भानुमती का कुनबा

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) रांची के दफ्तर में काफी वक्त गुजारने के बाद जब हम सीढ़ियों से नीचे उतर रहे होते हैं तो दिव्या (बदला हुआ नाम) मिलती हैं. उनका यह मिलना अनायास नहीं लगता. शायद वे पहले से ही हमारे निकलने का इंतजार कर रही हैं. दिव्या कहती हैं, ‘मुझे पता है कि आप मीडिया से हैं, यह नहीं मालूम कि यहां आप क्या मालूम करने आई थीं और क्या-क्या पता करके जा रही हैं, लेकिन एक बात मैं भी कहना चाहती हूं. आईआईएम में दाखिले के लिए मैंने कमरतोड़ मेहनत की थी. भारत में सबसे मुश्किल एंट्रेंस टेस्ट्स में से है आईआईएम का टेस्ट. इतनी मेहनत के बाद सफलता मिली तो सोचा था कि कुछ दिनों तक अच्छे से कैंपस लाइफ गुजारेंगे. बाद में तो मैनेजमेंट की नौकरी टेंशन में ही गुजरने लगती है. लेकिन यहां रांची आईआईएम में कैंपस लाइफ क्या खाक गुजारेंगे? इससे ज्यादा कैंपस जैसा माहौल तो स्कूल में ही लगता था.’ दिव्या आगे बताती हैं, ‘संस्थान में पढ़ाई को लेकर कोई शिकायत नहीं. लेकिन हम कोई बच्चे तो हैं नहीं कि सिर्फ पढ़ें और फिर होमवर्क पूरा कर अगले दिन स्कूल पहुंच जाएं. पढ़ाई के बाद कुछ देर रिलैक्स करने की जगह तो चाहिए, लेकिन यहां तो सीधे क्लासरूम में पहुंचते हैं या फिर वहां से निकलने के बाद हॉस्टल के बंद कमरे में.’

दिव्या आईआईएम से निकलते हुए जिस सीढ़ी पर हमसे मिलती हैं वह सूचना एवं जनसंपर्क कार्यालय पहुंचने की भी सीढ़ी है, जहां दिन भर लोगों का आना-जाना लगा रहता है. दरअसल रांची में किसी स्थायी भवन के अभाव में फिलहाल आईआईएम सूचना भवन में ही चल रहा है. आते-जाते हुए लोगों को दिखाते हुए दिव्या कहती हैं, ‘दिन भर यहां इसी तरह आते-जाते रहते हैं लोग, हमें कई बार लगता है कि हम आईआईएम जैसे संस्थान के ही छात्र हैं या थोक में खुले उन प्राइवेट मैनेजमेंट संस्थानों में से किसी एक के जो हर शहर में  किराये के किसी फ्लोर पर चलते मिल जाएंगे.’

दिव्या अकेली नहीं हैं जिन्हें शिकायत है. आईआईएम रांची में पढ़ रहे कई छात्रों से बात करने पर अपना कैंपस न होने को लेकर उनकी नाराजगी साफ दिखती है. हालांकि कैंपस निर्माण पर जिस तरह राजनीतिक फुटबॉल खेला जा रहा है उसे देखते हुए यह तय है कि दिव्या या उनके बाद आने वाले कुछ और बैचों के छात्र-छात्राओं को इसी तरह की परेशानियों से दो-चार होना पड़ेगा.

फिलहाल आईआईएम राजधानी रांची के सूचना भवन में मिली 30 हजार वर्गफुट की जगह में चल रहा है. इसी जगह में संस्थान का प्रशासनिक कार्यालय है और कक्षाएं भी यहीं से संचालित हो रही हैं. छात्र-छात्राओं के लिए दो हॉस्टल अलग हैं जिनमें एक तो पास में है लेकिन दूसरा शहर से बाहर राष्ट्रीय खेल के लिए बने खेलगांव परिसर में है. यहां से आने-जाने में ही छात्रों को रोजाना घंटे भर से ज्यादा समय लग जाता है.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों देश का यह प्रतिष्ठित संस्थान झारखंड में आने के बाद महत्वहीन-सा बनकर एक कोने में सिमट कर रह गया है. इसके लिए नगड़ी से जुड़े विवाद को समझना होगा. वही नगड़ी जो रांची से सटा एक छोटा-सा कस्बा है लेकिन पिछले एक साल से ज्यादा समय से राष्ट्रीय सुर्खियों में जगह बना रहा है. जब-जब नगड़ी की चर्चा हुई या होती है तो साथ में आईआईएम, ट्रिपल आईटी और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों का नाम भी लिया जाता है. दरअसल नगड़ी में जमीन अधिग्रहण को लेकर सरकार और किसानों में टकराव चल रहा है और इस टकराव की जड़ में इन्हीं संस्थानों का निर्माण है. इस वजह से आईआईएम दो साल से रांची में चल रहा है. किस हाल में चल रहा है उसका अंदाजा दिव्या की बातों से लगाया जा सकता है.

