दंगे…

पिछले साढे़ तीन महीने में उत्तर प्रदेश पांच दंगे झेल चुका है. मूक प्रशासन और सरकार के ढुलमुल रवैये  के बीच मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, इलाहाबाद के साथ-साथ राजधानी लखनऊ भी कई दिनों तक सांप्रदायिकता की आग में झुलसती रही. एक ओर जहां बरेली और कोसीकलां जैसे शहरों के बाजारों के कई दिन बंद रहने से यहां के रहवासियों को भारी नुकसान झेलना पड़ा, वहीं इन दंगों में कुल सात लोगों ने अपनी जान गंवाई और सैकड़ों जख्मी भी हुए.

राज्य के दंगा प्रभावित क्षेत्रों के जमीनी दौरे और स्थानीय लोगों से बातचीत से इन दंगों के कई अनछुए पहलू हमारे सामने आते हैं.  लाखों के माली नुकसान से उबरने की कोशिश कर रहे दुकानदार और बेवजह गुस्साई भीड़ की भेंट चढ़ गए परिजनों का शोक मनाते पीड़ितों के परिवारों की मानें तो उत्तर प्रदेश में हुए इन दंगों की जड़ें दो समुदायों के बीच पनपे किसी फसाद में नहीं छिपी हैं. असल में ये सभी दंगे राजनीतिक कारणों से प्रेरित दो समूहों के चंद फसादियों की लड़ाई भर थे. प्रतापगढ़ को छोड़कर अन्य सभी जिलों में राजनीतिक कारणों से प्रेरित मुट्ठी भर दंगाइओं ने मामूली फसाद को बढ़ाकर सांप्रदायिक दंगे की शक्ल दे दी. ज्यादातर मामलों में मसला धार्मिक वैमनस्य से ज्यादा अफवाहों से उपजी भ्रामक परिस्थितियों की वजह से बिगड़ा. उस पर प्रशासन की आपराधिक अनुपस्थिति ने स्थानीय रहवासियों में भय और असुरक्षा की भावना को और बढ़ा दिया. इस भगदड़ और दहशत के बीच देखते ही देखते कई निर्दोष लोगों की हत्याएं हो गईं और  व्यापारिक प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया. 

उत्तर प्रदेश में दंगों की शुरुआत ठीक साढ़े-तीन महीने पहले मथुरा से लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर बसे छोटे-से कस्बे कोसीकलां से हुई. एक जून की दोपहर को शहर की मुख्य मस्जिद के सामने शरबत पिलाने का कार्यक्रम था. पास के ही एक दुकानदार देवंेद्र उर्फ देबू ने शरबत के पानी से हाथ धो लिए. स्थानीय निवासी और दंगों के प्रत्यक्षदर्शी सुभाष गोयल बताते हैं कि इस बात पर दोनों समुदाय के कुछ लोगों में हल्की कहासुनी हो गई. गोयल आगे जोड़ते हुए कहते हैं, ‘दरोगा जमादार सिंह घटनास्थल पर आए तो थे लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया. अगर तभी कुछ किया जाता तो फसाद आगे ही न बढ़ता. लेकिन उनके जाते ही भीड़ भड़क उठी और आधे घंटे में ही पूरा शहर दंगों की चपेट में आ गया. ऐसा लग रहा था मानो प्रशासन नाम की कोई चीज ही नहीं है.’

पीड़ित परिवारों की मानें तो ये दंगे दो समुदाय के वैमनस्य की वजह से नहीं भड़के बल्कि इनके पीछे राजनीतिक स्वार्थों की भूमिका थी

शाम होते-होते कोसीकलां के आस-पास मौजूद जाट बहुल गांवों से हजारों की तादाद में लोग शहर पहुंचने लगे. घटनाक्रम बताते हुए गोयल जोड़ते हैं, ‘असल में मोबाइल की वजह से कई अफवाहें फैलीं. लोगों को बताया गया कि दूसरे समुदाय वालों ने उनकी महिलाओं के साथ छेड़खानी की है. पुलिस प्रशासन पूरी तरह मूकदर्शक बना हुआ था. न ही रबर की गोलियां छोड़ी गईं, न आंसू गैस और न ही दंगाइयों पर पानी मारा गया. लाठी चार्ज भी नहीं हुआ. सब लोग एक दूसरे को मारते रहे, जलाते रहे. इस बीच 4 लोगों की हत्याएं हो गईं और करोड़ों का सामान स्वाहा हो गया.’ 

