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गठबंधन में दरार !

क्या ये सिर्फ छोटी-मोटी झड़पें हैं या फिर यूपीए गठबंधन की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच भविष्य में लंबी चलने वाली लड़ाई की शुरुआत. हालिया दिनों में ऐसा लग रहा है कि जैसे तृणमूल कांग्रेस एक धौंस जमाने वाले दबंग में तब्दील होती जा रही है.
सबसे पहले तीस्ता नदी समझौते को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खारिज कर दिया. उसके बाद गुजरे हफ्ते तृणमूल के महासचिव और जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को फोन करके पेट्रोल मूल्य वृद्धि पर अपना विरोध जताया. खबरों के अनुसार राय का कहना था, ’मूल्य बढ़ोतरी करने से पहले हम लोगों से पूछा जाना चाहिए था. हमारी पार्टी सरकार में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.’ नई दिल्ली में मुकुल राय ने और कोलकाता में ममता बनर्जी ने यह भी स्पष्ट किया कि रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी स्वीकार नहीं की जा सकती.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के लगातार आते रहने से ममता यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल सहज नहीं होंगी

तीस्ता संधि का विरोध, रसोई गैस की मूल्य वृद्धि और भूमि अधिग्रहण विधेयक पर ममता बनर्जी का अड़ियल रुख (ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश न सिर्फ इस पर विचार-विमर्श के लिए कोलकाता गए बल्कि विधेयक का ड्राफ्ट तैयार होने का श्रेय भी उन्होंने राहुल गांधी के अलावा सिर्फ ममता बनर्जी को दिया), इन सभी के पीछे एक ही वजह नजर आती हैः आने वाले तीन साल में तृणमूल को दो बड़े चुनावों का सामना करना है. पश्चिम बंगाल में 2012 के पंचायत चुनाव वामपंथी राज के खत्म होने के बाद के पहले चुनाव होंगे. इनसे ममता को अपना ग्रामीण आधार मजबूत करने और सीपीएम को और भी कमजोर करने में मदद मिलेगी. साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव का भी तृणमूल अनुकूल फायदा उठाना चाहेगी. तृणमूल के एक सांसद के मुताबिक, ’2009 में प्रदेश में 42 सीटों का बंटवारा 2:1 के आधार पर हुआ था. अगली बार ममता दीदी कांग्रेस के लिए आठ से ज्यादा सीटें नहीं छोड़ना चाहेंगी.’

गणित के अनुसार, वाम मोर्चा कम से कम दस सीटें तो जीतेगा ही. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ’इससे कम सीटें तो नहीं हो सकती हैं.’ वहीं तृणमूल का इरादा 25 का आंकड़ा छूना है (अभी इसके पास 19 लोकसभा सासंद हैं). इस समीकरण के हिसाब से प्रदेश में पहले से ही उपेक्षित महसूस कर रही कांग्रेस के लिए काफी कम संभावनाएं बचती हैं. ममता को लगता है कि भारत एक और त्रिशंकु लोकसभा की राह पर है. इसलिए वे अपना प्रभाव इतना बढ़ाना चाहती हैं कि बाद में उन्हें मोल-भाव करने में आसानी हो. साथ ही वाममोर्चे के कमजोर रहते वे जितना हो सके अपने को मजबूत बना लेना चाहती हैं.

क्या इसका मतलब यह है कि ममता जल्दी चुनाव चाहती हैं? उनके विश्वासपात्रों के अनुसार यह जरूरी नहीं है. पेट्रोल की कीमतों की बढ़ोतरी के एक दिन बाद ममता ने अपनी कोर ग्रुप की मीटिंग बुलाई थी. इसमें उन्होंने पॉलिसी से जुड़े मुद्दों पर उनसे मशविरा नहीं करने पर कांग्रेस की खिंचाई की थी. साथ ही उन्होंने कहा, ’हम लोगों को चुनावों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’ उनका ऐसा बयान कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर गया कि कहीं ममता जल्दी चुनाव कराने के पक्ष में तो नहीं हैं? मगर जल्द ही ममता के सहयोगियों ने इसे नकार दिया. मामले को तूल देने की बजाय उन्होंने कहा कि ममता तो जल्दी चुनाव होने की संभावना से ही चिंतित हैं. रेल मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 19 परियोजनाओं का उद्घाटन किया था जिसमें से 50 फीसदी परियोजनाएं कोलकाता और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे तीन जिलों में हैं जो तृणमूल के गढ़ हैं. एक पार्टी कार्यकर्ता के अनुसार, ’सारी परियोजनाएं 2012 या 2013 तक पूरी हो जाएंगी और दीदी उस मोर्चे पर कोई भी गड़बड़ी नहीं चाहती हैं.’
ममता मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के आर्थिक फैसलों का भी विरोध कर रही हैं. रसोई गैस की मूल्य वृद्धि का विरोध करने के अलावा ममता ने विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाले मल्टी-ब्रांड रिटेल के खुलने का भी विरोध किया था. कुछ हफ्तों पहले जिस रिटेल में उदारीकरण संभव दिख रहा था अब उसे चुपचाप दफना दिया गया है. इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी और ममता द्वारा चुने गए रेल मंत्री दिनेश तिवारी यात्री भाड़ा बढ़ाने को तैयार नहीं हैं. वित्त मंत्री की कोशिश है कि ट्रेन भाड़े को तर्कसंगत बनाया जाए. लेकिन ममता अपने कार्यकाल की तरह अभी भी ऐसा करने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि कहीं महंगाई का एक कारण उन्हें भी न बता दिया जाए जिससे वामपंथियों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल जाएगा.

वित्त मंत्री और पश्चिम बंगाल सरकार एवं कांग्रेस के मध्यस्थ दोनों ही  रूपों में प्रणब मुखर्जी को तृणमूल की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. तीस्ता प्रकरण और पेट्रोल की कीमतों के मुद्दे पर प्रणब को तृणमूल के मंत्रियों के तीखे बयान झेलने पड़े हैं. मगर वे अकेले कांग्रेसी मंत्री नहीं हैं जिनसे ममता की पार्टी ने दो-दो हाथ किए हैं. ममता बनर्जी मानती हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि वे सफल हों. उन्हें शक है कि कांग्रेस प्रदेश की परियोजनाओं को अनुमति देने में देरी करने जैसे अलग-अलग तरीके अपना कर पंचायत और आम चुनावों में अपना प्रभाव कायम करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल को जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से निधि मिलनी है. मगर इस तरह की आर्थिक मदद हमेशा कुछ शर्तों के साथ आती है. ऐसी ही एक शर्त है कि पीने के पानी के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने से पहले पानी पर टैक्स बढ़ाया जाए. मगर ममता इसके खिलाफ हैं और अपने इस रुख से वे शहरी विकास मंत्रालय – जिसके मंत्री कमलनाथ हैं – को भी अवगत करा चुकी हैं. इस सबके बीच तृणमूल के सांसद सोगता राय फंसे हुए हैं जो शहरी विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं. सोगता से तृणमूल को उम्मीद है कि वे पश्चिम बंगाल को एक बार अपवाद मान कर उसे इस मामले में छूट दे दें. ममता का कहना है कि इस तरह के प्रावधान और राज्यों पर लागू किए जा सकते हैं पर पश्चिम बंगाल पर नहीं. एक कांग्रेस सांसद सवाल करते हैं, ‘मगर यह कैसे मुमकिन है?’

ममता के लिए एक और महत्वपूर्ण परियोजना है कोलकाता में स्थित हुगली नदी के किनारे को नये सिरे से विकसित करने की. इसका जिक्र तृणमूल के चुनाव घोषणापत्र में भी था. इसको तीन विभाग मिल कर पूरा करेंगे: कोलकाता नगर निगम, जो तृणमूल कांग्रेस के पास हैं, कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट, जो जहाजरानी मंत्रालय के अधीन आता है और जिसके राज्यमंत्री तृणमूल के मुकुल राय हैं, और रेलवे मंत्रालय, जिसके मंत्री तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी हैं. मगर इस परियोजना पर सेना को आपत्ति है क्योंकि वह इलाका पूर्वीय कमान में आता है. इस मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार चाहती है कि रक्षा मंत्री एके एंटनी हस्तक्षेप करें मगर उन्होंने अभी तक इस मसले को टाला हुआ है. उधर, तृणमूल को लगता है कि यह जान-बूझकर किया जा रहा है और कांग्रेस इस मामले में अड़ियल रुख अपना रही है.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के नियमित अंतराल में आते रहने से साफ है कि ममता बनर्जी यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल भी सहज नहीं होगी जिसका विपरीत असर उनकी पार्टी पर पड़े. वहीं कांग्रेस को डर है कि तृणमूल वर्चस्व की इस लड़ाई में कहीं उसे पश्चिम बंगाल से बाहर ही न कर दे. इसी का परिणाम है दोनों के बीच विश्वास की यह कमी जिसकी वजह से यूपीए की पहले से बढ़ी परेशानियां और ज्यादा बढ़ रही हैं.   

‘उनके पास हमेशा बहाना तैयार रहता था’

चार साल पहले 28 वर्षीय रोहित शेखर ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ देश का पहला पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर किया था. इस मुकदमे ने कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए-मसलन क्या कोई ताकतवर राजनेता किसी संबंध के चलते हुई संतान को अपना मानने से इनकार कर सकता है और इस मामले में साफ-साफ बच निकल सकता है? यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या किसी व्यक्ति को अपना डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या तिवारी का यह दावा सही है कि उन्हें एक ऐसे आदमी द्वारा ब्लैकमेल किया जा रहा है जो उनकी संतान नहीं है? और इस मुकदमे का उन बच्चों के लिए क्या निहितार्थ होगा, जो इसी तरह के संबंधों के चलते जन्म लेते हैं और ताजिंदगी सामाजिक तिरस्कार झेलते हैं?

शेखर का दावा है कि वे तिवारी के जैविक पुत्र हैं. उनकी मांग है कि तिवारी को यह बात स्वीकार करनी चाहिए. दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने 84 वर्षीय तिवारी को उनकी उम्र के मद्देनजर अपना डीएनए का नमूना देने का आदेश दिया था मगर तिवारी इससे बार-बार इनकार करते रहे हैं. पिछले पखवाड़े उनके फिर से इनकार के बाद अदालत ने कहा कि मामले के साक्ष्यों का आकलन करते हुए इस तथ्य को पूरक साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. यहां पेश है शेखर का पक्ष-

अक्सर पूछा जाता है कि मुझे नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर करने में इतना समय क्यों लगा. 18 साल के लड़के से इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की शुरुआत करने की उम्मीद करना लगभग असंभव है. 2001 में जब हमने दिल्ली के तिलक लेन स्थित उनके घर में उनसे मिलने की कोशिश की थी तो उनके आदमियों ने हमारे साथ मारपीट की थी. 2002 से 2005 के बीच मैं उनसे कभी-कभी मिलता रहा. वे कहते थे, ‘अरे! तुम्हारी नाक तो एकदम मेरी तरह है, तुम मेरी तरह दिखते हो, तुम लगभग मेरी तरह बोलते हो’, लेकिन जब मेरी मां उनसे पूछतीं कि फिर वे मुझे बेटे के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते तो उनके पास हर समय बहाना तैयार रहता था.

मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था

मैं भी उनसे यही सवाल पूछता ताकि अगर कुछ नहीं तो इस मामले को किसी तरह के अंजाम तक पहुंचाया जा सके. वे हमेशा कंधा उचका कर कहते कि वे स्वीकार कर सकते थे, लेकिन कुछ मजबूरियां थीं. मैं पूछता कि कौन सी मजबूरियां? आपने 53 साल की उम्र में 35 साल की मेरी मां के साथ आठ साल तक संबंध रखा. उनके पीछे पड़े रहे कि  वे आपसे एक संतान पैदा करें और उसके बाद आप उनसे शादी कर लेंगे. आपने मेरी मां के साथ बहुत अन्याय किया है और मेरी जिंदगी के 23-24 (उस समय) साल बर्बाद कर दिए हैं. वे चुप रहीं क्योंकि वे मेरी पढ़ाई के दिन थे. लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा.’ मैं 24 साल का था और हर समय सोचता रहता था कि इस आदमी ने मेरी क्या गत बना दी है. मैं आईएएस की परीक्षा देना चाहता था, लेकिन अनिद्रा की बीमारी के कारण ऐसा नहीं कर सका.

2005 में बहुत-सी घटनाएं हुईं. हमें जलील करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. उन्होंने साफ कह दिया था कि वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने मुझे लटकाए रखा. मैं कभी-कभी उन्हें अपने पिता के रूप में देखता था, जिसके लिए मन में इज्जत उभरती थी. लेकिन बाकी समय वे ऐसे प्रेत की तरह हमारे जीवन पर मंडराते रहे जो मेरी मां की शांति और मेरे पूरे परिवार को खा जाना चाहता हो. अपनी पहचान को लेकर मेरे मन में बहुत उथल-पुथल चल रही थी. यह तब की बात है जब यह व्यक्ति उत्तराखंड का मुख्यमंत्री था और बहुत ताकतवर था. बहुत से लोग उन्हें प्रेरणा के तौर पर देखते थे. वे बहुत ताकतवर थे और इसी ताकतवर व्यक्ति ने मेरे साथ अन्याय किया था जिसकी इबारत मेरे चेहरे पर साफ लिखी नजर आती थी.

मुझे गोद लेने वाले मेरे पिता बीपी शर्मा ने अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाई. मुझे अपने जैविक पिता के बारे में 11 साल की उम्र में बताया गया. मेरे दिमाग में हमेशा उस आदमी की छवि तैरती रहती थी जिसके बारे में मेरा मानना था कि मेरी शक्ल और आवाज उससे मिलती है. लोग कहते हैं कि मैं उनकी तरह ही दिखता हूं. सामान्य बच्चों के लिए यह आम बात होती है, लेकिन मेरे लिए नहीं थी. इसने मुझे चीर कर रख दिया. कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है यह मेरे लिए यह बड़ी विचित्र स्थिति थी.
कुछ घटनाओं के चलते मैं इस व्यक्ति के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा करने को बाध्य हुआ. 2005 में मैंने बहुत भोलेपन से उनसे कहा था, ‘आप अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखते!  आपको योग करना चाहिए. मैं 24 साल का हो गया हूं. मैं जल्दी ही परिवार बसाना चाहता हूं. आपके पोते-पोतियां होंगे. हम सब एक परिवार की तरह रहेंगे.’ जब यह बात मैंने अपनी नानी को बताई तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो. इस आदमी में भावनाएं हैं ही नहीं.’  ठीक यही हुआ भी. मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था. एक बार मैं उनसे मिलने के बाद उनके कमरे के बाहर इंतजार कर रहा था. वहां पहले से मौजूद विधायकों ने मुझे मुख्यमंत्री के कमरे से बाहर आता देखकर पूछा कि मैं कौन हूं. मैंने बहुत दबी आवाज में कहा कि एक शोध के सिलसिले में दिल्ली से आया हूं. जब तिवारी बाहर आए तो उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे वे मुझे जानते ही नहीं. ऐसा नहीं कि मेरी मां ने इस बारे में मुझे सचेत नहीं किया था, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूं कि यह कितना तकलीफदेह होता है.

उनके 80 वें जन्मदिन पर तो मैं पूरी तरह टूट गया. मुख्यमंत्री के घर के सामने बधाई देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे. मैं भी वहां गया था. उन्होंने बहुत प्यार से मुझसे माला ली और मुझे एक गुलदस्ता भी दिया. मुझे लगा कि शायद अब से वे मुझे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने लगेंगे. मैं केक भी लेकर गया था. तभी कुछ लोग आए और बोले कि मेरा वहां होना तिवारी के लिए ठीक नहीं होगा. सौभाग्य से मेरे पास उस दिन के फोटोग्राफ मौजूद हैं.

अगले दिन जब उनसे मिला तो मैंने विरोध किया, ‘अब यह बात इस कमरे तक ही सीमित नहीं रहेगी. आप मुझे अकेले में गले लगाते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से मुझे जवाब देना पड़ता है कि मैं कौन हूं. मुझे नहीं पता कि मैं क्या करने जा रहा हूं, लेकिन इतना तय है कि यह बुरा होगा.’ उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका चेहरा लाल पड़ गया. शायद तभी मैं उनसे आखिरी बार मिला था.

मैंने उत्तराखंड में तमाम लोगों के पास चिट्ठियां भेजीं. 2006 में पूरे साल मैंने उनके खिलाफ अभियान चलाया और वे लगातार इसके विरोध में कहते रहे कि ‘ये मेरा लड़का नहीं है. सिर्फ मुझे ब्लैकमेल कर रहा है.’ तब मैंने कानूनी विकल्पों पर विचार करना शुरू किया. लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. मुकदमा बनता ही नहीं है. लेकिन मैं हार मानने को तैयार नहीं था. हम एक साल तक उनके खिलाफ अभियान चलाते रहे. 2007 में वे आंध्र प्रदेश के गवर्नर बनाए गए. मैं उनके खिलाफ कुछ भी करने से डर रहा था क्योंकि मेरे पास कोई सबूत नहीं था. मैं अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित था. फिर भी सितंबर 2007 में मैंने मुकदमा करने का निश्चय किया. लेकिन तब तक मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. पांच जुलाई, 2007 को मुझे बड़ा हार्ट अटैक हुआ लेकिन इसका पता ही नहीं चल सका. दो महीने बाद सितंबर 2007 में धमनियों में रुकावट के चलते ब्रेन हैमरेज हुआ. डॉक्टरों ने कहा कि यह अटैक लंबे तनाव का नतीजा है.

कानूनी प्रक्रिया लंबी, खर्चीली और पीड़ादायक है. कई बार मैं इस मुकदमेबाजी से थक चुका हूं और फिलहाल बहुत तनावग्रस्त हूं. इस मामले में कई अभूतपूर्व निर्णय भी हुए हैं. मेरी जानकारी के अनुसार इससे पहले किसी अदालत ने पितृत्व और वैधता को अलग-अलग नहीं देखा था. सम्मानित उच्च न्यायालय ने पिछले साल इनके बीच फर्क किया. फिलहाल मैं उस कानून के चलते थोड़ा निराश हूं जिसके चलते मामले के उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन रहते कोई भी पक्ष दूसरे के खिलाफ अभियान नहीं चला सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया कि तत्काल डीएनए टेस्ट कराया जाना चाहिए नहीं तो मेरे न्याय पाने की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी. इसी साल सात फरवरी को अदालत ने कहा कि यदि तत्काल डीएनए टेस्ट नहीं कराया जाता है तो वादी को अपूरणीय क्षति होगी.

मेरी हताशा और निराशा का मूल कारण यह है कि इन आदेशों के बावजूद तिवारी ने डीएनए जांच के लिए अपने खून का नमूना नहीं दिया है. एक जून को उनके खून का नमूना लेने के लिए अदालत ने एक डॉक्टर नियुक्त किया था. लेकिन इसके दो दिन पहले ही तिवारी ने उन्हीं बातों को दोहराते हुए फिर से आवेदन दे दिया कि यह मुकदमा अत्यंत ओछा है और उन्हें डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. तब से नौ या दस सुनवाइयां हो चुकी हैं. मेरे लिए यह सब बहुत महंगा और कष्टकारी है.
वे मामले को अदालत में लंबा खींचने में सफल हो रहे हैं. अदालत द्वारा फरवरी और जुलाई में तत्काल डीएनए टेस्ट कराने पर जितना बल दिया गया था वह तकनीकी चीजों में उलझकर रह गया है. सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि मुझे न्याय तो मिल गया है, लेकिन उसे लागू नहीं किया जा रहा है. हर गुजरते दिन के साथ मेरे मामले के सबसे प्रबल सबूत के हमेशा के लिए मिट जाने की संभावना बढ़ती जा रही है. इसका मतलब होगा कि यह मुकदमा मेरे तईं असमाप्त ही रह जायेगा. अब यह सार्वजनिक हो चुका है. लोग मुझसे जीवन भर सवाल कर सकते हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम कौन हो? मेरी मां और मेरे लिए यह बहुत जरूरी है कि यह मामला अपने अंजाम तक पहुंचे.

