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मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की

जून के महीने मे लखनऊ में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का हासिल पूछने पर पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र ने कहा था, ‘वह आपको प्रदेश भाजपा में दो-तीन महीने में पूरी तरह दिख जाएगा.’ यही समय-सीमा उन्होंने विधानसभा चुनावों के सभी टिकट घोषित होने के संदर्भ में भी दी थी. तब से अब तक दो-तीन महीने गुजर चुके हैं, लेकिन (अगर  ‘पार्टीगत ताम-झाम’ में हुई वृद्धि को छोड़ दें तो) उत्तर प्रदेश भाजपा की गहराई में बदलाव नजर नहीं आता. जबकि बदलाव की जरूरत के मद्देनजर ही इस बीच दो अहम घटनाएं हुईं. पहले उमा भारती की पार्टी में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी के साथ वापसी (जिन्हें असल में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान ही पार्टी में शामिल होना था, लेकिन बाबा रामदेव पर सरकारी हमले के चलते ऐसा नहीं हो सका) और अब लंबे समय से राजनीतिक वनवास काट रहे पार्टी के संघनिष्ठ कार्यकर्ता संजय जोशी भी उत्तर प्रदेश की बड़ी जिम्मेदारी के साथ पार्टी में फिर से आ गए हैं.

संजय जोशी को तो बड़े नेताओं को काबू करने का जिम्मा दिया गया है भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है

संजय जोशी की वापसी से भारतीय जनता पार्टी और खुद जोशी दोनों को बड़ी उम्मीदें हैं. राजनीतिक परिदृश्य से अचानक गायब होने से पहले तक जोशी भारतीय जनता पार्टी के अंदर सांगठनिक तौर पर सबसे ताकतवर माने जाने वाले राष्ट्रीय महामंत्री, संगठन के पद पर रह चुके थे. यह पद पार्टी के अंदर संघ का पूर्णकालिक प्रचारक ही संभालता है और इस पर आसीन व्यक्ति एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के अंदर संघ के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है. इसी के माध्यम से संघ भाजपा की नब्ज थामे रहता है. छह-सात साल पहले तक संजय जोशी संघ और भाजपा दोनों के शीर्ष नेतृत्व के बेहद करीबी थे. उनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी समेत भाजपा के कई अन्य बड़े नेताओं से सीधे टकराव के बावजूद पार्टी और संघ अंतत: उन्हीं के साथ खड़ा होता था लेकिन फिर एक विवादास्पद सीडी मीडिया में आई और सब कुछ बदल गया. सीडी में संजय जोशी किसी महिला के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में दिख रहे थे. संजय कहते रहे कि सीडी फर्जी है लेकिन संघ और भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ते हुए उन्हें नेपथ्य में जाने पर मजबूर कर दिया. कुछ समय बाद जांच से यह साबित हो गया कि सीडी हकीकत में फर्जी थी. इसके बाद संजय की पार्टी में जल्द वापसी को लेकर कयास लगने लगे. सूत्रों की मानें तो कई बड़े नेताओं का अहं इस वापसी के आड़े आ गया और सही मौके का संजय जोशी का इंतजार लंबा होता गया. आखिरकार उनकी वापसी तब हुई है जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत दिखाई दे रही है.

संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में संगठन को संभालने की जिम्मेदारी दी गई है. उत्तर प्रदेश भाजपा को थोड़ा-बहुत जानने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि यह जिम्मेदारी कितनी चुनौती भरी है. समस्या यह है कि प्रदेश में हाई प्रोफाइल चेहरों से भरे हुए भाजपा के संगठन में अहं के टकराव को रोक पाना पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व यहां तक कि संघ के लिए भी अभी तक नामुमकिन ही रहा है. संजय जोशी को इसी एकमात्र ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाया गया है. जोशी खामोशी से काम पर लगे हैं. बार-बार कोशिश करने पर भी वे मीडिया से कोई बात नहीं करते. यही रुख वापसी के तुरंत बाद उमा भारती का भी था. हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं, ‘जोशी संगठन का काम देखने के माहिर हैं. राष्ट्रीय स्तर पर वे बड़ी जिम्मेदारी निभा चुके हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश में भी उन्हें पार्टी के नेताओं से सहयोग मिलेगा और इसमें ऐसी कोई कठिन चुनौती नहीं होगी.’ जबकि जोशी के लिए राहें इतनी आसान नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में संगठन इतना बिगड़ैल है कि पार्टी के संभाले नहीं संभल रहा. यहां तक कि राज्य के संगठनों में समन्वय बनाने और उस पर संघ का नियंत्रण रखने के लिए भी जो प्रदेश महामंत्री, संगठन होता है वह भी यहां गुटबाजी में फंस चुका है. वह पद यहां राकेश जैन के पास है. चूंकि राकेश जैन के होते हुए भी स्थिति नहीं सुलझ रही, इसलिए संघ के लिए भी चिंता बढ़ गई है.

संघ से जुड़े दुष्यंत तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘राकेश जैन से पहले नागेंद्रनाथ उत्तर प्रदेश में महामंत्री संगठन की जिम्मेदारी 10 सालों से देख रहे थे. उससे पहले उन्होंने इसी तरह की जिम्मेदारी विद्यार्थी परिषद और संघ में भी निभाई थी. इसलिए प्रदेश भाजपा के ज्यादातर शीर्ष नेता उनके समकालीन थे और उनका सम्मान करते थे. इस पद पर उनका एक रौब था. राकेश जैन का आभामंडल उतना बड़ा नहीं है कि वे इतने बड़े नेताओं पर सीधा नियंत्रण रख सकें. मूल समस्या यही है. इसीलिए अब संजय जोशी को स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए भेजा गया है.’ साफ है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर होने के बावजूद हालत न सुधरने की चिंता संघ को भी परेशान कर रही है और संजय जोशी की उत्तर प्रदेश में नियुक्ति के पीछे उसकी बड़ी भूमिका है.

चूंकि जोशी अभी-अभी आए हैं, इसलिए उनके काम का मूल्यांकन इतनी जल्दी नहीं हो सकता, लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह उमा भारती की उत्तर प्रदेश में तैनाती यहां के बड़े नेताओं को रास नहीं आई उसी तरह संजय जोशी का आना भी उन्हें अखर रहा है. उमा की वापसी का समारोह प्रदेश भाजपा कार्यालय में ही हुआ था, लेकिन लखनऊ में होने के बावजूद उनके स्वागत में कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा था. वहां सिर्फ मंझोले कद के नेताओं, विधायकों और कार्यकर्ताओं का ही हुजूम था. इसी तरह संजय जोशी की वापसी को लेकर भी कोई बड़ा नेता कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा. यहां एक और बात गौरतलब है कि उमा भारती को तो सिर्फ प्रमुख प्रचारक बनाया गया था लेकिन फिर भी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र को यह बात अखर गई थी. विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह आदि नेताओं को पिछड़ा फैक्टर के चलते उमा पसंद नहीं आई थी, लालजी टंडन की ‘बाहर वालों’ से दिक्कत जगजाहिर है. अब संजय जोशी को  वास्तव में बड़े नेताओं को काबू करने की जिम्मेदारी दी गई है. ऐसे में भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है.  

तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी अभी तक प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी नहीं कर पाई है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद पांच-छह जुलाई को झांसी में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक तय थी जिसमें टिकट वितरण को लेकर अहम फैसले होने थे. लेकिन अपनों को सेट कराने की जुगत, खेमेबाजी और अहं के टकराव के चलते कुछ फाइनल ही नहीं हो पाया और अंत समय में यह बैठक टाल दी गई. उसके बाद से आज दो महीने बीत जाने के बाद भी प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक का दिन तय नहीं हुआ है. बड़े नेताओं के अहं को संतुष्ट करने के लिए और सबको समायोजित करने के लिए पार्टी संविधान को ताक पर रखकर पदाधिकारी नियुक्त किए जा रहे हैं. मसलन प्रदेश मंत्रियों की संख्या 10 की जगह 18 तक पहुंच गई है क्योंकि लालजी टंडन, रमापति राम त्रिपाठी समेत कई वरिष्ठ नेताओं के पुत्रों को इसमें समायोजित किया गया है.

गुटबाजी का एक पहलू यह भी है कि जिस तरह बड़े नेता एक-दूसरे के नेतृत्व को नहीं स्वीकार कर रहे उसी तरह नेता पुत्र भी आपस में 36 का आंकड़ा रखते है. संजय जोशी को सबसे बड़ी मेहनत इनसे एकसाथ काम लेने पर करनी होगी क्योंकि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बार-बार भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर बोलने और केंद्रीय नेतृत्व के अन्ना के आंदोलन को भुनाने के बावजूद उत्तर प्रदेश की भाजपा प्रदेश में इन मुद्दों पर कोई खास माहौल नहीं बना पाई. जनलोकपाल को लेकर अन्ना के आंदोलन का केंद्र में भाजपा समर्थन कर रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके नेताओं का एक भी बयान राज्यों में लोकायुक्त के पक्ष में नहीं आया.

पार्टी की निष्क्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं भाजपा अपने लोगों की मुश्किलों पर भी कुछ नहीं बोली. चार सितंबर को लखनऊ विश्वविद्यालय में यूथ अगेंस्ट करप्शन (जो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघ का अभियान है) की एक सभा मालवीय सभागार में होनी थी. इसके लिए प्रशासन से अनुमति भी मिल चुकी थी और तैयारियां भी पूरी हो चुकी थीं. लेकिन सभा से एक रात पहले विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना किसी सूचना के यूथ अगेंस्ट करप्शन को सभागार देने से मना कर दिया. अभियान के पदाधिकारी जब मुख्य वक्ता राम माधव के साथ वहां पहुंचे तब उन्होंने कार्यक्रम स्थल पर भारी पुलिस बल और पुलिस अधिकारियों को देखा. पूछने पर पता चला कि कार्यक्रम को अनुमति नहीं मिली. इस पर राम माधव और दूसरे वक्ताओं ने सभागार के बाहर ही खुले आसमान के नीचे भाषण दिया. यह मामला लगातार तूल पकड़ता गया लेकिन भाजपा सोती रही.
यूथ अगेंस्ट करप्शन के उत्तर प्रदेश के संयोजक राकेश त्रिपाठी, जो विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं, इस मामले पर उत्तर प्रदेश भाजपा से बहुत नाराज है. राकेश कहते है, ‘आपके अपने संगठन के अभियान के लिए प्रशासन ने आखिरी वक्त में अनुमति निरस्त कर दी. राम माधव जी जो संघ और भाजपा दोनों में वरिष्ठ स्थान रखते हैं वे अधिकारियों से भिड़ते रहे और बाद में खुले आसमान के नीचे युवाओं के बीच भाषण तक दिया लेकिन उत्तर प्रदेश भाजपा का कोई बड़ा नेता झांकने तक नहीं आया.’  भाजपा उम्मीद करेगी कि संजय जोशी के आगमन का जमीनी असर जल्द ही दिखने लगे.  

खिवैय्यों में रार नैय्या मझधार

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन को लेकर कांग्रेस के भीतर उठापटक का आलम यह है कि पार्टी के दो कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी और रीता जोशी खुलकर एक-दूसरे के सामने आ गए हैं. पार्टी अब सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली रणनीति खोजने में लगी है. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

कांग्रेस का मिशन 2012 यानी 22 साल पहले पार्टी उत्तर प्रदेश में जो सत्ता गंवा चुकी है उसे वापस पाने की जी-तोड़ कोशिश. लेकिन फिलहाल पार्टी में जो हो रहा है उससे वापसी की यह राह काफी फिसलन भरी दिखती है. विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया महीनों से चल रही थी. इसके बावजूद अगस्त के अंत में 73 लोगों की पहली सूची जारी होने के साथ ही विरोध की सुगबुगाहट होने लगी. दूसरी सूची की नौबत आने तक आलम यह हो गया कि पहली सूची के आने के बाद जो बगावत पार्टी की चारदीवारी के भीतर सुलग रही थी वह धधक कर सरेआम हो गई है.

दिलचस्प यह है कि यह बगावत और विरोध आम कार्यकर्ता में नहीं बल्कि प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी व पार्टी के दूसरे कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी के बीच दिख रहा है. यह हाल तब है जब पार्टी के महासचिव राहुल गांधी व दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता बराबर प्रत्याशियों के चयन पर नजर गड़ाए हुए हैं और प्रदेश के नेताओं को बार-बार अनुशासन का पाठ पढ़ाते रहते हैं.
पहली सूची जारी होने के बाद विरोध की सुगबुगाहट राजधानी लखनऊ की उस कैंट सीट को लेकर शुरू हुई थी जिससे पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के चुनाव लड़ने की बात सार्वजनिक हुई. उक्त सीट पर लंबे समय से दावेदारी जता रहे पार्टी के सभासद राजेंद्र सिंह गप्पू ने इसका विरोध शुरू कर दिया. गप्पू कहते हैं, ‘1995 में मैं सबसे पहले कैंट विधानसभा क्षेत्र के ओमनगर वार्ड से सभासद बना. उसके बाद लगातार तीन बार उसी सीट से चुनाव जीता. 2002 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं था और ज्यादातर प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी उस समय मुझे कैंट सीट पर करीब 21 हजार वोट मिले थे. अब प्रदेश में जब पार्टी की स्थिति सुधर रही है तो प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी ने कैंट सीट अपने लिए रख लिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में लखनऊ से जब वे चुनाव लड़ी थीं तो कैंट विधानसभा क्षेत्र ही ऐसा था जहां से उन्हें अन्य पार्टियों से पांच हजार वोट अधिक मिले थे.’ गप्पू आगे बताते हैं, ‘कैंट सीट के लिए दिग्विजय सिंह व रीता जोशी दोनों ही नेताओं से काफी पहले ही बात हो चुकी थी. लेकिन जब यह पता चला कि कैंट से रीता जोशी खुद चुनाव लड़ेंगी तो मुझे लखनऊ की ही दूसरी विधानसभा सीट सरोजनीनगर से लड़ाने का आश्वासन प्रदेश अध्यक्ष की ओर से दिया गया. बाद में सरोजनीनगर सीट से भी प्रदेश अध्यक्ष मुकर गईं.’ जिस पार्टी में 16 साल बिताए उससे टिकट कटने का रंज गप्पू को ऐसा हुआ कि सितंबर के पहले सप्ताह में उन्होंने पुरानी पार्टी का दामन छोड़ साइकिल की सवारी करने का मन बनाया और समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. कैंट सीट से रीता जोशी के मैदान में आने के बाद कुल तीन ब्राह्मण प्रत्याशी अभी तक मैदान में आ चुके हैं. बसपा ने इस सीट से जहां पप्पू त्रिवेदी को उम्मीदवार बनाया है वहीं भाजपा ने अपने वर्तमान विधायक सुरेश तिवारी को मैदान में उतारा है.

पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा हैकांग्रेस की पहली सूची में विरोध सिर्फ कैंट सीट को लेकर ही नहीं हुआ. पार्टी नेताओं के बीच बिजनौर की नगीना विधानसभा सीट पर फूल सिंह को प्रत्याशी बनाए जाने का भी खूब विरोध हुआ. पहली सूची में फूल सिंह का नाम आने के बाद से ही बिजनौर में कांग्रेस के एक खेमे ने विरोध शुरू कर दिया है. यह विवाद पार्टी कार्यालय से लेकर बिजनौर की सड़कों तक पर देखने को मिला.
पहली सूची से उपजे विवाद को कांग्रेस हाईकमान ने काफी हल्के में लिया जिसका नतीजा यह रहा कि दूसरी सूची को अंतिम रूप देने के लिए दिल्ली में हुई बैठक के दौरान प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी व विधायक प्रमोद तिवारी के बीच जो कुछ हुआ वह पार्टी को शर्मसार करने के लिए काफी था.

सूत्र बताते हैं कि पांच सितंबर को दिल्ली में जो बैठक हो रही थी उसमें 50-60 प्रत्याशियों के नाम तय होने थे. शुरू में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन बीच में तिवारी खेमे ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाली पार्टी के एक प्रवक्ता सहित कुछ अन्य लोगों को टिकट देने की वकालत शुरू कर दी. जिस पार्टी प्रवक्ता का समर्थन तिवारी और उनका खेमा कर रहा था उसका विरोध रीता जोशी ने यह कहते हुए किया कि पिछले कई चुनावों में उसे टिकट दिया गया लेकिन वह हार गया. इसी तरह उनका विरोध दूसरे नामों पर भी रहा. बैठक में आरोप-प्रत्यारोप इतना बढ़ गया कि एक-दूसरे पर रुपये लेकर टिकट बेचने तक की बात उठ गई. सूत्र बताते हैं कि बातचीत से शुरू हुई बैठक में बहस इतनी तल्ख हो गई कि रीता जोशी बैठक को बीच में ही छोड़ कर चली गईं.
बैठक में उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेताओं ने जो फजीहत कराई उसकी जानकारी जब राहुल गांधी को हुई तो उन्होंने बीच-बचाव का जिम्मा खुद संभाला. लिहाजा प्रमोद तिवारी व रीता जोशी ने एक साथ आकर बयान दिया कि दिल्ली में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जैसी कि अफवाहें हैं. टिकट मिलने की आस लगाए एक पूर्व विधायक चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘सवाल यह उठता है कि जब दोनों नेताओं के बीच कोई विवाद हुआ ही नहीं तो आखिर सफाई देने की नौबत क्यों आ गई.’ उक्त नेता के मुताबिक प्रमुख विपक्षी पार्टियों सपा व बसपा ने अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और कांग्रेस अभी पहली सूची के विवाद से ही नहीं उबर पा रही है. वे कहते हैं, ‘जरूरत विपक्षी पार्टियों से दो-दो हाथ करने की है तो हमारी पार्टी में टिकट को लेकर ही घमासान हो रहा है.’
टिकटों को लेकर प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसियों के बीच मचे घमासान का असर पार्टी के दूसरे कार्यकर्ताओं पर भी देखने को मिल रहा है. पार्टी के उपाध्यक्ष व पूर्व मंत्री रणजीत सिंह जूदेव ने विधिवत बयान जारी करके बिना नाम लिए दिल्ली की बैठक में रीता जोशी पर आरोप लगाने वालों पर निशाना साधा. जूदेव के मुताबिक छानबीन समिति पूरी गंभीरता से प्रत्याशियों के नामों पर विचार कर रही है और टिकटों के बंटवारे के बारे में भ्रामक प्रचार केवल वे लोग कर रहे हैं जो हमेशा विरोधी दलों के साथ मिलकर कांग्रेस को कमजोर करने का प्रयास करते हैं. रीता जोशी के समर्थन में पूर्व मंत्री जूदेव ने पार्टी हाईकमान से यहां तक मांग कर डाली कि विरोधी दलों से सांठ-गांठ करके कमजोर प्रत्याशी खड़े करने वाले षड्यंत्रकारी तत्वों की पहचान करके उन पर अंकुश लगाया जाए.

अपनी ही पार्टी के नेताओं पर विरोधी पार्टियों से सांठ-गांठ करने का आरोप पार्टी के ही एक पूर्व मंत्री द्वारा लगाया जाना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि हाईकमान की ़डांट-डपट का असर नीचे तक नहीं हुआ है और अंदरखाने में अब भी जबर्दस्त मतभेद बना हुआ है. चुनाव के समय भी पार्टी छोटे-छोटे खेमों में बंटी नजर आ रही है. सूत्र बताते हैं कि पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा है.

फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी पार्टी के किसी भी नेता से टिकट के बंटवारे को लेकर हुए विवाद की बात को सिरे से नकारती हैं. लेकिन इतना जरूर कहती हैं कि दूसरी सूची में 17-18 नाम ऐसे थे जिनका उन्होंने विरोध किया था. वे कहती हैं, ‘कुछ लोग ऐसे लोगों को टिकट देना चाह रहे थे जो पिछले कई चुनाव तो लड़े लेकिन अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. इनमें कुछ ऐसे नाम भी थे जो बैकडोर से पार्टी में शामिल होकर सिर्फ चुनाव लड़ने ही आए हैं. इन लोगों के स्थान पर मैं उनको टिकट देने की मांग कर रही थी जो सालों से ब्लॉक प्रमुख आदि हैं या पूरी निष्ठा से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं.’

फिलहाल विवादों के बाद दूसरी सूची का मामला अधर में लटक गया है. कांग्रेस हाईकमान के सामने डैमेज कंट्रोल का संकट है. सांप भी मर जाए और लाठी भी बची रहे वाली रणनीति खोजना उसके लिए काफी मुश्किल होगा.  

शिक्षा के मंदिर, शोक की घंटियां

हिंदुस्तान के पहले आईआईटी, आईआईटी खड़गपुर के 1956 में हुए पहले दीक्षांत समारोह में पंडित नेहरू ने कहा था, ‘यह हिंदुस्तान की एक उत्कृष्ट धरोहर है, जो हमारी उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करेगी और हिंदुस्तान के भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.’ मगर न तो आईआईटी संस्थानों की स्थापना में अहम योगदान देने वाले पंडित नेहरू ने सोचा होगा और न ही मध्यम वर्गीय महत्वाकांक्षा के हम और आप जैसे दावेदारों ने ही, कि हिंदुस्तान का भविष्य तैयार होने से पहले ही इन आईआईटी संस्थानों में आत्महत्या करने को मजबूर होगा. अगर आप भी आईआईटी के कुछ प्रोफेसरों की ही तरह इस तरह का कोई गुमान रखते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ आईआईटी संस्थानों में ही नहीं हर जगह होती हैं और आईआईटी की शिक्षा व्यवस्था और पद्धति इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो कृपया इन आंकड़ों पर नजर डाले.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल अभी तक आईआईटी संस्थानों में सात आत्महत्याएं हो चुकी हैं जिसमें से दो पिछले दो हफ्तों के दौरान हुई हैं. सबसे ताजा मामला आईआईटी पटना में तीसरे वर्ष की 21 वर्षीया यलावर्थी सुइया का है जिसने पांचवंे सेमस्टर में खराब प्रदर्शन की वजह से अपने हॉस्टल की इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली. इससे पहले आईआईटी मद्रास में एमटेक के दूसरे वर्ष के छात्र बी गौरीशंकर ने जहर पी कर आत्महत्या कर ली थी. 2011 का आंकडा पिछले चार सालों में आत्महत्याओं का सबसे बड़ा आंकड़ा है. 2010 में दो, 2009 में चार और 2008 में आईआईटी के पांच छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. इसके अलावा, आईआईटी कानपुर में वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक आठ आत्महत्याएं हो चुकी हैं और आईआईटी मद्रास में वर्ष 2008 से 2011 तक पांच.

‘ हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. 8वी-9वी के बाद कभी कोई स्पोर्टस नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया ‘

दिल्ली के जाने-माने मनोवैज्ञानिक संजय चुग के कहते हैं,’ आत्महत्या की कोई एक निर्धारित वजह नहीं होती. हमेशा कुछ कारण साथ मिल कर आत्महत्या की वजह बनते हैं. इन्हीं कारणों की वजह से अकसर छात्रों में तनाव और अवसाद घर कर जाता है और जब परिणाम आपके अनुरूप नहीं आते, तब आप मानसिक रूप से परेशान और अकेले-उदास हो कर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.’

‘तहलका’ ने आईआईटी संस्थानों में हो रही आत्महत्याओं की इन्हीं अलग-अलग वजहों को जानने के लिए देश के इन महत्वपूर्ण संस्थानों के कई छात्रों से मुलाकात और बातचीत की. बातचीत के दौरान सभी छात्रों की एकमात्र शर्त थी कि उनका नाम न छापा जाए और इसी वजह से यहां बिना उनके नाम छापे उनकी बात आप तक पहुंचाई जा रही है.

आईआईटी संस्थानों के तकरीबन सभी छात्रों ने एकमत से आत्महत्या और अवसाद  के लिए जिस अहम कारण का जिक्र किया वह है शैक्षिक दबाव. आईआईटी दिल्ली मेंे एमटेक के एक छात्र बताते हैं, ’यहां आपको 80 प्रतिशत ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आईआईटी के सिस्टम से उखड़े हुए हैं…हर बंदा यहां आईआईटी से नहीं, उसके सिस्टम से परेशान है’. आईआईटी में ‘प्रतिष्ठित’ डिग्री को हासिल करने के लिए सिस्टम को इतना उलझा हुआ बना दिया गया है कि छात्र को उसको समझने में ही दो-तीन साल लग जाते है. आईआईटी कानपुर में बीटेक, चौथे वर्ष के एक छात्र कहते हैं, ’मुझे अपनी डिग्री प्लान करने में ही बहुत टाइम लग जाता है.’ कई संस्थानों में प्री-रेक्वजिट (pre-requisite) जैसे उलझे नियम, खुद टाइम टेबल बनाने की कवायद, 75 प्रतिशत उपस्थिति की शर्त, हर गतिविधि में क्रेडिट पांइट का लेन-देन, कई जगह स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी जैसी सख्त कमेटियों का होना, प्रोफेसरों का रुखा रवैया जैसे कई कारण हैं जिनसे छात्र अवसादग्रस्त हो जाते हैं.

प्री-रेक्वजिट जैसे सख्त नियम पर आईआईटी दिल्ली के काफी छात्र अपना रोष व्यक्त करते हैं. बीटेक (चौथे वर्ष) के एक छात्र कहते हैं, ‘अगर आप पहले सेमस्टर में किसी कोर्स में फेल हो गए तो उसकी परीक्षा दोबारा आप अगले सेमस्टर में नहीं, अगले साल दंेगे. और अगले साल वह कोर्स देने के लिए आपको उस साल का एक कोर्स ड्रॉप करना पड़ेगा जो आप फिर तीसरे साल में देंगेे, तीसरे साल वाला कोर्स आप फिर चौथे साल में देंगे..और अगर यह चेन चौथे साल के आखिर तक जाती है तो फिर आपकी डिग्री एक्सटेंड हो जाती है. और यह काफी लोगों के साथ होता है. साथ ही आपको उस रुके हुए कोर्स की सारी कक्षाएं भी फिर से अटेंड करनी जरूरी होती हैं. इसका सबसे ज्यादा असर प्लेसमेंट पर पड़ता है जहां पहले से कैंपस प्लेसमेंट में नौकरी पा चुके छात्र डिग्री के एक्सटेंशन की वजह से अपने ड्रीम जाब से हाथ धो बैठते हैं.’

इतना दबाव छात्रों पर डाल कर शायद यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है

आईआईटी का यह सिस्टम बाकी इंजीनियरिंग संस्थानों से एकदम अलग है, जहां पर छात्र रुके हुए कोर्स को अगले ही सेमस्टर में बाकी के विषयों के साथ दे कर उत्तीर्ण कर सकता है. एमटेक डूअल (dual) डिग्री के एक छात्र बताते हैं, ’इस सिस्टम की वजह से तीसरे सेमस्टर के एक कोर्स में फेल हुआ तो ऐसे लूप में फंसा कि आज सातवें सेमस्टर तक आते-आते मैं चार कोर्स के पेपर अपने जूनियरों के साथ दे चुका हूं…अब अगर गलती से भी मैं किसी और कोर्स में फेल हो गया तो मेरी डिग्री तो हर हाल में एक्सटेंड होगी.’

आईआईटी संस्थानों में इसी तरह के सख्त नियमों के चलते कई छात्रों की डिग्रियां एक या दो साल आगे बढ़ जाती हैं और प्लेसमेंट में मिली नौकरी हाथ से चली जाती है. इस वजह से उनमें अवसाद बढ़ जाता है जो कुछ मामलों में आत्महत्या का रुप ले लेता है. आंकड़ों से भी साफ पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों की आत्महत्या करने की वजह उनकी डिग्री का एक्सटेंड होना और कैंपस प्लेसमेंट में मिली नौकरी का हाथ से जाना होता है.

अब बात स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी (एसआरसी) की. इसके बारे में आईआईटी दिल्ली के एक छात्र कहते हैं, ’हमारे यहां एसआरसी एक हव्वा है. सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा की तर्ज पर हमारे यहां कहते हैं कि पढ़ ले नहीं तो एसआरसी लग जाएगी! जब आपके ऊपर एसआरसी बैठती है तो तकनीकी रूप से आपका अगले सेमस्टर का एक कोर्स अपने आप ड्रॉप हो जाता है क्योंकि प्रोफेसरों को लगता है कि आप इतना बोझ नहीं उठा सकते. तो मदद करने की जगह एसआरसी छात्रों का नुकसान ही करती है. यह डिजाइन और रियालिटी के बीच का फर्क है…आपने सिस्टम तो डिजाइन कर दिया मगर आपको रियालिटी के बारे में कुछ नहीं पता है.’ एक दूसरी परेशानी की तरफ ध्यान खींचते हुए एक अन्य छात्र कहते हैं, ’यहां हर चीज के लिए आपको क्रेडिट चाहिए होता है. टेक्निकल ट्रेनिंग के लिए इतने क्रेडिट चाहिए, बीटेक प्रोजेक्ट के लिए उतने क्रेडिट चाहिए. जिंदगी के चार साल बस गणित लगाते हुए ही निकल जाते हैं.’

