‘नई लड़कियां अपने को किसी के इस्तेमाल की वस्तु न बनने दें’

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में जन्मी मेहरुन्निसा परवेज की कलम ने सतपुड़ा के जंगलों से ताकत पाई है. यही वजह है कि उनकी रचनाओं के केंद्र में महिला, आदिवासी और भारतीय मुसलमान रहे हैं. ‘कोजरा’, ‘समरांगण’ और ‘पासंग’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं. पद्मश्री के अलावा उन्हें कई अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है. मेहरुन्निसा की सृजन यात्रा पिछले पांच दशक से जारी है. पिछले 13 वर्षों से वे एक त्रैमासिक सांस्कृतिक पत्रिका ‘समरलोक’ का भी संपादन कर रही हैं. अपने साहित्य जगत में आने की वजह, अपनी कृतियों, उनके पात्रों और कई अन्य मुद्दों पर उन्होंने प्रियंका दुबे से बातचीत की. 

 

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्य प्रदेश के बालाघाट जैसे पिछड़े और आदिवासी बहुल क्षेत्र की रही है. साहित्य से कोसों दूर एक पारंपरिक मुसलमान परिवार में पलते और बड़े होते हुए आपका झुकाव साहित्य की ओर कैसे हो गया? 

 सन 1956 में मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया और मेरे पिता का तबादला बस्तर हो गया. वे स्थानीय अदालत में मजिस्ट्रेट हो गए. फिर अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई और उनके हाथों से लिखने की ताकत चली गई. हलांकि उनके पास स्टेनो था, पर अपने महत्वपूर्ण फैसले वे खुद ही लिखते थे. इसलिए बीमारी के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर मैं बोलूं तो क्या सुनकर तुम फैसले लिख सकोगी? मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी. फिर क्या था, वे कहते जाते और मैं लिखती जाती. यह सिलसिला तकरीबन दो साल तक चला. मुझे लगता है कि  दो साल की जो ट्रेनिंग मुझे अनजाने में मिल गई वह मेरे पूरे जीवन की नींव है क्योंकि उनके फैसले लिखते-लिखते ही मैंने सही-गलत, न्याय-अन्याय को बारीकी से समझा. मेरे मन में ‘न्याय क्या होता है और क्यों जरूरी है’ यह साफ होने लगा. लिखने का रुझान यहीं से पैदा हुआ. मैं कहानियां लिखने लगी. जाहिर है, शुरुआत में मैं छिप-छिपाकर स्कूल की कॉपियों के पीछे लिखती और अपनी सहेलियों को पढ़ाती रही. एक दिन मेरी एक सहेली ने मेरी कहानी अपने पिता को पढ़वाई तो उन्होंने मेरी हौसला अफजाई की. उन्होंने ‘धर्मयुग’ की एक प्रति मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा कि यहां अपनी कहानी भेज दो. मैं ‘धर्मयुग’ अपने बस्ते में छिपाकर घर ले आई. और बस इसी तरह टुकड़ों में, मेरा साहित्य से पहला परिचय हुआ और लिखने का सिलसिला शुरू हो गया.  

आपकी शुरुआती दो कहानियां ‘जंगली हिरणी’ धर्मवीर भारती की साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में और ‘पांचवीं कब्र’ कमलेश्वर की मासिक पत्रिका ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुईं. मात्र 19 वर्ष की उम्र में देश की तत्कालीन सर्वाधिक प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित किए जाने पर आपको अपने परिवार और जिले में कैसी प्रतिक्रिया मिली?  अपनी शुरुआती रचनाओं के लिए कब्रिस्तान और आदिवासी जैसे विषय चुनने के पीछे क्या कहानी रही? 

पत्रिकाओं की प्रति एक चिट्ठी और चेक (पारिश्रमिक) के साथ घर के पते पर पहुंची. पैकेट खोलने के बाद मुझे पता चला कि मेरी कहानियां छपी हैं. शुरू में तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. कमलेश्वर जी ने मेरी कहानी पर यह टिप्पणी भी लगाई थी कि नई लड़की की कहानी को हमने सैकड़ों कहानियों में से छांट कर चुना है. मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि मैं भी कुछ कर सकती हूं. पर घरवालों का डर सताने लगा. बस्तर में उन दिनों इन पत्रिकाओं की कुछ ही प्रतियां पहुंचती थीं. मैं बस यही दुआ करती रहती थी कि शहर का कोई परिचित मेरी कहानी न पढ़ ले और पिता जी को पता न चल जाए. मैं एक पारंपरिक मुसलिम परिवार से थी जहां कहानी, कविता लिखने को बहुत बुरा माना जाता था. और किसी लड़की के लिखने को तो और भी बुरा माना जाता था. खैर, मैं सातवें महीने की जन्मी थी इसलिए अक्सर बीमार रहती थी. तब हमारे यहां मौत की खबर देने एक ‘तकियादार’ आता था जो सबको मोहल्ले में हुई मृत्यु की सूचना जोर-जोर से आवाजें लगाकर देता था. मैं उस तकियादार से बहुत डरती थी. शायद इसलिए मैंने तकियादार और कब्रिस्तान पर पहली कहानी लिखी. आदिवासियों के बीच में पली-बढ़ी इसलिए मेरी कहानी ‘जंगली हिरणी’ की नायिका भी एक आदिवासी लड़की ही थी. 

