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विस्तार है अपार

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वासंती, 40 साल
28 नवंबर, 2012; रात 12.00 बजे, नई दिल्ली
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आज प्रशांत ने शादी के लिए प्रपोज किया. मेरी उंगलियां कांप रही हैं, विश्वास ही नहीं होता कि यह सब सच में हो रहा है. मैं तो उम्मीद छोड़ चुकी थी. जैसे ही 40 की उम्र में फिर से शादी करने का ख्याल आता, मैं सोचने लगती कि फिर से उन्हीं झंझटों में पड़ने का क्या फायदा? फिर से किसी को उतनी ही शिद्दत से प्यार करो, उसका घर बसाओ, उसकी पसंद-नापसंद से प्यार करो और फिर वही लड़ाइयां! फिर लगता था, लोग क्या कहेंगे? चाची ने तो ताना देते हुए कहा भी था, ‘बुढ़िया हो गई हैं और ब्याह करेंगी ! एक शादी तो निभाई नहीं गई इनसे.’ लेकिन प्रशांत को विश्वास है कि हम एक नई जिंदगी शुरू कर सकते हैं. और सच कहूं तो कहीं न कहीं मैं खुद भी अपने आप को एक दूसरा मौका देना चाहती हूं. प्रशांत के आने के बाद मैं बहुत खुश रहने लगी हूं और मुझे नहीं लगता कि खुश रहना कोई अपराध है. दिबाकर ने भी तो अपनी खुशी के लिए मुझे छोड़ा था ! जब वो कंपनी की तरफ से दो साल के लिए अमेरिका जा रहा था तब मैंने कितनी जिद की थी साथ जाने की.

तब मैं 25 साल की थी और हमारी नई-नई शादी हुई थी. मुझे अजीब लगता था उसका व्यवहार. उसमें हमारी शादी को लेकर शुरू से कोई उत्साह नहीं था. मैंने पहले दिन ही महसूस कर लिया था कि उसका झुकाव नम्रता की तरफ था. नम्रता उसके दफ्तर में उसके साथ काम करती थी. फिर जब वो अमेरिका गया तो चीजें धीरे-धीरे साफ होने लगीं. वो मुझे वहां से फोन भी नहीं करता था. तंग आकर छह महीने बाद मैं खुद ही उससे मिलने पहुंच गई. मेरी जिंदगी का सबसे  काला दिन था वो. नम्रता उसके कमरे में थी. जलन और तकलीफ से मेरा पूरा शरीर जैसे कराहने लगा था. दिबाकर को किसी और से प्यार था, इस पर शायद मुझे उतनी आपत्ति नहीं थी जितनी उसके झूठ से थी. मैंने पूछा था कि उसने मुझे सच क्यों नहीं बताया? हम शादी ही नहीं करते या अलग हो जाते!

कम से कम मुझे इतनी तकलीफ से तो नहीं गुजरना पड़ता. पता चला कि उसने अपनी मां की खुशी के लिए मुझसे शादी की और अपनी खुशी के लिए नम्रता के साथ अमेरिका चला गया. वो तो शुक्र है कि मैंने उससे जल्दी तलाक ले लिया और करियर पर ध्यान देना शुरू किया. उस वक्त शादी टूटने के लिए घर में सबने मुझे ही दोषी ठहराया था. आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि अगर मैंने आगे पढ़ने की जिद न की होती और अपनी पढ़ाई को फंड करने के लिए उस पब्लिशिंग हाउस में पार्ट-टाइम नौकरी न की होती तो क्या होता? घर पर पड़े-पड़े सबके ताने सुनती और अपनी किस्मत को कोसती? एक ऐसे बेरीढ़ आदमी के लिए जिसमें सच कहने और सुनने की हिम्मत और ईमानदारी ही नहीं है?

प्रशांत के आने के बाद मैंने जिंदगी को नए नजरिये से देखना शुरू किया है. मजबूत तो मैं थी ही लेकिन प्रशांत के आने से मुझे अपने अंदर पानी महसूस होता है, वही नमी जो इतने सालों के संघर्ष से शायद सूख गई थी. अब मुझे लगता है कि 40 साल की उम्र में शादी करने में कोई बुराई नहीं है. कुछ लोगों को अपना सही साथी जल्दी मिल जाता है, वो खुशकिस्मत होते हैं. लेकिन कुछ लोग मेरे जैसे भी होते हैं जिन्हें जिंदगी के दूसरे या तीसरे पड़ाव में अपना सही साथी मिलता है. प्यार की उम्र नहीं होती और हर उम्र के इंसान को प्यार करने और खुश रहने का उतना ही हक है जितना किसी नौजवान को ! जब मैं 35 की हुई थी तब अचानक परेशान रहने लगी थी. पागलों की तरह हर 10 मिनट में अपना चेहरा देखती. कहीं झुर्रियां तो नहीं आ रहीं? बाल सफेद हो रहे हैं क्या? क्या अब टी-शर्ट्स मुझ पर अच्छी नहीं लगतीं? क्या अब मैं सुंदर नहीं लगती?  फिर मैंने अपने काम पर और ध्यान देना शुरू किया. खाली वक्त में मैं पढ़ती, घूमने जाती और फिल्में देखती. मैंने कई नई भाषाएं भी सीखीं. जर्मन , फ्रेंच और इटालियन. डांस का शौक था सो डांस क्लासेज में दाखिला लिया. धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा. ऑफिस में सब मेरा बहुत आदर करते हैं. नए बच्चे अपनी दिक्कतें पूछने मेरे ही पास आते हैं.

फिर प्रशांत से मिलना हुआ. वो मुझे बहुत प्यार करता है, मेरा सम्मान करता है. उसने मुझे मेरी बढ़ती उम्र, मेरे तलाक और मेरी कमियों के साथ प्यार किया और मैंने भी. हम एक-दूसरे को कविताएं पढ़कर सुनाते हैं, घर में मिलकर खाना बनाते हैं और कभी कभी मस्ती करने डिस्को भी चले जाते हैं. अब जीवन में एक अजीब-सा साम्य महसूस होता है. ऐसा नहीं है हमारे बीच  कभी लड़ाई नहीं होती. लेकिन शायद हम दोनों ने जिंदगी में इतना दुख झेला है कि ‘साथ’ का मूल्य समझ में आ गया है. और यह भी कि कोई भी रिश्ता प्रेम से ज्यादा समर्पण से चलता है. जिंदगी के बाकी हिस्सों की तरह जवानी सिर्फ एक हिस्सा है. सबसे जरूरी बात जो मुझे इतने सालों बाद समझ में आई वह यह थी कि एक सुंदर स्त्री होने से ज्यादा जरूरी एक सुंदर, ईमानदार, स्नेहिल और करुणामय इंसान होना है. 

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निकिता, 45 साल
29 नवंबर, 2012; शाम 5.00 बजे, नागपुर
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आज दोपहर ही भोपाल से नागपुर पहुंचे. मेरा और बिट्टू का टिकट तो कन्फर्म था लेकिन राकेश का वेटिंग क्लीयर नहीं हो पाया. रास्ते भर बिट्टू सोता रहा और हम दोनों बतियाते रहे. आज किसी भी हालत में नागपुर पहुंचना ही था. कल सुबह नेहा को देखने लड़के वाले आ रहे हैं न, इसलिए. बात तो पहले ही पक्की हो चुकी है. वो तो लड़का एक बार नेहा से मिलना चाहता था इसलिए कल ये देखने-दिखाने का नाटक होने वाला है. राकेश जानते हैं कि मैं इस रिश्ते से खुश नहीं हूं क्योंकि नेहा खुश नहीं है. अभी पिछले महीने ही तो उसने राघव के बारे में घर में सबको बताया था. मुझे तभी अंदाजा हो गया था कि घरवाले राघव के लिए राजी होने से रहे, उल्टा अब नेहा को जल्दी से जल्दी किसी भी खूंटे से बांधकर भठियाने की तैयारी होने लगेगी. राघव अच्छा लड़का है लेकिन जाति से ठाकुर है. ऐसा पहाड़ टूट पड़ा जैसे उस बच्ची ने किसी का खून कर दिया हो! जब नेहा ने आगे जिद की तो घरवाले उसे गालियां देने लगे और सुरेश तो उसके साथ मार-पीट करने लगा ! मैं तो सन्न रह गई थी अपने घर के आदमियों का यह रूप देखकर!   

नेहा भले ही सुरेश की बेटी हो लेकिन मैंने उसे अपनी बच्ची की तरह पाला है. 25 साल पहले जब मैं इस घर में ब्याह कर आई थी तो सुरेश कितना छोटा था! फिर मेरे ही सामने उसका ब्याह हुआ और विनीता घर आई. फिर देखते ही देखते नेहा और सिद्धांत का जन्म भी हो गया.पहले नेहा. और उसके बाद सिद्धांत. इन बच्चों के आने पर मेरे बिट्टू और गुड़िया भी कितने खुश हुए थे! छोटी सी गुड़िया उछलते हुए अपने सुरेश चाचा के घर आए नए भाई-बहन का नाम रटती रहती . मां और बाबा भी निश्चिंत हो गए थे. हालांकि जब पहले मेरी गुड़िया हुई और विनीता ने नेहा को जन्म दिया तो मां- बाबा बहुत नाराज रहते थे. वे अपनी दोनों बहुओं से पोतों का मुंह दिखाने की उम्मीद लगाये बैठे थे और हम दोनों ने ही एक-एक करके बेटियों को जन्म दे दिया. नेहा के जन्म पर तो मां इतनी नाराज हुई थीं कि विनीता को देखने अस्पताल भी नहीं आईं! विनीता आज भी उस अपमान और पीड़ा को नहीं भूल पाई है. खैर, बाद में मैंने बिट्टू और विनीता ने सिद्धांत को जन्म दिया. घर में दो लड़कों की पैदाइश के बाद कहीं जाकर मां-बाबा का सूजा हुआ मुंह ठीक हुआ था. लेकिन मैं और विनीता कभी उस उपेक्षा और अपमानजनक बर्ताव को नहीं भूल पाए जो हमारी बेटियों के जन्म के वक्त हमारे साथ किया गया था. मुझे याद है, गुडिया की डिलीवरी के तीन दिन बाद जब मैं डिसचार्ज होकर घर आई थी तो मां मुझे लेने दरवाज़े तक भी नहीं आयीं थी. तब मेरे टांके भी नहीं खुले थे. मैं चुपचाप अपने कमरे में गई और गुड़िया को पुरानी लेवनी पर सुला दिया. फिर खुद ही पानी गर्म करके नहाई और गुड़िया को भी स्पंज किया. चक्की में गेहूं दरदरा कर उसका दलिया बनाकर पकाया और चुप-चाप सो गई. एकदम आटे की तरह सफेद लड़की थी ! गोमटोल और प्यारी. लेकिन दादी उसका चेहरा देखने तक नहीं आई क्योंकि उसे पोता चाहिए था.

खैर, मैंने और विनीता ने लड़-झगड़ कर इन लड़कियों को उनकी शिक्षा का अधिकार तो दिलवा दिया लेकिन अब आगे का रास्ता उन्हें खुद तय करना होगा. मां-बाबा कितना चिल्लाते थे लड़कियों को कॉन्वेंट में डालने पर ! पूरा घर सर पर उठा लिया था कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए इतना पैसा क्यों खर्च कर रहे हो…इन्हें पढ़ाने का क्या फायदा..शादी के लिए पैसे बचाओ.और वही पुरानी बकवास…लेकिन हमने तय कर लिया था कि दोनों बेटियों को कम से कम पोस्ट-ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई तो जरूर करवाएंगे. गुड़िया को मैथ्स में रुचि थी. सो उसने मैथ्स में मास्टर्स किया और नेहा ने तो पहले ही एडवरटाइजिंग में जाने का मन बना लिया था. वहीं उसकी मुलाकात राघव से हुई थी. लेकिन उस रात सुरेश ने जिस तरह नेहा को मारा, उसके लिए मैं उसे कभी माफ नहीं करूंगी. सुरेश या राकेश ही क्यों? जब मां-बाबा अपनी ही पोती को कुलच्छिनी, कुलटा और बेशर्म कह रहे हो तो मैं उनके बेटों से क्या उम्मीद करूं? .

और उसी रात से नेहा को जल्दी से जल्दी ‘निपटाने’ की तैयारियां शुरू हो गईं. उसका घर से बाहर निकलना बंद हो गया. तय किया गया कि जो भी पहला रिश्ता आएगा उसी से बात पक्की कर अगले महीने ही ब्याह कर दिया जाएगा. लेकिन मैं ऐसा होने नहीं दूंगी. मैं, गुड़िया और विनीता मिलकर नेहा की शादी राघव से करवा देंगे. हो सकता है, ऐसा करने पर हमारे अपने पति हमें पीटें या शायद हमें घर से भी निकाल दें. लेकिन हम फिर भी नेहा और राघव की शादी करवाएंगे. हमारे बच्चों की खुशियां किसी ऐसे कमजोर समाज की जाति आधारित फंतासियों की संतुष्टि के लिए बलि नहीं चढ़ेंगी जिनकी जाति और धर्म उन्हें उनकी पत्नियों और बेटियों को पीटना, गाली देना और उनके साथ बदसलूकी करना सिखाता है. 

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तारा, 48 साल
30 नवंबर, 2012; सुबह 9.00 बजे, बडवानी
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मुझे बहुत गिल्टी फील हो रहा है. अगर मैं जिद करके अनीता को इंदौर ले गई होती तो शायद आज वो जिंदा होती. उसने कह दिया कि सब ठीक है और मैंने मान भी लिया. कितनी बड़ी बेवकूफी थी ! लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसके घरवाले उसे नौ महीने की गर्भावस्था में किसी शादी में शामिल करवाने गांव ले जाएंगे. मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. जब उसके तीन महीने पूरे हुए थे तभी से मैंने उसे काम पर न आने की सख्त हिदायत दे दी थी.

मुझे याद है उसने रोते हुए कहा था, ‘मैडमजी, मैं धीरे-धीरे झाड़ू-पोंछा कर लूंगी…बर्तन भी धो दूंगी. अभी तो मैं कम से कम तीन महीने और आराम से काम कर सकती हूं. आप मुझे काम पे आने से मत रोकिए वर्ना मेरा घरवाला मुझे बहुत पीटेगा और पैसे नहीं आए तो मेरे सासरे वाले मेरी रोटी-पानी बंद करवा देंगे.’ उसकी बात सुनकर मैं भी रोने लगी थी. फिर मैंने उससे कहा था कि मैं हर महीने उसके मेहनताने के साथ-साथ सौ रुपए अलग से उसके घर भिजवा दिया करूंगी. ये सौ रुपए उसकी दवाई और फलों के लिए होंगे पर अब उसे काम पर आने की जरूरत नहीं. उसे घर पर रहकर आराम करना चाहिए और रेगुलर डाक्टरी जांच करवानी चाहिए. मेरी बात सुनकर अनीता खुशी-खुशी अपने घर चली गई थी. उस वक्त मैंने सपने में नहीं सोचा था कि ये अनीता से मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

कल रात उसकी मौत की खबर मिली. तब से आंसू रुक ही नहीं रहे. उसके नौ महीने लगभग पूरे हो चुके थे लेकिन उसे अस्पताल में दाखिल करवाने के बजाय उसके घरवाले उसे पास के गांव ले गए. उसकी सास कह रही थी कि अनीता की ननद के यहां लगन था और नहीं जाते तो बहुत बुराई होती.

वहीं अनीता को दर्द शुरू हो गया था. जिला अस्पताल गांव से 20 किलोमीटर दूर था. अनीता ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था. अभी-अभी अस्पताल में डाक्टरों से मिल कर आ रही हूं. फिर अनीता की झुग्गी में भी गई थी. डाक्टर कह रहे थे कि बच्चा पेट में ही मर गया था और उसके खून में इंफेक्शन फैल गया था. उसका शरीर पहले ही बहुत कमजोर था और खून की भारी कमी थी. उसके घर गई तो देखा कि उसकी सास चूल्हा सुलगा रही थी. कुछ देर की बातचीत के बाद बोली, ‘मैडमजी, हमारे यहां तो बच्चा जनने में न जाने कितनी मोडियां बिला जाती हैं कोई हिसाब नहीं. और आठ बच्चे जनने के बाद भी आज तक हमें ही एक फल-फूल नसीब नहीं हुआ वो तो पहली बार ही पेट से थी. हमारे आठ बच्चों में से तीन मुआ गए, पांच ही बचे, लेकिन पूरी जिंदगी में कभी कोई अस्पताल नहीं ले गया.’ 

मैं चुपचाप घर आ गई. पिछले 25 साल में दुनिया बिल्कुल नहीं बदली है ! अनीता की ही तरह मेरा भी पहला बच्चा मरा  हुआ पैदा हुआ था. मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी और ब्लीडिंग रुकने का नाम नहीं ले रही थी. कुछ ही देर में डाक्टर्स ने बताया कि खून में इन्फेक्शन फैल गया है. नर्स मोटी-मोटी रूइयों के गत्ते लगाती जाती और वो गत्ते कुछ ही मिनटों में खून से तरबतर हो जाते. दो दिन तक मैं आईसीयू में थी. 

बस फर्क इतना था कि अच्छे अस्पताल में होने की वजह से मैं जिंदा बच गई. आज अनीता का वो आखिरी फोनकाल याद आ रहा है. उसने किसी पड़ोसी के मोबाइल से मिस काल किया था और फिर हमारी बात हुई थी. मैंने उससे कहा था कि मैं उसे इंदौर के एक अस्पताल लिए चलती हूं. लेकिन उसने मना करते हुए कहा कि उसके घरवाले उसका ध्यान रख रहे हैं और सब ठीक है.  अनीता का हंसता-खेलता चेहरा एक पल के लिए भी मेरी नजरों से नहीं हटता. अपना वक्त याद करती हूं तब महसूस होता है कि कितना तड़प-तड़प के मरी होगी वो, मदद के लिए चीखते-चिल्लाते हुए. जैसे मैं चिल्ला रही थी.

अनीता और उसकी जैसी तमाम औरतें इतनी पीड़ादायक मौत की हकदार नहीं थीं. इन सभी मौतों को टाला जा सकता था.  लेकिन हम पता नहीं कब ये समझेंगे कि हमारे घरों के रोशन चिरागों को जन्म देने वाली ये औरतें भी इंसान हैं. कोई बच्चा पैदा करने वाली मशीन नहीं ! उस वक्त उन्हें सही इलाज, अच्छे खाने, साफ-सफाई और पूरी देखभाल की जरूरत होती है. और पता नहीं, कब बच्चों का जन्म ‘सिर्फ अस्पतालों’ में ही होना उतना जरूरी होगा जितना देश से बाहर जाने के लिए पासपोर्ट ! 
डायरी लेखन: प्रियंका दुबे; इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

"मथुरा रेप केस के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों को मजबूत किया गया."

