पांच घटनाएं

दहेज हत्या और आंदोलन

भारत में दहेज विरोधी आंदोलन पहली बार 1970 के दशक में चर्चा में आया. तब दिल्ली में एक नव विवाहिता की हत्या कर दी गई थी. उस समय देश में पहली बार यह हुआ कि दो सौ से ज्यादा लोगों ने मृतक महिला की ससुराल के सामने विरोध प्रदर्शन किया और नारे लगाए. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोगों के भीतर पनपे आक्रोश को पहचाना और वे  दहेज हत्याओं को केंद्र में रखकर काम करने के लिए प्रेरित हो गए. इसका नतीजा यह हुआ कि अकेले दिल्ली में इसके बाद कुछ ही महीनों में दर्जनों विरोध प्रदर्शन हुए. आखिरकार 1982 में दहेज निषेध कानून को मजबूत करने के लिए एक संसदीय समिति का गठन हुआ. इसकी सिफारिशों के आधार पर 1986 में दहेज निषेध कानून में बदलाव करके इसे और कठोर बना दिया गया.

रूप कंवर ‘सती'(रूप कंवर की हत्या)

राजस्थान के गांव देवराला में रूप कंवर के ‘सती’ होने की घटना लगभग एक हफ्ते बाद पूरे देश को पता चली थी. 16 दिसंबर, 1987 को जब इस राजपूत महिला के सती होने के तेरहवें दिन चुनरी महोत्सव के लिए तैयारियां शुरू हुईं तब देश भर के मीडिया ने इसे बहस का बड़ा मुद्दा बना दिया. जगह-जगह आंदोलन हुए और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सती निरोधक कानून को और कठोर बनाने की मांग की.

जब यह मामला केंद्र सरकार के पास गया तो महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सती निरोधक कानून के तहत आरोपितों की सजा बढ़ाने के साथ-साथ समुदाय और उस गांव के प्रमुख को आरोपित बनाने की सिफारिश की.

इस पूरे मसले पर सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह रही कि संसद में बहस के दौरान राजस्थान के भाजपा नेताओं ने इस कानून में बदलाव का काफी विरोध किया. उनका तर्क था कि राजपूतों की इस परंपरा में कानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. हालांकि इस विरोध के बाद भी सती निरोधक कानून में संशोधन कर दिया गया.

माया त्यागी प्रकरण

1980 के दौरान लोकसभा में कुछ दिनों तक बहस का मुद्दा बना रहा यह मामला पुलिस द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न के संदर्भ में आज भी याद किया जाता है. मेरठ की माया त्यागी के बलात्कार की घटना हरियाणा के बागपत में हुई थी. इस दौरान  पुलिस ने उनके पति और दो दोस्तों की हत्या कर दी थी. उस समय माया त्यागी मामले की जांच के लिए नेशनल लोकदल के नेता चौधरी चरण सिंह ने एक आंदोलन भी चलाया था. इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश सरकार को एक न्यायिक जांच आयोग का गठन करना पड़ा. लेकिन इस आयोग की अंतिम जांच में सभी आरोपित पुलिसकर्मियों को निर्दोष करार दे दिया गया. कहा जाता है कि भारत में बलात्कार से जुड़े कानूनों में आरोपितों पर खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी वाला प्रावधान इस घटना के संदर्भ में ही जोड़ा गया है.  

मथुरा : यौन उत्पीड़न मामला

1972 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर में सोलह साल की आदिवासी लड़की मथुरा के साथ पुलिस थाने में दो कांस्टेबलों ने बलात्कार किया था. पुलिस में शिकायत दर्ज होने के बाद 1974 में यह मामला सत्र न्यायालय के सामने आया. लेकिन अदालत ने दोनों आरोपितों को बरी कर दिया. अपने फैसले के पक्ष में अदालत ने मथुरा के अतीत को आधार बनाते हुए कहा कि चूंकि वह अपने पुरुष मित्र के साथ पहले भाग चुकी है इसलिए उसे शारीरिक संबंधों की आदत है और पुलिस थाने में जो हुआ उसे बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. 1979 में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो यहां भी सत्र अदालत के तर्क को आधार बनाते हुए आरोपितों को निर्दोष करार दिया गया. इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही मीडिया सहित तमाम जनसंगठनों से तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं. इस जनदबाव का नतीजा यह हुआ कि 1983 में सरकार को बलात्कार से जुड़े कानूनों में व्यापक संशोधन करने पड़े.  

शाह बानो मामला

1986 में जब सु्प्रीम कोर्ट ने इंदौर की 69 वर्षीया मुस्लिम महिला शाह बानो के तलाक मामले में उनके पति मोहम्मद अहमद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया तो यह फैसला पूरे मुस्लिम समुदाय के आंदोलित होने की वजह बन गया. मुस्लिम संगठनों का कहना था कि यह इस्लामी परंपरा में कानून का हस्तक्षेप है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार से तुरंत कानून में संशोधन करके सु्प्रीम कोर्ट का फैसला बदलने की मांग की. आखिरकार सरकार इस दबाव के आगे झुक गई और उसने मुस्लिम महिला (तलाक संरक्षण अधिकार) कानून – 1986 पारित कर दिया. इस कानून के तहत अदालती फैसला पलट गया. मुस्लिम महिलाओं के तलाक संबंधी अधिकार सीमित करने के इस मामले ने देश में समान नागरिक संहिता की बड़ी बहस छेड़ दी और कहा जाता है कि यह भाजपा के लिए हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने में काफी मददगार साबित हुआ.

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