मुठभेड़ ‘चाल’!

छत्तीसगढ़ के सारकेगुड़ा गांव और उससे जुड़े हुए दो टोलों कोत्तागुड़ा और राजपेटा की पहचान पिछले महीने के आखिरी हफ्ते तक इतनी ही थी कि वर्ष 2005 में जुडूम समर्थकों ने यहां ग्रामीणों के घरों को आग के हवाले कर दिया था. उस दौरान बासागुड़ा में बालैय्या नाम का एक व्यक्ति पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था. 29 जून, 2012 को यह फिर अचानक चर्चा में आया. इसके एक दिन पहले रात में सीआरपीएफ की अगुवाई में एक कथित मुठभेड़ हुई थी और सीआरपीएफ ने दावा किया था कि उसने 17 नक्सलवादियों को मार गिराया है. एक साथ इतने ‘नक्सलवादियों’ के मारे जाने की यह हाल के दिनों की सबसे बड़ी घटना थी. मीडिया में यह मसला तुरंत छा गया. 

लेकिन इस घटना के बाद पूरे चौबीस घंटे भी नहीं बीत पाए और नक्सलवादी मारने के सीआरपीएफ के दावे से कई सवाल खड़े हो गए. अर्धसैन्य बल ने पहले मारे गए सभी लोगों को नक्सली बताया. बाद में कहा गया कि सिर्फ तीन-चार लोग कट्टर नक्सलवादी थे. इस तरह दिन बीतने के साथ-साथ कई बार सीआरपीएफ ने अपने बयान बदले. आखिर में खुद छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सूची जारी की. इसमें मारे गए लोगों में से सात को नक्सली बताया गया था जिनके खिलाफ मुकदमे भी दर्ज थे. पिछले तेरह साल के दौरान यह सीआरपीएफ का सबसे बड़ा अभियान था. लेकिन मुठभेड़ के तुरंत बाद जिस तरह सुरक्षा बल सवालों से घिरता दिख रहा है उससे यह साफ हो गया है कि नक्सलवादियों के खिलाफ यह मुठभेड़ एक योजना के तहत भले ही अंजाम दी गई हो लेकिन यह अपने लक्ष्य से पूरी तरह चूक गई.

बासागुड़ा में तैनात पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘ हमें 28 जून, 2012 की सुबह एक मुखबिर से सूचना मिली थी कि माओवादी जगरगुड़ा सिलगेर या फिर सारकेगुड़ा गांव में बैठक ले सकते हैं. इसके बाद नक्सलवादियों को ढेर करने की रणनीति बनाई गई.’ बासागुड़ा कस्बा राज्य की राजधानी रायपुर से 462 किमी दूर बीजापुर जिले में है. बीजापुर से बासागुड़ा कस्बे की दूरी 52 किलोमीटर है. और इस कस्बे से सरकेगुड़ा तकरीबन दो किमी दूरी पर है. खुफिया सूचना मिलते ही पुलिस और सीआरपीएफ ने तय किया कि 400 जवानों के दो दस्ते बासागुड़ा से सिलगेर भेजे जाएं. यह भी तय हुआ कि जगरगुड़ा और चिंतलनार से सुरक्षा बलों का एक-एक दस्ता उन्हें आगे मिलेगा. उसी दिन लगभग नौ बजे रात को सीआरपीएफ के दो दस्ते बासागुड़ा से सिलगेर की ओर रवाना हो गए. इस अभियान में शामिल रहे सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी तहलका को बताते हैं, ‘रात में लगभग 11 बजे जब हम सरकेगुड़ा से लगभग 300 मीटर दूर थे सीआरपीएफ की 85वीं बटालियन और कोबरा यूनिट को कुछ हलचल दिखाई दी. हम और आगे बढ़े तो पता चला कि गांव में कोई मीटिंग हो रही है. हम आगे बढ़ ही रहे थे कि उन लोगों में से किसी ने पुलिस-पुलिस की आवाज लगाई.