(रेवती लाल से बातचीत पर आधारित)

माया के मारे

जीटी रोड पर सफर करते हुए गाजियाबाद से करीब सात किलोमीटर आगे अचानक आपको एक विशाल पार्क और हेलीपैड नजर आते हैं. हाईवे से कटती एक खूब चौड़ी सड़क भी दिखती है. काम जिस भव्य स्तर पर चल रहा है उससे एकबारगी भ्रम होता है कि यहां शायद कोई बड़ा शहर बसाया जा रहा है. मगर यह सूबे की मुख्यमंत्री मायावती का अपना गांव बादलपुर है.

इलाके में थोड़ी देर घूमने के बाद यहां चल रहे निर्माण की भव्यता का ठीक-ठीक अंदाजा होता है. बड़े-बड़े पार्क, चौड़ी सड़क, हेलीपैड, ग्रीन बेल्ट और इस सबके बीच कई एकड़ जमीन पर बन रही एक भव्य कोठी. यह कोठी सूबे की मुख्यमंत्री मायावती की है. पूछा जा सकता है कि इसमें क्या खास बात है? क्या सूबे की मुख्यमंत्री अपने लिए कोठी नहीं बनवा सकतीं? और पार्क, ग्रीनबेल्ट या चौड़ी सड़कों पर भला किसी को क्या एतराज हो सकता है?

‘जमीन खरीदना गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि कोठी के लिए कई परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’लेकिन एतराज है और सबसे ज्यादा बादलपुर गांव के लोगों को है. इसलिए क्योंकि सूबे की मुखिया के इस आशियाने के लिए गांव के कई परिवार सड़क पर आ गए हैं. दरअसल इस कोठी के बनने की कहानी ही कई तरह के गंभीर सवालों से भरी पड़ी है. इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि जनता के पैसे से बनाए गए जिन विशाल पार्कों, हेलीपैड और ग्रीन बेल्ट का जिक्र ऊपर हुआ है उनके निर्माण का उद्देश्य सिर्फ यही लगता है कि इस कोठी की खूबसूरती में चार चांद लग सकें. विडंबना देखिए कि इस काम के लिए भूअधिग्रहण कानून की आड़ ली गई. अर्जेंसी क्लॉज के अंतर्गत औद्योगिक विकास के नाम पर जमीनें अधिगृहीत करके लोगों को यह आभास दिया गया कि उनकी जमीन पर उद्योग लगेंगे और उन्हें रोजगार मिलेगा. लेकिन उद्योगों की जगह पार्क, हेलीपैड आदि बनने लगे. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री की कोठी के लिए उस नहर को भी खत्म कर दिया गया जिससे बादलपुर सहित कई गांवों के किसान अपने खेत सींचते थे.

बादलपुर गांव की सूरत देखकर पहली नजर में लगता है कि प्रदेश में सबसे अधिक विकास यहीं हुआ है और यहां के बाशिंदे बेहद खुशहाल होंगे. लेकिन किसानों से बातचीत के बाद यह भ्रम दूर हो जाता है. जो किसान 2007 के पहले तक अपनी गांव की बेटी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होते थे वही आज मदद मांग रहे हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक किसान बताते हैं, ’10-12 साल पहले तक गांव में बहन जी या उनके परिवार के नाम एक इंच जमीन भी नहीं थी. आज उनके पास गांव में कई बीघे जमीन है जो यहीं के किसानों से खरीदी गई. जमीन खरीदना कोई गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि सिर्फ उन्हीं की कोठी के लिए पूरे गांव के परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’

मुख्यमंत्री की कोठी के लिए किसानों से खरीदी गई जमीन हो या पार्क, हेलीपैड आदि के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन, सब में जमकर पहुंच व ताकत का प्रयोग करते हुए नियमों को दरकिनार किया गया. पहले बात करते हैं कोठी के लिए खरीदी गई जमीन की. बादलपुर गांव के बाहर तीन मार्च, 2005 को भगवत प्रसाद से करीब डेढ़ बीघा जमीन मायावती के नाम खरीदी गई. उसी दिन रतीराम से भी करीब पांच बीघा जमीन मायावती के नाम से कागजों में दर्ज हुई. इसके  बाद अगस्त, 2005 में करीब दो बीघा जमीन और मायावती के नाम दर्ज हुई. अगस्त में खरीदी गई जमीन गांव के ही अजीत पुत्र किशन लाल से ली गई. सभी में खरीददार मायावती का पता सी-57 इंद्रपुरी, नई दिल्ली दिखाया गया था. पूरी जमीन कृषि योग्य भूमि थी. इन जमीनों के लिए स्टांप शुल्क मिलाकर करीब 47 लाख रुपये अदा किए गए.

इन जमीनों की खरीद में खरीददार तो मायावती को दिखाया गया है लेकिन मुख्त्यारेआम उनके भाई आनंद कुमार पुत्र प्रभुदयाल निवासी बी-182, सेक्टर 44 नोएडा को बनाया गया है. सभी जमीनों के बैनामों में भी मायावती के स्थान पर आनंद का ही फोटो लगाया गया है. यहां तक तो जो कुछ भी हुआ वह नियम-कानूनों के दायरे में किया गया. लेकिन इसके बाद इस जमीन को लेकर जो खेल शुरू हुआ उसका खामियाजा पूरे गांव के किसानों को अभी तक उठाना पड़ रहा है. कैसे? आइए जानते हैं.

सवाल यह उठता है कि 2005 में मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था

लाखों रुपये मूल्य की कृषि योग्य कई बीघा जमीन खरीदने के बाद 2005 के अंत में मायावती की ओर से जमीन का भूउपयोग परिवर्तित करने के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 143 के तहत दादरी तहसील में एक वाद दायर किया गया. वाद दायर करते समय शपथ पत्र (जिसकी एक प्रति तहलका के पास भी है) देकर बताया गया कि उपर्युक्त खेत संख्या 400, 395 व 396 के आसपास आबादी क्षेत्र है. यह भी कहा गया कि जो जमीन खरीदी गई है उस पर काफी समय से कृषि, पशुपालन या मत्स्य पालन का कार्य नहीं हुआ है. भूमि पर बाउंड्री हो रही है तथा निर्माण कार्य चल रहा है. जिस समय जमीन खरीदी गई और उसके भूपरिवर्तन के लिए वाद दायर किया गया उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इसके बावजूद राजनीतिक रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायालय उपजिलाधिकारी दादरी की ओर से मई, 2006 में उक्त जमीनों को गैरकृषि उपयोग के लिए अनुमति प्रदान कर दी गई जिस पर भव्य कोठी का निर्माण अब लगभग पूरा हो चुका है.

कोठी के लिए जमीन खरीद कर भूउपयोग के परिवर्तन का खेल सिर्फ मायावती ने ही नहीं खेला. जिस स्थान पर कोठी बनी है वहां की कई बीघा जमीन उनके पिता प्रभुदयाल के नाम पर भी है. भूउपयोग के परिवर्तन के लिए मायावती के साथ ही प्रभुदयाल की ओर से भी वाद दायर किया गया. बादलपुर के किसान बताते हैं कि जिस जगह को आबादी की जमीन बताते हुए शपथ पत्र दिया गया वहां लोग आसपास अपनी खेती करते थे. इसके प्रमाण आज भी कोठी के आसपास मौजूद हैं कि वहां आबादी दर्ज नहीं थी. जिस स्थान पर ग्रीन बेल्ट बनाई गई है वहां एक-दो लोग खेतों में ही मकान बना कर रहने लगे थे जो आज भी मौजूद हैं. उन लोगों ने कभी अपना भूउपयोग बदलवाया ही नहीं था.

राजनीतिक रसूख के आगे शपथपत्र का झूठ और अधिकारियों की कारगुजारी शायद ही कभी उजागर हो पाती. लेकिन मई, 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के एक माह छह दिन बाद 20 जून को सरकार की ओर से बादलपुर की 232 हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के लिए धारा 4 का नोटिस जारी किया गया. इसके बाद ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने अधिग्रहण का काम शुरू किया. जिस स्थान पर कृषि योग्य भूमि का भूपरिवर्तन करा कर कोठी बनाई जा रही है उसे छोड़ कर आसपास का पूरा क्षेत्र अधिगृहीत कर लिया गया. नियमों के अनुसार आबादी क्षेत्र का अधिग्रहण विषम परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, लिहाजा कोठी जिस स्थान पर बनी है उसे पूरा छोड़ दिया गया और आसपास की कृषि योग्य उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया. 
अब सवाल उठता है कि मायावती ने जब 2005 में ही अपने शपथपत्र में यह बता कर अपना भूउपयोग परिवर्तित कराया था कि आसपास आबादी है तो मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक प्राधिकरण ने औद्योगिक विकास के नाम पर आबादी की जमीनों का अधिग्रहण करके पार्क बनाना कैसे शुरू कर दिया. किसानों की लड़ाई लड़ रहे वकील एसी नागर कहते हैं, ‘जमीनों का अधिग्रहण आपात प्रावधान यानी अरजेंसी क्लॉज लगाकर किया गया था. तो क्या पार्क, ग्रीन बेल्ट, सड़क, हेलीपैड सहित कोठी की खूबसूरती बढ़ाने वाली इमारतें बनाने के लिए अरजेंसी क्लॉज लगाया गया? दूसरा सवाल यह है कि यदि प्राधिकरण ने कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किया है तो मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था.’  नागर का आरोप है कि कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए ही औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन लेकर उसमें पार्क आदि बनाए जा रहे हैं जबकि तीन साल में ली गई जमीन पर एक भी उद्योग स्थापित नहीं हुआ है. इस बारे में बात करने पर ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के सीईओ रमा रमण कहते हैं कि मास्टर प्लान में बादलपुर की अधिग्रहीत जमीनों पर किसी तरह का उद्योग स्थापित करने की योजना नहीं है. उनके मुताबिक जिस जगह पर पार्क आदि बनाया जा रहा है वह कृषि योग्य भूमि थी. सीईओ का यह बयान मायावती के उस शपथ पत्र को कटघरे में खड़ा करता है जिसके मुताबिक कोठी के आसपास आबादी थी.

बादलपुर में जब कोई उद्योग आदि स्थापित नहीं होना है तो सरकार को अर्जेन्सी क्लास में जमीनों का अधिग्रहण करने की आवश्यकता क्यों पड़ गई. इस सवाल के जवाब में बादलपुर के राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त करतार सिंह कहते हैं, ‘पूरे हिन्दुस्तान में जमीनों का अधिग्रहण अर्जेन्सी क्लास में ही हो रहा है, ऐसे में बादलपुर में भी हो गया तो इसमें हर्ज ही क्या है.’ जिस जगह कोठी बनी है उसके आसपास की औद्योगिक विकास के नाम पर ली गई जमीन पर एक पार्क करीब 91 हजार वर्ग मीटर तथा दूसरा 35 हजार वर्ग मीटर में बन रहा है. कोठी से लगे करीब 50 हजार वर्ग मीटर के प्लाॅट पर प्राधिकरण की ओर से अभी सिर्फ दीवार ही खींची जा रही है. इस प्लॉट में कोठी की ओर से एक लोहे का गेट खोला गया है. गांव के एक किसान कहते हैं, ‘सरकारी जमीन पर अपनी कोठी से गेट लगाना इस बात का संकेत है कि आज नहीं तो कल ये जमीन भी मुख्यमंत्री व उनके परिवार के कब्जे में चली जाएगी.’

पार्कों की खूबसूरती में चार चांद लगाने के लिए 60 मीटर चौड़ी रोड भी बना दी गई है. पार्कों से सटी हुई कोठी से कुछ दूरी पर किसानों की जमीन पर ही हेलीपैड भी तैयार किया जा रहा है. कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए सरकार ने जमीन लेकर सिर्फ दो पार्क ही नहीं बनाए बल्कि कोठी के सामने कई बीघे जमीन पर ग्रीन बेल्ट भी तैयार कर दी जिसमें हजारों की संख्या में पेड़ लगाए गए हैं. जिन खेतों का सरकार ने ग्रीन बेल्ट के लिए अधिग्रहण किया है उनमें, जैसा कि ऊपर बताया गया है,  एक-दो मकान भी बने हुए हैं लिहाजा कागजों में उनका अधिग्रहण भी हो गया है. लेकिन खेत में मकान बना कर रह रहे किसान वहां से हटने को तैयार नहीं. उन्हीं में से एक परिवार है लेह में तैनात सेना के सूबेदार विजेंद्र सिंह का. विजेंद्र के भाई भगत सिंह कहते हैं, ‘सरकार सेना में कार्यरत जवानों को सुविधाएं देती है लेकिन यहां तो जबरन इसलिए उजाड़ा जा रहा है कि मुख्यमंत्री की कोठी की शोभा न खराब हो.’ भगत आगे बताते हैं, ‘पौने तीन बीघे में बने मकान व हाते का सरकार ने अधिग्रहण भले कर लिया है लेकिन हमने मुआवजा अभी तक नहीं उठाया है. मुआवजा उठाने के लिए कई बार प्रशासनिक अधिकारियों व पुलिस ने दबाव बनाया लेकिन जब सफल नहीं हुए तो घर के आसपास डेढ़ महीने तक पीएसी लगा दी गई. जिसके कारण घर की महिलाओं व बच्चों तक का निकलना मुश्किल हो गया था.’ सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए भगत कहते हैं कि जब औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार पूरे गांव के किसानों के खेत व आबादी का अधिग्रहण कर रही है तो बीच में मुख्यमंत्री की कोठी कैसे बच रही है.

प्रदेश के दूसरे गांवों में होने वाले विकास कार्यों में अधिकारी कितनी रुचि लेते हैं यह जगजाहिर है, लेकिन बादलपुर में बन रहे पार्क के लिए अधिकारियों की तत्परता देखते बनती है. कई अधिकारी दिन भर कैंप करके काम को पूरा कराने में लगे हैं. राज्य स्तर के अधिकारी भी समय-समय पर गांव पहुंच कर कार्य की प्रगति का जायजा लेते रहते हैं. पुलिस की तीन-चार जीपें और जिप्सी भी चारों ओर गश्त करती दिखती हैं. गांववाले बताते हैं कि सड़क से निकलते समय कोठी के सामने रुककर बात करना या उसकी ओर देखना भी पुलिसवालों की नजर में किसी अपराध से कम नहीं होता.

मुख्यमंत्री की कोठी के चक्कर में बादलपुर ही नहीं, आसपास के गांवों के किसान भी पिस रहे हैं. बादलपुर के बाहर से निकलने वाली नहर से एक छोटी नहर सिंचाई के लिए निकली थी. इससे बादलपुर सहित अछेजा, सादुल्लापुर व सचिन पायलट के गांव वैदपुरा के किसान अपनी सैकड़ों बीघे जमीन की सिंचाई करते थे. छोटी नहर बादलपुर में जिन खेतों के बीच से निकलती थी वहां निर्माण कार्य हो जाने के कारण पूरी तरह बंद हो गई है. जिस जगह से नहर निकली थी वहां सड़क बनाने का काम चल रहा है. मुख्यमंत्री की कोठी के पीछे से होते हुए नहर आगे के गांवों को जाती थी. लेकिन वहां बड़ा फव्वारा बनाने का काम चल रहा है लिहाजा उसके आसपास भी नहर को बंद कर दिया गया. आगे चल कर इसी नहर के ऊपर से 60 मीटर चौड़ी सड़क बना दी गई जो पार्क के सामने से होकर गुजरती है. बादलपुर में इस नहर के अवशेष कहीं-कहीं दिख जाते हैं. सादुल्लापुर के किसान करतार सिंह कहते हैं, ‘हमारी जमीन साल में तीन फसलें देती थी. लेकिन सिंचाई का साधन बंद हो जाने के कारण कई बीघे खेतों में पिछले डेढ़ साल से किसी फसल की पैदावार नहीं हो पा रही है.’ अछेजा के किसान चरनजीत बताते हैं, ‘गांव की करीब 500 बीघे जमीन की सिंचाई बादलपुर से आने वाली छोटी नहर से होती थी. नहर बंद होने के कारण बड़े किसानों ने तो ट्यूबवेल की बोरिंग करा कर काम शुरू किया है लेकिन छोटे किसानों की जमीन या तो खाली पड़ी रहती है या दूसरे के ट्यूबवेल से पानी खरीदकर वे सिंचाई करने को मजबूर हैं. डीजल भी महंगा है. ऐसे में 150 रुपये प्रतिघंटे के हिसाब से दूसरे के पंप सेट से पानी लेकर सिंचाई करना किसानों को काफी महंगा पड़ता है.’ चरनजीत बताते हैं कि प्रशासनिक अधिकारियों को कई बार पत्र लिखकर व मिलकर इस समस्या से अवगत कराया गया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मामला बादलपुर से जुड़ा है वे ग्रामीणों को भगा देते हैं. वे कहते हैं, ‘जब पड़ोसी गांव की मुख्यमंत्री ही ऐसा करवा रही हो तो किसान अपनी समस्या लेकर कहां जाए.’

ग्रामीणों में बगावत की यह चिंगारी मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तब शुरू हुई जब अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी हुआ. लेकिन अधिकारियों ने इस बगावत को भरसक प्रयास करके दबाए रखा. गांव के एक संपन्न किसान जगदीश नंबरदार कहते हैं, ‘गांव में हास्पिटल, गर्ल्स डिग्री कालेज, पोलिटेक्निक, गेस्ट हाउस आदि के लिए इससे पहले भी सभी ने स्वेच्छा से जमीन  दी थी. तब कोई अधिग्रहण की कार्रवाई कराने की जरूरत ही सरकार को नहीं हुई. हमें भी पता है कि गांव की बेटी मुख्यमंत्री है तो उसकी प्रतिष्ठा में इतना सब कुछ करने को किसान सक्षम है. लेकिन इस बार जब महज इसलिए पूरे गांव की जमीन जाने लगी कि कोठी के आसपास पार्क आदि बनाए जाएंगे तो विरोध शुरू हुआ.’ जमीन बचाने के लिए किसानों ने अगस्त, 2007 में सर्वदलीय बैठक करके विरोध जताया. नंबरदार बताते हैं कि बैठक के बाद गांव के करीब 20 किसान मुख्यमंत्री से मिलने के लिए लखनऊ भी गए लेकिन अधिकारियों ने मिलने नहीं दिया. वे कहते हैं, ‘किसान मुख्यमंत्री से बस इतना जानने के लिए गए थे कि जमीन विकास के किस काम के लिए उपयोग की जाएगी ये पता चलते ही हम स्वेच्छा से जमीन दे देंगे. लेकिन सरकार के पास विकास का कोई प्लान ही नहीं था जो वह किसानों को बता सकती, लिहाजा हमें मुख्यमंत्री से दूर ही रखा गया.’

