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नन्हे हाथों में हथियार

इंफाल के सिंगजामी में रहने वाले वाई राकेश मीति इन दिनों बेहद डरे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर के लोग टकराव के बीच रहने के आदी हो चुके हैं. लेकिन पिछले तीन महीने की कहानी अलग है. आज मेरे जैसे तमाम मां-बाप भय के साये में जी रहे हैं.’उनका डर अकारण नहीं. दरअसल सिर्फ इंफाल घाटी में ही पिछले तीन महीनों में नाबालिग बच्चों के अपहरण के दस मामले सामने आए हैं. इन बच्चों के माता-पिता का आरोप है कि विद्रोही संगठन जबरन या फिर बहला-फुसला कर उन्हें अगवा कर रहे हैं ताकि उन्हें हथियार थमा कर बाल सैनिक बना सकें. 

लोगों की भारी नाराजगी और विरोध के बाद विद्रोही गुटों ने हाल ही में तीन बच्चों को आजाद तो कर दिया है लेकिन मसला खत्म नहीं हुआ है. बाल अधिकार कार्यकर्ता मोंटू ऐन्थेम के मुताबिक इस तरह की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य सरकार को इसे कानून व्यवस्था का मामला न मानकर इसके प्रति एक सामाजिक दृष्टिकोण अपनाना होगा.’ 

राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की अध्यक्ष शान्ता सिन्हा ने अपने हालिया मणिपुर दौरे के बाद इबोबी सिंह सरकार की आलोचना की थी. उनका कहना था कि राज्य सरकार विद्रोही गुटों द्वारा की जा रही बच्चों की तस्करी पर लगाम नहीं लगा पा रही. दूसरी जगहों की बात करें तो गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी ऑफ मेघालय और नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा सैकड़ों की संख्या में  बच्चों की भर्ती करते हैं. आयोग के सदस्य योगेश दुबे बताते हैं, ‘मणिपुर और त्रिपुरा में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बाल आयोग ने इस मसले का स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय के सामने यह मुद्दा उठाने का फैसला लिया है.’ 

इस बीच मणिपुर सरकार ने राज्य के हर जिले के एसपी को विशेष टीम बनाकर बाल सैनिकों के मसले पर नजर बनाए रखने का आदेश दिया है. गौरतलब है कि इस राज्य में पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वाले छात्रों का औसत बहुत ज्यादा है है. प्राइमरी स्तर पर 64 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं जबकि जूनियर स्कूल के स्तर पर यह आंकड़ा 70 फीसदी है. राज्य के गृहमंत्री जी गाइखांगम कहते हैं, ‘विद्रोही स्थानीय लोगों का समर्थन खोते जा रहे हैं. मणिपुर में उग्रवाद ढलान पर है. बच्चों को वे आसान शिकार समझते हैं.’ 

सेंटर फॉर ऑर्गेनाइजेशन रिसर्च ऐंड एजुकेशन (मणिपुर) के डॉ. लाइफंगबाम देबब्रत रॉय के मुताबिक मणिपुर के बच्चे कच्ची उम्र में ही बंदूक संस्कृति से जुड़ जाते हैं. वे कहते हैं, ‘बच्चे सोचते हैं कि बंदूक से ताकत मिलती है. वे देखते हैं कि किस तरह से सुरक्षा बल अमानवीय सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हैं. साथ ही वहां गरीबी भी है जिसकी वजह से विद्रोही गुटों के लिए बच्चों को फुसलाना आसान हो जाता है’. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता और पत्रकार बाचस्पतीमयूम सान्जू  कहते हैं, ‘मैं तमाम विद्रोही गुटों में मौजूद बाल सैनिकों पर डॉक्युमेंट्री बना चुका हूं लेकिन यह काम खतरनाक है.’   

नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक प्रतिबंधित संगठन के कमांडर कहते हैं, ‘नाबालिगों को प्रशिक्षित करना बेहद आसान होता है. शुरुआत में वे रोते-चिल्लाते हैं लेकिन बाद में लाइन पर आ जाते हैं. प्रशिक्षण पूरा होने के बाद वे पार्टी की लंबे समय तक सेवा भी कर सकते हैं. हम लड़कियों को भी भर्ती करते हैं लेकिन उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. कुछ बिचौलिए हैं जो हमारे लिए यह काम करते हैं. बदले में उन्हें कमीशन मिलता है.’  मणिपुर में 35 विद्रोही गुट सक्रिय हैं. अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक 2009 से 2012 के बीच मणिपुर के 338 नाबालिग बच्चों को दूसरे राज्यों से छुड़ाया गया है. लेकिन राज्य के अंदर से एक भी बच्चा बरामद नहीं हो सका है. तहलका ने उन चार परिवारों से बात करने की कोशिश की जिनके बच्चे 2008 में अगवा कर लिए गए थे. सबने बात करने से इनकार कर दिया क्योंकि उनके बच्चे अब ‘बागी’ बन गए हैं.

 

 

सपन सुरंजय, 14 वर्ष

साइरेमखुल, मणिपुर

छठी कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुके सपन का परिवार सात लोगों का है. महीने की कमाई है सिर्फ 2,500 रु. एक स्थानीय व्यक्ति ने उसे प्रतिबंधित संगठन में शामिल होने का लालच दिया था. जनता के भारी विरोध के बाद सपन को उसके दो साथियों संजय और शांतिकुमार के साथ छोड़ दिया गया. 

 

 

 

 

 

सोराइसम संजय, 14 वर्ष

साइरेमखुल, मणिपुर

संजय का बड़ा भाई पहले से ही एक प्रतिबंधित विद्रोही संगठन का हिस्सा है. इसके बावजूद वह एक भूमिगत संगठन का सदस्य बनने के लिए तैयार हो गया. संजय कहता है, ‘गरीबी में दिन काटने से अच्छा है विद्रोही बन जाना’.

 

 

 

 

 

यामबेम निंगथेम, 16 वर्ष

साइरेमखुल, मणिपुर

निंगथेम अपनी शादी के एक महीने बाद ही गायब हो गया. हालांकि उसके परिवारवाले इससे इनकार करते रहे. स्थानीय लोगों का कहना है कि उसने अपनी इच््छा से हथियार उठाए हैं. उसकी मां कहती है, ‘मेरा बेटा ऐसा नहीं है. वह काम के चक्कर में दूसरे गांवों में घूमता रहता है.’  

 

 

 

 

 

 

आइबाम जॉनसन, 12 वर्ष

ताकयेल कोलम लिकाई, मणिपुर

जॉनसन को आखिरी बार एक आत्मसमर्पण कर चुके विद्रोही कन्हाई के साथ देखा गया था. इसके पिता का 2009 में देहांत हो चुका है. मां भी घर छोड़कर जा चुकी है. दादी पूरनमासी ने उसे पाला-पोसा था जो आज भी उसकी वापसी का इंतजार कर रही हैं.

 

 

 

 

 

 

चानम शांतिकुमार, 14 वर्ष

साइरेमखुल, मणिपुर

चानम और उसके दोस्तों को एक स्थानीय व्यक्ति ने भर्ती करने का लालच दिया था. पैसा, मोबाइल और कुछ कोरे वादों के लालच में चान अपने साथियों के साथ बिना सोचे-समझे विद्रोहियों के कैंप में चला गया. लोगों के विरोध के बाद उसे एक हफ्ते बाद रिहा कर दिया गया.  

 

त्रासदी की नींव पर घटती त्रासदी

सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख और लंदन ओलंपिक में भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपित डाउ केमिकल्स कॉरपोरेशन को शीर्ष प्रायोजक बनाने से उठे विरोध के बीच आखिरकार केंद्र सरकार ने यूनियन कार्बाइड कारखाने की चारदीवारी में रखे 340 मीट्रिक टन जहरीले कचरे को जलाने के लिए जर्मनी भेजने पर हरी झंडी दिखा दी. लेकिन यह कुल कचरे का इतना मामूली हिस्सा है कि इसे जलाने भर से पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं से निजात नहीं मिल पाएगी. सरकार भी यह  मान चुकी है कि कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा जमीन में दबा हुआ है.

अभी तक सरकारी स्तर पर इसे हटाने को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई है. खुले आसमान के नीचे जमा यह कचरा बीते कई सालों से बरसात के पानी के साथ घुलकर अब तक 14 बस्तियों की 40 हजार आबादी के भूजल को जहरीला बना चुका है.

बीते दिनों इस मामले में भोपाल गैस पीड़ित संगठनों ने भोपाल गैस त्रासदी को लेकर गठित मंत्री समूह के अध्यक्ष और गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात भी की थी. संगठनों का आरोप है कि सरकार सिर्फ कारखाने के बंद गोदाम में रखे कचरे का निपटान करके अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ना चाह रही है, जबकि यूनियन कार्बाइड प्रबंधन ने कारखाने परिसर में मौजूद जहरीले कचरे को कारखाने के भीतर व बाहर और खुले तौर पर 14 से अधिक स्थानों में दबाया था. कारखाने के बाहर बने तीन तालाबों में तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन जहरीला कचरा दबा हुआ है. फिलहाल तालाबों की जमीन खेल के मैदानों और बस्तियों में तब्दील हो गई हैं और यहां दबा कचरा अब सफेद परतों के रूप में जमीन से बाहर दिखाई देने लगा है. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार का कहना है, ‘ कचरा हटाने के नाम पर सरकार गैस पीडि़तों की पीड़ा को बढ़ा रही है. खुले में पड़ा हजारों मीट्रिक टन कचरा समस्या की असली जड़ है और इसे निपटाए बिना गैस पीड़ित बस्तियों के भूजल प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता.’ 

यूनियन कार्बाइड कारखाने में कारबारील, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उत्पादन होता था. संयंत्र में पारे और क्रोमियम जैसी दीर्घस्थायी और जहरीली धातुएं भी इस्तेमाल होती थीं. कई सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियों के मुताबिक कारखाने के अंदर और बाहर पड़े कचरे के लगातार जमीन में रिसने से एक बड़े भूभाग का जल प्रदूषित हो चुका है. 1991 और 1996 में मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पाया था कि इलाके के 11 नलकूपों से लिए गए भूजल के नमूनों में जहरीले रसायन हैं. 1998 से 2006 के बीच मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हर तीन महीने में पड़ताल करके यहां जहरीले रसायनों की पुष्टि की है. अंतरर्राष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस ने भी अपने अध्ययन में पाया कि यहां पारे की मात्रा सुरक्षित स्तर से 60 लाख गुना तक अधिक है. सबसे ताजा 2009 में दिल्ली के सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंेड एनवायरनमेंट का

अध्ययन है जिसमें कारखाना परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाए गए. सीएसई के मुताबिक कारखाने के आस-पास सतही पानी के नमूनों में कीटनाशकों का सम्मिश्रण 0.2805 पीपीएम पाया गया जो भारतीय मानक से 561 गुना अधिक है. सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण बताती हैं, ‘ भोपाल में कारखाना क्षेत्र भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है जिसका स्वास्थ्य पर भयंकर असर पड़ेगा. क्लोरिनेटिड बेंजीन मिश्रण जिगर और रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है. वहीं ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक कैंसर और हड्डियों की विकृतियों के जनक हो सकते हैं. यूसीआईएल के दो प्रमुख उत्पाद कारबारील और एल्डिकार्ब दिमाग और तंत्रिका प्रणाली को नुकसान पहुंचाने के अलावा गुणसूत्रों में गड़बड़ी ला सकते हैं.’ 

फिलहाल जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी फॉर टेक्टिकल को-ऑपरेशन को भोपाल गैस त्रासदी पर गठित मंत्री समूह ने जर्मनी के हामबुर्ग स्थित संयंत्र में भोपाल के 340 मीट्रिक टन कचरे को भेजने का फैसला कर लिया है. लेकिन वित्तीय, कानूनी, पर्यावरणीय और विदेशी मामलों की अड़चनों को दूर करने से लेकर इस कचरे को जर्मनी में जलाने के लिए दोनों देशों की सरकारों की सहमति बनाना भी जरूरी होगा. जाहिर है कारखाने के बंद गोदाम के कचरे को अपने आखिरी मुकाम तक पहुंचाकर नष्ट कराने से पहले एक लंबी दूरी तय करनी है, लेकिन इसी के साथ यह सवाल अब तक बना हुआ है कि स्थानीय क्षेत्र के जन-जीवन और पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचाने वाले उस भूमिगत कचरे से मुक्ति कब मिलेगी जो 27 साल से गैस पीडि़तों की छाती पर पड़ा हुआ है.

मुठभेड़ ‘चाल’!

छत्तीसगढ़ के सारकेगुड़ा गांव और उससे जुड़े हुए दो टोलों कोत्तागुड़ा और राजपेटा की पहचान पिछले महीने के आखिरी हफ्ते तक इतनी ही थी कि वर्ष 2005 में जुडूम समर्थकों ने यहां ग्रामीणों के घरों को आग के हवाले कर दिया था. उस दौरान बासागुड़ा में बालैय्या नाम का एक व्यक्ति पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था. 29 जून, 2012 को यह फिर अचानक चर्चा में आया. इसके एक दिन पहले रात में सीआरपीएफ की अगुवाई में एक कथित मुठभेड़ हुई थी और सीआरपीएफ ने दावा किया था कि उसने 17 नक्सलवादियों को मार गिराया है. एक साथ इतने ‘नक्सलवादियों’ के मारे जाने की यह हाल के दिनों की सबसे बड़ी घटना थी. मीडिया में यह मसला तुरंत छा गया. 

