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बालपन में ब्याह

‘हमारी जाति डोम है और हमारे यहां सात-आठ साल में शादी अनिवार्य है. यदि आपने इससे ज्यादा देरी की तो अपने बच्चे के लिए जोड़ा मिलना मुश्किल हो जाएगा. जोड़ा तलाश भी लें तो उसमें किसी न किसी तरह की कमी होगी. वह किसी दुर्घटना या बीमारी का शिकार होगा. इसलिए हमारी जाति में समय रहते शादी की परंपरा है. गौना (लड़की की विदाई) जरूर हम अठारह पार करने के बाद ही करते हैं. विदाई में उम्र को लेकर कोई समझौता नहीं करते.’

मोहन डोम बड़ी बेबाकी से अपनी बात रखते हैं. बिहार में पश्चिम चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया से उनका गांव धांगड़ टोली पांच-सात किलोमीटर के फासले पर ही होगा. धांगड़ टोली की तरफ मुख्य सड़क पर जाते हुए सड़क के किनारे ही मोहन डोम का आशियाना है. वे सड़क के किनारे झोपड़ी डाल कर रहते हैं. उनसे घर पर ही मुलाकात होती है. बातचीत के बाद साफ होता है कि मोहन इकलौते व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने कम उम्र में अपने एक लड़के और एक लड़की की शादी की है. एक-दो दिन और भागदौड़ के बाद यह भी स्पष्ट होता है कि डोम समाज कम उम्र में शादी को स्वीकार करने वाला अकेला समाज नहीं है. कई दूसरे समाजों में भी कम उम्र में शादियां हुई हैं.

बेतिया के भरपटिया माध्यमिक विद्यालय की प्राचार्य उषा दुबे बताती हैं, ‘इतनी कम उम्र में शादी-शुदा बच्चों को देखकर मन ग्लानि से भर जाता है.’ वे आगे कहती हैं कि उन्हें इस स्कूल में एक साल ही हुआ है. पहली बार जब वे इस स्कूल में आईं और शादी-शुदा लड़कियों को देखा तो बहुत परेशान हुईं. वे कहती हैं, ‘ये बच्चियां स्कूल में आकर अपनी ससुराल का किस्सा सुनाती थीं, मैं सुनती थी क्योंकि हमें ट्रेनिंग के दौरान बताया गया है कि बच्चों के साथ घुल-मिल कर रहना है, जिससे वे आपको अपना अच्छा दोस्त समझें. इस घटना से आहत होकर मैं इन बच्चों के परिवार- वालों से भी मिली, लेकिन वे मुझसे ही लड़ने लगे. मैं शादी की बात लेकर पुलिस के पास भी जाना चाहती थी पर मेरे साथियों ने मुझे यह कहकर रोक दिया कि हमारा काम इन बच्चों को पढ़ाना और ऐसे संस्कार देना है कि बच्चों की छोटी उम्र में शादी न की जाए.’ 

एक स्कूल में छह साल की प्रेमा (काल्पनिक नाम) मिलती है. उसका हंसना, बोलना, बतियाना सब अपनी उम्र के बच्चों जैसा ही है. बेतिया से आठ किलोमीटर दूर अपने स्कूल की चौथी कक्षा में प्रेमा अपने क्लास के दूसरे बच्चों के साथ घुल-मिलकर ही बैठती है लेकिन अपनी एक खासियत के चलते क्लास में दूर से ही पहचानी जा सकती है. वह है उसकी मांग में भरा हुआ सिंदूर. प्रेमा के बिना कुछ कहे ही यह सिंदूर उसकी कहानी काफी कुछ बयान कर देता है. प्रेमा जिस माध्यमिक स्कूल में पढ़ती है वहां 800 बच्चे हैं. इनमें 80 बच्चे शादीशुदा हैं. यह आंकड़ा स्कूल की प्रधानाध्यापिका देती हैं, लेकिन जानकारों का कहना है कि संख्या इससे कहीं अधिक है. 

प्लान यूके की एक रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 27,397 कम उम्र की लड़कियां जबरन शादी की भेंट चढ़ती हैं. यानी हर तीन सेकंड में एक बच्ची

एक राजकीय विद्यालय में प्राचार्य जनक मिश्र की मानें तो शादीशुदा बच्चे-बच्चियां इस क्षेत्र के स्कूलों में आम हैं. मिश्र कहते हैं, ‘कड़वी सच्चाई यह है कि हमारे रोकने से यह रुकने वाला भी नहीं है. शादी के बाद बच्चे स्कूल आ रहे हैं, शुक्र मनाइए. शादी वाले मसले पर अधिक बातचीत करेंगे तो वे अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर देंगे. बहुत सोच-विचार कर हमने बच्चों को पढ़ाने और शिक्षित करने को अपनी प्राथमिकता बनाया है.’

कल्पना (काल्पनिक नाम) सात साल की है, तीसरी कक्षा में पढ़ती है. एक साल पहले उसकी शादी हुई. उसे पता है कि उसकी शादी साठी (बेतिया) में हुई है. पति का नाम याद नहीं आता तो उसी स्कूल में आठवीं क्लास में पढ़ने वाली उसकी बड़ी बहन याद दिलाती है. छोटी उम्र में शादी कर चुकी कुछ मुस्लिम लड़कियां भी स्कूल में मिलती हैं. उनकी मांग में सिंदूर तो नहीं मगर नाम के साथ खातून जुड़ा है. हालांकि इस सबमें एक अच्छी बात यह देखी जा सकती है कि शादी के बाद भी परिवार- वालों ने इनके स्कूल जाने पर प्रतिबंध नहीं लगाया. शादी का सही-सही अर्थ भी न जानने वाली लड़कियां, सुबह-सुबह अपने पति के नाम का सिंदूर मांग में डालकर स्कूल में उपस्थित रहती हैं.

जानकार मानते हैं कि जो परिवार शादी के बाद भी बच्चियों को स्कूल भेज रहे हैं, उन्हें अब इस बात के लिए राजी करने में सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए कि बच्चियों की शादी वे सही समय पर ही करें. अब छोटी उम्र में बच्चियों की शादी कराने वाले परिवारों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है कि अठारह साल गौने की नहीं, कानून की तरफ से शादी की तय उम्र सीमा है. वैसे छोटी उम्र में शादी की बात की जाए तो एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में हर तीसरे सेकंड में एक बच्ची को जबरन शादी के लिए राजी किया जाता है. हाल ही में एक टीवी कार्यक्रम के दौरान गैरसरकारी संस्था ‘गर्ल्स नॉट ब्राइड्स’ की कम्यूनिकेशन ऑफिसर लॉरा डिकिन्सन का कहना था, ‘बहुत-से समुदायों में बाल विवाह को मंजूरी मिली हुई है, ऐसे परिवारों में लड़कियों को लड़कों से कम महत्व मिलता है.’

जब हम महिला अधिकारों की बात करते हैं, बाल अधिकारों की बात करते हैं या बच्चियों में या बच्चों में स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी विषयों की चर्चा करते हैं, उस दौरान ऐसे हजारों बच्चों को चर्चा में शामिल नहीं कर पाते जिनके शादी-शुदा होने की जानकारी सरकारी या किसी गैर सरकारी फाइल में भी दर्ज नहीं है. बिहार के पश्चिम चम्पारण में महादलित समाज से आने वाले बहारन राउत अपने क्षेत्र में समाज के मुखिया भी हैं. समाज के विवादों को वे पंच बनकर सुलझाते रहे हैं. वे बताते हैं, ‘मैंने तय किया कि अपनी पोती की शादी छोटी उम्र में नहीं करूंगा इसलिए दस साल के बाद ही पोती के लिए लड़का तलाशना प्रारंभ किया. लेकिन उस उम्र में भी इसके लिए लड़का तलाशना हमारे लिए मुश्किल हो रहा था क्योंकि हमारे समाज में छोटी उम्र में ही शादियां हो जाती हैं.’

बहारन के अनुसार उन्होंने जाति पंचायत में भी इस बात को उठाया, लेकिन किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. बहारन अपनी शादी का किस्सा भी सुनाते हैं जब वे पांच साल की उम्र में दूल्हा बने. उन्होंने शादी के मंडप पर बैठने से पहले मां का दूध पीने की जिद कर दी. अब शादी में मां मौजूद नहीं थीं. लोगों ने भागकर कहीं से गाय के दूध का इंतजाम किया और दूल्हा बने बहारन राउत शादी के मंडप पर दूध पीने के बाद ही बैठे.

 आंकड़े बताते हैं कि हर सौ में से सात लड़कियों की शादी कानूनी तौर पर तय समय सीमा 18 साल से कम उम्र में हुई है. ऐसा तब है जब हमारे पास बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाला 1929 का कानून है जिसमें 1949 और 1978 में संशोधन हुआ. 2006 में बाल विवाह को लेकर कानून को और मजबूत बनाया गया. उसके बावजूद सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे: 2005-06) के मुताबिक 20-24 वर्ष आयु वर्ग की 44.5 फीसदी युवतियां 18 साल से पहले विवाहिता हो चुकी थीं.

बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने के पीछे के तर्क जायज हैं. इन्हें आम तौर पर उन परिवारों के मुखिया स्वीकार भी करते हैं जिनसे बिहार के पश्चिम चंपारण के चनपटिया और योगापट्टी प्रखंड में हमारी बात होती है. बाल विवाह की पीडि़त आम तौर पर लड़कियां ही बनती हैं. शादी के बाद सबसे पहले उनका ही स्कूल छुड़ा दिया जाता है. जानकार मानते हैं कि यदि लड़कियों को हम स्कूल नहीं भेजेंगे तो देश भर की लड़कियों को मिले शिक्षा का अधिकार कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. दूसरे, यदि कम उम्र में लड़की की शादी होती है तो वह गर्भ धारण के लिए तैयार नहीं होगी. ऐसे में जच्चा और बच्चा दोनों असुरक्षित होंगे. देश में मातृत्व मृत्यु दर ऊंची होने की बड़ी वजह इस तरह बचपन में की जाने वाली शादी ही हैं. इस तरह की शादियों में लड़कियां बार-बार गर्भवती होती हैं. सही प्रकार से पोषक आहार और देखभाल ना मिलने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. वे बच्चियां नहीं जानतीं कि कब और कितनी बार उन्हें मातृत्व चाहिए, यह निर्णय लेना उनका अपना अधिकार है लेकिन किसी परिवार में उनकी नहीं सुनी जाती. 

‘प्लान यूके’ लड़कियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक गैरसरकारी संस्था है. इसके अनुसार दुनिया भर में हर साल एक करोड़ लड़कियों की जबरन कम उम्र में शादी कराई जाती है. प्लान यूके की एक रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 27,397 कम उम्र की लड़कियों की जबरन शादी कराई जाती है. यह आंकड़ा बारीकी से देखा जाए तो इसका मतलब हुआ कि हर तीन सेकंड में एक लड़की की जबरन शादी. यूनिसेफ की ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन’ 2012 रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हो रहे बाल विवाह में 40 फीसदी से अधिक की भागीदारी भारत की है. इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 20-24 साल की 22 फीसदी महिलाओं ने अपने पहले बच्चे को अठारह साल से कम उम्र में जन्म दिया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के ‘फैमिली वेलफेयर स्टेटिस्टिक्स 2011’ के अनुसार 18 साल से कम उम्र की बच्चियों की शादी के मामले में ग्रामीण भारत शहरी भारत से तीन गुना आगे है.

परंपरा, संस्कार और संस्कृति के नाम पर कब तक इन बच्चियों के साथ अन्याय होता रहेगा? बिहार का पश्चिम चंपारण अपनी शादीशुदा बेटियों को स्कूल भेज रहा है शायद इसलिए यह किस्सा बाहर आ पाया. लेकिन उन बाल विवाहिताओं का क्या जो चौखट के बाहर कदम तक नहीं रख पातीं?

