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सरकारी खरीद में पारदर्शिता के लिए

पिछले कुछ समय में जो भी घोटाले सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर में धांधली खरीद के स्तर पर हुई है. राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के दौरान खरीद के स्तर पर हुए घोटालों के कई मामले सामने आए थे. रक्षा क्षेत्रों से भी जिन घोटालों की बात सामने आती है उनमें से ज्यादातर में गड़बड़ी खरीद के स्तर पर ही होती है. देश में सरकारी खरीद का दायरा बहुत बड़ा है, लेकिन इसकी जरूरी निगरानी के लिए कोई कानून नहीं है. ऐसे एक कानून की जरूरत को लंबे समय से रेखांकित किया जा रहा था. लेकिन मामला टलता रहा. अंततः संप्रग सरकार ने सरकारी खरीद में पारदर्शिता लाने के मकसद से बीती 14 मई को पब्लिक प्रोक्योरमेंट विधेयक, 2012 का मसौदा लोकसभा में पेश किया.

दरअसल, केंद्र सरकार अपने विभिन्न विभागों के जरिए हर साल तकरीबन 11 लाख करोड़ रुपये की खरीदारी करती है. इसमें कई स्तर पर पारदर्शिता का अभाव है. केंद्र सरकार के कई विभाग यह काम 2005 के जनरल फाइनैंशियल रूल के तहत करते हैं. वहीं कई मंत्रालयों ने अपने अलग-अलग नियम बना रखे हैं. इससे कई स्तर पर दिक्कतें हो रही हैं. इनसे निपटने के रास्ते तलाशने के मकसद से सरकार ने कुछ साल पहले विनोद धल समिति का गठन किया था.

  • अभी अलग-अलग विभाग खरीद के अलग-अलग नियम अपनाते हैं
  • मई, 2012 में लोकसभा में सार्वजनिक खरीद विधेयक लाया गया
  • फिलहाल यह विधेयक लोकसभा की स्थाई समिति के पास है

समिति ने कई सिफारिशें दीं. नए कानून के मसौदे में समिति की कई सिफारिशों को शामिल किया गया है. सरकारी खरीद की व्यवस्था को दुरुस्त करने की चर्चा भ्रष्टाचार पर बनी मंत्रियों की उस अधिकार प्राप्त समिति में भी हुई थी जिसकी अध्यक्षता हाल तक वित्त मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी कर रहे थे. इस साल जनवरी में इस समिति ने भी सरकारी खरीद व्यवस्था को ठीक करने के लिए कई सुझाव दिए थे. इन सुझावों को भी प्रस्तावित कानून के मसौदे में शामिल किया गया है.

प्रस्तावित कानून को लेकर सरकार की तरफ से यह कहा गया कि इसके लागू हो जाने के बाद कई स्तर पर भ्रष्टाचार में कमी आएगी. नए कानून के दायरे में केंद्रीय मंत्रालय, विभाग और इनकी सहयोगी एजेंसियां आएंगी. साथ ही इसके दायरे में स्वायत्त संस्थाएं भी आएंगी. सरकार का कहना है कि खरीद को लेकर दुनिया के अलग-अलग देशों के कानूनों के अध्ययन के बाद उनकी अच्छी बातों को शामिल करके यह कानून बनाया गया है. इसमें खरीदी जाने वाली सामग्री की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के मकसद से प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के उपाय किए गए हैं. प्रस्तावित कानून में पारदर्शिता के लिए शिकायत निवारण तंत्र बनाने की भी योजना है. इसकी जिम्मेदारी उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश पर होगी. लोकसभा में पेश होने के बाद प्रस्तावित कानून के मसौदे को 28 मई, 2012 को स्थायी संसदीय समिति के पास भेजा गया. समिति इसे अपने सुझावों के साथ संसद को वापस भेजेगी. इसके बाद सरकार को इसे संसद से पारित करवाना होगा तब जाकर सरकारी खरीद को साफ-सुथरा और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने के मकसद से तैयार किया गया यह विधेयक कानून की शक्ल ले सकेगा.

-हिमांशु शेखर

भारत का राष्ट्रीय कैलेंडरः1957

वैज्ञानिक नजरिये से शुद्धतम कैलेंडर जो कभी आम लोगों में प्रचलित नहीं हो पाया

आजादी के समय भारत के अलग-अलग हिस्सों और समुदायों के बीच तकरीबन 30 तरह के कैलेंडर/पंचांग प्रचलित थे. इतने कैलेंडर होने की वजह से अमूमन तीज-त्योहार की तिथियां अलग-अलग हो जाती थीं जिसका असर प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर भी पड़ता था. पंडित जवाहर लाल नेहरू इतने सारे कैलेंडरों को सांस्कृतिक समृद्धि की निशानी तो स्वीकार करते थे लेकिन यह भी मानते थे कि ये देश के एकीकरण में बाधक हैं.

देश के लिए एकीकृत कैलेंडर की जरूरत महसूस करते हुए 1952 में उन्होंने विज्ञान और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अंतर्गत एक कैलेंडर सुधार समिति का गठन किया था.

देश के प्रसिद्ध खगोल विज्ञानी मेघनाद साहा (तस्वीर में) इसके अध्यक्ष थे. एकीकृत कैलेंडर के निर्माण में इस समिति के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि यहां प्रचलित कुछ कैलेंडरों का आधार नितांत धार्मिक था. एक राष्ट्रीय कैलेंडर की बात लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती थी. नेहरू जी को इस बात का एहसास था, इसलिए उन्होंने शुरुआत में ही डॉ साहा को एक पत्र लिखकर स्पष्ट कर दिया कि जिस ग्रिगोरियन कैलेंडर का इस्तेमाल दुनिया के तमाम देशों में सरकारी स्तर पर होता है उसमें भी कई वैज्ञानिक खामियां हैं. इसलिए हमारे राष्ट्रीय कैलेंडर के निर्माण में यह ध्यान रखा जाएगा कि यह पूर्णत: विज्ञानसम्मत हो. नेहरू जी की इस बात के प्रचार-प्रसार से इस मसले पर विवाद की गुंजाइश खत्म हो गई.

कैलेंडर सुधार समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी और राष्ट्रीय कैलेंडर के निर्माण के लिए कुछ सिफारिशें कीं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश थी कि कैलेंडर का आधार शक संवत (78 ईसवी से शुरू) होगा और इसका पहला दिन ग्रेगोरियन कैलेंडर के हिसाब से 22 मार्च ( 21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर ठीक सीधा चमकता है) से शुरू होगा. चैत्र इस कैलेंडर का पहला और फाल्गुन आखिरी महीना होगा. इन सिफारिशों के आधार पर बना कैलेंडर 22 मार्च, 1957 को सरकारी स्तर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ स्वीकार कर लिया गया.

आम तौर पर सरकारी गजट, आकाशवाणी, सरकार द्वारा आम जनता के लिए जारी संदेशों/प्रपत्रों में इस कैलेंडर की तिथि का उल्लेख किया जाता है, लेकिन यह कैलेंडर वैज्ञानिक नजरिये से अधिक शुद्ध होने के बाद भी प्रचार-प्रसार के अभाव में कभी आम जनता के बीच प्रचलित नहीं हो पाया.

-पवन वर्मा

‘जरूरी नहीं कि जो नीतीश कहें उससे सबकी सहमति ही हो’

जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी, निराला को बता रहे हैं कि पार्टी के अलग-अलग नेताओं का अलग-अलग सुर उनकी पार्टी का लोकतांत्रिक स्वरूप दिखाता है

नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा कि जो भी विशेष राज्य का दर्जा देगा, समर्थन उसी को दे देंगे. क्या कांग्रेस के साथ जाने की संभावना है?

नीतीश का पूरा भाषण सुनें. इस पंक्ति के पहले उन्होंने यह कहा कि इस सरकार के पाप का घड़ा भर चुका है. यानी वे इस वर्तमान सरकार को पापी मानते ही हैं तो जो केंद्र में अगली सरकार बनेगी और उसे समर्थन देना होगा तो जाहिर-सी बात है, वह इस सरकार के संदर्भ में नहीं है. दूसरी बात यह भी तो सोचें कि जनता के बीच यह संदेश भी देना होता है कि हमारा इस मसले को लेकर इतना कमिटमेंट है.

शरद यादव ने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाए हम कांग्रेस के साथ नहीं जा सकते. नीतीश कुमार और शरद यादव आजकल एक-दूसरे के उलट बात कहते रहते हैं. क्या परिस्थितियों का हवाला देकर नीतीश कांग्रेस के साथ जा सकते हैं कभी?

ना, मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा कभी भी संभव होगा क्योंकि हम यह जानते हैं, मानते हैं और हमेशा कहते भी रहे हैं कि इतने वर्षों में बिहार की जो दुर्दशा हुई है, उसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेवार रही है. फिर उसके साथ जाना असंभव ही तो है न! आप कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे, यह दावा कर रहे हैं. भाजपा का साथ कभी भी छोड़ा जा सकता है, यह भी तो तय-सा है! नहीं, भाजपा का साथ कब छोड़ा जा सकता है यह नीतीश कुमार ने बता दिया है. हम भाजपा से अलग होने की बात तो अपनी ओर से कह भी नहीं रहे हैं. सिर्फ यह कह रहे हैं कि देश का प्रधानमंत्री ऐसा हो जो सबको साथ लेकर चले. 

जदयू का आधिकारिक रुख किसकी बात को माना जाए. नीतीश कुमार ने हाल में कहा था कि चुनाव के पहले पीएम का नाम घोषित हो. शरद यादव ने कहा चुनाव के बाद हो. इतना अंतर्द्वंद्व क्यों?

हां, इसे बयानों का अलगाव कह सकते हैं, जिसकी कई वजहें हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि मौलिक तौर पर विचारों में भिन्नता आ गई है हमारे बीच. इधर पार्टी की कोई मीटिंग नहीं हुई है, इसलिए भी बयानों में यह अलगाव दिख रहा है. ऐसा ही राष्ट्रपति चुनाव के मसले पर भी दिखा, लेकिन आप लोग यह क्यों चाहते हैं कि सभी एक ही सुर में बोलें. अलग-अलग बोलना ही तो लोकतंत्र है.

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बार-बार नरेंद्र मोदी का नाम या कांग्रेस-भाजपा के समर्थन की बात इसलिए भी उछाली जाती है ताकि दूसरी बातें दबी रहें. जैसे कि दलित हत्याओं में बिहार शीर्ष पर आया, महिलाओं पर हिंसा का ग्राफ बढ़ा आदि.  