किसानों के विरोध की जानकारी जब लखनऊ पहुंची तो अधिग्रहण रुक गया. नंबरदार कहते हैं, ‘किसानों को लगा कि शायद बहन जी को हमारी समस्या समझ में आ गई लेकिन 2008 में अचानक अधिकारियों ने अधिग्रहण शुरू कर दिया. फिर विरोध शुरू किया तो डराने-धमकाने के लिए घर पर पीएसी का पहरा बैठा दिया गया. रात-रात भर अधिकारी आकर जमीन देने के लिए दबाव बनाने लगे. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा.’ इसी बीच कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने आकर बताया कि किसानों से कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह मिलना चाहते हैं. अधिकारियों ने शताब्दी से छह किसानों के प्रतिनििधमंडल को लखनऊ भेजा. नंबरदार के साथ किसानों के संघर्ष की अगुवाई कर रहे वीर सिंह कहते हैं, ‘कैबिनेट सेक्रेटरी ने बैठक में इस मांग पर सहमति जताई कि 25 प्रतिशत जमीन छोड़ दी जाएगी साथ ही जहां आबादी है उस जमीन को भी सरकार नहीं लेगी. किसानों को लगा चलो कुछ तो हासिल हुआ. लेकिन यहां भी सरकार खेल करने से नहीं चूकी. अधिग्रहण की मार गांव के करीब 1,014 किसानों पर पड़ी थी लेकिन 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने का लाभ महज 168 किसानों को दिया गया. शेष 846 किसानों को 850 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देकर शांत करा दिया गया.’ 

846 किसानों को जब मालूम हुआ कि कुछ लोगों को 25 प्रतिशत जमीन का लाभ दिया गया है तो उन्होंने नए सिरे से आंदोलन शुरू किया. सरकारी उपेक्षा का शिकार हुए किसान ज्ञानी सिंह कहते हैं, ‘जिन लोगों को यह लाभ मिला उनके साथ हम भी आंदोलनरत थे लेकिन उसी बीच हम जैसे छोटे किसानों को बसपा सरकार से जुड़े सांसद, विधायक व अधिकारियों ने इतना डरा-धमका दिया कि वे मुआवजा उठाने को मजबूर हो गए.’ ज्ञानी का आरोप है कि राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त गांव के ही एक बसपा नेता व कुछ और लोगों ने यहां तक धमकाया कि अगर मुआवजा नहीं उठाओगे तो सरकार मुफ्त में जमीन ले लेगी. उनके मुताबिक पुलिस अधिकारी घर आकर धमकाते थे कि जमीन दे दो नहीं तो जेल में सड़ा दिए जाओगे. ज्ञानी कहते हैं, ‘ परिजनों की सुरक्षा को लेकर चिंता होती थी क्योंकि जिन लोगों के खिलाफ हम आंदोलन कर रहे थे वे धन-बल दोनों में ही हमसे काफी ताकतवर थे.’
जिन किसानों के साथ सरकार ने दोहरी नीति अपनाई वे आज पूरी तरह आंदोलनरत हैं. अपने ही गांव की मुख्यमंत्री होने के बावजूद सरकार से न्याय की उम्मीद खो चुके किसानों ने अब हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है. किसान ऋषिपाल बताते हैं, ‘अब हमारी मांग 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने के साथ मुआवजा बढ़ाए जाने की भी है क्योंकि सरकार ने 850 रुपये वर्ग मीटर के हिसाब से मुआवजा दिया है जबकि सर्किल रेट ही 1,000 रुपये वर्ग मीटर का है. सरकार ने सर्किल रेट से भी कम का भुगतान देकर गरीब किसानों के पेट पर लात मारी है.’

बादलपुर में शासन-सत्ता के आगे छोटे-बड़े किसी भी किसान की एक नहीं सुनी गई, यह दर्द गांव के पूर्व प्रधान चैतराम की बातों से साफ झलकता है. वे कहते हैं, ‘एक समय था जब खुद को बादलपुर का प्रधान बताने में गर्व महसूस होता था, लेकिन आज शर्म आती है. काफी भागदौड़ के बावजूद परिवार के पास जो 20 बीघे जमीन थी उसे पूरा का पूरा सरकार ने औद्योगिक विकास के नाम पर पार्क, सड़क आदि बनाने के लिए ले लिया है. इतनी भी जमीन नहीं छोड़ी गई कि बच्चे बड़े होकर अपना एक मकान तक बना सकें.’ चेतराम कहते हैं, ‘पूरे प्रदेश की मुखिया गांव की ही रहने वाली है, कम से कम उसे तो सोचना चाहिए था कि किसानों की पूरी जमीन चली जाएगी तो उनके बच्चों को सिर छुपाने के लिए जगह कहां मिलेगी.’ इससे भी बड़ा दर्द उन्हें इस बात का है कि जिस जगह उनके पिता परमान सिंह की समाधि बनी थी सरकार ने उसका भी अधिग्रहण कर लिया. 

बादलपुर के किसानों की लड़ाई लड़ रहे डॉ रूपेश कहते हैं, ‘बादलपुर के साथ ही पतवारी गांव का भी अधिग्रहण सरकार ने अर्जेंसी क्लास में किया था. न्यायालय की ओर से पतवारी का अधिग्रहण रद्द किए जाने के बाद अब बादलपुर के किसानों को भी न्यायालय से ही उम्मीद है क्योंकि यहां भी अर्जेंसी क्लास में ही सरकार ने अधिग्रहण कर पार्क आदि बना डाला.’ बादलपुर के साथ ही सरकार ने डॉ रूपेश के गांव सादोपुर के किसानों की भी 146 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण अर्जेंसी क्लास में कर लिया है. लेकिन तीन साल बाद भी सादोपुर की जमीन पर न तो कोई उद्योग स्थापित हुआ है और न ही किसी योजना के अंतर्गत काम ही शुरू हुआ. रूपेश कहते हैं, ‘अपने ही घर की मुख्यमंत्री व सरकार से धोखा खाए किसानों को अब आस है तो बस न्यायालय की.’  

‘सुर-मारग को दिशा दिखाता संगीत’

यूं तो आदरणीय लता जी के गाए न जाने कितने गीत मेरे बरसों के साथी रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे प्रिय गीत को चुनकर बताना कि आखिर ये ही सबसे प्रिय क्यों हैं, बड़ा मुश्किल काम है. इस लिहाज से बहुत सोचा, बड़ी माथापच्ची की, मगर मात्र एक गीत नहीं चुन पाई और इसीलिए उन गीतों की फेहरिस्त भेज रही हूं, जो जीवन की अड़-बड़ गलियों में न जाने कितनी बार मुझे सहारा दे चुके हैं, मेरा हाथ थाम मुझे सुर-मारग की दिशा दिखा चुके हैं.

‘पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो ये इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता’

बरसों पहले विविध भारती पर दोपहर में गैरफिल्मी गीतों के कार्यक्रम में लता जी की गाई दो गजलें आए दिन प्रसारित होती थीं. एक, ‘आंख से आंख मिलाता है कोई…’ (गीतकार : शकील बदायूंनी) और दूसरी, ‘अहद-ए-गम में भी मुस्कुराते हैं…’ (गीतकार : खलिश देहलवी). यह उन दिनों की बात है जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी और इलाहाबाद में गाने की तालीम ले रही थी. पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता. कभी-कभी तो इन्हें सुनने की ताक में रेडियो के पास कान लगाए बैठे-बैठे क्लास भी जाना भूल जाती. दोनों ही गजलों को महावीर जी ने अत्यंत कठिन और जटिल धुनों से सजाया है. यानी किसी गायक-गायिका की परीक्षा लेनी हो, तो ये दोनों रचनाएं रख दें उनके सामने, और फिर देखिए अच्छे-अच्छों के छक्के छूटते. लेकिन लता जी ने इन्हें ऐसे सहज अंदाज में गाया है कि यदि कोई नादान ये समझ बैठे कि अरे, ये तो हम भी गा लेंगें, तो कोई आश्चर्य नहीं. तो साहब हम भी ये नादानी कर बैठे. वो दिन और आज का दिन, इस बीच कई दशक सरकते हुए निकल गए, पर अब भी बात नहीं बनी.

इसी के साथ उतना ही सुंदर पंडित नरेंद्र शर्मा जी का लिखा हुआ वह गीत भी कभी भूलता नहीं जिसे जयदेव जी ने संगीतबद्ध किया था. लता जी ने इस गीत ‘जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में, गा रही हूं आज श्रद्धा गीत धन्यवाद में’ को गाकर देशप्रेम के जज्बे का एक अलग ही संसार रच दिया है. देश पर मरने वाले बहादुर जवानों के प्रति श्रद्धा-निवेदन का यह गीत निश्चय ही पूरी गरिमा के साथ लता जी की आवाज में एक सच्ची श्रद्धांजलि बन सका है. यह गीत भी मेरे हिसाब से उनके गाए हुए अमर गीतों में एक क्लासिक का दरजा रखता है, जिसकी गूंज आज भी मेरे कानों में उसी तरह समाई हुई है, जैसी दशकों पहले सुनने के वक्त महसूस हुई थी.

इसके अलावा श्रीनिवास खाले जी के संगीत निर्देशन में तुकाराम जी का एक अभंग पद ‘अगा करुणाकरा’ की चर्चा के सम्मोहन से भी खुद को रोक नहीं पा रही हूं. इस अद्भुत ढंग के भजन को लता जी ने इतनी भक्ति और आत्मीयता से गाया है कि उसके बारे में तारीफ करते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं. अगर किसी को भक्ति का नमूना उतने ही श्रद्धा-भाव से गीत-संगीत के माध्यम से सुनना है, तो उसे इस गीत को जरूर सुनना चाहिए. लता जी ने जैसे इसमें आत्मा का संगीत उड़ेल दिया है.

आज के तकनीकी युग में, इंटरनेट की मैं आभारी हूं कि उनके कुछ ऐसे अमर गैरफिल्मी भजन, अभंग पद, गजल और देशभक्ति के गीत हमें सुनने के लिए उपलब्ध हो सके हैं, जिनके पुराने रिकॉर्ड और कैसेट अब सामान्यता म्यूजिक स्टोर पर उपलब्ध नहीं हो पाते. आज भी संगीत की यह अमूल्य थाती भले कैसेट में उपलब्ध हो, या सीडी में या फिर आई पॉड पर, लता जी की आवाज में ये कुछ रचनाएं मेरे सुख-दुख में हमेशा साथ रही हैं.

‘आधुनिक दक्षिण एशियाई नारी की आवाज’

1940 के दशक के उत्तरार्द्ध के भारतीय समाज, महाराष्ट्रीय संस्कृति तथा हिंदी फिल्म (संगीत) उद्योग को थोड़ा-बहुत जाने बिना लता मंगेशकर के कठिन संघर्ष, अद्वितीय प्रतिभा और महान उपलब्धि को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. गांधी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देश सर्वतोन्मुखी मुक्तिकामी आधुनिकता के द्वार पर खड़ा हुआ था. सिनेमा भी आमूल बदलने वाला था. ऐसे में पितृहीन, दोशीजा लता की नम्य आवाज स्वाधीनता की ओर बढ़ती हुई नयी, कुछ आधुनिक, कुछ पारंपरीण, किशोरी-युवती की गैर-पेशेवर, निर्दोष आवाज थी.

‘लता के आविर्भाव के बाद संगीत-निर्देशकों को एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गए’

लोक कलाकार पिता दीनानाथ तथा महाराष्ट्र, विशेषतः भेंडीबाजार घराने, की मिली-जुली मंचीय तथा शास्त्रीय परंपराओं में पली-बढ़ी, अविवाहित रहकर अपनी विधवा मां और बेसहारा भाई-बहनों का आसरा बनने का संकल्प करने वाली लता को प्रकृति ने अप्रतिम कंठ दिया ही था. ऐसी नारी भीष्म-प्रतिज्ञा शायद मराठी समाज और संस्कृति में ही संभव थी. हिंदी पार्श्वगायन में लता के प्रारंभिक तीन वर्ष संघर्ष के थे किंतु ठीक इन्हीं वर्षों में उन्होंने नूरजहां और शमशाद बेगम जैसी बड़ी गायिकाओं सहित सभी पूर्ववर्ती स्त्री-कंठों को अनचाहे ही कारुणिक रूप से सीमित या पुराना सिद्ध कर डाला. शायद अपने जमानों में सिर्फ एला फिट्जेरल्ड ने अमेरिका में, उम कुलसुम ने मिस्र में, एदीत प्याफ़ ने फ्रांस में और नाना मूस्हूरी ने यूनान में ऐसा कारनामा अंजाम दिया था. लेकिन जिस लता की आवाज सारी दक्षिण एशियाई नारी के जीवन की सभी भावनाओं और पड़ावों की आवाज बन गई, वैसा अब तक संसार में कहीं और नहीं हो पाया है. उन्हें यदि कभी चुनौती मिली भी तो अपनी छोटी बहन आशा से ही. यह भी एक पारिवारिक विश्व कीर्तिमान है.
लता के आविर्भाव के पहले जैसे हिंदी फिल्म संगीत-निर्देशकों का एक हाथ बंधा हुआ था. लता के कंठ ने उनकी प्रतिभा को नित-नयी उड़ान और चुनौती दी. उन्हें एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गये. अनिल विश्वास (तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, याद रखना चांद-तारों), खेमचंद प्रकाश (आएगा आने वाला), सी रामचंद्र (ये जिंदगी उसी की है, धीरे से आ जा री अंखियन में, कटते हैं दुख में ये दिन), नौशाद (बचपन की मुहब्बत को, जाने वाले से मुलाकात न होने पाई, मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार, फिर तेरी कहानी याद आई), रोशन (हे री मैं तो प्रेम दीवानी, देखो जी मेरा जिया चुराए, सखी री मेरा मन उलझे), शंकर जयकिशन (मेरी आंखों में बस गया, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, मेरे सपने में आना रे, मुरली बैरन भई), मदन मोहन (प्रीतम मेरी दुनिया में, सपने में सजन से दो बातें, माई री मैं कासे कहूं, मेरी वीणा तुम बिन रोए), सचिनदेव बर्मन (तुम न जाने किस जहां में, ठंडी हवाएं, आंख खुलते ही), वसंत देसाई (दिल का खिलौना हाय टूट गया, तेरे सुर और मेरे गीत), गुलाम मोहम्मद (शिकायत क्या करूं, रात है तारों भरी, चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, ठाढ़े रहियो ओ बांके यार), खय्याम (बहारों मेरा जीवन भी संवारो, आप यूं फासलों से गुजरते रहे, दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया), राहुलदेव बर्मन (पार लगा दे, रैना बीती जाए, शर्म आती है मगर), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी, कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार, आया आया अटरिया पे कोई चोर, बड़ा दुख दीना तेरे लखन ने), हेमंत कुमार (मन डोले मेरा तन डोले, छिप गया कोई रे, कहीं दीप जले कहीं दिल) तथा जयदेव, चित्रगुप्त, रवि, कल्याणजी-आनंदजी, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी आदि अन्य संगीतकारों की कुछ बेहतरीन धुनें लता के स्वर से ही चरितार्थ हो सकीं. उन्होंने आज के युवतर संगीतकारों के लिए भी अपना सर्वश्रेष्ठ गाने की कोशिश की है. आज के डिजिटल और सिंथेसाइजर युग में तो मुर्गे-मुर्गियां भी कोयल और बुलबुल बना दिए जा रहे हैं, जबकि लता ने सिर्फ अपनी मेहनत, लगन, आवाज़ और प्रतिभा के बल पर जीते-जी अमरत्व प्राप्त किया है.

उनके गीत आज भी लाखों की तादाद में बिकते हैं. अस्सी से लेकर आठ साल तक के करोड़ों श्रोता उन्हें रोज सुनते हैं. इंटरनेट ने उनके हजारों गानों को, जिनमें से कई नायाब थे, भूमंडलीय बना दिया है. वे सार्क-भावना का स्वर्णिम अवतार हैं. लता के सर्वश्रेष्ठ गीत कितने-कौन से हैं, इस पर कभी सर्वसम्मति नहीं हो सकती. यह कुछ-कुछ ‘हर ख्वाहिश पे दम निकले’ वाला गालिबाना मामला है. हर लता-प्रेमी के पास अपनी एक फेहरिस्त है, जिसे लेकर वह मरने-मारने पर आमादा हो जाता है. हम इसी में धन्य हैं कि जिस वक्त और फिजा में वे आलाप लेती हैं, उनमें हम भी सांस लेते हैं और इस खुशफहमी में जीते हैं कि लता को कोई और हमसे ज्यादा सराह और समझ ही नहीं सकता.

‘चांद उनका संग-ए-मील है’

जैसे पुरखों का बिरसा (विरासत) होता है, गायिकी का बिरसा भी इसी तरह ध्रुपद, ख्याल, भजन, ठुमरी के बहाने हमें मिला हुआ है. अगर हम पिछले सौ सालों के भारतीय फिल्मों के इतिहास में चले आए हुए आवाज के बिरसे की बात करें, तो उसमें मिली हुई लता जी की आवाज एक नेमत की तरह लगती है.

‘सलिल दा जैसे संगीतकार की धुनों में भी कितनी ही भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं’

पिछली सदी में बहुत बड़े-बड़े फनकारों ने खूब कमाल का गाया है. उसमें बड़े गुलाम अली खां, अमीर खां साहेब और किशोरी अमोनकर जी ने बहुत उम्दा गाया है, मगर उन सबका गाना खुद के लिए है. यहीं से लता जी की आवाज की एक अलग विरासत बनती है. दूसरे की आवाज़ बनकर गाना कमाल की चीज है. यह वाहिद मिसाल लता जी से शुरू होती है. सहगल भी कभी दूसरे की आवाज नहीं बने. उनका गायन बहुत स्तरीय होकर भी खुद का गायन था. लता जी की आवाज चांद पर पहुंची हुई आवाज है. वे नील आर्मस्ट्रांग हैं, जो सबसे पहले चांद पर कदम रखने की सफलता हासिल करती हैं. हालांकि आशा जी भी उसी यान में खिड़की की दूसरी तरफ बैठी थीं.

लता जी की गायिकी के बारे में कुछ बातें हैरत में डालती हैं. मसलन यह कि कहानी, कैरेक्टर, सिचुएशन, फिल्म, संगीत और गीत किसी के भी हों, अगर उसे लता जी गा रही हैं, तो वह बरबस लता जी का गाना बन जाता है. बाद में और कोई जानकारी या तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाते. यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. उनकी आवाज, मेलोडी और तैयारी कमाल की है, डेडीकेशन जैसी चीज़ लता जी से सीखने वाली है. उनकी गायिकी में कुछ अलग है, अब यह अदा है, फन है या अलग तरह की आर्ट. या सब का मिला-जुला एक निहायत खुशनुमा पड़ाव. उन्होंने अरेबियन नाइट्स की कहानियों की तरह आवाज का ऐसा जादुई कालीन अपने गीतों के बहाने बिछाया हुआ है जिस पर पिछले पचास-साठ साल से न जाने कितने लोग चहलकदमी कर रहे हैं. आप उनका ‘रसिक बलमा’ सुनें तो उसी सम्मोहन में पड़ जाते हैं, जैसे बच्चे जादू और तिलिस्म की कहानियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. सलिल दा जैसे जटिल धुनों को बनाने में माहिर संगीतकार की धुनों में भी कितनी भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ ऐसी ही एक जटिल धुन पर सहजता से फिसलती हुई रचना है.