बे-काम का कानून

देश में पहली बार बाल विवाह पर रोक लगाने वाला कानून 1930 में आया. ‘द चाइल्ड मैरिज रिस्ट्रेंट एक्ट 1929’ नामक इस कानून को ‘शारदा एक्ट’ के नाम से भी जाना जाता है. पहली बार इसी कानून के जरिए लड़कों के विवाह की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 साल निर्धारित की गई. ‘शारदा एक्ट’ की कमियों को दूर करने के लिए 2007 में ‘द प्रोहिबिशन ऑफ चाइल्ड मैरिज एक्ट 2006’ लागू किया गया. नाम में इस बदलाव की वजह थी कानून के प्रावधानों को अधिक सख्त बनाना. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी साल एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि यह कानून सभी निजी कानूनों से ऊपर होगा और देश के हर नागरिक पर लागू होगा.

यूनिसेफ की रिपोर्ट

 वर्ष 2009 में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में होने वाले कुल विवाहों में से करीब 40 फीसदी बाल विवाह होते हैं. वहीं यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड (यूएनएफपीए) द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण ‘मैरिंग टु यंग: एंड चाइल्ड मैरिज’ के मुताबिक देश में 20 से 24 की उम्र की 47 फीसदी महिलाओं का बाल विवाह हुआ था. 

घोषणावीर मुख्यमंत्री

यह वाकया 25 साल पहले का है. मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के नीलकंठ (सीहोर) घाट में एक नवयुवक गले तक डूबा हुआ था. गांव के सारे लोग इस नौजवान को देखने के लिए जुटे थे. अचानक गांव के लोगों में हलचल बढ़ती है और यह नवयुवक मां नर्मदा को साक्षी मानते हुए घोषणा करता है कि इस क्षेत्र की सेवा के लिए आजीवन अविवाहित रहेगा. ठीक तीन साल बाद वह भाजपा के टिकट से इस क्षेत्र का विधायक चुना जाता है. इस दौरान वह अपनी पहली ही सार्वजनिक घोषणा भूलकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाता है. आज यही नवयुवक प्रदेश में में मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के बारे में यह कहानी कितनी सच्ची है इसकी पुष्टि तो तभी हो सकती है जब वे खुद स्वीकार करें लेकिन मध्य प्रदेश में उनके कुछ साथी विधायक इस घटना के साक्षी रहे हैं.

हालांकि आजीवन कुंवारे रहने की कसम खाकर शादी कर लेना कोई अपराध नहीं है. लेकिन घोषणा करके उसे भुला देने की जो नजीर चौहान ने राजनीति में प्रवेश के समय बनाई थी वह अब उनके शासनकाल में और पक्की हो गई दिखती है. यदि चौहान के कार्यकाल पर निगाह डाली जाए तो बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश के इतिहास में घोषणा करने के मामले में वे सबसे आगे हैं. पिछले सात साल का उनका रिकॉर्ड बताता है कि उन्होंने एक दिन में औसतन तीन से अधिक घोषणाएं की हैं. यह और बात है कि उनकी ज्यादातर घोषणाएं हवाई सिद्ध हुईं.

दरअसल चौहान की एक दिक्कत यह है कि वे जिस गति से घोषणाएं कर रहे हैं उससे उन्हें ही याद नहीं रहता कि उन्होंने कहां और कौन-सी घोषणा की है. इसी का एक नजारा महेश्वर उपचुनाव (2012) में तब देखने को मिला जब उन्होंने प्रदेश में पहला हिंदी विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर दी. मगर लोगों ने जब चौहान को याद दिलाया तो उन्हें याद आया कि यह घोषणा तो वे पहले ही कर चुके हैं. इसी तरह उन्होंने चार साल पहले श्योपुर जिले के दौरे के दौरान विजयपुर में पेयजल योजना के लिए एक करोड़ रुपये देने की घोषणा कर दी. जनसंपर्क विभाग ने बाकायदा उसकी प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की. मगर विधानसभा के पटल पर चौहान का जवाब था कि उन्होंने ऐसी कोई घोषणा ही नहीं की है. 

मुख्यमंत्री चौहान ने जिस ढंग से घोषणाओं के हवाई किले खड़े किए हैं उससे उनकी ही पार्टी भाजपा के कई बड़े नेता अब तंग आ चुके हैं. पार्टी सांसद रघुनंदन शर्मा ने पिछले साल उज्जैन में एक कार्यक्रम के दौरान कहा भी था, ‘राज्य सरकार के कई मंत्री इसलिए बेलगाम घोषणाएं कर रहे हैं क्योंकि उनके मुखिया भी ऐसा ही कर रहे हैं.’ शर्मा के मुताबिक घोषणाएं महज अखबारों में छपने और वाहवाही लूटने के काम आ रही हैं. विधानसभा में ही मंत्रियों द्वारा विधायकों के सवाल पर दिए गए आश्वासनों की संख्या बताती है कि करीब ढाई हजार आश्वासन अब तक पूरे नहीं हो पाए. वहीं चौहान भी सदन के भीतर यह मान चुके हैं कि वे घोषणावीर हैं. उनकी मानें तो, ‘वीर ही घोषणाएं करते हैं. यदि कुछ घोषणाएं पूरी नहीं हुईं तो इसलिए कि उनमें तकनीकी गड़बडि़यां थीं.’ चौहान का दावा है कि उन्होंने 80 फीसदी घोषणाएं पूरी भी कर दीं.

लेकिन मुख्यमंत्री की समीक्षा बैठक की हालिया रिपोर्ट खुद ही उनके दावे की कलई खोल देती है. इसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने सात साल में कुल 7,334 घोषणाएं की हैं. मगर इनमें से 3,513 यानी आधे से अधिक घोषणाएं अटकी हुई हैं. वहीं करीब एक हजार घोषणाएं ऐसी हैं जो या तो शुरू नहीं हो सकीं या जिन्हें शुरू करा पाना अब संभव नहीं हो पाया है. अधर में फंसी इन घोषणाओं  तक में से भी अधिकतर पंचायत व ग्रामीण विकास (485), जल संसाधन (426), राजस्व (231) और स्वास्थ्य (193) जैसे आम आदमी से सीधे ताल्लुक रखने वाले महकमों से जुड़ी हैं.

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं

विशेषज्ञों की राय में किसी भी राज्य का बजट घोषणाओं के बजाय योजनाओं के आधार पर तैयार किया जाता है. ऐसे में चौहान जिस अनुपात में घोषणाओं की झड़ी लगा रहे हैं उससे बजट पूरी तरह से गड़बड़ा गया है. खुद राज्य के वित्त मंत्री राघवजी को मुख्यमंत्री की घोषणाओं को साकार कर पाना संभव नहीं लगता. वे पहले ही मीडिया में साफ कर चुके हैं, ‘यदि भाजपा सत्ता में लौटी भी तो पांच साल तक इन घोषणाओं को अमली जामा पहनाना असंभव है.’  उनके मुताबिक यदि आपात कोष का खजाना भी खोल दिया जाए तो सौ करोड़ रुपये से अधिक रकम नहीं जुटाई जा सकती. जबकि चौहान की घोषणाओं को पूरा करने के लिए बारह हजार करोड़ रुपये की दरकार है. सरकार की माली हालत इतनी खराब है कि उसे अपने सभी महकमों का बजट कम करना पड़ा है. वहीं चौहान सरकार के कार्यकाल में यह प्रदेश 85 हजार करोड़ रुपये का कर्जदार बन चुका है. बावजूद इसके मुख्यमंत्री द्वारा नित नई-नई घोषणाएं करना ‘कर्ज लेकर घी पीने’ जैसा लग रहा हैं.

सवाल यह है कि जब राज्य का खजाना खाली है तो मुख्यमंत्री अलग-अलग वर्ग की पंचायतों और महापंचायतों का भव्य आयोजन करके उनमें करोड़ों रुपये क्यों खर्च कर रहे हैं. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री अपने आवास पर अब तक 25 से अधिक पंचायतें करा चुके हैं. इस बारे में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया का कहना है, ‘चौहान बताएं कि उन्होंने अपने आवास पर अब तक जितनी भी पंचायतें कराई हैं उनमें की गई घोषणाओं की स्थिति क्या है. साथ ही वे यह भी बताएं कि इस पूरे तामझाम में सरकार का अब तक कुल कितना पैसा खर्च हो चुका है.’

जानकार बताते हैं कि मुख्यमंत्री की कोई भी घोषणा शासन की योजना मानी जाती है. इसलिए चौहान को चाहिए कि वे ऐसी घोषणा न करें जिससे शासन को व्यर्थ की माथापच्ची करनी पड़े. प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव केएस शर्मा के मुताबिक, ‘मुख्यमंत्री की कोई घोषणा यदि बहुत लंबे समय से अधूरी पड़ी है तो इसका सीधा अर्थ है कि उसमें वित्त या विधि की ऐसी अड़चन है जिसे दूर करना मुश्किल है.’ उदाहरण के लिए, पांच साल पहले मुख्यमंत्री ने अनुसूचित जाति पंचायत में इस वर्ग के साहित्यकारों और कलाकारों को पुरस्कार देने की घोषणा की थी. इस घोषणा पर संस्कृति मंत्रालय ने शासन को बताया कि उसने पुरस्कारों का किसी वर्ग विशेष से संबंधित कोई दायरा तय नहीं किया है.

लिहाजा इस घोषणा को पूरा करने का काम अनुसूचित जाति कल्याण मंत्रालय को सौंपा जाए. तब से दोनों मंत्रालयों के बीच यह घोषणा अटकी पड़ी है. इसी तरह, चार साल पहले मुख्यमंत्री ने प्रदेश में बीस हजार आंगनबाड़ी खोलने की घोषणा की थी. तब तक सरकार ने बेरोजगारों को भर्ती करने की कोई तैयारी नहीं की थी. बावजूद इसके मुख्यमंत्री ने आंगनबाडि़यों में बेरोजगारों को भर्ती करने की घोषणा कर दी. जनसंपर्क विभाग ने भी अखबारों में विज्ञापन जारी कर दिया. उसमें पांच लाख से अधिक आवेदन आए. मगर सरकार ने यह पूरी प्रक्रिया रद्द कर दी. इस दौरान सरकार के विज्ञापन में तीन करोड़ रुपये तो खर्च हुए ही, बेरोजगारों के भी आवेदन भरने में एक करोड़ रुपये खर्च हो गए. 

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं. इसमें वह घोषणा भी शुमार है जिसमें उन्होंने किसानों का पचास हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा की थी. भाजपा कर्णधारों का मानना है कि चौहान की इस घोषणा ने पार्टी की सत्ता में वापसी कराने में अहम भूमिका अदा की थी.

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं.

गौरतलब है कि 2003 में कांग्रेस को इसी बीएसपी (बिजली, सड़क और पानी) फैक्टर के चलते सत्ता गंवानी पड़ी थी. चुनावी वर्ष में अब यही फैक्टर यहां फिर जोर पकड़ रहा है. हालत यह है कि भाजपा विधायक दल की बैठक में विधायकों ने कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव में बिजली और सड़क की बदहाली भारी पड़ सकती है. 13 दिसंबर, 2012 को विधानसभा सत्र के आखिरी दिन पार्टी विधायक दल की बैठक में विधायकों ने मुख्यमंत्री से साफ-साफ कहा कि यदि इन क्षेत्रों में जल्द ही कुछ काम नहीं किया गया तो चुनावी मैदान में मोर्चा संभालना मुश्किल हो जाएगा. दरअसल 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सौ दिन के भीतर हर घर में 24 घंटे बिजली पहुंचाने की घोषणा दम तोड़ चुकी है.