मैंने दलित हत्याओं वाले आंकड़े नहीं देखे हैं इसलिए अभी उस पर कुछ नहीं कह सकता, लेकिन आप यह मान लें कि अपराध और भ्रष्टाचार से पूरी तरह से मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि एक आदर्श समाज की स्थापना न  हो जाए. जिसे रामराज कहते हैं, वह न आ जाए. नीतीश धरती पर स्वर्ग उतार देंगे, ऐसा क्यों सोचते हैं, लेकिन कोई एक कसौटी तो तय करनी होगी मूल्यांकन के लिए. फिर देखिए और आंकिए कि काम हो रहा है या नहीं, बदलाव आया है या नहीं. लालू प्रसाद के 15 सालों के राज से तुलना कीजिए. आज पटना के डाकबंगला चौराहे पर रात 11 बजे के बाद भी लोग आइसक्रीम खाते हुए मिल जाएंगे. गांवों में रात में जाते हुए लोग मिल जाएंगे. पहले यह लगता था कि जो अपराधी हैं उन्हें सरकार और प्रशासन का संरक्षण मिला हुआ है, अब यह बात नहीं है. सरकार अपनी ओर से हरसंभव कोशिश कर रही है. कहीं-कहीं और कभी-कभी के अपवादों को प्रवृत्ति नहीं कह सकते. रही बात सुशासन की तो वर्षों से बिगड़ी हुई चीज पांच-सात साल में पूरी तरह पटरी पर आ जाएगी, ऐसा लगता है आपको! 

आपके अनुसार दो जून, 2012 की घटना को भी अपवाद माना जाए जब राजधानी पटना में ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद तांडव मचाया गया और पुलिस तमाशबीन बनी रही?

नहीं, इस पर मैं नीतीश कुमार और सरकार से मतांतर रखता हूं. वह घटना अपवाद नहीं थी.

क्या मानना है आपका?

वह मैं सार्वजनिक रूप से नहीं कहना चाहता, पर नीतीश कुमार को कह चुका हूं.

सार्वजनिक रूप से यह तो बताइए कि नीतीश कुमार के विकास का जो मॉडल है उससे क्या सब कुछ पटरी पर आ जाएगा?

मैं अलग राय रखता हूं. बिहार को विकास के लिए एक नए नजरिये की जरूरत है. तथाकथित बुद्धिजीवियों के पास जाने या उन्हें बुलाने से कुछ नहीं होने वाला. हमें गांधी के पास लौटना होगा. गांधी के रास्ते ही संभव है.

आप तो पूरी तरह मतभिन्नता दिखा रहे हैं. नीतीश बुद्धिजीवियों के पास जाने और उन्हें बुलाने में ज्यादा भरोसा करते हैं और आप उन्हें खारिज कर रहे हैं.

तो क्या हुआ. जो नीतीश सोचते हैं, वह कहते हैं या करते हैं. जो मुझे महसूस हो रहा है, वह मैं कह रहा हूं. सबको बोलने और सोचने की आजादी है.  

‘मुझे नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं’

राजेंद्र यादव से साक्षात्कारों की अब तक चार किताबें आ चुकी हैं. उनसे साक्षात्कार लेने वाले की असल चुनौती दोहराव से बचना है. यहां यह कोशिश भरसक की गई है. उन सवालों को बिल्कुल ही छोड़ दिया गया है जो उनसे बार-बार पूछे गए हैं और हर बार उन्होंने उनका एक ही उत्तर दिया है. राजेंद्र यादव से दिनेश कुमार की बातचीत.

लोगों का कहना है कि जिस तरह से नामी बनिये का नाम बिकता है वही हालत हंस की है. यह केवल निकलने के लिए निकल रही है. साहित्य समाज में इसकी हस्तक्षेपकारी भूमिका अब समाप्त हो गई है.  

 यह तो सही बात है कि व्यक्ति हो या संस्था, पत्रिका हो या आंदोलन इनकी ऊर्जा की एक अवधि होती है और अवधि बीत जाने के बाद केवल परंपरा रह जाती है. मगर, हंस के बारे में मैं ऐसा महसूस नहीं करता. मैं अभी भी उसे हिंदी की एक ऊर्जावान पत्रिका मानता हूं. यह इस बात से भी साबित होता है कि हंस का हर नया अंक विमर्शों और बहसों को जन्म देता है. कभी किसी रचना को लेकर तो कभी किसी लेख को लेकर. सबसे अधिक संपादकीय को लेकर. इनदिनों मेरे और तरुण भटनागर को आधार बना कर जो बहस शुरू हुई है,  उसकी अनुगूंज दूर-दूर तक है. यह बहस अगले अंक में भी चलने वाली है. संपादकीय के अलावा हंस के तीन कॉलम ऐसे हैं जिसको लेकर उत्तेजित उत्सुकता बनी रहती है. ये स्तंभकार हैं- शीबा असलम फहमी, तसलीमा नसरीन और मुकेश कुमार. हंस में चलती रहने वाली बहसों को शायद ही कोई नजरअंदाज कर सके. अगले अंक में डॉ. सुधा चौधरी का एक गंभीर और शोधपूर्ण लेख आ रहा है- ‘मोक्ष की निरर्थकता’ आप देखेंगे कि इसको लेकर कितनी लाठियां भांजी जाती हैं. इसलिए मैं नहीं समझता कि हंस एक निश्चित अवधि के बाद ऊर्जाहीन हो जाने की परिपाटी का पालन करने वाली पत्रिका है. 

हंस को एक दौर में प्रियंवद, संजीव, उदय प्रकाश, अखिलेश आदि कई कथाकारों को सामने लाने का श्रेय मिला. इधर रचनाकारों को सामने लाने का श्रेय पत्रिका को नहीं मिल रहा है. क्या यह इसकी भूमिका खत्म होने का संकेत नहीं है?

 शायद तुम्हें यह पता हो कि हंस के 25 वर्ष पूरे होने पर हमने संजीव के संपादन में एक पुस्तक निकाली थी, नाम था-‘मुबारक पहला कदम’. उसमें हंस में छपी उन कथाकारों की पहली कहानी शामिल है जिनकी पहले कहीं कोई कहानी नहीं छपी थी. उसमंे सिर्फ पच्चीस कथाकार थे. इधर पच्चीस कथाकार ऐसे और हैं जिनको लेकर ऐसा ही एक और संकलन तैयार किया जा सकता है. हम लगभग हर अंक में ऐसे रचनाकारों को छापते हैं जिनकी रचनाएं पहली छपी नहीं या छपने के बाद केंद्र में आ गई. इसलिए नवीन रचनाशीलता के संदर्भ में हंस की भूमिका चूक गई है, ऐसा मैं नहीं मानता.

आपने परिवार नाम की संस्था का हमेशा विरोध किया है पर जब हंस के उत्तराधिकार की बात आई तो आपने सब कुछ ताक पर रखकर इसे अपनी बेटी को सौंप दिया. 

पहली बात तो यह है कि बेटी का संपादन में कोई हस्तक्षेप नहीं है. वह सिर्फ व्यवस्था का हिस्सा है. मैंने हंस की नई टीम में सिर्फ इस बात का ध्यान रखा कि मेरे बाद हंस ऐसे हाथों में दिया जाए जो उसकी ऊर्जा और जिजीविषा को बनाए रख सकें. मैं नहीं समझता कि इसमें भाई-भतीजावाद का कोई आरोप लगाया जा सकता है. 

दो दशक का आपका स्त्री विमर्श हिंदी में एक भी बौद्धिक स्त्री को क्यों नहीं पैदा कर सका?

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि बौद्धिक स्त्री से आपका क्या तात्पर्य है. क्या ईमानदारी से कहानियां, उपन्यास लिखने वाली स्त्रियां बौद्धिक नहीं होतीं? फिर भी नाम ही लेना हो तो हम कहेंगे कि हमने रोहिणी अग्रवाल, अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, डॉ. निर्मला जैन, अनामिका, विजया शर्मा जैसी आधा दर्जन लेखिकाओं को प्राथमिकता दी है जो हिंदी के किसी भी समीक्षक या विचारक से उन्नीस नहीं हैं. 

आपका पूरा स्त्री विमर्श सामंती सोच का तो विरोध करता है लेकिन पूंजीवादी विचार के साथ कदमताल मिलाता है. यानी स्त्री मुक्ति को लेकर आपके पास पूंजीवाद (उदारवाद) से अलग कोई वैकल्पिक दृष्टि नहीं है?

पूंजीवाद की एक सकारात्मक भूमिका है कि वह स्त्रियों, दलितों और श्रमजीवियों को सामंती एकछत्रता से मुक्त करता है. मगर, फिर उन्हें अपने और बाजार के लिए इस्तेमाल करना उसकी मूलभूत आवश्यकता है. सामंती गुलामी से मुक्ति की चेतना इन नए वर्ग को यह सामर्थ्य देती है है कि वह संगठित होकर अपने हितों और भविष्य के लिए लड़े. अब बाजार तो इनका इस्तेमाल करेगा ही. सवाल यह है कि इससे कैसे लड़ें. 

हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव; फोटो-शैलेंद्र पांडेय

हाल ही में तहलका के एक साक्षात्कार में वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल ने कहा कि गंभीर साहित्य की चर्चा के समय आपका नाम नहीं लिया जाए तो बेहतर है. 

मैं नवल जी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे अपनी समझ के विचार से गंभीर विचारकों की सूची से काट दिया है. एक बार मेरी किसी रचना को लेकर डॉ. नगेंद्र ने प्रशंसा की तो कमलेश्वर ने कहा- राजेंद्र, सावधान हो जाओ! कि सोचो तुम्हारी रचना में ऐसा प्रतिक्रियावादी क्या था जिसे डॉ. नगेंद्र ने पसंद कर लिया. मैं शुरू से मानता हूं कि विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं. जहां सिर्फ पचास वर्ष पूर्व मरे हुए लोगों का ही अभिनंदन होता है. जीवित और जीवंत लोग उनके गले कभी नहीं उतरते. समाज और राजनीति के दूसरे प्रश्नों से जूझने वाले लेखक विश्वविघालयों के प्राध्यापकों के लिए सबसे बड़े ‘आउटसाइडर’ होते हैं. उनके हिसाब से शुद्ध साहित्यकार वह है जो चौबीसों घंटे रीतिकाल, भक्तिकाल और छायावाद ही घोटता रहता है और प्रगतिवाद तक आते-आते उसकी सांस फूल जाती है. उनके लिए केवल कलावादी और कवि ही साहित्यकार होते हैं. अपने गुरुदेवों से उन्होंने जो पढ़ा था उसे ही वे आज भी छात्रों के कान में उगलते रहते हैं. अभी इन्होंने जयंतियों के नाम पर केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन जैसों की कैसी मट्टी पलीद की है. शायद ही कोई अध्यापक हो जिसकी कलम के शिकार ये गरीब रचनाकार नहीं हुए हों. इनके लिए न यशपाल साहित्यकार हैं न रागेय राघव, न भगवत शरण उपाध्याय न शिवदान सिंह चौहान; क्योंकि वे साहित्य को समाज समीक्षा से जोड़ रहे थे. बेचारे नवल जी भी इसी ग्रंथि के शिकार हैं. उन्होंने केवल मुझे ही नहीं आलोक धन्वा, अरुण कमल, राजेश जोशी, पवन करण आदि सबको जाति बाहर कर दिया है. अगर नवल जी मुझे साहित्यकार मान लेते तो निश्चय ही मेरे मन में यह आशंका होती कि क्या मैं उन्हीं प्रध्यापकीय घुटी और सड़ांध भरी मान्यताओं का शिकार हो गया हूं?