राज्य सरकार अब तक इस संस्थान के लिए दो बार स्थान बदलकर अब तीसरी जगह का नाम हवा में उछाल चुकी है. उधर, केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को पत्र के जरिए घुड़की दी है कि अगर वह एक अदद जगह सुनिश्चित नहीं कर सकती तो संस्थान को कहीं और ले जाया जा सकता है. रांची आईआईएम के भवन के लिए आवंटित 20 करोड़ रुपये रोहतक आईआईएम को ट्रांसफर करने की भी बात हो रही है. हालांकि 19 दिसंबर को देश में नए बने छह आईआईएम के भवन निर्माण की स्थिति पर दिल्ली में बैठक होनी है. बताया जा रहा है कि आखिरी निर्णय उसी समय होगा. राज्य के शिक्षा मंत्री बैजनाथ राम कहते हैं, ‘राज्य सरकार आईआईएम को लेकर गंभीर है और नामकुम में इसका निर्माण होगा. सरकार अपने स्तर पर हरसंभव सहयोग करेगी.’

 केंद्र और राज्य के बीच शुरू हुई इस नई खींचतान और अब तक राज्य सरकार की बेपरवाही का आगे नतीजा जो निकले, फिलहाल यह एक असर तो साफ दिख ही रहा है. वह यह कि कमरतोड़ मेहनत करके देश के कोने-कोने से सुनहरे सपनों के साथ रांची पहुंचे छात्र पेंडुलम की तरह इधर-उधर डोलते नजर आ रहे हैं. फिर सवाल वही कि आखिर देश में प्रतिष्ठित संस्थानों में शुमार आईआईएम का केंद्र रांची में ऐसे ही कितने दिनों तक और चलता रहेगा. क्या इसका कोई ठोस समाधान शीघ्र निकलेगा? आईआईएम के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर कहते हैं, ‘अब सरकार रांची से ही सटे नामकुम में जमीन देने को कह रही है, लेकिन कैसे यकीन करें कि वहां भी जमीन और कैंपस का सपना हकीकत में बदल जाएगा?’ जेवियर आगे कहते हैं, ‘शुरू से ही हमें सिर्फ स्थान बदल-बदलकर जमीन ही दिखाई जाती रही है.’

जेवियर जो कहते हैं वह बहुत हद तक सही भी है. जब रांची में आईआईएम खुलने की बात हुई थी तो तय हुआ था कि यह रांची से सटे खूंटी में खुलेगा, राज्य सरकार की ओर से वहीं जमीन दी जाएगी. यह भी फैसला हुआ था कि राष्ट्रीय खेल के आयोजन के बाद खेलगांव स्थित प्रशासनिक भवन को भी संस्थान के हवाले किया जाएगा. लेकिन हुआ कुछ नहीं. बाद में बात चली कि आईआईएम को रांची के दूसरे हिस्से नगड़ी में खोला जाएगा. सरकार ने करीब 214 एकड़ जमीन देने का एलान किया. बाद में 137 एकड़ जमीन वापस लेने का फैसला किया गया. बाकी बची जो जमीन आईआईएम को मिली भी उस पर भी बवाल हो गया. इस बीच आईआईएम सूचना भवन में चलता रहा. इस साल फिर सरकार ने कहा कि अगर आईआईएम चाहे तो उपायुक्त कार्यालय के नए भवन में एक जगह ले सकता है लेकिन आईआईएम बोर्ड ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया. ऐसा करने की ठोस वजहें भी थीं. आखिर सूचना भवन में क्लासरूम, उपायुक्त कार्यालय में प्रशासनिक भवन, खेलगांव में हॉस्टल… आईआईएम जैसे संस्थान का संचालन इतने बिखराव के साथ व्यावहारिक तौर पर संभव भी नहीं लगता.
कैंपस और दूसरे शब्दों में कहें तो उपयुक्त और पर्याप्त जगह नहीं होने से सिर्फ कैंपस के माहौल की ही कमी नहीं खल रही. जेवियर कहते हैं, ‘ हम कई नए कोर्स शुरू करना चाहते हैं लेकिन जगह ही नहीं तो कैसे होगा. अब इसके लिए हमारे पास एक ही विकल्प है कि अगले साल से हम दूरस्थ शिक्षा शुरू करें, जिसके लिए चीन, बोस्टन आदि यूनिवर्सिटियों से समझौते हो रहे हैं. वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही बेहतर से बेहतर कोर्स चलाने की कोशिश करेंगे. इसका लाभ भी हमें मिलेगा.’