हकीकत यह है कि यहां बिजली का उत्पादन मांग के मुकाबले आधा भी नहीं हो पा रहा है. चौहान सरकार का दूसरा बड़ा सिरदर्द राजकीय राजमार्गों को लेकर है. राज्य में लोक निर्माण विभाग की कुल 25 हजार किलोमीटर सड़कें हैं. मगर विभागीय रिपोर्ट के मुताबिक इसमें भी 9,500 किलोमीटर सड़कें खस्ताहाल हैं. वहीं मुख्यमंत्री की 31 दिसंबर तक 15 हजार किलोमीटर सड़कें बनाने की घोषणा मखौल बनकर रह गई है. खुद मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र बुधनी से राजधानी तक 80 किमी का फासला सड़क मार्ग से तय करने में साढ़े तीन घंटे का समय लगता है.

मजेदार यह भी है कि मुख्यमंत्री चौहान खुद अपने लिए की गई घोषणाओं पर भी कायम नहीं रहते. इनमें न तो वित्त और न ही प्रशासन का ही कोई पेंच फंसता है. मसलन, 2008 में जब केंद्र ने पेट्रोल की कीमत में बढ़ोतरी की तो उसके बाद चौहान की वह घोषणा सिर्फ घोषणा ही बनी हुई है जिसमें उन्होंने सप्ताह में एक दिन साइकिल से मंत्रालय जाने की बात की थी. बेशक चौहान ने इन सालों में घोषणाओं के बूते लोकप्रिय नेता की छवि बना ली है लेकिन अब इनकी जमीनी हकीकत सामने आने के साथ-साथ राज्य भाजपा की पेशानी पर बल पड़ना शुरू हो गए हैं.

विदेश में ऐश, नतीजा सिफर!

छत्तीसगढ़ सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों में विदेश यात्राओं की होड़ लगी हुई है, लेकिन निवेश आकर्षित करने तथा तमाम अन्य जरूरी वजहों का हवाला देकर की जा रही इन विदेश यात्राओं का परिणाम अब तक शून्य ही रहा है. राज्य के मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह अक्टूबर, 2009 में जब एक सप्ताह की दक्षिण अफ्रीका यात्रा पर गए थे तब उन्होंने व्यापार-वाणिज्य के नजरिये से नए संबंधों की शुरुआत का हवाला देते हुए दावा किया था कि उनकी सरकार जल्द ही कोयले पर आधारित गैस के उत्पादन और प्लेटिनम धातुओं के संयंत्रों की स्थापना के लिए पहल करेगी, लेकिन चार साल बाद भी दक्षिण अफ्रीका के किसी निवेशक ने प्रदेश में निवेश की रुचि नहीं दिखाई. कमोबेश यही स्थिति वर्ष 2011 में भी बनी जब उन्होंने 9 से 21 अक्टूबर तक कैलिफोर्निया, सेन फ्रांसिस्को और लास एंजिल्स जैसे शहरों की खाक छानी. इस यात्रा के दौरान भी अप्रवासी भारतीयों को प्रदेश में पूंजी निवेश करने का न्यौता दिया गया था लेकिन परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा.

अकेले मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि अध्ययन या फिर ट्रेड फेयर में शिरकत के नाम पर अनेक मंत्री और अफसर विदेश यात्राओं पर जाते रहे हैं लेकिन सभी के नतीजे सिफर ही रहे हैं. वर्ष 2007 में जब रमन सरकार के एक मंत्री मेघाराम साहू ने मलेशिया और थाईलैंड की यात्रा की थी तब हल्ला मचा था कि वे सिंगापुर, मलेशिया और थाईलैंड क्यों जा रहे हैं. वजह यह थी कि वे सामान्य प्रशासन विभाग की अनुमति के बगैर अपने निजी सहायक बाबूलाल साहू को भी ले गए थे. मंत्री जब यात्रा से लौटे तो उन्होंने मंडियों को आधुनिक बनाने के लिए एक रिपोर्ट तैयार करने की बात कही जो अब तक तैयार नहीं हो पाई है. मंडी बोर्ड के संयुक्त संचालक एस राय तहलका से कहते हैं, ‘प्रदेश में कुल 70 मंडियां है लेकिन सभी अधकचरे ढंग से संचालित हो रही हैं. दुर्ग और राजनांदगांव जैसे जिलों में फलों के क्रय-विक्रय के लिए फल मंडी जरूर खोली गई है लेकिन इसका रिस्पांस भी बेहतर नहीं माना जा सकता.’

वर्ष 2007 में ग्रामोद्योग मंत्री केदार कश्यप ने ग्रामोद्योग विभाग के सचिव सीके खेतान और हस्तशिल्प बोर्ड के महाप्रबंधक नरेंद्र सिंह चंदेल के साथ बारी (इटली) की यात्रा की थी. इस यात्रा के दौरान भी मंत्री ने छत्तीसगढ़ के हस्तशिल्पियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सार्थक मंच देने का दावा किया था. इस यात्रा पर कुल 14 लाख 79 हजार 84 रुपये खर्च किए गए.

अफसरों ने यात्रा के अनुभव को लेकर हस्तशिल्प विकास बोर्ड के समक्ष एक संक्षेपिका भी प्रस्तुत की, लेकिन बाद में यह देखने की जहमत नहीं उठाई गई कि हस्तशिल्पियों को सही बाजार मिल पा रहा है या नहीं. बोर्ड ने वर्ष 2008-09 में देश के कुल 24 स्थानों पर शिल्पकलाओं की प्रदर्शनी लगाई थी, जबकि वर्ष 2009-10 में मात्र दस स्थानों पर प्रदर्शनी लग पाई. बाद के सालों में प्रदर्शनियों की संख्या और भी कम हो गई. बोर्ड पहले उन तमाम कलाकारों के आवागमन का खर्च वहन किया करता था जो देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित की जाने वाली प्रदर्शनियों में शामिल हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे बोर्ड ने यह बंद कर दिया. 

 

2008 में गृह मंत्री रामविचार नेताम इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर ह्यूमन वैल्यूज की बैठक में भाग लेने के लिए नॉर्वे गए थे लेकिन इसकी संक्षेपिका तक मंत्रालय में मौजूद नहीं है

वर्ष 2008 में तत्कालीन गृह मंत्री रामविचार नेताम के अलावा 47 अफसर विदेश यात्रा पर गए थे. इन यात्राओं पर कुल एक करोड़ 67 लाख 10 हजार चार सौ साठ रुपये खर्च किए गए थे. इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर ह्यूमन वैल्यूज की ओर से नक्सलवाद की रोकथाम के लिए 10 से 17, अप्रैल तक नॉर्वे में आयोजित वैश्विक सम्मेलन से शिरकत के बाद जब गृहमंत्री स्वदेश लौटे तब उन्होंने नक्सलवाद के खात्मे के लिए प्रभावी उपायों को अपनाने की बात कही थी, लेकिन वहां क्या हुआ, किन उपायों पर जोर दिया गया इसकी कोई संक्षेपिका भी गृह विभाग के पास मौजूद नहीं है.

 

वर्ष 2009 में मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह अपने लाव-लश्कर के साथ दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर थे तो मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल, विक्रम उसेंडी और रामविचार नेताम ने लंदन, इटली, स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, जिनेवा, जापान और अमेरिका की यात्रा की थी. मंत्रियों के अलावा सरकार के 36 अफसर भी जमकर विदेश यात्रा पर गए जिन पर कुल एक करोड़ 66 लाख 37 हजार 121 रुपये खर्च हुए. इस साल पर्यटन मंडल के तत्कालीन सचिव सुब्रत साहू और महाप्रबंधक मदन गोपाल श्रीवास्तव ने लंदन, इटली और स्विटरजरलैंड में लगने वाले वर्ल्ड ट्रैवल मार्ट में शिरकत करने के बाद छत्तीसगढ़ में विदेशी पर्यटकों की ओर से रुचि दिखाने का दावा किया था लेकिन पर्यटन सूचना केंद्र के प्रबंधक दिलीप आचार्या छत्तीसगढ़ में विदेशी पर्यटकों की आवाजाही को उल्लेखनीय नहीं मानते. तहलका से चर्चा में वे कहते हैं, ‘प्रदेश में धार्मिक स्थलों की बहुलता के चलते धार्मिक पर्यटकों की आवाजाही तो साल भर बनी रहती है लेकिन छत्तीसगढ़ की पहचान नक्सलियों के एक प्रमुख गढ़ के रूप में प्रचारित कर दी गई है, फलस्वरूप विदेशी छत्तीसगढ़ आने से अब भी कतराते हैं.’ वैसे एक सच्चाई यह भी है कि वर्ष 2012 में जहां देसी पर्यटकों की संख्या दो लाख 33 हजार 251 थी तो विदेशी पर्यटकों में मात्र दो हजार एक सौ 66 ही यहां आए. 

वित्त विभाग के प्रमुख अजय सिंह ने भी 6 से 18 सितंबर तक यूरोपियन यूनियन स्टेट पार्टनरशिप कार्यक्रम के तहत उच्च स्तरीय अध्ययन के लिए डेनमार्क, नॉर्वे और आस्ट्रिया की यात्रा की. तब भी कहा गया था कि वे विभिन्न देशों में लोक स्वास्थ्य को बेहतर करने के नजरिये से चल रही योजनाओं का अध्ययन कर, उन्हें राज्य में लागू करने की पहल करेंगे. यात्रा में छह लाख 68 हजार 666 रुपये खर्च हुए थे. लेकिन स्वास्थ्य महकमे के पास कोई रिपोर्ट मौजूद नहीं है. वर्ष 2011 में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के अलावा कुल सात मंत्रियों और 27 अफसरों ने विदेशी सैर-सपाटे को अंजाम दिया था. इस यात्रा में एक करोड़ 13 लाख पांच हजार सात सौ 61 रुपये फूंके गए. वर्ष 2012 में तीन मंत्रियों रामविचार नेताम, चंद्रशेखर साहू और अमर अग्रवाल के अलावा 57 अधिकारियों ने विदेश भ्रमण किया. उल्लेखनीय है कि इतने खर्च के बाद की गई विदेश यात्राओं का कोई हासिल नजर नहीं आता है.

इतना ही नहीं मंत्रियों के साथ जाने की बात छोड़ दी जाए तो राज्य के अधिकारी अपने स्तर पर भी विदेश यात्राओं में कतई पीछे नहीं हैं. उनकी इस होड़ पर भारी मात्रा में सरकारी धन खर्च हो रहा है. कई  प्रशासनिक अधिकारियों से जूनियर अफसर पीजाय उम्मेन ने छत्तीसगढ़ में अपनी पदस्थापना के दौरान सबसे ज्यादा विदेश यात्राएं की थीं. उम्मेन सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लेकिन वर्ष 2007 से वे लगातार विदेश यात्रा करते रहे हैं. जब वर्ष 2007 में वे आवास पर्यावरण महकमे का कामकाज देख रहे थे तब उन्होंने न्यू रायपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी की ओर से एक लाख 68 हजार 859 रुपये के व्यय पर लंदन की यात्रा की थी. एक दिसंबर से 12 दिसंबर, 2008 तक वे वित्त विभाग के सचिव डीएस मिश्र के साथ लंदन और अमेरिका की यात्रा पर थे.

इतना ही नहीं मंत्रियों के साथ जाने की बात छोड़ दी जाए तो राज्य के अधिकारी अपने स्तर पर भी विदेश यात्राओं में कतई पीछे नहीं हैं.

वर्ष 2009 के अक्टूबर महीने में उम्मेन जोहन्सबर्ग केपटाउन में थे. वर्ष 2011 में उन्होंने 27 से 31 मार्च तक शहरों के विकास के मद्देनजर पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल विकास के संबंध में अध्ययन के लिए ब्रसेल्स तथा 5 से 14 अक्टूबर तक बेल्जियम की यात्रा की थी. दोनों यात्राओं के लिए उन्होंने छह लाख 75 हजार 743 रुपये खर्च किए थे. छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में एमडी की हैसियत से पदस्थ राजेश गोवर्धन ने वर्ष 2007 में जर्मनी और 2008 में बेल्जियम की यात्रा की. जबकि हस्तशिल्प बोर्ड में महाप्रबंधक की हैसियत से पदस्थ रहे नरेंद्र सिंह चंदेल ने वर्ष 2007 में जहां दो लाख 39 हजार रुपये के व्यय पर बारी (इटली) की यात्रा की थी तो इसी पद पर रहते हुए वे 16 से 18 मार्च, 2008 तक शिकागो में थे. भारतीय प्रशासनिक सेवा 1981 बैच के अफसर विवेक ढांढ ने भी नगरीय प्रशासन विभाग की ओर से पांच लाख 58 हजार 572 रुपये के व्यय पर 4 से 9 अक्टूबर, 2009 को स्पेन और पेरिस की यात्रा की थी.