उनके लिए गाना लिखते हुए हमेशा यही लगता है कि कोई सिमली (रूपक) अगर जेहन में आती है, तो लता जी उस पर किस तरह रिएक्ट करेंगी. एक बार ‘देवदास’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त मेरे गीत में आई हुई इस पंक्ति ‘सरौली से मीठी लागे’ के बारे में वे बोलीं, ‘ये सरौली क्या है?’ ‘सरौली एक आम है, बहुत सुर्ख होता है, हम बचपन में उसे चूस-चूस कर खाते थे. क्या गाने से इसे निकाल दूं’ मैंने पूछा. ‘अरे नहीं! इसे ऐसे ही रहने दीजिए, मैं बस इसलिए पूछ रही हूं कि जानना चाहती थी कि इसकी मिठास कितनी होती है’ इसी तरह जब हम ‘घर’ के एक गाने की रिहर्सल पंचम के साथ कर रहे थे, तब वह उसके गाने ‘आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं’ में आगे आने वाली लाइन ‘आपकी बदमाशियों के ये नये अंदाज हैं’ के बारे में बेहद परेशान था. उसने मुझसे कहा, ‘शायरी में बदमाशी कैसे चलेगी? फिर ये लता दीदी गाने वाली हैं.’ मैंने कहा ‘तुम रखो, लता जी को पसंद नहीं आया तो हटा देंगे.’ लता जी से रिकार्डिंग के बाद पूछा ‘गाना ठीक लगा आपको? ‘हां अच्छा था.’ ‘वह बदमाशियों वाली लाईन?’ ‘अरे, वही तो अच्छा था इस गाने में. उसी शब्द ने तो कुछ अलग बनाया इस गाने को.’ लता जी का यह गाना आपको ध्यान होगा, वहां गाते हुए वे खनकदार हंसी में बदमाशियों वाले शब्द का इस्तेमाल करती हैं और उसकी अभिव्यक्ति को और अधिक बढ़ा देती हैं.

हम खुशकिस्मत हैं कि पिछली सदी में उनकी आवाज को हमने करीब से सुना है और उनके लिए कुछ गीतों को लिखने का सौभाग्य अपने खाते में दर्ज करा पाए हैं. आप उनके गाने को सुनकर ऐसा नहीं कह सकते कि ‘अरे यार, क्या कमाल का गाती हैं.’ आप ऐसा कर ही नहीं सकते. उनके संगीत के लिए हमेशा एहतराम लगता है. इज्जत की भावना अपने आप मन में उठती है. कोई नाशाइस्ता शब्द उनकी गायिकी के लिए हम सोच भी नहीं सकते. उनकी आवाज और गायन में कोई मशक्कत नजर नहीं आती. वह सहज है और भीतर से निकली हुई इबादत की तरह है. वे संग-ए-मील हैं.

(यतीन्द्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)

फिल्म अभी बाकी थी…

चार सितंबर. इतवार की सुबह थी. मेरे लिए अपना उपन्यास लिखने का दिन. तभी बंबई से रवि रावत का फोन आया. ‘ज्ञान जी, बुरी खबर है.’ रवि को मैंने चार दिन पहले ही भिजवाकर मूंदड़ा जी से मिलवाया था. ‘किस्सा कुत्ते का’ फिल्म लिखी है मैंने, मूंदड़ा जी के लिए. रवि को इस फिल्म के कलाकारों को ‘बुंदेलखंडी एसेंट’ (लहजा) में संवाद बोलने की रिहर्सल करानी थी. वह तो बस एक बार ही मिला उनसे. चार दिन की मुलाकात कह लें. पर ऐसा अभिभूत-सा था कि उनके बारे में लंबी बातें करता रहा था मुझसे. और उनकी मौत से उसी तरह स्तब्ध था जैसे उनके सगे-संगी-साथी. तो जब रवि ने कहा कि बुरी खबर है, तो मेरे अवचेतन मन ने मुझे मानो झकझोर कर चेताया कि वह अवश्य जगमोहन मूंदड़ा के बारे में ही कोई खबर दे रहा है. वही निकली भी. अभी मूंदड़ा जी नहीं रहे. दो दिन से आईसीयू में थे. बताया. पर तीन दिन पहले ही तो मेरी उनसे फोन पर देर रात लंबी बात हुई थी. एकदम बढ़िया थे. मैंने स्क्रिप्ट के चार अतिरिक्त दृश्य और लिख कर उनको ई-मेल किए थे. किए तो सात थे. चार रखे थे उन्होंने. बेहद उत्साहित होकर उन दृश्यों की तारीफ करते रहे थे कि अब अपनी स्क्रिप्ट एकदम मुकम्मल हो गई ज्ञान जी.

हॉलीवुड के बड़े-बड़े निर्देशक भी बेहद पढ़े-लिखे जगमोहन मूंदड़ा के कार्ड पर एमबीए पीएचडी देखकर कन्नी काट जाते थे

वे मुझे ज्ञान जी ही कहते और स्वयं फिल्म जगत में ‘भाई साहब’ नाम से संबोधित होते थे. यह नाम उन्हें राजेश राही ने दिया था जो पिछले 15 साल से विभिन्न प्रोजेक्टों में उनके चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर रहे हैं. मैं फोन करता और उनके ज्ञान जी कहने की प्रतीक्षा करता. उनके ज्ञान जी कहने में कुछ अलग ही बात थी. वे एक मधुर-सा आलाप लेकर ज्ञान जी कहते. उस तीन अक्षरों की ध्वनि में इतना प्यार, आदर और आत्मीयता होती कि हर बार मेरा दिल भर आता. उनकी कॉलर ट्यून सुनने के लिए भी फोन किया जा सकता था. फोन करो तो वह गाना बज उठता जो कदाचित जगमोहन मूंदड़ा के जीवन दर्शन को भी बयान करता था. ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.’ यही तो थी उनकी जिंदगी भी. ‘ज्ञान जी, यह टांग कटने वाली ही थी. बंबई में डॉक्टर यही कह रहे थे. मैंने भी कहा कि चलो यही सही. काटो. फिर वाइफ ने कहा तो अमेरिका चले गए. लंबे इलाज के बाद टांग तो बच गई. पर टांग पर यह सूजन तभी से बनी रहती है. बनी रहे. क्यों ज्ञान जी…’ वे अपनी कटते-कटते बची चोटिल टांग, अपने दिल, अपनी एंजियोप्लास्टी, कमला फिल्म के जमाने में उन पर चलाए गए मुकदमों, करियर के शुरुआती दौर में हॉलीवुड में किसी भी प्रोड्यूसर द्वारा घास न डालने के असफल दिनों से लगाकर नॉटी एट फार्टी वाली हाल की गोविंदा अभिनीत फिल्म के डेट्स से लेकर रिलीज तक की अनगिन फिक्रों की बातें कुछ इसी तरह बेपरवाह होकर करते थे. कद छह फुट से कुछ इंच ऊपर ही. वजन भी खासा. होंगे 120 किलो के. खिले लहीम सहीम बदन वाला कहते हैं न, वैसा. पर कितनी ऊर्जा. कितना जीवट. बड़े से पेट पर लैपटॉप रखकर मेरे साथ दस घंटे की लंबी सिटिंग लगातार दो दिन तक की. इसी जुलाई माह में. भोपाल में. वही, मैं, सर (मैं उन्हें मूंदड़ा सर ही कहता था) और उनके अनन्य मित्र दीपक पुरोहित जी. हम हर सीन पढ़ते. मैं हर सीन के संवाद फायनल करता जा रहा था. सीन दुरुस्त किए जा रहे थे. मूंदड़ा जी स्वयं लैपटॉप पर यह सब टाइप करते चले जा रहे थे. लगातार दस घंटों तक. ‘आपके जाने के बाद रात दो बजे तक सारा मैटर दोबारा लैपटॉप पर दुरुस्त करता रहा, ज्ञान जी…’ वे अगली दोपहर बड़े उत्साह से बता रहे हैं. बेहद मेहनती. फिल्म को लेकर हरदम एक जुनून में गिरफ्तार. ‘हैदराबाद की फिल्मसिटी में स्टूडियो बुक कर रहा हूं. करा लूं? आप फलानी तारीख तक सीन भेज सकेंगे? ज्ञान जी, ज्ञान जी, बहुत बढ़िया सीन लिखा है. इंडस्ट्री में खबर चल गई है कि मूंदड़ा जी के पास बहुत बढ़िया स्क्रिप्ट  है. ज्ञान जी, रघुवीर यादव के साथ आज सिटिंग है, शर्मिष्ठा चटर्जी बेहद एक्साइटेड है…’ चाहे जब फोन पर बताते कि काम कैसा चल रहा है. वे इतवार दिनांक चार सितंबर की सुबह अचानक यूं चले गए वरना इसी दस सितंबर से तो उन्हें ‘किस्सा कुत्ते का’ की शूटिंग शुरू करनी थी. उस बाकायदा रजिस्टर्ड, छपी, करीने से बाइंड की गई स्क्रिप्ट  की जो कॉपी मूंदड़ा जी ने मुझे बंबई से भेजी थी, मेरी टेबल पर उदास-सी पड़ी है. कई बार किताबें भी अनाथ हो जाती हैं क्या? शायद हां. क्योंकि अब यदि कोई इसे बनाएगा भी तो क्या वह बात आएगी? शायद राजेश राही बना सकें क्योंकि वे इस
फिल्म के कागजी दिनों में लगातार साथ थे. उनके विजन के साक्षी.

मैं स्क्रिप्ट  पूरा होने तक मूंदड़ा को एक आम फिल्मी हस्ती ही मानता रहा जो एक बेहतर इंसान भी है. बस. यदि हम स्क्रिप्ट  पूरा होने की खुशी में दिए गए डिनर मंे शामिल न होते तो मैं मूंदड़ा की वह कहानी आपको न बता पाता जो आगे बताने जा रहा हूं. डिनर था, छोटा-सा. मैं, मेरी पत्नी डॉ शशि, दीपक पुरोहित और मूंदड़ा जी. बस. होटल जहनुमां में अभी कोई टेबल खाली नहीं था. हम लाउंज में जाकर बैठ गए. मैंने यूं ही पूछ लिया और मेरी बात के जवाब में मूंदड़ा जी ने अपनी जो जीवन गाथा के पन्ने हमें उस दिन पढ़वाए, वे स्वयं एक अद्भुत कहानी का हिस्सा थे. डेढ़ घंटे तक वे अपनी, फिल्मों से भी ज्यादा दिलचस्प जीवन कथा सुनाते रहे. खाना-वाना तो फिर उसके बाद ही हुआ. शायद नया दौर थी, या मुगले आजम जिसे स्कूली छात्र जगमोहन ने देखा और ऐसा अभिभूत हुआ कि उसने तभी यह तय कर लिया कि बड़ा होकर फिल्मकार बनेगा. पढ़ने में बहुत होशियार. आईआईटी बंबई में चुन लिए गए. इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर बन गए. पर मन में यह बात कहीं गहरे गड़ी थी कि जीवन में अंततः फिल्में ही बनानी हैं. कैसे बनाएंगे? कौन बनवाएगा? यह पता नहीं. पर बनाऊंगा  यह पक्का था. अमेरिका में वजीफे के साथ एमबीए करने का अवसर मिल गया. दिन में एमबीए, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. दोनों में डिग्री भी मिल गई. वजीफे के साथ पीएचडी का मौका मिला. मार्केटिंग में. डरते-डराते पूछा कि क्या मैं अंग्रेजी फिल्मों की मार्केटिंग और हिंदी फिल्मों की मार्केटिंग के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कर सकता हूं. क्यों नहीं. जरूर. करो.

इसी विषय पर पीएचडी की भी. इसी बहाने बंबई में फिल्मी सीन को समझा. फिर वर्ल्ड बैंक में बड़ी कमाई वाली नौकरी के ऑफर को ठुकराकर लॉस एंजिलिस में मार्केटिंग के प्रोफेसर हो गए. लॉस एंजिलिस में ही क्यों? क्योंकि हॉलीवुड पास है. दिन में प्रोफेसरी, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. पांच साल तक यह किया. फिर एक दिन तय किया कि प्रोफेसरी आदि सब छोड़कर ही फिल्में ही बनानी हैं. छोड़ दी प्रोफेसरी. विजिटिंग कार्ड पर जेग मूंदड़ा छपवाया क्योंकि हॉलीवुड के प्रोड्यूसर भी विद्वान, बहुत पढ़े-लिखे उस जगमोहन मूंदड़ा, एमबीए, पीएचडी का कार्ड देखकर कन्नी काट जाते थे. फिर स्टूडियो के चक्कर. हर जगह असफलताएं. फिर होम वीडियो सर्किट के दौर में ब्रेक मिला तो बीस अंग्रेजी फिल्में बना डालीं. लिखना, डायरेक्ट करना, सब. पैसे भी खूब आ गए. जीवन ठीक चल पड़ा. फिर विजय अमृतराज की वह फिल्म मिली जो चार मिलियन डॉलर में बनी पर अपने निर्माता को चार सौ मिलियन डॉलर कमा कर दे गई. जग मूंदड़ा रातोंरात बड़े डायरेक्टर बन गया. फिल्में मिलीं. पैसा मिला. नाम हुआ. पर कभी बंबई आते तो पाते कि यहां का मीडिया और फिल्मवाले उन्हें ‘सेमी पोर्नो’ बनाने वाला मानते हैं. क्या करें? तब उन्होंने यहां बंबई आकर विजय तेंदुलकर के नाटक (और सच्ची घटना) पर ‘कमला’ बनाई. दीप्ति नवल को लेकर. फिर ऐश्वर्या राय की ‘प्रोवोक्ड’. नंदिता दास की ‘बवंडर’. और इस तरह वे सच्ची घटनाओं पर सामाजिक पड़ताल करने वाली फिल्में बनाने वाले कहलाने लगे.

तो स्क्रिप्ट का काम, तीन माह का समय, फोन कॉल, ई-मेल, बैठकों के इतने दौरों के बाद भी मुझे उनके बारे में यह सब न पता चलता यदि वह जहनुमां वाला डिनर साथ न लेते. उस दिन मैंने जाना कि मूंदड़ा क्यों मुझे आम फिल्मकार से इतने अलग-से लगते थे. वे अलग ही थे. बेहद व्यवस्थित, ईमानदार, जीवन को समझने वाले और भारत के गांवों को जानने की तड़प वाला व्यक्ति. ‘किस्सा कुत्ते का’ की एक लाइन की सच्ची घटना वाली एक कहानी लेकर वे मुझसे मिले थे. साफ कहा कि मैंने आपको कभी नहीं पढ़ा है परंतु दीपक पुरोहित कहता है कि इस विषय को केवल ज्ञान जी लिख सकते हैं. ठाकुर (जमींदार) के कुत्ते को दलित महिला द्वारा रोटी डालना. कुत्ते द्वारा रोटी खाने के बाद ठाकुर द्वारा पंचायत बिठाना. कुत्ते का जाति परिवर्तन करके उसे पंचायत द्वारा दलित घोषित करना. दलित महिला पर पंचायत द्वारा जुर्माना भी. इस सेंट्रल थीम पर हमने मिलकर एक शानदार रोचक व्यंग्य फिल्म की स्क्रिप्ट पूरी की थी. मूंदड़ा जी अक्टूबर तक इसे शूट करके जनवरी में किसी फिल्म फेस्टिवल में ले जाने वाले थे. सब धरा रह गया. ऊपर वाले की स्क्रिप्ट में तो ‘दी एंड’ कभी भी आ जाता है. जब सबको लग रहा था कि अभी तो कितनी कहानी बाकी है, तभी जगमोहन मूंदड़ा की फिल्म खत्म हो गई. और हम प्रेक्षागृह में भौंचक बैठे हैं. अवाक. 

सुर कलश छलके…

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है—गर याद रहे
                                   (फिल्म: किनारा, गीतकार: गुलजार)

असीम श्रद्धा और भावुकता के साथ ही लता मंगेशकर के बारे में कोई बात शुरू की जा सकती है. पिछली कई सदियों से संगीत की जो महान परंपरा हम मीराबाई, बैजू बावरा, स्वामी हरिदास और तानसेन के माध्यम से सुनते-गुनते आ रहे हैं, उसमें लता मंगेशकर का नाम बिना किसी हीला-हवाली के जोड़ा जा सकता है. इसी वर्ष 28 सितंबर को जब वे 83वें वर्ष में प्रवेश करेंगी तब उनके बारे में कुछ भी नये सिरे से बताने का प्रयास इस देश के 125 करोड़ लोगों को कमतर समझने की हिमाकत भी माना जा सकता है. कहा जा सकता है कि इस देश में चारों ओर रहने वाले सवा अरब लोग जिस समानता की डोर से कहीं न कहीं जुड़े दिखाई देते हैं वह लता मंगेशकर की आवाज के रेशमी धागे के कारण भी संभव हुआ है.

‘महल’ फिल्म के इतिहास बन चुके गीत ‘आएगा आने वाला’ से लता जी का हिंदी फिल्म संगीत में कुछ-कुछ वैसा ही प्रादुर्भाव हुआ जैसा इस फिल्म का सनसनीखेज कथानक था. इस गीत के मुखड़े की शुरुआती पंक्तियां हैं – ‘खामोश है जमाना चुपचाप हैं सितारे/आराम से है दुनिया बेकल हैं दिल के मारे/ऐसे में कोई आहट इस तरह आ रही है/जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे/या दिल धड़क रहा है इस आस के सहारे…’ आज जब उन्हें एक किंवदंती बने लगभग सत्तर साल बीत चुके हैं तो लगता है कि जैसे ये पंक्तियां फिल्म संगीत के आंगन में उनके लिए बिछाया गया लाल गलीचा हों. जैसे सबको उनके आने की आहट सुनाई दे रही थी और उनके आने से पहले सारा जमाना खामोश था.

बतौर पार्श्व गायिका सबसे पहला गीत लता जी ने मराठी फिल्म किती हसाल के लिये महज साढ़े बारह साल की अवस्था में रिकॉर्ड करवाया था. गीत के बोल थे नाचू या आडे खेलू सारी, मनी कौस भारी. संगीतकार थे सदाशिवराव नेवरेकर. किन्तु यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया.लता जी मात्र छह साल की रही होंगी जब उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ने उनकी संगीत शिक्षा का विधिवत आरंभ उन्हें पूरिया धनाश्री राग सिखाते हुए किया था. उन्होंने उस समय नन्ही लता से कहा था – ‘जिस तरह कविता में शब्दों का अर्थ होता है, वैसे ही गीत में सुरों का भी अर्थ होता है. गाते समय दोनों अर्थ उभरने चाहिए.’ इसे आज तक अपने सुर संसार में जस का तस निभाते हुए लता मंगेशकर पिता को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दिए जा रही हैं. आज के दौर के युवाओं से लेकर तीन पीढ़ी ऊपर तक के बुजुर्गों में लता मंगेशकर की आवाज का साम्राज्य कुछ इस कदर पसरा हुआ है कि उसके प्रभाव का आकलन पूरी तरह कर पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है. कई बार ऐसा लगता है कि वे एक ऐसी जीवंत उपस्थिति हैं जिनके लिये कहा जा सकता है कि वे पुराणों व मिथकीय अवधारणाओं के किसी गंधर्व लोक से निकलकर आई हैं. एक ऐसी स्वप्निल और जादुई दुनिया से जिसमें सिर्फ देवदूतों और गंधर्वों को आने-जाने की आजादी है. लता मंगेशकर जैसी अदम्य उपस्थिति के लिए प्रख्यात गीतकार जावेद अख्तर का यह कथन बहुत दुरुस्त लगता है – ‘हमारे पास एक चांद है, एक सूरज है, तो एक लता मंगेशकर भी हैं.’

