क्या पंजाब में भाजपा हाशिये पर पहुंच जाएगी?

हाल ही में पंजाब के मनसा जिले में एक फैक्टरी के नजदीक 25 गायों के शव मिले थे, धार्मिक रूप से यह काफी संवेदनशील मसला था इसलिए तुरंत ही वहां ग्रामीणों का प्रदर्शन शुरू हो गया. पूरे इलाके में कुछ दिन कर्फ्यू लगा रहा. राजनीतिक प्रेक्षक और जनता उम्मीद कर रहे थे कि यह गाय से संबंधित विषय है इसलिए पंजाब में सत्तासीन शिरोमणि अकाली दल की सहयोगी भाजपा तुरंत ही तीव्र प्रतिक्रिया देगी. लेकिन यहीं पंजाब की राजनीति में आ रहे बदलाव की एक ऐसी झलक दिखी जो आने वाले दिनों में भाजपा के लिए एक बड़ा संकट बन सकता है. इससे पहले गाय वाले मसले पर भाजपा जिला बंद या आंदोलन जैसे किसी राजनीतिक स्टंट का कुछ भी बयान देती राज्य के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ऐसी घोषणाएं कर दीं जिन्हें सुनकर न सिर्फ भाजपा के पैरों तले जमीन खिसक गई साथ ही यह भी साबित हो गया कि यह अकाली दल भाजपा के वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए खुद भाजपा के एजेंडे पर उससे आगे जा सकता है. मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि फैक्टरी की जमीन को अधिगृहीत करके वहां मृत गायों की याद में गाय स्मारक बनाया जाएगा. इसके साथ ही बादल ने राज्य के डीजीपी को यह आदेश  दिया कि गायों को मारने और उन पर की गई हिंसा से संबंधित जितने भी मामले थानों में लंबित हैं उन्हें तत्काल प्रभाव से निपटाया जाए. सभी जिलों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को यह निर्देश दिया गया कि गाय से संबंधित मामलों को वे बेहद संवेदनशीलता और प्राथमिकता से देखें. मुख्यमंत्री की इन ‘क्रांतिकारी’ घोषणाओं के बाद स्वाभाविक ही है कि भाजपा के पास कुछ कहने-करने को नहीं बचा. 

वैसे दोनों दलों के बीच के राजनीतिक प्रेम संबंध में बदलाव की बुनियाद उसी दिन पड़ गई थी जब इसी साल मार्च में विधानसभा चुनाव नतीजे घोषित हुए. अकाली दल को इसमें 56 सीटें मिली थीं. यानी 117 की विधानसभा में 59 सीटों के बहुमत से बस तीन कम. गठबंधन में शामिल बीजेपी को 12 सीटें मिलीं. इससे अकाली दल-भाजपा गठबंधन की सीटें 68 हो गईं. बहुमत से 9 सीटें ज्यादा. हालांकि जैसा पहले कहा जा चुका है कि अकाली दल अगर अपने दम पर सरकार बनाने की सोचता तो उसे सिर्फ तीन सीटों की और जरूरत थी. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव (2007) में ऐसी स्थिति नहीं थी. 2007 में अकाली दल को केवल 49 सीटें हासिल हुई थीं, कांग्रेस उससे केवल पांच सीटें पीछे थी. उस समय अकाली दल और भाजपा गठबंधन की सरकार बनाने का काम भाजपा ने किया. भाजपा ने उस चुनाव में रिकॉर्ड 19 सीटें जीती थीं. ये 19 सीटें जब अकाली दल के 49 सीटों से जुड़ीं तो गठबंधन ने सरकार बनाने का जादुई आंकड़ा आसानी से पार कर लिया.

लेकिन इस बार ऐसी स्थिति नहीं थी. चुनाव नतीजे बता रहे थे गठबंधन का दूसरा साथी अर्थात भाजपा कमजोर हुई है और अकाली दल पिछले चुनाव के मुकाबले काफी मजबूत हुआ. इतना कि उसे अपने बलबूते  पर सरकार बनाने में अब कोई खास मुश्किल नहीं दिख रही है. यही वजह है पिछले दिनों पंजाब में ऐसी कई घटनाएं हुईं जो दिखाती हैं कि अकाली दल अपनी इस योजना को अमली जामा पहनाने की तरफ तेजी से बढ़ रहा है. वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘राज्य में भाजपा का कोई खास आधार नहीं है. वे अकाली दल की वजह से ही सत्ता में हैं. अपने दम पर तो राज्य में वह कुछ कर नहीं सकती. अब अकाली भी यही चाहते हैं कि उसे पंजाब में कमजोर बनाए रखा जाए. वे चाहते हैं कि भाजपा बस 10-15 सीटें जीतने के साथ जूनियर पार्टनर की तरह चुपचाप उनके साथ काम करती रहे.’ गठबंधन के दोनों सहयोगी अकाली दल और भाजपा ने अपनी जरूरत के हिसाब से राज्य में एक मॉडल तैयार किया था जिसमें अकाली दल जैसा कि माना जाता रहा है कि गांव और किसानों की पार्टी है वह पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करेगा तो भाजपा शहरी क्षेत्रों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाएगी. अकाली दल जहां सिखों के वोट ले आएगा वहीं भाजपा गैरसिख खासकर हिंदुओं के वोट गठबंधन को दिलाएगी. इस तरह एक तरफ जहां क्षेत्र (ग्रामीण और शहरी) के आधार पर दोनों पार्टियों के बीच कार्य विभाजन था वहीं धर्म के आधार पर भी दोनों ने अपनी अपनी हिस्सेदारी तय कर ली थी. 

