‘हम जंगलों में पिकनिक नहीं मना रहे’

कुछ सामाजिक कार्यकर्ता कह रहे हैं कि बीजापुर मुठभेड़ आजादी के बाद से अब तक का सबसे वीभत्स नरसंहार है.

मेरे मन में सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए बहुत सम्मान है. मगर आवेश में आकर इस तरह के अपमानजनक आरोप लगाना गलत है. वे अपने स्तर पर जांच कर लें कि यह घटना कैसे और क्यों हुई. और यह भी कि इससे कैसे बचा जा सकता है. उन्हें ऐसा करने से किसने रोका है?

ऑपरेशन के दौरान क्या हुआ था?

सीआरपीएफ की टुकड़ियों को सिलगेर में इकट्ठा होना था. आप उस जगह जाकर देखें. भारत की सुरक्षा एजेंसियों के हिसाब से देखा जाए तो यह जगह नक्शे पर कहीं है ही नहीं. टुकड़ियां तीन दिशाओं से उस इलाके की तरफ बढ़ रही थीं. ये सभी सावधानी से चुनी गई टीमें थीं जिनका नेतृत्व बहुत अच्छे कमांडर कर रहे थे. इस संयुक्त अभियान में राज्य प्रशासन की भी हिस्सेदारी थी. इस इलाके की तरफ बढ़ते हुए एक टीम को सारकेगुड़ा में कुछ शोर सुनाई दिया. यह शोर एक भीड़ का था. सीआरपीएफ की टुकड़ी रुक गई. मगर इससे पहले कि वह किसी चीज की पुष्टि कर पाती भीड़ में से कोई फायरिंग करने लगा जिसमें कुछ जवान घायल हो गए. ऐसे में टीम के लिए यह जानना मुश्किल था कि वे नक्सली हैं या निर्दोष गांववाले. गोलियां किसने चलाईं,  इसके लिए विस्तृत जांच की जरूरत है, लेकिन यह कहना गलत है कि यह लापरवाह तरीके से जान-बूझकर किया गया हमला था. 

क्या इस बात की पुष्टि हो गई है कि मारे गए लोगों में से कितने नक्सली थे?

चार या पांच ऐसे हैं जो नक्सली थे. इनमें मड़काम सुरेश नाम का एक व्यक्ति भी है जो 2007 में दंतेवाड़ा जेल पर हुए हमले में शामिल था. जिसे मीडिया में एक स्कूली छात्र बताया गया, वह एक अलग सुरेश था. यह जानकारी मीडिया में स्पष्ट रूप से नहीं आई. मेरा सवाल यह है कि इस तरह की रिपोर्टिंग क्यों की गई जिसमें पूरी जानकारी नहीं थी. जब आप इसे एक हाई प्रोफाइल मामले की तरह पेश करते हैं तो सब लोगों का ध्यान उस स्कूली छात्र पर केंद्रित रहता है. वे भूल चुके हैं कि एक दूसरा सुरेश भी है. अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम साबित करें कि एक दूसरा सुरेश भी है. विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले देश के प्रमुख बल की है? मीडिया ने हमारी ऐसी छवि बना दी है जैसे हम ही गुनहगार हों. हम तो बस अपना काम कर रहे हैं. मैं इससे इनकार नहीं कर रहा हूं कि मारे गए लोगों में एक लड़की भी थी. हमें इसका खेद भी है. हमें सभी मौतों का खेद है. यहां तक कि माओवादी नेता किशनजी के मुठभेड़ में मरने के बाद भी मैंने जो पहला इंटरव्यू दिया था उसकी शुरुआत मैंने किशनजी के परिवार के प्रति अपनी संवेदना जताई थी. इसलिए क्योंकि परिवार इस सबसे बाहर की चीज है.