लता मंगेशकर ने अपनी आवाज की चिरदैवीय उपस्थिति से पिछले करीब छह दशकों को इतने खुशनुमा ढंग से रोशन किया है कि हम आज अंदाजा तक नहीं लगा सकते कि यदि उनकी 1947 में आमद न होती तो भारतीय फिल्म संगीत कैसा होता. संगीत जगत में लता मंगेशकर के आगमन का समय भारतीय राजनीतिक इतिहास के भी नवजागरण का काल था. स्वाधीनता के बाद जैसे-जैसे भारतीय जनमानस अपनी नयी सोच और उत्साह के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, लता जी की मौजूदगी में हिंदी फिल्म संगीत भी आनंद और स्फूर्ति के साथ उसी रास्ते जा रहा था. यह अकारण नहीं है कि 1948 में गुलाम हैदर के संगीत से सजी मजबूर फिल्म का लता-मुकेश का गाया हुआ गीत ‘अब डरने की बात नहीं अंग्रेजी छोरा चला गया’ उस वक्त जैसे हर भारतीय की सबसे मनचाही अभिव्यक्ति बन गया था. उन्हीं मास्टर गुलाम हैदर ने भारत में अपने संगीत कॅरियर का अंतिम गाना (‘बेदर्द तेरे दर्द को सीने से लगा के’) 1948 में लता से पद्मिनी में गवाया. वे उसी दिन भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए. लता जी के संगीत जीवन के साथ इस तरह की न जाने कितनी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में बदल चुकी तिथियां भी जुड़ी हुई हैं, जो आज भारतीय समाज में अपना कुछ दूसरा ही मुकाम रखती हैं.

लता मंगेशकर को महल (1948) के जिस गीत ‘आएगा आने वाला’ ने शोहरत दिलाई, उसके लिए उन्हें 22 रीटेक देने पड़े थे. ‘महल’ के वास्तविक रिकॉर्ड पर गायन का श्रेय कामिनी को दिया गया है. यह फिल्म के उस किरदार का नाम था, जिस पर गीत फिल्माया गया था. उन दिनों पार्श्व गायकों-गायिकाओं के नाम की जगह किरदार का नाम दिये जाने का चलन था.यह देखने की बात है कि उनके संगीत के दृश्यपटल पर आने वाले साल में ही केएल सहगल का इंतकाल हो चुका था और मलका-ए-तरन्नुम नूरजहां विभाजन के बाद पाकिस्तान जा चुकी थीं. यह एक प्रकार से फिल्म इतिहास का ऐसा नाजुक दौर था जिसमें इन दो मूर्धन्यों की भरपाई का अकेला जिम्मा जिन लोगों के कंधे पर आया उनमें से सबसे प्रमुख लता मंगेशकर हैं. जाहिर है, संक्रमण के इस काल में लता के भीतर छिपी हुई किसी बड़ी प्रतिभा की पहचान खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल-भगतराम, नौशाद और शंकर-जयकिशन जैसे दिग्गज संगीत निर्देशकों ने की और 1948-49 के दौरान ही उनकी चार बेहद महत्वपूर्ण फिल्में हिंदी सिनेमा के संगीत परिदृश्य को एकाएक बदलने के लिए आ गईं. ये फिल्में थीं महल, बड़ी बहन, अंदाज और बरसात.

इसके बाद पुरानी मान्यताओं, स्थापित शीर्षस्थ गायिकाओं एवं संगीतप्रधान फिल्मों के स्टीरियोटाइप में बड़ा परिवर्तन दिखने लगता है. लता खुशनुमा आजादी की तरह ही एक नये ढंग की ऊर्जा, आवाज के नये-नये प्रयोग एवं शास्त्रीय संगीत की सूक्ष्म पकड़ के साथ हिंदी फिल्म संगीत के लिए सबसे प्रभावी व असरकारी उपस्थिति बनने लगती हैं. ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात) जैसा गीत उसी बहाव, दिशा और नये क्षितिज की ओर फिल्म संगीत को उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाजों के घूंघट में पल रहा था.

लता मंगेशकर आवाज की दुनिया की एक ऐसी घटना हैं जिसके घटने से इस धारणा को प्रतिष्ठा मिली कि गायन का क्षेत्र सिर्फ मठ-मंदिरों, हवेलियों और नाचघरों तक सीमित न रहकर एक चायवाले या बाल काटने वाले की दुकान में भी अपने सबसे उज्जवल अर्थों में अपने पंख फैला सकता है. उनके आने के बाद से ही लोगों की बेपनाह प्रतिक्रियाओं से तंग आकर रिकॉर्ड कंपनियों ने पहली बार फिल्मों के तवों पर पार्श्वगायकों एवं गायिकाओं के नाम देना शुरू किया. वे भारत में फिल्म संगीत का उसी तरह कायाकल्प करती दिखाई देती हैं, जिस तरह पारंपरिक नृत्य-कलाओं में क्रांतिकारी बदलाव ढूंढ़ने का काम रुक्मिणी देवी अरुंडेल, बालासरस्वती एवं इंद्राणी रहमान जैसी नर्तकियों ने अपने समय में किया. स्वाधीनता के बाद उनकी आवाज संघर्षशील तबके से आने वाली उस स्त्री की आवाज बन गई जिसे तब का समाज बिल्कुल नए संदर्भों में देख-परख रहा था.

लता जी से पहले स्थापित गायिकाओं कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालेवाली, सुरैया, राजकुमारी, शमशाद बेगम के विपरीत लता मंगेशकर का स्वर एक ऐसे उन्मुक्त माहौल को रचने में सफल होता दिखाई पड़ा जिसकी हिंदी फिल्म जगत को भी बरसों से दरकार थी. उनके गायन की विविधता में स्त्री किरदारों के बहुत-से ऐसे प्रसंगों को पहली बार अभिव्यक्ति मिली जो शायद सुरैया या जोहराबाई जैसी आवाज में संभव नहीं थी. उस दौर की अनगिनत फिल्मों में एकाएक उभर आए औरत के प्रगतिशील चेहरे के पीछे लता जी की आवाज ही प्रमुखता से सुनाई पड़ती है. 1952 में आई जिया सरहदी की ‘हम लोग’ का ‘चली जा चली जा छोड़ के दुनिया, आहों की दुनिया’ से लेकर ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए’ (पतिता), ‘औरत ने जनम दिया मरदों को’ (साधना), ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा), ‘वंदे मातरम्’ (आनंद मठ), ‘फैली हुई है सपनों की बांहें’ (हाउस नं- 44), ‘जागो मोहन प्यारे’ (जागते रहो), ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला’ (दो आंखें बारह हाथ), ‘तेरे सब गम मिलें मुझको’ (हमदर्द), ‘हमारे बाद महफिल में अफसाने बयां होंगे’ (बागी) ऐसे ही कुछ गीत हैं.

लता मंगेशकर ने अपने पिताजी मास्टर दीनानाथ मंगेशकर का दिया हुआ तम्बूरा (तानपूरा) और संगीत की नोटेशन पुस्तिका आज तक संभाल कर रखी है.यह स्थिति दिनोंदिन सुदृढ़ ही होती गई. साठ के दशक तक आते-आते तो इस बात की होड़-सी मच गई कि किस फिल्म का स्त्री किरदार दूसरी फिल्मों की तुलना में कितना मजबूत, केंद्रीय और भावप्रवण है. जिन फिल्मों में सीधे ही औरत की कोई ऐसी भूमिका नहीं थी, वहां ऐसी गुंजाइश गीतों के बहाने निकाली जाने लगी. ऐसे में लता मंगेशकर एक जरूरत या जरूरी तत्व की तरह भारतीय सिनेमा जगत पर छा गईं. शायद इसी वजह से साठ का दशक सिनेमा के अधिकांश अध्येताओं को लता जी का स्वर्णिम दौर लगता है. इस दौर की कुछ फिल्में इस संदर्भ में भी याद करने लायक हैं कि इनमें लता मंगेशकर की मौजूदगी अकेले ही इतिहास रचने में सक्षम नजर आती है. ऐसे में आसानी से हम गजरे, परख, अनुपमा, छाया, ममता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मधुमती, गाइड, माया, चित्रलेखा, डॉ. विद्या, अनुराधा, आरती, मान, अनारकली, यास्मीन, दुल्हन एक रात की, अदालत, गंगा-जमुना, सरस्वतीचंद्र, वो कौन थी, आजाद, संजोग, घूंघट, भीगी रात, बेनजीर, कठपुतली, पटरानी, काली टोपी लाल रुमाल एवं मदर इंडिया जैसी फिल्मों के नाम ले सकते हैं. इस दौर में बहुत सारे संगीतकारों के साथ बनने वाली उनकी कला की ज्यामिति ने जैसे कीर्तिमानों का एक अध्याय ही रच डाला. आज भी उनका नाम मदन मोहन के साथ अमर गजलों, नौशाद के साथ विशुद्ध लोक-संगीत, एसडी बर्मन के साथ राग आश्रित नृत्यपरक गीतों, सी रामचंद्र के साथ बेहतर आर्केस्ट्रेशन पर आधुनिक ढंग की मेलोडी, सलिल चौधरी के साथ बांग्ला एवं असमिया लोक संगीत और विदेशी सिंफनीज पर आधारित कुछ मौलिक प्रयोगों, रोशन के साथ शास्त्रीयता एवं रागदारी, खय्याम के साथ प्रयोगधर्मी धुनों तथा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ सदाबहार लोकप्रिय एकल गीतों के लिए असाधारण ढंग से याद किया जाता है.

यह देखना भी दिलचस्प है कि पिछले साठ-सत्तर सालों में बनने वाली ढेरों ऐतिहासिक एवं पौराणिक फिल्मों में लता मंगेशकर एक स्थायी तत्व की तरह शामिल रही हैं. उनकी यह उपस्थिति, सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों से अलग, एक दूसरे ही किस्म का मायालोक रचने में सफल साबित हुई है. यह लीक बैजू बावरा, अनारकली, नागिन, रानी रूपमती जैसी फिल्मों से शुरू होकर, मुगले आजम, शबाब, सोहनी महिवाल, कवि कालिदास, झनक-झनक पायल बाजे, संगीत सम्राट तानसेन, ताजमहल से होती हुई बहुत बाद में आम्रपाली, नूरजहां, हरिश्चंद्र तारामती, सती-सावित्री, पाकीजा और अस्सी के दशक तक आते-आते रजिया सुल्तान एवं उत्सव तक फैली हुई है. इन फिल्मों के गीतों का उल्लेख होने भर से तमाम अमर धुनों और लता जी की आवाज का जादू मन-मस्तिष्क में घुलने लगता है. इस तरह की पीरियड फिल्मों के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनके गीतों को सुनते हुए यह ध्यान ही नहीं आता कि इनकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक, मिथकीय या ऐतिहासिक कथा आकार ले रही है. वहां सिर्फ गीत की अपनी स्नेहिल मौजूदगी में वही जादू घटता है जो किसी दूसरे और निहायत अलग विषय-वस्तु के सिनेमा में भी महसूस किया जाता रहा है. मसलन, ‘आजा भंवर सूनी डगर’ (रानी रूपमती), ‘शाम भई घनश्याम न आए’ (कवि कालिदास), ‘खुदा निगहबान हो तुम्हारा’ (मुगले आजम), ‘जुर्मे उल्फत पे हमें लोग सजा’ (ताजमहल), ‘तड़प ये दिन रात की’ (आम्रपाली), ‘ऐ दिले नादां’ (रजिया सुल्तान), ‘नीलम के नभ छाई’ (उत्सव) जैसे गाने सिर्फ किरदारों की जद में कैद नहीं रहते. इस तरह की कोई स्थिति या संभावना तक पहुंचने की प्रतिष्ठा शायद किसी कलाकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है. यहां प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की यह उक्ति ध्यान देने योग्य है, ‘लड़की एक रोज गाती है. गाती रहती है अनवरत. यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता. फिर भी लोग सुनते जा रहे हैं पागलों की तरह.’

लताजी संगीतकार मदन मोहन द्वारा रचित गीत बैरन नींद न आये (चाचा जिन्दाबाद, 1959) को अपने संगीत यात्रा की एकमात्र त्रुटिहीन गायिकी और सम्पूर्ण रचना के रूप में देखती हैं.शायद इसीलिए एक से बढ़कर एक कालजयी फिल्में, बड़े नामचीन कलाकार, सिल्वर व गोल्डन जुबलियां, गीतकार, संगीत निर्देशक, सभी लता मंगेशकर के खाते में आने वाली उनकी अचूक प्रसिद्धि की चमक को फीका नहीं कर पाते. उन सफल फिल्मों में शायद लता ही एक ऐसी स्थायी सच्चाई हैं, जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं उभर पाता. अब इतिहास बन चुका राजकपूर के साथ उनका रॉयल्टी का झगड़ा, और बाद में इस सोच के चलते कि लता का रिप्लेसमेंट नहीं हो सकता, उन्हें अपने कैंप में वापस लाना या दादा एसडी बर्मन का यह सोचना कि लता अगर गाएगी, तो हम सेफ हैं; बेहद अनुशासनप्रिय संगीतज्ञ मास्टर गुलाम हैदर का यह कथन ‘अगर उसका दिमाग संतुलित रहा तो वह आसमान को छू जाएगी’ या फिर वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिन की स्वीकारोक्ति ‘शायद मेरी वायलिन आपकी गायिकी की तरह बज सके’ और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की जगप्रसिद्ध सूक्ति ‘कमबख्त, कभी बेसुरी नहीं होती’ आवाज की सत्ता का एहतराम करने जैसे हैं.

लता मंगेशकर पर अक्सर नुक्ताचीनी करने वाले यह आरोप लगाते रहे हैं कि उनका गायन फिल्मों तक सीमित है, उसमें शास्त्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है. उनके लिए, जिन्होंने कभी भी फिल्म संगीत को स्तरीय न मानने की जबरन एक गलतफहमी पाल रखी है, लता एक चुनौती से कम नहीं हैं. भेंडी बाजार घराने के मशहूर उस्ताद अमान अली ख़ां तथा उस्ताद अमानत ख़ां देवास वाले से बकायदा गंडा बंधवाकर लता जी ने संगीत की शिक्षा ली है. बाद में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के शागिर्द पं तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी. लता मंगेशकर की ख्याति भले ही फिल्म संगीत की वजह से रही हो, पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि उन्होंने फिल्मी गीतों में उसी तरह शास्त्रीयता का उदात्त रंग भरा है, जिस तरह देवालयों, नौबतखानों एवं राजदरबारों में बजने वाली शगुन की शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने राग और आलापचारी भरे.

लता जी की संगीत यात्रा को देखने पर यह महसूस होता है कि उनके गायन की खूबियों के साथ चहलकदमी करने में सितार प्रमुखता से उनके साथ मौजूद रहा है. सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए लता के गाए ढेरों सुंदर गीत याद किए जा सकते हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ (परख), ‘हाय रे वो दिन क्यूं न आए’ (अनुराधा), ‘मेरी आंखों से कोई नींद लिए जाता है’ (पूजा के फूल), ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’ (दिल एक मंदिर), ‘मैं तो पी की नगरिया जाने लगी’ (एक कली मुस्काई), ‘आज सोचा तो आंसू भर आए’ (हंसते जख्म) जैसे तमाम गीतों में सितार की हरकतों के साथ उनकी आवाज को पकड़ना एक बेहद मनोहारी खेल बन जाता है. लता की गायन शैली का अध्ययन करने पर यह बात खुलती है कि किस तरह शास्त्रीय संगीत की रागदारी, तालों, मात्राओं और लयकारी के अलावा प्रमुख भारतीय वाद्यों सितार, सरोद, बांसुरी, शहनाई और वीणा ने भी उनके गले के साथ जबर्दस्त संगत की है. इस तरह के ढेरों गीत याद किए जा सकते हैं जिनमें पन्नालाल घोष की बांसुरी, उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई, उस्ताद अली अकबर खां का सरोद, उस्ताद अल्लारक्खा का तबला, पं रामनारायण की सारंगी, उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां एवं रईस खां का सितार लता मंगेशकर की आवाज़ के सहोदर बनकर फिल्म संगीत को शास्त्रीयता के बड़े फलक पर ले जाते हैं. बांसुरी के साथ आत्मीय जुगलबंदी के लिए मैं पिया तेरी तू माने या न माने (बसंत बहार), सरोद की लय पर आवाज की कशिश के लिए ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा) एवं शहनाई के छंद को समझने के लिए ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ (गूंज उठी शहनाई) सुने और महसूस किए जा सकते हैं. हम चकित होते हुए यह सोचते रह जाते हैं कि आवाज के विस्तार और उसकी लोचदार बढ़त में वाद्य किस तरह सहधर्मी बन सकता है.

लता मंगेशकर को कारों से विशेष लगाव है. शेवरले, मर्सीडीज, ब्यूक क्रेस्लर से लेकर आज की लगभग सभी प्रमुख कारें उनके गैरेज की शोभा बन चुकी हैं. कभी उनके पास तीन-तीन शेवरले हुआ करती थीं.यदि लता जी के संगीत में शास्त्रीयता की नुमाइंदगी खोजनी हो, तब बहुतेरे ऐसे गीतों को याद किया जा सकता है, जिनमें रागदारी और आलापचारी, तानें और मुरकियां, मींड़ और गमक अपने सर्वोत्तम रूपों में मिलती हैं – ‘घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीम जी) में सरगम की तानें अपने शुद्ध रूप में मौजूद पाई जा सकती हैं. मींड़ के बारीक काम के लिए ‘रसिक बलमा’ (चोरी-चोरी) को बार-बार सुना जा सकता है. आलाप के एकतान सौंदर्य के लिए ‘डर लागे चमके बिजुरिया’ (रामराज्य) को कोई कैसे भूल सकता है. लयदार तानों और गमक का एहसास लिए हुए ‘सैंया बेईमान’ (गाइड) अनायास ही याद आते हैं. उनके असंख्य गीत ऐसे हैं जिनमें रागदारी अपने शुद्धतम एवं मधुर रूप में व्यक्त हुई है. मसलन ‘ज्योति कलश छलके’ – ‘भाभी की चूडि़यां’ (राग भूपाली), ‘अल्लाह तेरो नाम’ – हम दोनों (राग मिश्र खमाज), ‘पवन दीवानी न माने’ – डॉ विद्या (राग बहार), ‘गरजत बरसत भीजत अइलो’ – मल्हार (राग गौड़ मल्हार), ‘मनमोहना बड़े झूठे’ – सीमा (राग जयजयवंती), ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे – मुगले आजम (राग मिश्र गारा), ‘चाहे तो मोरा जिया लइले सांवरिया’ – ममता (राग पीलू), ‘राधा न बोले न बोले रे’ – आजाद (राग बागेश्री), ‘नैनों में बदरा छाये’ – मेरा साया (राग मधुवन्ती), ‘ए री जाने न दूंगी’ – चित्रलेखा (राग कामोद), ‘कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार’ – शागिर्द (राग मांझ खमाज), ‘नदिया किनारे’-अभिमान (राग पीलू) तथा ‘मेघा छाए आधी रात’ – शर्मीली (राग पटदीप). यह अंतहीन सूची है, जिसमें अभी तकरीबन हजारों ऐसे ही उत्कृष्ट गीतों को बड़ी आसानी से शामिल किया जा सकता है.

