Home Blog Page 1488

बगैर भूमिका की कविताएं

पुस्तक: नयी सदी के लिए चयन /पचास कविताएं 

कवयित्री: सविता सिंह 

मूल्य: 65रुपये 

पृष्ठ: 80

प्रकाशन: वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

वाणी प्रकाशन ने ‘नयी सदी के लिए चयन’ सीरीज में 100 कवियों की 50 प्रतिनिधि कविताओं का संचयन प्रकाशित करने की योजना बनाई है, जिसमें तुलसीदास से लेकर वर्तमान समय में लिख रहे कवियों को शामिल किया गया है. इस योजना के अनुसार हरेक कवि की 50 कविताएं बिना किसी भूमिका के पाठकों तक सीधे पहुंचाने की है. इसी प्रयास के तहत सविता सिंह की पचास प्रतिनिधि कविताओं का संकलन आज हमारे बीच है. 

संकलन की कविताएं, एक लंबी कविता ‘चांद, तीर और अनश्वर स्त्री’ सहित विस्तृत फलक पर विविध अनुभूतियों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हैं, जिसका मुख्य स्वर ‘स्त्रीवादी’ है. कवयित्री सविता सिंह अपनी कविताओं के संदर्भ से कविता की उपस्थिति और उसके राजनीतिक संकल्प को ‘कविता का जीवन’ शीर्षक कविता में अभिव्यक्त करती हैं : मुझसे भी जटिल जिंदगी जिएंगी मेरी कविताएं/ सोई रहेंगी कोई सौ साल…/ तब भी उन्हें यह संसार अनुपम ही लगेगा अपनी क्रूरता में / तब भी वे ढूंढ़ेंगी प्रेम और सहिष्णुता ही इस संसार में.  

यह संकलन एक सचेत कवयित्री का संकलन है जो विद्रूपताओं के खिलाफ अपना मैंडेट देती हैं, सुंदर, स्वस्थ मुक्ति के स्वप्न रचती हैं और यथार्थ  की विडंबनाओं से वाकिफ भी है. ‘मुक्ति के फायदे’ और ‘याद रखना नीता’ शीर्षक कविताएं स्त्री मुक्ति के सपने को ‘को-ऑप्ट’ कर लिए जाने के सत्य की ओर इशारा करती हैं, सचेत करती हैं- ‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए अब/ एक समय जैसे मुक्त हुआ था श्रम पूंजी के लिए (मुक्ति के फायदे) तथा ‘याद रखना नीता/ एक कामयाब आदमी सावधानी से चुनता है अपनी स्त्रियां/ बड़ी आंखों सुन्दर बांहों लम्बे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएं / चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धंसी आंखों वाली मेहनती/ कम बोलने वाली पत्नियां (याद रखना नीता). संकलन की ‘मुश्ताक मियां की दौड़’ कविता जैसी कविताएं सांप्रदायिकता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद द्वारा पोषित क्रूरता को संबोधित करती हैं तो ‘जहाँ मेरा देश था’ कविता नवसाम्राज्यवाद के प्रति आगाह करती है. सविता सिंह ने हिंदी कविता को पिछले 10 साल में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, स्त्रीवादी स्वर और सौंदर्य शास्त्र के साथ.  

-संजीव चंदन

 

 

अनबूझ अनुवाद

‘प्रकाशक प्रति शब्द 10 या 15 पैसे देता है. इसके बाद आप उम्मीद करें कि बढ़िया अनुवाद हो जाए. क्या यह संभव है? ‘विश्व क्लासिकल साहित्य शृंखला (राजकमल प्रकाशन) के संपादक सत्यम के ये शब्द उस बीमारी की एक वजह बताते हैं जिसकी जकड़ में हिंदी अनुवाद की दुनिया आजकल है. अनुवाद यानी वह कला जिसकी उंगली पकड़कर एक भाषा की अभिव्यक्तियां दूसरी भाषा के संसार में जाती हैं और अपने पाठकों का दायरा फैलाती हैं. लेकिन इस कला की सेहत आजकल ठीक नहीं. जानकारों के मुताबिक हिंदी में होने वाले अनुवाद का स्तर बहुत खराब है. इसके चलते दूसरी भाषा की अच्छी रचनाओं को हिंदी में पढ़ने का आनंद काफी हद तक जाता रहता है. जैसा कि कवि और पत्रकार पंकज चौधरी कहते हैं, ‘बहुत सारी अंग्रेजी भाषाओं के  प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों को पढ़ने का मन होता है. लेकिन कई बार अंग्रेजी से  अनूदित होकर हिंदी में आई किसी किताब को पढ़कर लगता है कि इससे अच्छा तो मूल किताब ही पढ़ ली जाती.’

अपने काम को लेकर ज्यादातर अनुवादकों के अनुभव अच्छे नहीं होते. कहानीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘पेंगुइन जैसा बड़ा प्रकाशक डिमाई आकार के एक पन्ने (औसतन 300-350 शब्द) के लिए 80 रुपये देता है. राजकमल और वाणी प्रकाशन का रेट थोड़ा ठीक है. वे प्रति शब्द 40 पैसे देते हैं.’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक की जिम्मेदारी संभाल चुके सत्यानंद निरुपम भी कहते हैं, ‘प्रकाशक प्रति शब्द 22 पैसे मेहनताना देते हैं जबकि गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) एक रुपया प्रति शब्द या इससे ज्यादा भी दे देते हैं. जबकि साहित्य की सामग्री का अनुवाद एनजीओ की सामग्री की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन होता है.’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक रियाज उल हक का कहना है, ‘अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की दर अब 100-135 रुपये प्रति पृष्ठ कर दी गई है.’ लेकिन कुछ अनुवादकों का मानना है कि यह दर भी बहुत राहत देने वाली नहीं है.

लेकिन अनुवाद की बदहाली का कारण सिर्फ कम मेहनताना नहीं है. विशेषज्ञता की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है. सत्यम कहते हैं, ‘यूरोप में विशेषज्ञ अनुवादकों की लंबी परंपरा रही है. मसलन चेखव का अनुवाद करने वाले उनके साहित्य के शोधार्थी रहे हैं. उन पर लगातार लिखने या उन्हें जानने वालों को ही यह जिम्मा मिलता रहा है. वहां प्रकाशक अनुवादकों को काम सौंपते समय बहुत सतर्क रहते हैं. लेकिन भारत में आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अनुवादकों को अनुवाद के विषय की कोई जानकारी नहीं होती है. यही वजह है कि स्थिति ‘हंसिया के ब्याह में खुरपी का गीत’ जैसी हो जाती है.’
प्रकाशकों द्वारा अनुवादकों का नाम नहीं दिया जाना भी एक बड़ा कारण है. ‘गीतांजलि के हिंदी अनुवाद’  पुस्तक के लेखक देवेंद्र कुमार देवेश कहते हैं,  ‘प्रकाशक अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करना चाहते.’ इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘दरअसल वे अनुवाद के काम को दोयम दर्जे का मानते हैं. खास तौर पर बांग्ला से हिंदी में अनूदित किताबों में नाम देने की परंपरा रही ही नहीं है. नाम दिए जाने से अनुवादकों की जिम्मेदारी तय होती है और जाहिर- सी बात है कि वे काम को गंभीरता से लेते हैं.’ कमोबेश यही आलम अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में भी है. एक अनुवादक और लेखक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के काम को चलन में लाने वाला प्रभात प्रकाशन आम तौर पर अपने अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करता.

अनुवादकों की जिम्मेदारी के बारे में अनुवादक विमल मिश्र कहते हैं, ‘मूल रचनाकार अपनी रौ में लिखता जाता है, उस पर कोई बंदिश नहीं होती. लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जैसे इंिजन के ड्राइवर की जिम्मेदारी होती है मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने की, ठीक वैसी ही जिम्मेदारी अनुवादक की होती है मूल रचना के भाव को अनूदित रचना में समेकित करने की. अनुवादक को जवाब देना पड़ता है – प्रकाशक को, पाठकों को और मूल पुस्तक के रचनाकार को भी.’ हालांकि जब हम मुद्दे के दूसरे पहलू यानी प्रकाशकों को टटोलते हैं तो समस्या की एक और भी वजह सामने आती दिखती है. वाणी प्रकाशन के मालिक अरुण माहेश्वरी कहते हैं,  ‘काम और पैसे देने वालों की कोई कमी नहीं है. हमने सआदत हसन मंटो की कहानी उर्दू से हिंदी में करवाई. अनुवादक महोदय ने चवन्नी नामक पात्र को चन्नी कर दिया. इसमें पैसे का मामला कहां है? हम मेहनताना तय करना अनुवादकों पर छोड़ देते हैं. हकीकत तो यह है कि अनुवाद की किताबें हमारे लिए मुनाफा देने वाली नहीं होती हैं. ‘ऐसा पूछने पर कि इसकी वजह क्या है, माहेश्वरी कहते हैं, ‘अनुवाद की किताब तैयार करने में अनुवादक, प्रूफ रीडर और संपादक को अलग-अलग पैसा देना होता है.’ अनुवादकों को मुंहमांगी कीमत देने के नाम पर माहेश्वरी महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का नाम गिनाते हैं. गांधी ने वाणी प्रकाशन के लिए विक्रम सेठ की किताब ‘ए सुटेबल ब्वॉय’ का अनुवाद किया है.