आप पिछले 45 वर्षों से भारतीय स्त्री विमर्श  का हिस्सा रही हैं. इस दौरान हुए बदलावों को आपने करीब से देखा है. आप जब पीछे मुड़कर देखती हैं तो भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में आपको कितना बदलाव महसूस होता है? 
कानून के स्तर पर सबसे बड़े बदलाव आए हैं. मथुरा रेप केस के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों को स्त्री के पक्ष में मजबूत किया गया. साथ ही तलाक, यौन उत्पीड़न और पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से संबंधित नए कानूनों और संशोधनों ने भी महिलाओं की स्थिति को मजबूत किया है. 1975 तक भारत में महिलाओं की स्थिति से जुड़ा पहला बड़ा शोध भी हो चुका था. ‘स्टेटस ऑफ विमन इन इंडिया: टूवर्ड्स इक्वालिटी’ नामक इस रिपोर्ट के आने के बाद से ही महिलाओं से संबंधित कई बड़े नीतिगत बदलावों की शुरुआत भी हो गई. फिर जब 1991 की जनगणना में पहली बार महिलाओं के गिरते लिंगानुपात की बात मुखरता से सामने आई तो कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी नई नीतियां बनाई गईं. कुल मिलाकर कानून और नीतियों के स्तर पर तो धीरे-धीरे जागरूकता फैल रही है. हालांकि यह प्रक्रिया बहुत धीमी है. अच्छी बात यह है कि महिलाओं के अस्तित्व से जुड़ी समस्या को सबने स्वीकारना शुरू कर दिया है. यह स्वीकार किया जाने लगा है कि लड़कियों को जन्म से पहले मार देना, बलात्कार करना, दहेज के लिए जला देना या फिर उन्हें शिक्षा से दूर रखना एक समस्या है. लेकिन दूसरी तरफ दिक्कतें भी बढ़ीं. जैसे नीतियों के क्रियान्वयन के लिए जब भी सरकारी कर्मचारी ग्रामीण इलाकों में जाते तो स्त्रियों से संबंधित सारे सवालों के जवाब उनके घरवाले देते. बलात्कार, सती, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, छेड़छाड़ और कार्यस्थल पर उत्पीड़न की घटनाएं भी तेजी से बढ़ने लगीं. सबसे बड़ा बदलाव यह है कि मीडिया और सूचना तंत्र की वजह से महिलाओं की स्थिति अपनी पूरी जटिलता में हमारे सामने आ रही है. इस लिहाज से देखें तो हालात पिछले 40 सालों में कहीं ज्यादा बदतर हुए हैं, और कई मायनों में बेहतर भी. जैसे हमारे जमाने में सेल्स गर्ल होना बहुत बुरा माना जाता था लेकिन आज होटल इंडस्ट्री से लेकर सिक्योरिटी इंडस्ट्री तक में औरतें दरबान से लेकर मैनेजर तक सारी भूमिकाएं निभा रही हैं. यह बहुत विरोधाभासी है लेकिन भारत की दूसरी तस्वीरों की तरह यहां महिलाओं की दशा भी इन दो चरम स्थितियों के बीच झूल रही है.

भारतीय महिला आंदोलनों की सबसे कड़ी आलोचना उनके दिशाहीन रवैये को लेकर होती है. आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी से शुरू हुआ महिला आंदोलनों का यह सिलसिला आगे चलकर  खेतिहर और आदिवासी आंदोलनों से भी जुड़ा. फिर 70 के दशक में यह दहेज प्रथा और बलात्कार के विरोध की ओर मुड़ गया. 80 के दशक में इसने रूप कंवर और शाह बानो मामलों में सती और तलाक से जुड़ी नई बहस भी देखी. आज यह ‘पिंक चड्डी’  ‘स्लट वॉक’  जैसे हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है. आप महिला आंदोलन के इस टेढ़े-मेढ़े इतिहास को कैसे देखती हैं?
भारतीय समाज की बुनावट अपने-आप में इतनी विविध है कि यहां पूरे देश में कोई एक समग्र आंदोलन हो ही नहीं सकता. इसलिए मुझे लगता है कि भारतीय महिला आंदोलनों को दिशाहीन कहने के बजाय हमें यह समझना चाहिए कि यहां महिला आंदोलन अलग-अलग दिशाओं में काम कर रहा है. हमारा एक स्पष्ट इतिहास है और इन आंदोलनों में जो भी बिखराव है वो हमारे देश की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता का नतीजा है. हालांकि मथुरा रेप केस (करीब चार दशक पहले महाराष्ट्र के चंद्रपुर में पुलिस स्टेशन के भीतर मथुरा नाम की एक लड़की के साथ दो पुलिसकर्मियों द्वारा कथित बलात्कार का केस) जैसे कुछ मामलों ने पूरे देश पर असर डाला था. मैंने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां इतने बिखराव के बाद भी बड़े मुद्दों पर पूरे देश की महिलाएं एक साथ हो गईं. ऐसा समाज जो धर्म, जाति और वर्ग के नाम पर इतना बंटा हुआ है वहां पर एक देशव्यापी महिला आंदोलन का होना किसी चमत्कार से कम नहीं है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये आंदोलन महिलाओं को ऊपर उठाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं, हर तरह के शोषण और विपरीत माहौल के बाद भी. यह आज की सच्चाई है कि लड़कियां घरों से बाहर निकल रही हैं और दुनिया का सामना कर रही हैं. इसका सबसे बड़ा सबूत है खाप पंचायतों द्वारा महिलाओं और लड़कियों का आए दिन हो रहा विरोध. यह इसीलिए हो रहा है क्योंकि चीजें बदल रही हैं. लड़कियां चाहे वे ऑटो चला रही हों या मॉल की पार्किंग में गार्ड के तौर पर आपकी गाड़ी चेक कर रही हों या पंच बनकर गांव चला रही हों, तथ्य यही है कि वे आगे बढ़कर ताकत को हैंडल करना सीख रही हैं और आगे बढ़कर जिम्मेदारी उठा रही हैं. एक बात और, इस देश का महिला आंदोलन हमेशा से सबसे ज्यादा सुधारवादी और बदलाव का स्वागत करने वाला रहा है. बाहर से देखने पर लग सकता है कि हम बिखरे हुए हैं लेकिन भीतर से हमने खुद को लचीला और बदलाव के लिए तैयार रखा है. शाह बानो मामले से लेकर हिंदू उग्रवाद के उदय तक हमने पाया कि इस देश के भीतर बदलाव लाने के लिए इसकी सच्चाइयों को स्वीकारना ही होगा.

वर्तमान स्त्री विमर्श में दो अहम धाराएं उभर कर आ रही हैं. एक तरफ  ‘पिंक चड्डी’  और ‘स्लट वॉक’  जैसी मुहिमें हैं जिन्होंने स्त्री देह के व्यावसायीकरण से संबंधित बहस शुरू कर दी है, एक वर्ग कह रहा है कि महिला बाजार के जाल में फंस रही है. दूसरी ओर परंपरावादी-शुद्धतावादी बहस है जो महिलाओं के इस प्रतिरोध के विरोध में दिनों-दिन और कट्टरपंथी हुई जा रही है. बलात्कार, सम्मान के नाम पर हत्याएं बढ़ी हैं. इन जटिलताओं को कैसे समझा जा सकता है?
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन लगभग हर समाज ने अपनी सामाजिक संरचना के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अलग-अलग तरीके ढूंढ़ लिए हैं, और साथ ही उस हिंसा को उचित ठहराने के तर्क भी. खाप, जातिगत संघर्षों में होने वाली हत्याओं, बढ़ते बलात्कार और सड़कों पर आए दिन होने वाली हिंसा को भी ऐसी ही सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है. इतने सालों में मैंने देखा है कि हमारे समाज में एक तरह की सामंतवादी और मर्दवादी सोच गहरे तक बैठी हुई है. यहां नेताओं, पुलिस मुखियाओं से लेकर मुख्य न्यायाधीशों तक सभी ने महिलाओं के बारे में खेदजनक टिप्पणियां की हैं, तो हम एक आम नागरिक से क्या उम्मीद कर सकते हैं? रही बात स्त्री शरीर के व्यावसायीकरण की तो मुझे लगता है कि इसका फैसला हमें स्त्रियों पर ही छोड़ देना चाहिए. जब हम लोग कॉलेज में थे तब हमने वहां होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं का पुरजोर विरोध किया, लेकिन बाद में हमारा सामना ऐसी महिलाओं से हुआ जिन्होंने कहा कि हम कौन होते हैं उनके लिए फैसला लेने वाले. जब हमने दोबारा सोचा तब हमें अहसास हुआ कि दूसरों के बारे में कोई फैसला हम नहीं कर सकते. हो सकता है कोई गलती कर रहा हो, लेकिन गलती करके सीख लेने का हक हर महिला को है. जब वे अपने मन के कपड़े पहने तो आप उन्हें नसीहत दें और जब वे सती होने जाएं तो कहें कि उनको अपनी मर्जी थी. अपने रास्ते खुद ढूंढ़ने का मौका उन्हें दिया जाना चाहिए.

अंबाला से शुरू हुआ आपका सफर दिल्ली में  ‘जुबान’  की स्थापना तक आ पहुंचा है. महिला आंदोलनों की तरफ आपका झुकाव कैसे हुआ? कैसी रही यह यात्रा?
मैं मूलतः पंजाबी हूं. विभाजन के बाद हमारा परिवार पाकिस्तान से आकर शिमला में बस गया था. वहां से चंडीगढ़ होते हुए हम दिल्ली आ गए. मेरे पिता तब ‘द ट्रिब्यून’ में काम करते थे और मां स्कूल में पढ़ाती थीं. हम चार भाई-बहन थे. हमारा संयुक्त परिवार था. माता-पिता की कमाई कम पड़ जाती थी. लेकिन मेरी मां बेटियों के लिए बहुत लड़ती थीं. उनका कहना था कि लड़कियों को भी बराबर की शिक्षा और अच्छा भोजन मिलना चाहिए. सबसे पहला प्रभाव शायद मां का ही था. फिर जब मैं कॉलेज में आई तो वहां भी बच्चे छात्र राजनीति से जुड़े हुए थे. वहां हॉस्टलों में लड़कियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग और बसों में महिला सीटें सुरक्षित करने के आंदोलन से मेरा सफर शुरू हुआ. उसी वक्त मथुरा रेप केस सामने आया और हम लोग पूरी तरह आंदोलन में उतर गए. साथ में मैंने एक प्रकाशन में काम शुरू कर दिया. कुछ दिनों बाद मुझे उस संस्थान की तरफ से ऑक्सफोर्ड भेजा गया. वहां काम करने के दौरान मेरे दिमाग में बात आई कि हमारे यहां महिलाओं का साहित्य लिखने या छापने वाले प्रकाशन नहीं हैं जबकि हम देश का आधा हिस्सा हैं. तब हमने ‘काली फॉर वीमेन’  शुरू करने का निश्चय किया. लेकिन इसके नाम की वजह से कई लोग इसको धार्मिक प्रतीकों से जोड़कर देखते. फिर 19 साल बाद हमने जुबान की स्थापना की. 

आप पिछले 3 दशक से महिला प्रधान प्रकाशन में सक्रिय हैं. इस दौरान इस क्षेत्र में  और खुद में क्या बदलाव महसूस करती हैं?
शुरू-शुरू में लोग हम पर हंसते थे. लेकिन बाद में जब हमने साबित कर दिया तब लोगों को लगा कि ये औरतें ठीक-ठाक काम कर रही हैं. धीरे-धीरे यह बात भी स्थापित हुई कि स्त्री लेखन का बाजार बहुत बड़ा है. आज देखिए, हर प्रकाशन संस्थान लेखिकाओं और महिलाओं के मुद्दों को तरजीह दे रहा है. मेरे लिए तो यह बहुत संतोष देने वाली प्रक्रिया रही. मैं बोर नहीं होती हूं. आज भी हर नई किताब को लेकर वैसे ही उत्साहित हो जाती हूं जैसे पहली किताब को लेकर थी!

होम पेज: महिला विशेषांक

…सबसे खुश हूं आज

अब तक तो मुझे जीवन का यह दशक बहुत महत्वपूर्ण लग रहा है! सच कहूं तो यह जीवन यात्रा का मिड-वे है. यह वह समय है जब जीवन की लंबाई-चौड़ाई का आपको एकदम सही अंदाज हो जाता है! आप जीवन के इस पार भी देख पाते हो जो बीत गया और उस पार भी जिसे बीतना है. बहुत कुछ पाने, खोने और खुद ही छोड़ने का दौर!  सही मायनों में एक अर्जित आत्मनिर्भरता का दौर! पूर्व में की गई मेहनत और लिए गए निर्णयों के मीठे- कड़वे फल पाने का दौर.

मेरा मानना है कि मेरी ही तरह अन्य महिलाओं के लिए भी यह घने आत्मविश्वास का दौर होता होगा! चाहे वे किसी भी देश, समाज और वर्ग से ताल्लुक रखती हों,  क्योंकि 40  के साथ वह उम्र शुरू होती है, जहां प्रयासों के पेड़ पर फल लगने लगते हैं, परिवार की आरंभिक जिम्मेदारियां निपट चुकी होती हैं,  अपने-अपने स्तर पर आर्थिक संघर्ष भी किसी तरह नियंत्रण में आ जाता है! आपकी अपने समाज और वर्ग में एक प्रतिष्ठा बनने लगती है. दाम्पत्य में भी स्त्रियां इस उम्र तक आते-आते अपनी भूमिका केंद्रीयता में ले आती हैं.

देह और मन के स्तर पर वे अपनी संतुष्टि का अर्थ और ढंग दोनों जान लेती हैं. हालांकि मोहभंग का समय भी यही होता है, माता-पिता को खोने और बच्चों को बाहर पढ़ने भेजने का भी समय यही होता है! बल्कि बच्चों से या अगली पीढ़ी से टकराव का समय भी यही होता है कि आपका अहम हांफ कर थका नहीं होता है, और उनका नया-नया उगा होता है.

अपनी बात करूं, तो मेरे लिए यह घने आत्मविश्वास का समय है,  यह वह समय है जब मेरे लिखे को व्यापक स्वीकार्यता मिल चुकी है, मैं बच्चों की स्कूली जिम्मेदारियों से मुक्त हूं, परिवार में भी मैं स्वयं को साबित कर सकी हूं, कि बी. एस.सी. के बाद बॉटनी एम.एस.सी. छोड़ कर लड़-झगड़ कर हिंदी में एम.ए. करने और साहित्य में रुचि लेने का मेरा निर्णय किस तरह सही था, और वे मुझ पर छोटा -मोटा गर्व कर सकते हैं. दांपत्य में बहुत सारी फुर्सत न सही, मगर एक आपसी समन्वय का समय है यह, जब बिना कहे बहुत कुछ कहा जाता है और सुना जाता है.यह लीड और स्टैंड लेने का समय होता है, अपनी धारणाओं पर टिकने और उसे लागू करवाने का समय होता है, लोग आपकी सुनते हैं, मान देते हैं! यह समाज को दोगुना करके लौटाने का समय भी होता है!  मेरी यह उम्र मुझे यही अहसास दिलाती है कि आखिरकार यही वह ‘मैं’ हूं जो मैं होना चाहती थी, आत्मविश्वासी, स्वतंत्र और कुछ लोकप्रिय, कुछ सफल! फैब्युलस फोर्टी शायद इसी को कहते हैं! आप वह सब कर सकते हैं या करना चाहते हैं जो अब तक नहीं किया!  वह समय है कि जब पुरुषों के लिए आकर्षण का केंद्र होना आपके लिए कोई खास विषय नहीं होता. आंतरिक सुंदरता को महसूस करने की संवेदना जाग चुकी होती है. प्रेम की अवधारणा को भी आप ठीक तरह से जान-समझ चुके होते हैं. हमेशा आकर्षक और प्रेजेंटेबल लगने के बोझ से धीरे-धीरे मुक्त होने लगते हैं, खुल कर अपने मन से जीना बहुत ही मजबूती महसूस करवाता है कि आखिरकार जीवन की बागडोर आपके खुद के हाथ है, न कि पिता, भाई, पति के… सुरक्षा को लेकर अब परिवार में आपकी चिंता नहीं की जाती, आप अकेले दुनिया घूम सकते हैं!

जहां 40-50 का यह दशक मेरे लिए और ज्यादा आजादी, अकेले और पहली बार की गई यूरोप यात्रा और उपन्यास सेलेब्रेट करने का समय रहा है वहीं मां को एक साल के अंदर-अंदर कैंसर से जाते देख एक सघन विरक्ति और हताशा का भी समय रहा है. यही हार्मोनों के बदलाव का समय भी है, इसलिए एक अजब किस्म की डॉमिनेन्स इस उम्र में आ जाती है, एक अड़ियलपन भी! जो मुझे खुद अजीब लगता है, उस अल्हड़पन को तरसती हूं, जो मेरे केस में देर से विदा हुआ था. मुझे अब बोल्ड विषय उठाते भय नहीं होता, बोल्ड यानी केवल सेक्स नहीं होता, सत्ता विरोध, या लीक से हट कर किसी बात को कहना भी होता है, मसलन स्त्री विमर्श के चालू मुहावरे के विरोध में लिखना. भय अब विवादों और कुचर्चा से भी नहीं होता, यह दिलों की पुख्तगी का दौर होता है, टूटता कम है! दुखता कम है! मैंने देखा कि इस दौर में दोस्त छंटते जाते हैं, जो रह जाते हैं वे सच में दोस्त होते हैं, जिनके सामने आपको अपने गुनाहों की स्वीकारोक्ति या उपलब्धियों का बखान नहीं करना होता, वे सब कुछ जानते हैं.

सब कुछ अच्छा-अच्छा तो नहीं हो सकता किसी भी उम्र में, कुछ असुरक्षाएं और उलझन भी लाती है यह उम्र, यह दशक. नजर कमजोर होना मुझे बहुत अखरा क्योंकि मेरे लिए चश्मा बहुत बड़ी उलझन है, मैं बस यही नहीं चाहती थी कि मेरे चश्मा लगे!  खैर… यह तय है कि इस उम्र में आप जान जाते हैं कि कुछ खोई चीजें, खोए लोग वापस नहीं लौट सकते तो उसके लिए हमें तैयार होना ही होता है! जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि 40 से 50 यानी हमारी उम्र की स्त्रियां ठीक मिडवे पर हैं जीवन के,  कुछ पल सुस्ता कर आगे जाने को तैयार, नए सफर में! बहुतों के साथ होते हुए भी अकेले होते जाने की नई यात्रा की तरफ, बाहर से भीतर की ओर!

ज्यादातर 40 से ऊपर की महिलाएं स्वयं को बेहतर तरीके से जानती हैं कि वे क्या हैं, वे परवाह नहीं करतीं कि आपके ख्याल उनके बारे में क्या हैं! 20 से 30 की उम्र में हमेशा मैं सोचती थी कि लोग मेरे बारे में सोचें, तीस से चालीस की उम्र में मैं परवाह करती रही कि हाय! लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे, या क्या सोचते होंगे. और अब इस दशक में किसे परवाह? यारों, जिंदगी बहुत छोटी है, एक-एक पल जीने के उत्साह से भरा हो! मुझे लगता है 40 पार की स्त्रियां सबसे ज्यादा आत्मविश्वासी, आकर्षक और जीवन से भरी होती हैं, वे जीवन की कुछ स्पर्धाएं जीत चुकी होती हैं और उन्हें अपनी गति को लेकर सही-सही अंदाज हो चला होता है!  वे दुनिया को साफ-साफ समझ पाती हैं. वे ताड़ पाती हैं-  झूठी तारीफों को, सूंघ पाती हैं – षड़यंत्रों को, वे जान जाती हैं सच्चे प्रेम के मनोविज्ञान को और अंतत: खुद को!  कुल मिलाकर मुझे लगता है, खुद को एक संपूर्ण स्त्री बनाने में मैंने 45 साल लगा लिए और अब लगता है कि मानो अब तक जो जिया वह तैयारी थी, यह ‘मैं’ होने की!