‘पासंग’ की पृष्ठभूमि जगदलपुर और रायपुर के आदिवासी अंचल की है और उपन्यास के पन्नों में  आंचलिकता के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है. आम तौर पर लेखकों की शुरुआती रचनाओं में उनकी पृष्ठभूमि का असर दिखाई देता है, पर आपकी रचनाओं में ऐसा नहीं है. हां, आपकी पृष्ठभूमि ‘पासंग’ में दिखती है लेकिन यह उपन्यास आपके रचनात्मक जीवन के चौथे दशक में आया है. क्या वजह रही?  आज आपको ‘पासंग’ कितना सार्थक महसूस होता है? 

‘पासंग’ मैंने बहुत बाद में लिखा और शायद यही वजह है कि इसमें मैं महिला होने के अलग-अलग मायनों को एक बड़े कैनवास पर गंभीरता के साथ दर्ज करने की कोशिश कर पाई. ‘पासंग’ लिखने से पहले मैंने जीवन के तमाम रंग देख लिए. इस दरम्यान मैंने अपने बेटे समर को खो दिया. उसका आकस्मिक देहांत हो गया. मुझे हमेशा से लगता रहा है कि महिलाओं की, खासकर पारंपरिक मुसलिम परिवारों की महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है. हालांकि पैसे वाले लोग लड़कियों को पढ़ा-लिखा देते हैं, पर उन्हें आत्मनिर्भर नहीं होने देना चाहते. गरीब तबके की बात छोड़ भी दें. आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में भी लड़कियों को शिक्षा, प्रेम, अपनी मर्जी से शादी करने की या अपना कैरियर चुनने की बिल्कुल आजादी नहीं है. ज्यादातर मामलों में उन्हें पढ़ाया भी इसलिए जा रहा है ताकि शादी के लिए प्रोफाइल मजबूत किया जा सके. असल में हमारी राजनीति और धर्म पारंपरिक समाज को बढ़ावा देते हैं जहां औरतों को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाए और यही बात ‘पासंग’ को प्रासंगिक बनाती है. यह मेरे लिए इस कारण से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मैंने खुद अपने घर में मेरी बेटी सिमाला के जन्म पर अपने परिवारवालों को रोते हुए देखा है. 

क्या आपने अपने उपन्यास के पात्रों कुलसुम, बानो आपा और कानी के बीच खुद को बांट दिया है? इस लिहाज से क्या पासंग को आपका बायोग्राफिकल उपन्यास माना जा सकता है? 

मेरे ख्याल से ‘पासंग’ के साथ-साथ ‘समरांगण’ में भी मेरे जीवन का काफी हिस्सा है. इन दोनों उपन्यासों के पात्र मेरे अपने जीवन से ही निकलते हैं और मेरे अस्तित्व की उठती-गिरती दीवारों के गवाह रहे हैं. समर के गुजर जाने के बाद मैं बहुत टूट गई थी. ‘समरांगण’ और ‘पासंग’ मैंने अपने सबसे मुश्किल दिनों में लिखे हैं. उन्हीं दिनों हमने ‘समरलोक’ नामक एक सांस्कृतिक पत्रिका भी शुरू की और सच तो यह है कि लेखन ने मुझे मरने से बचा लिया. प्रसव की तरह ही बच्चे की मृत्यु पर भी पुरुष दूर ही खड़ा रहता है और मां को अपने ऊपर लगे मनहूसियत के तमगे और बच्चे के देहांत की पीड़ा को एक साथ अकेले सहना होता है. इन हालात में काम ने ही मुझे जिंदा रखा और इसलिए मैंने अपने लेखन में उन सभी सवालों के जवाब को टटोलने की कोशिश की है जो मुझे जीने नहीं दे रहे थे.  

आपकी रचनाओं में आदिवासी संस्कृति का प्रभाव साफ दिखता है. आप बहुपरतीय लिखने के बजाय सहज लिखती हैं. क्या यह आदिवासियों की सहज संस्कृति से प्रभावित है या फिर आपको इस शैली में ही लिखना पसंद है? 

दरअसल मैं आदिवासियों के बीच ही बड़ी हुई और उनकी जीवन शैली हमेशा से मेरे दिल के बहुत करीब रही. एडविन ने आदिवासियों को मौज-मस्ती के अंदाज में रहते देख उन्हें ‘काले अंग्रेज’ कहा था और उन्हें देखकर मुझे सरलता की अकाट्य ताकत का एहसास हुआ. मैंने पाया कि आदिवासी समाज के लोग अंदर से बहुत मजबूत हैं. वे अभावों में भी जिंदगी से जमकर लड़ते हैं. वहीं दूसरी ओर नक्सल आंदोलन खड़ा करके अपना स्पष्ट विरोध भी दर्ज कराते हैं. शायद इसी प्रभाव की वजह से मेरी लेखन शैली खुद ही सरल हो गई. 

