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पांच घटनाएं

दहेज हत्या और आंदोलन

भारत में दहेज विरोधी आंदोलन पहली बार 1970 के दशक में चर्चा में आया. तब दिल्ली में एक नव विवाहिता की हत्या कर दी गई थी. उस समय देश में पहली बार यह हुआ कि दो सौ से ज्यादा लोगों ने मृतक महिला की ससुराल के सामने विरोध प्रदर्शन किया और नारे लगाए. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोगों के भीतर पनपे आक्रोश को पहचाना और वे  दहेज हत्याओं को केंद्र में रखकर काम करने के लिए प्रेरित हो गए. इसका नतीजा यह हुआ कि अकेले दिल्ली में इसके बाद कुछ ही महीनों में दर्जनों विरोध प्रदर्शन हुए. आखिरकार 1982 में दहेज निषेध कानून को मजबूत करने के लिए एक संसदीय समिति का गठन हुआ. इसकी सिफारिशों के आधार पर 1986 में दहेज निषेध कानून में बदलाव करके इसे और कठोर बना दिया गया.

रूप कंवर ‘सती'(रूप कंवर की हत्या)

राजस्थान के गांव देवराला में रूप कंवर के ‘सती’ होने की घटना लगभग एक हफ्ते बाद पूरे देश को पता चली थी. 16 दिसंबर, 1987 को जब इस राजपूत महिला के सती होने के तेरहवें दिन चुनरी महोत्सव के लिए तैयारियां शुरू हुईं तब देश भर के मीडिया ने इसे बहस का बड़ा मुद्दा बना दिया. जगह-जगह आंदोलन हुए और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सती निरोधक कानून को और कठोर बनाने की मांग की.

जब यह मामला केंद्र सरकार के पास गया तो महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सती निरोधक कानून के तहत आरोपितों की सजा बढ़ाने के साथ-साथ समुदाय और उस गांव के प्रमुख को आरोपित बनाने की सिफारिश की.

इस पूरे मसले पर सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह रही कि संसद में बहस के दौरान राजस्थान के भाजपा नेताओं ने इस कानून में बदलाव का काफी विरोध किया. उनका तर्क था कि राजपूतों की इस परंपरा में कानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. हालांकि इस विरोध के बाद भी सती निरोधक कानून में संशोधन कर दिया गया.

माया त्यागी प्रकरण

1980 के दौरान लोकसभा में कुछ दिनों तक बहस का मुद्दा बना रहा यह मामला पुलिस द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न के संदर्भ में आज भी याद किया जाता है. मेरठ की माया त्यागी के बलात्कार की घटना हरियाणा के बागपत में हुई थी. इस दौरान  पुलिस ने उनके पति और दो दोस्तों की हत्या कर दी थी. उस समय माया त्यागी मामले की जांच के लिए नेशनल लोकदल के नेता चौधरी चरण सिंह ने एक आंदोलन भी चलाया था. इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश सरकार को एक न्यायिक जांच आयोग का गठन करना पड़ा. लेकिन इस आयोग की अंतिम जांच में सभी आरोपित पुलिसकर्मियों को निर्दोष करार दे दिया गया. कहा जाता है कि भारत में बलात्कार से जुड़े कानूनों में आरोपितों पर खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी वाला प्रावधान इस घटना के संदर्भ में ही जोड़ा गया है.  

मथुरा : यौन उत्पीड़न मामला

1972 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर में सोलह साल की आदिवासी लड़की मथुरा के साथ पुलिस थाने में दो कांस्टेबलों ने बलात्कार किया था. पुलिस में शिकायत दर्ज होने के बाद 1974 में यह मामला सत्र न्यायालय के सामने आया. लेकिन अदालत ने दोनों आरोपितों को बरी कर दिया. अपने फैसले के पक्ष में अदालत ने मथुरा के अतीत को आधार बनाते हुए कहा कि चूंकि वह अपने पुरुष मित्र के साथ पहले भाग चुकी है इसलिए उसे शारीरिक संबंधों की आदत है और पुलिस थाने में जो हुआ उसे बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. 1979 में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो यहां भी सत्र अदालत के तर्क को आधार बनाते हुए आरोपितों को निर्दोष करार दिया गया. इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही मीडिया सहित तमाम जनसंगठनों से तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं. इस जनदबाव का नतीजा यह हुआ कि 1983 में सरकार को बलात्कार से जुड़े कानूनों में व्यापक संशोधन करने पड़े.  

शाह बानो मामला

1986 में जब सु्प्रीम कोर्ट ने इंदौर की 69 वर्षीया मुस्लिम महिला शाह बानो के तलाक मामले में उनके पति मोहम्मद अहमद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया तो यह फैसला पूरे मुस्लिम समुदाय के आंदोलित होने की वजह बन गया. मुस्लिम संगठनों का कहना था कि यह इस्लामी परंपरा में कानून का हस्तक्षेप है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार से तुरंत कानून में संशोधन करके सु्प्रीम कोर्ट का फैसला बदलने की मांग की. आखिरकार सरकार इस दबाव के आगे झुक गई और उसने मुस्लिम महिला (तलाक संरक्षण अधिकार) कानून – 1986 पारित कर दिया. इस कानून के तहत अदालती फैसला पलट गया. मुस्लिम महिलाओं के तलाक संबंधी अधिकार सीमित करने के इस मामले ने देश में समान नागरिक संहिता की बड़ी बहस छेड़ दी और कहा जाता है कि यह भाजपा के लिए हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने में काफी मददगार साबित हुआ.

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पांच योजनाएं

सबला ( राजीव गांधी किशोरी सशक्तीकरण योजना )

11 से 18 वर्ष की किशोरियों के लिए चलाई जा रही राजीव गांधी किशोरी सशक्तिकरण योजना को सबला नाम से जाना जाता है. केंद्र सरकार की यह योजना देश भर के 200 जिलों में प्रभावी है. सबला खास तौर से उन किशोरियों पर केंद्रित है जो स्कूल नहीं जा रही हों और इसलिए इस योजना के अंतर्गत किशोरियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है. एक वर्ग 11 से 14 वर्ष की उन किशोरियों का है जो स्कूल छोड़ चुकी हों और दूसरे वर्ग में 15 से 18 वर्ष की सभी किशोरियों को शामिल किया गया है. योजना के अंतर्गत ग्राम/मोहल्ले के आंगनबाड़ी केंद्र में किशोरियों का नामांकन किया जाता है और उन्हें निर्धारित दिन आवंटित किए जाते हैं जब उन्हें आंगनबाड़ी केंद्र में उपस्थित होना होता है. दिनों का आवंटन इस तरह से किया जाता है कि स्कूल न जाने वाली युवतियां स्कूली युवतियों के संपर्क में आएं और स्वयं भी स्कूल जाने हेतु प्रेरित हों. सबला के मुख्य उद्देश्यों में किशोरियों को स्वावलंबी एवं सशक्त बनाना, उनके स्वास्थ्य एवं पोषण में सुधार करना, उन्हें सार्वजनिक एवं सरकारी संस्थाओं की कार्यप्रणाली की जानकारी देना और औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा प्रदान करना शामिल हैं. सभी युवतियों की स्वास्थ्य जांच भी योजना के अंतर्गत की जाती है और उन्हें आयरन एवं फोलिक एसिड की गोलियों के साथ ही वर्ष में 300 दिन पोषाहार भी प्रदान किया जाता है. आंगनबाड़ी केंद्रों में इन युवतियों को विभिन्न विषयों पर व्यावहारिक जानकारी भी दी जाती है. प्रोत्साहन हेतु इस योजना में ‘सखी’ और ‘सहेली’ जैसे पद भी बनाए गए हैं जिन पर इन्हीं युवतियों में से किसी को नियुक्त किया जाता है. इन केंद्रों पर वर्ष में एक दिन ‘किशोरी दिवस’ भी मनाया जाता है जो प्रत्येक राज्य में वहां की सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है. सबला योजना भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही है. 

जननी सुरक्षा योजना 

भारत में प्रसव के दौरान होने वाली नवजात शिशुओं और माताओं की मृत्युदर काफी ज्यादा है. इस मृत्युदर को कम करने के उद्देश्य से ही जननी सुरक्षा योजना को केंद्र सरकार द्वारा लागू किया गया है. जननी सुरक्षा योजना पूर्ण रूप से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के अंतर्गत आती है. यह योजना भारत के सभी राज्यों में प्रभावी है जिसके अंतर्गत प्रत्येक गांव में कुछ स्वयंसेविकाओं को नियुक्त किया गया है जिन्हें आशा नाम से भी जाना जाता है. आशा का कार्य है कि सभी गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लाभों से अवगत कराए और उन्हें इसके लिए प्रेरित भी करे. आशा को गर्भवती महिलाओं की देखभाल हेतु आवश्यक स्वास्थ्य सामग्री भी प्रदान की जाती है. योजना को बढ़ावा देने हेतु प्रत्येक संस्थागत प्रसव पर आशाओं को नकद भुगतान किया जाता है. सरकार ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की है जिनसे योजना से संबंधित आवश्यक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं. 

योजना के अंतर्गत गर्भवती महिलाओं को स्वस्थ एवं पोषक आहार भी उपलब्ध कराया जाता है. गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं को संस्थागत प्रसव करवाने पर या घर पर ही प्रशिक्षित महिला द्वारा प्रसव करवाने पर नकद सहायता भी प्रदान की जाती है. शहरी क्षेत्र की महिलाओं को प्रसव के बाद 1,000 रुपये तथा ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को 1,400 रुपये प्रदान किए जाते हैं. इस योजना का लाभ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली 19 वर्ष से अधिक उम्र की सभी गर्भवती महिलाओं को दो बच्चों के जन्म तक दिया जाता है. योजना में प्रसव के बाद प्रसूता एवं नवजात शिशु को घर तक पहुंचाने हेतु वाहन उपलब्ध करवाने का प्रावधान भी है. योजना का लाभ लेने हेतु गर्भवती महिला को सरकारी अस्पताल या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में पंजीकरण करवाना होता है. गांव की आशा से मिलकर भी इस योजना का लाभ लिया जा सकता है. प्रसूता को यदि इस योजना का लाभ न मिले तो अस्पताल के प्रभारी चिकित्साधिकारी या मुख्य चिकित्सा अधीक्षक से शिकायत की जा सकती है. 

महिला समाख्या योजना

महिला समाख्या योजना विशेष तौर पर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों की ग्रामीण महिलाओं के लिए चलाई जा रही एक योजना है. समानता हासिल करने और महिलाओं को शिक्षित एवं सशक्त बनाने में इस योजना का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. इसकी एक विशेषता यह भी है कि इस योजना को पूर्ण रूप से महिलाओं द्वारा ही संचालित किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप अधिक से अधिक महिलाएं इसका हिस्सा बनने के लिए आकर्षित होती हैं. इस योजना के मुख्य उद्देश्यों में महिलाओं की आत्मछवि तथा आत्मविश्वास में वृद्घि करना, ऐसा वातावरण तैयार करना जहां महिलाएं ज्ञान तथा सूचना प्राप्त कर सकें जिससे वे समाज में एक सकारात्मक भूमिका निभा सकें, महिलाओं तथा किशोरियों की शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करना तथा औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों में महिलाओं तथा लड़कियों की अधिक सहभागिता प्राप्त करना शामिल हैं. महिला समाख्या योजना में मात्र उद्देश्यों की प्राप्ति के बजाय प्रक्रिया पर भी विशेष ध्यान दिया गया है जिसके तहत महिलाओं को स्वयं अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करने और अपनी पसंद के अनुसार ज्ञान तथा सूचना प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया जाता है.

1989 में शुरू की गई यह योजना वर्तमान में 10 राज्यों में प्रभावी है. इस योजना के तहत पेयजल, स्वास्थ्य और दैनिक न्यूनतम आवश्यकताओं में सुधार के साथ ही महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, बाल विवाह, दहेज आदि समस्याओं से निजात दिलाने की पहल भी की गई है. शिक्षा के क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान और मध्याह्न भोजन योजना जैसे कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के साथ ही प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने में भी महिला समाख्या ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ग्राम स्तर से लेकर राज्य स्तर तक महिला समाख्या के कार्यकर्ता सक्रिय हैं जिनसे इस योजना के संबंध में जानकारी हासिल की जा सकती है. 

लाडली

दिल्ली सरकार की इस योजना को विशेष रूप से लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने एवं उनकी शिक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लागू किया गया है. लाडली योजना में कई ऐसे प्रावधान हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की लड़कियों के भविष्य को आर्थिक मजबूती प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं और साथ ही उनको घर एवं समाज में बराबरी का दर्जा दिलवाने का काम भी कर रहे हैं.

लाडली योजना को दिल्ली सरकार द्वारा सन 2008 में लागू किया गया. जनवरी, 2008 और उसके बाद पैदा हुई लड़कियों को जन्म से ही इस योजना का लाभ मिल रहा है जबकि 2008 से पहले पैदा हुई बालिकाओं को उनके सरकारी स्कूलों में नामांकन के अनुसार लाभान्वित किया जा रहा है. दिल्ली में पैदा हुई वे सभी लड़कियां इस योजना का लाभ प्राप्त कर सकती हैं जिनके अभिभावकों की वार्षिक आय एक लाख रुपये से कम हो और वह कम से कम पिछले तीन साल से दिल्ली में रह रहे हों. 