पुलिस ने मारे गए नक्सलवादियों की जो सूची  बनाई है उसमें ऐसे लोगों के नाम शामिल हैं जिन्हें ग्रामीण जानते ही नहीं

इसके बाद अचानक हम पर फायरिंग होने लगी. हमारे तीन-चार जवान घायल हो गए. इसके बाद हमारे पास जवाबी फायरिंग के अलावा कोई विकल्प नहीं था.’ इस अधिकारी का दावा है कि उनके दस्ते पर भारी फायरिंग हो रही थी और तकरीबन तीस मिनट तक जारी रही. वे इस बात का भी अंदेशा जताते हैं कि सरकेगुड़ा में 15-20  नक्सलवादी थे जो गोलीबारी के बाद भाग गए. दो बजे के लगभग सीआरपीएफ का दूसरा दस्ता जो जगरगुड़ा से चला था उस पर भी फायरिंग हुई. लगभग साढ़े तीन बजे चिंतलनार से आ रहे अर्धसैन्य बल के दस्ते का भी सामना छिटपुट फायरिंग से हुआ. यह अधिकारी बताते हैं, ‘जब सिलगेर में उस जगह पहुंचे तब तक वहां कुछ नहीं बचा था. ‘

फायरिंग में गांव के 17 लोग मारे गए. इनमें आठ नाबालिग थे. अगले दिन से घटनास्थल पर आम लोगों की आवाजाही शुरू हुई. और इसी के साथ उन ग्रामीणों का पक्ष भी सामने आने लगा जिनके परिचित और रिश्तेदार इस कथित मुठभेड़ में मारे गए थे. तहलका टीम ने सारकेगुड़ा, कोत्तागुड़ा और राजपेटा के कई ग्रामीणों से बातचीत की. गांववालों से बातचीत का जो लब्बोलुआब निकलता है वह यह है कि सारकेगुड़ा और कोत्तागुड़ा के बीच ग्रामीण बीज त्योहार को मनाने की तैयारियों के संबंध में बैठक कर रहे थे. गांव की महिलाओं और पुरुषों के साथ यहां बच्चे भी थे. बैठक रात में आठ बजे प्रारंभ हुई तो यह तय किया गया कि यदि मानसून ने दगा दिया तो गांव के एक युवक चीनू, जिसने लोन लेकर ट्रैक्टर खरीदा था, से कहा जाएगा कि वह सबसे थोड़े-थोड़े पैसे या डीजल लेकर खेत जोत दे. इसके अलावा गांव की विधवा महिलाओं को दी जाने वाली सहायता तथा दोरला जनजाति के पारंपरिक उत्सव की तैयारियों के संबंध में भी ग्रामीणों ने बातचीत की थी. रात दस बजे तक तो बैठक में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन जब ग्रामीणों में से कुछ लोगों ने नागेश नाम के एक युवक से मांदर (ढोल) बजाने का आग्रह करते हुए कुछ नाच गाने की तैयारी की तभी अचानक कुछ बंदूकधारियों ने उन्हें घेर लिया. ये अर्धसैन्य बलों के थे. ग्रामीण बताते हैं कि ये लोग गंदी-गंदी गालियां देते हुए पूछ रहे थे कि इतनी रात को क्या किया जा रहा है. कौन-कौन नक्सली है. इससे पहले कि ग्रामीण अपनी सफाई में कुछ कह पाते, फायरिंग होने लगी. नागेश भी इस फायरिंग में मारा गया.

कोत्तागुड़ा गांव की 14 वर्षीया इरपा तुलसी कहती है, ‘मैं अपने पिता (इरपा नारायण) के साथ बैठक में शामिल थी. पुलिस ने पहले मेरे पिता को गोली मारी. मैं घबराकर अपनी झोपड़ी की तरफ भागी तो मुझे पकड़ लिया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए. जब मैंने अपनी जान को बख्श देने के लिए हाथ-पैर जोड़े तब मेरे चेहरे पर बंदूक के कुंदे से वार किया गया. मैं बेहोश होकर गिर पड़ी. ‘इसी गांव की एक लड़की सारिका जो आवापल्ली में पढ़ती है और जो अपने चाचा सम्मैया के साथ बैठक में मौजूद थी, कहती है, ‘पुलिस ने मुझे खूब मारा और फिर जमीन पर लिटा दिया. मेरे दोनों टांगों के बीचो-बीच गोली चलाई गई. मैं पुलिसवालों से कहती रही कि स्कूल में पढ़ती हूं लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी. एक पुलिस-वाला गाली-गलौज करते हुए इज्जत लूट लेने की धमकी देता रहा.’

