कल्कि कथा

मई के आखिरी हफ्ते की एक शाम जब वह साड़ी में कांस के लाल कालीन पर चल रही थी, तब उसे देखकर कम ही लोग सोच सकते होंगे कि कुछ घंटे पहले यह लड़की कुरते और जींस में कांस की गलियों में घूम रही होगी, बिना नहाए, बिना मेकअप किए और बिखरे बालों में. यह तो शायद कोई नहीं सोच सकता होगा कि इससे पिछली बार जब वह कांस में थी तो एक थियेटर स्टूडेंट थी और नोकिया के फोन बेच रही थी. यही कल्कि कैकलैं है, जिसका नाम हम अक्सर ठीक से उच्चारित नहीं कर पाते, और जो हिंदी सिनेमा की हीरोइन के बहुत सारे स्टीरियोटाइप तोड़ती है. वह गोरी है और उसे देखने और मिलने वाले बहुत सारे लोगों की तरह आप उसे विदेशी समझ सकते हैं. तब आप ‘शंघाई’ के इमरान हाशमी की तरह उससे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात कर सकते हैं या बहुत-से हिंदुस्तानियों की तरह उससे ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ का वैसा बर्ताव कर सकते हैं, जैसा वे अनजान शहर में अकेली विदेशी लड़की को देखकर करते हैं. लेकिन तब वह शुद्ध हिंदी या तमिल में आपको गाली दे सकती है और इस तरह आपको समझा सकती है कि वह गोरी है, लेकिन विदेशी या नाजुक नहीं. 

अपने देश में ही विदेशी समझी जाने वाली इस पहचान से कल्कि ने लगातार संघर्ष किया है. फिल्मों में भी उसके जैसे नक्श वाली लड़की के लिए तय रोल थे- आइटम गाने और प्लास्टिक की गुड़िया जैसे दो-चार सीन. अनुराग कश्यप भी जब ‘देव डी’ की चंदा के लिए लड़की की तलाश कर रहे थे और यूटीवी ने उन्हें कल्कि की तस्वीरें भेजकर उनका ऑडिशन लेने के लिए कहा तो वे लंबे समय तक ऑडिशन इसीलिए टालते रहे क्योंकि उन्होंने कल्कि को छोटे कपड़े पहनने वाली और बेवकूफ-सी मॉडल ही समझा. कल्कि जिस दिन ऑडिशन देने आई, तब भी अनुराग ने उसे इग्नोर किया. वह उनके सहायक को ऑडिशन देकर चली गई. उसके जाते ही जब आश्चर्यचकित सहायक ने अनुराग को ऑडिशन दिखाया तो वे चौंक गए. कल्कि को तभी वापस बुलवाया गया. और उसके बाद वह लौटी नहीं. बाद में उन दोनों में प्यार हुआ, वे साथ रहने लगे और फिर शादी भी कर ली. वह कहती है कि उसने बड़ी उम्र का आदमी-कम उम्र की औरत या नई अभिनेत्री-निर्देशक के क्लीशे से बचने के लिए इस रिश्ते से भी बचने की कोशिश की. लेकिन प्यार यह देखकर नहीं होता कि क्लीशे है या नहीं. 

हम उनके और अनुराग के वर्सोवा के घर में ही कल्कि से मिलते हैं. घर की एक और सदस्य उनकी बिल्ली डोसा है, जो एक पुरानी कबर्ड पर बैठी है. कल्कि के पास दो बिल्लियां हुआ करती थीं- एक का नाम मसाला था और दूसरी का डोसा. मसाला कुछ दिन पहले भाग गई. ‘अब हमारे पास बस सादा डोसा है,’ वे अपलक देखती रहती हैं और फिर मुस्कुराती हैं. उनकी हंसी और चुटकुले इसी तरह अचानक आते हैं. एक बार एक पत्रकार ने उनसे उनके फेवरेट खान के बारे में पूछा था तो उन्होंने जवाब दिया था – चंगेज खान.  

