाओ’ जैसी जनहित योजनाओं की अदूरदर्शिता को हमारे सामने रखती हैं. मनरेगा जैसी योजनाओं के आने के बाद खेतिहर मजदूर बड़ी संख्या में इनसे जुड़ गए और खेतों में मजदूरी करने वाले लोगों का टोटा हो गया. स्थानीय बच्चों को बंधन में रखने पर उनके भाग जाने या उनके माता-पिता द्वारा शोर मचाए जाने की ज्यादा संभावना होती है. इसलिए गन्ना किसान दिल्ली से बच्चे मंगवाते थे. कुछ साल पहले तक इन खेतों में बिहार और बंगाल के खेतिहर मजदूर काम किया करते थे. अब जब दिल्ली से सटे किसानों को वही बिहारी बच्चे दिल्ली की झुग्गी बस्तियों से मिल रहे हों तो फिर दूर जाने की क्या जरूरत? इसी वजह से आज दिल्ली के गरीब बच्चों की पानीपत, सोनीपत और करनाल से लेकर बागपत, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर तक तस्करी होती है.’ पिछले कई दशकों से बाल मजदूरी को रोकने के अभियान से जुड़े सत्यार्थी  तस्करी के इस पूरे मकड़जाल के लिए पुलिस प्रशासन को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘बीट ऑफिसर और स्थानीय सर्कल अधिकारी सबसे ज्यादा दोषी हैं. सबसे ज्यादा शर्म की बात है यह सब अगर राजधानी दिल्ली के बच्चों के साथ हो सकता है तो आप बाकी देश के हालात का खुद ही अंदाजा लगा लीजिए.’ तहलका ने इब्राहिमपुर माजरा, फतेहपुर चक, सिमराती और खिंदड़िया के बीच बने कच्चे मार्ग पर कई बाहरी मजदूर बच्चों को चिह्नित किया. साथ ही तेजलहेड़ा और बंधेड़ा-खास गांवों में भी हमें कई बाहरी बच्चे मजदूरी करते हुए मिले. इन सभी मजदूर बच्चों का चेहरा-मोहरा, कद-काठी और भाषा स्थानीय लोगों से बिल्कुल अलग थी. अपनी बोली में पुरबिया और अपने वर्ण में आदिवासियों का सा पुट लिए हुए ये बच्चे बात-बात में डर कर भाग जाते थे (इनमें से कुल आठ बच्चों की तस्वीरें और वीडियो फुटेज तहलका के पास मौजूद हैं).

‘वहां सारे ही गांव में लोग बच्चे पकड़ते हैं और 3,000-3,000 रुपये में लड़के ढूंढ़ते रहते हैं. एक गांव से भागो तो दूसरे में पकड़ लेंगे’

बातचीत के दौरान ज्यादातर किसानों ने खेतिहर मजदूरों की भारी कमी की शिकायत करते हुए स्वीकार किया कि उन्हें अपना काम चलाने के लिए बाहर से मजदूर मंगवाने पड़ते हैं. बंधेड़ा-खास गांव के कुछ किसानों ने तहलका से बातचीत में स्वीकार किया कि उनके क्षेत्र में मजदूर मंगवाने के लिए बिचौलिये और दलाल मौजूद हैं. किसानों ने यह भी बताया कि एजेंट एक मजदूर का 4,000 रुपये कमीशन लेता है. यह बातचीत (स्टोरी के आखिर में दिया गया लिंक देखें) महेंद्र, दीपक और पवन की कहानियों को और पुष्ट कर देती है. 

बचपन बचाओ आंदोलन के साथ मिलकर दिल्ली के गुमशुदा बच्चों पर काम करने वाले दीनानाथ चौहान बताते हैं कि दिल्ली के बच्चों को गन्ना पट्टी में बेचने के बारे में उन्हें भी लगभग डेढ़ साल पहले पता लगा था. सोनू नाम के एक ऐसे ही 16 वर्षीय बच्चे का किस्सा बताते हुए वे कहते हैं, ‘मूलतः गोरखपुर का रहने वाला सोनू दिल्ली के प्रेमनगर-नांगलोई क्षेत्र में रहता था. उसे अपनी कालोनी की सड़क से ही अगवा कर लिया गया था. जब उसे होश आया तो वह मेरठ के बड़ला-12 नाम के गांव में था. भागने से पहले उसे वहां रहने वाले मास्टर आनंद के घर 16 महीने तक मजदूरी करनी पड़ी. वह भी गन्ने के खेतों में ही काम करता था. जब वह घर वापस आया तो उसने स्थानीय पुलिस को बताया कि उस गांव में उसके जैसे सैकड़ों बच्चे हैं जिन्हें बंधुआ बना लिया जाता है. पर मामले में कोई पुलिसिया तहकीकात नहीं हुई.’

इस पूरे मामले में जब तहलका ने दिल्ली पुलिस आयुक्त (अपराध और एंटी-ट्रैफिकिंग यूनिट) अशोक चांद से बात की तो उन्होंने मामले को बस इतना कहकर टालना चाहा कि कानून के हिसाब से सारी तहकीकात शुरू हो जाएगी. पर जब हमने उन्हें तहलका की इस तहकीकात के बारे में बताते हुए महेंद्र, दीपक और पवन के बयानों की जानकारी दी तो उनका बस इतना ही कहना था, ‘आपकी तहकीकात बहुत जरूरी है. ऐसे काम होते रहने चाहिए. मुझे पूरा विश्वास है कि संबंधित क्षेत्र के मुख्य पुलिस अधिकारियों ने इन मामलों में तहकीकात की होगी और अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें इस बात के आदेश दिए जाएंगे.’ 

दिल्ली के लापता बच्चों को बचाने के लिए दिए गए हाई कोर्ट के तमाम आदेशों और बंधुआ मजदूरी करवाने वाले बिचौलियों की धरपकड़ के लिए जारी गृह मंत्रालय के तथाकथित ‘कड़े’ दिशानिर्देशों के बावजूद दिल्ली पुलिस बेपरवाह है. यही वजह है कि सिर्फ दो-तीन हजार रुपये के लिए अपहरण करके बच्चों को गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूर बनवाने वाले बिचौलियों और गन्ना किसानों का बदसूरत गठजोड़ खूब फल-फूल रहा है. और न जाने कितने ही मासूमों की जिंदगियां नरक बनकर रह गई है.

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कल्कि कथा

मई के आखिरी हफ्ते की एक शाम जब वह साड़ी में कांस के लाल कालीन पर चल रही थी, तब उसे देखकर कम ही लोग सोच सकते होंगे कि कुछ घंटे पहले यह लड़की कुरते और जींस में कांस की गलियों में घूम रही होगी, बिना नहाए, बिना मेकअप किए और बिखरे बालों में. यह तो शायद कोई नहीं सोच सकता होगा कि इससे पिछली बार जब वह कांस में थी तो एक थियेटर स्टूडेंट थी और नोकिया के फोन बेच रही थी. यही कल्कि कैकलैं है, जिसका नाम हम अक्सर ठीक से उच्चारित नहीं कर पाते, और जो हिंदी सिनेमा की हीरोइन के बहुत सारे स्टीरियोटाइप तोड़ती है. वह गोरी है और उसे देखने और मिलने वाले बहुत सारे लोगों की तरह आप उसे विदेशी समझ सकते हैं. तब आप ‘शंघाई’ के इमरान हाशमी की तरह उससे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात कर सकते हैं या बहुत-से हिंदुस्तानियों की तरह उससे ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ का वैसा बर्ताव कर सकते हैं, जैसा वे अनजान शहर में अकेली विदेशी लड़की को देखकर करते हैं. लेकिन तब वह शुद्ध हिंदी या तमिल में आपको गाली दे सकती है और इस तरह आपको समझा सकती है कि वह गोरी है, लेकिन विदेशी या नाजुक नहीं. 

