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देहरी और दोराहा

बरसों पहले महिलाओं के लिए निकलने वाली हिंदी पत्रिका ‘वामा’ में मशहूर नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर का एक साक्षात्कार छपा था. जर्मेन ग्रीयर ने तब कहा था कि नारीवादी आंदोलन ने भारतीय स्त्री को बस तीन चीजें दी हैं- लिपस्टिक, हाई हील और ब्रा. बाद के दिनों में जर्मेन ग्रीयर की यह राय बदली या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन अपने देश में बहुत सारे लोग ऐसे रहे हैं जो नारीवाद को एक सजावटी- एक फैशनेबल विचार- भर मानते रहे हैं. इत्तिफाक से आधुनिक स्त्री का मतलब भी उनके लिए एक फैशनेबल स्त्री भर है. कुछ साल पहले जब शरद यादव ने संसद में महिला आरक्षण पर चल रही बहस के दौरान परकटी महिलाओं का जिक्र किया था तो वे अपने भीतर बनी हुई आधुनिक स्त्री की छवि का भी सुराग दे रहे थे.

दरअसल भारत में स्त्री आधुनिकता के सामने दुविधाएं और संकट कई हैं. सबसे बड़ा संकट तो यही है कि आधुनिकता की पूरी परियोजना की तरह स्त्री आधुनिकता के विचार और संस्कार भी हमारे यहां पश्चिम से ही आए हैं. यह आधुनिकता मूलतः नागर है और इसका ज्यादातर जोर लैंगिक बराबरी से ज्यादा यौनिक आजादी पर है. बल्कि पिछले कुछ दिनों में स्त्री मुक्ति और यौनिक आजादी को कुछ इस तरह गूंथ देने की कोशिश हुई है जैसे सिर्फ देह की मुक्ति को ही स्त्री मुक्ति का पर्याय बना दिया गया है. यहां एक बहुत स्पष्ट फांस है जो बाजार ने पैदा की है. बाजार का पूरा प्रचार-प्रसार, उसका पूरा का पूरा विज्ञापन उद्योग, समूचा मनोरंजन उद्योग जैसे सिर्फ स्त्री की देह पर टिका है. साबुन से लेकर कार तक बेचने के लिए स्त्री देह का यह इस्तेमाल लेकिन स्त्री की दैहिक आजादी को एक नई तरह की छिपी हुई गुलामी में बदल डालता है. यह अनायास नहीं है कि जिस दौर में स्त्री लगातार आजादी और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ी है, उसी दौर में स्त्री उत्पीड़न भी बढ़ा है, देह का कारोबार भी बढ़ा है,  उसका आयात-निर्यात भयावह घृणित स्तरों तक फैला है.

मुश्किल यह है कि आधुनिकता स्त्री को घर से बाहर निकाल कर उसका शिकार करना चाहती है तो परंपरा उसे घर के भीतर ही मार डालना चाहती है. आधुनिकता और परंपरा दोनों इस मामले में द्वंद्वहीन हैं कि स्त्री बस इस्तेमाल की वस्तु है- उसे बाजार के भी काम आना है, घर के भी. लेकिन इस स्थिति का सामना तो स्त्री को करना होगा और वह कर भी रही है. बेशक, उसके बाहर निकलने से, बराबरी चाहने से, सिर्फ परंपरा की चूलें ही नहीं हिल रहीं, काफी कुछ और भी दरक रहा है. परिवारों में हलचल है, विवाह नाम की संस्था के भीतर तनाव हैं, दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों में उथल-पुथल है. पहली बार पुरुष स्त्री के अधीन रह कर काम करना सीख रहा है, उसे बॉस की तरह देखने को मजबूर है. स्त्रियां गलती कर रही हैं, सीख रही हैं, दूसरों की गलती निकाल रही हैं और अंततः समाज में लगातार निर्णायक हस्तक्षेप कर रही हैं.

यह सबसे ज्यादा संभव इसलिए हो रहा है कि स्त्री आज की तारीख में आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हुई है. इस लिहाज से देखना चाहें तो आत्मनिर्भरता या इसकी चाह भारतीय स्त्री के आधुनिक होने की शायद पहली कसौटी हो सकती है. दरअसल आत्मनिर्भरता सिर्फ नौकरी या रोजगार हासिल करना नहीं है, वह एक पूरी प्रक्रिया है जिससे किसी के व्यक्तित्व का निर्माण होता है. इसकी शुरुआत शिक्षा और समानता के अवसरों से होती है. यह सच है कि दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा पद्धति में पुरुष वर्चस्व के अनेक रूप कई सूक्ष्म स्तरों पर सक्रिय हैं जो पाठ्य पुस्तक निर्माण से लेकर पठन-पाठन की प्रक्रिया और शिक्षकों के नजरिये तक में दिखाई पड़ते हैं. भारत के मध्यवर्गीय घरों में भी लड़कियों को अमूमन इसलिए पढ़ाया जाता रहा कि वे पढ़े-लिखे, अच्छे रोजगार में लगे लड़कों से विवाह की पात्रता अर्जित कर सकें.

लेकिन इसके बावजूद इस शिक्षा ने लड़कियों के व्यक्तित्व निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, उन्हें बराबरी का दावा पेश करने लायक बनाया है. 50 साल पहले शिक्षा और सेहत के मामलों में भारतीय स्त्रियां जो स्वाभाविक उपेक्षा झेलती थीं, वह निस्संदेह काफी घटी है. लेकिन स्त्री की बराबरी का एक बड़ा मोर्चा अब भी बाकी है. सारे कानून बन जाने के बावजूद भारतीय समाज की मुख्यधारा उसे संपत्ति में हिस्सा नहीं देती. लड़की के नाम पर दहेज चाहे जितना भी दे दिया जाए, लड़की अगर घर और खेत में हिस्सा मांगे तो वह बेशर्म, ढीठ या लालची कुछ भी कही जा सकती है जो अपने भाइयों का हक मार रही है.

आत्मनिर्भरता स्त्री के आधुनिक होने की शायद पहली कसौटी हो सकती है. आत्मनिर्भरता सिर्फ नौकरी या रोजगार हासिल करना नहीं है, वह एक पूरी प्रक्रिया है

इस मामले में हमारे समय की लड़कियां भी कुछ हिचक और संशय में दिखती हैं. वे नौकरी करके, या कोई छोटा-मोटा काम करके गुजारा करने को तैयार हो सकती हैं, लेकिन अपनी ऐसी छवि नहीं बनने देना चाहतीं कि वे घर में बंटवारा करा रही हैं. दरअसल यह परंपरा की वही जकड़न है जिससे आधुनिक स्त्री को मुक्त होना होगा. घर-परिवार-खानदान जैसी व्यवस्थाएं सिर्फ लड़कों की हैं और लड़कियां पराया धन हैं, यह अवधारणा सबसे पहले स्त्री को दास में बदलती है. अक्सर इसका खामियाजा उन औरतों को भुगतना पड़ता है जो आर्थिक तौर पर पति पर निर्भर होती हैं और किसी त्रासदी में पाती हैं कि मायका उन पर कुछ दया करने को तो तैयार है, लेकिन उनका हिस्सा देने को नहीं. भारत की आधुनिक स्त्री को यह सिलसिला तोड़ना होगा- उसे बताना होगा कि उसके बराबरी के अधिकार बिल्कुल संपत्ति से शुरू होते हैं. यह सिर्फ पैसे का नहीं, उसके मान-सम्मान का, उसकी सामाजिक हैसियत का मामला भी है.

स्त्री की आधुनिकता की बात हो और परिधान का सवाल न आए, यह नहीं हो सकता. क्योंकि एक स्तर पर परिधान ही वह पहली कसौटी है जिस पर समाज आधुनिक लड़की की छवि बनाता है. दूसरे स्तर पर यह भी वह दुविधा है जो भारत में आधुनिक लड़की को घेरती है. निस्संदेह तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले परिधान पहनने वाली लड़कियां जरूरी नहीं कि मिजाज से भी आधुनिक हों और साड़ी या परंपरागत दूसरे कपड़ों वाली लड़कियां पारंपरिक हों. लेकिन इस मामले में भी लडकियों को दोहरे हमले झेलने पड़ते हैं. परंपरा चाहती है कि वह परदे, बुरके, आंचल में रहे, इससे आगे भी जाए तो उसकी बनाई कसौटियों के हिसाब से तथाकथित शालीन- यानी देह ढकने वाले कपड़े पहने, जबकि बाजार के कंधों पर आ रही आधुनिकता जैसे उसके सारे कपड़े उतार लेने पर आमादा है और इसे उसकी आजादी का नाम दे रही है. निस्संदेह कोई भी आधुनिक लड़की अपने ढंग से तय कर सकती है कि वह क्या पहने और क्या नहीं, और अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग परिधान निकाल सकती है, लेकिन उसे यह स्वस्थ माहौल देना होगा कि वह अपनी मर्जी से अपने कपड़े चुन सके, और ऐसा करते हुए न परंपरा की लाठियां झेले न बाजार के लॉलीपॉप से प्रभावित हो. भारतीय समाज में दोनों तरह की परंपराएं भी मिलती हैं- खुलेपन की भी और तथाकथित मर्यादा की भी- एक आधुनिक स्त्री इन दोनों के बीच आसानी से आवाजाही कर सकती है.

इस आवाजाही में दो महत्वपूर्ण सवाल उसका पीछा करते हैं. पहला तो यह कि वह अपनी त्वचा का क्या करे, दूसरा यह कि वह अपने चारों तरफ पसरे समाज से- जो मूलत: पुरुष वर्चस्व और उपस्थिति से बना समाज है- कैसा रिश्ता जोड़े. एक दौर में नारीवाद मानता था कि स्त्री को पुरुष की निगाह में सुंदर दिखने की जरूरत नहीं. वह सौंदर्य प्रतियोगिताओं का विरोधी था और इस बात की उचित वकालत करता था कि स्त्री अपने व्यक्तित्व से परखी जाए, अपने शरीर से नहीं. बाद के दौर में यह मान्यता बदलती दिखती है, एक सोच यह उभरती है कि शरीर भी व्यक्तित्व का हिस्सा ही है और जब बहुत तेज दौड़ने की, बहुत ऊंची छलांग लगाने की, बहुत दूर तक गोला फेंकने की- मूलतः शारीरिक सामर्थ्य पर आधारित प्रतियोगिताएं हो सकती हैं तो सबसे सुंदर दिखने की क्यों नहीं. त्वचा के प्रति स्त्री में एक नई संवेदनशीलता जागी है जो उसे अपनी सुंदरता के प्रति भी सजग बना रही है. 

अब दूसरे सवाल पर लौटें जो भारतीय संदर्भों में अचानक समीचीन हो उठा है. लड़की जब तक घर में थी, वह किसी की मां, बेटी, बहन, पत्नी, भाभी, चाची, बुआ, मौसी जैसी बिल्कुल परिभाषित भूमिकाओं में थी. वह बाहर भी निकलती थी तो बड़ी आसानी से किसी की दीदी और भाभी हो जाया करती थी. लेकिन आज के कहीं ज्यादा पेशेवर दौर में, जब दफ्तरों में स्त्री उपस्थिति भी बढ़ी है और आपसी प्रतिस्पर्धा भी, तो स्त्री अपने आप को रिश्तों के अपरिभाषित संसार में पा रही है. भारत में स्त्री और पुरुष पहली बार इस तरह निकट हैं कि एक साथ कई घंटे गुजार रहे हैं. ऐसी स्थिति में उनके बीच नए रिश्ते बन रहे हैं. पहली बार विवाह पूर्व या विवाहेतर संबंधों का सवाल इतने जलते हुए ढंग से हमारे सामने है जो परिवारों को तनाव में डाल रहा है. पहली बार विवाह इतनी बुरी तरह टूट और दरक रहे हैं. तलाकों की तादाद इसीलिए बड़ी तेजी से बढ़ी है.

इन सबके लिए मर्द को नहीं, नए जमाने की औरत को दोष दिया जा रहा है. यह समझने को कोई तैयार नहीं है कि विवाह नाम की व्यवस्था अब तक अटूट और अभेद्य मालूम पड़ती रही तो इसलिए कि उसकी दीवारें औरत की हसरतों से चिनी हुई थीं. पुराने परिवार में औरत मर्द की छाया बन कर जी सकती थी. नए घर में वह दफ्तर की ही तरह हुक्म चला रही है, पुरुष की ही तरह बराबरी का हिस्सा मांग रही है. मुश्किल यह है कि इसकी वजह से जो सामाजिक ताना-बाना टूटता लग रहा है, उसकी मार भी औरत की पीठ पर ही पड़ रही है. पहली बार वह इतनी अकेली है और कई बार टूटे हुए घर में अपने बच्चों का बोझ अकेले उठाने को मजबूर.
इन सबके बावजूद इस आधुनिक समय ने स्त्री को उसका व्यक्तित्व लौटाया है जो कई दूसरी चीजों से कहीं ज्यादा मूल्यवान है. यह जरूरी है कि स्त्री अपना यह स्वतंत्र व्यक्तित्व कायम रखे और इसी ढंग से अपने रिश्ते, अपने रास्ते, अपने कपड़े तय करे. यह उसके लिए भी जरूरी है और एक न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिए भी.    

तभी हम भी रह सकेंगे

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संजय दुबे, कार्यकारी संपादक

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अमृतलाल नागर जी का एक उपन्यास है शतरंज के मोहरे. इस उपन्यास के एक पात्र हैं अवध के एक गांव के जमींदार लाल साहब. इसमें एक स्थान पर लिखा है कि लाल साहब की ‘पहली पत्नी ने चार कन्याओं और एक पुत्र को जन्म दिया था. पुत्रियां जन्मते ही मार डाली गईं. अब दूसरी पत्नी की यह पहली सौरी है. लाल साहब की मां, विधवा बहन और दायी कंडौर (कंडे रखने का स्थान) में छोटी ठकुरानी को घेरे बैठी हैं.’
इस उपन्यास में जो आगे लिखा है वह जरा भी सभ्यता रखने वाले किसी की भी नींद उड़ाने के लिए बहुत ज़्यादा है- छोटी ठकुरानी ने एक बिटिया को जन्म दिया. ‘लाल साहब की मां और चाची जल-भुनकर चल दीं. लाल कुंवर सिंह की नवजात कन्या के पहली कुआं-कुआं करते ही दायी ने उसके मुंह में मदार का दूध टपकाना आरंभ कर दिया. बच्ची को मदार का दूध पिलाकर उसके मुंह में गर्भ का मल भर दिया. जच्चा की खाट के पास ही जल्दी-जल्दी गड्ढा खोदकर जैसे-तैसे शिशु का शव तोप दिया.’

नागर जी ने यह वर्णन पिछली शताब्दी की शुरुआत का किया है. शताब्दी के अंत की बात अपने एक लेख में श्रीलाल शुक्ला जी ने लिखी है – ‘लगता है कि गांवों से निकलकर यह प्रथा शहर के संभ्रांत वर्गों में आ गई है. वे अब कन्या के जन्म की प्रतीक्षा नहीं करते, वे भ्रूण-परीक्षण करते हैं और अगर शिशु कन्या की संभावना हुई तो बड़ी निस्संगता से गर्भपात का रास्ता अपनाते हैं.’

मगर पैदा न होने देना तो जघन्य होते हुए भी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में काफी नीचे है. करीब एक साल पहले तहलका ने एक स्टोरी – होना ही जिनका अपराध है जहां – की थी. इसे पढ़ने पर समझ आता है कि किस तरह से बुंदेलखंड में बच्चियां एक-दूसरे से बदला लेने के खेल में बलात्कार और उसके बाद आग की शिकार बनाई जा रही हैं. इस इलाके के कुछ हिस्सों में लड़कियों का होना और सुंदर होना आज भी रोने-मातम मनाने की वजह हो सकता है.

बिल्कुल अभी की बात करें तो केवल आठ-दस दिन पहले ही दिल्ली में एक युवा महिला के साथ जो हुआ वह केवल इसलिए घिन पैदा नहीं करता कि जो हुआ वह क्या था बल्कि इसलिए भी कि यह महिलाओं के आगे आने के, कुछ करने के, पहले से ही तंग रास्तों को कुछ और संकरा बना देता है. यह उन्हें पीछे खींचने के लिए हर वक्त तैयार रहने वालों को एक बड़ा मौका दे देता है.

मगर मिटाने की इतनी तरह की कोशिशों, पूर्वाग्रहों, बाधाओं, दबे-ढके भेदभावों के बाद भी यदि अमरोहा की खुशबू मिर्जा आज चांद पर पहुंचने के सपने देख रही हैं, दलित समुदाय की मायावती अगर बार-बार दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश बन सकने लायक प्रदेश की और ममता बनर्जी देश में सबसे लंबे समय तक रहने वाली सरकार को उखाड़ कर मुख्यमंत्री बन सकती हैं और हमारी अपनी प्रियंका दुबे पिछले दो महीनों में देश के दो सबसे बड़े पत्रकारिता सम्मान पाने के बाद इस विशेषांक को जैसा यह है वैसा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं तो इस विशेषांक के शीर्षक – मैं हूं और रहूंगी – को स्थापित करने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए.
रही बात यह विशेषांक निकालने की तो हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि हमारा कोई भी सामान्य अंक महिलाओं के लिए नहीं है. या फिर उसमें महिलाओं से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं हैं. चूंकि विशेषांक निकालना था और इसे सेक्स आदि की बेवजह की चूहादौड़ से अलग रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें भी आपके समक्ष रखनी थीं तो यह आपके हाथों में है.

मगर यह केवल महिलाओं के लिए नहीं है. वैसे ही जैसे हमारे सभी अंक महिलाओं के लिए भी हैं. इसमें महिलाओं के और महिलाओं को समझने के लिए कुछ बेहद जरूरी सामग्री है. शायद यह समझने के लिए भी कि वे हैं और रहेंगी तभी हम भी रह सकेंगे. यह विशेषांक केवल महिलाओं के लिए नहीं है. वैसे ही जैसे हमारे सभी अंक महिलाओं के लिए भी हैं. इसमें महिलाओं के और महिलाओं को समझने के लिए कुछ बेहद जरूरी सामग्री है.

बांध लूं दुनिया चोटी में(13-19 वर्ष)

डायरी के अंश

जमाना है पीछे

कुलुष हरते पुरुष

एकाधिकार तोड़ता मंत्रोच्चार

 

मुझे क्या बेचेगा रुपैया (20 से 29 वर्ष)

डायरी के अंश

जमाना है पीछे

देहरी और दोराहा

 

हैरान हूं मैं जिंदगी (30 से 39 वर्ष)

डायरी के अंश

बदनाम बैतूल

लौट के बाजार को आए

जमाना है पीछे

 

विस्तार है अपार (40 से 49 वर्ष)

डायरी के अंश

जननी जग अंधियारा

साक्षात्कार

सबसे खुश हूं आज

 

थी, हूं और रहूंगी (50 वर्ष और इससे आगे)

डायरी के अंश

हौसलों का हासिल

सबसे खुश हूं आज

 

पांच का पंच

घटनाएं

योजनाएं

कानून

स्वास्थ्य समस्याएं

मिथक

बांध लूं दुनिया चोटी में…

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फुलवा, 14 साल

21 नवंबर 2012,  शाम 6 बजे, सासाराम

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 आज पूरे नौ दिन बाद स्कूल जा पाई. पापा ज्यादा बीमार हो गए थे इसलिए मम्मी ने स्कूल जाने ही नहीं दिया. वैसे भी, स्कूल में टीचर सभी बच्चों को बहुत मारते हैं. फिर स्कूल के बाथरूम से भी मुझे डर लगता है. बाथरूम की छत ऊपर से खुली है और उसमें बहुत सारे कबूतर रहते हैं. मैंने भोलू को भी बताया था कि उन कबूतरों की आंखें पास से लाल दिखाई देती हैं और वे दिन भर स्कूल के बाथरूम में गुटरगूं-गुटरगूं करके शोर मचाते रहते हैं. कई बार कबूतर दरवाजे पर ही बैठे रहते हैं  और कोई जाए तो अचानक जोर से पंख फड़फड़ाकर उड़ने लगते हैं. तब मैं बहुत डर जाती हूं और कई बार तो बिना बाथरूम किए ही बाहर दौड़ लगानी पड़ती है. मुझे पंख फड़फड़ाते हुए लाल आंखों वाले कबूतर हमेशा बहुत डरावने लगते हैं. खैर, पहले तो हमारे स्कूल में बाथरूम ही नहीं था. मैं और मेरी सारी सहेलियां बाथरूम नहीं जा पाते थे. रजिया को तो इसलिए चौथी क्लास में ही स्कूल छोड़ना पड़ा. वह कहती थी कि उसके अम्मी-अब्बू को उसका स्कूल के पास वाले मैदान में बाथरूम जाना पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने उसे स्कूल से ही निकलवा लिया. वह बहुत रोई भी थी स्कूल छोड़ते वक्त. मुझे यह सोच कर अच्छा लगता है कि मैं स्कूल जा रही हूं. जब से हम सासाराम आए हैं तबसे मुझे विश्वास होने लगा है कि मैं पढ़ पाऊंगी. जब हम एकौनी गांव में रहते थे न, तब तो बीच में मेरी पढ़ाई बंद ही करवा दी गई थी. स्कूल गांव से 12 किलोमीटर दूर था और आजी-बाबा इतनी दूर जाने देने के लिए मान नहीं रहे थे. फिर किस्मत से पापा को लोहे की फैक्ट्री में काम मिल गया और हम सासाराम आ गए. आज मैं छठवीं में पढ़ रही हूं और भोलू दूसरी में. अब मेरी क्लास में बस 10 लड़कियां ही बचीं हैं जबकि लड़के 50 हैं. लेकिन मैं बहुत खुश हूं कि स्कूल जा सकती हूं. हां, पापा ने कहा है कि तभी जा सकती हूं जब सुबह जल्दी उठकर झाड़ू-बुहारू कर दूं और सबके लिए नाश्ता बना दूं. पापा कह रहे थे कि फिर से हमारा कोई छोटा भाई-बहन आने वाला है. इसलिए मम्मी अभी सिर्फ खाना बनाएंगी. जब भी मम्मी-पापा में से कोई भी बीमार होता है तो मुझे ही घर का सारा काम देखना पड़ता हैं. मैं सुबह भोलू को उठाती हूं. हम दोनों साथ में मुंह धोते हैं और नहाते हैं.