यही वक्त है कि महिला के सारे कृत्रिम आवरण हट जाते हैं और वह मारक तौर पर ईमानदार हो जाती है, ऐसे ही में ज्यादातर लेखिकाएं आत्मकथा लिखने बैठती हैं, मगर मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती. मेरे लिए आत्मकथा का अर्थ निज जीवन की चीर-फाड़, प्रेमियों की फेहरिस्त से आगे का आयाम है, अपने समय से साक्षात्कार जैसा महत्वपूर्ण! सच में, जिसके आगे प्रेम और बेवफाइयां, बहुत बौनी चीजें हैं.

मेरे हिसाब से यह उम्र स्मार्ट दिखने की और होने की है, क्योंकि 40 तक आते-आते आपको पता चल जाता है कि आप पर क्या फबता है और क्या आरामदेह है! मैं बस साड़ी या जींस-कुर्ती और ट्राउजर-फॉर्मल शर्ट तक सीमित हो गई हूं!  फैशन के आगे आरामदेही भाती है,  चालीस की होऊं कि नब्बे की मुझसे जींस-कुर्ती नहीं छूटने वाले, आरामदेही का मामला जो ठहरा. निसंदेह यह समय मेरे जीवन का स्वर्णिम समय है, फैब्यूलस फोर्टी प्लस! उम्र और अनुभव से मैं अपने भीतर के एक बेहतर ‘स्व’ को खोज पाई! इस उम्र में मुझे तो सातवें आसमान पर होना महसूस होता है, क्योंकि मेरे पास बाकी की आधी जिंदगी के लिए ढेर सारे मनपसंद काम और प्लान हैं!   

हैरान हूं मैं जिंदगी

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सुगंधा, 35 साल,24 नवंबर, 2012; रात 11 बजे,  भोपाल
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आज शाम बंदनी ने आकर पुराने जख्मों को जैसे हरा कर दिया. पता नहीं मेरा अतीत कब मेरा पीछा छोड़ेगा? घंटों रोने के बाद खुद ही चुप हो गई. खुद को अकेले सांत्वना देकर संभालने की भारी जिम्मेदारी आपको अपने अकेलेपन का तीखा एहसास करवाती है. फिर एक वॉक के लिए बाहर निकली थी. नवंबर की सर्दियों में भोपाल और भी खूबसूरत हो गया है और खूबसूरती का अपना एक अलग अवसाद है. आजकल वॉक पे जाती हूं तो और ज्यादा उदास होकर लौटती हूं.

पता नहीं मैं बंदनी से बात करने के लिए राजी ही क्यों हुई. वो महिलाओं की स्थिति पर कोई शोध कर रही है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती है. महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा वाले सेक्शन के लिए मुझसे बात करना चाहती थी. जब उसका फोन आया तब मुझे अचानक लगा कि बलात्कार कैसे आपको ताउम्र जिज्ञासा का विषय बना देता है. हां, मुझे अभी तक विश्वास नहीं होता कि यह हुआ था. मेरा बलात्कार हुआ था. आज से 13 साल पहले जब मैं एक 22 साल की लड़की थी. सुंदर, हंसमुख, चंचल, बुद्धिमान, तेज और हां, एक नेशनल मैगजीन में फोटो-जर्नलिस्ट भी ! मैं पिछले 10 साल से बंदिनी चट्टोपाध्याय या उसके जैसे किसी भी इंसान से नहीं मिली जो मेरे अतीत के बारे में बात करना चाहता हो. उस घटना के बाद मैं दिल्ली से भोपाल आ गई. वोटर आई-डी और दूसरे जरूरी दस्तावेजों में अपना नाम बदलवाया और श्यामला पहाड़ी पर बने अंसल अपार्टमेंट में एक छोटा सा घर किराये पर लेकर रहने लगी. एक ऐसे अनजान शहर में, जहां लोग मेरे साथ हुई हिंसा की छाप मेरे चेहरे पर न पढ़ सकें. कुछ महीनों बाद पास ही बने मानव संग्रहालय की लाइब्रेरी में काम मिल गया और धीरे-धीरे मैं अपने आस-पास गुमनामी और अकेलेपन की एक मजबूत दीवार खींचने में सफल हो गई. लेकिन मिरांडा हाउस की प्रोफ़ेसर मिश्रा ने बंदिनी को मेरा पता दिया और पहचान छुपा कर मेरा ‘केस’ भी अपने शोध में शामिल करने को कहा. हालांकि प्रोफ़ेसर मिश्रा मेरी एचओडी भी रह चुकी हैं लेकिन शायद फिर भी मैं बंदिनी से बात करने के लिए राजी नहीं होती. लेकिन जब प्रमोद ने इतना इन्सिस्ट किया तो मुझे आखिरकार हां करनी ही पड़ी. अब प्रमोद को मना करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है. उसने बहुत मुश्किल वक्त में मेरा साथ दिया है… लगातार… सालों तक… वो भी बिना किसी अपेक्षा के. 

बंदिनी से बात करके ऐसा लगा जैसे किसी ने परत दर परत मेरे जख्मों पर जमी वक्त की पपड़ी को खरोंच कर निकाल दिया हो. एक फोटो-जर्नलिस्ट के तौर पर असाइनमेंट्स के लिए जाते वक्त मुझे कभी नहीं लगता था कि मेरे साथ भी ऐसा हो सकता है. और सच में, काम के सिलसिले में अलग-अलग राज्यों की मुश्किल जगहों पर जाते समय मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन मेरी अपनी दिल्ली मुझे वो सुरक्षा नहीं दे पाई जिसकी आस लगा मैं हर रोज इस शहर की सड़कों पर मुस्कुराते हुए निकला करती थी. आम तौर पर रोजमर्रा की छेड़छाड़ और इव-टीजिंग से ज्यादा कुछ नहीं होता था. तब मुझे भी लगता था कि इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा. लेकिन मैं गलत थी. अब सोचती हूं तो लगता है कि अगर इव-टीजिंग के खिलाफ आवाज उठाई होती तो शायद इतने हिंसक अंत से बच सकती थी. 

‘शायद अगर मेरे आस-पास के लोगों ने विक्टिम के बजाय एक इंसान मानकर मेरा साथ दिया होता तो तस्वीर कुछ और होती’

लड़कों का एक झुंड मेरे हॉस्टल के पास वाली शराब की दुकान पर हमेशा खड़ा रहता था और आते-जाते मुझ पर फब्तियां कसता. मैं अनदेखा कर देती और अपने काम में लग जाती. फिर एक रोज मुझे दफ्तर से लौटने में थोड़ी देर हो गई. रात के साढ़े ग्यारह बजे मुझे ऑफिस की बस ने हॉस्टल के सामने वाले चौराहे पर ड्रॉप किया. 1999 में दिसंबर की ठंड थी और पूरी कालोनी में निपट सन्नाटा था. उन दिनों दिल्ली की कालोनियों में ऐसे चौकीदार और लोहे के गेट्स नहीं हुआ करते थे जैसे आज होते हैं. मैं अपनी जैकेट का कैप सर पर डाले हॉस्टल की तरफ चल ही रही थी कि अचानक एक टाटा-सूमो तेजी से मेरे बगल में आकर रुकी. यह वही टाटा-सूमो थी जो अक्सर मेरे हॉस्टल के पास वाली शराब की दुकान के आगे खड़ी रहती थी. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती कुछ अनजान हाथों ने मेरे मुंह पर एक बड़ा सा कपड़ा दबाया और मुझे गाड़ी के अंधेरे में खींच लिया गया. उस कपड़े में बेहोशी की दवा मिली थी और धीरे-धीरे मेरी आंखें बंद होने लगीं.

शुरुआती स्मृतियां आज भी ताजा हैं, हर दिन रिसते एक घाव की तरह. मुझे याद है कि मैं लगातार चिल्ला रही थी और वो लोग मुझे लगातार थप्पड़ मार रहे थे. वो पांच आदमी थे, दो आगे और तीन पीछे. पीछे की सीट पर बैठे तीनों लोग मुझे लगातार मुक्के मार रहे थे. मेरी पीठ और पसलियां जैसे टूट गई थीं. बालों को खींचकर दरवाजा खोलने वाले हैंडल से बांध दिया था ताकि मैं उठने की कोशिश न कर सकूं. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए थे. धीरे-धीरे मैं होश खो रही थी लेकिन अजनबी निगाहों द्वारा अपने शरीर को देखे जाने को मैं महसूस कर सकती थी. मैं लगातार रो रही थी, चिल्ला रही थी. मुझे उल्टी आ रही थी. वो लोग एक-एक करके मेरे अंदर दाखिल होते गए और मुझे मारते रहे. गाड़ी तेजी से भाग रही थी और मुझे लगातार अपने शरीर के ऊपर और अंदर पड़ रही मार महसूस हो रही थी. हिंसा का यह तांडव सुबह तक चलता रहा. पौ फटते ही उन्होंने मुझे दिल्ली-हरियाणा हाइवे पर बने खेतों के किनारे फेंक दिया. मुझे याद है, मेरे फटे हुए सर से गालों पर टपकते खून की गर्म बूंदें. बालों को कैंची से टेढ़ा-मेढ़ा काट दिया गया था. जांघों से भी खून रिस रहा था. शरीर से टपकते खून की गंध पाकर घास के कीड़े और पतंगे मुझ पर रेंगने लगे थे.  दिसंबर के कोहरे में घास पर पड़ी ओस के बीच मैं शायद गटर में सड़ रही किसी अधनंगी लाश सी लग रही हूंगी. मैं लगातार कराह रही थी. रोते-रोते मुझसे अपने कपड़ों में ही पेशाब हो गई थी. धीरे-धीरे मैं अपने फटे हुए कपड़ों से अपने शरीर को ढकने की कोशिश करने लगी. लेकिन अचानक पेट में तेज दर्द हुआ और सब धुंधलाने लगा. फिर जब मुझे होश आया तब मैं अस्पताल में थी. मां-पापा, विनोद, पुलिस, मां और डाक्टर्स के साथ मेरे पुराने आफिस के लोग भी खड़े थे.

पांच साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार उनमें से चार को 10-10 साल की सजा हुई. एक की मौत पहले ही एक्सीडेंट में हो गयी थी. पांच साल के दौरान मुझे हर रोज उसी त्रासदी से गुजरना पड़ता. अदालतों, अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों में लोगों की नजरें और सवाल हर रोज मेरा फिर से बलात्कार करते. इस हर रोज की पीड़ा से बचने के लिए मैं तीन साल बाद भोपाल आ गई. मां-पापा का आरोप कि यह सब कुछ मेरे कैमरे और नौकरी की वजह से हुआ है, हर बार मुझे भीतर तक तोड़ देता. रिश्तेदार, पड़ोसी, कलीग्स…सबको लगता है कि मैं एक बुरी लड़की थी जो रात को इतनी देर से काम से वापस आती थी… और माडर्न कपड़े पहनती थी… इसलिए मेरा रेप हुआ. मैं अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी रहती और सब दबी-छिपी जबान से मेरे ही पीछे कहते रहते कि मेरे जैसी ‘फारवर्ड’ लड़कियों के साथ तो ऐसा होता ही है. फिर मेरे पापा ने सबके सामने मेरा कैमरा तोड़ दिया था.

कई बार विनोद ने कहा कि मैं फिर से फोटोग्राफी शुरू करूं लेकिन मैं उसे कैसे समझाऊं कि जब मेरे लिए अपनी जिंदगी को दोबारा पकड़ना इतना मुश्किल है तो मैं कैमरा दोबारा कैसे पकडूं? आज भी मेरा इलाज चल रहा है. कभी-कभी मेरी पसलियां और कमर बहुत तेज दुखने लगती हैं. मैं अनजान लोगों के साये से भी डरती हूं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल नहीं करती. हर चीज और इंसान पर शक करती हूं. विनोद की लाख कोशिशों के बावजूद मैं अवसाद से नहीं निकल पाती. उसने बहुत धीरज धरा है और तब मेरा साथ दिया जब मां-पापा ने भी छोड़ दिया था. वो नहीं होता तो मैं अपने आप को कब का खत्म कर चुकी होती. उन जानवरों को सजा दिलवाने के लिए उसने दिन-रात एक कर दिए. हम दोनों को लगता था कि उन्हें सजा मिलने के बाद शायद मैं ठीक हो जाऊंगी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.

शायद मैं जिंदगी भर अपने बलात्कार से नहीं निकल पाऊंगी. शायद अगर मेरे आस-पास के लोगों ने विक्टिम के बजाय एक इंसान मानकर मेरा साथ दिया होता तो तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मेरी आस-पास की दुनिया ने मुझे हमेशा ‘बेचारी’ बनाए रखा. विनोद ने मुझे जिंदा तो रख लिया लेकिन वह इस समाज से मेरे लिए पूर्वाग्रहों और तानों से दूर एक दूसरी जिंदगी नहीं मांग पाया. मैं आज भी ‘बेचारी’ हूं और पिछले 13 सालों से उस अपराध की सजा भुगत रही हूं जो मैंने कभी किया ही नहीं. आज बंदिनी से बात करते वक्त रो पड़ी. जाते-जाते उससे कहा कि काश हम एक ऐसी दुनिया बना पाते जिसमें रेप विक्टिम्स को स्नेह और सम्मान के साथ जीने का दूसरा मौका दिया जाता… जहां उसके अपराधियों को कोसा जाता… उसे नहीं… और जहां पीड़ित को ‘खराब चरित्र वाली महिला’ कहकर बहिष्कृत करने के बजाय उन लोगों का बहिष्कार किया जाता जो किसी इंसान को इस तरह नोच-नोच कर खाते हैं. बंदिनी ने मुझे गले लगाया और बोली, ‘मैं ऐसी ही दुनिया बनाने के लिए काम कर रही हूं सुगंधा! विश्वास रखो, हम तब तक कोशिश करेंगे जब तक हम ऐसी दुनिया नहीं बना लेते!’ 

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नमिता, 38 साल
1 दिसंबर, 2012; दोपहर 2.30 बजे, लखनऊ
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अभी-अभी फैमिली कोर्ट से आ रही हूं. अदालत में आज पूरे दो महीने बाद कुणाल को देखा. तलाक के कागजात पर दस्तखत करते वक्त उसके चेहरे पर शिकन या ग्लानि की छाया तक नहीं थी. उसने ब्लू कलर की शर्ट पहनी थी. मैं उससे हमेशा कहती थी कि उस पर नीला रंग बहुत फबता है. शादी से पहले जब हम पहली बार साथ नाटक देखने गए थे तब भी कुणाल ने नीली शर्ट ही पहनी थी. लेकिन यह कमीज उन तमाम नीली कमीजों में शामिल नहीं थी जिन्हें मैं उसके लिए जगह-जगह से खरीद कर लाती रही हूं. शायद मीरा लाई होगी. मीरा… मीरा अब हर जगह है… कुणाल की शर्ट के रंगों से लेकर उसके खाने की पसंद तक… उसके डियोड्रेंट की खुशबू… उसके कमरे के पर्दों… उसके मोबाइल के वालपेपर… और इन सबसे ज्यादा… मीरा कुणाल की हंसी तक में शामिल है…उसके दिल में मौजूद है. वो उसके साथ, उसके नए फ्लैट में रहती है. उसके कमरे में, उसके बिस्तर पर… उसके साथ सोती है. उस आदमी के साथ, जिससे 13 साल पहले मेरी शादी हुई थी… और जिससे आज मैंने तलाक ले लिया है.

जब मैं छोटी थी तब फिल्मों और टीवी सीरियलों में लोगों को लड़ते और रिश्तों को टूटते हुए देखकर हमेशा अपने आप से कहती, ‘अरे, ये लोग इतना लड़ क्यों रहे हैं? एक-दूसरे को छोड़ क्यों रहे हैं? एक-दूसरे को मना क्यों नहीं लेते? ‘सॉरी’ क्यों नहीं बोल देते?” तब मुझे लगता था कि हर उलझन ‘सॉरी’ बोलकर सुलझाई जा सकती है. अब जब उम्र ढलान पर है और जब सारी कोशिशों के बाद रिश्ते मेरे सामने टूट रहे हैं तो इंसानी सीमाओं का तीखा एहसास मुझे हर रोज सालता है.

त्रासदी से चिपके रहना सबसे बड़ी त्रासदी है… इसलिए अब मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना चाहती हूं. आज… पूरे दो साल की प्रताड़ना के बाद मैं आजाद महसूस कर रही हूं और मुझे विश्वास हो गया है कि मैं अपने आप को संभाल लूंगी. 

 दो साल के अलगाव और तमाम कानूनी पेचीदगियों  के बाद आज आखिरकार मेरा तलाक हो ही गया है. उम्र लगभग 38 पार हो चली है और शरीर के साथ-साथ जिंदगी भी जैसे बुझने सी लगी है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा भी तलाक हो सकता है. मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि अगर शादी के नौ साल बाद मेरे पति को किसी दूसरी औरत से प्यार हो जाए तो मुझे क्या करना चाहिए! हां, मुझे याद है… हम अपनी शादी की नौवीं सालगिरह मना भी नहीं पाए थे… कुणाल ऑफिशियल टूर पर गया था. मैं रात के नौ बजे से उसे फोन कर रही थी. फोन पर बातें भी क्या होती थीं… सिर्फ यह कि खाना खाया या नहीं और घर कब आ रहे हो. उस रात जब उसने 12 बजे तक फोन नहीं उठाया तो मैंने उसके होटल में फोन किया.  रिसेप्शन ने कॉल उसके कमरे में ट्रांसफर कर दिया.

उस रात मैंने पहली बार मीरा की आवाज सुनी थी. उनींदी हुई तीखी आवाज़. ‘हैलो? कुणाल सो रहे हैं. आप सुबह फोन करिएगा.’ रिसीवर मेरे हाथ में जम सा गया था. पांच मिनट तक मैं सन्न बैठी रही. फिर सोचा शायद कोई गलतफहमी हुई होगी इसलिए दोबारा फोन किया और चिल्लाते हुए मीरा से कहा, ‘मैं कुणाल की पत्नी मीता बोल रही हूं. तुरंत कुणाल को फोन दो.’ कुणाल के मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे और यहां मैं रोए जा रही थी. रात के सन्नाटे में मैंने अपने आप को खत्म करने की कोशिश भी की थी. आज सोचती हूं तो लगता है क्या बचकाना हरकत थी!  लेकिन उस लम्हे में मैं दिल्ली की एक मशहूर न्यूज एंकर, अंग्रेजी अखबारों की कालमिस्ट और दो किताबों की लेखिका नहीं…सिर्फ एक प्रेमिका… एक पत्नी और सबसे ज्यादा… एक इंसान थी… जिसका दिल टूट चुका था. मैंने चाकू से अपना हाथ काटने की कोशिश की और उसकी नोक तब तक अंदर धंसाती रही जब तक मुझे अपनी हड्डी महसूस नहीं हुई. प्रेम में किसी तीसरे के दाखिल होने से उपजने वाली ईर्ष्या से ज्यादा तकलीफदेह शायद कुछ नहीं हो सकता. ऐसा लगता है जैसे कोई आरी से आपके शरीर को चीर रहा है और आप कतरा-कतरा मरने के सिवा कुछ नहीं कर सकते. कुणाल अगली ही फ्लाइट से वापस आ गया लेकिन तब हमारा घर टूट चुका था. इन्फिडेलिटी हमेशा संवेदना के सारे रास्तों को खत्म करके ही अपना रास्ता बनाती है. कुणाल ने मुझे बताया कि उसका और मीरा का रिश्ता पिछले एक साल से चल रहा था. उसने सिर्फ इतना कहा कि उसे मीरा से प्यार हो गया है और अब वो मुझसे तलाक चाहता है.

