खेल नहीं आसान

अतीत को छोड़ दें तो पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश से कोई खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम का स्थायी सदस्य नहीं है. इसके बावजूद भारतीय क्रिकेट टीम के प्रदर्शन पर लोगों में भावनाएं उसी तीव्रता के साथ दिखती हैं जैसा देश के दूसरे हिस्से में होता है. लेकिन इसके साथ शायद पहली बार हो रहा है जब मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (एमपीसीए) से जुड़ी घटनाएं यहां क्रिकेट मैचों जितनी ही सरगर्मियां पैदा कर रही हैं. इसकी शुरुआत पिछले दिनों तब हुई जब एसोसिएशन के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया ने प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान को एक चिट्ठी लिखी. इसमें उन्होंने राज्य के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पर मंत्री पद का गलत इस्तेमाल करके खेल संघों में दखलअंदाजी का आरोप लगाया है. उनके मुताबिक एमपीसीए उद्योग विभाग के अधीन रजिस्ट्रार फर्म्स ऐंड सोसायटीज से जुड़ा है और इसीलिए इस संस्था के कंधों का इस्तेमाल कर विजयवर्गीय एसोसिएशन पर नाजायज दबाव डाल  रहे हैं. चिट्ठी में उन्होंने मुख्यमंत्री से यह आग्रह भी किया  है कि वे विजयवर्गीय पर लगाम कसें.

सिंधिया के आग्रह पर भले ही मुख्यमंत्री ने मौन साध लिया हो लेकिन इसने एमपीसीए के अगस्त में हो रहे चुनाव में राज्य की राजनीति और क्रिकेट के मेल से होने वाले घमासान की भूमिका बांध दी. इसमें एक तरफ परंपरागत सत्ता है, जिसकी कमान खुद सिंधिया के हाथों में है.  स्व. माधव राव से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक पिता-पुत्र ने तीस साल से एमपीसीए पर एकछत्र राज किया है और यह घराना किसी भी तरह अपना आधिपत्य छोड़ने को तैयार नहीं. वहीं बीते कुछ सालों से एक नई ताकत सिंधिया के गढ़ में घुसना चाह रही है, जिसकी कमान विजयवर्गीय के हाथों में है और यह इस चुनाव में जीत का मंसूबा पाल रही है. आपको बताते चलें कि इंदौर मध्य प्रदेश क्रिकेट का गढ़ है और एसोसिएशन के सभी 244 मतदाताओं में सर्वाधिक 130 यानी आधे से अधिक मतदाता इसी शहर से हैं. इसलिए सिंधिया के नजरिये से बुरी बात यह है कि विजयवर्गीय राज्य में कैबिनेट मंत्री के अलावा इंदौर के सबसे प्रभावशाली नेता भी हैं. वे लगातार दो बार इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी चुने जा चुके हैं.

‘यदि विजयवर्गीय क्रिकेट संघ का चुनाव जीत गए तो वे दिल्ली में अरुण जेटली, गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आदि के समकक्ष वाली छवि बना लेंगे

इस बार  एमपीसीए के चुनाव में केंद्रीय उद्योग राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के टकराने से मुकाबला रोमांचक और पूरी तरह कांग्रेस-भाजपा के बीच बनता नजर आ रहा है. एसोसिएशन के भीतर कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं में प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और विधायक निशित पटेल हैं तो भाजपा से भी प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह और विधायक ध्रुव नारायण सिंह हैं. सिंधिया के पक्ष में सांसद सज्जन सिंह वर्मा और विजयवर्गीय के पक्ष में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा का खुलकर सामने आना दर्शाता है कि यह चुनाव क्रिकेट से कहीं अधिक राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए लड़ा जा रहा है. क्रिकेट की राजनीति के प्रेक्षक बताते हैं कि सिंधिया अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार होंगे. वहीं भाजपा का हाईकमान अगर निकट भविष्य में शिवराज सिंह चौहान को केंद्रीय राजनीति में लाता है तो कैलाश विजयवर्गीय की भाजपा से मुख्यमंत्री बनने की संभावना है. ऐसे में क्रिकेट का यह चुनाव भविष्य के दो संभावित मुख्यमंत्रियों के बीच का सेमीफाइनल कहा जा रहा है.