दंगे रात के लगभग 12 बजे तक चलते रहे और 16 दिनों तक शहर में कर्फ्यू  लगा रहा. तहलका की टीम जब हताहतों के परिजनों से मिलने पहुंची तो दोनों ही समुदायों के लोगों ने एक सुर में प्रशासन की आपराधिक निष्क्रियता को दोष देते हुए दंगों को राजनीति से प्रेरित बताया. कोसीकलां के दंगों में मारे गए 22 वर्षीय भूरा और कलुआ के बड़े भाई सलीम अपने जुड़वां भाइयों की तस्वीर दिखाते हुए बताते हैं, ‘भूरा को गोली लग गई थी और कलुआ उसे रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले जा रहा था. तभी उसे दंगाइयों ने पकड़ लिया और मारकर जलती हुई दुकान में फेंक दिया. लेकिन पुलिस- प्रशासन हमारी मदद को नहीं आए.’दंगों के तुरंत बाद मथुरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक धर्मवीर यादव और कलेक्टर संजय यादव का ट्रांसफर कर दिया गया और 54 एफआईआर दर्ज की गईं. इनमें कुल 54 लोग नामजद थे और 1,200 अज्ञात. अलग-अलग धाराओं के अंतर्गत मामले दर्ज किए गए.

कोसीकलां दंगों में क्षेत्र के पूर्व बसपा विधायक चौधरी लक्ष्मी नारायण और उनके दो भाइयों लेखराज और नरदेव चौधरी पर भी मामले दर्ज किए गए हैं. तहलका से बातचीत के दौरान वे सारी जिम्मेदारी मौजूदा सपा सरकार और सुस्त पुलिसिया कार्यवाई पर डालते हुए कहते हैं, ‘प्रशासन और पुलिस ने लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया था. किसी ने लाठी चार्ज करके या आंसू गैस के गोले छोड़कर भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश नहीं की. मामले को चार महीने होने को हैं पर अभी तक कोइ चार्जशीट तक फाइल नहीं हुई है.’ थोड़ी और पड़ताल करने पर दंगों के पीछे छिपा राजनीतिक तानाबाना और साफ होने लगता है. नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं, ‘असल में कोसीकलां में हमेशा राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का ही बोलबाला रहा है. इस विधानसभा चुनाव में भी यहां आरएलडी के ठाकुर तेजपाल सिंह ही जीते. दंगों के समय निकाय चुनाव सर पर थे और एक खास समुदाय के लोगों को मार कर जनता को उकसाने और जनमत अपने पक्ष में करने की कोशिश की जा रही थी.’  मगर सभी इस बात पर सहमत हैं कि अगर प्रशासन थोड़ा-सा सतर्क होता तो कोसीकलां में इतने बड़े पैमाने पर मारकाट और लूटपाट न हुई होती.

कभी राज्य के सबसे शांतिपूर्ण शहरों में शुमार बरेली भी पिछले तीन महीने में  दो बार सांप्रदायिक दंगों का शिकार हुआ. इन दंगों में एक ही समुदाय के तीन लोगों की हत्याएं हुईं, बाजार 35 दिन तक बंद रहे और करोड़ों की संपत्ति आग के हवाले कर दी गई. उत्तर प्रदेश में दंगों के एक खास पैटर्न के अनुसार ही बरेली के तुरंत बाद जिले के प्रमुख अफसरों के तबादले हुए, 38 एफआईआर दर्ज की गईं और 293 लोग गिरफ्तार किए गए. मठ की चौकी और शहामतगंज पर दंगाइयों से पिट चुके अपने पुलिसिया अमले की साख बचाने की कोशिश में जिले के नए कलेक्टर अभिषेक प्रकाश बस इतना कहते हैं, ‘सभी मामलों में जांच चल रही है. शुरुआती तहकीकात के खत्म होते ही आरोप पत्र दाखिल कर लिए जाएंगे.’

यहां भी शहर के आम लोगों के साथ-साथ पीड़ितों के परिवारों का भी यह स्पष्ट मानना है कि दंगे उन पर सियासी ताकतों ने जबरन थोपे थे. 23 जुलाई और फिर 11 अगस्त को भड़के दंगों के बारे में बताते हुए शहर के प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर एसी त्रिपाठी कहते हैं, ‘इस शहर में  बरेलवी पंथ के आला हजरात साहब, सूफी समुदाय की खान काह-ए-नियाजिया के साथ-साथ हिंदुओं के कई प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर भी मौजूद हैं. और यहां धर्म को सही मायने में जीने वाले लोग रहते हैं. शहर की जनसंख्या भी हिंदू-मुसलमानों के इतने घने मिक्स के तौर पर बसी है कि अगर सच में दोनों संप्रदायों के लोग एक-दूसरे से लड़ जाएं तो जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है. इसलिए यह तो साफ हो जाता है कि ये सारे दंगे शहर पर आरोपित थे. असल में शहर के राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व के पूरी तरह समाप्त हो जाने की वजह से राजनीतिक स्पेस में एक रिक्तता आ गई है. इसी रिक्तता का फायदा उठाने के लिए कुछ छोटी-मोटी गुमनाम राजनीतिक ताकतें फसादियों को तैनात करवाकर दंगे भड़का रही थीं. और धर्म इसका सबसे आसान जरिया है. मगर यह सब हो सिर्फ इसीलिए पाया क्योंकि मौजूदा राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से जवाबदेही पूरी तरह गायब हो चुकी है.’