‘मूल रचनाकार पर कोई बंदिश नहीं होती. लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है’

लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का हैं और ज्यादातर अनुवादक गोपाल कृष्ण गांधी की तरह अपना मेहनताना खुद तय करने जैसी स्थिति में नहीं होते. और रही बात कम मुनाफे की तो अगर ऐसा होता तो इस समय बाजार में अनूदित सामग्री की जो बाढ़ आई हुई है वह नहीं दिखती. इस बाढ़ का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के प्रकाशकों पेंगुइन और हार्पर कॉलिन्स से आता है. सत्यम कहते हैं, ‘ज्यादातर मामलों में अनुवाद मशहूर किताबों का ही होता है. अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताब का हिंदी में अनुवाद कराया जाता है, इसलिए लाइब्रेरी से खरीद बड़े पैमाने पर हो जाती है. इन किताबों के अनुवाद के कई संस्करण प्रकाशित होते हैं और इनसे प्रकाशक लंबे समय तक मुनाफा कमाते हैं.’वैसे वजहों पर भले ही सहमति न हो, लेकिन इस पर सब सहमत हैं कि अनुवाद के स्तर में गिरावट आई है. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के मामले में ऐसे भी कई उदाहरण मिल जाते हैं जहां दो शब्दों से लेकर तीन-तीन पैराग्राफ या कई पन्ने छोड़ दिए जाते हैं. अंग्रेजी के कई मुहावरे जिनका हिंदी में अनुवाद हो सकता है और जो पाठकों की दिलचस्पी बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं, उन्हें अनुवादक हिंदी पाठकों के स्तर का हवाला देकर छोड़ देते हैं. इसे समझने के लिए यहां यथार्थवाद के प्रवर्तक और प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक स्तांधाल के सबसे चर्चित उपन्यास ‘सुर्ख और स्याह’ का सहारा लिया जा सकता है. इस उपन्यास में विभिन्न अध्यायों की शुरुआत में कोई पद्यांश या सूक्ति या फिर कथन दिया गया है जिसके साथ किसी विख्यात हस्ती का नाम है. ये उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मगर हिंदी में पहली बार प्रकाशित अनुवाद से ये नदारद थे.

अनुवाद में लापरवाही का यह सिलसिला अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद तक ही सीमित नहीं है. बांग्ला के कई क्लासिक उपन्यासों के अनूदित संस्करण दशकों से हिंदी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रहे हैं. लेकिन इनमें भी बड़ी भूलें मौजूद हैं. 20वें पुस्तक मेले में शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यासों के नए हिंदी अनुवाद का विमोचन किया गया. इन किताबों का नए सिरे से अनुवाद कराने की जरूरत पर राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी का कहना था, ‘ये किताबें अब रॉयल्टी से बाहर हो चुकी हैं. मगर इन किताबों के जो हिंदी संस्करण बाजार में बिक रहे हैं वे आधे-अधूरे हैं. उनके अनुवाद बहुत खराब हैं. पन्ने के पन्ने गायब हैं. बांग्ला में कुछ कहा गया है और हिंदी अनुवाद में कुछ और.’ राजकमल से प्रकाशित ‘पथ का दावा’ के अनुवादक विमल मिश्र किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘शरत बाबू के उपन्यास ‘पथेर दाबी’ का हिंदी अनुवाद ‘पथ का दावा’ होगा न कि ‘पथ के दावेदार’. दरअसल इस उपन्यास के कथानक का मूल आधार ‘पथ का दावा’ नाम की समिति है. हिंदी के ‘दावेदार’ शब्द के लिए बांग्ला में ‘दाबिदार’ शब्द है.’

खराब अनुवाद की एक बड़ी वजह अनुवादकों में नजरिये का अभाव होना भी है. किसी समाज में किसी शब्द का क्या मतलब है, इसे समझे बगैर अनुवाद कर देने से अर्थ का अनर्थ होना तय है. दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी में ‘कंपरेटिव लिटरेचर’ के तहत मुंशी प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ाया जा रहा है.  गोदान शीर्षक की व्याख्या करते हुए अनुवादक ने इसे ‘अ गिफ्ट ऑफ काऊ’ लिखा है जबकि इसका ठीक अनुवाद ‘ऑफरिंग ऑफ अ काऊ’ होगा. किसी प्रियजन के मरने के बाद ब्राह्मण आत्मा को मुक्त करने के नाम पर यजमान पर दान-दक्षिणा के लिए दबाव बनाता है. इसे यजमान की इच्छा पर नहीं छोड़ता. ‘गोदान’ का पूरा कथानक ही वर्णवादी व्यवस्था की इस कुरीति के खिलाफ है. वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा कहते हैं, ‘अनुवाद हमेशा भाव का होता है. शब्द का अनुवाद करने की कोशिश करेंगे तो हमेशा गड़बड़ियां पैदा होंगी.’
एक और अहम बात यह है कि तीन-चार दशक पहले तक कई नामी-गिरामी साहित्यकार व्यापक स्तर पर अनुवाद किया करते थे. उनका काम बाकी लोगों के लिए मिसाल होता था. अशोक माहेश्वरी अनुवादकों की फेहरिस्त सामने रखते हुए मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा और द्रोणवीर कोहली जैसे नामवर साहित्यकारों का भी नाम लेना नहीं भूलते.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों आज नामचीन साहित्यकार अनुवाद की कला से दूर होने लगे हैं. इसके जवाब में अशोक माहेश्वरी कहते हैं, ‘आज साहित्यकारों के लिए अनुवाद रोजी-रोटी का विकल्प नहीं रह गया है. विश्वविद्यालय में पढ़ाने से लेकर फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में पटकथा लेखन तक उनके लिए कई दरवाजे खुल गए हैं.’ दरअसल अनुवाद एक भाषा की सामग्री को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है. इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात, उसमें छिपे या प्रकट भावों को बहुत ही संजीदगी से दूसरी भाषा में अनूदित करना होता है. निरुपम कहते हैं, ‘अनुवाद के जरिए आप एक संस्कृति का भी अनुवाद कर रहे होते हैं. इसे समझे बगैर अच्छा अनुवाद नहीं किया जा सकता. अगर यह काम ठीक से नहीं होगा तो भाषा की समृद्धि का सवाल  पीछे छूटेगा ही, साथ ही अनूदित किताबों के बाजार की संभावनाएं भी कमजोर होंगी.’

‘कमजोर सरकार के कारण ये नौकरशाह मनमानी कर रहे हैं’

झारखंड एकेडमिक काउंसिल में फैली अराजकता का आलम यह है कि परीक्षा के नतीजे दो बार घोषित किए गए जिससे सारे टॉपर तक बदल गए. सीबीएसई बोर्ड में जो छात्र फेल था वह यहां का टॉपर बन गया. राज्य के शिक्षा मंत्री बैजनाथ राम, जिनका बेटा और बेटी इस साल लगातार दूसरी बार फेल हो गए हैं, अनुपमा को बता रहे हैं कि काउंसिल की अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह इन सारी गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार हैं

झारखंड बोर्ड का रिजल्ट सुबह कुछ और था, शाम को कुछ और हो गया. यह गड़बड़ी कैसे हुई?

यह झारखंड एकेडमिक काउंसिल की लापरवाही है. इसी कारण कभी टॉपरों की लिस्ट बदल दी जाती है तो कभी टॉपर को फेल कर दिया जाता है, एक ही विद्यार्थी दो-दो जगहों से परीक्षा दे देते हैं. इन गड़बडि़यों को हम ठीक करके रहेंगे. पर पहले अधिकारियों पर कार्रवाई की जरूरत है. 