मगर आईआईटी दिल्ली के छात्र संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शशि माथुर शैक्षिक दबाव को अवसाद और आत्महत्या की वजह मानने से इंकार करते हैं. वे कहते हैं ’मैं अपने छात्रों को कहता हूं कि आपको आईआईटी में फेल होने के लिए काफी ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, न कि पास होने के लिए! शैक्षिक दबाव  बिलकुल भी तनाव और आत्महत्या की वजह नहीं हो सकता.’ वही दूसरी तरफ जाने-माने शिक्षाशास्त्री और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं, ’इतना अकादमिक दबाव छात्रों पर डाल कर शायद ये लोग यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है. आईआईटी में इस तरह की पढ़ाई से छात्रों को असली ज्ञान की दुनिया से महरूम रखा जा रहा है.’

लगातार बढ़ती आत्महत्याओं और अवसाद के मामलों के चलते ज्यादातर आईआईटी संस्थानों में काउंसलिंग सेल मौजूद है जहां मनोचिकित्सक छात्रों की मदद करते हैं. मगर अकसर छात्र काउंसलिंग के लिए नहीं जाते. इसकी वजह बताते हुए आईआईटी दिल्ली की मुख्य काउंसलर रुपा मुगरई कहती हैं, ’हमारे समाज में काउंसलिंग को  लेकर काफी नकारात्मक धारणा है. मेरे पास काफी छात्र आते हैं जो मनोचिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते, दवा नहीं लेना चाहते क्योंकि इससे वे लोगों की नजर में आ जाएंगे. यहां तक कि वे काउंसलर के पास भी नहीं आते कि कहीं लोग उन्हें पागल न समझें.’ मगर यहां से काउंसलिंग ले चुके आईआईटी दिल्ली के एमटेक के आखिरी साल के एक छात्र का अनुभव थोड़ा अलग था. वे बताते हैं, ’मैं पहली बार गया तो आफिस बंद था. दूसरी बार गया तो रिसेप्शनिस्ट नहीं थी, तीसरी बार काउंसलर मैडम छुट्टी पर थीं, उसके बाद रिसेप्शनिस्ट छुट्टी पर चली गईं. फिर जब आखिर में अपाइंटमेंट मिला तो तीन दिन बाद का मिला. तो जब मैं खुद अपने से इतनी कोशिश कर रहा हूं कि मुझे मदद चाहिए, तब मुझे नौ दिन बाद जाकर मदद मिली. यहां 8000 छात्र हंै और सिर्फ दो काउंसलर, कैसे समय पर मदद मिल पाएगी?’
यह शिकायत काफी छात्रों की थी कि आप जब खुद मदद के लिए जाएं तभी मदद मिलती है, और अकसर अवसाद के शिकार छात्र खुद काउंसलर के पास नहीं जाते हैं. जैसा कि एक छात्र अपने आक्रोश को छुपाते हुए बताते हंै, ’जब अखबारों में किसी आत्महत्या की खबर छपती है और डायरेक्टर स्टेटमेंट देते हैं कि हम लोग तो उस छात्र को बड़े ध्यान से आब्जर्व कर रहे थे और उसमें अवसाद या तनाव के कोई लक्षण मौजूद नहीं थे, पता नहीं उसने ऐसा कदम क्यों उठाया तो हम लोगों को हंसी आती है. मुझे तो यहां कोई भी ऑब्जर्व नहीं कर रहा है. उनको कैसे पता चलेगा कि मैं तनाव या अवसाद में हूं जबकि यहां मेरे दोस्तों तक को उसके बारे में पता नहीं चलता है.’

एक और अहम पहलू है छात्रों पर अभिभावकों और समाज का दबाव. पहले यह दबाव इन संस्थानों में प्रवेश को लेकर होता है और प्रवेश के बाद आईआईटी में लगातार अच्छा प्रदर्शन करने को लेकर. काउंसलर रुपा मुरगई बताती हैं, ‘काफी सारे छात्र आईआईटी में प्रवेश पाने से पहले ही तनाव और अवसाद के शिकार होते हैं. आईआईटी में दाखिला पाने के लिए लगातार अभिवावकों के दबाव के चलते बच्चा सामान्य जिंदगी नहीं जी पाता है. उसने बाकी बच्चों की तरह स्कूल लाइफ नहीं देखी होती. कोचिंग संस्थान और अभिवावक मिलकर बच्चों को सिर्फ आईआईटी की तैयारी के लिए ही अनुशासन में रख कर प्रशिक्षित करते हैं. किताबों से बाहर उसे निकलने ही नहीं देते. जब बच्चा आईआईटी में आता है तो यहां उसे वह अनुशासन और प्रशिक्षण नहीं मिलता, अभिवावकों की निगरानी नहीं मिलती, सब कुछ अकेले करना पड़ता है. अगर वह इस तरह की नयी संस्कृति से तालमेल नहीं बिठा पाता तो धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है.’

वास्तविक दुनिया से अलग-थलग होना भी काफी छात्र इस दबाव की प्रमुख वजह मानते हैं. आईआईटी मद्रास के चौथे साल के एक छात्र को इसका अहसास है. वे कहते हैं, ’हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. मुझे घर के कई काम करने नहीं आते. मैंने कभी टेलीफोन बिल नहीं जमा किया. सब्जी लेने मैं आज तक नहीं गया.स्कूल लाइफ में कभी किसी लड़की के साथ फिल्म नहीं देखी. 8वीं-9वीं के बाद कभी कोई स्पोर्ट्स नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया और तकरीबन मेरे सारे दोस्तों ने भी ये सारे काम नहीं किए हैं.’ वास्तविक दुनिया से अपने इसी डिसकनेक्ट की वजह से काफी छात्र तनाव को नहीं संभाल पाते हैं. एक छात्र के शब्दों में, ‘यहां के छात्रों में इन मुश्किल हालात से निपटने की क्षमताएं नहीं रहतीं, उनमें तनाव को झेलने की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है.’

इसके अलावा भी कई संभावित कारण हैं जो छात्रों के बीच अवसाद को बढ़ावा देते हैं. उदाहरण के लिए कई प्रोफेसरों का छात्रों के प्रति रुखा रवैया. आईआईटी दिल्ली के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां कुछ प्रोफेसर वाकई अच्छे होते हैं मगर कुछ प्रोफेसर होते है जो छात्रों के प्रति काफी असंवेदनशील होते हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि छात्र का करियर बर्बाद हो रहा है. वे आपको अकसर निरुत्साहित और अपमानित करते रहते हैं. और छात्र कुछ कर नहीं सकते क्योंकि आईआईटी में प्रोफेसर के हाथ में पूरी पाॅवर होती है, वह आपका करियर बना भी सकता है और चाहे तो बिगाड़ भी सकता है.’

इसके अलावा एक दूसरी और खास वजह आईआईटी की बनी हुई साख है. इस संस्थान में प्रवेश मिलने वाले को शुरू से ही खुदा का दर्जा दिया जाता है और जब यहां आकर कोई छात्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता तो वह उस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. आईआईटी कानपुर के दूसरे वर्ष के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां आया हुआ हर छात्र अपनी-अपनी क्लास का टॉपर होता है. और यहां आकर कुछ ऊपर होते हैं और कुछ नीचे. मगर जो बंदा नीचे है वह भी आया तो टॉपर बन कर ही था, इसीलिए उसे यह बात स्वीकार करने में बड़ी मुश्किल होती है कि वह उतना बुद्धिमान नहीं है जितना उसने और उसकी फैमिली ने सोचा था.’

आईआईटी संस्थानों में इस तरह के प्रकरणों को कम करने के लिए सिस्टम में मौजूद कमियों को दूर करने पर जोर डालते हुए प्रोफेसर यशपाल आईआईटी को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का सुझाव देते हंै, जहां दूसरे विषय भी पढ़ाए जाएं जिससे छात्र का संपूर्ण विकास संभव हो सके. वे कहते हैं, ‘अगर आप विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालयों का इतिहास देखें तो आपको पता चलेगा कि वे सभी इसलिए इतने जाने जाते हैं क्योंकि उन्होंने वक्त के साथ अपना विस्तार किया और अलग-अलग विषयों को अपने छात्रों को पढ़ाया. आईआईटी में दी जा रही शिक्षा संपूर्ण शिक्षा नहीं है. आईआईटी का छात्र बहुत कुछ कर सकता है मगर इस तरह की शिक्षा से छात्र ज्ञान की दुनिया से कट जाता है.’

आईआईटी से निकली अनेकों प्रतिभाओं ने अपनी विलक्षण उपलब्धियों से दुनिया के सामने कई उदाहरण रखे हैं जो काबिले तारीफ है. लेकिन प्रतिभाओं को तराशने में और बने-बनाए सांचे में ढालने में फर्क होता है. इसलिए ऐसे सृजनशील प्रतिष्ठानों से हम यही अपेक्षा कर सकते हैं कि इस तरह की दुखद घटनाओं पर अंकुश लगाने के तरीके खोजे जाएं जिससे आने वाले समय में और प्रतिभाएं काल-कवलित न हों. 

सवालों की जांच और जांच पर कई सवाल

यह एक सामान्य तथ्य है कि हर सुनियोजित कत्ल के पीछे इंसान की पाशविक प्रवृत्ति से जुड़े कुछ स्याह राज जिम्मेदार होते हैं. ऐसे में अगर एक मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार से निकलकर अपनी पहचान बनाने वाली किसी महिला के कत्ल का मामला हो तो ये राज और गहरे समझे जाने लगते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शेहला मसूद की भोपाल में हुई बर्बर हत्या के लगभग 30 दिन बाद भी उनका कत्ल शहर में चर्चा और रहस्य का विषय बना हुआ है.

अमूमन ऐसे वाकयों को हफ्ते भर में भुला देने वाला प्रदेश मीडिया इस सनसनीखेज हत्या की तफ्तीश के दौरान हर रोज आ रही ताजा जानकारियों के संदर्भों को समझने में उलझा पड़ा है. वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश पुलिस से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसियों तक, पूरा प्रशासनिक महकमा भी इस मामले में हर रोज जुड़ रहे नये आयामों और धुंधले सुरागों के बिंदुओं को जोड़कर इस कत्ल की गुत्थी सुलझाने में जुटा है.  हालांकि 30 दिन तक अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी जांच एजेंसियां इस हत्याकांड को सुलझाने की दिशा में किसी ठोस नतीजे तक पहुंचने में नाकाम रही हैं.  इस दौरान यह जरूर हुआ है कि मामले की जांच आगे बढ़ने के साथ-साथ पुलिस की लापरवाही भरी जांच, राजनीतिक गुटबाजी और स्थानीय मीडिया के सामंती रवैये से जुड़ी कई बातें स्पष्ट होकर सामने आ रही हैं.

शेहला ने एक साक्षात्कार में आईजी पवन श्रीवास्तव और विधायक विश्वास सारंग पर धमकाने के आरोप लगाए थेमसूद हत्याकांड में पिछले दिनों निर्णायक मोड़ तब आया जब प्रदेश पुलिस ने 5 सितंबर को केस डायरी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपी. मामला हाथ में लेते ही सीबीआई ने अपनी पहले दिन की तफ्तीश से ही प्रदेश पुलिस के ढीले और लापरवाह रवैये की कलई खोल दी. पड़ताल के दौरान सीबीआई ने शेहला की कार से एक सोने का पेंडेंट (लॉकेट) और कागजों से भरी एक फाइल बरामद की. सोने का यह पेंडेंट कार की उस ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा था, जिस पर बैठी हुई शेहला को गोली मारी गई थी. वहीं कागजात से भरी एक फाइल उनकी कार की डिग्गी में पड़ी हुई थी. ड्राइविंग सीट के नीचे मिले पेंडेंट को एक अहम सबूत बताते हुए सीबीआई सूत्रों ने कहा कि हत्या से पहले हुए किसी संघर्ष की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. जांच अधिकारियों ने राजधानी के महाराणा प्रताप स्थित शेहला की विज्ञापन एजेंसी ‘मिराकल्स’ की भी गहरी छानबीन की है.

शेहला के परिजनों का मानना है कि प्रदेश पुलिस का लापरवाह रवैया पहले ही केस को काफी कमजोर बना चुका है. तहलका से बातचीत के दौरान शेहला के पिता मसूद सुल्तान कहते हैं, ‘घटना के तुरंत बाद ही पुलिसवालों ने शेहला का लैपटॉप, मोबाइल और उसकी कार, सब कुछ अपने कब्जे में कर लिया था. लेकिन अब उसकी कॉल डिटेल्स से जाहिर हुआ है कि पुलिस उसकी हत्या के एक दिन बाद तक उसके मोबाइल फोन से अनजान लोगों को फोन कर रही थी. ये लोग उसकी कार में पड़े कागज और उसकी ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा लॉकेट तक नहीं ढूंढ़ पाए. हम इनसे न्याय की उम्मीद कैसे करें?’  गौरतलब है कि सीबीआई जांच के दौरान यह उजागर हुआ था कि शेहला की हत्या के एक दिन बाद तक उनके मोबाइल फोन से मंडला और भोपाल के दो नंबरों पर कुल चार फोन कॉल किए गए थे. यह तथ्य उजागर होने के बाद से प्रदेश के पुलिस महकमे पर इस हत्याकांड से जुड़े अहम सबूतों से छेड़छाड़ करने और मामले की लीपापोती करने के आरोप लग रहे हैं. शेहला की बहन आयशा मसूद आगे जानकारी देते हुए कहती हैं कि उनके परिवार को विश्वास है कि अपनी 20 दिन की पड़ताल के दौरान प्रदेश पुलिस ने केस काफी हद तक बिगाड़ दिया है. इस बाबत मसूद परिवार को हाल ही में मिले एक अनाम खत का जिक्र करते हुए वे बताती हैं , ‘हमें एक गुमनाम खत मिला है जिसमें लिखा है कि मध्य प्रदेश पुलिस अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने शेहला के कंप्यूटर से संबंधित डाटा निकालकर आईजी पवन श्रीवास्तव को दे दिया है. जिस लापरवाही से उन्होंने मामले की छानबीन की है उससे तो लगता है कि खत में लिखी बात सच है. शेहला ने तमाम लोगों के खिलाफ सूचना के अधिकार के तहत जो भी जानकारियां जुटाई थीं, उसका काफी बड़ा हिस्सा उसके कंप्यूटर में था. हो सकता है कि इन लोगों ने हर संबंधित व्यक्ति तक उससे जुड़ी जानकारी पहुंचा दी हो ताकि वह अपना डिफेंस तैयार कर सके. ‘ 

गौरतलब है कि एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए अपने आखिरी साक्षात्कार में शेहला ने पुलिस महानिरीक्षक पवन श्रीवास्तव के साथ-साथ भाजपा के विधायक विश्वास सारंग से अपनी जान को खतरा बताया था. जुलाई, 2011 में दिए गए इस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मैंने जो भी जानकारियां हासिल की हैं, उसकी वजह से कई लोग मुझे जान से मारने की धमकी दे चुके हैं. इसमें मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल ऑफिसर से लेकर भाजपा विधायक विश्वास सारंग और कई भ्रष्ट अफसरशाह भी शामिल हैं…’ शेहला के परिजनों का कहना है कि प्रदेश पुलिस ने शेहला द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों में लगाए गए तमाम आरटीआई आवेदनों की ठीक से जांच नहीं की है. आयशा कहती हैं, ‘उसने साफ कहा है कि उसे जान का खतरा है और उसने कुछ लोगों के नाम भी गिनवाए थे, फिर भी पुलिस अब तक हत्यारों को क्यों नहीं पकड़ पाई?’