‘कल मैं भी बीडन के खेत से तितली पकड़ लाऊंगी और फिर ‘फुलवा स्कूल जाना चाहती है भगवानजी!’,कहकर उसे उड़ा दूंगी’

फिर मैं खुद भी तैयार होती हूं और उसे भी कपड़े पहनाती हूं. फिर हम दोनों गुलाबी वाली पोंड्स क्रीम लगाते हैं जो मम्मी लगाती हैं और मैं भोलू की कंघी करती हूं. फिर मैं चाय-परांठे बनाती हूं. मैं और मम्मी चाय पीते हैं. पापा और भोलू को दूध मिलता है. मुझे कभी दूध नहीं मिला लेकिन मुझे दूध बहुत अच्छा लगता है. दूध कम होता है इसलिए सिर्फ भोलू और पापा को मिलता है. भोलू के पास स्वेटर भी नया है और उसके लिए फिर से नए दस्ताने आ गए हैं. मेरे लिए नहीं आए. मैंने मम्मी से कहा था कि बर्तन धोने के बाद मुझे स्कूल जाते हुए हाथों में बहुत ठंडी लगती है और मैं स्कूल में लिख नहीं पाती हूं. लेकिन मम्मी ने गुस्से में मुझे डांटते हुए कहा था कि जितना दिन स्कूल जाने को मिल रहा है, चुप-चाप चली जाऊं…वर्ना दो-चार पोथी-पत्रा पढ़कर कलेक्टरनी नहीं बन जाऊंगी मैं ! मम्मी कह रही थी कि बहुत जल्दी मेरी पढाई छुड़वा दी जाएगी और मेरा ब्याह हो जाएगा. कल मेरा जन्मदिन था लेकिन मम्मी ने मिठाई खरीदकर नहीं दी. मैं बहुत रोई थी क्योंकि भोलू के जन्मदिन पर तो केक आया था ! रोने पर मम्मी ने मुझे खूब मारा और फिर खुद भी रोने लगीं. उनकी तबियत खराब होने लगी थी और वो कह रही थीं कि पापा को बहुत कम पैसे मिलते हैं. पापा कहते हैं भोलू के लिए केक इसलिए आया क्योंकि वह लड़का है. पापा कहते हैं केक सिर्फ लड़कों के लिए आता है और मुझे अगर पकवान खाने का शौक है तो मैं खुद मिठाई बनाना सीख लूं.  

तो क्या मैं स्कूल नहीं जा पाऊंगी? अरे नहीं, मुझे तो पढ़ना था! मैं पापा के सामने हाथ जोड़कर कहूंगी कि मुझे प्लीज पढ़ने जाने दो. मैं सारे बर्तन धो दूंगी. नए दस्ताने या स्वेटर भी नहीं मांगूंगी. मुझे केक भी नहीं चाहिए और मैं मिठाई बनाना भी सीख लूंगी. लेकिन प्लीज मुझे पढ़ने जाने दो ! स्कूल के टूटे बाथरूम के लाल आंखों वाले कबूतरों से भी नहीं डरूंगी, सच्ची पापा ! बिट्टी कहती है कि रंगबिरंगी तितली को पकड़ कर डब्बे में बंदकर के थोड़ी देर बाद उड़ा देने से भगवानजी सारी इच्छा मान जाते हैं. कल मैं भी बीडन के खेत से तितली पकड़ लाऊंगी और फिर ‘फुलवा स्कूल जाना चाहती है भगवानजी!’,कहकर उसे उड़ा दूंगी. शायद भगवानजी मेरी बात भी सुन लें !  

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रागिनी, 16 साल

22 नवंबर 2012, रात नौ बजे, तिलक नगर, झांसी

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पिछले साल तक तो सभी लड़कियां स्कर्ट्स पहनती थीं लेकिन इस बार नए प्रिंसिपल ने 9th क्लास से लड़कियों के लिए सलवार कमीज जरूरी कर दी है. घर में मम्मी और बाहर स्कूल, सबने मिलकर मेरी पूरी अलमारी बदल दी है. मेरे कबड्डी और बास्केट-बॉल वाले शार्ट्स हटा दिए गए हैं. डायरी, तुम तो जानती हो कि मुझे बास्केट-बॉल और कबड्डी खेलना कितना पसंद है ! इस साल तो मेरा स्टेट टीम के लिए सेलेक्शन भी हो गया था लेकिन मम्मी-पापा जाने दं तब न. सबको सिर्फ बोर्ड्स की पड़ी है. तुम्हें याद है न, पापा ने कितना मारा था? सब उस बबलू की वजह से हुआ था. या शायद पापा की वजह से. तुम्हें क्या लगता है? अरे वही बबलू जो ट्यूशन के बाद मेरा पीछा करता था और बार-बार कहता था कि वह मुझसे दोस्ती करना चाहता है. याद आया? उसने घर पर कई ब्लैंक काल्स भी किए थे. अब तिलक नगर इतनी छोटी जगह है कि पापा को किसी ने बता दिया. मुझे आज भी याद है वो शाम. मैं ट्यूशन से वापस आई थी और बहुत खुश थी. गुल्लक के पैसों से मैंने साइकिल के आगे एक प्लास्टिक बास्केट लगवाई थी! तुम्हें याद है न वो बास्केट डायरी? ब्लैक कलर की थी और उस पर येलो –पिंक और ग्रीन कलर के तीन फूल बने थे. हुर्रे ! मैं आज भी कितनी खुश हो जाती हूं उसे याद करके. रक्षाबंधन और चाट-गोलगप्पों के पैसे जोड़कर खरीदा था उसे.  मैं  मम्मी पापा को कबड्डी के लिए डिस्ट्रिक्ट और बास्केट बाल के लिए स्टेट टीम में हुए अपने सेलेक्शन की खबर देने वाली थी.

लेकिन उससे पहले तो मुझपर डांट का पहाड़ टूट पड़ा. पापा ने कहा कि मैं ट्यूशन जाने की बजाय साइकिल में डलिया लगवाकर आवारागर्दी कर रही हूं मम्मी ने भी मुझे चांटा मारते हुए कहा कि इस खेल-वेल के चक्कर ने मुझे बहुत बिगाड़ दिया है. उन्होंने ज्योति और दीप्ति का भी नाम लिया था और कहा था कि मैं खराब लड़कियों के साथ खेलती हूं. ज्योति और दीप्ति मेरी टीम में थीं और जब भी वे घर आतीं हम तीनों घर पर ही खेलना शुरू कर देते. मम्मी को यह पसंद नहीं था. असल में उन्हें लगता है कि ज्योति और दीप्ति अच्छे घर से नहीं आतीं.. तुम्हें याद है डायरी, आखिरी दिन तो मम्मी ने ज्योति और दीप्ति के सामने ही कहा था कि, ‘इतनी बड़ी हो गई हो. कपड़े ढंग से नहीं पहन सकतीं? मां ने कुछ बताया नहीं क्या? पूरा शरीर थुल-थुल हो गया है और घोड़ी जैसे खेलते रहती हैं ! यहां आकर मत खेला करो. छत पे सब आदमी लोग देखने लगते हैं, और अब दुपट्टा ओढ़ना शुरू करो ठीक से.’ हम तीनों ही रोने लगे थे. मम्मी को पता था कि दीप्ति और ज्योति के पापा नहीं हं. उनकी मां सिलाई की दुकान चलाती हैं. उनका घर हमारे घर जितना बड़ा नहीं. फिर भी उन्होंने. उस दिन के बाद से वो कभी मेरे घर नहीं आईं. उन्होंने खेलना भी छोड़ दिया है. सोचा था कि मैं स्टेट लेवल जीतकर नेशनल टीम में जाऊंगी. पता नहीं उस साले बबलू और मम्मी-पापा ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? हमारे झांसी से तो आजतक कोई लड़की बास्केट बाल और कबड्डी की स्टेट टीम में शामिल ही नहीं हुई, अखबारों में भी छपा था.

लेकिन मम्मी पापा ने जाने नहीं दिया. उनका कहना था कि बबलू मेरा पीछा करता है इसमें जरूर मेरी गलती है. पापा ने कहा कि मेरे पंख उग आए हैं. मैं साइकिल पर आवारागर्दी करती हूं, बबलू को सड़क पर देखकर मुस्कुराती हूं. पापा को शर्मा अंकल ने बताया था कि मैं मुस्कुराते हुए साइकिल चलाती हूं और उस शाम पापा ने मुझे मारते हुए कहा था कि मैंने कॉलोनी में उनकी इज्जत डुबो दी. डायरी, जब से पापा ने मेरी चोटी पकड़ के खींची और मुझे बहुत सारे थप्पड़ मारे तब से रोज मेरा सर दुखता है. फिर उन्होंने कहा कि अब मेरा खेलना बंद, मैं बोर्ड की तैयारी करूं और शाम को मम्मी के साथ खाना बनाऊं. उस दिन मैंने पहली बार पलट कर कहा था कि मैं खेलना नहीं छोडूंगी और पापा ने मुझे बहुत मारा था. मेरी पीठ पर मुक्के पड़े थे. लेकिन डायरी, मैं उस समय रो नहीं रही थी इसलिए पापा ने मुझे और मारा और तब तक मारा जबतक मैं रोने नहीं लगी. मेरी पीठ आज भी दुखती है. मम्मी ने कहा कि मेरे पर कतरने की जरूरत है. उन्होंने मेरी साइकिल से फूलों वाली बास्केट निकाल दी और कहा कि पीछे कैरियर में बैग दबा के स्कूल जाओ. डायरी, मुझे बास्केटबाल कोर्ट जाना है. मैंने कब से बास्केट करने की प्रैक्टिस नहीं की. मैं बबलू को नहीं जानती. उन्होंने मेरी फूलों वाली बास्केट क्यों तोड़ दी? मेरे खेल का मैदान क्यों छीन लिया डायरी? मैं कहां जाऊं ? मम्मी-पापा आज मुझसे अच्छे से बात करते हैं. लेकिन उन्होंने मेरी फूलों वाली डलिया तोड़ी है. मुझसे मेरा मैदान वापस ले लिया है. मैं उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी.

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निवेदिता, 19 साल

19 नवंबर 2012, रात 10 बजे, शिमला

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पापा के तबादले के बाद पहली एंट्री लिख रही हूं. इस बीच सब इतना गड्ड-मड्ड और उलझा हुआ रहा कि मैं अपने-आप को किसी एक धुरी में स्थापित ही नहीं कर पा रही थी. बारहवीं के नतीजे, दिल्ली के किसी ठीक-ठाक कालेज में दाखिले की भाग-दौड़, फिर अचानक दिल्ली विश्वविद्यालय के वेंकटेश्वर कालेज में मेरे दाखिले की खबर आना! कितनी अच्छी शाम थी वो! मैं अपने एडमिशन की वजह से काफी दिनों से परेशान थी और अचानक वेंकी किल्यर कर लेने की खबर से बहुत राहत मिली थी. मैं तो ठीक से खुश भी नहीं हो पाई थी कि पापा के तबादले की खबर आ गई और मुझे लगा, अब ये क्या है? मैं किसी कीमत पर दिल्ली यूनिवर्सिटी से सीधा शिमला यूनिवर्सिटी जाने को तैयार नहीं थी. उफ़, मैंने कितना झगड़ा किया था! मां-पापा और रिश्तेदार… सबके  सामने जोर-जोर से चिल्ला रही थी! और हां, दो दिनों तक खाना को हाथ भी न लगाना भी मेरे विरोध की स्कीम का हिस्सा था. और मैं ये सब करती भी क्यों नहीं? आखिर दिल्ली मेरा अपना शहर है. मुझे याद है, पहले दरियागंज में मेरा बस स्टाप हुआ करता था, कनेर के पीले फूलों वाले पेड़ों के पास. जब मैं छोटी थी तो रोज एक कनेर का फूल शर्ली मैडम के लिए ले जाया करती थी. फिर, हमारा परिवार मुनीरका डीडीए फ्लैट्स में सेटल हो गया था.

तब मैं 8th क्लास में पढ़ती हूंगी. मेरा दाखिला जेएनयू कैंपस में बने केंद्रीय विद्यालय (केवी) में करवा दिया गया था. मुझे वो वक्त बहुत याद आता है. मेरे सारे  दोस्त दिल्ली के ही हैं. हम खूब मस्ती करते थे और क्लासेस बंक करके प्रिया में फिल्मे देखने जाया करते थे. सुबह के शोज में सिर्फ 60 रूपये का टिकट मिलता था न, इसलिए मैं, स्वाति, खुशबू, तृप्ति और रोहित. कभी-कभी हम अमित और अनुराग को भी अपने साथ ले जाते थे. लेकिन सिर्फ कभी-कभी…क्योंकि वो लोग अपने स्टूपिड जोक्स और फ़ालतू के एटिट्यूड की वजह से हमें बहुत झिलाते थे…! आज मुझे अपने स्कूल के सारे दोस्तों की बहुत याद आती है. मैं कभी शिमला नहीं आना चाहती थी लेकिन मां-पापा इतने पजेसिव हैं न मुझको लेकर..कि मेरे बॉय-फ्रेंड्स भी शर्मा जाते हैं. मैंने अपनी विरोध प्रदर्शन स्कीम के तहत खूब हंगामा मचाया तो था लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहने का जिक्र आते ही मां ने जो हंगामा किया कि बस! रोते-रोते वो बीमार पड़ गयीं और आखिरकार शिमला आने के लिए राजी होना ही पड़ा. 

खैर, मैंने अभी तक हिम्मत नहीं हारी है. मैं 2nd इयर में वापस दिल्ली जाने का मन बना चुकी हूं. इंटरनेट पर कालेजों के डिटेल्स पढ़ती रहती हूं. और इस बार मां मुझे ‘जवान अकेली लड़की’ होने की वजह से नहीं रोक पाएंगी. मेरे आस-पास सभी लोग कहते हैं कि जवान लड़की को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए..सबसे ज्यादा चाचा-चाची. मुझे बहुत गुस्सा आता है. क्या जवान होने से मेरे सींग उग आए हैं? तो फिर क्यों इतना हल्ला हो रहा है? ये मत करो, वो मत करो, यहां मत जाओ…और मां तो अचानक मेरे कपड़ों के पीछे पड़ गई हैं ! कई बार मुझे लगता है कि वो मेरा दोस्त होने का दिखावा करती हैं. असल में वो मेरे बॉय-फ्रेंड्स के बारे में जानना चाहती हैं! मुझे पता है,चाचाजी इसकी बड़ी वजह हैं. उन्होंने मुझे रोहित के साथ दो बार कनॉट प्लेस के एक आइसक्रीम पार्लर में देख लिया था और फिर शोभित के साथ सिनेमा हॉल के बाहर. मैंने उनको मां से कई बार कहते सुना है कि लड़की हाथ से निकल गई !!….हंसते-हंसते मेरा पेट दुखने लगा है…अरे मैं हाथ में थी कब? और मैं क्या मां का कोई हैंड-बैग हूं जो हाथ में रहूंगी?

असल में चाचाजी कन्फ्यूज़ हो गए होंगे कि शोभित और रोहित में से मेरा बॉय-फ्रेंड कौन है ! लेकिन जब अभी तक मैं खुद कन्फ्यूज़ हूं तो उन्हें कैसे पता चल सकता है? नहीं नहीं, मैं दो लड़कों में कंफ्यूज़ नहीं हूं ! शोभित तो हमेशा से मेरा सबसे अच्छा दोस्त है. रोहित को लेकर मेरे मन में फीलिंग्स तो हैं लेकिन मुझे थोड़ा टाइम चाहिए. अभी मैं श्योर नहीं हूं क्योंकि कभी कभी मुझे उसके साथ बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और कभी-कभी बहुत अच्छा लगता है. लेकिन मैं उसके साथ बस थोड़ी ही देर के लिए खुश रहती हूं. फिर, पता नहीं क्यों मुझे उदासी घेर लेती है और गुस्सा होने पर वो मुझे उतना नहीं मनाता जितना हिंदी की पुरानी टेक्स्ट-बुक में राजकुमार ने फूल-कुमारी को मनाया था ! क्या? तुम्हें मैं स्टूपिड लग रही हूं? अरे! मैं क्या फूलकुमारी से कम हूं? मतलब, मैं एक बहुत सुंदर और समझदार लड़की हूं और मैं नाराज हो जाऊं या उदास रहूं तो मुझे बहुत सारा मनाया जाना चाहिए. अरे, क्योंकि पैंपर किया जाना और ध्यान रखा जाना मुझे बहुत पसंद है. फिर मैं भी इतने प्यार से सबके साथ रहती हूं ! और सिर्फ अटेंशन ही तो मांगती हूं, और क्या? ओफ़-फ़ो, मां दो बार मेरे कमरे में आ चुकी हैं और हर बार मेरे हाथों में डायरी देखकर गुस्सा हो रही हैं. उन्हें मेरा डायरी लिखना पसंद नहीं.  इससे पहले कि आधी रात  को घर में महायुद्ध शुरू हो जाए, मुझे सो जाना चाहिए.  गुड बाय डायरी, सी यू लेटर ! 

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रात तीन बजे

मुझे नींद नहीं आ रही.  शिमला में दिल्ली के मुकाबले ज्यादा ही शांति है.  यहां हमारा नया घर एकदम अंग्रेज़ीदां कॉटेजनुमा है और मेरा बिस्तर ठीक खिड़की के नीचे.  बाहर इतनी ठंड है फिर भी मैंने खिड़की खोल ली. बहुत बेचैनी हो रही है.  पता नहीं मैं दिल्ली जा पाऊंगी या नहीं? मुझे वेंकी में इंग्लिश लिटरेचर पढना था.  थियेटर भी ज्वाइन करना था  और फ्रेंच की क्लासेस  करनी थी यार, अब मैं क्या करूंगी? यहां शिमला में तो कुछ समझ में नहीं आ रहा, बस डिप्रेशन होता है.  लेकिन एक आइडिया है, मैं अगले एक साल में इंग्लिश लिटरेचर की कुछ ज़रूरी किताबें पढ़ कर ख़त्म कर देती हूं और अगले साल किसी भी हालत में दिल्ली वापस जाऊंगी.  मैं अपने सपने ऐसे खत्म नहीं होने दूंगी.  और कालेज की सारी मस्ती? कितने सपने देखे थे मैंने कालेज के लिए! एसएन मार्केट से लॉन्ग स्कर्ट्स और हॉट पैन्ट्स खरीदूंगी…थिएटर करूंगी…और थाई कुकिंग भी सीखूंगी! यहां शिमला में सिर्फ पेड़ और बर्फ देखकर घूमते हुए मैं पक गई हूं.

 मेरे सारे दोस्तों को लगता है कि मैं पहाड़ों में मजे कर रही हूं. पर उन्हें कैसे बताऊं कि मेरा दम घुटता है यहां ! इस कॉलेज का माहौल भी बहुत दकियानूसी है. मुझे सबसे ज्यादा बुरा लड़कियों को देखकर लगता है. पिछले दिनों यहां शबनम और वंदना से मेरी ठीक-ठाक दोस्ती हो गई है लेकिन वो लोग मुझसे बहुत अलग हैं.  आई मीन, शबनम का एक बॉय-फ्रेंड है और वो उससे मिलने के लिए रोता रहता है पर वो जाती ही नहीं.  मतलब एक कॉफी पीने तक नहीं जाती! वो हर रोज़ डिपार्टमेंट के आगे खड़ा उसका इंतजार करता रहता है. बहुत कहने पर सिर्फ एक छोटी सी वॉक के लिए राजी हुई.  

‘मेरे आस-पास सभी लोग कहते हैं कि जवान लड़की को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए..मुझे बहुत गुस्सा आता है. क्या जवान होने से मेरे सींग उग आए हैं? ’

और दूसरी तरफ दिन भर खुद भी रोती रहती है कि मैं अपने ‘शोना’ से नहीं मिल पाती! कितना अजीब है ! ऐसे अफेयर्स तो मैंने पहेली बार देखे. कल मैंने दोनों को बिठा के पूछा कि उनकी प्रॉब्लम आखिर है क्या! तो कहने लगीं कि अच्छी ‘इंडियन’ लड़कियां ऐसे खुले आम अपने बॉय फ्रेंड्स के साथ घूमने नहीं जाती और शादी से पहले हमेशा वर्जिन रहती हैं. मैं एकदम चौंक गई और मुझे बहुत गुस्सा आया. क्या बकवास है ! कोई मुझे बताएगा कि ये ‘अच्छी इन्डियन लड़की’ होना क्या होता है? मां भी पीछे पड़ी रहती है कि भारतीय लड़कियां ऐसी होती हैं..वैसी होती हैं… हर रोज़ खाना बनाती हैं…नज़रें नीचे रखती हैं…ज्यादा नहीं बोलतीं…ऊंचा नहीं बोलतीं…अपने ‘सेंसिटिव’ कपड़ों पर चादर या तौलिया डालकर ही सुखाती हैं…टायलेट्स का रास्ता सिर्फ लड़कियों से ही पूछती हैं…शोर्ट्स नहीं पहनतीं…जोर से नहीं हंसतीं..सड़क पर किसी को 10 सेकेंड से ज्यादा नहीं देखती (नहीं तो सामने वाले को लगेगा कि लड़की ‘इंट्रेस्टेड’ है और ये तो लड़की की ही गलती होगी!)…और शराब या सिगरेट तो बिल्कुल नहीं..और हां, मां कहती है कि अच्छी इंडियन लड़कियां ज्यादा देर तक फोन पर बात नहीं करतीं या इंटरनेट पर चैट नहीं करतीं !

वो घर में पढ़ती हैं और फिर पूजा भी करती हैं! शोभित भी कहता था कि अच्छी इंडियन लड़कियां फेसबुक पर फोटोज अपलोड नहीं करती. और शॉर्ट्स या स्कर्ट्स वाले सेक्सी फोटोज तो बिल्कुल नहीं. और अब शबनम और वंदना ! उफ़! मुझसे तो यह सब हैंडल नहीं होता.  मीरा दीदी कहती है कि जब कोई भी चीज़ समझ में न आए तो उसके बारे में पढना चाहिए और जानने की कोशिश करनी चाहिए.  मैं सोचती हूं, इस बारे में शोभित से बात करूंगी और मीरा दीदी को भी एक मेल करूंगी! लेकिन वो हर बात पर मुझे अमेरिका से कुछ किताबें और बाकि ई- बुक्स के लिंक्स भेज देती हैं जबकि मैं उनसे सिर्फ छोटे आर्टिकल्स भेजने के लिए कहती हूं.  ज्यादा पढ़ाकू बड़ी बहनें कभी-कभी कितना बड़ा टॉर्चर हो जाती हैं.  लेकिन वो तो मेरी सबसे प्यारी दोस्त और गाइड है.  मैं बड़ी होकर उसी की तरह स्मार्ट और सुपर सेक्सी बनना चाहती हूं . और काश मेरे पास भी सिद्धार्थ जीजू के जैसा बॉय-फ्रेंड हो ! दीदी की लाइफ कितनी परफेक्ट है न ! दीदी हमेशा कहती थी कि मुझे अपने से अलग दोस्तों को लेकर हार्श नहीं होना चाहिए.  लेकिन मुझे सच में लगता है कि अगर एक अच्छी इंडियन लड़की शादी से पहले किस नहीं करती या डेट पर नहीं जाती या अपने पसंदीदा हीरो.. क्रिकेटर..बॉय-फ्रेंड या सिंगर के सपने देखकर खुश नहीं हो सकती….और खुद को एक सुपर-हॉट दीवा के तौर पर इमैजिन करने में उसे शर्म आती है तो शायद मैं एक अच्छी इंडियन लड़की नहीं हूं !

डायरी लेखन: प्रियंका दुबे/इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

कौन है अच्छा डॉक्टर?

इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

मैं प्रायः इस कॉलम में सलाह दिया करता हूं कि ‘अच्छे डॉक्टर’ की सलाह लें. कई लोगों ने पूछा भी है कि आखिर ‘अच्छा डॉक्टर’ पहचानें कैसे. क्या बड़ी-सी कार से उतरने वाला, लकदक चैंबर में बैठने वाला, फिल्मी हीरो जैसा दमकने वाला, किसी मार्केटिंग मैनेजर वाली बनावटी मुस्कान और मीठी भाषा बरतने वाला डॉक्टर ‘अच्छा डॉक्टर’ कहलाएगा? क्या अखबारों, मीडिया तथा कॉन्फ्रेंस में लगातार महिमामंडित होने वाला ‘अच्छा डॉक्टर’ होता है? …मुझे क्षमा करेंगे. मैं कदाचित जुगाड़ तथा बाजार की प्रतिस्पर्धा में मरीजों की तरफ से आंखें मूंदकर ‘बड़ा डॉक्टर’ बनने के लिए भागने वालों की बात नहीं करता हूं.

