‘आरोपों पर कोई प्रमाण दिखाए तो उसी दिन लेखन छोड़ दूंगी’

समकालीन, अनुभवी लेखकों से लेकर बुजुर्गवार लेखकों तक के निशाने पर महुआ माजी क्यों आती जा रही हैं?
ये तो वही बताएंगे जो मुझे निशाने पर ले रहे हैं और लेखक के तौर पर मेरे अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं. मैं कैसे बताऊं कि वे क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं. मैंने तो कभी किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा, न ही कभी किसी के साथ दुर्व्यवहार किया. पता नहीं क्यों? शायद मेरे गैरहिंदी परिवेश, गैरसाहित्यिक पृष्ठभूमि और महिला होने की वजह से भी… कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कह सकती.

गैरहिंदी पृष्ठभूमि के तो कई लेखक हिंदी में आए और छा गए, गैरसाहित्यिक पृष्ठभूमि वालों की भी इस धारा में अच्छी संख्या है और महिलाओं की भी. फिर इस आधार पर भला महुआ का विरोध क्यों?
हां, बहुतेरे आए हैं, आते रहे हैं, लेकिन अब भी एक बड़े वर्ग का मानना है कि जिसने ज्यादा साहित्य नहीं पढ़ा, समकालीन लेखकों को नहीं पढ़ा वह लेखक कैसे हो सकता है. लेकिन मैं इसके उलट मानती हूं. अच्छा साहित्य लिखने के लिए आपको बहुत ज्यादा पढ़ने या अधिक से अधिक ज्ञान बटोरने की जरूरत नहीं. ज्ञानवान होना और अच्छा लेखक होना, दोनों दो चीजें हैं. लेखन हमेशा एक सृजनात्मक प्रक्रिया है जो भावों से उभरकर सामने आता है.

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी ने कहा है कि आपकी सबसे चर्चित कृति  ‘मैं बोरिशाइल्ला’  आपकी मौलिक कृति नहीं है.
यह बात हवा में तो बहुत दिनों से उड़ाई जा रही थी. लेकिन पहली बार सार्वजनिक तौर पर ऐसा कहा गया है. कहा गया है कि मेरे नाना ने पांडुलिपि लिखी थी, मैंने वहीं से इसे ले लिया. मुझे तो अब तक पता नहीं कि मेरे कोई नाना लेखन भी करते थे. कोई ठोस प्रमाण भी तो दे और तब कहे तो ठीक भी लगता. ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखने के लिए मैंने अपने को पूरी तरह से खपा दिया. पहले दिन के नोट्स से लेकर फाइनल ड्राफ्ट तक मेरे पास है, मैं तो दिखा रही हूं. जो आरोप लगा रहे हैं, वे भी कोई प्रमाण दिखाएं. मेरी खुली चुनौती है उनको कि अगर कोई प्रमाण दे देगा तो मैं उसी दिन से लेखन छोड़ दूंगी और अपने सारे पुरस्कार भी लौटा दूंगी. जब मैंने ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखा था तब किसी आयोजन के समय श्रवण जी यह बात करते तो बात समझ में आती. लेकिन वे बेमौसमी बरसात कर रहे हैं. समझ सकते हैं मकसद क्या है!

प्रमाण थे तो आप इतने दिन चुप क्यों रहीं?
पहले तो मैं बेहद परेशान हो गई थी कि लोग मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं. लेकिन उसी परेशानी में मैं अपनी चीजों को खोज भी रही थी. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि ‘मैं बोरिशाइल्ला’ लिखने के दौरान बिखरे हुए कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों की भी जरूरत पड़ेगी. वे सारे पन्ने घर के किसी कोने में पड़े हुए थे. काफी मेहनत के बाद जब वे पन्ने मिले तो मैंने सबको व्यवस्थित किया और तब प्रमाण दिखाने की बात कह कर उन्हें दिखाया भी.

आपको प्रमाण देने की जरूरत ही क्यों पड़ी? क्या हर लेखक अपने लिखे का प्रमाण देगा, तभी कोई रचना प्रामाणिक मानी जाएगी?
नहीं, मैं प्रमाण नहीं दिखाती लेकिन मेरे लेखन के साथ-साथ मेरे अस्तित्व को ही नकारने की कोशिश की जा रही थी. देश के कोने-कोने से मेरे पास फोन आने लगे थे. मैं परेशान होती जा रही थी. मैं अधिक परेशानियों में उलझी नहीं रह सकती थी, क्योंकि अगले उपन्यास पर, जो बंगाल की पृष्ठभूमि पर स्त्रीप्रधान उपन्यास  होगा, काम शुरू कर चुकी हूं. एक बार दिमाग भटक जाता या उससे कट जाती तो फिर बहुत दिन लगते उसे पटरी पर लाने में. इसलिए सभी प्रमाणों को खोजा और दिखाया. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि लेखक को प्रमाण दिखाने की जरूरत है.

