अप्रासंगिक आडवाणी !

बहुत कम लोगों को पता है कि एक बार भी संसदीय चुनाव नहीं जीतने वाले नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाने में जितनी भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की थी उतनी ही लालकृष्ण आडवाणी की थी. आम धारणा है कि गडकरी मोहन भागवत के नुमाइंदे हैं और संघ प्रमुख ने राष्ट्रीय राजनीति का कोई अनुभव न होने के बावजूद उन्हें अध्यक्ष इसलिए बनवाया ताकि वे अपने हिसाब से भाजपा को चला सकें. सच्चाई यह है कि गडकरी के नाम पर अंतिम मुहर आडवाणी ने ही लगाई थी.

2009 के आम चुनावों में मुंह की खाने के बाद जब भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात चली तो कई नाम सामने आए. उस वक्त मोहन भागवत नए-नए संघ प्रमुख बने थे. भाजपा में तब चली सियासी हलचल के बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद कहते हैं, ‘2009 के नतीजों के बाद दिल्ली से लेकर नागपुर तक बैठकों का दौर जमकर चला. अध्यक्ष पद के लिए कई नाम उभरे. अरुण जेतली और सुषमा स्वराज की दावेदारी मजबूत थी लेकिन इन दोनों को संसद के दोनों सदनों का नेता बनाने का फैसला हुआ. इसके बाद जो दिल्ली के नाम थे उन पर नागपुर सहमत नहीं था. इसी बीच गोवा के मनोहर पारिकर और महाराष्ट्र के नितिन गडकरी का नाम चला. अंततः चार लोगों की सूची के साथ संघ के कुछ अधिकारी आडवाणी से मिले जिन्होंने गडकरी के नाम पर सहमति जता दी.’

यह बात 2009 की है और अभी 2012 चल रहा है. इन तीन सालों में भाजपा के अंदर की स्थितियां काफी बदल गई हैं. यह बात तब बिल्कुल साफ हो जाती है जब 2009 में गडकरी को अध्यक्ष बनाने के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगाने वाले आडवाणी 2012 में गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने का विरोध करते हैं. जब पार्टी मंच पर पहली बार गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने की बात चली तो सबसे पहले आडवाणी ने ही इसका विरोध यह कहते हुए किया कि किसी एक व्यक्ति के लिए पार्टी संविधान में परिवर्तन ठीक नहीं है. भाजपा के संविधान में पार्टी अध्यक्ष को तीन साल का एक ही कार्यकाल देने का प्रावधान है, लेकिन गडकरी को कार्यकाल विस्तार देने के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन का प्रस्ताव लाया गया है. 

जब आडवाणी पार्टी संविधान का हवाला देकर गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने का विरोध कर रहे थे तो उन्हें सीधा समर्थन जिन कुछ नेताओं से मिला उनमें लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज प्रमुख हैं. आडवाणी के बेहद करीब माने जाने वाले और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेतली ने इस पर शुरुआत में अपना रुख साफ नहीं किया. आडवाणी और सुषमा को उम्मीद थी कि गडकरी के कार्यकाल विस्तार को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनका विरोध करेंगे. मोदी की आपत्ति के बावजूद जिस तरह से कुशल संगठनकर्ता माने जाने वाले संजय जोशी की वापसी गडकरी ने कराई थी उससे गुजरात के मुख्यमंत्री खासे नाराज थे. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में मोदी चुनाव प्रचार करने तक नहीं गए थे.

बताया जाता है कि हाल ही में कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का जो फैसला लिया गया उसमें भी लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज की सहमति नहीं थी 

लेकिन यहीं पर राष्ट्रीय राजनीति में नौसिखिया माने जाने वाले गडकरी ने ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला कि एक ही झटके में उनके अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया. पहले जब मोदी ने दबाव बनाया तो गडकरी ने संजय जोशी को हटाने से साफ मना किया. लेकिन मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से पहले नरेंद्र मोदी की सहमति से गुजरात के नेताओं ने कार्यकारिणी की बैठक से इस्तीफे की धमकी दे दी. इसका असर यह हुआ कि जोशी को कार्यकारिणी से इस्तीफा देकर मुंबई से वापस दिल्ली लौटना पड़ा. इसके बाद मुंबई में यह साफ हो गया कि गडकरी को बतौर अध्यक्ष दूसरा कार्यकाल मिलेगा. इसका मतलब कुछ लोगों ने यह लगाया कि गडकरी ने दुबारा अध्यक्ष बनने के लिए अपने ही फैसले को पलट दिया. इसके बाद मुंबई की रैली में हिस्सा लिए बगैर आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों वापस आ गए. वापस लौटने का फैसला आडवाणी का था और उनका साथ दिया सुषमा स्वराज ने. दोनों के वापस लौटने को लेकर पार्टी ने जो तर्क दिया वह किसी के गले नहीं उतरा. पार्टी के एक नेता बताते हैं कि आडवाणी को यह उम्मीद थी कि जेतली भी रैली छोड़कर आएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