अपने देश में ही विदेशी समझी जाने वाली इस पहचान से कल्कि ने लगातार संघर्ष किया है. फिल्मों में भी उसके जैसे नक्श वाली लड़की के लिए तय रोल थे- आइटम गाने और प्लास्टिक की गुड़िया जैसे दो-चार सीन. अनुराग कश्यप भी जब ‘देव डी’ की चंदा के लिए लड़की की तलाश कर रहे थे और यूटीवी ने उन्हें कल्कि की तस्वीरें भेजकर उनका ऑडिशन लेने के लिए कहा तो वे लंबे समय तक ऑडिशन इसीलिए टालते रहे क्योंकि उन्होंने कल्कि को छोटे कपड़े पहनने वाली और बेवकूफ-सी मॉडल ही समझा. कल्कि जिस दिन ऑडिशन देने आई, तब भी अनुराग ने उसे इग्नोर किया. वह उनके सहायक को ऑडिशन देकर चली गई. उसके जाते ही जब आश्चर्यचकित सहायक ने अनुराग को ऑडिशन दिखाया तो वे चौंक गए. कल्कि को तभी वापस बुलवाया गया. और उसके बाद वह लौटी नहीं. बाद में उन दोनों में प्यार हुआ, वे साथ रहने लगे और फिर शादी भी कर ली. वह कहती है कि उसने बड़ी उम्र का आदमी-कम उम्र की औरत या नई अभिनेत्री-निर्देशक के क्लीशे से बचने के लिए इस रिश्ते से भी बचने की कोशिश की. लेकिन प्यार यह देखकर नहीं होता कि क्लीशे है या नहीं. 

हम उनके और अनुराग के वर्सोवा के घर में ही कल्कि से मिलते हैं. घर की एक और सदस्य उनकी बिल्ली डोसा है, जो एक पुरानी कबर्ड पर बैठी है. कल्कि के पास दो बिल्लियां हुआ करती थीं- एक का नाम मसाला था और दूसरी का डोसा. मसाला कुछ दिन पहले भाग गई. ‘अब हमारे पास बस सादा डोसा है,’ वे अपलक देखती रहती हैं और फिर मुस्कुराती हैं. उनकी हंसी और चुटकुले इसी तरह अचानक आते हैं. एक बार एक पत्रकार ने उनसे उनके फेवरेट खान के बारे में पूछा था तो उन्होंने जवाब दिया था – चंगेज खान.  

जीवन और काम में अब तक वह तमाम स्टीरियोटाइप्स से लड़ी और जीती है. अपनी पहली ही फिल्म में वह टीनेज वेश्या बनी. ऐसा दुर्लभ किरदार उसने परफेक्शन के साथ जिया, जिसे अपने काम पर दुख या पछतावा नहीं था. जहां लोग इमेज बनाने बिगड़ने की चिंता में मरे जाते हैं, उसे अपनी पहली ही फिल्म के किरदार में एक ब्लोजॉब के एमएमएस का हिस्सा बनना था और फिर ‘यैलो बूट्स’ में पिता की तलाश की एक त्रासद कहानी की ऐसी नायिका बनना था जो अपने पिता को हैंडजॉब दे रही है. ‘शंघाई’ में जब वह पागलों की तरह अहमदी को चूमती है तो उसमें उत्तेजना कहीं नहीं है. उसके ऐसे सब किरदारों में उत्तेजना सबसे आसानी से पैदा की जा सकती थी लेकिन उसका अभिनय शरीर की नहीं, आत्मा की भूख की बात करता है. ’शंघाई’ के निर्देशक दिबाकर बनर्जी को अपने किरदार के लिए ऐसी अभिनेत्री चाहिए थी जिसमें सुंदर दिखने और सहानुभूति पाने की चाह न हो और जो दुख भोगते हुए रोए नहीं. वे कहते हैं, ‘आजकल आप या तो स्टार को ले सकते हैं या ऐक्टर को. कल्कि उन कुछ लोगों में से है जो दोनों हैं.’ दिबाकर कहते हैं कि वह बॉलीवुड में एक आउटसाइडर है, अपनी त्वचा के रंग से नहीं बल्कि उन किरदारों से जो वह चुनती है. ‘शैतान’ की साइकोटिक ड्रग एडिक्ट से लेकर ‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’ की बिगड़ैल अमीरजादी तक उसने अपने जीवन से कहीं दूर के रोल किए हैं. 

उसे सुंदर दिखने की परवाह नहीं है और यही उसका आकर्षण बढ़ाता है. मेकअप उसे दुश्मन लगता है और वह मजबूरी में महीने में एक बार पार्लर जाती है. ‘मैं खूबसूरत नहीं हूं. मैं ऐसी लड़की हूं कि मुझे आप जितना जानते जाएंगे, मैं आपको उतनी ही सुंदर लगती जाऊंगी.’ इसीलिए वह बेफिक्री से कुछ भी पहनकर, कैसे भी बालों में मुंबई की सड़कों पर घूमती है, पृथ्वी थियेटर में दोस्तों से गप्पें मारती है और वह हर काम करती है, जिससे हिंदी फिल्मों की हीरोइन की ‘नाजुक’ और ‘अप्राप्य देवी’ वाली इमेज टूटती हो. 

स्वभाव का यह फक्कड़पन शायद उसे अपने परिवार से ही मिला है. उसके पूर्वज मौरिस कैकलैं ने एफिल टावर डिजाइन किया था. उसके पिता जोएल कैकलैं घूमते हुए भारत आए और यहां औरोविले आश्रम में उसकी मां से मिले.

वे दोनों ऊटी के पास के एक गांव कल्लाट्टी में रहने लगे और वहीं कल्कि का जन्म हुआ. उसने जो पहली भाषा सीखी वह तमिल थी. ‘हिप्पी शब्द का अर्थ लोग चरसी टूरिस्ट्स से ही लगाने लगे हैं, लेकिन मेरे माता-पिता एक सामाजिक मूवमेंट का हिस्सा थे. उन्हें उनकी खोजी आत्माएं एक साथ यहां तक लाईं. उनके पास कुछ भी नहीं था और वे एक आइडियोलोजिकल जिंदगी जीना चाहते थे. मैंने भी बहुत अनिश्चितताओं वाला और अपने मन का काम चुना है लेकिन वे मुझसे कहीं ज्यादा आज़ाद हैं.’ ऊटी में बोर्डिंग में स्कूलिंग करने के बाद उसने लंदन के गोल्डस्मिथ कॉलेज से थियेटर की पढ़ाई की और वहां उसने पहली बार जाना कि चाहे उसके माता-पिता फ्रेंच हों लेकिन असल में वह पूरी भारतीय है. 

वह अपनी प्रतिभा को सिद्ध करने वाले तरह-तरह के रोल कर चुकी है, लेकिन अब भी कभी-कभी मीडिया उसके नाम के साथ मिसेज कश्यप का टैग लगाकर उसके काम को छोटा करने की कोशिश करता रहता है. यह हिंदुस्तानी पुरुष की मानसिकता में ही कहीं गहरे बैठा है कि किसी औरत के संघर्ष को उसके पुरुष साथी की सफलता पर टांग दिया जाए, क्योंकि यह उसके पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती नहीं देता. लेकिन नीलगिरी के पहाड़ों से बिना कुछ लिए मुंबई आई उस लड़की को ऐसी बातों की क्या परवाह होगी जिसने पढ़ाई के दौरान लंदन में पॉपकोर्न भी बेचे हों.

‘मैं थोड़ी भी असुरक्षित होती तो ऐसे आरोप मुझे खत्म कर देते. लेकिन हम बिलकुल अलग दो लोग हैं और मैं इतनी आजाद-खयाल हूं कि उस पर निर्भर रहने का सोच भी नहीं सकती.’ वे दोनों साथ हों तो नए-नए किशोर जोड़े जैसे लगते हैं, एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हुए, किसी टीवी इंटरव्यू में मेज के नीचे पैरों से दूसरे के पैरों को छूते हुए. अनुराग में भी उन्होंने सकारात्मकता भरी है. ‘मैं अब पहाड़ों पर जाता हूं, समंदर में नहाता हूं, बैग पैक करके कभी भी छुट्टियां मनाने निकल पड़ता हूं. एक रूढ़िवादी बनारसी आदमी को कोई यह सब करते सोच सकता है?’