डॉ. गोस्वामी कह रहे हैं कि आपने उन्हें पांडुलिपि सुधारने को दी थी पर उपन्यास में उनके प्रति आभार व्यक्त नहीं किया?
मैं यह स्वीकारती हूं कि मैंने उन्हें पांडुलिपि पढ़ने को दी थी लेकिन वह आखिरी और फाइनल ड्राफ्ट था. वह भी पढ़ने को, न कि सुधार करने को. हर लेखक अपना फाइनल ड्राफ्ट कुछ शुभचिंतकों को पढ़ने को देता है. श्रवण जी ने कुछ बातें लिंग दोष वगैरह के बारे में बताई होंगी, लेकिन उन्होंने मेरी भाषा सुधारी है, तथ्यों को सुधारा है या सलाह दी है, ऐसी बात नहीं.

डॉ. गोस्वामी ने यह भी कहा है कि आप पहले मिठाई, पेस्ट्री लेकर उनके यहां पहुंचती थीं, लेकिन अब चर्चित लेखिका बनने के बाद सार्वजनिक आयोजनों में उन्हें देखकर आप मुंह मोड़ लेती हैं.
मैं आपको बता दूं. श्रवण जी की पत्नी सुरभि जागरण नामक संस्था से जुड़ी रही हैं. उसी के एक आयोजन के सिलसिले में उन्होंने पहली बार मुझे घर बुलाया था. मैं श्रवण जी के यहां पहली बार जा रही थी, इसलिए परंपरानुसार मिठाई लेकर गई. उनके यहां ही नहीं, किसी के घर भी पहली बार हम जाते हैं तो खाली हाथ नहीं जाते. रही बात अब किसी से मुंह मोड़ लेने की तो यह आरोप शायद मुझ पर कोई नहीं लगा सकता. मैं सबका सम्मान करती हूं और जितना संभव होता है सार्वजनिक आयोजनों में जाती हूं. जाहिर-सी बात है, लेखकीय काम की वजह से इसमें पहले से कमी आई है, क्योंकि अब लिखने में ज्यादा एकाग्रचित्त होना पड़ता है. इसलिए घर पर भी जब रिश्तेदार-मित्र आते हैं तो मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाती, न निजी आयोजनों में ही ज्यादा हिस्सा ले पाती हूं.

‘कहा गया है कि मेरे नाना ने पांडुलिपि लिखी थी, मैंने वहीं से इसे ले लिया. मुझे तो अब तक पता नहीं कि मेरे कोई नाना लेखन भी करते थे’

तो उन्होंने ऐसा आखिर क्यों किया? क्या कभी किसी तरह का मनमुटाव रहा है?
कभी नहीं. मैं उनका बहुत सम्मान करती हूं. आपको बताऊं कि पाखी पत्रिका में उनके लेख छपकर आने के दो दिन पहले ही फोन पर मेरी श्रवण जी से लंबी बात हुई थी. उन्होंने खुद पर लिखी हुई एक पुस्तक मेरे पास भिजवाई थी. मैंने पढ़ने के बाद उन्हें फोन किया था. मैंने उस पुस्तक के संदर्भ में उन्हें बधाई भी दी. श्रवण जी ने एक बार भी इसकी भनक नहीं लगने दी कि उनके मन में मेरे खिलाफ कुछ है या उन्होंने कुछ लिखा है.

ये बातें भी हो रही हैं कि डॉ. गोस्वामी ने यह नहीं लिखा, बल्कि उन्हें मोहरा बनाकर लिखवाया गया है. आपको क्या लगता है?
ऐसा लगता हो या नहीं लगता हो, लेकिन इसके संकेत मिल रहे हैं. श्रवण जी कभी पाखी पत्रिका में नहीं छपे थे. अचानक से छप गए वह भी बिना सामयिक संदर्भ वाले मसले पर. पाखी ने अपने रांची के एक लेखक को हाल ही में सम्मानित किया था, उनकी वहां पहुंच है. ये वही लेखक हैं जिन्होंने नया ज्ञानोदय में मेरी नई कृति ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ की समीक्षा लिखी थी और बाद में जब आकार पत्रिका में एक लेखक ने मेरे उसी उपन्यास की समीक्षा की थी तो नया ज्ञानोदय में समीक्षा लिखने वाले के प्रति धन्यवाद भी ज्ञापित किया था. आप खुद समझिए कि तार कहां से कैसे-कैसे जुड़ते जा रहे हैं लेकिन मेरे पास कोई प्रमाण नहीं, इसलिए मैं कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कह सकती.