लेकिन इस घटना के बाद पूरे चौबीस घंटे भी नहीं बीत पाए और नक्सलवादी मारने के सीआरपीएफ के दावे से कई सवाल खड़े हो गए. अर्धसैन्य बल ने पहले मारे गए सभी लोगों को नक्सली बताया. बाद में कहा गया कि सिर्फ तीन-चार लोग कट्टर नक्सलवादी थे. इस तरह दिन बीतने के साथ-साथ कई बार सीआरपीएफ ने अपने बयान बदले. आखिर में खुद छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सूची जारी की. इसमें मारे गए लोगों में से सात को नक्सली बताया गया था जिनके खिलाफ मुकदमे भी दर्ज थे. पिछले तेरह साल के दौरान यह सीआरपीएफ का सबसे बड़ा अभियान था. लेकिन मुठभेड़ के तुरंत बाद जिस तरह सुरक्षा बल सवालों से घिरता दिख रहा है उससे यह साफ हो गया है कि नक्सलवादियों के खिलाफ यह मुठभेड़ एक योजना के तहत भले ही अंजाम दी गई हो लेकिन यह अपने लक्ष्य से पूरी तरह चूक गई.

बासागुड़ा में तैनात पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘ हमें 28 जून, 2012 की सुबह एक मुखबिर से सूचना मिली थी कि माओवादी जगरगुड़ा सिलगेर या फिर सारकेगुड़ा गांव में बैठक ले सकते हैं. इसके बाद नक्सलवादियों को ढेर करने की रणनीति बनाई गई.’ बासागुड़ा कस्बा राज्य की राजधानी रायपुर से 462 किमी दूर बीजापुर जिले में है. बीजापुर से बासागुड़ा कस्बे की दूरी 52 किलोमीटर है. और इस कस्बे से सरकेगुड़ा तकरीबन दो किमी दूरी पर है. खुफिया सूचना मिलते ही पुलिस और सीआरपीएफ ने तय किया कि 400 जवानों के दो दस्ते बासागुड़ा से सिलगेर भेजे जाएं. यह भी तय हुआ कि जगरगुड़ा और चिंतलनार से सुरक्षा बलों का एक-एक दस्ता उन्हें आगे मिलेगा. उसी दिन लगभग नौ बजे रात को सीआरपीएफ के दो दस्ते बासागुड़ा से सिलगेर की ओर रवाना हो गए. इस अभियान में शामिल रहे सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी तहलका को बताते हैं, ‘रात में लगभग 11 बजे जब हम सरकेगुड़ा से लगभग 300 मीटर दूर थे सीआरपीएफ की 85वीं बटालियन और कोबरा यूनिट को कुछ हलचल दिखाई दी. हम और आगे बढ़े तो पता चला कि गांव में कोई मीटिंग हो रही है. हम आगे बढ़ ही रहे थे कि उन लोगों में से किसी ने पुलिस-पुलिस की आवाज लगाई.

पुलिस ने मारे गए नक्सलवादियों की जो सूची  बनाई है उसमें ऐसे लोगों के नाम शामिल हैं जिन्हें ग्रामीण जानते ही नहीं

इसके बाद अचानक हम पर फायरिंग होने लगी. हमारे तीन-चार जवान घायल हो गए. इसके बाद हमारे पास जवाबी फायरिंग के अलावा कोई विकल्प नहीं था.’ इस अधिकारी का दावा है कि उनके दस्ते पर भारी फायरिंग हो रही थी और तकरीबन तीस मिनट तक जारी रही. वे इस बात का भी अंदेशा जताते हैं कि सरकेगुड़ा में 15-20  नक्सलवादी थे जो गोलीबारी के बाद भाग गए. दो बजे के लगभग सीआरपीएफ का दूसरा दस्ता जो जगरगुड़ा से चला था उस पर भी फायरिंग हुई. लगभग साढ़े तीन बजे चिंतलनार से आ रहे अर्धसैन्य बल के दस्ते का भी सामना छिटपुट फायरिंग से हुआ. यह अधिकारी बताते हैं, ‘जब सिलगेर में उस जगह पहुंचे तब तक वहां कुछ नहीं बचा था. ‘

फायरिंग में गांव के 17 लोग मारे गए. इनमें आठ नाबालिग थे. अगले दिन से घटनास्थल पर आम लोगों की आवाजाही शुरू हुई. और इसी के साथ उन ग्रामीणों का पक्ष भी सामने आने लगा जिनके परिचित और रिश्तेदार इस कथित मुठभेड़ में मारे गए थे. तहलका टीम ने सारकेगुड़ा, कोत्तागुड़ा और राजपेटा के कई ग्रामीणों से बातचीत की. गांववालों से बातचीत का जो लब्बोलुआब निकलता है वह यह है कि सारकेगुड़ा और कोत्तागुड़ा के बीच ग्रामीण बीज त्योहार को मनाने की तैयारियों के संबंध में बैठक कर रहे थे. गांव की महिलाओं और पुरुषों के साथ यहां बच्चे भी थे. बैठक रात में आठ बजे प्रारंभ हुई तो यह तय किया गया कि यदि मानसून ने दगा दिया तो गांव के एक युवक चीनू, जिसने लोन लेकर ट्रैक्टर खरीदा था, से कहा जाएगा कि वह सबसे थोड़े-थोड़े पैसे या डीजल लेकर खेत जोत दे. इसके अलावा गांव की विधवा महिलाओं को दी जाने वाली सहायता तथा दोरला जनजाति के पारंपरिक उत्सव की तैयारियों के संबंध में भी ग्रामीणों ने बातचीत की थी. रात दस बजे तक तो बैठक में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन जब ग्रामीणों में से कुछ लोगों ने नागेश नाम के एक युवक से मांदर (ढोल) बजाने का आग्रह करते हुए कुछ नाच गाने की तैयारी की तभी अचानक कुछ बंदूकधारियों ने उन्हें घेर लिया. ये अर्धसैन्य बलों के थे. ग्रामीण बताते हैं कि ये लोग गंदी-गंदी गालियां देते हुए पूछ रहे थे कि इतनी रात को क्या किया जा रहा है. कौन-कौन नक्सली है. इससे पहले कि ग्रामीण अपनी सफाई में कुछ कह पाते, फायरिंग होने लगी. नागेश भी इस फायरिंग में मारा गया.

कोत्तागुड़ा गांव की 14 वर्षीया इरपा तुलसी कहती है, ‘मैं अपने पिता (इरपा नारायण) के साथ बैठक में शामिल थी. पुलिस ने पहले मेरे पिता को गोली मारी. मैं घबराकर अपनी झोपड़ी की तरफ भागी तो मुझे पकड़ लिया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए. जब मैंने अपनी जान को बख्श देने के लिए हाथ-पैर जोड़े तब मेरे चेहरे पर बंदूक के कुंदे से वार किया गया. मैं बेहोश होकर गिर पड़ी. ‘इसी गांव की एक लड़की सारिका जो आवापल्ली में पढ़ती है और जो अपने चाचा सम्मैया के साथ बैठक में मौजूद थी, कहती है, ‘पुलिस ने मुझे खूब मारा और फिर जमीन पर लिटा दिया. मेरे दोनों टांगों के बीचो-बीच गोली चलाई गई. मैं पुलिसवालों से कहती रही कि स्कूल में पढ़ती हूं लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी. एक पुलिस-वाला गाली-गलौज करते हुए इज्जत लूट लेने की धमकी देता रहा.’

नागेश की पत्नी मड़काम समी अपने जो फिलहाल गर्भवती हैं, पति की मौत के बाद बुरी तरह टूट चुकी हैं. हर सवाल के जवाब पर अटकते हुए वे यही दोहराती हैं,   ‘मेरा पति नक्सली नहीं था… हम तो अपने दो बच्चों के साथ यहां आराम से रह रहे थे… ‘  मड़काम समी की तरह इरपा जानकी भी गर्भवती है. जानकी कहती है, ‘पुलिस ने मेरे पति की न लाश दी और न ही उसे देखने दिया., कुछ इसी तरह का कथन गांव की अन्य महिलाओं का भी है. गांव की महिला नरसी इरपा बताती है कि उसका पति नारायण पुलिसवालों से गोली न चलाने की बात कह रहा था लेकिन उसे ‘नक्सलियों का साथ देते हो’ कहकर मार दिया गया. गोलीबारी में गांव के एक सोलह वर्षीय किशोर हेमला देवा के बाएं हाथ में गोली लगी थी इस वजह से वह बच गया, लेकिन देवा को इस बात का अफसोस है कि उसके हमउम्र साथी उससे बिछड़ गए हैं. ज्ञात हो कि गोलीबारी के चलते गांव के नौ नाबालिगों मडकाम दिलीप(17) मडकाम रामविलास (15) अपका मिठू (16) काका सरस्वती (12) कुंजाम मल्ला (16), कोरसा बिचम (16), इरपा सुरेश (14) एवं काका राहुल को अपनी जान गंवानी पड़ी है.

इस मुठभेड़ के असली होने पर कई लोग संदेह जता रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि घटना के बाद पुलिस ने कई बार अपने बयान बदले हैं. सबसे पहले यह दावा किया गया था कि जितने लोग मारे गए वे सभी नक्सलवादी हैं. बाद में यह संख्या तीन-चार कट्टर नक्सलवादियों तक सिमट गई. बीजापुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) प्रशांत अग्रवाल ने सबसे आखिर में एक सूची जारी की जिसमें सात नक्सलवादियों के बारे में पूरी जानकारी थी. इस सूची में शामिल सुरेश मड़काम पुलिस रिकॉर्ड के हिसाब से इस घटना के समय जेल में था. हमने जब एसपी से इसके बारे में जानना चाहा तो उनका जवाब था, ‘हो सकता है कुछ गलती हो गई हो, मैं इसे दोबारा चेक करवाता हूं.’ लगभग तीस मिनट के बाद हमें एक नई सूची दी गई. यह और हैरान करने वाली थी. सूची में अब सात की जगह छह नक्सलवादियों के नाम थे और जो नाम हटाया गया वह मड़काम सुरेश का नहीं था, काका नागेश का था. ग्रामीण भी पुलिस की इस सूची को देखकर हैरान हैं. गांव के सरपंच मड़कम नारायण कहते हैं, ‘पुलिस ने मड़वी अयातु और कोरसा विज्जे का नाम लिखा ह,ै लेकिन हम इनमें से किसी को नहीं जानते.’ गांव के रामा नाम के एक शख्स का कहना है कि उसकी बेटी सरस्वती (12 साल) मारी गई है जबकि पुलिस ने सरस्वती को अनीता माना है. गांव की महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता कमला काका के भतीजे राहुल काका का भी जिक्र पुलिस रिकॉर्ड में नहीं है. गांववाले अपका मिठू की उम्र 16 साल बताते हैं जबकि पुलिस ने उसे 25 साल का दर्शाया है. इसी तरह 14 वर्षीय इरपा सुरेश की आयु भी 20 वर्ष दर्शाई गई है.

सवाल और भी हैं. यदि गांववालों की यह शांतिपूर्ण बैठक थी तो सीआरपीएफ के छह जवान जख्मी कैसे हुए. ये जवान रायपुर के नारायण हृदयालय एमएमआई अस्पताल में भर्ती हैं. तहलका की टीम ने जब यहां का दौरा किया तो पता चला कि छह में से सिर्फ दो जवान गंभीर रूप से जख्मी हैं. बाकी दो के पैरों में चोटें आई हैं तो भागने-दौड़ने के दौरान शेष दो जवानों के घुटनों में चोट आई है. इनमें से गंभीर रूप से जख्मी वहीदुल्लाह हमें बताते हैं, ‘ जब हम सरकेगुड़ा पहुंचे तो मुझे बस यही याद है किसी ने पुलिस-पुलिस की आवाज लगाई थी. उसके बाद भारी गोलीबारी होने लगी. मुझे पेट में गोली लगी और मैं गिर गया.’ ज्ञानेंद्र प्रकाश को जांघ में गोली लगी है. वे बताते हैं, ‘डॉक्टरों ने गोली निकाल दी है. वह भरमार बंदूक से चली थी. नक्सली यही बंदूक इस्तेमाल करते हैं. ‘लेकिन जब अंधाधुंध फायरिंग हो रही थी तो हो सकता है वे सीआरपीएफ की गोलियों का ही शिकार बने हों? इस सवाल पर प्रकाश कहते हैं, ‘ सीआरपीएफ के जवान एके सीरीज की बंदूकें इस्तेमाल करते हैं जैसे इंसास, एमपी5 इत्यादि. यदि हमारी गोली किसी को लगती है तो शरीर के उस हिस्से से आर-पार निकल जाती है. लेकिन गांववाले इससे असहमति जताते हैं. ‘हम बंदूकों का क्या करेंगे, मड़कम शांता कहते हैं, ‘ यदि उस बैठक में नक्सलवादी होते तो क्या सीआरपीएफ के जवानों को इतनी हल्की चोटें आतीं? सीआरपीएफ वाले अपनी ही गोलियों से घायल हुए हैं.