माना कि हर सदी की अपनी चुनौतियां होती हैं पर हर सदी में ‘अच्छा डॉक्टर’ तो ‘अच्छा’ ही रहता है. याद रखें कि प्रश्न आपके स्वास्थ्य का है. ‘अच्छे डॉक्टर’ को पहचानेंगे तो डॉक्टर मजबूरी में ही सही, ‘अच्छे’ बनेंगे. वैसे ‘अच्छे डॉक्टर’ की पहचान सरल है. डॉक्टरों से भी मेरा निवेदन रहेगा कि वे इस लेख को पढ़ें. दिल पर हाथ रखकर स्वयं निर्णय करें कि क्या वे ‘अच्छे डॉक्टर’ हैं. न हों तो बनने की कोशिश करें. वरना लानत है. डॉक्टर न बनकर आप किसी और धंधे में उतर जाते न! सफल और मालदार तो अन्यत्र भी हो सकते हैं. आइए, देखें कि कौन-सी बातें हैं जो डॉक्टर को ‘अच्छा’ बनाती हैं.

डॉक्टर के पास जाने से पहले उसके बारे में इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करें:

1. क्या वह सहजता से उपलब्ध होता है? 
जो मुझे बीमार होने पर उपलब्ध हो जाए, वह मेरे लिए अच्छा डॉक्टर है. यहां मैं गली, मोहल्ले में दुकान सजाए नीम हकीम की बात नहीं कर रहा. डॉक्टर ज्ञानी हो पर मिल जाए. घंटों इंतजार कराए, समय देकर गायब हो जाए, हर माह घर से बाहर ही रहे, फोन ही न उठाए, मिलने का कोई सिस्टम ही न हो, उस डॉक्टर पर निर्भर न रहें. जो दो दिन बाद शाम चार बजे आने को कहे तथा मिल जाए, वह डॉक्टर अच्छा है. बजाय उसके जो यह कहे कि आप तो कभी भी आ जाइए!

2. क्या उसके पास समय है?
आज के युग में, जब हर तकलीफ के टेस्ट आ गए हैं, कहीं वह आपकी सुने बिना ही दस टेस्ट तो नहीं लिखने लगता? टेस्ट हैं, तो लिखना भी जरूरी है. उनकी भी अहमियत है पर तभी जब डॉक्टर ने आपकी तकलीफें तफसील से सुनी हों और आपकी जांच तसल्ली से की हों. यदि डॉक्टर मरीज की सुने तो उसे प्रायः बीमारी की दिशा समझ में आ ही जाती है. फिर मरीज की बातें विस्तार से सुनने से डॉक्टर को उस मरीज का व्यक्तित्व, उसके विश्वास-अंधविश्वास, भय, उसकी सोच, ईश्वर पर उसका विश्वास आदि भी समझ में आते हैं. एक ‘अच्छा डॉक्टर’ जानता है कि हर मरीज अलग व्यक्ति भी है- वह केवल मलेरिया, टायफाइड, किडनी या बीमार दिल नहीं है. मरीज मात्र एक बेड नंबर नहीं है.

3. उसका व्यवहार कैसा है?
यह ‘ट्रिकी’ प्रश्न है. मार्केटिंग और बाजारवाद के इस बेईमान समय ने डॉक्टरी को भी बदला है. वह मीठा बोलने लगा है. दुकानदार को विशेष तौर पर फीके पकवानों को बेचने वाले को मीठा बोलना पड़ता है. आप ऊंची दुकान पर बिक रहे फीके माल को पहचान सकते हैं. आखें खुली रखेंगे तो बनावटी मीठापन पकड़ लेंगे. ‘अच्छा डॉक्टर’ सबसे पहले एक ‘अच्छा इंसान’ होगा जो उसके व्यवहार से तुरंत परिलक्षित हो जाएगा. उसे देखें. समझने का प्रयास करें कि वह आपकी पीड़ा को महसूस कर सकता है या नहीं. वह आपकी आर्थिक और पारिवारिक परेशानियों के साथ सामंजस्य बिठाकर इलाज करने की कोशिश करता है या नहीं? वह धैर्य दिखाता है या बात-बात पर उखड़ जाता है? बच्चों, औरतों तथा वयोवृद्ध मरीजों को वह कैसे बरतता है? बूढ़े मरीज ऊंचा सुन सकते हैं, शायद ठीक से बोल न पाएं. शायद तेजी से परीक्षण कोच पर चढ़-उतर न पाएं, शायद छोटी-सी बात को अनावश्यक विस्तार से कहने की कोशिश करें- क्या यह सब समझते हुए डॉक्टर उनकी धैर्य से जांच करता है? वह मरीज के, विशेष तौर पर गरीब बेसहारा मरीज के आत्मसमान की रक्षा करता है या नहीं? डॉक्टर को ध्यान से देखते रहें कि वह आपसे पहले वाले मरीजों से कैसा व्यवहार करता है. नंबर आते-आते स्पष्ट हो जाएगा कि आप सही जगह हैं या गलत.

4. क्या वह एक अच्छा विद्यार्थी व गुरु भी है?
यह मुद्दा भी ट्रिकी है. पहले समझें कि इसका अर्थ क्या है. शिष्य या विद्यार्थी का अर्थ क्या है? देखिए, डॉक्टरी विज्ञान बेहद तेजी से बदल रहा है. एक बार डिग्री हासिल करके यदि पांव फैलाकर बैठ जाएं तो डॉक्टर चंद वर्षों में ही ‘क्वालीफाइड’ नीम हकीम बनकर रह जाते हैं. एक अच्छा डॉक्टर निरंतर नई किताबों, जर्नलों आदि को एक अच्छे विद्यार्थी की तरह पढ़ता, गुनता और इनसे सीखता है. वही डॉक्टर ज्यादा अच्छा डॉक्टर है जो आपसे ईमानदारीपूर्वक यह कह सके कि आप तो दो दिन बाद आएं, मैं आपकी बीमारी का और अध्ययन करके, पढ़कर फिर आपसे बात करूंगा. वह डॉक्टर खतरनाक है जो सोचता, मानता और कहता है कि उसे सब कुछ आता है. अच्छा डॉक्टर वह है जो विद्यार्थी की भांति नित्य अपने को डॉक्टरी इम्तिहान के लिए तैयार करता है, साथ-साथ वह अपने जूनियर स्टाफ को एक अच्छे गुरु की भांति सिखाता-पढ़ाता भी है. वह जानता है कि वह अकेले-अकेले मरीज को ठीक नहीं कर सकता- यह सीनियर डॉक्टर, जूनियर डॉक्टर, नर्स, कंपाउंडर से लेकर सफाई कर्मचारी तक की टीम के ज्ञान तथा उत्साह पर निर्भर होता है. एक अच्छा डॉक्टर अपनी टीम का गुरु होता है.

बातें बहुत-सी और भी हैं. प्रश्न बहुत हैं.

क्या वह मरीज के प्राइवेसी का ख्याल रखता है? वह स्वयं से ज्यादा जांचों पर भरोसा तो नहीं करता? वह आंखें मूंदकर दस तरह की जांचें कराने की बात तो नहीं करता? वह मरीज का सगा है या दवाई कंपनियों का? क्या आपकी हर तकलीफ के जवाब में वह एक नई गोली लिख देता है? क्या वह ‘प्रमाणित, तथ्य आधारित डॉक्टरी’ से हटकर ‘अपना ही कुछ’ इलाज देता रहता है? वह आपको आशा बंधाता है या नहीं? अनेक प्रश्न हैं. उनका जिक्र अगली बार. तब तक खोजिए. अच्छा डॉक्टर मिलेगा. बहुत मिलेंगे.

जम्मू : शरणार्थियों की राजधानी

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पिछले दो दशक के दौरान जब-जब जम्मू-कश्मीर में शरणार्थियों का जीवन जी रहे लोगों का जिक्र हुआ तो सबसे पहले या केवल कश्मीरी पंडितों का नाम सामने आया. कश्मीर घाटी की तकरीबन तीन लाख लोगों की यह आबादी 1989-90 के दौरान आतंकवादियों के निशाने पर आ गई थी. अपनी जमीन-जायदाद और दूसरी विरासत गंवा चुके इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा जम्मू क्षेत्र में रहते हुए घाटी में वापस लौटने का इंतजार कर रहा है. कश्मीरी पंडित काफी पढ़ी-लिखी कौम है और यह आतंकवाद का शिकार भी हुई जिससे इसकी चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार होती रही. इसी दौरान बाकी के तकरीबन 14 लाख लोगों की समस्याओं पर शेष भारत या कहीं और कोई गंभीर चर्चा नहीं सुनाई दी.

इन लोगों में एक बड़ा वर्ग (लगभग दो लाख लोग) बंटवारे के समय पश्चिम पाकिस्तान से आए उन हिंदुओं का है जिन्हें भौगोलिक दूरी के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से जम्मू अपने ज्यादा नजदीक लगा और वे यहीं आकर अस्थायी तौर पर बस गए. इन्हें उम्मीद थी कि भारत के दूसरे प्रदेशों में पहुंचे उन जैसे अन्य लोगों की तरह वे भी धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे. आज 65 साल हुए लेकिन समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की बात तो दूर वे यहां के निवासी तक नहीं बन पाए हैं. आज इन लोगों की तीसरी पीढ़ी मतदान करने से लेकर  शिक्षा तक के बुनियादी अधिकारों से वंचित है.
इससे मिलती-जुलती हालत उन 10 लाख शरणार्थियों की भी है जो आजादी के समय पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर हुए पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों के हमलों से विस्थापित होकर जम्मू आ गए थे. ये लोग भी पिछले छह दशक से अपने पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं.

इसके अलावा 1947-48, 1965 और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध से विस्थापित हुए भारत के सीमांत क्षेत्र के लोग भी जम्मू के इलाके में ही हैं. बेशक भारत इन युद्धों में विजयी रहा लेकिन इन दो लाख लोगों को इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. कभी अपने-अपने इलाकों में समृद्ध किसान रहे हमारे देश के ये लोग उचित पुनर्वास के अभाव में मजदूरी करके या रिक्शा चलाकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं.

इन लाखों लोगों के साथ घट रही सबसे भयावह त्रासदी यह है कि जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में ही – जहां मानवाधिकारों को लेकर जबरदस्त हो-हल्ला होता रहता है – इनके मानवाधिकारों की कोई सुनवाई नहीं है. सरकार और राजनीतिक पार्टियों से लेकर आम लोगों तक कोई इनकी बातें या जायज मांगें सुनने-मानने को तैयार ही नहीं. हाल ही में उमर अब्दुल्ला सरकार में राहत और पुनर्वास मंत्री रमन भल्ला का बयान इन लोगों के खिलाफ सालों से चल रहे सरकारी रवैये को उजागर करता है. भल्ला ने हाल ही में जम्मू और कश्मीर विधानसभा के सदस्यों को आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘सरकार ने पश्चिम पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों को कोई सहायता नहीं दी है और इन लोगों को राज्य की नागरिकता नहीं दी जा सकती.’

इन शरणार्थियों में ज्यादातर हिंदू और सिख हैं. यानी जम्मू-कश्मीर की आबादी के हिसाब से अल्पसंख्यक. लेकिन राज्य में अल्पसंख्यक आयोग का न होना इनकी मुश्किलें और बढ़ा देता है. राज्य में एक मानवाधिकार आयोग जरूर है लेकिन जब तहलका ने आयोग के एक सदस्य अहमद कवूस से विस्थापितों की समस्या के बारे में जानना चाहा तो उनका जवाब था, ‘अभी तक हमारे पास इस मामले की शिकायत नहीं आई है. अगर शिकायत आएगी तो मामला देखा जाएगा.’

जिस राज्य में 17 लाख शरणार्थी अनिश्चित भविष्य के साथ जी रहे हैं वे राज्य के लिए कितनी बड़ी चुनौती हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. तो फिर क्या वजह है कि पिछले कई दशकों से बतौर शरणार्थी रह रहे इन लोगों के दुखों को राज्य सरकार समझने को तैयार ही नहीं?

आगे दर्ज कहानियों से यह पता चलता है कि तरह-तरह की राजनीति और गड़बड़झालों में फंसे देश में पीछे छूट गए बेबस लोगों के लिए हमारे पास सहारे का ऐसा कोई हाथ नहीं, सद्भावना का ऐसा कोई सीमेंट नहीं जो उन्हें आगे खींचकर थोड़ी मानवीय परिस्थितियों में स्थापित कर सके.

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अयोध्या दास, 82 साल, जम्मू
पश्चिमी पाकिस्तान से 1947 में जम्मू आए अयोध्या दास के बेटे और नाती-पोते, जिनका जन्म इसी शहर में हुआ, जम्मू कश्मीर के नागरिक नहीं हैं. नागरिकता के अभाव में इन लोगों का दर्जा अब भी शरणार्थी का ही है

कहां से : पश्चिमी पाकिस्तान

कब से : 1947

कितने :  तकरीबन 2,00,000

पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू कश्मीर आए शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी भी बिना किन्हीं अधिकारों के वैसे ही अमानवीय हालात में है जैसे में उनकी पहली पीढ़ी थी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंद्र कुमार गुजराल, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और अयोध्या दास इन चारों लोगों में एक बहुत बड़ी समानता है. ये चारों 1947 में हुए बंटवारे के दौरान अविभाजित भारत के उस हिस्से से पलायन करके भारत आए थे जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है. अयोध्या दास की इन तीनों लोगों से समानता बस यहीं समाप्त हो जाती है.

अयोध्या दास के अलावा शरणार्थियों के तौर पर भारत आए उपर्युक्त तीनों लोगों को न सिर्फ यहां के सभी नागरिक और राजनीतिक अधिकार मिले बल्कि ये लोग देश के सर्वोच्च पदों तक भी पहुंचे. लेकिन अयोध्या दास जैसे करीब दो लाख हिंदुओं (जिनमें 95 फीसदी अनुसूचित जाति से हैं) और सिख शरणार्थियों की किस्मत इनके जैसी नहीं थी.

जम्मू-कश्मीर में शरणार्थियों का जीवन बिता रहे ये लोग राज्य और देश की केंद्र सरकार द्वारा थोपी गई एक ऐसी अमानवीय उपेक्षा के शिकार हैं जिसने इनका जीवन गुलामों सरीखा बना दिया है. पिछले 65 साल से राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के बिना रह रहे इन लोगों की त्रासदी इस मायने में और भयावह है कि जब-जब अपने बुनियादी अधिकारों के लिए इन्होंने आवाज उठाई, उसे व्यवस्था ने न सिर्फ अनसुना किया बल्कि कई बार इनके आगे जाने के रास्तों को और भी अवरुद्ध कर दिया.

आजादी के वक्त मचे दंगे-फसाद की बात करते हुए 82 वर्षीय अयोध्या दास बताते हैं, ‘दंगाइयों ने हमें अपना गांव (पाकिस्तान के सियालकोट जिले का जिंदयाला गांव) छोड़कर भारत आने के लिए कह दिया था. दादी और मेरे भाई ने जब इसका विरोध किया उन्हें दंगाइयों ने जलाकर मार डाला. इसके बाद हमारे पास वहां से भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.’

पश्चिमी पाकिस्तान के सबसे करीब जम्मू पड़ता था. इसलिए इलाके के ज्यादातर लोग जम्मू-कश्मीर के इस हिस्से में आ गए. कई लोग देश के अन्य राज्यों में भी पहुंचे जहां इन लोगों का पुनर्वास हुआ और उन्हें भारतीय नागरिकता भी दी गई. धीरे-धीरे ये सभी लोग बाकी समाज के साथ मुख्यधारा में आ गए. मगर उस दौरान जो लोग जम्मू-कश्मीर आए उन्हें इस बात का आभास तक नहीं था कि जिस त्रासदी से बचने के लिए वे वहां आए हैं उससे बुरी स्थितियां उनका इंतजार कर रही हैं. पलायन के बाद जिन परिस्थितियों में उन्होंने शरणार्थियों के रूप में जीवन शुरू किया था, आज उनकी तीसरी पीढ़ी भी उन्हीं मुश्किलों का सामना कर रही है. कठुआ में रहने वाले शरणार्थी अमरनाथ बताते हैं, ‘अगर हमें जरा भी पता होता कि यहां हमारे साथ इस तरह का सलूक होगा तो हम पाकिस्तान में अपनी जान दे देते लेकिन जम्मू-कश्मीर की जमीन पर पैर नहीं रखते.’

पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों की पीड़ा जब हद से गुजर गई तो 1981 में इन लोगों ने सरहद पार करके वापस पाकिस्तान जाने की भी कोशिश की. ये लोग बड़ी तादाद में भारत-पाकिस्तान सरहद के पास इकट्ठा हो गए तो वहां तैनात दोनों देशों की सेनाएं हरकत में आ गईं. तब शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने इन तक अपना संदेश भेजकर इन्हें आश्वासन दिया कि इनके साथ जल्द न्याय होगा. उस पूरे आंदोलन में शामिल रहे एडवोकेट बीएल कलगोटरा बताते हैं, ‘हमने उस समय तत्कालीन केंद्र एवं राज्य सरकारों को सीधे शब्दों में चेतावनी दी थी कि वे हमारे साथ न्याय करें या फिर हमें वापस पाकिस्तान भेज दें.’

इन लोगों को उम्मीद बंध गई कि अब जल्द ही अन्य शरणार्थियों की तरह उनका भी पुनर्वास कर दिया जाएगा. उन्हें भी तमाम नागरिक और राजनीतिक अधिकार दिए जाएंगे लेकिन समय निकलता गया. इन लोगों की तरफ न केंद्र सरकार ने कोई ध्यान दिया और न राज्य सरकार ने. आखिरकार समुदाय के लोगों ने अपने अधिकारों को लेकर आवाज उठानी शुरू की. लेकिन उस समय राज्य सरकार की तरफ से जो जवाब इन्हें मिला उसकी कल्पना इन्होंने सपने में भी नहीं की थी. सरकार ने कहा कि ये लोग जम्मू-कश्मीर राज्य के सबजेक्ट नहीं है इसीलिए इन्हें वे सारे अधिकार नहीं मिल सकते जो यहां के लोगों को मिलते हैं. इनमें सबसे बड़ा अधिकार था राजनीतिक अधिकार. अर्थात राज्य में होने वाले चुनावों में मतदान करने का अधिकार. ये लोग न तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनावों में वोट डाल सकते हैं और न ही स्थानीय चुनावों में. यहां तक कि पंचायत के चुनावों में भी इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं है.

भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति होने के कारण यहां के लोगों को भारतीय नागरिकता के साथ स्थायी निवास प्रमाण पत्र भी दिया जाता है. ये प्रमाण पत्र सिर्फ उन लोगों को दिया जाता है जिन्हें जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद छह स्टेट सब्जेक्ट कहता है. स्टेट सब्जेक्ट वही हो सकते हैं जिनके पूर्वज 14 मई, 1954 तक राज्य में कम से कम 10 साल रह चुके हों. ये शरणार्थी लोकसभा के चुनावों में वोट डाल सकते हैं, लेकिन राज्य में होने वाले किसी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं है. कलगोटरा कहते हैं, ‘चूंकि हम लोग स्थानीय स्तर के चुनावों में मतदान नहीं कर सकते इस कारण से हमारी कोई सुनवाई ही नहीं है.’ स्टेट सब्जेक्ट होना एक तरह से राज्य की नागरिकता का काम करता है. इसके अभाव में इन लोगों के सामने अनंत समस्याओं की लाइन लग जाती है. ये लोग राज्य में किसी तरह की जमीन-जायदाद नहीं खरीद सकते. इन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती. अयोध्या दास बताते हैं, ‘मुझे तो सिर्फ उर्दू आती थी जबकि जम्मू में लोग हिंदी-अंग्रेजी पढ़-लिख लेते हैं. इसलिए मैं कोई नौकरी नहीं कर पाया, लेकिन मेरे बेटे तो यहीं पैदा हुए. उन्हें सब आता है पर अफसोस कि उन्हें इसके बाद भी कोई छोटी-मोटी नौकरी तक नहीं मिल सकती.’ इन लोगों के बच्चों को राज्य के मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कॉलेजों में दाखिला लेने का भी अधिकार नहीं है.

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1989 तक इन लोगों के पास पंचायत में वोट देने का अधिकार था लेकिन उसी साल नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार ने जम्मू-कश्मीर पंचायती राज एक्ट पास करके यह अधिकार भी इन लोगों से छीन लिया.
जानकार कहते हैं कि 26 जनवरी, 1957 को राज्य का संविधान लागू हुआ जबकि ये शरणार्थी 1947 में राज्य में प्रवेश कर चुके थे. ऐसे में सरकार चाहती तो इन्हें राज्य के नागरिक का दर्जा दिया जा सकता था. बीएल कलगोटरा कहते हैं, ‘1947 से 1950 का समय उथल-पुथल से भरा रहा. लाखों लोग बेघर हुए. बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हुआ. ऐसे में मानवता और विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए था.’
इन शरणार्थियों में से ज्यादातर लोग आज भारत-पाक सीमा के पास खाली पड़ी सरकारी जमीन पर अपने झोपड़े बना करके रह रहे हैं. सरकारी रोजगार  नहीं मिलने के कारण समुदाय के लगभग 90 फीसदी लोग मजदूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करके किसी तरह अपने परिवार का पेट पालते हैं.

आज इन शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी सामने है. राज्य में इनका क्या भविष्य है इसका जवाब किसी के पास नहीं है. ऐसे ही एक युवा 23 वर्षीय हरिकेश अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं, ‘हम लोग सरकारी जमीन पर कच्चा मकान बनाकर रह रहे हैं. दादा जी न्याय के इंतजार में चल बसे. मैं तीसरी पीढ़ी से हूं. उसी कच्चे मकान में हम हैं, न मैं वोट डाल सकता हूं, न यहां नौकरी कर सकता हूं. पता नहीं मैं यहां क्यों हूं. मेरा क्या भविष्य है.’
लंबे समय से अन्याय, गुलामी और वंचना झेल रहे ये लोग जब 1981 में  बड़ी संख्या में भारत-पाक सरहद पर जमा हुए और पाकिस्तान भेजे जाने की मांग करने लगे तो उस समय यह मामला संसद के दोनों सदनों में भी उठा था. लोकसभा में मामला उठने पर तत्कालीन केंद्रीय पुनर्वास मंत्री भागवत झा आजाद ने 24 मार्च, 1981 को सदन के सदस्यों को यह आश्वासन दिया था कि जल्द से जल्द इन लोगों का पुनर्वास कर दिया जाएगा और जम्मू-कश्मीर सरकार से बातचीत करके स्टेट सब्जेक्ट समेत सभी मसलों का समाधान निकाला जाएगा. इस बात को भी आज 31 साल हो गए लेकिन इन लोगों की समस्याओं में तिनका मात्र भी कमी नहीं आई है, उलटा राज्य सरकार ने वे रास्ते और बंद कर दिए जो इन लोगों को थोड़ी-बहुत राहत दिया करते थे. बीएल कलगोटरा बताते हैं, ‘ जम्मू -कश्मीर की सरकार को जैसे ही इस बात का पता चला कि केंद्र सरकार मामले को लेकर सख्त रुख अख्तियार करने वाली है, उन्होंने जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बिल नंबर नौ पास करा दिया. इस बिल में व्यवस्था थी कि जम्मू कश्मीर के जो नागरिक विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए वे दोबारा जम्मू-कश्मीर आ सकते हैं. उन्हें स्टेट सबजेक्ट का दर्जा दिया जाएगा. उनके जो घर और जमीन यहां हैं उन्हें सरकार सुरक्षित रखेगी. वे वापस आकर उन्हें ले सकते हैं.’