 दूसरी अहम बात यह है कि सिलगेर जैसे इलाके में यह पता करना मुश्किल है कि कौन नक्सली है और कौन नहीं. आपको पता नहीं चलेगा. सीआरपीएफ को तो पक्के तौर पर पता नहीं चलेगा. स्थानीय पुलिस के लिए तो यह जानना असंभव ही है क्योंकि उनके पास उन कुछ लोगों की ही जानकारी होती है जिनका रिकॉर्ड रखा गया हो. यह दिल्ली या रायपुर का कोई पुलिस स्टेशन नहीं है. हम उस इलाके की बात कर रहे हैं जो देश में सबसे पिछड़ा है. इसे ‘मुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है. सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक इस इलाके में एक लाख से भी ज्यादा जनमिलिशिया (नागरिक सेना) हैं. तो किसे पता कि कौन इस एक लाख का हिस्सा है? यह धुंध में लिपटी दुनिया है. ऐसा लगता है जैसे यह साबित करने की जिम्मेदारी हमारी है कि व्यक्ति निर्दोष है या नहीं. यह हमारा काम नहीं है. यह इलाका नक्सलियों के नियंत्रण में है. अगर आप गांववालों द्वारा मीडिया को दिए गए बयान देखें तो उनका कहना है कि उन्हें बैठक में भाग लेने के लिए मजबूर किया गया था. हमें गांववालों से सहानुभूति है क्योंकि उन पर दूसरे पक्ष का दबाव होता है. पुलिस का उन पर कोई दबाव नहीं होता क्योंकि पुलिस तो उस इलाके में पहली बार ही गई थी. 

विद्रोही गतिविधियों से निपटने में लगे देश के मुख्य सुरक्षा बल पर इस तरह की कालिख मढ़ना ठीक बात नहीं है. इससे किसे फायदा होगा ?

सीआरपीएफ पर कुछ शवों को विकृत करने का आरोप भी लगा है. 

इस तरह की गंदगी हम पर उछाली जाती रही है और सीआरपीएफ इसका अभ्यस्त हो चुका है. लेकिन विद्रोही गतिविधियों से निपटने में लगे देश के मुख्य सुरक्षा बल पर इस तरह की कालिख मढ़ना ठीक बात नहीं है. इससे किसको फायदा होगा? हमारे जो लोग अबूझमाड़ में गए वे जानते हैं कि वहां स्थितियां किसी भी दूसरी जगह से ज्यादा खराब हैं. वहां किसी का नियंत्रण नहीं था. न छत्तीसगढ़ सरकार का, न केंद्र का, न सेना का और न ही सीआरपीएफ का. कुछ साल पहले कभी-कभी वहां थोड़ी सफलताएं मिली थीं. मार्च में हमारे लोगों ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की. लेकिन हम वहां रुक नहीं सके और वापस आ गए. वहां के लोगों के पास न तन ढकने को कपड़े हैं, न खाने के लिए पर्याप्त भोजन और न ही शिक्षा. यह देश का सबसे पिछड़ा इलाका है जिस पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है. यहां कायदे से एक प्रशासन की जरूरत है. यहां वैसे ही काम होना चाहिए जैसे सारंडा में हो रहा है.

सीआरपीएफ के सामने छवि का एक गंभीर संकट रहा है. क्या आपके कमान संभालने के बाद रणनीति में कोई बदलाव हुआ है?

कमान संभालते ही मैंने सभी कंपनी कमांडरों को 22 बिंदुओं का एक एजेंडा भेजा. यह पहली बार हुआ था कि कंपनी कमांडरों को डीजी से कोई सीधा पत्र मिला हो. मुझे उनमें से हर एक से इसका जवाब मिला. मैंने जो निर्देश दिए थे उनमें एक अहम निर्देश यह भी था कि हर एक से दुश्मन की तरह बर्ताव नहीं करना है. बल्कि मैं तो दुश्मन शब्द का इस्तेमाल भी नहीं करना चाहूंगा और उन्हें ऐसे विरोधी कहूंगा जो आपके दृष्टिकोण का विरोध कर रहे हैं. मेरा कहना है कि प्रतिक्रिया फौरी न हो. स्थिर बुद्धि के साथ काम किया जाए. हमने दैनिक प्रशिक्षण पर काफी ध्यान केंद्रित किया है. हमारी कोशिश है कि हम पहले से ज्यादा सचेत और सतर्क रहते हुए अपना नुकसान कम से कम होने दें. लेकिन साथ ही जब भी फायरिंग हो, हम पहले से ज्यादा संवेदनशीलता और संयम से काम करें. 