वे किसी स्कूली लड़के के से उत्साह से अपनी प्रेमिका की खूबियां गिनाते हैं. ‘वह कविता लिखती है, कहानियां लिखती है, पोर्ट्रेट बनाती है और जादू भी करती है. हमारी शादी की रात वह शंघाई के डायलोग्स की रिहर्सल कर रही थी. अभी तुम्हें उसकी आवाज सुनाई दे रही है? वह बाथरूम में है और अपना नाटक हैमलेट बड़बड़ा रही है. वह पागल है.’ वह पागल है और हमें उसके अभिनय की बेहद जरूरत है. भले ही अभी हम उसे भारतीय लड़की के रोल में स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं हों, लेकिन उसके लगातार बेहतरीन काम के बाद यह हमारी नजरों और दिमाग की ही समस्या है, उसकी कमी नहीं. 

लेकिन हम ऐसे हैं, इसीलिए उसे लगता है कि हो सकता है कि एक दिन ये सब लोग एक गोरी लड़की के लिए किरदार लिखना बंद कर दें. लेकिन वह कल्कि है और कल्कि कभी भविष्य की परवाह नहीं करती. उसने बड़ापाव पर दिन गुजारकर भी नाटक किए हैं और अब भी उसके पैर-सिर और आत्मा जमीन पर हैं, शायद कल्लाट्टी में. अनुराग कहते हैं कि उनके पास कल्कि से ज्यादा कपड़े हैं. कितनी स्त्रियों के साथी ऐसा कह सकेंगे? और वैसे भी बकौल अनुराग, ‘उसे बिना प्लानिंग के जिंदगी जीना पसंद है.’ जिस दिन उसे लगेगा कि हमारे पास उसके लायक रोल नहीं हैं, तो वह हमारे हिसाब से नहीं ढलेगी. वह अपना बैग पैक करेगी और हमें छोड़कर किसी दूसरी मंजिल के लिए निकल जाएगी. यहीं वह मुस्कुराकर टीएस इलियट की अपनी पसंदीदा लाइनें दोहराती है- हमारी तलाश कभी खत्म नहीं होगी और तलाश के अंत में हम वहीं पहुंचेंगे जहां से हमने शुरू किया था, और तभी हम उस जगह को पहली बार जानेंगे.

(सुनयना कुमार के सहयोग के साथ)

‘नई लड़कियां अपने को किसी के इस्तेमाल की वस्तु न बनने दें’

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में जन्मी मेहरुन्निसा परवेज की कलम ने सतपुड़ा के जंगलों से ताकत पाई है. यही वजह है कि उनकी रचनाओं के केंद्र में महिला, आदिवासी और भारतीय मुसलमान रहे हैं. ‘कोजरा’, ‘समरांगण’ और ‘पासंग’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं. पद्मश्री के अलावा उन्हें कई अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है. मेहरुन्निसा की सृजन यात्रा पिछले पांच दशक से जारी है. पिछले 13 वर्षों से वे एक त्रैमासिक सांस्कृतिक पत्रिका ‘समरलोक’ का भी संपादन कर रही हैं. अपने साहित्य जगत में आने की वजह, अपनी कृतियों, उनके पात्रों और कई अन्य मुद्दों पर उन्होंने प्रियंका दुबे से बातचीत की. 

 

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्य प्रदेश के बालाघाट जैसे पिछड़े और आदिवासी बहुल क्षेत्र की रही है. साहित्य से कोसों दूर एक पारंपरिक मुसलमान परिवार में पलते और बड़े होते हुए आपका झुकाव साहित्य की ओर कैसे हो गया? 

 सन 1956 में मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया और मेरे पिता का तबादला बस्तर हो गया. वे स्थानीय अदालत में मजिस्ट्रेट हो गए. फिर अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई और उनके हाथों से लिखने की ताकत चली गई. हलांकि उनके पास स्टेनो था, पर अपने महत्वपूर्ण फैसले वे खुद ही लिखते थे. इसलिए बीमारी के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर मैं बोलूं तो क्या सुनकर तुम फैसले लिख सकोगी? मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी. फिर क्या था, वे कहते जाते और मैं लिखती जाती. यह सिलसिला तकरीबन दो साल तक चला. मुझे लगता है कि  दो साल की जो ट्रेनिंग मुझे अनजाने में मिल गई वह मेरे पूरे जीवन की नींव है क्योंकि उनके फैसले लिखते-लिखते ही मैंने सही-गलत, न्याय-अन्याय को बारीकी से समझा. मेरे मन में ‘न्याय क्या होता है और क्यों जरूरी है’ यह साफ होने लगा. लिखने का रुझान यहीं से पैदा हुआ. मैं कहानियां लिखने लगी. जाहिर है, शुरुआत में मैं छिप-छिपाकर स्कूल की कॉपियों के पीछे लिखती और अपनी सहेलियों को पढ़ाती रही. एक दिन मेरी एक सहेली ने मेरी कहानी अपने पिता को पढ़वाई तो उन्होंने मेरी हौसला अफजाई की. उन्होंने ‘धर्मयुग’ की एक प्रति मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा कि यहां अपनी कहानी भेज दो. मैं ‘धर्मयुग’ अपने बस्ते में छिपाकर घर ले आई. और बस इसी तरह टुकड़ों में, मेरा साहित्य से पहला परिचय हुआ और लिखने का सिलसिला शुरू हो गया.  

आपकी शुरुआती दो कहानियां ‘जंगली हिरणी’ धर्मवीर भारती की साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में और ‘पांचवीं कब्र’ कमलेश्वर की मासिक पत्रिका ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुईं. मात्र 19 वर्ष की उम्र में देश की तत्कालीन सर्वाधिक प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित किए जाने पर आपको अपने परिवार और जिले में कैसी प्रतिक्रिया मिली?  अपनी शुरुआती रचनाओं के लिए कब्रिस्तान और आदिवासी जैसे विषय चुनने के पीछे क्या कहानी रही? 

पत्रिकाओं की प्रति एक चिट्ठी और चेक (पारिश्रमिक) के साथ घर के पते पर पहुंची. पैकेट खोलने के बाद मुझे पता चला कि मेरी कहानियां छपी हैं. शुरू में तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. कमलेश्वर जी ने मेरी कहानी पर यह टिप्पणी भी लगाई थी कि नई लड़की की कहानी को हमने सैकड़ों कहानियों में से छांट कर चुना है. मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि मैं भी कुछ कर सकती हूं. पर घरवालों का डर सताने लगा. बस्तर में उन दिनों इन पत्रिकाओं की कुछ ही प्रतियां पहुंचती थीं. मैं बस यही दुआ करती रहती थी कि शहर का कोई परिचित मेरी कहानी न पढ़ ले और पिता जी को पता न चल जाए. मैं एक पारंपरिक मुसलिम परिवार से थी जहां कहानी, कविता लिखने को बहुत बुरा माना जाता था. और किसी लड़की के लिखने को तो और भी बुरा माना जाता था. खैर, मैं सातवें महीने की जन्मी थी इसलिए अक्सर बीमार रहती थी. तब हमारे यहां मौत की खबर देने एक ‘तकियादार’ आता था जो सबको मोहल्ले में हुई मृत्यु की सूचना जोर-जोर से आवाजें लगाकर देता था. मैं उस तकियादार से बहुत डरती थी. शायद इसलिए मैंने तकियादार और कब्रिस्तान पर पहली कहानी लिखी. आदिवासियों के बीच में पली-बढ़ी इसलिए मेरी कहानी ‘जंगली हिरणी’ की नायिका भी एक आदिवासी लड़की ही थी. 