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जब 1981 में   बड़ी संख्या में भारत-पाक सरहद पर जमा हुए और पाकिस्तान भेजे जाने की मांग करने लगे तो उस समय यह मामला संसद के दोनों सदनों में भी उठा था

इस बिल के सबसे बड़े शिकार पश्चिमी  पाकिस्तान के वे कुछ शरणार्थी हुए जो उन घरों में रह रहे थे जिन्हें बंटवारे के समय यहां के मुसलमान छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे. उन्हें उम्मीद थी कि जिस तरह पूरे भारत में सरकार ने लोगों को ऐसे घरों पर अधिकार दिया था उसी तरह जम्मू-कश्मीर की सरकार भी उन्हें इन घरों पर अधिकार देगी. पाकिस्तान गए लोगों को भी उन घरों पर अधिकार दिया गया था जो वहां से हिंदू और सिख खाली करके भारत आ गए थे. लेकिन बिल नंबर नौ ने पाकिस्तान चले गए लोगों के घरों में रह रहे शरणार्थियों के भविष्य का अंधकार और बढ़ा दिया. पलक झपकते ही ये लोग उन घरों के किराएदार घोषित हो गए. अब हर महीने उन्हें कस्टोडियन के यहां महीने का किराया जमा कराना होता है. वह किराया सरकार उस व्यक्ति के नाम से जमा करती है जिसके नाम वह संपत्ति है. ऐसे ही एक मकान में रहने वाले काशीनाथ कहते हैं, ‘सरकार को उन लोगों की फिकर तो है जो 60 साल पहले यहां से पाकिस्तान चले गए, बस गए. उन्हें वहां की नागरिकता भी मिल गई. लेकिन जो लोग यहां पिछले 65 साल से रह रहे हैं उनके जीने-मरने का उसे कोई ख्याल नहीं है.’

ये शरणार्थी पिछले छह दशकों में कई बार केंद्र सरकार के सामने अपनी बात रख चुके हैं. वेस्ट पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमिटी के लब्भा राम गांधी बताते हैं, ‘केंद्र में जब भाजपा की सरकार थी तब हमने गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से मिलकर उन्हें अपनी व्यथा बताई थी. उन्होंने प्रदेश सरकार को चिट्ठी लिखकर हमारी समस्याओं पर तत्काल विचार करने और हमें स्टेट सब्जेक्ट का दर्जा देने को कहा था. लेकिन प्रदेश सरकार ने उस चिट्ठी को कूड़ेदान में डाल दिया. बाद में रिमांइडर के तौर पर उन्होंने एक और चिट्ठी लिखी लेकिन उसका भी वही हश्र हुआ.’

हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से हुई बातचीत का जिक्र करते हुए राधेश्याम कहते हैं, ‘हमने उनसे कहा कि देखिए सर, आप वहां से आकर यहां प्रधानमंत्री बन गए लेकिन हमें कोई चपरासी भी नहीं बनने दे रहा है. उन्होंने कहा कि वे खुद एक रिफ्यूजी है और इस नाते हमारा दर्द जानते हैं.’ हालांकि इस बार भी इन लोगों के लिए बदलाव की उम्मीद बस उम्मीद ही बनी रही.

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समुदाय के लोग बताते हैं कि गुलाम नबी आजाद ने इस विषय पर थोड़ी संवेदनशीलता दिखाई थी. जब आजाद मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की इस मसले पर एक ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई थी. लेकिन पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बैठक में स्थायी निवासी प्रमाण पत्र दिए जाने का कड़ा विरोध किया. नतीजा यह हुआ कि मामला वहीं-का-वहीं समाप्त हो गया.

शरणार्थियों का एकसुर में मानना है कि राज्य सरकार ने हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि उनमें से कोई भी कश्मीर घाटी में न घुसने पाए

आगे चलकर मुख्यमंत्री ने राज्य में सभी वर्गों के शरणार्थियों की समस्याओं के अध्ययन और समाधान सुझाने के लिए वाधवा कमेटी का गठन कर दिया. पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के मसले का अध्ययन करने के बाद कमेटी ने इन लोगों की स्थायी निवासी प्रमाण पत्र दिए जाने सहित पुनर्वास संबंधी मांग पर सरकार से विचार करने को कहा. यहां तक कि केंद्र की विभिन्न स्कीमों का लाभ दिए जाने की इनकी मांगों तथा कस्टोडियन प्रॉपर्टी में रह रहे रिफ्यूजियों को उस घर की मरम्मत कराने संबंधी अधिकार देने की मांग को भी वाधवा कमेटी ने जायज ठहराया. लेकिन रिपोर्ट आने के कुछ समय बाद ही आजाद की सरकार चली गई. उसके बाद किसी सरकार ने उस कमेटी की सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया.

स्थिति कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जब कुछ विधायकों ने इस मामले को समय-समय पर उठाने की कोशिश की तो सरकार ने विषय पर चर्चा कराने तक से इनकार कर दिया. पैंथर्स पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक बलवंत सिंह मनकोटिया बताते हैं, ‘शायद ही विश्व में कोई दूसरा उदाहरण होगा जहां पिछले 65 साल से सरकार ने लोगों को ऐसे गुलाम बना रखा हो. विधानसभा के लगभग हर सत्र में हम इन शरणार्थियों को स्थायी निवास प्रमाण पत्र दिए जाने तथा इनकी अमानवीय स्थिति एवं पुनर्वास पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रयास करते हैं लेकिन सरकार इस पर चर्चा करने को तैयार ही नहीं है.’

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वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के मामले में नियुक्त वार्ताकारों की टीम ने भी इन लोगों के साथ संवेदना प्रकट की है. लब्भा राम गांधी एक अखबार की कतरन दिखाते हुए कहते हैं, ‘राधा कुमार इस वर्ग के लोगों के बारे में जानकर हैरान रह गई थीं. उन्होंने कहा कि जल्द से जल्द नागरिकता संबंधी मामला हल किया जाना चाहिए. अगर जम्मू-कश्मीर में न हो सके तो इन लोगों का तत्काल देश के किसी अन्य राज्य में सभी नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ पुनर्वास किया जाना चाहिए. क्या ये लोग देश के किसी अन्य राज्य में बसने के लिए तैयार हैं? इस सवाल के जवाब में रखखरौनी गांव के सिंगाराम बिना किसी हिचक के जवाब देते हैं, ‘एक सेकेंड भी नहीं लगेगा हमें यह जगह छोड़ने में.’

इन शरणार्थियों को चाहे स्टेट सब्जेक्ट का दर्जा नहीं मिलने की बात हो या दूसरे अधिकारों से इनके वंचित रहने की, इसके पीछे जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों के बीच मौजूद गहरे विभाजन की भी बड़ी भूमिका है. वरिष्ठ पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता बलराज पुरी अपने एक लेख में कहते हैं, ‘शरणार्थियों के मसले पर कश्मीर आधारित लगभग सभी राजनीतिक दल व नेता, चाहे वे मुख्यधारा के हों या फिर अलगाववादी और जम्मू आधारित दल व नेता दो फाड़ हैं. यह राज्य के राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए बेहद चिंताजनक है.’ ये शरणार्थी भी अपनी बुरी दशा के लिए इस वजह को दोष देते हैं. लब्भा राम बताते हैं, ‘हम लोगों को नागरिकता दिए जाने की मुखालफत और कोई नहीं बल्कि कश्मीर के राजनीतिक दल करते हैं. उन्हें एक निराधार डर है कि इससे प्रदेश की राजनीति में जम्मू का पलड़ा भारी हो जाएगा.’

जब 1981 ये लोग बड़ी संख्या में भारत-पाक सरहद पर जमा हुए और पाकिस्तान भेजे जाने की मांग करने लगे तब यह मामला संसद में भी उठा था

शरणार्थियों की तरफ से एक बात और कही जाती है कि प्रदेश की हर सरकार ने इस बात का विशेष ख्याल रखा कि उनमें से कोई भी कश्मीर घाटी में न घुसने पाए. राधेश्याम कहते हैं, ‘आप वेस्ट पाकिस्तान के रिफ्यूजियों को तो छोड़िए अन्य विस्थापितों को ही देख लीजिए. कोई भी कश्मीर में नहीं है. सबको जम्मू खदेड़ दिया गया. रिफ्यूजियों को कश्मीर में प्रवेश करने से हमेशा रोका गया.’

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इन शरणार्थियों से बातचीत में यह बात खुलकर सामने आती है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कश्मीर के वर्चस्व ने इस मामले को कभी हल नहीं होने दिया. पीड़ित यहां तक आरोप लगाते हैं कि चूंकि वे हिंदू हैं और हिंदुओं में भी अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं इसलिए कश्मीर केंद्रित तथा मुस्लिम प्रभुत्व वाली प्रदेश की राजनीति में उनकी कोई सुनवाई नहीं है. शरणार्थी जीवनप्रसाद आरोप लगाते हैं, ‘सरकार के पास सबके लिए पुनर्वास पैकेज हैं, भले ही वे लोगों की हत्या करने वाले आतंकवादी ही क्यों न हों. जिन लोगों ने घाटी में पत्थर को हथियार बनाकर आतंक फैलाया उनको देने के लिए भी सरकार के पास मुआवजा है. लेकिन जो लोग पिछले 65 साल से तिल-तिल कर मर रहे हैं उनके बारे में कभी नहीं सोचा गया.’

कई बार इस बात की भी चर्चा राज्य में हुई है कि जब तक इन लोगों को नागरिकता (स्थायी निवास प्रमाण पत्र) नहीं दी जाती तब तक निवास प्रमाण पत्र दे दिया जाए. लेकिन निवास प्रमाण पत्र देने में भी सरकार ने कोई खास रुचि नहीं दिखाई. जबकि वाधवा कमेटी ने भी जल्द से जल्द इन लोगों को निवास प्रमाण पत्र देने की बात कही थी. लब्भा राम कहते हैं, ‘इस संबंध में थोड़ी शुरुआत हुई है लेकिन अभी भी 90 फीसदी शरणार्थियों को यह नहीं मिल पाया है.’

जम्मू के आस-पास शरणार्थियों के गांवों में घूमने के बाद हमारी मुलाकात रखखरौनी के अयोध्या दास से फिर होती है. पहली पीढ़ी का यह शरणार्थी तमाम कानूनी दांवपेंचों और राजनीति के इतर बात करते हुए हमसे सिर्फ इतना कहता है, ‘पाकिस्तान से आने के बाद जहालत में मैंने जिंदगी बिता ली, इसका मुझे अब बहुत अफसोस नहीं है. मेरे बेटे मजदूरी कर रहे हैं. उसे भी स्वीकार कर रहा हूं. लेकिन अहाते में जो पोते-पोतियां खेल रहे हैं उनका जन्म तो यहीं की हवा-माटी में हुआ है. क्या इनका भविष्य भी मेरे जैसा ही होने वाला है?’

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चेतराम, 70 वर्ष, भोर कैंप, जम्मू
चेतराम की उम्र तकरीबन 12 साल थी जब वे अपने पांच भाई-बहनों और मां के साथ पीओके से जम्मू आए थे. रास्ते में दादी को दंगाइयों ने गोली मार दी और पिता जो उस समय बिछुड़े उनके बारे में आज तक कुछ पता नहीं चल पाया. पीओके में 100 कनाल जमीन के मालिक रहे इस किसान को मुआवजे में मिली 13 कनाल जमीन घर बनाने में बिक गई. फिलहाल पूरे परिवार का गुजारा मजदूरी से चलता है

कहां से : मीरपुर-मुजफ्फराबाद क्षेत्र (वर्तमान में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर)
 कब से : 1947
कितने :  तकरीबन 12 लाख

सरकार तर्क देती है कि जब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का जम्मू कश्मीर में विलय होगा तब इन लोगों को वहां दोबारा बसाया जाएगा

भारत और पाकिस्तान के बीच पहले युद्ध की शुरुआत 22 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद पर एक कबाइली हमले के रूप में हुई. फिर मीरपुर और पुंछ आदि इलाके हमलावरों का शिकार होते गए. इस हमले का एक कारण तो स्पष्ट था कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था. इसके अलावा उसकी एक और भी रणनीति थी – पूरे इलाके से हिंदुओं और सिखों को बाहर खदेड़ने की. इसमें वह सफल भी हुआ. जानकार बताते हैं कि तब एक रात में ही करीब 10 हजार हिंदुओं और सिखों की हत्या कर दी गई. उस पूरे आतंक के माहौल में मीरपुर, मुजफ्फराबाद और पुंछ आदि के उन इलाकों से बड़ी संख्या में लोग शरण लेने जम्मू की तरफ आ गए. कई दिनों तक ये लोग बिना किसी सहायता के खुले आसमान के नीचे अपने दिन गुजारते रहे. कुछ समय बाद भारत सरकार ने इन्हें कैंपों में रखवाया.

इन शरणार्थियों ने सोचा था कि बस कुछ ही दिनों की बात है, आक्रमणकारियों को खदेड़े जाने के बाद वे वापस अपने घर चले जाएंगे. लेकिन वह दिन आज तक नहीं आया. जिस मीरपुर, मुजफ्फराबाद और पुंछ के इलाके से ये लोग आए थे आज उस पूरे इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है. इस इलाके को पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है और भारत पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके). आज इन लोगों को बेघर और अपने ही राज्य जम्मू-कश्मीर में शरणार्थी हुए 65 साल हो गए हैं. इनकी संख्या 12 लाख के करीब है जिनमें से करीब 10 लाख जम्मू में रहते हैं और बाकी के दो लाख के करीब देश के अन्य हिस्सों में.

सरकारों की इन लोगों के प्रति उदासीनता का आलम यह है कि इतने साल बाद आज भी ये लोग कैंपों में ही रह रहे हैं. जम्मू शहर के आस-पास बने कैंपों में से एक भोर कैंप में रहने वाले बलबीर अपनी व्यथा बताते हैं, ‘हमें लगा कि देर-सबेर हम अपने घरों को लौट जाएंगे.  जब यह उम्मीद टूट गई तो भरोसा बंधा कि सरकार कैंपों से निकालकर हमारा पुनर्वास करेगी. लेकिन अब हमारी तीसरी पीढ़ी तक को इन्हीं कैंपों में रहना पड़ रहा है.’

पीओके के शरणार्थियों के मामले में सरकार का शुरू से रवैया कैसा रहा इसका नमूना इस एक उदाहरण से भी थोड़ा-बहुत समझा जा सकता है. सरकार ने लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में 14 मई, 2002 को यह जानकारी दी थी कि1947 में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण के परिणामस्वरूप पाक अधिकृत कश्मीर से लगभग 32 हजार परिवार देश के इस भाग में आ गए थे. इनमें से पंजीकृत किए गए परिवारों की संख्या 31 हजार 619 है. इसके अलावा 9,500 परिवार भी थे जिन्हें सरकार ने पंजीकृत नहीं किया.

इन परिवारों का पंजीकरण न करने के जो कारण सरकार ने बताए थे वे उसकी असंवेदनशीलता दिखाने के लिए पर्याप्त हैं –

  • क्योंकि परिवार शिविरों में नहीं ठहरे थे. यानी अगर पीओके से निकले किसी परिवार ने अपने किसी रिश्तेदार के यहां उस समय शरण ले ली होगी तो फिर वह सरकारी सहायता का हकदार नहीं है.
  • परिवार के मुखिया ने परिवार के साथ प्रवास नहीं किया. यानी अगर किसी परिवार के मुखिया की वहां हत्या कर दी गई हो या फिर कत्लेआम के उस माहौल में एक- दूसरे से बिछुड़ गए हों तो फिर ऐसा परिवार सरकारी सहायता का हकदार नहीं है.
  • वे परिवार जिनकी मासिक आय 300 रुपये से अधिक थी यानी पीओके में रहते हुए अगर इनकी आमदनी 300 रुपये से अधिक थी तो उन्हें सरकारी सहयोग नहीं मिल सकता.
  • वे परिवार जिन्होंने संकट के उस काल में यानी सितंबर, 1947 और दिसंबर, 1950 के दौरान प्रवास नहीं किया.

जहां तक आर्थिक सहयोग की बात है तो भोर कैंप में रहने वाले रामलाल जानकारी देते हैं, ‘1960 में केंद्र सरकार ने प्रत्येक परिवार को 3,500 रुपये दिए. लेकिन राज्य सरकार ने उसमें से 2,250 रुपये काट लिए. राज्य सरकार का कहना था कि जो जमीन राज्य ने इन लोगों को दी है उसके बदले यह राशि काटी जा रही है. बाकी बचे 1,250 रुपये दो किस्तों में लोगों को दिए गए. उनमें से भी कुछ को आज तक पहली किस्त ही नहीं मिली है तो कोई दूसरी का इंतजार कर रहा है.’ वे बताते हैं कि उस समय राज्य सरकार ने 50 रुपये और 100 रुपये के हिसाब से लोगों को लोन भी दिया था. जाहिर है जब वह लोन था तो सरकार उस पर ब्याज भी वसूलेगी. उसने वसूला भी. ऐसे में कई लोगों को 3,500 रुपये की उस राशि में से  कुछ भी नहीं मिला.  एक अन्य रिफ्यूजी बलबीर चौंकाने वाली जानकारी देते हैं, ‘सरकार ने खेती के लिए जो थोड़ी-बहुत जमीन दी उसका वह न सिर्फ हमसे किराया वसूलती है बल्कि जो भी उपज होती है उसका हमें 40 फीसदी सरकार को देना होता है. ‘ पीओके के शरणार्थियों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि सरकार उन्हें शरणार्थी ही नहीं मानती. दरअसल भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी, 1994 को सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास किया कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग हैं और इस राज्य के वे हिस्से जिन पर आक्रमण करके पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जा कर रखा है उसे वह खाली करे.

पीओके के शरणार्थियों के अधिकारों पर काम करने वाले राजीव चुन्नी कहते हैं, ‘भारत सरकार के मुताबिक हम राज्य के एक कोने से दूसरे कोने में आ गए हैं. सरकार कहती है कि एक दिन हम उस हिस्से को पाकिस्तान से खाली करा देंगे और फिर आप लोगों को वापस वहां बसा दिया जाएगा. लेकिन ये करिश्मा कब होगा पता नहीं.’

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 24 सीटें पीओके के लिए आरक्षित हैं. इनमें से कुछ पर शरणार्थियों को प्रतिनिधित्व दिया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ

एक दिलचस्प बात यह है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं लेकिन चुनाव यहां सिर्फ 87 सीटों पर ही होता है. 24 सीटें खाली रहती हैं. ये 24 सीटें वे हैं जो भारत सरकार ने कश्मीर के उस एक तिहाई हिस्से के लिए आरक्षित रखी हैं जो आज पाकिस्तान के कब्जे में हैं. राजीव कहते हैं, ‘हमने सरकार से कई बार कहा कि जिन 24 सीटों को आपने पीओके के लोगों के लिए आरक्षित रखा है उनमें से एक तिहाई तो यहीं जम्मू में बतौर शरणार्थी रह रहे हैं इसलिए क्यों न इन सीटों में से आठ सीटें इन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएं. लेकिन सरकार को इस प्रस्ताव से कोई मतलब नहीं है.’

कुछ जानकार मानते हैं कि अगर सरकार इन 24 सीटों में से एक तिहाई सीट इन पीओके रिफ्यूजिओं को दे देती है तो इससे भारत सरकार का दावा पीओके पर और मजबूत ही होगा. और इससे पूरे विश्व के सामने एक संदेश भी जाएगा.

इसके अलावा पीओके के विस्थापितों की मांग है कि उनका पुनर्वास भी उसी केंद्रीय विस्थापित व्यक्ति मुआवजा और पुनर्वास अधिनियम 1954 के आधार पर किया जाना चाहिए जिसके आधार पर सरकार ने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों को स्थायी तौर पर पुनर्वासित किया था.

इन शरणार्थियों में उन लोगों की समस्या और भी गंभीर है जो रोजगार या किसी अन्य कारण से भारत के किसी और राज्य में रह रहे हैं. कुछ सालों पहले दिल्ली से वापस लौटे एक शरणार्थी राजेश कहते हैं, ‘ मैं मीरपुर का रहने वाला हूं, लेकिन मेरे पास स्टेट सब्जेक्ट नहीं है. मेरे घरवाले 1947 के कत्लेआम में जम्मू आ गए. वहां सरकार की तरफ से कोई मदद मिली नहीं. आखिर कितने दिनों तक भूखे रहते, रोजगार के सिलसिले में दिल्ली आ गए. अब जब हम राज्य सरकार की किसी नौकरी के लिए आवेदन करना चाहते हैं तो हमसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग होती है. हमसे राशन कार्ड और बाकी दस्तावेज मांगे जाते हैं. आप ही बताइए इतने साल बाद हम ये सब कहां से लाएं. हमारे पास पास फॉर्म ए है जो सभी पीओके रिफ्यूजिओं को सरकार ने दिया था. हम यहीं के नागरिक हैं, लेकिन हमसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग हो रही है.’

12 लाख के करीब इन पीओके शरणार्थियों को आज तक उनके उन घरों, जमीन और जायदाद का कोई मुआवजा नहीं मिला जो पाकिस्तान के कब्जे में चले गये हैं. जानकार बताते हैं कि सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में चले गए इनके घरों और जमीनों का मुआवजा इसलिए नहीं दिया ताकि पाकिस्तान को यह संदेश न जाए कि भारत ने उस क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ दिया है.

इन शरणार्थियों में नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि एक तरफ सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में चली गई इनकी संपत्ति का कोई मुआवजा इन्हें नहीं दिया दूसरी तरफ यहां से जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए, उनकी संपत्तियों पर कस्टोडियन बिठा दिया जो उनके घरों और संपत्तियों की देख-रेख करता है.

इन्हीं लोगों में शामिल विजयशंकर एक अन्य परेशानी की तरफ इशारा करते हैं, ‘1947 में पलायन करने वाले लोगों में से बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनका जम्मू-कश्मीर बैंक की मीरपुर शाखा में पैसा जमा था. पलायन के बाद जब लोग यहां आए और बैंक से अपना पैसा मांगा तो बैंक ने उनके दावे खारिज कर दिए. बैंक का कहना था कि उसकी मीरपुर शाखा पाकिस्तान के कब्जे में चली गई है और उसका रिकॉर्ड भी पाकिस्तान के कब्जे में है इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता.’ राजीव कहते हैं, ‘यह एक तरह का फ्रॉड है. दुनिया के हर बैंक के मुख्यालय को इस बात की पूरी जानकारी होती है कि उसकी किस शाखा में किस व्यक्ति का कितना पैसा जमा है. जम्मू-कश्मीर बैंक का मुख्यालय यहां श्रीनगर में तब भी था और आज भी है. ऐसे में यह बात समझ से परे है कि इन लोगों को नहीं पता था कि बैंक की मीरपुर ब्रांच में किन लोगों के खाते थे.’

इन्हीं लोगों में शामिल विजयशंकर एक अन्य परेशानी की तरफ इशारा करते हैं, ‘1947 में पलायन करने वाले लोगों में से बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनका जम्मू-कश्मीर बैंक की मीरपुर शाखा में पैसा जमा था.