लाडली योजना के अंतर्गत दिल्ली के किसी भी अस्पताल/नर्सिंग होम अथवा संस्था में जन्म लेने वाली बालिका को 11,000 रुपये दिए जाते हैं और यदि बालिका का जन्म इसके अलावा कहीं और हुआ हो तो उसे 10,000 रुपये दिए जाने का प्रावधान है. यह धनराशि बालिका के खाते में जमा करवाई जाती है. इसके अलावा कक्षा एक, छह और नौ में दाखिले के समय भी बालिका के खाते में प्रत्येक बार पांच हजार रुपयेे जमा करवाए जाते हैं. कक्षा 10 पास करने पर तथा 12वीं में दाखिला लेने पर भी 5-5 हजार रुपये इस खाते में जमा करवाए जाने का नियम लाडली योजना में है. 18 वर्ष की उम्र पूरी करने पर और कक्षा 10 उत्तीर्ण करने के बाद ही बालिका इस पूरी रकम को ब्याज सहित अपने खाते से निकाल सकती है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की इस योजना का लाभ लेने हेतु आवेदन पत्र निकटतम सरकारी स्कूल, समाज कल्याण विभाग या भारतीय स्टेट बैंक से प्राप्त किया जा सकता है. 

स्वाधार

निराश्रित और बेसहारा महिलाओं को आधार प्रदान करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्वाधार योजना को लागू किया गया है. योजना के अंतर्गत देश भर में स्वाधार गृह खोले गए हैं जहां इन महिलाओं के रहने, खाने, कपड़े एवं स्वास्थ्य जांच की व्यवस्था के साथ ही इनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की भी जिम्मेदारी ली जाती है. यह योजना उन महिलाओं पर केंद्रित है जो कठिन और विपरीत परिस्थितियों में रह रही हैं. वेश्यावृति, रिहा कैदी, प्राकृतिक आपदा, घरेलू हिंसा अथवा अन्य किसी भी कारण से बेसहारा हुई महिलाओं को इस योजना के अंतर्गत स्वाधार गृह में लाया जाता है और उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है. महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक पुनर्वास को ध्यान में रखते हुए उन्हें स्वाधार गृह में तीन साल तक रखा जा सकता है. इस दौरान उन्हें शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करके आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की जाती है. स्वाधार गृह में महिलाओं के लिए हेल्पलाइन भी चलाई जाती है और जरूरत पड़ने पर उन्हें कानूनी मदद भी प्रदान की जाती है जिससे घरेलू हिंसा जैसे अपराधों से पीड़ित महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती हैं. 55 वर्ष की बुजुर्ग महिलाओं को पांच साल तक स्वाधार गृह में रखा जा सकता है जिसके बाद उन्हें वृद्धाश्रम या किसी अन्य संस्था में भेज दिया जाता है. स्वाधार गृह में 18 वर्ष तक की लड़कियां और 12 वर्ष तक के लड़के भी अपनी मां के साथ रह सकते हैं. स्वाधार गृहों की निगरानी के लिए प्रत्येक जिले में एक समिति का गठन किया गया है. जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक समेत कई जिला स्तरीय उच्चाधिकारी इस समिति के सदस्य होते हैं जिन्हें नियमित रूप से स्वाधार गृहों का निरीक्षण करना होता है. इस योजना को राज्य सरकारों के समाज कल्याण विभाग, महिला एवं बाल विकास विभाग, महिला विकास सहकारी समितियों एवं नगर निगमों के साथ मिलकर कार्यान्वित किया जाता है.

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पांच कानून

पंचायत चुनावों में महिला आरक्षण

1992 में हुए संविधान के 73वें संशोधन ने जहां एक तरफ ग्राम सभाओं का गठन अनिवार्य किया वहीं दूसरी तरफ इस संशोधन के जरिए त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी भी सुनिश्चित हुई. त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था 1959 में बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों पर लागू की गई थी और तब से ही यह भी माना जा रहा था कि देश के समग्र विकास के लिए महिलाओं की प्रतिभागिता आवश्यक है. ग्रामीण स्तर पर महिलाओं को आगे लाने के उद्देश्य से संविधान में संशोधन करके कई नए प्रावधान जोड़े गए. इस संशोधन ने पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया और साथ ही पंचायत चुनावों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं समेत कुल 33 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं के लिए सुनिश्चित किया. इसका नतीजा यह हुआ कि देश भर की लगभग 30 लाख महिलाएं चुनावों में प्रतिनिधित्व करने हेतु सामने आई. बाद में कुछ राज्यों ने इस आरक्षण को बढ़ाकर 50 फीसदी तक कर दिया. संसद में लंबित एक विधेयक में इस आरक्षण को पूरे देश में ही 50 फीसदी करने का प्रस्ताव किया गया है. इस आरक्षण के चलते महिलाओं के अस्तित्व और अधिकारों को स्वीकार करने का सिलसिला सिर्फ गांव तक सीमित नहीं रहा बल्कि देश के कई जिलों में महिलाएं जिला पंचायत अध्यक्ष के प्रभावशाली पद तक भी पहुंच चुकी हैं. 

महिलाओं के सशक्तीकरण में इस संविधान संशोधन का महत्व इसलिए भी अधिक है  कि  इसके जरिए न सिर्फ महिलाओं को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला बल्कि उन्हें ग्रामीण समाज के लिए तैयार की गई कई योजनाओं को समझने और कार्यान्वित करवाने में भी मदद मिली. राजनीतिक क्षेत्र में जहां पहले महिलाओं की भूमिका नगण्य होती थी वहीं इस आरक्षण ने सीधे तौर पर महिलाओं के राजनीति में आने का रास्ता तैयार किया. आज पंचायत चुनावों में महिलाओं की इतनी बड़ी प्रतिभागिता के चलते राजनीतिक दलों को भी अधिक से अधिक संख्या में महिलाओं को सम्मानजनक पदों पर नियुक्त करना पड़ रहा है.

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005

महिलाओं पर होने वाले शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक उत्पीड़न की रोकथाम हेतु भारत में कई कानून बनाए गए जिनमें से सबसे प्रभावशाली है ‘घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005’. सन 2006 में लागू किए गए इस कानून में पहली बार ‘घरेलू हिंसा’ की स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या की गई. अधिनियम में घरेलू हिंसा को सिर्फ शारीरिक हिंसा तक ही सीमित नहीं रखा गया है बल्कि मानसिक, लैंगिक, मौखिक, भावनात्मक एवं आर्थिक हिंसा को भी घरेलू हिंसा की परिभाषा में शामिल किया गया है. घरेलू हिंसा के साथ ही घरेलू संबंधों को भी अधिनियम में परिभाषित किया गया है जिसके तहत बहन, मां, बेटी, अकेली विवाहिता, विधवा आदि महिलाएं भी इस कानून का लाभ ले सकती हैं. परिवार की कोई भी महिला सदस्य इस अधिनियम का लाभ प्राप्त कर सकती है यदि उसके साथ मारपीट की जाती हो, उसका किसी भी तरह से अपमान किया जाता हो, उसे नौकरी करने से रोका जाता हो, किसी विशेष व्यक्ति से विवाह करने पर विवश किया जाता हो या अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने से रोका जाता हो, उसके चरित्र या आचरण पर लांछन लगाया जाता हो, किसी व्यक्ति विशेष से उसके मिलने या बात करने पर रोक लगाई जाती हो, उसे घर छोड़ने को विवश किया जाए अथवा किसी भी अन्य तरीके का दुर्व्यवहार किया जाता हो.

 घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएं सहायता के लिए प्रार्थना पत्र पुलिस थाने, महिला एवं बाल विकास विभाग या सीधे न्यायालय में दाखिल कर सकती हैं. यह प्रार्थना पत्र पीड़िता के किसी संबंधी या सहयोगी द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है. संबंधित मजिस्ट्रेट अथवा न्यायालय द्वारा ऐसे मामलों में बिना किसी विलंब के पीड़िता को आवश्यक संरक्षण एवं क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है और साथ ही दोषी व्यक्ति के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की जाती है.

दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 

भारतीय समाज में दहेज प्रथा महिला उत्पीड़न का एक बड़ा कारण रही है. इसी को नियंत्रित करने के उद्देश्य से दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 लागू किया गया. इस अधिनियम के अंतर्गत दहेज लेना व देना दोनों ही दंडनीय अपराध हैं. कोई भी व्यक्ति जो विवाह से पहले या उसके बाद महिला या उसके परिजनों से दहेज की मांग करता है, उसे दंडित किए जाने का प्रावधान इस अधिनियम में मौजूद है. दहेज को प्रचारित करना भी अधिनियम के अंतर्गत दंडनीय माना गया है और इस प्रकार यह कानून विवाह के विज्ञापन के साथ किसी भी तरह के उपहार, नकद या संपत्ति देने के प्रस्ताव पर भी रोक लगाता है. हालांकि विवाह के दौरान किसी भी पक्ष द्वारा इच्छानुसार दिए गए उपहारों को इस अधिनियम के अंतर्गत दहेज की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है. 

   इस कानून को मजबूती प्रदान करने हेतु समय-समय पर इसमें संशोधन भी किए गए हैं. 80 के दशक में हुए संशोधन में यह प्रावधान भी इस कानून में जोड़ दिया गया कि विवाह के दौरान मिलने वाले उपहारों की एक सूची तैयार की जाए जिसकी प्रति दोनों पक्षों के पास रहे. पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय महिला आयोग एवं अन्य सामाजिक संगठनों द्वारा इस कानून में फिर संशोधन करने की मांग की जा रही है. इन मांगों में मुख्य यह है कि उपहारों की सूची को विवाह के तुरंत बाद ही सत्यापित करना अनिवार्य कर दिया जाए ताकि भविष्य में दहेज की शिकायत होने पर मदद मिल सके.

दहेज की मांग के चलते महिलाओं पर होने वाले उत्पीड़न को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता में भी कुछ प्रावधान जोड़े गए हैं. दहेज हत्या एवं पति के रिश्तेदारों द्वारा दहेज पाने के लिए क्रूरता करने पर उन्हें दंडित करने के लिए भारतीय दंड संहिता में धारा 304बी और 498ए को जोड़ा गया है. दहेज की मांग संबंधी कोई भी शिकायत निकटतम पुलिस थाने, महिला आयोग या संबंधित न्यायालय में की जा सकती है. 

प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम 1961 

यह अधिनियम विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं के हित सुनिश्चित करने हेतु लागू किया गया है जिसमें गर्भावस्था के दौरान महिला एवं शिशु के स्वास्थ्य का रखरखाव करने के विभिन्न प्रावधान मौजूद हैं. देश के लगभग सभी सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों में कार्य कर रही महिलाएं आज इस अधिनियम का लाभ ले रही हैं. यह कानून महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान वैतनिक अवकाश एवं अन्य मातृत्व लाभ प्रदान करता है. प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम के अंतर्गत कोई भी नियोक्ता किसी महिला कर्मचारी को उसके प्रसव या गर्भपात के तुरंत बाद छह सप्ताह तक जान-बूझ कर काम पर नहीं रख सकता. यह अधिनियम महिला को गर्भावस्था के दौरान कुल 12 सप्ताह का वैतनिक अवकाश  प्रदान करता है. इस दौरान संबंधित महिला अपने नियमित वेतन के अनुसार ही वेतन प्राप्त करने की हकदार होती है. इसके साथ ही महिला को इस दौरान अतिरिक्त मातृत्व लाभ भी प्रदान किया जाता है. 

अनुपस्थिति के दौरान नियोक्ता संबंधित महिला को नौकरी से नहीं निकाल सकता और जहां तक संभव हो नियोक्ता को महिला की सहायता करनी होती है. प्रसव के बाद महिला को कुछ समय तक ऐसा कोई भी काम नहीं दिया जाएगा जिसमें उसे लंबे समय तक खड़े होकर कार्य करना पड़े, ज्यादा शारीरिक श्रम करना पड़े अथवा कोई भी ऐसा कार्य करना पड़े जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो. 

इस कानून के लागू होने से पहले महिला कर्मचारियों को गर्भावस्था के दौरान अवकाश पाने हेतु नियोक्ता के विवेक पर निर्भर होना पड़ता था. कई महिलाओं को अवकाश न मिल पाने के कारण अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता था. इस अधिनियम ने महिलाओं के मातृत्व अधिकार सुनिश्चित करके उनके सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और उन्हें कार्यक्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाने का अवसर प्रदान किया है. 

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न ( निवारण, निषेध और सुधार ) कानून 

काफी समय से लंबित इस विधेयक को आखिरकार सितंबर, 2012 में लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया है. इस कानून का मुख्य उद्देश्य कामकाजी महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से संरक्षण प्रदान करना है. विधेयक में यौन उत्पीड़न को विस्तृत रूप से परिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत किसी भी प्रकार का शारीरिक उत्पीड़न करना, अश्लील सामग्री दिखाना अथवा अश्लील बातें करना, अभद्र टिप्पणी करना आदि शामिल हैं. यह कानून संगठित एवं असंगठित क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होगा. घरेलू काम करने वाली महिलाओं को भी इस कानून में शामिल किया गया है. 