प्यार हो गया है? क्या मतलब कि उसे प्यार हो गया है? अरे, इस बीच आकर्षण तो मुझे भी कई आदमियों से हुआ था… उनमें से कई कुणाल से बहुत बेहतर थे… कई मायनों में… तो क्या मैंने उनसे रिश्ता बना लिया? आकर्षण तो सभी को महसूस हो सकता है. संभव है, प्रेम भी हो जाए. लेकिन क्या ‘लॉयल्टी’ और ‘साथ निभाना’ कोई मूल्य नहीं? खैर, मैं उस पर कोई जजमेंट पास नहीं करना चाहती. हम दोनों एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करके इस रिश्ते को अदालत में तब्दील करें… इससे बेहतर है कि हम चुप-चाप अलग हो जाएं.

‘मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि अगर शादी के नौ साल बाद मेरे पति को किसी दूसरी औरत से प्यार हो जाए तो मुझे क्या करना चाहिए’

हम शायद बहुत पहले ही अलग हो गए होते लेकिन जैसे ही मैंने तलाक का जिक्र किया… मां-पापा की तबीयत ही खराब हो गई. मुझे याद है, मां दहाड़ मार-मार कर रोने लगी थीं. फिर सिसकियां भरते हुए धीरे से बोलीं, ‘बेटा, मर्दों की तो आदत है यहां-वहां मुंह मारने की. पर ऐसी बातों पर शादी थोड़े ही तोड़ी जाती है. ये दिल्ली नहीं, लखनऊ है. लोग क्या कहेंगे? और गांव में हम क्या मुंह दिखाएंगे? दादा-परदादा और बिरादरी के लोग क्या कहेंगे? रिश्तेदारों को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी? 38 साल की बेटी का तलाक? तू उससे अलग रहना चाहती है तो रह ले, लेकिन तलाक मत ले, बेटी. हम बहुत बूढ़े हो चुके हैं. अपनी अधेड़ बेटी के तलाकशुदा जीवन का बोझ ढोने के लिए अब हम बहुत बूढ़े हो चुके हैं.’ 

एक तो मैं खुद ही अपनी शादी के टूटने से बिखर गई थी और ऊपर से मां-पापा की बीमारी और तिरस्कार ने मुझे और तोड़ दिया. कुछ ही दिनों में रिश्तेदारों की फिजूल की समझाइशों का दौर शुरू हो गया. चाचा-चाची से लेकर बुआ और ताई तक सब के सब मुझ पर शादी न तोड़ने का दबाव बनाने लगे. किसी ने कुणाल को दोषी नहीं माना. उल्टा मुझे ही शादी बचाने की सलाह देते रहे! और मुझे महसूस हो चुका था कि उनका सरोकार मेरे बुढ़ापे से कम और अपने तथाकथित सामाजिक दंभ को बनाए रखने से ज्यादा था… ताई ने चिल्लाते हुए कहा भी था, ‘हमारे यहां आज तक कोई तलाक नहीं हुआ. ये लड़की पूरे समाज में इज्जत डुबो के ही मानेगी. आगे लड़कियों का ब्याह कैसे करेंगे?’ और सिर्फ परिवारवाले ही क्यों? ऑफिस के लोगों ने भी कोई कमी छोड़ी? सब मुझे कनखियों से देखकर मुस्कुराते ! मेरा तलाक मेरे मेल कलीग्स के लिए ‘मजे लेने’ का विषय बन चुका था. कुछ लोगों ने तो झूठी सहानुभूति दिखाने के चक्कर में अपना कंधा भी रोने के लिए पेश कर दिया !

परिवार, रिश्तेदार और दफ्तर की इन दुश्वारियों के बीच मेरा अपना टूटना जारी था. हर रात जब मैं बिस्तर पर आती, हमारे कमरे में बिताए हजारों खट्टे-मीठे पल आंखों के आगे तैर जाते… कुणाल के साथ देश-विदेश में बिताई छुट्टियां… छुट्टियों पर खरीदे गए तोहफे… उसका काफी का मग… उसका टूथ ब्रश… घर की वो तमाम चीजें जो हमने साथ मिलकर खरीदी थीं… हर चीज़ मुझे बीते वक्त की याद दिलाती.

लगभग छह महीने तक तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी शादी टूट रही है. लेकिन पिछले दो साल के दौरान तमाम मुश्किलों को एक साथ झेलते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा है. मैंने जाना कि एक स्त्री के तौर पर मैं कितनी कमज़ोर और संवेदनशील हूं ! और शायद यही कमजोरी… यही आंसू… यही मुश्किलें मुझे मजबूत भी बनाती हैं.  मैंने इनका सामना करना सीखा और कुणाल से तलाक ले लिया. मैंने किसी को नहीं बताया कि मुझे एक ऐसे आदमी के साथ रहने की जरूरत क्यों नहीं जो प्रेम के नौ साल बाद मुझे छोड़ सकता है. न मां-पापा को,  न रिश्तेदारों को और न अपने दफ्तर के लोगों को. मैंने किसी को कुछ नहीं बताया और चुपचाप कुणाल से तलाक ले लिया.  मैंने उसकी सैलरी और प्रॉपर्टी में मिल रहे हिस्से को भी ठुकरा दिया.

डायरी लेखन:प्रियंका दुबे; इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

लौट के बाजार को आए

सामाजिक कुरीति पर आधारित टीवी सीरियल बालिका वधू अब पूरी तरह से शादी के सेट में तब्दील हो चुका है. गले में एक धागा भर पहनने वाली जिस आनंदी को शुरू से ही भारी गहने और कपड़े से चिढ़ रही है–जिसे पहनकर वह अमिया तक नहीं तोड़ सकती थी–अब उसे सजाया-संवारा जा रहा है. यह सब कुछ आनंदी के उस ससुराल में हो रहा है जहां वह जगिया की बालिका वधू बनकर आई और जहां आकर दिन-रात उसने यही सोचा कि कैसे वह इस ससुराल और दादी सा के चंगुल से निकलकर वापस बापू के घर भाग जाए. लेकिन ऐसा लगता है कि अगले दो-चार एपिसोड में कलेक्टर साहब की पत्नी बनकर अपनी पहली ससुराल यानी दादी सा के घर से विदा होने वाली आनंदी के लिए सामाजिक कुरीति के तहत उसे मिला जगिया, उसके साथ का अतीत और मौजूदा दगाबाजी ही पहला प्यार है.

आनंदी और जगिया की शादी के बहाने बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के प्रति समाज को संवेदनशील बनाने का स्वांग रचा गया. तमाम न्यूज चैनल इसके जरिए इस कुरीति के हमेशा के लिए खत्म होने के पक्ष में खड़े नजर आए. लेकिन आनंदी के लिए वह कुरीति नहीं, कच्चे धागे का पक्का रिश्ता है. अब उसकी पूरी चिंता इस पर आकर टिक गई है कि कलेक्टर साहब और उनके घर के लोग जो उन्हें प्यार देंगे, बदले में वह उन्हें क्या लौटाएगी. क्योंकि प्यार तो जिंदगी में एक ही बार होता है और वह तो उसी जगिया से है जिसने उसे छोड़कर गौरी से शादी कर ली, उसी दादी सा से है जिसने उसके पढ़ने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी, रात भर कमरे में भूखा रखा था.

यह सब देखते हुए हम दर्शकों के दिमाग में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बालिका वधू को बड़ा होकर इसी तरीके से समझदार होना था. क्या टीवी सीरियलों में स्त्री की नियति पहले से निर्धारित है. साल-दो साल के एपिसोड में भले ही उसे एकता कपूर के सास-बहू सीरियलों से अलग दिखाने की कोशिश होती रही हो लेकिन आखिर में हरेक स्त्री को क्या उन्हीं तथाकथित पारिवारिक मूल्यों, भारी-भरकम जेवरातों, चमकीले फर्नीचर और सतरंगे पर्दे से सजे बेडरूमों के आगे नतमस्तक होना है जिन्हें टीआरपी की कोख से पैदा होने वाले बाजार और विज्ञापन के तर्क ने तय कर दिया है? सिर्फ आनंदी ही क्यों गहना (बालिका वधू), ललिया (अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ), इचकी (उतरन), सिया (ना आना इस देस लाडो), इंदिरा (हिटलर दीदी), मिसेज मेघा (ना बोले तुम ना मैंने कुछ कहा) और यहां तक कि प्रिया भाभी (बड़े अच्छे लगते हैं) को वैसा नहीं होना था जैसा वे आगे चलकर हो गईं. अपनी कहानी की बुनावट में ये चरित्र जिस तरह से शामिल किए गए थे उसके हिसाब से उन्हें आगे जाकर अपने अतीत के लिए रोल मॉडल बनना था. सास-बहू सीरियलों की बारहमासी घरेलू कलह, पारिवारिक रंजिश, नायक-खलनायक के बीच बंटे चरित्रों के तमाशे से आगे निकलकर उन्होंने दर्शकों के बीच भरोसा कायम करने की कोशिश की थी कि टीवी सीरियलों के जरिए कुछ नहीं तो स्त्रियों के प्रति संवेदनशील माहौल पैदा करने का काम हो रहा है.

लेकिन ऐसा नहीं होना था. लड़की होने पर उसकी हत्या करने पर मजबूर करने वाली अम्माजी के खिलाफ अकेले खड़ी होने वाली सिया को सीन से गायब नहीं होना था. खुद के छोटी जाति से होने की बात करने वाली ललिया को ठाकुर के महल की चकाचौंध में खो नहीं जाना था. उतरन पर पलने वाली इचकी जैसे सृजनात्मक दिमाग को महंगे कपड़ों और गहनों से लदकर दिन-रात आंसू नहीं बहाने थे. यहां तक कि नकुषा (लागी तुमसे लगन) को अपनी उसी शक्ल को लेकर आगे जाना था जिसे समाज ने बदसूरत मानकर लगातार उससे नफरत की थी.

सीरियलों की नई खेप में पिछले चार-पांच साल के ये वे दर्जन भर से भी ज्यादा चरित्र हैं जो स्त्री छवि के स्याह-सफेद विभाजन से अलग थे. जिन्हें आप सीधे-सीधे अच्छा या बुरा करार नहीं दे सकते थे. जो पहले से निर्धारित आदर्श बेटी, पत्नी, गर्लफ्रेंड या बहू के खांचे में फिट नहीं बैठते थे. ये अपना चरित्र जीते हुए हमें समाज के उन ठिकानों की तरफ ले जा रहे थे जो मर्दवादी सोच, विवाह नाम की संस्था और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर जकड़बंद नहीं थे. जो भव्य बेडरूम, लिविंग स्पेस और ऑफिस यानी प्रायोजकों की जमीन पर नहीं जी रहे थे. वे इन सबसे आजाद उस परिवेश में जी रहे थे जिसे दूरदर्शन के बाद निजी चैनलों ने पूरी तरह खत्म कर दिया था. याद कीजिए स्टार प्लस के सीरियल, आप यकीन ही नहीं कर सकते थे कि इस देश में गांव और कस्बे भी हैं. हर दिन के फैशन अपडेट्स के बीच कोई ऐसा भी स्त्री चरित्र (ललिया) है जो दो ठकुए के लिए ठाकुर के घर अनगनित घड़े पानी भर सकता है. ये वे चरित्र रहे हैं जिनके जरिए समाज का दोमुंहापन या उसकी पेचीदगियां ज्यादा खुलकर सामने आ पा रही थी. नहीं तो इससे पहले के सीरियलों को लेकर धारणाएं कायम हो गई थीं. मसलन टीवी सीरियलों की स्त्रियां या तो झगड़ालू/खलनायक होती हैं या दिन-रात बिसूरने वाली. वे पति या प्रेमी की इच्छाओं के आगे जान देने के लिए तैयार होती है या बेवकूफ होती हैं. ऐसे में तृष्णा (कहानी घर-घर की), काकुल (क्या दिल में है), तुलसी (क्योंकि सास भी कभी बहू थी) और रानी (वो रहनेवाली महलों की) सिर्फ चरित्र भर न रहकर एक मानक बन गईं.

चैनलों ने साफ कर दिया कि वे मनोरंजन चैनल हैं और उनका काम न्यूज चैनलों जैसी नाटकीयता पैदा करना तो है लेकिन उन जैसा स्थायी असर पैदा करना नहीं

लेकिन कलर्स ने 2007 में इन खांचों पर चोट करनी शुरू की. चैनल ने अपने बिजनेस पैटर्न के तहत बालिका वधू, उतरन, ना आना इस देश लाडो, बैरी पिया जैसे  सामाजिक समस्याओं पर आधारित धारावाहिक एक के बाद एक करके लांच किए. उसे जबरदस्त व्यावसायिक सफलता मिली. इसी दौरान एकता कपूर के ‘के फैक्टर’ के एक के बाद एक सीरियल धड़ाधड़ बंद होने शुरू हुए और उसी के साथ तुलसी, पार्वती, कुसुम जैसी आदर्श पत्नी और बहू के आगे कन्या भ्रूण हत्या, विदर्भ के किसानों की आत्महत्या, अपहरण जैसी सामाजिक समस्याएं इतनी प्रमुखता से सामने आने लगीं कि लगा जैसे जो सीरियल वीमेन स्पेस (कंटेंट,  दर्शकों और चरित्रों की संख्या के आधार पर) होने के नाम पर ‘जनाना डब्बा’ बना हुआ था, उसे अचानक खुले विमर्श के लिए छोड़ दिया गया है. 

इसके दो फायदे हुए. एक, दर्शकों का दायरा बढ़ा. पुरुष और बाल दर्शकों की संख्या में इजाफा हुआ. दूसरे, जिन स्त्री चरित्रों को सीरियलों ने वैनिटी बॉक्स और ड्रेसिंग टेबल के आस-पास फंसाए रखा था, वे उससे छिटककर समाज के बीच चली गईं. आप गौर करें तो पिछले चार-पांच साल के दौरान ये स्त्री चरित्र उन मुद्दों और मसलों से जूझते दिखे जो हार्डकोर पुरुष-सत्ता के अधीन रहे हैं. मसलन ‘ना आना इस देस लाडो’ में अम्माजी के खिलाफ सिया का चुनाव लड़ने को ही लें. इससे पहले सीरियलों में राजनीति शामिल नहीं थी. ‘न तो मैं अपने मां-बापू के घर जाऊंगी और न ही आपके और आपके बेटे की कोई जोर-जबरदस्ती सहूंगी. ब्याहकर लायो हो म्हारे को’, जैसे संवाद के जरिए चैनल ने उत्तराधिकार की लड़ाई में शामिल गहना जैसे चरित्र पैदा किए. कलर्स की इस व्यावसायिक सफलता ने उन चैनलों और सीरियलों को खुली चुनौती दी जिनके पास स्त्री को आदर्श पत्नी, बहू, बेटी से अलग करके देखने का कलेजा नहीं था. नतीजा, वही चैनल और वही सोप ओपेरा की महारानी एकता कपूर, दोनों समस्यामूलक सीरियलों की तरफ मुड़ गए. कलर्स के अलावा सामाजिक समस्याओं को लेकर जीटीवी, सोनी, स्टार प्लस और भूतपूर्व चैनल एनडीटीवी इमैजिन ने भी सीरियल बनाए. इसने एकबारगी तो स्त्री-चरित्रों में विभिन्नता तलाशने की भरपूर संभावना पैदा की. लेकिन बहुत जल्द ही चैनलों नेे यह स्पष्ट कर दिया कि वे मनोरंजन चैनल हैं और उनका काम न्यूज चैनलों जैसी नाटकीयता पैदा करना तो है लेकिन मीडिया जैसा कोई स्थायी असर पैदा करना नहीं. नतीजतन, एक-एक करके सारे सीरियल उसी सास-बहू वाले पुराने ढर्रे की तरफ लौटते चले गए जिससे दर्शक मेट्रीमोनियल वेबसाइट और एजेंसी से होकर गुजरने का सुख पा सके.

ताकि उसे एक ऐसी आदर्श पत्नी चुनने में मदद मिल सके जो सोशल एक्टिविज्म की पृष्ठभूमि से आते हुए भी आखिर में समझ चुकी होती है कि परिवार, पति और बच्चे से बढ़कर कुछ भी नहीं और उसकी दुनिया इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमनी है. दूसरी तरफ इन सामाजिक समस्याओं को पैदा करने और बरकरार रखने वाला मर्द पहले के सीरियलों की तुलना में थोड़ा सॉफ्ट कर दिया गया है. मसलन सूरज टिपिकल पति की तरह नहीं चाहता कि उसकी पत्नी संध्या चूड़ी-बिंदी में फंसी रहे. वह खुद भले ही मिठाई की दुकान पर बैठे लेकिन संध्या कम से कम बीएड कर ले. सामाजिक समस्याओं से चंद एपिसोड तक मुठभेड़ करके आने वाले स्त्री चरित्रों और एकता कपूर के करीब एक दशक तक मौके के हिसाब से सजने-संवरने वाले स्त्री चरित्रों (जिनमें बा जैसी सास भी शामिल हैं) के बीच एक अलग किस्म के स्त्री चरित्रों का विस्तार तेजी से हो रहा है जो कि व्यावसायिक सफलता और लोकप्रियता के लिहाज से खासा पॉपुलर हो रहे हैं. ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ की प्रिया भाभी, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ की डॉ. निधि वर्मा, ‘परिचय’ की सिद्धि मलिक, कृष्णा राज (अफसर बिटिया) ऐसे ही चरित्र हैं जिनमें अलग-अलग स्तर पर जीवन संघर्षों और सामाजिक समस्याओं से जूझने वाला फ्लेवर तो है ही, साथ ही ये बखूबी जानते हैं कि किस मौके पर अपने जीवनसाथी को क्या सलाह देनी है, घर बैठकर उसकी कमाई खाने और सजने के बजाय कैसे प्रोफेशनली उसकी मदद करनी है और कैसे हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहकर उसके सारे दुख हरने हैं. आप इन चरित्रों पर गौर करेंगे और आस-पास की उन स्त्रियों की जिंदगी से इसका मिलान करेंगे जो ऑफिस भी जाती हंै और घर भी संभालती हैं तो यकीन हो जाएगा.