फिलहाल मामला केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के हाथों में जाने के बाद शेहला के परिवार को न्याय की आस बंध गई है. शेहला से जुड़े उनके करीबी मित्रों का मानना है कि वह सक्रिय राजनीति में जाने की भी योजना बना रही थी. एक तरफ जहां भाजपा के अनिल दवे और विश्वास सारंग जैसे नेताओं को उन्होंने खुले तौर पर अपना विरोधी घोषित कर रखा था, वहीं दूसरी ओर भाजपा के ही तरुण विजय और ध्रुव नारायण सिंह जैसे राष्ट्रीय और राज्य स्तर के बड़े नेताओं से उनकी अच्छी मित्रता थी. यहां तक कि उनके फेसबुक अकाउंट में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी मुलाकात की तस्वीरों का पूरा एक एलबम मौजूद है.  विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि शेहला प्रदेश भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चे का नया चेहरा बनना चाहती थीं. शेहला के बारे में बात करते हुए उनके एक करीबी मित्र कहते हैं, ‘2008 के बाद और उसके पहले की शेहला काफी अलग-अलग थीं. 2008 से पहले तक उनका ध्यान कार रैलियां, फैशन शो और ऐसे ही तमाम कार्यक्रम आयोजित करने की तरफ ज्यादा था. फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ और एक दिन वह फेसबुक पर लिखती है कि अब मध्य प्रदेश एक टाइगर राज्य नहीं है. फिर अचानक वह अन्ना आंदोलन से जुड़कर भ्रष्टाचार के खिलाफ शाहजहानी बाग में धरने पर बैठ जाती है. उसके अंदर भावनाओं का जैसे एक तूफान घुमड़ा करता था और वह बहुत अप्रत्याशित स्वभाव की थी.’  शेहला के राजनीति की तरफ होते झुकाव के बारे बताते हुए वे आगे कहते हैं, ‘हाल के दिनों में उसमें कई बदलाव आए. शायद काम का दबाव रहा होगा कि वह मिजाजन कुछ परेशान और चिड़चिड़ी-सी रहने लगी थी. एक तरफ वह भाजपा में शामिल भी होना चाहती थी, दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार के खिलाफ खूब आरटीआई भी लगाती थी. उसे शक्ति तो चाहिए थी पर वह शायद तय नहीं कर पा रही थी कि उसे कौन-सा रास्ता चुनना है.’  

शेहला मसूद हत्याकांड के तमाम पहलुओं के बीच स्थानीय मीडिया का सामंती रवैया भी मृतका के परिजनों की परेशानियों को बढ़ा रहा है. आयशा प्रदेश के अखबारों की आलोचना करते हुए कहती हैं, ‘मीडिया का ध्यान इस बात पर बिलकुल नहीं है कि किसी की हत्या हुई और उसके कातिलों को सजा मिलनी चाहिए. सभी उसके निजी संबंधों के बारे में तथ्यहीन बातें लिखकर अपने अखबार बेच रहे हैं. इन्हें तो इस बात का भी लिहाज नहीं है कि शेहला अपनी सफाई देने के लिए जिंदा नहीं है.’ मसूद हत्याकांड की मीडिया कवरेज की आलोचना राज्य के महिला संगठन भी कर रहे हैं. अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की प्रदेश अध्यक्ष संध्या शैली कहती हैं, ‘पूरे मामले में मीडिया की भूमिका बहुत खतरनाक रही है. अगर किसी पुरुष की हत्या होती तब भी क्या प्रदेश का यह सामंती मीडिया मृतक की हत्या को छोड़कर उसके निजी संबंधों के बारे में लगातार लिखता? भोपाल एक बहुत रूढ़िवादी शहर है और किसी महिला के चरित्र पर कीचड़ उछालना लोगों के लिए सबसे आसान काम है. कोई महिला अपने निजी जीवन में किसी से भी मित्रता रखती हो, इससे हम उसकी हत्या को जायज कैसे ठहरा सकते हैं?’  

'कोई वजह नहीं कि निचली अदालत न्याय न करे'

क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा एसआईटी को यह कहा जाना कि वह अपनी अंतिम रिपोर्ट या आरोपपत्र अहमदाबाद की अदालत के सामने रखे, मोदी के लिए कानूनी और नैतिक जीत है?

एमिकस क्यूरी के तौर पर मैं आदेश के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोलना चाहूंगा. हालांकि, मैं यह जरूर चाहूंगा कि आदेश को ठीक ढंग से समझा जाए. उच्चतम न्यायालय के आदेश में कोई कमी नहीं है. इसमें शिकायत करने वाले और संभावित अभियुक्त दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. अब कानून अपना काम करेगा. मेरी रिपोर्ट में स्वतंत्र तौर पर उन बातों का आकलन किया गया है जो संबंधित गवाहों ने बताई थीं. ट्रायल कोर्ट के सामने मेरी और एसआईटी दोनों की रिपोर्ट होगी. मुझे इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अदालत अपना काम कानून के हिसाब से करेगी और इस मामले में न्याय होगा. क्लीन चिट या कसूरवार ठहराए जाने को लेकर बात करना जल्दबाजी होगी.

शिकायतकर्ता ने दो मांगें रखी थीं. पहली यह कि बड़े पैमाने पर साजिश करने के लिए अलग एफआईआर दर्ज हो और दूसरी यह कि मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई या एसआईटी से अलग किसी अन्य एजेंसी को दे दिया जाए. ये दोनों मांगें अदालत ने खारिज कर दीं. क्या यह राज्य सरकार की जीत नहीं है?

जहां तक पहली मांग का सवाल है तो अब यह प्रासंगिक नहीं है क्योंकि स्वतंत्र जांच के बाद सभी सबूतों और दस्तावेजों को उचित अदालत के सामने रखने का निर्देश दिया जा चुका है. सीबीआई को जांच देने के मामले में अदालत ने इसकी जरूरत नहीं समझी क्योंकि पूरी जांच अदालत द्वारा नियुक्त एसआईटी ने की है.  इस मामले में न तो किसी की जीत हुई और न किसी की हार.

उच्चतम न्यायालय की कानूनी सक्रियता के इतिहास में यह आदेश कहां टिकता है? कई वरिष्ठ वकीलों ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि कानून की जीत नहीं हुई.

अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के संदर्भ में देखें तो यह उच्चतम न्यायालय के सबसे अच्छे आदेशों में एक है. इसमें दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. यह एकदम विधिसम्मत है.

2010 के नवंबर में एसआईटी ने अपनी स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि वह शुरुआती जांच थी न कि अपराध दंड संहिता के तहत की गई जांच. पर इस आदेश में कहा गया है कि जांच का काम खत्म हो गया और अब ट्रायल कोर्ट सुनवाई करेगा. आखिर किस चरण में शुरुआती जांच को ही जांच मान लिया गया?

एसआईटी ने खुद जो जांच की और जनवरी, 2011 में मेरी पहली रिपोर्ट के बाद जो जांच हुई वह गुलबर्ग सोसाइटी मामले में अपने आप में पूरी जांच थी.

उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश के आठवें और नौवें पैराग्राफ में कहा है, ‘अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के मामले में अदालत इस बात को सुनिश्चित करने को लेकर चिंतित होती है कि जांच एजेंसियां ईमानदारी से काम करें न कि आरोप तय करने को लेकर. यह काम आरोपपत्र दाखिल होने के बाद सुनवाई के दौरान सक्षम अदालत करेगी.’ क्या इससे यह नहीं लगता कि जाकिया जाफरी के आरोपों पर एसआईटी ने जो जांच की है उससे उच्चतम न्यायालय संतुष्ट है?

अदालत ने कानूनी प्रक्रिया का निर्वाह किया है. एक बार जांच पूरी हो जाने के बाद अपराध दंड संहिता की धारा 173(2) के तहत जांच रिपोर्ट संबंधित अदालत में देनी होती है. अदालत ने मामले के गुण-दोष या जांच पर कुछ कहने से परहेज किया है. इसलिए एसआईटी और एमिकस की रिपोर्ट पर अदालत के खुश-नाखुश होने का सवाल ही नहीं उठता.

जैसा कि कहा जाता है सिर्फ न्याय होना जरूरी नहीं है बल्कि यह लगना भी चाहिए कि न्याय हुआ है. इस लिहाज से क्या इस फैसले का मकसद कहीं पीछे नहीं छूटा है क्योंकि प्रभावित इसे कमजोर आदेश के तौर पर देख रहे हैं?

इस तरह की बनती राय को देखकर ही मैं आपसे बात कर रहा हूं. एमिकस के तौर पर पहले मैं मीडिया से बात करने को तैयार नहीं था. मैंने अदालत के आदेश का अर्थ आपको समझा दिया है और मुझे लगता है कि इस मामले में न्याय हुआ है.

जाकिया ने कहा है कि वे आदेश से असंतुष्ट और नाखुश हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर उच्चतम न्यायालय कोई रुख अख्तियार नहीं कर सकता तो फिर अहमदाबाद की निचली अदालत भला ऐसा कैसे कर सकती है?

मैं किसी की ऐसी प्रतिक्रिया पर कुछ नहीं बोलना चाहता हूं जिसके बारे में जानकारी मुझे मीडिया के मार््फत मिली हो. हालांकि, उच्चतम न्यायालय कोई ट्रायल कोर्ट नहीं है जो कोई रुख अख्तियार करे. सबसे ऊपरी अदालत द्वारा ऐसा किए जाने से ऐसा शिकायतकर्ता या संभावित आरोपित दोनों में किसी के खिलाफ ऐसा पूर्वाग्रह बन सकता है जिसकी भरपाई न हो.

गुजरात की न्यायिक प्रक्रिया और इस मामले में पहले के उच्चतम न्यायालय के आदेशों को देखते हुए क्या अहमदाबाद की निचली अदालत से न्याय की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा?

जब मामले के गुण-दोष पर सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नहीं कहा हो तो फिर इस बात की कोई वजह नहीं दिखती कि निचली अदालत न्याय नहीं कर सकती. अगर भविष्य में किसी स्तर पर कोई शिकायत आती है तो इसके निवारण के लिए कानून में पर्याप्त प्रावधान हैं.

हम सब जानते हैं कि एसआईटी ने अपनी पहली स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि ऐसे सबूत नहीं हैं जिनके आधार पर मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सके. अब उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के संदर्भ में इसी एजेंसी से आखिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अपनी पिछली बात से पलट जाए? क्या इस मामले में ऐसा नहीं होगा कि भविष्य की सभी जांच और कानूनी प्रक्रियाएं पहले से ही पूर्वाग्रह और विरोधाभासों से भरी हुई हों?

ये रिपोर्टें तब तक गोपनीय हैं जब तक अदालत में औपचारिक तौर पर पेश नहीं की जाएं. अदालत के फैसले से यह साफ है कि मेरी रिपोर्ट पर एसआईटी विचार करेगी. अगर एसआईटी और मेरी राय में कहीं कोई फर्क होगा तो मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दोनों बातों को अदालत के सामने रखा जाएगा.

पर कुछ लोग यह मान सकते हैं कि एसआईटी अपने पहले वाले रुख से नहीं पलटेगी. तो क्या अदालत के इस आदेश से प्रभावित व्यक्ति और शिकायतकर्ता खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करेंगे?

मुझे ऐसा नहीं लगता कि जहां एसआईटी और मेरी राय अलग होगी वहां मेरी राय पर एसआईटी विचार नहीं करेगी. अगर एसआईटी क्लोजर रिपोर्ट फाइल करती है तो भी कानून के तहत शिकायत करने वालों के पास काफी अधिकार होंगे इसलिए ‘ठगा हुआ’ महसूस करने की बात गलत है.

जनहित से जुड़े गुजरात दंगों जैसे मसलों में एमिकस क्यूरी की क्या भूमिका होती है?