प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय का कहना है कि आप कहीं से भी मार्क्सवादी नहीं है जबकि आप अपने को मार्क्सवादी ही मानते हैं. क्या कहना चाहेंगे?

मुझे मालूम नहीं कि मैनेजर पांडेय किस आधार पर मार्क्सवादी होने का ’सर्टिफिकेट’ देते हैं. लेकिन मैं यह जरूर जानना चाहूंगा कि मेरी रचनाओं में ऐसा क्या है जो मार्क्सविरोधी है. हो सकता है मैंने लेनिन, मार्क्स और दूसरों के बहुत उद्धरण न दिए हों, लेकिन देशी-विदेशी विद्वान मेरी चेतना और सोच का हिस्सा रहे हैं. उसे मैं अलग से रेखांकित करके नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत महसूस नहीं करूंगा. 

हंस प्रतिष्ठान की बहुत करीबी रही लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का कहना है कि उन्होंने आपको प्राय: नहीं पढ़ा है और उन पर आपका कोई प्रभाव भी नहीं है. इधर आपकी लंबी बीमारी के दौरान वे न तो आपको देखने आईं और न ही फोन किया. संबंधों में इतनी तल्खी कैसे?

इस बात का जवाब तो मैत्रेयी पुष्पा ही दे सकती हैं. मेरा यह भी आग्रह नहीं है कि मेरा उन पर कोई प्रभाव रहे. वे स्वतंत्र लेखिका हैं, जैसा ठीक समझती हैं करती हैं. इसकी उन्हें पूरी छूट है. संबंधों के बारे में मेरी धारणा यह है कि यह रेलयात्रा का साथ है. जिसका जहां स्टेशन आ जाए उसे वहां उतरकर अलविदा कहने की पूरी स्वतंत्रता है. 

आप पहले किसी को आसमान पर चढ़ाते हैं और फिर अपना हाथ खींच लेते हैं. क्या अजय नावरिया के साथ आपने यही नहीं किया? क्या यह लोगों से खेलना नहीं हुआ?

जिसे तुम खेलना कहते हो या आसमान पर चढ़ाना कहते हो, मेरे लिए वह किसी को आत्मनिर्भर बनाने की प्रक्रिया है. जब वह अपनी क्षमताओं को लेकर आश्वस्त हो जाता है तो उसे मेरी सहायता की जरूरत नहीं होती. वह अपने व्यक्तित्व के बल पर ही आगे की यात्रा करता है. जैसे तैराकी सिखाने वाला व्यक्ति शिक्षार्थी को तैराकी के मूलभूत नियमों और प्रक्रियाओं से परिचित कराने के बाद उसे इस विश्वास के साथ पानी में छोड़ देता है कि वह खुद ही लहरों और धाराओं से लड़ेगा या उनका इस्तेमाल करेगा. यह बीच में छोड़ना या हाथ खींचना नहीं बल्कि सामने वाले के आत्मविश्वास को जगाना है. 

पंकज बिष्ट अपनी पत्रिका  ‘समयांतर’  में लगातार कहते आ रहे हैं कि आपने और हंस ने  ‘इसटैबलिशमेंट’ (व्यवस्था) का कभी विरोध नहीं किया. आपने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का सुरक्षित दायरा बना लिया.

पंकज बिष्ट हमेशा ही उलटबांसी बोलते रहते हैं. जरूरी नहीं कि सबके अर्थ खुलकर सामने आएं. ‘इसटैबलिशमेंट’ से उनका क्या आशय है? क्या यह केवल वर्तमान सत्ता ही है? परिवार और घरों में चलने वाली सामंती जकड़नें भी इसी ‘इसटैबलिशमेंट’ के अंग हैं. मुझे हर प्रकार की रुढि़यां और संकीर्णताएं ‘इसटैबलिशमेंट’ का हिस्सा ही लगती हैं.

83 साल का भरपूर जीवन! क्या किसी चीज का मलाल भी है?

मलाल सिर्फ मुझे अपने चार-पांच उपन्यासों का है, जिन्हें मैं पूरा नहीं कर पाया. 40-45 साल से गड़े खजाने के रूप में अधूरी पड़ी कहानियां आज भी पूरी नहीं हुईं. अपनी लेखकीय सूची से असंतोष न हो तो आदमी संतुष्ट होकर बैठ जाए. यह असंतोष और मलाल ही आदमी को सक्रिय रखते हैं. 

अखिल भारतीय अश्रुमहोत्सव

एक ढेला उठाइए और उसे सनसना दीजिए! जिसे लगा देखिए वह आंसू बहा रहा है. अरे, अब अपराधबोध से ग्रस्त न हो जाइए! जो रो रहा है उसके आंसू तो पहले से बह रहे थे. आप को यह बताते हुए ही आंखें भर आती हैं कि यहां आंसू बहाने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं. जिधर नजर घुमाइए, उधर ही कोई न कोई आंसू बहाते दिख जाएगा. और ऐसे आंसू बहा रहा होगा कि उसे देख कर न चाहते हुए भी उसके बोलने से पहले पूछ लेंगे,‘भाई! सब कुशल-मंगल तो है न!’ और जब आप उसका जवाब सुनेंगे तो आपके आंसू निकल जाएंगे. जिसे आप उसका प्राइवेट मामला समझ रहे थे, वह तो जनहित का निकला. आपके सामने वाला देश को लेकर रो रहा है, देश की दुर्दशा को लेकर. 

देश की दुर्दशा पर आंसू बहाने वाला जब आंसू बहाना शुरू करता है, तो जल्दी रुकने का नाम नहीं लेता. अक्सर समझ में ही नहीं आता, यह जो सामने बैठा बहुत चाव से आंसू बहा रहा है, उसके आंसू खुशी के हैं या गम के! लेकिन जब वह कहता है कि वह देश के लिए रो रहा है, तब आपको मानना ही पड़ता है कि वह चाव से नहीं व्यथित हो कर आंसू बहा रहा है. देश की दुर्दशा आंसू बहाने वालो कभी-कभी तो स्वयं भारत दिखने लगते हैं. इतने पीड़ित कि देश से ज्यादा उन पर दया भाव जाग्रत होता है. 

यहां आपसे मिलने वाला हर दूसरा व्यक्ति देश की दुर्दशा के नाम पर आंसू बहाता आता है और आपकी दुर्दशा करके किसी तीसरे की दुर्दशा करने निकल जाता है. इन आंसू बहाने वाले प्राणियों को देख कर आप का स्वयं के प्रति विरक्ति भाव पैदा होने लगता है. हाय! एक उसको देखो देश के लिए मरा जा रहा है, एक हम हैं कि पेट के लिए मरे जा रहे हैं. आपके मन में ‘मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम’ वाला भाव पैदा होता है. आंसू बहाने वाला यकायक आपको मुक्तिबोध का ब्रह्म राक्षस दिखने लगता है, और आप स्वयं को अंधेरे में पाते है. उसके सजल नैनों को देखकर ‘मैं ब्रह्म राक्षस का सजल-उर शिष्य होना चाहता’ की इच्छा जाग्रत हो उठती है. आपके मन में प्रबल वेग से यही भाव उठता है कि देश की दुर्दशा पर अगर हम हर समय आंसू नहीं बहा सकते, तो कम से कम रुआंसे तो दिख ही सकते हैं!  

दिन प्रतिदिन देश की दुर्दशा को लेकर आंसू बहाने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. यदि ये ऐसे ही बढ़ते रहे, तो डर है कि कहीं देश में आंसुओं की बाढ़ न आ जाए. देखिए, इस वक्त भी देश की दुर्दशा पर कितने आंसू बहा रहे हैं- बडे़ बाबू अपनी कुर्सी छोड़ पान की दुकान में, आला अधिकारी दफ्तर छोड़ नेता जी के आलीशान आवास में, सत्तारूढ़ दल का नेता मंत्रालय छोड़ टीवी चैनल के स्टूडियो में, विपक्षी पार्टी का नेता पार्लियामेंट हाउस क्षेत्र छोड़ फार्म हाउस में, दरोगा अपराधी छोड़ बार में, एनजीओ बस्ती छोड़ अखबार में, रिपोर्टर खबर छोड़ बाजार में देश की दुर्दशा पर आठ-आठ आंसू बहा रहे हैं. देश की दुर्दशा पर आंसू बहाने का अखिल भारतीय महोत्सव चल रहा है , ऐसे में आप क्यों-कैसे दूर हैं. झिझकिए नहीं. कूद जाइए. आप भी देश की दुर्दशा पर मोटे-मोटे आंसू बहाइए. देखते नहीं, जो देश की दुर्दशा पर आंसू बहाता है, कुछ दिन बाद स्वतः मोटा हो जाता है.

-अनूप मणि त्रिपाठी

कथनी कुछ, करनी कुछ

रिलायंस समूह से जुड़ी संस्था रिलायंस फाउंडेशन तरह-तरह के जनहितकारी काम करती है ऐसा इसकी वेबसाइट बताती है. इस संस्था की प्रमुख और रिलायंस समूह के मुखिया मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी महिलाओं और कन्याओं के कल्याण से जुड़े कई कार्यक्रमों में भाग लेते हुए टेलिविजन पर अक्सर दिख जाती हैं. रिलायंस फाउंडेशन, फिल्म स्टार आमिर खान के लोकप्रिय टीवी प्रोग्राम सत्यमेव जयते – जिसमें कन्या भ्रूण हत्या सहित महिलाओं से जुड़े कई मुद्दों को दिखाया गया था – में भी सहयोग करती है. मगर इसी रिलायंस समूह से जुड़ी एक अन्य कंपनी पर कुछ साल पहले कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने के आरोप लगे थे जिससे जुड़ा मामला अभी भी अदालत में चल रहा है.