आप कहती हैं कि देश भर से लोग आपका स्वागत करते हैं, रांचीवाले ही ज्यादा विरोध करते हैं. लेकिन गोस्वामी प्रकरण में देश भर के लेखकों ने भी आपका साथ नहीं दिया. स्थानीय लेखिकाएं भी आपके विरोध में ही जाती दिखीं.
हां, यह सच है, लेकिन मुझे कई लेखकों ने कहा कि मैं आपके साथ हूं लेकिन समर्थन में नहीं लिख सकता. एक बात तो तय है कि यदि लेखक मेरे समर्थन में खुलकर लिखते तो फिर उसे दूसरी किस्म के विवाद में ले जाया जाता और मामला ही कहीं और जाने लगता. हां, यह भी सच है कि कई लेखिकाएं मेरे विरोध में भी गईं लेकिन मैं नहीं जानती कि क्यों. मुझे तो अब यह सूचना भी मिली है कि कुछ लेखिकाएं मेरे खिलाफ नए षड्यंत्र में लगी हुई हैं और पुरुष लेखकों को भड़का रही हैं कि वे कुछ मेरे खिलाफ लिखें. असल में कुछ  लेखिकाएं वटवृक्ष की तरह बने रहना चाहती हैं. वे नहीं चाहतीं कि कोई दूसरा उभरे.

आपने कहा था कि आप डॉ. गोस्वामी पर मानहानि का मुकदमा करेंगी.
मैं तैयार हूं, लेकिन कई साथियों की सलाह और दबाव की वजह से अभी आखिरी निर्णय नहीं ले पाई हूं. वैसे मैं ज्यादा लड़ाई में नहीं पड़ना चाहती. स्वभावतः मैं शांतिप्रिय जिंदगी पसंद करती हूं. लेकिन अभी यह नहीं कह रही कि मैं मुकदमा नहीं करूंगी. अभी प्रमाण देकर सच का सच और झूठ का झूठ साबित किया है. अब उसके बारे में भी चार-पांच दिन में फैसला ले लूंगी.

इसी मसले पर मैत्रेयी पुष्पा की रायसाहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा

महुआ माजी से संबंधित हिंदी साहित्य के विवाद में चूंकि मेरा भी जिक्र आया है इसलिए मैं भी इस पर अपनी राय रखना चाहती हूं. मेरा यह कहना है कि अगर आपके साथ किसी ने थोड़ा-सा भी सहयोग किया है तो उसको क्रेडिट देना आपका फर्ज है. यह हर लेखक का फर्ज है. इस मामले में दुनिया भर के सवाल उठ रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि श्रवण कुमार गोस्वामी खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. अगर आपके व्यवहार से किसी को यह लगता है कि उसे इस्तेमाल किया गया है तो निश्चित तौर पर अपनी प्रतिक्रिया तो देगा. इस बात को तकनीकी मसलों में नहीं उलझाना चाहिए कि उन्होंने पहले आरोप क्यों नहीं लगाया या वे डायरी में यह सब क्यों लिख रहे थे. श्रवण और किसी वजह से महुआ के प्रति दुर्भावना रखेंगे यह बात मेरी समझ से बाहर है.

यह बात सही है कि अधिकांश लेखक अपनी रचनाओं की पांडुलिपि दूसरों से पढ़वाते हैं और इसमें कोई शर्माने वाली बात भी नहीं है. खुद मेरी पांडुलिपियां राजेंद्र यादव ने पढ़ी हैं. लेकिन एक बात मैं जोर देकर कहना चाहूंगी कि जो आपकी रचना पर आपके साथ-साथ मेहनत कर रहा है उसे उसका श्रेय निश्चित तौर पर मिलना चाहिए. महुआ खुद श्रवण कुमार गोस्वामी के पास अपनी पांडुलिपि लेकर गई होंगी, वे नहीं आए होंगे उनकी पांडुलिपि मांगने. इससे उन्होंने इनकार भी नहीं किया है. कथाकार संजीव से भी उन्होंने पांडुलिपि पढ़ने का अनुरोध किया था. मेरा भी अपना अनुभव रहा है.

एक दफा जब मैं रांची गई थी तो महुआ ‘मैं बोरिशाइल्ला’ की पांडुलिपि के 1000 पन्ने लेकर मेरे पास आई थीं. यह बात भी सच है कि उन्होंने एक दफा बातों-बातों में मुझसे पूछा था कि दीदी, क्या किताब में सेक्स संबंधों का चित्रण हो तो जल्दी चर्चा और प्रसिद्धि मिल जाती है. इसके जवाब में मैंने उनसे यही कहा था कि मेरी किताबों में ऐसे जो भी प्रसंग हैं वे सभी पात्रों की परिस्थितियों से उपजे हैं न कि किताब को चर्चित कराने की मानसिकता के साथ लिखे गए हैं. बहरहाल मेरा मानना है कि महुआ श्रवण कुमार गोस्वामी को उनके सहयोग का श्रेय अवश्य दें. बाकी एक साहित्यिक विवाद को अदालत ले जाने का मुझे कोई तुक समझ में नहीं आता.
(पूजा सिंह से बातचीत में)