अधिनियम के तहत प्रत्येक प्रतिष्ठान को एक आंतरिक समिति का गठन करना होगा जो यौन उत्पीड़न से संबंधित मामलों की सुनवाई एवं जांच करेगी. समिति को निर्धारित समय के भीतर अपनी जांच सौंपनी होगी जिस दौरान पीड़ित महिला को तबादले अथवा अवकाश पर जाने की भी सुविधा प्रदान की जाएगी. आंतरिक समिति के फैसले से असंतुष्ट होने पर कोई भी पक्ष न्यायालय में इस फैसले को चुनौती दे सकता है.

अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है और यदि यह उल्लंघन दोहराया जाता है तो संबंधित प्रतिष्ठान का लाइसेंस तक रद्द किया जा सकता है. 

यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वाली महिला की पहचान को पूर्ण रूप से गुप्त रखने का प्रावधान भी इस कानून में बनाया गया है. महिला की जानकारी न तो मीडिया को ही प्रदान की जाएगी और न ही सूचना के अधिकार के अंतर्गत यह जानकारी मांगी जा सकेगी. इस कानून का लाभ हर स्तर पर कार्य कर रही देश भर की करोड़ों महिलाओं को मिलेगा. कई संस्थानों और प्रतिष्ठानों द्वारा तो आतंरिक समितियों का गठन करके इस कानून का पालन शुरू भी किया जा चुका है.

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महिलाओं से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं

स्त्री विमर्श की आधुनिक भगदड़ में हमने ‘बराबरी’ के नाम पर स्त्री को जिस प्रकार बराबरी के भ्रम में डालकर उसका इस्तेमाल किया है वह एक अलग ही लेख का विषय है. हम यहां वह विषय उठा भी नहीं रहे. हम यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जब स्वास्थ्य और बीमारी की बात उठे, कम से कम तब हम ऐसे मूढ़ भ्रम उत्पन्न न करें. स्त्री का शरीर और शरीर का सिस्टम कई मायनों में पुरुषों से इतना अलग है कि सही कहा जाए तो अब भी मेडिकल साइंस इसको गहराई से नहीं जानता. स्त्री की शारीरिक, मानसिक और इंडोक्राइन बनावट में इतने पेंच होते हैं कि उसकी स्वास्थ्य समस्याएं एकदम अलग किस्म का विमर्श मांगती हैं. यदि मुझसे यह पूछा जाए कि ऐसी पांच स्वास्थ्य समस्याएं बताएं जो स्त्री को पता होनी ही चाहिए तो मैं इन पांच बीमारियों की बात करूंगा

स्त्रियों में हृदयाघात ( हार्ट अटैक )

डॉक्टरों तक को यह भ्रम है कि स्त्रियों को हार्ट अटैक नहीं होता या बहुत कम होता है. रजस्वला स्त्री में अर्थात जब तक उसकी माहवारी की उम्र होती है तब तक इस्ट्रोजन तथा अन्य हार्मोन उसे हार्ट अटैक से बचा कर रखते हैं. यह एक सिद्ध तथ्य है. अलबत्ता रजोनिवृत्ति के बाद, जो प्रायः स्त्रियों में 45 से 50 वर्ष की उम्र तक हो जाती है, औरतों को भी हार्ट अटैक होने के उतने ही खतरे होते हैं, बल्कि कई अर्थों में और भी ज्यादा. औरतों का हार्ट अटैक ज्यादा खतरनाक क्यों होता है? एक कारण तो यही है कि खुद डॉक्टर तक मानते  हैं कि यदि औरत को छाती में दर्द हो रहा है तो यह हार्ट अटैक के कारण न होकर किसी दूसरी वजह से होगा. इसी चक्कर में कई बार इनकी बीमारी ही नहीं पकड़ी जाती. एक अन्य तथ्य यह है कि औरतों का हार्ट अटैक कहीं ज्यादा खराब किस्म का होता है. उनमें मृत्यु की आशंका अपेक्षाकृत ज्यादा होती है. पता भी न चले और इतना खतरनाक भी हो, यह बात डरावनी है, पर है तो. फिर स्त्रियों में दिल की रक्त नलिकाएं (कोरोनरी) संकरी हो सकती हैं तो कोरोनरी में बीमारी या रुकावट निकले भी तब भी वह एंजियोप्लास्टी या बाइपास सर्जरी के लिए फिट केस ही नहीं निकलेगा क्योंकि पतली नलियों में यह सब नहीं किया जा सकता. हां, एक और बात. यदि स्त्री को मधुमेह की बीमारी हो तो फिर रजस्वला स्त्री को भी हार्ट-अटैक की संभावना पुरुष के समकक्ष ही होती है. समझने की कुल बात यह है कि स्त्री को भी हार्ट-अटैक हो सकता है और जब होता है तो ज्यादा खराब ही होता है. इसमें बेवफा, बेदिल, पाषाण हृदय स्त्री भी शामिल है.

ऑस्टियोपोरोसिस ( हड्डियां कमजोर होना )

हड्डियां एक उम्र तक ही लंबाई तथा मोटाई ग्रहण करती हैं. युवा उम्र के बाद हड्डियां बनती भी हैं और गलती भी हैं. जहां-जहां हड्डियां दबावों के कारण छोटी-छोटी चोटें खाती हैं वहां वे बनती, रिपेयर होती रहती हैं. यह तो हुआ बनना. और गलना कैसा? वह यूं कि हड्डियां कैल्शियम का भंडार हैं. यदि रक्त में कैल्शियम कम हो तो वह हड्डी से निकलकर रक्त में जाता है. पैंतीस वर्ष की उम्र के बाद यह गलना बढ़ता है और मीनोपॉज के बाद तो बेहद तेज हो जाता है. इससे हड्डियां इतनी कमजोर हो सकती हैं (इसे ऑस्टियोपोरोसिस कहते हैं) कि कुल्हे, मेरूदंड में बिना किसी बड़ी चोट के फ्रैक्चर हो सकते हैं. कई बार तो ये फ्रैक्चर पता चलते हैं, कई बार पता ही नहीं चलते. बिना किसी बड़ी चोट के ही हड्डी टूट जाती है. कमर दर्द, पेट फूलना, कब्जियत रहना कमर की हड्डी के टूटने से भी हो सकता है. छाती के मेरूदंड में हड्डी टूटे तो सांस फूल सकती है. मेरूदंड में बहुत-सी बर्टीब्री टूट जाएं तो ऑरिज की ऊंचाई कम हो जाती है. यानी कि हड्डी टूटी है पर तकलीफ कुछ और ही हो रही है और उसी तकलीफ का इलाज चल रहा है जबकि इलाज ऑस्टियोपोरोसिस का होना था. क्या इलाज है इसका? दोपहर धूप में बैठना, दूध-दही-पनीर का सेवन, घूमना, कैल्शियम, विटामिन डी आदि कई इलाज हैं.

मीनोपॉजल सिंड्रोम  ( रजानिवृति )

पैंतीस वर्ष की आयु से ही ओवरी (अंडाशय) की साइज तथा कार्यक्षमता कम होने लगती है. मीनोपॉज के चार-पांच वर्ष पूर्व ही उसके आगमन की छाया स्त्री जीवन पर पड़ने लगती है. रजोनिवृत्ति से, दो से लेकर आठ वर्ष पूर्व ही ‘पेरीमीनोपॉजल सिंड्रोम’ शुरू हो सकता है. स्त्री को अचानक ही तेज गर्मी (हॉट फ्लश), रात में तेज पसीना, योनि का सूखापन, अनियमित माहवारी, नींद की समस्याएं, डिप्रेशन, मूड का बनना-बिगड़ना, हाथ-पांव टूटना, ‘अजीब अजीब सी’ तकलीफें महसूस होना – यह बस शुरू हो जाता है. इस सबको प्रायः न तो पति महोदय कोई भाव देते हैं, न ही परिवार में कोई समझता है. मान लिया जाता है कि उम्र बढ़ने तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में यह सब तो होना ही है. स्त्री तो होती ही ‘कमजोर जात’ है न. कोई भी उस पर ध्यान नहीं देता. ऐसे में स्त्री स्वयं को और भी उपेक्षित महसूस करने लगती है. एक दुश्चक्रे-सा शुरू हो जाता है. फिर एक दिन माहवारी पूरी तरह से बंद हो जाती है. पूरे एक वर्ष तक जब यह बंद रहे तो इसे चिकित्सीय भाषा में ‘मीनोपॉज’ हो जाना कहते हैं. फिर मीनोपॉज में ये सारी तकलीफें और भी बढ़ सकती हैं. इन सबका इलाज है पर यहां उसे बता पाने का अवसर नहीं है. अभी तो कुल मुद्दा यह जानने, समझने का है कि मीनोपॉज के करीब आती स्त्री में बहुत-सी उपर्युक्त बातें हो सकती हैं जिन्हें हम स्त्री के ‘नखरे करने की नैसर्गिक आदत’, ‘ये आजकल हर बात पर चिड़चिड़ाने की ठाने रहती हैं.’ आदि कहकर न टालें. यह भी एक बीमारी है. किसी हद तक इसका इलाज भी है. बस समझने की बात है. इसे समझें.

स्त्रियों में रक्त की कमी ( अनीमिया )

खून की कमी अर्थात अनीमिया पुरुषों में भी होता है फिर  स्त्रियों के अनीमिया में ऐसा क्या विशेष है? भारतीय स्त्रियां घरेलू कामों में ऐसी खटती रहती है कि उनको न तो अपने खाने का ही होश रहता है और न ही स्वास्थ्य का. घर में वह सबके खाने का ध्यान रखती है, स्वयं को सबसे आखिरी नंबर पर रखकर. तो न्यूट्रीशनल अनीमिया का सबसे बड़ा कारण है. थकान रहना, चिड़चिड़ापन, चक्कर-सा लगना, काम करने पर सांसे फूलना आदि अनीमिया से हो रहे हैं पर आम धारणा यह है कि यह सब तो औरतों में होता ही रहता है. नहीं, यह ठीक नहीं. यदि ऐसा होता हो तो हीमोग्लोबिन की सामान्य-सी एक रक्त जांच सहज उपलब्ध है. कराएं. यदि यह कम निकले तो डॉक्टर आपको उचित दवाइयां तथा भोजन संबंधी सलाहें देगा. यह न मान लें औरतों में हीमोग्लोबिन कम ही चलता है. ऐसा नहीं है कि वह कोई बिना पेट्रोल के चलने वाली गाड़ी नहीं है. फिर कई ऐसे अन्य कारण भी हैं जो मात्र स्त्रियों में ही होते हैं और खून की कमी कर सकते हैं. बार-बार बच्चे पैदा होना, माहवारी में बहुत दिनों तक बहुत रक्त जाना आदि बेहद आम कारण हैं. फिर गर्भाशय, गर्भाशय के मुख के कैंसर में भी कई बार अनीमिया ही प्रमुख लक्षण हो सकता है. स्त्री में यदि रक्त की कमी है तो उसकी विस्तृत जांच आवश्यक है. विशेष तौर पर डॉक्टरी चेकअप तो होना ही चाहिए.

बच्चेदानी, ओवरी तथा स्तन कैंसर

यूं तो कैंसर किसी को भी हो सकता है. आदमियों में भी और औरतों में भी. परंतु कुछ विशिष्ट कैंसरों के विषय में औरतों को इसलिए जानना आवश्यक है कि वे औरतों में ही होते हैं, और जानलेवा होते हैं, पर कुछ नियमित जांचों (स्क्रीनिंग टेस्टों) द्वारा इन्हें एकदम शुरुआत में पकड़ा भी जा सकता है. पहले पकड़ लें तो इनका पूरा इलाज हो सकता है. स्तन कैंसर एकदम शुरू में पकड़ा जा सकता है.