रिलायंस ने कई क्षेत्रों में कारोबारी सफलता के कई नए रिकॉर्ड स्थापित करने के बाद 2002 में दूरसंचार के क्षेत्र में कदम रखा था. इस क्षेत्र में काम करने के लिए एक नई कंपनी रिलायंस इन्फोकॉम को 31 जुलाई, 2002 को रजिस्टर्ड कराया गया. कंपनी गठन के कागजों की पड़ताल के बाद तहलका ने पाया कि इसकी शुरुआत में दो लोग इसमें बराबर के साझेदार थे. इनमें एक थे मुकेश अंबानी और दूसरे मनोज एच मोदी. मोदी अभी मुकेश अंबानी वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के निदेशक मंडल में हैं. बाद में जब मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के बीच 2005 में विवाद पैदा हुआ तो रिलायंस इन्फोकॉम का स्वामित्व अनिल अंबानी के पास आ गया. इस संबंध में कंपनी के दस्तावेजों में 26 जून, 2005 को बदलाव किया गया. कंपनी के नए निजाम ने इसका नाम बदलकर रिलायंस कम्युनिकेशंस कर दिया.

इसके पहले ही कर लो दुनिया मुट्ठी मेंकी टैगलाइन के साथ रिलायंस इन्फोकॉम ने रिलायंस इंडिया मोबाइल के नाम से मोबाइल सेवा की शुरुआत कर दी थी. इस मोबाइल सेवा के तहत ही आर वर्ल्ड के नाम से मूल्य वर्धित सेवाओं का एक सेक्शन शुरू किया था. इसमें वूमंस वर्ल्ड सेक्शन के तहत कुछ सेवाएं मुहैया कराई जा रही थीं जिनमें से एक का नाम प्लान अ बेबीथा. प्लान अ बेबीके तहत ग्राहकों को बताया जा रहा था कि कैसे अपने होने वाले बच्चे का लिंग निर्धारित कर सकते हैं. इसमें यह साफ तौर पर बताया जा रहा था कि किस समय सेक्स करने से और किस तरह की डाइट लेने से लड़का या लड़की होगी. इसके अलावा इसके तहत कुछ सवालों का जवाब देकर गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग निर्धारण की सुविधा भी दी जा रही थी. इसके लिए एक खास तरह के चीनी कैलेंडर का इस्तेमाल कंपनी कर रही थी. इस चीनी कैलेंडर में गर्भ धारण का वक्त और गर्भ धारण करने वाले की उम्र डालने के बाद गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग बताया जाता था.

कुछ समय तक रिलायंस यह सेवा अपने ग्राहकों को मुहैया कराती रही और पैसे बनाती रही. लेकिन इसी बीच रिलायंस की इस सेवा पर उच्चतम न्यायालय में वकालत करने वाले रवि शंकर कुमार की नजर पड़ी और उन्होंने संबद्ध एजेंसियों के पास रिलायंस की इस सेवा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई. वे तहलका को बताते हैं, ‘रिलायंस की यह सेवा प्री-कांसेप्शन ऐंड प्री-नेटल डायगनॉस्टिक टेक्नीक्स (पीएनडीटी) एक्ट, 1994 के प्रावधानों के खिलाफ थी. साथ ही रिलायंस की यह सेवा सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 और भारतीय टेलीग्राफ कानून, 1885 के प्रावधानों के भी खिलाफ थी.’ उन्होंने 2004 के अक्टूबर में दिल्ली सरकार के परिवार कल्याण विभाग और केंद्र सरकार के परिवार कल्याण विभाग के पास रिलायंस इन्फोकॉम के खिलाफ शिकायत कर इस मामले में उचित कार्रवाई की मांग की. रिलायंस इन्फोकॉम मुंबई में रजिस्टर्ड थी इसलिए केंद्रीय परिवार कल्याण विभाग ने महाराष्ट परिवार कल्याण विभाग को इस मामले की जांच का निर्देश दिया.

इसके बाद यह मामला नवी मुंबई महानगरपालिका के संबंधित अधिकारी को सौंपा गया और शिकायत की जांच के बाद नवी मुंबई महानगरपालिका ने 4 नवंबर, 2004 को रिलायंस इन्फोकॉम को नोटिस जारी किया. तहलका के पास इस नोटिस की एक प्रति है. इस नोटिस में यह माना गया है कि रिलायंस इन्फोकॉम ने प्लान अ बेबीसेक्शन के तहत जो सेवाएं मुहैया कराई हैं, वे पीएनडीटी एक्ट की धारा 22(2) का उल्लंघन हैं. नोटिस का जवाब देने के लिए कंपनी को 15 दिन की मोहलत दी गई. इसके बाद नवी मुंबई महानगरपालिका ने 8 नवंबर, 2004 को रिलायंस इन्फोकॉम को एक और नोटिस भेजा. इसमें कंपनी को बताया गया कि अब भी देश के कुछ हिस्सों में उसकी वेबसाइट पर प्लान अ बेबीसेक्शन दिख रहा है. नोटिस में कंपनी से कहा गया कि वह यह सुनिश्चित करे कि यह सामग्री अब उसकी वेबसाइट पर नहीं दिखे.

‘पुलिस रिलायंस और मुकेश अंबानी को बचाना चाहती है. कंपनी कानून में प्रावधान है कि ऐसे अपराध से न तो मालिक पल्ला झाड़ सकता है और न ही कंपनी’

दिल्ली सरकार के परिवार कल्याण विभाग के पास जो शिकायत भेजी गई थी उसका नतीजा यह हुआ कि रिलायंस इन्फोकॉम के खिलाफ अदालत में मुकदमा दर्ज करा दिया गया. इस मामले की सुनवाई के लिए पहली तारीख 23 दिसंबर, 2004 मुकर्रर की गई. इसके बाद अदालत के निर्देश पर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 30 जनवरी, 2005 को रिलायंस के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. जिस वक्त एफआईआर दर्ज हुई, उस वक्त न तो रिलायंस इन्फोकॉम के कर्ता-धर्ता मुकेश अंबानी और न ही कंपनी के किसी और अधिकारी को अभियुक्त बनाया गया. कंपनी के खिलाफ पीएनडीटी एक्ट की धारा-22 के उल्लंघन के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया. दिल्ली सरकार के परिवार कल्याण विभाग ने मुकदमा दर्ज कराते हुए यह कहा कि यह मामला न सिर्फ पीएनडीटी एक्ट और आईटी एक्ट के उल्लंघन का है बल्कि इससे कन्या भ्रूण हत्या को भी बढ़ावा मिलता है और रिलायंस के इस कदम से समाज में कन्याओं की स्थिति पर आघात हुआ है. विभाग ने अदालत से यह मांग की कि कंपनी के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाए.

इसके बाद स्पेशल सेल ने मामले की जांच शुरू की. इस मामले में पुलिस द्वारा 4 दिसंबर, 2007 को अदालत में दाखिल आरोप पत्र के मुताबिक – इस आरोप पत्र की एक प्रति तहलका के पास है – 8 अप्रैल, 2005 को रिलायंस इन्फोकॉम के प्रेसिडेंट महेश प्रसाद से पुलिस ने पूछताछ की थी. इस पूछताछ में उन्होंने बताया कि उनके कार्यकाल में ही प्लान अ बेबीसेवा की शुरुआत हुई थी. इस सेवा की सामग्री कंपनी के कंज्यूमर एप्लीकेशंस के प्रमुख सुनील जैन की देखरेख में कंपनी की प्रोडक्ट मैनेजर मनीषा राठौर ने तैयार करनी शुरू की थी. बकौल महेश प्रसाद कुछ समय बाद इन दोनों ने कंपनी की नौकरी छोड़ दी और इनकी जगह क्रमशः कृष्ण मोहन दुरबा और किंजल पोपट ने ली और इस सेवा से संबंधित बची हुई सामग्री इन दोनों ने मिलकर तैयार की.

रवि शंकर कुमार ने रिलायंस इंडिया मोबाइल पर गर्भ निर्धारण के लिए उपलब्ध कराई जा रही सेवा के जो वीडियो बनाए थे उन्हें पुलिस ने हैदराबाद की जीईक्यूडी लैब में जांच के लिए भेज दिया. लैब ने जांच करने के बाद वीडियो को सही पाया. इस दरमियान स्पेशल सेल मामले की जांच करती रही और इस मामले से जुड़े विभिन्न पक्षों से सवाल-जवाब करती रही. शुरुआत में इस मामले की जांच खुद स्पेशल सेल के एसीपी एन सेरिंग ने की लेकिन बाद में यह मामला कई सब इंस्पेक्टरों से होता हुआ जनवरी, 2007 में सब इंस्पेक्टर धर्मेंद्र कुमार के पास पहुंच गया. धर्मेंद्र कुमार ने कृष्ण मोहन दुरबा और किंजल पोपट से पूछताछ की और दोनों ने माना कि यह सेवा उनके कार्यकाल में शुरू हुई थी. रिलायंस की इस सेवा के लिए सॉफ्टवेयर तैयार करने का काम बेंगलुरु की कंपनी वेरिटी टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी ने किया था. इसके बाद स्पेशल सेल ने वेरिटी से वे सारे दस्तावेज और ईमेल जब्त किए जो रिलायंस से इस कंपनी को भेजे गए थे और प्लान अ बेबीसेवा से संबंधित थे.

मगर तीस हजारी कोर्ट में दाखिल किए गए इस आरोप पत्र से यह भी साफ हो जाता है कि पुलिस इस मामले में सिर्फ प्यादों पर निशाना साध रही है. इसमें न तो रिलायंस इन्फोकॉम के उस वक्त के मुख्य प्रबंध निदेशक मुकेश अंबानी का नाम शामिल है और न ही कंपनी का. मामले में कंपनी के पांच अधिकारियों और सॉफ्टवेयर मुहैया कराने वाली कंपनी के दो अधिकारियों को ही आरोपित बनाया गया है. इस बारे में रवि शंकर कुमार कहते हैं, ‘इससे साफ है कि पुलिस कंपनी और कंपनी के मालिक को बचाना चाहती है. यह सच है कि जिन अधिकारियों को आरोपितों की सूची में डाला गया है वे रिलायंस के इस अपराध के गुनहगार हैं. लेकिन कंपनी कानून में यह स्पष्ट प्रावधान है कि ऐसे अपराध में सिर्फ अधिकारियों को बलि का बकरा बनाकर न तो कंपनी का मालिक पल्ला झाड़ सकता है और न ही कंपनी.जिन अधिकारियों के नाम आरोप पत्र में हैंउनमें महेश प्रसाद, कृष्ण मोहन दुरबा, सुनील जैन, मनीषा राठौर, किंजल पोपट और वेरिटी टेक्नोलॉजीज के ऋषित झुनझुनवाला और रवि चंद्रा एन शामिल हैं. इनके खिलाफ न सिर्फ पीएनडीटी एक्ट के तहत आरोप तय किया गया बल्कि भारतीय दंड संहिता की धारा 420/511 में भी आरोप तय किए गए. इस आरोप पत्र में पुलिस ने अदालत को यह बताया था कि सुनील जैन और मनीषा राठौर से पूछताछ नहीं हो पाई है क्योंकि दोनों देश से बाहर हैं. इसके बाद अदालत के निर्देश पर पुलिस ने मनीषा राठौर से पूछताछ की और उनके खिलाफ अलग से एक आरोप पत्र अदालत में दाखिल किया. सुनिल जैन के खिलाफ भी तीस हजारी कोर्ट में एक आरोप पत्र दाखिल किया गया.

