रहनुमाई या खुदनुमाई?

समाजवादी पार्टी में कभी नंबर दो की हैसियत रखने वाले आजम खान को हाशिए पर धकेलने की प्रक्रिया चल रही है और जामा मसजिद के इमाम अहमद बुखारी इस काम के लिए सबसे बड़े हथियार बन गए हैं. हिमांशु बाजपेयी की रिपोर्ट.

उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी को इन दिनों एक रस्साकशी से दो-चार होना पड़ रहा है. इसमें एक तरफ पार्टी के मुसलिम चेहरे आजम खान हैं और दूसरी तरफ दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी.  खींचतान जिस तरह से हो रही है उससे साफ लगता है कि लड़ाई मुसलमानों के अधिकारों के लिए कम और निजी अधिकारों के लिए ज्यादा है. 

 आजम और बुखारी के बीच तकरार यूं तो बहुत पुरानी है लेकिन इस साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले यह नए सिरे से शुरू हो गई थी. जनवरी में इमाम बुखारी ने मुलायम सिंह के साथ मिलकर एक प्रेस कांफ्रेंस की और मुसलमानों से मुलायम का साथ देने की अपील की. बदले में सपा सुप्रीमो ने कहा कि सरकार बनी तो मुसलमानों को हर जगह समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा और इमाम साहब का मान रखा जाएगा. लेकिन इसके तुरंत बाद आजम खां ने रामपुर में बयान दे दिया कि बेहतर होगा बुखारी इमामत ही करें और सियासत हमें करने दें. 

इसके बाद ऐन चुनावी माहौल में बुखारी ने आजम पर यह कहकर निशाना साधा कि आजम की खुद रामपुर की एक सीट के बाहर कोई हैसियत नहीं है. वार आजम भी कर रहे थे, यह कहकर कि बुखारी के दामाद की हार तय है क्योंकि एक भी मुसलमान बुखारी की अपील पर वोट नहीं करता. बात सच निकली. तकरीबन सत्तर फीसदी मुसलमान वोटरों वाली सहारनपुर की बेहट सीट पर उमर बुखारी बुरी तरह से चुनाव हार गए. इसके फौरन बाद आजम ने बुखारी को दोबारा ललकारा कि इमाम साहब में दम है तो अपनी ससुराल मुरादाबाद से मेयर का चुनाव लड़ें और जीत कर दिखाएं. 

अप्रैल में राज्यसभा चुनाव के नामांकन शुरू हुए जिसमें सपा ने आजम खेमे के मुनव्वर सलीम को भेजा जबकि यह जगह इमाम बुखारी अपने भाई यहिया बुखारी के लिए चाहते थे. बुखारी इससे बेहद नाराज हुए, लेकिन मुलायम ने उनको सहयोग का आश्वासन देकर शांत कर दिया. आजम के सख्त एतराज के बावजूद बाद में विधानसभा चुनाव हारे हुए उनके दामाद को विधान परिषद भेज दिया गया. आजम उमर को एमएलसी बनाने के खिलाफ थे उन्होंने कहा कि इमाम साहब के मुताबिक मुसलमानों की सारी समस्याएं उनके रिश्तेदारों के पद पा जाने से ही सुलझ जाएंगी. इसके बाद बुखारी ने मुलायम सिंह को एक चिट्ठी लिखी जिसका मजमून यह था कि आजम खान मुसलमानों के दुश्मन हैं और अल्पसंख्यक मंत्रालय उनसे छीन लेना चाहिए. सूत्रों के मुताबिक बुखारी यह मंत्रालय आजम की जगह अपने दामाद उमर को दिलवाना चाहते हैं. 

पूरे मामले पर मुलायम सिंह और सपा के किसी भी नेता ने कोई और प्रतिक्रिया नहीं दी. आजम इस बात से नाराज थे कि पार्टी के बाहर का आदमी उन्हे गालियां दे रहा था और उनके बचाव में पार्टी का कोई भी व्यक्ति आगे नहीं आया. साफ था कि पार्टी में न होते हुए भी बुखारी का कद आजम से बड़ा होने लगा था. इसीलिए आजम का चिर-परिचित बेबाक स्वर धीमा पड़ रहा था. यह इशारा था कि अब उनकी हैसियत पिछले दौर वाली नहीं रही.  मई में बुखारी जब दोबारा लखनऊ आए तो एक बार फिर अपने करीबी वसीम खां को उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष बनवा कर लौटे. मीडिया ने खूब लिखा कि बुखारी अपनों को सरकार में एडजस्ट करवा रहे हैं. लेकिन इस मामले पर आजम ने कोई बयान नहीं दिया क्योंकि पार्टी के रवैये से नाखुश होने के बावजूद वे अब कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहते थे जिससे आगे उनके लिए मुश्किल खड़ी हो. आज भी स्थिति वैसी ही है. बुखारी के बारे मे सवाल पूछे जाने पर उन्होंने साफ कहा, ‘माफ कीजिए लेकिन बुखारी के न हक में कुछ कहूंगा न मुखालफत में.’ 