स्त्री को अपने स्तनों की स्वयं जांच करनी चाहिए. हर माह यह जांच नियमित रूप से करते रहना चाहिए. एक बार दोनों स्तनों को सब तरफ से दबा कर देख लें. नहाते समय आराम से इसे किया जा सकता है. कोई भी चिकित्सक आपको इसकी विधि समझा देगा. दबाकर देखें कि कहीं कोई छोटी-मोटी गांठ तो महसूस नहीं होती जो वहां पहले नहीं थी. यदि लगे तो तुरंत अपने डॉक्टर को दिखाएं. उन स्त्रियों को तो इस मामले में बेहद सतर्क रहना चाहिए जिनकी मां, नानी, मौसी आदि को कभी स्तन का कैंसर हुआ हो. इनको यह कैंसर होने की आशंका ज्यादा होती है. एक और जांच होती है, मेमोग्राफी. एक तरह का, स्तन का एक्स-रे जैसा मान लें. आम राय तो नहीं है परंतु पचास वर्ष की उम्र से ऊपर की स्त्री में इसे भी सालाना स्क्रीनिंग जांच में रखा तो गया है. वे स्त्रियां तो इसे करा ही लें जिनके ननिहाल में यह बीमारी हुई है. बच्चेदानी का कैंसर भी होता है. यह औरतों का सबसे कॉमन कैंसर है. प्राय: मीनोपॉज के बाद होता है. यदि मीनोपॉज के बाद कभी हल्की ब्लीडिंग भी हो, गंदा-सा योनि स्राव हो या बहुत ज्यादा योनि स्राव हो तो इसकी आशंका बनती है. ऐसा हो, तो जांचें लगेंगी. बायोप्सी, डी ऐंड सी आदि छोटे ऑपरेटिव तरीकों से बीमारी का पता चलता है. दुर्भाग्यवश फिलहाल इसके स्क्रीनिंग टेस्ट उपलब्ध नहीं हंै. एक जमाने में बच्चेदानी के मुख के कैंसर से सबसे ज्यादा मृत्यु होती थी. आज ऐसा नहीं है. एक टेस्ट होता है. पेप स्मीयर. आउटडोर में मिनटों में होता है. सहज-सा टेस्ट है. 20 वर्ष की आयु के बाद, जब से स्त्री सेक्स गतिविधि में संलग्न हो जाए तब से हर तीन साल में एक बार यह जांच हर स्त्री को करानी ही चाहिए. एकदम शुरुआती कैंसर सर्विक्स को यूं ही पकड़ा जा सकता है. आजकल तो इसे रोकने की वैक्सीन भी उपलब्ध है. यह माना जाता है कि यह सेक्स गतिविधि से पहुंचने वाले एचआईवी वायरस से होता है. इसी की वैक्सीन है यह. पर यह काम तभी करेगी जब नौ से 26 वर्ष की उम्र में, सेक्स गतिविधि शुरू होने से पहले दे दी जाए. महंगी वैक्सीन है. पर अपनी बेटी को जरूर लगवा दें. अपनी पेप स्मीयर की जांच किसी भी गायनेकोलोजिस्ट से करा लें. नियमित कराते रहें. यदि सहवास के बाद रक्त आए, यदि दो माहवारी के बीच भी रक्त आए, यदि मवाद जैसा पीला योनि श्राव हो, यदि लगातार पीठ दर्द बना रहे- तो यह जांच अवश्य कराएं.

पांच मिथक

माफ कीजिए यह सोशल सर्विस नहीं है

सजना है मुझे सजना के लिए… सौदागर फिल्म के इस गाने ने तो जीना मुहाल कर रखा है. नहीं-नहीं, वैसे गाना अच्छा है, हम भी अक्सर गुनगुनाते हैं लेकिन इसे सुनते-सुनते लोगों को ऐसा लगने लगा है जैसे हमारे सजने-संवरने का बस एक ही मकसद है- अपने सो कॉल्ड प्रियतम को रिझाना. अरे जनाब, और भी गम हैं जमाने में सजने-संवरने के सिवा! रवींद्र जैन साहब, आपने न जाने कौन-से जन्म की दुश्मनी निकाली है यह गीत लिखकर? आपको इसे लिखने की प्रेरणा कहां से मिली ये तो पता नहीं लेकिन यह जरूर बता दें कि हमारे बारे में यह धारणा एकदम गलत है. नो डाउट, हमें सजना-संवरना अच्छा लगता है लेकिन यह किसी दूसरे के लिए नहीं बल्कि हमारी अपनी खुशी के लिए होता है. आपके मन में यह सवाल नहीं आता कभी कि लड़के किसलिए सजते हैं? जी हां, हम भी ठीक उसी वजह से सजते-संवरते हैं यानी खुद अच्छा महसूस करने और अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए. हां, अगर कोई सजने-संवरने की तारीफ करे तो हमें अच्छा लगता है. लेकिन वह तो सबको अच्छा लगता है न, फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, बूढ़ा हो या जवान? तो भगवान के लिए आप लोग हमारे सजने को सोशल सर्विस समझना बंद कर दीजिए. वैसे तो को-एड संस्थान हमारे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मायने रखते हैं लेकिन मुसीबतें यहां भी पीछा नहीं छोड़तीं. लड़कों को यह बात समझाना कितना मुश्किल है कि उनसे दो मिनट हंस कर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उनमें इंटरेस्टेड हैं या उनकी तरफ आकर्षित हैं. उनका भी कुसूर नहीं है, कुसूर तो हमारी सोसाइटी का है जो बचपन से ही लड़कों के जेहन में यह बात डाल देती है कि लड़की हंसी तो फंसी. अमां यार, हम भी तुम्हारी तरह इंसान ही हैं. कोई बात अच्छी लगती है तो हंस देते हैं, बुरी लगती है तो दुखी होते हैं या रोकर मन हल्का कर लेते हैं. आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम फंसने के लिए तैयार बैठे हैं?

घोड़े पर आएगा बांका राजकुमार

बेड़ा गर्क हो इन हिंदी फिल्मों का जिन्होंने लोगों के मन में यह मुगालता डाल दिया है कि बचपन से ही हम घोड़े पर सवार होकर हमें लेने आने वाले राजकुमार के हसीं खयालों में खो जाती हैं. नहीं जी नहीं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है. अव्वल तो हम पैदा होते ही शादी के सपने नहीं बुनने लगतीं, हमारे जिम्मे और भी तो काम हैं करने को. पता नहीं ऐसी कहावतें किस वक्त जन्मी होंगी. उस दौर में शायद लड़कियों के पास सज-संवर कर विवाह की प्रतीक्षा करने के अलावा दूसरा कोई काम होता ही नहीं होगा. लेकिन अब तो दूसरा वक्त है. हम ओलंपिक्स से लेकर स्पेस तक अपने झंडे गाड़ रहे हैं. ऐसे में यह बात कुछ आउटडेटेड-सी लगती है. इसलिए हे लड़कों, प्लीज, बन-ठन कर टशन में हमारे आगे-पीछे घूमना बंद करो, यार. एक और बात, हम चाहती हैं कि हमारा साथी बांका छबीला हो लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह हर जगह हमारी कमर के इर्द-गिर्द हाथ डालकर हमें प्रोटेक्ट करता फिरे. कसम से बहुत इरिटेटिंग लगता है ऐसा बिहैवियर. अगर वह अपने अपोनेंट को ताकत से नहीं बल्कि अपने विट और ह्यूमर से हरा दे तो यह हमारे लिए ज्यादा खुशी की बात होगी. 

न पैसे से प्यार न ही बातूनी हैं हम…

यह बात एकदम बकवास है कि हम लड़कियां बहुत कैलकुलेटिव होती हैं और उसी लड़के से शादी करना पसंद करती हैं जिसकी इनकम अच्छी-खासी हो. अगर मेरा होने वाला पति मुझसे ऐसा कुछ कहता है तो मेरा जवाब यही होगा कि देखो यार, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि तुम कितना कमाते हो, या हमारी पहली डेट पर तुमने कितनी महंगी कमीज या घड़ी पहन रखी थी. एक बात साफ-साफ समझ लो यह जो तुम रोज-रोज मेरे सामने पैसे के किस्से उछालते रहते हो न कि यह प्रॉपर्टी इतने की है, वह गाड़ी या मोबाइल उतने का है. जब तुम रुपये-पैसे के आंकड़ों का जिक्र करते हो तो मेरे सिर पर वे कंकड़ की तरह बरसते हैं. मेरे लिए इतना काफी है कि हम दोनों वक्त अच्छा खाना खाएं, ठीकठाक कपड़े पहनें और एक-दूसरे के साथ थोड़ा क्वालिटी टाइम बिताएं. अगर हमारे बीच स्नेह नहीं होगा, एक-दूसरे को लेकर चिंता और फिक्र नहीं होगी, आपसी सम्मान नहीं होगा तो ये रुपये-पैसे भला किस काम आएंगे, पार्टनर?

मजाक में ही सही लेकिन बोलने के मामले में अक्सर महिलाओं की तुलना टेप रिकॉर्डर से कर दी जाती है. कहा जाता है कि वे एक बार बोलना शुरू कर देती हैं तो फिर बंद ही नहीं होतीं. लेकिन आपने कभी यह सोचा है कि हमें इतना अधिक बोलना क्यों पड़ता है? क्योंकि आप हमें सुनना ही नहीं चाहते. ईमानदारी से जरा दिल पर हाथ रखकर कहिए न आखिरी बार कब आपने हमारी बात को तवज्जो देकर सुना था और उस पर अपनी राय दी थी. नहीं, आपके पास उसके लिए वक्त नहीं है, आप दिन भर ऑफिस में या काम पर व्यस्त रहते हैं और लौटने पर अगर हम दिल की कोई भी बात शेयर करना चाहें तो आपके पास रेडीमेड जवाब होता है- यार, काम से थक कर आया हूं. दिमाग मत चाटो. अब आप ही बताइए, ऐसे में हमारे पास किसी तरह अपनी बात कहने के अलावा क्या दूसरा कोई चारा बचता है? नहीं.

न औरतों से दुश्मनी न शॉपिंग से प्रेम

अगर आपको भी लगता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है तो मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि प्लीज एकता कपूर के सीरियल देखना बंद कर दीजिए. दूसरी बात यह मानना बंद कीजिए कि तमाम महिलाएं शॉपिंग की दीवानी होती हैं. सच जानना हो तो टीवी सीरियलों की दुनिया से बाहर निकलकर उस समाज के बंद दरवाजों के पीछे झांकिए जहां कदम-कदम पर मर्दवादी ताले पड़े हुए हैं. आपको जाने कितनी औरतें चारदीवारी में बंद एक-दूसरे का सहारा बनती नजर आएंगी. ईर्ष्या, द्वेष और षड्यंत्र की जिस दुनिया की कल्पना हम महिलाओं के आपसी रिश्तों में करते हैं वह दुनिया महिला या पुरुष से इतर हर किसी के लिए एक-समान विद्यमान है. कृपया इसे औरतों के लिए सीमित न करें. और हां, शॉपिंग टाइम पास करने का जरिया हो सकता है लेकिन यह हमारी खुशियों की चाबी नहीं है. पुरुषों की तरह हमें भी नई जगहों पर जाना, एडवेंचरस कामों में हिस्सा लेना, जीवन में नए प्रयोग करना पसंद है, लेकिन पता नहीं कब और कैसे यह बात फैक्ट की तरह स्थापित हो गई कि हमें केवल शॉपिंग करना ही भाता है, वह दरअसल शौक नहीं हमारी मजबूरी है. आखिर कितने ऐसे पुरुष हैं जिनको यह पता होगा कि उनके घर में कौन-सी चीज घटी हुई है? किराने से लेकर पति के कपड़ों तक ज्यादातर चीजें खरीदने का जिम्मा जब वाइफ पर होगा तो यह उसका शौक हुआ या मजबूरी? 

टॉप जॉब के लिए परफेक्ट हैं हम

यह मिथक पूरी तरह पुरुषों द्वारा अपने पक्ष में गढ़ा गया है कि महिलाएं नर्म स्वभाव और कम आक्रामकता के चलते किसी भी संस्थान में शीर्ष पद को नहीं संभाल सकतीं क्योंकि वहां तमाम तरह के साम, दाम, दंड, भेद और आक्रामकता की आवश्यकता होती है. यह कहने में भी गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि यह एक तरह से लैंगिक भेदभाव भरी टिप्पणी है. एक के बाद एक विभिन्न शोधों से यह बात सामने आ चुकी है कि महिलाएं शीर्ष पद संभालने के मामले में पुरुषों से कतई कमतर नहीं होतीं. बल्कि बचपन से ही घरेलू जिम्मेदारियां संभाल रही महिलाओं में प्रबंधन की क्षमता पुरुषों के मुकाबले अधिक होती है. नैसर्गिक रूप से मौजूद विनम्रता उनको अपने सहयोगियों और कर्मचारियों का भरोसा जीतने में मदद करती है और वे उनको साथ लेकर आगे बढ़ती हैं. प्राय: ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं कि चूंकि महिलाओं को परिवार और करियर के दो मोर्चो पर जूझना पड़ता है इसलिए वे करियर को लेकर गंभीर नहीं होती हैं. लेकिन ऐसा हरगिज नहीं है. इस बात को एक दूसरे पहलू से देखें तो तस्वीर ज्यादा साफ नजर आती है. अगर कोई महिला पारिवारिक जिम्मेदारियां संभालते हुए भी अपने करियर को आगे बढ़ा रही है तो इससे साफ जाहिर होता है कि वे करियर को लेकर गंभीर होने के कारण ही दोहरी मेहनत कर रही हैं. इन औरतों की करियर को लेकर प्रतिबद्धता पर भला कैसे शक किया जा सकता है? क्या इंदिरा नूई, चंदा कोचर, किरण मजूमदार शॉ, मेग व्हिटमैन और ऐसे ही तमाम उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि महिलाएं करियर को बहुत सधे हुए तरीके से आगे बढ़ा सकती हैं.