कैंप में रहने वाले लोग बताते हैं कि पहले वहां कपड़े का टेंट था, कुछ समय बाद वह फट गया तो लोग मिट्टी के झोपडे़ बना कर रहने लगे. ऐसे ही एक झोपड़े में रहने वाले रामलाल कहते हैं, ‘मेरे तीनों बेटे यहीं पैदा हुए. घर के नाम पर हमारे पास यही एक झोपड़ी है जिसमें हम दशकों से रह रहे हैं. यह जमीन भी हमारे नाम पर नहीं है. सरकार जब चाहेगी हमें यहां से खदेड़ देगी.’

इन लोगों को इस बात की उम्मीद कम ही है कि सरकार इन्हें शरणार्थी का दर्जा देगी. राजीव कहते हैं, ‘सरकार पीओके पर अपने दावे को लेकर कितनी गंभीर है यह इस बात से ही पता चल जाता है कि जम्मू-कश्मीर पर होने वाली किसी भी वार्ता में वह हम 12 लाख लोगों में से किसी से बात नहीं करती. ऐसा लगता है मानो हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है.’ राजीव की बात को इन तथ्यों से भी बल मिलता है कि कश्मीर मसले पर अभी तक जितनी भी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस हुई हैं उनमें पृथकतावादियों से लेकर गुरुद्वारा प्रबंधक समिति तक के लोगों को बुलाया गया लेकिन पीओके के शरणार्थियों का कोई भी प्रतिनिधि इनमें शामिल नहीं था. इसके बाद राज्य की बेहतरी के लिए पांच वर्किंग ग्रुप बने लेकिन पीओके के शरणार्थियों को यहां भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया.

राजीव भी पीओके से आए इन शरणार्थियों की समस्या के पीछे राज्य के कश्मीरी मूल के नागरीकों और बाकी लोगों के बीच की गहरी खाई को जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं, ‘हम भी इसी राज्य के नागरिक हैं लेकिन कश्मीरी नहीं हैं, इसीलिए हमारी यह हालत है. यहां तो 23 फीसदी कश्मीरियों ने पूरी सत्ता पर कब्जा कर रखा है और वे इसमें राज्य के अन्य लोगों को साझेदार बनाने को तैयार नहीं हैं.’

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नीता देवी, 38 वर्ष, मिशरीवाला, जम्मू
छंब सेक्टर की अपनी जमीन और घर छोड़कर 1971 में नीता देवी जम्मू में आई थीं. 2008 में पति की मौत के बाद से वे दूसरों के घरों में काम करके अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रही हैं

कहां से : भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र

कब से : 1947-48, 1965 और 1971

कितने : तकरीबन 2,00,000

भारत ने पाकिस्तान को तीनों युद्धों में हराया लेकिन अपने घर-बार गंवाकर इसकी सबसे बड़ी कीमत सीमा पर रहने वाले लोगों ने चुकाई

जम्मू से 24 किलोमीटर दूर स्थित सुचेतगढ़ बॉर्डर. सुचेतगढ़ जम्मू जिले की आरएस पुरा तहसील का वह आखिरी गांव है जिसके बाद पाकिस्तान की सीमा शुरू होती है. गांव से बॉर्डर की तरफ जाते हुए आपको खेतों में एक लाइन से बड़ी संख्या में बने बंकर दिखाई देंगे. बॉर्डर पर बीएसएफ की पोस्ट की दीवार पर गोलियों के गहरे निशान, सीमा को घेरते हुए कंटीले तारों से बनी बाड़ और उसमें दिया गया बिजली का करंट यह बताने के लिए काफी है कि इस इलाके में रहने वालों का जीवन कैसा होता होगा.

यहीं हमारी मुलाकात रामधन से होती है. भारत और पाकिस्तान के बीच अब तक हुई तीनों लड़ाइयां देख चुके 80 वर्षीय रामधन हमें बताते हैं, ‘अपने देश के लोग इस बात से खुश होते होंगे कि हमने पाकिस्तान को युद्ध में हर बार हराया, लेकिन ये युद्ध किसके आंगन में लड़े गए, इनकी कीमत कौन चुका रहा है, इसकी सुध देश ने कभी नहीं ली.’ फिलहाल सुचेतगढ़ के नजदीक ही एक गांव में रह रहे युद्ध-विस्थापित रामधन आज से तकरीबन 41 साल पहले यहां से तकरीबन 100 किमी दूर छंब सेक्टर (भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुई जंग के बाद से पाकिस्तान के कब्जे में) में रहते थे. कई एकड़ की उपजाऊ जमीन के मालिक रामधन वहां समृद्ध किसान हुआ करते थे. 1971 की लड़ाई के बाद उन्हें घर और जमीन छोड़कर यहां आना पड़ा. अब हालात ये हैं कि उनका पूरा परिवार मजदूरी करके अपना जीवन चलाता है. सुचेतगढ़ बॉर्डर के इलाके और जम्मू के आस-पास के गांवों में छंब सेक्टर से विस्थापित होने वाले रामधन जैसे ही लगभग दो लाख से ज्यादा लोग हैं. इनमें से ज्यादातर की व्यथाएं भी बिल्कुल एक जैसी हैं.

भारत-पाक सीमा पर स्थित छंब सेक्टर ने दोनों देशों के बीच कई जंगों देखी हैं. अत्यंत सामरिक महत्व वाले इस सेक्टर में 1947 के आस-पास लगभग 65 गांव थे. अगस्त, 1947 में जब पाकिस्तान सेना ने छंब पर हमला कर दिया तो यहां के लोगों को विस्थापित होना पड़ा. ये लोग जम्मू-कश्मीर के दूसरे इलाकों में चले गए. युद्ध समाप्त हुआ और भारतीय सेना ने पाक सेना से छंब सेक्टर को आजाद करवा लिया. लोगों को उम्मीद थी कि वे जल्द अपने घर वापस जा पाएंगे, लेकिन एक-दो नहीं बल्कि लगभग तीन साल बाद इन लोगों को अपने घर वापस आना नसीब हो पाया.

तब तक इनके घर मलबे में तब्दील हो चुके थे. पीछे छूटे मवेशी मर चुके थे या गायब थे. लोगों ने किसी तरह फिर से अपना जीवन शुरू किया. समय गुजरता रहा और 1965 में पाकिस्तान ने एक बार फिर से इस इलाके पर हमला बोल दिया. लोगों को फिर से अपना घर-बार छोड़ना पड़ा. इन्हीं लोगों में से एक 70 वर्षीय हरकिशन बताते हैं, ‘हम फिर रिफ्यूजी हो गए. लोगों ने फिर से दूसरे इलाकों में शरण ली. 14-15 दिन तक लड़ाई चली फिर ताशकंद में समझौता हुआ और पाक ने छंब सेक्टर को खाली कर दिया. लंबे समय तक यहां के लोग दूसरी जगहों पर शरण लिए रहे. दो साल बाद फिर इन्हें वापस अपने गांवों में जाने को कहा गया.’

ऐसी संपत्ति जिसे बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने वाले लोग छोड़कर गए थे उस पर भी राज्य सरकार विस्थापितों को अधिकार नहीं दे रही है

युद्ध विस्थापितों के अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहे कैप्टन नाव्याल कहते हैं, ‘इस बार लगभग 20 गांवों के उन लोगों ने वापस अपने गांव जाने से इंकार कर दिया जिनके गांव बिल्कुल सीमा पर ही थे. ये लोग पाकिस्तान की तरफ से हमेशा होने वाली फायरिंग आदि से परेशान हो चुके थे. सरकार ने इन लोगों को सुचेतगढ़ बॉर्डर वाले इलाके में बसा दिया. बाकी के 40 गांवों के लोग फिर से अपने घरों में चले गए.’

वापस जाने पर इनके घर-बार का इस दफा भी वही हाल था जो 1947 के समय हुआ था. पहले की तरह सब कुछ फिर से दोबारा खड़ा करने की इनकी कोशिश जारी ही थी कि पाकिस्तान ने 1971 में फिर से हमला कर दिया. लोगों को उम्मीद थी कि हर बार की तरह इस बार भी वही कहानी दुहराई जाएगी, लेकिन इस बार सब कुछ हमेशा के लिए बदल गया. युद्ध के बाद शिमला समझौता हुआ. दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा खींची गई और छंब सेक्टर हमेशा के लिए पाकिस्तान में चला गया. इसके साथ हमेशा के लिए चली गई इन 40 गांवों के लोगों की जमीन, उनके घर, मवेशी, खेत और पहचान. और इस इलाके के लोग हमेशा के लिए विस्थापित हो गए.

सरकार ने 1975 तक इन लोगों के रहने की व्यवस्था कैंपों में की. बाद में इन लोगों को जम्मू क्षेत्र के तीन अलग-अलग जिलों के सीमावर्ती इलाकों में 100 के करीब बस्तियां बना कर बसा दिया गया. चूंकि सभी लोग खेतिहर थे, इसलिए सरकार ने थोड़ी-थोड़ी जमीन और थोड़ी-बहुत धनराशि भी इन लोगों को दी थी. उसी समय केंद्र सरकार ने छंब विस्थापितों के पुनर्वास के लिए छंब विस्थापित पुनर्वास प्राधिकरण (सीडीपीआरए) का गठन किया था. लेकिन इस प्राधिकरण ने युद्ध विस्थापितों के पुनर्वास का काम पूरा होने के पहले ही फरवरी, 1991 में अपना ऑफिस बंद कर दिया. उसके बाद से ये विस्थापित आज तक उचित पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं.

सरकार ने यहां हर परिवार को 32 कैनाल सिंचित या फिर 48 कैनाल असिंचित जमीन देने की बात कही थी. लेकिन मुट्ठी भर लोग  ही ऐसे होंगे जिन्हें सरकार ने अपने ही मानक के हिसाब से जमीन दी. जिन लोगों को ये जमीन मिली भी उसमें से काफी ऐसी थी जिस पर खेती करना असंभव था. ऐसे ही एक किसान बचनलाल बताते हैं, ‘सरकार की तरफ से कोई सहयोग मिला नहीं. मैं कुछ समय तक फौज में था, लेकिन पिता जी की तबीयत खराब होने के बाद रिटायर होकर आ गया. किसी तरह उनका इलाज करवाया. जो थोड़े-बहुत पैसे थे, वे खत्म हो गए. सरकार ने थोड़ी-सी जमीन तो दी थी लेकिन वह बंजर थी. बाद में कोई विकल्प न देख मजदूरी शुरू की. किसी तरह अपने परिवार को पाला. दो बेटे हैं. सोचा था कि उन्हें अच्छी तालीम दूंगा लेकिन जीविका के संकट ने ऐसा नहीं करने दिया. दोनों को सिर्फ आठवीं तक पढ़ा पाया. आज वे फल-सब्जी के ठेले लगाते हैं.’
जो सरकारी जमीन खेती के लिए लोगों को दी गई, उस पर भी सरकार ने बड़े संघर्ष के बाद 2000 में जाकर मालिकाना हक दिया. अब भी 1965 के समय विस्थापित हुए लोगों को खेती की जमीन पर मालिकाना हक हासिल नहीं है, जबकि वाधवा कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में 1965 के युद्ध विस्थापितों को भी जमीन पर मालिकाना हक देने की सिफारिश की थी. इसके अलावा युद्ध विस्थापितों के मुताबिक सरकार ने यह प्रावधान किया था कि जिन लोगों को जमीन नहीं दी जाएगी उन्हें मुआवजा दिया जाएगा. लेकिन आज तक इनमें से सिर्फ मुठ्ठी भर लोगों को ही नाममात्र का मुआवजा मिल पाया है.

युद्ध विस्थापितों के साथ एक बड़ी समस्या इवेक्यू लैंड(ऐसी संपत्ति जिसे जिसे बंटवारे के समय पाकिस्तान गए लोग छोड़कर चले गए थे) को लेकर भी है. इनमें से कुछ लोगों को खेती के लिए मिली इवेक्यू लैंड दी गई थी. इस तरह की किसी भी जमीन पर लोगों को मालिकाना हक नहीं दिया गया है. जबकि वाधवा कमिटी ने सिफारिश की थी कि इवेक्यू भूमि पर मालिकाना हक देने की इन लोगों की मांग मान ली जानी चाहिए.

वाधवा कमिटी ने यह भी कहा था कि इवेक्यू घरों में रहने वाले युद्ध विस्थापितों से महीने का किराया नहीं लिया जाना चाहिए. लेकिन दोनों ही चीजें नहीं हुईं. नाव्याल बताते हैं, ‘जिस जमीन पर सरकार ने युद्ध विस्थापितों को बसाया है, उस पर भी वह उन्हें मालिकाना हक देने के लिए वह तैयार नहीं थी. जब लोगों ने इसको लेकर आंदोलन किया तब जाकर सरकार ने 2012 में सिर्फ चंद लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिया.’
युद्ध विस्थापित इस बात से भी खासे आहत और नाराज हैं कि हाल ही में जब केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम जम्मू-कश्मीर आई तो उसने उन्हें छोड़कर लगभग हर वर्ग के लोगों से मुलाकात की.

छंब सेक्टर से 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के कारण हमेशा के लिए विस्थापित हो चुके इन लोगों के अलावा भी बड़ी संख्या में राज्य में ऐसे लोग हैं जो बॉर्डर और नियंत्रण रेखा पर घर और खेती की जमीन होने की सजा भुगत रहे हैं. इनमें से बड़ी तादाद में लोग आए दिन होने वाली फायरिंग के कारण अपने घर और गांवों को छोड़कर दूसरी सुरक्षित जगहों पर चले गए हैं. हालांकि 2003 में भारत और पाकिस्तान के बीच घोषित संघर्ष-विराम के कारण बॉर्डर एरिया छोड़ कर जाने वाले लोगों में कमी आई है, लेकिन जानकारों का मानना है कि 2003 से पहले बहुत बड़ी संख्या में सीमा पर रहने वाले लोग अपने घर और गांव छोड़कर हमेशा के लिए दूसरे इलाकों में जाकर बस गए. इनमें से ज्यादातर को तो सेना ने खुद उनकी जमीनें खाली करने की सलाह दी थी ताकि सेना उस पर बंकर बना सके या बारूदी सुरंगें बिछा सके.जम्मू के डिविजनल कमिश्नर ने अपने एक बयान में ऐसे लोगों की संख्या 1.50 लाख के करीब बताई थी. जानकारों का मानना है कि अगर ये लोग फिर से वापस अपने घर लौटने की सोचें भी तो नहीं जा सकते क्योंकि इनके खेतों के नीचे बारुदी सुरंगें बिछी हैं. दूसरी बात यह भी है कि सेना के कब्जे वाली इस 16,000 एकड़ जमीन पर उनको प्रवेश की अनुमति नहीं होगी. वाधवा कमेटी ने इन लोगों की जमीन के बदले इन्हें मुआवजा देने की सिफारिश राज्य सरकार से की थी लेकिन आज तक हुआ कुछ नहीं.

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कहां से : कश्मीर घाटी

कब से : 1989 

कितने :  तकरीबन 3,00,000

राज्य सरकार कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने के लिए कह रही है, लेकिन क्या वहां का बहुसंख्यक समाज इस समुदाय को अपनाने के लिए तैयार है?

घाटी से कश्मीरी पंडितों को विस्थापित हुए 23 साल हो गए. पंडितों की एक नई पीढ़ी सामने है और सामने है यह प्रश्न भी कि क्या कभी ये लोग वापस अपने घर कश्मीर जा पाएंगे. 14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया. टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई. फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था. घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित. एक विस्थापित कश्मीरी पंडित रमाकांत याद करते हैं, ‘उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे. वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते थे या फिर उन्हें घाटी से बाहर फेंकना चाहते थे. इसमें वे सफल हुए.’

रमाकांत के मुताबिक हिंदुओं को आतंकित करने की शुरुआत तो बहुत पहले ही हो चुकी थी मगर 19 जनवरी को जो हुआ वह ताबूत में अंतिम कील थी. वे बताते हैं, ‘पंडितों के घरों में कुछ दिन पहले से फोन आने लगे थे कि वे जल्द-से-जल्द घाटी खाली करके चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें. घरों के बाहर ऐसे पोस्टर आम हो गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़कर जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की नसीहत दी गई थी. लोगों से उनकी घड़ियों को पाकिस्तानी समय के साथ सेट करने का हुक्म दिया जा रहा था. सिंदूर लगाने पर प्रतिबंध लग गया था. भारतीय मुद्रा को छोड़कर पाकिस्तानी मुद्रा अपनाने की बात होने लगी थी.

जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज सुनाई देती थी आज उनसे कश्मीरी पंडितों के लिए जहर उगला जा रहा था. एक अन्य कश्मीरी पंडित अजय बताते हैं, ‘ये लाउडस्पीकर लगातार तीन दिन तक इसी तरह उद्घोष करते रहे थे. ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’ ‘आजादी का मतलब क्या ला इलाह इल्लल्लाह’ ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है’ और ‘असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान’ जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना.’

कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के अश्विनी चंग्रू कहते हैं, ‘उस दौरान कर्फ्यू लगा हुआ था फिर भी कर्फ्यू को धता बताते हुए कट्टरपंथी सड़कों पर आ गए. कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारने, उनकी बहन-बेटियों का बलात्कार करने और हमेशा के लिए उन्हें घाटी से बाहर खदेड़ने की शुरुआत हो चुकी थी.’

आखिरकार 19 जनवरी, 1990 को लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित अनिश्चितकाल के लिए अपना सब कुछ छोड़कर घाटी से बाहर जाने को विवश हो गए. इन्हीं लोगों में शामिल शिवकुमार कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों को सिर्फ दो चीजें ही आती हैं. एक पढ़ना और दूसरा पढ़ाना. ऐसे में उन लोगों का मुकाबला करना, जो हमारे खून के प्यासे थे, संभव ही नहीं था.’

23 साल हो गए इन घटनाओं को. पिछले 23 साल से ही कश्मीरी पंडित अपने घर से दूर शरणार्थियों का जीवन गुजार रहे हैं. उस समय घाटी से जान बचाकर शरण की आस में लगभग तीन लाख कश्मीरी पंडित जम्मू, दिल्ली समेत देश के अन्य दूसरे इलाकों में चले गए. जम्मू में पहुंचने के बाद ये लोग वहां अगले 20 साल तक लगातार कैंपों में रहे. शुरुआती पांच साल तक तो ये लोग टेंट वाले कैंपों में रहे. अंदाजा लगाया जा सकता है कि पांच साल तक लगातार पूरे परिवार ने छोटे-से टेंट में किस तरह से सर्दी-गर्मी-बरसात बिताये होंगे. खैर, एक लंबे समय के बाद इन्हें टेंट के स्थान पर ‘घरों’ में शिफ्ट कर दिया गया.

घर के नाम पर उन मकानों में पूरे परिवार के लिए सिर्फ एक कमरा था जहां औसतन पांच सदस्यों के एक परिवार को रहना था. इसके अलावा एक बड़ी दिक्कत यह थी कि ये कश्मीर घाटी में रहने वाले लोग थे जहां की जलवायु जम्मू से बिल्कुल अलग है. जम्मू में लंबे समय तक रहने का नतीजा यह रहा कि ज्यादातर कश्मीरी पंडित स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से जूझने लगे.

विभिन्न रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि पिछले 23 साल में कश्मीरी पंडितों की जनसंख्या तेजी से कम हुई है. 60 वर्षीय हरिओम इसकी वजह बताते हैं, ‘एक कमरे में पूरा परिवार रहता था. मां-बाप भाई-बहन सब. पिछले 23 साल में पर्सनल स्पेस जैसी कोई चीज नहीं रह गई थी. यही कारण है कि जनसंख्या में गिरावट दिखाई देती है. इसके अलावा जिस तरह की आर्थिक समस्या से समाज गुजर रहा था उसमें किसी नए सदस्य को दुनिया में लाना उसके साथ अन्याय करने के समान था.’

कश्मीर घाटी में हम पंडितों की वापसी का स्वागत करते हैं. इसमें हमारी तरफ से कोई रुकावट नहीं है

सैयद अली शाह गिलानी

पृथकतावादी नेता

आज कश्मीरी पंडितों की बड़ी आबादी को उस एक कमरे के घरों वाले कैंपों, जहां वे लगातार 20 साल तक रहे, से निकालकर उनके लिए बनाई गई कालोनियों में बसा दिया गया है. इस तरह के पुनर्वास पर अजय चंग्रू कहते हैं, ‘कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास की समस्या तो कश्मीर में ही रहने से हल होगी. सरकार ये सोचे कि कश्मीर के बाहर किसी जगह पर उनके लिए रहने की व्यवस्था करा देने से मामला हल हो जाएगा तो ऐसा नहीं है.’
कश्मीरी पंडितों के विभिन्न संगठनों की मांग है कि उन्हें कश्मीर में ही एक अलग केंद्रशासित होमलैंड का निर्माण करके बसाया जाए. पनुन कश्मीर संगठन के प्रवक्ता वीरेंद्र कहते हैं, ‘कौन कहां जाना चाहता है हमें इससे मतलब नहीं है, हमें कश्मीर में ही रहना है और भारतीय संविधान के अंदर ही रहना है.’

कश्मीरी पंडितों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके कश्मीर स्थित घरों को आग लगा दी गई या फिर उन्हें तोड़ दिया गया. जमीन पर स्थानीय लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया या फिर दो जून की रोटी की व्यवस्था के लिए इन्हें उसे कौड़ियों के भाव बेचना पड़ा. ऐसे ही एक पीड़ित अजय कुमार भट्ट कहते हैं, ‘ नरसंहार की उस घटना के बाद मैं अपने परिवार के साथ यहां जम्मू स्थित रिफ्यूजी कैंप में रहने लगा. जो कुछ हमारे पास था सब पीछे छूट चुका था. न पैसे थे न रोजगार. ऐसे में अपनी जमीन बेचने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. घर का खर्च चलाने के लिए हमें अपनी जमीन कौड़ियों के भाव बेचनी पड़ी. खरीदने वाला भी जानता था कि हम मजबूर हैं इसलिए उसने जमीन की कीमत नहीं बल्कि सांत्वना राशि हमें दी थी.’

गाहे-बगाहे घाटी स्थित विभिन्न तबकों द्वारा कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर की जाने वाली बयानबाजी अब इन लोगों में किसी उत्साह के बजाय गुस्से का संचार करती है. विस्थापित कश्मीरी पंडित अश्विनी कहते हैं, ‘घाटी के वे पृथकतावादी लोग हमें घाटी में वापस देखने को बेकरार हैं जिन्होंने हमारे लोगों का कत्लेआम किया, बहन बेटियों की इज्जत लूटी. इन लोगों को तो जेल में होना चाहिए था क्योंकि सब कुछ इन्हीं की देखरेख में हुआ.’ विश्वास की खाई कितनी गहरी है यह इस बात से पता चलता है कि जब कुछ समय पहले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर बयान दिया था कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है, तो उनकी इस बात पर भरोसा करने वाला एक भी कश्मीरी पंडित दिखाई नहीं दिया.

आखिर क्यों? पंडित चमनलाल कहते हैं, ‘यह लिप सर्विस  है. दुनिया को वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखिए साहब कश्मीरी पंडितों के लिए हम घाटी में कब से पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं. वही हैं जो आना नहीं चाहते. असली सवाल यह है कि क्या सरकार पंडितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने को तैयार है. और फिर यह जानना भी जरूरी है कि घाटी के मुसलमान पंडितों की वापसी के लिए कितने उत्साहित हैं. क्योंकि आखिर में रहना तो उन्हीं के साथ है.’