‘पासंग’ की पृष्ठभूमि जगदलपुर और रायपुर के आदिवासी अंचल की है और उपन्यास के पन्नों में  आंचलिकता के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है. आम तौर पर लेखकों की शुरुआती रचनाओं में उनकी पृष्ठभूमि का असर दिखाई देता है, पर आपकी रचनाओं में ऐसा नहीं है. हां, आपकी पृष्ठभूमि ‘पासंग’ में दिखती है लेकिन यह उपन्यास आपके रचनात्मक जीवन के चौथे दशक में आया है. क्या वजह रही?  आज आपको ‘पासंग’ कितना सार्थक महसूस होता है? 

‘पासंग’ मैंने बहुत बाद में लिखा और शायद यही वजह है कि इसमें मैं महिला होने के अलग-अलग मायनों को एक बड़े कैनवास पर गंभीरता के साथ दर्ज करने की कोशिश कर पाई. ‘पासंग’ लिखने से पहले मैंने जीवन के तमाम रंग देख लिए. इस दरम्यान मैंने अपने बेटे समर को खो दिया. उसका आकस्मिक देहांत हो गया. मुझे हमेशा से लगता रहा है कि महिलाओं की, खासकर पारंपरिक मुसलिम परिवारों की महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है. हालांकि पैसे वाले लोग लड़कियों को पढ़ा-लिखा देते हैं, पर उन्हें आत्मनिर्भर नहीं होने देना चाहते. गरीब तबके की बात छोड़ भी दें. आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में भी लड़कियों को शिक्षा, प्रेम, अपनी मर्जी से शादी करने की या अपना कैरियर चुनने की बिल्कुल आजादी नहीं है. ज्यादातर मामलों में उन्हें पढ़ाया भी इसलिए जा रहा है ताकि शादी के लिए प्रोफाइल मजबूत किया जा सके. असल में हमारी राजनीति और धर्म पारंपरिक समाज को बढ़ावा देते हैं जहां औरतों को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाए और यही बात ‘पासंग’ को प्रासंगिक बनाती है. यह मेरे लिए इस कारण से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मैंने खुद अपने घर में मेरी बेटी सिमाला के जन्म पर अपने परिवारवालों को रोते हुए देखा है. 

क्या आपने अपने उपन्यास के पात्रों कुलसुम, बानो आपा और कानी के बीच खुद को बांट दिया है? इस लिहाज से क्या पासंग को आपका बायोग्राफिकल उपन्यास माना जा सकता है? 

मेरे ख्याल से ‘पासंग’ के साथ-साथ ‘समरांगण’ में भी मेरे जीवन का काफी हिस्सा है. इन दोनों उपन्यासों के पात्र मेरे अपने जीवन से ही निकलते हैं और मेरे अस्तित्व की उठती-गिरती दीवारों के गवाह रहे हैं. समर के गुजर जाने के बाद मैं बहुत टूट गई थी. ‘समरांगण’ और ‘पासंग’ मैंने अपने सबसे मुश्किल दिनों में लिखे हैं. उन्हीं दिनों हमने ‘समरलोक’ नामक एक सांस्कृतिक पत्रिका भी शुरू की और सच तो यह है कि लेखन ने मुझे मरने से बचा लिया. प्रसव की तरह ही बच्चे की मृत्यु पर भी पुरुष दूर ही खड़ा रहता है और मां को अपने ऊपर लगे मनहूसियत के तमगे और बच्चे के देहांत की पीड़ा को एक साथ अकेले सहना होता है. इन हालात में काम ने ही मुझे जिंदा रखा और इसलिए मैंने अपने लेखन में उन सभी सवालों के जवाब को टटोलने की कोशिश की है जो मुझे जीने नहीं दे रहे थे.  

आपकी रचनाओं में आदिवासी संस्कृति का प्रभाव साफ दिखता है. आप बहुपरतीय लिखने के बजाय सहज लिखती हैं. क्या यह आदिवासियों की सहज संस्कृति से प्रभावित है या फिर आपको इस शैली में ही लिखना पसंद है? 

दरअसल मैं आदिवासियों के बीच ही बड़ी हुई और उनकी जीवन शैली हमेशा से मेरे दिल के बहुत करीब रही. एडविन ने आदिवासियों को मौज-मस्ती के अंदाज में रहते देख उन्हें ‘काले अंग्रेज’ कहा था और उन्हें देखकर मुझे सरलता की अकाट्य ताकत का एहसास हुआ. मैंने पाया कि आदिवासी समाज के लोग अंदर से बहुत मजबूत हैं. वे अभावों में भी जिंदगी से जमकर लड़ते हैं. वहीं दूसरी ओर नक्सल आंदोलन खड़ा करके अपना स्पष्ट विरोध भी दर्ज कराते हैं. शायद इसी प्रभाव की वजह से मेरी लेखन शैली खुद ही सरल हो गई. 

‘घूरे का बिरवा’ में आप विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति के मानस का बारीक चित्रण तो करती हैं पर कहानी को कोई दिशा नहीं देतीं. आपकी ज्यादातर कहानियों में सृजनात्मक निष्कर्ष भी नहीं होते. ऐसा क्यों है? 

इस बारे में मुझे लगता है कि कुछ अंकुरित होने के बाद मेरे पात्र खुद मुझे चलाने लगते हैं और मैं पूरी कोशिश करती हूं कि कम से कम कहानी में तो उन्हें उनके हक की जमीन और आसमान मिल जाए. मैं कहानी को जबरदस्ती नहीं खींचना चाहती. एक सीमा के बाद आपको महसूस हो जाता है कि पात्र अब आपके साथ आगे नहीं चलना चाहता और बस यही वह बिंदु है जिसे पहचान कर किसी भी कहानीकार को अपनी कहानी रोक देनी चाहिए. पर ज्यादातर मामलों में कथाकार इसी बिंदु को भांप नहीं पाते और किसी आदर्श अंत की तलाश में कहानी को आगे बढ़ाते हैं. साथ ही ओपन-एंडेड कहानियां पाठकों की सोच का भी विस्तार करती हैं. 

कहानीकारों की नई पौध के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको लगता है कि युवा कहानीकार कहानी की उस पुरानी परंपरा के साथ न्याय कर पा रहे हैं? 

अपनी पत्रिका ‘समरलोक’ में मैं हमेशा नए लेखकों को मौका देती हूं. और इसके संपादन के दौरान ही मेरा नए लेखकों से संपर्क हुआ. मुझे लगता है कि वे हमारे जैसे कभी नहीं हो सकते, होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे सब अपनी तरह के हैं. एकदम नए लोग अपनी नई भाषा और ऊर्जा के साथ. कुछ लेखकों में तो बहुत संभावना भी है. बस उनमें धीरज की थोड़ी कमी है. सभी अपनी पहली कहानी से ही प्रसिद्ध हो जाना चाहते हैं. और साथ ही इन दिनों पुरस्कारों की होड़ भी बढ़ी है. मुझे बस यही लगता है कि अगर हमारे नए लेखक थोड़े धीरज के साथ काम करें तो ज्यादा गहरी कहानियां लिख पाएंगे और जाहिर है कि उन्हें लंबे समय तक याद रखा जा सकेगा.  

हिंदी में महिला लेखकों की स्थिति पर आप कुछ कहना चाहेंगी? कुछ साल पहले हिंदी साहित्य की लेखिकाओं को लेकर अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति वीएन राय के विवादास्पद बयानों के अलावा भी कई बार हिंदी की लेखिकाओं को ‘रबर-स्टांप रायटर्स’ कहकर नकारा गया है. मन्नू भंडारी, शिवानी, मैत्रेयी पुष्पा और गगन गिल जैसे कई सशक्त हस्ताक्षरों के होते हुए भी क्या आपको लगता है कि आज भी हिंदी में महिला साहित्यकारों को अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए जूझना पड़ रहा है?  