होम पेज: महिला विशेषांक

हौसलों का हासिल

भौगोलिक और सामाजिक विभिन्नताओं से उपजे बिखराव के बावजूद महिला आंदोलनों ने भारतीय महिलाओं को ऊपर उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है

आज जबलपुर के एक सरकारी अस्पताल में 28 वर्षीया सुनयना ने अपनी बेटी को जन्म दिया. मां और बेटी दोनों स्वस्थ हैं. सुनयना एक सरकारी बैंक में नौकरी करती हैं. फिलहाल वे छह महीने के मातृत्व अवकाश पर हैं. उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में मास्टर्स किया है. वे अपनी बेटी को भी पढ़ा-लिखा कर एक प्रबुद्ध नागरिक बनाना चाहती हैं. बचपन में सुनयना के माता-पिता ने उनका दाखिला सरकारी स्कूल में करवाया था. शिक्षा पूरी होते-होते सुनयना पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गईं. उन्होंने अकेले यात्रा करना सीखा, अपना बैंक अकाउंट खुद खुलवाया, नौकरियों के आवेदन फॉर्म खुद भरकर भेजना शुरू किया और साक्षात्कारों के लिए दूसरे शहर जाने के इंतजाम भी खुद ही करने लगीं. उन्हें बसों में मौजूद ‘महिला सीट’ और आरक्षण केंद्रों पर बनी ‘महिला खिड़की’ की जानकारी थी. उन्होंने गाड़ी चलाना सीखा और अपना ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा लिया. वे अपनी और अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाती रही हैं.  

सुनयना जैसी सैकड़ों महिलाएं आज भारत के हर शहर और कस्बे में मौजूद हैं. वे अपनी शिक्षा, भारतीय संविधान द्वारा दिए गए समानता और स्वतंत्रता के तमाम अधिकारों के साथ-साथ बीते 65 साल के दौरान इस देश के सामाजिक ताने-बाने में आए अनगिनत महीन बदलावों की वजह से भी आत्मनिर्भर जिंदगियां बिता पा रही हैं. 21वीं सदी के इस 13वें साल में घरों से बाहर निकल कर पढ़ने और नौकरियां करने जा रही लड़कियों को भारत के हर शहर और कस्बे में देखा जा सकता है. दिल्ली-मुंबई से लेकर बरेली-पटना तक की सड़कों पर उतर कर अपनी किस्मत लिखने निकली इन लड़कियों की वर्तमान स्थिति के पीछे भारतीय महिला आंदोलनों का एक पूरा इतिहास खड़ा है. 

गुलाम भारत में महिलाओं ने बड़ी संख्या में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा लिया था. उन्होंने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विरोध प्रदर्शन किए, भूख हड़तालों पर बैठीं और जेल भी गईं. इस दौरान बने छोटे-छोटे महिला समूहों में महिलाओं ने पहली बार एकत्रित होकर अपनी बातें और चिंताएं साझा कीं. भारतीय पुरुषों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को नकारती तमाम सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने और उन्हें आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फूले से लेकर ईश्वर चंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी तक सैकड़ों लोगों ने महिलाओं को दशकों पुरानी दासता से बाहर निकालने के लिए अथक प्रयास किए. 

आजादी के बाद भारतीय संविधान ने महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता के साथ-साथ वोट करने का अधिकार भी तुरंत दे दिया. 50 के दशक में तत्कालीन कानून मंत्री बीआर आंबेडकर ने चार अलग-अलग कानूनों में बंटे हिंदू-कोड बिल पास करके शादी के लिए जरूरी आयु-सीमा बढ़ाने के साथ संपत्ति और तलाक के मसलों में महिलाओं के अधिकार भी सुरक्षित किए. दरअसल आजादी की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी और तमाम सुधारवादी आंदोलनों के बहुआयामी प्रभाव के कारण ही भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता, समानता और वोट देने जैसे महत्वपूर्ण अधिकार कमोबेश आसानी से मिल गए जबकि इन्हीं अधिकारों के लिए पश्चिमी दुनिया के ज्यादातर देशों में महिलाओं को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी. 

महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए आजादी के दौरान पैदा हुई जागरूकता की लहर कानूनों में तो तब्दील हुई, लेकिन सदन में महिलाओं की मजबूत राजनीतिक भागीदारी में तब्दील नहीं हो सकी. आजादी के बाद बनी पहली संसद में सिर्फ दो प्रतिशत महिलाएं थीं. इस दौरान नेहरू सरकार ने महिला कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू कीं और ‘नेशनल सोशल वेलफेयर बोर्ड’ जैसे कई संगठनों का गठन भी किया गया. महिला कल्याण के लिए पहली बार एक पूरा नौकरशाही अमला और दफ्तरों के लिए बड़ी इमारतें दी गईं. 

लेकिन महिलाओं के लिए ‘समान’ अधिकारों के दावे करने वाली सरकारी कवायदों का सच 1975 में प्रकाशित हुई महत्वपूर्ण रिपोर्ट ‘टुवार्ड्स इक्वैलिटी’ के जरिए सामने आ गया. संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘1975’ को अंतररार्ष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित करते हुए सभी देशों से अपने-अपने यहां महिलाओं की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार करने का आग्रह किया था. इसके लिए 1971 में भारत के शिक्षा एवं सामाजिक कल्याण विभाग ने एक समिति का गठन किया. इसे यह पड़ताल करनी थी कि कानूनों और प्रशासन का महिलाओं के जीवन पर क्या असर पड़ा है. समिति को भारतीय स्त्रियों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति की भी पड़ताल करनी थी. तत्कालीन सामाजिक कल्याण मंत्री डॉ. फूल रेनू गुहा की अध्यक्षता में बनी इस समिति ने हर प्रदेश की 500 महिलाओं से बात की. समिति की रिपोर्ट में पहली बार यह बताया गया कि आजादी के 28 साल बाद भारतीय महिलाओं की स्थिति पहले से ज्यादा खराब हो गई है और संविधान द्वारा बनाए गए कानूनों का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाया है. कैंब्रिज प्रकाशन से आई अपनी किताब ‘वीमेन इन मॉडर्न इंडिया’ में इस रिपोर्ट को खतरे की घंटी बजाने वाली निर्णायक रिपोर्ट बताते हुए जी फोर्ब्स लिखती हैं, ‘टूवार्ड्स इक्वैलिटी भारत में महिलाओं की स्थिति पर हुआ पहला गंभीर शोध था. यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि ज्यादातर महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में उतनी ही अनजान हैं जितनी वे आजादी से पहले थीं. उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और उत्थान के लिए बनाए गए कानून उन तक नहीं पहुंचे हैं. उल्टे, उनकी स्थिति पहले से खराब हो गई है’. इस रिपोर्ट के आते ही दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में प्रदर्शन शुरू हो गए और पहली बार पढ़ी-लिखी भारतीय महिलाओं को वह नारीवादी भाषा मिली जिसका इस्तेमाल उन्होंने देश की बाकी वंचित महिलाओं के मुद्दों पर आवाज बुलंद करने के लिए किया. 

इस बीच भारत तेजी से बदल रहा था. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और आपातकाल के साथ-साथ नक्सलवाद की बयार भी तेज हो चली थी. इस बीच भारतीय महिलाएं भी बिहार और गुजरात में केंद्रित नवनिर्माण यूथ मूवमेंट, महाराष्ट्र के धूले जिले में हुए ग्रामीण आंदोलन, चिपको आंदोलन और नक्सलवाद में हिस्सा लेने के बाद अब आखिरकार अपने अधिकारों की बात अपने आंदोलनों में कहना शुरू कर चुकी थीं. 70 के दशक में दहेज-हत्याओं के विरोध के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में समूह बनाकर समकालीन भारतीय महिला आंदोलनों ने मूर्त रूप लेना शुरू कर दिया था. इस बीच महिलाओं के लिए बसों में अलग सीटें आरक्षित करने और शहरों में कामकाजी महिलाओं के लिए सरकारी हॉस्टल खोलने की मांग भी पुरजोर तरीके से उठाई गई. 1978 में हुए रमीजा बी बलात्कार कांड और 1980 में मथुरा रेप केस का निर्णय आने के बाद दहेज हत्याओं के खिलाफ शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों ने बलात्कारों के खिलाफ हो रहे विरोध के साथ मिलकर और विस्तृत रूप ले लिया. फिर 1985 में शाहबानो तलाक मामले और 1987 में रूपकंवर के राजस्थान में सती होने की घटनाओं ने भारतीय स्त्री विमर्श में और उद्वेलन पैदा किया. जनवादी महिला समिति, स्त्री संघर्ष और महिला दक्षता समिति जैसे तमाम संगठनों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू किए. इस बीच महिला अधिकार कार्यकर्ता मधु किश्वर ने ‘मानुषी’ नाम से महिला मुद्दों पर आधारित भारत की पहली शोध पत्रिका का संपादन और प्रकाशन शुरू किया. सरकार ने लगभग इन सभी विरोध प्रदर्शनों का संज्ञान लेते हुए बलात्कार, सती और दहेज प्रथा से जुड़े तत्कालीन कानूनों में अहम बदलाव किए. 1989 में आए पंचायती राज बिल ने भी पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके ग्रामीण स्तर पर उनके सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस लिहाज से देखा जाए तो 80 का दशक भारत में महिलाओं के लिए स्वर्णिम दशक रहा. 

लेकिन आलोचकों का मानना है कि तत्कालीन महिला आंदोलनों ने सिर्फ तात्कालिक परेशानियों पर ध्यान दिया. वे स्थायी समाधान का दीर्घकालिक रोडमैप नहीं दे पाए. महिला अधिकारों के लिए तीन दशकों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी बताती हैं, ‘यह बात ठीक है कि हमने तात्कालिक मुद्दों पर ध्यान दिया. लेकिन तब स्थितियां इतनी खराब थीं कि कुछ मुद्दों पर तुरंत स्टैंड लेना जरूरी हो गया था. हमें दहेज के नाम पर जल रही और रोज घरेलू हिंसा का शिकार हो रही लड़कियों को बचाना था. आज तो स्थिति काफी बेहतर है. लड़कियां पढ़ रही हैं और नौकरियां कर रही हैं. काफी बदलाव आया है. लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’

सती प्रथा, दहेज, बलात्कार और लैंगिक भेदभाव के सवाल से गुजरते हुए भारतीय महिला विमर्श अब पिंक चड्डी कैंपेन और स्लट वॉक तक आ पहुंचा है. दहेज हत्याएं और बलात्कार आज भी बंद नहीं हुए हैं, उल्टे खाप पंचायतों के साथ-साथ भारत के तमाम शहरों में सम्मान के नाम पर मारी जा रही लड़कियां समाज में पनप रही सांस्कृतिक पुनरुत्थान की लहरों का पक्का सबूत हंै. कई हिस्सों में लड़कियों का लिंगानुपात आज भी कम है.  सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर तस्वीर का दूसरा पहलू दिखाते हुए कहती हैं, ‘आज हर मुद्दे की तरह महिला सशक्तीकरण का मुद्दा भी गैर-सरकारी संगठनों ने हाइजैक कर लिया है. खाप भी तो इसी देश का हिस्सा हैं. वे जैसा कर रही हैं वैसा क्यों कर रही हैं, यह जानने के लिए आपको उनके गांव जाकर उनसे बात करनी होगी. सिर्फ इसलिए कि आपको अंतरराष्ट्रीय फंड चाहिए, आप अपनी प्रसिद्धि के लिए टीवी चैनलों पर उन्हें गालियां देते रहेंगे तो इससे महिलाओं का भला नहीं होने वाला.’ 

समाज की पारंपरिक बेड़ियां तोड़कर जैसे ही स्त्री घर की देहरी से बाहर निकलती है, उस पर आरोप लगता है कि उसने स्वतंत्रता के नाम पर अपने आप को बाजार के हवाले कर दिया है. परंपरा बनाम बाजार की इस बहस पर लेखक एनी जैदी कहती हैं, ‘यह बहुत पेचीदा पहलू है. इसका फैसला हमें महिलाओं पर ही छोड़ देना चाहिए. हो सकता है हम गलती करें, लेकिन हमें भी गलती करके सीखने का हक है. और जहां तक महिला को उपभोग की वस्तु में बदलने का सवाल है तो खरीदा उसे ही जा सकता है जो बिकने को तैयार हो. महिलाएं अपनी जिंदगी की कमान खुद अपने हाथों में लें और अपने को वस्तु में बदलने की अनुमति किसी को न दें.’ 

सुनयना जैसी लाखों भारतीय महिलाएं रोज अपने घरों से बाहर निकलकर आत्मविश्वास से दुनिया का सामना करते वक्त कहीं-न-कहीं उन तमाम महिला आंदोलनों और कार्यकर्ताओं के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हैं जिनके अथक परिश्रम की वजह से आज वे अपनी जिंदगियों के फैसले खुद ले पा रही हैं. भौगोलिक और सामाजिक विभिन्नताओं से उपजे बिखराव के बावजूद इन आंदोलनों ने भारतीय महिलाओं को ऊपर उठाने में बड़ी भूमिका निभाई. हालांकि भारत में आज भी ऐसी लाखों महिलाएं हैं जो अवसरहीनता के अंधेरे में जी रही हैं. इस लिहाज से भारतीय महिला आंदोलनों की एक बड़ी कमी यह रही है कि छिटपुट उदाहरणों से इतर ये बड़े स्तर पर निचले तबके की महिलाओं के साथ खुद को नहीं जोड़ पाए हैं. ऐसा इसलिए भी हुआ है कि ये आंदोलन और परिवर्तन समाज के सबल ऊपरी तबके ने निचले तबके पर लगभग थोप दिए. जबकि स्थायी परिवर्तन तब होगा जब महिला सशक्तीकरण की बयार भारत के 29 प्रदेशों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में फैले छोटे-छोटे गांवों और कस्बों से उठती हुई शहरों की तरफ जाएगी. 