नागेश की पत्नी मड़काम समी अपने जो फिलहाल गर्भवती हैं, पति की मौत के बाद बुरी तरह टूट चुकी हैं. हर सवाल के जवाब पर अटकते हुए वे यही दोहराती हैं,   ‘मेरा पति नक्सली नहीं था… हम तो अपने दो बच्चों के साथ यहां आराम से रह रहे थे… ‘  मड़काम समी की तरह इरपा जानकी भी गर्भवती है. जानकी कहती है, ‘पुलिस ने मेरे पति की न लाश दी और न ही उसे देखने दिया., कुछ इसी तरह का कथन गांव की अन्य महिलाओं का भी है. गांव की महिला नरसी इरपा बताती है कि उसका पति नारायण पुलिसवालों से गोली न चलाने की बात कह रहा था लेकिन उसे ‘नक्सलियों का साथ देते हो’ कहकर मार दिया गया. गोलीबारी में गांव के एक सोलह वर्षीय किशोर हेमला देवा के बाएं हाथ में गोली लगी थी इस वजह से वह बच गया, लेकिन देवा को इस बात का अफसोस है कि उसके हमउम्र साथी उससे बिछड़ गए हैं. ज्ञात हो कि गोलीबारी के चलते गांव के नौ नाबालिगों मडकाम दिलीप(17) मडकाम रामविलास (15) अपका मिठू (16) काका सरस्वती (12) कुंजाम मल्ला (16), कोरसा बिचम (16), इरपा सुरेश (14) एवं काका राहुल को अपनी जान गंवानी पड़ी है.

इस मुठभेड़ के असली होने पर कई लोग संदेह जता रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि घटना के बाद पुलिस ने कई बार अपने बयान बदले हैं. सबसे पहले यह दावा किया गया था कि जितने लोग मारे गए वे सभी नक्सलवादी हैं. बाद में यह संख्या तीन-चार कट्टर नक्सलवादियों तक सिमट गई. बीजापुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) प्रशांत अग्रवाल ने सबसे आखिर में एक सूची जारी की जिसमें सात नक्सलवादियों के बारे में पूरी जानकारी थी. इस सूची में शामिल सुरेश मड़काम पुलिस रिकॉर्ड के हिसाब से इस घटना के समय जेल में था. हमने जब एसपी से इसके बारे में जानना चाहा तो उनका जवाब था, ‘हो सकता है कुछ गलती हो गई हो, मैं इसे दोबारा चेक करवाता हूं.’ लगभग तीस मिनट के बाद हमें एक नई सूची दी गई. यह और हैरान करने वाली थी. सूची में अब सात की जगह छह नक्सलवादियों के नाम थे और जो नाम हटाया गया वह मड़काम सुरेश का नहीं था, काका नागेश का था. ग्रामीण भी पुलिस की इस सूची को देखकर हैरान हैं. गांव के सरपंच मड़कम नारायण कहते हैं, ‘पुलिस ने मड़वी अयातु और कोरसा विज्जे का नाम लिखा ह,ै लेकिन हम इनमें से किसी को नहीं जानते.’ गांव के रामा नाम के एक शख्स का कहना है कि उसकी बेटी सरस्वती (12 साल) मारी गई है जबकि पुलिस ने सरस्वती को अनीता माना है. गांव की महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता कमला काका के भतीजे राहुल काका का भी जिक्र पुलिस रिकॉर्ड में नहीं है. गांववाले अपका मिठू की उम्र 16 साल बताते हैं जबकि पुलिस ने उसे 25 साल का दर्शाया है. इसी तरह 14 वर्षीय इरपा सुरेश की आयु भी 20 वर्ष दर्शाई गई है.