जब तक कश्मीर घाटी में सहिष्णुता नहीं आती तब तक पंडितों की वापसी मुश्किल है

दिलीप पडगांवकर

कश्मीर मसले पर केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार

कश्मीरी पंडितों के मन में इस बात को लेकर भी पीड़ा है कि घाटी की मुस्लिम आबादी ने उस दौरान उनका साथ नहीं दिया जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा था. अश्विनी कहते हैं, ‘अगर कश्मीर के मुसलमान उस समय हमारे साथ खड़े होते तो किसी आतंकवादी में ये हिम्मत नहीं होती कि वह किसी कश्मीरी पंडित को चोट पहुंचाने की सोच पाता. लेकिन उन्होंने उस समय हमारा साथ देने के बजाय कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए.’

कश्मीरी पंडितों के मन में इस बात को लेकर भी पीड़ा है कि घाटी की मुस्लिम आबादी ने उस दौरान उनका साथ नहीं दिया जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा थाराष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने विभिन्न मौकों पर कश्मीरी पंडितों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का सुझाव राज्य सरकार को दिया लेकिन राज्य सरकार ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई. पंडित संगठनों का कहना है कि जिस तरह के नरसंहार से पंडितों को राज्य में गुजरना पड़ा और अल्पसंख्यक होने के नाते उनकी जो स्थिति है उसे देखते हुए उनके समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए था. मगर ऐसा नहीं हुआ और जम्मू-कश्मीर में आज तक अल्पसंख्यक आयोग का गठन तक नहीं हुआ है. अजय कहते हैं, ‘आज भी राज्य सरकार इस पर विचार करने को तैयार नहीं है. दरअसल वह बहुसंख्यक आबादी को अल्पसंख्यक आयोग का गठन करके नाराज नहीं करना चाहती.’

वर्ष 1990 में जो कुछ भी हुआ उसको कश्मीरी पंडित जेनोसाइड अर्थात नरसंहार और एथनिक क्लींजिंग का नाम देते हैं. वीरेंद्र कहते हैं, ‘जो हुआ वह सिर्फ कोई आतंकी घटना नहीं थी बल्कि कट्टरपंथियों की ये सोची-समझी रणनीति थी कि कश्मीर में हर उस प्रतीक को खत्म कर दिया जाए जो उनके इस्लामिक राज्य की स्थापना में बाधक हो रहा है. पहले उन लोगों ने पंडितों का कत्लेआम शुरू करके भय का माहौल बनाया जिससे सारे हिंदू यहां से भाग जाएं. उसके बाद उनके घरों को आग लगी दी, मंदिरों और पूजा स्थानों को तोड़ा और जलाया. वे कश्मीर से पंडितों की पूरी पहचान हमेशा-हमेशा के लिए मिटाना चाहते थे. जो लोग हमें वहां बुलाना चाहते हैं, वे जरा एक बार ये शोध करके यह बताएं कि आज घाटी में पंडितों से जुड़ी हुई कितनी पहचानें सुरक्षित बची हैं.’

फेल फ्लेचर

‘यह सब आंसुओं के साथ खत्म हुआ. कहते हैं कि ज्यादातर खेल कोचों के कार्यकाल का अंत ऐसा ही होता है. लेकिन मेरा मामला थोड़ा अलग था.’

अपनी आत्मकथा बिहाइंड द शेड्स की शुरुआत डंकन फ्लेचर ने इन्हीं पंक्तियों के साथ की है. भारतीय टीम के मौजूदा कोच फ्लेचर ने ये लाइनें 2007 में तब लिखी थीं जब इंग्लैंड एशेज सीरीज में ऑस्ट्रेलिया के हाथों 0-5 की अपमानजनक हार झेल चुका था. उनके आत्मविश्वास की वजह यह थी कि इस हार को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो इंग्लैंड के कोच के तौर पर सात साल लंबा उनका कार्यकाल बहुत शानदार रहा था. दो दशक तक रूठे रहे एशेज कप को 2005 की गर्मियों में वे इंग्लैंड वापस ले आए थे. इसके अलावा 2000 से 2004 के बीच उनके मार्गदर्शन में इंग्लैंड ने श्रीलंका, वेस्टइंडीज, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका को टेस्ट श्रृंखलाओं में फतह किया था. उन्हीं के नेतृत्व में इंग्लैंड ने लगातार आठ टेस्ट मैच जीतने का रिकॉर्ड बनाया. इन चमकदार सफलताओं की वजह से ही शायद इंग्लैंड में उनकी विदाई इतनी गरिमापूर्ण बन गई थी कि उन्होंने इस आयोजन को ही अपनी आत्मकथा की पहली लाइन का आधार बनाने का फैसला कर लिया.

हालांकि फ्लेचर टेस्ट क्रिकेट के जितने बढ़िया कोच थे उतने ही बुरे कोच वे एकदिवसीय मैचों में साबित हुए थे. इंग्लैंड के ही संदर्भ में देखें तो उन्होंने जिन 166 एकदिवसीय मैचों में कोचिंग की उनमें से इंग्लैंड को सिर्फ 75 मैचों में जीत हासिल हुई और 82 में टीम को हार का मुंह देखना पड़ा.

बाकी में नतीजे नहीं निकल सके. यानी उनकी सफलता की दर पचास फीसदी से भी कम रही. जिस समय फ्लेचर ने भारतीय टीम की कोचिंग संभाली उस समय टीम टेस्ट मैचों की नंबर एक टीम थी. पिछले एक दशक के दौरान धीरे-धीरे उसने विदेशी पिचों पर हारने का मिथ तोड़ दिया था. मांद के शेर वाला ठप्पा टीम के माथे से मिटने लगा था. ऐसे समय में टीम के पूर्व कोच दक्षिण अफ्रीकी गैरी कर्स्टेन ने कोच के तौर पर डंकन फ्लेचर का नाम सुझाया था. टेस्ट मैचों में उनकी कोचिंग का शानदार रिकॉर्ड देखते हुए यह माना गया कि वे इस नंबर एक टीम को यहां से आगे ले जाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं. लेकिन उनके नेतृत्व में खेली गई पिछली लगभग सभी श्रृंखलाओं में भारतीय टीम की जो गत बनी है उसने फ्लेचर की प्रतिष्ठा को छिन्न-भिन्न कर दिया है. पिछले 11 टेस्टों में टीम दस में हारी है और सिर्फ एक जीत मयस्सर हुई है.

इतने शर्मनाक रिकॉर्ड के बाद पूरे भारतीय मीडिया में टीम को बदलने की बात हो रही है, कप्तान को बर्खास्त करने की मांग हो रही है, सचिन तेंदुलकर को संन्यास की सलाह दी जा रही है लेकिन फ्लेचर की असफल भूमिका उतनी बात नहीं हो रही.

भारतीय क्रिकेट टीम के कोच का पद दुनिया के कुछ सबसे मलाईदार खेल कोच पदों में से एक है. करार के मुताबिक फ्लेचर को सालाना सवा करोड़ रुपये मिलते हैं. इसके अलावा व्यक्तिगत रुचि का स्टाफ, आवास, साल में अपने घर जाने के पांच रिटर्न टिकट और मैदान में लंबा-चौड़ा सपोर्ट स्टाफ. फ्लेचर का करार दो साल का है जिसके लगभग छह महीने अभी बाकी हैं. इन छह महीनों के दौरान ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान को भारत आना है और भारत को दक्षिण अफ्रीका में श्रृंखला खेलनी है. सवाल है कि क्या इतने घटिया रिकॉर्ड के बाद फ्लेचर पर विश्वास किया जा सकता है. इनमें से ऑस्ट्रेलिया के साथ श्रृंखला एक तरह से बदले की श्रंखला है क्योंकि उसने भी इस साल की शुरुआत में भारत को इंग्लैंड की तरह ही 0-4 से हराया था.

वैसे खतरे की घंटी पिछले साल ही बज गई थी. जब भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में अपना सूपड़ा साफ कराके लौटी थी. इसके बावजूद भी बीसीसीआई की आंख नहीं खुली. ऐसा नहीं है कि किसी ने इसकी चर्चा नहीं की. मई में बोर्ड की वर्किंग कमेटी की एक बैठक में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान अनिल कुंबले (फिलहाल कर्नाटक क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष) ने 0-8 का मुद्दा रखा था. उन्होंने धोनी-फ्लेचर की जवाबदेही से जुड़े कुछ सवाल भी रखे थे. लेकिन सूत्रों के मुताबिक उन्हें यह कहकर चुप करवा दिया गया कि बोर्ड अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ये सारे सवाल धोनी-फ्लेचर के सामने पहले ही रख चुके हैं और जल्द ही उनकी तरफ से जवाब आ जाएगा. आज तक इस बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है कि कुंबले के उन सवालों का क्या जवाब कोच-कप्तान ने दिया और उस दिशा में टीम ने क्या बदलाव किए.

फ्लेचर ने भारतीय टीम का कोच पद तमाम सुविधाओं के अलावा अपनी कुछ अतिरिक्त शर्तों के साथ स्वीकार किया था. उन्हीं शर्तों के कारण 2011 में वेस्ट इंडीज के दौरे पर गई भारतीय टीम बिना किसी पूर्णकालिक कोच के गई. वजह यह थी कि विश्वकप विजय के बाद गैरी पद से हट चुके थे पर फ्लेचर तत्काल ज्वाइन करने को तैयार नहीं थे. उन्हीं शर्तों में से एक अलिखित शर्त यह भी बताई जाती है कि फ्लेचर ने बोर्ड अध्यक्ष को सीधे-सीधे कह दिया था कि वे टीम चयन, जूनियर टीम और घरेलू क्रिकेट से कोई वास्ता नहीं रखेंगे. एक तरह से फ्लेचर ने अपनी स्थिति साफ कर दी थी कि उन्हें जो 11 खिलाड़ी मिलेंगे वे उन्हीं से मतलब रखेंगे. बाकी देश के क्रिकेट सर्किट में क्या चल रहा है, कौन उनके किस काम आ सकता है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है. सवाल उठता है कि राष्ट्रीय टीम का कोच अगर अपने अगल-बगल की चीजों से इतना कटा रहेगा तो वह अंतरराष्ट्रीय स्तर की टीम कैसे बनाएगा. फ्लेचर के इस बेरुखे रवैये में बीसीसीआई ने भी बड़ी भूमिका निभाई है. उनके कॉन्ट्रैक्ट में साफ-साफ लिखा है कि वे देश या विदेश के मीडिया से किसी तरह का संवाद नहीं रख सकते. इससे एक संवादहीनता की स्थिति लगातार बनी हुई है. दिग्गज क्रिकेटरों और विश्लेषकों को आज तक जरा भी अंदाजा नहीं कि आदर्श भारतीय टीम को लेकर फ्लेचर की योजना और विजन क्या है.

टीम के साथ उनके संबंधों को लेकर भी एक तरह का संदेह ही छाया रहता है. इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें तो कभी भी किसी खिलाड़ी ने उनके बारे में ऐसी कोई बात नहीं की है जिससे यह पता चल सके कि वे कितने बढ़िया या कितने खराब टीम मैन हैं. मैचों के दौरान भी लगभग हर परिस्थिति में उनके चेहरे पर पत्थर-सा स्थायित्व का भाव बना रहता है. कभी किसी ने उन्हें हार या जीत पर खुद को भावनाओं में बहते या व्यक्त करते हुए नहीं देखा है. इस मामले में टीम में जुमला चलता है कि कोच और कप्तान दोनों ही ‘पत्थर के सनम’ हैं. धोनी की कूल मानसिकता की बात तो काफी हो चुकी है. दोनों के बीच यही बात साझी है. माना जाता है कि यही स्थिति दोनों को आपस में जोड़े रखती है और इसी के चलते दोनों कठिन स्थितियों में भी आगे बढ़ते रहे हैं. वरना टीम के जूनियर खिलाड़ी, जिनके ऊपर भविष्य की भारतीय टीम खड़ा करने का दारोमदार है, उनकी मानंे तो फ्लेचर उनके साथ नाममात्र की बातचीत रखते हैं. यह स्थिति फ्लेचर के पूरी तरह से दिशाहीन होने का संकेत देती है और एक ऐसा अनिच्छुक व्यक्ति होने का भी जो अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के दम पर एक मलाईदार पद पा गया है और एक ताकतवर कप्तान के साथ मिलकर किसी तरह से अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा करना चाहता है.

लेकिन दशक भर पहले तक स्थितियां ऐसी नहीं थीं. 1-10 के स्कोर के बाद या तो कप्तान या फिर कोच को रास्ता छोड़ना पड़ता. सौरभ-जॉन राइट (टीम इंडिया की नींव डालने वाली जोड़ी) के मामले में हमने यही देखा, राहुल द्रविड़-ग्रेग चैपल के बारे में यह बात और साफ हो गई थी. थोड़ा और पीछे जाएं तो सचिन तेंदुलकर का उदाहरण सामने है. तब तक देश में विदेशी कोचों का चलन शुरू नहीं हुआ था. सचिन ने कुल 13 टेस्ट मैचों में कप्तानी की थी. उनका स्कोर था छह हार और सात ड्रॉ. इसके बावजूद उन्हें कप्तानी से जाना पड़ा. आज धोनी की कप्तानी पर तो सवाल उठ रहे हैं लेकिन कोच के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है. धोनी की पिछले तीन टेस्ट के स्कोर पर अगर नजर डालें तो उनका औसत 18 का है. इस आंकड़े के आधार पर धोनी टीम में जगह पाने के भी अधिकारी नहीं हैं, लेकिन वे टीम के सबसे ताकतवर कप्तान हैं. जो चिंताजनक बात देखने में आ रही है, वह है कोच और कप्तान का दंभी और हठी रवैया. टेस्ट दर टेस्ट खिलाड़ी उसी स्टाइल में आउट हो रहे हैं, फील्डिंग में वही खामियां दिख रही हैं लेकिन सुधार का कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा. तेंदुलकर को ही लें जिनके पिछले कुछ समय से बार-बार क्लीन बोल्ड होने पर सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में एक कोच के तौर पर फ्लेचर की भूमिका क्या है?

हालांकि एक और गलती शायद फ्लेचर और धोनी दोनों ही नहीं झेल पाएं. इंग्लैंड के साथ आखिरी टेस्ट और पाकिस्तान के साथ अगली श्रृंखला से उनके भविष्य का भी फैसला होगा. भारत से लौटकर अगर 2013 में डंकन फ्लेचर अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना फिर से लिखें तो पहली लाइन कुछ यूं होगी, ‘लोग कहते हैं ज्यादातर खेल कोचों के कार्यकाल का अंत दुखद ही होता है. शायद लोग सही कहते हैं.’

कुछ और बातें

  • क्रिकेट के खेल का एक क्रम होता है. बल्लेबाजी, गेंदबाजी, फील्डिंग, मैदान के अंदर और बाहर सटीक रणनीति और सबसे नीचे है पिच की भूमिका. लेकिन  भारतीय टीम के कोच और कप्तान ने श्रृंखला से पहले ही इस क्रम को उलटते हुए पिच की भूमिका को सर्वोपरि कर दिया. कप्तान धोनी बार-बार कहते पाए गए कि वे ऐसी पिचें चाहते हैं जो पहले ही दिन से 90 अंश का घुमाव दिखाएं. यह एक नेता का पलायनवादी मानसिकता थी जिसे अपने खेल कौशल से ज्यादा पिचों का सहारा था. इंग्लैंड ने यह कमजोरी पकड़ ली.
  • पिछली छह पारियों में यह टीम सिर्फ एक बार 500 का आंकड़ा छू पाई है. बाकी पांच पारियों में टीम 400 रन भी नहीं बना सकी है. आरोप लग रहे हैं कि यह बीसमबीस के जमाने में पैदा हुई क्रिकेट नस्ल है जो पांच दिन की बारीकियों और उसके सौंदर्य से अनभिज्ञ है. इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे टेस्ट को पूजने वाले देशों के सामने बीसमबीस की वित्तपोषित नस्ल आगे और शर्मिंदगी ला सकती है.
  • डंकन फ्लेचर कुल जमा चौथे विदेशी कोच हैं. इनसे पहले जॉन राइट, ग्रेग चैपल और गैरी कर्स्टेन भारतीय टीम के कोच रह चुके हैं. इनमें से जॉन राइट और गैरी कर्स्टेन का कार्यकाल सफल कहा जा सकता है. इसके पीछे एक वजह शायद यह रही हो कि राष्ट्रीय टीम के कोच के तौर पर दोनों की ही यह पहली जिम्मेदारी थी. इसलिए शायद दोनों पर खुद को साबित करने का दबाव था. इसके विपरीत ग्रेग चैपल और डंकन फ्लेचर अपने साथ उम्मीदों का पहाड़ और स्टारडम लेकर आए थे. दोनों उम्मीदों के बोझ तले ढेर हो गए. विदेशी कोचों की सफलता की दर 50 फीसदी ठहरती है. यहां विचार करने की जरूरत है कि इतनी मोटी रकम और तामझाम का नतीजा 50 फीसदी यानी सेकंड डिवीजन ही आना है तो क्या हमें ऐसे विदेशी कोचों की जरूरत भी है?   

‘हल्की-सी सूजन को भी नजरअंदाज न करें’

शरीर में कहीं भी सूजन आ जाए तो यह किस खतरे का संकेत है?
यह खतरनाक है या बस यूं ही?
शरीर में सूजन किसी अंग विशेष में आ सकती है, जैसे कि केवल पांवों में, चेहरे पर या पेट में या यह सारे शरीर पर भी एक साथ हो सकती है. प्रायः शुरुआत में तो सूजन हल्की-हल्की ही होती है. ‘तनिक-सी पंजों पर आ जाती है, सर, वो भी केवल शाम आते-आते या सुबह उठता हूं तो आंखों के नीचे सूजन-सी लगती है.’ बस, ऐसा कहने वाले कितने ही मरीज होते हैं जिन्हें यह काफी दिनों से थी परंतु उन्होंने इसे बस यूं ही टाल दिया. क्या हल्की सूजन थकान, देर तक जागने, देर तक खड़े होने, खाने में कुछ आ जाने मात्र से हो जाती है? किसी जांच की जरूरत ही नहीं? बल््कि कई बार तो ऐसे लोग भी होते हैं जो कहते हैं कि ऊपर से तो पता नहीं चल रहा है, सर, पर अंदर-अंदर शरीर सूजा-सा लगता है और वजन भी बढ़ गया है.

तो सूजन के कई परिदृश्य हैं. हल्की सूजन, तगड़ी सूजन, रातों-रात आ गई सूजन, धीमे-धीमे बढ़ी सूजन, कोई दवा खाने के बाद आई सूजन और इसी तरह की अन्य सूजन. प्रश्न वही है कि यदि शरीर में सूजन है तो यह किस बात का संकेत हो सकता है.

शरीर में जो भी पानीनुमा द्रव्य है वह या तो खून के तौर पर रक्त की नलियों में बह रहा है या फिर शरीर की कोशिकाओं के अंदर भरा है, या फिर इनके बीच के पैकिंग मटीरियल में भरा है. यह द्रव्य इन तीनों जगहों के बीच आता-जाता रहता है. लगातार प्रवाहित है. और कुछ यूं प्रवाहित है कि खून, प्लाज्मा, प्रोटीन तथा खून या द्रव्य के प्रेशर के विभिन्न बलों की खींचतान के बीच बैलेंस बना रहे तो ठीक वर्ना…! वर्ना यह कि यह द्रव्य कोशिकाओं और रक्त की नलियों के बाहर ही शरीर के पैकिंग मटीरियल के स्पेस में एकत्रित होने लगेगा. यही सूजन पैदा करेगा. चप्पल पहनेंगे तो उसके निशान पांवों पर रह जाएंगे. उंगली या अंगूठे से दबाएंगे तो वहां एक गड्ढा-सा बन जाएगा. चेहरे पर आएगी तो आंखों के नीचे भरा-भरा और ज्यादा सूजन आ जाए तो पूरा चेहरा ही देवताओं टाइप भरा-भरा लगने लगेगा. पेट में द्रव्य भरेगा तो पेट बढ़ जाएगा, फूला-फूला लगेगा अौर यह सब उपर्युक्त बैलेंस के बिगड़ने का नतीजा होता है. यह बैलेंस दिल, किडनी, लीवर, रक्त में प्रोटीन की मात्रा, रक्त नलियों में बिना रुकावट के ठीक-ठाक रक्त प्रवाह, विभिन्न हॉर्मोंस आदि के तालमेल पर निर्भर करता है. इसका मतलब यह बना कि शरीर में सूजन हो तो बीमारी इनमें से कहीं भी हो सकती है. इस कठिन से प्रतीत होते पेचदार ज्ञान को मन में रखें और निम्न बातों का ख्याल धरें.

  • शरीर में कहीं भी सूजन दिखे, चाहे फिर वह कितनी भी हल्की लगे तुरंत डॉक्टर की सलाह लें. हो सकता है जांच में कुछ भी न निकले पर हृदय, किडनी, लीवर आदि की जांचों में किसी बड़ी बीमारी के संकेत भी मिल सकते हैं. मैंने कितने ही केस देखे हैं जहां मामूली-सी सूजन की जांच कराने आए व्यक्ति के दोनों गुर्दे खराब निकले या उसके दिल का पंप बहुत खराब निकला.
  • यदि दारू का सेवन करते हों, दर्द की गोलियां खाते रहते हों, पहले कभी पीलिया हुआ हो, पहले कभी हार्ट अटैक हुआ हो, यदि दमे या बीपी की दवाइयां खाते हों, तब तो सूजन होने पर तुरंत अपने डॉक्टर की सलाह लें. ऐसे केसों में सूजन होने पर पूरी जांच की आवश्यकता होती है.
  • यदि औरतों में केवल माहवारी के आस-पास सूजन आती हो, बाकी समय न रहती हो तो चिंता की कोई बात नहीं होती. जांचें तो तब भी लगती हैं, परंतु सब ठीक ही निकलता है. हां, महिला को यह शिकायत होती है कि जब सारी जांचें ही ठीक हैं तो फिर यह सूजन क्यों. यह सूजन हॉर्मोंस के कारण होती है. इसे नजरअंदाज कर दें.
  • यदि आप दवाइयां खाते हों (मान लें कि ब्लड प्रेशर आदि की) तो संभावना है कि दवा के कारण सूजन हो. बहुत-सी ऐसी दवाइयां हैं जिन पर कई बार डॉक्टर तक नहीं सोचते कि सूजन स्वयं उनके द्वारा दी गई दवाई से ही हो रही है. बेहतर है कि डॉक्टर से दबी जुबान में ही सही पर पूछ लें कि यह सूजन किसी दवा के कारण ही तो नहीं है.
  • सूजन का इलाज स्वयं न करने बैठ जाएं. नमक बंद कर दें क्या? सिकाई कर लें क्या? नमक के गुनगुने पानी में पांव डालकर बैठा करें क्या? ऐसा कुछ न करें. पहले डॉक्टर को दिखाएं फिर वह जो कहे वैसा करें. सूजन जानलेवा बीमारी का लक्षण भी हो सकती है इसलिए देर न करें.
  • गुर्दे की बीमारी की सूजन चेहरे पर, लीवर की प्रायः पेट से और दिल की बीमारी वाली सूजन पैरों से शुरू होती है. बाद में तो खैर यह पूरे शरीर पर फैल जाती है. इस पैटर्न के अपवाद भी खूब होते हैं.
  • हल्की सी सूजन भी तब दिखाई देती है जब बीमारी बहुत बढ़ चुकी होती है. शुरुआत में तो कई लीटर द्रव्य शरीर में वहां जमा होकर मात्र वजन ही बढ़ा सकता है बस. तो यदि अचानक ही पाएं कि भूख या भोजन के बढ़े बिना वजन बढ़ रहा है तो जांचें करा लें.
  • हाथ, पांव, घुटनों आदि के दर्द के लिए चाहे जब दर्द की गोली न खाएं. इससे आपके गुर्दे तबाह हो सकते हैं. यदि आपको यह आदत रही है तब तो सूजन होने पर तुरंत ही जांच कराएं.
  • कुल संदेश यह कि शरीर में हल्की सूजन को भी कभी नजरअंदाज न करें.   