विभाग आपका है, कार्रवाई तो आप ही को करनी है. 

सरकार अपने तरीके से एक्शन लेती है. हमने सरकार को सही तथ्यों से अवगत करा दिया है. कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है.जेएसी की अध्यक्ष लक्ष्मी सिंह से आपकी पुरानी तकरार है. पिछले साल भी आप उन्हें हटाने की बात कर रहे थे पर आज तक उन्हें शोकॉज नोटिस तक जारी नहीं हो सका? अगर मेरे हाथ में होता तो कब का हटा चुका होता. यह मुख्यमंत्री पर निर्भर करता है कि वे कब कार्रवाई करते हैं. 

मुख्यमंत्री आपकी बात सुनते क्यों नहीं है? 

मुझे नहीं पता वे क्या सोच रहे हैं. लेकिन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होगी. किसी को मनमानी करने की छूट लोकतंत्र में नहीं दी जा सकती.

आपका पुत्र और पुत्री लगातार दूसरी बार फेल हो गए. कहीं वे जानबूझकर निजी खुन्नस तो नहीं निकाल रही हैं? 

यह निजी बात है. बेहतर होता कि एक जांच टीम बनाकर जांच होती. एक शिक्षक का बेटा फेल नहीं होता. एक अधिकारी का बेटा सीबीएसई में फेल हो गया और जेएसी में टॉपर बन गया. चाहता तो मैं भी ऐसा कर सकता था. लेकिन मैं बेईमानी से शिक्षा हासिल करने के पक्ष में नहीं हूं. मैंने अपने पद और रुतबे का कभी दुरुपयोग नहीं किया है.

तो क्या आप अपने बच्चों की कॉपी का पुनर्मूल्यांकन करवायेंगे? 

इस मामले में भी काउंसिल अध्यक्ष ने अनियमितता बरती है. मेरे बच्चों ने सामान्य पुनर्मूल्यांकन का आवेदन दिया लेकिन उनकी कॉपियों की स्पेशल स्क्रूटनी की गई. क्या जेईसी अध्यक्षा बताएंगी कि किस अधिकार के तहत उन्होंने ऐसा किया है. काउंसिल में ऐसी गड़बडि़यों का अंबार है. स्क्रूटनी करने वाले लोग खुद अयोग्य हैं.

आपको इतनी शिकायतें हैं काउंसिल अध्यक्ष से. आपने इस्तीफे तक की धमकी दी. क्या उन्हें हटाया जाएगा? 

मैंने सरकार से साफ-साफ कहा है कि इन्हें अविलंब हटाया जाए. इससे राज्य का अहित हो रहा है. आज यदि सर्वेक्षण करवा लिया जाए तो राज्य के अस्सी फीसदी से ज्यादा लोग उन्हें पद से हटाने के पक्ष में हैं. इस महिला के कारण काउंसिल की विश्वसनीयता खत्म हो गयी है.

एक अधिकारी के सामने विभाग का मंत्री इतना बेबस क्यों है?  

हमारी सरकार कमजोर है इसलिए. जब तक स्थाई और स्थिर सरकार नहीं बनेगी, ब्यूरोक्रेसी हावी रहेगी. वे राज्य को अपने हिसाब से चलाते रहेंगे. जब मंत्री को अधिकार ही नहीं रहेगा तो भला अधिकारी क्यों उसकी बात सुनेगा.

झारखंड का शिक्षा विभाग आए दिन अजब-गजब करतबों और आपसी तकरार के कारण ही चर्चा में रहता है. कुछ सकारात्मक योजना भी है इसके पास?

हमारी प्राथमिकता है कि पहले शिक्षकों को स्कूल तक पहुंचाएं. जो सीटें खाली पड़ी हैं उन्हें भरा जाए. जल्द ही हम यह कानून बनाने जा रहे हैं कि किसी भी शिक्षक को कम से कम दस साल ग्रामीण क्षेत्रों में जरूर रहना होगा. इसके अलावा कोई भी शिक्षक अब एक ही स्कूल में दस साल से ज्यादा किसी भी हाल में नहीं रह पाएगा.

कपूर आयोग: गांधी जी की हत्या

जिस आयोग ने विनायक दामोदर सावरकर की भूमिका को इस मामले में संदिग्ध बताया.  

महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में कुल सात लोगों को सजा सुनाई गई थी. इनमें से मुख्य आरोपित नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को तो फांसी हो गई थी और बाकी लोगों को उम्र कैद. गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में हिंदू सभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर पर भी मुकदमा चला था लेकिन उन्हें अदालत ने बरी कर दिया था.

इस मामले में उम्र कैद की सजा पूरी करने वाले तीन आरोपित- मदल लाल पाहवा, गोपाल गोडसे और विष्णु करकरे जब 1964 में पुणे लौटे तो उनके जेल से छूटने पर एक कार्यक्रम आयोजित हुआ. यहीं डॉ जीवी केतकर जो तरुण भारत अखबार के संपादक थे, ने एक ऐसा बयान दिया जिसने 16 साल बाद गांधी जी की हत्या के मामले को एक बार फिर चर्चा में ला दिया. बाल गंगाधर तिलक के पोते, डॉ केतकर का कहना था कि गांधी जी की हत्या के छह महीने पहले उन्हें इसकी सूचना मिल गई थी और उन्होंने तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री बीजी खेर को इस बारे में सतर्कता बरतने की सलाह देते हुए सूचना भिजवा दी थी.

डॉ केतकर के इस बयान के बाद तुरंत ही संसद सहित महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामा होने लगा. अखबारों में कहा जा रहा था कि गांधी जी की हत्या की सूचना सरकार को पहले से थी तो सुरक्षा पुख्ता क्यों नहीं की गई? इन स्थितियों में केंद्र सरकार ने सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल स्वरूप पाठक की अगुवाई में गांधी जी की हत्या के पीछे षड्यंत्र की नए सिरे से जांच के लिए एक आयोग बना दिया. लेकिन कुछ ही दिनों बाद पाठक केंद्रीय मंत्री बन गए. तब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग बनाया गया. इस आयोग ने तीन साल तक मामले की गहन छानबीन की. पहली बार सावरकर के दो सहयोगियों के हलफनामे को भी आयोग ने जांच में शामिल किया. ये हलफनामे अदालत में प्रस्तुत नहीं किए गए थे. तीन साल की जांच के बाद आयोग ने जो जांच रिपोर्ट दी उसमें साफ-साफ कहा गया कि बेशक कोर्ट ने सावरकर को इस मामले में दोषी न ठहराया हो, लेकिन कुछ लोगों के हलफनामे और दूसरे सबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सावरकर और उनके संगठन की गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में सक्रिय भूमिका थी.  

-पवन वर्मा

दरबार के दागी रतन

जिस हल्ले के साथ अखिलेश की सत्ता में वापसी हुई थी, वह मंद पड़ रहा है. जिस नई राजनीति की चर्चा थी, उस पर सवाल उठाए जा रहे हैं. ऐसा व्यक्ति जो चौतरफा आरोपितों, दागियों और भ्रष्टों से घिरा है, क्या वह ईमानदार फैसले ले सकता है? आखिर क्या मजबूरी रही अखिलेश यादव की जो उन्होंने चुन-चुन कर ऐसे अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जिनके ऊपर तरह-तरह के आरोप हैं. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट.

 


 

अनिता सिंह

पद: सचिव, मुख्यमंत्री 

मामला: गोमतीनगर भूमि घोटाला

मौजूदा स्थितिः सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन

अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही 15 मार्च की दोपहर आईएएस अधिकारी अनीता सिंह को मुख्यमंत्री के सचिव पद का तोहफा दिया. 2005 में सपा सरकार के कुछ करीबी नेताओं व अधिकारियों को नियम-कानूनों को दरकिनार कर गोमतीनगर जैसे पॉश इलाके में प्लाट आवंटित करने का आरोप सिंह पर है. खुद उनके नाम भी एक प्लॉट आवंटित हुआ था. मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन होने के बावजूद अखिलेश यादव ने उन्हें इतना महत्वपूर्ण ओहदा दिया. दबी जुबान से यह भी कहा जा रहा है कि अनीता सिंह को मुलायम सिंह के पिछले कार्यकाल में सपाइयों के प्रति दिखाई गई हमदर्दी का इनाम दिया गया है.