सवाल और भी हैं. यदि गांववालों की यह शांतिपूर्ण बैठक थी तो सीआरपीएफ के छह जवान जख्मी कैसे हुए. ये जवान रायपुर के नारायण हृदयालय एमएमआई अस्पताल में भर्ती हैं. तहलका की टीम ने जब यहां का दौरा किया तो पता चला कि छह में से सिर्फ दो जवान गंभीर रूप से जख्मी हैं. बाकी दो के पैरों में चोटें आई हैं तो भागने-दौड़ने के दौरान शेष दो जवानों के घुटनों में चोट आई है. इनमें से गंभीर रूप से जख्मी वहीदुल्लाह हमें बताते हैं, ‘ जब हम सरकेगुड़ा पहुंचे तो मुझे बस यही याद है किसी ने पुलिस-पुलिस की आवाज लगाई थी. उसके बाद भारी गोलीबारी होने लगी. मुझे पेट में गोली लगी और मैं गिर गया.’ ज्ञानेंद्र प्रकाश को जांघ में गोली लगी है. वे बताते हैं, ‘डॉक्टरों ने गोली निकाल दी है. वह भरमार बंदूक से चली थी. नक्सली यही बंदूक इस्तेमाल करते हैं. ‘लेकिन जब अंधाधुंध फायरिंग हो रही थी तो हो सकता है वे सीआरपीएफ की गोलियों का ही शिकार बने हों? इस सवाल पर प्रकाश कहते हैं, ‘ सीआरपीएफ के जवान एके सीरीज की बंदूकें इस्तेमाल करते हैं जैसे इंसास, एमपी5 इत्यादि. यदि हमारी गोली किसी को लगती है तो शरीर के उस हिस्से से आर-पार निकल जाती है. लेकिन गांववाले इससे असहमति जताते हैं. ‘हम बंदूकों का क्या करेंगे, मड़कम शांता कहते हैं, ‘ यदि उस बैठक में नक्सलवादी होते तो क्या सीआरपीएफ के जवानों को इतनी हल्की चोटें आतीं? सीआरपीएफ वाले अपनी ही गोलियों से घायल हुए हैं.

हालांकि अर्धसैन्य बल के एक वरिष्ठ अधिकारी ग्रामीणों के इस आरोप को झुंझलाते हुए नकारते हैं. वे कहते हैं,  ’यह बकवास है. आपको क्या लगता है कि सीआरपीएफ में बिना ट्रेनिंग लिए हुए लोग आते हैं? क्या हम अपने पेट में गोली सिर्फ इसलिए मार लेंगे ताकि कोई कहानी बन जाए?’ इस बीच पुलिस अब भी इस गुत्थी में उलझी हुई लग रही है कि ग्रामीणों और नक्सलवादियों को अलग-अलग कैसे पहचाना जाए. बीजापुर के एसपी कहते हैं, ‘गांववाले जब-तब नक्सलवादियों की मदद करते रहते हैं. उन सभी के पास वोटर कार्ड और राशनकार्ड होते हैं. आम दिनों में ये लोग खेती-किसानी करते हैं, बाकी समय में नक्सलवादियों के मददगार बन जाते हैं. इस लिहाज से ये भी नक्सलवादी हैं.’ बीजापुर में तैनात एक वरिष्ठ सीआरपीएफ अधिकारी इस बात पर सहमत दिखते हैं, ’नक्सलवादियों के साथ जनमिलिशिया होता है. सबसे ऊपर जनसंघम होता है. वे बारूदी सुरंग बिछाने में माहिर होते हैं. लेकिन यदि उनके पास हथियार नहीं हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे नक्सलवादी नहीं हैं. अब बताएं, क्या हमारी तरफ से जब-तक कोई मौत न हो, हम खुद को सही साबित नहीं कर सकते?’ 

इन सभी तर्कों से इतर ग्रामीणों का गुस्सा इस समय उबाल पर है. जिला प्रशासन आई राहत सामग्री उन्होंने वापस लौटा दी है. गांववालों का कहना है कि वे उन लोगों से क्या मदद लें जो खुद ही पहले हमारे ऊपर मुसीबत बनकर टूटते हैं. फिलहाल विपक्षी पार्टियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दबाव में इस कथित मुठभेड़ की कई जांचें शुरू हो चुकी हैं. राज्य सरकार घटना की न्यायिक जांच करवा रही है. सीआरपीएफ भी अपने स्तर पर एक जांच करवाने वाली है. अभी तक हर एक पक्ष के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन जांच के बाद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इनके निष्कर्ष किन बिंदुओं पर मिलते हैं और कहां अलग होते हैं.

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