बहुत सी दवाइयां हैं जिन पर कई बार डॉक्टर तक नहीं सोचते कि सूजन उनके द्वारा दी गई दवाई से ही हो रही है. बेहतर है कि डॉक्टर से पूछ लें.

‘आरोपों पर कोई प्रमाण दिखाए तो उसी दिन लेखन छोड़ दूंगी’

समकालीन, अनुभवी लेखकों से लेकर बुजुर्गवार लेखकों तक के निशाने पर महुआ माजी क्यों आती जा रही हैं?
ये तो वही बताएंगे जो मुझे निशाने पर ले रहे हैं और लेखक के तौर पर मेरे अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं. मैं कैसे बताऊं कि वे क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं. मैंने तो कभी किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा, न ही कभी किसी के साथ दुर्व्यवहार किया. पता नहीं क्यों? शायद मेरे गैरहिंदी परिवेश, गैरसाहित्यिक पृष्ठभूमि और महिला होने की वजह से भी… कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कह सकती.

गैरहिंदी पृष्ठभूमि के तो कई लेखक हिंदी में आए और छा गए, गैरसाहित्यिक पृष्ठभूमि वालों की भी इस धारा में अच्छी संख्या है और महिलाओं की भी. फिर इस आधार पर भला महुआ का विरोध क्यों?
हां, बहुतेरे आए हैं, आते रहे हैं, लेकिन अब भी एक बड़े वर्ग का मानना है कि जिसने ज्यादा साहित्य नहीं पढ़ा, समकालीन लेखकों को नहीं पढ़ा वह लेखक कैसे हो सकता है. लेकिन मैं इसके उलट मानती हूं. अच्छा साहित्य लिखने के लिए आपको बहुत ज्यादा पढ़ने या अधिक से अधिक ज्ञान बटोरने की जरूरत नहीं. ज्ञानवान होना और अच्छा लेखक होना, दोनों दो चीजें हैं. लेखन हमेशा एक सृजनात्मक प्रक्रिया है जो भावों से उभरकर सामने आता है.

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी ने कहा है कि आपकी सबसे चर्चित कृति  ‘मैं बोरिशाइल्ला’  आपकी मौलिक कृति नहीं है.
यह बात हवा में तो बहुत दिनों से उड़ाई जा रही थी. लेकिन पहली बार सार्वजनिक तौर पर ऐसा कहा गया है. कहा गया है कि मेरे नाना ने पांडुलिपि लिखी थी, मैंने वहीं से इसे ले लिया. मुझे तो अब तक पता नहीं कि मेरे कोई नाना लेखन भी करते थे. कोई ठोस प्रमाण भी तो दे और तब कहे तो ठीक भी लगता. ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखने के लिए मैंने अपने को पूरी तरह से खपा दिया. पहले दिन के नोट्स से लेकर फाइनल ड्राफ्ट तक मेरे पास है, मैं तो दिखा रही हूं. जो आरोप लगा रहे हैं, वे भी कोई प्रमाण दिखाएं. मेरी खुली चुनौती है उनको कि अगर कोई प्रमाण दे देगा तो मैं उसी दिन से लेखन छोड़ दूंगी और अपने सारे पुरस्कार भी लौटा दूंगी. जब मैंने ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखा था तब किसी आयोजन के समय श्रवण जी यह बात करते तो बात समझ में आती. लेकिन वे बेमौसमी बरसात कर रहे हैं. समझ सकते हैं मकसद क्या है!

प्रमाण थे तो आप इतने दिन चुप क्यों रहीं?
पहले तो मैं बेहद परेशान हो गई थी कि लोग मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं. लेकिन उसी परेशानी में मैं अपनी चीजों को खोज भी रही थी. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखने के दौरान बिखरे हुए कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों की भी जरूरत पड़ेगी. वे सारे पन्ने घर के किसी कोने में पड़े हुए थे. काफी मेहनत के बाद जब वे पन्ने मिले तो मैंने सबको व्यवस्थित किया और तब प्रमाण दिखाने की बात कह कर उन्हें दिखाया भी.

आपको प्रमाण देने की जरूरत ही क्यों पड़ी? क्या हर लेखक अपने लिखे का प्रमाण देगा, तभी कोई रचना प्रामाणिक मानी जाएगी?
नहीं, मैं प्रमाण नहीं दिखाती लेकिन मेरे लेखन के साथ-साथ मेरे अस्तित्व को ही नकारने की कोशिश की जा रही थी. देश के कोने-कोने से मेरे पास फोन आने लगे थे. मैं परेशान होती जा रही थी. मैं अधिक परेशानियों में उलझी नहीं रह सकती थी, क्योंकि अगले उपन्यास पर, जो बंगाल की पृष्ठभूमि पर स्त्रीप्रधान उपन्यास  होगा, काम शुरू कर चुकी हूं. एक बार दिमाग भटक जाता या उससे कट जाती तो फिर बहुत दिन लगते उसे पटरी पर लाने में. इसलिए सभी प्रमाणों को खोजा और दिखाया. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि लेखक को प्रमाण दिखाने की जरूरत है.

डॉ. गोस्वामी कह रहे हैं कि आपने उन्हें पांडुलिपि सुधारने को दी थी पर उपन्यास में उनके प्रति आभार व्यक्त नहीं किया?
मैं यह स्वीकारती हूं कि मैंने उन्हें पांडुलिपि पढ़ने को दी थी लेकिन वह आखिरी और फाइनल ड्राफ्ट था. वह भी पढ़ने को, न कि सुधार करने को. हर लेखक अपना फाइनल ड्राफ्ट कुछ शुभचिंतकों को पढ़ने को देता है. श्रवण जी ने कुछ बातें लिंग दोष वगैरह के बारे में बताई होंगी, लेकिन उन्होंने मेरी भाषा सुधारी है, तथ्यों को सुधारा है या सलाह दी है, ऐसी बात नहीं.

डॉ. गोस्वामी ने यह भी कहा है कि आप पहले मिठाई, पेस्ट्री लेकर उनके यहां पहुंचती थीं, लेकिन अब चर्चित लेखिका बनने के बाद सार्वजनिक आयोजनों में उन्हें देखकर आप मुंह मोड़ लेती हैं.
मैं आपको बता दूं. श्रवण जी की पत्नी सुरभि जागरण नामक संस्था से जुड़ी रही हैं. उसी के एक आयोजन के सिलसिले में उन्होंने पहली बार मुझे घर बुलाया था. मैं श्रवण जी के यहां पहली बार जा रही थी, इसलिए परंपरानुसार मिठाई लेकर गई. उनके यहां ही नहीं, किसी के घर भी पहली बार हम जाते हैं तो खाली हाथ नहीं जाते. रही बात अब किसी से मुंह मोड़ लेने की तो यह आरोप शायद मुझ पर कोई नहीं लगा सकता. मैं सबका सम्मान करती हूं और जितना संभव होता है सार्वजनिक आयोजनों में जाती हूं. जाहिर-सी बात है, लेखकीय काम की वजह से इसमें पहले से कमी आई है, क्योंकि अब लिखने में ज्यादा एकाग्रचित्त होना पड़ता है. इसलिए घर पर भी जब रिश्तेदार-मित्र आते हैं तो मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाती, न निजी आयोजनों में ही ज्यादा हिस्सा ले पाती हूं.

‘कहा गया है कि मेरे नाना ने पांडुलिपि लिखी थी, मैंने वहीं से इसे ले लिया. मुझे तो अब तक पता नहीं कि मेरे कोई नाना लेखन भी करते थे’

तो उन्होंने ऐसा आखिर क्यों किया? क्या कभी किसी तरह का मनमुटाव रहा है?
कभी नहीं. मैं उनका बहुत सम्मान करती हूं. आपको बताऊं कि पाखी पत्रिका में उनके लेख छपकर आने के दो दिन पहले ही फोन पर मेरी श्रवण जी से लंबी बात हुई थी. उन्होंने खुद पर लिखी हुई एक पुस्तक मेरे पास भिजवाई थी. मैंने पढ़ने के बाद उन्हें फोन किया था. मैंने उस पुस्तक के संदर्भ में उन्हें बधाई भी दी. श्रवण जी ने एक बार भी इसकी भनक नहीं लगने दी कि उनके मन में मेरे खिलाफ कुछ है या उन्होंने कुछ लिखा है.

ये बातें भी हो रही हैं कि डॉ. गोस्वामी ने यह नहीं लिखा, बल्कि उन्हें मोहरा बनाकर लिखवाया गया है. आपको क्या लगता है?
ऐसा लगता हो या नहीं लगता हो, लेकिन इसके संकेत मिल रहे हैं. श्रवण जी कभी पाखी पत्रिका में नहीं छपे थे. अचानक से छप गए वह भी बिना सामयिक संदर्भ वाले मसले पर. पाखी ने अपने रांची के एक लेखक को हाल ही में सम्मानित किया था, उनकी वहां पहुंच है. ये वही लेखक हैं जिन्होंने नया ज्ञानोदय में मेरी नई कृति ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ की समीक्षा लिखी थी और बाद में जब आकार पत्रिका में एक लेखक ने मेरे उसी उपन्यास की समीक्षा की थी तो नया ज्ञानोदय में समीक्षा लिखने वाले के प्रति धन्यवाद भी ज्ञापित किया था. आप खुद समझिए कि तार कहां से कैसे-कैसे जुड़ते जा रहे हैं लेकिन मेरे पास कोई प्रमाण नहीं, इसलिए मैं कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कह सकती.

आप कहती हैं कि देश भर से लोग आपका स्वागत करते हैं, रांचीवाले ही ज्यादा विरोध करते हैं. लेकिन गोस्वामी प्रकरण में देश भर के लेखकों ने भी आपका साथ नहीं दिया. स्थानीय लेखिकाएं भी आपके विरोध में ही जाती दिखीं.
हां, यह सच है, लेकिन मुझे कई लेखकों ने कहा कि मैं आपके साथ हूं लेकिन समर्थन में नहीं लिख सकता. एक बात तो तय है कि यदि लेखक मेरे समर्थन में खुलकर लिखते तो फिर उसे दूसरी किस्म के विवाद में ले जाया जाता और मामला ही कहीं और जाने लगता. हां, यह भी सच है कि कई लेखिकाएं मेरे विरोध में भी गईं लेकिन मैं नहीं जानती कि क्यों. मुझे तो अब यह सूचना भी मिली है कि कुछ लेखिकाएं मेरे खिलाफ नए षड्यंत्र में लगी हुई हैं और पुरुष लेखकों को भड़का रही हैं कि वे कुछ मेरे खिलाफ लिखें. असल में कुछ  लेखिकाएं वटवृक्ष की तरह बने रहना चाहती हैं. वे नहीं चाहतीं कि कोई दूसरा उभरे.

आपने कहा था कि आप डॉ. गोस्वामी पर मानहानि का मुकदमा करेंगी.
मैं तैयार हूं, लेकिन कई साथियों की सलाह और दबाव की वजह से अभी आखिरी निर्णय नहीं ले पाई हूं. वैसे मैं ज्यादा लड़ाई में नहीं पड़ना चाहती. स्वभावतः मैं शांतिप्रिय जिंदगी पसंद करती हूं. लेकिन अभी यह नहीं कह रही कि मैं मुकदमा नहीं करूंगी. अभी प्रमाण देकर सच का सच और झूठ का झूठ साबित किया है. अब उसके बारे में भी चार-पांच दिन में फैसला ले लूंगी.

इसी मसले पर मैत्रेयी पुष्पा की रायसाहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा

महुआ माजी से संबंधित हिंदी साहित्य के विवाद में चूंकि मेरा भी जिक्र आया है इसलिए मैं भी इस पर अपनी राय रखना चाहती हूं. मेरा यह कहना है कि अगर आपके साथ किसी ने थोड़ा-सा भी सहयोग किया है तो उसको क्रेडिट देना आपका फर्ज है. यह हर लेखक का फर्ज है. इस मामले में दुनिया भर के सवाल उठ रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि श्रवण कुमार गोस्वामी खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. अगर आपके व्यवहार से किसी को यह लगता है कि उसे इस्तेमाल किया गया है तो निश्चित तौर पर अपनी प्रतिक्रिया तो देगा. इस बात को तकनीकी मसलों में नहीं उलझाना चाहिए कि उन्होंने पहले आरोप क्यों नहीं लगाया या वे डायरी में यह सब क्यों लिख रहे थे. श्रवण और किसी वजह से महुआ के प्रति दुर्भावना रखेंगे यह बात मेरी समझ से बाहर है.

यह बात सही है कि अधिकांश लेखक अपनी रचनाओं की पांडुलिपि दूसरों से पढ़वाते हैं और इसमें कोई शर्माने वाली बात भी नहीं है. खुद मेरी पांडुलिपियां राजेंद्र यादव ने पढ़ी हैं. लेकिन एक बात मैं जोर देकर कहना चाहूंगी कि जो आपकी रचना पर आपके साथ-साथ मेहनत कर रहा है उसे उसका श्रेय निश्चित तौर पर मिलना चाहिए. महुआ खुद श्रवण कुमार गोस्वामी के पास अपनी पांडुलिपि लेकर गई होंगी, वे नहीं आए होंगे उनकी पांडुलिपि मांगने. इससे उन्होंने इनकार भी नहीं किया है. कथाकार संजीव से भी उन्होंने पांडुलिपि पढ़ने का अनुरोध किया था. मेरा भी अपना अनुभव रहा है.

एक दफा जब मैं रांची गई थी तो महुआ ‘मैं बोरिशाइल्ला’ की पांडुलिपि के 1000 पन्ने लेकर मेरे पास आई थीं. यह बात भी सच है कि उन्होंने एक दफा बातों-बातों में मुझसे पूछा था कि दीदी, क्या किताब में सेक्स संबंधों का चित्रण हो तो जल्दी चर्चा और प्रसिद्धि मिल जाती है. इसके जवाब में मैंने उनसे यही कहा था कि मेरी किताबों में ऐसे जो भी प्रसंग हैं वे सभी पात्रों की परिस्थितियों से उपजे हैं न कि किताब को चर्चित कराने की मानसिकता के साथ लिखे गए हैं. बहरहाल मेरा मानना है कि महुआ श्रवण कुमार गोस्वामी को उनके सहयोग का श्रेय अवश्य दें. बाकी एक साहित्यिक विवाद को अदालत ले जाने का मुझे कोई तुक समझ में नहीं आता.
(पूजा सिंह से बातचीत में)

सब्सिडी के सब्जबाग

पिछले दिनों जब यूपीए सरकार ने एक जनवरी, 2013 से कैश सब्सिडी योजना लागू करने की घोषणा की तो शायद ही किसी को इस फैसले से हैरानी हुई हो. गेमचेंजर करार दी जा रही इस योजना पर सरकार लंबे समय से विचार कर रही थी. वर्तमान सरकार का मानस समझने वाले लोग जानते थे कि आज नहीं तो कल यह होना ही है. इस योजना के तहत अगले साल एक जनवरी से 51 जिलों में 29 सरकारी योजनाओं और रियायतों (सब्सिडियों) के भुगतान सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में भेजे जाएंगे.

सरकार का कैश सब्सिडी देने का निर्णय भी उसके दूसरे हालिया फैसलों की तरह विवादों से दूर नहीं है. इस योजना को लेकर तमाम तरह के प्रश्न उठाए जा रहे हैं. सबसे बड़ी चिंता फिलहाल इस बात को लेकर है कि कैश सब्सिडी योजना का सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों पर किस तरह का असर पड़ेगा. दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कैश सब्सिडी को सही तरह से लागू कर पाना संभव है. कैश ट्रांसफर के पक्ष और विपक्ष में भी तमाम तरह के तर्क सामने आ रहे हैं.

करीब दो साल पहले सरकार के दिमाग में जब पहली बार कैश सब्सिडी देने का विचार आया तो उसने इसके लिए पहले एक प्रयोग करने की सोची. उद्देश्य था कि अगर यह प्रयोग सफल रहा तो इसे पूरे देश में लागू किया जाएगा. सरकार ने इसके लिए राजस्थान के अलवर जिले में स्थित कोटकासिम ब्लॉक को चुना. ब्लॉक की 24 ग्राम पंचायतों को केरोसीन पर कैश सब्सिडी देने की योजना बनाई गई.

यह योजना लागू होने के पहले कोटकासिम में  लोगों को पीडीएस के तहत 15 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से तीन लीटर केरोसीन राशन की दुकान से मिलता था. योजना लागू होने के बाद वह बाजार भाव पर मिलने लगा. 15 रुपये का केरोसिन 45 रुपये का हो गया. सरकार ने कहा कि बाजारा और सरकारी भाव के बीच जो 30 रुपये का अंतर है वह नकद रूप में उनके खाते में आ जाएगा. लोगों को केरोसीन बाजार भाव पर खरीदना था और सब्सिडी उनके बैंक खाते में जमा होनी थी.

‘आधार कार्ड की अनिवार्यता बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को विभिन्न योजनाओं के लाभ से वंचित कर देगी क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं है’

जिस दिन सरकार ने कैश सब्सिडी लागू करने का एलान किया, उस दिन उसने कोटकासिम को उदाहरण बनाते हुए कहा कि वहां यह योजना सफल रही है. योजना के पूरे देश में लागू करने की बात की गई और शुरुआत में इसे 51 जिलों में 29 योजनाओं पर लागू करने का एलान कर दिया गया. लेकिन सरकार ने लोगों के सामने जिस कोटकासिम की सफलता का उदाहरण पेश किया वहां अगर जमीनी स्थिति की पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि कैश सब्सिडी देने की सरकारी योजना बुरी तरह से असफल और जनता के लिए पीड़ादायक रही है. योजना लागू होने के बाद कोटकासिम में केरोसीन की खपत में 80 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी. इस गिरावट पर सरकार ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा था कि इलाके में सिर्फ 20 फीसदी केरोसीन की ही जरूरत थी, बाकी 80 फीसदी की तो कालाबाजारी हो रही थी.

लेकिन पड़ताल करने पर 80 फीसदी खपत में कमी के रहस्य से पर्दा उठ जाता है. तहलका ने इसी साल अप्रैल में एक रिपोर्ट की थी (आज नकद, कल रियायत, https://www.tehelkahindi.com/indinoo /national/1185.html) जिसमें यह पाया था कि खपत कम होने का सबसे पहला कारण तो यह था कि सरकार की सब्सिडी पाने के लिए लोगों के पास बैंक खाता होना जरूरी था. ऐसे में वे सारे लोग इस योजना से बाहर हो गए जिनके पास बैंक खाता नहीं था. जब इस योजना को लागू किया गया उस समय उस ब्लॉक में कुल 26 हजार लाभार्थी थे. इनमें से सिर्फ छह हजार के पास  बैंक खाता था. ऐसे में कैश सब्सिडी की योजना से 20 हजार लोग सीधे-सीधे बाहर हो गए. दुसरी बात यह है कि तीन लीटर केरोसीन खरीदने के लिए अब पहले के 45 रुपये की बजाय 135 रुपये की जरूरत पड़ने लगी. एक साथ इतनी रकम चुकाने की क्षमता वहां की एक बड़ी जनसंख्या के पास नहीं थी. तीसरी बात यह कि जिन लोगों के पास बैंक खाता था और बाजार भाव पर केरोसीन खरीदने की क्षमता भी, उन्होंने भी कुछ समय के बाद केरोसीन लेना बंद कर दिया. कारण यह था कि बैंक खाते में जो सरकारी सब्सिडी भेजने की बात सरकार ने की थी वह कई लोगों के खाते में पहुंची ही नहीं.

इस तरह से खपत में 80 फीसदी की कमी आने की वजहें साफ होती हैं. लेकिन सरकार ने माना कि कैश सब्सिडी देने से कालाबाजारी पर रोक लग गई और  उसे अब सिर्फ पूर्व का 20 फीसदी केरोसीन ही लोगों को देना है. इसे ही आधार बनाकर उसने देश के 51 जिलों में एक जनवरी, 2013 से और पूरे देश में अप्रैल, 2014 से कैश सब्सिडी लागू करने की बात कही है. कुछ जानकार मानते हैं कि भले ही कैश फॉर सब्सिडी वर्तमान परिस्थितियों में खुद में गलत न हो मगर यदि कोटकासिम का प्रयोग लचर क्रियान्वयन के चलते फ्लॉप रहा है तो अब जो सरकार करने जा रही है उसके परिणाम तो और भी बुरे होंगे.

सरकार की इस योजना का लाभ लेने के लिए लोगों के पास आधार कार्ड होना जरूरी है. आधार कार्ड की अनिवार्यता ने खुद इस योजना की सफलता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न लगा दिया है. इसका कारण यह है कि 2014 तक पूरे देश में कैश सब्सिडी लागू करने का ख्वाब देखने वाली सरकार ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया है कि अभी तक 120 करोड़ की देश की आबादी में से सिर्फ 21 करोड़ लोगों के पास आधार कार्ड है. ऐसे में बाकी जनता का क्या होगा.

झारखंड का रामगढ़ उन जिलों में से एक है जहां इस योजना को प्रथम चरण में ही लागू होना है. वहां के जिलाधिकारी अमिताभ कौशल से हम पूछते हैं कि उनके जिले में कितने फीसदी लोगों के पास आधार कार्ड हैं. वे बताते हैं कि सिर्फ 40 फीसदी. साफ है कि जब एक जनवरी, 2013 से यह योजना रामगढ़ में लागू होगी तो जिले के सिर्फ 40 फीसदी लोगों को इसका फायदा मिलेगा. यानी 60 फीसदी जनता तो पहली बार में ही उन सरकारी योजनाओं से बाहर हो जाएगी क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं है.

अर्थशास्त्री और आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर रितिका खेड़ा कहती हैं, ‘आधार कार्ड की अनिवार्यता बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को उन विभिन्न योजनाओं के लाभ से वंचित कर देगी जिनके वे हकदार हैं. बैंक एकाउंट को आधार कार्ड से जोड़ने की योजना के परिणाम हानिकारक होंगे.’ रामगढ़ जैसी ही स्थिति बाकी जगहों पर है. लेकिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने जब इस योजना को गेम चेंजर बताते हुए इसे लागू करने की बात की तो उस समय उनका कहना था कि जिन 51 जिलों का चयन सरकार ने किया है उनके पीछे सिर्फ एक ही आधार है कि वहां आधार कार्ड वालों की संख्या बाकी जगहों से काफी अच्छी है. 40 फीसदी आधार कार्ड होल्डरों की मौजूदगी को सरकार अगर योजना शुरू करने के आधार के रुप में स्वीकार कर सकती है तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी विकट है.