दरअसल पूरा टीवी सीरियल जगत देश के उन कुंवारे लड़कों/अधेड़ों की गिरफ्त में फंसा हुआ है जिन्हें पढ़ी-लिखी, किट्टी-कॉकटेल पार्टी में गर्लफ्रेंड और घर आकर घरेलू/आदर्श पत्नी बनकर जीने वाली लड़की की शिद्दत से तलाश है. तभी असल जिंदगी में 37 साल का लड़का और 24 साल की लड़की भले ही बेमेल विवाह हो लेकिन सीरियलों में ऐसी जोड़ियां न सिर्फ सुपरहिट हैं बल्कि खुशनसीब हैं. ये सीरियल उन प्रायोजकों की इजारेदारी हंै जिनके स्त्री चरित्र भारी-भरकम जूलरी नहीं पहनेंगे, महंगे फर्नीचर, सेटअप के साथ आलीशान घर में नहीं रहेंगे तो उनके बिजनेस का भठ्ठा बैठ जाएगा. और तब आप कहेंगे कि जिन स्त्री चरित्रों पर घर, पारिवारिक मूल्यों, विवाह संस्था, भावनात्मक जमीन के साथ-साथ बाजार बचाने की जिम्मेदारी लाद दी गई हो वे इन सबसे अलग भला कैसे हो सकते हैं.         

ये चरित्र सास-बहू और समस्यामूलक सीरियलों के चरित्रों का एक ऐसा कॉकटेल हंै जिसका आगे विस्तार होना है. जो स्त्री अधिकारों, आधी दुनिया के सवालों और पहचान की राजनीति को एक-एक करके बकवास करार देने जा रहा है. जो उन्हीं मान्यताओं और तथाकथित मूल्यों को अपनाने जा रहा है जिन्हें हम और आप सास-बहू सीरियलों द्वारा निर्धारित चरित्रों में पूरी तरह खारिज कर चुके हैं, लेकिन अब उतनी ही आसानी से नहीं कर सकते. इसलिए इन चरित्रों ने अपने जीवन में वह सब कुछ करके देख लिया जिससे उनकी अपनी पहचान, इच्छाओं की उड़ान, निजता की रक्षा और स्वतंत्र व्यक्तित्व जैसी चीजें बननी थीं. अब स्त्री इस निष्कर्ष तक पहुंची है कि पुरुष के बिना जीवन जिया नहीं जा सकता, पति परमेश्वर नहीं भी तो सोलमेट है और अगर वह परिवार नहीं बचा सकती तो फिर वीरपुर का पंचायत चुनाव लड़कर ही क्या बदलाव ले आएगी.   

उषा से आशा…

ऊषा पहले तो बात करने में खुलती ही नहीं. बेहद औपचारिक तरीके से दुआ-सलाम और फिर इधर-उधर की बातें करती हैं. लेकिन बार-बार अपने बारे में बताने का आग्रह करने पर जब वे अनौपचारिक होती हैं तो फिर बोलती ही जाती हैं. ढेरों बातें एक ही सांस में बता देना चाहती हैं. वे बताती हैं, ‘मेरा पूरा नाम ऊषा चाउमार है. राजस्थान में भरतपुर के पास डीह गांव में पैदा हुई. हम सात भाई-बहन हैं. दो भाई और पांच बहनें. मुझे अब भी वो दिन अच्छी तरह से याद है, जब मैं करीब सात साल की थी और मेरी मां ने मुझे भी काम पर ले जाना शुरू कर दिया था. मां अपने एक हाथ में राख से भरी लोहे की परात रखती थी, दूसरे हाथ में झाड़ू. घर से निकलने के पहले चेहरे को पूरी तरह घूंघट से ढक लेती थी. मैं अबोध बच्ची, बहुत कुछ समझ नहीं पाती थी लेकिन उनके साथ हो जाती. बहुत दिनों तक बहुत कुछ समझ ही नहीं सकी और जब तक इस काम को समझ पाती, तब तक मैं खुद ही मां की तरह परात और झाड़ू लेकर काम पर निकलने लगी थी. दस साल की उम्र में मैं भी वही काम करने लगी थी. जान चुकी थी कि मेरी मां गांव के सामंतों का पैखाना-पेशाब और गंदगी साफ करने जाती थी और मैं भी वही कर रही हूं.’ वे आगे कहती हैं, ‘मां के साथ जाते-जाते ही मैं यह भी समझ गई थी कि ठाकुर-ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं और हम अछूत हैं.’

ऊषा चाउमार यह सब बताते-बताते कई बार भावुक होती हैं, लेकिन रुकती नहीं. अतीत भले ही छूट चुका हो लेकिन उसकी भयावहता अब भी उनके मन में ठहरी हुई है. वे कहती हैं, ‘गर्मी के दिनों में भरी दोपहरी में मैं अपनी बहनों के साथ काम करती थी. प्यास लग जाए तो पानी के लिए किसी के घर के बाहर से ही चिल्लाना पड़ता था. प्यास से तड़पने के बावजूद हम घर के भीतर नहीं जा सकते थे. कोई पानी लेकर निकलता और ऊपर से डालता तो हम चुल्लू में लेकर जानवरों की तरह पीते.’

वे थोड़ा संभल जाएं, इसके लिए हम विषय थोड़ा बदलने की कोशिश करते हैं. लेकिन ऊषा रुकती नहीं. कहती हैं, ‘अब आगे की जिंदगी भी जान ही लीजिए.’ 10 साल की उम्र में ही ऊषा की शादी हो गई. चार साल बाद वे अलवर स्थित अपनी ससुराल आईं. वहां भी वही काम इंतजार कर रहा था. ऊषा बताती हैं, ‘सोचा था कि ससुराल में थोड़े दिन तो राहत मिलेगी लेकिन घर तो बदला, काम नहीं.’

ऊषा और उनके साथ काम करने वाली कई नई बहुरियों को इस पेशे से नफरत थी, लेकिन परिवार चलाने के लिए, दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए कोई और रास्ता भी नहीं था, सो करना पड़ा वह काम.
तो फिर कैसे बदली जिंदगी, यह पूछने पर ऊषा के चेहरे पर पहली बार खुशी का भाव आता है. वे बताती हैं, ‘हर दिन की तरह काम पर निकली थी. मोहल्ले में एक रोज एक गाड़ी आकर लगी. उस गाड़ी में सामाजिक कार्यकर्ता एवं सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक थे. जब पाठक ने ऊषा और उनके साथ काम कर रही महिलाओं को बुलाया तो इन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि गाड़ी में बैठा हुआ कोई आदमी उन्हें बुला सकता है. ऊषा बताती हैं, ‘विश्वास हुआ भी तो हिम्मत ही नहीं हो पाई जाने की. मैं ही किसी तरह हिम्मत कर गई और गाड़ी से कुछ दूर पहले ही घूंघट ताने खड़ी रही. उन्होंने पूछा कि यह काम क्यों करती हो. छोड़ दो, गंदा काम है. मुझे बहुत गुस्सा आया कि यह कार वाला साहब भी मजाक करने आया है. मैंने कहा कि हमारा घर इसी से चलता है तो क्या करूं?’

ऊषा आगे बताती हैं, ‘उन्होंने कहा कि आप मुझे अपने घरवालों से मिलवाओ, मैं यह काम भी छुड़वा दूंगा और घर-परिवार चलाने का रास्ता भी बताऊंगा.’ ऊषा ने ऐसा ही किया. बात सुनते ही उनकी सास भड़क गईं.  ऊषा कहती हैं, ‘उन्होंने कहा कि पागल हो गई हो जो किसी के कहने पर पुश्तैनी पेशा छोड़ रही हो!’

‘भयंकर गर्मी में प्यास से तड़पने के बावजूद हम किसी के घर के भीतर नहीं जा सकते थे. कोई पानी लेकर निकलता और ऊपर से डालता तो हम चुल्लू में लेकर जानवरों की तरह पीते’

ऊषा बताती हैं कि उनके मन में भी दुविधा हुई कि क्या होगा, क्या नहीं. लेकिन वे भंगी के पेशे से छुटकारा चाहती थीं इसलिए आखिर में उन्होंने तय किया कि एक बार कोशिश करके देखते हैं. कुछ हुआ तो जिंदगी बदल जाएगी. नहीं तो मैला साफ करने वाला यह काम तो बचपन से आता है, फिर करने लगेंगी. ऊषा ने साहस दिखाया. मन की बात पति को बताई और जब पति तैयार हो गए तो वे दिल्ली आकर सुलभ से जुड़ गईं.  यहीं उन्हें अहसास हुआ कि जीविका चलाने के लिए  जरूरी नहीं कि मैला ढोया जाए. और भी बहुत से काम हैं जिन्हें करके सम्मानित जीवन जीने के साथ-साथ अच्छा पैसा भी कमाया जा सकता है. अपने इस सफर के बारे में ऊषा बताती हैं, ‘मुश्किल था अलवर से दिल्ली पहुंचना. लेकिन मेरे मरद ने हिम्मत दी. और मैं यहां पहुंच गई. यहां आकर मुझे पता चला कि रोजगार के दूसरे बहुत से साधन है जिनमें इज्जत भी है और पैसा भी. जैसे अगरबत्ती बनाना, पापड़ बनाना, सिलाई करना, ब्यूटी पार्लर चलाना. यह सब जानने और सीखने के बाद मैं अलवर लौटना चाहती थी ताकि वहां की दूसरी महिलाओं को भी यह सब बता और समझा सकूं.’

कुछ दिन दिल्ली में गुजारने के बाद उषा फिर से अलवर लौटीं. कुछ नए सपनों और उन सपनों को हकीकत में बदलने के तरीकों के साथ अलवर पहुंचकर ऊषा ने अपने साथ की कुछ महिलाओं से बात की. उन्हें इस बात के लिए तैयार करना शुरू किया कि वे उन पर थोपे गए एक घिनौने पारंपरिक पेशे को छोड़कर एक नई राह चलने की सोचें. ऊषा बताती हैं, ‘कुछेक महिलाओं को छोड़कर किसी ने ज्यादा एतराज नहीं किया.’ जल्द ही उनके साथ दस महिलाएं जुड़ गईं. इसके बाद ऊषा ने अपने इलाके में एक ट्रेनिंग सेंटर खोला.

इस पूरी कवायद के बारे में ऊषा हंसते हुए बताती हैं, ‘हां, कुछ महिलाओं ने मुझे पागल जरूर कहा. कुछ ने कहा कि दिल्ली से आई है तो इतरा रही है. जल्द ही जमीन पर आ जाएगी लेकिन ज्यादातर महिलाओं ने मेरा कहा माना और मेरे साथ जुड़ गईं. इससे मुझे हिम्मत मिली. फिर सुलभ की सहायता से अलवर में ट्रेनिंग सेंटर भी शुरू हो गया.’

इसके बाद तो देखते ही देखते पूरे अलवर के भंगी समाज की महिलाओं ने अपना पुराना पेशा छोड़ दिया और ऊषा की मुहिम के साथ जुड़ती चली गईं. आज नतीजा यह है कि ऊषा 600 से अधिक महिलाओं को इस नारकीय पेशे से निकाल चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘उस समय मैं बहुत दुविधा में रहती तो आज यह दिन नहीं देख पाती.’

ऊषा कई बार विदेश हो आई हैं. आज उनके बच्चे बेहतर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. इलाके में अपनी तरह की महिलाओं की जिंदगी में वे बड़ा बदलाव लेकर आई हैं. उनके द्वारा खुलवाए गए ट्रेनिंग सेंटर में आज महिलाओं को मोमबत्ती, पापड़, अगरबत्ती बनाने से लेकर ब्यूटी पार्लर चलाने तक की ट्रेनिंग दी जा रही है. कभी दूसरों के घर की गंदगी साफ करके उसे सिर पर ढोने वाली महिलाओं के हाथ से बनी मोमबत्तियां आज लोगों की जिंदगी में उजास भर रही हैं. अछूत मानी जाने वाली इन महिलाओं के हाथ से बनी इन अगरबत्तियों भगवान का घर सुगंधित होता है. उनके हाथ से बने पापड़ लोगों के खाने में लज्जत घोलते हैं. अतीत की पीड़ा की जगह अब ऊषा के चेहरे पर अपने वर्तमान का गर्व दिख रहा है.

होम पेज: महिला विशेषांक

मुझे क्या बेचेगा रुपैया

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वैशाली,  20 साल
27 जून 2008,  बनारस
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आखिर ग्रेजुएशन का रिजल्ट आ ही गया. अच्छे मार्क्स हैं, बीएचयू की डिग्री है लेकिन केवल ग्रेजुएशन से होता क्या है आजकल वह भी आर्ट्स से? आज मां की बहुत याद आ रही है. वह होती तो जरूर कुछ सलाह देती. उसे गुजरे पूरे छह साल हो गए. 14 कोई उम्र नहीं होती मां से अलग होने की… लेकिन बस हो गया. मां थीं तो कहा करती थीं- 20 की उम्र जिम्मेदारियां उठाने की उम्र होती है. उंह.. जिम्मेदारियां, वो तो मां के गुजरते ही बहुत नैचुरली मेरी दोस्त बन गईं. मां के जाने के बाद बुलबुल की मां मैं ही तो हूं.

टीनएज का रोमांच तो मानों किस्सों-कहानियों के साथ ही आया और चला गया. न तो उम्र के 13वें पड़ाव की शुरुआत पर कुछ खास महसूस हुआ था और न ही 19 वें के अंत में ऐसा कुछ लगा जिसे अलग फीलिंग का नाम दे सकूं. मां..ओ मां…सुन रही हो, मेरा बचपन तुम पर उधार  रहा.

रिजल्ट के बारे में सुनकर पापा ने भी कुछ रिएक्ट नहीं किया. पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा है? दूसरों से ही सुना है कि पापा मेरी बहुत तारीफ करते हैं लेकिन मेरे कान तो तरस ही गए उनके मुंह से बेटी सुनने के लिए. पता नहीं वह कौन सा संकोच है जो उनको रोकता है? या फिर शायद लोग ही झूठ बोलते हैं मेरा दिल रखने के लिए. दादी के हावभाव देखकर तो लगता है मानो मेरी शादी ही इस समय सबसे बड़ा इश्यू है. उनका बस चले तो लड़कियों की (समय पर ) शादी को पॉलिटिकल पार्टीज के मेनिफेस्टो में ही शामिल करवा दें.

28 जून 2008, रात 12.30
बुलबुल आज फिर कुमार चाचा की शिकायत कर रही थी. ये कुमार चाचा की प्रॉब्लम क्या है? बिना टच किए कोई बात नहीं हो सकती है क्या? पचास बार बता चुकी हूं कि बुलबुल अब बच्ची नहीं है 14 साल की यंग लड़की है लेकिन उनका दुलार है कि कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. किससे कहूं… पापा के लिए तो जैसे हम एक्जिस्ट ही नहीं करते और दादी से इस बारे में कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है. कहा तो था चार साल पहले जब देर रात शराब पीने के बाद चाचा जबरन बुलबुल ‘बेटी’ को अपने पास सुलाने की जिद पर अड़ गए थे ….. आखिर क्या हुआ था उस वक्त भी? वही  चुप रह, ज्यादा अक्ल मत लगा, अरे चाचा है कोई राक्षस नहीं है, तुझे इन बातों की खूब समझ हो गई है. यही सब पढ़ाया जाता है स्कूल में और जाने क्या क्या  सुनना पड़ा था?  अनिकेत सही कहता है- औरतें चाहें किसी भी तबके से हों सबसे पहले वे पीड़ित, शोषित और दलित की कैटेगरी में ही आती हैं. भोपाल और लखनऊ के दो जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट्स में एप्लाई किया है. कहीं बात बनती है तो सबसे पहले बुलबुल को बोर्डिग स्कूल में डालूंगी, उसके बाद ही खुद कहीं जाऊंगी.

25 जुलाई 2008
फाइनली भोपाल में सेलेक्शन हो ही गया. बनारस अभी छूटा नहीं है लेकिन छूट ही गया है. इस उम्र में पहली बार घर से बाहर नई जगह जाना मानो अपनी जड़ें नई जगह रोपनी हैं. बुलबुल को बोर्डिंग में डालने को लेकर खूब तनातनी हुई. पापा तो हर चीज से मानो बेजार ही हो गए हैं. चाचा को पहली बार कल आंखों में आंखंे डाल के समझाया. जाने क्यों नजर नहीं मिला पा रहे थे. जाते-जाते उनको पिंकी विरानी की बुक ‘बिटर चॉकलेट्स’ गिफ्ट करूंगी ये सोच लिया है मैंने. अनिकेत की याद बहुत आने लगी है जबकि अभी तो उससे दूर भी नहीं हुई हूं. कल शाम लाइब्रेरी में उससे कहना चाहती थी कि अपना ख्याल रखना लेकिन कह बैठी- मेरे पीछे पापा का ख्याल रखना. वह भी तो एकदम डूबा डूबा सा नजर आ रहा है. एक बार कहता भी नहीं कि वैशाली मत जाओ… लेकिन क्या मैं उसके कहने से रुक जाऊंगी?

31 नवंबर 2008
भोपाल का माहौल हमारे बनारस से एकदम अलग है. लोग उतने मस्तमौला नहीं हैं. सब बहुत व्यस्त रहते हैं और रिजर्व भी. मकान मालकिन भी कहां कुछ बातचीत करती है. शायद मैं बाहर से आई हूं इसलिए ऐसा लगता है. यहां तो लगता है सारे लोग बस ऑफिस में ही काम कर रहे हैं. हर कोई या तो ऑफिस से आ रहा है या ऑफिस जा रहा है…कमाल है. मुझे बनारस से जल्दी आना चाहिए था. आने में थोड़ी देर क्या हुई हॉस्टल सारा बुक हो गया. अगर कोई कभी किराए के मकान में नहीं रहा तो वह समझ ही नहीं सकता कि यह कितनी बड़ी समस्या है. मैं जर्नलिज्म यूनिवर्सिटी में हूं, जाहिर है असाइनमेंट पर होती हूं तो कई बार आने में देर हो जाती है. मकान मालिक का परिवार कुछ कहता तो नहीं लेकिन उनकी नजरों में जो चुभता हुआ संदेह है वह मुझे अच्छा नहीं लगता. अपने बैचमेट्स को कभी घर बुला लिया तो जेंट्स को देखते ही किसी न किसी बहाने दरवाजे की घंटी बजा ही देंगे.

‘दादी का बस चले तो लड़कियों की (समय पर ) शादी को पॉलिटिकल पार्टीज के मेनिफेस्टो में ही शामिल करवा दें’

5 जनवरी 2010
अनिकेत का फोन आना धीरे-धीरे कम हो गया है. उसे मैंने फेसबुक पर भी ब्लॉक कर दिया है. भोपाल आने के बाद उससे जो नोकझोंक हुई उसने इस रिश्ते को बिल्कुल ठंडा कर दिया. आई मीन ये क्या है यार? मैं जर्नलिज्म का कोर्स कर रही हूं तो तुमने क्या डिटेटिक्व एजेंसी ज्वाइन कर ली है? 1000 किलोमीटर दूर बैठकर तुम्हें मेरे हर एक पल का हिसाब चाहिए? कहां गई थी? फोन क्यों नहीं उठाया? फेसबुक पर ये अमित कौन है जो बार बार तुम्हारी पिक्स लाइक करता है? हर बात में देखो झूठ मत बोलो. अरे यार जब तुमने तय कर ही लिया है कि मैं झूठ बोलती हूं तो तुम ये सारे सवाल करते क्यों हो? जिन अच्छी बातों ने मुझे उसकी ओर खींचा था उनमें से अब एक भी नजर नहीं आती. उसके अंदर भी वही टिपिकल मर्द दिखता है जिनके बीच मैं बड़ी हुई हूं. मुझे एक और मर्द नहीं चाहिए बॉस. लिव योर लाइफ डियर फ्रैंड एंड लेट मी लिव माइन. सच में यहीं आकर पता चला कि जिंदगी में करने के लिए कितना कुछ है. जर्नलिज्म इकलौता ऐसा फील्ड है जहां आप संतुष्टि पाने के साथ-साथ करियर भी बना सकते हैं.