मुंबई कार्यकारिणी ने पार्टी के नए समीकरणों का स्पष्ट संकेत दे दिया था. यह बात साफ हो गई थी कि आडवाणी-सुषमा-जेतली की तिकड़ी टूट गई है और जेतली गडकरी के साथ खड़े हो गए हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ‘मोदी और गडकरी के संबंध इतने खराब हो गए थे कि दोनों ने मिलना तो दूर एक-दूसरे का फोन तक उठाना बंद कर दिया था. दोनों के सारे गिले-शिकवे मुंबई में नहीं मिटे. दोनों के बीच समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई एक बड़े कॉरपोरेट घराने ने. यह वही कॉरपोरेट घराना है जिसने भाजपा शासित कई राज्यों में भारी निवेश किया है. आज की तारीख में मोदी और गडकरी में रणनीतिक सहमति है और इसमें सबसे ज्यादा उपेक्षा आडवाणी और सुषमा की हो रही है.’

इन दो नेताओं की उपेक्षा वाली घटनाओं को जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर तीन साल में ऐसा क्या हुआ कि कभी गडकरी को अध्यक्ष बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले आडवाणी गडकरी का विरोध करने लगे. पार्टी के कुछ नेताओं से बातचीत करने पर मोटे तौर पर तीन ऐसी वजहें सामने आती हैं जिनसे गडकरी और आडवाणी का मतभेद स्पष्ट होता है. इसकी शुरुआत हुई आडवाणी की जनचेतना यात्रा की घोषणा से. भाजपा के लोग ही बताते हैं कि यात्रा की घोषणा से पहले आडवाणी ने इसकी चर्चा पार्टी में औपचारिक तौर पर नहीं की थी. यात्रा पर निकलने की इच्छा आडवाणी ने उन लोगों से जरूर व्यक्त की थी जो उस दौरान उनसे मिल-जुल रहे थे. इन लोगों में नेताओं के अलावा कुछ पत्रकार भी शामिल हैं. बगैर चर्चा किए यात्रा की घोषणा करना पार्टी अध्यक्ष गडकरी को ठीक नहीं लगा. आडवाणी की जनचेतना यात्रा में गडकरी लगे तो जरूर लेकिन मतभेद की शुरुआत हो गई थी.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान यह मतभेद बढ़ गया. इस दौरान गडकरी की सहमति से जिस तरह से बहुजन समाज पार्टी के दागी नेताओं को भाजपा में शामिल किया गया उससे आडवाणी काफी नाराज हुए. आडवाणी को लगता था कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह का माहौल अपनी जनचेतना यात्रा के जरिए बनाया है उसका प्रभाव इन दागियों को शामिल करते ही खत्म हो जाएगा. जब काफी हो-हल्ला मचा तो कुशवाहा की सदस्यता स्थगित कर दी गई लेकिन बादशाह सिंह, अवधेश वर्मा और दद्दू मिश्रा जैसे दागी माने जाने वाले नेता भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े. इसके बावजूद भाजपा की सीटें बढ़ने के बजाय घट ही गईं और इसने आडवाणी को यह मौका मुहैया करा दिया कि वे गडकरी के कार्यकाल विस्तार का विरोध करें. 

गडकरी से आडवाणी की नाराजगी की वजह राज्यसभा टिकटों का वितरण भी है. इनमें भी सबसे ज्यादा दिक्कत हुई अंशुमान मिश्रा को झारखंड से राज्यसभा टिकट देने से. मिश्रा को टिकट देने के लिए गडकरी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में पार्टी के उपनेता एसएस आहलूवालिया का टिकट काटने से भी परहेज नहीं किया. इसके बाद सबसे पहले यशवंत सिन्हा ने और बाद में कुछ अन्य नेताओं ने मिश्रा का विरोध किया तब जाकर कहीं उनकी उम्मीदवारी को गडकरी ने वापस लिया. इसके बाद मिश्रा ने आडवाणी को खुला पत्र लिखकर काफी भला-बुरा कहा और उन्हें संन्यास ले लेने तक की सलाह तक दे डाली. मिश्रा ने पार्टी की बुरी हालत का दोष भी आडवाणी के मत्थे मढ़ा. आडवाणी और सुषमा समेत पार्टी के कुछ अन्य नेताओं ने इसे गडकरी कैंप का आडवाणी पर हल्ला माना क्योंकि गडकरी से मिश्रा की नजदीकी भाजपा के किसी नेता से छिपी हुई नहीं थी. पार्टी के कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि गडकरी और मोदी के बीच समझौता कराने में अंशुमान मिश्रा की भी एक प्रमुख भूमिका थी.