एमपीसीए अध्यक्ष पद के लिए सिंधिया और विजयवर्गीय का लगातार दूसरी बार आमना-सामना होना है. अगस्त, 2010 में सिंधिया ने 212 मतों में से 142 लेकर 70 के अंतर से विजयवर्गीय का पटखनी दी थी. उसके पहले तक एसोसिएशन के इतिहास में कभी चुनाव नहीं हुआ था और उसके भीतर सदस्यों की आपसी सहमति से अध्यक्ष और अध्यक्ष की सहमति से पदाधिकारियों को चुनने का रिवाज था. मगर पिछली बार विजयवर्गीय ने ऐन मौके पर चुनाव लड़कर यह रिवाज तोड़ दिया. विजयवर्गीय समर्थकों का दावा है कि बीता चुनाव बहुत जल्दबाजी में लड़ने से उन्हें पटखनी खानी पड़ी थी लेकिन दो साल में काफी कुछ बदल चुका है और उन्होंने मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए बढ़-चढ़कर घेराबंदी की है. दूसरे धड़े को इस घेराबंदी के तौर-तरीके पर सख्त एतराज है. एसोसिएशन में प्रबंध कमेटी के सदस्य मयंक कलमड़ीकर की सुनें तो 56 साल के इतिहास में राज्य के उद्योग विभाग ने कभी कोई आपत्ति नहीं की थी लेकिन अब विजयवर्गीय के इशारे पर यही विभाग इस संख्या तक नोटिस भेज रहा है कि काम करना मुश्किल हो गया है. कई पदाधिकारियों को विजयवर्गीय से एक शिकायत यह भी है कि वे एसोसिएशन के सदस्यों को साधने के लिए पद और पैसे का लालच तो दिखा ही रहे हैं, राज्य सरकार के विभागों में कार्यरत कुछ सदस्यों को स्थानांतरण का डर भी दिखा रहे हैं. वहीं कैलाश विजयवर्गीय ने एसोसिएशन में बेवजह हस्तक्षेप से इंकार किया है. वे कहते हैं, ‘पदाधिकारियों की ओर से गलत बयानबाजी की जा रही है और यह प्रस्तावित चुनाव में दबाव बनाने की रणनीति से अधिक कुछ भी नहीं है.’

देखा जाए तो मध्य प्रदेश क्रिकेट पर सिंधिया और उनके समर्थकों के एकाधिकार को मटियामेट करने की मंशा के पीछे कई सारी वजह हैं लेकिन इनमें बीसीसीआई का एमपीसीए को आवंटित करोड़ों रुपये का वह सालाना बजट प्रमुख है जिस पर कई नेताओं की नजर बराबर बनी रही है. इसके अलावा इंदौर और ग्वालियर के मैदानों में होने वाले अंतरराष्ट्रीय मैचों के जरिए यहां के नेताओं के भीतर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने की चाहत बढ़ रही है. कैलाश विजयवर्गीय के हालिया क्रिकेट प्रेम को इन्हीं बातों के संदर्भ में तौला जा रहा है. विजयवर्गीय के एक करीबी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘इस चुनाव में सिंधिया का पलड़ा कहीं भारी है लेकिन यह विजयवर्गीय का ऐसा दांव है कि यदि उन्होंने अप्रत्याशित तौर से सिंधिया को चित कर दिया तो उनका राजनीतिक कद राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ जाएगा.’ जाहिर है यह विजयवर्गीय की खुद को बीसीसीआई सहित सभी बड़े क्रिकेट संघों पर काबिज नेताओं जैसे दिल्ली में अरुण जेटली, मुंबई में विलासराव देशमुख, गुजरात में नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश में राजीव शुक्ला और बिहार में लालू प्रसाद यादव की पंक्ति में खड़ा करने की एक महत्वाकांक्षी योजना है.

 खेल के राजनीतिक मैदान में स्थापित करने के लिए विजयवर्गीय के साथ क्रिकेट की पृष्ठभूमि का न होना उनकी एक ऐसी कमजोरी बनी हुई है जिस पर उनके विरोधी निशाना लगा रहे हैं.

