चुप्पी की चतुर चाल

दो साल, दो महीने और 12 दिन तक उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का ऊखीमठ कस्बा अत्यंत संवेदनशील विस्फोटक के खतरे में रहा. पहाड़ों में अक्सर कड़कने वाली आसमानी बिजली की एक हल्की-सी कड़क घनी आबादी वाले इस खूबसूरत पहाड़ी कस्बे को बर्बाद करने के लिए काफी थी. सर्दियों में जब केदारनाथ और मद्महेश्वर तीर्थ के कपाट बंद हो जाते हैं तो छह महीने इनकी पूजा ऊखीमठ के प्राचीन और मंदिर परिसर में होती है. यहीं केदारनाथ के रावल का गद्दीस्थल भी है जो दक्षिण भारत के वीर शैव लिंगायतों के पांच पंचाचार्यों में एक है. इस तरह ऊखीमठ सदियों से उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक समागम का प्रतीक भी है. 

ऊखीमठ को यह खतरा 1,000 डेटोनेटरों से था. ये डेटोनेटर छह अप्रैल, 2010 को उपजिलाधिकारी अभिषेक त्रिपाठी ने  राजस्व दल के साथ राऊंलेक गांव की सीमा में पंवार स्टोन क्रशर के स्टोर से पकड़े थे और इन्हें कब्जे में लेकर तहसीलदार ऊखीमठ की सुरक्षा में दे दिया था. ये खतरनाक मानी जाने वाली जेड-जेड श्रेणी के विस्फोटक थे. विस्फोटक नियमावली, 2008 के अनुसार जेड-जेड श्रेणी के विस्फोटक सबसे खतरनाक होते हैं. ऐसे डेटोनेटर न केवल बहुत बड़ा विस्फोट करने की क्षमता रखते हैं, बल्कि धमाकों के साथ मीलों दूर जाकर वहां भी बर्बादी का कहर बरपा सकते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार डेटोनेटर इतने संवेदनशील विस्फोटक होते हैं कि कभी-कभी इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखते हुए भी विस्फोट हो जाता है. 

इन्हीं खतरों के चलते विस्फोटक नियमावली में तय कठोर नियमों के तहत डेटोनेटरों को विशेष रूप से बनी मैगजीनों में रखा जाता है. इन मैगजीनों को आबादी से दूर सुनसान जगहों पर बनाया जाता है ताकि दुर्घटनावश विस्फोट होने पर कम-से-कम हानि पहुंचे. लेकिन राजस्व पुलिस ने जब्त करने के बाद ये डेटोनेटर जिस अलमारी में रखे थे उसके बगल में कंप्यूटर, उसका यूपीएस और बिजली से चलने वाले और उपकरण भी रखे थे. ऐसे में आसमानी बिजली की चमक के अलावा लोहे की अलमारी का कंपन या हल्का-सा तापमान भी तबाही मचा सकता था. विशेषज्ञों के मुताबिक इतनी मात्रा में जब्त डेटोनेटरों से पूरा का पूरा ऊखीमठ उड़ सकता था. पंवार स्टोन क्रशर में भी जनरेटर रूम का कंपन और स्टोर में इनके साथ रखा अवैध 550 लीटर डीजल भी किसी बड़ी दुर्घटना को न्योता दे रहा था.

यह कहानी जिम्मेदार अधिकारियों और राजस्व पुलिस की कार्यप्रणाली की पोल खोलती है. राजनेता और माफिया का भ्रष्ट गठजोड़ यह दिखाता है कि यदि सत्ता आपके साथ है तो आपका कुछ नहीं होने वाला.

उत्तराखंड में राजस्व विभाग के पटवारी यानी लेखपाल को थानाध्यक्ष और नायब तहसीलदार को पुलिस उपाधीक्षक के बराबर मुकदमा दर्ज करने, अवैध सामान को जब्त करने और मुकदमे की विवेचना करने की शक्तियां प्राप्त हैं. लेकिन इस अवैध विस्फोटक की बरामदगी मामले में  राजस्व दल ने कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया. अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे इलाके में 1,000 डेटोनेटरों की बरामदगी की खबर शायद बड़ी होती पर इलाका दूरदराज का था और प्रशासन भी इस खबर को गोपनीय रखना चाहता था.