 

…सबसे खुश हूं आज

‘महिलाओं के लिए 50 से 60 की उम्र सभी जिम्मेदारियों से मुक्ति की उम्र होती है. जिन कलाओं को वे पीछे छोड़ आईं थी, उन्हें वे फिर से नई जिंदगी दे सकती हैं’ 

इस उतरती अवस्था से सबको डर लगता है. इसलिए क्योंकि शारीरिक सौंदर्य जाने लगता है. स्त्रियों को आदत है, वे शारीरिक सौंदर्य के लिए ज्यादा फिक्रमंद रही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि पुरुष सत्ता ने इसी को महत्व दिया है. इतिहास उठाकर देख लीजिए तमाम खूबसूरत स्त्रियां रानियां-पटरानियां बनीं. वह भी केवल अपने शारीरिक सौंदर्य के बल पर, बुद्धि में भले ही वे शून्य रही हों. यदि शकुंतला सुंदर न होती तो क्या दुष्यंत का उस पर दिल आता? अभिज्ञान शाकुंतल में केवल शकुंतला का सौंदर्य वर्णन है जबकि कुमार संभव में केवल पार्वती का सौंदर्य वर्णन किया गया है. कहने का मतलब यह कि पढ़-लिखकर जो प्रखरता आती है उसकी बात करें तो हमें पढ़ाया भी यही गया कि जो सुंदर होती हैं उन्हीं को अच्छे अवसर मिलते हैं.

तो उम्रदराज होने पर असली डर यही लगता था औरतों को कि जब सुंदर नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा. यह डर आज भी औरतों को है, नहीं तो इतने अधिक ब्यूटी पार्लर नहीं होते. सच यह है कि ब्यूटी पार्लर से सुंदर पुस्तकालय होते हैं लेकिन वहां उतनी औरतें नहीं देखने को मिलेंगी. लेकिन जो अनुभव इस उम्र में मिलता है वह अतुलनीय है. इस उम्र को सकारात्मक सोच के साथ लेना चाहिए. हर उम्र में हम कुछ न कुछ ऐसा कर सकती हैं जो हमें उपयोगी साबित करे. 

अपनी बात करूं तो टीवी चैनलों और तमाम जगह बुलाकर हमारे मुंह पर कैमरे लगाए रहते हैं. मैं मजाक करती हूं कि जवानी में तो हमें कोई पूछता नहीं था और अब कैमरे लगाए रहते हैं. इस उम्र में जो मैंने पाया, जो मेरी उम्र की औरतों ने पाया है वह अनुभवों का खजाना है. वह युवावस्था में नहीं होता. उस वक्त अगर हम सोने जैसी थीं तो अब कुंदन जैसी हो जातीं हैं. 

इस उम्र में हम जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती हैं. जवानी की वह उम्र तो बाल-बच्चे और परिवार में निकल जाती है. और अब हम अपने बारे में भी सोच सकते हैं. इस पर यह दलील दी जा सकती है कि नौकरीपेशा औरतें भी तो यह सब करती हैं लेकिन ऐसा नहीं है. वे दोहरी जिम्मेदारी निभा रही हैं जबकि हम 50 की उम्र में पूरी तरह मुक्त हो चुके होते हैं. जिस हुनर को हम कहीं पीछे छोड़ आए थे हम फिर से उसे नई जिंदगी दे सकते हैं. 

मैं एक उदाहरण देती हूं… मैं उन महिलाओं के बीच रही हूं जो किटी पार्टी आदि करती हैं. एक बार मुझे भी बुलाया गया. उस वक्त मैं लिखती नहीं थी. मैंने वहां लोगों से कहा कि मैं आप लोगों की तरह ताश और तंबोला नहीं खेल सकती. मुझे बताओ कि तुममें से किस-किस को क्या-क्या आता है? उनमें से सबको कुछ न कुछ आता था- कोई सितार बजाता था कोई तबला तो किसी को पेंटिंग करनी आती थी. लेकिन सब शादी के पहले की बात थी. मेरे कहने पर उन्होंने इसे रिवाइव किया. एक कार्यक्रम में उनको अपनी कला दिखाने का मौका मिला. मैं आपको बताऊं कि वे गाती और बजाती जा रही थीं और उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहते जा रहे थे. उन सभी औरतों को 20-25 साल बाद अपनी कला दिखाने का मौका मिला. 

मैंने खुद शादी के 25 साल बाद लिखना शुरू किया. इसलिए क्योंकि इस बीच मुझे कुछ करने का मौका ही नहीं मिला. तो यह हमारी उम्र का सबसे सुनहरा समय है. इसकी हमें बाट जोहनी चाहिए कि यह कब आएगा. वह औरत कितनी भाग्यशाली है जिसके बच्चे बड़े हो गए हैं और जो पूरी जिम्मेदारी से मुक्त है. वह अपने लिए अपने तरीके से जी सकती है. 

मेरा अनुभव यही कहता है कि इस उम्र में जिसे उतरती अवस्था कहते हैं, उसमें मैंने चढ़ती उम्र जैसा उल्लास, साहस, हिम्मत और मुकाम हासिल किया है. मेरी बच्चियों के बाद मेरा क्रिएशन किताबें हैं. यह लेखन की बात हो गई लेकिन अगर हम आम महिलाओं की बात करें तो उन सभी में कोई न कोई हुनर होता है. क्या तुम सोच सकते हो कि मैंने एक-एक साल में 30-30 स्वेटर बुने हैं. मैंने खूबसूरत डलिया बनाई हैं. तो इन सारे कामों में आप तमाम तरह की खुशी और रचनात्मकता हासिल कर सकते हैं. मुद्दा केवल यह है कि हमें हतोत्साहित नहीं होना है. निराशावादी नजरिया बदलना होगा. अगर आपने यह सोच लिया कि अब क्या करना है या अब क्या सीखना है तो इसका मतलब आपने अपनी सीखने की क्षमता पर विराम लगा दिया. गांवों में औरतें ऐसी होती हैं जिनकी कोई न कोई खासियत होती है. कोई उपले बनाने में कलाकार है, कोई गीत बहुत अच्छा गाती है, कोई दादी-नानी हो गई लेकिन नाचती बहुत है. वे कोई किताब नहीं लिख रही हैं न कोई फिल्म बना रही हैं लेकिन उनकी कला का मोल अलग है. 

मेरा कहने का मतलब यह है कि उम्र के इस पड़ाव पर उनको न तो सीखने से हिचकिचाना चाहिए और न ही अपने काम को पेश करने में पीछे हटना चाहिए. इस उम्र में हमें अपनी गरिमा का भी पूरा खयाल करना चाहिए, कि हमारे किए या कहे शब्दों का लोगों पर क्या असर पड़ेगा? मैं अगर लेखिका नहीं होती तो मैं लोक नर्तकी होती और गांव-गांव नाचती. औरत कहीं भी जाकर किसी भी मुकाम पर खुद को साबित कर सकती है. ऐसे में उम्र का यह पड़ाव तो एक तरह का तोहफा है उसके लिए.

इस उम्र की एक और खासियत यह है कि इस उम्र में नैतिकता के छद्म आरोपित दबावों से पूरी तरह निजात मिल जाती है. युवावस्था में हम पर अनेक तरह के नैतिक दबाव डाले गए होते हैं जिनको हमें किसी न किसी तरह निबाहना होता है लेकिन 50 के बाद का वक्त हम पूरी तरह इन दबावों के साये से दूर अपने लिए बिता सकते हैं. उम्र के उस दौर में जहां तमाम महिलाएं जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे पुरुष मानसिकता की छाया तले ही जीवन बिताती हैं वहीं उम्र के इस पड़ाव पर हम अपने निर्णय लागू करने की स्थिति में होती हैं. हमें आडंबरों से पूरी तरह मुक्ति मिल चुकी होती है.

जननी जग अंधियारा

केस 1

11  जुलाई, 2012. गोड्डा जिले के बालाजोर गांव में 28 साल की एक गर्भवती महिला दमयंती तुरी को शाम करीब पौने छह बजे जिला अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. 10 दिन पहले टिटनस का इंजेक्शन लेने के बाद से उसकी हालत खराब थी. अस्पताल में बेड खाली नहीं मिला तो साथ आए पति ने महिला को जमीन पर लिटाकर डॉक्टरों से जल्दी जांच करने की गुहार लगाई. साथ ही वहां के सहायकों से जमीन पर बिछाने को कुछ देने की याचना की. डॉक्टर जांच करने नहीं आए. सहायकों ने नसीहत दी कि जमीन पर बिछाने के लिए कुछ घर से ही लेकर आना था. महिला को अस्पताल तक लाने में एक सहिया बहन (ग्रामीण इलाकों में गर्भवती महिलाओं को सुविधा व जानकारी देने के लिए तैनात सहायिकाएं) मददगार साबित हुई थी लेकिन वह भी लौट गई. परेशान पति मदद के लिए पास में अपनी बहन को लाने गया. जब तक बहन के साथ लौटा पत्नी गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ दम तोड़ चुकी थी. 

केस 2

23 साल की रूपा मरांडी गोड्डा जिले के पुरईटोला गांव में रहती थी. 19 मई, 2012 की शाम उसे प्रसव पीड़ा हुई. रूपा को पास के अस्पताल पहुंचाया गया. आधे घंटे बाद ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया. लेकिन रूपा के शरीर से खून बहना बंद नहीं हुआ. थोड़ी देर बाद शरीर में सूजन आने लगी. डॉक्टरों ने सदर अस्पताल भेजा. सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने उसे वहां से 70 किलोमीटर दूर भागलपुर अस्पताल रेफर कर दिया. वहां डॉक्टरों ने उसकी गंभीर हालत को देखते हुए उसे कोई इंजेक्शन लगाया और फिर सदर अस्पताल भेज दिया. सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने भी उसे वहां से 70 किलोमीटर दूर भागलपुर के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल अस्पताल में रेफर कर दिया. वहां पहुंचते-पहुंचते रूपा अचेत हो चुकी थी. उसे 1.5 यूनिट खून चढ़ाया गया, लेकिन वह बचाई नहीं जा सकी. 

केस 3

गोड्डा जिले के बोरुआ गांव की निवासी 19 वर्षीया सीता सोरेन पहली बार मां बन रही थी. गर्भावस्था के दौरान वह कभी समेकित विकास केंद्र नहीं जा सकी थी. न ही उसे टिटनस का टीका लग पाया था. 30 जून, 2012 को अचानक वह तेज बुखार से तड़पने लगी और बेहोश हो गई. तब गर्भ का नौवां महीना चल रहा था. परिवार के लोगों ने उसकी हालत बिगड़ती देख रात को ममता वाहन (ग्रामीण क्षेत्रों की गर्भवती महिलाओं के प्रसव एवं बेहतर इलाज के लिए स्वास्थ्य विभाग द्वारा अनुबंध पर रखे गए वाहन) बुलाने के लिए फोन किया लेकिन वाहन नहीं पहुंचा. आखिर में लोगों ने ओझा-गुणी को ही बुला लिया और झाड़-फूंक करवाने लगे. स्थिति बिगड़ती गई और सीता रात एक बजे अपने अजन्मे बच्चे के साथ ही दुनिया से विदा हो गई. 

झारखंड में संथाल परगना के गोड्डा जिले में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है. आरोहण नामक संस्था चलाने वाले सौमिक बनर्जी जैसे लोग केस स्टडीज दिखाते हैं जिनमें गर्भवती महिलाओं के मर जाने की विडंबना नियति की तरह दिखती है. लोग किस्सागोई के अंदाज में सुनाते हैं कि कैसे कुछ अस्पतालों में कैसे भी कुछ जुगाड़ करके ऑपरेशन थियेटर बना दिया गया है और कई बार तड़पती प्रसूताओं को उनके हाल पर छोड़कर डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की टीम गायब रहती है. ऐसे ही किस्से और यथार्थ मिलकर गोड्डा जिले को उन हालात में पहुंचा चुके हैं जहां मातृत्व मृत्यु दर राज्य के औसत से दो गुना से भी ज्यादा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के नए आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में मातृत्व मृत्यु दर 312 है यानी एक लाख में 312 जननियों की मृत्यु हो जाती है. राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 254 है. उधर, सौमिक बनर्जी की मानें तो गोड्डा में यह औसत करीब 700 है. 