कुलपति वीएन राय के उस विवादास्पद बयान की देश भर में भर्त्सना हुई और की भी जानी चाहिए. दूसरी बात यह कि आपकी पत्रिका ने जो ‘साहित्य के सामंतों’ पर एक कवर छापा था, उसे भी याद कीजिए. दरअसल नई लेखिकाओं को प्रमोट करना, उनके साथ बैठना, उनका शोषण करना और फिर उन्हीं की बुराई करके अपना पौरुष दिखाना ऐसे ही कुछ साहित्यिक सामंतों का प्रिय शगल है. हमारे जमाने में तो बहुत अच्छे संपादक हुआ करते थे. मैंने धर्मवीर भारती और कमलेश्वर जैसे कई दिग्गज संपादकों के साथ काम किया और उन्होंने मुझे जो मागदर्शन और प्रोत्साहन दिया उससे मुझे एक लेखक के रूप में खुद को गढ़ने में बड़ी मदद मिली. पर आज माहौल बदल गया है. संपादक नए लेखकों को अगर प्रमोट भी करते हैं तो सिर्फ अपनी नई लॉबी तैयार करने के लिए. अब यह नई लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को किसी के इस्तेमाल की वस्तु न बनने दें. सतर्क रहें और अपने काम से ही सबको जवाब दें. और जहां तक गुणवत्ता का सवाल है तो मुझे हिंदी की महिला साहित्यकारों पर नाज है. जिन मुश्किल परिस्थितियों से ये लेखिकाएं निकल कर आई हैं उसके मद्देनजर सभी का काम बहुत अच्छा है. और मुझे विश्वास है कि हम सबकी बनाई हुई इस जमीन पर नई पीढ़ी की युवा लेखिकाएं मौलिक सृजन करके नए मानक स्थापित करेंगी. 

साझे की सफल फसल

राजस्थान के बीकानेर से दक्षिण-पूर्व की तरफ बढ़ने पर हर तरफ या तो रेत पसरी नजर आती है या फिर छोटी-मोटी झाड़ियां. इस इलाके में किसी भी तरह की खेती नहीं होती. थोड़ी-बहुत हरियाली वहीं दिखती है जहां कुछ घास खुद ही उग आई हो. दो घंटे बाद हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 65 से बाईं तरफ कटती एक सड़क पर मुड़ते हैं. यह रास्ता डीडवाना नाम के कस्बे को जा रहा है. अचानक ही हमारे आस-पास का धूसरपन हरियाली में बदलने लगता है. रेतीली जमीन पर चारों तरफ पेड़ हीं पेड़ दिखते हैं. हमें पता चलता है कि यह बकलिया फार्म्स है जहां 30 हेक्टेयर जमीन पर लगभग 14,000 जैतून के पेड़ लगाए गए हैं. राजस्थान में ऐसे सात फार्म हैं और ये सारे ही भारत और इजराइल के बीच खेती में हो रहे एक खास सहयोग का नतीजा हैं. 

इस बदलाव की शुरुआत तब हुई जब 2006 में राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इजराइल की यात्रा पर गई थीं. इस देश के दक्षिणी इलाके में बने जैतून के एक फार्म ने उनका ध्यान खींचा. इजराइल की जलवायु राजस्थान से मिलती-जुलती है. राजे को लगा कि खेती का यह प्रयोग तो राजस्थान में भी किया जा सकता है. उनके आग्रह पर इजराइल की सरकार भी इस दिशा में मदद के लिए तैयार हो गई. ऐसा नहीं था कि इससे पहले देश के सूखे इलाकों में इस तरह की कोशिशें नहीं हुई थीं. हुई थीं मगर वे सफल नहीं हो पाई थीं. दूसरी तरफ इजराइल था जो सघन पौधारोपण और बूंद-बूंद या टपक सिंचाई पद्धति के बल पर शुष्क जमीन में जैतून उगाने में कामयाब रहा था. राजे चाहती थीं कि ऐसा ही कुछ राजस्थान में भी हो. बाजार में जैतून के तेल की काफी मांग है.

राजस्थान से शुरू हुआ यह प्रयोग धीरे-धीरे हरियाणा, महाराष्ट्र और बिहार में भी जड़ें जमा रहा है और इससे फायदा पाने वाले किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है

इसके बाद राज्य में राजस्थान ऑलिव कल्टीवेशन लिमिटेड (आरओसीएल) नाम का एक उपक्रम बनाया गया. इसमें पैसा सरकार ने लगाया और विशेषज्ञता इंडोलिव नाम की एक इजराइली कंपनी और सिंचाई उपकरण बनाने वाली पुणे स्थित फिनोलेक्स प्लैसन इंडस्ट्रीज ने. इसके बाद राजस्थान के छह जिले चुने गए जहां जैतून के पौधे की सात किस्में उगाई जानी थीं. अधिक उत्पादन देने वाले जैतून के पौधों की कलमें इजराइल से आयात की गईं. टपक सिंचाई तकनीक (इसका आविष्कार इजराइल ने ही किया था) का इस्तेमाल किया गया. खाद, मृदा परीक्षण आदि की विशेषज्ञता भी इजराइल से आई.

इसका नतीजे काफी अच्छे रहे हैं. जिन सात जिलों में जैतून की खेती का यह प्रयोग हुआ, उनमें से चार में उत्पादन काफी अच्छा रहा है. इस कामयाबी से उत्साहित राजस्थान सरकार ने राज्य में जैतून की खेती को बढ़ावा देने के लिए काफी रियायतों की घोषणा की है. मसलन सरकार किसानों को जैतून की कलमों पर 75 फीसदी की सब्सिडी देगी. खाद में प्रति हेक्टेयर 3,000 रु की सब्सिडी दी जाएगी और टपक सिंचाई के लिए 90 फीसदी की. बीकानेर के उत्तर में बसे लुखरणसर में जैतून तेल उत्पादन के लिए एक रिफाइनरी भी बन रही है.

लुखरणसर में हुए जैतून पौधारोपण के सुपरवाइजर सीताराम यादव कहते हैं, ‘पिछले साल हमने हरे जैतूनों का अचार बनाया था. लेकिन रिफाइनरी बनने के बाद हम जैतून का इस्तेमाल तेल बनाने के लिए करेंगे.’ बकलिया फार्म्स के मैनेजर कैलाश कलवनिया हमें रेत में हुआ यह चमत्कार दिखाते हैं. फूलों का मौसम खत्म हो चुका है और पेड़ों से छोटे-छोटे जैतून फूट रहे हैं. कलवनिया बताते हैं, ‘हमने जो सात किस्में लगाई थीं उनमें बर्निया सबसे कामयाब रही है.’ इजराइली विशेषज्ञ गेडेऑन पेलेग ने राजस्थान में जैतून परियोजना की जिम्मेदारी ले रखी है. 68 साल के पेलेग बताते हैं कि इस रेतीली जगह में जैतून की खेती का काम इस तरह नहीं हुआ है कि सीधे इजराइल की नकल कर ली गई हो. वे कहते हैं, ‘यहां के लिए कौन-सी किस्म सबसे अच्छी है, यह समझने में हमें वक्त लगा.’ 

राजस्थान में हुए इस प्रयोग से उत्साहित इजराइल अब पूरे देश में खेती और बागवानी के अलग-अलग क्षेत्रों में यही सफलता दोहराने की तैयारी में है. इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया भी जा चुका है जब 2008 में दोनों देशों के लिए बीच एक कृषि सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए. दिसंबर, 2011 में भारत और इजराइल के कृषि मंत्रालयों ने तीन साल की एक योजना को आखिरी स्वरूप दिया. इसमें कृषि विशेषज्ञों के संयुक्त दौरे, परिचर्चाएं और किसानों के लिए कोर्स जैसी चीजें शामिल हैं. इस समझौते की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके तहत कई उत्कृष्ता केंद्र बनेंगे जिनसे भारत के कई राज्यों के किसानों को उस शोध और तकनीक का फायदा मिल सकेगा जिसके लिए इजराइल दुनिया भर में जाना जाता है. इन केंद्रों की स्थापना के लिए अभी तक सात राज्यों की सरकारों के साथ इजराइल का समझौता हो चुका है. 