जगजाहिर है कि आजम खान सपा में बुखारी की हैसियत बढ़ने से नाखुश हैं. दरअसल आजम-बुखारी की लड़ाई शुरू होने के बाद सपा ने आजम को न सिर्फ अकेला छोड़ दिया है बल्कि उनकी नाज-बरदारी भी कम कर दी है. वहीं बुखारी की हर मांग पर  पार्टी अमल करती गई, इस तरह से पार्टी ने आजम को साफ संदेश दिया गया कि अखिलेश के निजाम में चीजें वैसी नहीं हैं जैसी नेताजी के समय हुआ करती थीं. 

वैसे आजम की उपेक्षा की शुरुआत विधानसभा चुनाव से पहले डीपी यादव  प्रकरण से ही हो गई थी जब आजम की घोषणा को खारिज करते हुए अखिलेश ने डीपी को पार्टी में दाखिला नहीं दिया. इसके बाद मंत्रालय बांटे जाते वक्त भी आजम खुश नहीं थे क्योंकि सपा नेतृत्व उन्हें स्पीकर बनाने पर आमादा था. इसके बाद मेरठ के प्रभारी पद से भी आजम को हटा दिया गया. हालांकि बाद में यह उन्हें वापस मिल गया. यही नहीं उनकी वह चिट्ठी भी पार्टी के लोगों ने लीक करवा दी जिसमें उन्होने इस्तीफे की पेशकश की थी. इसके अलावा आजम मुख्यमंत्री की तरफ से आयोजित इफ्तार पार्टी में भी शरीक नहीं हुए जबकि वे उस दिन लखनऊ में ही थे. इसके अलावा आजम ने पिछले दिनों नगर विकास विभाग की जो समीक्षा बैठक बुलाई उसमें अधिकारी पहुंचे ही नहीं. आजम ने गुस्से में यहां तक बयान दे डाला कि अनुशासनहीनता उन्हे बर्दाश्त नहीं लेकिन अफसोस कि वे कुछ कर नहीं सकते. साफ है कि आजम का कद पार्टी में पहले जैसा नहीं रहा. पर वे  इस मुद्दे पर खुल कर बोलने की स्थिति में भी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘मेरी नाराजगी मीडिया की बनाई हुई है. मै इफ्तार पार्टी में क्यों नहीं गया इसकी निजी वजहें हो सकती हैं, इनका जिक्र मीडिया में करने के लिए मै बाध्य नहीं हूं. मीडिया को सिर्फ अपनी स्टोरी से मतलब होता है, वह सियासी मामलों की नजाकत और अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती.’

हालांकि बुखारी आजम पर वार का कोई मौका नहीं चूक रहे. वे कहते हैं, ‘आजम खान का दिमाग खराब हो गया है. मै मान रहा हूं कि मैने कई पार्टियों का साथ दिया.  तब मुझे उनसे कौम की बेहतरी की उम्मीद थी. मै किसी पार्टी का सदस्य तो हूं नहीं जो पार्टी का पाबंद रहूं. उमर बुखारी के अलावा मेरा कोई रिश्तेदार पार्टी में नहीं है. इस बार सपा के साथ था इसलिए सरकार बनने के बाद लोग मेरे पास उम्मीद लेकर आते हैं.’

आजम खां सपा के संस्थापक सदस्य रहे हैं, आठ बार के विधायक हैं. पार्टी की हर सरकार में उनकी नंबर दो की हैसियत रही है. पार्टी के मुस्लिम चेहरे रहे हैं. उधर, इमाम बुखारी को अवसरवादिता का प्रतीक कहा जाता रहा है. अतीत में बसपा, कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा जैसी पार्टियों से  भी जुड़ चुके हैं. यह बात भी साबित हो चुकी है कि उनके धार्मिक अनुयायी चाहें जितने हों लेकिन राजनैतिक जनाधार बिल्कुल नहीं है. तो फिर क्या वजह है कि सपा को वे आजम खान से ज्यादा मुफीद लग रहे हैं? इसका जवाब वरिष्ठ उर्दू पत्रकार हसन कमाल देते हैं, ‘बुखारी राजनैतिक रूप से आजम खान के सामने कहीं नहीं ठहरते. लेकिन एक राजनीति पार्टी के अंदर भी चल रही है.

उसके लिए अपने आजम की बजाय बाहरी बुखारी एकदम मुफीद हैं. मुलायम सिंह, अखिलेश के भविष्य की राह अपने सक्रिय रहते ही एकदम साफ कर देना चाहते हैं, जिसमें प्रभुत्व की राजनीति करने वाले आजम सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकते हैं. साथ ही मुलायम मुसलमान वोटों के लिए लंबे समय तक आजम पर निर्भर नहीं रहना चाहते. इसलिए वे आजम पर नकेल रखना चाहते हैं. वे जानते हैं कि बुखारी को साथ लाने से उनकी मुस्लिम छवि भी बनी रहेगी और आजम को भी एक असुरक्षा बनी रहेगी.’ इसके बाद हसन कमाल व्एक और बेहद अहम बात कहते हैं, ‘उलेमा को साथ लाना पार्टी की अंदरूनी राजनीति में तो फायदेमंद साबित हो सकता है लेकिन चुनाव में इसका कोई फायदा पार्टी को नहीं मिलता. और जिस मुसलिम समुदाय की बेहतरी के नाम पर यह सब किया जाता है उसे तो इससे फकत नुकसान ही हासिल होता है.’