आडवाणी और सुषमा दोनों ही कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन नहीं चाहते थे. वे सदानंद गौड़ा को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में थे

इन तीन घटनाओं ने आडवाणी को गडकरी के खिलाफ करने में बड़ी भूमिका निभाई और इन्हीं वजहों से गडकरी के कार्यकाल विस्तार का आडवाणी ने हर स्तर पर विरोध किया. पार्टी फोरम पर जब आडवाणी की नहीं चली तो उन्होंने मुंबई कार्यकारिणी से लौटकर ब्लॉग लिखकर अपनी नाखुशी जाहिर की. उनके शब्द थे, ‘पार्टी में अभी उत्साह का माहौल नहीं है. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से बसपा के मंत्रियों का स्वागत पार्टी ने किया और जो झारखंड व कर्नाटक में हुआ उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी का अभियान कमजोर पड़ा है.’ उन्होंने सुषमा स्वराज और अरुण जेतली की तारीफ करने के बाद लिखा, ‘मैंने कोर समिति की बैठक में कहा था कि आज अगर लोग संप्रग सरकार से नाराज हैं तो हमने भी उन्हें निराश किया है. अभी की स्थिति में आत्ममंथन करने की जरूरत है.’ भाजपा में और पार्टी से बाहर आडवाणी की इस ब्लॉग पोस्ट को नितिन गडकरी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल की तरह देखा गया.

इस बीच पार्टी के फैसलों में आडवाणी की उपेक्षा का सिलसिला चलता रहा और उनका साथ देने की वजह से सुषमा स्वराज भी अलग-थलग पड़ती गईं. राष्ट्रपति चुनाव से संबंधित फैसलों में भी आडवाणी-सुषमा और गडकरी में मतभेद रहा. कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के फर्जी दस्तखत का जो मामला भाजपा ने उठाया उसे लेकर भी दोनों पक्षों की अलग-अलग राय रही. पार्टी के एक नेता के मुताबिक आडवाणी के साथ खड़ी सुषमा जहां इस मामले को आगे बढ़ाने के पक्ष में थीं वहीं पार्टी के दूसरे नेता इसे कोई मुद्दा ही नहीं मान रहे थे. इस मामले पर भाजपा की हुई फजीहत ने भी पार्टी में मतभेद को और बढ़ाने का काम किया.

कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का जो फैसला लिया गया उसमें भी आडवाणी और सुषमा की सहमति नहीं थी. पार्टी नेताओं के मुताबिक आडवाणी और सुषमा यह चाहते ही नहीं थे कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन हो. वे सदानंद गौड़ा को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में थे. आडवाणी और सुषमा दोनों की यह राय थी कि अगर किसी वजह से कर्नाटक में सरकार चलाने में बहुत अधिक दिक्कत आती है तो विधानसभा को भंग करके नए सिरे से चुनाव करवाए जाने चाहिए. लेकिन गडकरी तय समय से तकरीबन साल भर पहले चुनाव करवाने के पक्ष में नहीं थे और किसी दक्षिण भारतीय राज्य में पहली दफा कमल खिलाने वाले बीएस येदियुरप्पा का दबाव बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में जेतली और राजनाथ सिंह को साथ लेकर गडकरी ने गौड़ा की जगह येदियुरप्पा के खास माने जाने वाले जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया.

कर्नाटक के ही एक भाजपा सांसद कहते हैं कि इस फैसले से पहले तक कर्नाटक से संबंधित मामलों में सुषमा स्वराज की सक्रिय भागीदारी होती थी और उनकी राय को पार्टी में बड़ा महत्व दिया जाता था. इसकी वजह यह थी कि जब कोई भी सोनिया गांधी के खिलाफ बेल्लारी से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था तो सुषमा स्वराज वहां यह जानते हुए भी जाकर चुनाव लड़ी थीं कि जीतना बेहद मुश्किल है. इसके बाद रेड्डी बंधुओं से सुषमा स्वराज की नजदीकी बढ़ी और राज्य की राजनीति में उन्हें दिल्ली से सुषमा स्वराज का संरक्षण मिलता रहा. लेकिन इस बार सुषमा की राय को कोई महत्व नहीं दिया गया. पार्टी नेताओं का मानना है कि आडवाणी का साथ देने की कीमत सुषमा स्वराज को चुकानी पड़ रही है.

2014 में देश की सबसे पुरानी पार्टी को बेदखल करके सत्ता का सपना संजोने वाली भाजपा के दो बड़े नेताओं के पार्टी में हाशिये पर चले जाने को राजनीतिक जानकार पार्टी की संभावनाओं से जोड़कर देख रहे हैं. उनका मानना है कि आपसी मतभेद की कीमत भाजपा ने पहले भी चुनावों में चुकाई है और समय रहते अगर पार्टी नहीं सुधरी तो आने वाले चुनावों में भी ऐसा हो सकता है. लोगों के बीच यह  धारणा है कि जब तक औपचारिक तौर पर भाजपा किसी नेता को अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित करती तब तक आडवाणी पार्टी के सबसे कद्दावर नेता हैं. वहीं दूसरी तरफ सुषमा स्वराज लोकसभा में पार्टी की नेता हैं और इस नाते उनका कद दूसरे नेताओं से बड़ा हो जाता है.