आरंभ में एमिकस क्यूरी को कोर्ट द्वारा ऐसे आपराधिक मामलों के लिए नियुक्त किया गया था जिसमें अभियुक्त या अपराधी अपना बचाव नहीं कर सकते थे. इस तरह के एमिकस से उम्मीद की जाती थी कि वह आखिर तक बचाव पक्ष के सलाहकार के तौर पर काम करेंगे. उसकी जवाबदेही अदालत के प्रति होती थी. बाद में, कोर्ट ने कानून के पेचीदा सवालों में मदद करने के लिए वरिष्ठ और प्रतिष्ठित वकीलों को एमिकस क्यूरी नियुक्त करना शुरू कर दिया भले ही केस में दोनों ही पक्ष पूरी तरह अपना बचाव करने में समर्थ हों. जनहित याचिका के आगमन और फिर जेल सुधार, हिरासत में मौत जैसे तमाम मसलों से लगातार कोर्ट के घिरे रहने की वजह से एमिकस क्यूरी की भूमिका का महत्व बढ़ता गया. एमिकस को निष्पक्ष रहते हुए न सिर्फ मुकदमे के अलग-अलग पक्षों से दूरी रखनी चाहिए बल्कि साथ ही खुद की पसंद, नापसंद, झुकाव, पूर्वाग्रह को भी मामले से दूर रखना चाहिए. अदालत को विशेष सहयोग देने के अलावा एमिकस का यह भी कर्तव्य है कि वह संवैधानिक रूप से कानूनी कार्यप्रणाली के अनुसार चलने में अदालत की मदद करे. एमिकस का काम है कोर्ट को सही फैसला लेने में सहयोग करना और उसे उसके अधिकारों का पूरा इस्तेमाल करने के लिए जागरूक करना. साथ ही जरूरत पड़ने पर कोर्ट को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए आगाह करना भी एमिकस का ही काम है.

दंगों के शिकार आक्रोशित भी हैं और असमंजस में भी कि कैसे अदालत ने अपने आखिरी आदेश में उसी एसआईटी पर पूरा भरोसा जताया जिसकी रिपोर्ट पर वह कुछ महीनों पहले तक खुद ही असंतुष्ट थी और जिसकी वजह से उसने आपको सबूतों और तथ्यों का स्वतंत्र मूल्यांकन करने को कहा था.

इस बात पर काफी गलतफहमी है. अदालत ने एसआईटी को जांच-पड़ताल करने के लिए नियुक्त किया था. उसने उसी समय एक एमिकस को भी नियुक्त किया था. इसका मकसद यह था कि एसआईटी की रिपोर्ट को एक स्वतंत्र नजरिये से भी देखा जाए. इसी वजह से एमिकस को पांच मई को अपना मूल्यांकन देने को कहा गया था. इसका मतलब एसआईटी से असंतुष्ट होना या फिर एसआईटी पर विश्वास न करना नहीं है. अदालत एक स्वतंत्र नजरिया चाहती थी.

आप एसआईटी से किन बिंदुओं पर असहमत हैं?

मैं इस सवाल का जवाब नहीं दे सकता क्योंकि हमारी रिपोर्टें अभी तक गोपनीय हंै. मगर मैं यह जरूर स्पष्ट करना चाहूंगा कि एक स्वतंत्र मूल्यांकन मांगा गया था और वही दिया गया है. जब इस तरह की कवायद होती है तो जिन बिंदुओं पर मतभेद होता है उन्हें साफ-साफ कहा जाता है.

क्या कोर्ट ने आपकी रिपोर्ट के ऊपर एसआईटी की रिपोर्ट को तरजीह दी है जिस वजह से आपके निष्कर्षों का महत्व खत्म हो गया?

सीआरपीसी के अंतर्गत रिपोर्ट देना जांच एजेंसी (इस मामले में एसआईटी) की जिम्मेदारी है. एमिकस कोई जांच एजेंसी नहीं होता. वह एक वकील होता है जिसने अपना स्वतंत्र मूल्यांकन दे दिया है. अदालत ने इसे प्रासंगिक समझा है और इसीलिए एसआईटी को एमिकस की रिपोर्ट पर ध्यान देना है.

तो क्या अब यह समझा जाए कि आपकी रिपोर्ट न सिर्फ एसआईटी को सही राह दिखाएगी बल्कि आने वाले वक्त में इस तरह की कानूनी कार्रवाइयों के लिए एक मील का पत्थर भी साबित होगी?

अपनी ही रिपोर्ट पर इस तरह की बातें कहना मेरे हिसाब से बिल्कुल ठीक नहीं होगा. हां, मगर मैं यह जरूर कह सकता हूं कि एमिकस के नजरिये को उच्च न्यायालय ने प्रासंगिक माना है और इसलिए मुझे यकीन है कि इसकी प्रासंगिकता आगे भी बनी रहेगी.

चैनलों की दाल में काला

पिछले कई महीनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ समाचार चैनलों का जोश देखकर लगता है कि मानो वे भ्रष्टाचार को खत्म करके ही मानेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं कि चैनलों ने जिस तरह से एक के बाद एक कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है या उन्हें जोर-शोर से उछाला और मुद्दा बनाया है, उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल और जनमत बना है. इसके कारण कई बड़े घोटालेबाज जेल गए हैं, कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को कुर्सी गंवानी पड़ी है और देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जोर पकड़ने लगा है. लेकिन लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में चैनल या तो थकने लगे हैं या फिर उनके आकाओं ने उनकी लगाम खींचनी शुरू कर दी है.

उदाहरण के लिए, बीते पखवारे संसद में पेश रिपोर्ट में सीएजी ने एयर इंडिया में अनियमितताओं और विमानों की खरीद में गड़बड़ियों पर उंगली उठाने के साथ कृष्णा गोदावरी घाटी (केजी बेसिन) में गैस की खोज, उसकी कीमत तय करने और उत्पादन आदि में मुकेश अंबानी की रिलायंस को अनुचित तरीके से फायदा पहुंचाने से लेकर कंपनी की धांधलियों और मनमानियों को आड़े हाथों लिया. लेकिन चैनलों ने थके मन से एयर इंडिया की अनियमितताओं पर रस्मी हो-हल्ला किया और चुप मार गए. उससे भी हैरान करने वाली बात यह है कि केजी बेसिन-रिलायंस मामले पर सीएजी की रिपोर्ट के बावजूद चैनलों ने न तो उसे प्राइम टाइम चर्चा लायक समझा और न ही उसे समग्रता में रिपोर्ट किया. इस खबर पर चैनलों में वह उत्साह भी नहीं दिखा जो हाल के महीनों में अन्य घोटालों को रिपोर्ट करते हुए दिखा था.

चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानी कॉरपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है यह हैरान करने वाला इसलिए भी था कि चैनलों को अपनी ओर से कुछ खास नहीं करना था क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट में सारा खुलासा मौजूद था. यह भी 2जी स्पेक्ट्रम की तरह गैस जैसे प्राकृतिक और कीमती सार्वजनिक संसाधन को राष्ट्रीय हितों की कीमत पर निजी लाभ के लिए दुरुपयोग का गंभीर मामला है. यही नहीं, इसमें राजनीतिक एंगल भी मौजूद था. पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को रिलायंस समर्थक माना जाता रहा है. उन्हें पिछले कैबिनेट फेरबदल में हटाया गया था. उससे पहले अमेरिकी विरोध के कारण मणिशंकर अय्यर को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया था. इसके अलावा हाल में, रिलायंस और बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के बीच बड़ी डील हुई है. इस डील को लेकर भी कई सवाल उठे हैं. इसके बावजूद अधिकांश न्यूज चैनलों पर इस मुद्दे पर रहस्यमयी चुप्पी छाई रही. ऐसा लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं है या सीएजी की रिपोर्ट में कोई दम नहीं है. यहां तक कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय सबसे बड़े योद्धा अर्नब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाऊ’ भी रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़े.

क्या यह नीरा राडिया प्रभाव है? याद रहे, राडिया रिलायंस के मीडिया मैनेजमेंट का काम देखती हैं. उन पर आरोप है कि वे रिलायंस और अपने दूसरे कॉरपोरेट क्लाइंट टाटा के पक्ष में सकारात्मक जनमत बनाने के लिए अनुकूल समाचार आगे बढ़ाने और प्रतिकूल समाचार दबाने में समाचार माध्यमों और पत्रकारों को इस्तेमाल करती रही हैं. इस बार भी जिस तरह से केजी बेसिन की खबर को चैनलों ने ‘अंडरप्ले’ किया है, उससे लगता है कि कोई ‘अदृश्य शक्ति’ है जो चैनलों के मुंह पर पट्टी बांधने में कामयाब हुई है. क्या वह रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों की विज्ञापन देने की शक्ति है जिसे कोई चैनल अनदेखा नहीं कर सकता?

इसके उलट लगभग सभी चैनलों पर एयर इंडिया में अनियमितताओं पर सीएजी की रिपोर्ट को न सिर्फ पर्याप्त कवरेज मिली बल्कि सबने प्राइम टाइम चर्चाएं भी कीं. इन चर्चाओं में भी दोषी अधिकारियों/मंत्रियों को पहचानने और उन्हें निशाना बनाने की बजाय चैनलों का जोर इस बात पर था कि एयर इंडिया को बचाने के लिए उसका निजीकरण क्यों जरूरी है. गोया निजीकरण हर मर्ज का इलाज हो. अगर ऐसा ही है तो टेलीकाॅम क्षेत्र में 2जी की लूटपाट में कौन शामिल थे?

असल में, न्यूज चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की यही सीमा है. उनके लिए भ्रष्टाचार और घोटाला सिर्फ एक घटना या प्रकरण है जो कुछ व्यक्तियों खासकर नेताओं और अफसरों तक सीमित है. सच यह है कि यह भ्रष्टाचार का मांग पक्ष है. लेकिन भ्रष्टाचार का आपूर्ति पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है. वे छोटी-बड़ी कंपनियां जो अपने मुनाफे के लिए नेताओं और अफसरों को घूस खिलाकर तमाम नियम-कानूनों को तोड़ती-मरोड़ती हैं, संगठित लॉबीइंग के जरिए अपने अनुकूल नियम-कानून बनवाती हैं, उनके अपराधों की कोई चर्चा नहीं होती है या बहुत कम होती है. इसके उलट चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानी कॉरपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि यह किसी से छिपा नहीं है कि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है. फिर क्यों न माना जाए कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के पीछे चैनलों का अघोषित एजेंडा सार्वजनिक क्षेत्र को बदनाम करने और उसके निजीकरण का रास्ता साफ करने का है?

कौन करेगा, कहां से होगी क्रांति?

क्या भारत में क्रांति संभव है? अपने अनशन और आंदोलन से देश भर का ध्यान खींचने वाले अण्णा हजारे और उनके साथी अपनी लड़ाई के दौरान अण्णा को इंडिया बताते रहे, अपने आंदोलन को दूसरी आजादी की लड़ाई घोषित करते रहे, लेकिन शायद ही इनमें से कभी किसी ने कहा हो कि वे क्रांति कर रहे हैं. क्या सिर्फ इसलिए कि क्रांति शब्द से जिस हिंसक और रक्तपाती किस्म के सत्ता-परिवर्तन या व्यवस्था-परिवर्तन की बू आती है वह इन आंदोलनकारियों का अभीष्ट नहीं था?  सच तो यह है कि सत्ता या व्यवस्था परिवर्तन इस आंदोलन के लक्ष्य में कभी शामिल नहीं दिखा, और शायद इसलिए आंदोलन की तमाम गर्मी और इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले ढेर सारे शब्दाडंबरों (रेटरिक) के बावजूद क्रांति का शब्दाडंबर सबसे कम सुनने को मिला. जब अण्णा के आंदोलन जैसे तथाकथित बड़े और गतिशील सामाजिक आंदोलन से क्रांति नहीं सध रही तो दूसरा कौन-सा आंदोलन होगा जो क्रांति कर सके या इसका दम भर सके?

हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और जनविरोधी साबित हुई हैं

अण्णा के आंदोलन को छोड़ दें. इस देश में और भी जमातें हैं जो खुद को क्रांतिकारी मानती हैं. पिछले कुछ वर्षों में आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक करीब नौ-दस राज्यों में फैला हिंसक माओवादी आंदोलन मूलतः क्रांति के सपने और लक्ष्य को ही समर्पित है. सरकारें इसे लाल गलियारा बताती हैं और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम इस क्रांतिकारी उभार को देश के सामने खड़ा सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. निश्चय ही यह माओवादी आंदोलन की- उनके लक्ष्यों के हिसाब से- एक बड़ी सफलता है.

लेकिन क्या माओवादी इस देश में वाकई कोई क्रांति कर पाएंगे? इसकी संभावना कम लगती है. इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह यही है कि जो हिंसक लड़ाई वे लड़ रहे हैं उसमें राज्य के आगे वे टिक नहीं पाएंगे. उल्टे, माओवादियों की हिंसा राज्य की पहले से चली आ रही हिंसा को ही तर्क देगी. राज्य के पास जो सैन्य शक्ति और मशीनरी है वह माओवादियों के मुकाबले इतनी ज्यादा विराट है कि दोनों के बीच किसी वास्तविक युद्ध की स्थिति में माओवादियों को हर हाल में परास्त होना होगा. अगर वे क्रांति के पुराने नियमों और खयालों के हिसाब से सोचते हैं कि एक दिन सेना और न्यायालय सहित देश की बहुसंख्यक आबादी उनके साथ आ खड़ी होगी और वे राज्य की मशीनरी को भी अपने पक्ष में मोड़कर सत्ता पर कब्जा कर लेंगे और पूरी व्यवस्था बदल डालेंगे, तो यह भी एक खामखयाली है. क्योंकि अपनी सारी दुर्बलताओं और अपने सारे दुर्गुणों के बावजूद भारत के संसदीय लोकतंत्र की घुसपैठ बहुत गहरी है जिसे सारे मोहभंग के बावजूद खत्म और खारिज करना आसान नहीं है.

दूसरी वजह यह है कि जिस हिंसक क्रांति का रास्ता माओवादी अपना रहे हैं, विचारधारात्मक स्तर पर उसकी कई विसंगतियां अब कहीं ज्यादा उजागर हैं. दुनिया भर का अनुभव बताता है कि हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और एक हद तक जनविरोधी भी साबित हुई हैं. ऐसी विचारधाराएं बाजारवाद से भी सांठ-गांठ करने से हिचकती नहीं रही हैं. पूर्वी यूरोप से लेकर चीन तक का यह अनुभव इतना तीखा और ताजा है कि माओवादी आंदोलन को सहानुभूति के साथ देखने वाले लोग भी उसकी परिणतियों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं. वे ऐसी जनक्रांति के मुकाबले संसदीय लोकतंत्र को ही तरजीह देंगे, इसमें शक नहीं.