21 जनवरी
अगर कभी ईश्वर से मेरा आमना सामना हुआ ना, तो एक ही चीज मांगूंगी. हे भगवान, सारे लड़कों को एक बार लड़कियां बना दो. तब इनको पता चलेगा जिंदगी कितनी कठिन है. यहां तक कि यूनिवर्सिटी के लड़के भी. किसी से थोड़ा फ्रैंडली होकर बात कर लो, बस हो गया काम. पहले नंबर प्लीज उसके बाद मैसेज पर मैसेज. कुछ भी कहने का मतलब है अपने कैरेक्टर पर लांछन लगवाने की पहल करना. मन करता है न्यू मार्केट चौराहे पर चिल्लाकर कह दूं- स्टॉप स्टेरिंग. घूरना बंद करो भाई लोग. मैं भी इंसान हूं. किसी वनविहार से भागकर आया हुआ कोई जानवर नहींं. अमित से थोड़ा बहुत राब्ता हुआ था तो वो मियां कुछ ज्यादा ही प्रोटेक्टिव बनने लगे. सारे लड़कों की एक ही प्रॉब्लम है क्या?

‘मैं फिल्मों की दुखियारी पत्नी नहीं जो टसुए बहाते हुए अपने ‘प्राणनाथ’ की बाट जोहती है. इनके घर वालों को शायद इसी बात का गम भी है’

18 फरवरी
इस महीने के अंत तक फाइनल एग्जाम्स हो जाएंगे. उसके बाद क्या होगा? ये सवाल सोने नहीं देता. पापा के न्यूट्रल होने का ये फायदा है कि वो शादी के लिए बहुत अधिक प्रेशर नहीं डाल पाते. दादी की उतनी चल नहीं पाती. बुलबुल के बोर्डिंग जाने के बाद से उसकी ओर से कुछ निश्चिंत हो गई हूं. घर गए भी नौ महीने से ज्यादा हो गए. कुछ भी हो घर की याद तो आती ही है लेकिन सबसे ज्यादा याद मां और बुलबुल की आती है. मां तो रही नहीं. पता नहीं मेरी छोटी की बोर्डिंग में कैसी परवरिश मिल रही है.

23 मार्च
एग्जाम्स खतम हो गए हैं और गमे रोजगार शुरू. साल भर की पढ़ाई के दौरान सभी साथियों के साथ जो जनगीत गाए और वरिष्ठ पत्रकारों के साथ दुनिया को बदलने का जो हौसला जुटाया वह हवा हो चुका है. अब तो बस एक ही लक्ष्य है एक नौकरी मिल जाए ताकि दोबारा बनारस नहीं जाना पड़े. जिस अखबार में इंटर्नशिप की थी उसमें और कई जगहों पर सीवी डाल तो दिया है लेकिन हर जगह वही टका सा जवाब अभी वैकेंसी नहीं है. जैसे ही कुछ होगा कॉल करेंगे. क्या तो कॉल करोगे तुम लोग? इतने दिन में इतना तो जान ही गई हूं कि बिना जुगाड़ के कुछ नहीं होने का.

22 साल
19 अप्रैल, 2010,
हाथ कांप रहे हैं… मेरा पहला अप्वाइंटमेंट लेटर हाथ में है. दिल्ली का एक अखबार है. हां…हां महीने के 10,000 रुपये देगा तो क्या, मेरी अपनी कमाई होगी. पापा को फोन किया था. पहली बार थोड़े खुश लगे. मैं भी तो कुछ ज्यादा ही इमोशनल हो गई थी, ‘पापा छोड़ो बनारस वनारस, मेरे साथ दिल्ली आकर रहो.’ बैकग्राउंड में दादी का बड़बड़ाना जारी था. आज मैं बहुत खुश हूं. सोचा दादी को भी कह ही डालूं कि हां… हां कर लूंगी शादी भी.

दो साल बाद…. (24 साल और उसके बाद)
1 अक्टूबर 2011
आज शादी की पहली सालगिरह है और ये गायब हैं. अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये कहीं दोस्तों के साथ बैठे शराब पी रहे होंगे. नहीं…नहीं मैं कोई हिंदी फिल्मों की दुखियारी पत्नी नहीं हूं जो टसुए बहाते हुए अपने ‘प्राणनाथ’ की बाट जोहती है. मैंने शादी के बाद भी नौकरी छोड़ी नहीं है और इनके घर वालों को शायद इसी बात का गम भी है. कभी-कभी लगता है अरेंज मैरिज करके कहीं गलती तो नहीं कर दी? बहुत सोच समझकर इस रिश्ते के लिए हां की थी. पापा भी खूब उत्साहित थे. उन्होंने स्पेशली मेरे जॉब को ध्यान में रखते हुए दिल्ली में रहने वाला लड़का खोजा. कितना तो दहेज दिया था. इन लोगों ने भी उस वक्त तो कोई डिमांड नहीं रखी थी लेकिन धीरे-धीरे असलियत सामने आने लगी है.

मीठी बातें करके पापा को तो ये लोग जितना दुह सकते थे दुह ही लिया. अगर दादी मुझे नहीं बतातीं तो कभी पता भी नहीं चल पाता कि इन्होंने इतने पैसे लिए. यहां आकर पता चला कि इनको मेरी सैलरी भी चाहिए और घर में काम करने के लिए एक लौंडी भी. इतना खराब माहौल है कि क्या कहूं? अभी तक तो किसी तरह संघर्ष जारी है लेकिन पता नहीं कब तक ऐसे चलेगा?

20 दिसंबर
राहुल को मैं आजतक समझ नहीं पाई. एक पल लगता है कि ये मुझसे बहुत प्यार करता है, लेकिन दूसरे ही पल यह बिल्कुल अजनबी है. मां-पापा के सामने तो यह ऐसा घबराता है जैसे प्रिंसिपल के सामने फर्स्ट स्टैंडर्ड का बच्चा खड़ा हो. अगर वो उनके सामने मेरे लिए स्टैंड ही नहीं ले सकता तो फिर काहे का पति और काहे का जीवनसाथी? आज सुबह उठने में थोड़ी देर हो गई तो मांजी किचन में जाकर नाश्ता बनाने का ड्रामा करने लगीं. अरे भई मैं भी काम करके आती हूं? रात देर से सोती हूं…रोज तो करती ही हूं न, एक दिन अगर आंख लग गई तो इतना तमाशा क्यों? एकदम रेस के घोड़े की तरह दिन रात भागना पड़ रहा है. आज वो रिश्तेदारों के सामने ताने दे रही थीं तो राहुल को कुछ बोलना चाहिए था. लेकिन मेरे जवाब देने पर वह उलटा मुझ पर बरस पड़ा. मैंने इसलिए अरेंज मैरिज की थी ताकि लोग ये न कहें कि फलाने की लड़की घर से पढ़ने निकली थी लेकिन वहां जाकर ‘नाक’ कटा आई. बिरादरी की नाक का भी तो ख्याल रखना था ना. मुझे नहीं पता था यहां इतनी तरह के ड्रामे होंगे.

29 जनवरी
सुबह एक असाइनमेंट पर जल्दी जाना है. राहुल से उसकी कार मांगी तो कहने लगा, बाप के घर से लाई हो क्या? वह बार बार अपनी नौकरी छोड़कर बिजनेस करने की बात कहता है. ये लोग जो रोज नया ड्रामा करते हैं कहीं और पैसे के लिए तो नहीं है? वह पहले भी बुरा बोलता था लेकिन अब हद हो रही है. ताने मारने की यह स्टाइल उसने अपनी मां से सीखी है. इन छोटे छोटे तानों का असर इतना है कि जी में आता है  किसी दिन खाने में जहर मिलाकर मार डालूं या खुद ही किसी दिन मेट्रो के आगे कूद जाऊं. जब वी मेट फिल्म का वह सीन देखकर मैं बहुत हंसी थी जिसमें स्टेशन मास्टर करीना कपूर से बोलता है कि अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी के समान होती है. लेकिन नौकरी करने के बाद समझ में आया कि यह मजाक बिल्कुल नहीं था. बल्कि इसके अलावा सबकुछ मजाक ही है.

27 फरवरी
जैसे इतना ही काफी नहीं था.  अब इनको (या शायद इनके मां बाप को) बच्चा चाहिए. जी में आया कह दूं कि राहुल तुमने बेसिक साइंस भी नहीं पढ़ा है क्या? हमें सीधे मुंह बात किए हुए भी जमाना गुजर गया है तो बच्चा क्या ‘भगवान जी’ मेरी गोद में डालेंगे? अजीब नॉनसेंस लोग हैं. और मैं क्यूं पैदा करूं बच्चा-बच्ची? इसलिए कि उसे भी मेरे जैसा ही ‘शानदार’ जीवन मिले? कान खोलकर सुन लो राहुल एक बार नहीं… हजार बार नहीं.
दोस्त कहते हैं कि अभी बहुत देर नहीं हुई है, ये रिश्ता तोड़ ले. सच भी है न कोई लगाव है न जुड़ाव. लेकिन शादी तोड़ने के बाद के जीवन की कल्पना तो और भी रूह कंपाने वाली है.  n

डायरी लेखन:पूजा सिंह

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राबिया, 25 साल

20 सितंबर 2012,  अजमेर

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मैं शादी क्यों करूं? क्या इसलिए कि सब कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो सब धोखेबाजियां, जालसाजियां भी कर रहे हैं. तो आज से ही शुरु कर देती हूं. बड़ी खाला पिछले दिनों घर आईं तो कह रही थीं ‘दुनिया की ज़रूरत है शादी.’ मैंने कहा ‘दुनिया की ज़रूरत तो पेट्रोल भी है, अब क्या कूंआ खोदने लगूं.’ खाला चिढ़कर बड़बड़ाने लगीं ‘अरे, भई कोई साथी तो होना चाहिये ना, पूरी 25 की हो गई हो’ मैंने इतराते हुए खाला के कंधे में हाथ डाला ‘साथी की फिक्र क्यों करती हैं, बिटिया आपकी इतनी बुरी भी नहीं’ ये खाला के सब्र की इन्तेहा थी ‘सारा दिमाग पढ़ाई ने खराब किया है,’ अब तक मैं मैदान में उतर चुकी थी ‘लो, मानो जब आदम-हौआ ज़मीन पर आए तो अल्लाह ने साथ में काज़ी भी भेजा था.’

मां बताती है, बचपन में मैं अपने टिफ़िन बॉक्स में चाय ले जाने की जिद करती थी. जब टीवी पर कुकिंग ऑयल का विज्ञापन आता भाग कर किचन में जाती और प्लेट लेकर आ जाती कि टीवी में से पूड़ियां और पकौड़े निकालेंगे. वो बचपना था. 18 साल की उम्र में दुनिया जीत लेने वाला एहसास टीन-ऐज का जोश था. यानि अब तक सब नॉर्मल ही था. किसी को बताऊंगी तो वो इन बातों से इत्तेफ़ाक रखेगा कि सबके साथ ऐसा ही होता है. फिर आज मेरा हर कदम, मेरी हर बात सबको खटकती क्यों है? बचपन में ज़्यादातर बच्चियां शादी के जिक्र पर शर्माकर बुदबुदाती हैं ‘मुझे शादी नहीं करनी.’ उस वक्त सब हंस देते हैं. लेकिन जब यही बात 25 साल की कोई लड़की कहती है तो उसे फुंकार समझा जाता है.

‘तुम शादी कब करोगी?’ ये सवाल हर बार एक अलग शक़्ल लिए मेरी चौखट पर घंटी बजाता है. जब दादी सर पर हाथ रखकर ‘बिटिया’ कह कर पूछती हैं तो मैं दरवाजा खोलती हूं और कहती हूं, ‘दादी अभी तो बच्ची हूं, देखिये ना मेरा कद सिर्फ पांच फुट ही है’ दादी मुस्कुराती हैं और बताती हैं, ‘बहनी, हम तेरह साल की थीं जब बिदा हो गई थीं, हम तब चार फ़ुट की रहीं. तुम्हरे दादा पंद्रह साल के रहे, ओ वक़्त हमसे लम्बे थे, पांच फुट के रहे. फिर धीरे-धीरे हम छ: फुट की हो गईं और वो छोटे ही रह गए’. दादी के इस मज़ेदार किस्से के साथ बात का रुख घूम जाता. अपने से छोटी किसी लड़की की शादी में जाना भी एक चैलेंज है. पिछले महीने जरीन की छोटी बहन ज़ैनब का निकाह था. स्टेज पर जब उससे मिलने गयी तो कहने लगी, ‘बाजी, अब आप भी निकाह पढ़वा ही लो.’ मैं उसके चेहरे से भी बड़ी नथ को देखती रही जो बार-बार उसके गोटे वाले दुपट्टे की झालर में फंस रही थी. उसके पर्स से मैचिंग, कस्टम- मेड जूती ने मेरा ज़ायका इतना बिगाड़ दिया कि कबाब का लुत्फ भी नहीं उठा सकी.

हर जगह बगावत का झंडा बुलंद करने से अच्छा होता है, बस बालकनी से झांक कर सवाल को रफ़ा-दफ़ा कर दो, जैसे किसी सहकर्मी के पूछने पर कह दो, अच्छा रिश्ता मिलेगा तो ज़रूर कर लूंगी. बैंगलोर से जब बड़ी बहन फोन करती है तो बिना लाग लपेट वाला जवाब देती हूं, ‘पहले इतने पैसे हो जाएं कि अपना घर खरीद सकूं, तब शादी पर गौर फरमाया जाएगा.’ वो परेशान होकर कहती है, ‘बहना, उसमें तो सदियां लग जायेंगी, क्या बुढ़ापे में शादी करेगी.’  मैं पलटकर पूछती हूं ‘शादी का जवानी से क्या लेना देना’ तो वो कुछ ना कहना ही बेहतर समझती है.

हद तो आज हुई जब मेरे रेडियो प्रोग्राम के दौरान लिसनर का मैसेज आया, ‘ईश्वर से प्रार्थना करूंगी कि आपकी शादी जल्दी हो जाये’ मानो मुझे कोई जानलेवा बीमारी हुई हो जिसे ठीक करने के लिये दुआ की ज़रूरत हो. चार शादीयाफ़्ता सलमान रुश्दी ने कहा था कि लड़कियां शादी इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें शादी का जोड़ा पहनने का शौक होता है. सोच रही हूं करीना ने तो कोई खास जोड़ा नहीं पहना था…हां, लेकिन उसके पास अपना घर खरीदने जितने पैसे ज़रूर होंगे. 

डायरी लेखन: फौजिया रियाज

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मंजरी,  26 साल
23 नवंबर 2012, मुंबई, रात 11.30 बजे.
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आखिर मानव उसी होशंगाबाद वाली लड़की से शादी कर रहा है. मुझे शक तो पिछले चार महीने से था, लेकिन आज शाम की लड़ाई के बाद आखिर ये बात कन्फर्म भी हो गई. पूरा शरीर बुखार में तप रहा है और आंसू हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे. मुझे ये फ्लैट भी जल्दी से बदलना पड़ेगा क्योंकि इस घर के कमरों में मेरी और मानव की बहुत मीठी यादें बसीं हैं…और शायद कड़वी भी.

मुझे याद है, कल शाम मैं बालकनी में खड़ी थी और बहुत टूटा हुआ महसूस कर रही थी. मानव पीछे ही खड़ा था. मैंने हमेशा की तरह उससे कहा, ‘मानव, प्लीज़ होल्ड मी’! लेकिन वो बिना कुछ कहे ही कमरे में चला गया. पहले मेरे ऐसा कहते ही हम तुरंत प्रेम से गले लग जाते थे. मैं कभी रोती..कभी खुश हो जाती…उसके कपड़ों पर अपनी उंगलियों से पहाड़ियां और फूल बनाती रहती और फिर हम खूब हंसते. कल शाम उसके जाने के बाद मैं चीखकर रोई थी. जैसे मेरे अंदर मेरा ही कोई हिस्सा धीरे-धीरे मर रहा हो. मानव मेरी आवाज़ सुन रहा था लेकिन मुझे चुप कराने नहीं आया. मेरी भावनात्मक तीव्रता उसे कभी समझ में ही नहीं आई. वो कभी प्रेम की उस वंचना को महसूस ही नहीं कर सकता था जो मैं कर रही थी. जब मैं उससे खुद को होल्ड करने के लिए कहती हूं तो मुझे उससे शारीरिक सुख से कहीं ज्यादा एक ईमानदार सांत्वना की दरकार होती है. एक दिलासा कि कोई है जो जानता है कि मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा पागल है और उससे बहुत प्रेम करता है. कोई है जो मुझे मेरे पागलपन, मूड स्विंग्स, चिल्ला-चोट और काम की डेडलाइंस में फंसे होने के बाद भी स्वीकार करता है. कोई है जो मुझमें अक्सर बेवक्त जाग जाने वाले इमोशनल इम्पल्सेस के साथ मुझसे प्यार करता है.

और अगर मैं उसे पब्लिकली गले लगा लूं या उसे किस कर लूं तो उसे सिर्फ मेरा प्रेम समझे…क्योंकि वो शुद्ध प्रेम है..एकदम खालिस. शुरू-शुरू में तो मानव ऐसा ही था लेकिन पिछले चार महीनों के दौरान उसमें बहुत बदलाव आए हैं. उसने पहली बार मुझसे कहा था कि वो किसी ऐसी लड़की से ही शादी करेगा जिसका पहले कोई संबंध न रहा हो. मैं सुनकर चौंक गई थी कि मानव शादी के लिए कोई वर्जिन ढूंढ रहा है ! हमारे साथ आने से पहले उसकी दो रिलेशनशिप्स टूट चुकी थीं और मुझे भी एक बार प्यार हो चुका था. मैं और मानव पिछले चार साल से साथ थे और शादी के बारे में भी अक्सर बात करते थे. लेकिन लगभग छह महीने पहले उसके पापा ने उसे धमकी दी थी की अगर उसने अपनी मर्जी से शादी की तो वे उसे प्रॉपर्टी से बेदखल कर देंगे. उसकी मां उसे हमेशा ‘गृहकार्य में दक्ष पढ़ी-लिखी कन्याओं’ की तस्वीरें भेजती रहती और वो मेरी चिंता को हंसी में उड़ा देता. मुझे मानव पर कितना विश्वास था…उसपर और उसकी बातों पर. जब उसने कहा कि उसके पास मेरे लिए बहुत सारा स्पेस है…मैंने सच मान लिया. जब उसने कहा कि हर किसी का पास्ट होता है उसे मेरे पास्ट से कोई प्रॉब्लम नहीं…मैंने सच मान लिया. जब उसने कहा कि वो मेरी पढाई-लिखाई..अपने काम को लेकर मेरे पैशन और प्रोफेशनल फ्रंट पर मेरी लगतार हो रही तरक्की का बहुत सम्मान करता है और मेरे लिए बहुत खुश है..तब भी मुझे लगा कि वह सच बोल रहा है. मुझे लगा वो आज के ज़माने का सुलझा हुआ लड़का है. लेकिन आज वो शादी के लिए किसी वर्जिन की तलाश में है!

