लापरवाही से उपजी लाचारगी

बात दो साल पहले की है. 2010 के एशिया कप क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की. भारतीय फुटबॉल टीम अंडर -19 का मैच चल रहा था. ढाका में हो रहे उस मैच में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व कर रही 16 साल की एक लड़की जब मैदान में उतरी तो उसकी बिजली -सी गति और तकनीक का तालमेल देखकर लोगों के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा था, ‘ये तो लेडी बेकहम है.’ वह लड़की झारखंड की नूपुर टोपनो थी. टीम के कोच ने भी तब नूपुर को भारतीय टीम का भविष्य बताया था.

लेकिन ये बातें अब पुरानी हो चुकी हैं. आज करीब दो साल बाद नूपुर अपने चोटिल दाहिने पांव के इलाज की बाट जोह रही हैं. उनके इलाज के लिए जिम्मेदार स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) इलाज करवाने के बजाय रोज नए-नए बहाने गढ़ रहा है. साई के ही मैदान में 10 जनवरी, 2011 को एक अभ्यास मैच के दौरान नूपुर अपनी साथी खिलाड़ी श्वेता से टकरा गई थीं. इससे उनके दाहिने पैर का लिगामेंट डिसप्लेस हो गया. लेकिन किसी ने उसकी इस चोट को गंभीरता से नहीं लिया. नतीजा यह हुआ कि अब 18 साल की हो चुकी नूपुर साई के खेल मैदान में अपना हुनर दिखाने के बजाय दर्शक दीर्घा में बैठकर अपने साथी खिलाड़ियों को खेलते हुए देखती रहती हैं. 

नूपुर आज भी साई के होस्टल में रहती हैं. उनका इलाज क्यों नहीं हो सका, जब यह सवाल हम साई के रांची केंद्र के प्रभारी सुशील वर्मा से पूछते हैं तो उनका जवाब आता है, ‘हम नूपुर के इलाज के लिए हायर अथॉरिटी से बात कर रहे हैं.’ लेकिन डेढ़ साल से इस दिशा में कोई पहल क्यों नहीं हुई, यह पूछने पर वे नूपुर को ही दोषी ठहराने लगते हैं. कुछ इसी तरह की बात फुटबॉल टीम के कोच सुनील कुमार भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘हमने इलाज करवाया था. लेकिन वह बार-बार चोटिल हो जाती है.’

लेकिन हकीकत यह है कि डॉक्टरों ने नूपुर के ऑपरेशन की सलाह दी थी जो कभी हुआ ही नहीं. जब ऑपरेशन के बारे में कोच सुनील और प्रभारी सुशील से पूछा जाता है तो वे बगलें झांकने लगते हैं. फिर एक चुप्पी के बाद जवाब आता है, ‘उच्च पदाधिकारियों से बात कर रहे हैं.’ लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी अस्पताल में नूपुर को एक बार दिखाने के बाद साई प्रभारी तथा कोच ने उनके इलाज में कभी कोई खास दिलचस्पी ही नहीं दिखाई. खिलाड़ियों के इंश्योरेंस का लाभ भी नूपुर को नहीं मिला. ऐसा क्यों? अधिकारियों के पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं था. 

साई के हॉस्टल में नुपूर हमें अपने बारे में बताती हैं. कहती हैं, ‘मुझे बचपन से ही खेलों से प्यार रहा है. मैं हॉकी भी अच्छा खेलती हूं लेकिन फुटबॉल मेरा पहला प्रेम है. यही वजह है कि मैं फुटबॉल में रम गई.’ नूपुर झारखंड के गुमला जिले के पुगु करिंगा गांव की निवासी हैं. अपने गांव के लोगों को खेलते हुए देख कर उन्होंने हॉकी और फुटबॉल खेलना सीखा. प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गुमला में ही हुई, लेकिन खेलों के प्रशिक्षण के साथ पढ़ाई करने के लिए वे रांची आ गईं. यहां उन्होंने इंटर की पढ़ाई पूरी की और विश्व स्तर की खिलाड़ी बनने के सपने के साथ साई के हॉस्टल की ओर रुख किया. 

बातचीत के दौरान नूपुर पूछती हैं कि क्या सर (साई के अधिकारियों) को पता है कि आप मीडिया से हैं और हमसे बात करने आई हैं. क्या सर भी कमरे में आने वाले हैं? हम नूपुर को आश्वस्त करते हैं तब वे आगे की बात बताती हंै. नूपुर कहती हैं, ‘मैंने अब तक तीन-चार डॉक्टरों को दिखाया है पर अथॉरिटी ने इस बाबत कोई सहयोग नहीं दिया.’ इस दौरान कमरे में सात-आठ दूसरी खिलाड़ी भी मौजूद हैं. वे बीच-बीच में बोल पड़ती हैं, ‘सर ने आपको झूठी सूचनाएं दी हैं. नूपुर ने खुद से ही पहल कर अब तक अपना इलाज करवाया है लेकिन ऑपरेशन का पैसा नहीं होने की वजह से वह आगे का इलाज नहीं करवा पा रही है.’ 

नूपुर से अभी बात हो ही रही है कि कमरे में सुशील कुमार और हॉस्टल वार्डन सुब्बो टोप्पो भी आ पहुंचते हैं. सुशील कुमार कहते हैं, ‘यह लड़की है और इलाज के दौरान अटेंडेंट के रूप में इसके माता-पिता का होना जरूरी है. इसके माता-पिता आते ही नहीं हैं.’ लेकिन नूपुर बीच में बोल पड़ती हंै, ‘सर ने मुझसे कभी मां-पिता को बुलाने के लिए कहा ही नहीं.’ नूपुर की सहेलियां इस पर सहमति जताती हैं. नूपुर आगे बताती हैं, ‘मेरी मां बचपन में ही गुजर गईं. पिता फौज में हैं और हम चार बहनों को उन्होंने ही पाला-पोसा है. अगर बाबा को कहा जाएगा तो वे तो उल्टे पैर दौड़े चले आएंगे.’ बीच में ही टोकते हुए नूपुर की सहेली शकुंतला कहती हैं, ‘इसे देखकर आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा कि यह उम्दा खिलाड़ी है. आप इससे बाएं पैर से किक लगवा कर देखिए तब आपको पता चलेगा.’ 

हम नूपुर की फोटो लेना चाहते हैं लेकिन पहले ही उसे ऐसा न करने का इशारा कर दिया गया है इसलिए वह मना कर देती है. चलते-चलते हम वार्डन से कहते हैं कि नूपुर बेहतरीन खिलाड़ी हैं. लगनशील और ईमानदार भी. इलाज हुआ होता तो वे आपकी शिकायत आपके ही सामने करने का साहस कैसे जुटा पातीं? जवाब में वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े रहते हैं. 

हालांकि इन सबके बावजूद नूपुर को लेकर अभी उम्मीदें बची हुई हैं. खिलाड़ियों की चोट के विशेषज्ञ डॉ अमित दुबे का मानना है कि अगर नूपुर का ऑपरेशन अब भी हो जाए तो वे मैदान में वापस लौट सकती हैं. डॉ दुबे कहते हैं, ‘फरवरी-मार्च (2012) में ही नूपुर को मेरे पास लाया गया था तब मैंने एमआरआई टेस्ट करवाने की सलाह दी. लेकिन अथॉरिटी के पदाधिकारी उसे लेकर दोबारा मेरे पास आए ही नहीं.’