फिलहाल माओवाद हमारे देश में प्रतिरोध का एक आंदोलन भर है. वह दलितों, आदिवासियों और गांव-देहात में रहने वाले लोगों के क्रूर शोषण और दमन का, उनके साथ हो रहे औपनिवेशिक व्यवहार का- कई लोगों की निगाह में- एक जायज प्रतिरोध है जिसमें हिंसा भी स्वाभाविक है क्योंकि वह राज्य की हिंसा के प्रत्युत्तर से उपजी है. दूसरी बात यह कि माओवादी आंदोलन की वजह से अचानक दूरदराज के गांवों और देहातों के शोषण पर, उनके संसाधनों की लूट पर सबकी नजर पड़ी है. यह आंदोलन न होता तो वाकई इस देश की मुख्यधारा की राजनीति ने सारे जंगलों, पहाड़ों, बेशकीमती खनिजों और सारी नदियों को बाजार के हाथ औने-पौने में बेच दिया होता. इस अर्थ में माओवादी जंगल के दावेदार ही नहीं, पहरेदार भी हैं.

संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है

लेकिन माओवाद की उस उपयोगी भूमिका के आगे का सफर कोई वैचारिक रोशनी या भरोसा नहीं दिलाता. वह एक असंभव क्रांति का आक्रोश भरा आह्वान भर लगता है जिसकी उम्र सीमित है, या जो समय-समय पर फूटता रहेगा और राज्य जिसे अपनी ताकत से पचाता रहेगा.  फिर क्या क्रांति का कोई तीसरा रास्ता है? ऐसा रास्ता जो इस पूरी सड़ी-गली व्यवस्था को बदल डाले और समता और न्याय का एक अंतिम राज्य स्थापित करे? अतीत में देखें तो ऐसी उम्मीद आखिरी बार जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान ने जगाई थी. तब आजाद भारत ने केंद्रीय स्तर पर अपना पहला सत्ता परिवर्तन देखा था. लेकिन वह संपूर्ण क्रांति भी संसदीय राजनीति के दलदल में धंस कर ढाई साल में दम तोड़ गई. जाहिर है, इसलिए कि उस क्रांति ने सत्ता बदलने की ऊर्जा तो पैदा की, व्यवस्था बदलने की कोई दृष्टि नहीं दी.

यानी क्रांति के नाम पर शुरू होने वाली किसी भी लड़ाई का पहला फर्ज और लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह आने वाले दिनों के लिए व्यवस्था बदलने का खाका तैयार करे. लेकिन फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई इस देश की जनता अपनी संसदीय राजनीति से इस कदर ऊबी हुई या आक्रांत है कि वह इसे बदल डालने के किसी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी हो जाएगी. फिलहाल ऐसा लगता नहीं क्योंकि इस राजनीति को इसकी दुर्बलताओं के लिए पानी पी-पीकर कोसने वाला लगातार मोटा होता मध्यवर्ग ऐसी ही व्यवस्था में खुद को बचाए रख सकता है. सच तो यह है कि वह इसे बदलना नहीं चाहता, बस इसके कुछ दुर्गुण दूर करना चाहता है- बिना यह समझे कि इसके ज्यादातर दुर्गुणों का जिम्मेदार वही है.

दूसरी बात यह कि इस संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है. इस लिहाज से भारतीय लोकतंत्र कहीं ज्यादा क्रांतिकारी साबित हुआ है कि उसने सदियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को एक स्तर पर उलट-पुलट डाला है और सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंपी है जो अब तक निचले पायदान पर रहे हैं. बराबरी और इंसाफ की लड़ाइयां निश्चय ही बाकी हैं, लेकिन वे लड़ी जा रही हैं. तो क्या यह मान लें कि इस देश को किसी बदलाव की, किसी क्रांति की जरूरत नहीं है? जो जैसा है, वैसा ही चलता रहेगा और इसी से हम संतुष्ट हो लें? जाहिर है, यह भी विकल्प नहीं हो सकता. फिर रास्ता कहां से निकलता है?

इस रास्ते के लिए हमें किसी वैचारिक क्रांति के विराट राजमार्ग की जगह उन छोटी-छोटी पगडंडियों की तरफ देखना होगा जहां बदलाव की बहुत सारी कोशिशें चल रही हैं. अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध की बहुत सारी आवाजें हैं जो मौजूदा व्यवस्था को आईना और अंगूठा दिखा रही हैं और क्रांति की अपनी तहरीर लिख रही हैं. कहीं नर्मदा के लिए लड़ती मेधा पाटकर है, कहीं फौजी दमन के विरुद्ध उपवास कर रही शर्मिला इरोम है, कहीं बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ खड़े आदिवासी हैं और कहीं अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध करते दलित हैं. कहीं बिल्डरों को जमीन न देने को तैयार किसान हैं तो कहीं सेज, यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ वोट कर रही पंचायतें हैं. निश्चय ही इनमें से बहुत सारी आवाजें अनसुनी रह जा रही हैं, बहुत सारे प्रतिरोधों को राज्य निर्ममता से कुचल रहा है, बहुत सारे लोग अकेले पड़ जा रहे हैं. लेकिन प्रतिरोध की ये साझा आवाज़े अंततः बहरे कानों को सुनाई पड़ रही हैं. धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं.

कोई चाहे तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उद्धृत करते हुए याद दिला सकता है कि ‘धीरे-धीरे/ कुछ नहीं होता/ सिर्फ मौत होती है’, लेकिन जो तेजी से होता है वह भी मानवीय नहीं होता, इसके सबूत अब बहुतेरे हैं. दरअसल एक मानवीय लड़ाई बहुत धीरज की मांग करती है. ऐसी लड़ाई में भारी-भरकम शब्द भारी-भरकम हथियारों जितने ही खतरनाक होते हैं, उतनी ही हिंसा पैदा करते हैं. यह अंधेरे समय में अलग-अलग कोनों में सुलगने वाली फुसफुसाहटों की तीलियां हैं जो बदलाव की इच्छा भी कायम रखती हैं और उसके प्रति भरोसा भी. ऐसी मद्धिम आवाजें डराती नहीं, उनसे चौंक कर बचने की इच्छा नहीं होती, बल्कि उनके करीब जाने का, उन्हें ध्यान से सुनने का मन होता है.

निश्चय ही राज्य इन फुसफुसाहटों के मुकाबले एक अट्टाहास जैसा होता है जो लगभग अभेद्य और अजेय लगता है. लेकिन जनक्रांतियों का आंदोलन यह भी बताता है कि खामोश प्रतिरोधों के आगे कई बार ऐसे अट्टाहासी अहंकार धूल में मिल गए हैं.
मार्क्सवाद बताता है कि क्रांति के लिए क्रांति लायक परिस्थितियां चाहिए. भारत में निश्चय ही एक स्तर पर वे परिस्थितियां हैं- भूख, बेरोजगारी, खुदकुशी, असुरक्षा, सामाजिक टूटन- यह सब-कुछ जैसे बड़े होते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ-साथ तरह-तरह के प्रतिरोध भी बड़े होते जा रहे हैं. हमें प्रतिरोध की इन कातर और कमजोर आवाजों को ध्यान से सुनना चाहिए. वे किसी फ्लडलाइट की तरह एक जगमग और सुनहरे अक्षरों में लिखी जाने वाली क्रांति भले न करें, लेकिन बेहतर जिंदगी और व्यवस्था के कहीं ज्यादा वैध संघर्ष के छोटे-छोटे दीयों के रूप में हमारा-आपका जीवन बदल सकती हैं. दरअसल ऐसी ही आवाजें उस क्रांति का भरोसा जगाती हैं जो भारतीय परिस्थितियों में फिलहाल बिल्कुल असंभव जान पड़ती है.   

 

जीत नहीं जकड़न की शुरुआत

सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के बाद जिसमें शीर्ष अदालत ने गुजरात दंगों के एक मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने या न चलाने का जिम्मा अहमदाबाद की निचली अदालत पर डाल दिया है, यह राजनीतिक बहस हो रही है कि इस आदेश का मतलब मोदी को क्लीन चिट है या नहीं. शीर्ष अदालत ने यह आदेश उस याचिका पर सुनाया था जिसमें मोदी और 62 अन्य अधिकारियों पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 2002 में हुए गुलबर्ग सोसाइटी दंगों को रोकने के लिए जान-बूझ पर कोई कदम नहीं उठाया और हिंसा को बढ़ावा दिया.

नौ पृष्ठों के इस आदेश को गौर से पढ़ा जाए तो ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि मोदी को क्लीन चिट दी गई है. इस मामले में एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन ने भी कहा है कि इस आदेश की व्याख्या मोदी को क्लीन चिट के रूप में करना पूरी तरह से गलत निष्कर्ष है (देखें साक्षात्कार). इसके बावजूद भाजपा नेता इसे मोदी की बेगुनाही और उनकी जीत के तौर पर प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे.

एसआईटी ने जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण थान्यायपालिका के सामने अभी सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि मोदी दोषी हैं या बेगुनाह. विशेष जांच दल या एसआईटी ने पिछले साल नवंबर में शीर्ष अदालत को 600 पन्नों की जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें यह साबित करते दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान और बाद में मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण और सांप्रदायिक था और यह उनके राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से निर्देशित हो रहा था. मसला अब यह है कि क्या मोदी की यह लापरवाही अदालत में साबित की जा सकती है. एसआईटी के सामने चुनौती है कि वह अपने पास मौजूद सबूतों की सही व्याख्या करे और उसके बाद आगे की कार्रवाई का फैसला करे. मोदी के खिलाफ यह मामला जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा, यह एक तरह से भारतीय न्याय व्यवस्था की परीक्षा भी होगी.

तर्कों के हिसाब से देखा जाए तो अब दो ही संभावनाएं हैं. या तो एसआईटी मोदी और अन्य के खिलाफ एक बड़ी साजिश का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करेगी या फिर वह यह कहते हुए एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करेगी कि उसे गुजरात के मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसे सबूत नहीं मिले कि उनके खिलाफ मामला चलाया जा सके.

लेकिन दूसरी संभावना में भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया है कि दंगा पीड़ितों को निचली अदालत के सामने अपना पक्ष रखने का मौका मिले और इसके बाद यह तय करने का अधिकार न्यायाधीश के पास होगा कि मुकदमा चले या नहीं. और यदि पीड़ितों का पक्ष सुनने के बाद भी न्यायाधीश यह फैसला करता है कि मोदी के खिलाफ मुकदमा न चले तो भी उनके पास उससे ऊपर की अदालतों में गुहार लगाने के विकल्प मौजूद हैं. इसलिए थोड़ी भी समझ वाला व्यक्ति यह समझ सकता है कि इस मामले में मोदी का सफर अभी शुरू ही हुआ है. 12 सितंबर को मोदी ने एक खुला पत्र लिखा. इसमें उनका कहना था कि 2002 के बाद व्यक्तिगत रूप से उन पर एवं गुजरात सरकार पर लगने वाले झूठे आरोपों के कारण जो कलुषित वातावरण बन गया था उसका अंत हो गया है. लेकिन मोदी का यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है. उनकी मुश्किलों का अंत तब होता जब सर्वोच्च न्यायालय उन दंगों में मारे गए पूर्व कांग्रेस विधायक अहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी की याचिका खारिज कर देता और कहता कि इसके बाद आगे किसी तरह की न्यायिक कार्रवाई की जरूरत नहीं है. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.

मोदी को बेगुनाह बताने की बजाय शीर्ष अदालत ने एसआईटी से कहा है कि इस मामले में अपनी आखिरी रिपोर्ट वह अहमदाबाद की निचली अदालत को सौंपे और मामले की सुनवाई वहीं हो. शीर्ष अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि एसआईटी की पहली रिपोर्ट में जो विसंगतियां रह गई हैं उन्हें वह अपनी आखिरी रिपोर्ट तैयार करने से पहले सुधार ले.

गौरतलब है कि एसआईटी ने मोदी को पुलिस कंट्रोल रूम में अवैध रूप से अपने दो विवादास्पद मंत्रियों को भेजने, दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने, दंगों के दौरान लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को पुरस्कृत करने और सख्ती बरतने वाले अधिकारियों को दंडित करने, दंगों के संवेदनशील मामलों में विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले लोगों को सरकारी वकील बनाने, पुलिस कंट्रोल रूम के अहम रिकॉर्ड नष्ट करने और इसके अलावा अन्य दर्जन भर मोर्चों पर दोषी पाया है जो पूरी तरह से उनके सांप्रदायिक और पक्षपाती रवैये को दर्शाता है. इसके बावजूद एसआईटी का निष्कर्ष था कि मोदी के खिलाफ मामला चलाने का आधार नहीं बनता.

लेकिन इस साल मार्च में जब एमिकस क्यूरी ने एसआईटी रिपोर्ट की समीक्षा की तो उन्होंने अदालत को बताया कि एसआईटी की पड़ताल के तथ्य उसके निष्कर्षों से मेल नहीं खाते. इसके बाद न्यायालय ने एमिकस क्यूरी से कहा कि वे गुजरात जाएं और स्वतंत्र रूप से गवाहों से मिलकर एसआईटी द्वारा जुटाए गए तथ्यों का व्यापक आकलन करें.

इसी साल जुलाई में एमिकस क्यूरी ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी. माना जाता है कि इसमें उन्होंने एसआईटी से असहमति जताई है. उनका मतभेद इस बिंदु को लेकर है कि किसे मुकदमा चलाने लायक सबूत माना जा सकता है और किसे नहीं. अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने कहा है कि अपनी रिपोर्ट सौंपने से पहले एसआईटी चाहे तो एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट की प्रतियां हासिल कर सकती है. कानूनी जानकारों का मानना है कि इसका अर्थ यह है कि एसआईटी को न सिर्फ रामचंद्रन द्वारा उठाए गए बिंदुओं पर ध्यान देना होगा बल्कि अपने और एमिकस के निष्कर्षों में एक तालमेल भी बैठाना होगा.

आने वाले दिनों में एसआईटी और एमिकस क्यूरी दोनों के निष्कर्षों पर निचली अदालत में जोरदार कानूनी बहस होगी. बड़े नामों को कटघरे में खड़ा करती कई जानकारियां सार्वजनिक होकर सुर्खियां बनेंगी जो इस बड़े मुद्दे पर जोरदार कानूनी और संवैधानिक बहस को जन्म देंगी कि जान-बूझकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने वाले बड़ी कुर्सियों पर बैठे व्यक्तियों को दंडित कैसे किया जाए.
क्या यह सब कहीं से भी मोदी के लिए गुजरात दंगों के मामले का अंत और सात रेसकोर्स रोड की यात्रा की शुरुआत जैसा लगता है?