हालांकि अर्धसैन्य बल के एक वरिष्ठ अधिकारी ग्रामीणों के इस आरोप को झुंझलाते हुए नकारते हैं. वे कहते हैं,  ’यह बकवास है. आपको क्या लगता है कि सीआरपीएफ में बिना ट्रेनिंग लिए हुए लोग आते हैं? क्या हम अपने पेट में गोली सिर्फ इसलिए मार लेंगे ताकि कोई कहानी बन जाए?’ इस बीच पुलिस अब भी इस गुत्थी में उलझी हुई लग रही है कि ग्रामीणों और नक्सलवादियों को अलग-अलग कैसे पहचाना जाए. बीजापुर के एसपी कहते हैं, ‘गांववाले जब-तब नक्सलवादियों की मदद करते रहते हैं. उन सभी के पास वोटर कार्ड और राशनकार्ड होते हैं. आम दिनों में ये लोग खेती-किसानी करते हैं, बाकी समय में नक्सलवादियों के मददगार बन जाते हैं. इस लिहाज से ये भी नक्सलवादी हैं.’ बीजापुर में तैनात एक वरिष्ठ सीआरपीएफ अधिकारी इस बात पर सहमत दिखते हैं, ’नक्सलवादियों के साथ जनमिलिशिया होता है. सबसे ऊपर जनसंघम होता है. वे बारूदी सुरंग बिछाने में माहिर होते हैं. लेकिन यदि उनके पास हथियार नहीं हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे नक्सलवादी नहीं हैं. अब बताएं, क्या हमारी तरफ से जब-तक कोई मौत न हो, हम खुद को सही साबित नहीं कर सकते?’ 

इन सभी तर्कों से इतर ग्रामीणों का गुस्सा इस समय उबाल पर है. जिला प्रशासन आई राहत सामग्री उन्होंने वापस लौटा दी है. गांववालों का कहना है कि वे उन लोगों से क्या मदद लें जो खुद ही पहले हमारे ऊपर मुसीबत बनकर टूटते हैं. फिलहाल विपक्षी पार्टियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दबाव में इस कथित मुठभेड़ की कई जांचें शुरू हो चुकी हैं. राज्य सरकार घटना की न्यायिक जांच करवा रही है. सीआरपीएफ भी अपने स्तर पर एक जांच करवाने वाली है. अभी तक हर एक पक्ष के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन जांच के बाद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इनके निष्कर्ष किन बिंदुओं पर मिलते हैं और कहां अलग होते हैं.

इसे भी पढ़ें: सीआरपीएफ के महानिदेशक विजय कुमार से बातचीत

‘हम जंगलों में पिकनिक नहीं मना रहे’

कुछ सामाजिक कार्यकर्ता कह रहे हैं कि बीजापुर मुठभेड़ आजादी के बाद से अब तक का सबसे वीभत्स नरसंहार है.

मेरे मन में सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत सम्मान है. मगर आवेश में आकर इस तरह के अपमानजनक आरोप लगाना गलत है. वे अपने स्तर पर जांच कर लें कि यह घटना कैसे और क्यों हुई. और यह भी कि इससे कैसे बचा जा सकता है. उन्हें ऐसा करने से किसने रोका है?

ऑपरेशन के दौरान क्या हुआ था?

सीआरपीएफ की टुकड़ियों को सिलगेर में इकट्ठा होना था. आप उस जगह जाकर देखें. भारत की सुरक्षा एजेंसियों के हिसाब से देखा जाए तो यह जगह नक्शे पर कहीं है ही नहीं. टुकड़ियां तीन दिशाओं से उस इलाके की तरफ बढ़ रही थीं. ये सभी सावधानी से चुनी गई टीमें थीं जिनका नेतृत्व बहुत अच्छे कमांडर कर रहे थे. इस संयुक्त अभियान में राज्य प्रशासन की भी हिस्सेदारी थी. इस इलाके की तरफ बढ़ते हुए एक टीम को सारकेगुड़ा में कुछ शोर सुनाई दिया. यह शोर एक भीड़ का था. सीआरपीएफ की टुकड़ी रुक गई. मगर इससे पहले कि वह किसी चीज की पुष्टि कर पाती भीड़ में से कोई फायरिंग करने लगा जिसमें कुछ जवान घायल हो गए. ऐसे में टीम के लिए यह जानना मुश्किल था कि वे नक्सली हैं या निर्दोष गांववाले. गोलियां किसने चलाईं,  इसके लिए विस्तृत जांच की जरूरत है, लेकिन यह कहना गलत है कि यह लापरवाह तरीके से जान-बूझकर किया गया हमला था. 

क्या इस बात की पुष्टि हो गई है कि मारे गए लोगों में से कितने नक्सली थे?

चार या पांच ऐसे हैं जो नक्सली थे. इनमें मड़काम सुरेश नाम का एक व्यक्ति भी है जो 2007 में दंतेवाड़ा जेल पर हुए हमले में शामिल था. जिसे मीडिया में एक स्कूली छात्र बताया गया, वह एक अलग सुरेश था. यह जानकारी मीडिया में स्पष्ट रूप से नहीं आई. मेरा सवाल यह है कि इस तरह की रिपोर्टिंग क्यों की गई जिसमें पूरी जानकारी नहीं थी. जब आप इसे एक हाई प्रोफाइल मामले की तरह पेश करते हैं तो सब लोगों का ध्यान उस स्कूली छात्र पर केंद्रित रहता है. वे भूल चुके हैं कि एक दूसरा सुरेश भी है. अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम साबित करें कि एक दूसरा सुरेश भी है. विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले देश के प्रमुख बल की है? मीडिया ने हमारी ऐसी छवि बना दी है जैसे हम ही गुनहगार हों. हम तो बस अपना काम कर रहे हैं. मैं इससे इनकार नहीं कर रहा हूं कि मारे गए लोगों में एक लड़की भी थी. हमें इसका खेद भी है. हमें सभी मौतों का खेद है. यहां तक कि माओवादी नेता किशनजी के मुठभेड़ में मरने के बाद भी मैंने जो पहला इंटरव्यू दिया था उसकी शुरुआत मैंने किशनजी के परिवार के प्रति अपनी संवेदना जताई थी. इसलिए क्योंकि परिवार इस सबसे बाहर की चीज है.

 दूसरी अहम बात यह है कि सिलगेर जैसे इलाके में यह पता करना मुश्किल है कि कौन नक्सली है और कौन नहीं. आपको पता नहीं चलेगा. सीआरपीएफ को तो पक्के तौर पर पता नहीं चलेगा. स्थानीय पुलिस के लिए तो यह जानना असंभव ही है क्योंकि उनके पास उन कुछ लोगों की ही जानकारी होती है जिनका रिकॉर्ड रखा गया हो. यह दिल्ली या रायपुर का कोई पुलिस स्टेशन नहीं है. हम उस इलाके की बात कर रहे हैं जो देश में सबसे पिछड़ा है. इसे ‘मुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है. सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक इस इलाके में एक लाख से भी ज्यादा जनमिलिशिया (नागरिक सेना) हैं. तो किसे पता कि कौन इस एक लाख का हिस्सा है? यह धुंध में लिपटी दुनिया है. ऐसा लगता है जैसे यह साबित करने की जिम्मेदारी हमारी है कि व्यक्ति निर्दोष है या नहीं. यह हमारा काम नहीं है. यह इलाका नक्सलियों के नियंत्रण में है. अगर आप गांववालों द्वारा मीडिया को दिए गए बयान देखें तो उनका कहना है कि उन्हें बैठक में भाग लेने के लिए मजबूर किया गया था. हमें गांववालों से सहानुभूति है क्योंकि उन पर दूसरे पक्ष का दबाव होता है. पुलिस का उन पर कोई दबाव नहीं होता क्योंकि पुलिस तो उस इलाके में पहली बार ही गई थी. 

विद्रोही गतिविधियों से निपटने में लगे देश के मुख्य सुरक्षा बल पर इस तरह की कालिख मढ़ना ठीक बात नहीं है. इससे किसे फायदा होगा ?

सीआरपीएफ पर कुछ शवों को विकृत करने का आरोप भी लगा है. 

इस तरह की गंदगी हम पर उछाली जाती रही है और सीआरपीएफ इसका अभ्यस्त हो चुका है. लेकिन विद्रोही गतिविधियों से निपटने में लगे देश के मुख्य सुरक्षा बल पर इस तरह की कालिख मढ़ना ठीक बात नहीं है. इससे किसको फायदा होगा? हमारे जो लोग अबूझमाड़ में गए वे जानते हैं कि वहां स्थितियां किसी भी दूसरी जगह से ज्यादा खराब हैं. वहां किसी का नियंत्रण नहीं था. न छत्तीसगढ़ सरकार का, न केंद्र का, न सेना का और न ही सीआरपीएफ का. कुछ साल पहले कभी-कभी वहां थोड़ी सफलताएं मिली थीं. मार्च में हमारे लोगों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की. लेकिन हम वहां रुक नहीं सके और वापस आ गए. वहां के लोगों के पास न तन ढकने को कपड़े हैं, न खाने के लिए पर्याप्त भोजन और न ही शिक्षा. यह देश का सबसे पिछड़ा इलाका है जिस पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है. यहां कायदे से एक प्रशासन की जरूरत है. यहां वैसे ही काम होना चाहिए जैसे सारंडा में हो रहा है.

सीआरपीएफ के सामने छवि का एक गंभीर संकट रहा है. क्या आपके कमान संभालने के बाद रणनीति में कोई बदलाव हुआ है?

कमान संभालते ही मैंने सभी कंपनी कमांडरों को 22 बिंदुओं का एक एजेंडा भेजा. यह पहली बार हुआ था कि कंपनी कमांडरों को डीजी से कोई सीधा पत्र मिला हो. मुझे उनमें से हर एक से इसका जवाब मिला. मैंने जो निर्देश दिए थे उनमें एक अहम निर्देश यह भी था कि हर एक से दुश्मन की तरह बर्ताव नहीं करना है. बल्कि मैं तो दुश्मन शब्द का इस्तेमाल भी नहीं करना चाहूंगा और उन्हें ऐसे विरोधी कहूंगा जो आपके दृष्टिकोण का विरोध कर रहे हैं. मेरा कहना है कि प्रतिक्रिया फौरी न हो. स्थिर बुद्धि के साथ काम किया जाए. हमने दैनिक प्रशिक्षण पर काफी ध्यान केंद्रित किया है. हमारी कोशिश है कि हम पहले से ज्यादा सचेत और सतर्क रहते हुए अपना नुकसान कम से कम होने दें. लेकिन साथ ही जब भी फायरिंग हो, हम पहले से ज्यादा संवेदनशीलता और संयम से काम करें. 

इस घटना का राजनीतिकरण भी हो गया है.

इस बारे में मैं क्या कह सकता हूं? मैं अपने बल का बचाव करूंगा मगर मैं राजनीतिकरण के बारे में बात नहीं कर सकता. मुझसे अगर आप विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ चल रहे अभियानों के बारे में ही पूछें तो ज्यादा अच्छा होगा.

जब से सलवा जुडम की शुरुआत हुई है तब से सीआरपीएफ को नक्सल प्रभावित इलाकों में ही ज्यादा भेजा जा रहा है.

हम और भी मुश्किल इलाकों में गए हैं. मैंने सीआरपीएफ को आंतरिक बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) के रूप में पुनर्परिभाषित किया है. हम यहां इसलिए हैं ताकि राज्य प्रशासन की अपने पांवों पर खड़े होने में मदद कर सकें. और राज्य में तैनात कुछ विशेष सुरक्षा बल तो केंद्रीय बलों से भी बेहतर हैं. जब हमें तैनात किया जाता है तो मैं हमेशा अपने लड़कों से कहता हूं कि हमें सबसे मुश्किल इलाकों में लड़ाई लड़नी है. लेकिन हम स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर काम करते हैं. हम अकेले काम करने वाले बल नहीं हैं. जब भी सीआरपीएफ की तैनाती किसी दुर्गम क्षेत्र में होती है तो राज्य का कोई एक घटक खूंटी की तरह आपके साथ होना चाहिए.

खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के मामले में भी समस्या की बात कही जा रही है.

इस मोर्चे पर स्थिति पहले से ठीक हुई है, फिर भी इसमें बेहतरी की गुंजाइश है. मेरा मानना है कि सारंडा और अबूझमाड़ जैसे इलाके हमारी सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक धब्बा हैं. हम इसी धब्बे को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं. हम यहां इसलिए नहीं हैं कि हमें किसी के साथ सैद्धांतिक लड़ाई करनी है. बल्कि इसलिए हैं कि कानून का राज सुनिश्चित हो. हम मानते हैं कि अगर समग्र विकास के साथ कानून-व्यवस्था भी ठीक से चले तो चीजें बेहतर होंगी. सामाजिक कार्यकर्ता कुछ चुनिंदा घटनाओं की बात कर रहे हैं. मैं उनसे एक सवाल पूछना चाहूंगा. क्या हम कोई पिकनिक मना रहे हैं? क्या हम कोई अराजक सेना हैं या फिर गैरजिम्मेदार मिलिशिया? हम एक जिम्मेदार बल हैं जो विद्रोही गतिविधियों से निपटने का काम करता है. हम वहां एक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए स्थानीय पुलिस के साथ गए. अगर दुर्भाग्य से कुछ निर्दोष लोगों को भी नुकसान पहुंचा हो तो यह खेद की बात है. हमने कम से कम ताकत के साथ प्रतिक्रिया दी थी. यह दिखाता है कि हम ज्यादा से ज्यादा संयम बरतते हैं. मैं टीम के कप्तान पर सबसे ज्यादा भरोसा करता हूं. उस आदमी पर जो आगे बढ़कर नेतृत्व करता है. एक डीआईजी कैंप में बैठा भी रह सकता था. वह नेतृत्व करने क्यों गया? क्योंकि वह टीम को प्रोत्साहित करना चाहता था ताकि इस खतरनाक इलाके में उसका मनोबल बढ़े. नहीं तो उसे जाने की क्या जरूरत है? वह बैठा रहता और अपने कमांडेंटों को जाने के लिए कहता. 