इस यात्रा के दौरान शहरों के योजनाबद्ध तरीके से नवीनीकरण किए जाने वाले प्रयासों का दावा सामने आया था. ढांढ दो से पांच मई, 2010 तक कनाडा के वैंकूवर शहर की यात्रा पर थे. इस यात्रा में पांच लाख पांच हजार 718 रुपये खर्च हुए थे. यात्रा के परिणामों के संदर्भ में महज इतना ही कहा जा सका था कि विभिन्न देशों में वेयर हाउसिंग लॉजिस्टिक के क्षेत्र में हो रही प्रगति से अवगत होकर अनुभव को समृद्ध किया गया. वर्ष 2007 से लेकर दिसंबर, 2012 तक लगभग दो सौ अफसरों ने विदेश यात्राएं की हैं. छत्तीसगढ़ में मंत्रियों और अधिकारियों की यात्रा का यह सिलसिला फिलहाल थमा नहीं है, लेकिन राज्य को इन यात्राओं से फायदा मिलने का इंतजार है.

 

राहुल गांधी : युवा तुर्क का राजनीतिक बयान

एक ऐसी पार्टी जिसमें करीब चार दशक से एक ही परिवार का आधिपत्य हो वहां नताओं का सार्वजनिक रूप से रोना-बिलखना अपने आप ही एक संशय को जन्म देता है. शीला रोईं, जनार्दन रोए और गहलोत रोए. लगभग पूरा कांग्रेस परिवार ही गमगीन था. कहना होगा कि यहां पार्टी के नवनियुक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपना लक्ष्य पूरा करने में पूरी तरह से सफल रहे. उन्होंने अपने पार्टीजनों और देशवासियों को बिल्कुल सही समय पर अपनी दादी और पिताजी के बलिदान की याद दिलाई. इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि देश के लिए गांधी परिवार का योगदान बहुत बड़ा है.

लेकिन यहां आकर राहुल गांधी के साथ हमारी सहमति समाप्त हो जाती है. इस देश के नेता भावुकता का प्रदर्शन करने के लिए नहीं जाने जाते. ऐसे में ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं के रोने-बिलखने का एक संदेश साफ है कि वे इस मौके का इस्तेमाल परिवार के प्रति अपनी श्रद्धा साबित करने के लिए करने से नहीं चूके. यह एक अलग किस्म का अवसरवाद है. 

खैर, हम राहुल गांधी के भाषण के पहले हिस्से की बात करते हैं जिसे उनका राजनीतिक बयान कहा जा सकता है. राहुल गांधी को भले ही आधिकारिक रूप से नंबर दो अब जाकर कांग्रेस ने घोषित किया हो लेकिन इस बात में किसको संदेह था कि वे पार्टी में नंबर दो नहीं है? उन्होंने अपनी पार्टी की संस्कृति को बदलने की बात कही, अवसरवादी राजनीति पर लगाम लगाने की भी बात कही है. इन घोषणाओं के लिहाज से राहुल एक नई कांग्रेस की उम्मीद जगाते हैं. लेकिन यह बदलाव आमूल परिवर्तन की तरह नहीं दिखने वाला. उन्हें पता है कि यह आसान काम नहीं है.

इसीलिए उन्होंने बदलवा और युवाओं को लाने के साथ एक वाक्य सावधानी से जोड़ दिया था- ‘यह सब धीरे-धीरे होगा.’ ओल्ड गार्ड के अंदर किसी तरह की बेचैनी न पनपने पाए इसका भी उन्होंने बहुत सावधानी से ख्याल रखा. जब-जब उन्होंने कहा कि युवाओं को आगे लाना है तब-तब उन्होंने यह भी कहा कि हमें अपने बुजुर्गों के अनुभव की जरूरत हर दकम पर पड़ेगी. उन्हें अंदाजा है कि आमूल बदलाव का कोई संदेश पार्टी के भीतर ही उठापटक का सबब बन सकता है. यहां राहुल गांधी ने काफी समझदारी दिखाई.

पर परिवर्तन के बयान पर वे खुद को बहुत आगे ले जाते नहीं दिखे. बदलाव की उनकी घोषणा उनकी तमाम पिछली घोषणाओं के जैसी ही है. उसमें किसी स्पष्ट योजना और कार्यक्रम के दर्शन नहीं होते. किस तरह से वे पार्टी की अंदरूनी संस्कृति को बदलेंगे, किस तरह से देश में समतामूलक माहौल बनाएंगे इसके लिए उन्होंने कोई विस्तृत और स्पष्ट रोडमैप नही दिया है उन्होंने. उत्तर प्रदेश से लेकर खैरलांजी तक के दलित परिवारों के घरों में रात बिताना और उनका जीवन बदलने का सपना दिखाकर वापस दिल्ली लौट -जाने वाली छवि अभी भी कायम है. अमेठी, बस्ती से लेकर भट्टा पारसौल तक के जितने दलित परिवारो के घर में उन्होंने रात्रि विश्राम किया है उनमें से कोई भी राहुल गांधी से संतुष्ट नहीं है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पत्ता साफ की एक वजह राहुल के वे खोखले वादे भी थे जिनसे वहां के लोगों में एक गुस्सा था. यह खोखलापन उनके राजनीतिक बयान में भी दिखा. यह कांग्रेस को किसी निश्चित दिशा में नहीं ले जा रहा है.   

राजनीति वातावरण के नजरिए से देश इस समय एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर है. देश की दो बड़ी पार्टियों में नेतृत्व का फेरबदल चल रहा है. कांग्रेस में जहां यह परिवारवाद की अगली कड़ी के रूप में सामने आया है वहीं भाजपा में यह संघ के आधिपत्य और पार्टी के एक धड़े के बीच मची आपसी खीचतान को सामने लेकर आया है. इस लिहाज से राहुल गांधी के लिए स्थितियां मुफीद है, उनके सामने कोई दिग्गज, घाघ जननेता नहीं खड़ा है, एक बिखरी हुई पार्टी है जिसके तमाम धड़े आपसी सिरफुटौव्वल से बेजार हैं. पर हां जनता खोखले वादे और दिशाहीन नेताओं को ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करती. 

हिंदू कोड बिल

भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान सरकार हमेशा यह सावधानी बरतती थी कि सामाजिक मामलों में वह दखल न दे. मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं को भी अपने सामाजिक मसलों में धार्मिक नियमों के आधार पर फैसले लेने की आजादी थी. हालांकि किसी धार्मिक समुदाय के एक बड़े तबके द्वारा मांग करने पर सरकार इस दिशा में पहल जरूर करती थी. इस आधार पर 1941 में सरकार ने हिंदुओं में विधवा उत्तराधिकार कानून की समीक्षा के लिए राव समिति का गठन किया था और इसी समिति ने पहली बार हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया था.

नेहरू के नेतृत्व में जब भारत में पहली नामित सरकार बनी तब उन्होंने कानून मंत्री बीआर अंबेडकर को दोबारा हिंदू कोड बिल बनाने की जिम्मेदारी सौंपी. अंबेडकर ने राव समिति द्वारा बनाए गए बिल में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए और 1948 में इसे संसद में चर्चा के लिए पेश कर दिया. इन नए संशोधित हिंदू कोड बिल में तलाक और विधवा महिलाओं व लड़कियों के लिए संपत्ति का अधिकार जैसे विषयों पर सुधारवादी कदम उठाए गए थे.

रूढ़िवादी हिंदू पहले से इस बिल के विरोध में थे. इसलिए जब यह बिल संसद में चर्चा के लिए आया तब हिंदूवादी संगठनों ने इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू कर दिए. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध रैलियां आयोजित कीं. स्वामी करपात्री इस पूरे विरोध आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे. वे जगह-जगह रैलियों में धर्मशास्त्रों का हवाला देते हुए अंबेडकर को हिंदू कोड बिल पर सार्वजनिक बहस के लिए आमंत्रित करते थे. इस व्यापक विरोध का असर यह हुआ कि हिंदू कोड बिल संसद से पारित नहीं हो पाया. और इस घटना से आहत अंबेडकर ने आखिरकार नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया.

हालांकि जब 1951-52 में आम चुनाव के बाद नई सरकार का गठन हुआ तब एक बार फिर हिंदू कोड बिल संसद से पारित कराने की कोशिशें हुईं और 1956 तक चार अलग-अलग विधेयकों को पारित कर इसे स्वीकार कर लिया गया.
-पवन वर्मा

सीधे सवाल, उलझे जवाब

क्या बलात्कार की सजा फांसी हो?
‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया.
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया’
दिल्ली के जंतर मंतर पर जहां साहिर लुधियानवी की ये पंक्तियां गाते हुए कुछ युवा नुक्कड़ नाटक में लोगों को महिलाओं की व्यथा सुना रहे हैं वहीं उनके ठीक पीछे एक बड़े-से बैनर पर प्रधानमंत्री के नाम एक अपील भी लिखी है. इसका पहला बिंदु है ‘धारा 376 में मृत्यु दंड का प्रावधान किया जाए’. इनसे थोड़ी ही दूरी पर ‘भगत सिंह क्रांति सेना’ के कुछ लोग धरना दे रहे हैं. उनके अध्यक्ष तेजिंदर बग्गा की भूख हड़ताल का आज सातवां दिन है. उनकी भी पहली मांग यही है कि बलात्कारियों को फांसी की सजा हो.

जंतर मंतर का यह दृश्य पूरे देश के लोगों में व्याप्त उस आक्रोश की तस्वीर बयान करता है जो 16 दिसंबर की रात हुए गैंगरेप के बाद से लोगों में पैदा हुआ है. एक तरफ जहां पिछले 18 साल में भारत में कुल तीन फांसियां हुईं और यह चर्चा जोर पकड़ने लगी थी कि भारत को भी अधिकतर विकसित देशों की तरह मृत्युदंड को समाप्त कर देना चाहिए वहीं अब इस सजा का दायरा और बढ़ाने की मांग हो रही है. इस घटना के बाद महिलाओं की सुरक्षा संबंधी कानूनों में सुधार के लिए बनाई गई जस्टिस वर्मा समिति को भाजपा समेत हजारों संगठनों और व्यक्तियों के सुझाव प्राप्त हुए हैं जिनमे बलात्कार के लिए फांसी का प्रावधान बनाने की मांग की गई है.

लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर जैसे कई लोगों का मानना है कि फांसी देना इस समस्या का समाधान नहीं है. जस्टिस सच्चर कहते हैं, ‘यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि फांसी देने से लोगों में वह डर पैदा नहीं होता जिससे अपराधों पर रोक लग सके. ऐसे में हमें आगे बढ़ते हुए फांसी को तो समाप्त ही कर देना चाहिए.’ दिल्ली में हुए विरोध प्रदर्शनों के अगुवा रहे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के कार्यकर्ता संदीप सिंह भी मानते हैं कि बलात्कार के लिए फांसी देने पर कई जगह तो पीड़ित को जिंदा ही नहीं छोड़ा जाएगा. इसके अलावा अधिकतर मामलों में अपराधी किसी न किसी तरह पीड़ित से जुड़ा होता है इसलिए बलात्कार का मामला दर्ज न करने के लिए पीड़ित पर कई तरह के दबाव बनाए जाएंगे जिससे ऐसे मामले सामने भी नहीं आ पाएंगे. संदीप बताते हैं, ‘जरूरत कानून को कठोर करने की नहीं बल्कि महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की है. आज महिलाओं पर होने वाले कई अपराधों को तो हमारा कानून मानने से भी इनकार करता है. जिस तरह से जाति सूचक टिप्पणी करना अपराध माना गया है, उसी तरह लैंगिक टिप्पणियां करने वालों को भी दंडित किए जाने का प्रावधान कानून में होना चाहिए.’