डाल से आगे पात की दौड़

ईश्वर विशाल ताकतवर सेना का साथ नहीं देता, वह सही समय पर सटीक वार करने वाले का साथ देता है : वॉल्तेयर

सोलहवीं सदी के मशहूर फ्रांसीसी दार्शनिक फ्रैंकस्वे मेरी ऑरवे उर्फ वॉल्तेयर ने ये शब्द इंग्लैंड और फ्रांस के बीच जारी सनातन संघर्ष पर कहे थे. ताकतवर भारतीय लोकतंत्र के विशाल शोरूम (लुटियन जोन) में पिछले दिनों अन्ना हजारे के समर्थन में जगह-जगह और समय-समय पर उमड़ा जनसमूह जाने-अनजाने ही वॉल्तेयर के एक-एक शब्द की बानगी बन गया. अक्टूबर, 2010 में फेसबुक के एक पन्ने से शुरू हुआ इंडिया अगेन्स्ट करप्शन (आईएसी) का जन लोकपाल आंदोलन अगस्त, 2011 में यदि सरकार के गले में हड्डी बनकर अटक गया तो इसके पीछे की वजहें वही थीं जिन्हें वॉल्तेयर ने जरूरी माना था यानी सही समय पर सटीक वार और एक बार नहीं बल्कि बार-बार.

एक तरफ आईएसी या टीम अन्ना थी जिसने शुरुआत से ही एक-एक कदम नाप-तौल कर आगे बढ़ाया तो दूसरी तरफ ताकतवर सरकार थी जो अपने लचर, टालू, और घमंडी रवैये के कारण कदम-कदम पर धूल फांकने को मजबूर हुई. पहले तो सरकार ने इस आंदोलन को तवज्जो देना ही उचित नहीं समझा, बाद में जब जनता पूरे देश में सड़कों पर उतर गई तब दबाव में आकर ‘ठीक है, चलो बात कर लेते हैं’ वाले अंदाज में बातचीत के लिए तैयार हुई. नतीजा, अप्रैल में सिविल सोसाइटी और केंद्र सरकार के नुमाइंदों को जोड़कर बनी लोकपाल की मसौदा समिति बेनतीजा रही. अन्ना हजारे ने एक बार फिर से 16 अगस्त से अनशन पर बैठने की घोषणा कर दी. वे अनशन पर बैठे और सरकार को उसके घुटनों पर लाने और काफी हद तक अपनी बात मनवाने में सफल भी रहे. इस बीच जनता के बीच लगातार यह संदेश गया कि सरकार किसी भी कीमत पर आंदोलन को खत्म करने का काम कर रही है और मजबूत लोकपाल विधेयक से मुंह चुरा रही है. टीम अन्ना द्वारा कदम-कदम पर उठाए गए कदमों ने सरकार को बगलें झांकने पर मजबूर किया.

अप्रैल में अन्ना के जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठने के बाद से ही इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की रणनीति बेहद आक्रामक, प्रोएक्टिव और नवीनता से लैस थी. मीडिया को कैसे संभालना है, सोशल मीडिया की ताकत का इस्तेमाल कैसे हो, देश भर में एक साथ धरना, गिरफ्तारी जलूस कैसे निकले, विरोध के नए-अनोखे तरीके कैसे अपनाए जाएं, जैसी तमाम बारीकियों पर बेहद गंभीरता के साथ काम करने वाली एक समर्पित टीम इस अभियान के पीछे खड़ी रही. इस टीम के सदस्य बेहद पेशेवर लोग थे. किसी ने अपनी मोटी कमाई वाली आईटी की नौकरी छोड़ी, तो कोई पत्रकारिता का अच्छा-खासा करियर दांव पर लगाकर अन्ना के साथ जा खड़ा हुआ. कांग्रेस पार्टी और सरकार के नुमाइंदे जब इस आंदोलन के पीछे विदेशी शक्तियों का हाथ होने के आरोप लगा रहे थे तब हमने अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी जैसे चर्चित नामों से इतर इस आंदोलन के पीछे की असली ताकत यानी टीम अन्ना और उसके काम काज के बारे में जानने की कोशिश की.

­टीम अन्ना दो कदम आगे

अन्ना की कोर टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं पूर्व पत्रकार मनीष सिसोदिया. इन्हीं की देखरेख में जन लोकपाल आंदोलन से जुड़ी मीडिया टीम ने काम किया. टीम के ही एक सदस्य के मुताबिक सोलह तारीख को अनशन शुरू होने से पहले प्रेस ब्रीफिंग से लेकर सभी लाइव कार्यक्रमों के लिए समय और दिन का बारीकी से ख्याल रखा गया. मसलन, समाचार चैनलों पर आने वाले दोपहर के सास-बहू कार्यक्रम के दौरान कोई भी कार्यक्रम आयोजित करने से परहेज किया गया. शाम को जब चैनलों का टीआरपी मीटर क्रिकेट को समर्पित होता है उस दौरान भी कोई लाइव कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता था. रविवार और छुट्टियों के दिन आयोजन से बचने की कोशिश रहती थी. इंडिया अगेन्स्ट करप्शन वेबसाइट के सूत्रधार रहे नवभारत टाइम्स के पूर्व पत्रकार शिवेंद्र सिंह चौहान अभियान की एक रणनीति के बारे में बताते हैं, ‘अप्रैल में जंतर-मंतर पर अन्ना का अनशन खत्म होने के बाद मसौदे पर विचार के लिए संयुक्त समिति का गठन हो गया, मीटिंग का सिलसिला शुरू हो गया. इन तीन महीनों के दौरान हमारा अभियान काफी ढीला रहा. तब हमारी रणनीति थी कि हर दिन कुछ न कुछ करते रहा जाए ताकि जनता के दिमाग से आंदोलन की बात निकलने न पाए. शहर-शहर में लोगों के साथ संवाद, उनके सुझाव, मीडिया के साथ लगातार बातचीत से आंदोलन हमेशा जीवंत बना रहा.’

इंटरनेट का जितना सफल इस्तेमाल इस बार हुआ है वह भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक हो सकता हैमीडिया प्रबंधन टीम की एक और महत्वपूर्ण योजना भाषाई मीडिया को लेकर रही है. टीम अन्ना के सदस्यों ने हरसंभव कोशिश करके हिंदी मीडिया को सबसे ज्यादा समय दिया. मीडिया से बातचीत के दौरान हिंदी में ही बातचीत को तवज्जो दी गई. टीम की स्पष्ट राय रही कि आम जनता की भाषा हिंदी है और टीवी चैनलों के माध्यम से जुड़े उनके अधिकतर समर्थक हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में ही खबरें देखते हैं. यह रणनीति बेहद कारगर भी रही. इसके उलट सरकार का रवैया बेहद ढुलमुल और थकाऊ था. मीडिया को सफलता से साधने की रणनीति के बारे में पूछने पर मनीष सिसोदिया का बहुत विनम्रता से कहना था, ‘हमारी रणनीति सिर्फ अन्ना और हमारी टीम की ईमानदारी पर टिकी है. यह अभियान ईमानदारी की बुनियाद पर खड़ा हुआ है और सच्चाई इसकी ताकत है.’ मीडिया को सफलतापूर्वक साधने की रणनीति टीम अन्ना की प्रेसवार्ताओं में भी दिखाई पड़ती है जहां ज्यादातर सदस्य हिंदी में ही बातचीत को तवज्जो देते हैं और स्वयं अन्ना भी समय-समय पर मीडिया के लोगों को उनके सहयोग के लिए मंच से बधाई देना नहीं भूलते.

मनीष सिसोदिया, अस्वथी मुरलीधरन, विभव कुमार जैसे पत्रकार अपने अनुभवों का पूरा इस्तेमाल मीडिया प्रबंधन में करते हैं. एसएमएस और ईमेल के जरिए देश भर के मीडिया समूहों को हर दिन की खबर पहुंचाना इसी टीम की जिम्मेदारी है. देश भर के किसी हिस्से में अगर आप विरोध करना चाहते हैं तो वहां किससे संपर्क करें, विरोध का स्वरूप कैसा होगा आदि सभी जानकारियां इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की वेबसाइट और प्रेस रिलीज के जरिए लोगों तक पहुंचा दी जाती हैं. सरकारी प्रेस रिलीज की अनुवादित और क्लिष्ट भाषा के विपरीत यदि आईएसी की कोई प्रेस रिलीज देखें तो इसमें स्पष्टता, सफाई, सरलता और पेशेवर नजरिया साफ दिखाई पड़ता है. आईएसी के नेशनल कोऑर्डिनेटर का काम संभाल रहे नीरज कुमार बताते हैं,’जैसे ही यहां किसी जलूस, प्रदर्शन या तरीके पर फैसला होता है हम पूरे देश में लोगों को इसकी जानकारी पहुंचा देते हैं ताकि एक साथ सही समन्वय के साथ  देश भर में यह अभियान संपन्न हो. इससे आंदोलन की विशालता और एकजुटता का अहसास होता है.’  

अन्ना हजारे का आंदोलन जिस विकराल रूप में दिखा उसकी जड़ें इंटरनेट के जमाने में ताकतवर हथियार बनकर उभरे सोशल मीडिया से भी जुड़ी हैं. अक्टूबर, 2010 में शिवेंद्र सिंह चौहान ने इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के नाम से फेसबुक पर एक पेज बनाया था और उसी समय अरविंद केजरीवाल प्रस्तावित सरकारी लोकपाल बिल का विरोध करने की योजना बना रहे थे. संयोग से हुआ यह मिलन आज जिस मुकाम पर खड़ा है उसे बताने की जरूरत नहीं है. शिवंेद्र बताते हैं, ‘मैंने साइट के अस्तित्व में आने के बाद से हर दिन इस पर 16 से 18 घंटे तक काम किया. हर दिन देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले हर छोटे-बड़े आंदोलन को इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से जोड़ने के लिए यह जरूरी था. लोगों को पल-पल की खबर इसके जरिए आसानी से मिल रही थी, जिसके चलते इंडिया अगेन्स्ट करप्शन का दायरा बहुत तेजी से देशव्यापी हो गया. आज आईएसी के 60 देशी और चार विदेशी चैप्टर हैं.’

आंदोलन से सहमति रखने वाले हर व्यक्ति ने अपनी दक्षता का लाभ टीम अन्ना को पहुंचायाइंटरनेट पर उपलब्ध लगभग सभी हथियारों का जितना सफल इस्तेमाल इस आंदोलन में हुआ है वह भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है. ट्विटर इसका एक नमूना है जहां इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से सहानुभूति रखने वाले सभी लोग पल-पल की खबरंे प्रसारित करते रहे. इनमें फिल्मी सितारों से लेकर किरण बेदी और श्री श्री रविशंकर जैसे लोग शामिल रहे. यह कहना गलत नहीं होगा कि अन्ना का आंदोलन जितना जंतर-मंतर, इंडिया गेट और रामलीला मैदान पर लड़ा जा रहा था उतना ही इंटरनेट की  दुनिया में भी लड़ा जाता रहा. 16 अगस्त को जब अन्ना के साथ पुलिस ने बाबा रामदेव वाली चाल चलने की कोशिश की तब इसकी ताकत का अंदाजा सभी को हुआ. तिहाड़ जेल में श्री श्री रविशंकर की अन्ना से मुलाकात की फोटो देखते ही देखते पूरे देश में फैल गई और भीड़ एक साथ तिहाड़ से लेकर इंडिया गेट तक सड़कों पर आ गई. किरण बेदी ने भी अपने मोबाइल फोन पर अन्ना का संदेश रिकॉर्ड करके उसे यूट्यूब पर डाल दिया, जिसे टीवी चैनलों ने घर-घर पहुंचा दिया.   

करेक्शन यानी सुधार टीम का एक और मंत्र है. अन्ना के सहयोगी ऐसे हर मौके पर तुरंत ही सुधार की पहल करते हैं जहां किसी तरह की चूक या आलोचना की गुंजाइश हो. मोदी की तारीफ पर जब विरोधियों ने अन्ना को आड़े हाथों लिया तब तुरंत ही टीम की तरफ से सफाई आई कि वे किसी भी सांप्रदायिक व्यक्ति का समर्थन नहीं करते. अन्ना ने सिर्फ मोदी के विकास कार्यों की तारीफ की है और वे मोदी के प्रशंसक कतई नहीं है. इसी प्रकार जंतर-मंतर पर अन्ना के अनशन के दौरान जब भारत माता की तस्वीर को लेकर आरोप लगे कि अन्ना आरएसएस का मुखौटा मात्र हैं तो हमेशा एक कदम आगे रहने वाली टीम अन्ना ने रामलीला मैदान में विरोधियों के इस बाउंसर पर छक्का दे मारा. यहां अन्ना के पीछे महात्मा गांधी चित्र में मौजूद थे. जब विरोधी आरोप से बाज नहीं आए तब इंडिया अगेन्स्ट करप्शन ने अन्ना के नैतिक बल का सहारा लिया. वही नैतिक बल जिसके जोर पर अन्ना रामलीला मैदान से आह्वान करते हैं, ‘मेरे पीछे आरएसएस का हाथ होने का आरोप लगाने वालों को मेंटल हॉस्पिटल भेजने की जरूरत है.’ सावधानी का आलम यह है कि राजू श्रीवास्तव, रघुवीर यादव, कैलाश खेर जैसे लोग मंच पर नजर आते हैं और वरुण गांधी जैसे लोग मंच के सामने दरी पर बैठते हैं.

नएपन ने इस पूरे आंदोलन को न सिर्फ जीवंत बनाया बल्कि सरकार को कदम दर कदम मुंह की खाने पर भी मजबूर किया. विरोध के नए तरीके ईजाद करने के लिए कोई अलग टीम नहीं है. लगभग 22 सदस्यों के कोर ग्रुप वाली टीम की हर सुबह होने वाली मीटिंग में ही उस दिन की योजनाओं की चर्चा होती है. मीडिया प्रबंधन कर रही अस्वथी मुरलीधरन के मुताबिक, ‘हर सदस्य विरोध के नए-नए विचार रखता है. जो आइडिया पसंद आ जाता है उस पर अमल करने की रणनीति बनती है. इसके बाद मीडिया, सोशल मीडिया और मंच से उसकी जानकारी सभी को दे दी जाती है. ‘जब सरकार इनकार की मुद्रा में थी तब अन्ना ने लोगों से थाली- चम्मच पीटते हुए इंडिया गेट तक मार्च करने के लिए कहा. यह मार्च की बात थी.   इसके बाद तीन महीनों तक आंदोलन को जीवंत बनाए रखने के लिए देश भर में पदयात्रा का निर्णय लिया गया. 15 अगस्त आते-आते टीम ने एक के बाद एक इतने सरप्राइज दिए कि सरकार भी सकते में आ गई. अन्ना हजारे चुपचाप राजघाट पर जा बैठे. पूरा फोकस प्रधानमंत्री के लालकिले से संबोधन की बजाय अन्ना के राजघाट अभियान पर आ गया. शाम आठ बजे से नौ बजे तक ब्लैक आउट का आह्वान कर दिया गया. शहर के कुछ इलाके पीक ऑवर में अंधेरे में डूब गए. मानो इतना ही काफी नहीं था. टीम ने विरोध का एक नया रास्ता खोज निकाला. लोग दिन में कारों और मोटरसाइकिलों की हेडलाइट जलाकर चलने लगे.