यह देखना लता मंगेशकर के गायन में बहुत महत्त्व रखता है कि पिछले साठ साल में उनकी आवाज में शंकर-जयकिशन की अनगिनत भैरवियों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की ढेरों पूरिया धनाश्रियों और शिवरंजनियों, एसडी बर्मन की अधिसंख्य बिहाग, तोड़ी और बहारों के साथ मदन मोहन की तमाम छायानटों एवं भीमपलासियों ने आकार लिया है. तमाम सारे दिग्गज एवं अगली पंक्ति के इन बड़े संगीतकारों के साथ-साथ लता की आवाज ने चित्रगुप्त, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी, रामलाल, रवि, स्नेहल भाटकर, हंसराज बहल, जीएस कोहली, सुधीर फड़के, पंडित अमरनाथ और एन दत्ता जैसे संगीतकारों के साथ भी शास्त्रीय ढंग के कुछ बेहद अविस्मरणीय गीत गाए हैं. शायद इसीलिए सालों पहले शास्त्रीय गायक पं कुमार गंधर्व ने लता जी पर पूरा एक लेख उनकी गायकी की खूबी बखानने के उद्देश्य से लिखा था. उनका मानना था, ‘जिस कण या मुरकी को कंठ से निकालने में अन्य गायक और गायिकाएं आकाश-पाताल एक कर देते हैं, उस कण, मुरकी, तान या लयकारी का सूक्ष्म भेद वह सहज ही करके फेंक देती है.’

लता मंगेशकर विधिवत शिक्षा तो नहीं ले सकीं, मगर न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी तथा यॉर्क यूनिवर्सिटी, कनाडा के अलावा देश भर के दस विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया है. लता जी के जीवन में एक दौर ऐसा भी आया जब जिस फिल्म में उनका गाना न होता, समझा जाता कि वह पिट गई अगर एक गाना भी उन्होंने गाया, तो सबसे ज्यादा लोकप्रिय वही होता. लता के गानों की वजह से कई बार ऊलजलूल और अति साधारण फिल्मों तक का बाजार चल पड़ता था. बहुतेरी फिल्में दूसरे-तीसरे दरजे की भी हों, तो भी गाने ऐसे होते कि जी करता सुनते रहें और वे रेडियो पर बार-बार फरमाइशों के दौर तले ऐतिहासिक बनते जाते. जिस जमाने में नयी फिल्मों के गानों को रेडियो पर सुनने की होड़ लगी रहती थी, उनमें भी सबसे ज्यादा दीवाने लता की आवाज के ही होते थे. सबसे मजेदार बात तो यह है कि जिन प्रणय गीतों पर हमारे दादा-दादी के जमाने के लोग आनंदित और तरंगित हो जाते थे, आज बरसों बाद हम भी उन्हीं गीतों को सुनकर उतने ही रोमांचित हो उठते हैं. आज के युवाओं में से शायद ही कोई कहेगा कि आवारा, श्री 420, चोरी-चोरी, गाइड, अनाड़ी, आराधना, शागिर्द, आपकी कसम, कभी-कभी और अनामिका जैसी फिल्मों के प्रणय गीत उनमें कोई हरारत पैदा करने में अक्षम हैं. ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम’ (चोरी-चोरी), ‘गाता रहे मेरा दिल’ (गाइड), ‘आसमां के नीचे’ (ज्वैलथीफ,  ‘कोरा कागज था ये मन मेरा’ (आराधना), ‘तेरे मेरे मिलन की ये रैना’ (अभिमान) या ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’ (सिलसिला) जैसे शाश्वत अमर प्रेम गीतों को याद करने के लिए भी क्या किसी उम्र, दौर, शहर की जरूरत है?

लता जी ने चार फिल्मों बादल (मराठी, 1953), झांझर (हिन्दी, 1953, सहनिर्माता सी. रामचन्द्र), कंचन (हिन्दी, 1955) और लेकिन (हिन्दी, 1989) का निर्माण भी किया है.लता मंगेशकर के संगीत जीवन के ब्यौरों को खंगालने पर ढेरों ऐसी बातों से भी हम रूबरू होते हैं, जो उनके अडिग चरित्र की एक सादगी भरी बानगी व्यक्त करती हैं. कुछ सिद्धांतों व मान्यताओं पर पिछले साठ-सत्तर साल में कोई भी व्यक्ति उन्हें डिगा नहीं सका. उन्होंने यह तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. इसका परिणाम यह हुआ कि सिचुएशन के लिहाज से जरूरी ऐसे गीतों में भी गरिमापूर्ण शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे. यह भी लता मंगेशकर के फिल्मी सफर का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि जिस मर्यादा और गरिमा को चुनते हुए उन्होंने अपनी निराली राह बनाई, उसमें संगीत का सफरनामा उनकी तयशुदा शर्तों पर ही संभव होता रहा. किसी संगीत निर्देशक की यह हिम्मत ही नहीं होती थी कि वह कुछ सस्ते जुमले वाले गीतों को लेकर उनके पास जाए. राजकपूर निर्देशित ‘संगम’ फिल्म का गीत ‘मैं का करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे इक्का-दुक्का गीतों के गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने पूरे संगीत कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए, जो उनके शालीन ढंग के गायन के चलते, ठीक से कैबरे भी नहीं माने जा सकते. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-(नाइट इन लंदन, 1967) एवं ‘आ जाने जां’-(इंतकाम, 1969). इस एक बात का जिक्र भी बेहद जरूरी है कि फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले मुजरा गीतों को गाने में वे कभी सहजता महसूस नहीं करती थीं, बावजूद इसके सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं स्तरीय मुजरा गीत उन्हीं के खाते में दर्ज हैं. पुराने दौर में नौशाद से लेकर एसडी बर्मन, रोशन, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, गुलाम मोहम्मद एवं एन दत्ता जैसे प्रमुख संगीतकारों ने लता से बेहद मेलोडीयुक्त, संवेदनशील एवं साहित्यिक किस्म के मुजरा और महफिल गीत गवाए. इस तरह के गीतों में, जिनसे लता की एक अलग ही और गंभीर किस्म की छवि बनती है. कुछ गीत हैं ‘यहां तो हर चीज बिकती है कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे’ (साधना), ‘उनको ये शिकायत है’ (अदालत), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता), ‘कभी ऐ हकीकते मुंतजर’ (दुल्हन एक रात की), ‘ठाढे़ रहियो ओ बांके यार’ (पाकीजा), ‘राम करे कहीं नैना न उलझे’ (गुनाहों का देवता), ‘सनम तू बेवफा के नाम से’ (खिलौना), ‘सलामे इश्क’ (मुकद्दर का सिकंदर) आदि. इन गीतों को जिसने भी सुना होगा वे सहमत होंगे कि फिल्म संगीत से हटकर बैठकी महफिल में गाई जाने वाली ठुमरी और दादरों की तरह की अदायगी का लता मंगेशकर ने इन मुजरा गीतों में पुनर्वास किया है. इनमें से कई तो बरबस रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी एवं सिद्धेश्वरी देवी के बोलबनाव के दादरों एवं ठुमरियों की याद दिलाते हैं.

लता की आवाज की चरम उपलब्धि के रूप में अधिकांश वे दर्द भरे गीत भी गिने जा सकते हैं जिन्हें पूरी शास्त्रीय गरिमा, मंदिर की सी निश्छल पवित्रता एवं मन की उन्मुक्त गहराई से उन्होंने गाया है. ऐसे गीत एक हद तक मनुष्य जीवन की तमाम त्रासदियों, विपदाओं, दुख, वेदना और पीड़ा को कलाओं के आंगन में जगह देते से प्रतीत होते हैं. उनकी इस तरह की गायिकी की एक बिल्कुल अलग और व्यापक रेंज रही है, जिसमें कई बार भक्ति संगीत भी स्वयं को शामिल पाता है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हृदयनाथ मंगेशकर के बेहद प्रयोगधर्मी संगीत पर गाए हुए उनके मीरा भजन, वेदना और टीस की उतनी ही सफल अभिव्यक्ति करते हैं जितना कि सिनेमा में पीड़ा के अवसरों पर गाए गए उनके मार्मिक गीत. ‘जो तुम तोड़ो पिया’ (झनक-झनक पायल बाजे), ‘जोगिया से प्रीत किए दुख होए’ (गरम कोट), ‘पिया ते कहां गए नेहरा लगाय’ (तूफान और दीया), ‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी’ (नौबहार), ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ (राजरानी मीरा) जैसे अद्भुत मीरा-भजनों के बरक्स हम बड़ी सहजता से उन गीतों को याद कर सकते हैं, जहां नायिका का गम लता की आवाज में बहुत ऊपर उठकर अलौकिक धरातल को स्पर्श कर जाता है. ऐसे में ‘न मिलता गम तो बरबादी के अफसाने’ (अमर), ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’ (सजा), ‘हम प्यार में जलने वालों को’ (जेलर), ‘वो दिल कहां से लाऊं’ (भरोसा), ‘तुम क्या जानो तुम्हारी याद में’ (शिन शिनाकी बूबला बू), ‘ये शाम की तनहाइयां’ (आह), ‘हाय जिया रोए पिया नाहीं आए’ (मिलन), ‘मेरी वीणा तुम बिन रोए’ (देख कबीरा रोया), ‘फिर तेरी कहानी याद आई’ (दिल दिया दर्द लिया), ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’ (बहू बेगम) जैसे गीतों को याद करना भक्ति और पीड़ा के समवेत भाव को एक ही मनोदशा में याद करना है. यह लता मंगेशकर के यहां ही संभव है कि एक ही आवाज का सुर संसार इतना विस्तृत हो सका कि उसमें जीवन के तमाम पक्षों की अप्रतिम अदायगी भजन, लोरी, गजल, कव्वाली, हीर, जन्म, सोहर, ब्याह, विदाई, प्रार्थना, प्रणय, मुजरा, लोक-संगीत, देश-प्रेम, होली, विरह, नात, नृत्य आदि के माध्यम से श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त होती रही.

अपना नाम बदलकर आनन्दघन नाम से लता मंगेशकर ने चार मराठी फिल्मों में संगीत भी दिया है.यह लता मंगेशकर के जीवन का ही सुनहरा पन्ना है कि तमाम सारे कर्णप्रिय सफलतम गीतों के बीच कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों में भी वे समय-समय पर मुब्तिला रहीं जिन्होंने उन्हें एक अलग ही प्रकार की गरिमा और सम्मान का अधिकारी बना दिया. इस बात को कौन भूला होगा कि भारत-चीन युद्ध के उपरांत शहीदों के प्रति आभार जताने के क्रम में पंडित प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध ऐतिहासिक गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को गाने का सौभाग्य न सिर्फ लता के खाते में आया बल्कि पंडित नेहरू का उसे सुनकर रो पड़ना, उनके कद को बहुत गरिमा के साथ कई गुना बढ़ा गया. यह लता ही थीं कि जब पहली बार क्रिकेट का विश्वकप जीतकर कपिल देव भारत आए, टीम की हौसला अफजाई करने एवं उसके सदस्यों को आर्थिक सहायता पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने एक चैरिटी कार्यक्रम आयोजित करके उसमें स्वयं गाया. उन्होंने विदेश में पहली बार 1974 में लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में अपनी प्रस्तुति मात्र इस कारण दी कि विदेशों में नेहरू सेंटर की गतिविधियों की खातिर धन एकत्र किया जा सके. एक ओर वे बीमार महबूब खान को पूरे हफ्ते भर फोन पर ‘रसिक बलमा’ सुनाती रहीं, तो दूसरी ओर लंदन में नूरजहां के घर में उनके अनुरोध पर लिफ्ट में ही ‘ऐ दिले नादां’ गाकर उन्हें प्रसन्न किया.

यह लता के गायन की विविधता ही है कि साहिर लुधियानवी की जनवादी कलम से निकली शाहकार रचना ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ में उन्होंने उतने ही लय, गमक और प्राण डाले जितने कि भक्त कवि तुलसीदास के पद ‘ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां’ में आस्था के सुर. एक तरफ वे हृदय को चीर देने वाला बेधक नात ‘मेरा बिछड़ा यार मिला दे सदका रसूल का’(सोहनी महीवाल) गाकर दुख के सात आसमान रच देती हैं, तो ठीक उसी क्षण कुछ शोख, कुछ नटखट ढंग से ‘सायोनारा’ (लव इन टोकियो) कहती हुई बहुतेरे युवाओं को घायल कर डालती हैं. जयदेव के संगीत पर एक बार फिर से शहीदों को नमन करते हुए बेहद श्रुतिमधुर ‘जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में’ जैसा गीत गाकर एक बार फिर से देशप्रेम का जज्बा उकेरने में सफल रहती हैं, तो पंडित भीमसेन जोशी के सुर में सुर मिलाते हुए ‘राम का गुन गान करिए’ जैसा मनोहारी भजन रचने में व्यस्त हो जाती हैं.

लता जी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित मुसाफिर (1957) फिल्म के लिये प्रख्यात कलाकार दिलीप कुमार के साथ एक युगल गीत गाया था, जिसके बोल हैं लागी नाहीं छूटे रामा.लता जहां बेगम अख्तर की गाई गजल ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ के प्रति आसक्त हैं, तो वहीं बेगम अख्तर उनकी गाई हुई दस्तक फिल्म की गजल ‘हम हैं मताए कूचा ओ बाजार की तरह’ पर दिलोजान से कुर्बान हैं. रीमिक्स और कवर वर्जन के दौर में जब प्रतिभाशाली संगीतकार तक उनके गाए हुए गीतों की नकल करके एक नया बाज़ार तैयार कर रहे हैं, स्वयं लता बहुत पहले ऐसे ढेरों सलोने गीतों को अपने विशुद्ध मौलिक अंदाज में गाकर मकबूल बना चुकी हैं. यह तथ्य भी उनकी मेडलों की फेहरिस्त में इजाफा करता है कि अपने से आधी उम्र से कम के युवा गायकों एवं संगीतकारों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए वे आज भी जीवंत रूप से सक्रिय और कर्मशील हैं. सबसे शानदार क्षण तो उनके सांगीतिक संसार में तब दिखता है, जब भारत की विविधवर्णी सांस्कृतिक छवि को दिखाने वाली एक छोटी-सी प्रस्तुति के अंत में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाते हुए वे अपने बायें कंधे पर तिरंगा आंचल की तरह पसारती हैं. तब अचानक ऐसा लगता है कि शायद यही उनकी सबसे महत्वपूर्ण और मुकम्मल पहचान है.

यह अकारण नहीं है कि जीवन भर संगीत, रिकॉर्डिंग स्टूडियो एवं मंचों को मंदिर मानने वाली इस गायिका के यहां गुरु से सीखा हुआ वही भूपाली राग सर्वाधिक प्रिय रहा जिसमें घर-आंगन और मंदिर को पवित्र करने वाला प्रार्थना गीत रचा गया है. ‘ज्योति कलश छलके, हुए गुलाबी लाल रुपहले रंग-दल बादल के, ज्योति यशोदा धरती मैया नील गगन गोपाल कन्हैया, श्यामल छवि झलके’ की अद्भुत अलौकिक सृष्टि के धरातल में घर-आंगन को धोते हुए रंगोली सजाने, तुलसी के बिरवे पर जल चढ़ाने के साथ जिस दीपदान की कल्पना रची गई है, शायद वह भारतीय समाज की सबसे प्रासंगिक सांस्कृतिक छवि है.
अनगिनत मानद उपाधियां, फिल्म ट्रॉफियां, देश-विदेश के तमाम नागरिक सम्मान सहित ‘भारत रत्न’ जैसे अलंकरण चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों उनकी एक सुरीली आहट पर फीके पड़ जाते हैं. लता जी बारे में एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने कहा था कि अगर सरस्वती होंगी तब वह उतनी ही सुरीली होंगी जितनी कि लता मंगेशकर हैं. हम सभी गर्व कर सकते हैं कि हम उस हवा में सांस ले सकते हैं जिसमें साक्षात सरस्वती की आवाज भी सुर लगाते हुए सांस ले रही है.   

‘मुझे गाना मिला है, वही मेरा ईश्वर है’

विषाद, प्रेम और विरह, पीड़ा और आनंद को आत्मीय और मर्मस्पर्शी स्वर देने वाली लता मंगेशकर की उपस्थिति एक किंवदंती की तरह रही है. सुर-साम्राज्ञी, संगीत की देवी, सरस्वती-पुत्री, गानसरस्वती जैसे प्रतीक उनकी शख्सियत के आगे अदने ही लगते हैं. युवा कवि एवं संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र से भारतरत्न  सुश्री लता मंगेशकर की बातचीत के अंश

आपके लिए सरस्वती की क्या परिभाषा है?

(हंसते हुए) बड़ा मुश्किल सवाल है. हम लोग इस तरह मानते हैं कि गाने की देवी हैं वे. इसके अलावा उनके बारे में मैं कुछ बोल नहीं सकूंगी, क्योंकि वे तो देवी हैं, साक्षात ज्ञान की मूर्ति. मैं हमेशा उनसे यही कामना करती हंू कि जो तुमने दिया है मुझे, वह ऐसे ही रखो, उसमें कभी कमी न आए और अगर कमी हो, तो फिर मैं न रहूं.

कौन-कौन से राग हैं, जो आपके दिल के करीब हैं?

मुझे दो राग बहुत अच्छे लगते हैं भूपाली और मालकौंस. मैंने अपने गुरू जी उस्ताद अमान अली खां भेंडी बाजारवाले से भूपाली की यह बंदिश सीखी थी, जो आज भी मुझे बेहद प्रिय है. (गाकर बताती हैं) ‘अब मान ले री प्यारी.’ मुझे भूपाली इसलिए भी बहुत पसंद है क्योंकि हमारे यहां सुबह की शुरुआत जब होती है, तब भूपाली में ही अकसर भजन वगैरह गाये जाते हैं. मैं बचपन से पिता जी के द्वारा और घर-परिवार में भजन के समय भूपाली सुनती रही हूं, शायद इसी कारण यह राग मेरे दिल के बहुत करीब है. बहुत बाद में मैंने हृदयनाथ के संगीत निर्देशन में ‘चला वाही देस’ के लिए भूपाली में ही ‘सांवरे रंग राची’ गाया था.

आपने  ‘भाभी की चूडि़यां’  फिल्म में भी भूपाली का बहुत सुंदर रूप  ‘ज्योति कलश छलके’  गीत में दर्शाया है.

आप सही कह रहे हैं. मेरे अपने गाए हुए गीतों में ‘ज्योति कलश छलके’ मुझे बहुत प्रिय है. यह गीत भी उसी तरह बनाया और फिल्म में दिखाया गया है जिसकी चर्चा मैंने अभी आपसे की. हमारे यहां सुबह घरों में पानी डाला जाता है, रंगोली सजाते हैं और तुलसी के पास जल देते हुए भजन गाते हैं. इसे ‘सड़ा’ कहते हैं. ‘ज्योति कलश छलके’ में यही सड़ा करना दिखाया गया है. चूंकि इस फिल्म के संगीत निर्देशक भी सुधीर फड़के जैसे खांटी मराठी संगीतकार थे, इसलिए उन्हें महाराष्ट्र की इस परंपरा का बहुत अच्छे ढंग से ज्ञान था, जो गीत में भी उतर सका.

आपने  ‘राग रंग’  फिल्म में यमन की एक प्रचलित बंदिश को बहुत सुंदर ढंग से गाया है,  ‘ये री आली पिया बिन’  इस पद को गाते हुए कैसा लगा?