सफलता की यह कहानी राजस्थान और हरियाणा के आगे भी जाती है. महाराष्ट्र में भी आम के क्षेत्र में इस प्रयोग के उत्साहजनक नतीजे दिख रहे हैं

हरियाणा सरकार द्वारा दी गई सब्सिडी इससे अलग थी. अब उन्होंने अपने फार्म में 6,000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल और जोड़ लिया है. अब वे रीटेलरों को भी अपना माल बेचते हैं और खुले बाजार में भी. बजाज कहते हैं, ‘मेरे खेतों में छह महीने में  विभिन्न सब्जियों का 50 हजार किलो उत्पादन हुआ है.’ इनमें टमाटर भी है और शिमला मिर्च भी. और सफलता सिर्फ सब्जियों तक सीमित नहीं है. भिवानी जिले में रमेश तंवर छह हेक्टेयर में कीनू उगा रहे हैं. यह सफलता उन्हें सिरसा स्थित उत्कृष्टता केंद्र की सहायता से मिली है. वे बताते हैं, ‘इस केंद्र से हमें कई तकनीकें मिलीं जिससे उत्पादन बढ़ गया है.’  सिरसा केंद्र में जैतून उगाने का प्रयोग भी हो रहा है. हालांकि अभी यह काफी शुरुआती अवस्था में है.

तंवर और बजाज के फार्म उस 200 एकड़ जमीन का एक हिस्सा हैं जिसमें भारत-इजराइल उत्कृष्टता केंद्र द्वारा दी गई तकनीकों की मदद से खेती हो रही है. हरियाणा में बागवानी विभाग के महानिदेशक सत्यवीर सिंह कहते हैं, ‘अब हमारा लक्ष्य 10 हजार हेक्टेयर का है.’ ऐसे हर केंद्र की स्थापना राज्य सरकार द्वारा दिए गए छह करोड़ रु से हुई है. आम, फूल और शहद उत्पादन के लिए तीन नए केंद्र भी खोले जा चुके हैं. हरियाणा सरकार गांवों के स्तर पर इन उत्कृष्टता केंद्रों के 14 छोटे संस्करण भी स्थापित कर रही है. बागवानी विभाग के अतिरिक्त महानिदेशक अर्जुन सिंह सैनी कहते हैं, ‘इससे सही मायनों में यह सुनिश्चित होगा कि तकनीक किसान तक पहुंचे.’ ये केंद्र किसानों की ही जमीन पर बनेंगे. सरकार इसके लिए 25 लाख रु देगी.

इनका स्वामित्व किसानों के पास ही होगा. सैनी इसे पब्लिक-प्राइवेट-फार्मर पार्टनरशिप कहते हैं. कहानी राजस्थान और हरियाणा के आगे भी जाती है. महाराष्ट्र में भी आम के क्षेत्र में इस प्रयोग के उत्साहजनक नतीजे दिख रहे हैं. उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने के लिए समझौता करने वाले राज्यों की कड़ी में सबसे नया नाम बिहार का है जहां आम और नींबू प्रजाति के फल उगाने के लिए उन्नत तकनीक का लाभ लिया जाएगा. सैनी का मानना है कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है. वे कहते हैं कि खेती के मामले में बुनियादी चीजों से आगे जाना होगा. दिल्ली स्थित इजराइली दूतावास में अंतरराष्ट्रीय सहयोग, विज्ञान और कृषि के काउंसलर यूरी रुबिन्सटाइन उनकी बात से सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘हमारी कई जरूरतें एक जैसी हैं. शायद यही वजह है कि भारत सकार ने इस मोर्चे पर अमेरिका जैसे बड़े देशों के बजाय इजराइल के साथ साझेदारी का फैसला किया.’

‘डिग्री तो गुलाम बनाए खातिर सरकार दे रही है, कौनो महान बनाए खातिर नहीं’

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली एक गैरसरकारी संस्था से जुड़ा होने के चलते मुझे अक्सर ही ग्रामीण इलाकों की यात्राओं पर जाना पड़ता है. मुझे भी नई-नई जगहों पर घूमने का बहुत शौक है. एक यही तो आकर्षण था जिसकी वजह से मैं यह नौकरी करने को तैयार हो गया था. उस दिन भी जब दिल्ली ऑफिस से फोन आया कि कल झारखंड जाना है तो मैं यह भूल गया कि कल ही तो बीस दिन के बाद घर लौटा हूं और शरीर किसी भी यात्रा से इनकार कर रहा है. मैंने झट से हां कर दी और अगले ही दिन झारखंड के लिए निकल पड़ा. यात्रा शुरू करते ही मैं मन ही मन झारखंड की एक तस्वीर अपने मन में बुनने लगा. एक ऐसे राज्य की तस्वीर जहां चहुंओर पसरी गरीबी की वजह से कोई भी इंसान हथियार उठाने पर विवश हो जाए और नक्सली या माओवादी बनने को तैयार हो जाए. ट्रेन की गति के साथ मेरी उत्सुकता में भी इजाफा हो रहा था. 

हालांकि रांची स्टेशन पर पहुंचते ही मेरी कल्पनाओं के घोड़े ठहर-से गए. नजारा मेरी कल्पनाओं की तस्वीर से बिल्कुल उलट था. स्टेशन कैंपस में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े होर्डिंग्स और स्टेशन के ठीक सामने खड़ा एक भव्य-सा ‘चाणक्य’ होटल- यह दृश्य मेरी तस्वीर को सिरे से नकार रहा था. फिर अगले ही पल मुझे लगा कि मैं राज्य की राजधानी में हूं और यहां से वास्तविक स्थिति नहीं समझी जा सकती. मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा. अगले दिन सुबह मैं जिला रांची के रातू नामक ब्लाक के भोंडा गांव में था.

इस गांव की दशा मेरी कल्पनाओं की तस्वीर वाले झारखंड से काफी मेल खाती थी. मुझे अपने काम के लिए बच्चों के बीच जाना होता है. इस सिलसिले में मेरी मुलाकात नौ साल के एक बालक से हुई. उसका नाम संग्राम था. मैंने उसे  गणित के कुछ सवाल हल करने को दिए. उसने उन्हें झट से हल कर दिखाया. कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में घूमने के बाद मेरा अनुभव यह कहता है कि संग्राम जैसे बच्चे आसानी से हर कहीं नहीं मिलते. मैंने उससे पूछा, ‘बेटे, तुम कौन -सी कक्षा में पढ़ते हो?’ उसने जवाब दिया, ‘मैं स्कूल नहीं जाता.’मैं हैरत में पड़ गया. स्कूल क्यों नहीं जाते, और तुम्हें यह सब पढ़ना-लिखना कौन सिखाता है, यह सवाल पूछने पर संग्राम का कहना था, ‘बाबूजी सिखाते हैं, और वही स्कूल नहीं जाने देते.’ 

‘हजार लोगन में एक का उदाहरण मत दो बाबूजी, 999 का उदाहरण देकर बात करो, तब जानें कि इस शिक्षा प्रणाली में कितना दम है’

मेरी संग्राम के बाबू जी से मिलने की इच्छा प्रबल हो गई थी. मैंने उससे पूछा कि क्या वे घर पर हैं. उसने जवाब दिया, ‘हां, घर पर ही हैं.’ मैंने उससे कहा कि वह मुझे अपने घर ले चले.  जल्द ही हम वहां जा पहुंचे. घर के आंगन में ही कोई 35-36 साल का व्यक्ति पेड़ की छांव में खाट पर लेटा आराम कर रहा था. संग्राम ने उनसे जाकर कहा, ‘बाबू जी, ये तुमसे मिलने आए हैं.’ उन सज्जन ने मेरी ओर देखा और फिर खाट बिछाकर मुझे बैठने को कहा. मैंने उन्हें अपना परिचय देने के बाद कहा, ‘आपका बेटा बहुत ही होशियार है और अपनी उम्र के बच्चों के मुकाबले काफी तेज भी है.’ उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. फिर मैंने उनसे पूछा कि वे संग्राम को स्कूल क्यों नहीं भेजते. इस पर मुझे जवाब मिला, ‘काहे भेजें स्कूल?’ ‘आप नहीं चाहते कि वो स्कूल जाकर पढ़ना-लिखना सीखे?’, मैंने पूछा. संग्राम के बाबू जी ने जवाब दिया, ‘क्यों? वो पढ़ना-लिखना नहीं जानत है का? आप ही तो अभी कहे हैं कि वह बहुत ही होशियार है?’ इस पर मैंने कहा, ‘हां, लेकिन पढ़-लिख कर डिग्री हासिल करके बड़ा आदमी बन सकता है.’ 