अब सरकार के लिए सहना मुश्किल हो गया था. अगली सुबह अन्ना को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया. सरकार के फिसलने और फिर लुढ़कते चले जाने की यह शुरुआत थी. टीम के सदस्यों को अन्ना की गिरफ्तारी का अंदेशा पहले से था, इसलिए उन्होंने पहले से ही अन्ना का एक बयान रिकॉर्ड करके रख लिया था. गिरफ्तारी के बाद इस रिकॉर्डिंग ने टीवी चैनलों के माध्यम से गजब ढा दिया. जनता ने सड़क पर उतर कर सरकार की नाक में दम कर दिया. अब सरकार ने फिर उल्टी चाल चली और अन्ना को रिहा करने का आदेश दे दिया. यहां एक बार फिर से टीम अन्ना ने तुरुप की चाल चली और सरकार चारों खाने ढेर हो गई. अन्ना ने तब तक तिहाड़ से बाहर नहीं आने की घोषणा कर दी जब तक उन्हें सार्वजनिक रूप से अनशन करने की इजाजत नहीं दी जाती.

अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन शुरू कर दिया. टीम की मीटिंग में फिर से एक विचार जन्मा. विचार था दिल्ली समेत देश भर में सांसदों के निवास स्थानों पर जाकर लोग धरना दें. यह विचार टीम को आमिर खान ने दिया. सांसदों को घेरने की रणनीति कामयाब रही. कुछ लोगों को अपनी जमीन दरकती नजर आई. महाराष्ट्र जहां से अन्ना आते हैं वहां उनके समर्थकों की संख्या विशाल है लिहाजा कोई आश्चर्य नहीं कि प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा, दत्ता मेघे और संजय निरूपम जैसे कांग्रेसियों ने अन्ना की लुकाठी उठा ली. निरूपम तो तीन दिन पहले ही अन्ना को संसद भवन में पानी पीकर कोस रहे थे लिहाजा उनके राजनीतिक उत्परिवर्तन पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है.

आंदोलन से सहमति रखने वाले हर व्यक्ति ने अपनी दक्षता का लाभ टीम अन्ना को पहुंचाया. सटीक चुनावी विश्लेषणों के लिए पहचाने जाने वाले योगेंद्र यादव ने टीम को जनमत संग्रह का विचार दिया. योजना काम कर गई. कपिल सिब्बल के चुनाव क्षेत्र में 85 फीसदी लोग जन लोकपाल के पक्ष में थे तो राहुल गांधी के अमेठी में जनता पांच कदम आगे यानी 90 फीसदी समर्थन कर रही थी.

पारदर्शिता एक और हथियार है. टीम अन्ना ने हर मौके और हालात की जानकारी लोगों के सामने रखी. इससे कभी भी उनके ऊपर भीतरखाने में लेन-देन या गुपचुप समझौता करने के आरोप नहीं लग सके. गौरतलब है कि बाबा रामदेव के आंदोलन में यह एक बड़ी समस्या रही थी. टीम ने कदम-कदम पर इस हथियार से सरकार को मात दी. 24 अगस्त की रात जब प्रणब मुखर्जी के साथ टीम अन्ना की बात टूट गई थी और रामलीला मैदान में पुलिस की गतिविधियां बढ़ गई थीं तब पारदर्शिता की इस रणनीति ने ही सरकार को बैकफुट पर ढकेला. अन्ना को रात साढ़े ग्यारह बजे उठाकर मंच पर लाया गया. इसके बाद वित्तमंत्री को रात के बारह बजे प्रेस से बात करके अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी. जब-जब सरकार ने अन्ना के खराब स्वास्थ्य के चलते अपनी स्थिति कठोर करनी चाही तब-तब टीम पूरी योजना के साथ अन्ना को मंच पर लेकर आती रही. इस काम में डॉक्टरों का भी बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया गया. अनशन के सातवें दिन जाहिर है अन्ना की तबीयत पर डॉक्टर चिंता जाहिर करते, इससे सरकार पर दबाव बढ़ा. मगर जैसे ही सरकार ने इसका फायदा उठाने का प्रयास किया अन्ना ने स्वयं मंच पर आकर घोषणा कर दी कि उनकी तबीयत ठीक है और उन्हें नौ दिन और कुछ नहीं होगा.       

उधर सरकार के संकट प्रबंधक और सरकार से सहानुभूति रखने वाले अंग्रेजीदां लोग टीवी चैनलों पर इसे मध्यवर्ग का आंदोलन बताकर नकारते फिर रहे थे. एक लिहाज से ऐसा था भी. आंदोलन में उमड़ रही भीड़ का मोटा हिस्सा ऐसा था जिसे सरकार की उन नीतियों से कोई कष्ट नहीं है जिनसे दांतेवाड़ा के आदिवासियों की जमीन कॉरपोरेट कंपनियों के नाम हो जाती है, बैठे बिठाए लोग भूमिहीन मजदूर बन जाते हैं, अंधाधुंध दस्तखत होने वाले एमओयू से उसे कोई दिक्कत नहीं है, दिक्कत है सिर्फ इस बात से कि उसे अपने काम के लिए जेब से रुपया ढीला करना पड़ता है. इस लिहाज से आंदोलन का दायरा बेहद सीमित रहा. अन्ना ने इसे आगे बढ़ाते हुए अब चुनाव सुधार से लेकर भूमि सुधार तक फैलाने का संकेत दिया है. लेकिन सिर्फ इसी वजह से उन लोगों को इतने बड़े आंदोलन को नकारने की छूट नहीं मिल सकती जिन्हें हजार-पांच सौ की भीड़ इकट्ठा करने के लिए भी मुर्गा-दारू बंटवाने की जरूरत पड़ती है. एक बात और, भारत में मध्यवर्ग भी बीस करोड़ हैं, क्या वोट के लिए किसी भी समय शीर्षासन करने को तैयार बैठे लोगों में इतनी बड़ी संख्या को नजरअंदाज करने का साहस है?

‘मजहब के नाम पर बने देश में इंसानों की जिंदगी दर्दनाक अंत की ओर बढ़ने लगती है’

किसी ने सच कहा है कि किसी भी शहर के पुराने हिस्सों में आपको वे इमारतें और वे लोग मिलेंगे जो उस शहर के इतिहास को अपनी आंखों के सामने से सिर्फ गुजरते हुए नहीं देखते बल्कि उसे अपने वजूद में घटता हुआ भी महसूस करते हैं. पुराने भोपाल की एक बेनूर-सी सड़क के किनारे बनी एक इमारत में मध्य प्रदेश के एक ऐसे ही मशहूर लेखक रहते हैं. पद्मश्री से सम्मानित इस लेखक ने मुसलिम समुदाय की मनोदशा पर विभाजन के प्रभाव और आजाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की जिंदगी में हो रहे बदलावों को अपने उपन्यासों में बारीकी से उतारा है. ‘सूखा बरगद’ और ‘बशारत मंजिल’ जैसे पांच प्रसिद्ध उपन्यासों, कई कहानी संग्रहों और नाटकों के लेखक मंजूर एहतेशाम ने प्रियंका दुबे से अपनी रचनाओं के साथ-साथ अपनी जिंदगी और लेखन को गहरे तक प्रभावित करने वाले सभी आयामों पर बात की

जिस दौर में भोपाल में आपका जन्म हुआ था उस वक्त यहां उपन्यास लिखने की कोई मजबूत रवायत नहीं थी. ऐसे में आपका साहित्य से परिचय कैसे हुआ?  आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

शुरुआत तो घर में आने वाली उर्दू पत्रिकाओं को पढ़ने से हुई. फिर स्कूल में चार्ल्स डिकेंस की ‘ओलिवर ट्विस्ट’ और ‘डेविड कापरफिल्ड’ से परिचय हुआ. पढ़ने में रुचि तो थी पर साहित्य से मेरा असली परियच मेरे एक दूर के रिश्तेदार नफीस भाई ने कराया. जब मैं छोटा था तब एक दफे वो कराची से भोपाल आए और उन्होंने मुझे दोस्तोवस्की की ‘ब्रदर्स कारमाजोव’ तोहफे में दी. बस वहीं से पढ़ने-लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैंने क्लासिकल के साथ-साथ पॉप्यूलर फिक्शन भी खूब पढ़ा. तभी इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया पर मैं कालेज में भी एक पत्रिका निकालने लगा. फिर मन नहीं लगा तो अंतिम वर्ष में मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और एक दोस्त की दवाइयों की दुकान में बैठने लगा. वहां भी लिखता रहता. फिर मेरे प्रिय दोस्त सत्येन मुझे मिले. उनके जरिए और भी कई लेखकों से मेरा परिचय हुआ. तभी मेरी पहली कहानी ‘रमजान में मौत’  भी प्रकाशित हुई. इस तरह जो लिखने-पढ़ने का सफर शुरू हुआ..वो आज तक जारी है.

आपके सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूखा बरगद’ का प्रोटोगोनिस्ट सोहेल क्या आपका ही प्रतिबिंब है?

जी हां, सोहेल काफी हद तक मेरे ही जैसा है. हालांकि ‘सूखा बरगद’ को लिखते दौरान मैंने खुद को अपने दो प्रमुख पात्रों – रशीदा और सोहेल में बांट दिया था. ये दोनों ही पात्र मेरे जैसे हैं और मेरे दिल के बहुत करीब हैं.

आपके ज्यादातर उपन्यासों और कहानियों के मुख्य पात्र किसी बड़ी सियासी घटना और उसके नतीजों का हिस्सा बन कर रह जाते हैं. आपके पात्र बड़े राजनीतिक परिवर्तनों का आम जिंदगी पर पड़े असर को लगातार सहते हैं. क्या आपको लगता है कि इंसान की जिंदगी उसके देश या शहर में हो रहे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से पूरी तरह बदल जाती है?

हां, वाकई चीजें बिलकुल बदल जाती हैं. जिस वक्त मैं ‘सूखा बरगद’ लिख रहा था उस वक्त मुझे लगा कि बदलते राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में सोहेल का कायांतरण होना ही चाहिए. इसके सिवा कोई विकल्प नहीं था. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि राजनीतिक पतन शायद हमें ऐसा करने पर मजबूर करता है. पर हां, सुहेल के चरित्र में आया परिवर्तन अंतिम नहीं था. वो शायद सिर्फ एक भटकाव था.

‘सूखा बरगद’ की रचना के पीछे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया जाना भी एक प्रेरणा रही है. आखिर भुट्टो की मौत में ऐसा क्या था जिसने आपको भीतर तक झकझोर दिया?

मेरी नजर में जुल्फिकार अली भुट्टो एक सोशलिस्ट थे और उन्हें मैंने हमेशा एक नायक की तरह देखा. पाकिस्तानी तानाशाहों से मैं हमेशा नफरत करता रहा पर भुट्टो की मौत ने सारी सीमाएं तोड़ दीं. पहली बार मैं निजी तौर पर इस व्यावहारिक निर्णय पर पहुंचा कि मजहब के नाम पर बने एक देश में इंसान की जिंदगी का यही दर्दनाक अंत है. मुझे लगा कि पाकिस्तान में इंसानों का भविष्य यही है. इसलिए ‘सूखा बरगद’ की पात्र रशीदा अंत तक पकिस्तान नहीं जाती बल्कि अपने लोगों के बीच हिंदुस्तान में रहना चाहती है. 

आप शुरुआत से ही अंग्रेजी लेखकों से काफी प्रभावित रहे हैं, फिर आपने हिंदी भाषा को ही अपने लेखन के माध्यम के तौर पर क्यों चुना? आज आप हिंदी लेखन के सामने किन बड़ी चुनौतियों को देखते हैं?

मैं हमेशा आम आदमी की भाषा में लिखकर ‘मास’ तक पहुंचना चाहता था, इसीलिए मैंने हिंदी को चुना. जहां तक हिंदी लेखन की चुनौतियों की बात है तो पैसे के हिसाब से आज भी हिंदी के लेखक के पास कुछ नहीं है. इसके पीछे मुख्य वजह प्रकाशक की बेईमानी है. आज भी हिंदी के लेखकों को रायल्टी नहीं मिलती और न ही उनकी किताबें पाठकों तक पहुंच पाती हैं.

आपके उपन्यासों में भोपाल हमेशा एक पात्र के तौर पर मौजूद रहा है. ऐसे में पिछले कई सालों में भोपाल में हुए बदलावों को आप कैसे देखते हैं?

भोपाल का विकास तो हुआ पर वो विकास कई मायनों में नकारात्मक भी रहा. पुरानी विरासत को तोड़कर नयी इमारतें बनाना कहीं से भी विकास नहीं. विरासत को सहेजना भी ज़रूरी है. इन मायनों में आज इस शहर को लेकर मेरे अंदर एक गहरा ‘सेंस ऑफ लॉस’ है.

आपके प्रिय लेखक कौन हैं ? जब आपने लिखना शुरू किया था, तब से आज के हिंदी लेखन परिदृश्य में आप क्या प्रमुख बदलाव महसूस करते हैं?

­­समकालीन लेखकों में मुझे ओरहान पामुक, कोएत्जे और अरुंधती राय खासा पसंद हैं. हिंदी में कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा मुझे बहुत भाते हैं. आज हिंदी लेखन में भाषा के स्तर पर सतर्कता बढ़ी है. किताबों का उत्पादन भी बेहतर हो गया है. पहचान भी धीरे-धीरे मिलने लगी है पर हां, आज भी हिंदी के लेखक को ठीक से पैसे नहीं मिलते. इस मामले में अभी हमें काफी लंबा सफर तय करना है.