(हंसती हैं) आपको ‘राग रंग’ की वह बंदिश याद है. रोशन साहब ने बहुत अच्छे ढंग से इसे कंपोज कराया था. रागों के लिहाज से यदि आप पूछते हैं, तो एक बात बहुत सच्चे मन से कहना चाहूंगी कि लगभग सभी राग मुझे कहीं न कहीं बेहद अच्छे लगते हैं. किसी खास राग को लेकर कभी कोई परेशानी हुई हो, या मुझे कम पसंद आता हो ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. मुझे यमन, जयजयवंती, मधुवंती, बहार, मल्हार और बहुतेरे राग पसंद हैं. मैंने रागों पर इतने गाने गाए हैं कि अभी तुरंत यह याद कर पाना थोड़ा मुश्किल लगता है कि कौन-से गाने फिल्मों से चुनकर याद करूं. हां, ‘सीमा’ फिल्म में जयजयवंती की बंदिश ‘मनमोहना बड़े झूठे’ मुझे बहुत अच्छी लगती है. इसके अलावा अनिल विश्वास के निर्देशन में ‘सौतेला भाई’ में मेरा गाया हुआ ठुमरी और दादरे के अंदाज का गाना ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूं’ भी मुझे शास्त्रीय ढंग के गीतों में महत्वपूर्ण लगता है.

यह उन बड़े लोगों की कृपा है कि मेरे बारे में ऐसा सोचते थे. वरना मेरा उनकी गायिकी के आगे वजूद क्या?अगर कभी आपको केएल सहगल के साथ गाने का अवसर मिलता, तो उनका कौन-सा युगल गीत उनके साथ गाने के लिए चुनतीं और उनका कौन-सा एकल गीत आप स्वयं गाना चाहतीं?

मुझे सहगल साहब के ढेरों गाने पसंद रहे हैं. आज भी उन्हें सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है. मैंने जब अपने समय के बड़े संगीतकारों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक रिकॉर्ड तैयार किया था, तब उनके बहुत सारे गाने चुनकर गाए थे. उसमें मुझे ‘सो जा राजकुमारी’, (जिंदगी), ‘मैं क्या जानूं क्या जादू है’ (जिंदगी) और ‘नैनहीन को राह दिखा प्रभु’ (भक्त सूरदास) जैसे तीन गीत बेहद अच्छे और सहगल साहब के संदर्भ में महत्वपूर्ण लगते थे. ये तीनों गाने आज भी उतने ही नये और ताजे लगते हैं. इसके अलावा ‘बालम आय बसो मोरे मन में’ (देवदास), ‘दो नैना मतवारे तिहारे हम पर जुलुम करें’ (मेरी बहन), ‘दुख के अब दिन बीतत नाहीं’ (देवदास) और ‘सप्त सुरन तीन ग्राम गाओ सब गुणीजन (तानसेन) भी अत्यंत प्रिय हैं. सप्त सुरन… लक्षण गीत है और शुद्ध रूप से राग आधारित है, इसलिए भी यह मुझे काफी पसंद है.

अगर एक गाना चुनना हो, तो वह कौन-सा होगा?

पंकज मलिक जी के संगीत निर्देशन में संभवतः धरतीमाता फिल्म में उनका गाया हुआ ‘अब मैं काह करूं कित जाऊं’.

यदि कोई ऐसा मौका आपके सामने होता कि अपने गाए गीतों में से किसी को नूरजहां की आवाज में सुन सकतीं, तो ऐसे में कौन-सा गीत आप उनसे सुनना पसंद करतीं?

‘ऐ दिले नादां’. मुझे ख़य्याम साहब की बहुत मधुर धुन के कारण भी यह गीत अच्छा लगता है. नूरजहां जी की आवाज में इसे सुनना अवश्य पसंद करती. एक बात आपको बताऊं, एक बार मैं और वे दोनों लंदन में थे. मैं उनसे मिलने उनके घर पर गई हुई थी. जब वे मुझे बाद में दरवाजे तक छोड़ने आईं, तो मुझसे बोलीं ‘बेटा! मुझे ऐ दिले नादां सुना दो.’ तब मैंने जल्दी में ही लिफ्ट में गाने का मुखड़ा और एक अंतरा गाया. वे बहुत खुश हो गईं और मुझसे बोलीं, ‘बेहद सुंदर गाया तुमने. जीती रहो, अल्लाह तुमको लंबी उम्र दे.’

यदि आप इतनी महत्त्वपूर्ण पार्श्वगायिका न होतीं, तो किस शास्त्रीय गायक या गायिका की तरह बनना चाहतीं?

उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब की तरह.

कोई खास वजह? उनके साथ का कोई आत्मीय संस्मरण, जो आप बताना चाहें?

खास बात बस इतनी है कि वे बहुत बड़े और महान गायक थे. हर चीज को इतनी खूबसूरती से गाते थे कि बस उसका सुनना अच्छा लगता था. आज भी उतना ही अच्छा लगता है. उनकी गाई हुई ठुमरियों में जैसे जादू था. एक वाकया याद आता है. सन 1962 में कलकत्ता में एक प्रोग्राम था, जिसमें मुझे भी गाना था और वहां खां साहब पहले से ही आए हुए थे. उन्हें भी उसी कार्यक्रम में गाना था. हम लोग जब कार्यक्रम के हॉल की तरफ अंदर गए तो देखा, वहां विंग में खां साहब बैठे थे. बंगाल की गायिका संध्या मुखर्जी भी मौजूद थीं. उन्होंने जब मुझे देखा तो बोले ‘आओ बेटा, गाओ मेरे साथ.’ मैं सकपकाई और थोड़ा संकोच में कहा ‘मुझे बहुत डर लगता है, मैं आपके बराबर कैसे गा सकती हूं?’ तब वे बोले, ‘अरे, इसमें डरने की क्या बात है? मुझे पता है तुम मेरे साथ गा सकती हो. आओ बैठो और मेरे साथ गाओ.’ वे अपने हाथ में स्वरमंडल छेड़ रहे थे और इशारे से मुझे और संध्या को बुलाने लगे. मैंने फिर इसरार से कहा, ‘खां साहब मैं इतनी बदतमीज नहीं हूं कि आपके बराबर बैठकर गाऊं. मुझे लगता है कि मुझे आपको सुनना चाहिए न कि आपके साथ मिलकर गाना.’ हालांकि संध्या उनके बगल में डरकर बैठ गई और थोड़ी देर साथ गाती रही. बात यह नहीं है कि मैं उनके साथ गा नहीं सकती थी. मुझे आज भी लगता है कि वे बड़े लोग थे और हम लोगों को उनका पूरा आदर करते हुए कभी भी बराबरी से बैठकर गाना नहीं चाहिए था. जब वे मुंबई में रहते थे, तो मैं उनके घर अकसर चली जाती थी. उनका बहुत लाड़ मुझे मिला है.

आपके बारे में सबसे मुकम्मल और ऐतिहासिक बात तो उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब ने ही कही थी कि  ‘कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती.’

(हंसती हैं) यह उन बड़े लोगों की कृपा है कि मेरे बारे में ऐसा सोचते थे. वरना मेरा उनकी गायिकी के आगे वजूद क्या? मुझे ऐसे बड़े लोगों का प्यार और आशीर्वाद मिला है और समय-समय पर सराही या टोकी गई हूं, इसे अपना सबसे बड़ा धन मानती हूं.

आपको उनकी कौन-सी ठुमरी भाती है?

कई हैं. ‘आए न बालम’ खासकर याद आती है. एक देस राग में बहुत अद्भुत ढंग से उन्होंने गाया था ‘पैंया परूं तोरे श्याम’. उसका असर आज तक महसूस करती हूं.

गांधी जी को आपने कभी देखा है?

देखा तो नहीं, कई मर्तबा सुना जरूर है. मुझे याद पड़ता है कि चालीस के दशक में मुंबई में शिवाजी पार्क और चौपाटी पर उन्हें जनसभा को संबोधित करते हुए सुना था. इस बात का मलाल भी है मन में कहीं कि मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे मिल न सकी.

गांधी जी की जब हत्या हुई तब उस समय के बारे में आपकी क्या स्मृति है? उस समय कैसा लगा था?

मुझे अच्छी तरह याद है, उस दिन गोरेगांव में फिल्मिस्तान स्टूडियो में ‘शहनाई’ फिल्म की सिल्वर जुबली पार्टी हो रही थी. वैसे मैं इस तरह के फंक्शन में कम जाती थी, मगर उस दिन वहां मौजूद थी. मुझे याद पड़ता है कि वहां कई लोग आए थे, जिनमें फिल्मिस्तान के मालिक राय बहादुर चुन्नीलाल जी भी मौजूद थे, जो मशहूर संगीतकार मदन मोहन के पिता थे. कार्यक्रम समाप्त भी नहीं हुआ था, जब मैं वहां से निकलकर लोकल ट्रेन में सफर के लिए स्टेशन आई. तब मैंने देखा कि स्टेशन पर जल्दी ही अंधेरा हो गया था, लोग भाग रहे थे इधर-उधर. पूरे स्टेशन और बाहर तक अफरातफरी का माहौल था, लोग चिल्ला रहे थे गांधी जी की हत्या हो गई. मुझे बहुत बुरा लगा, थोड़ा डर भी. मैं चुपचाप जब घर आई, तो बहुत रोई. मन बहुत उदास हो आया था, उस समय यह बहुत गहरे सदमे की स्थिति थी. एकबारगी लगा कि जैसे अपने भीतर ही कुछ एकदम से खत्म हो गया है. मन बुझ गया था. मेरी मां जितना मुझे समझाती थीं, उतना ही रोना आता था. गांधी जी की हत्या से उबरने में भी काफी दिन लगे. आज भी जब वह दिन याद आता है, तो सारा का सारा मंजर दिमाग में बहुत साफ ढंग से घूम जाता है.

मां जितना समझातीं, उतना ही रोना आता था. गांधी जी की हत्या से उबरने में काफी दिन लग गएआपको आजादी का दिन कैसा लगा था? क्या वह आम दिनों से कुछ अलग था?

15 अगस्त, 1947 बहुत अच्छी तरह से याद है. हम लोग घर पर ही थे, मगर शाम को पूरे परिवार के साथ बाहर घूमने निकले. जगह-जगह रोशनी और पटाखों का इंतजाम था. हम देर तक उसे देखते रहे और मुंबई की सड़कों पर घूमते रहे. जहां तक मुझे याद है, थोड़ी देर के लिए ट्रकों पर बैठकर भी हम लोग मुंबई में आजादी का नजारा ले रहे थे. बहुत सारे ट्रकों पर लोग झुंड के झुंड बैठकर खुशियां मनाते आ-जा रहे थे. घर में उत्सव जैसा माहौल था. मेरी मां ने उस दिन कुछ मीठा बनाया था, जिसे हम सभी ने खुशी में मिल-बांटकर खाया. मैं प्रसन्न थी और आज भी ईश्वर का धन्यवाद देती हूं कि अपने देश की आजादी के दिन को देखने के लिए इतिहास में कहीं मैं भी मौजूद थी.

आजादी के समय मिली खुशियों के बरक्स बाद में विभाजन का दंश भी आपने देखा होगा. उसे किस तरह याद करती हैं?

वह दर्द तो हर एक भारतवासी का रहा है. मुझे विभाजन की तकलीफ है, क्योंकि अधिकांश बड़े फनकार और संगीतकार भी उससे प्रभावित हुए और एकाएक मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को छोड़कर पाकिस्तान चले गए. उसमें ‘खजांची’ फिल्म के निर्माता दलसुख पंचोली, संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर साहब और गायिका नूरजहां जी की विशेष कमी खलती है. गुलाम हैदर साहब मुझे बहुत मानते थे, उनके संगीत निर्देशन में मैंने कई गाने गाए. उनका जाना मुझे खराब लगा था. विभाजन की त्रासदी को दोनों ओर के लोगों ने जिस तरह भोगा और झेला है, उसको सोचकर आज भी अच्छा नहीं लगता. मुंबई से भी कई लोग गए और वापस मुंबई लौट आए. कुछ नये लोग भी आए. उन दिनों ऐसा लगता था कि भले ही पार्टीशन हो गया है, मगर हम कलाकारों के मन में तो कोई फांस किसी पाकिस्तान के कलाकार या नागरिक के लिए नहीं है, कभी आई भी नहीं, उसके साथ यह भी था कि कभी डर भी नहीं लगा. हमेशा यह लगता था कि सब अपने हैं, और अपनों से कैसा पराया जैसा सोचना.

जीवन का सबसे आत्मीय और मार्मिक क्षण आपके लिए क्या रहा?

कई दफा जब हम लोग स्टेज पर गाते हैं और ऑडियंस में बैठे हुए तमाम लोग बहुत सहज और नेचुरल ढंग से सराहते हैं, तब वही क्षण हमारे लिए बहुत अहम और बड़ा होता है. वही शायद मेरे लिए सबसे मार्मिक क्षण भी है.

दुनिया लता मंगेशकर की दीवानी है, स्वयं लता जी मिस्र की गायिका उम कुलसुम की. कुलसुम की गायिकी में ऐसा क्या है जो आपको इतना प्रभावित करता है?

एक समय था, जब मैं उम कुलसुम को बेहद पसंद करती थी. उनकी आवाज बुलंद थी और जिस तरह के गीत उन्होंने गाए हैं, वे मुझे कुछ दूसरे ढंग के, बहुत मौलिक लगते थे. शायद इसीलिए उम कुलसुम को सुनना मेरी पसंद की गायकी में शुमार था. उनके अलावा लेबनीज की फैरूज भी मुझे अच्छी लगती थीं. उनकी आवाज कुछ अलग दमखम लिए हुए थोड़ी भारी-सी थी. शंकर जयकिशन साहब द्वारा कंपोज किया गया ‘आवारा’ फिल्म का गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ उम कुलसुम के एक प्रचलित गीत ‘अला बलाड एल महबूब’ की धुन पर रचा गया था, जिसे उन्होंने 1936 में प्रदर्शित मिस्र की फिल्म ‘वीदाद’ से लिया था. मुझे ‘घर आया मेरा परदेसी’ गाते हुए अलग किस्म का आनंद आया. जब मुझे पता लगा कि यह असल में कुलसुम की धुन पर आधारित है तो मैंने बाद में ढूंढ़कर उनके ढेरों ऐसे मधुर गीतों को बहुत ध्यान से सुना. एक महत्वपूर्ण बात इसी संदर्भ में यह भी याद आती है कि अब्दुल वहाब नाम से एक बहुत सम्मानित संगीत निर्देशक मिस्र में हुए, जिनकी ढेरों धुनों का भारत में फिल्म संगीत में इस्तेमाल हुआ. खुद मैंने उनकी एक प्रचलित धुन पर नौशाद साहब द्वारा बनाया हुआ ‘उड़नखटोला’ फिल्म का गीत ‘मेरा सलाम ले जा दिल का पयाम ले जा’ गाया था.

मुझे एक मजेदार बात यह ध्यान में आती है कि मैंने विदेशों में भ्रमण के दौरान यह पाया है कि हमारे भारतीय फिल्म संगीत की बहुत लोकप्रियता वहां रही है. उसका शायद एक प्रमुख कारण यह भी रहा होगा कि विदेशी लोग हमारे फिल्म संगीत पर इसलिए उत्साह से प्रतिक्रिया जताते हैं कि उन्हें लगता है कि जिन धुनों पर हम अपना हिंदी गीत गा रहे हैं, वह कहीं उनका गाना ही है, जिसे हम अपनी भाषा में गा रहे हैं. (हंसती हैं)

खाली समय में अपना गाया हुआ कौन-सा गाना सुनना पसंद करती हैं?

जब अकेले होती हूं, तब मीरा के भजन सुनना अच्छा लगता है. मैंने ‘चला वाही देस’ के गानों को बहुत तन्मयता से डूबकर गाया था. आज भी मुझे ‘सांवरे रंग राची’ और ‘उड़ जा रे कागा’ भाते हैं. इन्हीं गीतों को सुनकर खाली वक्त गुजारती हूं.

जितने संगीतकारों के साथ आपने गाया है, उनमें वे कौन लोग रहे हैं, जिनकी जटिल धुनों पर कुछ मेहनत करते हुए आपको आनंद आया?

मेरे लिए जटिल गाने मदन मोहन, सलिल चौधरी और सज्जाद हुसैन बनाते थे. सज्जाद साहब की धुन पर ‘ऐ दिलरुबा नजरें मिला’ (रुस्तम सोहराब) जैसा गाना मेरे लिए मेहनत भरा था. मगर उतना ही पसंद का भी. सलिल चौधरी बहुत काबिल म्यूजिक डायरेक्टर थे. उनके निर्देशन में गाते वक्त गायक को ही मालूम हो सकता था कि दरअसल वह क्या गाने जा रहा है. इनके अलावा हृदयनाथ ने भी मेरे लिए कुछ जटिल धुनों पर अच्छे गाने तैयार किए, जिनमें ‘हरिश्चंद्र तारामती’ का ‘रिमझिम झिमिवा’ और ‘लेकिन’ का ‘सुनियो जी अरज म्हारी’ काफी मुश्किल गीत थे.

संगीत के अतिरिक्त साहित्य के प्रति कैसा लगाव रहा है? कौन-सा साहित्य ऐसा है, जो रुचिकर लगता है?

मैंने किताबें बहुत पढ़ी हैं. पर मैं आपको कैसे बताऊं कि पसंद मेरी बहुत अलग-अलग है. सबसे ज्यादा दिल के करीब शरतचंद्र का साहित्य लगता है. उनका श्रीकांत और देवदास उपन्यास मैंने कई बार पढ़ा है, मगर सबसे ज्यादा उत्कृष्ट मैं उनके उपन्यास विप्रदास को मानती हूं. प्रेमचंद बाबू की किताबें भी पसंद हैं. मराठी का अधिकांश साहित्य पढ़ा है, जिसमें भजन और अभंग पद मुझे भाते हैं. उसमें भी ज्ञानेश्वरी सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, हालांकि उसकी जुबान कम समझ में आती है. वह थोड़ी जटिल मराठी में है, बावजूद इसके मुझे बेहद पसंद है और इसीलिए मैंने उसे गाया भी है. हिंदी का भक्ति साहित्य, खासकर मीराबाई, सूरदास और कबीर मुझे बेहद सुंदर लगते हैं. तुलसीदास भी पसंद हैं. और सबसे ज्यादा मुझे गालिब, मीर, जौक और दाग की शायरी अच्छी लगती है. मैं इन बड़े शायरों को अकसर पढ़ती रहती हूं.

फिल्मों में भी मुझे कुछ लोगों का काम साहित्य के स्तर का लगता है, जिसमें साहिर लुधियानवी और मज़रूह सुलतानपुरी की नज्में बेहद प्रिय हैं. इसके अलावा शकील बदायूंनी और हसरत जयपुरी की भी शायरी अच्छी लगती है. एक बात मुझे बहुत आकर्षित करती है कि शैलेंद्र जी हिंदी के बहुत बेहतर कवि थे और उसी के साथ उर्दू में भी बहुत सुंदर लिखते थे. इसी तरह साहिर साहब और मज़रूह सुलतानपुरी उर्दू के बड़े शायर रहे, मगर हिंदी में भी गीत लिखते वक्त उन्होंने कमाल की कलम चलाई है. यह चीज मुझे खास तौर से भाती है. मज़रूह साहब से तो मेरा पारिवारिक रिश्ता और दोस्ताना था, वे जितने बड़े शायर थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे. आजकल गुलजार साहब हैं, जिनकी शायरी और कविता बहुत शानदार है. इसमें कोई शक नहीं कि पुराने समय से लेकर आज तक वे उतनी ही कमाल की शायरी करते रहे हैं.

एक अपनी पसंद का नाम आप भूल रही हैं, पं नरेंद्र शर्मा.