क्या इस घटना की कोई जांच हो रही है?

एक मजिस्ट्रेटी जांच जारी है. जांच के हमारे अपने तरीके भी हैं. दोनों ही चीजें चल रही हैं.

लापरवाही से उपजी लाचारगी

बात दो साल पहले की है. 2010 के एशिया कप क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की. भारतीय फुटबॉल टीम अंडर -19 का मैच चल रहा था. ढाका में हो रहे उस मैच में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व कर रही 16 साल की एक लड़की जब मैदान में उतरी तो उसकी बिजली -सी गति और तकनीक का तालमेल देखकर लोगों के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा था, ‘ये तो लेडी बेकहम है.’ वह लड़की झारखंड की नूपुर टोपनो थी. टीम के कोच ने भी तब नूपुर को भारतीय टीम का भविष्य बताया था.

लेकिन ये बातें अब पुरानी हो चुकी हैं. आज करीब दो साल बाद नूपुर अपने चोटिल दाहिने पांव के इलाज की बाट जोह रही हैं. उनके इलाज के लिए जिम्मेदार स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) इलाज करवाने के बजाय रोज नए-नए बहाने गढ़ रहा है. साई के ही मैदान में 10 जनवरी, 2011 को एक अभ्यास मैच के दौरान नूपुर अपनी साथी खिलाड़ी श्वेता से टकरा गई थीं. इससे उनके दाहिने पैर का लिगामेंट डिसप्लेस हो गया. लेकिन किसी ने उसकी इस चोट को गंभीरता से नहीं लिया. नतीजा यह हुआ कि अब 18 साल की हो चुकी नूपुर साई के खेल मैदान में अपना हुनर दिखाने के बजाय दर्शक दीर्घा में बैठकर अपने साथी खिलाड़ियों को खेलते हुए देखती रहती हैं. 

नूपुर आज भी साई के होस्टल में रहती हैं. उनका इलाज क्यों नहीं हो सका, जब यह सवाल हम साई के रांची केंद्र के प्रभारी सुशील वर्मा से पूछते हैं तो उनका जवाब आता है, ‘हम नूपुर के इलाज के लिए हायर अथॉरिटी से बात कर रहे हैं.’ लेकिन डेढ़ साल से इस दिशा में कोई पहल क्यों नहीं हुई, यह पूछने पर वे नूपुर को ही दोषी ठहराने लगते हैं. कुछ इसी तरह की बात फुटबॉल टीम के कोच सुनील कुमार भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘हमने इलाज करवाया था. लेकिन वह बार-बार चोटिल हो जाती है.’

लेकिन हकीकत यह है कि डॉक्टरों ने नूपुर के ऑपरेशन की सलाह दी थी जो कभी हुआ ही नहीं. जब ऑपरेशन के बारे में कोच सुनील और प्रभारी सुशील से पूछा जाता है तो वे बगलें झांकने लगते हैं. फिर एक चुप्पी के बाद जवाब आता है, ‘उच्च पदाधिकारियों से बात कर रहे हैं.’ लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी अस्पताल में नूपुर को एक बार दिखाने के बाद साई प्रभारी तथा कोच ने उनके इलाज में कभी कोई खास दिलचस्पी ही नहीं दिखाई. खिलाड़ियों के इंश्योरेंस का लाभ भी नूपुर को नहीं मिला. ऐसा क्यों? अधिकारियों के पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं था. 

साई के हॉस्टल में नुपूर हमें अपने बारे में बताती हैं. कहती हैं, ‘मुझे बचपन से ही खेलों से प्यार रहा है. मैं हॉकी भी अच्छा खेलती हूं लेकिन फुटबॉल मेरा पहला प्रेम है. यही वजह है कि मैं फुटबॉल में रम गई.’ नूपुर झारखंड के गुमला जिले के पुगु करिंगा गांव की निवासी हैं. अपने गांव के लोगों को खेलते हुए देख कर उन्होंने हॉकी और फुटबॉल खेलना सीखा. प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गुमला में ही हुई, लेकिन खेलों के प्रशिक्षण के साथ पढ़ाई करने के लिए वे रांची आ गईं. यहां उन्होंने इंटर की पढ़ाई पूरी की और विश्व स्तर की खिलाड़ी बनने के सपने के साथ साई के हॉस्टल की ओर रुख किया. 

बातचीत के दौरान नूपुर पूछती हैं कि क्या सर (साई के अधिकारियों) को पता है कि आप मीडिया से हैं और हमसे बात करने आई हैं. क्या सर भी कमरे में आने वाले हैं? हम नूपुर को आश्वस्त करते हैं तब वे आगे की बात बताती हंै. नूपुर कहती हैं, ‘मैंने अब तक तीन-चार डॉक्टरों को दिखाया है पर अथॉरिटी ने इस बाबत कोई सहयोग नहीं दिया.’ इस दौरान कमरे में सात-आठ दूसरी खिलाड़ी भी मौजूद हैं. वे बीच-बीच में बोल पड़ती हैं, ‘सर ने आपको झूठी सूचनाएं दी हैं. नूपुर ने खुद से ही पहल कर अब तक अपना इलाज करवाया है लेकिन ऑपरेशन का पैसा नहीं होने की वजह से वह आगे का इलाज नहीं करवा पा रही है.’ 

नूपुर से अभी बात हो ही रही है कि कमरे में सुशील कुमार और हॉस्टल वार्डन सुब्बो टोप्पो भी आ पहुंचते हैं. सुशील कुमार कहते हैं, ‘यह लड़की है और इलाज के दौरान अटेंडेंट के रूप में इसके माता-पिता का होना जरूरी है. इसके माता-पिता आते ही नहीं हैं.’ लेकिन नूपुर बीच में बोल पड़ती हंै, ‘सर ने मुझसे कभी मां-पिता को बुलाने के लिए कहा ही नहीं.’ नूपुर की सहेलियां इस पर सहमति जताती हैं. नूपुर आगे बताती हैं, ‘मेरी मां बचपन में ही गुजर गईं. पिता फौज में हैं और हम चार बहनों को उन्होंने ही पाला-पोसा है. अगर बाबा को कहा जाएगा तो वे तो उल्टे पैर दौड़े चले आएंगे.’ बीच में ही टोकते हुए नूपुर की सहेली शकुंतला कहती हैं, ‘इसे देखकर आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा कि यह उम्दा खिलाड़ी है. आप इससे बाएं पैर से किक लगवा कर देखिए तब आपको पता चलेगा.’ 

हम नूपुर की फोटो लेना चाहते हैं लेकिन पहले ही उसे ऐसा न करने का इशारा कर दिया गया है इसलिए वह मना कर देती है. चलते-चलते हम वार्डन से कहते हैं कि नूपुर बेहतरीन खिलाड़ी हैं. लगनशील और ईमानदार भी. इलाज हुआ होता तो वे आपकी शिकायत आपके ही सामने करने का साहस कैसे जुटा पातीं? जवाब में वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े रहते हैं. 

हालांकि इन सबके बावजूद नूपुर को लेकर अभी उम्मीदें बची हुई हैं. खिलाड़ियों की चोट के विशेषज्ञ डॉ अमित दुबे का मानना है कि अगर नूपुर का ऑपरेशन अब भी हो जाए तो वे मैदान में वापस लौट सकती हैं. डॉ दुबे कहते हैं, ‘फरवरी-मार्च (2012) में ही नूपुर को मेरे पास लाया गया था तब मैंने एमआरआई टेस्ट करवाने की सलाह दी. लेकिन अथॉरिटी के पदाधिकारी उसे लेकर दोबारा मेरे पास आए ही नहीं.’

विजय की चाह, भटकाव की राह

पटना की एक चौपाल में कुछ दिन पहले बिहार की हालिया राजनीतिक हलचल की चर्चा चल रही थी. वरिष्ठ कम्युनिस्ट उपेंद्रनाथ मिश्रा ने कुछ दिन पहले का एक प्रसंग सुनाते हुए कहा, ‘पटना से सटे नौबतपुर के निकट तरेतपाली मठ में एक यज्ञ चल रहा है. यह यज्ञ चार माह तक चलने वाला है. उस यज्ञ में एक दिन लालू प्रसाद यादव अपने भरोसेमंद साथी के साथ पहुंचे. लालू ने सहयोग राशि के तौर पर यज्ञ में मोटी रकम दान में दी, अपने साथी को भी देने को कहा. बाद में वहां उपस्थित लोगों को समझाया कि ‘आप लोगों के बीच हमें लेकर गलतफहमी पैदा हुई थी कि हम दुश्मन हैं. गलतफहमी दूर कीजिए और खुद आंककर देखिए कि हमने क्या कभी आप लोगों का बुरा चाहा!’ लालू के शब्दों में पश्चात्ताप की झलक थी.’ बतकही चल रही थी, चटखारे ले-लेकर नेताओं से जुड़े प्रसंग सुने-सुनाए जा रहे थे. लिहाजा पहले तो लगा कि मिश्रा जी सिर्फ मजे लेने के लिए कहानी सुना रहे हैं. लेकिन तस्दीक करने पर मालूम हुआ कि लालू प्रसाद चार जुलाई को सच में वहां पहुंचे थे और मठाधीश धरनीधर से मिले थे. सार्वजनिक भाषण तो नहीं दिया लेकिन दान देने की बात जरूर सामने आई.

 असल में तरेतपाली मठ के जरिए जिस सवर्ण समूह के बीच लालू प्रसाद पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है. उनका इस मठ से पुराना रिश्ता रहा है. वैसे भी मंदिरों-मठों में लालू की की आवाजाही सामान्य बात है. कभी सोनपुर, कभी देवघर-बासुकीनाथ मंदिर, फौजदारी बाबा के दरबार में तो कभी तरेतपाली मठ में वे आते-जाते रहते हैं. धर्म के जरिए भावनाओं के दोहन की कोशिश भी करते रहे हैं. अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा कि सरकार के पाप से राज्य अकाल के गाल में सामने वाला था लेकिन उन्होंने राबड़ी देवी के साथ जाकर भगवान की आराधना की तो बारिश हुई. इसके पहले भी लालू नीतीश द्वारा सूर्यग्रहण के दौरान बिस्कुट खा लेने का बयान दे चुके हैं. धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक पैंतरेबाजी करना उनकी प्रवृत्ति बनती जा रही है. जानकार मानते हैं कि सब कुछ गंवाने के बाद होश में आए लालू एक वोट बैंक की तलाश में ऐसे रास्ते पर निकल गए हैं जो उन्हें दोबारा खड़ा भी कर सकता है और उतनी ही संभावना है कि वे इतिहास का हिस्सा बन कर रह जाएं.

जदयू-भाजपा के रिश्ते में आई हालिया खटास से भी लालू उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि दोनों दलों का अलगाव उनकी वापसी को संभव बना सकता है.

केंद्र में संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद होने, कांग्रेस द्वारा कतई घास नहीं डाले जाने के बाद लालू प्रसाद ने बिहार में अपनी आवाजाही बढ़ा दी है. वरना बिहार और पटना से उनका नाता सुबह-शाम का ही रह गया था . लालू की इस कमजोरी को भांपकर ही नीतीश कुमार ने उन्हें ‘नान रेसिडेंट बिहारी’ का नाम दिया था. हालांकि दिल्ली में मगन लालू ने इस बीच अपने हिसाब से कुछ जरूरी घरेलू काम भी निपटाए. मसलन बेटे के लिए औरंगाबाद में लारा (लालू-राबड़ी) नाम से मोटरसाइकिल शो रूम खुलवाया, बेटियों की शादी की, विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर हार कर घर में बैठी पत्नी राबड़ी देवी को विधान परिषद सदस्य बनवाया और दिल्ली में अपने पार्टी कार्यालय का नामकरण राबड़ी भवन कर दिया.

जरूरी घरेलू कामकाज से निपट कर अब वे इधर कुछ दिनों से कमर कसकर बिहार की राजनीति में हाथ-पांव मारते हुए दिख रहे हैं. लेकिन उसकी दिशा अब भी तय नहीं कर पा रहे हैं. राजद के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जमीन पर रहने और जमीनी सच्चाई से अवगत होने की हमारे नेता की आदत सालों पहले ही छूट गई है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के उत्थान के बाद वे आंखों में चमक लिए घूम रहे हैं कि क्या पता कब करिश्मा हो जाए, लेकिन मुलायम-अखिलेश की तरह सरकार के खिलाफ जमीनी संघर्ष का माद्दा नहीं जुटा पा रहे हैं. उनके पास ठोस रणनीति का भी अभाव है.’

