बदनाम बैतूल

महिलाओं की सुरक्षा के मामले में देश की राजधानी दिल्ली हमेशा ही चर्चा के केंद्र में रही है. लेकिन दिल्ली से ठीक एक हजार किलोमीटर दूर एक जगह ऐसी भी है जिसे बलात्कारों की राजधानी कहा जाने लगा है. यह जगह है देश के नक्शे पर लगभग बीचोबीच और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की नाक के ठीक नीचे स्थित बैतूल. वैसे आंकड़े देखे जाएं तो इस वारदात के लिहाज से खुद मध्य प्रदेश भी बीते पांच साल से देश के बाकी सारे राज्यों से आगे है. और इतने ही समय से इस मामले में बैतूल भी शीर्ष पर है. यदि बीते छह महीने की ही पुलिस डायरियां खंगाली जाएं तो जंगलों से ढके इस जिले की हकीकत यह है कि यहां हर दूसरे दिन बलात्कार का एक मामला थाने तक पहुंच जाता है. बैतूल आखिरी बार राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में तब आया था जब 23 मार्च, 2012 की रात कुछ युवकों ने पचास साल की आदिवासी महिला इमरती बाई की इसलिए गोली मारकर हत्या कर दी थी कि उन्होंने अपनी नाबालिग बेटी के अपहरण और अस्मत लूटे जाने की शिकायत पुलिस में की थी. 

बैतूल के हमलापुर मोहल्ले में रहने वाली इमरती की जर्जर झोपड़ी के खुले दरवाजे देख पता लग जाता है कि उनका परिवार अब यहां नहीं रहता. इसी दिन का अखबार हमें पास के ही आरूलगांव में दबंगों द्वारा जादू-टोने के शक में दो बूढ़े आदिवासियों को नंगा दौड़ाने जैसी सनसनीखेज खबर भी देता है.  आस-पड़ोस की और एक-दूसरे से अलग ये दोनों घटनाएं आपस में इस मायने में जुड़ती हैं कि दोनों में ही पीड़ित का ताल्लुक आदिवासी समुदाय से है. ये बताती हैं कि शोषण के लिए कमजोर को निशाना बनाना कितना आसान है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश की आबादी में एक चौथाई हिस्सा आदिवासियों का है. जिन जिलों में आदिवासी सबसे अधिक हैं, उन्हीं में उनके खिलाफ अत्याचार के सबसे अधिक मामले भी हैं. इसी बात की तस्दीक करती केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि यह प्रदेश आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में भी अव्वल है. देश भर में इस तबके के खिलाफ दर्ज कुल अपराधों में चौबीस फीसदी मध्य प्रदेश में हुए हैं. इसी के साथ एक अहम तथ्य यह है कि पांच साल के दौरान यहां बलात्कार की शिकार बनी महिलाओं में भी आधी से अधिक आदिवासी हैं. इन्हीं सब कड़ियों से जुड़ी बैतूल की तस्वीर पर यदि निगाह डाली जाए तो आदिवासी बहुल इस जिले में 2005 से अब तक 600 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं.

सतपुड़ा की पहाडि़यों पर बसे बैतूल के सैकड़ों वर्गकिलोमीटर हिस्से में गरीबी इस हद तक हावी है कि यह देश के सबसे पिछड़े इलाके में शुमार है. रोजी-रोटी की तलाश में जब यहां के कोरकू और गोंड़ बाशिंदे कभी सोयाबीन तो कभी गेहूं की कटाई के चलते साल के छह महीने के लिए हरदा, होशंगाबाद सहित बाकी जिलों में पलायन करते हैं तब खेत मालिकों द्वारा महिला मजदूरों का जमकर यौन शोषण किया जाता है. स्थानीय पत्रकार अकील अहमद बताते हैं कि फसल आने के पहले ही आस-पास के कई खेत मालिक गांव में घूमना शुरू कर देते हैं. वे अपनी पसंद की कई महिला मजदूरों को पेशगी के तौर पर रुपये भी दे देते हैं. अकील कहते हैं, ‘जब फसल कटाई का वक्त आता है तब बूढ़े और छोटे बच्चे घर पर रह जाते हैं, जबकि खेत मालिक अपने वाहनों से कम उम्र की लड़कियों को काम की जिन जगहों पर ले जाते हैं वे यौन शोषण के बड़े अड्डे बन जाते हैं.’