आप सही कह रहे हैं. मेरे ध्यान से उतर गया था. वे हिंदी के उत्कृष्ट कवि थे. मुझे बेटी मानते थे और मैं उनकी बेटियों की तरह ही उनके घर में आती-जाती थी. मेरा आत्मीय रिश्ता उनसे जीवन भर निभा. मैंने उनके बहुत सारे फिल्मी और गैरफिल्मी गीत गाए हैं. मुझे सबसे ज्यादा उनका लिखा ‘सुबह’ फिल्म का प्रार्थना गीत ‘तुम आशा विश्वास हमारे रामा’ पसंद है. इसी के साथ मुझे ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का टाइटिल सांग व्यक्तिगत तौर पर प्रिय रहा है. ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ के साथ की एक घटना है कि जब राज कपूर यह फिल्म बना रहे थे, तब वे पं नरेंद्र शर्मा के पास गए और उनसे कहा, ‘पंडित जी मैं ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ नाम से एक फिल्म बना रहा हूं, जिसमें मुझे एक ऐसा गीत चाहिए जिसमें एक साथ ही सत्य, शिव और सुंदर का अर्थ तथा परिभाषा मिल सके.’ तब उस फिल्म का शीर्षक गीत पंडित जी ने लिखा, जिसे मैंने गाया है. आज भी इस गीत को मेरा गाने का मन करता है.

आपने सैकड़ों फिल्मों के लिए तकरीबन हजारों अप्रतिम गाने गाए हैं. अगर आपसे उनमें से कुछ एक फिल्मों को चुनने को कहा जाये, तो वे कौन-सी फिल्में होंगी जिनके गीत सबसे ज्यादा याद रखने लायक आपको आज भी लगते हैं?

बहुत सारी फिल्में हैं, जिनको याद रखना चाहूंगी. कई फिल्मों के गाने तो अकसर मन में बने रहते हैं. फिर भी आप पूछ रहे हैं, तो मैं ऐसी फिल्मों में ‘मधुमती’, ‘मुगले आज़म’ और ‘पाकीज़ा’ का नाम लेना चाहूंगी. हां, एक फिल्म और है, जो मुझे बहुत पसंद है ‘जहांआरा’. इसके गाने बहुत अच्छे थे, मगर फिल्म नहीं चली. कमाल अमरोही की ‘महल’ फिल्म तो हमेशा से मुझे प्रिय रही. इसके सारे गाने, जो दूसरों ने भी गाए मुझे आज भी अच्छे लगते हैं. इस फिल्म के मेरे तीनों गीत ‘आएगा आने वाला’, ‘मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना’ और ‘दिल ने फिर याद किया’ तो हमेशा से ही मेरे पसंदीदा रहे.

बेसुरा और बेताला गाना सुनकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती है?

(हंसते हुए) मैं आपको सच्ची बात बताऊं, एक बार बेताला तो सुन सकती हूं, मगर बेसुरा नहीं सुन सकती. बेसुरा गाना जैसे मुझे ईश्वर को नाराज करने जैसा लगता है. अगर कभी बेसुरे गायन के चक्कर में पड़ती हूं, तो बहुत पीड़ा होती है, गुस्सा भी आता है.

आशा भोंसले द्वारा गाए हुए किस गाने पर आप रश्क करती हैं, जो आप अपने संगीत करियर में खु़द गाना चाहतीं?

आशा के ढेरों ऐसे गाने हैं जो कमाल के हैं. मुझे कई गाने उसके ऐसे लगते हैं जिन्हें बार-बार सुनने का मन होता है. कई सारे गाने तो एकाएक याद नहीं कर पा रही हूं, मगर ‘मेरे सनम’ का ‘ये है रेशमी जु़ल्फों का अंधेरा’, ‘दिल ही तो है’ का ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’, ‘हावड़ा ब्रिज का ‘आइए मेहरबान’ और ‘उमराव जान’ का ‘दिल चीज क्या है..’ जैसे गाने तो भूलते ही नहीं. एक गाने का जिक्र अवश्य करना चाहूंगी, जिसे आरडी बर्मन ने कंपोज किया था. वह ‘तीसरी मंजिल’ फिल्म में रफी साहब के साथ गाया हुआ वेस्टर्न आर्केस्ट्रेशन पर ‘आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा’ है. मैं बेहिचक बहुत खुशी से स्वीकारना चाहती हूं कि आशा ने जिस सुंदरता और लोच से इस गाने को गाया है, वह शायद मैं कभी भी उस तरह गा न पाती.

आपके संगीत का अगर इम्तिहान होना तय हो, तो परीक्षक किसे चुनना पसंद करेंगी?

जो चीज मैं गाती हूं, उसके लिए तो किसी गायक को ही लूंगी. मैं हमेशा यही समझती हूं जब भी फिल्म के लिए गाती हूं, माइक के सामने होती हूं, प्राइवेट रिकॉर्डिंग्स में या मंच और कंसर्ट में मेरा गाना हो रहा होता है, वही मेरा एग्जाम है. अगर सुनने के बाद लोगों ने कहा कि बहुत अच्छा गाया, तो लगता है कि मैं पास हो गयी. यह हर बार होता है और हर बार यही लगता है कि मेरा इम्तिहान हो रहा है, जिसमें मुझे पास होना है. लोग तो बीए, एमए करते हुए डिग्री लेकर स्वतंत्र हो जाते हैं, मगर हमारे लिए तो हर प्रोग्राम और हर रिकॉर्डिंग में पास या फेल होने की डिग्री जारी होती है.

एक कलाकार के लिए उसका सबसे बड़ा सत्य क्या होता है?

अगर कोई सच्चा कलाकार है, तो वह अपनी कला से प्यार करे, ज्यादा से ज्यादा रियाज करे और अपनी कला के मूल्यों के प्रति बड़े से बड़ा बलिदान देने से पीछे न हटे. यही शायद सबसे बड़ी सच्चाई होगी, जिसको एक गुणवंत कलाकार के अंदर होना चाहिए.

क्या आपको कभी एकांत में ईश्वर मिला है?

मुझे गाना मिला है, वही मेरा ईश्वर भी है.

ऐ मेरे वतन के लोगों…

ऐसा तो हो नहीं सकता कि लता बाई का गाया कोई गाना आपका अपना गाना न हो. कहीं कोई धुन, कहीं कोई बोल और कहीं कोई पूरा गाना ही जीवन की पगथली में कांटे की तरह चुभ कर टूट जाता है. मर्म में खुबी हुई नोक रह जाती है और जो जब-तब या कभी-कभी अकारण ही कसकने लगती है. तब वह धुन, वह बोल और वह गाना बार-बार घुमड़ता है और आप गुनगुनाते रहते हैं. ऐसा होने के लिए जरूरी नहीं कि आप गाना सुनने वाले या गाने वाले हों. हर व्यक्ति गुनगुनाता है -बाथरूम हो या कमरा या सड़क या सुनसान बियाबान या भीड़ भरा चौराहा. याद कीजिए आपने अपने को कभी न कभी तो गाते हुए पाया या पकड़ा ही होगा. है न?

लता मंगेशकर होने की सार्थकता यह है कि पचास साल में उन्होंेने इतनी परिस्थितियों में और इतनी भाषाओं में इतने गीत गाए हैं कि शायद ही कोई भारतीय होगा जिसके निजी जीवन को उनके स्वर ने छुआ न हो. गाने में यश है, कीर्ति है और अब तो धन भी है. लेकिन ये तीनों तो आप प्रतिभाशाली और मेहनती और अपनी धुन के पक्के हों तो और कई क्षेत्रों में भी पा सकते हैं. जैसे लता मंगेशकर के गाने की स्वर्ण जयंती पर बंबई के शिवाजी पार्क समारोह में बोलने आए सुनील गावसकर. बल्लेबाजी के इस वामन अवतार ने तीन डग से क्रिकेट की दुनिया नाप ली है. यश, कीर्ति और धन उन्हें भी भरपूर मिला है और उनकी कीर्ति ध्रुव तारे की तरह रहनी है. लेकिन एक मामूली भारतीय के जीवन को उसकी निजता में जिस तरह लता मंगेशकर के स्वर ने छुआ है वैसा सुनील गावसकर के बल्ले ने तो नहीं छुआ.

गाना क्रिकेट खेलने से कहीं अधिक स्वाभाविक, व्यापक और सार्थक है. कोई आदमी-औरत नहीं है जिसने गाया न हो – प्रेम में, सुख में, दुख में, विषाद में, समर्पण में, शरारत में यानी भावावेग की कोई न कोई अभिव्यक्ति तो ऐसी है ही जो किसी के जीवन में गाने से हुई हो. गाने में ऐसा कुछ आदिम है जो हम सब के जीवन में है. भारतीयों के जीवन के इस आदिम तत्व में लता मंगेशकर कहीं न कहीं स्वर की तरह घुली और खुबी हुई हैं. इतना व्यापक और गहरा स्पर्श इस देश के और किसी भी गाने वाले या गाने वाली का नहीं है.

फिल्मों की टीन टप्परी दुनिया में वैसे भी कोई ज्यादा देर तक नहीं टिकता. पचास साल तो बहुत बड़ा काल है. इतने में कम से कम पांच पीढ़ियां बीत जाती हैं. सदाबहार कहे जाने वाले हीरो, हमेशा सोलह साल की बनी रहने वाली तारिकाएं, संगीत निर्देशक, गायक, गीतकार, कहानीकार सभी मौसम के साथ चढ़ते और उतर जाते हैं. उस बाजार में कोई किसी का नहीं होता. बॉक्स ऑफिस पर जो जितना चल जाए उतना ही उसका करियर है. लता मंगेशकर ने जब पहला गाना गाया तो वे तेरह बरस की थीं. और हालांकि उनके घर में गाने-बजाने की परंपरा थी और पिता मास्टर दीनानाथ का तो ट्रूप ही था और वही लता मंगेशकर के पहले गुरु थे. लेकिन यह घर और घराना उनके काम नहीं आया. पहले माता साथ छोड़ गईं और फिर पिता. लता मंगेशकर के काम आई उनकी अद्भुत और जन्मजात प्रतिभा, कंठ और लगातार रियाज करते रहने और अपने को बेहतर बनाते रहने की लगन. फिल्मी दुनिया की लगातार खिसकती रेत में लता जी बचपन से ले कर अब बुढ़ापे के तिरसठ साल तक अगर पैर जमाए मजबूती से खड़ी रहीं तो इसका कारण उनका अपना गाना ही है. अगर उन्होंने कहीं समझौता नहीं किया और अपने आत्म-सम्मान को कहीं आंच नहीं आने दी तो सिर्फ इसलिए कि इस चरित्रवान स्त्री को अपनी प्रतिभा पर गजब का भरोसा था और है.

पचास साल से वे गा रही हैं और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में सबसे ज्यादा गीत गाने के कीर्तिमान को छोड़ भी दें तो भारतीय सिने संगीत में वे हमेशा शिखर पर रही हैं. इतने साल कोई शिखर पर नहीं रहा, लेकिन लता मंगेशकर को कोई चुनौती नहीं मिली. बहुत कहा गया कि उन्होंने अपना एकाधिकार जमा रखा है. वे अपनी प्रतिभा और अपने स्थान का दुरुपयोग करती हैं और संगीतकारों और निर्माताओं को धौंस पट्टी में रखती हैं. वे नयी गायिकाओं को उभरने और जमने का मौका नहीं मिलने देतीं. सिने संगीत में उनकी छवि सर्वसत्तावादी और तानाशाह महिला की बनाई गई और तमाम नयी गायिकाओं को उनकी ज्यादती की शिकार. बंबई की फिल्मी दुनिया में और उनकी गलाकाटू होड़ में सारे हथियार और हथकंडे जायज हैं. इनको लता मंगेशकर जैसी समझौता न करने वाली और अपनी प्रतिभा की ऐंठ पर बल खाए खड़ी रहने वाली महिला को कीचड़ में रगड़ने और धूल में मिला देने में अपार आनंद ही मिल सकता है. उन्होंने कोशिश भी बहुतेरी की लेकिन लता मंगेशकर ने न तो मैदान छोड़ा न अपनी गरिमा से नीचे उतर कर गाना गाया.

लता की आवाज बर्फीले पहाड़ों को काट कर आती और ठंडी धार की तरह अंदर उतर जाती हैफिल्मी दुनिया की उस काजल की कोठरी में अगर अभी भी वे अपनी सफेद धोती में ठसके से बैठ कर गाती हैं तो यह उनकी चारित्रिक और धारणा शक्ति की विजय है. फिल्मी दुनिया की शायद ही किसी हस्ती का भीतर और बाहर इतना दबदबा और सम्मान हो जितना लता मंगेशकर का है. उन्होंने ज्यादातर सिनेमा के लिए गाया और फिल्मी संगीत को संगीत के संसार में कोई महत्व नहीं मिलता. लेकिन भीमसेन जोशी जैसे हमारे जमाने के दिग्गज गायक लता मंगेशकर का सम्मान करने शिवाजी पार्क आए थे और कहा कि लता बाई तो महाराष्ट्र को भगवान की देन हंै. कुमार गंधर्व भी पिछले पचास साल के सर्जक गायकों के अग्रणी थे और उनके मन में भी लता मंगेशकर के लिए प्रेम और सम्मान था. अमीर खां साहब क्या सोचते थे मुझे मालूम नहीं. लेकिन शायद ही ऐसा कोई शास्त्रीय गायक हुआ है जिसको लता मंगेशकर ने प्रभावित न किया हो. यह सम्मान फिल्मी दुनिया की किसी गाने वाली या गाने वाले को ही मिला हो, ऐसा नहीं. देश के सभी क्षेत्रों के सभी अग्रणी लोगों में लता मंगेशकर की इज्जत है. सिर्फ सिनेमा के गाने गा कर कोई ऐसी सर्वमान्य लोकमान्यता पा ले तो इसे अद्भुत ही माना जाना चाहिए.

मामूली सड़क छाप आदमी से लेकर अपने क्षेत्र के शिखर पर बैठे व्यक्ति तक का कोई न कोई गाना है जिसे लता मंगेशकर ने गाया है. लेकिन मैं पाता हूं कि सिनेमा का ऐसा कोई गाना नहीं है जो मेरे मर्म में कांटे की तरह खुबा हो और जिसे बार-बार गुनगुना कर मैं राहत और मुक्ति पाता हूं. अपन संगीत के मामले में कोई नकचढ़े आदमी नहीं हैं कि फिल्मी यानी लोकप्रिय संगीत को हिकारत की नजर से देखें. यह भी नहीं कि जिस इंदौर में अमीर खां साहब और देवास में कुमार गंधर्व का गाना सुना उसी इंदौर में जन्मी लता बाई के लिए अपने मन में कोई मोह और सम्मान नहीं है. मेरे एक मामा हारमोनियम अच्छा बजाया करते थे और दफ्तर के बाद के टाइम में संगीत की ट्यूशन किया करते थे. उनका दावा था कि उन्होंने लता को बचपन में गाना सिखाया. मैं तब भी मानता था कि यह गप है क्योंकि लता मंगेशकर का तो जन्म ही सिर्फ इंदौर में हुआ था. उनके पिता अपना ट्रूप ले कर आए थे और चले गए थे. फिर भी इंदौर वालों को गर्व है कि लता मंगेशकर उनके  यहां जन्मीं. वहां उनके नाम पर उनके जन्मदिन पर सुगम संगीत का एक लखटकिया पुरस्कार भी दिया जाता है. अब शायद वहां निराशा हुई होगी कि खुद लता बाई अपने को महाराष्ट्र की कन्या मानती हैं.

लता मंगेशकर का जो गाना मुझे आज भी विचलित करता है वह उन्होंने फिल्म में नहीं गाया. बत्तीस साल पहले दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में चीनी आक्रमण के बाद लता मंगेशकर ने प्रदीप जी का लिखा -ऐ मेरे वतन के लोगों- गाया था जिसे सुन कर जवाहरलाल जी की आंखों से आंसू टपकने लगे थे. उन्होंने लता मंगेशकर को कहा भी था -‘बेटी, तूने आज मुझे रुला दिया.’  वे एक पराजित प्रधानमंत्री के आंसू नहीं थे. वे विश्व शांति के एक ऐसे महापुरुष के आंसू थे जिसे राष्ट्रहित की हिंसक राजनीति ने छल लिया था. मैं उस कार्यक्रम में नहीं था. इंदौर  में बैठा नई दुनिया अखबार निकालता था और चीनी आक्रमण से अपने को उसी तरह छला हुआ और घायल पाता था जैसे जवाहरलाल और अपना पूरा देश. नेफा में हुई पराजय पर रोना नामर्दी लगता था. लेकिन मोर्चे की खबरें पढ़-पढ़ कर और छाप-छाप कर मन में तो रुलाई आती ही थी. लता मंगेशकर का -ऐ मेरे वतन के लोगो- सुन कर और गा कर मन पानी-पानी हो जाता. लगता कि अपन वह शहीद भी हैं जो संगीन पर माथा रख कर सो गए और वह वतन के लोग भी हैं जो अमर बलिदानी को याद करके रो रहे हैं. एक राष्ट्र की आहत आत्मा की आवाज थी जो लता मंगेशकर के गीले गले से निकली थी और करोड़ों लोगों को रुला रही थी. मैं हमेशा गाती हुई लता मंगेशकर और रोते हुए पितृ पुरुष जवाहरलाल को अपनी डबडबाई आंखों के सामने पाता और रुलाई दबाता.

चीन से पराजय का वह अपमान अब समय के कागज पर धुंधला हो कर बहुत हलका पड़ गया है. लेकिन आज भी – ऐ मेरे वतन के लोगों – सुनता हूं तो जैसे घाव में खून भर आता हो और टपकने लगता हो. ठंड और अंधेरे और हताशा के दिन आसपास मंडराने लगते हैं. एक जवान होता लड़का अधेड़ शरीर में देव की तरह आ कर कांपने लगता है. लता मंगेशकर की आवाज बर्फीले पहाड़ों को काट कर आती और ठंडी धार की तरह अंदर उतर जाती है बल्कि आर-पार हो जाती है. लता मंगेशकर ने और भी कई सदाबहार गीत गाए हैं. अपन भी कोई ऐसे लाइलाज देशभक्त नहीं हैं कि हमेशा राष्ट्रीय अपमान की ही याद करते रहें. लेकिन मेरे मन में लता मंगेशकर कुरबानी से जुड़ी हुई हैं. मुझे लगता है कि तेरह बरस की उमर से गाने वाली इस महिला ने मां-बाप का वियोग सहा. अपने भाई-बहनों को पाल-पोस कर बड़ा किया. अविवाहित रहीं. अपना जीवन संग्राम एक क्षत्राणी की तरह अपने गाने से लड़ते हुए जीता. सरहद पर लड़ने वाले वीर जवानों से कोई कम नहीं है यह वीरांगना. इसलिए जब किसी पत्रिका में पढ़ा कि लता मंगेशकर ने राजसिंह डूंगरपुर से चुपचाप शादी कर ली तो ऐसा लगा कि उन्हें अपवित्र करने की कोशिश की गई हो. राजसिंह भी हमारे इंदौर में क्रिकेट खेलते थे और संगीत के शौकीन हैं. और लता मंगेशकर भी हमारे इंदौर में जन्मीं और अनन्य गायिका हैं और उन्हें भी क्रिकेट का बेहद शौक है. अपने परिवार और गायन के लिए अपने मौज-मजे को कुरबान करने वाली कोयल पर कोई कीचड़ कैसे उछाल सकता है? उनका गाना सुन कर आंखें गर्व और आनंद से उठ जाती हैं. क्यों नहीं लगता कि वे एक फिल्मी गायिका हैं?