उस दिन मौके पर मौजूद रहे राजस्व विभाग के छोटे कर्मचारी बताते हैं कि यदि छापा मारने वाले दल का नेतृत्व करने वाले उपजिलाधिकारी त्रिपाठी लिखित कार्रवाई नहीं करते तो बेहद खतरनाक और सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील यह मामला कहीं कोई सुराग छोड़े बिना खुर्द-बुर्द हो सकता था. त्रिपाठी ने तत्कालीन जिलाधिकारी को मोबाइल से ही इस बड़ी बरामदगी की सूचना दी. साथ ही मामले की आख्या भी उसी दिन फैक्स से जिलाधिकारी कार्यालय भेज दी थी.  

आठ अप्रैल, 2010 को जिलाधिकारी के आदेश पर इस मामले को राजस्व पुलिस से रेगुलर पुलिस को हस्तांतरित करने के आदेश का आलेख फाइल पर तैयार हो गया था. फाइल के उसी पेज पर हस्तलिखित आख्या से यह भी पता चलता है कि इन विस्फोटकों को रखने की कोई वैध अनुमति भी नहीं दी गई थी. यानी ये विस्फोटक पूरी तरह से गैरकानूनी थे. कानून के मुताबिक ऐसे मामले में 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा तय है. लेकिन इन सभी कार्रवाइयों के बाद मुकदमा दर्ज नहीं हुआ, उल्टे उपजिलाधिकारी त्रिपाठी का तबादला हो गया. 

राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी से किसी विस्फोटक की बरामदगी के बाद होने वाली कार्रवाई के विषय में पूछने पर वे बताते हैं कि गिरफ्तारी और एफआईआर दर्ज करने के साथ-साथ सुरक्षा से जुड़े इस तरह के गंभीर मामलों की सूचना जिलाधिकारी को अविलंब शासन के साथ-साथ आगरा स्थित पेट्रोलियम और विस्फोट सुरक्षा संगठन के कार्यालय को भी देनी चाहिए. विस्फोटकों के मामले में बिना वारंट के भी गिरफ्तारी की जा सकती है. ये अधिकारी बताते हैं, ‘शासन भी इस तरह के मामलों की सूचना राज्य और केंद्रीय गुप्तचर एजेंसियों को भेजता है ताकि पता चल सके कि विस्फोटक कहां से आया और किस प्रयोजन से रखा गया था.’

मामले की फाइल के अनुसार इस मामले में जिला प्रशासन ने एक भी पत्र उत्तराखंड शासन या उच्चाधिकारियों को नहीं भेजा. राज्य में गृह सहित कई महत्वपूर्ण विभाग देख चुके ये अधिकारी कहते हैं , ‘उत्तराखंड चीन और नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगा है. देश के कई राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं, इसलिए विस्फोटकों की बरामदगी के मामलों में गिरफ्तारी के बाद गहन पूछताछ करना जरुरी है. पंवार स्टोन क्रशर को यूं भी केवल चुगान की इजाजत मिली थी, इसलिए विस्फोटक उनके किसी काम के नहीं थे. सचिवालय के अधिकारी बताते हैं कि जिस जगह से डेटोनेटर बरामद होता है वहां निश्चित रूप से जिलेटिन भी बरामद होगा. विशेषज्ञों के अनुसार बरामद 1,000 डेटोनेटरों के अनुपात में बरामद होने वाला संभावित जिलेटिन भी टनों में हो सकता था. 