जीवन और काम में अब तक वह तमाम स्टीरियोटाइप्स से लड़ी और जीती है. अपनी पहली ही फिल्म में वह टीनेज वेश्या बनी. ऐसा दुर्लभ किरदार उसने परफेक्शन के साथ जिया, जिसे अपने काम पर दुख या पछतावा नहीं था. जहां लोग इमेज बनाने बिगड़ने की चिंता में मरे जाते हैं, उसे अपनी पहली ही फिल्म के किरदार में एक ब्लोजॉब के एमएमएस का हिस्सा बनना था और फिर ‘यैलो बूट्स’ में पिता की तलाश की एक त्रासद कहानी की ऐसी नायिका बनना था जो अपने पिता को हैंडजॉब दे रही है. ‘शंघाई’ में जब वह पागलों की तरह अहमदी को चूमती है तो उसमें उत्तेजना कहीं नहीं है. उसके ऐसे सब किरदारों में उत्तेजना सबसे आसानी से पैदा की जा सकती थी लेकिन उसका अभिनय शरीर की नहीं, आत्मा की भूख की बात करता है. ’शंघाई’ के निर्देशक दिबाकर बनर्जी को अपने किरदार के लिए ऐसी अभिनेत्री चाहिए थी जिसमें सुंदर दिखने और सहानुभूति पाने की चाह न हो और जो दुख भोगते हुए रोए नहीं. वे कहते हैं, ‘आजकल आप या तो स्टार को ले सकते हैं या ऐक्टर को. कल्कि उन कुछ लोगों में से है जो दोनों हैं.’ दिबाकर कहते हैं कि वह बॉलीवुड में एक आउटसाइडर है, अपनी त्वचा के रंग से नहीं बल्कि उन किरदारों से जो वह चुनती है. ‘शैतान’ की साइकोटिक ड्रग एडिक्ट से लेकर ‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’ की बिगड़ैल अमीरजादी तक उसने अपने जीवन से कहीं दूर के रोल किए हैं. 

उसे सुंदर दिखने की परवाह नहीं है और यही उसका आकर्षण बढ़ाता है. मेकअप उसे दुश्मन लगता है और वह मजबूरी में महीने में एक बार पार्लर जाती है. ‘मैं खूबसूरत नहीं हूं. मैं ऐसी लड़की हूं कि मुझे आप जितना जानते जाएंगे, मैं आपको उतनी ही सुंदर लगती जाऊंगी.’ इसीलिए वह बेफिक्री से कुछ भी पहनकर, कैसे भी बालों में मुंबई की सड़कों पर घूमती है, पृथ्वी थियेटर में दोस्तों से गप्पें मारती है और वह हर काम करती है, जिससे हिंदी फिल्मों की हीरोइन की ‘नाजुक’ और ‘अप्राप्य देवी’ वाली इमेज टूटती हो. 

स्वभाव का यह फक्कड़पन शायद उसे अपने परिवार से ही मिला है. उसके पूर्वज मौरिस कैकलैं ने एफिल टावर डिजाइन किया था. उसके पिता जोएल कैकलैं घूमते हुए भारत आए और यहां औरोविले आश्रम में उसकी मां से मिले.

वे दोनों ऊटी के पास के एक गांव कल्लाट्टी में रहने लगे और वहीं कल्कि का जन्म हुआ. उसने जो पहली भाषा सीखी वह तमिल थी. ‘हिप्पी शब्द का अर्थ लोग चरसी टूरिस्ट्स से ही लगाने लगे हैं, लेकिन मेरे माता-पिता एक सामाजिक मूवमेंट का हिस्सा थे. उन्हें उनकी खोजी आत्माएं एक साथ यहां तक लाईं. उनके पास कुछ भी नहीं था और वे एक आइडियोलोजिकल जिंदगी जीना चाहते थे. मैंने भी बहुत अनिश्चितताओं वाला और अपने मन का काम चुना है लेकिन वे मुझसे कहीं ज्यादा आज़ाद हैं.’ ऊटी में बोर्डिंग में स्कूलिंग करने के बाद उसने लंदन के गोल्डस्मिथ कॉलेज से थियेटर की पढ़ाई की और वहां उसने पहली बार जाना कि चाहे उसके माता-पिता फ्रेंच हों लेकिन असल में वह पूरी भारतीय है. 