सौमिक की बातों को अध्ययन बल देते हैं. पिछले डेढ़ साल में यहां सिर्फ दो प्रखंडों के अस्पतालों में 36 प्रसूताओं की मौत हुई है. संथाल परगना में स्वास्थ्य पर अध्ययन कर रहे सरफराज अली कहते हैं, ‘यह तो अस्पतालों में हुई मौत का ब्यौरा है. उन मौतों का कोई लेखा-जोखा नहीं होता जिनमें महिला अस्पताल नहीं पहुंच पाती.’ 

सिर्फ गोड्डा या दुमका ही नहीं बल्कि पूरे संथाल में स्थिति ऐसी ही है. नेटवर्क फॉर एंटरप्राइजेज इनहांसमेंट ऐंड डेवलपमेंट स्टडीज (नीडस) नामक संस्था ने भी पिछले साल एक रिपोर्ट तैयार की थी जिससे देवघर जिले में स्थिति का पता चलता है. इसमें देवघर की रहने वाली सविता देवी, नेहा देवी, सोनू मुरमू जैसी कई महिलाओं की मौत के बारे में विस्तार से जानकारी दी है. रिपोर्ट में जिक्र है कि कैसे देवघर की रहने वाली निवासी सविता को जब खून की कमी और प्रसव के दौरान होने वाली मुश्किलों से निजात के लिए अस्पताल ले जाया गया तो अस्पताल में उसे दाखिल नहीं किया गया और देखते ही देखते वह अजन्मे बच्चे के साथ मर गई. संथाल परगना में महिलाओं के स्वास्थ्य पर अध्ययन कर रही प्रिया जॉन कहती हैं, ‘एक तो इलाके में अस्पतालों की ही कमी है. जो अस्पताल हैं, वे किसी तरह चल रहे हैं. पोस्टमार्टम रूम को ही लेबर रूम बना दिया गया है.’

संथाल परगना झारखंड का एक ऐसा हिस्सा है जहां की राजनीति साधने में सबसे ज्यादा ऊर्जा लगती है. यहां बदलाव कर देने, लाने की उम्मीद सब दल जगाते रहे हैं. लेकिन अब तक आए तथ्य बताते हैं कि उन बदलावों की प्राथमिकताओं में जननी को बचाना शामिल नहीं है. वैसे संथाल ही क्या, पूरे झारखंड की स्थिति पर नजर डालें तो माताओं की भयावह हालत का अंदाजा मिल जाता है.  दरअसल झारखंड में रह रही जननियों के लिए हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं.

झारखंड की माताओं के संबंध में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बता रहे हैं कि झारखंड की एक महिला औसतन 3.3 बच्चों को जन्म देती है. राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 2.7 है. अनपढ़ महिलाओं के बीच यह औसत तो और भी ज्यादा है. वे 3.9 बच्चों को जन्म देती हैं. पांचवीं से नौवीं तक पढ़ी औरतों के बीच यह औसत 2.9 हो जाता है और दसवीं तक पढ़ी औरतों के बीच यह दो में ही सिमट जाता है. अशिक्षा की मार जननियों पर दोहरी होती है. वे ज्यादा बच्चे तो जन्मती ही हैं, कम उम्र में ही मां भी बन जाती हैं. झारखंड में 15 से 19 साल की 28 प्रतिशत महिलाएं मां बनती हैं और राज्य में 60 प्रतिशत आबादी उन महिलाओं की है जो दो बच्चों के बीच तीन साल का अंतराल नहीं रख पातीं. 

ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति आंकड़ों के बिना भी साफ-साफ दिख जाती है. सुदूरवर्ती इलाकों में भी जाएं तो गर्भनिरोधक का प्रचार करता हुआ बोर्ड जरूर दिखेगा लेकिन पड़ताल करने पर पता चलता है कि सारी कवायद सिर्फ बोर्ड लगाने तक सिमट गई है. जो अनपढ़ हैं, वे बोर्ड से कुछ समझ भी पाते हैं या नहीं, इसका मूल्यांकन नहीं होता. नतीजा कई सालों से प्रचार पर प्रचार होते रहने के बावजूद झारखंड में 38 प्रतिशत विवाहित महिलाएं ही गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करती हैं. जननी परियोजना में प्रशासक पद पर रही नीपा दास कहती हैं कि सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि झारखंड अवैध गर्भपात का भी बड़ा केंद्र बनकर उभरा है. नीपा कहती हैं, ‘यहां के अधिकांश नर्सिंग होमों में हर महीने औसतन 15-16 गर्भपात हो रहे हैं, जो प्रशिक्षित नर्सों और डॉक्टरों द्वारा किया जा रहा है. कई बार तो डॉक्टर आठवें माह में भी मोटी रकम लेकर गर्भपात करने को तैयार हो जाते हैं.’ गोड्डा में खुशी क्लीनिक की संचालिका डॉ मीनाक्षी कहती हैं, ‘गर्भपात की समस्या तो यहां दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है लेकिन मातृत्व मृत्यु दर यहां अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है. सरकारी आंकड़े जो बताते हैं, उससे कई गुना अधिक, और यह सब अस्पतालों की कमी, प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों के अभाव आदि के कारण है.’ 

इस सबका असर बच्चों की जिंदगी पर दिखता है.  झारखंड में जन्म लेने वाले प्रति 15 बच्चों में से एक बच्चा साल भर के भीतर ही काल-कवलित हो जाता है. और प्रति 11 में से एक बच्चा पांच साल की उम्र पूरी नहीं कर पाता. जानकारों के मुताबिक यह सब गर्भावस्था या बच्चा जन्मने के समय अस्पतालों और चिकित्सीय सलाहों की कमी या उनमें बरती जाने वाली लापरवाही के कारण भी होता है. इस संदर्भ में आंकड़े बताते हैं कि राज्य में महज 19 प्रतिशत महिलाएं अस्पताल में बच्चों को जन्म देती हैं और 29 प्रतिशत महिलाओं को ही बच्चा जनने के वक्त स्वास्थ्यकर्मियों की सहायता मुहैया हो पाती है. 

ये हालात उस राज्य में हैं जिसका जिक्र मातृत्व प्रधान राज्य और बिटियाओं के प्रदेश के रूप में होता रहा है. पिछले वर्ष को राज्य की सरकार ने बिटिया वर्ष के रूप में मनाया. सरकार न भी मनाती तो भी यहां की बिटियाओं का बोलबाला शुरू से ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रहा है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब झारखंड की चर्चा राष्ट्रीय फलक पर होती है तो अक्सर या तो यहां की अवसरवादी राजनीति की उठापटक की बात होती है या यहां खान-खदान और प्राकृतिक संसाधनों में मची लूट या फिर माओवादी गतिविधियों. लेकिन इन सबके इतर भी इस राज्य में कई दर्द पल रहे हैं. उन्हीं में से एक है प्रदेश में माताओं की हालत. लेकिन जैसे यहां की लड़कियों या महिलाओं की सकारात्मक पहल का गुणगान नहीं होता वैसे ही उनके जीवन पर पड़ रहे नकारात्मक असर की आवाज भी सुनाई नहीं देती.

होम पेज: महिला विशेषांक

बदनाम बैतूल

महिलाओं की सुरक्षा के मामले में देश की राजधानी दिल्ली हमेशा ही चर्चा के केंद्र में रही है. लेकिन दिल्ली से ठीक एक हजार किलोमीटर दूर एक जगह ऐसी भी है जिसे बलात्कारों की राजधानी कहा जाने लगा है. यह जगह है देश के नक्शे पर लगभग बीचोबीच और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की नाक के ठीक नीचे स्थित बैतूल. वैसे आंकड़े देखे जाएं तो इस वारदात के लिहाज से खुद मध्य प्रदेश भी बीते पांच साल से देश के बाकी सारे राज्यों से आगे है. और इतने ही समय से इस मामले में बैतूल भी शीर्ष पर है. यदि बीते छह महीने की ही पुलिस डायरियां खंगाली जाएं तो जंगलों से ढके इस जिले की हकीकत यह है कि यहां हर दूसरे दिन बलात्कार का एक मामला थाने तक पहुंच जाता है. बैतूल आखिरी बार राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में तब आया था जब 23 मार्च, 2012 की रात कुछ युवकों ने पचास साल की आदिवासी महिला इमरती बाई की इसलिए गोली मारकर हत्या कर दी थी कि उन्होंने अपनी नाबालिग बेटी के अपहरण और अस्मत लूटे जाने की शिकायत पुलिस में की थी. 

बैतूल के हमलापुर मोहल्ले में रहने वाली इमरती की जर्जर झोपड़ी के खुले दरवाजे देख पता लग जाता है कि उनका परिवार अब यहां नहीं रहता. इसी दिन का अखबार हमें पास के ही आरूलगांव में दबंगों द्वारा जादू-टोने के शक में दो बूढ़े आदिवासियों को नंगा दौड़ाने जैसी सनसनीखेज खबर भी देता है.  आस-पड़ोस की और एक-दूसरे से अलग ये दोनों घटनाएं आपस में इस मायने में जुड़ती हैं कि दोनों में ही पीड़ित का ताल्लुक आदिवासी समुदाय से है. ये बताती हैं कि शोषण के लिए कमजोर को निशाना बनाना कितना आसान है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश की आबादी में एक चौथाई हिस्सा आदिवासियों का है. जिन जिलों में आदिवासी सबसे अधिक हैं, उन्हीं में उनके खिलाफ अत्याचार के सबसे अधिक मामले भी हैं. इसी बात की तस्दीक करती केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि यह प्रदेश आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में भी अव्वल है. देश भर में इस तबके के खिलाफ दर्ज कुल अपराधों में चौबीस फीसदी मध्य प्रदेश में हुए हैं. इसी के साथ एक अहम तथ्य यह है कि पांच साल के दौरान यहां बलात्कार की शिकार बनी महिलाओं में भी आधी से अधिक आदिवासी हैं. इन्हीं सब कड़ियों से जुड़ी बैतूल की तस्वीर पर यदि निगाह डाली जाए तो आदिवासी बहुल इस जिले में 2005 से अब तक 600 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं.

सतपुड़ा की पहाडि़यों पर बसे बैतूल के सैकड़ों वर्गकिलोमीटर हिस्से में गरीबी इस हद तक हावी है कि यह देश के सबसे पिछड़े इलाके में शुमार है. रोजी-रोटी की तलाश में जब यहां के कोरकू और गोंड़ बाशिंदे कभी सोयाबीन तो कभी गेहूं की कटाई के चलते साल के छह महीने के लिए हरदा, होशंगाबाद सहित बाकी जिलों में पलायन करते हैं तब खेत मालिकों द्वारा महिला मजदूरों का जमकर यौन शोषण किया जाता है. स्थानीय पत्रकार अकील अहमद बताते हैं कि फसल आने के पहले ही आस-पास के कई खेत मालिक गांव में घूमना शुरू कर देते हैं. वे अपनी पसंद की कई महिला मजदूरों को पेशगी के तौर पर रुपये भी दे देते हैं. अकील कहते हैं, ‘जब फसल कटाई का वक्त आता है तब बूढ़े और छोटे बच्चे घर पर रह जाते हैं, जबकि खेत मालिक अपने वाहनों से कम उम्र की लड़कियों को काम की जिन जगहों पर ले जाते हैं वे यौन शोषण के बड़े अड्डे बन जाते हैं.’

पिछले पांच साल के दौरान बैतूल में बलात्कार की शिकार बनी महिलाओं में भी आधी से अधिक आदिवासी हैं

बैतूल महिला अनाचारों को लेकर सुर्खियों में तब आया था जब प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता सुरेश पचौरी ने 2008 के विधानसभा चुनाव में इसे चुनावी मुद्दा बनाया. लेकिन चुनाव की चकाचौंध हटने के साथ ही मामला फिर ठंडा पड़ गया. बीते एक दशक से बैतूल में बलात्कारों का सिलसिला शर्मनाक तरीके से बढ़ रहा है. पांच साल से हर साल दुष्कर्मों के 100 से अधिक मामले दर्ज हो रहे हैं. आलम यह है कि महिलाओं के लिए खेत से लेकर घर, स्कूल, हॉस्टल और यहां तक कि पुलिस के थाने तक सुरक्षित नहीं रहे. पुलिस रोजनामचे में 12 साल की मासूम से लेकर 60 साल की वृद्धा के साथ बलात्कार और महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार से लेकर उन्हें जिंदा जलाने तक जैसे मामले दर्ज हैं. हालांकि जिले के पुलिस अधिकारियों का तर्क है कि स्थिति उतनी भयावह नहीं जितनी बताई जा रही है. जिले के संयुक्त पुलिस अधीक्षक गीतेश गर्ग कहते हैं, ‘बैतूल यदि बदनाम है तो इसलिए कि यहां बलात्कारों के मामले अधिक दर्ज होते हैं.’ इस तर्क का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि रिकाॅर्ड में दर्ज प्रकरणों की संख्या तो दिखाई देती है लेकिन उस अनुपात में पुलिस द्वारा दर्ज नहीं किए जाने वाले प्रकरणों की संख्या का पता नहीं चल पाता. इसलिए इस बात का कोई हिसाब नहीं कि पुलिस ने अब तक थाने की चौखट से कितनी महिलाओं को रफा-दफा किया है. मुलताई में पारधी समुदाय की 10 महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म जैसे दर्जनों बहुचर्चित कांड हैं जिनमें उसने महीनों तक प्रकरण दर्ज नहीं किए. इसी कड़ी में उर्मिलाबाई की आत्महत्या का मामला भी शामिल है. यह दलित महिला चार साल पहले जब डोंगराई पंचायत की पंच बनीं और उन्होंने मनरेगा से जुड़े घोटालों का विरोध किया तो सरपंच के बेटे ने दो बार उनके साथ बलात्कार किया. पुलिस ने उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी तो तंग आकर उन्हें खुदकुशी करनी पड़ी.