पिछले पांच साल के दौरान बैतूल में बलात्कार की शिकार बनी महिलाओं में भी आधी से अधिक आदिवासी हैं

बैतूल महिला अनाचारों को लेकर सुर्खियों में तब आया था जब प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता सुरेश पचौरी ने 2008 के विधानसभा चुनाव में इसे चुनावी मुद्दा बनाया. लेकिन चुनाव की चकाचौंध हटने के साथ ही मामला फिर ठंडा पड़ गया. बीते एक दशक से बैतूल में बलात्कारों का सिलसिला शर्मनाक तरीके से बढ़ रहा है. पांच साल से हर साल दुष्कर्मों के 100 से अधिक मामले दर्ज हो रहे हैं. आलम यह है कि महिलाओं के लिए खेत से लेकर घर, स्कूल, हॉस्टल और यहां तक कि पुलिस के थाने तक सुरक्षित नहीं रहे. पुलिस रोजनामचे में 12 साल की मासूम से लेकर 60 साल की वृद्धा के साथ बलात्कार और महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार से लेकर उन्हें जिंदा जलाने तक जैसे मामले दर्ज हैं. हालांकि जिले के पुलिस अधिकारियों का तर्क है कि स्थिति उतनी भयावह नहीं जितनी बताई जा रही है. जिले के संयुक्त पुलिस अधीक्षक गीतेश गर्ग कहते हैं, ‘बैतूल यदि बदनाम है तो इसलिए कि यहां बलात्कारों के मामले अधिक दर्ज होते हैं.’ इस तर्क का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि रिकाॅर्ड में दर्ज प्रकरणों की संख्या तो दिखाई देती है लेकिन उस अनुपात में पुलिस द्वारा दर्ज नहीं किए जाने वाले प्रकरणों की संख्या का पता नहीं चल पाता. इसलिए इस बात का कोई हिसाब नहीं कि पुलिस ने अब तक थाने की चौखट से कितनी महिलाओं को रफा-दफा किया है. मुलताई में पारधी समुदाय की 10 महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म जैसे दर्जनों बहुचर्चित कांड हैं जिनमें उसने महीनों तक प्रकरण दर्ज नहीं किए. इसी कड़ी में उर्मिलाबाई की आत्महत्या का मामला भी शामिल है. यह दलित महिला चार साल पहले जब डोंगराई पंचायत की पंच बनीं और उन्होंने मनरेगा से जुड़े घोटालों का विरोध किया तो सरपंच के बेटे ने दो बार उनके साथ बलात्कार किया. पुलिस ने उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी तो तंग आकर उन्हें खुदकुशी करनी पड़ी.

बैतूल के जिस आदिम जाति कल्याण थाने पर पीड़िताओं के संरक्षण की जवाबदारी है उसी का नजरिया इस बारे में भिन्न है. यहां अनुविभागीय अधिकारी विमला चौधरी कहती हैं, ‘पैसों के लालच में औरतें बलात्कार का आरोप लगा देती हैं.’ उनके मुताबिक अनुसूचित जाति जनजाति (अत्याचार निवारण, 1989) कानून में बलात्कार का मामला सिद्ध होने पर पीड़िता को 50 हजार रुपये दिए जाने की व्यवस्था है और इसी लालच में यहां की औरतें मोहरा बन रही हैं. चौधरी के चैंबर में बैठे जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय सिंह हामी भरते हुए कहते हैं, ‘आप लिखो कि बैतूल में बलात्कार अब एक बड़ा धंधा बन चुका है.’ 