संभव है अगले साल से आईआईएम रांची में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नए कोर्स शुरू भी हो जाएं. समय की मांग के अनुसार इनसे विद्यार्थी जुड़ें भी और आईआईएम कहीं और न जाकर रांची में ही इसी हाल में चलता रहे. लेकिन यह समझ से परे है कि आखिर क्यों आईआईएम जैसा संस्थान राज्य में आने पर भी  सरकार उसके प्रति गंभीर नहीं है जबकि दूसरे राज्य अपने यहां ऐसे संस्थान लाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं. जेवियर राज्य सरकार के गैरपेशेवर रवैये को दोष देते हैं. हालांकि वे यह भी जोड़ते हैं कि गठबंधन सरकारों के राज में ऐसा होना कोई अजूबा भी नहीं.

आईआईएम रांची के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर से अनुपमा की बातचीतआईआईएम रांची के निदेशक प्रो. एमसी जेवियर

आईआईएम को चलाने में किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है?
देश में पहली बार यह प्रयोग हुआ है कि इतने छोटे शहर में आईआईएम खुला है. छोटे शहरों की अपनी परेशानियां होती हैं. रांची आईआईएम में फैकल्टी को प्रति घंटे पढ़ाने के लिए आठ हजार रुपये अदा किए जाते हैं, जबकि अन्य जगहों पर यह शुल्क लगभग चार हजार के करीब ही है. रांची की दूरी ज्यादा है और यहां आवागमन के साधन भी उस तरह से नहीं हैं. फैकल्टी को यहां आने में ज्यादा समय देना पड़ता है. कम पैसा देने पर वे आने को तैयार नहीं होंगे. तो बेहतर शिक्षा कैसे मिलेगी? दूसरी समस्या संरचना का अभाव और स्थान की कमी है. हमें अब जाकर सूचना भवन में 30 हजार वर्ग फुट की जगह मिली है वह भी काफी मिन्नत-मनुहार करने के बाद. देश के अन्य आईआईएम की तुलना में यह बेहद कम जगह पर चलाया जा रहा है, जिसमें से अधिकांश स्थान दफ्तर व विभागीय कार्य के लिए है. कक्षाएं तो मात्र छह हैं. उनमें भी तीन ही बड़ी हैं. कई कोर्स हम इन्हीं सब दिक्कतों के कारण शुरू नहीं कर पा रहे हैं. शुरुआती दौर में तो हास्टल तक नहीं मिल पा रहा था. पर अब संस्थान से बहुत दूर खेलगांव में हमें मिल गया है. यह एक ही कैंपस में होना चाहिए था.

नई लोकेशन पर जाने की बात हो रही है. कहां जाएंगे आप?
हमें कई बार जगह दिखाई गई और हर बार फिर स्थान बदला जाता रहा. हमें नगड़ी में भी 227 एकड़ जमीन मिलने की बात की गई पर वहां के लोग जमीन देना नहीं चाहते. वहां पिछले कई महीनों से व्यापक आंदोलन चल रहा है. हमारे मन में भी किसानों के प्रति संवेदना है कि उनकी जमीनों पर जबरन आईआईएम न बने. सरकार हमें कोई और जगह दे दे. लेकिन समस्या यह है कि सरकार बहुत धीमी गति से चलती है और बिल्डिंग व इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि के लिए जो पैसा दिया है वह बहुत जल्दी लैप्स हो जाएगा. एक बार हमें जगह मिल जाएगी फिर हम बेहतर तरीके से काम कर सकेंगे.