संग्राम के पिता ने दार्शनिक अंदाज में कहना शुरू किया, ‘किसने आपसे यह कह दिया कि डिग्री से आदमी बड़ा बन जात है? इंसान अपने ज्ञान और कर्मों से बड़ा होत है बाबूजी. हमको ई व्यवस्था और सरकारी शिक्षा में कोई बिश्वास नाहीं. हम भी यह जान रहे हैं कि पढ़ना-लिखना जरूरी है, तभी न संग्राम को हम घर पर पढ़ना सिखा रहे हैं, परन्तु डिग्री की हमको कौनो जरूरत नाहीं है. स्कूल के बच्चों से ज्यादा तो संग्राम आज भी कर सकत है. और डिग्री तो गुलाम बनाए खातिर सरकार दे रही है, कौनो महान बनाए खातिर नहीं.’

 ‘लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जो आपके जैसे गांव से ही निकल कर महान बने हैं. उन्होंने भी इसी सरकारी शिक्षा को ही ग्रहण किया और फिर सारे विश्व में अपना नाम.’ मुझे बीच में ही रोक कर वे बोल पड़े, ‘उदाहरण मत दीजिए, बाबूजी. उदाहरण तो हम भी दे सकत हैं. नेताजी (सुभाष चंद्र बोस) ने तो अफसरी की परीक्षा पास करके भी नौकरी को लात मार दी थी, देश की सेवा खातिर. आज उनकी तरह कितने लोग कर सकते हैं? ऐसा-वैसा उदाहरण देकर ही ई लोग इस गंदी व्यवस्था को बनाए हुए हैं और सभी लोग उदाहरण को सुनकर वैसा ही बनने की भेड़ चाल में लग जात हैं. हजार लोगन में किसी एक का उदाहरण मत दो बाबू जी, बाकी का 999 लोगन का उदाहरण देकर बात करो, तब जानंे कि इस व्यवस्था में और आपकी शिक्षा प्रणाली में कितना दम है.’ उस दिन मुझे उस गांव के व्यक्ति की बात से एहसास हुआ कि उसने कितना सच बोला था. एक ऐसा सच जिस पर हम कभी ध्यान नहीं देते. यह बात कितनी सच है कि उदाहरण तो हमेशा अपवादों के ही दिए जाते हैं.

‘ताकत की दवाओं का मायावी बाजार’

हमारे किस्से, कहानियां, पौराणिक व्याख्यान अफवाह जैसे गल्प तथा लोककथाएं ऐसी जड़ी-बूटियों, जादुई किस्म के पेय पदार्थों और चमत्कारी हकीमी नुस्खों के जिक्र से भरे हैं जिनका सेवन करते ही सात हाथियों के बराबर बल आ जाता है. मनुष्य को सदियों से ही ऐसे जादुई नुस्खों की तलाश रही है जो लेते ही शरीर को ताकत और जोश से भर दें. आदमी पौष्टिक भोजन, फल-फूल, हरी सब्जियों का सेवन, व्यायाम, सात्विक जीवन व्यवहार, खेलकूद आदि के पेचीदे और घुमावदार रास्तों को छोड़कर चोर रास्ते खोजता है. जिस्मानी तथा दिमागी ताकत बढ़ाने के इन ‘शॉर्ट कट्स’ की तलाश करने वाले भोले मूर्खों के लिए सदियों से बाजार में कुछ न कुछ जादुई दवाइयां, पेय पदार्थ, गोलियां बिकती रही हैं. आज तो जीवन यूं भी पूरी तरह से बाजार के कब्जे में है. आज एनर्जी ड्रिंक्स, ताकत और मांसपेशियां बनाने का वादा करने वाले प्रोटीन पाउडर, प्रोटीन ड्रिंक्स, दिन भर चुस्त-दुरुस्त रखने का दावा करने वाली कैप्सूल गोलियों का एक बड़ा लेकिन मायावी बाजार तैयार हो गया है. 

 ताकत देने का दावा करने वाले इन पेय पदार्थों और गोलियों तथा पाउडरों के डिब्बों ने बेहद शातिराना समझदारी से अपने शिकार चुने हैं. कौन हैं इनके शिकार? एक तो बढ़ती उम्र के बच्चे. कौन नहीं चाहता कि उसका बच्चा लंबा और स्वस्थ हो और ऐसा होशियार हो कि हमेशा अव्वल आए. टीवी और प्रिंट मीडिया की आड़ में तैयार मोर्चों से इन शिकारों को बाजार द्वारा ‘सिटिंग डक’ की तरह आसानी से शिकार बनाया जा सकता था. वही किया भी गया. झूठे-सच्चे दावे. दूध में  ‘ताकत तथा विटामिनों से ठसाठस’ भरे डिब्बे दो चम्मच मिलाकर गटागट पी जाने वाले बच्चे जो रातों-रात लंबे हो रहे हैं. वे बच्चे जो कभी पढ़ाई में फिसड्डी थे, बाबर के बेटे का नाम तक याद नहीं कर पाते थे, वे ही आज ऐसे किसी चमत्कारी पाउडर का सेवन करके इतने होशियार हो गए हैं कि बेचारा टीचर भी हैरान रह गया. विज्ञापनों की दुनिया में इन चमत्कारी नुस्खों वाली ताकत भरी चीजों का सेवन करके बच्चे हृष्ट-पुष्ट और होशियार बन रहे हैं. 

‘प्रोटीन ड्रिंक्स का करोड़ों रुपये का बाजार खड़ा कर दिया गया है. मेडिकल की दृष्टि से देखें तो यह बात स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद डरावनी  है’

अब घर-घर में ऐसे बच्चे हैं जो दुबले हैं, मां-बाप को कमजोर प्रतीत होते हैं. जो वैसे तो पढ़ाई में ठीक- ठाक हैं परंतु माता-पिता की वास्तविक महत्वाकांक्षी आशाओं के अनुरूप नहीं हैं. यही मां बाप बाजार जाकर ये डिब्बे उठा लाते हैं. मां को पता नहीं कि ऐसे डिब्बों के सौ ग्राम पाउडर में मात्र सात ग्राम प्रोटीन होती है, दो ग्राम वसा होती है, विटामिन की सस्ती गोलियों के बराबर कुछ यहां-वहां के विटामिन होते हैं और बाकी का कार्बोहाइड्रेट यानी शक्कर जैसी चीजें. बस अब आप इसकी दो-तीन चम्मचें दूध में मिलाकर चमत्कार की उम्मीद में बैठ जाएं तो यह आपकी मूर्खता है. तीन चम्मच में एक ग्राम प्रोटीन भी ठीक से नहीं होती है. और विज्ञापन में जो बच्चा बढ़ता दिखाया जाता है वह? इसे नेताओं के खोखले वादों की भांति मान लें बस. उनको वादा करने से नहीं रोका जा सकता. और हमारे देश में झूठे दावे करने वाले विज्ञापनों को भी. पर सही बात तो यह है कि बच्चे का विकास इनके बूते कतई संभव नहीं है. ये न दें. बच्चे को बढि़या खाना दें. यदि बच्चा कम वजन का है तो रोज दो केले, पचास ग्राम मूंगफली के दाने दें और उसके आटे में तीन-चार चम्मच तेल मिलाकर फिर रोटी पकाएं. यह वजन बढ़ाने का ज्यादा वैज्ञानिक तरीका है. इन डिब्बाबंद ताकत के पाउडरों से कुछ भी उम्मीद न करें. यह तो एक उदाहरण हुआ. दूसरा उदाहरण आंखें खोलने वाला है.