 

 

 

राजीव कुमार, प्रमुख सचिव

राजीव कुमार

पद: प्रमुख सचिव 

मामला: नोएडा प्लॉट आवंटन घोटाला

मौजूदा स्थितिः सीबीआई चार्जशीट दाखिल हो चुकी है

राजीव कुमार सचिवालय के सबसे महत्वपूर्ण ओहदे पर हैं. इनके ऊपर नोएडा के प्लाट आवंटन घोटाले में सीबीआई की चार्जशीट है. मुलायम सिंह के पिछले कार्यकाल में मुख्य सचिव रही नीरा यादव के साथ राजीव कुमार पर नोएडा भूमि आवंटन घोटाले के छींटे पड़े थे. सीबीआई ने उन्हें आरोपित बनाया था. मामला अभी गाजियाबाद की सीबीआई कोर्ट में चल रहा है. मई, 2012 में सीबीआई कोर्ट ने बयान दर्ज करवाने के लिए राजीव कुमार को तलब किया था. 

 

 

पंधारी यादव

पद : विशेष सचिव, मुख्यमंत्री 

मामला : सोनभद्र में तैनाती के दौरान मनरेगा में करोड़ों रुपये का गबन हुआ  

मौजूदा स्थितिः मामला रफा-दफा कर दिया गया है

मुख्यमंत्री सचिवालय में तैनात आईएएस पंधारी यादव आज जितना सपा के करीब हैं मार्च, 2012 से पहले तक उतना ही बसपा सरकार के भी करीब थे. दो साल से अधिक समय तक यादव सोनभद्र जिले के डीएम रहे और उनके कार्यकाल में करोड़ों के घपले मनरेगा में होते रहे. केंद्र व राज्य सरकार की जांच टीमों ने दौरा करके इस घोटाले को उजागर किया. बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने सीबीआई जांच को टालने के लिए निचले स्तर के कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया और यादव को डीएम के पद से हटा कर यमुना एक्सप्रेसवे अथारिटी में भेज दिया.

 

 

 

राकेश बहादुर

पद: चेयरमैन, नोएडा अथॉरिटी 

मामला: नोएडा में पांच सितारा होटलों के प्लॉट आवंटन में घोटाला. प्रवर्तन निदेशालय में मनी लॉन्डरिंग मामला

मौजूदा स्थितिः प्रवर्तन निदेशालय को उनके जवाब का इंतजार है

नोएडा अथारिटी के चेयरमैन राकेश बहादुर पिछली सपा सरकार में भी इसी पद पर तैनात थे. 2006 में नोएडा में थ्री, फोर व फाइव स्टार होटलों के लिए प्लॉट आवंटन हुए थे. इसमें कथित घोटाले को देखते हुए बसपा सरकार ने 2007 में इन आवंटनों को रद्द कर दिया था. साल 2009 में राकेश बहादुर को मायावती ने निलंबित भी कर दिया था. 2010 में प्रवर्तन निदेशालय ने इनके खिलाफ मनी लॉन्डरिंग का केस दर्ज करके नोटिस जारी किया है.

 

 

संजीव सरन

पद: सीईओ, नोएडा

मामला: नोएडा प्लॉट आवंटन घोटाला

मौजूदा स्थितिः मामला आर्थिक अपराध शाखा के हवाले कर दिया गया

संजीव सरन मुलायम सिंह की सरकार में नोएडा के सीईओ थे और अखिलेश सरकार में फिर से उसी पद पर भेजे गए हैं. 2006 में नोएडा में हुए 4,000 करोड़ से भी अधिक के कथित भूमि घोटाले में पूर्ववर्ती बीएसपी सरकार के कार्यकाल में इन्हें निलंबित कर दिया गया था. नोएडा के सेक्टर 20 थाने में इनके खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज हुई थी. बाद में यह मामला आर्थिक अपराध शाखा की मेरठ ब्रांच को सौंप दिया गया. विडंबना है कि जिस पद पर रहते हुए सरन भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे और फिलहाल जांच का सामना कर रहे हैं उसी पद पर सपा सरकार ने उन्हें फिर से विराजमान कर दिया है. 

 

सदाकांत

पद: आयुक्त, समाज कल्याण विभाग 

मामला: प्रतिनियुक्ति के दौरान लेह लद्दाख में 200 करोड़ रु.का सड़क घोटाला

मौजूदा स्थितिः सीबीआई जांच जारी है.

सदाकांत इस समय  समाज कल्याण विभाग के आयुक्त हैं. वे दो साल पहले केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गृह मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत थे. उस समय लेह-लद्दाख में 200 करोड़ रुपये का सड़क घोटाला हुआ. सीबीआई ने 2010 में केस दर्ज करते हुए सदाकांत को भी आरोपित बनाया. उनके दिल्ली स्थित घर की तलाशी भी हुई थी. इस मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार ने घोटाले का सूत्रधार मानते हुए सदाकांत की प्रतिनियुक्ति बीच में रद्द करके उन्हें बीच में ही उनके मूल काडर उत्तर प्रदेश वापस भेज दिया. 

 

 

 

 

महेश गुप्ता

पद: आबकारी आयुक्त  

मामला: 1998 में कर्मचारी भर्ती घोटाला

मौजूदा स्थितिः सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है

आबकारी जैसे महत्वपूर्ण विभाग में आयुक्त का पद संभाल रहे महेश गुप्ता का दामन भी सीबीआई जांच से दागदार है. 1998 में सूचना विभाग में कर्मचारियों की हुई भर्ती में घोटाले की जांच सरकार ने सीबीआई से करवाई. भर्ती घोटाले के समय गुप्ता सूचना विभाग में निदेशक थे. सीबीआई ने 2008 में महेश गुप्ता सहित कई अन्य अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी.

 

बृहत्तर आयामों की समझ

पुस्तक: समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन

लेखक: रजनी तिलक, रजनी अनुरागी

मूल्य: 600 रुपये 

पृष्ठ: 322

प्रकाशन: स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली

युवा कवयित्रियों रजनी तिलक और रजनी अनुरागी के संपादन में ‘समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन’ का पहला खंड आ चुका है. इसमें करीब 28 दलित महिला हस्ताक्षरों को शामिल किया गया है. यह अपनी तरह की अकेली पहल है. यह किताब भारतीय समाज के बिखराव को भी दिखलाती है, कि किस तरह यहां शोषण की भी श्रेणियां हैं. अब महादलित की बात भी उठने लगी है. जब तक ये पीड़ित तबके खुद अपनी आवाज बुलंद नहीं करते तब तक उनकी ओर हमारा समर्थ तबका देखता तक नहीं. आवाज उठाने पर भी मात्र तुष्टीकरण की नीयत से काम लिया जाता है.
नतीजा दलित लेखन से दलित महिला लेखन को खुद को अलगाना पड़ता है. इस बारे में रजनी संपादकीय में  लिखती हैं, ‘दलित साहित्यकारों की इसमें रुचि भी नहीं थी कि दलित लेखिकाओं को ढूंढ़ा जाए और उन्हें नरचर किया जाए.’ उनका आरोप है कि ‘अन्यथा’, ‘अपेक्षा’ और ‘हंस’ जैसी ख्यातिनाम पत्रिकाओं ने भी दलित पुरुष लेखकों के संपादन में जो दलित विशेषांक निकाले उनमें भी दलित महिला लेखन की उपस्थिति सांकेतिक ही रही. उनकी आपत्ति है कि ‘पितृसत्तात्मक सोच वाले दलित साहित्यकारों ने अपने वैचारिक भटकावों को ‘पंथ’ का नाम दे दिया है. अंतर्जातीय विवाहों को ‘जारकर्म’ का ठप्पा देते फिर रहे, बेहतर होता कि वे खुद को ‘भगवा’ घोषित कर देते.
दलित साहित्यकारों की ‘वैचारिक उठापटक’ और ‘खेमेबंदी’ भी उनके संघर्ष को कमजोर कर रही है. आश्चर्यजनक है कि इतने बंटवारे के बाद भी हमारे रहनुमा शाइनिंग इंडिया के नारे लगाते नहीं थकते. पर यह कैसा शाइनिंग भारत है, इसकी बाबत अनुरागी अपनी कविता में लिखती हैं, ‘गतिशील भारत में रोते-बिलखते, मजदूर जीवन जीते/ लूले, लंगडे़, अंधे, कुबडे़ भारत की सही तस्वीर दिखाते भारतीय.’ और यह भारत की राजधानी दिल्ली में आइटीओ की तस्वीर है. पुस्तक की संपादकीय सोच सही है कि इस बंटवारे से बाहर आकर आंबेडकरवादी दृष्टिकोण के संदर्भ में  ‘बृहत्तर समाज के साथ संवाद चाहिए ताकि हम दुनिया बदलने में अपनी संगत दे सकें.’ पुस्तक में साहित्य और विमर्श के तमाम मुद्दों पर सामग्री इकट्ठी की गई है. इससे गुजरना भारतीय समाज के बृहत्तर आयामों की एक सही समझ देता है.
-कुमार मुकुल

एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की जिसे संगीत से चित्र बनाने हैं

वह एक लड़की थी, स्कूल बस के लंबे सफर में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई, ‘रंगीला’ का कोई गाना और इस तरह उसके संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई, जिन्हें स्कूल के वाइवा एग्जाम में सुना जाता था. वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था. ऐसे ही एक दिन वह टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी. ‘याई रे’ की धुन टीचर ने सुनी तो उन्होंने डांट दिया. लेकिन घर में ऐसा नहीं होता था. कभी कोई मेहमान आता, कोई फंक्शन होता या पिकनिक पर जाते तो गाना सुनाने को कहा जाता था. गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत खुश होते थे- अरे, आशा से अच्छा गाया है तुमने यह गाना. और वह कहती है कि अच्छा गाती भी थी. मगर आप उसके कहने पर मत जाइए. एक फिल्म आई है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’. उसमें सुनिए कि कैसे वह चुनौती और बदले से भरा ‘कह के लूंगा’ गाती है, और उसी के साथ बच्चों-सी प्यारी आवाज में ‘टैं टैं टों टों’. उसका नाम स्नेहा खानवलकर है. ऐसी मराठी संगीतकार, जो ‘जिया तू बिहार के लाला’ कंपोज करती है और आप अब भी कहते हैं कि मोहब्बत, दूसरों की इज्जत और बराबरी संविधान के रास्ते से आएगी. 

लेकिन फिलहाल दुनिया बदल डालने की बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय हमें अपनी कहानी पर लौटना चाहिए, जहां स्नेहा से गाना गाने के लिए कहा गया है और वह अच्छी बच्ची की तरह गरदन झुकाकर बैठ गई है, दोनों हथेलियां गोद में रखकर, और गाना शुरू कर रही है. गाने में उसका हमेशा अलग जोन में आ जाना इसलिए भी है कि उसे हमेशा लगता रहा कि जो परंपरागत अच्छी मानी जाने वाली आवाज है, लता, आशा, चित्रा या कविता की, या सुनिधि की, वह उससे बहुत दूर है. यूं तो बचपन से ही तारीफ मिलती थी और कहा जाता था कि सिंगर बनो तुम, लेकिन उसे कहीं न कहीं लगता रहा कि उसकी आवाज को स्वीकार नहीं किया जाएगा. और उसे दूसरों के हिसाब से ढलने और उन्हें खुश करते रहने में जिंदगी नहीं बितानी थी. लेकिन जिंदगी बितानी कैसे थी? एक मध्यवर्गीय मराठी परिवार था. पिता इंजीनियर थे, भाई भी इंजीनियर. स्नेहा की ड्रॉइंग अच्छी थी तो कहते थे कि इसे आर्किटेक्ट बनाएंगे. पर स्नेहा तो म्यूजिक को लेकर ‘टची’ होती जा रही थी. सब मेटल सुन रहे हैं तो उसे क्यों नहीं समझ आ रहा? ‘संगीत मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसी यह भावना ही उसे संगीत में और डुबोती गई. 

उसकी एक और खासियत थी कि जब भी बातें करती थी, उनमें ध्वनियां बहुत स्वाभाविक ढंग से आती थीं. मोटरसाइकिल पर कहीं जाने की बात करनी हो तो उसके ‘ढक ढक ढर्र’ स्टार्ट होने की आवाज के बिना पूरी नहीं होती थी. किसी अंग्रेजी गाने के बोल नहीं आते थे तो ‘टैंग टैंग टिंग टिंग’ या ऐसी ही किसी मजेदार ध्वनि से रीप्लेस करके गाती रहती थी. उसे इसमें मजा आता था कि कितने सारे वाद्ययंत्रों की आवाजों की हम नकल करते हैं, कर सकते हैं और तब वह नकल अलग ही आवाज बन जाती है और उस इंस्ट्रूमेंट का चरित्र ही बदल देती है. तब उसे नहीं पता था कि उसे कुछ साल बाद ‘साउंड ट्रिपिंग’ नाम का एक टीवी शो करना है, जिसमें वह भारत के गली-मोहल्लों-गांवों-खेतों-मैदानों-पहाड़ों में जाकर आवाजें ढूंढ़ेगी और उनसे संगीत रचेगी. उसने पंजाब की प्रतिभावान नूरा बहनों के साथ मिलकर और उसमें स्पोर्ट्स कमेंट्री मिलाकर तुंबी का ‘टुंग टुंग’ बनाया. एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी की आवाजों से ‘स्क्रैप रैप’ बनाया और अफ्रीकन मूल की कर्नाटक में रहने वाली एक जनजाति के कोंकणी गीत से ‘येरे येरे’ बनाया. उसके गानों में झाडू की आवाजें भी आईं, कपड़े धोने की आवाजें भी और मुर्गे की बांग भी.  उसने ट्रक की सारी आवाजों से ‘ट्रकां वाला गीत’ रचा और वही ‘कु कु कु कु फुतर फू’ जैसे कोरस लाई. 

लेकिन तब वह दसवीं में थी और ठीक से नहीं जानती थी कि उसे क्या करना है. उन्हीं दिनों उसका परिवार मुंबई शिफ्ट हो गया. वे तो शायद बेटी को इंजीनियर या आर्किटेक्ट बनते देखना चाहते थे, लेकिन मुंबई में बेटी ने चारों तरफ मास कम्युनिकेशन और एनिमेशन जैसी चीजों का शोर देखा. पढ़ाई के साथ एनिमेशन का कोर्स करने लगी. लेकिन उसे उन एनिमेटर्स की तरह नहीं बनना था जो एक कंप्यूटर के सामने स्थिर बैठे-बैठे, चाइनीज फूड खाते-खाते पूरा दिन गुजार देते थे. उसे वहां घुटन होने लगी. तब एनिमेशन से निकलकर वह ‘इश्क विश्क’ के आर्ट डायरेक्टर उमंग कुमार की इंटर्न बन गई. वे बारहवीं की छुट्टियों के दिन थे. वहां वह सबसे छोटी थी और उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता था. उसका इतना महत्व तो था कि वह वहां काम कर रहे मजदूरों से अच्छे से कम्युनिकेट कर लेती थी और काम करवा लेती थी. लेकिन वहां लड़की के छाता लेकर आने के सीन के लिए छाते को पोंछते-सजाते हुए वह जान गई थी कि वह उसकी दुनिया नहीं थी. 

‘ओए लकी ओए’ की धुन व गायकों की खोज में स्नेहा खानवलकर पंजाब के गली-कूचों में घूमीं तो ‘जिया हो बिहार के लाला’ के लिए त्रिनिदाद और टोबैगो

मां-पिता उन दिनों तक तंग आ गए थे. वह बार-बार फील्ड बदल रही थी और उन्हें लग रहा था कि बस भाग रही है. पिता चाहते थे कि इससे अच्छा तो गायकी में ही कुछ करे, लेकिन उसने साफ मना कर दिया था. वे उसे एनिमेशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजना चाहते थे, लेकिन इसके लिए किया जाने वाला तामझाम, पेपरवर्क और बहुत सारा खर्च उसके स्वभाव से बिल्कुल उलट था. इसलिए वह चुप होकर घर बैठ गई. उसने इस बार नहीं बताया कि वह संगीतकार बनने की सोच रही है. 