मुसलिम-यादव समीकरण साधकर डेढ़ दशक तक बिहार में राज करने वाले लालू की कार्यशैली देखकर यह बात सही भी लगती है. इन दिनों दो-चार दिन के अंतराल पर वे नीतीश सरकार को निशाने पर लेते हैं और कभी-कभी आंकड़ों की भाषा में भी बात करते हैं. इससे लगता है कि वे गंभीर हैं. लेकिन इसी बीच वे कुछ ऐसा भी कर देते हैं या बोल देते हैं जिससे उनका पुराना खिलंदड़ रूप सामने आ जाता है. पिछले दिनों जब कुख्यात ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की आरा में हत्या हुई तो उन्होंने मुखिया को बड़ा आदमी बता दिया. पिछले सप्ताह जब वे अपनी पार्टी के स्थापना दिवस समारोह में पहुंचे तो उन्होंने नया शिगूफा छोड़ दिया कि राज्य का मुख्यमंत्री कोई सवर्ण भी हो सकता है. इसके बाद उन्होंने 50 प्रतिशत युवाओं को टिकट देने की घोषणा की.

स्थापना दिवस समारोह निपटाने के बाद लालू प्रसाद सात से दस जुलाई तक समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी इलाके में चार दिवसीय यात्रा पर निकले तो पारंपरिक तौर पर नीतीश को फरेबी, ठग और विश्वासघाती नेता बताते रहे. इसी दौरान उन्होंने राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी द्वारा डेढ़ महीने पहले दिए गए एक बयान का जवाब भी दिया. डेढ़ माह पहले सुशील मोदी ने लालू को बूढ़ा कहा था. इतने दिनों बाद लालू को पता नहीं कैसे उस बयान की याद आ गई. उन्होंने मोदी को ललकारा- ’हमरा सचिव था मोदी अब हमको बूढ़ा कहता है. हिम्मत है तो पटना के गांधी मैदान में आके कुश्ती में फरिया ले.’

बड़ी संभावना है कि जिस दिन नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश भाजपा से अलग होंगे, उस दिन लालू के पास से मुसलमानों का भी एक बड़ा वोट बैंक नीतीश के पाले में चला जाएगा.

जानकार मानते हैं कि लालू का यह सब कहना, सवर्ण मोह में फंसते जाना उनके भटकाव और द्वंद्व को ही दिखाता है. नीतीश शासन से एक वर्ग में बढ़ती नाराजगी के बावजूद लालू उस खाली जगह को भरते हुए नहीं दिख रहे. वे सवर्णों को ललचाने में लगे हैं जबकि पिछले माह उनकी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तीन प्रमुख सवर्ण नेता (रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, उमांशकर सिंह) गायब थे.

तब खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी कि शायद राजपूत नेता नाराज हो गए हैं, इस बार राजद के स्थापना दिवस में शामिल होकर उन तीन नेताओं में से एक जगतानंद सिंह ने सफाई दी कि वे शक-शुबहा दूर करने के लिए आए हैं. राजपूत नेता तो फिर भी लालू के खेमे में शुरू से रहे हैं लेकिन भूमिहारों ने उनसे हमेशा दूरी बनाए रखी. अब लालू प्रसाद की नजर इस वर्ग पर है जिसके बारे में यह कहा जा रहा है कि यह समूह धीरे-धीरे नीतीश से नाराज होता जा रहा है.

बिहार में दलितों पर बढ़ते अत्याचार के दौर में भी अगर लालू सवर्ण राग गाते फिर रहे हैं तो उसके पीछे यही बड़ी वजह बताई जा रही है कि वे भूमिहारों को अपने पाले में करके समीकरण बदलना चाहते हैं. ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि अगर सवर्णों के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनी थी तो उसकी सबसे बड़ी वजह भूमिहार ही थे. जानकारों के मुताबिक भूमिहारों की लालू से रार बहुत गहरी है और नीतीश से छोटी-मोटी नाराजगी उन्हें लालू के पाले में नहीं ला सकती. इसके अलावा नीतीश के साथ भाजपा की बैसाखी है जिससे भूमिहार सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं.

लालू वाम दलों से भी समर्थन की उम्मीद लगाए बैठे हैं. वरिष्ठ वाम नेता उपेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं, ‘फिलहाल यह स्वप्न जैसा है. वामपंथी यहां अपनी जमीन तलाशने में लगे हुए हैं, वे लालू प्रसाद के साथ जाने की भूल दोबारा नहीं करेंगे.’ लालू की बढ़ी हुई सक्रियता के पीछे मिश्रा जदयू-भाजपा के रिश्तों में आई तल्खी की भूमिका देखते हैं. लालू इससे करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे हैं. उन्हें लगता है कि जिस दिन दोनों दल अलग हो जाएंगे, उस दिन जातीय समूह के आधार पर वे नीतीश से बड़े नेता बन जाएंगे, क्योंकि यादव और मुसलिम का उनका समीकरण राज्य में एक बड़ा वोट बैंक बनाता है. हालांकि इसको लेकर भी लालू कल्पनालोक में खोए हुए हैं. यादवों के सबसे बड़े गढ़ मधेपुरा में शरद यादव उन्हें आउट कर चुके हैं, सोनपुर में राबड़ी हार चुकी हैं और मुसलमानों में पसमांदा समूह का राजनीतिक बंटवारा करके नीतीश ने उनके एमवाई समीकरण में सेंध लगा दी है.

इन सियासी हालात के विपरीत लालू प्रसाद के रणनीतिकार भाजपा-जदयू के बीच पैदा हुई खटास के आधार पर समीकरण बिठाने में लगे हैं. 2010 के विधानसभा चुनाव में एक सिरे से सफाये के बावजूद उनका विश्वास उस आंकड़े पर टिका है कि जदयू का वोट प्रतिशत राजद से सिर्फ चार प्रतिशत आगे है और भाजपा तमाम उफानी जीत के बावजूद वोट प्रतिशत में राजद से करीब दो प्रतिशत पीछे है. लालू के रणनीतिकारों को लगता है कि दोनों अलग हुए तो लालू ही सबसे बड़े नेता होंगे. नीतीश का कुरमी जातीय आधार लालू के यादव से काफी कम है और भाजपा इधर-उधर के जुगाड़ से लालू से पार नहीं पा सकेगी. लेकिन लालू के रणनीतिकार शायद अब भी लालू को भुलावे में रखना चाहते हैं. नीतीश को हटाकर भी देखें तो 1990 के बाद देश-समाज तेजी से बदला है. मध्यवर्ग का तेजी से उभार हुआ है और जाति के साथ दूसरे किस्म के विकास-अस्मिता आदि का घोल मिलाकर ही राजनीति का रसायन तैयार किया जा सकता है. यह लालू के एजेंडे से गायब है और यही नीतीश का प्रमुख हथियार है.

विजय की चाह, भटकाव की राह

 

पटना की एक चौपाल में कुछ दिन पहले बिहार की हालिया राजनीतिक हलचल की चर्चा चल रही थी. वरिष्ठ कम्युनिस्ट उपेंद्रनाथ मिश्रा ने कुछ दिन पहले का एक प्रसंग सुनाते हुए कहा, ‘पटना से सटे नौबतपुर के निकट तरेतपाली मठ में एक यज्ञ चल रहा है. यह यज्ञ चार माह तक चलने वाला है. उस यज्ञ में एक दिन लालू प्रसाद यादव अपने भरोसेमंद साथी के साथ पहुंचे. लालू ने सहयोग राशि के तौर पर यज्ञ में मोटी रकम दान में दी, अपने साथी को भी देने को कहा. बाद में वहां उपस्थित लोगों को समझाया कि ‘आप लोगों के बीच हमें लेकर गलतफहमी पैदा हुई थी कि हम दुश्मन हैं. गलतफहमी दूर कीजिए और खुद आंककर देखिए कि हमने क्या कभी आप लोगों का बुरा चाहा!’ लालू के शब्दों में पश्चात्ताप की झलक थी.’ बतकही चल रही थी, चटखारे ले-लेकर नेताओं से जुड़े प्रसंग सुने-सुनाए जा रहे थे. लिहाजा पहले तो लगा कि मिश्रा जी सिर्फ मजे लेने के लिए कहानी सुना रहे हैं. लेकिन तस्दीक करने पर मालूम हुआ कि लालू प्रसाद चार जुलाई को सच में वहां पहुंचे थे और मठाधीश धरनीधर से मिले थे. सार्वजनिक भाषण तो नहीं दिया लेकिन दान देने की बात जरूर सामने आई.

 असल में तरेतपाली मठ के जरिए जिस सवर्ण समूह के बीच लालू प्रसाद पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है. उनका इस मठ से पुराना रिश्ता रहा है. वैसे भी मंदिरों-मठों में लालू की की आवाजाही सामान्य बात है. कभी सोनपुर, कभी देवघर-बासुकीनाथ मंदिर, फौजदारी बाबा के दरबार में तो कभी तरेतपाली मठ में वे आते-जाते रहते हैं. धर्म के जरिए भावनाओं के दोहन की कोशिश भी करते रहे हैं. अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा कि सरकार के पाप से राज्य अकाल के गाल में सामने वाला था लेकिन उन्होंने राबड़ी देवी के साथ जाकर भगवान की आराधना की तो बारिश हुई. इसके पहले भी लालू नीतीश द्वारा सूर्यग्रहण के दौरान बिस्कुट खा लेने का बयान दे चुके हैं. धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक पैंतरेबाजी करना उनकी प्रवृत्ति बनती जा रही है. जानकार मानते हैं कि सब कुछ गंवाने के बाद होश में आए लालू एक वोट बैंक की तलाश में ऐसे रास्ते पर निकल गए हैं जो उन्हें दोबारा खड़ा भी कर सकता है और उतनी ही संभावना है कि वे इतिहास का हिस्सा बन कर रह जाएं.

केंद्र में संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद होने, कांग्रेस द्वारा कतई घास नहीं डाले जाने के बाद लालू प्रसाद ने बिहार में अपनी आवाजाही बढ़ा दी है. वरना बिहार और पटना से उनका नाता सुबह-शाम का ही रह गया था . लालू की इस कमजोरी को भांपकर ही नीतीश कुमार ने उन्हें ‘नान रेसिडेंट बिहारी’ का नाम दिया था. हालांकि दिल्ली में मगन लालू ने इस बीच अपने हिसाब से कुछ जरूरी घरेलू काम भी निपटाए. मसलन बेटे के लिए औरंगाबाद में लारा (लालू-राबड़ी) नाम से मोटरसाइकिल शो रूम खुलवाया, बेटियों की शादी की, विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर हार कर घर में बैठी पत्नी राबड़ी देवी को विधान परिषद सदस्य बनवाया और दिल्ली में अपने पार्टी कार्यालय का नामकरण राबड़ी भवन कर दिया. जरूरी घरेलू कामकाज से निपट कर अब वे इधर कुछ दिनों से कमर कसकर बिहार की राजनीति में हाथ-पांव मारते हुए दिख रहे हैं. लेकिन उसकी दिशा अब भी तय नहीं कर पा रहे हैं. राजद के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जमीन पर रहने और जमीनी सच्चाई से अवगत होने की हमारे नेता की आदत सालों पहले ही छूट गई है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के उत्थान के बाद वे आंखों में चमक लिए घूम रहे हैं कि क्या पता कब करिश्मा हो जाए, लेकिन मुलायम-अखिलेश की तरह सरकार के खिलाफ जमीनी संघर्ष का माद्दा नहीं जुटा पा रहे हैं. उनके पास ठोस रणनीति का भी अभाव है.’

जदयू-भाजपा के रिश्ते में आई हालिया खटास से भी लालू उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि दोनों दलों का अलगाव उनकी वापसी को संभव बना सकता है.

मुसलिम-यादव समीकरण साधकर डेढ़ दशक तक बिहार में राज करने वाले लालू की कार्यशैली देखकर यह बात सही भी लगती है. इन दिनों दो-चार दिन के अंतराल पर वे नीतीश सरकार को निशाने पर लेते हैं और कभी-कभी आंकड़ों की भाषा में भी बात करते हैं. इससे लगता है कि वे गंभीर हैं. लेकिन इसी बीच वे कुछ ऐसा भी कर देते हैं या बोल देते हैं जिससे उनका पुराना खिलंदड़ रूप सामने आ जाता है. पिछले दिनों जब कुख्यात ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की आरा में हत्या हुई तो उन्होंने मुखिया को बड़ा आदमी बता दिया. पिछले सप्ताह जब वे अपनी पार्टी के स्थापना दिवस समारोह में पहुंचे तो उन्होंने नया शिगूफा छोड़ दिया कि राज्य का मुख्यमंत्री कोई सवर्ण भी हो सकता है. इसके बाद उन्होंने 50 प्रतिशत युवाओं को टिकट देने की घोषणा की. स्थापना दिवस समारोह निपटाने के बाद लालू प्रसाद सात से दस जुलाई तक समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी इलाके में चार दिवसीय यात्रा पर निकले तो पारंपरिक तौर पर नीतीश को फरेबी, ठग और विश्वासघाती नेता बताते रहे. इसी दौरान उन्होंने राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी द्वारा डेढ़ महीने पहले दिए गए एक बयान का जवाब भी दिया. डेढ़ माह पहले सुशील मोदी ने लालू को बूढ़ा कहा था. इतने दिनों बाद लालू को पता नहीं कैसे उस बयान की याद आ गई. उन्होंने मोदी को ललकारा- ’हमरा सचिव था मोदी अब हमको बूढ़ा कहता है. हिम्मत है तो पटना के गांधी मैदान में आके कुश्ती में फरिया ले.’