जिम जाना तथा मांसपेशियां (डोले-सोले) बनाना आज की नौजवान पीढ़ी के लिए नशे जैसा है. वे इसके लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं. सलमान और ऋतिक जैसा मस्कुलर शरीर बनाने के लिए एक दीवानापन जैसा फैला है चहुंओर. ये इनके दूसरे शिकार हैं. बाजार की ताकतों ने इनकी ताकत की चाहत को खूब भुनाया है. मांसपेशियां बनानी हैं तो खूब अंडे खाओ और प्रोटीन ड्रिंक्स लो, ऐसी ही सलाह दी जाती है जिम में. प्रोटीन पाउडर भी बहुतायत में नए-नए नामों से उपलब्ध हैं. जिम के ट्रेनर समझाते हैं कि मांसपेशियां बनानी हैं तो खूब प्रोटीन खाओ. प्रोटीन ड्रिंक्स का करोड़ों रुपये का बाजार खड़ा कर दिया गया है. मेडिकल दृष्टि से देखें तो यह बात स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद डरावनी है. यदि नौजवान प्रोटीन ही प्रोटीन खाने पर आमादा होगा तो कार्बोहाइड्रेट स्वतः ही कम खाया जाएगा. आपकी भूख तो उतनी ही है, यह खा लो या वह खा लो. नतीजा? कार्बोहाइड्रेट का ‘प्रोटीन स्पेयरिंग’  प्रभाव नहीं रह जाता. कार्बोहाइड्रेट ठीक मात्रा में न मिलने पर इनका शरीर फिर प्रोटीन से ऊर्जा प्राप्त करने लगता है और प्रोटीन जब इतनी ज्यादा इस्तेमाल होती है तो उसके जो एंड प्रोडक्ट्स’ बनते हैं वे किडनी को खराब कर सकते हैं. मांसपेशियां फिर भी नहीं बन पातीं क्योंकि प्रोटीन ड्रिंक्स से प्राप्त अतिरिक्त प्रोटीन तो ऊर्जा बनाने में काम आ जाती है. नतीजा? न खुदा ही मिला, न विसाले सनम. यह सब बेहद अवैज्ञानिक तथा शरीर के लिए हानिकारक है. प्रोटीन ड्रिंक्स तथा पाउडरों के जाल में न फंसें. अब तीसरी और अंतिम बात.

‘एनर्जी ड्रिंक्स’ नामक पेय पदार्थों का भी बड़ा बोलबाला है आजकल. तुरंत ताकत देने वाले पेय, ऐसी गोलियां जो दिन भर आपको चुस्त और दुरुस्त रखती हैं. इस भागदौड़ से भरी जिंदगी में किसको ऐसा चमत्कारी नुस्खा नहीं चाहिए. घर के कामों में खटती औरतें, दफ्तर और घर के बीच भागते अधेड़ लोग, थकान से भरे बूढ़े- सभी को ये एनर्जी ड्रिंक्स आकर्षित करते हैं. ये इनका तीसरा शिकार हैं. तुरंत ताकत कौन दे सकता है? ग्लूकोज पाउडर जैसी कोई चीज या ऐसा नशीला पदार्थ जो आपका मूड बढि़या कर दे. यही सब इन ड्रिंक्स में है. कैफीन इतनी मात्रा में है कि एक-दो ड्रिंक से ज्यादा लिया तो आप इसके आदी हो जाएंगे. नशे की लत न पालें, इनसे बचें. इनके अलावा विटामिन की गोलियों, ताकतवर बनाने वाले कैप्सूलों, टॉनिकों का भी बेहद बड़ा मार्केट है आज. पर उनके मायावी खेलों की चर्चा फिर कभी.

आम और आम

आम आदमी से यह देश पटा पड़ा है, जैसा कि हम सब जानते हैं. यत्र तत्र सर्वत्र आम ही आम नजर आते हैं. खास लोगों की यह आम राय है कि आम के कारण ही यह देश आम हो गया है. मगर विश्वपटल पर देश की जो असली पहचान बनी, आमों के चलते ही बनी है. हिंदुस्तान में उत्थान चाहे जिसका हुआ हो, मगर संख्यावृद्धि तो आमों की हुई, इस बात पर किसी को कोई शक है क्या?

आम तौर पर आम रसीला होता है, पर यह जरूरी नहीं कि आम आदमी आम होने के कारण ऊपर से रसीला दिखे. रोजमर्रा की मुसीबतों से लोहा लेने के कारण आदमी जो आम होता है, वो सख्त हो जाता है. मगर चाहे जितना भी सख्त हो जाए, रहेगा तो आम ही. अंदर से रसीला. कुछ लोग इसे जिजीविषा कहते हैं. यह एक खुला रहस्य है कि कुछ आम लोग ऊपर से तो सख्त होते है,मगर अंदर से उतने ही पिलपिले होते हैं. कुछ ऐसे भी आम होते हैं जो सख्त दिखने की एक्टिंग करते हैं, ताकि कोई उन्हें चूस न सके. आम आदमी का सारा जीवन अपने रस को बचाने की कवायद में ही गुजर जाता है, मगर क्या वो बच पाता है?

 अब यहां एक जिज्ञासा सहसा उछली एक बूंद की तरह से उछली क्या आम आदमी के जीवन में भी रस होता है? रस कैसे नहीं होगा, आजादी के बाद से ही इनको वादा-घोषणा-दिलासा के पत्थर से पकाया जा रहा है. रस तो होगा ही. अब दूसरी जिज्ञासा उछली, क्या आम आदमी का रस उसके लिए ही होता है! चिंतन-मनन खास लोगों का काम है, हम जैसे आम लोगों का नहीं. सो, यह जिज्ञासा उनके हवाले. कुल जमा इतना है कि यह आम आदमी, आम की तरह से सबके जीवन में रस घोलता है. अगर यह न हो तो राजनीति नीरस हो जाए. संसद खामोश हो जाए. नारे न गढे़ जाएं. रैली का रैला न हो. देश हमेशा खुला रहे, कभी बंद न हो. चक्का चलता रहे, कभी जाम न हो. विकास का पत्ता किसके लिए डोले! योजनाओं के अंकुर फिर किसके नाम से फूटे! 

अब इधर आमों के साथ क्या हो रहा है? आम को खास बनाने की कवायद हो रही है. आम को खास-खास महानुभावों का नाम दिया जा रहा है. कमाल है एक आम का नाम तो ‘नवाब’ ही रख दिया गया है . कुछ आम तो सिर्फ विदेशियों को खिलाने के लिए ही उगाए जाते हैं. इन आमों को खास बनते आम लोग बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं. वे सोच रहे हैं, अरे आम तो पहले से ही हमारे लिए खास थे, ऐसे में इनको किसके लिए खास बनाया जा रहा है. और जब खास बनाना ही है तो हमें बनाओ, आम तो पहले से ही फलों का राजा है. खास को और खास बनाने की क्या जरूरत! क्या महज खास नाम रखने से कोई आम खास हो जाता है? आम हो सकते हंै, मगर आमजन नहीं. यहां आम आदमी का खास बनने का रास्ता आम नहीं है. यह बात आम लोगों से बेहतर खास लोग जानते हंै. मगर हुजूर आपसे किस अहमक ने कहा कि आम लोगों को खास बनाइए! खास बनाइए या न बनाइए,कम से कम उनका जीवन स्तर थोड़ा सुधार दीजिए. बस. आम तौर पर आम आदमी यही चाहता है. मगर यहां तो वह अपना जीवन स्तर ऊपर उठाने की आरजू लिए ही खुद यहां से उठ जाता है. 

यह कहानी आजादी के बाद से बदस्तूर जारी है. मगर कुछ खास लोगों (नाम न छापने की शर्त पर) का कहना है कि नवउदारीकरण के बाद आम लोगों का जीवन बदला है. आधिकारिक रूप से जिसकी घोषणा हर साल 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से की जाती है. सच है, आम आदमी का जीवन बदला है. पहले उसको चूसा जाता था, अब उसकी चटनी बन रही है.