‘घूरे का बिरवा’ में आप विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति के मानस का बारीक चित्रण तो करती हैं पर कहानी को कोई दिशा नहीं देतीं. आपकी ज्यादातर कहानियों में सृजनात्मक निष्कर्ष भी नहीं होते. ऐसा क्यों है? 

इस बारे में मुझे लगता है कि कुछ अंकुरित होने के बाद मेरे पात्र खुद मुझे चलाने लगते हैं और मैं पूरी कोशिश करती हूं कि कम से कम कहानी में तो उन्हें उनके हक की जमीन और आसमान मिल जाए. मैं कहानी को जबरदस्ती नहीं खींचना चाहती. एक सीमा के बाद आपको महसूस हो जाता है कि पात्र अब आपके साथ आगे नहीं चलना चाहता और बस यही वह बिंदु है जिसे पहचान कर किसी भी कहानीकार को अपनी कहानी रोक देनी चाहिए. पर ज्यादातर मामलों में कथाकार इसी बिंदु को भांप नहीं पाते और किसी आदर्श अंत की तलाश में कहानी को आगे बढ़ाते हैं. साथ ही ओपन-एंडेड कहानियां पाठकों की सोच का भी विस्तार करती हैं. 

कहानीकारों की नई पौध के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको लगता है कि युवा कहानीकार कहानी की उस पुरानी परंपरा के साथ न्याय कर पा रहे हैं? 

अपनी पत्रिका ‘समरलोक’ में मैं हमेशा नए लेखकों को मौका देती हूं. और इसके संपादन के दौरान ही मेरा नए लेखकों से संपर्क हुआ. मुझे लगता है कि वे हमारे जैसे कभी नहीं हो सकते, होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे सब अपनी तरह के हैं. एकदम नए लोग अपनी नई भाषा और ऊर्जा के साथ. कुछ लेखकों में तो बहुत संभावना भी है. बस उनमें धीरज की थोड़ी कमी है. सभी अपनी पहली कहानी से ही प्रसिद्ध हो जाना चाहते हैं. और साथ ही इन दिनों पुरस्कारों की होड़ भी बढ़ी है. मुझे बस यही लगता है कि अगर हमारे नए लेखक थोड़े धीरज के साथ काम करें तो ज्यादा गहरी कहानियां लिख पाएंगे और जाहिर है कि उन्हें लंबे समय तक याद रखा जा सकेगा.  

हिंदी में महिला लेखकों की स्थिति पर आप कुछ कहना चाहेंगी? कुछ साल पहले हिंदी साहित्य की लेखिकाओं को लेकर अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति वीएन राय के विवादास्पद बयानों के अलावा भी कई बार हिंदी की लेखिकाओं को ‘रबर-स्टांप रायटर्स’ कहकर नकारा गया है. मन्नू भंडारी, शिवानी, मैत्रेयी पुष्पा और गगन गिल जैसे कई सशक्त हस्ताक्षरों के होते हुए भी क्या आपको लगता है कि आज भी हिंदी में महिला साहित्यकारों को अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए जूझना पड़ रहा है?  

कुलपति वीएन राय के उस विवादास्पद बयान की देश भर में भर्त्सना हुई और की भी जानी चाहिए. दूसरी बात यह कि आपकी पत्रिका ने जो ‘साहित्य के सामंतों’ पर एक कवर छापा था, उसे भी याद कीजिए. दरअसल नई लेखिकाओं को प्रमोट करना, उनके साथ बैठना, उनका शोषण करना और फिर उन्हीं की बुराई करके अपना पौरुष दिखाना ऐसे ही कुछ साहित्यिक सामंतों का प्रिय शगल है. हमारे जमाने में तो बहुत अच्छे संपादक हुआ करते थे. मैंने धर्मवीर भारती और कमलेश्वर जैसे कई दिग्गज संपादकों के साथ काम किया और उन्होंने मुझे जो मागदर्शन और प्रोत्साहन दिया उससे मुझे एक लेखक के रूप में खुद को गढ़ने में बड़ी मदद मिली. पर आज माहौल बदल गया है. संपादक नए लेखकों को अगर प्रमोट भी करते हैं तो सिर्फ अपनी नई लॉबी तैयार करने के लिए. अब यह नई लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को किसी के इस्तेमाल की वस्तु न बनने दें. सतर्क रहें और अपने काम से ही सबको जवाब दें. और जहां तक गुणवत्ता का सवाल है तो मुझे हिंदी की महिला साहित्यकारों पर नाज है. जिन मुश्किल परिस्थितियों से ये लेखिकाएं निकल कर आई हैं उसके मद्देनजर सभी का काम बहुत अच्छा है. और मुझे विश्वास है कि हम सबकी बनाई हुई इस जमीन पर नई पीढ़ी की युवा लेखिकाएं मौलिक सृजन करके नए मानक स्थापित करेंगी.