मुझे आश्चर्य होता है कि मैं इतने सालों में उसके अंदर छिपे इन दकियानूसी ट्रेट्स को पकड़ क्यों नहीं पाई. आज शाम की आखिरी लड़ाई के दौरान उसने ऐसी बातें कहीं जिन्हें मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगी. उसने कहा कि उसे शुरू से मेरा सेक्सुअली लिबरेटेड व्यवहार पसंद नहीं था. और फिर जैसे दुनिया की सारी नफरत अपनी आंखों में भरते हुए बोला, ‘और तुम हो ही खराब लड़की. तुम्हारे पुराने बॉय-फ्रेंड ने भी तो तुम्हें इसलिए छोड़ा था न ! अरे इंडियन लड़कों को ऐसी बंदियां पसंद नहीं जिनमें कोई शर्म या नजाकत नहीं हो और जो खुद ही खुलेआम लड़के को गले लगा ले. वो तो मैं था जो तुम जैसी पागल और अन-प्रेक्टिकल लड़की को इतने दिन झेल गया. मैंने तय किया है कि कस्बे की किसी ‘नार्मल’ लड़की से शादी करूंगा. ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं होगी तो क्या हुआ? ज्यादा समझदार चाहिए भी नहीं. लड़कियां बेवकूफ होती हैं और ऐसे ही अच्छी लगती हैं. ज्यादा पढ़-लिख जाए तो हमें ही समझाने लगेंगी. फिर वही ‘फ्रीडम और स्पेस’ की बकवास करती रहेंगी-तुम्हारी तरह. और बराबरी से पैसे कमाने का गुरूर रहता है वो अलग. जिससे मैं शादी करूंगा..उसकी जिंदगी में सिर्फ एक आदमी होगा..वो मैं. तुम्हारी तरह 25 अफेयर रख चुकी लड़कियों के साथ कौन रहेगा?

एक-एक शब्द याद है मुझे. मानव मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा और बदसूरत एक्सीडेंट हैं. मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि एक गलत आदमी के साथ अपने आप को इतना इमोशनली जोड़ लिया.

लेकिन मुझे खुद को संभालना होगा. ऐसे 10 मानव भी मुझे अपनी सामंतवादी सोच और अपने मानसिक दिवालियापन की वजह से बुरा महसूस नहीं करवा सकते. मुझे अगले महीने की अपनी जेनेवा कांफ्रेंस पर ध्यान देना चाहिए और कैलीफोर्निया से आए उस जॉब ऑफर के मेल का जवाब लिखना चाहिए.  

डायरी लेखन: प्रियंका दुबे

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महक,  25 साल
20 अक्तूबर 2012,  बनारस
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उसके जिस्म पर कहीं कोई जला निशान नहीं है जिसे वो अपने मां-बाप को दिखाए. उसका चेहरा भी किसी प्रताड़ित की गई औरत जैसा सूजा हुआ नहीं रहता. बल्कि उसकी आंखें आज भी बिल्कुल वैसी हैं जैसी स्कूल में थीं, चमकती हुईं. वो अपने मजाजी खुदा आतिफ के खिलाफ समाज की अदालत में किसी तरह का कोई सुबूत नहीं जुटा सकती. शादी के कुछ रोज़ बाद जब जरीन ने अपनी मां से दबे-छुपे लफ्जों में खुद पर हर रात गुज़रने वाली तकलीफ़ें बयान करनी चाहीं तो मां ने ये कह कर खामोश कर दिया था ‘मर्द की मोहब्बत धीरे-धीरे चढ़ती है पगली, कड़वी-कसेली बीतेगी तब मीठा-सौंधा आयेगा.’

जरीन की शादी को दो साल हो चुके हैं लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी मीठा-सौंधा नहीं सुना. बस यही, इस महीने चार सलवार-कमीज़ सिलवाई, कल नये बुंदे बनवाए या आज ‘बालिका वधू’ में क्या हुआ. अगर वो मेरी बचपन की दोस्त ना होती तो मैं भी उसके घर के नये फि्रज और नयी चादरों को देखकर सुकून पा लेती कि जरीन खुश है. दुनिया के सामने जान छिड़कने वाला आतिफ असल में उसे किस-किस तरह तहस-नहस करता है ये मुझ तक भी न पहुंचता. शुक्र है मैं उसकी मां नहीं हूं.

बचपन में जरीन जब घर आती थी तो हम सीधा मेरे कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लेते थे. उस वक्त ये कॉमिक्स पढ़ने या दुपट्टों से साड़ी बांधने के लिये होता था. कुछ सालों बाद दरवाज़े के पीछे वाली सहेलियां इस उधेड़बुन में रहतीं कि फलां जरीन के घर की बालकनी में रोज कागज की पर्चियां क्यों फेंकता है. पर अब दरवाज़ा बन्द होने पर जरीन ऐसे मुर्झाती है जैसे किसी फूल के मुर्झाने के सीन को फास्ट-फ़ॉर्वड कर दिया गया हो. अभी पिछले हफ्ते ही कितनी बेबसी से कह रही थी, ‘यार क्या बताऊं, मेरा ज़रा भी दिल नहीं चाहता. बस आफत है जो रोज रात गुजरती है.’ मेरे पूछने पर कि महीने के उन दिनों आतिफ का क्या रवैया होता है, उसने बताया, इन्हें फर्क नहीं पड़ता, रोकने पर भी नहीं सुनते, हालांकि डॉक्टर मुझे डांट चुकी है, इंफेक्शन हो गया था.’

आज जब मैंने गुस्से में कहा कि तेरे मुंह में जबान नहीं है? चिल्ला नहीं सकती? शोर क्यों नहीं मचा देती? उसकी मनमानी क्यों सहती है? ये तो रेप है! जरीन मुझे तंज से देखते हुए बोली ‘ये शादी है, बालकनी में आने वाली पर्चियां नहीं कि जिसका चाहा जवाब दिया और जिसका नहीं चाहा कूड़े में डाल दी. उसका हक है मुझपर, आतिफ जैसे चाहे वैसे खुद को हाजिर करना होगा. अगर नहीं करती तो वो करवाना जानता है. मुझसे दस गुना ज्यादा ताकत है उसमें. फिर इस्लाम भी तो मर्द से यही कहता है ‘बीवी तुम्हारी कोई बात ना माने तो पहले उसे समझाओ, ना समझे तो दोबारा समझाओ और फिर भी ना समझे तो बस समझा ही दो’ 

शायद जरीन कल भी आये और बैठते वक्त फिर से तकलीफ़ होने की शिकायत करे. जरीन से जब भी मिलती हूं दिल लरज जाता है, पूरे जिस्म में झुरझुरी दौड़ जाती है. मैं जानती हूं बंद दरवाज़े के पीछे मैं उसे कल भी सुनूंगी. फर्क यह होगा कि अब मुझे उस पर पहले से ज़्यादा तरस आएगा.

जरीन मेरे बचपन का साथ है जो आज रोज सुबह आईने में संवरती है और देर रात बिस्तर में बिखरती है. अक्सर ये कह कर खुद को बहलाने की कोशिश करती हूं कि उसकी ‘अरेंज्ड मैरिज’ है. पर मेरी इस कोशिश पर वंदना की फोन कॉल पानी फेर देती है. वंदना को तो जरीन का साया छू कर भी नहीं गुजरता. वो कोई सहने, मरने, खटने वाली लड़की नहीं है. ऑफिस में कोई उसके सामने जबान खोलने से पहले दस दफा सोचता था. वंदना की ‘लव मैरिज’ का लव पहली रात ही उड़न-छू हो गया. कहती है ‘उमेश वैसे तो बहुत प्यार करता है, बस ‘उस वक्त’ ही उसे कुछ हो जाता है. पर कोई बात नहीं, वैसे भी खींच-तान नोच-खसोट मर्दों पर जंचती है.’
दिन की रोशनी में जरीन और वंदना बेहद मुख्तलिफ हैं. सच तो ये है कि आतिफ का मोहल्ले वाला जिमखाना, उमेश के शीशे वाली बिल्डिंग के कॉन्फ्रेंस हॉल से कोसों दूर है. पर अंधेरा सारे भेद मिटा देता है.

डायरी लेखन:फौजिया रियाज; इलेस्ट्रेशन: मनीषा सिंह और सामिया सिंह

…जमाना है पीछे

‘जब मैं अमरोहा लौटी तो कई लोगों ने मुझसे पूछा कि चांद से वापस कब लौटीं?’ यह कहते-कहते खुशबू मिर्जा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है. उनकी इसी बात में उस ऊंचाई का संकेत भी छिपा है जो उन्होंने हासिल की है. 22 अक्टूबर, 2008 का दिन देश में अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक नए कीर्तिमान का साक्षी बना था. यही वह दिन था जब ‘चंद्रयान-1’ नामक अपना पहला मानवरहित यान चांद पर भेज कर भारत यह कारनामा करने वाले गिने-चुने देशों में शुमार हुआ था. उस दिन जब सारे देश की निगाहें चंद्रयान के सफल प्रक्षेपण पर टिकी हुई थीं और लोग विभिन्न माध्यमों से इसके पल-पल की खबर पाने को उत्सुक थे तो 23 साल की खुशबू मिर्जा इस ऐतिहासिक पल की प्रत्यक्ष गवाह बन रही थीं. उस पल को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पल मानने वाली खुशबू कहती हैं, ‘वो बहुत ही रोमांचकारी दृश्य था. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ही कई लोगों को यह मौका नहीं मिल पाता कि वे इस दृश्य को प्रत्यक्ष देख पाएं. मैं खुशनसीब थी कि मुझे यह मौका मिला.’

सारा देश जब चंद्रयान-1 की सफलता पर गौरवान्वित महसूस कर रहा था तब खुशबू मिर्जा ने इस परियोजना का एक हिस्सा बनकर उत्तर प्रदेश के अमरोहा वासियों को गर्व करने का एक और कारण दे दिया था. अमरोहा की मुस्लिम आबादी वाले चौगोरी मोहल्ले की खुशबू मिर्जा चंद्रयान परियोजना के चेक आउट डिवीजन के 12 सदस्यों में से एक थीं. अमरोहा में ही पली-बढ़ी और अपनी 10वीं तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से करने वाली खुशबू आज किसी भी मायने में बड़े शहर की लड़कियों से कम नहीं. और उनकी उपलब्धियां तो निश्चित ही अपनी उम्र की किसी भी लड़की की तुलना में कहीं ज्यादा हैं. वे मानती हैं कि मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल किया जा सकता है और असंभव कुछ भी नहीं होता. अपना ही उदाहरण देते हुए वे कहती हैं, ‘हिंदी माध्यम से पढ़ने के बाद जब मैंने अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश लिया तो शुरुआत में मुझे भी काफी मेहनत करनी पड़ी. लेकिन जब आपमें कुछ करने और सीखने की लगन हो तो सब कुछ खुद ही आसान हो जाता है.’

मिर्जा परिवार की तीन संतानों में खुशबू के अलावा उनकी छोटी बहन महक और बड़ा भाई खुश्तर हैं. ये तीनों ही आज इंजीनियर हैं. खुशबू अपनी कामयाबी का श्रेय अपने परिवार और विशेष तौर से अपनी मां को देती हैं. 1994 में खुशबू के पिता सिकंदर मिर्जा की मृत्यु हो गई थी. उस वक्त खुशबू सात साल की थीं और महक चार साल की. ऐसे में तीनों बच्चों की जिम्मेदारी मां पर ही आ गई जिन्हें परिवार का पेट्रोल पंप अब खुद ही संभालना था. खुशबू बताती हैं, ‘मेरे पिता जी भी एक इंजीनियर थे और उनका सपना था कि उनकी बच्चियां खूब तरक्की करें. इस सपने को साकार करने में हमारी मां का ही सबसे ज्यादा योगदान है.’

खुशबू मिर्जा ने 2008 में इसरो के चंद्रयान-1 की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी‍

अमरोहा के कृष्णा बाल विद्या मंदिर से दसवीं पास करने के बाद खुशबू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में प्रवेश लिया और यहीं से अपनी इंजीनियरिंग भी पूरी की. छोटे शहरों और खास तौर पर मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के बारे में लोगों की आम धारणा को तोड़ते हुए खुशबू ने अपनी पढ़ाई के दौरान फैशन शो और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बेहतरीन प्रदर्शन करके कई इनाम जीते. एमएमयू के छात्र संघ चुनावों में लड़कियों के लिए हमेशा से बंद रहे दरवाजों को तोड़कर चुनाव लड़ने वाली पहली लड़की भी खुशबू ही हैं.

2006 में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही खुशबू को अपने बेहतरीन प्रदर्शन के चलते एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला. इसे स्वीकार करके वे दिल्ली आ गईं. बहुराष्ट्रीय कंपनी की चमक-दमक और मोटी पगार वाली नौकरी भी उनको ज्यादा दिनों तक बांध न सकी और तीन महीने बाद ही वे इसे छोड़ इसरो से जुड़ गईं. हालांकि इसरो में उन्हें अपनी पहली नौकरी की तुलना में काफी कम वेतन मिलना था. खुशबू बताती हैं, ‘पैसों के लिए मैं इसरो का प्रस्ताव ठुकराने की सोच भी नहीं सकती थी. देश के लिए कुछ करना था और इसके लिए इसरो के साथ जुड़ने से अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता था. कई लोगों को तो लगता था कि मैं चांद पर गई थी. ’

खुशबू भले ही चांद पर न गई हों लेकिन उन्होंने चांद की ऊंचाई जरूर हासिल कर ली है. आज वे कई लड़कियों के लिए आदर्श बन चुकी हैं. वे बतौर इंजीनियर इसरो में अपनी पहली पदोन्नति भी प्राप्त कर चुकी हैं. खुशबू कई कॉलेजों और संस्थाओं के छात्रों को संबोधित करके उन्हें इंजीनियरिंग के क्षेत्र में संभावनाओं की जानकारी और प्रेरणा देती रही हैं.

खुशबू का मानना है कि असंभव कुछ भी नहीं होता और यदि एक बार कुछ करने की ठान लो तो फिर धर्म, जाति, शहर, माहौल जैसी कोई भी चीज इंसान का रास्ता नहीं रोक सकती. उनकी कथनी ही नहीं, करनी ने भी यह साबित किया है.     

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एकाधिकार तोड़ता मंत्रोच्चार

‘मैं ख्याति. जयपुर की रहने वाली, 11वीं कक्षा में हूं. संस्कृत को सबसे सामर्थ्यवान भाषा मानती हूं. भारतीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ संस्कृति.’ सिर्फ नाम पूछने पर इतनी बातें बताती है ख्याति. फिर तुरंत ही शुरू हो जाती है. किसी टोक-टोक या सवाल की गुंजाइश छोड़े बगैर. आगे कहती है, ‘भईयाजी, आपने बहुत मंदिर देखे होंगे, लेकिन अब आप देश ही नहीं, दुनिया का अनोखा मंदिर देखेंगे. पाणिनी मंदिर नाम है इसका. पाणिनी को तो आप जानते ही होंगे. लाहौर के थे. उन्होंने ही अष्टाध्यायी लिखा था. पूरी दुनिया में शब्द विद्या का ऐसा प्रामाणिक शास्त्र अब तक तैयार नहीं हो सका है. अगर अष्टाध्यायी न होता तो संस्कृत भाषा जिंदा न रह पाती. व्याकरण लोकमानस की समझ से परे की चीज बनी रहती. भारत कई तरह के ज्ञान से वंचित रह जाता…’

ख्याति को बीच में टोकना पड़ता है कि अब थोड़ा मंदिर के बारे में बताओ. वह कहती है, ‘देखिए, मंदिर की दीवारें. अष्टाध्यायी के चार हजार सूत्र अंकित हैं. मंदिर से सटा अनुसंधान केंद्र और इंटरनेशनल हॉस्टल बन रहा है. मालूम क्यों? क्योंकि अब विदेशी लोगों की बहुत रुचि है व्याकरण के सूत्र जानने-समझने में, इसीलिए. वे आएंगे तो यहीं रहकर अध्ययन-अनुसंधान वगैरह करेंगे. दुनिया भर में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के दीवाने बढ़ रहे हैं और अपने देश में अंग्रेजी-अंग्रेजियत और…!’

 मंदिर के बारे में जानकारी दे रही ख्याति किसी विशेषज्ञ की तरह हमें समझा रही है. मैं पूछता हूं, ‘तुम तो पक्का पंडित हो जी.’ फट जवाब मिलता है, ‘पंडित-पंडिताइन क्या होता है? जो वेद-शास्त्र-पुराणों को जानेगा-समझेगा, वही ज्ञानी है, जाति से नहीं.’

बेहद बातूनी और हाजिरजवाब ख्याति से पार पाना आसान नहीं लगता. उसका आत्मविश्वास उसके वाक्यों को और मजबूत बना रहा है. उससे बात करते हुए एक बार भी नहीं लगता कि हमारी बात उस लड़की से हो रही है जो पिछले कई साल से एक चारदीवारी की दुनिया में सिमटे उस स्कूल की छात्रा है जहां भौतिकवादी और उपभोक्तावादी दुनिया से सख्ती से परहेज बरता जाता है. जहां बदलती दुनिया की झांकी दिखाने वाले टीवी और सिनेमा जैसे माध्यमों की परछाई तक नहीं पड़ती.

ख्याति कहती है, ‘संस्कृत, संस्कृति और व्याकरण के बारे में कोई जिज्ञासा हो तो पूछ लीजिए, भईयाजी.’ मैं पूछने के बजाय कहता हूं, ‘तुम अच्छी शिक्षिका बनोगी!’ जवाब आता है, ‘वह तो मैं अभी भी हूं, आगे आईएएस बनूंगी.’

 यह बनारस के तुलसीपुर इलाके की एक गली में बने पाणिनी कन्या महाविद्यालय का परिसर है. यहीं हमें सातवीं में पढ़ने वाली होशंगाबाद की अर्चना और हैदराबाद की मैत्रेयी भी मिलती हैं. उनमें भी उतनी ही हाजिरजवाबी और आत्मविश्वास. महाविद्यालय परिसर में घंटों गुजारने के बाद साफ होता है कि ख्याति, अर्चना और मैत्रेयी ही नहीं, आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, असम, नेपाल आदि से आई जो 100 लड़कियां यहां रहती और पढ़ती हैं, वे सब इतनी ही ऊर्जा, उत्साह और उम्मीदों से लबरेज हैं.

क्या काशी के मठाधीश पंडितों ने कभी ऐतराज नहीं किया कि लड़कियां जनेऊ पहनकर पारंपरिक तौर पर पुरुषों के आधिपत्य वाली इस विधा में हस्तक्षेप करें?