पिछले तकरीबन साढ़े सात साल से इस मामले में अदालत से तारीखें मिलती जा रही हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई न तो किसी अधिकारी के खिलाफ हो पाई और न ही कंपनी के खिलाफ. इस मामले की आखिरी सुनवाई बीते 26 जुलाई को हुई थी और अगली सुनवाई 27 सितंबर, 2012 को होनी है. रवि शंकर कुमार कहते हैं, ‘यह मामला बताता है कि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर हमारी व्यवस्था कितनी गंभीर है. एक तरफ तो सरकार इसके खिलाफ कई तरह के अभियान चलाती है लेकिन जब रिलायंस जैसी देश की एक बड़ी कंपनी पैसे कमाने के लिए इसको बढ़ावा देने वाली सेवा मुहैया कराती है तो उसे बचाने में पूरा तंत्र लग जाता है.’

रिलायंस और मुकेश अंबानी को बचाने में पूरा तंत्र कैसे लग गया, यह बताते हुए वे कहते हैं, ‘रिलायंस जो सेवा मुहैया करा रही थी वह आईटी एक्ट की धारा 67 का उल्लंघन है. इसमें पांच साल तक की कैद का प्रावधान है. लेकिन इस मामले में रिलायंस के खिलाफ आईटी एक्ट के तहत मुकदमा ही नहीं दर्ज किया गया. साथ ही ऐसे मामले की जांच डीएसपी से नीचे के स्तर का अधिकारी नहीं कर सकता, लेकिन इस मामले की जांच सब इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारियों ने ही की है. इससे पता चलता है कि पूरा तंत्र किस तरह से रिलायंस और मुकेश अंबानी को बचाने में लगा हुआ है.’ रवि शंकर कुमार कहते हैं, ‘अगर इस मामले में सिर्फ अधिकारियों को सजा होती है तो इससे समाज में यह संदेश जाएगा कि यह व्यवस्था ताकतवर लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती. यह सीधे तौर पर आपराधिक षडयंत्र का मामला है और पीएनडीटी एक्ट का इससे बड़ा उल्लंघन देश में इसके पहले कभी नहीं हुआ है.

'पार्टी बनाने का विचार अन्नाजी का था' – अरविंद केजरीवाल

आम धारणा है कि अरविंद केजरीवाल राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते थे जबकि अन्ना हजारे हमेशा इसका विरोध करते रहे. अन्ना से अलग होने के बाद पहली बार एक विस्तृत साक्षात्कार में अरविंद केजरीवाल, अतुल चौरसिया को बता रहे हैं कि यह सही नहीं है

बमुश्किल साढ़े पांच फुट कद वाले अरविंद केजरीवाल से मिलना कहीं से भी संकेत नहीं देता कि यही शख्स बीते दो सालों में कई बार कई-कई दिनों के लिए ताकतवर भारतीय राजव्यवस्था की आंखों की नींद उड़ा चुका है. जब तक अरविंद किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात न करें , उनके साधारण चेहरे-पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वे कभी इन्कम टैक्स कमिश्नर थे, देश में आरटीआई कानून लाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले साल देश के एक-एक व्यक्ति की जुबान पर उनका नाम था और यही व्यक्ति देश को एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने के सपने खुद भी देखता है और औरों को भी दिखाता है. अरविंद की घिसी मोहरी वाली पैंट, साइज से थोड़ी ढीली शर्ट और पैरों में पड़ी साधारण फ्लोटर सैंडलें उस आम आदमी की याद दिलाती हंै जो हमारे गांव- कस्बों और गली-कूचों में प्रचुरता में मौजूद है.

अरविंद से बातचीत करना भी उतनी ही सहजता का अहसास कराता है. अर्थ और कानून जैसे जटिल विषय को जिस सरलता से वे आम आदमी को समझाते हैं उससे उनके असाधारण हुनर का कुछ अंदाजा मिलता है. उनके हर आह्वान पर जब सैंकड़ों युवा गुरिल्ला शैली में केंद्रीय दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते है तब उनकी जबरदस्त संगठन क्षमता का भी दर्शन होता है. उनके साथ थोड़ा अधिक समय बिताने पर एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी देशभक्ति और ईमानदारी तमाम संदेहों से परे हो.

लेकिन उन पर ये आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अन्ना का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए किया. हालांकि अरविंद अपने राजनीतिक जुड़ाव को आंदोलन की तार्किक परिणति मानते हैं, मगर उनके और उनके इस कदम के विरोधियों का मानना है कि उनकी तो शुरुआत से ही यही मंशा थी. अरविंद सवाल करते हैं कि यही लोग पहले हमें संघ और भाजपा का मुखौटा कहते थे और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षी कह रहे हैं. तो वे लोग पहले यह तय कर लें कि वे किस बात पर कायम रहना चाहते हैं.

एक समाजसेवी के रूप में अन्ना की प्रतिष्ठा ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित थी. आज अगर अन्ना देश के घर-घर में पहुंचे हैं तो इसके पीछे अरविंद केजरीवाल की भूमिका बहुत बड़ी रही है. आज अन्ना और अरविंद के रास्ते अलग हो चुके हैं. अन्ना ने खुद को राजनीति से दूर रखने और साथ ही अपना नाम और फोटो राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करने देने के संकल्प का एलान कर दिया है. इतने बड़े झटके के बाद भी तहलका से हुई पहली विस्तृत बातचीत में अरविंद के उत्साह में किसी भी कमी के दर्शन नहीं होते, न ही लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी समझ में आती है. अन्ना के साथ रिश्तों की ऊंच-नीच, उन पर लग रहे विभिन्न आरोपों, राजनीतिक पार्टी और उसके भविष्य पर अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत

राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है?

हम लोगों के पास चारा ही क्या बचा था. सब कुछ करके देख लिया, हाथ जोड़कर देख लिया, गिड़गिड़ाकर देख लिया, धरने करके देख लिया, अनशन करके देख लिया, खुद को भूखा मारकर देख लिया. दूसरी बात है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हम क्या कर सकते हैं. कोयला बेच दिया, लोहा बेच दिया, पूरा गोवा आयरन ओर से खाली हो गया, बेल्लारी खाली हो गया. उड़ीसा में खदानों की खुलेआम चोरी चल रही है. महंगाई की कोई सीमा नहीं है, इस देश में डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान पर हैं. कहने का अर्थ है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है. व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना यहां कोई बदलाव ला पाना संभव नहीं है.

पर कहा यह जा रहा है कि आपने जुलाई से काफी पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का मन बना लिया था. जुलाई का अनशन जिसमें आप भी भूख हड़ताल पर बैठे थे- एक तरह से स्टेज मैनेज्ड था. आप राजनीतिक दल की घोषणा करने से पहले जनता को इकट्ठा करना चाहते थे. और फिर आपने राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी.

किसने आपसे कहा कि हमने पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला कर लिया था?

टीम के ही कई लोगों का यह कहना है. बाद में आपसे अलग हो गए लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जनवरी में पालमपुर में हुई आईएसी की वर्कशॉप में ही चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया गया था.

ये सब झूठ है. पालमपुर की वर्कशॉप जनवरी में नहीं बल्कि मार्च में हुई थी. ये सच है कि 29 जनवरी को पहली बार पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का विषय हमारी बैठक में सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि उसी समय पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें क्या लगता है. मेरे लिए यह थोड़ा-सा चौंकाने वाली बात थी. मैं तुरंत कोई फैसला नहीं कर पाया. तो मैंने अन्ना से कहा कि मुझे थोड़ा समय दीजिए. मैं सोचकर बताऊंगा. दो-तीन दिन तक सोचने के बाद मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसी समय पहली बार इसकी चर्चा हुई. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. तो राजनीतिक विकल्प की चर्चा तो चल ही रही थी लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि पहले से फैसला कर लिया गया था और हमारा अनशन मैच फिक्सिंग था वह गलत बात है. अगर यह मैच फिक्सिंग होती तो इसे दस दिन तक खींचने की क्या जरूरत थी. मैं तो शुगर का मरीज था. मेरे पास तो अच्छा बहाना था. दो दिन बाद ही मैं डॉक्टरों से मिलकर अनशन खत्म कर देता. दो दिन बाद मैं एक नाटक कर देता कि मेरी तबीयत खराब हो गई है और मैं अस्पताल में भर्ती हो जाता और हम राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर देते.

आप कह रहे हैं कि राजनीतिक दल बनाने का प्रस्ताव अन्ना का था. खुद अन्ना ने भी मंच से कई बार यह बात कही थी कि हम राजनीतिक विकल्प देने पर विचार करेंगे. और अब अन्ना मुकर गए हैं. तो क्या आप इसे इस तरह से देखते हैं कि अन्ना ने धोखा दिया है आपको?

मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा लेकिन उनके विचार तो निश्चित तौर पर बदल गए हैं. अब वे क्यूं बदले हैं इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है. देखिए, धोखा कोई नहीं देता. इतने बड़े आदमी हैं अन्ना तो मैं इसे धोखा तो नहीं कहूगा. पर उनके विचार क्यों बदले हैं इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है न ही उनके मन बदलने का कोई मेरे पास सबूत है. 19 तारीख को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी उसमें हम सबने यही तो कहा उनसे कि अन्ना आप ही तो सबसे पहले कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों. तो उनका जवाब था कि पहले मैं वह कह रहा था अब यह कह रहा हूं. जब पहले मेरी बात मान ली थी तो अब भी मान लो. उनके विचार तो बदल गए हैं इस दौरान, चाहे वे मानें या न मानें.

आप भी हमेशा कहते थे कि जो अन्ना कहेंगे हम वह मान लेंगे. तो अब आप ही उनकी बात क्यों नहीं मान लेते, यह मनमुटाव क्यों?