कानून के जानकारों का मानना है कि बलात्कार के लिए उम्र कैद की सजा का प्रावधान कुछ कम कठोर नहीं है लेकिन दोष साबित होने की दर का बहुत ही कम होना एक बड़ी समस्या है. दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि के प्रवक्ता संतोष शर्मा बताते हैं, ‘महिला उत्पीड़न से जुड़े मुद्दों में फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए जल्दी न्याय देना एक सकारात्मक पहल होगी. आज लाखों की संख्या में ऐसे मामले लंबित हैं जिनमें सालों से किसी को सजा नहीं हो पाई है. यह एक बड़ा कारण है कि इन मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है.’ मौजूदा कानून में बदलाव की बात करने पर संतोष कहते हैं, ‘बलात्कार की परिभाषा को और ज्यादा विस्तृत किया जाना भी आवश्यक है ताकि महिलाओं पर होने वाले अन्य यौन अपराधों को भी उसमें शामिल किया जा सके.’

दिल्ली में हुई इस नृशंस घटना से गुस्साए कई लोग यह मांग कर रहे हैं कि अपराधियों को सऊदी अरब की तरह सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या हम एक ऐसे देश के कानून को आदर्श बनाने की मांग कर रहे हैं जहां आज तक महिलाओं को वोट देने और गाड़ी चलाने तक के अधिकार नहीं दिए गए हैं और जिस देश में 2012 में हुई आखिरी फांसी जादू-टोना करने के आरोप में दे दी गई थी. जस्टिस सच्चर समेत कई कानूनी जानकारों का मानना है कि निश्चित ही महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित कानूनों में सुधार की जरूरत है लेकिन फांसी को बढ़ावा देना समस्या का समाधान नहीं बल्कि राज्य को भी बर्बर बनाने की ही एक पहल होगी.

क्या नाबालिग आरोपित को भी बाकियों जैसी सख्त सजा हो?
16 दिसंबर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार का एक आरोपित 18 साल से कम उम्र का होने के चलते ‘किशोर अपराधी’ की श्रेणी में आता है. इसलिए उसे अन्य अपराधियों की तरह फांसी या आजीवन कारावास से दंडित नहीं किया जा सकता. इस तथ्य ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है जिसमें किशोर की उम्र को 18 साल से घटाकर 16 साल किए जाने की मांग हो रही है. तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार सरकार के अलावा सैकड़ों संगठन केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज चुके हैं कि अधिनियम में संशोधन करके किशोर की आयु को घटाकर 16 साल किया जाए.

वैसे किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के तहत किशोर (जुवेनाइल) की आयु 16 साल ही तय की गई थी. 2000 में बाल अधिकारों पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन के बाद इस अधिनियम में बदलाव किया गया और इसे 18 साल कर दिया गया. इस अधिनियम में संशोधन भी हुए हैं लेकिन किशोर की उम्र को हमेशा ही 18 साल रखा गया. इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के किसी किशोर को उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए तीन वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती. साथ ही किशोर अपराधियों को अन्य अपराधियों के साथ जेल में रखने के बजाय बाल सुधार गृह में रखा जाता है.

अब इस पर बहस हो रही है. सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता संजय पारिख किशोर की उम्र को घटाकर 16 साल करने के पक्ष में हैं. वे कहते हैं, ‘कई वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के तर्क भी बताते हैं कि आजकल के किशोर तुलनात्मक रूप से जल्दी परिपक्व हो जाते हैं. उन्हें इतने माध्यमों से सूचनाएं और जानकारियां मिल रही हैं कि 16 वर्ष की उम्र में वे तय कर सकते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह सही है या नहीं. तकनीक का विकास इसका एक महत्वपूर्ण कारण है.’ उधर, विधि प्रवक्ता संतोष शर्मा मानते हैं कि तकनीक जितनी तेजी से युवाओं को सकारात्मक दिशा में प्रभावित कर रही है उतनी ही तेजी से उन्हें गलत दिशा में भी झोंक रही है और गलत कार्यों के लिए आकर्षित कर रही है. वे कहते हैं, ‘16 से 18 साल की आयु ऐसी होती है जहां बच्चे आसानी से अपने माहौल और अपने आसपास के लोगों के व्यवहार से प्रभावित होते हैं. ऐसे में उनकी किसी भी गलती के लिए उनका समाज भी उतना ही दोषी है.’

भारतीय कानूनों के अनुसार एक वयस्क नागरिक को दिए जाने वाले सभी अधिकार 18 साल की उम्र के बाद ही दिए जाते हैं. ऐसे में कई लोगों का यह भी मानना है कि जब अधिकारों के लिए एक व्यक्ति को 18 साल में परिपक्व माना जाता है तो फिर उसकी गलतियों के लिए उसे 16 साल में ही परिपक्व कैसे माना जा सकता है. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी कहती हैं, ‘एक मामले के आधार पर कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जो आने वाले वक्त में अन्याय का कारण बन जाए. कल यदि कोई 15 या 14 साल का बच्चा ऐसा ही जघन्य अपराध करता है तो इस आयु सीमा को कहां तक कम करेंगे? बच्चों में सुधरने की प्रबल संभावनाएं होती हैं जिसका उन्हें पूरा मौका दिया जाना चाहिए. यदि उन्हें भी बाकी अपराधियों के साथ जेल में डाल दिया जाए तो उनके सुधरने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी.’ हालांकि वे यह भी मानती हैं कि इस मामले में जिस क्रूरता से अपराध किया गया है उसे देखते हुए सभी आरोपितों को कड़ी-से-कड़ी सजा होनी चाहिए.

भारतीय कानूनों के अनुसार एक वयस्क नागरिक को दिए जाने वाले सभी अधिकार 18 साल की उम्र के बाद ही दिए जाते हैं.

किशोर के आयु निर्धारण पर हो रही इस बहस को काफी हद तक सुलझाते दिखते संतोष शर्मा कहते हैं, ‘जैसे दहेज के मामलों में सात साल की समय सीमा तय की गई है वैसे ही यहां भी एक सीमा तो तय होनी ही है. भारतीय दंड संहिता में व्यक्ति की आयु को कई वर्गों में बांटकर यह देखा जाता है कि अपराध करते वक्त उसकी समझ और अन्य कारक क्या थे और फिर उसी आधार पर सजा निर्धारित की जाती है. ऐसा ही किशोर आरोपितों से जुड़े मामलों में भी किया जा सकता है. इस तरह से विशेष श्रेणियों में बांटकर न तो जघन्य अपराध करने वाले किशोर अपराधी पूर्णतः प्रतिरक्षित रह सकेंगे और न ही किसी अबोध किशोर को अनावश्यक दंड मिलेगा.’

बहरहाल जो भी कानून बनेगा उससे दिल्ली मामले का यह किशोर आरोपित प्रभावित नहीं होगा कि इस कानून को पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता. यह आगे के लिए ही प्रभावी होगा.

क्या बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर की जानी चाहिए?
दामिनी, जागृति, अमानत, निर्भया जैसे कितने ही नामों से लोगों ने उस 23 साल की लड़की को जाना और लाखों की संख्या में उसके लिए न्याय की मांग करते हुए सड़कों पर उतर आए. उसका असली नाम, उसकी पहचान इसलिए भी महत्वपूर्ण नहीं थी क्योंकि उसकी जगह देश की कोई भी आम लड़की हो सकती थी. बिना उस लड़की का नाम जाने, बिना उसकी पहचान जाने ही हजारों लोगों ने एक साथ मिलकर उसके अपराधियों को सजा देने की मांग करते हुए लाठी-डंडे भी खाए और तेज पानी की बौछारें भी झेलीं. उस लड़की के गुजर जाने के बाद जब कुछ अखबारों ने उसका असली नाम प्रकाशित कर दिया तो यह पूरे देश में बहस का एक मुद्दा बन गया. कांग्रेस नेता शशि थरूर ने उसकी असली पहचान उजागर होने का समर्थन करते हुए इस बात की पैरवी की कि यदि उसके अभिभावक तैयार हों तो नए कानून को उस बहादुर लड़की के नाम पर बनाया जा सकता है. लड़की के परिजनों ने भी इस बात पर सहमति जताई है कि यदि नए कानून का नाम उनकी बेटी के नाम पर रखा जाता है तो इससे उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

मौजूदा कानून के अनुसार बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसे मामलों में पीड़ित की पहचान उजागर करना प्रतिबंधित एवं दंडनीय है. यदि पीड़ित की मृत्यु हो गई है तो उसके परिजनों की लिखित अनुमति पर उसकी पहचान उजागर की जा सकती है. कई लोगों का तर्क है कि बलात्कार जैसी घटना किसी के साथ भी हो सकती है और इसमें पीड़ित का कोई भी दोष नहीं, तो फिर उसकी पहचान गुप्त क्यों रखी जाए. उनके मुताबिक बलात्कार के मामले में पीड़िता और उसके परिजनों को नहीं बल्कि अपराधी और उसके परिजनों को शर्मिंदा होना चाहिए. जैसे रंगा-बिल्ला मामले के पीड़ित गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा के नाम पर बहादुरी पुरस्कार दिया जाता है वैसे ही इस लड़की के नाम पर नए कानून बनाए जाने की मांग हो रही है.

जानकार बताते हैं कि फिलहाल ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर कानून को किसी व्यक्ति विशेष का नाम दिया जाए, लेकिन संसद में प्रस्ताव पारित करके ऐसा किया भी जा सकता है. इस बहस से ये सवाल भी उठने लगे हैं कि बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान उजागर करने के क्या प्रभाव हो सकते हैं. जस्टिस सच्चर कहते हैं, ‘दिल्ली का यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित हो चुका है इसलिए लोगों की सहानुभूति पीड़ित और उसके परिजनों के साथ है. लेकिन बलात्कार के मामलों में आज भी समाज पीड़ित को एक आम नागरिक की तरह नहीं स्वीकार करता इसलिए उसकी पहचान उजागर करने की प्रथा शुरू नहीं होनी चाहिए’.

बलात्कार के मामलों में अधिकतर जगह पीड़िता को ही किसी न किसी तरह से दोषी मान लिया जाता है. दिल्ली के इस चर्चित मामले में भी जहां सारा देश ऐसे अपराध की निंदा कर रहा है, कई बड़े नेता और धर्मगुरु पीड़िता के ही गलत होने की बात कर चुके हैं. ऐसे में बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर करने के और भी ज्यादा दुष्परिणाम हो सकते हैं. पीड़िता की पहचान के साथ ही उसके व्यवहार, उसकी जीवन शैली, पहनावे, परिवार, संस्कार, जाति समेत तमाम मुद्दों को ऐसे लोगों द्वारा चर्चा का विषय बनाया जाएगा जो किसी भी तरह से पीड़िता में ही दोष खोजने को तैयार बैठे हैं. संजय पारिख कहते हैं, ‘पीड़िता की पहचान करके हम उसकी मुश्किलें और ज्यादा बढ़ा देंगे.’

बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान को उजागर करने का नियम बनाने से पहले एक अहम सवाल उठता है. क्या हम इसके साथ उसे और उसके परिजनों को वह माहौल भी दे पाएंगे जहां उन्हें इस घटना की वजह से प्रभावित न होना पड़े या जहां उनकी सामाजिक स्वीकार्यता हर तरह से बाकी नागरिकों के बराबर ही हो?      