वह अपनी प्रतिभा को सिद्ध करने वाले तरह-तरह के रोल कर चुकी है, लेकिन अब भी कभी-कभी मीडिया उसके नाम के साथ मिसेज कश्यप का टैग लगाकर उसके काम को छोटा करने की कोशिश करता रहता है. यह हिंदुस्तानी पुरुष की मानसिकता में ही कहीं गहरे बैठा है कि किसी औरत के संघर्ष को उसके पुरुष साथी की सफलता पर टांग दिया जाए, क्योंकि यह उसके पुरुषवादी वर्चस्व को चुनौती नहीं देता. लेकिन नीलगिरी के पहाड़ों से बिना कुछ लिए मुंबई आई उस लड़की को ऐसी बातों की क्या परवाह होगी जिसने पढ़ाई के दौरान लंदन में पॉपकोर्न भी बेचे हों.

‘मैं थोड़ी भी असुरक्षित होती तो ऐसे आरोप मुझे खत्म कर देते. लेकिन हम बिलकुल अलग दो लोग हैं और मैं इतनी आजाद-खयाल हूं कि उस पर निर्भर रहने का सोच भी नहीं सकती.’ वे दोनों साथ हों तो नए-नए किशोर जोड़े जैसे लगते हैं, एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हुए, किसी टीवी इंटरव्यू में मेज के नीचे पैरों से दूसरे के पैरों को छूते हुए. अनुराग में भी उन्होंने सकारात्मकता भरी है. ‘मैं अब पहाड़ों पर जाता हूं, समंदर में नहाता हूं, बैग पैक करके कभी भी छुट्टियां मनाने निकल पड़ता हूं. एक रूढ़िवादी बनारसी आदमी को कोई यह सब करते सोच सकता है?’

वे किसी स्कूली लड़के के से उत्साह से अपनी प्रेमिका की खूबियां गिनाते हैं. ‘वह कविता लिखती है, कहानियां लिखती है, पोर्ट्रेट बनाती है और जादू भी करती है. हमारी शादी की रात वह शंघाई के डायलोग्स की रिहर्सल कर रही थी. अभी तुम्हें उसकी आवाज सुनाई दे रही है? वह बाथरूम में है और अपना नाटक हैमलेट बड़बड़ा रही है. वह पागल है.’ वह पागल है और हमें उसके अभिनय की बेहद जरूरत है. भले ही अभी हम उसे भारतीय लड़की के रोल में स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं हों, लेकिन उसके लगातार बेहतरीन काम के बाद यह हमारी नजरों और दिमाग की ही समस्या है, उसकी कमी नहीं. 

लेकिन हम ऐसे हैं, इसीलिए उसे लगता है कि हो सकता है कि एक दिन ये सब लोग एक गोरी लड़की के लिए किरदार लिखना बंद कर दें. लेकिन वह कल्कि है और कल्कि कभी भविष्य की परवाह नहीं करती. उसने बड़ापाव पर दिन गुजारकर भी नाटक किए हैं और अब भी उसके पैर-सिर और आत्मा जमीन पर हैं, शायद कल्लाट्टी में. अनुराग कहते हैं कि उनके पास कल्कि से ज्यादा कपड़े हैं. कितनी स्त्रियों के साथी ऐसा कह सकेंगे? और वैसे भी बकौल अनुराग, ‘उसे बिना प्लानिंग के जिंदगी जीना पसंद है.’ जिस दिन उसे लगेगा कि हमारे पास उसके लायक रोल नहीं हैं, तो वह हमारे हिसाब से नहीं ढलेगी. वह अपना बैग पैक करेगी और हमें छोड़कर किसी दूसरी मंजिल के लिए निकल जाएगी. यहीं वह मुस्कुराकर टीएस इलियट की अपनी पसंदीदा लाइनें दोहराती है- हमारी तलाश कभी खत्म नहीं होगी और तलाश के अंत में हम वहीं पहुंचेंगे जहां से हमने शुरू किया था, और तभी हम उस जगह को पहली बार जानेंगे.

(सुनयना कुमार के सहयोग के साथ)