आपको रांची के डीसी ऑफिस में तो जगह दी जा रही थी. वहां क्यों नहीं गए?
वह जगह भी अमूमन इतनी ही है. हम तो सूचना भवन में ही एक और तल्ले की मांग कर रहे थे. हम डीसी ऑफिस चले भी जाते लेकिन बोर्ड इसके लिए राजी नहीं था. वहां भी जगह ले लेने से प्रशासन और संचालन का जिम्मा दो जगहों पर हो जाता, फिर और ज्यादा परेशानी होती. सरकार सूचना भवन को डीसी ऑफिस में ले जाए या डीसी ऑफिस ही इधर आ जाए तो हमें एक बिल्डिंग मिल जाती. लेकिन इसमें सरकार को दोष नहीं दूंगा. सरकार ने अपनी ओर से कोशिश की. विभागीय लोग ज्यादा जिम्मेवार हैं.

क्या आपको लगता है कि सरकार सहयोग नहीं कर रही?
यहां पर गठबंधन की सरकार है. गठबंधन की सरकारें बहुत ही आंतरिक दबावों में चलती हैं और उनकी प्राथमिकताएं अलग होती हैं. उनके लिए आईआईएम जैसे एक संस्थान का संचालन महत्वपूर्ण नहीं हो सकता.

इन सबकी वजह से पढ़ाई पर तो प्रतिकूल असर पड़ रहा होगा.
हां, यह सच है लेकिन चंद लोगों की शिक्षा पर असर पड़ रहा है. वह भी खास और पैसे वाले लोगों पर. यदि मैं राज्य का मुख्यमंत्री होता तो मेरे लिए भी यह बहुत मायने नहीं रखता. राज्य के लिए कई दूसरे कार्य ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. आप फिर सवाल कर सकती हैं कि राज्य में आईआईएम का होना गर्व की बात है और इससे राज्य की साख बनती है. लेकिन यहां से पढ़ने के बाद शायद ही कोई होगा जो राज्य में रहकर राज्य के विकास की बात करेगा. यहां बड़े उद्योग भी नहीं हैं इसलिए अधिकांश छात्र बाहर ही जाएंगे. हम इसके लिए बेयर फुट मैनेजर प्रोग्राम आदि शुरू कर रहे हैं ताकि यहां पर राज्य के विकास में बच्चों की सहभागिता हो. समस्या सिर्फ इतनी भर है कि सरकार में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है. जगह नहीं दे सकते तो साफ ना कर दें. दो साल से अलग-अलग जगहों को बदलते रहने का क्या मतलब? अपनी बात पर कायम रहना चाहिए. पहले खेलगांव में प्रशासनिक भवन देने की बात हुई थी. फिर मना कर दिया गया. फिर खूंटी में जमीन देने को कहा हम तब भी तैयार हो गए. फिर नगड़ी में कहा और अब नामकुम कह रहे हैं, अब आगे क्या होगा, पता नहीं!

तो आपको आश्वासन मिलते रहे और आप मानते रहे.
नहीं, यह कोरा आश्वासन होता तो कोई बात नहीं थी. यह सब हमें लिखित दस्तावेज के रूप में सौंपा गया है. यदि बयानबाजी होती तो और बात थी. केंद्र सरकार से ये समझौता होता रहा तो हमें मानना ही था.

यह बात भी उछल रही है कि रांची आईआईएम दूसरे राज्य में भी जा सकता है
हां, यह सच है कि केंद्र सरकार ने मुख्यमंत्री को एक नोटिस भेजा है कि यदि जल्द से जल्द आईआईएम के लिए स्थान नहीं दिया गया तो वह इसे हटा कर दूसरे राज्य यानी बिहार में भेज देगी लेकिन आज तक आईआईएम के इतिहास में ऐसा हुआ नहीं है. इसे घुड़की या दबाव की राजनीति कह सकती हैं और यह केंद्र और राज्य सरकार, दोनों को पता है.