मैं आपकी बात से सहमत हूं. मैंने कहा था कि अगर अन्ना कहेंगे कि पार्टी मत बनाओ तो मैं मान जाऊंगा. अब मेरे सामने यह धर्म संकट है. मुझे लगता था कि अन्ना पूरा मन बना कर ही राजनीतिक विकल्प की बात कर रहे हैं. और फिर उन्होंने अपना मन बदल दिया. मैं धर्मसंकट में फंस गया हूं. एक तरफ मेरा देश है दूसरी तरफ अन्ना हैं. दोनों में से मैं किसको चुनूं. तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाय इसमें कूदने के क्योंकि मेरे सामने सवाल है कि भारत बचेगा या नहीं. जिस तरह की लूट यहां मची है संसाधनों की उसे देखते हुए पांच-सात साल बाद कुछ बचेगा भी या नहीं यही डर बना हुआ है.

एक समय था, अरविंद जी जब आप कहते थे कि मैं अन्ना को सिर्फ दफ्तरी सहायता मुहैया करवाता हूं, नेता तो अन्ना ही हैं. फिर आप यह भी कहते रहे कि अन्ना अगर कहेंगे तो मैं राजनीतिक पार्टी नहीं बनाऊंगा. और अब आप अलगाव और राजनीतिक  पार्टी की जिद पर अड़ गए हैं. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिर्फ आपकी महत्वाकांक्षा के चलते हो रहा है?

किस चीज की महत्वाकांक्षा?

राजनीतिक सत्ता की महत्वाकांक्षा.

लोग किसलिए राजनीति में जाते हैं. सत्ता से पैसा और पैसा से सत्ता. अगर पैसा ही कमाना होता मुझे तो इनकम टैक्स कमिश्नर की नौकरी क्या बुरी थी मेरे लिए. एक कमिश्नर एक एमपी से तो ज्यादा ही कमा लेता है. अगर सत्ता का ही लोभ होता तो कमिश्नर की नौकरी छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता मेरे लिए. आप सोचिए कि सत्ता का मोह होता तो इस तरह की नौकरी छोड़ पाने की मानसिकता मैं कभी बना पाता? कुछ लोगों का कहना है कि आपने तो शुरू से ही राजनीति में आने का तय कर रखा था. ये बड़ी दिलचस्प बात है. 2010 के सितंबर में मैंने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, फिर मैंने सोचा कि अब मैं इन-इन लोगों को एक साथ लाऊंगा, फिर अन्ना से संपर्क करूंगा, फिर अन्ना चार अप्रैल को अनशन पर बैठेंगे, फिर खूब भीड़ आ जाएगी और फिर संयुक्त मसौदा समिति बनेगी जो बाद में हमे धोखा देगी और फिर उसके बाद अगस्त का आंदोलन होगा जिसमें पूरा देश जाग जाएगा, और फिर संसद तीन प्रस्ताव पारित करेगी, फिर संसद भी धोखा दे देगी, और फिर मैं राजनीतिक पार्टी बना लूंगा. काश कि मैं अगले तीन साल के लिए इतनी रणनीति बना पाऊं.

आप लोगों ने एक सर्वेक्षण की आड़ में राजनीतिक दल की जरूरत को स्थापित करने की कोशिश की. पर उस सर्वेक्षण की अहमियत क्या है? न तो उसका कोई वैज्ञानिक आधार है न ही सैंपल का क्राइटेरिया है. अस्सी फीसदी लोगों ने दल का समर्थन किया है. जब तक हम सैंपल, एज ग्रुप, विविध समुदायों की बात नहीं करेंगे तब तक इसकी क्या अहमियत है? किसी खास सैंपल ग्रुप में हो सकता है कि सारे लोग नक्सलियों को सड़क पर खड़ा करके गोली मारने के पक्षधर हों, या फिर सारे लोग समुदाय विशेष को देश से निकाल देने के पक्षधर हों ऐसे में आपका सर्वेक्षण कोई वैज्ञानिक आधार रखता है?

दो चीजें आपके प्रश्न में हैं. एक तो ये कहना कि जो लोग इस आंदोलन से जुड़े थे वे इस मानसिकता के थे या उस मानसिकता के थे. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. ये सारे लोग इसी देश का हिस्सा हैं. इस देश के लोगों को इस तरह से बांटना ठीक नहीं है. दूसरी बात जो आप कह रहे हैं मैं उससे सहमत हूं कि सर्वे इसी तरह से होते हैं. तमाम लोग सर्वे करवाते हैं. हर सर्वे किसी न किसी सैंपल पर आधारित होता है. अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे तवज्जो देना चाहते हैं या नहीं. उस सर्वे के आधार पर आप कोई निर्णय लेना चाहें या न लेना चाहें यह आपके ऊपर निर्भर है. यह तो अन्ना जी ने ही कहा था कि एक बार सर्वे करवा कर जनता का मिजाज जान लेते हैं. देखते हैं वह क्या सोचती है. उनके कहने पर हम लोगों ने सर्वे करवाया. अन्नाजी ने ही कहा था कि इस विधि से सर्वे करवाया जाए. हमने उसी तरीके से सर्वे करवाया. लेकिन उस सर्वे के बावजूद अन्नाजी ने अपना निर्णय इसके खिलाफ दिया. ये यही दिखाता है कि सर्वे आप करवाकर लोगों का मिजाज भांप सकते हैं फिर निर्णय आप अपना ले लीजिए. उस सर्वे ने हमारे निर्णय को प्रभावित किया हो ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन सर्वे आपको एक मोटी-मोटा आइडिया तो देता है.

ये बात बार-बार आ रही है कि चुनावी विकल्प का इनीशिएटिव अन्ना का था…

इनीशिएटिव अन्ना का था,  लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए.

हम इसको कैसे देखें… 19 तारीख की बैठक के बाद आपकी इस संबंध में फिर से अन्ना से कोई बात हुई?

उसके बाद तो कोई बात नहीं हुई लेकिन उसके पहले मैं लगातार उनके संपर्क में था. लेकिन उनके निर्णय की वजह क्या रही मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं.

दोनो व्यक्ति मिलकर एक-दूसरे को संपूर्ण बनाते थे. अरविंद की संगठन और नेतृत्व क्षमता और अन्ना की भीड़ को खींच लाने की काबिलियत मिलकर दोनों को संपूर्णता प्रदान करती थी. उनके जाने से इस पर कितना असर पड़ा है? इस नुकसान को कैसे भरेंगे?

अन्नाजी के जाने से नुकसान तो हुआ ही है. इस पर कोई दो राय नहीं है.

कोई संभावना शेष बची है अन्ना के आपसे दुबारा जुड़ने की..

बिल्कुल. अन्ना एक देशभक्त व्यक्ति हैं. देश के लिए जो भी अच्छा काम होता है अन्नाजी उसका समर्थन जरूर करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है.

हमारी राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का बहुत महत्व रहता है. उससे निपटने का कोई वैकल्पिक तरीका है आपके पास या फिर उन्हीं रास्तों पर चल पड़ेंगे?

नहीं. उसी को तो बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं. आज की जो राजनीति है वही तो सारी समस्या की जड़ है. आज हमारे सरकारी स्कूल ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिलतीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी राजनीति खराब है. बिजली, पानी, सड़कें ये सब इस अक्षम राजनीति की वजह से ही आज तक खराब बनी हुई हैं. यह तो भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी है. पैसे और बाहुबल का जोर है. उसी को बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं.

तो तरीका क्या है? क्योंकि पैसे के बिना तो इतने बड़े देश में आप राजनीति नहीं कर पाएंगे, यह सच्चाई है.

इधर बीच मुझसे कई ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने कम से कम पैसे में चुनाव जीतकर दिखाया है. उन लोगों से हम उनके तरीकों पर विचार करेंगे और उन्हें अपनाने की कोशिश करेंगे.

जैसे… कौन लोग हैं?

जैसे बिहार के विधायक हैं सोम प्रकाश. उन्होंने सिर्फ सवा लाख रुपये खर्च करके चुनाव जीता था. और यह पैसा भी वहां के स्थानीय लोगों ने ही इकट्ठा किया था. ऐसे कई लोग आजकल मुझसे मिल रहे हैं देश भर से. बाला नाम का एक लड़का है जिसने अमेरिका से वापस आकर जिला परिषद का चुनाव जीता है. उसके पास भी पैसा नहीं था. पर उसने जीतकर दिखाया है. ये लोग हमसे जुड़ भी रहे हैं.

तो उम्मीदवारों के चयन की क्या प्रक्रिया होगी? इसी तरह के लोग जुटाए जाएंगे?

हम लोग कई सारे मॉडलों का अध्ययन कर रहे हैं. बहुत सारे सुझाव लोगों की तरफ से भी आए हैं. यह कोई पार्टी नहीं है, यह इस देश के लोगों का सपना है. हमने लोगों से पूछा कि इसका नाम क्या होना चाहिए, उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए, पार्टी का एजेंडा क्या होना चाहिए आदि. बीस हजार लोगों ने हमें चिट्ठियां भेजी हैं. भारत सरकार ने जब जन लोकपाल बिल पर लोगों से सुझाव मांगे थे तब तेरह हजार सुझाव आए थे. तब सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिए थे. हमारे पास कोई विज्ञापन मशीनरी नहीं है सिर्फ जुबानी आह्वान पर बीस हजार से ज्यादा सुझाव लोगों के आ गए. ये दिखाता है कि जनता के भीतर इसको लेकर कितना उत्साह है. इन सभी सुझावों को संकलित करके हमने कुछ ड्राफ्ट तैयार किए हैं. दो अक्टूबर को हम यह पहला ड्राफ्ट जनता के सामने रखेंगे. यह एक तरह से पहला ड्राफ्ट होगा जिसे आगे फाइन ट्यून किया जाएगा लोगों के सुझाव के आधार पर.

बार-बार ड्राफ्टिंग-रीड्राफ्टिंग से जनता का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? यह हमने जन लोकपाल की ड्राफ्टिंग के समय भी देखा था.

जनता तो इसमें इंटरेस्ट ले रही है. जितनी बार हम उनसे राय मांगते हैं, लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. जनता तो नीतियों के बनाने में हिस्सेदारी चाहती है.

पार्टियों के साथ हमने देखा है कि जब चुनाव सिर पर आते हैं तब वे सभी विचारधारा को त्याग कर जाति-धर्म और समीकरणों के आधार पर उम्मीदवार चुनती हैं. ये समस्या आपके सामने भी आएगी. तो इससे निपटने का क्या तरीका होगा आपके पास?