‘अगर हम अकाली दल को हिंदुओं को टिकट देने से मना करेंगे तो वे यह सवाल पूछने लगेंगे कि हम सिखों को टिकट क्यों देते हैं’

इस तरह गठबंधन को शहरी, ग्रामीण, सिख और गैरसिख (खासकर हिंदूओं) सभी के वोट मिल जाते थे. लेकिन इस सत्ता संतुलन में पहली दरार तब पड़ी जब अकाली दल ने विधानसभा चुनावों में रिकॉर्ड 11 हिंदुओं को टिकट दिया. यह शुरुआत फिर आगे बढ़ती गई और अकाली दल ने भाजपा के वोट बैंक समझे जाने वाले हिंदुओं को पार्टी से जोड़ने की गंभीर शुरुआत की. बीजेपी के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पार्टी को अकाली दल के इस रवैये से दिक्कत तो थी लेकिन वह कुछ कर नहीं सकती थी क्योंकि अगर आप आज उन्हें हिंदुओं को टिकट देने से रोकेंगे तो वो इस बात का विरोध करेंगे कि हम किसी सिख को क्यों टिकट दे रहे हैं.’  

दोनों दलों के बीच दरार को चौड़ा करने का काम एक और बड़ी घटना ने किया. जब बादल सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजौना को मिली फांसी की सजा को लागू करने से इनकार कर दिया. भाजपा अकाली दल के इस व्यवहार से बेहद नाराज थी. जिस आदमी को पार्टी आतंकवादी और हत्यारा मानती थी, उसी की फांसी की सजा रुकवाने के लिए उसका गठबंधन सहयोगी (अकाली दल) दिल्ली में केंद्र सरकार के सामने विनम्र प्रार्थना कर रहा था. अकाली दल ने भाजपा की एक नहीं सुनी, किसी तरह न सिर्फ राजौना की फांसी पर राष्ट्रपति के माध्यम से रोक लगवाई गई बल्कि उन्हीं दिनों अकाल तख्त ने उसे जिंदा शहीद की उपाधि से भी नवाजा. इसके बाद मामला आया अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के प्रांगण में ब्लू स्टार मेमोरियल बनाए जाने का. भाजपा पंजाब प्रभारी और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का इस मसले पर कहना था, ‘हम आतंकवाद और उसमें लिप्त लोगों को किसी तरह का समर्थन देने या फिर उनका महिमामांडन करने के सख्त खिलाफ हैं. हम मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से इस विषय पर बात करेंगे कि वे स्मारक के बनने पर जल्द से जल्द रोक लगवाएं.’ वैसे स्मारक पर तो रोक नहीं लगी और स्मारक का बाहरी ढांचा बन कर तैयार हो गया है. इस मामले में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी.­   

इसके बाद दोनों दलों के बीचे के संबंधों में सबसे बडा झटका हाल ही में संपन्न हुई नगरपालिका चुनावों में लगा. इस चुनाव में अकाली दल को भाजपा से अधिक सीटें हासिल हुई हैं. जबकि इससे पहले तक भाजपा यह मानती आई हुई थी कि शहरी क्षेत्रों में उसका जनाधार है और ग्रामीण क्षेत्रों में अकाली दल का. अभी नतीजे आए ही थे कि भाजपा ने अकाली दल पर यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि अकाली दल के नेताओं ने षड्यंत्र के तहत पार्टी के प्रत्याशियों के खिलाफ डमी कैंडिडेट खड़े कर दिए थे जिससे उनके कई प्रत्याशी हार गए. यह लड़ाई अभी चल ही रही थी कि कुछ धार्मिक संगठनों की तरफ से यह मांग आई कि अमृतसर चूंकि सिखों की धार्मिक आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है, ऐसे में यहां का मेयर कोई सिख ही होना चाहिए और वह अकाली दल से हो. भाजपा ने उसके और अकाली दल के बीच हुई राजनीतिक सहमति का हवाला देते हुए कहा कि 1997 में जो राजनीतिक गठजोड़ का समझौता हुआ था उसके अनुसार अमृतसर और जालंधर में मेयर भाजपा का बनेगा जबकि लुधियाना और पटियाला में मेयर अकाली दल का बनेगा. 

इस घटनाक्रम के बाद भाजपा के नेता अकाली दल को गठबंधन धर्म निभाने की नसीहत देते नजर आए. अभी तक दोनों दल यह तय नहीं कर पाए हैं कि मेयर किस दल से होगा. प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष विनोद शर्मा दोनों दलों के संबंध के इस स्थिति तक पहुंच जाने के सवाल पर कहते हैं, ‘हमारा समझौता बादल (प्रकाश सिंह बादल) साहब से है. वे हमेशा भाजपा को एक मजबूत साथी के तौर पर न सिर्फ देखते हैं साथ ही हमारा बेहद सम्मान करते हैं. लेकिन नीचे की लीडरशीप इस भावना से परिचित नहीं है. उसकी तरफ से समय-समय पर दिक्कतें आती रहती हैं.’ इस तरह से पिछले कुछ समय में कई ऐसी घटनाएं, घोषणाएं और बयानबाजियां सामने आई हैं जिन्होंने दोनों दलों के बीच तेजी से उभर रही दरार की तरफ इशारा किया है. लेकिन भाजपा की तरफ से अभी तक आक्रामक रुख देखने को नहीं मिला है.  बलवंत तक्षक कहते हैं, ‘भाजपा जानती है कि वह यहां बिना अकाली दल के कुछ नहीं है इसलिए वह जनता को दिखाने के लिए बयानबाजी तो करती रहती है लेकिन इस हद तक विरोध नहीं करती कि संबंध खत्म हो जाए.’