ख्याति जिस पाणिनी मंदिर को देश-दुनिया का खास मंदिर बताती है उसकी खासियत का आकलन तो उसके पूरा बनने के बाद होगा. फिलहाल जो महाविद्यालय 41 साल से तुलसीपुर की इस गली में चल रहा है वह कई मायनों में अनोखा लगता है. यहां सुबह चार बजे से रात नौ बजे तक की दिनचर्या है. सुबह चार बजे जगना, छह बजे योगासन-ध्यान, सात बजे यज्ञ, फिर वेद पाठ की कक्षा, फिर जलपान, फिर नौ से बारह बजे तक आधुनिक विषयों जैसे गणित, साइंस, भूगोल, कंप्यूटर आदि की कक्षाएं, फिर भोजन, इसके बाद दोपहर दो से पांच तक संस्कृत की कक्षा. और उसके बाद लाठी, भाला, तलवार, धनुष चलाने का खेल. आपस में संस्कृत में ही बात होती है. एक नजर में यह किसी पुरातन युग की दुनिया भी लगती है. स्कूल की आचार्या नंदिता शास्त्री और डॉ. प्रीति विमर्शिनी कहती हैं कि यह आपके नजरिये पर निर्भर करता है. नंदिता कहती हैं, ‘हमारी सोच साफ है कि यहां से जो लड़कियां निकलें वे सदियों से चली आ रही और जकड़ी हुई एक व्यवस्था को चुनौती दें. वेद पाठ, कर्मकांड, शास्त्रीयता और अन्य वैदिक विधाओं में जो पुरुषों का वर्चस्व कायम है, वह टूटे.’ ऐसा हो भी रहा है. डॉ. प्रीति कहती हैं, ‘हमने पिछले चार दशक में ऐसी कई लड़कियों को तैयार किया है जो देश-दुनिया के कोने-कोने में वेद पाठ, कर्मकांड आदि करवाने जा रही हैं, अपना वैदिक स्कूल खोलकर लड़कियों को पुरुषों के मुकाबले तैयार कर रही हैं.’

नंदिता बताती हैं कि पाणिनी कन्या महाविद्यालय सात साल के करीब उम्र वाली लड़कियों को दाखिला देता है. देश के कोने-कोने से हर साल 20 लड़कियों को लिया जाता है. यहां उनके लिए एमए तक की शिक्षा की व्यवस्था है. उसके बाद यह फैसला उन्हें खुद करना होता है कि वे क्या करेंगी. गृहस्थ आश्रम में जाएंगी या प्राध्यापक, आईएएस, शास्त्री आदि बनेंगी. नंदिता कहती हैं, ‘यहां आठवीं कक्षा तक को आगे की कक्षाओं में पढ़ रही लड़कियां ही पढ़ाती हैं. गोशाला संचालन, बिजली से चलने वाली आटे की चक्की चलाना, खेती करना और जरूरत पड़ने पर सभी का खाना बनाना भी वे जानती हैं.’ स्कूल परिसर से लड़कियां बाहर सिर्फ तभी निकलती हैं जब उन्हें मंगलाचरण, वेद पाठ या कर्मकांड के लिए बुलावा आए. या किसी गोष्ठी में भाषण देने जाना हो या फिर किसी विद्वान के साथ शास्त्रार्थ करने. अब गृहप्रवेश, मुंडन जैसे कार्यों में भी लोग इन्हें बुलाने लगे हैं और इनकी व्यस्तता तेजी से बढ़ती जा रही है. काशी की गलियों से लेकर जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन तक उनका जाना होने लगा है. वे जब सस्वर वेद पाठ करती हैं या कर्मकांड करवाती हैं तो लोग मुग्ध हो जाते हैं.

सहज सवाल उठता है कि क्या काशी के मठाधीश पंडितों ने कभी इस पर ऐतराज नहीं जताया कि लड़कियां जनेऊ वगैरह पहनकर पारंपरिक तौर पर पुरुषों के आधिपत्य वाली इस विधा में हस्तक्षेप करें और चुनौती की तरह खड़ी हों. डॉ. प्रीति बताती हैं, ‘बखेड़े कम नहीं होते. कभी कहा जाता है कि पुरुषों को चुनौती देने के लिए यह सब वितंडा खड़ा किया जा रहा है जो शास्त्र विरुद्ध है. निर्णय सिंधु का हवाला देकर कहा जाता है कि जो लड़की मंत्रोचारण करेगी, वह पुत्रहीन हो जाएगी.’ वे आगे कहती हैं, ‘शंकराचार्य से लेकर कई मनीषियों ने नारी को नरकद्वार, जहर जो अमृत की तरह दिखता है, छोड़ने योग्य आदि कहा है. लेकिन हम जानते हैं कि ये सारी उपमाएं इसलिए दी गई हैं क्योंकि अपने जमाने में गार्गी, घोषा, अपाला, सूर्या, भारती, यज्ञा, इंद्राणी, शचि जैसी महिलाएं हुई हैं जिन्होंने पुरुषवादी ज्ञान व्यवस्था को चुनौती दी.’

स्कूल कैसे शुरू हुआ उसकी एक दिलचस्प कहानी है. बताते हैं कि कई दशक पहले लाहौर के रहने वाले ब्रह्मदत्त जिज्ञासु नाम के एक विद्वान काशी में आकर बस गए थे. वे ऋषियों की प्रणाली और आर्य वेद पाठ प्रणाली से वेदों का अध्ययन-अध्यापन करवाते थे. उनका वास बनारस के मोतीझील में हुआ करता था. वर्षों पहले मध्य प्रदेश के सतना की निवासी एक महिला श्रीमती हरदेवी आर्या अपनी तीन बेटियों व एक बेटे को लेकर जिज्ञासु के पास आईं. जिज्ञासु ने उन्हें शिक्षा देनी शुरू की. हरदेवी आर्या की दो बेटियां प्रज्ञा देवी और मेधा देवी विदुषी निकलीं. दोनों ने मिलकर अपने गुरु के नाम पर अध्ययन केंद्र शुरू किया. पहले तो वह मोतीझील में ही चलता रहा लेकिन 1971 से तुलसीपुर में आ गया. तब से यहीं चल रहा है. अब वहीं महाविद्यालय परिसर के पास ही व्याकरणाचार्य पाणिनी के नाम पर विशाल मंदिर, अध्ययन केंद्र और अंतरराष्ट्रीय हॉस्टल बन रहा है जिस पर पांच करोड़ रु खर्च होने का अनुमान है.

सात साल की उम्र में ही यहां पढ़ने आई गया की डॉ. प्रीति कहती हैं कि इस महाविद्यालय को चलाने में बहुत-सी चुनौतियां आईं. वे बताती हैं, ‘इसे आज तक चलाते रहना और समय के साथ बढ़ाते रहना कोई आसान काम नहीं था और न अब है लेकिन समाज के सहयोग से ही यह आगे बढ़ता रहा और इसमें नामांकन के लिए देश के कोने-कोने से अभिभावक आते हैं लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम 100 से ज्यादा लड़कियों को नहीं रख सकते और फिर यह भी देखना होता है कि अभिभावक यह मानने को तैयार हैं या नहीं कि यदि बालिका यहां आई तो पहले के चार साल में उसे घर जाने की इजाजत नहीं मिलेगी. और फिर यह भी देखना होगा कि बाहर से बंद दिखने वाली इस दुनिया में वे अपनी बेटी को रखने के लिए तैयार हैं या नहीं.’

जब इतना कुछ है तो सरकार से सहयोग लेने में हर्ज क्या है? जवाब में आचार्या नंदिता कहती हैं, ‘सरकार का व्यर्थ का हस्तक्षेप कभी आपको सही ढंग से चलने नहीं दे सकता इसलिए हम उस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. सरकारों ने कई बार कोशिश की लेकिन हम दूरी बनाकर रखते हैं. हर लड़की के अभिभावक से सालाना 15 हजार रु लेते हैं. जो दे पाते हैं, ठीक नहीं दे पाते हैं तो समाज का कोई न कोई आकर दे जाता है.’ नंदिता एक पुरानी कहावत का हवाला देते हुए आगे जोड़ती हैं, ‘राजा के अन्न पर आश्रित रहो तो वह तेज का हरण कर लेता है.’   

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कलुष हरते पुरुष

उन्हें भले ही इसके बारे में ज्यादा मालूम न हो कि राजाराम मोहन राय, ज्योति राव फूले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने स्त्री उत्थान के क्षेत्र में क्या किया था, लेकिन फिर भी वे जाने-अनजाने अपने आस-पास की महिलाओं के जीवन में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का उजाला बिखेर रहे हैं. भारत के कोने-कोने में फैले इन अनगिनत पुरुषों की कहानियों में उन तमाम पिताओं की कहानियां शामिल हैं जिन्होंने सामाजिक दबाव के बावजूद अपने घरों में बेटियों का जन्म होने दिया, खस्ता माली हालत के बावजूद उन्हें स्कूल पढ़ने भेजा और उनकी शादियों में दहेज न देने का फैसला लिया. इन कहानियों में उन तमाम पतियों की कहानियां भी मौजूद हैं जिन्होंने अपनी पत्नियों की पढ़ाई शादी के बाद पूरी करवाई, उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार घर पर रहने या अपने लिए रोजगार का चुनाव करने के साथ-साथ अपनी मर्जी से नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया. इनमें उन भाइयों की कहानियां भी महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने अपनी बहनों को अपना व्यक्तित्व खोजने के लिए प्रोत्साहित किया और उनके सपनों तक पहुंचने के रास्ते गढ़ने में उनका हाथ बंटाया. यहां उन सभी प्रेमियों और मित्रों की कहानियों का भी जिक्र करना जरूरी हो जाता है जिन्होंने अपने साथ जी रही लड़कियों को अपने ही जैसा सामान्य इंसान समझा और उन्हें स्नेह से स्वीकार कर लिया. उन सभी शिक्षकों का जिक्र करना तो सबसे जरूरी है जिन्होंने इस देश की लाखों लड़कियों के बुझे हुए सपनों में उम्मीद और उत्साह के रंग भर दिए. महानगरों और छोटे कस्बों से लेकर भारत के अनगिनत गांवों में महिलाओं के साथ ईमानदारी और स्नेह से खड़े हो रहे ऐसे तमाम पुरुषों की कई उज्जवल कहानियां हैं. साथ और स्नेह की इन व्यक्तिगत कहानियों के अलावा, कई ऐसे पुरुषों की कहानियां भी हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं जिन्होंने अपने परिवारों में जी रही लड़कियों के साथ-साथ महिलाओं के सामूहिक विकास के लिए छोटे-छोटे लेकिन मजबूत इरादों वाले प्रयास किए. ये दो कहानियां उन दो पुरुषों की हैं जो दूर-दराज के कस्बों और गांवों में जिंदगी गुजार रही महिलाओं की बेहतरी के लिए खामोशी से  काम कर रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट.

उल्हास पीआर सामाजिक लापरवाही से पनपे एक ऐसे गुमनाम मुद्दे पर खामोशी से काम कर रहे हैं जो दिल्ली जैसे महानगरों में हर साल कम-से-कम 40 महिलाओं की मौत का कारण बनता है. मुंबई में रहने वाले 43 वर्षीय उल्हास लगभग पिछले तीन साल से दिल्ली की सड़कों पर दुपहिया वाहन चलाने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट पहनने को कानूनी तौर पर अनिवार्य करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. इनमें गाड़ी के पीछे बैठने वाली महिलाएं भी शामिल हैं. फिलहाल दिल्ली शहर में केंद्रित इस मुहिम के जरिए उल्हास दिल्ली मोटर व्हीकल एक्ट के सेक्शन 129 में दर्ज रुल 115 (2) का विरोध कर रहे हैं. यह नियम कहता है कि दुपहिया चलाने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट पहनना अनिवार्य नहीं है. साथ ही गाड़ी की पिछली सीट पर बैठकर यात्रा करने वाली महिलाओं के लिए भी यह आवश्यक नहीं है.

आंकड़े बताते हैं कि हेलमेट न पहनने की वजह से साल 2010 में 70 महिलाओं की मृत्यु हुई थी. इसी वजह से 2011 में 47 महिलाओं की जान गई और 2012 में 35 महिलाएं हेलमेट न पहनने की वजह से जान से हाथ धो बैठीं. अपनी लघु फिल्मों और धरना प्रदर्शनों से लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करने तक अलग-अलग तरीकों से इस मुद्दे को उठा रहे उल्हास मानते हैं कि दिल्ली मोटर व्हीकल एक्ट स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘मौजूदा कानून के मुताबिक पुरुषों के लिए हेलमेट लगाना जरूरी है लेकिन महिलाओं के लिए नहीं.

उल्हास पीआर दोपहिया वाहनों पर बैठने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट अनिवार्य करने की मुहिम चला रहे हैं

गाड़ी के पीछे बैठने वाली महिलाओं के साथ-साथ गाड़ी चलाने वाली लड़कियों के लिए भी हेलमेट कम्पलसरी नहीं है. मुझे तो लगा था कि दिल्ली सरकार मेरी याचिका पर तुरंत कार्रवाई करेगी, लेकिन उन्होंने तो मेरे खिलाफ वकीलों की फौज खड़ी कर दी. मुझे तो समझ में नहीं आता कि अदालती आदेशों के बावजूद दिल्ली सरकार इस कानून में बदलाव क्यों नहीं कर रही. या तो इस सरकार के लिए प्रदेश की महिलाओं के जीवन का कोई मूल्य नहीं या फिर वह आपराधिक स्तर तक लापरवाह है.’

उल्हास ने अपनी इस मुहिम की शुरुआत आठ मार्च, 2010 को दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज से की थी. उन्होंने यूनिवर्सिटी की100 छात्राओं से बातचीत की और सभी ने एक सुर में कहा कि महिलाओं के लिए हेलमेट पहनना अनिवार्य किया जाना चाहिए. इसके बाद उन्होंने अपनी याचिका के साथ दिल्ली के 70 विधायकों को एक-एक हेलमेट का सांकेतिक उपहार भी दिया. फिर धरना प्रदर्शनों, लघु फिल्मों और सत्तासीन लोगों को लिखे जाने वाले पत्रों का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है. लेकिन मामला आगे न बढ़ता देख उल्हास ने अगस्त, 2011 में अपनी याचिका दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की. 25 अप्रैल, 2012 को उल्हास के पक्ष में फैसला सुनाते हुए अदालत ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया कि कानून में जरूरी फेर-बदल करके महिलाओं के लिए हेलमेट अनिवार्य किया जाए. उल्हास कहते हैं, ‘अदालती आदेश के महीनों बाद भी जब कोई सुगबुगाहट नहीं हुई तो जुलाई में हमने अवमानना की अर्जी लगाई. अदालत ने सरकार को दिसंबर तक कानून में तब्दीली लाने के निर्देश तो दे दिए हैं लेकिन मुझे कोई उम्मीद नहीं है. अगर एक महिला मुख्यमंत्री के रहते हुए भी सरकार अपनी ही आधी आबादी की सुरक्षा को लेकर इतनी लापरवाह है तो देश के बाकी राज्यों से क्या उम्मीद की जा सकती है?’   

मरुगनंथम ने किया कमाल
ए मरुगनंथम ने महिलाओं के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने की मशीन बनाई है.कुछ दिन पहले तक विजया और लता नाम की बहनें कोयंबटूर में नाममात्र की तनख्वाह पर नौकरी किया करती थीं. पिछले साल नवंबर में उन्होंने जैसे-तैसे 85,000 रुपये इकट्ठा किए और उनसे एक स्थानीय कारीगर द्वारा ईजाद की गई मशीन खरीद डाली. बस तभी से मानो उनकी सारी आर्थिक परेशानियां छूमंतर हो गईं. इसका मतलब यह नहीं कि यह कोई नोट छापने की मशीन है. दरअसल इससे महिलाओं की सैनिटरी नैपकिन बनाई जाती है. ‘हमने एक तमिल पत्रिका में इसके बारे में पढ़ा था और तभी हमने इसे खरीदने का फैसला कर लिया था,’ लता कहती हैं. आज वे नैपकिन बेचकर महीने में 5,000 रुपये से ज्यादा आसानी से कमा लेती हैं और उनका उत्पाद कोयंबटूर और आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में खासा सफल है. उनकी नैपकिन ‘टच फ्री’ के नाम से बाजार में उपलब्ध है. उनके घर से थोड़ी ही दूरी पर रहने वाली अवकाशप्राप्त शिक्षिका राजेश्वरी ने भी इसी तरह का अपना एक छोटा-सा कारखाना लगा रखा है. ‘हमारी नैपकिन बाजारों में बिकने वाली आम नैपकिन से मोटी होती है’, वे कहती हैं, ‘ये उन ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है जिन्हें दिनभर खेतों में काम करना पड़ता है, जिससे कि एक ही पैड पूरे दिन चल सके.’

बेहद कम लागत में तैयार होने वाली इस सैनिटरी नैपकिन को बनाने वाली मशीन 47 वर्षीय ए मुरुगनंथम का आविष्कार है जिन्हें दसवीं कक्षा में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी. प्रति घंटे 120 नैपकिन का उत्पादन करने वाली ऐसी करीब 100 मशीनें अब तक पूरे देश में लगाई जा चुकी हैं जिनमें से 29 तो सिर्फ हरियाणा में हैं. इसके अलावा इन मशीनों को उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में भी लगाया जा रहा है.

 ए मुरुगनंथम ने महिलाओं के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने की कम खर्चीली मशीन बनाई है

मुरुगनंथम को इस बात की जानकारी होने में ही दो साल लग गए कि सैनिटरी नैपकिन में प्रयोग होने वाली पैडिंग चीड़ के पेड़ के गूदे से बनती है न कि साधारण कपास से. अपने आविष्कार की जबरदस्त फलता के बावजूद मुरुगनंथम ने अपनी इस मशीन का पेटेंट अधिकार बेचने से साफ इनकार करते हुए एक निजी कंपनी का ब्लैंक चेक वापस कर दिया. उनका कहना था कि वे अपनी मशीन का उपयोग ग्रामीण और गरीब शहरी महिलाओं के बीच सफाई और स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए करना चाहते हैं. मुरुगनंथम के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं सैनिटरी पैड के रूप में कपड़े का इस्तेमाल करती हैं जो असुरक्षित है और इससे तमाम तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है.  2006 में आईआईटी मद्रास ने मुरुगनंथम को ‘समाज के स्तर में सुधार के लिए किए गए आविष्कार’ की श्रेणी में प्रथम पुरस्कार से नवाजा था. 2008 में उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद में देश भर से उपस्थित हुए आविष्कारकों की बैठक को संबोधित भी किया.

मगर सफलता के इस मुकाम तक का संघर्ष आसान नहीं रहा. पिता के स्वर्गवास के बाद मुरुगनंथम के परिवार को काफी समय तक भीषण संघर्ष करना पड़ा था. उस दौरान कुछ सालों तक एक वेल्डिंग की दुकान में एक साधारण मैकेनिक का काम करने के बाद उन्होंने कोयंबटूर में अपनी खराद की दुकान खोली. चार साल की अथक मेहनत के बाद उन्हें सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली मशीन बनाने में सफलता मिली. मुरुगनंथम बताते हैं, ‘जब मैंने शोध करना शुरू किया तो मेरे परिवारवालों को लगा कि मैं पागल हो गया हूं. यहां तक कि इस दौरान मेरी मां मुझे छोड़ कर चली गई और मेरी बहन ने मुझे नजरअंदाज करना शुरू कर दिया.’ लेकिन आज मुरुगनंथम की सफलता पर सभी को बेहद गर्व का अनुभव होता है.

पीसी विनोज कुमार

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