एक जनवरी से लागू होने जा रही इस योजना को लेकर सरकार ने कितनी तैयारी की है इसका खुलासा इस बात से ही हो जाता है कि सरकार ने जिन 29 योजनाओं में कैश सब्सिडी देने की बात की है उनके बारे में किसी को पता ही नहीं है. न ही आम जनता को यह पता है कि वे 29 योजनाएं कौन-सी हैं और न ही उन जिलों के अधिकारियों को इनकी खबर है जहां कैश सब्सिडी लागू की जानी है. रितिका कहती हैं, ‘स्थिति यह है कि जिन 51 जिलों में इस योजना को लागू होना है वहां के कलेक्टरों तक को नहीं पता कि यह योजना किन 29 स्कीमों में लागू होगी.’ सरकारी तैयारी की पोल योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया के उस बयान से भी खुलती है जिसमें वे कहते हैं कि सरकार उन जिलों के जिला अधिकारियों से वीडियो कॉफ्रेंसिंग से बात करेगी जहां यह योजना लागू होनी है. बकौल मोंटेक, ‘हम अधिकारियों से बात करके जानने की कोशिश करेंगे कि उनके जिले में इस योजना को लागू करने के लिए बुनियादी ढांचा मौजूद है या नहीं. अगर नहीं तो फिर क्या उन्हें और कुछ समय चाहिए.’योजना में कुछ नया नहीं है. यह सिर्फ रीपैकेजिंग है. कहा जा रहा है कि यह पेंशन और स्कॉलरशिप में लागू होगी. इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां तो कैश ट्रांसफर पहले से ही है -रितिका खेड़ा, अर्थशास्त्र

मोंटेक का यह बयान बताता है कि कैसे सरकार ने राजनीतिक कारणों के चलते बिना किसी तैयारी के इतनी बड़ी योजना लागू करने की न सिर्फ सोची बल्कि उसके लिए तारीख भी तय कर दी. जिलाधिकारियों से जो बात योजना बनाने के समय की जानी चाहिए थी वह बात न सिर्फ योजना बनाने के बाद बल्कि योजना लागू होने की तिथि से 15 दिन पहले की जा रही है.

रिपोर्टों के मुताबिक कई बैंकों ने कैश ट्रांसफर के लिए जरूरी तकनीक अपने पास न होने के कारण सरकार की यह योजना एक जनवरी से लागू कर पाने में अपनी असमर्थता जताई है. पेट्रोलियम सचिव जीसी चतुर्वेदी ने खुद अपने बयान में इस बात को रेखांकित किया है कि कैश सब्सिडी को लागू कर पाना बेहद कठिन होने वाला है. चतुर्वेदी के मुताबिक जिन 51 जिलों का चयन इस स्कीम के लिए किया गया है उनमें से सिर्फ 20 जिलों की 80 फीसदी या उससे ज्यादा जनता के पास आधार कार्ड मौजूद है.

उचित मूल्य की दुकानों ने भी सरकार द्वारा कैश सब्सिडी देने के निर्णय का विरोध किया है. ऑल इंडिया फेयर प्राइस डीलर फेडरेशन के सदस्य किरन पाल सिंह त्यागी के मुताबिक अगर इसे लागू किया गया तो देश के लगभग छह लाख 13 हजार राशन दुकानदार इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे.’ राजस्थान का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘कैश सब्सिडी लागू होने के बाद केरोसीन के दाम बढ़ने से स्थिति यह हो गई है कि लोगों ने केरोसीन लेना बंद कर दिया. डीलर एडवांस पैसा जमा करके जो केरोसीन लाए थे वह ऐसे ही पड़ा रहा. डीलर की एक रुपए की भी आमदनी नहीं रही. ‘मगर जब राशन की दुकान चलाने वालों से यह सवाल किया जाता है कि क्या उनके द्वारा की गईं तमाम तरह की गड़बड़ियां ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं तब इस बात का कोई साफ जवाब सामने नहीं आता.

कुछ लोग हड़बड़ी में लिए गए सरकार के इस निर्णय के पीछे गुजरात चुनावों को कारण मानते हैं. हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी सरकार की इस योजना तथा उसके लागू होने की संभावनाओं को लेकर बेहद आशान्वित हैं. वे कहते हैं, ‘भले ही इस योजना को लेकर तमाम तरह के प्रश्न उठाए जा रहे हैं लेकिन यह योजना एक जनवरी से बिलकुल सही ढंग से सभी 51 जिलों में लागू होगी. सरकार ने इसकी पूरी तैयारी कर ली है.’  एक पल के लिए सभी तर्कों को उलट कर यह मान भी लिया जाए कि बुनियादी तैयारी में जो भी कमी है वह ठीक हो जाएगी तो क्या यह योजना लोगों के लिए लाभदायक साबित होगी? इस पर जानकारों के मत विभाजित हैं. रितिका खेड़ा कहती हैं, ‘इस योजना में कुछ भी नया नहीं है. ये सिर्फ रीपैकेजिंग की जा रही है. सरकार ने अभी तक बताया नहीं है कि वह किन 29 स्कीमों में इसे लागू करने जा रही है. संभावना ये जताई जा रही है कि इसे पेंशन और स्कॉलरशिप में भी लागू किया जाएगा. अगर ऐसा होता है तो इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां तो कैश ट्रांसफर पहले से लागू है. कैश ट्रांसफर की हकीकत जानने के लिए हमें कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है. कोटकासिम का उदाहरण सामने है. इसके अलावा जिन योजनाओं में कैश ट्रांसफर की व्यवस्था है वे कितनी सफल हैं बताने की जरूरत नहीं.’

ऐसी भी संभावना जताई जा रही है कि कैश सब्सिडी की व्यवस्था अगर सही तरह से लागू हो भी गई तब भी इसके दुरुपयोग की आशांका बनी रहेगी. पैसा बैंक से मिलेगा. बैंक जाने का काम लगभग सभी ग्रामीण परिवारों में पुरुष करते हैं. ऐसे में उन परिवारों में जहां पुरुष शराब और अन्य गलत आदतों के शिकार हैं,  स्थिति यह हो सकती है कि वे बैंक से मिलने वाले पैसे का दुरुपयोग करें. यह भी संभावना है कि अगर महिला इसका विरोध करती है तो उसे इस कारण पुरुष प्रताड़ना का शिकार होना पड़े. खेड़ा कहती हैं, ‘हमने एक अध्ययन किया था. हमने लोगों से पूछा कि क्या उन्हें कैश स्वीकार है. दो तिहाई लोगों का जवाब था नहीं. हमें राशन चाहिए. कैश नहीं.’

हालांकि अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला इस योजना के सही होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं. वे कहते हैं, ‘देश के लोग मूर्ख नहीं हैं. वे जानते हैं कि उन्हें जो पैसा मिलेगा उससे उन्हें क्या करना है. लोग सब्सिडी के पैसे का सदुपयोग ही करेंगे. यह सरकार द्वारा बिल्कुल सही दिशा में उठाया गया कदम है.’ वे जन वितरण प्रणाली की खामियों को भी इस योजना के पक्ष में हमारे  सामने रखते हैं. एक तरफ लोग जहां इस योजना के लागू होने तथा उसके प्रभाव को लेकर सशंकित हैं वहीं दूसरी तरफ लोग इस बात पर भी चर्चा कर रहे हैं कि शायद यह विभिन्न प्रकार की कल्याणकारी योजनाओं के अंत की शुरुआत की तरफ सरकार का पहला कदम है. ऐसा भी कहा जा रहा है कि सरकार राशन और तमाम सुविधाएं बंद करके एकमुश्त राशि देने के प्रस्ताव पर भी विचार कर रही है.

भानुमती का कुनबा

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) रांची के दफ्तर में काफी वक्त गुजारने के बाद जब हम सीढ़ियों से नीचे उतर रहे होते हैं तो दिव्या (बदला हुआ नाम) मिलती हैं. उनका यह मिलना अनायास नहीं लगता. शायद वे पहले से ही हमारे निकलने का इंतजार कर रही हैं. दिव्या कहती हैं, ‘मुझे पता है कि आप मीडिया से हैं, यह नहीं मालूम कि यहां आप क्या मालूम करने आई थीं और क्या-क्या पता करके जा रही हैं, लेकिन एक बात मैं भी कहना चाहती हूं. आईआईएम में दाखिले के लिए मैंने कमरतोड़ मेहनत की थी. भारत में सबसे मुश्किल एंट्रेंस टेस्ट्स में से है आईआईएम का टेस्ट. इतनी मेहनत के बाद सफलता मिली तो सोचा था कि कुछ दिनों तक अच्छे से कैंपस लाइफ गुजारेंगे. बाद में तो मैनेजमेंट की नौकरी टेंशन में ही गुजरने लगती है. लेकिन यहां रांची आईआईएम में कैंपस लाइफ क्या खाक गुजारेंगे? इससे ज्यादा कैंपस जैसा माहौल तो स्कूल में ही लगता था.’ दिव्या आगे बताती हैं, ‘संस्थान में पढ़ाई को लेकर कोई शिकायत नहीं. लेकिन हम कोई बच्चे तो हैं नहीं कि सिर्फ पढ़ें और फिर होमवर्क पूरा कर अगले दिन स्कूल पहुंच जाएं. पढ़ाई के बाद कुछ देर रिलैक्स करने की जगह तो चाहिए, लेकिन यहां तो सीधे क्लासरूम में पहुंचते हैं या फिर वहां से निकलने के बाद हॉस्टल के बंद कमरे में.’

दिव्या आईआईएम से निकलते हुए जिस सीढ़ी पर हमसे मिलती हैं वह सूचना एवं जनसंपर्क कार्यालय पहुंचने की भी सीढ़ी है, जहां दिन भर लोगों का आना-जाना लगा रहता है. दरअसल रांची में किसी स्थायी भवन के अभाव में फिलहाल आईआईएम सूचना भवन में ही चल रहा है. आते-जाते हुए लोगों को दिखाते हुए दिव्या कहती हैं, ‘दिन भर यहां इसी तरह आते-जाते रहते हैं लोग, हमें कई बार लगता है कि हम आईआईएम जैसे संस्थान के ही छात्र हैं या थोक में खुले उन प्राइवेट मैनेजमेंट संस्थानों में से किसी एक के जो हर शहर में  किराये के किसी फ्लोर पर चलते मिल जाएंगे.’

दिव्या अकेली नहीं हैं जिन्हें शिकायत है. आईआईएम रांची में पढ़ रहे कई छात्रों से बात करने पर अपना कैंपस न होने को लेकर उनकी नाराजगी साफ दिखती है. हालांकि कैंपस निर्माण पर जिस तरह राजनीतिक फुटबॉल खेला जा रहा है उसे देखते हुए यह तय है कि दिव्या या उनके बाद आने वाले कुछ और बैचों के छात्र-छात्राओं को इसी तरह की परेशानियों से दो-चार होना पड़ेगा.

फिलहाल आईआईएम राजधानी रांची के सूचना भवन में मिली 30 हजार वर्गफुट की जगह में चल रहा है. इसी जगह में संस्थान का प्रशासनिक कार्यालय है और कक्षाएं भी यहीं से संचालित हो रही हैं. छात्र-छात्राओं के लिए दो हॉस्टल अलग हैं जिनमें एक तो पास में है लेकिन दूसरा शहर से बाहर राष्ट्रीय खेल के लिए बने खेलगांव परिसर में है. यहां से आने-जाने में ही छात्रों को रोजाना घंटे भर से ज्यादा समय लग जाता है.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों देश का यह प्रतिष्ठित संस्थान झारखंड में आने के बाद महत्वहीन-सा बनकर एक कोने में सिमट कर रह गया है. इसके लिए नगड़ी से जुड़े विवाद को समझना होगा. वही नगड़ी जो रांची से सटा एक छोटा-सा कस्बा है लेकिन पिछले एक साल से ज्यादा समय से राष्ट्रीय सुर्खियों में जगह बना रहा है. जब-जब नगड़ी की चर्चा हुई या होती है तो साथ में आईआईएम, ट्रिपल आईटी और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों का नाम भी लिया जाता है. दरअसल नगड़ी में जमीन अधिग्रहण को लेकर सरकार और किसानों में टकराव चल रहा है और इस टकराव की जड़ में इन्हीं संस्थानों का निर्माण है. इस वजह से आईआईएम दो साल से रांची में चल रहा है. किस हाल में चल रहा है उसका अंदाजा दिव्या की बातों से लगाया जा सकता है.

राज्य सरकार अब तक इस संस्थान के लिए दो बार स्थान बदलकर अब तीसरी जगह का नाम हवा में उछाल चुकी है. उधर, केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को पत्र के जरिए घुड़की दी है कि अगर वह एक अदद जगह सुनिश्चित नहीं कर सकती तो संस्थान को कहीं और ले जाया जा सकता है. रांची आईआईएम के भवन के लिए आवंटित 20 करोड़ रुपये रोहतक आईआईएम को ट्रांसफर करने की भी बात हो रही है. हालांकि 19 दिसंबर को देश में नए बने छह आईआईएम के भवन निर्माण की स्थिति पर दिल्ली में बैठक होनी है. बताया जा रहा है कि आखिरी निर्णय उसी समय होगा. राज्य के शिक्षा मंत्री बैजनाथ राम कहते हैं, ‘राज्य सरकार आईआईएम को लेकर गंभीर है और नामकुम में इसका निर्माण होगा. सरकार अपने स्तर पर हरसंभव सहयोग करेगी.’

 केंद्र और राज्य के बीच शुरू हुई इस नई खींचतान और अब तक राज्य सरकार की बेपरवाही का आगे नतीजा जो निकले, फिलहाल यह एक असर तो साफ दिख ही रहा है. वह यह कि कमरतोड़ मेहनत करके देश के कोने-कोने से सुनहरे सपनों के साथ रांची पहुंचे छात्र पेंडुलम की तरह इधर-उधर डोलते नजर आ रहे हैं. फिर सवाल वही कि आखिर देश में प्रतिष्ठित संस्थानों में शुमार आईआईएम का केंद्र रांची में ऐसे ही कितने दिनों तक और चलता रहेगा. क्या इसका कोई ठोस समाधान शीघ्र निकलेगा? आईआईएम के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर कहते हैं, ‘अब सरकार रांची से ही सटे नामकुम में जमीन देने को कह रही है, लेकिन कैसे यकीन करें कि वहां भी जमीन और कैंपस का सपना हकीकत में बदल जाएगा?’ जेवियर आगे कहते हैं, ‘शुरू से ही हमें सिर्फ स्थान बदल-बदलकर जमीन ही दिखाई जाती रही है.’

जेवियर जो कहते हैं वह बहुत हद तक सही भी है. जब रांची में आईआईएम खुलने की बात हुई थी तो तय हुआ था कि यह रांची से सटे खूंटी में खुलेगा, राज्य सरकार की ओर से वहीं जमीन दी जाएगी. यह भी फैसला हुआ था कि राष्ट्रीय खेल के आयोजन के बाद खेलगांव स्थित प्रशासनिक भवन को भी संस्थान के हवाले किया जाएगा. लेकिन हुआ कुछ नहीं. बाद में बात चली कि आईआईएम को रांची के दूसरे हिस्से नगड़ी में खोला जाएगा. सरकार ने करीब 214 एकड़ जमीन देने का एलान किया. बाद में 137 एकड़ जमीन वापस लेने का फैसला किया गया. बाकी बची जो जमीन आईआईएम को मिली भी उस पर भी बवाल हो गया. इस बीच आईआईएम सूचना भवन में चलता रहा. इस साल फिर सरकार ने कहा कि अगर आईआईएम चाहे तो उपायुक्त कार्यालय के नए भवन में एक जगह ले सकता है लेकिन आईआईएम बोर्ड ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया. ऐसा करने की ठोस वजहें भी थीं. आखिर सूचना भवन में क्लासरूम, उपायुक्त कार्यालय में प्रशासनिक भवन, खेलगांव में हॉस्टल… आईआईएम जैसे संस्थान का संचालन इतने बिखराव के साथ व्यावहारिक तौर पर संभव भी नहीं लगता.
कैंपस और दूसरे शब्दों में कहें तो उपयुक्त और पर्याप्त जगह नहीं होने से सिर्फ कैंपस के माहौल की ही कमी नहीं खल रही. जेवियर कहते हैं, ‘ हम कई नए कोर्स शुरू करना चाहते हैं लेकिन जगह ही नहीं तो कैसे होगा. अब इसके लिए हमारे पास एक ही विकल्प है कि अगले साल से हम दूरस्थ शिक्षा शुरू करें, जिसके लिए चीन, बोस्टन आदि यूनिवर्सिटियों से समझौते हो रहे हैं. वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही बेहतर से बेहतर कोर्स चलाने की कोशिश करेंगे. इसका लाभ भी हमें मिलेगा.’

संभव है अगले साल से आईआईएम रांची में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नए कोर्स शुरू भी हो जाएं. समय की मांग के अनुसार इनसे विद्यार्थी जुड़ें भी और आईआईएम कहीं और न जाकर रांची में ही इसी हाल में चलता रहे. लेकिन यह समझ से परे है कि आखिर क्यों आईआईएम जैसा संस्थान राज्य में आने पर भी  सरकार उसके प्रति गंभीर नहीं है जबकि दूसरे राज्य अपने यहां ऐसे संस्थान लाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं. जेवियर राज्य सरकार के गैरपेशेवर रवैये को दोष देते हैं. हालांकि वे यह भी जोड़ते हैं कि गठबंधन सरकारों के राज में ऐसा होना कोई अजूबा भी नहीं.

आईआईएम रांची के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर से अनुपमा की बातचीतआईआईएम रांची के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर

आईआईएम को चलाने में किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है?
देश में पहली बार यह प्रयोग हुआ है कि इतने छोटे शहर में आईआईएम खुला है. छोटे शहरों की अपनी परेशानियां होती हैं. रांची आईआईएम में फैकल्टी को प्रति घंटे पढ़ाने के लिए आठ हजार रुपये अदा किए जाते हैं, जबकि अन्य जगहों पर यह शुल्क लगभग चार हजार के करीब ही है. रांची की दूरी ज्यादा है और यहां आवागमन के साधन भी उस तरह से नहीं हैं. फैकल्टी को यहां आने में ज्यादा समय देना पड़ता है. कम पैसा देने पर वे आने को तैयार नहीं होंगे. तो बेहतर शिक्षा कैसे मिलेगी? दूसरी समस्या संरचना का अभाव और स्थान की कमी है. हमें अब जाकर सूचना भवन में 30 हजार वर्ग फुट की जगह मिली है वह भी काफी मिन्नत-मनुहार करने के बाद. देश के अन्य आईआईएम की तुलना में यह बेहद कम जगह पर चलाया जा रहा है, जिसमें से अधिकांश स्थान दफ्तर व विभागीय कार्य के लिए है. कक्षाएं तो मात्र छह हैं. उनमें भी तीन ही बड़ी हैं. कई कोर्स हम इन्हीं सब दिक्कतों के कारण शुरू नहीं कर पा रहे हैं. शुरुआती दौर में तो हास्टल तक नहीं मिल पा रहा था. पर अब संस्थान से बहुत दूर खेलगांव में हमें मिल गया है. यह एक ही कैंपस में होना चाहिए था.

नई लोकेशन पर जाने की बात हो रही है. कहां जाएंगे आप?
हमें कई बार जगह दिखाई गई और हर बार फिर स्थान बदला जाता रहा. हमें नगड़ी में भी 227 एकड़ जमीन मिलने की बात की गई पर वहां के लोग जमीन देना नहीं चाहते. वहां पिछले कई महीनों से व्यापक आंदोलन चल रहा है. हमारे मन में भी किसानों के प्रति संवेदना है कि उनकी जमीनों पर जबरन आईआईएम न बने. सरकार हमें कोई और जगह दे दे. लेकिन समस्या यह है कि सरकार बहुत धीमी गति से चलती है और बिल्डिंग व इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि के लिए जो पैसा दिया है वह बहुत जल्दी लैप्स हो जाएगा. एक बार हमें जगह मिल जाएगी फिर हम बेहतर तरीके से काम कर सकेंगे.

आपको रांची के डीसी ऑफिस में तो जगह दी जा रही थी. वहां क्यों नहीं गए?
वह जगह भी अमूमन इतनी ही है. हम तो सूचना भवन में ही एक और तल्ले की मांग कर रहे थे. हम डीसी ऑफिस चले भी जाते लेकिन बोर्ड इसके लिए राजी नहीं था. वहां भी जगह ले लेने से प्रशासन और संचालन का जिम्मा दो जगहों पर हो जाता, फिर और ज्यादा परेशानी होती. सरकार सूचना भवन को डीसी ऑफिस में ले जाए या डीसी ऑफिस ही इधर आ जाए तो हमें एक बिल्डिंग मिल जाती. लेकिन इसमें सरकार को दोष नहीं दूंगा. सरकार ने अपनी ओर से कोशिश की. विभागीय लोग ज्यादा जिम्मेवार हैं.

क्या आपको लगता है कि सरकार सहयोग नहीं कर रही?
यहां पर गठबंधन की सरकार है. गठबंधन की सरकारें बहुत ही आंतरिक दबावों में चलती हैं और उनकी प्राथमिकताएं अलग होती हैं. उनके लिए आईआईएम जैसे एक संस्थान का संचालन महत्वपूर्ण नहीं हो सकता.

इन सबकी वजह से पढ़ाई पर तो प्रतिकूल असर पड़ रहा होगा.
हां, यह सच है लेकिन चंद लोगों की शिक्षा पर असर पड़ रहा है. वह भी खास और पैसे वाले लोगों पर. यदि मैं राज्य का मुख्यमंत्री होता तो मेरे लिए भी यह बहुत मायने नहीं रखता. राज्य के लिए कई दूसरे कार्य ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. आप फिर सवाल कर सकती हैं कि राज्य में आईआईएम का होना गर्व की बात है और इससे राज्य की साख बनती है. लेकिन यहां से पढ़ने के बाद शायद ही कोई होगा जो राज्य में रहकर राज्य के विकास की बात करेगा. यहां बड़े उद्योग भी नहीं हैं इसलिए अधिकांश छात्र बाहर ही जाएंगे. हम इसके लिए बेयर फुट मैनेजर प्रोग्राम आदि शुरू कर रहे हैं ताकि यहां पर राज्य के विकास में बच्चों की सहभागिता हो. समस्या सिर्फ इतनी भर है कि सरकार में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है. जगह नहीं दे सकते तो साफ ना कर दें. दो साल से अलग-अलग जगहों को बदलते रहने का क्या मतलब? अपनी बात पर कायम रहना चाहिए. पहले खेलगांव में प्रशासनिक भवन देने की बात हुई थी. फिर मना कर दिया गया. फिर खूंटी में जमीन देने को कहा हम तब भी तैयार हो गए. फिर नगड़ी में कहा और अब नामकुम कह रहे हैं, अब आगे क्या होगा, पता नहीं!

तो आपको आश्वासन मिलते रहे और आप मानते रहे.
नहीं, यह कोरा आश्वासन होता तो कोई बात नहीं थी. यह सब हमें लिखित दस्तावेज के रूप में सौंपा गया है. यदि बयानबाजी होती तो और बात थी. केंद्र सरकार से ये समझौता होता रहा तो हमें मानना ही था.

यह बात भी उछल रही है कि रांची आईआईएम दूसरे राज्य में भी जा सकता है
हां, यह सच है कि केंद्र सरकार ने मुख्यमंत्री को एक नोटिस भेजा है कि यदि जल्द से जल्द आईआईएम के लिए स्थान नहीं दिया गया तो वह इसे हटा कर दूसरे राज्य यानी बिहार में भेज देगी लेकिन आज तक आईआईएम के इतिहास में ऐसा हुआ नहीं है. इसे घुड़की या दबाव की राजनीति कह सकती हैं और यह केंद्र और राज्य सरकार, दोनों को पता है.