अपराध अपने निशान छोड़ता है और कागजों में आई बात जिंदा रहती है. इस मामले में भी यही हुआ. 2007 से राऊंलैंक की सीमा से लगे गांव के लगभग 80 वर्षीय पूर्व सैनिक और वैद्य रामदत्त खेड़वाल पंवार स्टोन क्रशर के अवैध खनन का विरोध कर रहे थे. जिलाधिकारी से लेकर प्रमुख सचिव और मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक हर ज्ञापन में वे कहते रहे कि खुशाल सिंह को दी जाने वाली खनन की हर इजाजत खनन नीति विरुद्ध और गैर-कानूनी है. रामदत्त के अनुसार 2007 में शासन ने खुशाल सिंह को उन जमीनों पर खनन पट्टा स्वीकृत किया जो नदी से बहुत ऊपर पहाड़ पर थीं और जिन खेतों में खनन सामग्री नहीं है. इन पट्टों के नाम पर धड़ल्ले से वनभूमि से खनन होता रहा. लेकिन अवैध और गैरकानूनी रूप से दिए पट्टों को रोकने के बजाय 2008 में शासन ने मानकों और खनन नीति में वर्णित प्रावधानों की अवहेलना करते हुए पंवार स्टोन क्रशर लगाने की इजाजत भी दे दी. इसी पंवार स्टोन क्रशर के स्टोर से विस्फोटक बरामद हुआ था. 2010 के बाद अवैध खनन की शिकायत के साथ-साथ रामदत्त के हर ज्ञापन में संभावित विस्फोटक बरामदगी की उड़ती खबर पर जांच की मांग भी होती थी. 

कानूनन ऐसे मामले में 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है, लेकिन यहां तो कोई एफआईआर तक दर्ज करने को तैयार नहीं था

सचिवालय से प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि जिस वन भूमि पर अवैध खनन करते हुए पकड़े जाने पर खुशाल सिंह पर लाखांे रुपये का अर्थ दंड लगा था, उनियाणा गांव में उसी 83 नंबर के प्लाट पर 20 मार्च, 2008 को खुशाल सिंह ने एक खनन पट्टा उत्तराखंड शासन से स्वीकृत करा लिया था. उस समय पट्टा जारी करने वाला औद्योगिक विकास विभाग तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी के पास था. वनभूमि पर केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की इजाजत के बिना पट्टे जारी नहीं किए जा सकते थे पर इस मामले में ऐसा कर दिया  गया. रामदत्त के विरोध के बाद नई कांग्रेस सरकार ने वन भूमि पर नियम विरुद्ध दिए गए खनन पट्टे को शसन ने निरस्त तो कर दिया लेकिन निरस्तीकरण के आदेश में वन संरक्षण अधिनियम के उल्लंघन  का कहीं जिक्र नहीं किया. ऐसे त्रुटिपूर्ण आदेश के विरुद्ध खनन माफिया को आसानी से हाई कोर्ट से स्थगनादेश मिल गया. 

बार-बार संभावित विस्फोटक पकड़े जाने संबंधी ज्ञापनों के चलते रुद्रप्रयाग जिला कार्यालय में इस बेहद संवेदनशील मामले की फाइल की खोज होने लगी. आखिर यह फाइल नवंबर, 2011 में जिलाधिकारी के निवास में मिली. सूचना के अधिकार के तहत रामदत्त और ऊखीमठ व्यापार संघ के अध्यक्ष आनंद सिंह रावत को मिली जानकारी से यह तो पता चल गया था कि छह अप्रैल, 2010 को ऊखीमठ के उपजिलाधिकारी ने डेटोनेटर पकड़े थे. लेकिन आधी-अधूरी सूचना से यह पता नहीं चल रहा था कि वे वास्तव में कितने थे. 