क्या हम सामाजिक रूप से इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि कोई उम्मीद नहीं जगती?
28 वर्षीय युवक ने अपने बयान में बताया कि उसकी मित्र के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे लोहे की सरियों से पीटा गया और फिर उन्हीं सरियों से उसका पेट फाड़ दिया गया. उसका कहना था, ‘पहचान छुपाने के लिए उन्होंने हमसे हमारा पूरा सामान…मोबाइल…पर्स और कपड़े सब कुछ ले लिया. पूरे कपड़े उतरवा लिए थे और फिर हमें सड़क पर फेंक दिया था. उसके बाद उन्होंने बस से मेरी दोस्त को कुचलने की कोशिश भी की लेकिन मैं उसे खींच कर किनारे ले आया.’ इस वीभत्स सामूहिक बलात्कार के बाद शुरू होने वाले त्रासदियों के सिलसिले के बारे में बताते युवक का कहना था कि वह और उसकी मित्र खून से लथपथ सड़क पर पड़े हुए थे लेकिन 25 मिनट तक कोई भी उनकी मदद के लिए नहीं रुका. उसके शब्दों में, ‘मैं लगातार मदद के लिए हाथ हिलाता रहा…गाड़ियां हमारे पास आकर स्पीड धीमी करतीं और लोग हमें देखते…और फिर देख कर आगे निकल जाते. फिर किसी ने पुलिस को फोन किया. लगभग 45 मिनट बाद तीन पीसीआर वैन आईं. वे लोग आधे घंटे तक इसी बात पर लड़ते रहे कि घटना किसके थाना क्षेत्र में आती है. हम एंबुलेंस का इंतजार करते रहे लेकिन आखिर में हमें पीसीआर वैन में ही अस्पताल जाना पड़ा. किसी ने मेरी दोस्त को हाथ तक नहीं लगाया, मैंने खुद उसे उठा कर गाड़ी में रखा’.

16 दिसंबर की रात हुए इस घटनाक्रम के बाद पीड़िता को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दाखिल करवाया गया था. लगभग 15 दिन के संघर्ष के बाद उसने दम तोड़ दिया. लेकिन हर दिन भारत के आम शहरों और कस्बों में होने वाली बलात्कार की सैकड़ों घटनाओं से इतर देश की राजधानी में हुए इस हिंसा के इस तांडव ने शहरी मध्यवर्ग को झकझोर दिया. पानी की तेज बौछारों से लेकर आंसू गैस के गोलों और बंद मेट्रो स्टेशनों के बावजूद हजारों की तादाद में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे और दिल्ली से लेकर चेन्नई तक पहली बार भारत महिला हिंसा के खिलाफ एक होता नजर आया.

इसके बावजूद इस घटना ने समाज के बदसूरत चेहरे को पूरी निर्ममता से उजागर करने के साथ-साथ कुछ असहज सवाल भी हमारे सामने रखे हैं. पीड़िता के मित्र का बयान एक ओर जहां बलात्कार के बाद की अंतहीन यातना की ओर इशारा करता है वहीं दूसरी ओर आपराधिक स्तर तक संवेदनहीन हो चुके समाज की झलक भी देता है. बलात्कारी के लिए फांसी की सजा के साथ-साथ यौन उत्पीड़न के खिलाफ कड़ी सजा की बढ़ती मांग के बीच स्त्रियों को लेकर मौजूदा सामाजिक नजरिये के संदर्भ में भी गंभीर बहस चल रही है.

वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता संजय पारिख सामाजिक सोच में बदलाव के सवाल पर कहते हैं, ‘सामाजिक सोच में बदलाव लाने का तर्क अपने-आप में बहुत जटिल है. एक तो हमें आम लोगों की सोच में बदलाव लाना होगा और दूसरा जो लोग लोकतंत्र की आधारभूत संरचना को क्रियान्वित करने में शामिल हैं, उनकी सोच बदलना भी जरूरी है. जैसे पुलिसकर्मी, वकील, जज और डाक्टरों की सोच. बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पुलिस एफआईआर तक दर्ज नहीं करती और पीड़िता पर समझौता करने के लिए दबाव बनाती है. डॉक्टर भी पीड़िता के साथ संवेदनशील व्यवहार करने के बजाय उसे परोक्ष रूप से प्रताड़ित करते हैं. वकील जरूरत न होने पर भी क्रॉस एक्जामिनेशन के नाम पर पीड़िता को  बार-बार कोर्ट रूम में अपमानित करते हैं. और तो और, मैंने खुद अपनी कई सुनवाइयों के दौरान जजों तक को महिला-विरोधी टिप्पणियां करते हुए देखा है. अब इन सबकी सोच कौन बदलेगा?’

उधर, दिल्ली गैंगरेप मामले में आवाज बुलंद करने वाली महिला अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन का मानना है कि एक समाज के तौर पर हमारे अंदर स्त्रियों को लेकर बहुत गहरी उपेक्षा और संवेदनहीनता मौजूद है. तहलका से बातचीत में वे कहती हैं, ‘दिल्ली गैंग रेप में बलात्कार के बाद जो कुछ भी हुआ वह बताता है कि हम महिलाओं के साथ-साथ इंसानियत के प्रति भी कितने असंवेदनशील हो चुके हैं. इस घटना और इसके बाद होने वाले सैकड़ों विरोध प्रदर्शनों के दौरान मैंने कई नई चीजें देखीं. उदाहरण के लिए, एक बार हमारे आजादी वाले नारों से एक आदमी परेशान हो गया और उसने मुझसे कहा कि इस तरह तो उसकी बहनें और बेटियां भी आजादी मांगने लगेंगी और इस ख्याल से उसे बहुत परेशानी हो रही है. मुझे लगता है उसके जैसी परेशानी बहुत सारे लोगों को हुई होगी और हमें ऐसी परेशानी का स्वागत करना चाहिए. क्योंकि जब तक ईमानदार मंथन नहीं होगा, चीजें नहीं बदलेंगी और सामाजिक सोच बदलने के लिए अभी हमें शुरू से अंत तक बहुत कुछ बदलने की जरूरत है’.

दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ जारी विरोध में शामिल कुछ समूहों का मानना है कि इन सामाजिक विषमताओं का हल भी समाज में से ही निकल कर आएगा. दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों की नेतृत्व पंक्ति में शामिल ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) के अध्यक्ष संदीप सिंह के अनुसार मौजूदा सोच का विकल्प भी इसी समाज से निकल कर आ रहा है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘इस सामूहिक बलात्कार के बाद पीड़ित घंटों सड़क पर खून से लथपथ पड़े रहे और कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया. यह बताता है कि हमारा समाज कितना अमानवीय हो गया है. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इन सबके बाद इसी समाज ने इस घटना का विरोध भी किया. यही लोग हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे और उन्होंने दिल्ली को महिलाओं के लिए एक सुरक्षित शहर बनाने की मुहिम की शुरुआत की. इस लिहाज से देखें तो इस आंदोलन ने सुन्न कर देने वाली प्रतिस्पर्धा की खाई को पाटकर लोगों को और ज्यादा मानवीय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’                             

‘अगर हम उसे इलाज के लिए सिंगापुर नगृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंहहीं भेजते तो भी आप सवाल करते’

पिछले दिनों देश की राजधानी में एक बस में हुए सामूहिक बलात्कार ने जनता की चेतना को झकझोर कर रख दिया. इस हादसे ने पुलिस और प्रशासन पर कई सवाल खड़े किए गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह से जवाब तलाशते अशर खान.

आपको नहीं लगता है कि तमाम अपराध मानसिकता की समस्या हैं? महिलाओं को लेकर पुरुषों का नजरिया एक समस्या है और इसमें बदलाव आना चाहिए?
सरकार और पुलिसकर्मियों को उतना ही जिम्मेदार मानने के साथ मैं सोचता हूं कि आप जो कह रहे हैं उस पर व्यापक तौर पर विचार करना होगा. खास तौर पर जिस तरह से महिलाएं सामने आई हैं और उन्होंने अपने बुरे अनुभव बांटे हैं उससे पता चलता है कि हमें इस ओर वास्तव में ध्यान देना होगा. मैं कहीं पढ़ रहा था कि दलाई लामा ने कहा था कि पश्चिम में नैतिकता की शिक्षा के लिए बाकायदा कक्षा लगती है. लेकिन हमारे यहां इसे तवज्जो नहीं दी जाती. करीब 10,000 साल पहले नैतिकता भारत में बहुत बड़ी चीज थी. यह हमारी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा थी. लेकिन हम इसे भूल गए और मेरे विचार से अब वक्त आ गया है कि हम भुलाए जा चुके इस सबक को दोबारा सीखें.

दिल्ली में हाल ही में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद सरकार ऐसी घटनाओं का दोहराव रोकने के लिए क्या उपाय कर रही है?
हमने दिल्ली को सुरक्षित बनाने के लिए कई उपाय किए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि जिस तरह दिल्ली के लोग सड़कों पर आए हैं उससे साबित हुआ है कि दिल्ली की सड़कों पर महिलाओं की सुरक्षा किस कदर संकट में है. हमने दो समितियों का गठन किया है जो एक तय समय के भीतर रिपोर्ट सौंपेंगी. एक समिति कड़े कानूनों की जरूरत पर नजर डालेगी, जबकि दूसरी यह जांच करेगी कि उस हौलनाक रात को आखिर ठीक-ठीक क्या हुआ था. क्या सरकारी स्तर पर कोई शिथिलता थी और भविष्य में ऐसा कुछ रोकने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है.

दिल्ली की सड़कों पर तमाम विरोध प्रदर्शन देखने को मिले, लेकिन प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े गए और पानी की बौछार की गई. सरकार इस बात की क्या सफाई देगी?

न केवल मैं बल्कि पूरी सरकार उस गुस्से के साथ थी जिसका प्रदर्शन लोग कर रहे थे. यही वजह है कि हमने कड़े कदम उठाए हैं. मैंने कई दफा माफी मांगी और एक बार फिर उन निर्दोष प्रदर्शनकारियों से क्षमा मांगता हूं जो पुलिस कार्रवाई में घायल हुए. लेकिन हमें चीजों को सही संदर्भ में रखना होगा. मैं फिर कहूंगा कि 99 फीसदी प्रदर्शनकारी तो शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले थे जबकि बाकी बचे एक फीसदी तमाम गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार थे. यहां तक कि एक पुलिसकर्मी को अपनी जान गंवानी पड़ी. कई पुलिसकर्मियों को सिर पर चोटें आईं. सरकारी संपत्ति जलाई गई, कारें पलट दी गईं और बैरिकेड तोड़े गए. इन एक फीसदी लोगों ने माहौल खराब किया. मैं एक बार फिर उन मासूम लोगों से माफी मांगता हूं जिनका कोई दोष नहीं था लेकिन जो पुलिस कार्रवाई के शिकार हुए.

चूंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है तो ऐसे में आप कैसे सुनिश्चित करेंगे कि पुलिस व्यवस्था चाक चौबंद हो?
उस घटना के बाद मैंने एक रात चुपचाप बस में सफर किया. मैंने बस में सफर कर रहे लोगों से बात की और मैं पुलिस व्यवस्था के खिलाफ उनका गुस्सा अच्छी तरह समझ सकता हूं. यही वजह है कि मैंने मंत्रालय के अधिकारियों और अपने वरिष्ठ मंत्री से बात की. हमने ऐसे कदम उठाए हैं जिनकी मदद से उन समस्याओं को दूर किया जा सके जिनको मैं जान पाया. मैं आगे भी इस तरह की बस यात्राएं करता रहूंगा. साथ ही मैं शहर के थानों का भी चुपचाप दौरा करूंगा ताकि मुझे पता चले कि आम लोग किन हालात से गुजरते हैं.