जानकार मानते हैं कि लालू का यह सब कहना, सवर्ण मोह में फंसते जाना उनके भटकाव और द्वंद्व को ही दिखाता है. नीतीश शासन से एक वर्ग में बढ़ती नाराजगी के बावजूद लालू उस खाली जगह को भरते हुए नहीं दिख रहे. वे सवर्णों को ललचाने में लगे हैं जबकि पिछले माह उनकी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तीन प्रमुख सवर्ण नेता (रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, उमांशकर सिंह) गायब थे. तब खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी कि शायद राजपूत नेता नाराज हो गए हैं, इस बार राजद के स्थापना दिवस में शामिल होकर उन तीन नेताओं में से एक जगतानंद सिंह ने सफाई दी कि वे शक-शुबहा दूर करने के लिए आए हैं. राजपूत नेता तो फिर भी लालू के खेमे में शुरू से रहे हैं लेकिन भूमिहारों ने उनसे हमेशा दूरी बनाए रखी. अब लालू प्रसाद की नजर इस वर्ग पर है जिसके बारे में यह कहा जा रहा है कि यह समूह धीरे-धीरे नीतीश से नाराज होता जा रहा है. बिहार में दलितों पर बढ़ते अत्याचार के दौर में भी अगर लालू सवर्ण राग गाते फिर रहे हैं तो उसके पीछे यही बड़ी वजह बताई जा रही है कि वे भूमिहारों को अपने पाले में करके समीकरण बदलना चाहते हैं. ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि अगर सवर्णों के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनी थी तो उसकी सबसे बड़ी वजह भूमिहार ही थे. जानकारों के मुताबिक भूमिहारों की लालू से रार बहुत गहरी है और नीतीश से छोटी-मोटी नाराजगी उन्हें लालू के पाले में नहीं ला सकती. इसके अलावा नीतीश के साथ भाजपा की बैसाखी है जिससे भूमिहार सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं.

लालू वाम दलों से भी समर्थन की उम्मीद लगाए बैठे हैं. वरिष्ठ वाम नेता उपेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं, ‘फिलहाल यह स्वप्न जैसा है. वामपंथी यहां अपनी जमीन तलाशने में लगे हुए हैं, वे लालू प्रसाद के साथ जाने की भूल दोबारा नहीं करेंगे.’ लालू की बढ़ी हुई सक्रियता के पीछे मिश्रा जदयू-भाजपा के रिश्तों में आई तल्खी की भूमिका देखते हैं. लालू इससे करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे हैं. उन्हें लगता है कि जिस दिन दोनों दल अलग हो जाएंगे, उस दिन जातीय समूह के आधार पर वे नीतीश से बड़े नेता बन जाएंगे, क्योंकि यादव और मुसलिम का उनका समीकरण राज्य में एक बड़ा वोट बैंक बनाता है. हालांकि इसको लेकर भी लालू कल्पनालोक में खोए हुए हैं. यादवों के सबसे बड़े गढ़ मधेपुरा में शरद यादव उन्हें आउट कर चुके हैं, सोनपुर में राबड़ी हार चुकी हैं और मुसलमानों में पसमांदा समूह का राजनीतिक बंटवारा करके नीतीश ने उनके एमवाई समीकरण में सेंध लगा दी है.

बड़ी संभावना है कि जिस दिन नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश भाजपा से अलग होंगे, उस दिन लालू के पास से मुसलमानों का भी एक बड़ा वोट बैंक नीतीश के पाले में चला जाएगा.

इन सियासी हालात के विपरीत लालू प्रसाद के रणनीतिकार भाजपा-जदयू के बीच पैदा हुई खटास के आधार पर समीकरण बिठाने में लगे हैं. 2010 के विधानसभा चुनाव में एक सिरे से सफाये के बावजूद उनका विश्वास उस आंकड़े पर टिका है कि जदयू का वोट प्रतिशत राजद से सिर्फ चार प्रतिशत आगे है और भाजपा तमाम उफानी जीत के बावजूद वोट प्रतिशत में राजद से करीब दो प्रतिशत पीछे है. लालू के रणनीतिकारों को लगता है कि दोनों अलग हुए तो लालू ही सबसे बड़े नेता होंगे. नीतीश का कुरमी जातीय आधार लालू के यादव से काफी कम है और भाजपा इधर-उधर के जुगाड़ से लालू से पार नहीं पा सकेगी. लेकिन लालू के रणनीतिकार शायद अब भी लालू को भुलावे में रखना चाहते हैं. नीतीश को हटाकर भी देखें तो 1990 के बाद देश-समाज तेजी से बदला है. मध्यवर्ग का तेजी से उभार हुआ है और जाति के साथ दूसरे किस्म के विकास-अस्मिता आदि का घोल मिलाकर ही राजनीति का रसायन तैयार किया जा सकता है. यह लालू के एजेंडे से गायब है और यही नीतीश का प्रमुख हथियार है.

 

कमाल की आत्मकथाएं

हमारे बड़े लोग जब देश की सेवा नहीं कर पाते या जब उन्हें देश की सेवा नहीं करने दी जाती तो वे कथा लिखकर अपनी व्यथा बताना चाहते हैं. पहले चलन था, लोग नेकी करके उसे कुएं में डाल देते थे.  कुएं में न सही, कहावत में तो डालते ही थे. अब चलन बदल गया है. लोग, खासकर बड़े लोग नेकी करते हैं और उसे कभी बाद में लिखी जाने वाली आत्मकथा में डालने के लिए सुरक्षित  रखते हैं. जब उनका जीवन एकदम सार्वजनिक होता है, उन पर सौ कैमरे, सौ अखबार, पत्रकार निगाह रखते हैं तब तो उनकी इन नेकियों का किसी को पता नहीं चल पाता है. जब वे रिटायर हो जाते हैं, देश सेवा का वह पद उनसे दूर हो जाता है या छुड़ा लिया जाता है तब उन्हें अपनी नेकियों को बताने के लिए आत्मकथा लिखनी पड़ती है. ये आत्मकथाएं कमाल की होती हैं. नेकी तक तो ठीक, जो नेकियां वे करना तो चाहते थे पर बंबई की फिल्मों में चर्चित जालिम जमाने ने जिन्हें करने नहीं दिया था, अब उन्हें भी वे आत्मकथा में डालते हैं. हमको या आपको गुजरात जाना हो तब दो-चार बार सोचना पड़ता है. तत्काल तक में आजकल टिकट मिलना कठिन हो जाता है. एक सरकारी और एक गैर-सरकारी हवाई कंपनियों में हड़ताल की होड़ लगी है क्योंकि उनके मालिक घटिया प्रबंध की होड़ में एक-दूसरे को पीछे छोड़ रहे हैं, लेकिन यह सब दिक्कत तो हमारी और आपकी है. कमाल तो तब होता है जब ऐसे लोग गुजरात नहीं जा पाए जिनके लिए घर के आंगन में हेलिकॉप्टर खड़ा हो या हवाई अड्डे से वायु-सेना का विशेष विमान उन्हें पलक झपकते ही गुजरात पहुंचा सकता हो.

देश को 10 साल बाद पता चला है कि वे तो गुजरात जाने के लिए तड़प रहे थे, पर जा नहीं पाए. जिस कुर्सी पर वे बैठे थे, शायद वह कुर्सी कुल मिलाकर गुजरात जाने वाले जहाज की कुर्सी से थोड़ी ज्यादा अच्छी, थोड़ी सुविधाजनक और आरामदायक रही होगी. तभी तो ऐसी नेकी वे चाहकर भी नहीं कर पाए. यह भी संभव है कि वह कुर्सी उन्हें गुजरात से भी ज्यादा दूर किसी और बड़ी यात्रा पर ले जा सकती थी. एक गुंजाइश यह भी थी कि उस कुर्सी से थोड़ी देर के लिए उतर जाने के बाद फिर से उसी कुर्सी पर बैठ जाने का एक और मौका मिल जाता. वह मौका नहीं मिला तो चलो आत्मकथा. यह कथा बहुत लंबी है. हमारे बड़े लोग जब देश की सेवा नहीं कर पाते या जब उन्हें देश की सेवा नहीं करने दी जाती तो वे कथा लिखकर अपनी व्यथा बताना चाहते हैं.

भाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं पर इन आत्मकथाओं की भावनाएं बिल्कुल एक सी होती हैं. नाम और काम बदल जाते हैं पर संदर्भ कभी बदलता नहीं. अक्सर ऐसी आत्मकथाएं अंग्रेजी में लिखी जाती हैं. अंग्रेजी की बड़ी दुकानों पर बिकती हैं. हवाई अड्डों पर मिलती हैं और अंग्रेजी के अखबारों में ही इनको लेकर वैसे तूफान उठते हैं जिन्हें चाय की प्याली से जोड़कर देखा जाता है. 

थोड़ी भी बिकने लायक कोई गुंजाइश हो तो ऐसी आत्मकथाओं का हिंदी अनुवाद भी बाजार में आ जाता है. लेकिन न तो मूल अंग्रेजी में कोई सुगंध रहती है, न ही हिंदी अनुवाद में. ऐसी आत्मकथाएं ज्यादातर भूतपूर्व हो चुके अभूतपूर्व लोग ही लिखते हैं, इसलिए इसी तुकबंदी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि इनके लेखक भी भूत ही होते हैं – अंग्रेजी में जिन्हें ‘घोस्ट राइटर’ कहते हैं.

आत्मकथाएं पहले भी लिखी जाती रही हैं पर तब अक्सर अपने जीवन के चढ़ाव से पहले मिले फुर्सत के कुछ क्षणों में ये लिख ली जाती थीं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है- राजेंद्र प्रसाद जी की आत्मकथा. इस पूरी मोटी पुस्तक में आखिरी की पंक्ति तक में  पाठकों को यह पता नहीं चलेगा कि वे देश के पहले राष्ट्रपति थे. आत्मकथा के अंतिम पन्नों में वे बता रहे हैं कि अंतरिम सरकार में उनके पास कृषि मंत्रालय था. अंतिम पन्नों में राजेंद्र बाबू यह बता रहे हैं कि देश में उस समय अकाल जैसी परिस्थितियां थीं और उन्होंने किस तरह भागदौड़ करके अभावग्रस्त इलाकों में अनाज पहुंचवाया था. यह बात अलग है कि जिस प्रकाशक ने बाद में यह आत्मकथा छापी उसने इसके मुखपृष्ठ पर राष्ट्रपति भवन का फोटो भी चिपका दिया था.

उस दौर की बहुत-सी आत्मकथाएं जेल में भी लिखी गई थीं. तब हमारे नेता किन्हीं और कारणों से जेल में रखे जाते. आज जैसे कारणों से नहीं. तब वे लोग जेल से छूटकर जल्दी बाहर आने की कोशिश भी नहीं करते थे. इसलिए उनको वहां खूब लिखने का मौका मिलता था. जेल में आज के नेताओं का बहुत -सा वक्त अपने वकीलों, गवाहों और अपने अवैध व्यापारों को बचाने में खप जाता है. इसलिए उनसे जेल में आत्मकथा लिखने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. तो यदि आप बड़े आदमी हैं और मानी गई उस दुनिया से बाहर फेंक दिए गए हैं तो अपनी आत्मकथा जरूर लिख डालें.

पर इत्ता ध्यान रहे कि वह केवल आपकी न हो, उसमें दूसरों की कुछ चिंता हो. हमारा भी कुछ बखान हो. ऊंचे माने गए जीवन में जिस क्षण जो ठीक फैसले लिए जाने चाहिए थे यदि उस क्षण आप उनको नहीं ले पाए तो फिर घड़ी छिन जाने के बाद उनको जग के सामने रखना जग हंसाई से ज्यादा कुछ नहीं होगा.    

आतंक के मोहरे या बलि के बकरे!

हाल के कुछ सालों के दौरान आतंकवाद का दायरा देश भर में फैला है. उत्तर प्रदेश इसके सबसे बड़े पीड़ित और कथित संरक्षक के तौर पर उभरा है. सूबे के एक जिले को तो बाकायदा आतंकगढ़ की उपाधि ही दे दी गई थी. जैसे जैसे आतंक की वारदातें बढ़ी वैसे-वैसे इसके आरोपितों की संख्या भी बढ़ती गई. राज्य की आम जनता में आतंकवाद और मुसलमान के आपसी संबंध का स्टीरियोटाइप जमता गया. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट.