लेकिन दूसरे तबके को इस बात पर सख्त आपत्ति है. इसका कहना है कि यदि आदिवासी पुलिस महकमा ही आदिवासियों के खिलाफ ऐसा नजरिया लेकर काम करेगा तो उन्हें न्याय कहां से दिलाएगा. जानकारों के मुताबिक किसी भी आदिवासी महिला के लिए यह इतना आसान भी नहीं कि वह आज रिपोर्ट लिखवाए और कल पैसा पा जाए. हकीकत में थाने से लेकर अदालत की लड़ाई इतनी लंबी और पेचीदा है कि आम महिला भी इसमें उलझना नहीं चाहती. मध्य प्रदेश महिला मंच की रिनचिन कहती हैं, ‘यदि पुलिस मानती है कि बलात्कार के केस फर्जी हैं तो वह उन्हें साबित क्यों नहीं करती?’

दूसरा सवाल यह है कि आरोपितों को दोषी साबित करने की दर यहां गति क्यों नहीं पकड़ पाती. यदि बैतूल में महिला अनाचारों की बात की जाए तो यह कहानी सिर्फ बलात्कारों तक नहीं रुकती. यह लज्जा का वास्ता देने से लेकर पैसों के लालच और हथियारों का डर दिखाने तक जाती है. शहर से लगे कल्याणपुर में एक दलित नाबालिग लड़की को सामूहिक हवस का शिकार बनाने के बाद ठीक इसी तरह की कवायद दोहराई जा रही है. हालांकि यह मजदूर परिवार अपनी बेटी की प्रताड़ना की शिकायत थाने तक कर तो आया है लेकिन दबंगों के डर से अदालत में अपनी अर्जी नहीं दे पा रहा है. ‘गांव में रहने’ या ‘अदालत तक अपनी अर्जी देने’ के बीच असमंजस में फंसे कई परिवार ज्यादती के बाद खुद को पहले से कहीं असुरक्षित पा रहे हैं. 

बैतूल की सामाजिक कार्यकर्ता रेखा गुजरे बताती हैं, ‘यहां ग्रामसभा से लेकर तमाम संवैधानिक संस्थाओं में महिला उत्पीड़न कोई मामला ही नहीं.’ उनके मुताबिक जब भी ऐसी प्रताड़ना होती है तो राजनेता सामने नहीं आते, लेकिन समझौते के दौरान इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. तब भीतर ही भीतर महिलाओं पर इस हद तक दबाव बनाया जाता है कि वे कानून का साथ नहीं निभा पातीं. लेकिन इन सबसे इतर अमला थाने में पुलिसकर्मियों के कथित सामूहिक बलात्कार का दर्द झेलने वाली नानीबाई (बदला नाम) का मामला यदि तीन साल के बाद भी जिंदा है तो इसलिए कि वे हर हालत में लड़ रही हैं.

एक तबका बैतूल में बलात्कारों के बढ़ते आंकड़ों को आदिवासियों के बीच हुई परिवर्तन की पहल से जोड़ता है. यह मानता है कि बीते दशक में यहां की महिलाओं में अपने अत्याचारों के खिलाफ शिकायत करने का चलन तेजी से बढ़ा है. महाराष्ट्र (नागपुर) सीमा से लगे इस इलाके में अंबेडरकरवादी संगठनों की आवाजाही के चलते यह तबका अपने अधिकारों को लेकर आगे आया है. वहीं सूबे में बीते 15 साल से लागू पंचायतीराज व्यवस्था के भीतर फिलहाल 50 फीसदी महिला आरक्षण का प्रावधान रखने से खासी तादाद में आदिवासी महिलाओं को मौका मिला है. बैतूल सांसद (ज्योति धुर्वे) और विधायक (गीता उइके) सहित 558 पंचायतों में आधे से अधिक पदों पर अब आदिवासी महिलाओं का राज है. बैतूल रहवासी और प्रदेश महिला कांग्रेस की सचिव मीरा एंथोनी कहती हैं, ‘एक सामंती और पुरुष प्रधान समाज में जब महिलाएं प्रतिकार कर रही हैं तो उन पर हमले भी हो रहे हैं.’ और महिलाओं के यौनांग को सबसे बड़ी कमजोरी के तौर पर जाना जाता है, इसलिए इस संघर्ष में उसी पर सबसे अधिक चोट भी की जा रही है. 

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