तो स्नेहा घर में ही वॉकमैन में अपनी धुनें रिकॉर्ड करने लगी, कभी-कभी दो-तीन हजार में आ जाने वाले कीबोर्डिस्ट्स को घर बुलाकर अपनी स्क्रैच धुनें तैयार करने लगी. उन्हीं दिनों उसने कहीं तिग्मांशु धूलिया का एक इंटरव्यू पढ़ा और कहीं से उनका फोन नंबर ढूंढ़कर फोन किया. उन्होंने मिलने बुलाया और फिर अपनी फिल्म ‘किलिंग ऑफ अ पोर्न फिल्ममेकर’ के दो गाने बनाने को कहा. वे गाने रिकॉर्ड भी हुए. लेकिन वह फिल्म बीच में ही रुक गई. यह थोड़ा परेशान करने वाला तो था लेकिन इसी रास्ते से उसे रामगोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप मिले. उसके बाद उसने रुचि नारायण की फिल्म ‘कल’ का एक गाना बनाया और मनीष श्रीवास्तव की फिल्म ‘गो’ में संगीत दिया. लेकिन दिबाकर बनर्जी की ‘ओए लकी लकी ओए’ उसकी पहली सोलो फिल्म थी. 

वह कोई और फिल्म थी जिसके लिए उन्होंने काम शुरू किया था लेकिन बनी ‘ओए लकी लकी ओए’. फिल्म में दो ही गाने होने थे. एक टाइटल गीत और एक ‘तू राजा की राजदुलारी’. स्नेहा उन्हें तलाशने पंजाब गई. ‘ओए लकी’ गाने के लिए उसे देशराज लचकानी को खोजना था. खोजने के लिए वह गांवों, कस्बों, शहरों में बेपरवाह घूमती है. किसी भी नुक्कड़ पर ठहरकर चाय या पान वाले से पूछती हुई कि यहां आस-पास कोई गायक रहता है क्या? कोई कुछ बताता है तो गाड़ी में साथ बिठा लेती है और इस तरह किसी के भी घर पहुंच जाती है, उसे सुनती है. यह उसका अपना टैलेंट हंट है जिसमें वह वे आवाजें खोजती है जो उसे बांधकर अपने आंगन में बिठा लें. 

 खैर, पंजाब और हरियाणा के उसके खजाने से ‘ओए लकी’ का संगीत निकला और हिंदी सिनेमा की चौथी महिला संगीतकार के कदमों की बेपरवाह आवाज. पुरुषों के वर्चस्व वाले एक क्षेत्र में जहां यह उपलब्धि थी, वहीं चुनौती भी थी. और इकलौती चुनौती नहीं. ‘शुरू में किसी ने कहा था कि अभी तो तुम फीमेल की तो बात ही मत करो. अभी तो ना तुम्हारी उम्र तुम्हारे साथ है, ना तुम फिल्म या संगीत के बैकग्राउंड से हो. तीसरा लड़की हो और चौथा, दुबली-पतली सी हो. डांटोगी, तो भी कितना सीरियसली लेगा कोई? पुराने इंडस्ट्री के म्यूजिशियन लगातार ढूंढ़ते रहते हैं कि कुछ अलग होगा इसमें. मुझे फील होता रहता है कि मुझे जज किया जा रहा है. ऐसा भी कई बार हुआ कि रिकॉर्डिंग हो रही है और सब सिगरेट पीने बाहर चले गए या आपस में बातें करने लगें. लेकिन यही सब इसे एक्साइटिंग बनाता है. मेरी रिकॉर्डिंग पर कुछ भी आम नहीं रहता.’ 

इसके बाद उसने दिबाकर की ही ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत दिया. इसी बीच अनुराग कश्यप ने उसे मिलने के लिए बुलाया और अपनी फिल्म का संगीत देने का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्हें बिहारी लोकसंगीत रखना था. फिर से ‘लोकसंगीत’ सुनकर वह एक मिनट हिचकिचाई, लेकिन उसे त्रिनिदाद टोबैगो का वह चटनी संगीत याद आया जो उसे बहुत पसंद था और जिसे उन्नीसवीं सदी में वहां जाने वाले बिहारियों की अगली पीढ़ियों ने बिहारी और हिंदी फिल्मों के संगीत में वहां का कुछ मिलाकर बनाया था. उसने कहा कि वह एक ही शर्त पर संगीत बनाएगी कि उसे त्रिनिदाद जाने दिया जाए. अनुराग ने तुरंत हामी भर दी. 

अब नया सफर शुरू हुआ. उसने त्रिनिदाद और टोबैगो की गलियों में वैसे ही संगीत ढूंढ़ा, जैसे पंजाब में ढूंढा था. पूरे एलबम के गीत उसने बाद में बिहार में ही खोजे. चटनी म्यूजिक ने उन्हें बस एक रंग दिया. इस बार स्नेहा ने और भी ऐसी आवाजें चुनीं जिन्हें मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा स्वीकार नहीं करता. स्नेहा को इलेक्ट्रॉनिक संगीत बहुत पसंद है और असल दुनिया की हदों तक जाने की तो वह कोशिश कर ही रही है, लेकिन उसे इलेक्ट्रॉनिक संगीत की हदों तक भी जाना है. वह कहती है कि तकनीक ने उसका बहुत साथ दिया है. उसे आगे भी साउंड्स के साथ इसी तरह खेलते रहना है. वह सब करना है जो संगीत में पहले कभी नहीं हो सका. 

और जब उसके हाथ में एक हॉर्न है, जिसे मेरे मोहल्ले में गन्ने बेचने वाला बजाया करता था, और वह नियम से रोज तीन बार अपने घर में खाना खाने के लिए आने वाली गली की गर्भवती बिल्ली को गोद में लेकर पुचकार रही है, वह कहती है कि एक दिन देखना, म्यूजिक से इस हाथ को भी ड्रा किया जा सकेगा. 

मुझे उसकी बात पर पूरा यकीन है. आपको है? 

-गौरव सोलंकी

‘हर कारोबारी को 10 फीसदी मुनाफा दान करना चाहिए’

पिछले साल अन्ना हजारे और उनका जनलोकपाल आंदोलन मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा. इस आंदोलन ने आम जनता में एक तरफ जितनी तारीफ बटोरी उतना ही इसे विवादों में घसीटने की कोशिश भी होती रही. इसी दौरान अन्ना हजारे को 25 लाख रुपये का ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ पुरस्कार मिला. जाहिर है जब राजनीतिक स्तर पर इस आंदोलन को बदनाम करने की कुछ सचेत कोशिशें चल रही हों तब पुरस्कार के भी कई निहितार्थ निकाले गए. इस पुरस्कार को देने वाला ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ भी उस समय फिर चर्चा में आया और उसके संस्थापक व इस्पात दिग्गजों में शुमार सीताराम जिंदल भी. वे भारत में भ्रष्टाचार-विरोधी लोकपाल बिल का सार्वजनिक तौर पर सबसे पहले समर्थन करने वाले चुनिंदा कारोबारियों में शामिल हैं. जिंदल बताते हैं, ‘अन्ना का समर्थन करने पर मेरे कई कारोबारी मित्र मुझसे नाराज हो गए थे. मुझे इसके लिए धमकियां भी दी गईं.’ 

यह पहला मौका होगा जब शायद इस कारोबारी को किसी सरोकारी काम के लिए धमकियां मिली हों. लेकिन उन्होंने इस बार भी दिल की आवाज सुनी और वे लोकपाल सहित अन्ना आंदोलन के समर्थन पर अड़े रहे. यहां उनके व्यक्तित्व की वही खूबी दिखाई दी जिसकी वजह से वे भारत के सबसे सरोकारी कारोबारियों में गिने जाते हैं. वह खूबी है, भले की बात एक बार तय करना और जब इस पर भरोसा जम जाए तो उसे हर कीमत पर आगे बढ़ाना. इस सोच वाले ‘जिंदल अल्युमिनियम लिमिटेड’ के  इस संस्थापक का जनकल्याण और परोपकार की तरफ झुकाव उसी दौर में शुरू हो गया था जब ज्यादातर कारोबारियों का ध्यान किसी भी तरह मुनाफा बढ़ाने की तरफ होता है. सन 1932 में हरियाणा के हिसार जिले में पैदा होने वाले सीताराम जिंदल ने जब भारत के प्रसिद्ध जनकल्याण ट्रस्ट ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ की स्थापना की तब उनकी उम्र मात्र 37 साल थी. आज देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे ही लगभग 19 जनकल्याण ट्रस्टों की स्थापना करवा चुके सीताराम जिंदल ने दक्षिण भारत के 100 पिछड़े गांवों को भी गोद लिया है. जिंदल के ट्रस्ट इन सभी गांवों में लोगों को साफ पानी, भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के साथ-साथ इनको रोजगार दिलवाने के लिए जरूरी प्रशिक्षण भी देते हैं. इस्पात और अल्युमिनियम के कारोबारी होने के बावजूद प्रकृति से प्यार करने वाले जिंदल ने सन 1979 में बेंगलुरु में ‘जिंदल नेचरकेयर संस्थान’ की स्थापना भी की. यहां लोगों का प्राकृतिक पद्धतियों से इलाज होता है. 