पिछले तीन दंगों ने बरेली जैसे धार्मिक रूप से सहिष्णु शहर को इस हालत में पहुंचा दिया है कि एक छोटी-सी घटना भी अब यहां भयंकर रक्तपात को जन्म दे सकती है

सूत्रों के अनुसार बरेली के हालिया दंगों की पृष्ठभूमि 2010 में हुए दंगों के दौरान ही बन गई थी. बरेली से छह बार लोकसभा चुनाव जीत चुके भाजपा के वरिष्ठ नेता संतोष गंगवार तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘सपा मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए यहां फसाद करवा रही है. ये लोग अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर अभी से माहौल बना रहे हैं.’  

मोटे तौर पर बरेली भाजपा का पुराना गढ़ रहा है. 2012 के विधानसभा चुनावों में भी बरेली शहर की दोनों सीटें भाजपा की झोली में गईं. लेकिन 15 वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रवीण सिंह आरोन ने संतोष गंगवार को हरा दिया. फिर हालिया निकाय चुनावों में भी सपा समर्थित प्रत्याशी डॉ आईएस तोमर की ही जीत हुई.  जानकार बताते हैं कि भाजपा के इस गढ़ में लगी राजनीतिक सेंध और शहर के सांप्रदायिक दंगों में गहरा संबंध है. दंगों के पीछे की इन राजनीतिक परतों पर बात करते हुए शहर के एक प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, ‘इतिहाद-ए-मिलात काउंसिल (आईएमसी)  के अस्तित्व में आने से यहां की राजनीति में बड़े परिवर्तन आए.

इसके मुखिया तौकीर राजा खान शहर के प्रमुख धार्मिक परिवार से आते हैं, इसलिए स्थानीय मुसलमानों में उनका बड़ा सम्मान है. पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने बरेली से एक सीट पर जीत भी हासिल की. आज शहर का हर राजनेता जानता है कि अब यहां का मुसलिम समुदाय आईएमसी की मर्जी पर ही अपना वोट डालेगा. बीच में चंद किराये के फसादियों से दंगा करवा कर लोगों को धार्मिक तौर पर उकसाया गया है. फिर मौजूदा राज्य सरकार में इतनी इच्छा शक्ति नहीं थी कि इन दंगों पर काबू पा पाती.’ 

जमीनी पड़ताल के दौरान बरेली के दंगों के पीछे मौजूद इन तमाम राजनीतिक कारणों से इतर एक और महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है. पिछले कई दशकों से हर साल 320 शांतिपूर्ण धार्मिक जुलूसों का साक्षी बनने वाला यह शहर अब सांप्रदायिक बारूद के ढेर पर खड़ा है. पिछले तीन राजनीतिक दंगों ने यहां की जनता को उकसा कर उस स्तर तक पहुंचा दिया है जहां गलती की एक जरा सी चिंगारी भी भारी जनहानि में तब्दील हो सकती है.

सांप्रदायिक दंगों ने कोसीकलां और बरेली के साथ-साथ प्रतापगढ़, इलाहाबाद और राजधानी लखनऊ को भी अपनी चपेट में लिया. एक नाबालिग दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना के बाद प्रतापगढ़ के अस्थान गांव में भड़के सांप्रदायिक दंगों में बस्ती के 46 मुसलमानों के घर जला दिए गए थे. मामले में बरती गई पुलिस की निष्क्रियता की प्रतिक्रिया के तौर पर भड़के इस दंगे के दौरान दंगाइयों पर काबू पाने में पुलिस को कई घंटे लग गए. हाल ही में असम के मुसलमानों पर हुए अत्याचारों के विरोध में इलाहाबाद और लखनऊ में भी दंगे भड़के. राजधानी लखनऊ में जहां दंगाइयों ने बुद्ध पार्क में तोड़-फोड़ करने के साथ-साथ मीडियाकर्मियों की भी पिटाई की, वहीं इलाहाबाद में दो घंटे चले उत्पात के बाद कर्फ्यू लगाना पड़ा.