देखिए, जब जन चेतना जागती है तब बहुत सारी दीवारें टूटती हैं. जैसे पिछली बार जब अगस्त का आंदोलन चल रहा था तब मुझसे दिल्ली पुलिस का एक कांस्टेबल मिला. उसने मुझे बताया कि मैं पिछले 16 साल से रिश्वत ले रहा था लेकिन पिछले दस दिन से मैंने रिश्वत नहीं ली है. जितने आनंद का अनुभव मैंने इन दस दिनों में किया है वह पहले कभी नहीं किया था. उसके भीतर से ही चेतना जागी. गुड़गांव में एक अल्टो गाड़ी डेढ़ साल पहले चोरी हो गई थी. उस पर अन्ना का स्टीकर चिपका हुआ था. इस बार जुलाई में जब हम अनशन कर रहे थे तब उस व्यक्ति ने कार एक थाने के पास ले जाकर छोड़ दी. उसने कार पर एक चिट लगाकर छोड़ दी कि अन्ना की गाड़ी अन्ना को मुबारक. जब जन चेतना जागती है तब यह धर्म-जाति की सारी दीवारें तोड़ देती है. मुझे विश्वास है कि भारत में वह समय आ गया है. ये वर्जनाएं धीरे-धीरे टूटेंगी.

चुनाव से पहले या बाद में किसी राजनीतिक पार्टी से गठबंधन करेंगे?

कभी नहीं.

किरण बेदी को लेकर सवाल उठ रहे हैं. शुरुआत से ही वे साथ रही हैं. अब लग रहा है कि वे दुविधा में हैं. अन्ना के साथ भी दिखना चाहती हैं और आईएसी के साथ भी.

उनकी क्या योजनाएं है ये तो उनसे ही पूछना पड़ेगा. इस बारे में वही बता पाएंगी. उनके मन की दुविधा को मैं नहीं समझ सकता हूं.

दुविधा में हैं वो…

निश्चित तौर पर दुविधा में तो हैं. पर उनके प्रश्न आप उन्हीं से पूछें.

आप लोग लंबे समय से साथ रहे हैं, बातचीत के स्तर पर, कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी के स्तर पर आप उन्हें किस दशा में पाते हैं. कुछ तो संकेत मिल रहा होगा..

मैं कैसे बाताऊं उनके मन की बात.

तो मैं ये मान लूं कि पहले वाली गरमाहट रिश्तों में नहीं रही?

यह बात तो साफ ही है कि वे राजनीतिक विकल्प के साथ नहीं जुड़ना चाहती. उनके अपने कारण हैं उसके लिए. मैं क्या कहूं.

किरण और अन्ना के अलावा सारे लोग आपकी राय से सहमत हैं...

सारे लोग.

शिवेंद्र सिंह चौहान (जिन्होंने फेसबुक पर पहली बार इंडिया अगेंस्ट करप्शन का पन्ना तैयार किया था) आंदोलन के शुरुआती लोगों में से थे. उनसे आपकी किस बात को लेकर तनातनी हो गई?

मुझे कोई आइडिया नहीं है कि शिवेंद्र क्यों नाराज हैं.

आपने उन्हें मनाने की कोशिश की…

मैंने कई बार कोशिश की.

कोई नाम सोचा है आपने अपनी पार्टी का?

अभी तो कोई नहीं.

अगली गतिविधि क्या होगी?

दो अक्टूबर से पहले 29 सितंबर को एक बार दिल्ली के सारे वॉलेंटियर्स की एक बैठक होगी. यह छोटी सी बैठक है.

जब आप राजनीति में उतरेंगे तो सिर्फ भ्रष्टाचार के ऊपर तो राजनीति नहीं होगी. तब आपको कश्मीर से लेकर नक्सलवाद और अयोध्या विवाद जैसे मुद्दों पर एक स्पष्ट राय रखनी पड़ेगी. जो लोग आपका राजनीति में उतरने का समर्थन करते हैं, वही लोग प्रशांत जी के कश्मीर पर विचार का विरोध करते हैं. इनसे कैसे निपटेंगे?

सारे लोग मिलकर बातचीत के जरिए यह बात तय करेंगे. चार लोग बैठकर पूरे देश की नीति तय कर देते हैं. ऐसे ही तो यहां राजनीतिक पार्टियां काम करती हैं. हम सबके साथ बैठकर बात करेंगे कि आखिर देश क्या चाहता है. हम एक ऐसा मंच तैयार करना चाहते हैं जहां सारे लोग बैठकर आपस में मुद्दे सुलझा सकें. किसी मुद्दे पर अगर समाज दो हिस्सों में बंटा है तो उस पर चर्चा होनी चाहिए.

देश का जो मौजूदा राजनीतिक संकट है और जिस तरह की अवसरवादी राजनीति हो रही हैं उस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे?

हम यही तो कह रहे हैं कि सब के सब एक जैसे ही हैं. पर्याय कौन देगा. पर्याय हमारे आपके बीच से ही तो कोई देगा. आप किसी के ऊपर भरोसा नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा. और जब हम पर्याय देने की बात करते हैं तब लोग कहते हैं कि महत्वाकांक्षी हो गया है. मेरा सवाल है कि देश को पर्याय कहां से मिलेगा और देश के सामने उम्मीद क्या बची है. जो रवैया है राजनीतिक पार्टियों का उससे यह देश बर्बाद नहीं हो जाएगा कुछ दिनों में?

राजनीतिक विकल्प आ जाने के बाद भी क्या आंदोलन किसी रूप में बचा रहेगा या फिर यह खत्म हो जाएगा? और अगर रहेगा तो इसका स्वरूप क्या होगा?

यह आंदोलन ही रहेगा पार्टी नहीं बनेगा. पहले आंदोलन के पास तीन-चार हथियार थे – अनशन एक हथियार था, धरना एक हथियार था, याचिका दायर करना एक हथियार था. अब उसके अंदर राजनीति एक और हथियार जुड़ गया है. मुख्य मकसद आंदोलन ही है, राजनीति एक अतिरिक्त हथियार के तौर पर जुड़ जाएगी.

बाघ अभयारण्यों में प्रतिबंधित पर्यटन

भारत के बाघ अभयारण्यों में पर्यटन को प्रतिबंधित करने से संबंधित सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या है?   

अक्टूबर 2010 के दौरान वन्यजीव कार्यकर्ता अजय दुबे ने वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम के खिलाफ सभी बाघ अभयारण्यों में जारी पर्यटन पर रोक लगाने की मांग मध्य प्रदेश हाई कोर्ट से की थी. हाई कोर्ट ने जब अपील खारिज कर दी तब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2012 में मध्य प्रदेश के साथ-साथ देश के सभी बाघ अभयारण्यों में कोर और बफर क्षेत्र के नोटिफिकेशन से जुड़ी जानकारी मंगवाई. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने उन अभ्यारण्यों को तीन महीने के भीतर कोर और बफर क्षेत्र नोटिफाई करने के आदेश दिए जहां अब तक नोटिफिकेशन नहीं हुआ था. 24 जुलाई, 2012 सुप्रीम कोर्ट ने अभयारण्यों में कोर क्षेत्र नोटिफाई नहीं करने वाले राज्यों पर 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाते हुए सभी बाघ अभयारण्यों में तत्काल प्रभाव से पर्यटन प्रतिबंधित करने का आदेश दिया. मध्य प्रदेश के अलावा आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड पर जुर्माना लगाया गया.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मध्य प्रदेश का पन्ना राष्ट्रीय बाघ अभयारण्य क्यों चर्चा में आया?

मध्य प्रदेश में कान्हा, सतपुड़ा, बांधवगढ़, पेंच और संजय टाइगर रिजर्व पहले से ही नोटिफाई हैं. लेकिन मध्य प्रदेश सरकार सिर्फ पन्ना में कोर क्षेत्र घोषित करने से कतरा रही थी. वन्यजीव कार्यकर्ताओं और सुप्रीम कोर्ट के दबाव में नौ अगस्त, 2012 को पन्ना को भी नोटिफाई कर दिया गया. कोर क्षेत्र को चिह्नित किए जाने की धीमी प्रक्रिया पर वन्यजीव कार्यकर्ताओं का कहना है कि राज्य सरकार खनन माफिया और रेसोर्ट मालिकों को लाभ पहुंचाने के लिए पन्ना में बफर क्षेत्र नोटिफाई करने से बचती आ रही थी. 

आगे इस मामले से जुड़े अहम मुद्दे क्या होंगे?

22 अगस्त, 2012 को होने वाली इस अगली सुनवाई तक सभी राज्य अपने-अपने प्रदेशों में संचालित वन्य पर्यटन का विस्तृत ब््योरा देने के साथ ही राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण द्वारा निर्धारित गाइड लाइन पर अपनी आपत्तियां दाखिल करेंगे.

-प्रियंका दुबे

राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक

 

इस बार छह पदक हासिल करके भले ही भारत ने ओलंपिक में अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया हो लेकिन तकरीबन सवा अरब आबादी वाले इस देश में बहुतों को यह बात भी अखर रही है कि भारत एक भी स्वर्ण पदक नहीं जीत पाया. एक-एक पदक के लिए भारत के संघर्ष को यहां के खेल संघों के खराब प्रशासन से जोड़कर देखने वालों की संख्या भी कम नहीं है. इस कमी को दूर करने के लिए पिछले तकरीबन दो साल से राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक लाने की कोशिश चल रही है लेकिन खेल संघों की राजनीति इसे आगे नहीं बढ़ने दे रही. 

हालांकि, खेल संगठनों के कामकाज में सुधार के लिए 1989 में भी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था. इसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि केंद्र सरकार खेलों को सही ढंग से चलाने का काम कर सके. 2007 में अटॉर्नी जनरल ने यह राय दी थी कि हम खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बना सकते हैं. इसके बाद 1989 का प्रस्ताव वापस लिया गया और उस समय से खेल मंत्रालय इस नए विधेयक का मसौदा तैयार करने में लगा है. नया कानून लाने की कोशिश पिछले साल की शुरुआत में तब तेज हुई जब अजय माकन को खेल मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया.

 

  • पिछले साल राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक का मसौदा जारी हुआ था
  • कानून बनने पर सभी संगठन आएंगे आरटीआई के दायरे में 
  •  खेल प्रशासन में खिलाड़ियों की 25 फीसदी हिस्सेदारी सुनिश्चित होगी

 

खेलों के विकास के मकसद से आने वाली इस प्रस्तावित नीति में यह प्रावधान किया गया है कि देश के सभी खेल संगठनों को राष्ट्रीय खेल संगठन के तौर पर नए सिरे से मान्यता लेनी होगी. सभी खेल संगठन सूचना के अधिकार के तहत आएंगे. उन्हें अपने आय-व्यय का ब्योरा देना होगा. यह नीति कई स्तर पर पारदर्शिता बढ़ाने की बात करती है. खेल संघों के प्रशासन में खिलाड़ियों की 25 फीसदी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी. खेल संगठनों के पदाधिकारियों की चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बात भी प्रस्तावित विधेयक में की गई है. पदाधिकारियों के लिए 70 साल की उम्र सीमा तय करने की बात भी प्रस्तावित नीति में है. एक स्पोर्ट्स ट्रिब्यूनल बनेगा जहां न सिर्फ खेल संघों के झगड़ों का निपटारा होगा बल्कि खिलाड़ी भी अपनी समस्याएं उठा पाएंगे. 