इस समय 100 के करीब ऐसे आरोपित उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में बंद हैं जिन पर आतंकवाद फैलाने या फिर आतंक को मदद देने का आरोप है. संवेदनशील मामला होने के बावजूद इस मुद्दे पर खूब राजनीतिक रोटियां भी सेकी गईं. कुछ ही दिन पहले संपन्न हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान जेलों में बंद आरोपित मुसलिम युवा भी मुख्य चुनावी मुद्दा थे. राज्य में सत्तारूढ़ हुई समाजवादी पार्टी ने तो बाकायदा अपने घोषणा पत्र में इसे शामिल किया था. सपा ने राज्य की विभिन्न जेलों में आतंकवाद के आरोप में बांद मुस्लिमों की रिहाई का रास्ता तैयार करने का वादा किया था. सरकार बने चार माह बीत चुके हैं लेकिन अभी तक सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. सामाजिक संगठनों ने भी सरकार पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है. कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें आरोपित बरी हो चुके हैं, कुछ में पुलिस आरोपपत्र तक दाखिल नहीं कर पायी और कुछ मामले ऐसे भी हैं जिन्हें शुद्ध रूप से पुलिस प्रताड़ना का मामला सिद्ध किया जा सकता है. आगे के पन्नों पर कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जो आतंकवाद के नाम पर की जा रही पुलिस और सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई की पोल खोलते हैं. इससे आतंकवाद की नकेल कसने के लिए बने आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) की कार्यशैली पर कई सवाल खड़े होते हैं.

 

अजीजुर्रहमान, 32

अलीपुर,

पश्चिम बंगाल (फिलहाल लखनऊ जेल में) 

हमारी पुलिस रस्सी का सांप और राई को पहाड़ बनाने की कला में महिर है, अजीजुर्रहमान की कहानी पढ़कर कोई भी इस बात पर यकीन करने लगेगा. उत्तर प्रदेश की स्पेशल टास्क फोर्स के कुछ अधिकारी और जवान 26 जून 2007 को पश्चिम बंगाल के अलीपुर जिले में जाते हैं. वहां पुलिस कस्टडी में बंद अजीजुर्रहमान को लेकर लखनऊ आ जाते हैं. एसटीएफ का दावा है कि 22 जून को अजीजुर्रहमान अपने एक अन्य साथी जलालुद्दीन के साथ आरडीएक्स लेकर लखनऊ आया था. यहां आकर दोनों अलग हो गए. 23 जून को जब अजीजुर्रहमान चारबाग रेलवे स्टेशन पर अपने साथी जलालुद्दीन का इंतजार कर रहा था तभी उसे पता चला कि जलालुद्दीन को पुलिस ने पकड़ लिया है. अजीजुर्रहमान तुरंत चारबाग से निकल कर संजय गांधी पीजीआई पहुंचा. वहां उसने अपने पास मौजूद आरडीएक्स छुपा दिया. वहां से वापस चारबाग लौटकर वह पश्चिम बंगाल भाग गया.   

अब घटना के दूसरे पहलू पर नजर डालते हैं जिसके बाद एसटीएफ की पूरी कहानी पानी मांगने लगती है. कोर्ट में अजीजुर्रहमान के मामले की पैरवी कर रहे एडवोकेट शोएब बताते हैं, ‘यूपी एसटीएफ अजीजुर्रहमान को अलीपुर पुलिस की कस्टडी से लेकर आई. इसका अर्थ है कि वह पहले से ही वहां पुलिस की गिरफ्त में था. अलीपुर पुलिस थाने के दस्तावेज बताते हैं कि पुलिस ने 22 जून 2007 को उसे डकैती की योजना बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया था. उसी दिन यानी 22 जून को ही उसे अलीपुर जिले की एसीजेएम कोर्ट में पेश किया गया.’ यहां उत्तर प्रदेश एसटीएफ के दावे की पोल खुलने लगती है. जिस अजीजुर्रहमान के बारे में यूपी एटीएस दावा कर रही है कि 22 जून को वह लखनऊ में वारदात करने के लिए आया था उसी दिन वह अलीपुर एसीजेएम कोर्ट में कैसे पेश हो सकता है. इसके बाद की पूरी कहानी ताश के महल की तरह भरभरा कर गिर जाती है. मसलन जब वह पश्चिम बंगाल पुलिस की हिरासत में था तब 23 जून को पीजीआई के पास वह आरडीएक्स कैसे छुपा सकता है. शोएब कहते हैं. पूरे मामले में इतना स्पष्ट विरोधाभास होने के बावजूद न तो कोर्ट के पास इस मामले पर ध्यान देने की फुर्सत है न ही राजनीतिक दलों के पास. पिछले पांच साल अजीजुर्रहमान ने सिर्फ इंतजार में काट दिए हैं. अभी भी सुनवाई और सजा का फैसला होना बाकी है.

 

शौकत अलीशौकत अली, 45

श्रीनाथपुर, जिला-प्रतापगढ़

उत्तर प्रदेश

शौकत पूर्व माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. लेकिन 2008 के बाद स्थानीय लोगों की नजर में उनकी एक और पहचान भी बन चुकी है- एक आतंकवादी की. शौकत को यह पहचान उत्तर प्रदेश की एटीएस और दूसरी जांच एजेंसियों ने दी है. वैसे तो उत्तर प्रदेश हो या देश का कोई दूसरा हिस्सा, किसी भी आतंकी घटना में शौकत का नाम अभी तक नहीं आया है, लेकिन पूछताछ के नाम पर कभी उनको लश्कर-ए-तैयबा का एरिया कमांडर बना दिया जाता है तो कभी जाली भारतीय मुद्रा का तस्कर या इंडियन मुजाहिदीन का सदस्य. 

शौकत के आतंकवाद के साथ कथित रिश्तों के तार 2008 में हुई एक घटना से जुड़े हैं. इलाहाबाद पुलिस ने अगस्त 2008 में आमिर महफूज नाम के एक व्यक्ति को जाली नोटों के साथ गिरफ्तार किया. इलाहाबाद पुलिस को आमिर महफूज के बहनोई मौलाना अशफाक की तलाश थी. अशफाक मालेगांव का रहने वाला है. यहां पर शौकत का आमिर से रिश्ता जुड़ता है. अशफाक की शादी आमिर महफूज की बहन से हुई थी और इस शादी में शौकत ने मध्यस्थ की भूमिका अदा की थी. यह मध्यस्थता ही शौकत को भारी पड़ी. पुलिस ने जाली नोटों की तस्करी के आरोप में आमिर को जेल भेज दिया था. इस घटना को बीते चार साल होने को आ रहे हैं. पुलिस आज तक आमिर और शौकत का आपस में कोई रिश्ता साबित नहीं कर सकी है. शौकत के खिलाफ उसने कोई मामला भी दर्ज नहीं किया है लेकिन आए दिन उन्हें पूछताछ के लिए तलब करती रहती है, जब तब उनके घर में छापे डालती रहती है. स्थानीय पुलिस और मीडिया ने उन्हें एक आतंकी के तौर पर स्थापित कर दिया है. 

एटीएस के अधिकारी आए दिन शौकत के घर और स्कूल में उनसे पूछताछ के लिए पहुंचने लगे. शौकत बताते हैं, ‘हेमंत नाम के एक एटीएस अधिकारी हैं. वे कभी तलहा अब्दाली तो कभी किसी और का नाम लेकर आए दिन मेरे घर और स्कूल में आ धमकते थे. इससे लोग मुझ पर शक करने लगे. आतंकवादी होने के शक में एक तरह से मेरा सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया.’ लोकसभा चुनाव के समय पूछताछ का सिलसिला थोड़ा थम सा गया था लेकिन चुनाव के बाद फिर से वही हालात हो गए हंै. पूछताछ के नाम पर एटीएस कभी उन्हें लखनऊ तो कभी प्रतापगढ़ में तलब करती रहती है. 

शौकत और उनके परिवार के साथ एटीएस के लोग अजब-गजब खेल खेलते रहे. कुछ माह पूर्व शौकत की पत्नी फरीदा महजबीन द्वारा संचालित स्कूल में एक कुरियर आया. यह शौकत के नाम था जिसे इलाहाबाद से भेजा गया था. उर्दू में लिखे गए इस पत्र का मजमून यह था कि शौकत को लश्कर-ए-तैयबा का एरिया कमांडर बना दिया गया है और कुछ हथियार स्कूल में छुपा दिए गए हैं. पत्र में यह भी लिखा था कि लश्कर की महिला विंग भी कायम हो चुकी है. शौकत बताते हैं, ‘मैंने तत्काल पत्र मिलने की सूचना डीएम और एसपी प्रतापगढ़ को दी.’ हालांकि इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. एटीएस अधिकारी हेमंत को जब इस बात की जानकारी हुई कि शौकत ने पत्र मिलने की सूचना डीएम और एसपी को दे दी है तो शौकत पर उनका गुस्सा फूट पड़ा.’ शौकत के मुताबिक हेमंत ने उनसे कहा कि पत्र के बारे में डीएम व एसपी को बताने की क्या जरूरत थी. आज तक यह बात साफ नहीं हो सकी है कि पत्र किसने और किस उद्देश्य से लिखा था. शौकत कहते हैं, ‘यदि मैं वास्तव में दहशतगर्द हूं तो मुझे जेल में क्यों नहीं डाल देते. सालों से चल रही पूछताछ का नतीजा ये है कि अब स्कूल में मेरे साथी अध्यापक भी मुझसे कट कर रहते हैं.’

 

सज्जादुर रहमान, 25

छातरू, जिला-किश्तवाड़

जम्मू कश्मीर

सज्जादुर रहमान 23 नवंबर 2007 को लखनऊ और फैजाबाद की कचहरियों में हुए बम विस्फोट का आरोपित है. जिस समय यह विस्फोट हुए थे उस समय सज्जाद देवबंद के दारुल उलूम में मौलाना की तालीम हासिल कर रहा था. सज्जाद के पिता गुलाम कादिर को आज भी 22 दिसंबर 2007 का वह मनहूस दिन याद है जब छातरू पुलिस ने घर से गिरफ्तार करके सज्जाद को यूपी पुलिस के हवाले किया था. तहलका से बातचीत में कादिर बताते हैं कि दिसंबर में सज्जाद बकरीद की छुट्टियां मनाने घर गया था. 21 दिसंबर को बकरीद थी और 22 दिसंबर की सुबह ही पुलिस ने उसे पकड़ लिया. मेहनत मजदूरी कर परिवार का पेट पालने वाले कादिर को यह भी नहीं पता चला कि उनके बेटे को किस जुर्म के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. एक सप्ताह सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाने के बाद उन्हें पता चला कि उनके बेटे को उत्तर प्रदेश की पुलिस ले गई है. 

सज्जाद की गिरफ्तारी के पीछे रची गई पुलिसिया कहानी में कई छेद हैं. दारुल उलूम के कागजात बताते हैं कि यूपी पुलिस जिस 23 नवंबर को कचहरी ब्लाट में सज्जाद के शामिल होने की बात कह रही थी उस दिन वह अपने मदरसे में था. हाजिरी रजिस्टर में भी उसकी उपस्थिति दर्ज है. सज्जाद का मामला कितना कमजोर है इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि गिरफ्तारी के साढ़े तीन साल तक पुलिस सज्जाद के खिलाफ न्यायालय में आरोप पत्र तक दाखिल नहीं कर सकी. इसके मद्देनजर सबूतों के अभाव में न्यायालय ने सज्जाद को लखनऊ कचहरी ब्लाट के आरोप से बरी कर दिया. इस मामले से बरी होने के बावजूद अब तक सज्जाद की रिहाई नहीं हो सकी है क्योंकि फैजाबाद कचहरी ब्लाट के मामले में वह अभी भी आरोपित है. 

जुलाई में बेटे से मिलने आए गुलाम कादिर सवाल करते हैं, ‘जब दोनों ही मामले एक साथ हुए थे और एक मामले में उसे बरी कर दिया गया है तो दूसरे मामले में उसे लटकाए रखने का क्या मतलब है.’ मेहनत मजदूरी कर परिवार का पेट पालने वाले कादिर बताते हैं कि हर बार बेटे से मिलने के लिए आने में इतना पैसा खर्च हो जाता है कि कभी भेड़-बकरी बेच कर आने की व्यवस्था करनी पड़ती है तो कभी लोगों से उधार लेकर.

अप्रासंगिक आडवाणी !

बहुत कम लोगों को पता है कि एक बार भी संसदीय चुनाव नहीं जीतने वाले नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाने में जितनी भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की थी उतनी ही लालकृष्ण आडवाणी की थी. आम धारणा है कि गडकरी मोहन भागवत के नुमाइंदे हैं और संघ प्रमुख ने राष्ट्रीय राजनीति का कोई अनुभव न होने के बावजूद उन्हें अध्यक्ष इसलिए बनवाया ताकि वे अपने हिसाब से भाजपा को चला सकें. सच्चाई यह है कि गडकरी के नाम पर अंतिम मुहर आडवाणी ने ही लगाई थी.

2009 के आम चुनावों में मुंह की खाने के बाद जब भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात चली तो कई नाम सामने आए. उस वक्त मोहन भागवत नए-नए संघ प्रमुख बने थे. भाजपा में तब चली सियासी हलचल के बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद कहते हैं, ‘2009 के नतीजों के बाद दिल्ली से लेकर नागपुर तक बैठकों का दौर जमकर चला. अध्यक्ष पद के लिए कई नाम उभरे. अरुण जेतली और सुषमा स्वराज की दावेदारी मजबूत थी लेकिन इन दोनों को संसद के दोनों सदनों का नेता बनाने का फैसला हुआ. इसके बाद जो दिल्ली के नाम थे उन पर नागपुर सहमत नहीं था. इसी बीच गोवा के मनोहर पारिकर और महाराष्ट्र के नितिन गडकरी का नाम चला. अंततः चार लोगों की सूची के साथ संघ के कुछ अधिकारी आडवाणी से मिले जिन्होंने गडकरी के नाम पर सहमति जता दी.’