बैतूल के जिस आदिम जाति कल्याण थाने पर पीड़िताओं के संरक्षण की जवाबदारी है उसी का नजरिया इस बारे में भिन्न है. यहां अनुविभागीय अधिकारी विमला चौधरी कहती हैं, ‘पैसों के लालच में औरतें बलात्कार का आरोप लगा देती हैं.’ उनके मुताबिक अनुसूचित जाति जनजाति (अत्याचार निवारण, 1989) कानून में बलात्कार का मामला सिद्ध होने पर पीड़िता को 50 हजार रुपये दिए जाने की व्यवस्था है और इसी लालच में यहां की औरतें मोहरा बन रही हैं. चौधरी के चैंबर में बैठे जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय सिंह हामी भरते हुए कहते हैं, ‘आप लिखो कि बैतूल में बलात्कार अब एक बड़ा धंधा बन चुका है.’ 

लेकिन दूसरे तबके को इस बात पर सख्त आपत्ति है. इसका कहना है कि यदि आदिवासी पुलिस महकमा ही आदिवासियों के खिलाफ ऐसा नजरिया लेकर काम करेगा तो उन्हें न्याय कहां से दिलाएगा. जानकारों के मुताबिक किसी भी आदिवासी महिला के लिए यह इतना आसान भी नहीं कि वह आज रिपोर्ट लिखवाए और कल पैसा पा जाए. हकीकत में थाने से लेकर अदालत की लड़ाई इतनी लंबी और पेचीदा है कि आम महिला भी इसमें उलझना नहीं चाहती. मध्य प्रदेश महिला मंच की रिनचिन कहती हैं, ‘यदि पुलिस मानती है कि बलात्कार के केस फर्जी हैं तो वह उन्हें साबित क्यों नहीं करती?’

दूसरा सवाल यह है कि आरोपितों को दोषी साबित करने की दर यहां गति क्यों नहीं पकड़ पाती. यदि बैतूल में महिला अनाचारों की बात की जाए तो यह कहानी सिर्फ बलात्कारों तक नहीं रुकती. यह लज्जा का वास्ता देने से लेकर पैसों के लालच और हथियारों का डर दिखाने तक जाती है. शहर से लगे कल्याणपुर में एक दलित नाबालिग लड़की को सामूहिक हवस का शिकार बनाने के बाद ठीक इसी तरह की कवायद दोहराई जा रही है. हालांकि यह मजदूर परिवार अपनी बेटी की प्रताड़ना की शिकायत थाने तक कर तो आया है लेकिन दबंगों के डर से अदालत में अपनी अर्जी नहीं दे पा रहा है. ‘गांव में रहने’ या ‘अदालत तक अपनी अर्जी देने’ के बीच असमंजस में फंसे कई परिवार ज्यादती के बाद खुद को पहले से कहीं असुरक्षित पा रहे हैं. 

बैतूल की सामाजिक कार्यकर्ता रेखा गुजरे बताती हैं, ‘यहां ग्रामसभा से लेकर तमाम संवैधानिक संस्थाओं में महिला उत्पीड़न कोई मामला ही नहीं.’ उनके मुताबिक जब भी ऐसी प्रताड़ना होती है तो राजनेता सामने नहीं आते, लेकिन समझौते के दौरान इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. तब भीतर ही भीतर महिलाओं पर इस हद तक दबाव बनाया जाता है कि वे कानून का साथ नहीं निभा पातीं. लेकिन इन सबसे इतर अमला थाने में पुलिसकर्मियों के कथित सामूहिक बलात्कार का दर्द झेलने वाली नानीबाई (बदला नाम) का मामला यदि तीन साल के बाद भी जिंदा है तो इसलिए कि वे हर हालत में लड़ रही हैं.

एक तबका बैतूल में बलात्कारों के बढ़ते आंकड़ों को आदिवासियों के बीच हुई परिवर्तन की पहल से जोड़ता है. यह मानता है कि बीते दशक में यहां की महिलाओं में अपने अत्याचारों के खिलाफ शिकायत करने का चलन तेजी से बढ़ा है. महाराष्ट्र (नागपुर) सीमा से लगे इस इलाके में अंबेडरकरवादी संगठनों की आवाजाही के चलते यह तबका अपने अधिकारों को लेकर आगे आया है. वहीं सूबे में बीते 15 साल से लागू पंचायतीराज व्यवस्था के भीतर फिलहाल 50 फीसदी महिला आरक्षण का प्रावधान रखने से खासी तादाद में आदिवासी महिलाओं को मौका मिला है. बैतूल सांसद (ज्योति धुर्वे) और विधायक (गीता उइके) सहित 558 पंचायतों में आधे से अधिक पदों पर अब आदिवासी महिलाओं का राज है. बैतूल रहवासी और प्रदेश महिला कांग्रेस की सचिव मीरा एंथोनी कहती हैं, ‘एक सामंती और पुरुष प्रधान समाज में जब महिलाएं प्रतिकार कर रही हैं तो उन पर हमले भी हो रहे हैं.’ और महिलाओं के यौनांग को सबसे बड़ी कमजोरी के तौर पर जाना जाता है, इसलिए इस संघर्ष में उसी पर सबसे अधिक चोट भी की जा रही है. 

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…जमाना है पीछे

जिस उम्र में बच्चों की अपनी अलग दुनिया होती है, जहां वे अपने ही सपनों के साथ जीते हैं, अपनी मासूम चाहतों के लिए जिद करते हैं, मांग पूरी न होने पर रूठते हैं, जिस उम्र में उन्हें क्लास टीचर द्वारा दिए गए होमवर्क को पूरा करने की चिंता सताती है, उस उम्र में कोई बच्ची केवल अपनी ही नहीं, हम सबकी दुनिया के बारे में न केवल गंभीरतापूर्वक सोचती है. और सिर्फ सोचती ही नहीं, उसको बचाने-संवारने के लिए ठोस प्रयास भी करती है. लखनऊ की युगरत्ना श्रीवास्तव ने 2009 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ, देश के तत्कालीन विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून सहित विश्व के तमाम दिग्गज नेताओं को संबोधित किया था. वे दुनिया के 30 करोड़ बच्चों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं और तब उनकी उम्र महज 13 साल थी. इस लिहाज से वे संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करने वाली विश्व की सबसे कम उम्र की वक्ता हैं. बोलते वक्त क्या वह नर्वस थीं, पूछने पर युगरत्ना बताती हैं कि हां, थोड़ी बहुत. वहां बोलने से पहले एक गिलास ठंडा पानी पिया था, बर्फ डालकर. वे कहती हैं, ‘जब आप को लगता है कि आप जो कर रहे हैं वह सही है तो घबराहट अपने आप दूर हो जाती है.’ 

‘मैं तो चाहती हूं कि शादी में सात की जगह नौ फेरे हों अकंल!’, इसका कारण पूछने पर युगरत्ना कहती हैं, ‘सात फेरे तो पहले के मुताबिक मगर बाद के दो फेरों  में एक कन्या भ्रूण हत्या न करने का वादा, और अपने जन्मदिन या शादी की वर्षगांठ के अवसर पर एक पेड़ लगाने का वादा.’ 16 साल की युगरत्ना जब 12 की थीं तो वे यूएनईपी (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) से जुड़ गई थीं. 2008 से लेकर 2010 तक उन्होंने यूएनईपी के जूनियर बोर्ड में एशिया पैसिफिक प्रतिनिधि के तौर पर काम किया. यह उपलब्धि हासिल करने वाली वे पहली भारतीय थीं. 2009 में उन्होंने यूएनईपी की छात्र प्रतिनिधि बनकर नैरोबी में एक स्लोगन लांच किया. यह था ‘डिपॉजिट ग्रीन गोल्ड टू इनरिच ऑक्सी बैंक्स’ यानी हरा सोना जमा करो ताकि ऑक्सीजन बैंक समृद्ध हो.

पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते युगरत्ना को करीब-करीब हर साल विदेश यात्रा पर जाना पड़ा है. वे नॉर्वे, नैरोबी, उत्तरी कोरिया, अमेरिका, इंडोनेशिया, जापान सहित लगभग आठ देशों में पौधारोपण के साथ जलवायु परिवर्तन पर भाषण दे चुकी हैं. इतनी यात्रा, व्यस्तता के कारण पढ़ाई पर असर नहीं पड़ता, यह पूछने पर युगरत्ना आंखें बड़ी कर कहती हैं, ‘नहीं, मैं शुरू से ही पढ़ने में टॉप रही हूं. हाईस्कूल में भी मैंने अपने स्कूल में टॉप किया है.’ युगरत्ना ने साइंस और इंग्लिश ओलम्पियाड में उच्च श्रेणी प्राप्त की है. अपनी कामयाबी का श्रेय वे अपने मम्मी-पापा को देती हैं. खास तौर से अपनी मां को. 

लखनऊ में रहने वाली 16 साल की युगरत्ना श्रीवास्तव जलवायु परिवर्तन पर होने वाले संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को संबोधित कर चुकी हैं

युगरत्ना की तमाम उपलब्धियों के साथ उन्हें मिले ईनामों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. उनके पास विभिन्न संस्थाओं से मिले इतने पुरस्कार हैं कि उन्हें रखने के लिए एक आलमारी कम पड़ गई है. उनकी मां डा.रोशनी श्रीवास्तव बताती हैं कि बहुत सारे तो एक बक्से में बंद रखे हुए हैं.  बेटी के बारे में पूछने पर वे कहती हैं, ‘संतान हो तो युगरत्ना जैसी.’ नन्ही-सी उम्र में उसने उस काम का बीड़ा उठाया है जिसके बारे में हम बड़े तक सपने में भी सोचते नहीं. ‘यदि अभी नहीं तो कब! यदि हम में से कोई नहीं तो कौन!’, युगरत्ना तपाक से कहती हैं. छोटी सी उम्र में पर्यावरण के लिए प्यार कैसे पनप गया! पूछने पर वे बताती हैं, ‘पापा डॉ आलोक कुमार श्रीवास्तव बॉटनी के लेक्चरर हैं, उनको सुनकर-देखकर पेड़-पौधों के प्रति बचपन से लगाव रहा.’ वे आगे कहती हैं, ‘ऐसा नहीं है यंग जेनरेशन बस ईमेल, फेसबुक तक सीमित रह कर रह गई हो, वह नेचर को लेकर बहुत ही अवेयर है. यंग जनरेशन ही कुछ चेंज कर सकती है.’ युगरत्ना कहती हैं कि नेचर की रक्षा के लिए जागरूकता और प्रकृति प्रेमी रवैय्ये के साथ सभी देशों के नेताओं का सपोर्ट बहुत जरूरी है. अब इसमें सभी देशों के नेता कहां से आ गए! ‘क्योंकि पर्यावरण से जुड़ी समस्या राजनीतिक और भौगोलिक सीमा नहीं देखती है सर’ वे तपाक से बोलती हैं. 

ऐसा नहीं है कि युगरत्ना के सरोकार केवल पर्यावरण तक सीमित हैं. वे लड़कियों के लिए भी कुछ करना चाहती हैं. इसकी झलक हम नौ फेरों वाली बात में देख ही चुके हैं. अल्बर्ट आइंस्टीन और बराक ओबामा से प्रभावित, पर्यावरण के लिए कार्यरत एक राष्ट्रीय एनजीओ की गुडविल एंबेसडर है वह. वर्तमान में युगरत्ना ‘प्लांट फॉर द प्लैनेट’ के यूथ ग्लोबल बोर्ड के बिलियन ट्री कैम्पेन की वाइस प्रेसीडेंट हैं. ‘यंग एचीवर’, ‘ग्रीन गर्ल’, ‘अवध सम्मान’, ‘नेशन यूथ आइकान’ और न जाने कितने खिताबों से नवाजी गई युगरत्ना आजकल अपनी बोर्ड की परीक्षा पर ध्यान दे रही है. 

कभी एक अंग्रेजी अखबार ने उनका विवरण एक ऐसी लड़की के तौर पर दिया था जिसने यूएन का वातावरण बदल दिया. इतनी मीडिया हाइप मिलने के बाद उसे कैसा लगता है. यह पूछने पर युगरत्ना बहुत सहज भाव से कहती हैं, ‘अच्छा तो लगता है, मगर मेरे पांव जमीन पर ही रहते हैं क्योंकि हमें जीवन देने वाले पेड़ जमीन पर ही उगते हैं.’ पर्यावरण के प्रति समर्पित इस नन्हीं पहरुआ की आवाज क्या हम सयानों तक कभी पहुंचेगी? फिलहाल वह जुटी हुई है. अपने साथ हमारी भी दुनिया बचाने में. 

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