ऐसे भी आरोप हैं कि पीड़िता को सिंगापुर इसलिए भेजा गया ताकि विरोध प्रदर्शन से ध्यान हटाया जा सके.
हमने पीड़िता को सिंगापुर इसलिए भेजा ताकि उसे सबसे बेहतर चिकित्सा मुहैया कराई जा सके. अगर हम उसे नहीं भेजते तो आप मुझसे पूछ रहे होते कि हमने उसे क्यों इलाज के लिए कहीं और नहीं भेजा. हमने उसे सिंगापुर इसलिए भेजा क्योंकि दिल्ली के सबसे नजदीक वहीं इतनी अच्छी चिकित्सा सुविधाएं थीं. हमने उसे बचाने की हर संभव कोशिश की लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो सका.

पीड़िता के अंतिम संस्कार को गोपनीय क्यों बनाया गया?
जहां तक अंतिम संस्कार की बात है, तो परिवार को इत्तला कर दी गई थी. परिवार ने यह तय किया कि अंतिम संस्कार कहां होगा. मैं अंतिम संस्कार में मौजूद था और उन्हें समूचे धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ अंजाम दिया गया. यह एक निहायत दुखद मामला था. वहां कोई गोपनीयता नहीं बरती गई.

बाहर निकली तो खबरदार

 

तहलका के स्त्री विशेषांक के लिए स्त्री आधुनिकता पर लिखते हुए यह एहसास तक नहीं था कि इसी बीच एक ऐसी सुन्न कर देने वाली घटना हमारे सामने आएगी जिससे अचानक स्त्री की आजादी का मुद्दा एक भयावह और वीभत्स अनुभव वाले इलाके में दाखिल हो जाएगा जिससे आंख मिलाते भी हमें कुछ असुविधा होगी. 16 दिसंबर की रात दिल्ली की एक बस में एक लड़की के साथ हुए वहशी सलूक के अंधेरे में और उस पर पैदा राष्ट्रव्यापी गुस्से की रोशनी में कई नए सवाल हमारे सामने हैं.

पहली बात तो यह कि इस पूरे प्रसंग ने फिर से याद दिलाया है कि समाज में स्त्री को अब तक बराबरी और सम्मान के साथ देखने का अभ्यास नहीं है. वह एक ऐसी उपस्थिति है जो घर-परिवार में पिताओं और भाइयों की सदाशयता के सहारे सुरक्षित रह सकती है और बाहर निकलती है तो उसे छींटाकशी से लेकर बलात्कार और हत्या तक झेलने पड़ सकते हैं. निर्भया के साथ हुए सलूक पर देश भर में लड़कियों का जो गुस्सा दिखा वह सिर्फ एक बलात्कार पर नहीं, इस नितांत निजी अनुभव पर भी था कि हर रोज सड़क पर निकलते हुए वे भी किसी दामिनी जैसी ही असुरक्षित होती हैं और उन्हें रोज जो तिल-तिल यातना झेलनी पड़ती है वह किसी भी दिन बलात्कार जैसी खौफनाक वारदात में भी बदल सकती है. इस गुस्से का सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि लड़कियां पहली बार अपनी आजादी के हक में इतनी उग्रता के साथ खड़ी हुई हैं और पहली बार वे बलात्कार जैसे डरावने अनुभव से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. पहली बार इस खुलेपन के साथ यह कहा जा रहा है कि बलात्कृता अपराधी नहीं होती, उसकी इज्जत नहीं जाती,  इज्जत उनकी जाती है जो यह अपराध करते हैं.

यह सवाल जायज है कि जिस देश में हर 18 मिनट पर एक बलात्कार होता हो, वहां सिर्फ एक घटना ने इतनी प्रतिक्रिया पैदा की तो क्या इसलिए कि यह वाकया दिल्ली का था, ऐसी लड़की के साथ हुआ था जो अपने दोस्त के साथ फिल्म देखकर निकल रही थी और उस बस में हुआ था जिसमें दिल्ली की लड़कियां रोजाना सफर करती हैं. अगर गहराई से देखें तो यह पूरा प्रसंग अपने खौफनाक ब्योरों के साथ बहुत सारे ऐसे बिंदु समेटे हुए है जो भारत में स्त्रीत्व की दुखती हुई रगों को बहुत भीतर तक छूते हैं. कायदे से बहुत सारे लोग शायद ऐसी बस में बैठने से बचते, बैठने के बाद छींटाकशी होने पर वे बदमाशों से लड़ने की जगह बस से उतरने की कोशिश करते, बहुत सारी लड़कियां अपनी लड़ाई शायद उस तीखेपन से नहीं लड़ पातीं जिससे उस जांबाज लड़की ने लड़ी. हम इसे ही समझदारी मानते हैं, इसी के तहत सड़क के शोहदों से उलझने से बचते हैं और शाम ढलते बेटियों को घर लौटने की हिदायत देते हैं. लेकिन 16 दिसंबर की रात इस समझदारी का व्याकरण बिल्कुल दूसरा था. लड़की अपने दोस्त के साथ फिल्म देखने के बाद बस में बैठी, लड़की पर छींटाकशी के बाद दोस्त ने शोहदों से झगड़ा मोल लिया. लड़की ने भी बिल्कुल बराबरी की लड़ाई लड़ी- अपने हाथों से, नाखूनों से, दांतों से. यह दुस्साहस ही इतना नागवार गुजरा कि बदमाशों ने इस लड़की के साथ बेरहमी भरा सलूक किया. कुल मिलाकर देखें तो यह लड़ाई अनायास बराबरी के लिए, अधिकार के लिए, शाम ढले घर से निकलने, अपने दोस्त के साथ घूमने की आजादी के लिए लड़ी गई एक मर्मांतक लड़ाई में बदल गई, जिसमें लड़की ने घुटने नहीं टेके, अपनी जान गंवाई.

शायद यही वह साहस है जो लड़ते-लड़ते मारी गई इस लड़की ने जंतर-मंतर से लेकर इंडिया गेट और दूसरे शहरों के चौराहों पर उतरी लड़कियों को दिया है. इस घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं तीन तरह की हैं. एक तो वाकई उन लड़कियों की प्रतिक्रिया है जो निर्भया में अपनी छवि देख रही हैं और महसूस कर रही हैं कि घर से बाहर निकलने और बराबरी हासिल करने के लिए इस अन्याय का प्रतिकार जरूरी है. दूसरी प्रतिक्रिया मीडिया और कुछ वैसे संगठनों की है जो इन लड़कियों के पक्ष में खड़े हैं लेकिन जिनकी अपनी जरूरतें उन्हें इस प्रतिक्रिया को चोरी-छिपे अपने हक में इस्तेमाल करने को उकसा रही हैं. इस पूरे आंदोलन के दौरान वास्तविक गुस्से को नकली नारेबाजी में, और प्रतिरोध के मुद्दों को विरोध की मुद्रा में तब्दील करने की कोशिश भी दिखी. बलात्कारियों को सरेआम फांसी या उनका रासायनिक वंध्याकरण या फिर बलात्कार के लिए कड़ी सजा के एलान की मांग ऐसी ही जड़ों से उखड़ी मांग थी. रातों-रात न्याय लेने के उत्साह में यह समझने का धीरज खो जाता है कि ऐसा तुरंता और लोकप्रियतावादी न्याय, व्यवस्थाओं और वर्चस्ववादियों को रास आते हैं क्योंकि इसकी आड़ में वे अपने ज्यादा बड़े अन्यायों का सिलसिला जारी रख सकते हैं.

बहरहाल, तीसरी प्रतिक्रियाएं ऐसे ही वर्चस्ववादियों की थीं जिनका वैचारिक आसन इन लड़कियों के तेवरों से डोलता दिखा. आसाराम बापू, मोहन भागवत, रामदेव और अबू आजमी जैसे लोग फौरन लड़कियों के लिए अपने-अपने उपदेश लेकर चले आए- उन्हें लड़कों के साथ नहीं घूमना चाहिए, देर रात बाहर नहीं रहना चाहिए, बदमाशों के बीच पड़ जाने पर विरोध नहीं करना चाहिए, अबला होने की दुहाई देनी चाहिए, दया की भीख मांगनी चाहिए आदि-आदि. इन वर्चस्ववादियों को लड़कियों के लिए बराबरी, सम्मान या अधिकार का सवाल पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी लगने लगता है. अपने दोस्त के साथ फिल्म देखकर बस से घर लौट रही दामिनी ने दरअसल इसी व्यवस्था को चुनौती दी और इसकी सजा भुगती. बलात्कारियों को तो हम फांसी दे दें, ऐसे छलात्कारियों का क्या करें जो कहीं दबी और कहीं ऊंची आवाज में इस मामले में लड़की की गलती भी देख रहे हैं?     

 

युद्धोन्माद की पत्रकारिता

एक बार फिर टीवी स्टूडियो, अखबारों और सोशल मीडिया में युद्ध के नगाड़े बजने लगे हैं. न्यूज चैनलों और अखबारों में सेना के रिटायर्ड जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों से लेकर शिवसेना नेताओं की मांग बढ़ गई है. चैनलों के प्राइम टाइम बहसों में मोर्चाबंदी हो गई है. तने चेहरों, भिंचे जबड़ों और मुंह से झाग फेंकते एंकरों से लेकर ट्विटर और फेसबुक वीरों की देशभक्ति उबाल मार रही है. वे कोई भी लाइन ऑफ कंट्रोल मानने को तैयार नहीं हैं. खुद उनके मुताबिक, उनके बर्दाश्त की सीमा पार हो चुकी है. वे देश को झकझोर रहे हैं. सरकार को ललकार रहे हैं.

वे सभी चाहते हैं कि पाकिस्तान को उसकी धोखाधड़ी के लिए सबक सिखाया जाए. हालांकि शिवसेना नेताओं और फेसबुकिया वीरों को छोड़कर कोई भी सीधे पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने की बात नहीं कर रहा है, लेकिन चैनलों से लेकर अखबारों तक में खबरों या बहसों के एंगल, भाषा और तेवर से साफ है कि वे युद्ध से कम कुछ भी नहीं चाहते हैं. सच यह है कि उनका वश चलता तो भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक युद्ध शुरू हो चुका होता. हमेशा की तरह इस युद्धोन्मादी ब्रिगेड की अगुवाई टाइम्स नाऊऔर उसके एंकर जनरल अर्नब गोस्वामी कर रहे हैं. लेकिन इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है.

खबरों में तथ्य पीछे छूट गए हैं. उन्हें चुनिंदा संदर्भों में पेश किया जा रहा है और असुविधाजनक सवालों को अनदेखा किया जा रहा है

नतीजा सबके सामने है. पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, संतुलन आदि को इस युद्ध में सबसे पहले कुर्बान किया जा रहा है. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है, लेकिन एक बार फिर खबर और विचार के बीच का फर्क मिट गया है. खबर पर विचार हावी है और विचार पर उन्माद सिर चढ़कर बोल रहा है. आश्चर्य नहीं कि खबरों में तथ्य पीछे छूट गए हैं, उनकी जांच-पड़ताल और छानबीन का काम गुनाह बन गया है, उन्हें चुनिंदा संदर्भों में पेश किया जा रहा है और असुविधाजक तथ्यों, सवालों और संदर्भों को अनदेखा किया जा रहा है.

ऐसा लगता है जैसे सभी चैनलों-अखबारों और उनके एंकरों और रिपोर्टरों की देशभक्ति का टेस्ट हो रहा है जिसमें फेल होने का जोखिम उठाने को कोई तैयार नहीं है. देशभक्ति के इस टेस्ट में तथ्य-तर्क, विवेक और संयम की बात करने का मतलब फेल होना है. खबरें सिर्फ सेना या रक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों पर निर्भर हैं और उनकी स्वतंत्र सूत्रों से पुष्टि या छानबीन का जोखिम उठाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है. इस माहौल में सवाल उठाना कुफ्र के बराबर है. खासकर हाल में एलओसी पर पाकिस्तान के साथ सैन्य झड़पों के बारे में सेना के बयान, भूमिका और आम तौर पर उसके कामकाज से जुड़े मुद्दे किसी भी तरह के सवाल और जांच-पड़ताल से दूर रहने वाली देशभक्त और युद्धोन्मादी पत्रकारिताके दायरे से बाहर हैं.