सिंधिया विजयवर्गीय के क्रिकेट ज्ञान पर सवाल उठाते हुए कहते भी हैं, ‘उन्होंने खुद कबूल किया है कि वे क्रिकेट की क, ख, ग जाने बिना इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बन गए.’ हालांकि विजयवर्गीय ने पिछली रणजी ट्राफी के मैचों में अपनी सक्रियता दिखा-दिखाकर कुछ हद तक अपनी छवि बदली भी है. पर इन सबसे कहीं बड़ी मुश्किल विजयवर्गीय के लिए वह मराठी वोट-बैंक है जो चुनाव में निर्णायक भूमिका तो निभा सकता है लेकिन जिसकी जातीय और राजनीतिक वफादारी हमेशा से सिंधिया घराने के साथ रही है. अपने मराठी संपर्कों के बूते विजयवर्गीय सिंधिया की मराठी मतों से पकड़ ढीली करने की जुगत में हैं लेकिन सिंधिया भी इस मामले में लापरवाह नहीं. यही वजह है कि उन्होंने मराठी मतों को रिझाने के लिए बीती 30 जून को इंदौर में जन्मे और कर्नाटक में रहने वाले महाराष्ट्रियन तथा भारतीय टीम के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ को सम्मानित तो किया ही, उनके नाम पर होल्कर स्टेडियम में एक ड्रेसिंग रूम का नामकरण भी किया.

विजयवर्गीय को दूसरी बड़ी मुश्किल शाही घरानों के उन सदस्यों से भी मिल रही है जिनका आजादी के पहले से क्रिकेट एसोसिएशन पर कब्जा रहा है और जिन्हें बाहरी ताकत के साथ अपनी सत्ता साझा करनी ही नहीं. सिंधिया ने एक रणनीति के तहत ऐसे सदस्यों को लेकर छह महीने में सौ से अधिक मतदाताओं के साथ लंच या डिनर किया है. इन सबके बावजूद विजयवर्गीय को जीत की संभावना है तो इसलिए कि सिंधिया एमपीसीए में लगातार दो बार अध्यक्ष चुने गए हैं और एसोसिएशन के संविधान के मुताबिक उन्हें तीसरी बार अध्यक्ष बनने के लिए दो तिहाई से अधिक मत चाहिए. ऐसी स्थिति में विजयवर्गीय की कोशिश बीते चुनाव में अपनी हार के मतों का अंतर कम से कम करने की रहेगी. फिर एसोसिएशन में इंदौर तथा ग्वालियर के सदस्यों के बीच तनातनी बनी रहती है जिसका भी विजयवर्गीय फायदा उठाकर अपने लिए अधिक से अधिक मत खींचना चाहेंगे.

इस खींचतान में विजयवर्गीय को उनकी पार्टी का समर्थन मिलना भी तय ही है. भाजपा में प्रांतीय खेल प्रकोष्ठ के संयोजक अजय शर्मा का कहना है, ‘भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी कार्यकर्ताओं की कई सभाओं में इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सत्ता में वापसी के लिए सभी खेल संघों पर अधिकार जमाया जाए ताकि यहां से 10 प्रतिशत मतों का बंदोबस्त सुनिश्चित हो सके.’ तकरीबन 26 खेलों के लिए गठित मध्य प्रदेश ओलंपिक संघ पर भाजपा विधायक रमेश मेंदोला ने कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे महेश शर्मा को हराकर पार्टी की पताका लहराई भी है. जाहिर है कि क्रिकेट के इस दंगल में दो सियासी खिलाडि़यों की भिड़ंत आगामी राज्य विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का अंदरूनी समीकरण प्रभावित किए बिना नहीं  रह   सकती.

मध्य प्रदेश क्रिकेट का सुनहरा अतीत

एमपीसीए से अनेक हस्तियां बीसीसीआई में पहुंचती रही हैं. लेकिन इनमें सबसे चमकदार नाम स्व. माधव राव सिंधिया का है जिन्होंने 1980 में उषा राजे होल्कर के पति सतीश मलहोत्रा की मौत के बाद दो दशक तक निर्विवाद समर्थन से एमपीसीए की बागडोर तो संभाली ही, बीसीसीआई के अध्यक्ष पद तक भी पहुंच बनाई. उनकी मौत के बाद एक दशक से उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने किसी तरह एमपीसीए की बागडोर बचाए रखी है. मध्य प्रदेश में 1932 में सेंट्रल इंडिया क्रिकेट एसोसिएशन बना और तब से लेकर अब तक होल्कर (1940-55), मध्य भारत (1955-57) और मध्य प्रदेश जैसे अलग-अलग नामों से इस क्षेत्र की टीम रणजी ट्राफी में खेलती रही है. इस टीम ने 15 साल के अपने शुरुआती सफर में चार बार रणजी ट्राफी जीती और छह बार यह उपविजेता रही. इंदौर के होल्कर राजघराने के  स्व. यशवंतराव होल्कर की क्रिकेट को लेकर खासी दीवानगी थी. उन्होंने अपनी टीम में कर्नल सीके नायडू और कैप्टन मुश्ताक अली सरीखी क्रिकेट प्रतिभाओं को जगह दी थी.