जनकल्याण की तरफ अपने शुरूआती दौर याद करते हुए जिंदल बताते हैं, ‘हमारी पैदाइश हिसार के छोटे-से गांव नवला में हुई थी. बचपन से अपने चारों तरफ गरीब मजदूरों, औरतों और बच्चों की खराब हालत देखकर मुझे हमेशा दुख होता था. हमेशा लगता था कि ईश्वर ने हमें इतना दिया तो यह ऊपरवाले का करम है पर हमारे आस-पास बहुत सारे लोग हैं जो बहुत बदतर जिंदगी जी रहे हैं. मैं हमेशा सोचता था कि अगर जिंदगी में मौका मिले तो दूसरों के लिए जरूर कुछ करना चाहिए. फिर जब 1961 में हमने अपनी पहली फैक्ट्री डाल कर काम शुरू किया तो हमें बहुत जल्दी मुनाफा होने लगा. हमने दो  साल के भीतर ही वहां एक बड़ा अस्पताल बनवाया और बस शुरुआत हो गई.’ 

इसके बाद सन 1978 में ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ की स्थापना हुई और दिल्ली-बेंगलुरु सहित देश के कई शहरों में जिंदल फाउंडेशन के स्कूल,अस्पताल और कल्याणकारी आश्रम बनवाए गए. अब जिंदल फाउंडेशन हर साल आर्थिक रूप से कमजोर और मेधावी बच्चों के लिए 10,000 छात्रवृत्तियां जारी करता है. साथ ही मानवता के लिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ और ग्रामीण विकास के लिए काम करने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए भी संस्थान ने कई पुरस्कार घोषित किए हैं. 

दुनिया के सबसे अमीर व्यापारियों में शुमार होने के बाद भी भारतीय व्यापारियों में बिल गेट्स या वारेन बफेट की तरह जनकल्याणकारी अभियान चलाने का कोई ट्रेंड नजर क्यों नहीं आता? आम जनता के मन में गाहेबगाहे उठने वाले इस सवाल पर जिंदल कहते हैं, ‘ हमारे यहां लोग किटी पार्टियों और शराब में करोड़ों रुपये खर्च करने में कोई गुरेज नहीं करते पर गरीब को एक रुपया देने में जान निकल जाती है. मेरा मानना है कि बड़े कारोबारियों को अपने मुनाफे का 10 प्रतिशत तो दान करना ही चाहिए.’ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए लोकपाल बिल का पुरजोर समर्थन करते हुए वे कहते हैं, ‘सभी राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति करवाने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला एक मजबूत लोकपाल बिल बहुत जरूरी है वरना संविधान की आड़ में हमारे नेता इस देश को लूटते रहेंगे. मुझे सच में लगता है कि अगर एक मजबूत लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो अगले 10 सालों में हमारी संसद पूरी तरह गुंडों से भरी होगी.’ 

साथ ही नई फैक्ट्रियां डालने के लिए भारत के कई कॉरपोरेट संस्थानों द्वारा आए दिन किए जा रहे भूमि-अधिग्रहण को लेकर अपना रुख साफ करते हुए वे कहते हैं कि स्थानीय लोगों की सहमति के बिना उनकी जमीनें हड़पने से ही हमारे आसपास यह सारा संघर्ष हो रहा है. एक समावेशी भू-अधिग्रहण नीति की दरकार पर जिंदल जोर देते हैं, ‘विकास और कारखाने हमारे लिए बहुत जरूरी हैं. पर जिन लोगों की जमीने जाएं, उनकी सहमति होनी चाहिए. फिर उन्हें मुआवजे के साथ-साथ विस्थापित करने और उनके परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी देने की जिम्मेदारी कंपनी की होनी चाहिए.’

बेताल का साथी!

‘तुम कौन हो?’ ‘मैं बेताल हूं.’ ‘और तुम! तुम भी बेताल हो क्या?’ ‘नहीं तो…’ ‘तो यूं क्यों लटके हुए हो?’ ‘क्या केवल बेताल ही लटक सकता है इस देश में?’ ‘बेताल की लटकने की तो आदत है, मगर तुम बेताल का साथ क्यों दे रहे हो?’ ‘अरे बेवकूफ! मैं लटका नहीं हूं, लटकाया गया हूं.’ ‘किसने लटकाया है?’ ‘जन गण मन के भाग्य विधाताओं ने, और किसने!’ ‘मगर तुम्हारे शरीर में इतने घाव कैसे?’ ‘ इसे संसदीय भाषा में संशोधन कहते हैं.’ ‘कितने वर्षों से लटके हो?’ ‘याद नहीं…’ ‘बताओ न!’ ‘मोटे तौर पर यह समझ लो कि तुम्हारी जैसी दो पीढ़ियां तो बड़ी हो गई हैं.’ ‘तुम इतने बडे़, मतलब बुजुर्ग तो नहीं लगते!’ ‘तुम्हारी शंका की वजह क्या है?’ ‘अगर तुम बरसों से लटके हुए हो, तो तुम्हारे बाल-दाढ़ी-नाखून बढ़ने चाहिए थे, मगर ऐसा नहीं है.’  ‘मैं सच कह रहा हूं. मैं बरसों से लटका हुआ हूं.’

‘माना, फिर भी  तुम्हारे बाल-दाढ़ी-नाखून बढे़ क्यों नहीं!’ ‘काट दिए गए, सब काट दिए गए. मेरे नाखूनों पर तो विशेष कृपादृष्टि की गई. उन्हें एक-एक करके काटा जा रहा है.’ ‘किसने काटे?’ ‘वही जन गण मन के भाग्य विधाता…’ ‘मगर क्यों?’ ‘ वे मुझे सुंदर-सा… सुंदर-सा क्या, वास्तव में सुंदर बनाना चाहते हैं!’ ‘माफ करना, मगर ऐसे तुम कब तक लटके रहोगे?’ ‘ जब तक मेरे मुंह में दांत बचा रहेगा, तब तक.’ ‘दांत…’ ‘यह देखो! देखो, मेरे मुंह में कितने कम दांत बचे हुए हैं.’ ‘सचमुच, तुम बहुत ही उम्रदराज हो. तुम्हारे तो अधिकांश दांत गिर गए है.’ ‘गिरे नहीं तोडे़ गए हैं.’ ‘तोडे़ गए हैं! ’ ‘भयभीत न हो, लोकतांत्रिक भाषा में कहता हूं, तोडे़ नहीं निकाले गए हैं.’ ‘मगर क्यों?’ ‘ताकि मैं काट न सकूं.’ ‘ वह सब तो ठीक है मगर, ऐसे लटके-लटके तो एक दिन तुम मर जाओगे!’ ‘घबराओ नहीं, मैं मरूंगा नहीं.

वे मुझे मरने नहीं देंगे.’ ‘कौन?’ ‘ च्च…च्च… च्च…’ ‘ समझ गया! समझ गया!  मैं बताता हूं, वही जन गण मन के भाग्यविधाता न!’ ‘शाबास!’ ‘ थैंक्यू! मगर मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है.’ ‘ऐसा भला क्यों?’ ‘तुम न जीवित ही हो, न तुम्हें मर कर मुक्ति ही मिल रही है.’ ‘मैं कर भी क्या सकता हूं सिवाय इंतजार करने के.’ ‘अच्छा, मैं कुछ कर सकता हूं!’ ‘तुम क्या कर सकते हो?’ ‘अगर मैं नहीं तो, जनता तो कुछ कर सकती है न!’ ‘जनता… कुछ जानते भी हो! जनता का मतलब आधुनिक लोकतंत्र की शब्दावली में भीड़तंत्र हो गया.’ ‘तब!’ ‘तब क्या?’ ‘तुम्हारा उद्धार कैसे होगा?’ ‘सब जन गण मन के भाग्यविधाता की इच्छा पर निर्भर करता है.’ ‘और देश की इच्छा… देश की इच्छा का कुछ नहीं!’ ‘देश!’ ‘तुम हंस क्यों रहे हो?’ ‘देश, देश का मतलब समझते हो!’