रुद्रप्रयाग जिलाधिकारी कार्यालय के सूत्र बताते हैं कि तत्कालीन जिलाधिकारी सत्ता के सर्वोच्च शिखर से आ रहे दबावों और खनन माफियाओं के पैसे की खनक के आगे बेबस थे. अवैध खनन के मामले में दो साल बाद फाइल मिलने के बाद भी प्रभारी जिलाधिकारी रुद्रप्रयाग ने मुकदमा दर्ज कराने की प्रक्रिया शुरू करने के बजाय अभियोजन अधिकारी की सलाह पर विस्फोटकों को नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर दी.  अब इस मामले में रुद्रप्रयाग के एक प्रभारी अधिकारी डॉ ललित नारायण मिश्रा जांच कर रहे हैं. दस्तावेजों के अनुसार फौरी तौर पर यह सिद्ध हो रहा है कि एक बार जिलाधिकारी के आवास पर जाने के बाद वास्तव में फाइल संबंधित छोटे कर्मचारियों के पास नहीं आई. यह भी साफ है कि फाइल को दबाने में उच्चाधिकारियों का हाथ था. राज्य में तैनात रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘यह संभव नहीं कि कोई जिलाधिकारी 1,000 डेटोनेटरों की बरामदगी और उस पर मुकदमा दर्ज करने की बात भूल जाए.’

इस मामले में स्थानीय लोगों ने 18 अक्टूबर, 2011 को जिलाधिकारी को पत्र लिखकर कार्रवाई की मांग की. उन्होंने इस पत्र की प्रतिलिपि उत्तराखंड शासन के साथ-साथ सांसद और संसद की रक्षा समिति के अध्यक्ष सतपाल महाराज को भी भेजी. दस्तावेजों के अनुसार यह शिकायती पत्र राज्य के मुख्य सचिव , प्रमुख सचिव संयुक्त सचिव कार्यालय, पुलिस महानिदेशक के बाद रुद्रप्रयाग के पुलिस अधीक्षक के पास भी पहुंचा. इनमें से किसी भी अधिकारी द्वारा मामले का संज्ञान न लेने के से संकेत मिलता है कि उत्तराखंड में या किसी भी स्तर के अधिकारी स्वयं कागजों को पढ़ते नहीं या वे गंभीर मामलों में भी संवेदनहीन हो गए हैं. रुद्रप्रयाग के पुलिस अधीक्षक ने यह मामला राजस्व पुलिस क्षेत्र का होने के कारण जांच के लिए जिलाधिकारी के पास भेज दिया. इसके एक महीने बाद जिलाधिकारी की ओर से प्रभारी अधिकारी ने उपजिलाधिकारी को  प्रकरण में आवश्यक कार्रवाई करने का आदेश दिया. जिलाधिकारी कार्यालय के कर्मचारी बताते हैं कि सत्ता के शीर्ष से आते दबावों के कारण तत्कालीन जिलाधिकारी राज्य में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों के अनुसार कार्रवाई की रणनीति बना रहे थे.  

10 फरवरी, 2012 को तत्कालीन जिलाधिकारी रुद्रप्रयाग ने इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने के बजाय मामला कालातीत मानते हुए विस्फोटक अधिनियम, 1983 के प्रावधानों के तहत डेटोनेटर नष्ट करने के आदेश जारी किए. 18 जून, 2012 को उप विस्फोट नियंत्रक डॉ. विवेक कुमार की देखरेख में इन्हें नष्ट भी कर दिया गया. यहां यह भी गौरतलब है कि 15 जून को ज्येष्ठ अभियोजन अधिकारी ने इस मामले में मुकदमा दर्ज करने की सलाह दे दी थी फिर भी जिला प्रशासन ने केस प्रॉपर्टी नष्ट करवा दी. इस बीच रामदत्त ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए कई बिंदुओं पर सूचना मांग ली थी. अब प्रशासन के पास कोई चारा नहीं रह गया था. ऐसे में जिलाधिकारी डॉ नीरज खैरवाल के 19 जुलाई, 2012 के आदेश पर राजस्व पुलिस ने पंवार स्टोन क्रशर के विरुद्ध विस्फोटक अधिनियम में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है. फौजदारी मामलों के अधिवक्ता सूरत सिंह नेगी बताते हैं कि यह गंभीर मामला है जिसमें अपराध सिद्ध होने पर निश्चित रूप से सजा हो सकती है.