यह सही है कि ऐसी ही देशभक्त और युद्धोन्मादी पत्रकारितासरहद के पार भी हो रही है. लेकिन सवाल यह है कि इस पत्रकारिता से किसे फायदा हो रहा है और इसकी कीमत कौन चुका रहा है. क्या यह दोनों ओर का युद्धोन्मादी न्यूज मीडिया या जेहादी और सांप्रदायिक अंध-राष्ट्रवादी जमातें या हथियार कंपनियां और उनके एजेंट या फिर भ्रष्टाचार-महंगाई-कुशासन के गंभीर आरोपों से घिरी सरकारें नहीं हैं जो अंदर-अंदर सबसे ज्यादा खुश और गदगद हैं? पी साईंनाथ के शब्दों में थोड़ा हेरफेर करके कहें तो यही कारण है कि युद्ध की संभावनाओं से सभी प्यार करते हैं.

क्या कहानी का भी खून माफ होगा?

फिल्म » मटरू की बिजली का मंडोला  

निर्देशक» विशाल भारद्वाज    

लेखक » अभिषेक चौबे, विशाल भारद्वाज                         

कलाकार » पंकज कपूर, शबाना आजमी, इमरान खान, अनुष्का शर्मा, आर्य बब्बर  

‘मटरू’ उम्मीदों से शुरू होती है. खेत के बीच में शराब के ठेके के एक दृश्य से, जो अपने आप में कुछ खास नहीं है, लेकिन जो आपको वे संभावनाएं दिखाता है, जिनमें विशाल भारद्वाज ऐसे ही एक परिवेश में आपको दुनिया की सबसे बड़ी त्रासद कथाओं में से एक के दुख में डुबो ले गए थे, हंसते-हंसते. 

कोशिश तो फिल्म करती है कि पीपली लाइव जैसी फिल्मों की तरह सिस्टम और मीडिया पर हंस सके और चोट भी करे लेकिन ‘मटरू’ उस गहराई का अंदाजा भी नहीं लगा पाती, जाती तो बाद में. फिल्म इस गुमान में है कि वह किसानों की जमीन के अधिग्रहण पर एक सैटायर बन जाएगी लेकिन समस्या और समाधान तो दूर है, यह एंटरटेनमेंट भी नहीं हो पाती. यह कुछ पुराने चुटकुलों और थोड़े बहुत टॉयलेट ह्यूमर का इस्तेमाल करके बार-बार फूहड़ हिंदी कॉमेडी फिल्मों की दिशा में जाने की पूरी कोशिश करती है और कई दफा कामयाब भी होती है. 

एक अच्छा सीन है, जिसमें शबाना खुद को भारत कहते हुए भारत की कहानी बताती हैं या शुरू का एक दृश्य जिसमें पंकज शराब पीकर गांववालों को अपने विरुद्ध ही आंदोलन करने के लिए उकसाते हैं और आपको लगता है कि कुछ होगा इस फिल्म में. आपके साथ जो बैठा है, आप उसे उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं, वो आपको, कि जिस विशाल के सिनेमा से आपने कभी मोहब्बत की थी, बरसों बाद वह लौटा है. लेकिन लौटता नहीं. लौटती हैं ऑक्सफोर्ड से अनुष्का, जो एक गेंद ढूंढ़ने के लिए गांव के तालाब में शॉर्ट्स पहनकर नहाती हैं और हुजूर, यह हरियाणा का ही कोई गांव बताया गया है, जिसमें चारों तरफ बैठे आदमी उसे देखकर तालियां बजा रहे हैं. स्वर्ग आने को है. 

फिल्म के अधिकतर किरदारों का नकली हरियाणवी टोन आपको अक्सर कोफ्त देता है. हैरी मंडोला और पीकर हरिया बने पंकज कपूर ने कमाल की ऐक्टिंग की है. लेकिन मंडोला और उसके खिलाफ लड़ने वाले (और अच्छे ऐक्टर) गांव के मास्टर को छोड़कर कोई मुख्य किरदार उस जगह का नहीं लगता जहां की यह कहानी है. शबाना और आर्य बब्बर का काम भी अच्छा है. फिल्म में एक बासी प्रेमकहानी भी है जिसकी लड़की पिता की मर्जी से शादी कर रही है और रो रही है कि उसका बहादुर प्रेमी उसे ले जाने आए.

यह अपनी कहानी में बहुत सारी जगह उस दिशा की फिल्म हो जाती है जिसके खिलाफ विशाल का शुरुआती सिनेमा लड़ा है. यह रिग्रेसिव है क्योंकि हरियाणा के किसानों की कहानी कहते हुए यह वहां की औरतों की तरफ देखती भी नहीं और एक बड़ी समस्या को डीडीएलजे समाधान देते हुए हंसी में उड़ा देती है. यह कहीं आपको जरा-सा भी परेशान नहीं करती. इसके लेखक अपनी कहानी, उसके गांव और उसके किरदारों के साथ ईमानदार नहीं रहे. इसके डायलॉग दिखावटी ज्यादा हैं और कई जगह, जहां ‘माओ लेनिन’ चिल्लाकर लाउड होकर ही सही, थोड़ा-बहुत सार्थक कहने की गुंजाइश रखते थे, फिल्म का निर्देशन इसे ले डूबता है.

-गौरव सोलंकी

‘अकबरुद्दीन अतिवादी मीडिया के शिकार हो गए हैं’

अकबरुद्दीन ओवैसी का जो बयान है, आप उससे इत्तेफाक रखते हैं? 

देखिए, जो भाषण है मैं उस पर कोई बयान नहीं दे सकता क्योंकि यह मामला अदालत में  है. उम्मीद है कि कोर्ट हमें न्याय देगा. उनकी दो तकरीरें हुई थीं. एक निजामाबाद में और दूसरी निर्मल में. निजामाबाद का जलसा आठ दिसंबर को हुआ और 24 दिसंबर को निर्मल में जलसा हुआ. उसके 22 दिन बाद मामला दर्ज हुआ. मान लिया जाए कि निजामाबाद में उन्होंने भड़काऊ बयान दिया था, तो उन्हें निर्मल में जलसे की इजाजत क्यों दी गई? दूसरी बात यह कि यहां अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग पैमाने अपनाए जा रहे हैं. यह बहुत खतरनाक है. अगर उनकी स्पीच भड़काऊ है तो फिर मुझे बताइए कि 1991 में किसने कहा था कि एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो. जिस बाल ठाकरे ने मुसलमानों को इस देश का कैंसर कहा था, उसकी मौत पर उसे पूरा राजकीय सम्मान क्यों दिया गया? मैं मुसलमान हूं तो मेरे खिलाफ दूसरा कानून चलेगा और बाकियों के खिलाफ दूसरा?

आप यह कह रहे हैं कि व्यवस्था ईमानदारी से अपना काम नहीं कर रही है इसलिए उन्होंने ये सारी बातें कहीं? 

मैं आपसे कहूंगा कि अकबरुद्दीन ओवैसी मीडिया के शिकार हो गए हैं. वही मीडिया जो बाल ठाकरे की मौत का 24 घंटे लाइव प्रसारण करता है.  

देखिए, व्यवस्था से किसी को भी एतराज हो सकता है. नक्सली भी भारतीय व्यवस्था को चुनौती देते रहते हैं. लेकिन किसी धर्म को निशाना बनाना और उसे व्यवस्था से जोड़ना कहां तक ठीक है? 

आप यह बताइए, 153ए, 295 धाराएं आपने लगाईं, ठीक है हम कोर्ट में लड़ेंगे. लेकिन 121 आईपीसी आपने कैसे लगाया कि हम हिंदुस्तान से बगावत कर रहे हैं. आप मुसलमानों को क्या पैगाम दे रहे हैं कि मुसलमान मुल्क से जंग कर रहा है. 

व्यवस्था से विरोध हो सकता है, लेकिन उनकी तकरीर में हिंदू धर्म के प्रति जो भद्दी बातें की गईं, उससे लगता है कि उनके मन में धर्म विशेष के खिलाफ ही कड़वाहट है.

देखिए, मैंने आपसे पहले ही कह दिया है कि उनकी तकरीर में क्या था, मैं उस पर बात नहीं करूंगा. इस पर फैसला अब कोर्ट को करना है. जहां तक मेरा और मेरी पार्टी का सवाल है तो हम न किसी मजहब के खिलाफ हैं, न रहे हैं, न आगे कभी रहेंगे. हमारी लड़ाई फिरकापरस्त ताकतों के खिलाफ है. 

अकबर ने राम के जन्म और उनकी माता कौशल्या को लेकर एक तरह की अश्लील टिप्पणी की है. यह ऐसा है जैसे कोई कुरान पर सवाल खड़ा करे या कोई पैगंबर मुहम्मद के वजूद को नकारे.

देखिए, आप बार-बार तकरीर के कंटेंट पर आ जाते हैं. आप यह क्यों भूल जाते हैं राम जेठमलानी ने भी राम के ऊपर कुछ बातें कही हैं. डीएमके के प्रमुख करुणानिधि ने भी राम के ऊपर सवाल खड़ा किया है. उन्हें किसी ने क्यों गिरफ्तार नहीं किया? 

इसमें अंतर है. अपने व्यक्तिगत दायरे में कोई अपनी राय रख सकता है लेकिन कोई इस तरह की बात किसी तरह का सियासी फायदा उठाने के लिए करे तो वह गलत बात है. 

मैं फिर वही कह रहा हूं कि इसका फैसला कोर्ट करेगा. 

दो घंटे की उनकी तकरीर में मुसलमानों की दुर्दशा, उनकी तरक्की, उनकी शिक्षा, उनकी बेहतरी पर कोई बात सुनने को नहीं मिलती. 

ये सारी बातें उन्होंने कही हैं. मैं आपको भेजता हूं उनकी तकरीरें. यहां हैदराबाद में हम मेडिकल कॉलेज, दवाखाने, स्कूल, कॉलेज सब कुछ चलाते हैं. 

सवाल यह है कि जब आप इस तरह की भड़काऊ बातें करते हैं तो कुछ जगहों पर आपको इसका फायदा मिल सकता है. लेकिन जहां मुसलमान कम संख्या में हैं वहां स्थितियां बहुत कठिन हो जाती हैं. 

किसी के जान-माल की रक्षा करना किसी सरकार की जिम्मेदारी है या नहीं? मेरी या मेरे भाई की किस तकरीर ने गुजरात में फसाद करवा दिए. अखिलेश यादव की हुकूमत में फसाद हो गए, क्या मेरी वजह से हो गए? हुकूमत की जिम्मेदारी है कि वो अपने नागरिकों के जान-माल की रक्षा करे. कहना आसान है कि मेरी वजह से दंगा हो गया. मैं मानता हूं कि कोर्ट को आपसे और मुझसे ज्यादा कानून पता है. 

आप यहां यह कहेंगे कि एमआईएम दो समुदायों के बीच खाई पैदा करने वाली किसी भी चीज का समर्थन नहीं करता और निर्मल में जो भी कहा गया वह सही नहीं था?

नहीं, देखिए आप घुमा-फिराकर एक बात कहलवाना चाहते हैं. मैं इस पर कुछ नहीं कहूंगा. आज की तारीख में हैदराबाद में मेरे पास सबसे ज्यादा कॉरपोरेटर हैं. पिछले पांच सालों में तीन बार तो हमने दलितों को हैदराबाद का मेयर बनाया है. हम अपनी लड़ाई हिंदुस्तान के कायदे-कानून के तहत रहकर लड़ेंगे. हम इसके बाहर नहीं हैं. हां, फिरकापरस्ती का विरोध हम करते रहेंगे. यह लड़ाई न तो मुल्क से है न किसी धर्म से है.