इस घटना का राजनीतिकरण भी हो गया है.

इस बारे में मैं क्या कह सकता हूं? मैं अपने बल का बचाव करूंगा मगर मैं राजनीतिकरण के बारे में बात नहीं कर सकता. मुझसे अगर आप विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ चल रहे अभियानों के बारे में ही पूछें तो ज्यादा अच्छा होगा.

जब से सलवा जुडम की शुरुआत हुई है तब से सीआरपीएफ को नक्सल प्रभावित इलाकों में ही ज्यादा भेजा जा रहा है.

हम और भी मुश्किल इलाकों में गए हैं. मैंने सीआरपीएफ को आंतरिक बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) के रूप में पुनर्परिभाषित किया है. हम यहां इसलिए हैं ताकि राज्य प्रशासन की अपने पांवों पर खड़े होने में मदद कर सकें. और राज्य में तैनात कुछ विशेष सुरक्षा बल तो केंद्रीय बलों से भी बेहतर हैं. जब हमें तैनात किया जाता है तो मैं हमेशा अपने लड़कों से कहता हूं कि हमें सबसे मुश्किल इलाकों में लड़ाई लड़नी है. लेकिन हम स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर काम करते हैं. हम अकेले काम करने वाले बल नहीं हैं. जब भी सीआरपीएफ की तैनाती किसी दुर्गम क्षेत्र में होती है तो राज्य का कोई एक घटक खूंटी की तरह आपके साथ होना चाहिए.

खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के मामले में भी समस्या की बात कही जा रही है.

इस मोर्चे पर स्थिति पहले से ठीक हुई है, फिर भी इसमें बेहतरी की गुंजाइश है. मेरा मानना है कि सारंडा और अबूझमाड़ जैसे इलाके हमारी सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक धब्बा हैं. हम इसी धब्बे को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं. हम यहां इसलिए नहीं हैं कि हमें किसी के साथ सैद्धांतिक लड़ाई करनी है. बल्कि इसलिए हैं कि कानून का राज सुनिश्चित हो. हम मानते हैं कि अगर समग्र विकास के साथ कानून-व्यवस्था भी ठीक से चले तो चीजें बेहतर होंगी. सामाजिक कार्यकर्ता कुछ चुनिंदा घटनाओं की बात कर रहे हैं. मैं उनसे एक सवाल पूछना चाहूंगा. क्या हम कोई पिकनिक मना रहे हैं? क्या हम कोई अराजक सेना हैं या फिर गैरजिम्मेदार मिलिशिया? हम एक जिम्मेदार बल हैं जो विद्रोही गतिविधियों से निपटने का काम करता है. हम वहां एक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए स्थानीय पुलिस के साथ गए. अगर दुर्भाग्य से कुछ निर्दोष लोगों को भी नुकसान पहुंचा हो तो यह खेद की बात है. हमने कम से कम ताकत के साथ प्रतिक्रिया दी थी. यह दिखाता है कि हम ज्यादा से ज्यादा संयम बरतते हैं. मैं टीम के कप्तान पर सबसे ज्यादा भरोसा करता हूं. उस आदमी पर जो आगे बढ़कर नेतृत्व करता है. एक डीआईजी कैंप में बैठा भी रह सकता था. वह नेतृत्व करने क्यों गया? क्योंकि वह टीम को प्रोत्साहित करना चाहता था ताकि इस खतरनाक इलाके में उसका मनोबल बढ़े. नहीं तो उसे जाने की क्या जरूरत है? वह बैठा रहता और अपने कमांडेंटों को जाने के लिए कहता. 

क्या इस घटना की कोई जांच हो रही है?

एक मजिस्ट्रेटी जांच जारी है. जांच के हमारे अपने तरीके भी हैं. दोनों ही चीजें चल रही हैं.