‘अब तुम्हीं समझाओ!’ ‘देश यानी जन गण मन के भाग्यविधाताओं का समूह.’ ‘तुम आधुनिक लोकतंत्र की आधुनिक शब्दावलियों के मानी मत समझाओ! उसे अपने पास ही रखो . मुझे बस यह बताओ कि तुम धरातल पर कब उतरोगे या यूं ही लटके रहोगे?’ ‘धरातल पर तब उतरूंगा, जब मुझमें इतनी ही शक्ति बची रह जाए कि चल-फिर न सकूं. जहां उतार कर बैठाया जाए, वहां बैठूं तो बैठा ही रहूं. चलने की कोशिश करूं, तो चल बसूं.’ ‘ऐसा क्यों भला? ‘क्योंकि जिस दिन धरातल पर सुंदर नहीं अपने शक्तिशाली रूप में मैं आ गया, तो जन गण मन के कई माननीय-सम्माननीय भाग्यविधाता लटक जाएंगे. समझे अहमक!’

अब मैं क्या कहता! मैं लटकते लोकपाल और उसके साथ लटक रहे बेताल को वहीं लटका हुआ छोड़ घर आ गया. बेताल बहुत खुश था. उसका अकेलापन दूर भगाने के लिए उसको एक साथी मिल गया था. शायद इसलिए!

-अनूप मणि त्रिपाठी

‘मंझली चाची के इस हश्र पर मैं खुश होऊं या दुखी?’

बात उन दिनों की है जब मैं इंटर में पढ़ती थी. पिता जी सरकारी नौकरी में थे और उनकी तैनाती नागपुर में थी. हम अपनी मां के साथ धनबाद में रहते थे. पांच भाई-बहनों में मैं सबसे छोटी थी. मेरी मां स्कूल में टीचर थीं. हालांकि हम लोगों की अभिभावक बड़ी मां थीं. धनबाद में हमारा एक बड़ा-सा संयुक्त परिवार था. हम दो बड़े चाचा और उनके परिवारों के साथ रहते थे. पिता जी को भी मेरी बड़ी मां ही ने पाला-पोसा था. देखा जाए तो बड़ी मां मेरे पिता की भाभी ही नहीं उनकी मां जैसी भी थीं. बड़े पापा के गुजर जाने के बाद वे हमारे साथ ही रहती थीं. 

बड़ी मां से मेरी बहुत छनती. वे हमें तरह-तरह के पकवान बनाकर खिलातीं. हम भाई-बहनों को आइस्क्रीम, चाट, समोसे वगैरह खाने के लिए पैसे देने आदि का काम अक्सर बड़ी मां ही किया करती थीं. मेरी मां स्कूल के काम के बाद समय निकाल कर शाम का नाश्ता बनातीं. वे रात का भी खाना बनातीं. मेरी मां को बड़ी मां बहुत स्नेह करती थीं. 

बड़ी मां का हम लोगों के प्रति प्रेम भरा रुख बड़े चाचा और मंझले चाचा के परिवार को फूटी आंखों नहीं सुहाता था. वे बड़ी मां से मन ही मन कुढ़ते रहते . मौका पाकर बदसलूकी भी कर देते थे. उनका बड़ी मां के प्रति यह व्यवहार मुझे नागवार गुजरता. मैं सोचती थी कि बड़ी मां चने का सत्तू परिवार के सभी सदस्यों के लिए तैयार करती हैं. मंझले चाचा के घर का गेहूं चुनती हैं. उसे धो-फटक कर सुखा भी देती हैं. बड़े चाचा के यहां जाकर खुद ही चना और उड़द दाल हाथों से लोढ़ी-पाटी में पीसकर बड़ी बनाती हैं. उन्हें धूप में सुखा भी देती हैं. सूख जाने पर समेट कर शीशे के बर्तनों में भर कर रख तक देती हैं. फिर भी उन्हें बदले में ऐसा व्यवहार क्यों मिलता है? परिवार के सभी सदस्यों के लिए वे इतना करती हैं. फिर भी ये लोग उनके साथ बदसलूकी क्यों करते हैं? मैं जब भी इसके खिलाफ बोलती तो छोटी होने की वजह से मुझे चुप करा दिया जाता.

एक दिन मैं कॉलेज से लौटी ही थी. घर में घुसी तो देखा कि मेरे बड़े चचेरे भाई बड़ी मां को मारने के लिए हाथ उठाए खड़े हैं. मेरे ये भैया पुलिस की नौकरी में हैं. हालांकि मैं उन्हें गुस्से से आगबबूला होते देख एकबारगी डर गई थी, लेकिन अगले ही पल मुझमें न जाने कहां से हिम्मत आ गई कि मैंने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया. नतीजा यह हुआ कि मैंने बड़ी मां को थप्पड़ लगने से बचा लिया. हालांकि इस घटना से वे गहरे तौर पर आहत हुईं और उस रात खाए बगैर ही सोने चली गईं. इस घटना को गुजरे कुछ समय हुआ था कि अगला वाकया मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा झटका बनकर आया. उस रोज सुबह के वक्त बड़ी मां दातून कर रही थीं. मेरे वही भैया आए और हिकारत के भाव से बोले, ‘मुंह में दो-एक दांत बचे हैं फिर घंटों दातून क्यों कर रही है रे बुढि़या?’ 

‘मरने वाली तो गई…चलो दीदी के हाथों में जो सोने के कंगन हैं उन्हें रोने का बहाना करते हुए निकाल लेते हैं. एक तुम रख लेना, एक मैं’

यह सुनकर मैं अवाक रह गई. बड़ी मां भी एकदम से बिफर उठीं. उन्हें अचानक ही खांसी शुरू हो गई. मैं अपनी मां और भाइयों को आवाज लगाती उससे पहले मैंने देखा कि बड़ी मां वहीं आंगन में एक तरफ लुढ़क गई हैं. दवाई लेने मैं घर के अंदर भागी. चम्मच में डालकर उन्हें पिलानी चाही तो देखा कि उनकी आंखें खुली हुई हैं. मुझे समझते देर न लगी कि बड़ी मां नहीं रहीं. मौत को पहली बार इतने करीब से देखा और महसूस किया था मैंने. क्या करूं, समझ में नहीं आ रहा था. मेरी मां और चाचियां, बड़े और मंझले चाचा, तीन चचेरे भाई, एक चचेरी बहन, मेरे अपने तीन सहोदर बड़े भाई और एक बहन, सभी वहां इकट्ठे हो गए थे. सभी अपनी राय दे रहे थे. मेरे बड़े भाई ने तत्काल मेरे पिता को नागपुर तार द्वारा खबर भेजी. मेरे पिता तार पाते ही धनबाद के लिए चल पड़े.

बड़ी मां का शव आंगन में रख दिया गया. टोले-मोहल्ले के लोग उन्हें देखने पहुंचने लगे. इसके बाद जो हुआ वह और हैरान करने वाला था. भीड़ का फायदा उठा कर मेरी मंझली चाची ने मेरी मां से कहा, ‘मरने वाली तो चली गई. इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं. चलो, दीदी के हाथों में जो सोने के कंगन हैं उन्हें रोने का बहाना करते हुए निकाल लेते हैं. एक तुम रख लेना और एक मैं.’ 

 मां स्तब्ध रह गईं. उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. लेकिन चाची कहां मानने वाली थीं. बड़ी मां के शव से लिपट कर उन्होंने रोने का जो नाटक किया वह देखने लायक था. हालांकि सोने के कंगन तो वे नहीं निकाल सकीं. पर बड़ी मां के कान के बुंदे निकालने में उन्हें कामयाबी मिल गई. खैर, मेरे पिता जी दूसरे दिन सुबह होते-होते धनबाद पहुंच गए और फिर बड़ी मां का क्रियाकर्म कर दिया गया.

समय बीतता गया. बड़ी मां के गुजर जाने से जो जख्म पैदा हुए थे वे समय के साथ भर गए. लेकिन मंझली चाची की करतूत मैं आज तक नहीं भुला सकी. चाची ने बड़ी मां के कान से चुराए बुंदे बिना झिझक पहन लिए. लेकिन ऊपर वाले का न्याय देखिए, कुछ ही दिनों के बाद उन्हें कान से सुनाई देना बंद हो गया. कुछ दिन बाद वे विधवा भी हो गईं. मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि मेरी मंझली चाची के इस हश्र पर मैं खुश होऊं या दुखी.

(लेखिका नीरा सिन्हा धनबाद में रहती हैं)