यह बात 2009 की है और अभी 2012 चल रहा है. इन तीन सालों में भाजपा के अंदर की स्थितियां काफी बदल गई हैं. यह बात तब बिल्कुल साफ हो जाती है जब 2009 में गडकरी को अध्यक्ष बनाने के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगाने वाले आडवाणी 2012 में गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने का विरोध करते हैं. जब पार्टी मंच पर पहली बार गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने की बात चली तो सबसे पहले आडवाणी ने ही इसका विरोध यह कहते हुए किया कि किसी एक व्यक्ति के लिए पार्टी संविधान में परिवर्तन ठीक नहीं है. भाजपा के संविधान में पार्टी अध्यक्ष को तीन साल का एक ही कार्यकाल देने का प्रावधान है, लेकिन गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन का प्रस्ताव लाया गया है. 

जब आडवाणी पार्टी संविधान का हवाला देकर गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने का विरोध कर रहे थे तो उन्हें सीधा समर्थन जिन कुछ नेताओं से मिला उनमें लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज प्रमुख हैं. आडवाणी के बेहद करीब माने जाने वाले और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेतली ने इस पर शुरुआत में अपना रुख साफ नहीं किया. आडवाणी और सुषमा को उम्मीद थी कि गडकरी के कार्यकाल विस्तार को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनका विरोध करेंगे. मोदी की आपत्ति के बावजूद जिस तरह से कुशल संगठनकर्ता माने जाने वाले संजय जोशी की वापसी गडकरी ने कराई थी उससे गुजरात के मुख्यमंत्री खासे नाराज थे. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में मोदी चुनाव प्रचार करने तक नहीं गए थे.

बताया जाता है कि हाल ही में कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का जो फैसला लिया गया उसमें भी लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज की सहमति नहीं थी 

लेकिन यहीं पर राष्ट्रीय राजनीति में नौसिखिया माने जाने वाले गडकरी ने ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला कि एक ही झटके में उनके अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया. पहले जब मोदी ने दबाव बनाया तो गडकरी ने संजय जोशी को हटाने से साफ मना किया. लेकिन मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से पहले नरेंद्र मोदी की सहमति से गुजरात के नेताओं ने कार्यकारिणी की बैठक से इस्तीफे की धमकी दे दी. इसका असर यह हुआ कि जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा देकर मुंबई से वापस दिल्ली लौटना पड़ा. इसके बाद मुंबई में यह साफ हो गया कि गडकरी को बतौर अध्यक्ष दूसरा कार्यकाल मिलेगा. इसका मतलब कुछ लोगों ने यह लगाया कि गडकरी ने दुबारा अध्यक्ष बनने के लिए अपने ही फैसले को पलट दिया. इसके बाद मुंबई की रैली में हिस्सा लिए बगैर आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों वापस आ गए. वापस लौटने का फैसला आडवाणी का था और उनका साथ दिया सुषमा स्वराज ने. दोनों के वापस लौटने को लेकर पार्टी ने जो तर्क दिया वह किसी के गले नहीं उतरा. पार्टी के एक नेता बताते हैं कि आडवाणी को यह उम्मीद थी कि जेतली भी रैली छोड़कर आएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

मुंबई कार्यकारिणी ने पार्टी के नए समीकरणों का स्पष्ट संकेत दे दिया था. यह बात साफ हो गई थी कि आडवाणी-सुषमा-जेतली की तिकड़ी टूट गई है और जेतली गडकरी के साथ खड़े हो गए हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ‘मोदी और गडकरी के संबंध इतने खराब हो गए थे कि दोनों ने मिलना तो दूर एक-दूसरे का फोन तक उठाना बंद कर दिया था. दोनों के सारे गिले-शिकवे मुंबई में नहीं मिटे. दोनों के बीच समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई एक बड़े कॉरपोरेट घराने ने. यह वही कॉरपोरेट घराना है जिसने भाजपा शासित कई राज्यों में भारी निवेश किया है. आज की तारीख में मोदी और गडकरी में रणनीतिक सहमति है और इसमें सबसे ज्यादा उपेक्षा आडवाणी और सुषमा की हो रही है.’

इन दो नेताओं की उपेक्षा वाली घटनाओं को जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर तीन साल में ऐसा क्या हुआ कि कभी गडकरी को अध्यक्ष बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले आडवाणी गडकरी का विरोध करने लगे. पार्टी के कुछ नेताओं से बातचीत करने पर मोटे तौर पर तीन ऐसी वजहें सामने आती हैं जिनसे गडकरी और आडवाणी का मतभेद स्पष्ट होता है. इसकी शुरुआत हुई आडवाणी की जनचेतना यात्रा की घोषणा से. भाजपा के लोग ही बताते हैं कि यात्रा की घोषणा से पहले आडवाणी ने इसकी चर्चा पार्टी में औपचारिक तौर पर नहीं की थी. यात्रा पर निकलने की इच्छा आडवाणी ने उन लोगों से जरूर व्यक्त की थी जो उस दौरान उनसे मिल-जुल रहे थे. इन लोगों में नेताओं के अलावा कुछ पत्रकार भी शामिल हैं. बगैर चर्चा किए यात्रा की घोषणा करना पार्टी अध्यक्ष गडकरी को ठीक नहीं लगा. आडवाणी की जनचेतना यात्रा में गडकरी लगे तो जरूर लेकिन मतभेद की शुरुआत हो गई थी.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान यह मतभेद बढ़ गया. इस दौरान गडकरी की सहमति से जिस तरह से बहुजन समाज पार्टी के दागी नेताओं को भाजपा में शामिल किया गया उससे आडवाणी काफी नाराज हुए. आडवाणी को लगता था कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह का माहौल अपनी जनचेतना यात्रा के जरिए बनाया है उसका प्रभाव इन दागियों को शामिल करते ही खत्म हो जाएगा. जब काफी हो-हल्ला मचा तो कुशवाहा की सदस्यता स्थगित कर दी गई लेकिन बादशाह सिंह, अवधेश वर्मा और दद्दू मिश्रा जैसे दागी माने जाने वाले नेता भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े. इसके बावजूद भाजपा की सीटें बढ़ने के बजाय घट ही गईं और इसने आडवाणी को यह मौका मुहैया करा दिया कि वे गडकरी के कार्यकाल विस्तार का विरोध करें. 

गडकरी से आडवाणी की नाराजगी की वजह राज्यसभा टिकटों का वितरण भी है. इनमें भी सबसे ज्यादा दिक्कत हुई अंशुमान मिश्रा को झारखंड से राज्यसभा टिकट देने से. मिश्रा को टिकट देने के लिए गडकरी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में पार्टी के उपनेता एसएस आहलूवालिया का टिकट काटने से भी परहेज नहीं किया. इसके बाद सबसे पहले यशवंत सिन्हा ने और बाद में कुछ अन्य नेताओं ने मिश्रा का विरोध किया तब जाकर कहीं उनकी उम्मीदवारी को गडकरी ने वापस लिया. इसके बाद मिश्रा ने आडवाणी को खुला पत्र लिखकर काफी भला-बुरा कहा और उन्हें संन्यास ले लेने तक की सलाह तक दे डाली. मिश्रा ने पार्टी की बुरी हालत का दोष भी आडवाणी के मत्थे मढ़ा. आडवाणी और सुषमा समेत पार्टी के कुछ अन्य नेताओं ने इसे गडकरी कैंप का आडवाणी पर हल्ला माना क्योंकि गडकरी से मिश्रा की नजदीकी भाजपा के किसी नेता से छिपी हुई नहीं थी. पार्टी के कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि गडकरी और मोदी के बीच समझौता कराने में अंशुमान मिश्रा की भी एक प्रमुख भूमिका थी.

आडवाणी और सुषमा दोनों ही कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन नहीं चाहते थे. वे सदानंद गौड़ा को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में थे

इन तीन घटनाओं ने आडवाणी को गडकरी के खिलाफ करने में बड़ी भूमिका निभाई और इन्हीं वजहों से गडकरी के कार्यकाल विस्तार का आडवाणी ने हर स्तर पर विरोध किया. पार्टी फोरम पर जब आडवाणी की नहीं चली तो उन्होंने मुंबई कार्यकारिणी से लौटकर ब्लॉग लिखकर अपनी नाखुशी जाहिर की. उनके शब्द थे, ‘पार्टी में अभी उत्साह का माहौल नहीं है. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से बसपा के मंत्रियों का स्वागत पार्टी ने किया और जो झारखंड व कर्नाटक में हुआ उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी का अभियान कमजोर पड़ा है.’ उन्होंने सुषमा स्वराज और अरुण जेतली की तारीफ करने के बाद लिखा, ‘मैंने कोर समिति की बैठक में कहा था कि आज अगर लोग संप्रग सरकार से नाराज हैं तो हमने भी उन्हें निराश किया है. अभी की स्थिति में आत्ममंथन करने की जरूरत है.’ भाजपा में और पार्टी से बाहर आडवाणी की इस ब्लॉग पोस्ट को नितिन गडकरी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल की तरह देखा गया.

इस बीच पार्टी के फैसलों में आडवाणी की उपेक्षा का सिलसिला चलता रहा और उनका साथ देने की वजह से सुषमा स्वराज भी अलग-थलग पड़ती गईं. राष्ट्रपति चुनाव से संबंधित फैसलों में भी आडवाणी-सुषमा और गडकरी में मतभेद रहा. कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के फर्जी दस्तखत का जो मामला भाजपा ने उठाया उसे लेकर भी दोनों पक्षों की अलग-अलग राय रही. पार्टी के एक नेता के मुताबिक आडवाणी के साथ खड़ी सुषमा जहां इस मामले को आगे बढ़ाने के पक्ष में थीं वहीं पार्टी के दूसरे नेता इसे कोई मुद्दा ही नहीं मान रहे थे. इस मामले पर भाजपा की हुई फजीहत ने भी पार्टी में मतभेद को और बढ़ाने का काम किया.

कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का जो फैसला लिया गया उसमें भी आडवाणी और सुषमा की सहमति नहीं थी. पार्टी नेताओं के मुताबिक आडवाणी और सुषमा यह चाहते ही नहीं थे कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन हो. वे सदानंद गौड़ा को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में थे. आडवाणी और सुषमा दोनों की यह राय थी कि अगर किसी वजह से कर्नाटक में सरकार चलाने में बहुत अधिक दिक्कत आती है तो विधानसभा को भंग करके नए सिरे से चुनाव करवाए जाने चाहिए. लेकिन गडकरी तय समय से तकरीबन साल भर पहले चुनाव करवाने के पक्ष में नहीं थे और किसी दक्षिण भारतीय राज्य में पहली दफा कमल खिलाने वाले बीएस येदियुरप्पा का दबाव बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में जेतली और राजनाथ सिंह को साथ लेकर गडकरी ने गौड़ा की जगह येदियुरप्पा के खास माने जाने वाले जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया.

कर्नाटक के ही एक भाजपा सांसद कहते हैं कि इस फैसले से पहले तक कर्नाटक से संबंधित मामलों में सुषमा स्वराज की सक्रिय भागीदारी होती थी और उनकी राय को पार्टी में बड़ा महत्व दिया जाता था. इसकी वजह यह थी कि जब कोई भी सोनिया गांधी के खिलाफ बेल्लारी से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था तो सुषमा स्वराज वहां यह जानते हुए भी जाकर चुनाव लड़ी थीं कि जीतना बेहद मुश्किल है. इसके बाद रेड्डी बंधुओं से सुषमा स्वराज की नजदीकी बढ़ी और राज्य की राजनीति में उन्हें दिल्ली से सुषमा स्वराज का संरक्षण मिलता रहा. लेकिन इस बार सुषमा की राय को कोई महत्व नहीं दिया गया. पार्टी नेताओं का मानना है कि आडवाणी का साथ देने की कीमत सुषमा स्वराज को चुकानी पड़ रही है.

2014 में देश की सबसे पुरानी पार्टी को बेदखल करके सत्ता का सपना संजोने वाली भाजपा के दो बड़े नेताओं के पार्टी में हाशिये पर चले जाने को राजनीतिक जानकार पार्टी की संभावनाओं से जोड़कर देख रहे हैं. उनका मानना है कि आपसी मतभेद की कीमत भाजपा ने पहले भी चुनावों में चुकाई है और समय रहते अगर पार्टी नहीं सुधरी तो आने वाले चुनावों में भी ऐसा हो सकता है. लोगों के बीच यह  धारणा है कि जब तक औपचारिक तौर पर भाजपा किसी नेता को अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित करती तब तक आडवाणी पार्टी के सबसे कद्दावर नेता हैं. वहीं दूसरी तरफ सुषमा स्वराज लोकसभा में पार्टी की नेता हैं और इस नाते उनका कद दूसरे नेताओं से बड़ा हो जाता है.