तभी हम भी रह सकेंगे

————————————————————————-

संजय दुबे, कार्यकारी संपादक

————————————————————————-

अमृतलाल नागर जी का एक उपन्यास है शतरंज के मोहरे. इस उपन्यास के एक पात्र हैं अवध के एक गांव के जमींदार लाल साहब. इसमें एक स्थान पर लिखा है कि लाल साहब की ‘पहली पत्नी ने चार कन्याओं और एक पुत्र को जन्म दिया था. पुत्रियां जन्मते ही मार डाली गईं. अब दूसरी पत्नी की यह पहली सौरी है. लाल साहब की मां, विधवा बहन और दायी कंडौर (कंडे रखने का स्थान) में छोटी ठकुरानी को घेरे बैठी हैं.’
इस उपन्यास में जो आगे लिखा है वह जरा भी सभ्यता रखने वाले किसी की भी नींद उड़ाने के लिए बहुत ज़्यादा है- छोटी ठकुरानी ने एक बिटिया को जन्म दिया. ‘लाल साहब की मां और चाची जल-भुनकर चल दीं. लाल कुंवर सिंह की नवजात कन्या के पहली कुआं-कुआं करते ही दायी ने उसके मुंह में मदार का दूध टपकाना आरंभ कर दिया. बच्ची को मदार का दूध पिलाकर उसके मुंह में गर्भ का मल भर दिया. जच्चा की खाट के पास ही जल्दी-जल्दी गड्ढा खोदकर जैसे-तैसे शिशु का शव तोप दिया.’

नागर जी ने यह वर्णन पिछली शताब्दी की शुरुआत का किया है. शताब्दी के अंत की बात अपने एक लेख में श्रीलाल शुक्ला जी ने लिखी है – ‘लगता है कि गांवों से निकलकर यह प्रथा शहर के संभ्रांत वर्गों में आ गई है. वे अब कन्या के जन्म की प्रतीक्षा नहीं करते, वे भ्रूण-परीक्षण करते हैं और अगर शिशु कन्या की संभावना हुई तो बड़ी निस्संगता से गर्भपात का रास्ता अपनाते हैं.’

मगर पैदा न होने देना तो जघन्य होते हुए भी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में काफी नीचे है. करीब एक साल पहले तहलका ने एक स्टोरी – होना ही जिनका अपराध है जहां – की थी. इसे पढ़ने पर समझ आता है कि किस तरह से बुंदेलखंड में बच्चियां एक-दूसरे से बदला लेने के खेल में बलात्कार और उसके बाद आग की शिकार बनाई जा रही हैं. इस इलाके के कुछ हिस्सों में लड़कियों का होना और सुंदर होना आज भी रोने-मातम मनाने की वजह हो सकता है.

बिल्कुल अभी की बात करें तो केवल आठ-दस दिन पहले ही दिल्ली में एक युवा महिला के साथ जो हुआ वह केवल इसलिए घिन पैदा नहीं करता कि जो हुआ वह क्या था बल्कि इसलिए भी कि यह महिलाओं के आगे आने के, कुछ करने के, पहले से ही तंग रास्तों को कुछ और संकरा बना देता है. यह उन्हें पीछे खींचने के लिए हर वक्त तैयार रहने वालों को एक बड़ा मौका दे देता है.

मगर मिटाने की इतनी तरह की कोशिशों, पूर्वाग्रहों, बाधाओं, दबे-ढके भेदभावों के बाद भी यदि अमरोहा की खुशबू मिर्जा आज चांद पर पहुंचने के सपने देख रही हैं, दलित समुदाय की मायावती अगर बार-बार दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश बन सकने लायक प्रदेश की और ममता बनर्जी देश में सबसे लंबे समय तक रहने वाली सरकार को उखाड़ कर मुख्यमंत्री बन सकती हैं और हमारी अपनी प्रियंका दुबे पिछले दो महीनों में देश के दो सबसे बड़े पत्रकारिता सम्मान पाने के बाद इस विशेषांक को जैसा यह है वैसा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं तो इस विशेषांक के शीर्षक – मैं हूं और रहूंगी – को स्थापित करने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए.
रही बात यह विशेषांक निकालने की तो हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि हमारा कोई भी सामान्य अंक महिलाओं के लिए नहीं है. या फिर उसमें महिलाओं से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं हैं. चूंकि विशेषांक निकालना था और इसे सेक्स आदि की बेवजह की चूहादौड़ से अलग रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें भी आपके समक्ष रखनी थीं तो यह आपके हाथों में है.

मगर यह केवल महिलाओं के लिए नहीं है. वैसे ही जैसे हमारे सभी अंक महिलाओं के लिए भी हैं. इसमें महिलाओं के और महिलाओं को समझने के लिए कुछ बेहद जरूरी सामग्री है. शायद यह समझने के लिए भी कि वे हैं और रहेंगी तभी हम भी रह सकेंगे. यह विशेषांक केवल महिलाओं के लिए नहीं है. वैसे ही जैसे हमारे सभी अंक महिलाओं के लिए भी हैं. इसमें महिलाओं के और महिलाओं को समझने के लिए कुछ बेहद जरूरी सामग्री है.

बांध लूं दुनिया चोटी में(13-19 वर्ष)

डायरी के अंश

जमाना है पीछे

कुलुष हरते पुरुष

एकाधिकार तोड़ता मंत्रोच्चार

 

मुझे क्या बेचेगा रुपैया (20 से 29 वर्ष)

डायरी के अंश

जमाना है पीछे

देहरी और दोराहा

 

हैरान हूं मैं जिंदगी (30 से 39 वर्ष)

डायरी के अंश

बदनाम बैतूल

लौट के बाजार को आए

जमाना है पीछे

 

विस्तार है अपार (40 से 49 वर्ष)

डायरी के अंश

जननी जग अंधियारा

साक्षात्कार

सबसे खुश हूं आज

 

थी, हूं और रहूंगी (50 वर्ष और इससे आगे)

डायरी के अंश

हौसलों का हासिल

सबसे खुश हूं आज

 

पांच का पंच

घटनाएं

योजनाएं

कानून

स्वास्थ्य समस्याएं

मिथक