इस विधेयक का पहला मसौदा पिछले साल फरवरी में जारी किया गया. इसके बाद विभिन्न पक्षों के सुझावों को शामिल करने के बाद एक और मसौदा तैयार हुआ. इसी मसौदे को पिछले साल अगस्त में केंद्रीय कैबिनेट के सामने पेश किया गया. लेकिन वहां से इसे संसद में पेश करने के प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं मिली और इसे वापस खेल मंत्रालय भेज दिया गया. कैबिनेट ने कहा कि इसमें अभी और सुधार की जरूरत है. जानकार बताते हैं कि खेल संघों से संबद्ध नेताओं के दबाव में ऐसा हुआ. कानून का रूप लेने के लिए इस विधेयक के मसौदे को बरास्ते केंद्रीय कैबिनेट संसद के दोनों सदनों से होकर गुजरना होगा.

-हिमांशु शेखर

 

पंजाब का मन'मोहभंग'

पंजाब में 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के नायक रहे मनमोहन सिंह का करिश्मा क्या अब पंजाबी-सिख जनमानस पर धुंधला पड़ रहा है? बृजेश सिंह की रिपोर्ट.

कांग्रेस और पंजाब या यह कहें कि कांग्रेस और सिखों के एक बड़े वर्ग के बीच संबंध बहुत लंबे समय तक तनावपूर्ण और अविश्वास भरे रहे हैं. कई घटनाओं ने इसमें योगदान दिया. जैसे 1960 में सिख बहुमत वाला राज्य बनाने को लेकर चला पंजाबी सूबा आंदोलन जिसे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने तो पहले तो पूरी तरह से नजरअंदाज करने की कोशिश की लेकिन बाद में स्वीकार कर लिया. इसके बाद भी अलग-अलग मुद्दों को लेकर पंजाब और केंद्र के बीच मौके बेमौके तनातनी चलती रही. इन कड़वाहट भरे संबंधों में भी ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिख विरोधी दंगे ऐसी फांस हैं जिसकी तकलीफ आज तक सिख समाज महसूस करता है.

ऐसे में 2004 के लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद जब सोनिया गांधी ने डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद सौंपा तो इसे सीधे-सीधे कांग्रेस की अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और निखारने और सिखों के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश समझा गया. वजह जो भी हो लेकिन मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने से सिख समुदाय के लोग गौरवान्वित थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रचारित किया तो इस बात का सबूत भी मिल गया. राज्य की 13 में से 8 सीटों पर उसे जीत मिली जबकि इसके पहले वह सिर्फ दो सीटें  जीत पाई थी. जानकारों के एक वर्ग ने इसे सरदार मनमोहन सिंह के प्रभाव के रूप में देखा. लेकिन समय बढ़ने के साथ चीजें बदलती चली गईं. 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को राज्य में हार का मुंह देखना पड़ा और इसके साथ ही यह सवाल उठने लगा कि क्या मनमोहन सिंह का जादू यहां के पंजाबी-सिख जनमानस से उतर गया? 

हमने जब पंजाब के आम सिखों से इस बारे में बात की तो हमें इस सवाल का जवाब हां में ही मिला. हालांकि कोयला घोटाले में नाम आने के बावजूद ज्यादातर लोग अब भी उन्हें ईमानदार मानते हैं. जालंधर में टूर एंड ट्रैवल्स का व्यवसाय करने वाले जगदीप बरार कहते हैं, ‘ सबको पता है कि सोनिया गांधी जो कहती हैं मनमोहन सिंह वही करते हैं. फिर भी हमें इस बात का संतोष है कि वे ईमानदार हैं. ‘   

जानकारों का एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि यूपीए सरकार में एक के बाद एक घोटाले सामने आने से प्रधानमंत्री की छवि काफी खराब हुई है. इस बात के समर्थन में वे तथ्य रखते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव के समय जब अमृतसर में प्रधानमंत्री की सभा हुई तो उन्हें सुनने के लिए लोग ही नहीं आए. आधे से अधिक कुर्सियां खाली पड़ी थीं. ऐसा इसलिए हुआ कि सिख समुदाय के बीच अब वे गर्व का विषय नहीं थे. लोगों की इस ठंडी प्रतिक्रिया का नतीजा यह हुआ कि उनकी दूसरी सभा रद्द कर दी गई. 

हालांकि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में आई गिरावट के लिए कुछ लोग यूपीए-2 के प्रदर्शन के अलावा अन्य कारणों को भी जिम्मेदार मानते हैं. पंजाब विश्वविद्यालय (जिससे मनमोहन सिंह का बतौर छात्र और शिक्षक दोनों नाता रहा है) में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह कहते हैं, ‘ अगर सिर्फ राज्य, धर्म, दाढ़ी और पगड़ी के समान होने के आधार पर कोई यह कहे कि मनमोहन सिंह का पंजाब और यहां के सिखों से गहरा संबंध रहा है तो फिर वह कह सकता है लेकिन हकीकत में उनका कभी भी पंजाब और यहां के लोगों से कोई जीवंत संबंध या संपर्क नहीं रहा.’  कुछ लोगों की यह भी शिकायत है कि प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने कभी आगे बढ़कर पंजाब के लिए कुछ नहीं किया. अमृतसर रह रहे 45 वर्षीय रंगकर्मी केवल धालीवाल शिकायती लहजे में कहते हैं, ‘ राज्य में लोगों को उम्मीद थी कि उनके यहां का आदमी प्रधानमंत्री बना है तो उनके लिए कुछ तो करेगा लेकिन पंजाब को छोड़िए अपने गृहनगर अमृतसर के लिए भी उन्होंने कुछ नहीं किया. हमें लगता था कि वे पंजाब के लिए आर्थिक स्तर पर ऐसी सहूलियतें देंगे जिससे राज्य की हालत सुधरेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ‘ 

राज्य में आम लोगों की यह भी राय है कि प्रधानमंत्री ने अब तक पंजाब या सिखों से संबंधित किसी विषय पर अपनी तरफ से पहल नहीं की. वह चाहे सदन में सिखों की शादी के पंजीयन से संबंधित आनंद मैरेज एक्ट पास होने की बात हो या फिर सिख धर्म को हिंदू धर्म से अलग करते हुए एक स्वतंत्र धर्म के रूप में स्थापित करने वाला संविधान संशोधन जैसा मामला. अंग्रेजी अखबार डीएनए के ब्यूरो चीफ अजय भारद्वाज के मुताबिक ये शिकायतें भी आखिरकार यही बताती हैं कि मनमोहन सिंह का पंजाब से जुड़ाव औपचारिक ही है. वे कहते हैं, ‘ जो व्यक्ति अपने राज्य से चुनाव नहीं लड़ता और राज्यसभा भी जाता है तो असम से. ऐसे में आप उनके जुड़ाव को भावुक कैसे मानें.’

लेकिन क्या पंजाब के लोगों की उनसे कभी कोई उम्मीद रही? इस सवाल के जवाब में मंजीत कहते हैं, ‘जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था तो यहां के लोग बहुत प्रसन्न हुए थे कि चलो हमारी कौम से एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बना है, जो मेहनती, गैरविवादित, विनम्र और ईमानदार है लेकिन इससे अधिक उनसे यहां के लोगों का जुड़ाव नहीं रहा, ना ही लोगों ने उनसे कोई बड़ी उम्मीदें पाल रखी थीं. लोग यह जानते हैं कि सामने वाला कांग्रेस पार्टी से जुड़ा है और वही करेगा जो पार्टी कहेगी. लेकिन लोग तब जरूर मनमोहन से नाराज होने लगे जब एक के बाद एक घोटाले सामने आने शुरू हुए.’

सिखों से जुड़े हुए किसी मसले पर अब तक डॉ मनमोहन सिंह ने कोई सबसे बड़ी पहल की है तो वह है 1984  के दंगों के लिए सरकार की तरफ से समुदाय से माफी मांगना. हालांकि प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेता इस पर भी असंतुष्ट हैं. नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘ कम से कम वे यह तो कर ही सकते थे कि उस दंगे में शामिल रहे लोगों को सजा दिलवाने की कोशिश करते. उल्टा 2009 में कांग्रेस ने सज्जन कुमार और जगदीश टाइटर जैसे लोगों को लोकसभा का टिकट दे दिया. ‘

सिखों के प्रधानमंत्री से जुड़ाव महसूस न कर पाने के एक और रोचक कारण का उल्लेख करते हुए अजय कहते हैं, ‘ मनमोहन सिंह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में दिखते हैं. उनकी चुप्पी से यह संदेश जाता है कि वे वही करते हैं जो सोनिया गांधी उनसे करने के लिए कहती हैं. ये सारे लक्षण सरदारों के नहीं होते. सरदारों की छवि आक्रामक होती है. सरदार बेचारा नहीं दिखता, मनमोहन का यह व्यवहार सिखों की पारंपरिक छवि के विपरीत जाता है.’ मोहाली में रह रहे एक किसान अरविंदरजीत सिंह भी इस बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘ सोनिया गांधी और सरकार के मंत्रियों ने उन्हें एक पुतले में तब्दील कर दिया. कोई उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक काम ही नहीं करने देता. कभी उन्हें ममता डरा देती हैं तो कभी कोई और.’

यदि मनमोहन सिंह की छवि पंजाब में इतनी खराब हो गई है तो क्या अगले लोकसभा चुनावों में इसका खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है? इस संभावना पर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र कहते हैं, ‘ अभी तो यही तय नहीं है कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी या राहुल गांधी के. ‘ हालांकि पार्टी के ही एक और नेता नाम बताने की शर्त पर यह साफ-साफ कहते हैं,  ‘ मनमोहन सिंह की छवि से न तो कांग्रेस को फायदा होने वाला है और न ही नुकसान. बात बहुत आगे निकल गई है. यहां केंद्र सरकार की छवि इतनी खराब हो चुकी है कि अब पार्टी उम्मीदवार ही नहीं चाहेंगे कि उनके प्रचार के लिए केंद्र से कोई आए.’